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रेखा-चित्र
आस्था के शिखर
डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच हिमगिरिके धवल, आलोकस्नात, शृंग को समतल उपत्यकामें मुस्कराता हुआ देवदारु सदृश दीर्घ, देदीप्यमान, समुन्नत तनमें लिपटा हुआ सरल मन, ज्ञानकी भास्वर रश्मियोंसे आलोकित वन-बीथियोंके पावन निझर एवं अट्टहाससे समल्लसित पर्वत-सरिताओंके विस्तीर्ण तीरपर समासीन भव्यजनोंकी मण्डलियोंसे सेवितउन्नत वदनपर उदात्त मनकी आभाको विकीर्ण करता हआ मानो प्रकाशका पुंज ही हो । जिसने अपना प्रकाश हा सदा विकोण किया; भले ही तिमिराच्छन्न सघन निशाके वातावरणमें घटाटोप मेघोंके मण्डल मँडराते रहे हों या दुर्दिन की भाँति तीव्र गर्जन, वर्षण, धारा-सम्पात एवं उल्कापात ही क्यों न होता रहा हो ?
__इकहरे, गौरवर्ण, लम्बे, छरहरे शरीरपर वृद्धावस्थाकी सिकुड़न किसी द्वीपकी रचना करती हुई भूकम्पका स्मरण दिलाती है, साथ ही अपनी अकम्प दढ़ता एवं स्थिरताका बोध कराती है। न जाने कितने प्रभंजन आए और गए, वात्याचक्रोंके प्रचण्ड अंधड़ोंसे प्रकम्पित न होनेवाला दृढ़ मानस आज भी तत्त्वज्ञानके शिखर पर अविचल है । समाजकी धाराको मोड़ देनेवाला यह व्यक्तित्व आज भी विलक्षण है, निराला है।
प्रायः यह कहा जाता रहा है कि प्रतिभावान कलाकार, साहित्यकारके जीवनमें संघर्ष होना अनिवार्य है । संघर्षकी भूमिमें ही ऐसे तन्तु जन्म लेते हैं जिनसे कला तथा साहित्यका जन्म व विकास होता है । पण्डितजीको बचपनसे ही संघर्षकी भूमिमें पलना पड़ा । किन्तु यहाँ तक कुछ नहीं था। जिस प्रकार वन-खण्डमें या उपत्यकाओंपर बढ़नेवाले तरु-पादप मारुतके साथ केलि करते हुए आहत नहीं होते, वही स्थिति अभाव और दरिद्रतामें उन्नत होनेवालोंकी प्रारम्भिक दशा होती है। किन्तु संघोंसे सतत जूझनेवाले अपनी दृढ़ता का कसा परिचय देते हैं, यही मनुष्य जीवनकी सफलताकी सबसे बड़ी कहानी है। उसे शब्दोंके वाग्जालमें कहनेसे क्या लाभ है ? इतना संकेत भर पर्याप्त है कि धैर्यको शिलापर आसीन व्यक्ति आँधियोंके थपेड़े लगनेपर भी जो चंचल नहीं होते, वास्तवमें वे ही महान हैं, धन्य हैं ! किन्तु सामान्य जन विचलित होते हैं जो स्वाभाविक है । परन्तु सफल साहित्यकार इन दोनोंके बीच सामंजस्य स्थापित कर चलता है, तभी वह सरस्वतीके मन्दिरमें अपने भावोंका अर्घ्य लेकर सम्यज्ञानदीपके द्वारा सच्ची उपासना कर सकता है। मूर्तिको दीपक दिखाना ही सच्ची आरती व पूजा नहीं है, वरन निर्मल भावोंके पात्र में ज्ञान लौसे पवित्र वर्तिकाको प्रज्ज्वलित करना ही सरस्वतीकी सच्ची आराधना व पूजा है । पण्डितजीका सम्पूर्ण जीवन आराधनासे ओतप्रोत रहा है ।
श्रेयस्कर कार्योंमें प्रायः विघ्न आते हैं । कभी-कभी तो व्यवधानोंकी माला ही लम्बी कतार बाँधकर खड़ी हो जाती है। किन्तु मनस्वी व्यक्ति विघ्न-बाधाओंकी चिन्तामें डूबते नहीं है। वे सदा उनके बीच मुस्कराते रहते हैं । यही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि होती है। वे अपने कार्यमें व्यापत तथा संलग्न रहते हैं । न जाने कितने आवरण एक-एक कर हटते जाते हैं । फिर, वही स्वच्छ स्थिति निर्मित हो जाती है।
जीवनके अनेक कार्यों से योग्य आजीविकाको प्राप्ति होना महान् पुण्यका कार्य माना जाता है । मनोनकल कार्य-व्यापारकी प्राप्ति होनेपर तथा कार्यके सन्तोषजनक परिणामके विपरीत सामाजिक दबाव होनेपर यदि उससे हटना पड़े, तो कितनी व्यथा होती है ? इसका अनुमान पाठक ही लगा सकते हैं । परन्तु धीर
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