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'७४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ व्यक्ति अपनी नीति कभी नहीं छोड़ते । सिद्धान्तके पीछे पण्डितजोने सब कुछ छोड़ा, पर अपनी धर्म-नीतिसे कभी विमुख नहीं हुए।
___ सामाजिक सैलाबके सैलाब उमड़े, चर्चा-वार्ताओंका दौर चला, लेख मालाएँ लिखी गईं, समाज-सुधारक के नामपर कीचड़ भी उछाला गया, किन्तु आपकी जड़े सुदूरगामी क्षेत्रों तक इतने आयामोंमें विस्तृत रहीं कि बड़े-से-बड़े तूफान, आँधी, बवंडर आपका उन्मुलन नहीं कर सके। आप सभी अवस्थाओंमें हिमालयपर स्थित देवदारुकी भाँति अटल अवस्थित रहे। आप मलमें इतने गहन हैं कि आपके तर्क, प्रमाण, आगम व युक्तियाँ अकाट्य हैं। अभी आपको हिलानेकी किसीमें सामर्थ्य नहीं है।
शरीरकी ढलती हुई अवस्था सम्प्रति आपको चल-विचल करने लगी है जो दीर्घ कालकी रुग्णताका परिणाम है । किन्तु अनेक युगोंसे जिस तत्त्वज्ञानकी भूमिकापर उन्मुक्त वातावरणमें आत्मनिर्भर होकर स्वतन्त्र रूपसे साहित्योपजीवी रहकर अपना आदर्श प्रस्तुत किया है, वही जीवनमें अथसे इति तक एक विशाल वृत्तके रूपमें ज्ञान-बिन्दुओंको सार्थकता प्रदान करेगा।
___ उपासककी उपासना अखण्ड की है, कालिक की है, नित्य की है, ध्रुव ही शाश्वत है । सम्पूर्ण जीवनका इतिवृत्त ध्रुवसे प्रारम्भ होकर ध्रुव तक ले जाता है। यदि ध्रुवधामको पा लिया, तो सब कुछ पा लिया । श्रद्धेय पण्डितजीके शब्दों में
___ 'अतीत कालको देखते हुए मेरा वर्तमान पर्याय-जीवन एक बिन्दुके बराबर भी नहीं है । जब वर्तमान शरीराश्रित जीवनको देखते हैं, तो अवश्य ही पिछले पांच वर्ष अनेक आपदाओंसे ओत-प्रोत प्रतीत होते हैं। फिर भी, वह मेरा अपना जीवन नहीं है। क्योंकि मेरा अपना जीवन ज्ञान-दर्शन स्वभावी है । उसमें अभी तक
भी खण्ड पड़ा है और न भविष्यमें खण्ड पड़नेवाला है। पर्यायका स्वभाव बदलना है। वह बदलती रही है और बदलती रहेगी। संयोगी जीवनमें संयोगका होना और उसका बिछुड़ना भी क्रमप्राप्त है । उसमें इष्टानिष्ट बुद्धिसे सुख-दुःखकी मान्यता होना यही अज्ञान है । एक ज्ञान-मार्ग ही ऐसा है जो अज्ञानको पूरी तरहसे समाप्त करने में समर्थ है । इसलिये वही उपासना करने योग्य है। यह मेरा जीवन-वृत्त है।"
अनवरत हिमपातकी ठिठुरनेसे अकड़ते हुए वृक्ष भले ही धवल तथा जीर्ण-शीर्ण प्रतीत हों, किन्तु वृद्धताकी ठिठुरन जिनकी बुद्धिको स्पर्श तक नहीं करती, वे श्वेत खद्दरधारी, जाकिट तथा सफेद टोपीको पहने हए उपनेत्रोंसे सुशोभित शरीरसे बुढ़ापेकी दस्तक देते हों, पर युवा मनकी भाँति आज भी अपने अध्ययन, लेखन तथा प्रवचनमें किसी प्रकारकी शिथिलता नहीं आने देते ।।
भौतिक प्रकृतिकी रंगशालामें विधि रंगोंका परिवर्तन होना स्वाभाविक है प्रभातकालीन बालातप और सन्ध्याकालीन सिन्दूरी अरुणिमा जीवनके उत्थान-पतनके मानों विविध चित्रोंको चित्रित करती हई लक्षित होती है । पण्डितजीके जीवनने भी कई उतार-चढ़ाव देखे हैं और उनके विविध रूप-रंग भी हैं, किन्तु जैसे रंगस्थलीकी भूमिमें कभी कोई परिवर्तन परिलक्षित नहीं होता, वैसे ही पण्डितजीकी प्रज्ञा तथा ज्ञानका आकलन करनेवाली मेधा आज भी ज्यों की त्यों अपनी प्रबुद्धताका परिचय देती है। यथार्थमें जगत्की कर्मशालामें रंग-रूपके सिवाय क्या है ? जो भी आव.र्षण है, वह रूपका है, रंग का है। नवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा इस रहस्यको जानती है, वास्तविकताको पहचानती है। इसलिए वह आकर्षण-विकर्षणों तथा कायामायाकी आशक्तिसे संश्लिष्ट नहीं होती।
काश! हममें यही प्रज्ञा होती, तो साधु सदृश उजले मन तथा सिद्ध समान पावन चैतन्यको निर्मल ज्ञानको धारामें सम्यक् रूपसे आकलन कर भलोभाँति शब्दोंको अभिव्यक्ति प्रदान कर पाते ।
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