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तुतीय खण्ड : ८७
विद्वान और नेता दिये हैं। इनके हो साथी और सहाध्यायी सिद्धान्तशास्त्री पण्डित फूलचन्द्रजी है जिन्होंने छात्रावस्थामें ही अपनी करणानुयोग प्रौढ़ताका परिचय दिया था। और गरुओंको भी प्रभावित किया था । और उसके बलपर अनेक स्थान भी प्राप्त किये थे । तथा द्रव्यानुयोगकी भी साधना की थी। स्थानभ्रष्टापि शोभन्ते
किन्तु संस्थाओंको बाह्याभ्यन्तर परिवर्तनशील परिस्थितियों और अपनी मान्यताओंके कारण करणानुयोगके मूर्धन्य पण्डित तथा प्राकृत वाङ्मय साधक शास्त्रीजीको संस्थाओंका मोह अनेक बार छोड़ना पड़ा,
ये जिनवाणी साधनाके समस्त रूपों पठन-पाठन, वाचन-प्रवचन, सम्पादन-प्रकाशनमें अडिग रहे। और अपनी इस असाधारण उपलब्धिका अपने सामाजिक (सुधारक या निमित्त पोषक, आध्यात्मिक आदि) रूपोंमें भी उपयोग करते रहे हैं। तथा यह कम आश्चर्यकी बात नहीं है कि अपने स्वाध्याय, लेखन और चिन्तवनके बलपर ही सिद्धान्तशास्त्रीजी किसी भी छिपे कोनेमें बैठे-बैठे भी चमकते रहे हैं।
यह भूतार्थ है कि शास्त्रीजीकी इन्हीं क्षमताओंके कारण गुरुओंके सम्मानवर्द्धक, साथियोंके प्रकाशक और अनुजोंके प्रतिष्ठापक भा० दि० जैनके संस्थापक महामंत्री स्व० पण्डित राजेन्द्रकुमारजीने संघसे श्री जयधवलाके प्रकाशनकी योजना चलायी थी। और धवला-प्रकाशक मण्डलीको कह दिया था फूलचन्द्रेष्वनादरः, कि त्वमेकः प्रभुः" । शास्त्रीजीके एकांकी प्रयाससे अब जयधवलाका प्रकाशन पूर्णा पर है। भा. दिगम्बर जैन संघको भी इसकी पूर्णा पर विशेष आयोजन करना चाहिये ऐसा मेरा विचार था । क्योंकि आज निश्चय या द्रव्यादृष्टिके मुखर वक्ता तथा व्यवहार या पर्यायदृष्टिके घोर आचरक यह नहीं जानते कि सन् १९४० से ही भा० दि० जैनसंघ तथा जैन सन्देशके द्वारा सीमित रूपमें समर्थित तथा प्रचारित कानजी स्वामीकी कथनी और अब पंथको संघके विचार-स्वातंत्र्यमय वातावरणमें शास्त्रीजीने ही प्रथम शास्त्रीय भूमिका दी थी। और हम अनुजोंके विनोद "पण्डितजी आप तो निमित्त प्रमखतासे उपादान क्षमताकी भूमिकामें पहुँच गये है। और हम जहाँके तहाँ 'मज्झे चिट्ठ' ही है" को सुनकर मस्करा देते थे । अपने ज्ञान और उसकी साधनामें ही पूरा जीवन लगा देने वाले शास्त्रीजीको सविनय प्रणाम ।
बहु आयामी विद्वत्ता .डॉ० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य, वाराणसी
विद्वद्वर पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री वक्ता भी है. लेखक भी हैं, सम्पादक भी हैं, अध्यापक भी हैं और समाज सेवी भी। जब वे प्रवचन या भाषण करते हैं तो श्रोता प्रसन्न होते हैं और कुछ लेकर जाते हैं । अनेकान्त आदि पत्र-पत्रिकाओंमें प्रकाशित लेख कितने महत्त्वपूर्ण होते हैं, इसे उनके पाठक अच्छी तरह जानते हैं। भारतीय ज्ञानपीठ आदिसे प्रकाशित-सम्पादित उनके सर्वार्थसिद्धि, ज्ञानपीठ पूजांजलि, धवला, जयधवला आदि ग्रन्थोंको जिन्होंने पढ़ा है वे उनकी सम्पादन-कुशलतासे भी परिचित होंगे । पण्डितजीने संस्थाओंमें अधिक अध्यापन नहीं किया, किन्तु जो थोड़े-बहुत लोग उनके अध्यापनसे लाभान्वित हुए है वे उनकी अध्यापन शैलीको भी जानते हैं । वे प्रश्नों एवं शङ्काओंके समय पूर्ण गम्भीर रहते हैं और उनका समाधान करते है। सिद्धान्तविदोंमें तो वे प्रमुख हैं ।
पण्डितजीकी समाज-सेवा भी कम नहीं है । संस्था खड़ी करना, उसे आगे बढ़ाना और गजरथ-विरोध जैसे आन्दोलनोंमें आगे रहना जैसी सामाजिक प्रवृत्तियोंमें उन्होंने खूब भाग लिया है।
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