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८६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
वर्तमान दि० जैन पाण्डित्यकी प्रमुख कड़ी • प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला, वाराणसी
युक्ति शास्त्राविरोधिवाक्
जिनशासन या जैन - विद्याका उद्गम यदि तीर्थकरकी दिव्यध्वनि है तो उसकी कसौटी दृष्ट और इष्टका अविरोध अथवा युक्ति है । और युक्तिकी पुष्टि वह (आगम ) स्वयं है । इसीलिए 'आगम चक्खू साहू' मय जैनसंघमें शास्त्राभ्यासीके या स्वाध्यायी गृहस्थकी अपनी असाधारण स्थिति है । यद्यपि वीतराग केवली प्रभुकी दिव्यध्वनि ही होती है किन्तु उसे शब्द वाक्य रूपसे गणधर प्रभु ग्रंथते हैं इसलिए वह 'ग्रन्थ 'रूपको प्राप्त होती है । फिर इनके शिष्यों-प्रशिष्यों; पूज्य आचार्यों द्वारा गुरु-शिष्य परम्पराकी अनेक पीढ़ियों तक सुनकर कंठस्थ रखनेके कारण 'श्रुत' रूपमें चलती है । और जब स्मृति या क्षयोपशम हीनतर होने लगे तब दिव्यध्वनिके 'त्राण' (सुरक्षित रखने के लिए ) गुणधर आदि आचार्योंने उसे लिपिबद्ध कराके 'शास्त्र' रूपसे भावी पीढ़ियोंके लिए छोड़ दिया है । इस विधिसे हमारी चक्षुष्मत्ताका आधार शास्त्र या आगम है । क्योंकि अनेक युगपरिवर्तनोंमें हुए वीतराग प्रभुओंने समय- समयपर उसका प्ररूपण मात्र किया है । वस्तु स्वभाव या तत्त्वप्ररूपणा तो अनादिकाल से यही चली आ रही ( आगम ) है । और आगे भी चलेगी, क्योंकि वीतरागीका
ज्ञान शाश्वत है ।
जैन पण्डित परम्परा
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साधु और शास्त्राभ्यासी गृहस्थोंकी पूरकता और पूर्यता भी काफी प्राचीन है । 'श्रुत' के बाद 'शास्त्र' रूप देनेवाले उत्कट महाव्रती साधु ही थे । और ऐसा माना जाता था कि ये आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी ही धर्मोपदेशके अधिकारी हैं । क्योंकि ये ख्याति - लाभ - पूजासे परे होते थे । किन्तु काल दोषसे ऐसा भी समय आया जब शास्त्राभ्यासी गृहस्थोंको यह दायित्व सम्हालना पड़ा । ऐतिहासिक युगमें इस परम्पराको आदिपुरुष संभवतः पंडित आशाधरजी थे । इनके बाद बुधजन, दौलतराम द्यानतराय, भागचन्द्र आदिकी भाषामय रचनाओंके रूपमें यह धारा प्रवाहित रही । तथा जिनवाणी साधक पंडित टोडरमलजी आदिके स्वान्तः सुखाय प्रयत्नके फलस्वरूप गुरुओं के गुरु पूज्यश्री १०५ गणेश वर्णी महाराज गुरु गोपालदास से वर्तमान पण्डितमण्डलीको प्राप्त हुई हैं । पूज्य गणेश वर्णीजीने तो जिनवाणीका आद्य-ज्ञान पाते ही श्रुतकालीन आचार्योंके चरण चिह्नोंपर यथा-काल एवं काय चलनेका निश्चय करके गृह त्यागी रूपसे ही शासनसेवाका पुनीत कार्य अपनाया था । किन्तु गुरु गोपालदासजी भावी पीढ़ीकी सुखशीलताको आँक सके थे । अतः उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि धर्मशास्त्रोंकी आजीविका का साधन शास्त्रका पठन-पाठन, वाचनादि न होकर यथासम्भव असि - मसि कृष्णादि स्वतन्त्र वाणिज्य ही होने चाहिये । तभी जीविका और जीव-उद्धार कलाओंकी खिचड़ी नहीं होगी ।
गुरु गोपालदास परम्परा
प्रातःस्मरणीय गुरुजी के प्रधान शिष्यों स्व० पं० देवकीनन्दन, खूबचन्द्र वंशीधर, मक्खनलालजी आदिने यद्यपि आजीविकोंकी दृष्टिसे गुरुजीका अनुगमन नहीं किया, किन्तु तत्कालीन समाज और परिस्थितियोंके कारण स्वल्प- सन्तुष्ट जीवन व्यतीत किया। गुरुजीके प्रशिष्यों में स्व० शार्दूलपण्डित राजेशकुमारजी और राजस्थान केशरी स्व० पं० चैनसुखदासजीने गुरुजीकी परम्पराको बढ़ानेका पर्याप्त प्रयास किया । और गांधीजी के आश्रमकी त्याग एवं कष्ट सहिष्णुकी परम्पराको अपनी संस्थाओंमें चलाकर समाजको क्रमशः अच्छे
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