________________
द्वितीय खण्ड : ६७
ने. : यह टिप्पणी सर्वप्रथम आपकी मौलिक कृति थी? फू. : मौलिक थी। ने. : क्या शीर्षक था उसका ? फ. : भावमन । भावमन जो है ज्ञानकी समग्र पर्याय है । ने. : और कानजी स्वामीसे सम्पर्क कब हुआ आपका ? फू. : कानजी स्वामीका सम्पर्क तो भाई १९५९ के बादकी बात है। ने. : वे आपके सम्पर्कमें आये कि आप उनके सम्पर्कमें आये ।
फू. : ऐसा हुआ कि यह हमारी प्रसिद्धि तो हो गई थी कि हम थोड़ा अध्यात्म जानते हैं तो विद्वत् परिषद्के हम मंत्री थे और सन् १९४८ की बात होगी शायद । तो सोनगढ़में विद्वत् परिषद्को लेकरके हम गये थे। उससे हमारा सम्पर्क हुआ। १०-१२ वर्ष छूटा रहा । फिर यह अध्यात्मके ऊपर खूब चर्चा चली जैन पत्रों में। तो अध्यात्मके ऊपर चर्चा विशेष चलनेसे हमें लगा कि ईश्वरवादी नहीं हैं हम, तो व्यक्तिवादी हैं और व्यक्ति ही गिरता है गिरते ही उठता है ऐसा हमारा जीवन रहा, इसलिए हमने फिर वह जैनतत्त्वमीमांसा नामक एक पुस्तक लिखी।
ने.: और यह राष्ट्रीय क्षेत्रमें जब आए तो आप तो सन् १९१८-२० से आ गये । फू. : सन् १९२० से ही आ गये । ने. : क्या-क्या मुख्य कार्य किये आपने ? | फ.: राष्ट्रीय क्षेत्रमें जेल भी गये। ने.: कौनसे वर्ष में ? फू. : 'भारत छोड़ो' आन्दोलनमें हम जेल गये हैं।
डॉ० नेमीचन्द्र जी जैन पण्डित जी से भेंटवार्ता लेते हुए
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org