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भेंट-वार्ता : १
मैं शुरूसे क्रान्तिकारी रहा हूँ पं० फूलचन्द्र शास्त्री / डॉ० नेमीचन्द्र जैन
इन्दौर, ८ जनवरी, १९८५ डॉ० नेमीचन्द्र जैन : जहाँ तक मैं आपके बारेमें जान पाया हूँ, आपका जन्म ११ अप्रैल, १९०१ में सिलावनमें हुआ। आप हजारों वर्ष तक रहें, यही हमारी शुभाकांक्षा है ।
फूलचन्द्र जैन : यह पर्याय रहे या न रहे, यह आत्मा तो रहेगा । ने, : आपका विवाह सन् १९२२-०३ ई० में हुआ ?
फू. : १९२१ में असहयोग आन्दोलन चला, उसके बाद विवाह हुआ। फिर पठन, पाठन और लेखन-यही तीन काम तो हमारे बराबर चलते आ रहे हैं।
ने. : समाजमें आपका आना-जाना बराबर बना रहा । फू. : समाजमें आना-जाना तो आन्दोलन के रूपमें हुआ।
ने. : यह तो बहुत अच्छी बात है, आन्दोलन करना बहुत कठिन है और आन्दोलन कराना तो और भी अधिक कठिन है। आपने सामाजिक आन्दोलन कबसे शरू किया?
फू. : सामाजिक आन्दोलन तो हमारा सन् १९२० से ही चालू हो गया था। सबसे पहले यह असहयोग आन्दोलन चला. तो हम पाठशालामें पढ़ाते थे, वहीं व्याख्यान देना शुरू कर दिया। इस कारण कलेक्टर की तरफसे सूचना आई कि आपकी पाठशाला बन्द कर दी जायेगी। सेठने हमसे पूछा कि भाई, तुम किस तरहसे बन्द कर सकते हो, यह हल्ला-गुल्ला करना। उस समय यह हल्ला-गुल्ला ही कहलाता था। हमने मट्ठी-फण्ड खोला । लोगोंमें जाकर आठवें दिन इकट्ठा करना और गरीबोंमें बाँटना ।
ने. : अच्छा. १९२१ में समाजकी दशा क्या थी ?
फ.: लोग उस समय मर्यादाका पालन करते थे। शहरी जीवनमें गिरावट आ गयी। सन् १९३५४० से सरकारी कालेजोंने गिरायो ।
ने. : यानी कालेजोंने हमारी मर्यादाको कम किया था ।
फू. : कम किया है; क्योंकि हम भी पढ़े हैं। स्कूल-पाठशालाओं में पढ़े हैं। हम धर्मको भूलने लगे। मन्दिर जाना जरूरी है, उसके बिना भोजन नहीं मिलता था। पहले माँ पूछती थों-मन्दिर हो आये। यदि हमने कहा कि नहीं गये, तो भोजन नहीं मिलेगा। परन्तु जिस समय पाठशालामें पढ़ने लगे, तो फिर मन्दिर गौण होने लगा । पाठशाला मन्दिर तो हैं, परन्तु वह आवश्यकताकी पूर्ति नहीं करते हैं। पाठशालामें शाब्दिक ज्ञान और मन्दिरमें जीवनका ज्ञान होता है।
ने. : अब बताइये आप पण्डित कैसे बने ? पहले तो आप पाठशालामें थे; अब पण्डित कैसे बने ? कौनसा सन् था?
फू. : हम खुरई, बीना खजुरियामें जो २-३ मील पर था, तो वहाँ पर पढ़े भी हैं स्कूलमें और वहीं पर जाकर अपनी मौसीके लडकेके पास जाकर तत्त्ववाद भी सीखा ।
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