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६६ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
ने. कौन-सा सन् था वह :
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फू. होगा यही सन् १९१५, १६, १७ का ।
ने. : " तत्त्वार्थसूत्र" के बाद "भक्तामर स्तोत्र" सीख लिया ।
फू.: बाँचना सीख लिया । अर्थं नहीं आया। जैसे कोई पढ़ता है तो पढ़कर तत्त्वार्थसूत्र सुना दिया । फिर उसके बाद हम आये थे तो हमारे एक गढ़रिया मामा थे ।
ने. : कौन से मामा ? गढ़रिया मामा । गढ़रिया मामा क्या होते हैं ?
फू. गढ़रिया गढ़ा गांवके रहनेवाले
तो वह एक लड़का यहाँ आया था आपके इन्दौरमें पढ़नेके लिए । हमारे साथमें स्कूलमें पढ़ता था । उन्होंने आकर कहा कि ये ससुरे धूलमें लोटता फिरता है, तेरा साथी देख इन्दौर में बड़ा पण्डित पहुँच गया है पढ़नेके लिए बस हमको लग गया।
. : आप चले थे वहाँ से ।
फू. तो फिर हमारे काकाने हमें यहाँ पर भेज दिया ।
ने. : यह आपकी शुरूआत है । आप कब तक रहे ?
फू. : यही वर्ष छः महीने रहे । वहाँ पढ़े, फिर मुरैना चले गये । ने. : तो इन पाठशालाओंमें कब तक पढ़ते रहे, कितने वर्ष ? फू. : ५-६ वर्षं ।
.: इसके बाद आपको लगा कि आप पण्डित हो गये ।
मुरैनामें २|| - ३ वर्ष रहे ।
फू. : ऐसा है कि साढूमल में २॥ - ३ वर्ष रहे | उसके बाद, बात यह है कि उस समय में यह था कि सरकारी परीक्षा नहीं दिलाना अभ्यास करना। वह तो हो गया। उस समय घरकी स्थिति भी ढीली होने लगी थी। पं० देवकीनन्दनजीका हमारे जीवनमें बहुत बड़ा उपकार है । वह बहुत सामाजिक इंसान था ( मुरैनामें) इसमें कोई सन्देह नहीं। उनके जीवनको तो आज भी भूलते नहीं। तो उन्होंने हमको साहूमल पाठशाला में अध्यापक बना दिया। फिर थोड़ी-थोड़ी धर्म-ज्ञानमें हमारी प्रसिद्धि हो गयी थी।
ने. : प्रसिद्धि आपकी अध्यापनके कारण हो गई थी ?
फू. : अध्यापनके कारण नहीं, पढ़ते समय यह प्रसिद्धि हो गयी थी । गोम्मटसार कर्मकाण्डके हम विशेष जानकार माने जाते हैं । इसलिए हो गई थी ।
ने. साहूमल में थे तब ?
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फू. साहूमल में नहीं, मुरैनामें थे तब हो गई थी।
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. : अच्छा पंडितजी, यह बताइये कि आपका जैनधर्म पर सर्वमौलिक ग्रन्थ कौन-सा है ?
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फू.. जैनधर्मके ऊपर वैसे तो हमारे विचार जो हैं पहलेसे ही तात्विक रहे हैं । देखिये हमने सन् ३८ में नातेपुते सोलापुर) में कुछ दिन सर्विस की यहाँ पर एक विवाद चला था फल्टणमें कि भावमन जो । है वह मोक्ष, केवलज्ञानको उत्पन्न करता है, इसलिए ज्ञानका शुद्ध रूप है ।
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ने. भावमन ?
फू. भावमनके सम्बन्धमें दो पक्ष थे- एक आध्यात्मिकोंका और एक व्यवहारवादियों का व्यवहारवादी कहते थे - भावमन शुद्ध होता है, वह केवलज्ञान को उत्पन्न करता है। अध्यात्मवादीका कहना थानहीं, भावमन तो उपशम भाव है, वह शुद्ध कैसे होगा ? वह विवाद हमारे पास आया था, तो हमने उसपर टिप्पणी लिखी थी जो 'शान्तिसिन्धु' में छपी थी। यदि भावमन आत्माका आलम्बन लेकर है तो उपयोग हो यह पंक्ति उस समय लिखी थी, जिस समय कानजी स्वामीसे हमारा
गया, तो मोक्ष केवलज्ञान उत्पन्न होता सम्पर्क नहीं हुआ था ।
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