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द्वितीय खण्ड : ६३
श्री पं० जगन्मोहनलालजी ने यह प्रश्न उपस्थित किया कि "दिगम्बर समाजमें जितनी भी साहित्यिक संस्थायें हैं वे इस ओर ध्यान देना नहीं चाहतीं। वर्णी ग्रन्थमालाका भी यही हाल है। इस बातको सुनकर सदस्योंमें चिन्ता पैदा हो गयी । अन्तमें पिताजीने समितिकी ओरसे यह कह दिया कि इसकी व्यवस्था की जायेगी । फलस्वरूप मुद्रित सर्वार्थसिद्धिको भारतीय ज्ञानपीठको सौंप दिया गया और उसपर श्री वर्णी ग्रन्थमालाका जितना व्यय हुआ था वह ज्ञानपीठसे प्राप्त करके इस कार्यको आगे बढ़ाया गया। श्री पं० कैलाशचन्दजोने इस योजनाके अन्तर्गत 'जैन साहित्यका इतिहास' पर तोन पुस्तकें लिखों और प्रकाशित की गई ।
छत्तीसगढ़के दौरके समय डोंगरगढ़ वाले दानवीर सेठ भागचन्द जीसे पिताजीका परिचय हो गया था। इस कारण पिताजीकी बड़ी पुत्री चि० शान्तिकी डाक्टरी शिक्षामें सेठ सा० का सहयोग मिलता रहा । इसलिये कई बार पिताजीको डोंगरगढ़ जानेका अवसर भी मिला। इस दौरान पिताजी व सेठ सा० में स्नेह उत्तरोत्तर प्रगाढ होता गया।
मथुरा संघको जयधवलाके प्रकाशनमें अर्थकी आवश्यकता थी। तब पिताजी व पं० भैयालाल भजनसागरकी यलाह पर सेठ सा० ने मथुरा संघके कुण्डलपुर अधिवेशनकी अध्यक्षता स्वीकार कर ली और वहाँपर जयधवलाके प्रकाशन हेतु ग्यारह हजार रुपये दिये थे। पिताजीकी सलाहपर ही उन्होंने श्री प्रकाशचन्दजीको गोद लिया था। इसके बाद किसी कारणवश उनका स्वर्गवास हो गया। फिर भी सेठानी श्रीमती नर्मदा बाईसे पिताजीका सम्पर्क बना रहा।
पिताजीकी इच्छा थी कि श्री गणेश वर्णी ग्रन्थमालाका विकास किया जाए और उसमें शोधकी व्यवस्था भी की जाये। इसलिए उसका नाम बदलकर श्री गणेश वर्णी शोध संस्थान रखा जाए। इसके लिए श्री वर्णी ग्रन्थमालाकी बैठकमें यह प्रस्ताव पास किया गया और उसके अनुसार नियमावली बनायी गयी जो कुंडलपुरमें हुई ग्रन्थमालाको प्रबन्ध समितिको बैठकमें स्वीकार की गयी और उसी प्रबन्ध समितिको श्री वर्णी शोध संस्थानकी प्रबन्ध समितिमें बदल दिया गया। किन्तु इस संस्थाका कोई स्वतन्त्र भवन न होनेसे बहन सेठानी नर्मदा बाईके सामने पिताजीने यह प्रस्ताव रखा कि वे इसके लिए एक भवन बनवा दें। इस प्रस्ताव को सेठानी सा० ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। फलस्वरूप संस्थाको अपना एक भवन मिल गया।
सोनगढ़ पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठाके समय एक विद्वत-सम्मेलन आमन्त्रित किया गया था। मैं उसका अध्यक्ष था। पहले दिनकी कार्यवाही सम्पन्न करते समय विद्वानोंके सामने तीर्थों की सुरक्षा कैसे हो यह सवाल मुख्य था। वक्ताओंके व्याख्यानके बाद मैंने समाजका वर्तमान चित्रण उपस्थित करते हुए कहा
जो पहले पैदल यात्रा करते थे, अब वे पैदल न चलकर साइकिल या स्कूटरसे यात्रा करने लगे हैं, जो पहले साइकिल या स्कुटरसे आते-जाते थे वे अब मोटर कारसे आने जाने लगे हैं। जो पहले मिठीके कच्चे मकानमें रहते थे वे अब पक्के मकानमें रहने लगे हैं। जो पहले पक्के मकानमें रहते थे उनको रहने के लिए अब हवेली भी कम पड़ने लगी हैं। तो क्या जितना हम कमाते हैं वह सब भोगके लिए ही होना है या धर्मके लिए भी उसमेंसे कुछ भाग रहना है । इसपर श्रोता समाज स्वयं ही विचार करे।
मेरा इतना कहना था कि समाजमें स्वेच्छासे तीर्थरक्षाके लिए दान लिखाया जाने लगा। श्री पुरणचंद जी गोदीका का तो इस मंगल कार्यके लिए एक लाख रुपया अन्तरिक्ष पार्श्वनाथमें पंचकल्याणक प्रतिष्ठाके समय ही जाहिर हो गया था। इसके अतिरिक्त साठ-सत्तर हजार और दानमें लिखाये गये। तीर्थ सुरक्षा कोषका यह श्री गणेश है । उसके बाद आ० बाबूभाईको अध्यक्षता और उनके निर्देशनमें उस कोषकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई।
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