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६२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
किसी पक्षकी तरफसे आये हैं।" तब मध्यस्थने उस दिनके कागजको देखा। उस पर दूसरे पक्षके प्रमुख विद्वान श्री पं० मक्खनलालजीके हस्ताक्षर थे। इसलिए दूसरे पक्षके विद्वानोंको अपना प्रस्ताव वापिस लेना पड़ा और 'उत्तर' के स्थान पर 'प्रतिशंका' यह शब्द लिखना पड़ा। तत्पश्चात् यह क्रम दो दौर तक चलता रहा।
चर्चाके सातवें या आठवें दिन एक सुन्दर घटना घटी-स्व. पं० माणिकचन्द्रजीन्यायाचार्य और स्व० पं० वंशीधरजी न्यायालंकार चर्चाके स्थलपर पहुँच गये। अन्य कोई विद्वान् नहीं पहुँचे थे। उसी समय पिताजी वहाँ पहुँचे । पहुँचकर उन दोनों विद्वानोंको प्रणाम किया । पिताजीको देखकर स्व० पं० माणिकचन्द्रजी बोले-“पं० जी, आपने अपने निबन्धों द्वारा अपूर्व प्रमेय उपस्थित किया है।" यह सुनकर पिताजी बोले "गुरुजी आपने हमें जैमा पढ़ाया है वैसा हमने लिख दिया है।' इसपर न्यायाचार्यजीने कहा "पं० जी आज भी आप हमें उसी रूपमें मानते हो तो यह मानकर चलना कि यह पं० फूलचन्द्र नहीं बल्कि पं० माणिकचन्द्र लिख रहा है।" जबकि पं० माणिकचन्द्रजी न्यायाचार्य दूसरे पक्षके प्रतिनिधि थे, फिर भी पिताजी द्वारा लिखे गये निबन्धोंको सुनकर अपना आन्तरिक अभिप्राय व्यक्त किया।
तीसरा दौर अपनी-अपनी जगहसे डाक द्वारा भेजनेका निश्चय किया गया। इसके बाद पिताजोकी आँखोंमें मोतियाबिन्द हो गया। इस कारण लिखना-पढ़ना बन्द हो गया और जीवन निर्वाहकी समस्या पुनः उपस्थित हो गयी। सौभाग्यसे स्व० श्री भाई वंशीधरजी शास्त्री, एम० ए०, से भेंट हो गयी। वे उदार प्रकृतिके विद्वान् थे अतः उनके परामर्शसे भाद्रपदमें पिताजोको कलकत्ता बुलाया जाने लगा और इस प्रकार यह समस्या अंशतः हल हो गयी।
इन्हीं दिनोंमें पिताजी स्व० साहू शान्तिप्रसादजीके सम्पर्क में आये और उनकी इच्छाको ख्यालमें रखकर पिताजीने "वर्ण, जाति और धर्म" पुस्तक लिखी जो भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित हई।
एक बार पिताजी स्व० साहजीसे मिलने गये। उस समय साहजीने यह इच्छा व्यक्त की कि "आप कलकत्तामें रहने लगी और आपकी सारी व्यवस्था हो जायेगी।" पिताजीने उत्तर दिया कि “शामके वक्त पक्षी अपने हिसाबसे बसेरा करता है और सुबह उड़ जाता है।" यह सुनकर साहूजी चुप हो गये।
फिर भी उन्होंने अपने इस प्रस्तावको नहीं छोड़ा। इस बारेमें उनका एक पत्र भी पिताजीके पास आया। उस पत्रको पढ़कर पिताजी असमंजसमें पड़ गये। यह बात किसी तरह लाला जगतप्रसादजीको मालूम हो गयी। वे स्वयं तो नहीं आये पर एक व्यक्तिसे कहला भेजा कि "हम तो साहजीकी सविसमें हैं, इसलिए लिख नहीं सकते। परन्तु अभी तो आप जब सभामें उपस्थित होते हो, तो आप फटी टोपी और कुर्तेमें अच्छे लगते हो। वहाँ जाने पर दो कौड़ीकी इज्जत रह जायेगी।" यह सन्देश मिलनेपर पिताजीने कलकत्ता जानेका अपना विचार त्याग दिया।
दूसरी बार पुनः स्व० साह सा० से भेंट होनेपर साहजी बोले "हम आफिस जा रहे हैं। उसी गाड़ी में आप हमारे साथ चलना। उस समय पिताजीको आँखोंमें मोतियाबिन्द जोरोंपर था। यह बात साहजीको मालूम भी थी इसलिए गाड़ीमें साहजी बोले, आपका काम कैसे चलता है। इसपर पिताजीने कहा-बहते हुए पानीके सामने पत्थर आ जानेपर वह रास्ता बना लेता है।' साहजी यह सनकर चप रहे और जहाँ वे ठहरे थे वहाँ भेज दिया।
इन्हीं दिनों के आस पास श्वेताम्बर समाजने साहित्यका इतिहास लिखनेका निर्णय लिया। यह देखकर दिगम्बरोंमें भी यह सवाल उठ खड़ा हुआ । पर दिगम्बर तो पक्के दिगम्बर है। उनकी कोई विधिवत् योजना नहीं बनती और बन भी जाये तो समाजका सहयोग मिलता नहीं। अतः श्री वर्णो ग्रन्थमालाकी बैठकके समय
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