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६० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
वहाँसे उत्तर आया कि, "श्री पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्रीसे सभी बातें हो ली हैं। आपने जो नियम भेजे हैं उनपर यहाँ आनेपर विचार किया जायेगा।" पिताजीने कारंजासे पन: लिखा कि "पं० जीसे जो भी चर्चा हुई है वह लिखिये और जबतक कि आपकी ओरसे उन नियमोंको स्वीकार नहीं किया जायेगा, हम च के लिए नहीं आयेंगे।" - इसके बाद उन्होंने उन नियमोंको कई विद्वानोंके पास भेजा। उनमें प्रमुख स्व० पं० श्री मक्खनलालजी और पं० वंशीधरजी व्याकरणाचार्य, बीना थे। स्व० पं० मक्खनलालजीका ब्र० लाडमलजीके पास यह उत्तर आया "हमने नियम देख लिए है। उन्हें चर्चा के लिए बुला लिया जाये।' श्री पं० वंशीधरजीका यह उत्तर आया "नियमोंसे कोई डर नहीं । उन्हें चर्चाके लिए बुला लिया जाये ।'
ये दोनों उत्तर ब्र० लाडमलजीने पिताजीको लिखकर भेज दिये तथा आनेके लिए आग्रह किया। उस समय पिताजी कारंजासे डोंगरगढ़ पहुँच गये थे। समय कम था। इसलिए तार द्वारा ब्र० लाडमलजीके पास स्वीकृति भेज दी और दूसरे दिन चर्चा करने जयपुर चल दिये ।।
जयपुरमें ब्र० लाडमलजीने जिस स्थानका पता दिया था उस स्थानपर पिताजी पहुँचे । वह एक मंदिर था। मालिनसे मिलनेपर ज्ञात हुआ कि यहाँ कोई नहीं आया है और चर्चा खानियामें होनी है, अतः खानिया जायें। रातका समय था । क्या करें यह पिताजी नहीं समझ पाये। इतने में एक सरावगी भाई आ गये। उनसे भी पिताजीने चर्चा की। उन्होंने पिताजीका नाम पूछा । नाम ज्ञात होनेपर वे बोले, “यहाँ मालूम हुआ था कि चर्चा के लिए आप नहीं आ रहे हैं। इसलिए सबके पास तारसे सुचना भेजी गयी है कि पं० फूलचन्द्रजी च के लिए नहीं आ रहे हैं इसलिए कोई न आवे बादमें पुनः तार देकर सबको बुलाया गया है ।" हमारे यह पूछनेपर कि खानिया कितनी दूर है, तब उन्होंने बताया कि वह जंगल में है तथा रातको नहीं पहुंचा जा सकता। पिताजी असमंजसमें पड़ गये। काफी विचार करने के बाद पिताजीने उनसे कहा कि स्व० श्री पं० चैनसुखदासजी जहाँ रहते है वहाँ रिक्शासे पहुँचवा दीजिए । तब उन्होंने बताया कि पं० जी पासमें ही रहते हैं, रिक्शेकी क्या जरूरत है। मालिनसे वे बोले कि इनको पं० जोके यहाँ पहुँचा आओ, आठ आने पैसे देंगे। मालिनके तैयार न होनेपर वे स्वयं ही पिताजीको पं० जीके निवास स्थानपर पहुँचा आये।
प्रातःकाल यह बात फैल गई कि पं० फूलचन्द्रजी चर्चाके लिए आ गये हैं। इसलिए श्रीयुत नेमीचन्द जी पाटनी, पिताजीके पास आये और बोले कि सोनगढ़से उनके पास पत्र आया है कि वे स्वयं चर्चामें भाग न लें और कुछ दिनोंके लिए जयपुरसे अन्यत्र चले जायें। यह सुनकर पिताजीने पाटनीजीसे कहा कि “यदि ऐसी बात है तो चर्चामें आप हमारे साथ न रहें। हम तो इन विद्वानोंके मध्यमें ही रहते हैं, अतः हमें उनके साथ चर्चा करना आवश्यक है।"
फलस्वरूप उन्होंने पिताजीका साथ देना निश्चित कर लिया। श्री मन्दिरजीमें दर्शन करनेकी चर्चा चलने पर पिताजीने पाटनीजीसे कहा कि वे उस मन्दिरमें जाना चाहते हैं जहाँ स्व. श्री पं० टोडरमलजी बैठते थे और शास्त्रोंकी टीका लिखा करते थे। यह सुनकर पाटनीजीने बताया कि प्रतिदिन वे स्वयं भी वहीं जाते हैं, अतः आप भी चलें, यह बहुत अच्छी बात है। अन्तमें वे दोनों उस मन्दिरमें गये और श्री जीके दर्शन किये और उस स्थानकी रज अपने मस्तकपर चढ़ायी जहाँ पर स्व० श्री पं० टोडरमलजी बैठकर काम करते थे । परोक्षमें यह निवेदन भी किया "हम आपके नगरमें आये हैं। आपका बल मिलनेपर ही हमें इस कार्यमें सफलता मिलेगी ।" बादमें प्रवचन करके पिताजी जहाँ ठहरे थे वहाँ चले आये। जहाँ तक पिताजीको याद है उस दिनका भोजन तो पिताजीने स्व० श्री पं० चैनसुखदासजीके साथ ही किया, बादमें श्री पाटनीजीके
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