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榮添米米米米米米米米米米米养添柴米米米米米米米米米米米米茶業
।अहम् । श्रेष्ठि-देवचन्द्र-लालभाई-जैन-पुस्तकोद्धारे ग्रन्थाकः १०८ श्रीहरिभद्रसूरिकृतवृत्त्यनुसारेण भट्टारक श्रीज्ञानसागरसूरिविरचिता श्रुतकेवलिश्रीभद्रबाहुस्वामिसत्रितनियुक्तियुत
श्रीमदावश्यकसूत्रनिर्युक्तेरवचूर्णिः
(द्वितीयो विभागः)।
驚驚驚驚驚驚驚驚驚驚驚驚驚議業
प्रकाशकः-मोतीचन्द मगनभाई चोकसी-मेनेजींग ट्रस्टी संशोधकः-सिद्धान्तमहोदधि आचार्य श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरजी पट्टप्रभावक, व्याख्यान वाचस्पति आचाय श्रीमद्विजय
रामचन्द्रसूरीश्वरशिष्यः पंन्यास श्री मानविजयः इदं पुस्तकं भावनगरपुर्या श्री महोदय मुद्रणालये पटेल हिंमतलाल देवजीभाई तथा राजनगरे
नवप्रभात मुद्रणालये श्री मणीलाल छगनलाल द्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम् वोर संवत् २४९१ ।
क्राइष्ट सन् १९६५ विक्रम संवत् २०२१ ।
वेतनम् रूप्यकत्रयम्
ई
प्रतयः ५००
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Jain Education I
इदं पुस्तकं श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धारक संस्थायाः मेनेर्जंग ट्रस्टी मातीचंद मगनभाई चोकसी इत्यनेन भावनगर पुर्या महोदयमुद्रणालये पटेल हिंमतलाल देवजीभाई तथा राजनगरे नवप्रभात मुद्रणालये शाह मणीलाल छगनलाल द्वारा मुद्रापितम् । अस्य पुनर्मुद्रणाद्याः सर्वेऽप्यधिकारा एतद्भाण्डागारकार्यवाहकैरायत्तीकृताः ।
All rights reserved by the trustees of the fund.
Printed by Himatlal Devjibhai Patel at the Mahodaya Printing Press, Bhavnagar and by Manilal Chhaganlal Shah, at the Navprabhat Printing Press, Ahmedabad.
Published by the Hon. Managing Trustee Motichand Maganbhai Choksi for Sheth Devachand Lalbhai Jain Pustakodhar Fund, at Sheth Devchand Lalbhai Boarding House for Shree Ratna Sagar Jain Boarding, Badekhan Chakla, Gopipura, Surat.
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SHETH DEVCHAND LALBHAI JAIN PUSTAKODHAR FUND SERIES NO. 108
SHREEMAD AVASHYAK SUTRA
COMENTRY (AYCHURNI )
BY SHREE CYAN SACAR SURI
SECOND PART PRICE THREE RUPEES
Vikram Samvat 2021
Vir Samvat 2491
Christian 1965
"W*0*3*3*60*60*W'W *D*60*60*
"
*0*C
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THE BOARD OF TRUSTEES
1. Nemchand Gulabchand Devchand Javeri 2. Talakchand Motichand Javeri 3. Babubhai Premchand Javeri 4. Amichand Zaverchand Javeri 5. Kesharichand Hirachand Javeri 6. Motichand Maganbhai Chokshi
(Hon. Managing Trustee)
૧. નેમચંદ ગુલાબચંદ દેવચંદ ઝવેરી ૨. તલકચંદ મોતીચંદ ઝવેરી ૩. બાબુભાઈ નેમચંદ ઝવેરી ૪. અમીચંદ ઝવેરચંદ ઝવેરી ૫. કેશરીચંદ હીરાચંદ ઝવેરી ૬. મોતીચંદ મગનભાઈ ચોકસી
(માનદ મેનેજીંગ ટ્રસ્ટી)
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wner og
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आवश्यक
निर्युक्ते - रवचूर्णिः
॥ ५ ॥
सम्पादकीय निवेदन
श्रीमद् आवश्यक निर्युक्ति अवचूर्णिना सम्पादननुं कार्य श्रेष्ठि देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंडना ट्रस्टीओ तरफथो मने सोपवामां आव्युं हतुं. ते ग्रन्थ विशालकाय होवाथी तेने बे भागमां प्रगट करवानुं नक्की करवामां आव्युं हतुं. त्यार पछी तेना प्रथम भागनुं सम्पादन कार्य पूर्ण थवाथी सदरहु संस्था तरफथी विक्रम संवत २०२१ मां सदर हु संस्था तरफथी प्रथम भाग प्रगट करवामां आव्यो. त्यार पछी एना बीजा भागनुं सम्पादन पूर्ण थयुं छे, अने ते पण आ संस्था तरफथी सीरीझ नं. १०८ तरीके प्रगट करवामां आवे छे.
प्रथम भागना सम्पादकीय निवेदनमां आ ग्रन्थनो प्रारम्भ, ईतिहास, ग्रन्थकार परिचय, हस्तलिखित प्रति परिचय विगेरे जणावेल होवाथी अत्रे कई विशेष जणावानुं नहि होवाथी तत्संबंधी कई पण लखेल नथी.
आ बीजा भागमां आवश्यक सूत्रना बोजा चतुर्विंशति अध्ययनथी छेला छडा पच्चक्खाण अध्ययन सुधीनी निर्युक्तिनी अवचूर्णि आपवामां आवी छे.
प्रथम भागनी जेम आ बीजा भागमां पण हस्तलिखित प्रतोना असंगत पाठोने सुधारीने आवा ( ) कोष्टकमां मुकेला छे अनेक पाठोने उमेरीने आवा [ ] कोष्टकमां मुकेला छे.
संशोधनमां पूरती काळजी राखवा छतां पण छपाईने आवेल फरमाओने फरी तपासतां दृष्टिदोषथी असावधानताथी मतिमान्द्यथा के प्रेसदोषथो रही गयेल क्षतिओनुं प्रमार्जन करी शुद्धि पत्रक तैयार करी आ साथे दाखल
By B By: My
सम्पाद
कीय निवेदन
॥५॥
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आवश्यकनिर्युक्तेरवचूर्णिः
सम्पादकीय
निवेदन
करवामां आवेल छे, ते मुजब वांचनारे प्रथम सुधारी लेवु. आटली काळजी राखवा छतां पण जे कई क्षतिओ मारा IN मतिमान्द्यादिना दोषे रहा जवा पामी होय तेने क्षन्तव्य गणी सुधारी लेवा विद्वद् जनोने मारी विनंति छे.
आ ग्रन्थ- सम्पादन जे केवळ ज्ञानभक्तिना हेतुथी करवामां आवेल छे ते हेतुने लक्ष्यमा राखी पूज्य साधु-साध्वी महाराजाओ आ ग्रन्थनुं पठन पाठन मनन करी चारित्रनी विशुद्ध आराधना करी परमपदना भागी बनो एज अभ्यर्थना.
मुक्तिद्वार जैन उपाश्रय दशा पोरवाड सोसायटी, अमदावाद नं. ७__ वि. सं. २०२१ फागण, शुक्ल पूर्णिमा ।
मानविजय
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प्रकाशकीय निवेदन
आवश्यकनिर्युक्तेरवचूर्णिः
श्रीमद् आवश्यक नियुक्ति उपर भट्टारक श्रीमद् ज्ञानसागरसूरि कृत अवचूर्णिनो प्रथम भाग अमारी संस्था तरफथी प्रकाशित कर्या पछी थोडा ज समयमां एनो आ बीजो भाग प्रकाशित करतां अमोने अपूर्व आनंद थाय छे. आ बीजा विभागमा आवश्यक सूचना बीजा चतुर्विशति अध्ययनथी छट्ठा प्रत्याख्यान अध्ययन सुधीना अध्ययनोनो नियुक्ति उपर अवचूर्णि आपवामां आवी छे.
आ बीजा भागने पण प्रथम भागनी माफक सदरहु संस्थानो सोरोझ नंबर १०८ आपवामां आवेल छे.
प्रकाश
कीय निवेदन
आ बीजा भागर्नु सम्पादन पण सिद्धान्त महोदधि आचार्य श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजना पट्टप्रभावक व्याख्यान वाचस्पति आचार्य श्रीमद विजयरामचंद्रसूरीश्वरजी महाराजना शिष्य पन्यास श्री मानविजयजी महाराजे करो आपेल छे. तेथी सदरहु संस्था तरफथी एओश्रीनो सादर आभार मानवामां आवे छे.
आवश्यक सूत्रनो पूज्य साधुमहाराजो तथा साध्वी महाराजो तथा सुश्रावको अने सुश्राविकाओने बन्ने वखत रात्रि दिवसमा लागेला अतिचारोनी आलोचना माटेना प्रतिक्रमणमां उपयोग होवाथी ते सूत्र उपर पूर्वाचायाँप छप अध्ययनो उपर तथा छुटा छुटा एकेक अध्ययन उपर पण नियुक्ति भाष्य चूणि टीका दीपिका अवचूर्णि विगेरे अनेक ग्रन्थोनी रचना करेल छे. जेनी मळी शकेल यादी आ साथे परिशिष्ट नंबर-१ मां आपवामां आवी छे. तथा छए
॥७
॥
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अध्ययनोनो नियुक्ति उपर श्री तिलकाचार्य कृत लघुवृत्ति जे अद्यापि अमुद्रित छे, तेनो आद्य अने अंत भाग पण आ साथेना परिशिष्ट नंबर-२ मां आपवामां आवेल छ, पज,
प्रकाशकीय
आवश्यक निर्युक्तेरवचूणिः ॥८॥
निवेदन
ली..
मोतीचंद मगनलाल चोकसी
मेनेजोंग ट्रस्टी
॥
८
॥
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शुद्धिपत्रकम्
आवश्यकनियुक्ते
शुद्धि
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् १ ३ ०युत १ ४ सूत्रावचूर्णि:
५३
पत्रकम्
रवचूर्णिः
१३ १२ २४८
शुद्धम् युत
सूत्रनिर्युक्तेरवचूर्णि: उर्व रागादिमत्व०
प्रमाणं दृष्टपूर्वे
सङ्कल्पः •कर्तकं चारित्रेणैव
प्रसिद्धि रिंगियं संपिडिय
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम्
क्षमाणा ६७४ उक्को ७२७ सानमिति
श्लादि, अनयों नवा० शास्वतं
सचं ९३१ सर्व
कानियुक्तिः
रागादिमत्व०
प्रमाण दृष्टपूर्व
सडकल्प: ०कतृक चारित्रणव प्रसिधि. रिगिय संपिडिय सई
शुद्धम् क्षामणा डक्को सायमिति शूलादि, अना
नवाततनुवा० शाश्वतं सव्व सर्व० कानियुक्ति: (काविधि)
२७
२१
०मध्यजघ० माक्षेत्र
मध्यमजघ माईक्षेत्रे
९९
१३
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Sign
शुद्धि
पत्रकम्
आवश्यक निर्युक्तेरवचूणिः ॥१०॥
-
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् ११३ १ ठेवरे ११६ ९ वनीकादि.
अज्जावय
अपसत्थासु १२१
बिसहि.
किचण १२४
प्रमाजना
२५, गृहणति कमादिषु
रजसः १३३ १० मृत्कृष्ट १४४ १२ यक्षाद्या
वाईके उत्सग०
शुद्धम् कळेवरे बनीपकादि. अज्जायव० अपसत्थासु वसहि. किंचण प्रमार्जना १७, गृह्णाति क्रमादिषु रजसा मुत्कृष्ट यक्षाद्याः वार्द्धके उत्सर्ग
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् १७५ ५ था
सिं १७७ ९ तावत्स्या० १७९ २ चतुर्विशति० १८८६ ०तयोद्वा, १८९ १० ग्नहणा० १९१४
तदुपवेंक: १९२५
अत्येण० १९८५ गोत्तरास्त
सर्गाणा
उपययश्च २०८६ हयरहवि २१३६ ब्दप्पधिकृतं २१४ १० थर्म०
शुद्धम् श्वा मांस तावत्स्वा० चतुर्विशति०
तयोरों, ग्रहणा० तदुपर्येकः पट्टकं अत्थेण गोचरास्त त्सर्गाणां उपचयथ इयरहवि
दप्यधिकृतं धर्म
पट्टकं
१३२
१५५
॥१०॥
-
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आवश्यक-I नियुक्तेरवचूर्णिः
शुद्धिपत्रकम्
शुद्धम् यथाह व्युत्मजत
स्थापयेत्
धम्मै
དགག་སྒྲ་ག: གལ་
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् २२०९ ययार्ह " १० व्युत्सृजव
स्थापवेत् धम्य
निसर्गोगा० २२५ ५ जाह
किइडम्म • कत्तृकं
मंदसद्धा १० शाठ्य २३३६ स्यत्,
विथिद्वार११ गृहात्य०
निसगोंद्गा० आहकिइकम्म०
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् २५१ १० सरदार० २५३ ७ घठित २५४ १० साडी० २५६४ मोहोद्वीपर्क
सामामि २५७३ धायको
च्छिनत्वात् २५४ १३ नरक
वृतिः सुवाणुवाए प्रमार्जन
शुद्धम् सदार
घटितं साडीकम्मे भाडी० मोहोद्दीपकं सामाइअंमि श्रावको रिछन्नत्वात् नरकं बृत्तिः रूवाणुवाए प्रमार्जन निष्ट्यूतस्ववृत्त्य.
AMCN
मंदसद्धा शाठ्य० स्यात्, विधिद्वारं
निष्टयूत
ग्रहात्य.
"
१२
स्ववृत्य
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शुद्धि
पत्रकम्
आवश्यकनिर्युक्तेरवचूर्णिः ॥१२॥
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् २६२४ वकार्शिके २ ०वृत्त्ये न
कोडिसहिय २६५ ११ द्वावाकरौ
शुद्धम् ०वकाशिके वृत्त्येन कोडिसहियं द्वावाकारौ
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् २८४ २ परिणायितः |
मणिकर. , अगृहीतव्ये , १० गृहीतव्ये
परिणायितः मणिकार अग्रहीतव्ये ग्रहीतव्ये
|
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d
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परिशिष्ट
आवश्यकनियुक्तेरवः |
चूर्णिः ।
परिशिष्ट नंबर -१ आवश्यक सूत्र अंगेना ग्रंथोनी यादी
मूलसूत्र १
आवस्सय - आवश्यकसूत्र चोथु आवश्यक अनुसरतां, केवली चंदनबाळा । अल्पागम तप क्लेश ते जाणो, बोले उपदेशमाळा ॥१॥ आवश्यक आराधिये, षट् अध्ययने खास।
नमन स्तवन पूजन करी, आतम (नो) सुप्रकाश ॥२॥ आवश्यक सूत्र ते ' सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स ), वंदनक, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग (प्रायश्चित्त) अने प्रत्याख्यान' ए छ विषयोने आवश्यक कहे छे. तेनी श्लोक संख्या १३० छे अने तेना कर्ताः- गणधर महाराज श्री 'सुधर्मास्वामीजी महाराज छे.
in Educatan Internal
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आवश्यक नियुक्तरेव
चूर्णिः ।
॥२॥
'आवश्यक नियुक्ति ' ना कर्ताः- श्री भद्रबाहस्वामीजी महाराज छे. तेनी गाथा २५५० अने श्लोक ३१०० परिशिष्टप्रमाण छे.
'आवश्यक मूळ भाष्य' (लघु) गाथा १८३ श्लोक २२५ लगभग. 'आवश्यक मूल भाष्य' (मध्यम ) गाथा ३०० श्लोक ३७५ लगभग.
'आवश्यक मूल भाष्य' (बृहत् ) बीजु नाम 'विशेष आवश्यक भाष्य ' गाथा ३६२५ श्लोक ४००० कर्ताः 'श्री। जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण महाराज.' छपायुं छे. प्रकाशकः 'श्री यशोविजयजी जैन ग्रंथमाळा.'
'आवश्यक चूर्णि' कर्ताः श्री जिनभद्रगणिमहत्तर गाथा १३६०० श्लोक १८४६४. छपायुं छे. बे भाग. प्रकाशकः श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजीनी पेढी, रतलाम. ___आवश्यक मूल अने नियुक्ति मूलभाष्य अने त्रणे उपर 'शिष्यहिता' टीका श्लोक २२००० त्रण भाग. छपायुं छे. प्रकाशकः श्री आगमोदय समिति, सूरत.
'आवश्यक नियुक्ति दीपिका' कर्ताः श्री माणिक्यशेखरसूरि श्लोक ११७०० छपायु छे. त्रण भाग-प्रकाशकः- श्री विजयदानसूरीश्वरजी जैन ग्रंथमाळा मूरत, संशोधक : पं. श्री. मानविजयजी गणि, जेओए आ अवचूर्णितुं संपादन करी आप्युं छे. आ विषयना निष्णात होवाथी तेओश्रीने सपादन- कार्य फंड तरफथी सोंपवामां आव्युं छे.
Hal॥२॥
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परिशिष्ट
आवश्यकनियुक्तेरेव
चूर्णिः ।
'आवश्यक सूत्रवृत्ति ' कर्ताः-श्री मलयगिरिसूरि श्लोक २२००० छपायु. प्रकाशक:-श्री आगमोदयसमिति, मूरत.
'आवश्यक लघुवृत्ति' कर्ताः श्री तिलकाचार्य सं. १२९६. पाटण, अमदावादना ज्ञानभंडारमा छे. छपाई नथी; तेना आदि अने अंत भागनो आ बीना भागमा परिशिष्ट बीजामा समावेश करवामां आव्यो छे.
'आवश्यक अपचूर्णि' कर्ताः श्री ज्ञानसागरसूरि सं. १४४० पाटण, अमदावादमा छे. जे आ ग्रंथ तरीके | प्रकाशित थाय छे.
'आवश्यक सूत्र अवचूरि' कर्ताः श्री शुभवर्धन गणि अमदावादना ज्ञानभंडारमा छे ते अप्रसिद्ध अने अमुद्रित छे. 'आवश्यक मूत्र भाष्य पर टिप्पनक' कर्ताः श्री मलधारी गच्छीय आ. श्री हरिभद्रसूरि श्लोक ४६४० छपायेल छे.
'आवश्यक मूत्र भाष्य पर भाष्य 'कर्ताः कोटथाचार्य मुद्रित थयेल छे. कोट्याचार्यनी बीजी वृत्ति पण जाणवामां आवो छे. पायः ए पण होय. ___ 'विशेषावश्यक भाष्य पर शिष्यहिता वृत्ति' कर्ताः-मलधारी गच्छीय आ. हेमचंद्रसूरि श्लोक २८००० पाटण अमदावाद, पूनाना ज्ञानभंडारमा छे. तेनो प्रत ' विशेषावश्यक (जीण) वृत्ति' श्लोक १४०००. पाटण भंडारमा छे. तेनो उद्धार करवा जेवो छे.
आवश्यक सूत्र (पइ आवश्यक ) वृत्ति अपरनाम 'वंदारुवृत्ति' कर्ताः- श्री देवेन्द्रसूरि श्लोक प्रायः ५००० छपायेली छे.
॥३॥
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१
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परिशिष्ट
आवश्यकनियुक्तेरव चूर्णिः ।
॥४॥
'आवश्यक सूत्र (षड् आवश्यक ) वृत्ति' अपरनाम ' अर्थदीपिका' कर्ताः श्री रत्नशेखरसूरि छपायेल छे.
'आवश्यक (षड् आवश्यक विधि)' कर्ताः अंचलगच्छीय महिमासागरजी-श्लोक २३७५ पुना भंडारमा छ. IN अप्रसिद्ध छे. 'आवश्यक सूत्र लघुत्ति' कर्ताः आ. श्री फलप्रभसूरि श्लोक ३००० पूनाना ओरि. ई. मां छे. अप्रसिद्ध छे.
आवश्यक सूत्रमा दर्शावेल छ आवश्यकनी पृथक पृथक विभागमा पूर्वाचार्यों कृत जुदी जुदी रीते रचना थई छे ते क्रमशः अने क्या क्यां प्राप्य छे ते आपवामां आवे छे
१'सामायिक मूत्र' मूलभूत्र 'करेमिभंते । 'सामायिक सूत्र नियुक्ति, वृत्ति अने उद्धार ' ताडपत्र पर प्रत पाटण सूचिपत्र २९५ अने ३०३ छे. २' चउब्धिसत्थो सूत्र' चतुर्विंशति सूत्र मूल सूत्र ‘लोगस्स' परनी नियुक्ति अने उद्धारनी प्रत पाटण ज्ञानभंडारमा छे.
चैत्यवंदन ' ललितविस्तरा वृत्ति' कर्ताः श्री हरिभद्रसूरिजी श्लोक १२७० पहेलां छपाई छे ते पछी सटीप्पण 'ललितविस्तरा' आ. श्री. सागरानंदमूरिजीए छपावेल छे. टीप्पण तेमनुं पोतार्नु छे. आनो अनुवाद तेमज ' ललितविस्तरा' परर्नु श्री मुनिचंद्रमूरिकृत 'टिप्पनक'ए बंने छपायां छे. अनुवादकः-पं. श्री भानुविजयजी गणि. प्रायः 'ललितविस्तरा'नुं गुजराती विवरण डॉ. भगवानदासे श्री जैन एसोसिएशन ऑफ इन्डिया द्वारा प्रकाशित कयु छे.
'चैत्यवंदन पंजिका अने वृत्ति' कर्ताः श्री हरिभद्रसरिजी पाटण भंडारमा छे, छपाई गई छे.
॥
४
॥
Jan Education et
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G
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आवश्यक
निर्युरव
चूर्णिः ।
॥ १ ॥
'चैत्यवंदन महाभाष्य ' कर्त्ताः श्री शान्तिसूरि गाथा ९२२ आ अने ते परनी वृत्ति ए बने पाटण भंडारमां छे, मनुं महाभाष्य मुद्रित छे.
— चैत्यवंदनभाष्य वृत्ति ' अपरनाम ' संघाचार वृत्ति' कर्त्ताः आ. धर्मघोषसूरि ( श्री देवेन्द्रमूरि शिष्य - पट्टधर ) गाथा ८५०० श्लोक ९७५०. वे भागमां छपायुं छे.
'चैत्यवंदनावचूर्णि कर्त्ताः सोमसुंदरसूरि श्लोक १०२७ मुद्रित थयेल छे.
'चैत्यवंदनावचूर्णि ' कर्त्ताः XXXXX श्लोक ४२५ पूना भंडारमां छे.
'चैत्यवंदन भाग्य ( लघु ) ' कर्त्ताः श्री पार्श्व चंद्रसूरि श्लोक १०८ पूना भां. ओरि. ई. मां छे.
'चैत्यवंदन चूर्णि ' कर्त्ताः श्री सौभाग्य
पाटण भंडारमां छे.
'चैत्यवंदन विवरण ' कर्त्ताः श्री रत्नप्रभसूरि श्लोक ८४० जेसलमेरमां छे.
'चैत्यवंदन 'साधुवंदन ' श्री प्रतिक्रमणमूत्र वृत्ति कर्त्ताः श्री पार्श्व चंद्रसूरि श्लोक २००० पाटण भंडारमां छे. आ वृत्ति प्राचीन छे.
"
'चैत्यवंदन चूर्णि ' कर्त्ताः श्री यशोदेवसूरि श्लोक ८४० सं. १७७४, पाटण ज्ञानभंडारमां छे. 'चैत्यवंदनसूत्र वृत्ति' कर्त्ताः श्री तिलकाचार्य, पाटणमां छे.
'चैत्यवंदन मूत्रवृत्ति 'कर्त्ताः खर० श्री. तरुणप्रभसूरि श्लोक ७००० सं. १३३१ तेनुं बीजुं नाम ' बालबोधा ' पण छे.
परिशिष्ट
१
॥ ५ ॥
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र नि
आवश्यकनियुक्तेरव
परिशिष्ट
चूर्णिः ।
:
३ 'वंदनक' पर नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, वृत्ति, स्तवोदार अने आलापक 'एछ कृतिओ पाटण भंडारमा छे. 'वंदनक अवचूर्णि' कर्ताः यशोदेव श्लोक ७२० पाटणमा छे.
'वंदनकवृत्ति' कर्ताः श्री तिलकाचार्य पाटणमा छे. आ उपरांत आवश्यक साथे तेनी वृत्ति, अवचूरि पण छे ते पइ आवश्यक मूत्रमाथी जाणवी.
'वंदन, प्रतिक्रमण अवचूरि' प्रकाशक:-देवचंद लालभाई मूरत.
४ चोथु 'प्रतिक्रमण' आवश्यकना वे प्रकार छः (१) साधु माटे अने (२) श्रावक माटे. तेनुं कारण ए छे केसाधुने पांच महावत आलोववानां होय छे, ज्यारे श्रावकने समकित मूल बार व्रत आलोववानां होय छे. आ कारणे एवंनेना कोई कोई ग्रंथो जुदा पण छे. . 'साधु श्राद्ध प्रतिक्रमण मत्र पद पर्याय मंजरीभो'नी प्रत पाटण ज्ञानभंडारमा छे. तेनी साथे चैत्यवंदनादि सूत्र पण छे. कर्ताः श्री अकलंकदेव कोक ५००.
'साधु श्राद प्रतिक्रमण चैत्य गुरुवंदन अवचूरि' नी प्रत लींबडी ज्ञानभंडारमा छे. लोक ८०० अप्रसिद्ध छे. 'साध प्रतिक्रमण वृत्ति' कर्ताः श्री तिलकाचार्य श्लोक २९६ पाटणना भंडारमा छे. 'साधु प्रतिक्रमग वृत्ति' कर्ताः खर० श्री जिनप्रभसूरि श्लोक ९४८ पाटण ज्ञानभंडारमा छे. 'साधु प्रतिक्रमण मूत्र वृत्ति' कर्ताः पाश्वदेवसूरि श्लोक ६७२ पाटण ज्ञानभंडारमा छे. 'श्रावक प्रतिक्रमण मूत्र' अपरनाम 'वंदित्तामूत्र' गणधरकृत गाथा ५० श्लोक ६० मुलभ.
:
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________________
परिशिष्ट
आवश्यक नियुक्तेरवचूर्णिः ।
॥७॥
'श्रावक प्रतिक्रमग मत्र चूणि ' कर्ताः पिपलीया गच्छना श्री विजयसिंहसूरि श्लोक ४५९० सं. ११८३ पाटण ज्ञानभंडारमा छे.
'श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र वृत्ति' फर्ताः श्री चंद्रमूरि लोक १९५० सं १२२२ पाटणमां छे. 'श्राद्ध प्रतिक्रमण मूत्र लघुत्ति' कर्ताः श्री तिलकाचार्य श्लोक २०० पाटण, खंभात, अमदावादमां छे. 'श्राद पतिक्रमण मूत्र वृत्ति' कर्ताः श्री पाच मूरि लोक ५७७ सं. ९५६ पाटण भंडारमा छे.
'श्रावक प्रतिक्रमण मूत्र वृत्ति' कर्ताः तपा० श्री जिनहर्ष गणि श्लोक ७१८ सं. १५२५ आ एक ज प्रत पूना भा० प्राच्य विद्यामंदिरमा छे. तेनी साथे ' श्री प्रतिक्रमण मूत्र अवचूरि' कर्ताः तपा० कुलमंडनमूरि श्लोक १६२० नी छे. जे पूना भां० प्रा. वि. मां छे.
'प्रतिक्रमण वृत्ति' कर्ताः श्री सिंहदत्त मूरि (दिगं० ) पाटण ज्ञानभंडारमा छे. 'पतिक्रमग क्रमविधि' कर्ताः आ० जयचंद्रसूरि श्लोक ९०० सं. १५०६ पाटण ज्ञानभंडारमा छे. छपाई पण छे. 'प्रतिक्रमण संग्रहिणी' गा० १०० श्लोक ११५ पूना भां० मा. वि. मां० छे. 'ईपिथिकी ' अपरनाम ' ईर्यावही ' सूत्रचूर्णि कर्ताः यशोदेवसूरि श्लोक १५० पाटण ज्ञानभंडारमा छे. ५ आवश्यक सूत्र पांचमा आवश्यक कायोत्सर्ग' संबंधी ग्रंथरचनानो अत्र निर्देश करेल छे'कायोत्सर्ग आवश्यक मूत्र ' नियुक्ति, भाष्य, उद्धारनी प्रत पाटण ज्ञानभंडारमा छे. आ एक ज प्रत छे. आने लगतुं स्वतंत्र लखाण जुएं जणातुं नथी ने माटेनुं ते लखाण षड् आवश्यक साथे ज छे; त्यांची जाणी लेवु.
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पारशिष्ट
आवश्यक
६ छट्ठा आवश्यक 'प्रत्याख्यान' मूत्र संबंधी संपूर्ण साहित्य प्रत्याख्यान सूत्र, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, नियुक्तरवा ' उद्धारविचार'नी प्रत पाटण ज्ञानभंडारमा छे. चूर्णिः । 'प्रत्याख्यान स्वरूप ' कर्ताः यशोदेवमूरि श्लोक ५५० सं. १९८३ पाटणमा छे.
'प्रत्याख्यान चूर्णि' श्लोक ४०० अजमेरमा छे. ॥८॥ 'प्रत्याख्यान विचाराम० कर्ताः श्री शालिभद्रमरि गा० २३७ श्लोक २८० पाटणमा छे.
'प्रत्याख्यान स्थान विवरण' कर्ताः जयचंद्रसरि श्लोक ७०० पाटण ज्ञानभंडारमा छे. 'सागार प्रत्याख्यान विधि ' ताडपत्र प्रत पाटणमा छे.
उपरोक्त छ आवश्यकनी रचना अने तेनी जुदी जुदी रचना जे जणाची; तेमांनी केटलीक छपाई छे अने केटलीक छपाई नथी. ज्यां सुधी जाणवामां छे त्यां सुधी ते छपायेल तरीके जणावी छे.
विवरण: मुख्य तथा गद्यमां रचायेल आ आगम पर गा० १६२३ श्लोक २५०० प्रमाण विस्तृत अने मार्गदर्शक नियुक्ति श्री भद्रबाहु स्वामीजीए रची छे. एनी गा० ६०० थी ६४१ सुपसिद्ध गणधरवादना बीजनी गरज सारे छे. o आ नियुक्ति पर घे भाष्य छ : (१) १८३ पद्यमय मूळ भाष्य अने (२) ३०० पद्यमय बीजु भाष्य..
विशेषमा प्रथम अध्ययन पूरती अने कर्त्ताए जाते — विसेसावस्सयभास (विशेषावश्यक भाष्य )' तरीके निर्देशेल मन-IN नीय आगमोना अनुरागीने शोभे तेवी तार्किकदृष्टिपूत महामूल्य एवी कृति श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणे पध ४३३६ श्लोक ५००० प्रमाण रची छे.
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परिशिष्ट
आवश्यक नियुक्तेरवचूर्णिः।
आ आगम पर १८५०० श्लोक प्रमाण चूणि छे; तेना का निसीह उपर चूणि रचनार श्री जिनदासगणि होवानु केटलाक विद्वान कहे छे.
जैनशासनना महास्तंभरूप श्री हरिभद्रसूरिजीए आ आवश्यक पर ८४००० श्लोक प्रमाण महाकाय टीका रची हती; ते हजो अप्राप्य छे. परंतु सद्भाग्ये एमणे २२००० श्लोक प्रमाण जे 'शिष्यहिता' टीका रची हती ते मळे छे अने ते प्रकाशित पण छे. | विविध उपांगोना वृत्तिकार श्री मलयगिरिमूरिजीए पण आ आगम पर टीका रची छे; परंतु ते अपूर्ण मळे छे; तेम छतां तेनो १८००० श्लोक प्रमाण उपलब्ध भाग मुद्रित थयो छे ते आनंदजनक छे. __आ उपगंत वोनी पण केट लीक वृत्तिओ छे ए वधीनुं प्रमाण १,००,००० (एक लाख) श्लोक प्रमाण गणाय छे, ते उपरांत आवश्यकना कोइ कोइ विभागने अनुलक्षीने पण बहोळा प्रमाणमां वृत्ति आदि साहित्य योजायुं छे.
पू० आ० तिलकाचार्ये 'श्राद्ध प्रतिक्रमण मूत्र वृत्ति' श्लोक ३०४० रची; ते उपरांत 'साधु प्रतिक्रमण मूत्र वृत्ति' पण | तेमणे रची छे..
श्राद्ध सामायिक प्रतिक्रमण मूत्र व्याख्या प्रकरण' कर्ताः श्री विजयदेवसूरि प्राकृत गाथा २९३ श्लोक ३६५ | सं. ११८३,
॥९॥
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परिशिष्ट
आवश्यक नियुक्तेरवचूर्णिः। ॥१०॥
'चैत्यवंदन विचार' गाथाबद्ध छे तेमां चैत्यवंदनमां वपराता सूत्रोनी व्याख्या छे. अमुद्रित छे. 'चैत्यवंदनादि मूत्र' फलप्रदीप टीका श्लोक २४५८ अप्रसिद्ध छे. 'आवश्यक मूत्रना छ पेटा विभाग छे, जेमां दरेक विभागनी अंदर अनेकविध ग्रंथ जोवामां आवे छे.
परिशिष्ट - नंबर २ आवश्यकसूत्रनियुक्ति उपर श्री तिलकाचार्यकृतलघुत्तिनो आदि विभाग.
॥ॐ नमः श्रीपञ्चपरमेष्ठिभ्यः॥ देवः श्रीनाभिमूनुर्जनयतु स शिवान्यसदेशे यदीये, खेलन्ती कुन्तलाली विलसदलिकुलाभोज्वला शालते स्म । संजाते संयमश्रीपरिणयनविधौ माङ्गलिक्ये त्रिलोकी, लक्ष्म्या दुर्वाङ्कुराणां ततिरिव पतितोइस्तहस्तद्वयाग्रात् ॥१॥ विश्वाहंकारमर्दी समितिकृतरतिश्चक्रचापाडूपाणिः, प्रोद्यद्गीर्वाणशाली व्यपहृतविषमाखारिदोर्दण्डकण्डूः। भक्तिमाग्भारनम्रक्षितिपतिपटलोमौलिकोटीरकोटी-शाणाकोणाग्रलेखोल्लिखितनखशिखः पातु वीरत्रिलोकीम् ॥२॥
॥१०॥
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परिशिष्ट
आवश्यक निर्युक्तेरवचूर्णिः।
नित्यं यत्पणिपातसंभ्रमभृतां पादाब्जपीठस्थल-न्यासोल्लासिकिणावलिव्यतिकरादालेषु भव्यात्मनाम् । एतेऽनन्तमहोमहोदयपदे योग्या इति प्रीतितः, पुण्या किल वर्द्धितानि तिलकान्यव्याज्जिनौघः सवः ॥ ३ ॥ यत्कान्ति (न्तेः खलु विश्व) विश्वधवलोकारश्रिया सर्वतः, सध्यानं परिपच्यतेऽधिमनसं शुक्लं तदक्लेशतः। येनोत्सर्पति सर्ववाङ्मयगतं ज्ञानं परं तत्क्षणात्, सास्माकं श्रुतदेवता रचयताद् विघ्नोपशान्तिक्रियाम् ॥ ४॥ आस्तेऽनन्यतमा मनस्यनुकलं स्वस्वामिभक्तिस्ततो, वासं यस्य चकार पाणिकमले सा केवलश्रीधुवम् । नैवं चेद्विललास तत्कथमियं सर्वत्र तत्तत्क्षणात् , न्यस्तो यत्र भवेदयं स भगवान् श्रीगौतमो नन्दतात् ॥५॥ गवामीशे यत्र प्रवचनधुरां धर्मधवले, स्फुरद्व्याख्यानादि प्रतिहतसमस्तेतरवृषे। समारोप्यात्मीयां त्रिभुवनपतिर्नितिमगा-वारण्यान्निस्तारयतु स सुधर्माभिधगुरुः ॥ ६॥ तत्त्वावरत्नौघविलोकनार्थ, सिद्धान्तसौधान्तरहस्तदीपाः । नियुक्तयो येन कृताः कृतार्थ-स्तनोतु भद्राणि स भद्रबाहुः॥७॥ तस्यावश्यकनियुक्तिगवीं दुहन् वृत्तिभाजनेऽर्थपयः। मगुणीकरोमि सरसं, रसलोलुपलोकतुष्टिकृते ॥ ८॥ परं क्व द्वादशाङ्गीभृद्भद्रबाहुगुरोगिरः ? । मुग्धधी लिशः क्याई पदमात्रेप्यशक्तिमान् ? ॥९॥ तद्यदावश्यकमह, विवरीतुं मति व्यधाम् । तरीतुमारब्धस्तदोष्णकेन पप्लवन्' ॥ १० ॥ १ क्व प्लवतु ।
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परिशिष्ट
आवश्यक नियुक्ते
रखचूर्णिः
॥१२॥
महाशास्त्रस्य चामुष्य, महाकविविनिर्मिते , गम्भीरार्थे महत्यौ स्त-चूर्णित्तिश्च यद्यपि ॥ ११ ॥ तथाप्यत्यल्पधीहेतो-रल्पधीरप्यहं पुनः । रचयिष्याम्यमू' वृत्ति-मुत्तानार्थी लघीयसीम् ॥ १२ ॥
॥ युग्मम् । ततोऽत्र यदहं कुर्ये, तत्स गुरुभक्तिजम् । जानन्तु मावजानन्तु, सन्तः सुमनसो मयि ॥१३॥ तथाहिसंजातेऽवसरेऽधुना श्रुतसुधाधाराकिरो मद्गिरः, सद्यः (म) प्लवयन्तु भव्यहृदयारामे प्रबोधद्रुमम् । लब्ध्वाऽत्यद्भुतवासनाढयसुमनोभावं सदालिपियं, यस्तैस्तैः फलितः फलैरविरलैः स्वर्गापवर्गादिभिः ॥ १४ ॥
इहायं शास्त्र वेधसां सुमेधसां शास्त्रसन्दर्भारम्भसंरम्भविधिः यथा सर्वाण्यपि शास्त्राणि मङ्गलाभिधेयसम्बन्धप्रयोजनपतिपादनपूर्वाण्येव प्ररूप्यन्ते।
इदं च शास्त्रमरीत्प्रणीतार्थत्वात्सकलमपि मंगलरूपमेव । तथाप्यभिनवविनेयोत्साहाय प्रथमगाथया ज्ञानपश्चकाभिधानरूपं मंगलमाह
आभिणियोहियनाणं, सुयनाणं चेव ओहिनाणं च । तह मणपज्जवनाणं केवलनाणं च पंचमयं ॥१॥ १ स्तं । २ वि ।
Mil॥१२॥
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परिशिष्ट
आवश्यक नियुक्तेरखचूर्णि।
व्याख्या-अभिमुखो नियतो' बोधो मतिरूपोऽभिनिबोधः। स एव आभिनिवोधिकं 'स्वार्थे इकण' । आभिनिवो. | धिकं च तद् ज्ञानं च आभिनिवोधिकज्ञानं-मतिज्ञानमित्यर्थः ।
तथा श्रूयते इति श्रुतं, शब्दः सिद्धान्तो वा, ताभ्यां सकाशाद् ज्ञानं श्रुतज्ञानं, चशब्दोऽनयोस्तुल्यकक्षताधोती, तुल्यत्वं च य एव मतिज्ञानस्य स्वामी स एव श्रुतज्ञानस्यापि " जत्थ मइनाणं तत्थ सुयनाण" मितिवचनात्, स्थितिकालोऽप्यनयोस्तुल्य एव । अनेकजीवापेक्षया भूतभवद्भाविरूपः सर्वोऽपि । अपतिपतितैकजीवापेक्षया चषट्षष्टिसागरोपमाणि साधिकानि, उक्तं च भाष्यकृता
"दो वारे विजयाईसु गयस तिन्निच्चुए अहव ताई । अइरेगं नरभवियं नाणाजीवाण सव्वद्धम् ॥१॥
तथा द्वे अप्येते क्षयोपशमहेतु के सर्वद्रव्यविषये परोक्षे च, एवोऽवधारणे, एते एव द्वे ज्ञाने परोक्षे नेतराणि, तथा अबधीयते एकार्भयतेऽस्मिनिति अबधिरेकाग्रता रूपिद्रव्यमर्यादा वा, ताभ्यां ज्ञानमवधिज्ञानम् । चशब्दो मतिश्रुताभ्यां साम्यार्थः, साम्यं चानयोरिवावधेरपि समस्थित्या एकस्वामिकत्वात् , मिथ्याग्देवस्य सम्यग्बोधे सति ज्ञानत्रयस्यापि युगपल्लाभाच्च ।
तथा पर्यवनं पर्यवो मनसः पर्यवो मनापर्यवः । 'उङ् शब्दे ' अल् प्रत्ययो अनेकार्थत्वाद्धातूनां, सर्वतो मतिज्ञानत्रयस्वामिनः ? (मनः) पुद्गलावबोधः, स एव ज्ञानं मनःपयेवज्ञानं, यद्वा मनसः पर्यायाः परिणाम विशेषाः पौद्गलिकवस्तुविमर्शनप्रका
१ विहितो।
॥१३॥
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परिशिष्ट
आवश्यक नियुक्तेरखचूर्णिः
॥१४॥
| रास्तेषु ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम् । इदं च मनुष्यक्षेत्रवर्तिसंज्ञिमनोगतद्रव्यालम्बनमेव । तथाशब्दोऽवधिज्ञानसाधार्थः, साधर्म्य च छद्मस्थस्वामित्वपुद्गलमात्राश्रयत्वक्षायोपशमिकत्वप्रत्यक्षत्वैः।
तथा केवलम् -अन्यज्ञाननिरपेक्षम् , असदृशमनन्तं संपूर्ण ज्ञानं केवलज्ञानं, चः समुच्चये, अत्राह-'एषां ज्ञानानां कथमेष क्रमः ? उच्यते स्वस्यैव प्रकाशकत्वात् आदौ मतिज्ञान, ततः स्वपरप्रकाशकत्वात् श्रुतज्ञानं, तदनन्तरं मतिश्रुतानन्तरभावित्वात् प्रत्यक्षत्वाच्चावधिज्ञानं, ततः संयतानामेव भावान्मनःपर्यवज्ञानम् , अथ क्षायिकत्वात्सर्वोत्तमं केवलज्ञानं पञ्चमकम् । अनयैव च गाथया ज्ञानपञ्चककारणभूतं सामायिकाद्यावश्यकषट्कं अभिधेयं मूचितम् , सम्बन्धश्च शास्त्रार्थयोर्वाच्यवाचकरूपः
प्रतीत एव, प्रयोजनं च शिष्याचार्ययोरनन्तरं शास्त्रार्थज्ञानज्ञापनरूपम् , परम्परं च द्वयोरपि महोदयावाप्तिरिति सुज्ञातमेव ॥१॥ Kा अथ प्रथमोदिष्टस्याभिनिवोधिकस्य स्वरूपं निरूप्यते, तच्च द्विधा-एकं अश्रुतानिःस् (निधि) तं प्रातिभम् औत्पत्तिक्यादि, वैनयिकी (शास्त्रसंस्पर्श) रहितं, द्वितीयं श्रुतनिःस(निश्रितं अवग्रहादि, तच्चतुर्दा
उग्गह ईहाऽवाओ य, धारणा एव हुँति चत्तारि, आभिणियोहियनाणस्स, भेयवत्थू समासेण ॥२॥
अवग्रहः ईहा आयो धारणा, एवकारः क्रमार्थः, एमनेन क्रमेण भवन्ति, चत्वारि आभिनिवोधिकज्ञानस्य भेदवस्तूनिभेदरूपाणि-भेदप्रकारा इत्यर्थः । समासेन-संक्षेपेण । एतत्स्वरूपमेवाह--
अत्थाणं उग्गहणं, उग्गहो तह विआलणं ईहा। ववसायं च अवार्य, धरणं पुण धारणं बेति ॥३॥
॥१४॥
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ཁྱད་པར་དུ།
आवश्यकनियुक्तरचूर्णिः। ॥ १५॥
अत्र प्राकृतत्वात्सप्तमी प्रथमार्थे, अर्थानां शब्दादीनां निर्विकल्पकं ग्रहणमवग्रहः । आह-सामान्यविशेषात्मकानामर्थानां | परिशिष्टकथमादौ दर्शनं न ज्ञानम् ? उच्यते, ज्ञानस्य प्रबलावरणत्वात् , स च द्विधा-व्यञ्जनावग्रहोऽर्थावग्रहश्च, व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जन-द्रव्येन्द्रियं कदम्ब पुष्पाकारादि शब्दादिपरिणतद्रव्यसंघातश्च । ततो व्यञ्जनेन द्रव्येन्द्रियेण शब्दादिपरिणतद्रव्याणां व्यञ्जनानामवग्रहोव्यञ्जनावग्रहः, नयनमनोवर्जेन्द्रियाणामसौ चतुर्विधो ज्ञेयः, तयोरप्राप्तकारित्वेन पुद्गलस्पर्शाभावात् । इतोऽनन्तरं शब्दादिपुद्गलसङ्गतेन द्रव्येन्द्रियेणार्थानां शब्दादोनामवग्रहोर्थावग्रहः । तथेत्यानन्तर्ये शब्दाद्यर्थग्रहणे:सति-विचारणंविमर्श:-किमयं शब्दः शाङ्कः शाङ्गा वेति मतिविशेष ईहा । विशिष्टोऽवसायोऽध्यवसायो निश्चयः, माधुर्यादिगुणत्वात् शास एवायम् , कर्कशादिगुणत्वात् शाई एवावधारणात्मकः प्रत्ययोऽवायः। धरणं-परिच्छिन्नस्यार्थस्याक्च्युिति-स्मृति-वासनारूपं धारणा इति ब्रुवते तीर्थकरगणधरा इति भावः । एवं शेषेन्द्रियाणामपि स्थाणुपुरुषकुण्डोत्पलसंभृतकरिल्लमांससप्पोत्पलनालादौ अवग्रहादयो वाच्याः। एवं मनसोऽपि स्वप्नेन्द्रियव्यापाराभावे वा चिन्तयतः शब्दादिविषयावग्रहादयो ज्ञेयाः । अर्थावग्रहः ईहादयश्च सर्वेन्द्रियमनःसम्भवत्वात्षोढा, सर्वे सङ्कलिताः अष्टाविंशतिर्मतिज्ञानभेदाः ॥ ३॥
अवग्रहादीनां कालमानमाहउग्गह इक्कं समयं, ईहावाया मुहुत्तमध्धं तु । कालमसंखं संखं च धारणा होइ नायव्वा ॥४॥ जघन्यो नैश्वयिकोऽर्थावग्रहः एक समयं परममूक्ष्मकालरूपं, व्यवहारतस्तु द्वावप्यर्थावग्रहव्यञ्जनावग्रहौ अन्तर्मुहूर्त भवतः ।
G१५॥
།་བྱེད་ཕྱོགས
་ སུ། བྱ་ཁྱུང་རྒྱུ་
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परिशिष्ट
आवश्यक नियुक्तेखचूर्णिः
॥१६॥
ईहावायौ 'मुहुत्तमधं ' अर्द्ध मुहूर्त, 'मुत्तमंत तु' इति पाठान्तरात्तत्वतः पृथक्पृथक द्वावप्यन्तर्मुहूर्त, कालमसङ्ख्यमसङ्ख्यवर्षायुषांपल्योपमादेन (दिजी)विनां, साख्यातं च सख्यातवर्षायुषा, धारणा वासनारूपा, चशब्दादविच्युतिरूपा स्मृतिरूपाच धारणा अन्तर्मुहूतं भवति ज्ञातव्या ॥४॥
अथ श्रोत्रेन्द्रियादीनां प्राप्तापाप्तविषयतामाहपुढे सुइ सई, रूवं पुण पासई अपुहं तु । गंधं रसं च फासं च, बद्धपुढे वियागरे ॥५॥
स्पृष्टं भावेन्द्रियाख्ये श्रोत्रेन्द्रियलग्नमात्रं तनौ रेणुवत् , तस्य घाणादिभ्यः पटुतरत्वात्, शृणोति गृहणाति शब्द शब्दप्रायोग्यभाषापुद्गलसवातं, रूपं पुनः पश्यत्यस्पृष्टं तुशब्द एवकारार्थः, ततोऽस्पृष्टमेव-अलग्नमेव, चक्षुषोऽप्राप्तकारित्वात् , यदि तु स्पृष्टं । पश्येत्तदा स्वपक्षमपुटतरा(टन्यस्ता)ञ्जनमन्तःक्षिप्तपोषधं वा पश्येन च पश्यति, पुनःशब्दो विशेषणार्थः, कि विशिनष्टि ? अस्पृष्टमपि योग्यदेशावस्थितं न पुनरयोग्यदेशावस्थितमन्तरितादि, अनन्तरितमपि परमाण्वादिकं अमृतं स्वविषया दूरस्थ वा न पश्यति । गन्धं रसं च स्पर्श च । बदस्पृष्टं पाकृतत्वाद्वयत्यये स्पृष्टवद्धं, स्पृष्ट-लग्नं ततो बद्धम्-आश्लिष्टं, आश्लि-तोयवदात्मप्रदेशैरात्मीकृतं घ्राणरसनास्पर्शेन्द्रियाणि जानन्तीति व्यागृणीयात्-ब्रूयात् , योग्यदेशावस्थितं रूपं चक्षुः पश्यतीत्युक्तं स चायं योग्यो देशः, चक्षुषो जघन्ये नागुलसङ्ख्येयभागः, अत्यासनस्थपक्ष्मन्यस्ताञ्जनादेरदर्शनात् , उत्कृष्टतः स्वाङ्गुलनिष्पन्न साधिकं योजनलक्षम् । श्रोत्रस्य द्वादशयोजनागतशब्दः, प्रागरस नास्पर्शनेन्द्रियाणां नवयोजनागतं वस्तु, जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्ये.
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परिशिष्ट
आवश्यक नियुक्तरवचूर्णिः।
॥१७॥
यभागागतं, मनसस्तु केवलज्ञानस्येव क्षेत्रतो न विषयपरिमागं सर्वगतत्वात् ॥५॥ 'स्पृष्टं शणोति शब्द'मित्युक्तं तत्कि भाषकोत्सृष्टान्येव शब्दद्रव्याणि गृह्णाति उतान्यानि तद्वासितानि मिश्राणि वेत्याशङ्कयाह
भासासमसेढीओ, सईज सुणइ मीसयं सुणई । वीसेढी पुण सई, सुइ नियमा पराघाए ॥६॥
भाष केण शब्दतयोत्सृज्यमाना शब्दपुद्गलसंहतिर्भाषा, तस्याः समश्रेणीतः, षट्सु दिक्षु समपङिक्तगतः श्रोता ये शब्द शृणोति तं भाषकोत्सृष्टशब्दपुद्गलभावितान्तरालस्थशब्दद्रव्यमिश्रं श्रोत्रेन्द्रियेणादत्ते, विश्रेणिगतः-विदिग्गतः पुनः पराघाते सति, सप्तमी तृतीयार्थे, भाषकोत्सृष्टशब्दद्रव्यैः पराघातेन अभिघातेन वासितमेव शब्दपुद्गलराशि शृणोति न पुनरुत्सृष्ट मिश्रं वा तेपामनुश्रेणिगमनात प्रतिस्खलनाभावाच्च ॥ ६ ॥
केन पुनर्योगेन वाग्द्रव्याणि गृह्णाति उत्सृजति वेत्याशङ्कयाहगिण्हह य काइएणं, निसिरह तह वाइएग जोगेणं । एगंतरं च गिहा, निसिरह एगंतरं चेव ॥ ७॥
गृह्णाति-पादत्ते वाग्द्रव्याणि, च एवार्थे स चाग्रे योज्यते, कायिकेनैव, तथेत्यनन्तरं निसृजति-मुश्चति वाचिकेन योगेन, किमत्र वाग्दव्यनिसर्गे कायव्यापारो नास्ति ?, उच्यते, आत्मा येन कायव्यापारेण शब्दद्रव्याण्यादत्ते स कायिको योगः, येन तु कायसंरम्भेण तानि मुश्चति स वाचिकः, येन मनोदव्याणि मन्यते मनस्त्वेन परिणमयति स मानसः इति कायव्यापार | एव व्यवहारार्थ विधोच्यते । एकान्तरं च गृह्णाति, निसजत्येकान्तरं चैव, अत्राय भावः-एकेन समयेन अन्तरं, विचालिको
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आवश्यक नियुक्तरवचूर्णिः।
यत्र प्रथम समये वाग्द्रव्यनिसर्गस्य चरमसमये च वाग्द्रव्यादानस्य तदैकान्तरं, मध्यमसमयेषु च मतिसमयं शुमाशुभकर्मादाननिस- परिशिष्टगैक्रियावत् उत्पादव्ययक्रियावत् अङ्गुरयाकाशदेशसंयोगविभागक्रियावच्च वाग्द्रव्यादाननिसर्गरूपं युगपत् क्रियाद्वयं भवति ॥७॥
गृह्णाति कायिकेनेत्युक्तं स च काययोगः पञ्चधा तत्केन गृह्णातीत्याहतिविहंमि सरीरम्मि, जीवपएसा हवंति जीवस्स । जेहि तु गिण्हह गहणं, तो भासइ भासओ भासं ॥८॥
त्रिविधे शरीरे जीवस्यापृथग्भूताः प्रदेशा जीवपदेशा भवन्ति जीवस्य न तु शरीरवत् पृथग्भूताः यैस्तु गृह्णाति, तुशब्दो विशेषणे न सदैवादत्ते किन्तु आदानपरिणामे सति ग्रहणं, शब्दद्रव्यनिवहमादत्ते, ततो भाषते भाषको भाषां, भाषेत्यधिकमिति चेत, न, भाष्यमाणैव हि भाषा, न.पूर्व पश्चाद्वेति ज्ञापनाय भाषाग्रहणम् ॥८॥ त्रिविधे शरीर इत्युक्तं कि तस्त्रैविध्यमित्याह
ओराल(लिय)वेउब्विय-आहारो गिण्हई मुअइ भासं । सच्चं मोसं सच्चा-मोसं च असच्चमोसं च॥९॥
औदारिकं शरीरं विद्यते यस्य 'अभ्रादित्वान्मत्यर्थीयेऽचि' औदारिका, एवं वैक्रियः आहारकश्च गृह्णाति मुश्चति भाषां भाषात्वपरिणतद्रव्यसंहति, किंरूपां ? सत्यां मृषां सत्यामृषां 'मिश्रां' असत्यामृषां-आगच्छ देवदत्तेत्यादिकां । भाषाव्याप्तिपश्नस्वरूपमाहकईहिं समएहिं लोगो, भासाइ निरंतरं तु होइ फुडो। लोगस्स य कहभागे, कहभागो होइ भासाए ॥१०॥
Al॥१८॥
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परिशिष्ट
आवश्यकनियुक्तेरचचूर्णिः ।
कतिभिस्समय कश्चतुर्दशरज्ज्वात्मको भाषया शब्दपुद्गलरूपया निरन्तरं तु भवति स्पृष्टः, लोकस्य च कतिभागे कियस्पमाणे भागे कतिभागो भवति भाषायाः ? ॥१०॥
उत्तरमाहचऊहिं समएहि लोगो, भासाए निरंतरं तु होइ फुडो। लोगस्स य चरमंते, चरमंतो होइ भासाए ॥११॥
चतुर्भिः समयैरिति भणनात् त्रिभिः पञ्चभिः समयैरित्यपि ज्ञेयम् , तुलामध्यग्रहणवत् , तत्र त्रिभिः स्पृष्ट उच्यते-लोकमध्यस्थमहाप्रयत्नवक्तृनिसृष्टानि वाग्द्रव्याणि सूक्ष्मत्वादबहुत्वाच्चानन्तगुणवृध्ध्या वर्धमानानि प्रथमसमय एव दण्डाकाराणि षट्सु दिक्षु लोकान्तमा नुवन्ति, जीवपुद्गलयोरनुश्रेणिगतिरितिवचनात् , द्वितीयसमये त एव षट् दण्डाश्चतुर्दिशमेकैकशो वर्धमाना षण्मन्थाना भवन्ति, तृतीयसमये त्वन्तरालपूरणात्पूर्णो लोकः स्यात् । यदा तु दिगन्ते नाडीबहिःस्थितो वक्ता कश्चिद्देवो वक्ति तदाधसमये चतुरगुलबाहल्यो रज्ज्वायामो भाषाणुराशिदण्डाकारः संमुखदिगन्ते लगति, द्वितीयसमये चतु. रङ्गुलबाहल्यो रज्जुविस्तारः उधिश्चतुर्दशरज्ज्वायामः कपाटाकारः, तिर्यग्लोके तु दिग्द्वयाणुनिर्गमे स्थूलाकारः स्यात्, तृतीयेतूर्धाधःकपाटयोमन्थत्वं चतुर्थे त्वन्तरालपूरणं, एवं चतुर्भिस्समयलेोकः पूर्यते । यदा तु विदिशि स्थितो वक्ति तदैकसमयेन विदिशो दिशि, द्वितीयसमयेन नाडी पविशति, अन्यस्त्रिभिः माग्वल्लोकमापूरयति एवं पञ्चभिः पूर्णों भवति । 'भासाए' इति भाषाया लोकव्यापिन्याः ॥११॥
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आवश्यक नियुक्तेखचूर्णिः
॥२०॥
तत्त्वभेदपर्या यैाख्येति तत्वतो भेदतश्च मतिज्ञानं व्याख्यातमधुना नानादेशजविनेयमुखाश्वोधाय तत्पर्यायानाह
परिशिष्टईहा अपोहवीमंसा, मग्गणा य गवेसणा । सण्णा सई मई पण्णा, सब्वमाभिणियोहियं ॥ १२ ॥ ईहा-स्थाणुर्वा पुरुषो वेति विचारणा । अपोहो-निश्चयः, ईहाया उत्तरोऽपोहात्पूर्वः, नात्र राजपथे स्थाणुर्भवति पुरुषः संभाव्यते इति विमर्शः। अन्वयधर्मालोचनं मार्गणा । चः समुच्चये । व्यतिरेकधर्मालोचनं गवेषणा। संज्ञा-व्यञ्जनावग्रहा. नन्तरं शब्दारूषितार्थज्ञानरूपा, स्मृतिरनुभूतार्थस्मरणरूपा, मतिर्शातेऽप्यर्थे सूक्ष्मधर्मालोचनरूपा, प्रज्ञा स्वयमेव विशिष्टक्षयो. पशमात प्रभूतार्थधर्मालोचना, सर्वमिदमाभिनिवोधिकम् ॥१२॥ ___ इदानी नबभिरनुयोगद्वारमैतिज्ञाननिरूपणामाइसंतपयपरूवणया, दव्वपमाणं च खित्तफुसणा य । कालो य अंतरं भाग-भावे अप्पाबहुं चेव ॥ १३ ॥ गइ इंदिए अकाए, जोए वेए कसायलेसासु । संमत्त नाण दंसण-संजय उवओग आहारे ॥ १४ ॥ भामग परित्तपज्जत्त-सुहमे सन्नी य होइ भवचरिमे। आभिणियोहियनाणं, मग्गिज्जहएतु ठाणेसु॥१५॥
सत्पदपरूपणा मतिज्ञानस्यास्तित्वाख्यानं, द्रव्यप्रमाणं-कियन्तो मतिज्ञानिनः ?, क्षेत्रं-कियति क्षेत्रे मतिज्ञानिनः सन्ति ? स्पर्शना-कियत्क्षेत्रं ते स्पृशन्ति ? क्षेत्रस्पर्शनयोरयं विशेषः-यत्रावगाहस्तत्र (तत्) क्षेत्रं स्पर्शना तु बाह्यतोऽपि स्यात् , काल:स्थित्यादिः, अन्तर-पतिपत्त्यादौ, भागः-मतिज्ञानिनोऽन्यज्ञानिनां कतिभागे, भावः-कस्मिन् भावे मतिज्ञानिनः, अल्पबहुत्वम्एषां पूर्वप्रतिपन्नप्रतिपद्यमानापेक्षम् ॥१३॥
N२०॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरवचूर्णिः ।
॥ २१ ॥
अथ सत्पदप्ररूपणादिद्वारैर्मतिज्ञानं गत्यादिषु मार्गयेत्, तत्र गतौ चतुर्विधायामपि मतिज्ञानिनः पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति प्रतिपद्यमानास्तु कदाचिद्भवन्ति वा न वा । इन्द्रियद्वारे पञ्चेन्द्रियेष्वाद्याः सदैव स्युर्न वा । द्वित्रिचतुरिन्द्रियेष्वविरसम्यग्दृष्टेः सम्यक्त्वं वमत उत्पादादपर्याप्तकावस्थायामाद्याः सम्भवन्ति नान्ये, एकेन्द्रियेषूभयाभावः । काये साख्ये आद्याः सन्ति सदैव इतरे स्युर्नवा शेषकायेषूभयाभावः । योगे त्रिषु योगेषु समुदितेषु पञ्चेन्द्रियवत्, केवलकाययोगे तूभयामात्रः । वेदे - त्रिष्वपि वेदेषु आयाः सन्त्येव अन्ये स्युर्नवा । कषायेषु अनन्तानुबन्धिषूभयाभावः शेषेषु पञ्चेन्द्रियवत्, asure आधासु विसृष्वाद्याः सन्ति नान्ये, शेषासु तिसृषु पञ्चेन्द्रियवत् । सम्यक्त्वद्वारे आद्या एव नापरे, सम्यग्दर्शनमतिश्रुतानां युगपल्लाभात् । ज्ञानद्वारे - मतिश्रुतावधिमनोज्ञानेषु आया एव नापरे, केवलज्ञाने तु नाद्या नाप्यन्ये, तस्मिन्सति छाद्मस्थिकज्ञानाऽभावात् । मत्याद्यज्ञानेष्वपि नाद्या नान्ये द्वयेषामप्यघटनात् । दर्शनद्वारे - चक्षुदर्शनेऽचक्षुर्दर्शने च दर्शनलब्धिसंपन्नाः आद्याः सन्त्यैव अन्ये भाज्याः, अवधिदर्शने त्वाया एव नान्ये, केवलदर्शने न द्विधापि । संयतद्वारे - आद्या एव नान्ये | उपयोगः-साकारोऽनाकारश्च तत्र साकारोपयोगे - आद्याः सन्त्येव, अन्ये भाज्याः । अनाकारोपयोगे - आद्या एव नान्ये, " साओ लद्धीओ सागारोवओगोवउत्तस्स भवंती "ति वचनात् । आहारका आधाः सन्त्येव अन्ये भाज्याः । अनाहारका विग्रहraौ आद्याः सन्त्येव नान्ये इति । भाषकद्वारे - भाषालब्धिसम्पन्ना आद्याः सन्त्येव अन्ये भाज्याः, तल्लन्धिशून्याश्च न द्विधापि । परीचद्वारे अनेकार्थत्वाद्धातूनामिति दानार्थोऽपि दाधातुः परिपूर्वोऽत्र संख्यावाची तेन परीतः
परिशिष्ट
२
॥ २१ ॥
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परिशिष्ट
आवश्यक परिमितीकृतः संसारो यैस्ते परीताः प्रत्येकशरीरा वा, एष्वप्यग्रे केवलस्य वक्ष्यमाणत्वादेतेऽपि मनुष्या एवेह ग्राह्याः, अतोऽ. नियुक्ते
मोष्वप्याद्या मतिज्ञानिनः सन्त्येव अन्ये भाज्याः, साधारणास्तु न द्विधापि । पर्याप्तद्वारे-पपर्याप्तिपर्याप्ता आधाः सन्त्येव रवचूर्णिः।
अन्ये भाज्याः, अपर्याप्तकास्त्वाद्याः सन्त्येव नान्ये । सूक्ष्मद्वारे-सूक्ष्मा अन्नवान्तादिभवाः संमूर्छनमनुष्याः तेषु न द्विधापि, ॥ २२॥ बादरेषु तु केवलज्ञानस्याप्यभिधानात्तेऽत्र गर्भजमनुष्या ज्ञेयाः, अतस्तेषुमतिज्ञानिन आद्याः सन्त्येव अन्ये भाज्याः। संज्ञिद्वारे
संज्ञिनो वादरवत, असंज्ञिनस्त्वाद्याः सन्त्येव नान्ये । भवद्वारे - भवसिद्धिकाः संशिवत, अभवसिद्धिका न द्विधापि । चरमद्वारे - भविष्यच्चरमभवा आधाः सन्त्येव अन्ये भाज्याः, अचरमास्तु न द्विधापि । कृता मतिज्ञानस्य सत्पदमरूपणा ।
द्रव्यममाणं मतिज्ञानिनां सङ्ख्या, तत्राद्या जघन्यतः क्षेत्रपल्योपमासङ्ख्येयभागमदेशराशितुल्याः, उत्कृष्टतस्त्वेभ्यो विशेषाKaiधिकाः। अन्ये जातु स्युर्नवा, यदि स्युनधन्येनैको द्वौ त्रयो वा, उत्कृष्टतः क्षेत्रपल्योपमासरुङ्येयभागमदेशराशिमानाः ।
क्षेत्रं मतिज्ञानिनां लोकस्यासङ्ख्येयभागः, एकस्य तु इलिकागत्या सर्वार्थसिद्धौ गच्छत आगच्छतो वा सप्त चतुर्दशभागाः सप्त रज्जव इत्यर्थः । अधस्तु षष्ठयां गच्छतः प्रत्यागच्छतश्च पञ्च सप्त ( चतुर्दश ) भागाः, सप्तम्यां सम्यग्दृष्टेर्गत्यभावात् । स्पर्शना क्षेत्रादधिका, यथा परमाणोरेकप्रदेश क्षेत्रं, सप्तप्रदेशा स्पर्शना । कालो मत्युपयोगमाश्रित्य जघन्य उत्कृष्टश्च एकस्य
161॥२२
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आवश्यक
निर्युक्ते - वचूर्णिः ।
|| 23 ||
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अनेकेषां चान्तर्मुहूर्तमात्रः, तल्लब्धिमाश्रित्यैकस्य जयन्येनान्तर्मुहूर्तमेत्र, उत्कृष्टतस्तु पट्षष्टिसागरोपमाणि साधिकानि प्राग्वत्, नानाजीवापेक्षया तु सर्वः कालः, मतिज्ञानिनां सर्वकालेषु भावात् ।
अन्तरम्-एकस्य सम्यक्त्वं विमुच्य पुनर्गृह तो जयन्ये नान्तर्मुहूर्त्तमुत्कर्षेणा परार्द्धपुद्गलपरावर्त्तः, नानाजीवावेक्षया त्वन्तराभावः । भागद्वारे - मतिज्ञानिनः शेषज्ञानिनां अज्ञानिनां चानन्तमागे वर्त्तन्ते ।
भावे क्षायोपशमिके मतिज्ञानिनः ।
अल्पबहुत्वे मतिज्ञानिनः प्रतिपद्यमानकाः सर्व स्तोकाः, पूर्वप्रतिपन्नाः जघन्येन तेभ्योऽसङ्ख्यगुणाः, उत्कर्षेण स्वेतेभ्योऽपि विशेषाधिका इति गाथायार्थः ॥ १४ ॥ १५ ॥
मतिज्ञानोपसंहारं श्रुतज्ञानारम्भं चाह
आभिणित्रोहियनाणे, अट्ठावीस ( स ) हवंति पयडीओ | सुयनाणे पयडीओ, बित्थरओ आवि बुच्छामि ।। १६ ।।
स्पष्टा ॥
परिशिष्ट
२
॥ २३ ॥
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परिशिष्ट
आवश्यक नियुक्तेखचूर्णिः
॥२४॥
श्री तिलकाचार्य कृत लघुवृत्तिनो अंतिम विभाग. प्रत्याख्यानगुणानाहपञ्चक्खाणंमि कप, आसवदाराई हुंति पिहियाई । आसववुच्छेएणं, तण्हावुच्छेयणं होह ॥ १६०८ ॥ तण्हावुच्छेएण य, अउलोवसमो भवे मणुस्साण । अतुलोवसमेण पुणो, पच्चक्खाणं हवइ सुद्धं ॥१६०९॥ स्पष्टे॥ तत्तो चरितधम्मो, कम्मविवेगोतओ य अपुष्वं तु तत्तो केवलनाणं, तओय मुक्खो सयासुक्खो ॥१६१०॥ ततः-शुद्धपत्याख्यानाच्चारित्रधर्मः कर्मणां विपाकः निर्जरा ततोऽपूर्वकरणं, शेषं स्पष्टम् ॥ १६१०॥ तच्च प्रत्याख्यानं दशविधं साकारं गृह्यते पाल्यते चेत्याहनमुक्कारपोरसिए, पुरिमडिगासणेगठाणे य । आयबिलअभत्तव, चरिमे य अभिग्गहे विगई ॥१६११॥ दो छच्च सत्त भट्ठ य, सत्तट्ट य पंच छच्च पाणंमि । चउ पंच अट्ट नव य, पत्तेयं पिंडउ नवए । १६१२ ॥
स्पष्टे, नवरं प्रत्येकं पिण्डको नवकः, नवसहितः, को व्यञ्जनादिवर्णों नवकः, अङ्कानामुक्तमलेख्यत्वादानने (नां वामतो गतिरित्ये) कोनविंशतिलभ्यते, ते च प्रस्तावादत्राकारा, स नवको विद्यते यत्र पिण्ड के 'अभ्रादित्वादचि' नवकः एकोन
पाह
॥२४॥
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आवश्यकनियुक्तेरखचूर्णिः
॥२५॥
विंशत्या कारवान् , एकोनविंशत्याकारसम्बन्धी पिण्डकः इत्यर्थः । एकोनविंशतिः कथम् ? एकाशनगता अष्टावाकाराः, विक परिशिष्टतिप्रत्याख्याताच्चाधिकाश्चत्वारः पौरुषीप्रत्याख्यानाच्च त्रयः एकश्च चोलपट्टाकारः, पानाश्रिताः षडुक्ता अपि लेपेन वा लेपकतेनापि, अच्छेन वा बहुलेनापि असिक्थेन वा ससिक्थेनापि न भङ्ग इति त्रय एवाकाराः त्रयश्वोपमानभूतित्वेन गताः, सर्वे | ऽपि मेलिताः उक्तसङ्ख्याः , पिण्डक इति जात्यैकवचनम् । ततश्च प्रत्येकं दशानामपि प्रत्याख्यानानां द्विषट्सप्तादिकः पिण्डकः समूह इत्यर्थः । “पिंडए नवए' इति' पाठे तु काऊं व्याख्या-(प्रत्येक दशानामपि प्रत्याख्यानानां द्विषट्सप्तादिकान् आकाराणां पिण्डकान न वदेत् , अपि तु वदेदित्यर्थः । संचूर्णयामि गदया न सुयोधनोरुः, (रुम् ) अपि चूर्णयामीतिवत् ?) ॥१६११-१२॥
व्यक्तिमाहदो चेव नमुकारे, आगारा छच्च पोरसीए उ । सत्तेव य पुरिमड़े, एगासणगंमि अद्वैव ॥ १६१३ ॥ 'दो चेव नमुक्कारे' इति व्याख्यातं, पौरुष्यां षडाकाराः, तत्सूत्रं चेदम्
उग्गए सूरे पोरिसिं पच्चक्खाइ दुविहं तिविहं चउविहंपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अन्नस्थणाभोगेणं सहसागारेणं पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं साहुवयणेणं सब्यसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरह॥ पुरुषः प्रमाणमस्याः सा पौरुषी छाया तद्युक्तः कालोऽपि पौरुषी प्रहर इत्यर्थः, केवलं याम्योत्तररेखाया आत्मनश्चाव
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परिशिष्ट
आवश्यक- नियुक्तखचूर्णिः। ॥२६॥
तारपूर्वपश्चिमरेखेव छायेति ग्राह्या तां पौरुषी प्रत्याख्याति, अत्र पडाकारा:-प्रथमौ पूर्ववत् , अन्यत्र प्रच्छन्नकालात् दिग्मोहात् साधुवचनात् , सर्वसमाधिमत्याकाराच्च । प्रच्छन्नकालता च कालस्य मेघेन रजसा गिरिणा चान्तरितत्वात् सूर्यस्यादर्शने, तेनापूर्णामपि पूर्णा पौरुषी ज्ञात्वा भुञ्जानस्य न भङ्गः, ज्ञात्वा भुक्तेनापि तथैव स्थातव्यं यावत्पौरुषी पूर्यते ततः परं | भोक्तव्यमन्यथा तु भङ्गः। एवं दिग्मोहस्तु यदा पूर्वामपि पश्चिमेति जानाति तदा पौरुष्यामपूर्णायामपि भुञ्जानस्य न भङ्गः, मोहविगमे तु पूर्वविधिः । साधुवचनम्-उद्घाटा पौरुषीत्यादिकं शंतिकारणं (?) तच्छुत्वा भुञ्जानस्य न भङ्गः, भुञ्जानेन तु | ज्ञातेऽन्येन वा कथिते प्राविधिक कार्यः । सर्वसमाधिः-गाढातङ्कादौ च तत्सत्यय आकारः प्रत्याख्यानापवादः भवति, अयमभिप्रायः-आकस्मिकतीव्रशूलादिदःखोद्भवातरौदध्यानोपशमनाय सर्वेन्द्रियसमाध्यर्थ पथ्यौषधादिकुर्वाणस्यापूर्णायामपि पौरुष्यां न भङ्गो जायते, जाते तु समाधौ पूर्वविधिः।
अथ पूर्वाद्धपत्याख्यानं तच्च पौरुपीवत केलं ' महत्तरागारेण' मित्यधिक, [शेष] पूर्ववत् , पूर्वाधं-दिनस्याचं पहरद्वयं तत्प्रत्याख्याति, षडाकाराः पाग्वत् , ' महत्तरागारेणं ति' महत्तरं प्रत्याख्यानानुपालनादपि बहुतरनिर्जरानिमित्तं पुरुषान्तरासाध्यं ग्लानचैत्यसंघादिकार्य तदेवाकारोऽपवादो महत्तराकारस्तेनागपि भुञानस्य न भङ्गः यच्चात्रैव महत्तराकार पाठो न नमस्कारसहितादौ तत्र कालमहत्त्वाल्पत्वहेतुः।
अथैकाशनम्
॥२६॥
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परिशिष्ट
आवश्यकनिर्युक्तेरखचूर्णिः ।
" एगासणं पच्चक्खाइ दुविहं तिविहं चउन्विहंपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं सागारियागारेण आउंटणपसारेणं गुरुअब्भुटाणेणं पारिद्वावणियागारेण महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ। ____एकं सकृदशनं भोजनमेकं वा आसनं पुताचलनतो यत्र तदेकाशनं एकासनं वा । अत्राष्टावाकाराः, आद्यावन्त्यौ चाकारौ प्राग्वत् , सागारियागारेणं-सहागारेण वर्तते इति सागारिको-गृहस्थः स एवाकारः सागारिकाकारः, साधो ञानस्य चले सागारिके आगते क्षणं प्रतीक्षणं, स्थिरे तु ततः स्थानादन्यत्रोपविश्य भुञानस्यापि न भङ्गः, गृहस्थस्य तु येन दृष्ट भोजनं न जीर्यति तदादिः सागारिकः । 'आउंटणपसारेणं' आकुश्चनं जवादेः सङ्कोचनं प्रसारणं तस्यैव ऋजूकरणं । आकुञ्चने प्रसारणे वाऽसहिष्णुतया क्रियमाणे किंचिदासनं चलति तेन न भङ्गः, “गुरुअब्भुट्ठाणेणं " गुरोः-अभ्युत्थानास्याचार्यस्य प्राघुर्णकस्य वा अभ्युत्थानं भुञानेनापि कार्य नात्र भङ्गः। 'पारिद्वावणियागारेण' परिष्ठापनं सर्वथा त्याजयितुं प्रयोजनमस्य परिष्ठापनिक अधिकीभूतं प्रत्याख्यातवस्तु तदेवाकारः परिष्ठापनिकाकारः, तत्र हि त्यज्यमाने महान् दोषः भुज्यमाने च गुर्वाज्ञया गुणस्तद्भुञानस्यापि न भङ्गः।' बोसिरइ ति' अनेकाशनं परिहरति ।
सत्तेगट्ठाणस्स उ, अद्वैवायंविलंभि आगारा । पचेव अब्भत्तट्टे, छप्पाणे चरिम्मि चत्तारि ॥ १६१४ ।। अथैकस्थानकम्
॥२७॥
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परिशिष्ट
आवश्यक-IN | 'एगट्ठाणं पच्चक्खाई' त्यायेकाशनवत् , केवलं 'आउंटणपसारणं' इति न पठनीयम् , अत्र सप्ताप्याकाराः प्राग्वत्, नियुक्ते- एक स्थानमङ्गविन्यासरूपं यत्र तदेकस्थानं यद्यथाङ्गोपाङ्गं भोजनकाले स्थापितं तस्मिंस्तथास्थित एव भोक्तव्यमाकुञ्चनप्रसारणे रखचूर्णिःन कार्ये मुखस्य पाणेश्वाशक्यपरिहारत्वाच्चलनं न निषिद्धं । आचामाम्लेऽष्टावेवाकाराः, अत्र बहु वाच्यं तदने वक्ष्यते । ॥२८॥
'पंचेव अभत्तढे ' पञ्चैवाकारा अभक्तार्थे-उपवासे
"उग्गए सूरे अभत्तटुं पच्चक्खाइ तिविहं चउब्धिहंपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अन्नत्थणाभो. गेणं सहसागारेणं पारिट्ठावणियागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरह"॥ ___अत्र पश्चाप्याकाराः प्राग्वत्, पारिष्ठापनिकाकारे विशेष:-त्रिविधाहारपत्याख्याने पारिष्ठापनिक कल्प्यते चतुर्विधाहारप्रत्याख्याने तु न कल्प्यते, पानकेऽप्युद्धरिते कल्पते 'बोसिरइ ति' भक्तार्थ त्यजति । 'छप्पाणे' एषु त्रिविधाहारं प्रत्याख्यातेषु पानकमाश्रित्य पडाकाराः स्युः, 'पाणस्स लेवाडेण वा अलेवाडेण वा अच्छेण वा पहलेण वा ससित्थेण वा असिस्थेण वा वोसिरह, ' इहाप्यन्यत्रेत्यनुवृत्तिः, लेपकृताद्वा भाजनाथुपलेपलखर्जूपानकादेः अलेपकृतानिर्लेपात् वाशब्दानिर्लेपेनेव लेपकारिणाप्युपवासादेन भङ्गः, अच्छाद्वा निर्मलादुष्णोदकादेः बहुलाद्वा गडुलात्तन्दुलोदकादेः ससिक्थाद्वा भक्तलवोपेतादवश्रावणादेः, असिक्थाद्वा सिक्थवर्जितात् पानकाहारादन्यत्र व्युत्सृजति । ' चरिमे चत्तारि' चरमोऽन्त्यो
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परिशिष्ट
आवश्यक- निर्युक्तेरखचूर्णिः । ॥२९॥
भागः स च दिवसस्य भवस्य वा तद्विषयं प्रत्याख्यानमपि चरमं, तत्र दिवसचरम-सूर्योद्मान्तं, भवचरिमं-यावज्जीवं, द्वयोरपि चत्वार आकाराः।
'दिवसचरिमं भवचरिमं वा पच्चरवाह दुविहं तिविहं चउन्विहंपि आहारं असणं पाणं खाइम साइमं अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरह।
नन दिवसचरिमं निष्फल एकासनादिकेनैव गतार्थत्वात , नैवम् , एकासनादिकं त्वष्टाद्याकारं एतच्च चतुराकारं, अत आकाराणां संक्षेपकरणासफलमेवेदं, निषिद्धरात्रिभोजनानामपि दिवसशेषे क्रियमाणत्वात् स्मारकत्वाच्च फलवदेव ॥१६१४॥
पंच चउरो अभिग्गहि, निविए अट्ट नव य आगारा । अप्पाउराण पंच उ, हवंति सेसेसु चत्तारि ॥१६१५।।
पश्च चत्वारश्चाभियहे आकारा इति सामान्येनोक्तं विशेषस्तु अभावरणाख्येऽभिग्रहे 'चोलपट्टागारेणं' पञ्चम आकार: स्यात् । शेषेषु पन्थिसहितादिषु चत्वार एवं चरमोक्ताः । निर्विकृतावष्टौ नवाकाराः, तत्र मनसो विकृतिहेतुत्वाद्विकृतयः, ताश्च दश
क्षीरं दधि नानी घृतं तैलं गुडो मधु मद्यं मांसं आगाहिमं । अवगाहेन स्नेहबोलनेन निवृत्तं 'पाकादिम' इतीमः | पक्वानमिति रूढं । तत्र पञ्च क्षोराणि -गोमहिष्युष्ट्रपळ कानाम् । दधि-नवनीत-घृतादि तु चतुर्दा, उष्ट्रीणां तदभावात् ।
॥ २९॥
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IN परिश
पाराशष्ट
आवश्यकनियुक्तरखचूर्णिः ।
॥३०॥
तैलानि चत्वारि-तिलातसीलहासर्पपाणां, शेषतैलानि तु न विकृतयः। गुडो द्विधा-पिण्डो द्रवश्च । मधु त्रिधा-माक्षिकं कौन्तिकं भ्रामरं च । मद्यं द्विधा-काष्ठजं पिष्टजं च । मांसं त्रिधा-जलस्थलखचरजन्तूनाम् , चर्मरुधिरमांसभेदाद्वा। अवगा. हिमं-स्नेहपूर्णतापिकायामन्यस्नेहाक्षेपे यावच्चलाचलं खाद्यकादि त्रिः पच्यते तावद्विकृतिः ततः परं पक्वानि योगवाहिनां | निर्विकृतिप्रत्याख्यानेऽपि कलप्यन्ते, यो केनैव पूपकेन तापिका पूर्यते तदा द्वितीयमपि कल्प्यत इति वृद्धसामाचारी । एतासु दशसु विकृतिषु मद्यमांसमधुनवनीताख्याश्चस्रोऽभक्ष्याः शेषाः षड् भक्ष्याः, तत्र भक्ष्यास्वेकादिविकृतिप्रत्याख्यानं षड्विकृत्या (ति) प्रत्याख्यानं च निर्विकृतिसंज्ञं । तत्पाठश्च-'निविगइ पच्चक्खाइ' इत्यादि आद्यावन्त्यौ चाकारौ प्राग्वत् 'लेबालेवेणं' ति भाजनादेः प्रत्याख्यातविकृत्यादिना लेपः तस्यैव हस्तादिना संलेखनादलेपः लेपश्चालेपश्च लेपालेपं ततोऽन्यत्र भाजनादेविकृत्याद्यवयवयोगेऽपि न भङ्गः ५। गिहत्थसंसट्टेणं' गृहस्थेन स्वार्थ दुग्धेनोदनः संसृष्टः तच दुग्धं तदुपरि चत्वार्यगुलानि यावर्त्तमानमविकृतिः अधिकं तु विकृतिरेव । पोलिकायां अंगुलमात्रं स्त्यानीभूतकृतघृतलेपो न विकृतिः ततु विकृतिः । उक्खित्तविवेगेणं' उत्क्षिप्तविवेकः उद्धर्तुं शक्येषु प्रत्याख्यातविकृत्यादिषु न तु द्रवरूपेषु । कानि तानीत्याह
नवणीभोगाहिमए, अदवदहिपिसियघयगुले चेव । नव आगारा तेसिं, सेसदवाणं च अद्वैव ॥ १६१६ ॥ स्पष्टा, नवरं शेषद्रवाणां विलीनघृततैलद्रवगुडादीनां नोक्षिप्तविवेकाकारः । ‘पडुच्चमक्खिएणं' अतिरुक्षमण्डकादिकं
॥ ३० ॥
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निर्युक्तेरवचूर्णिः ।
॥ ३१ ॥
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प्रतीत्याश्रित्य म्रक्षितमिव प्रक्षितमीपत्स्नेहेन प्रक्षिताभासमित्यर्थः, अयं चात्र विधिः - अङ्गुल्या स्नेहमादाय म्रक्षितं मण्डका - दिकं निर्विकृfतकस्यापि कल्प्यते धारया तु न कल्प्यते । पूर्वोपन्यस्तमाचामाम्लमाह
गोणं नामं निविहं, ओअणकुम्माससत्तया चेव । इक्किक्कं पिय तिविहं, जहन्नयं मज्झिमुक्कोसं ॥१६१७॥ गौणं नाम आचामो अवश्रावणं अम्लं चतुर्थी रमस्ताभ्यां निवृत्तम् आचामाम्लं तस्त्रिविधं - ओदनः - शाल्यादिः, कुल्माषाः, सक्तवश्च एतानधिकृत्याचामाम्लं, ओदनाचामाम्लं कुल्माषाचामाम्ले, सक्तुकाचामाम्लं, एकैकं त्रिविध- जघन्यं मध्यममुकृष्टं च ॥ १६१७ ॥ कथमित्याह
दवे गुणे रसे वा, जहन्नयं मज्झिमं च उक्कोस । तस्सेव य पाउग्गं, छलणा पंचेव य कुडेगा ।। १६१८ ॥ तस्यैवाचामाम्लस्य प्रायोग्यं द्रव्यगुणरसानधिकृत्य जघन्यं मध्यममुत्कृष्टं च वाच्यं । द्रव्यमुत्कृष्टं शालिगोधूमकुल्माषादि, रसश्चतुर्थरसमवश्रावणादि गुगो निर्जरा जघन्या । जघन्यद्रव्यं - रालककोद्रवादि रसस्तूष्णोदकादि गुण उत्कृष्ट निर्जरा, मध्यमद्रव्यरसयोर्गुणो निर्जरारूपो मध्यमः । छलना - कश्चिदाचामाम्लं प्रत्याख्याय विकृतीर्भोक्तुमुपविष्टः आचार्यैरुक्तः कथं [ आचामाम्लं ] प्रत्याख्याताचामाम्लो ( रूयाय विकृती ) मक्ष्यसे ?, स ऊचे यथा प्राणातिपातं प्रत्याख्याय प्राणातिपातो न क्रियते एवं आचामाम्लं प्रत्याख्याय आचामाम्यमपि न क्रियते, परिहारस्तु, आत्रामाम्लपायोग्यादन्यत्प्रत्याख्यातीत्यर्थः, तभिरर्थिका छलना ॥ १६१८ ।।
परिशिष्ट
॥ ३१ ॥
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परिशिष्ट
आवश्यक नियुक्तेरवचूर्णिः
पश्चैव कुडङ्गा बक्रविशेषाः, तद्यथालोए वेए समए, अन्नाणे खलु तहेव गेलन्ने । एए पंच कुडंगा, नायव्वा अंबिलंमि भवे ॥ १६१९ ॥
एकेनाचामाम्लं प्रत्याख्यातं संखडिका पक्वान्नादयो (दीन) लब्ध्वा गुरूणां दर्शिताः, गुरुभिरूचे तवाचामाम्लं स स्माइमया लौकिकशास्त्रेषु बहुष्वपि नाचामाम्लशब्दः श्रुतः इत्येकः कुडङ्गः । वेदेषु चतुर्यु साङ्गोपाङ्गेषु न श्रुत इति द्वितीयः। समये शाक्यादीनां न श्रुतः कुतो युष्माकमागमे समागत इति तृतीयः ? । अज्ञाने न जानामि कीदृशमप्याचामाम्लं ? घृतदध्यादिभिराींकृत्यान्नं भुज्यते इत्येवं वेभि इति चतुर्थः । ग्लानकुडङ्गः पश्चमः-न शक्नोमि ग्लानोऽहं न शक्नोम्याचाम्लं कर्त शूलं मे उत्तिष्ठते इति । तत्राचामाम्लेऽष्टावाकाराः ॥१६१९ ।।
निर्विकृतिकाधिकारे विकृतीः गृहस्थ संसृष्टं चोक्तमपि गाथाभिराहपंचेव य खीराई, दहीणि सप्पि नवणीए (णीता)। चत्तारिय तिलाइ, दो वियडे फाणिए दुनि॥१६२०॥ महुपुग्गलाई तिनि, चलचल ओगाहिमं तुजं पक्कं। एएसि संसट्ट, वुच्छामि अहाणुपुव्वीए ॥ १६२१ ॥ उक्तार्थे । खीरदहीवियडाणं, चत्तारि उ अंगुलाई संसट्ठ । फाणियतिल्लघयाणं, अंगुलमेग तु संसहूँ ॥ १६२२॥ महुपुग्गलरसयाणं, अद्धंगुलयं तु होइ संसह । गुलपुग्गलनवणीए, अद्दामलयं (च) तु संसर्ट ॥ १६२३ ॥
॥३२॥
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परिशिष्ट
आवश्यक निर्युक्तेरखचूर्णिः।
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स्पष्टे, नवरं गुडस्य पिण्डस्य पुदला:-अवयवाः ततश्च पिण्डगुडस्य नवनीतस्य आमलकपमाणखण्डयुक्तं संसृष्टमेतच्च गृहस्थसंसृष्टं आचामाम्लवतोऽनाचीर्ण ।' पडुच्चमक्खिएण' ति च नात्र पठनीयं, म्रक्षितमपि निर्विकृतकस्यैव कल्प्यते नाचामाम्लस्य । आह परः-एकासनकस्थानकनिर्विकृत्याचामाम्लचतुर्थषष्ठाष्टमेषु पारिष्ठापनिकाकारः पठितः तत्कीदृशस्य पारिष्ठापनिक देयं ?, गुरुराह
आयंबिलणायंबिल-चउत्थाई वालवुड्सअसह। अहिंडयहिंडियए पाहुणनिमंतणा बलिया॥१६२४॥
एक आचामाम्लबान अनाचामाम्लवन्तोऽन्ये, तत्र पारिष्ठापनिकं आचामाम्लवतो न देयं, चतुर्थभक्तिकस्य देयं, तत्रापि वालद्धसहासहाहिण्डकाहिण्डकवास्तव्यप्राघुणकानामावलिकाक्रमेग निमन्त्रणा कार्या । उत्तरोत्तराभावे पश्चिमानुपूर्व्या देयमित्यर्थः । एवमेकासनादिषप्यावलिकाक्रमो ज्ञेयः । पारिष्ठापनिकापाचुर्ये सर्वेषां देयं, दशमभक्तिकादीनां च न देयं, तेषामुत्कतृत्वात् ॥ १६२४ ॥
तच्च किंस्वरूपं देयमित्याहविहिगहियं विहिभुतं, उव्वरियं तह गुरूहि भणिओ य । ताहे बंदणपुवं, भुजह सो संदिसावेउं ॥१६२५।।
विधिना अणुर्वि ( अलुब्धेन ) गृहीतं, विधिना अशठैर्भुक्तं, उद्धृतं गुज्ञिया बन्दनकं दत्वा पारिष्ठापनिक सन्दिश्य भोक्तुं कल्प्यते ॥ १६२५ ॥ अत्र चतुर्मशी
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आवश्यक
निर्युक्ते -
वचूर्णिः ।
॥ ३४ ॥
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चउरो य हुंति भंगा, पढमे भंगंमि होइ आवलिया । इत्तो य तहयभंगे, आवलियाणं तु संजोगा ॥ १६२६ ॥ विधिगृहीतं विधियुक्तं, अविधिगृहीतं विधियुक्तं, अनयोः प्रथमतृतीयभङ्गयोः परिष्ठापनिकमावलिकाक्रमेण कल्प्यते विधिगृहीतमविधियुक्तं अविधिगृहीतम विधिभुक्तं अनयोद्वितीयचतुर्थभङ्गयोर्न कल्प्यते तस्यज्यते, असंसृष्टस्येव वस्तुनः पारिष्ठापनिकं क्रियत इत्याचरणा । ।। १६२६ ।। उक्तं च प्रत्याख्यानं प्रत्याख्यातारमाह
पच्चखाएण पच्चक्खा - विंतए विसयाओ । उभयमवि जाणयेयर - चउभंगे गोणिदितो ॥ १६२७ ॥ प्रत्याख्यात्रा प्रत्याख्यानप्रकथयित्रा गुरुणा प्रत्याख्यापयितरि प्रत्याख्यानं मां कारयतेति प्रयोक्तरि शिष्ये सूचा कृता, उभयेऽपि ज्ञानदर्शन ( ज्ञाताज्ञात ) रूपे चतुर्भङ्गी । अत्र गोदृष्टान्तः ( स च ) अग्रे भावयिष्यते ।। १६२७ ।। पुनराह - मूलगुणउत्तरगुणे, सच्वे देसे य तह य सुद्धीए । पच्चक्खाणविहिन्नू, पच्चत्रखाया गुरू होइ ॥ १६२८ ।। नवरं ' सुद्धीए ' शुद्धचा पविषया श्रद्धानादिरूपया पूर्वोक्तया ।। १६२८ ।।
तथा -
किकम्माइविहिन्नू, उबओगपरो य असढभावो य । संविग्गथिरपइन्नो, पच्चक्रखाविंतओ होइ ॥ १६२९ ।। प्रत्याख्यापयिता - शिष्यः ।। १६२९ ।। तथा-
एवं पुण उभंगो, जाणगइयरंभि गोणिनाएणं । सुद्धासुद्धा पढमंतिमा उ सेसेसु अविभासा ॥। १६३० ।।
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परिशिष्ट
२
॥ ३४ ॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरवचूर्णिः ।
॥ ३५ ॥
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इह प्रत्याख्यानार्थं जानन् जानत एव गुरोः सकाशे प्रत्याख्यानं करोतीति चतुर्भङ्गयां प्रथमो भङ्गः शुद्धः, द्वयोरप्यजातोरन्त्योऽशुद्धः, मध्यमयोर्विभाषा, गुरोर्जानतः शिष्यस्य चाजानतो द्वितीयः, इद्द तत्कालं शिष्यं संक्षेपतः प्रबोध्य गुरोः प्रत्याख्यानं कारयतोऽयमपि शुद्धः, अन्यथा वशुद्धः, गोज्ञातेन यथा लोके गवां स्वरूपं स्वामी गोपालश्च द्वावपि जानीतस्वतः स्वामी सुखं भृतं ददावि गोपालश्च गृह्णाति ।। १६३० ॥ प्रत्याख्यातव्यमुक्तमप्यध्ययनादौ द्वाराशुन्यार्थमाह
दवे भावे यतहा, पच्चक्खापव्वयं भवे दुविहं । दच्वंमि य असणाई, अन्नाणाई य भावमि ॥ २६३१ ॥ स्पष्टा ।। १६३१ ।। कस्यां पर्षदि प्रत्याख्यानं कथनीयमित्याह
सो
वट्टयाए, विणीयवक्खित्ततदुवउत्ताए । एवंविहपरिसाए, पच्क्खाणं कयन्त्रं ॥ १६३२ ॥ श्रोतुमुपस्थितयोर्विनीतयोः, अव्याक्षिप्तयोस्तदुपक्तयोः, शेषं स्पष्टम् ॥। १६३२ ॥
कथनविधिमाह -
आणा गिज्झो अस्थो, आणाए चेव होइ कहियच्यो । दिद्वंतिय दिहंता, कहणविहि विराहणा इहरा ||१६३३ ॥ इतरथा आज्ञा विना दान्तिकदृष्टान्तरूपा कथनविधिः विराधना ।। १६३३ ॥ फलमाह-
पच्चक्खाणस्स फल- मिह परलोए य होइ दुविहं तु । इहलोए घम्मिलाई दामन्नगमाई परलोए ।। १६३४ ॥
परिशिष्ट
२
॥ ३५ ॥
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परिशिष्ट
आवश्यक नियुक्तेरखचूर्णिः
स्पष्टा, धम्मिलकथा धम्मिलहिण्डेज़ैया, कफविघुण्मलामर्षादयो वा लब्धयः प्रत्याख्यानस्यैहिकं फलम् । पारत्रिकफले- दामनककथा, सा चेयम्-अस्ति राजपुरं नाम, नगरं नगरोत्तमम् । पराभूच्च....लक्ष्या, तिरोभूतामरावती धर्मकर्मानभिज्ञोऽभू-तत्रैक: कुलपुत्रकः । जिनदासः सुहृत्तस्य, नीतस्तेनान्तिकं गुरोः
॥२॥ तत्राधरीकृत............ख्यामाकर्ण्य तस्य सः । मत्स्यमांसस्य नियम, गृह्णाति स्म सविष्म(स्म)यः दुर्भिक्षे च तदा जाते, मीनमांसाशनो जनः । सोऽपि श्यालैश्च...............मानो....दं ययौ
॥४॥ ततो दिनत्रयं स त्रि -हीत्वाऽप्यमुचत्तिमीन । परं कथंचिदेकस्या - त्रुटत्पुच्छच्छटैकिका ततोऽनशनमादाय, मृत्वा राजगृहे पुरे । मणिकारवणिकपुत्रो, जज्ञे दामनकाभिधः आदौ प्राग्जन्मनि कृता - प्राणिघातादिदुष्कृतात् । उत्सनमष्टवर्षस्य, कुलं तस्याखिल रुजा सोऽथ सागरपोताख्य - सार्थवाहगृहे स्थितः । साधुसंघाट कस्तत्र, गृहे भिक्षागतोऽभ्यधात्
॥८॥ बृहल्लघोरयं बालो, भाव्येतदुगृहनायकः । जवन्यन्तरितोऽश्रौषीत , सार्थवाहस्तु तद्वचः
॥९ ॥ अथ घातयितुं छन्नं, श्वपचाय तमार्पयत् । रक्षितास्तेन यन्मीनाः, पाग्भवे सुकृतात्ततः तेनाघातितपुच्छांश - त्रोटान्मुक्तः क्षताङ्गुलिः। नश्यस्तस्यैव याति स्म, गोकुले स भयाकुल: ॥ ११ ॥ गृहीतः पुत्र इत्येष, गोकुलाधिकृतेन सः। तत्रस्थो यौवनं प्राप, श्रेष्ठी तत्रान्यदागमत्
॥१२॥
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परिशिष्ट
आवश्यक नियुक्तेखचूर्णिः।
॥३७॥
तं दृष्ट्वा पृष्टवान् कोऽय -माख्यंस्तस्योदन्तं जनाः । अनाथोऽयमिहायासीत् , क्रीडन् गोपैः सह स्थितः ॥ १३ ॥ स एवायमिति श्रेष्ठी, ज्ञात्वा तं चकितस्ततः । लेख दत्त्वा गृहे प्रेषीत् , गतो राजगृहेऽथ सः
॥ १४॥ बहिर्देवकुले तस्य, श्रान्तः सुष्वाप तत्र च । भाग्भवानशनोपान - पुण्याकृष्टेन तत्क्षणात तस्यैव श्रेष्ठिनः पुत्री, विषाऽऽगादर्चनाकृते । पितृनामाङ्कमालोक्य, लेख तत्पाश्चवर्तिनम् दामन्नकं च तं ज्ञात्वा, साऽथ लेखमवाचयत् । एतस्याधौतपादस्य, पुत्र ! देयं विषं त्वया दथ्यो सा न विरूपं मे, पिता ध्यायति कस्यचित् । विस्मृत्या न ददौ कर्ण, सकर्णोऽपि स्फुटं पिता ॥ १८॥ ततो नेत्राअनेनासी, दचा रेखां विषां दधत् । लेखं तथैव कृत्वा तं, तदुपान्तेऽमुचद्विषा
॥ १९ ॥ सुप्तबुद्धो गृहे गत्वा - ऽपयल्लेख तदैव च । स्वसारं श्रेष्ठिमूस्तेन, सार्द्ध तेन पर्यणाययत
॥२०॥ आगात्सागरपोतोऽथ, दृष्ट्वा तं खेदभूरभूत् । मृतस्तस्यान्यदा सूनु - विस्तव्याकुलवर्द्धनः (?)
॥ २१॥ तच्छुत्वा हृदयस्फोटा - धयो श्रेष्ठयपि पश्चताम् । ततस्तस्य गृहस्वामी, राज्ञा दामन्नकः कृतः ॥ २२ ॥ ततो माङ्गलिक कत्तुं, तस्यागात्ममदाकुलम् । गायति स्म तदा तत्र, सुस्वरं गीतिकामिमाम् अणुपुखमावहतावि, अणत्था तस्स बहुगुणा हुति । सुह दुह कछफुडतु, जस्स कयंतो वहइ पक्ख ॥२४॥ त्री(त्रिः)गीतिकायां गीतायां, स तस्यादास्त्रिलक्षिकाम् । दुर्जनः कोऽपि तस्याख्य - भूपस्य तमसद्वथयम् ॥ २५॥
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परिशिष्ट
आवश्यक निर्युक्तेरखचूर्णिः ।
तमाकार्य नृपोऽमाक्षी - वृत्तान्त स्वं स शिष्टवान् । तुष्टो राजा ततः श्रेष्ठी - पदे स्थापयति स्म तम् ॥२६ ॥ ततः पुरे स मुख्योऽभू - द्राजमान्यो महर्द्धिकः । प्रत्याख्यानमभूदेव - मस्यामुत्र फलपदम्
॥२७॥ ततो गुरुसमायोगे, स्वस्य पूर्वभवे श्रुते । सद्बोधि प्राप्य सद्धर्म, कृत्वा स स्वर्गमासदत्
॥२८॥ प्रत्याख्यानप्रधानफलमाहपच्चक्खाणमिणं सेविऊण भावेण जिणवरुद्दिष्टुं । पत्ता अर्थतजीवा, सासयसुक्ख लहुं मुक्खं ॥१६३५ ॥
स्पष्टा, एतच्च फलं पागुक्तमपि शास्त्रान्ते मङ्गलार्थत्वादुक्तम् । उक्तोऽनुगमो व्याख्यालक्षणः, अथ नयाः, तत्रैके ज्ञाननयाः एके च क्रियानयाः, ज्ञाननयमतमाह--
नायंमि गिहियब्वे, अगिव्हियबंमि चेव अर्थमि। जइयव्वमेव इह जो, उवएसो सो नओ नाम ॥१६३६।।
ज्ञाते गृहीतव्ये ऐहिके-म्रश्चन्दनाङ्गनादौ, आमुष्मिके सम्यग्दर्शनादौ, अगृहीतव्ये ऐहिके-विषशस्त्रकण्टकादौ, आमुष्मिके मिथ्यात्वादी, चकारादुपेक्षणीये ऐहिके तृणादौ, आमुष्मिके राज्यादौ, यतितव्यमेवेति य उपदेशः स नयो नाम, ततश्च सम्यग्ज्ञानाच्च क्रियायां प्रवर्तितव्यं, मिथ्याज्ञानात्प्रवृत्तस्य फलविसंवादात् , उक्तं च-' विज्ञप्तिः फलदो पुंसां न क्रिया फलदा मता। मिथ्याज्ञानात्प्रवृत्तस्य कलासंवाददर्शनात् । तथा सक्रियावतोऽपि केवलज्ञानं विना मुक्तेरभावात् ज्ञानमेव प्रधानमिति न क्रिया।
॥३८॥
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परिशिष्ट
आवश्यक-ना क्रियानयस्त्वाह-' नायमि गिण्डियव्वे ' एषैव गाथा, ज्ञाते गृहीतव्ये चार्थे यतितव्यमेव क्रियैव कर्तव्या, सैव फलवती नियुक्ते- न ज्ञानं, यदुक्तम्-- खचूर्णिः। क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्मुखिनो भवेत् ॥
किंच, केवलज्ञानवतोऽपि शैलेशी क्रियां विना मोक्षानवाप्तेः क्रियैव प्रधानभूता । ज्ञानक्रियानयद्वयमतयुक्ती श्रुत्वा किमत्र | तत्त्वमिति संशयाने शिष्ये गुरुराह
सव्वेसि पि नयाणं, बहुविहवत्तवयं निसामित्ता । तं सव्वनयविसुद्धं, जं चरणगुणढिओ साहू ।। १६३७ ।। पूर्वाई स्पष्टं, तत्सर्वनयविशुद्धं यच्चरणगुणस्थितः साधुः यतो यथाख्यातचारित्रिण एव महोदयपदावाप्तिरिति ॥१६३७॥
॥ इति श्रीतिल काचार्यविरचितायामावश्यकलघुवृत्तौ प्रत्याख्यानाध्ययनं समाप्तम् ।। ॥ ० ६१८ तत्समाप्तौ समाप्तेयमावश्यकलघुवृत्तिः॥ ॥ सर्वसङ्ख्यया ग्रन्थाग्रं. १२३२५ श्लोकाः॥ तीर्थे वीरविभोः सुधर्मगणभृत्सन्तानलब्धोन्नति-चारित्रोज्ज्वलचन्द्रगच्छ जलधिमोल्लासशीतद्युतिः। साहित्यागमतर्कलक्षणमहाविद्यापगासागरः, श्रीचन्द्रप्रभसूरिरद्भुतमतिर्वादीभसिंहोऽभवत् ॥१॥ तत्पट्टलक्ष्मीश्रवणावतंसाः, श्रीधर्म योषप्रभवो बभूवुः । यत्पादप कलहंसलीलां, दधौ नृपः श्रीजयसिंहदेवः ॥ २॥ तत्पट्टोदयशैलशृङ्गमभजत्तेजस्विचूडामणिः, श्रीचक्रेश्वरसरिरित्यभिधया कोऽप्यत्र मानुर्नवः ।
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सम्प्राप्ताभ्युदयः सदैव तमसा नो जातुचिन्नायितः, नैवोच्चण्डरुचिः कदाचिदपि न प्राप्तापरागस्ततः ॥ ३ ॥ विलास स्वैरं तत्पट्ट - प्रासादचन्द्रशालायाम् । श्रीमान् शिवप्रभगुरुः, संयमकमलाकृतासक्तिः ॥ ४ ॥ श्रीशिवममरिणां तेषां शिष्योऽस्मि मन्दधीः । नाम्ना श्रीतिलकाचार्य:, श्रुताराधनगृद्धिभाक् ॥ ५ ॥ एतां वृत्तिं लघुमविषमां, सोऽहमावश्यकीयां । तत्पादाम्बुस्मरणमहसा मुग्धधीरण्यकार्षम् । द्यत्किञ्चिद्रवतो धमस्यामशुद्धं, तत्संशोध्यं मम कृतकृपैः सूरिभिस्तत्त्वविद्भिः ॥ ६ ॥ वृति रचयता चैतां सुकृतं यन्मयार्जितम् । भवे भवेऽहं तेन स्यां श्रुताराधनतत्परः ॥ ७ ॥ शते द्वादशब्दानां गते विक्रमभूभुजः । संवत्सरे षण्णवते - वृत्तिरेषा विनिर्ममे ॥ ८ ॥ शिष्या नः शस्यचारित्राः सर्वशास्त्राब्धिपारगाः । अस्यां साहाय्यकं चक्रुः, श्रीपद्मप्रभसूरयः ॥ ९ ॥ शिष्योऽस्माकमिमां वृत्ति- मखिन्नः शास्त्रतत्वविद् । अलिलिखत्मथमा- दशै यशस्तिलकपण्डितः ॥ १० ॥ ससपादत्रिशत्यस्यां श्लोक द्विषट्सहस्रिका प्रत्यक्षरेण संख्याना -दिति निश्चितवानहम् ॥ ११ ॥ यावद्विजयते तीर्थ, श्रीमद्वीर जिनेशितुः । तावदेषा मरालीव, खेळतात् कृतिमानसे ॥ १२ ॥
॥ श्रीरस्तु ॥
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श्रीहरिभद्रसूरिकृतवृश्यनुसारेण मट्टारकश्रीज्ञानसागरसूरिविरचिता
श्रुतकेवलीश्रीभद्रबाहुस्वामिसूत्रितनियुक्तियुत
श्रीमदावश्यकसूत्रावचूर्णिः।
अथ चतुर्विंशतिस्तवाख्यं द्वितीयमध्ययनम् नामनिष्पन्ने निक्षेपे चतुर्विंशतिस्तवाध्ययनमिति । चतुर्विंशतिस्तवाध्ययनशब्दाः प्ररूप्याः, तथा चाहचउवीसइत्थयस्स उणिक्खेवो होइ णामणिप्फण्णो। चउवीसइस्स छक्को थयस्स उ चउविहो होइ।१०६९/
स्तवस्य चतुर्विधः, तुशब्दादध्ययनस्य च ॥ १०६९ ॥ आद्यद्वारमाहनामंठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे । चउवीसइस्स एसो निक्लेवो छबिहो होइ॥१९०॥ (भा०)
नामचतुर्विंशतिर्जीवादेश्चतुर्विशतिरिति नाम चतुर्विंशतिशब्दो वा, स्थापनाचतुर्विंशतिश्चतुर्विशतीनां केषाश्चित्स्थापना,
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१९४
आवश्यकता द्रव्यचतुर्विशतिश्चतुर्विशतिद्रव्याणि, क्षेत्रचतुर्विशतिश्चतुर्विंशतिः क्षेत्राणि भरतादीनि, कालचतुर्विशतिश्चतुर्विशतिः समयादयः, | स्तवनिनिर्युक्तेरव- भावचतुर्विंशतिश्चतुर्विशतिभाव[सं]योगाः । इह सचित्तद्विपदद्रव्यरूपमनुष्यचतुर्विशत्याधिकारः ॥ १९० ॥ स्तवमाह- क्षेपाः भा० चूर्णिः । | नामंठवणा दविए भावे अथयस्स होइ निक्खेवो।दवथओ पुप्फाई संतगुणुवित्तणा भावे ॥१९॥
भागा• १९१कारणे कार्योपचारात् द्रव्यस्तवः पुष्पादिः ॥ १९१॥
दवथओ भावथओ दवथओ बहुगुणत्ति बुद्धि सिआ।
अनिउणमइवयणमिणं छज्जीवहिअंजिणा बिंति ॥ १९२ ॥ (भाष्यम्) द्रव्यस्तवो भावस्तव इत्यत्र द्रव्यस्तवो बहुगुण इत्येवं चेद् बुद्धिः स्यादेवं चेन्मन्यसे इत्यर्थः, अनिपुणमतिवचनमिदं, किमित्यत आह-षड्जीवहितं जिना जुवते, प्रधानं मोक्षसाधनमिति गम्यते ॥ १९२ ।। किं षड्जीवहितमित्यत आहछज्जीवकायसंजमु दवथए सो विरुज्झई कसिणो।तो कसिणसंजमविऊ पुप्फाईअंन इच्छंति ।१९३॥ भा०
षड्जीवनिकायानां संयमा-संघट्टादित्यागो हितं, स'द्रव्यस्तवे' पुष्पादिसमभ्यर्चनरूपे विरुध्यते, 'कृत्स्नः' सम्पूर्णः, कृत्स्नसंयमविद्वांसः साधवा, पुष्पादिकं द्रव्यस्तवं ॥ १९३ ।। अकसिणपवत्तगाणं विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो।संसारपयणुकरणोदवथए कूवदिटुंतो।१९४।भा०
॥२
॥
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आवश्यकनियुक्तरव
लोकनिक्षेपाः नि० गा.
चूर्णिः
।
॥३॥
भा० गा.
१९५
अकृत्स्नं प्रवर्तयन्तीति, संयममिति सामर्थ्यगम्यं, अकृत्स्नप्रवर्तकास्तेषां, संसारप्रतनुकरणः-संसारक्षयकारकः, कृपदृष्टान्तः, यथा कुपे खन्यमाने जलनिर्गमे डादिनाशस्तेषामन्ये लोकाः सुखिनः स्युः, एवं द्रव्यस्तवेऽपि ॥ १९ ॥
अध्ययनशब्दोऽन्यत्रोक्त एव, सूत्रानुगमे [ सूत्रं]लोगस्सजोयगरे धम्मतित्थयरे जिणे। अरिहंते कित्तडस्सं चउवीसं पि केवली॥१॥ सूत्रे लोकस्योद्योतकरानिति यदुक्तं तत्र लोकमाह
नामं १ ठवणा २ दविए ३ खित्ते ४ काले ५ भवे अ६ भावे अ७ ।
पजवलोगे अ ८ तहा अट्ठविहो लोगणिक्खेवो ॥ १०७० ।। द्रव्यलोकमाहजीवमजीवे रूवमरूवी सपएसमप्पएसे अ। जाणाहि दवलोगं णिच्चमणिचंचजंदवं ॥ १९५॥ भा०
जीवाऽजीवौ द्विमेदौ रूप्यरूपिमेदार , तत्र कर्मपरिगता रूपिणः-संसारिणः, अन्येऽरूपिणः-सिद्धाः, अजीवास्त्वरूपिणो धर्माधर्माकाशाः, रूपिणोऽण्वादयः, एतौ च सप्रदेशाप्रदेशौ, जीवः कालादेशेन नियमात्सप्रदेशः, लब्ध्यादेशेन तु सप्रदेशोऽप्रदेशो वा, एवं धर्मादिषु त्रिषु परापरनिमित्तं पक्षद्वयं वाच्यं, परमाणुर्द्रव्यतोप्रदेशः, व्यणुकादयः सप्रदेशाः, नित्यानित्यं च यद्रव्यं, चशब्दादमिलाप्यादिसमुच्चयः ।। १९५ ।। जीवाजीवयोनित्यानित्यतामेवाह
॥३॥
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आवश्यकविर्युक्तेरवचूर्णिः ।
द्रव्यक्षेत्रकालभवमावलोकाः भा० गा. १९६२००
गइ १ सिद्धा २ भविआया ३ अभविअ ४-१ पुग्गल १ अणागयद्धा य २।
तीअद्ध ३ तिन्नि काया ४-२ जीवा १ जीव २ ढिई चउहा ॥ १९६ ॥ (भाष्यम्) प्राग्व्याख्याता ( सामायिकवद् व्याख्या कार्या) ॥ १९६ ॥ आगासस्स पएसा उहच अहे यतिरियलोए ।जाणाहि खित्तलोगं अणंत जिणदेसिअंसम्म ।१९७भा०
आकाशस्य प्रदेशा:-प्रकृष्टा देशाः प्रदेशास्तान्, ऊर्द्धवलोकेऽधोलोके तिर्यग्लोके च जानीहि क्षेत्रलोकं, क्षेत्रमेव लोक्यत इति लोकः अनन्तमा(मलोका)काशप्रदेशापेक्षया ॥ १९७॥ समयावलिमुहुत्ता दिवसमहोरत्तपक्खमासा यासंवच्छरजुगपलिआ सागरओसप्पिपरिअडा।१९८भा० ___परावर्तः' पुद्गलपरावर्तः ॥ १९८ ॥ उक्तः काललोकः, [ अधुना भवलोकमभिधित्सुराह-] णेरइअदेवमणुआतिरिक्खजोणीगया यजेसत्ता। तंमि भवे वटुंताभवलोगंतंविआणाहि ॥१९९॥भा० नारकादयो ये सवाः तस्मिन् भवे वर्चमाना यदनुभावमनुमवन्ति भवलोकं तं ॥ १९९ ॥
ओदइए १ ओवसमिए २ खइए अ३ तहा खओवसमिए अ४। परिणामि ५ सन्निवाए अ६ छबिहो भावलोगो उ॥ २००। (भाष्यम्)
॥४
॥
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आवश्यकनियुक्तरव
चूर्णिः ॥५॥
17
भावपर्याय लोको मा०
गा० २०१. । २०३
G
उदयेन निवृत्तः औदयिका, कर्मण इति गम्यते ॥२०॥• ओदइअखओवसमे परिणामेकेको(क) गहचउकेवि । खय- जोगेणवि चउरो तदमावे उवसमेणंपि ॥१॥ उवसमसेढी एक्को केवलिणोऽवि य तहेव सिद्धस्स । अविरुद्धसन्निवाइयमेया एमेव पण्णरस ॥२॥' तिबोरागोअदोसोअउइन्ना जस्सजंतुणो।जाणाहि भावलोअं अणंतजिणदेसिअंसम्म २०१०भा०
तीव्रो रागश्च द्वेषश्च, एतावुदीरें यस्य जन्तोः, तं प्राणिनं तेन भावेन लोक्यत्वाजानीहि भावलोकं अनन्तजिनदेशितं सम्यक ॥२०१॥ दवगुण १ खित्तपज्जव २भवाणुभावे अभावपरिणामै ।जाण चउबिहमेअंपज्जवलोगं समासेणं।२०२भा० - द्रव्यगुणा:-रूपादयः, तथा क्षेत्रस्य पर्यायाः-अगुरुलघवो भरतादिभेदा वा, भवस्य नारकादेरनुमावः-तीव्रतमदुःखादिः, मावस्य जीवाजीवरूपस्य (वसम्बन्धिनः) परिणामस्तेन तेनाज्ञानाद् ज्ञानं नीललोहिता( नीलाल्लोहितमित्या )दिप्रकारेण भवनं, चतुर्विधमेनमोषतः पर्यायलोकं ॥ २०२॥ यदुक्तं द्रव्यस्य गुणा इत्यादि तदाहवन्नरसगंधसंठाणफासट्टाणगइवन्नभेए.अ। परिणामे अबहुविहे पजबलोगं विआणाहि ॥२०३॥ भा०
वर्णः कृष्णादिः रसश्च तिक्तादिः पञ्चधा, गन्धः द्विधा, संस्थानं परिमण्डलादि पञ्चधा, स्पर्शः कर्कशादिरष्टधा, स्थान| अवगाहरूपं, तदाश्रयप्रदेशमेदादनेकधा, गतिः-इलिकागत्यादिव॑िधा, वर्णादिभेदा एकगुणकृष्णादयः, अनेन द्रव्यगुणा
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आवश्यक- नियुक्तेरव-
चूर्णिः ।
॥६॥
इति व्याख्यातं । परिणामांश्च बहुविधान् जीवाजीवगोचरान्, अनेनान्त्यद्वारं, शेषं स्वयं ज्ञेयं ।।२०।। लोकपर्यायशब्दानाह- लोकपर्याआलुक्कइ अपलुक्कइ लुक्कइ संलुक्कई अ एगट्ठा। लोगो अट्टविहो खलु तेणेसो वुच्चई लोगो॥१०७१॥ः नि०
गा० ___ आलोक्यत इत्यालोकः, प्रलोक्यत इति प्रलोकः, लोक्यत इति लोकः, संलोक्यत इति संलोकः, एते एकार्थिकाः ।
१०७१ लोकोऽष्टविधः खल्वित्यत्राऽऽलोक्यत इत्यादि योज्यं ॥ १०७१ ॥ उद्योतमाह
द्रव्य. दुविहो खलु उज्जोओ नायवो दवभावसंजुत्तो। अग्गी दव्वुजोओ चंदो सूरो मणी विज्जू ॥१०७२॥
| भावोद्योती द्रव्यभावसंयुक्तो द्रव्योद्योतो भावोद्योतश्च ॥ १०७२ ॥
नि. गा. | नाणं भावुजोओ जह भणियं सवभावदंसीहि । तस्स उवओगकरणे भावुजोअंविआणाहि ॥१०७३॥ १०७१
ज्ञानं मावोद्योता, यथा भणितं सर्वभावदर्शिभिः, तथा यज्ज्ञानं, सम्यग्ज्ञानमित्यर्थः, तदपि नाविशेषणोद्योतः किन्त १०७५ तस्य-ज्ञानस्योपयोगकरणे सति ।। १०७३ ।। येनोद्योतेन लोकस्योद्योतकरा जिनास्तेनैव युक्तानाहलोगस्सुज्जोअगरा दव्वुजोएणन हु जिणा हुंति । भावुजोअगरा पुण हुंति जिणवरा चउबीसं ॥१०७४॥ दव्वुजोउज्जोओ पगासई परिमियंमि खित्तमि । भावुज्जोउजोओ लोगालोग पगासेइ ॥ १०७५॥
द्रव्योद्योतोद्योत:-द्रव्योद्योतप्रकाशः॥१०७५ ॥ करं प्राप्तमपि धर्मतीर्थकरानित्यत्र वक्ष्यमाणत्वात्मुवा धर्ममाह
॥६
॥
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आवश्यक- नियुक्केरव-
चूर्णिः
धर्मतीर्थयोनिक्षेपाः निगा. १०७६१०८०
॥
७॥
दुह दवभावधम्मो दवे दवस्स दवमेवऽहवा । तित्ताइसभावो वा गम्माइत्थी कुलिंगो वा ॥१०७६॥
धर्मो द्विधा-द्रव्यधर्मों भावधर्मश्च, द्रव्यद्वारे, द्रव्यस्य धर्मो द्रव्यधर्मो, अनुपयुक्तस्य मूलोत्तरगुणानुष्ठान, द्रव्यमेव वा धर्मो धर्मास्तिकायः, तिक्तादिर्वा द्रव्यस्वभावो द्रव्यधर्मः, गम्यादिधर्मः स्त्रीविषयः, केषाश्चिन्मातुलदुहिता गम्या केषाचिन्नेत्यादि, कृतीर्थिकधर्मो द्रव्यधर्मः ॥ १०७६ ।। दुह होइ भावधम्मो सुअचरणे जासुअंमि सज्झाओ।चरणंमि समणधम्मो खंतीमाई भवे दसहा ।१०७७ . श्रुतधर्मश्चारित्रधर्मश्च ॥ १०७७ ॥ तीर्थमाहनामं ठवणातित्थं दवतित्थं च भावतित्थं च । एक्केकंपि अ इत्तोऽणेगविहं होइ णायत्वं ॥१०७८॥ दाहोवसमं तण्हाइछेअणं मलपवाहणं चेव । तिहि अत्यहि निउत्तं तम्हा तं दवओ तित्थं ॥१०७९॥
द्रव्यतीर्थ मागधवरदामादि बाह्यदाहादेरेव तत उपशमसद्भावात् , त्रिभिरथैनिश्चयेन युक्तं नियुक्तं ॥१०७९ ॥ भावतीर्थमधिकृत्याहकोहंमि उनिगहिए दाहस्स पसमणं हवइ तित्था लोहंमि उ निगहिए तण्हाए छेअणं होइ ॥१०८०॥
क्रोध एव निगृहीते दाहस्योपशमनं भवति तथ्यं ॥ १०८०॥
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आवश्यक नियुक्तेरव चूर्णिः।
मावतीर्थ करनिक्षेपा. शनि०
गा० १०८११०८५
अढविहं कम्मरयं बहुएहि भवेहिं संचिअं जम्हा। तवसंजमेण धुबइ तम्हा तं भावओतित्थं॥१०८१॥
तन-प्रवचनं भावतस्तीर्थ ॥ १०८१ ॥ सणनाणचरिनेसु निडनं जिणवरेहिं सवेहिं । तिसु अत्थेसु निउत्तं तम्हा तं भावओ तित्थं ॥१०८२॥ दर्शनज्ञानचारित्रेषु नियुक्तं-नियोजितं जिनवरैः ॥ १०८२ ॥ करमाह
नामकरो १ ठवणकरो २ दबकरो ३ खित्त ४ काल ५ भावकरो ६ ।
एसो खलु करगस्स उ निक्खेवो छबिहो होइ ॥१०८३ ॥ द्रव्यकरमाहगोमेहिसुटिपैलूंणं छर्गलीणंपि अकरा मुणेयवा । तत्तो अ तर्णपलाले भुसटुंगोरपलले य ॥१०८४॥ सिउबरेजधौए बलिव(भ)दकए |ए अचम्मे आचुल्लैंगकरे अ भणिए अट्ठारसमाकरुप्पत्ती ॥१०८५॥
गोकरस्तद्याचनमेव तद्वारेण वा रूपकाणामित्येवं सर्वत्र । शीताकर:-भोगः क्षेत्रपरिणामोद्भव इत्यन्ये, देवतावल्यर्थमर्थार्थनं बलिकरः, मद्रा बलीवर्दास्तेषां करा, अष्टादशमकर उत्पत्तिकरः स्वकल्पनाशिल्पनिर्मित: शतरूपकादिः ॥१०८४८५ ॥ क्षेत्रकरादीनाह
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आवश्यकता खित्तमिजमिखित्ते काले जो जमि होइ कालंमि।दुविहो अहोइ भावे पसत्थु तह अप्पसत्थो अ॥१०८६॥ नियुक्तेरव
निक्षेपाः यो यस्मिन् क्षेत्रे शुल्कादिः॥१०८६ ॥ चूर्णिः
नि० गा० | कलहकरो डमरकरो असमाहिकरोअनिव्वुइकरो। एसो उ अप्पसत्थोएवमाई मुणेअबो ॥१०८७॥
१०८६. वाचिकः कलहः, कायवाग्मनोभिस्ताडनादिगहनं डमरं, असमाधिरस्वास्थ्यनिबन्धना सा कायादिचेष्टा ॥ १०८७ ॥
૨૦૮૮ अत्थकरो अहिअकरो कित्तिकरो गुणकरो जसको अ।
|जिनारिहअभयकर निव्वुइकरो कुलगर तित्थकरंतकरो ॥ १०८८ ॥
तादिव्याओषत एव विद्यादिरर्थः, कर्मक्षयोपशमादिभावतस्तस्करणशीलोऽर्थकरः, एवं हितादिष्वपि, अन्तः कर्मणः संसारस्य
|ख्या नि.
गा. वा ॥ १०८८ ॥ उक्तो मावकरः, अथ जिनाबाह-- . जियकोहमाणमाया जियलोहा तेण तेजिणा हुंति। अरिणो हंता रयं हंता अरिहंता तेण वुचंति ॥१०८९॥१०८९.
कीर्तयिष्यामीत्याद्याहकित्तेमि कित्तणिजे सदेवमणुआसुरस्स लोगस्त।दसणनाणचरित्ते तवविणओ दंसिओ जेहिं ॥१०९०॥ ||
कीर्तयिष्यामि नामभिर्मणैश्च, गुणानाह-'दंसणे 'त्यादि, तप एवं कर्मविनयनात्तपोविनयः ॥ १०९० ॥
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आवश्यक- नियुक्तेरवचूर्णिः ।
०९२॥
तीर्थना|मकीर्तनं नामार्थश्व नि० गा. १०९२.
॥१०॥
चउवीसंति य संखा उसभाईआ उ भण्णमाणा उ। अविसद्दग्गहणा पुण एरवयमहाविदेहेसुं ॥ १०९१॥
ऐरवतमहाविदेहेषु ये तद्रहोऽपि ज्ञेयः॥१०९१॥ कसिणं केवलकप्पं लोगं जाणांत तह य पासंति। केवलचरित्तनाणी तम्हा ते
'कृत्स्नं' संपूर्ण, 'केवलकल्पं केवलोपमं, 'लोक' पञ्चास्तिकायात्मकं ॥१०९२॥ यदुक्तं 'कीर्तयिष्यामीति' तदाहउसभमजिअंच वंदे संभवमभिणंदणं च सुमई च । पउमप्पहं सुपासं जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥२॥ सुविहिं च पुप्फदंतं सीअल सिजंस वासुपुजं च। विमलमणंतं च जिणं धम्म संतिं च वंदामि ॥३॥ कुंथु अरंच मल्लिं वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च। वंदामि रिटनेमि पासं तह वद्धमाणंच॥४॥(सूत्राणि)
ऊरूसु उसभलंछण उसभं सुमिणमि तेण उसभजिणो।
अक्खेस जेण अजिआ जणणी अजिओ जिणो तहा ॥ १०९३ ॥ ऊरुद्वये ऋषभं स्वप्ने पूर्वमपश्यन्माता, अक्षेषु देवी अजिता राजा ॥ १०९३ ॥ अभिसंभूआ सासत्ति संभवो तेण वुच्चई भयवं। अभिणदई अभिक्खं सक्को अभिणंदणो तेण ॥१०९४॥ गर्भगते शस्यान्यधिकमभिसम्भूतानि, गर्मप्रभृति शक्रोऽमीक्ष्णमभिनन्दति ॥ १०९४ ॥
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आवश्यक निर्युक्तेरवचूर्णिः
जणणी सवत्थ विणिच्छएसु सुमइत्ति तेण सुमइजिणो।
तीर्थकुनापउमसयणमि जणणीइ डोहलो तेण पउमाभो ॥ १०९५॥
मार्थः द्वयोः सपत्न्योर्मतपतिकयोर्व्यवहारे देव्योक्तं मम पुत्रो जातो यौवनस्थो युवयोर्विवादच्छेत्ता, पुत्रमाता नेच्छति ज्ञातं. ।
नि० गा०
१०९५पद्मशयनीयो दोहदो देवतया अपूरि, पद्मवर्णश्च ॥ १०९५ ।। गभगए जंजणणी जाय सुपासातओ सुपासजिणो।जणणीए चंदपियणमि डोहलो तेण चंदाभो। १०९६
चन्द्रवर्णश्च ॥ १०९६ ॥ सबविहीसु अकुसला गब्भगए तेण होइ सुविहिजिणो।पिउणो दाहोवसमो गभगए सीयलो तेणं।१०९७।
सर्वविधिषु विशेषतः कुशला जननी, पितुर्दाहोपशमो देवीकरस्पृष्टस्याभूत् ॥ १०९७ ॥ महरिहसिज्जारुहणमि दोहलो तेण होइ सिजंसो। पूएइ वासवो जं अभिक्खणं तेण वसुपुजो॥१०९८॥
परम्परागतदेवतापरिगृहीतशय्यारोहणे देव्या दोहदे, तत्रोपविष्टाया(यां) आरस्य देवतागता, श्रेयो जातं तेन प्राकृतत्वात् श्रेयांस इति । गर्भगते जनन्या वासवः पूजां करोति ॥ १०९८ ॥
G ॥११॥
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आवश्यकनियुक्तेरव
चूर्णिः । ॥१२॥
विमलतणुबुद्धि जणणी गब्भमए तेण होइ विमलजिणो।
तीर्थकुन्नारयणविचित्तमणंतं दामं सुमिणे तओऽणंतो ॥ १०९९ ॥
मार्थः
नि. गा० मातुः शरीरं बुद्धिश्चातीव विमला जाता, रत्नविचित्रमनन्तमतिमहाप्रमाणं दाम स्वप्ने जनन्या दृष्टं ॥ १०९९ ॥ गब्भगएजंजणणी जाय सुधम्मत्ति तेण धम्मजिणो।जाओ असिवोवसमोगब्भगए तेण संतिजिणो ११०० ११०४ थूहं रयणविचित्तं कुंथु सुमिणमि तेणकुंथुजिणो। सुमिणे अरं महरिहं पासइ जणणी अरो तम्हा। ११०१
स्तूपं रत्नविचित्रं कुस्थमत्युच्चमहाप्रदेशस्थं स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धा। माता सर्वस्नमवमतिसुन्दरमरं स्वप्ने पश्यति ॥ ११०१ | वरसुरहिमल्लसयणंमि डोहलो तेण होइ मल्लिजिणो।जाया जणणीजंसुवयत्ति मुणिसुबओ तम्हा ११०२ ।
मातुः सर्वर्तुकवरसुरभिकुसुममाल्यशयनीये दोहदो जातो देवतया अपूरि ॥ ११०२॥ पणया पच्चंतनिवादंसियमित्ते जिणमि तेण नमी। रिटरयणंच नेमि उप्पयमाणं तओ नेमी ॥ ११०३॥
प्रत्यन्तनृपैः पुरे रुद्धे देव्या अट्टालके आरोढुं श्रद्धा जाता आरूढा च, दृष्टा ततस्ते प्रणताः । मात्रा रिष्टरस्नमयो महानेमिरुत्पतन् स्वप्ने दृष्टः॥ ११०३ ॥ सप्पं सयणे जणणी तंपासइ तमसि तेण पासजिणो। वड्डइ नायकुलांत अतेण जिणो वद्धमाणुत्ति।११०४ ॥ १२ ॥
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आवश्यक निर्युक्तेरव चूर्णिः ।
एवं मएं अभिथुआ विहुयरयमला पहीणजरमरणा। चउवीसंपि जिणवरा तित्थयरा मे पसीयंतु॥५॥ अभिष्टवकित्तियवंदियमहिआजेए लोगस्स उत्तमा सिद्धा।आरुग्गबोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दितु।। (सूत्रम्)||
कीर्तनका
र्थिकानि __ अभिष्टवकीर्तनैकार्थिकान्याह
आरोग्य थुइथुणणवंदणनमंसणाणि एगढिआणि एआणि ।
बोधिलाकित्तण पसंसणावि अ विणयपणामे अ एगट्ठा ॥ ११०५ ॥
मार्थश्च ___ स्तुतिः स्तवनं वन्दनं नमस्करणं, तथा कीर्तनप्रशंसे विनयप्रणामौ ॥११०५ ॥ उत्तमा इत्याह
नि० गा. मिच्छत्तमोहणिज्जा नाणावरणा चरित्तमोहाओ। तिविहतमा उम्मुक्का तम्हा ते उत्तमा हुँति ॥११०६॥ ||११०५. ___ यदुक्तमारोग्यबोधिलाममित्यादि तत्राह
११०७ आरुग्गबोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं च मे दितु। किं नु हुनिआणमेअंति?, विभासा इत्थ कायवा ।११०७
किमिति परप्रश्ने, नु वितर्के, हु तत्समर्थने, निदानमेतत?, गुरुराह-विभाषा-विषयविभागव्यवस्थापनेन व्याख्या अत्र कर्तव्या, नेदं निदानं, कर्मबन्धहेत्वभावात् , मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवो, न च मुक्तिप्रार्थनायाममीषां सम्भवः ॥ ११०७ ॥ आह-यद्यारोग्यादिप्रदातारः स्युस्तदा रागादिमत्वप्रसङ्गः, अथ न, ततस्तद्दानविकला एवं जानान- ॥ १३ ॥
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आवश्यक-IN स्यापि प्रार्थनायां मृषावाददोषः, नेत्याह
प्रार्थनायां नियुक्तेरव भासा असञ्चमोसा नवरंभत्तीइ भासिआएसा। न हु खीणपिजदोसा दिति समाहिं च बोहिं च ११०८ आक्षेप
चूर्णिः भाषाऽसत्यामृषेयं वर्चते, याश्चारूपत्वात् , आह-वीतरागत्वादारोग्यादिदानविकलाश्च ते, तत्किमनया ?, उच्यते, परिहारों ॥१४॥ | सत्यं, भक्या भाषितैषा, अन्यथा नैव क्षीणप्रेमद्वेषा ददति ॥ ११०८॥
नि. गा. जंतेहिं दायत्वं तं दिन्नं जिणवरेहिं सोहिं । दसणनाणचरित्तस्स एस तिविहस्स उवएसो॥ ११०९ ॥ ११००० यत्तैर्दातव्यं तदत्तं, आरोग्यादिप्रसाधक एष त्रिविधस्योपदेशः ॥११०९॥ आह-ततः साम्प्रतं तद्भक्तिः क्वोपयुज्यते १,
१११२ उच्यते
भत्तीइ जिणवराणं खिज्जती पुत्वसंचिआ कम्मा। आयरिअनमुक्कारेण विजा मंता य सिझंति ॥१११०॥ | | दृष्टान्तमाह-आचार्यनमस्कारेण विद्या मन्त्राश्च सिद्ध्यन्ति, तद्भक्तिमतः ॥१११०।। अतः साध्वी तद्भक्तिरित्याह
भत्तीइ जिणवराणं परमाए खीणपिज्जदोसाणं । आरुग्गबोहिलाभं समाहिमरणं च पावंति ॥११११॥ | जिनमक्तिमात्रादेव [पुनः] बोधिलाभो भविष्यत्येव, किमनेन दुष्करानुष्ठानेनेतिवादिनमधिकृत्योपदेशमाहलद्धिल्लिअंच बोहिं अकरितोऽणागयं च पत्थंतो।दच्छिसि जह तं विन्भल! इमंच अन्नं च चुकिहिसि१११२ ।
लन्धां च वर्तमानकाले बोधिमकुर्वन् , अनागतां चायत्यामन्यां च प्रार्थयन् , द्रक्ष्यसि यथा त्वं हे विह्वल !-जड! इमां ॥१४॥
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| प्रार्थनायां
आक्षेपपरिहारौ नि० मा.
आवश्यक-INIच अन्यां च बोधिमधिकृत्य 'चुक्तिहिसि'त्ति भ्रश्यसि ॥ १११२ ॥ नियुक्तेरव- लद्धिल्लिअंच बोहिं अकरितोऽणागयं च पत्थंतो। अन्नंदाइंबोहिंलब्भिसि कयरेण मुल्लेण? ॥१११३॥ चूर्णिः । तथा लब्धामकुर्वन् अनागतां च प्रार्थयन् 'अनंदाईति असूयायां, बोधि लप्स्यसि कतरेण मृल्येन ? ॥१११३ ॥
तस्मात्सति बोधिलामे तपःसंयमानुष्ठानपरेण भाव्यं [तपःसंयमोद्यमवतश्चैत्यादिषु कृत्याविराधकत्वात् , तथा चाह-] ॥१५॥
चेइयकुलगणसंघे आयरियाणं च पवयणसुए य। सव्वेसुवि तेण कयं तवसंजमुज्जमंतेणं ॥ १११४॥ । सर्वेष्वपि तेन कृतं कृत्यमिति गम्यते, तपासंयमोद्यमवता साधुना, तत्र चैत्यान्यहता, कुलं-विद्याधरादि, गणः-कुल| समुदायः ॥ १११४ ॥ चंदेसु निम्मलयरा आइच्चेसु अहिअंपयासयरा । सागरवरगंभीरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु। ७(सूत्रम्)
अवयवमाहचंदाइच्चगहाणं पहा पयासेइ परिमिअं खित्तं । केवलिअनाणलंभो लोगालोगं पगासेइ ॥१११५॥ ग्रहा अङ्गारकादयः ॥ १११५॥ नयाः पूर्ववत् ॥ इति चतुर्विंशतिस्तवनियुक्त्यवचूर्णिः ॥
इति श्रीचतुर्विशतिस्तवाध्ययनं सभाष्यनियुत्त्यवर्णिकं समाप्तम् ॥
॥१५॥
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आवश्यक
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अथ तृतीयं वन्दनाध्ययनम् ॥ नियुक्तरवचूणिः । नामनिष्पन्ने निक्षेपे वन्दनाध्ययनमिति, तत्र वन्दनस्य पर्यायशब्दानाह
वंदणचिइकिइकम्मं पूयाकम्मं च विणयकम्मं च । कायवं कस्स व केण वावि काहे व कइखुत्तो?॥१११६॥
कुशलकर्मणश्चयनं चितिः, कारणे कार्योपचाराद्रजोहरणाद्युपधिसंहतिः, कृतिः-अवनामादिकरणं, वन्दनचितिकृतय एव कर्म-क्रिया, कर्मशब्दः प्रत्येकं योज्यः, पूजा-प्रशस्तमनोवाकायचेष्टा, आह-वन्दनं कर्त्तव्यं कस्य वा केन वापि कदा वा कतिकृत्वो वा ? ।। १११६ ॥ कइओणयं कइसिरंकाहिंच आवस्सएहि परिसुद्धं । कइदोसविप्पमुकं किइकम्मं कीस कीरइ वा?१११७
कत्यवनतं तद्वन्दनं कर्त्तव्यं, कतिशिरः, कतिभिर्वा आवश्यकैः परिशुद्धं, कतिदोषविप्रमुक्तं, कृतिकर्म, 'किस'त्ति किमिति वा क्रियते । तत्र वन्दनकर्मादीनि द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च ॥ १९१७॥ द्रव्यमावभेदप्रचिकटयिषया दृष्टान्तानाह। सीयले खुड्डए कण्हे सेवए पालए तहा। पंचेते दिट्रंता किइकम्मे होति णायवा ॥ १११८ ॥
___ एकस्य राज्ञः पुत्रः शीतला प्रवनिता, तस्य भगिनी अन्यराज्ञे दत्ता, सा स्वसुतचतुष्कस्य शीतलाचार्यप्रशंसां करोति । पुत्राः स्थविरान्ते प्रव्रज्य बहुश्रुता गुरुमापृच्छथ मातुलवन्दनाय एकस्मिन्पुरे श्रुत्वा गताः । मध्ये प्रवेष्टुकामश्राद्धाय कथ
वन्दनपर्यायाः कस्य वन्दनं कर्त्तव्यमित्यादि दृष्टान्ताश्च नि० गा. १११६. १११८
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आवश्यकनियुक्तरव
चूर्णिः
वन्दने दृष्टान्ताः केषां वन्दनं न कर्त्तव्यं निगा.
यित्वा विकाले बहिर्देवकुले स्थिताः, रात्रौ तेषां ज्ञानं, प्रगेऽनिवृत्त्या मातुलाऽऽगमनं, पूर्व कषायतो द्रव्यवन्दनं, ज्ञाते भाववन्दनतः शीतलस्यापि केवलज्ञानं । एकः क्षुल्लकः सल्लक्षण आचार्यैः कालं कुर्वद्भिः पदे स्थापितो गीतार्थसाधूनां मूले पठति, सोऽन्यदा मोहनीयोदयाद्भग्नपरिणामः साधूषु भिक्षां गतेषु बहि मिमिषादेकदिशा गच्छन् वने तिलकबकुलादिषु सत्स्वपि शमीपूजनकं जनं दृष्ट्वा पूज्यैः पूजितोऽयमिति च श्रुत्वा शमीझुक्खरसमोऽहं, कुतो मे श्रामण्यं ?, रजोहरणादिचितिगुणेन मां पूजयन्तीति विमृश्याऽऽगतः साधूनामालोचितवान् , तस्य पूर्व द्रव्यचितिः पश्चाद्भावचितिः । कृष्णवासुदेवस्य श्रीनेम्यागमने सर्वसाधून् द्वादशाव-वन्दनेन वन्दमानस्य भावकृतिकर्म, वीरकस्य द्रव्यकृतिकर्म । एकस्य राज्ञो द्वौ सेवको, ग्रामसीमनिमित्तं राजकुलं गच्छन्तौ पंथि साधुं दृष्ट्वा ध्रुवा सिद्धिरित्येको मावेन वन्दितवान् अपरस्तूद्घट्टनं कुर्वन् व्यवहारे जितः, [तस्य द्रव्यपूजा इतरेण ] भावपूजा कृता । श्रीनेमिः प्रथमं वन्दितः पालकेन द्रव्यतः, शाम्बेन भावतः ॥१११८ ॥ यदुक्तं वन्दनं कर्त्तव्यं कस्य वेति, तत्र येषां न कर्त्तव्यं तानाहअसंजयं न वंदिजा मायरं पियरं गुरुं। सेणावई पसत्थारं रायाणं देवयाणि य॥ १११९ ॥
असंयता:-अविरतास्तान वन्देत, कान् ? मातरं तथा पितरं गुरुं-पितामहादिलक्षणं, असंयतमिति सर्वत्र योजनीयं, | सेनापति-गणराजं प्रशास्तारं-धर्मपाठकादिलक्षणं, राजानं-बद्धमुकुटं देवतानि च न वन्देत ॥ १११९ ॥ अथ यस्य वन्दनं कर्त्तव्यं स उच्यते
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वन्द्यावन्धविचारः नि. गा. ११२०११२१
आवश्यक | समणं वंदिज मेहावी संजयं सुसमाहियं । पंचसमिय तिगुत्तं अस्संजमदुगुंछगं ॥ ११२०॥ नियुक्तेरव
___ संयतं क्रियायां प्रयत्नवन्त, सुसमाहितं दर्शनादिषु, असंयमजुगुप्सकं ॥११२० ॥ इत्थम्भूतमेव वन्देत न पार्श्व. चूर्णिःस्थादीन् , [ तथा चाह-] ॥१८॥
| पंचण्हं किइकम्मं मालामरुएण होइ दिटुंतो । वेरुलियनाणदंसणणीयावासे य जे दोसा ।। ११२१ ॥
पञ्चानां कृतिकर्म न कर्तव्यं, पार्श्वस्थादीनां यथोक्तश्रमणगुणविकलत्वात् , तथा संयता अपि ये पार्श्वस्थादिभिः साई संसर्ग कुर्वन्ति तेषामपि कृतिकर्म न कार्य, आह-कुतोऽयमर्थोऽवगम्यते ?, उच्यते, मालामरुकाभ्यां भवति दृष्टान्त इति वचनात् , 'वेरुलिअति संसर्गजदोषत्यागाय वैडूर्यदृष्टान्तो भविष्यति, ' नाण' ति दर्शनचारित्राऽऽसेवनसामर्थ्यविकला एवमाहुः-ज्ञानिन एव कृतिकर्म कार्य, 'कामं चरणं भाव ' इत्यादि, 'दसण 'त्ति ज्ञानचरणविकला एवमाहुः-दर्शनिन एव, 'जह नाणेण 'मित्यादि, अन्ये नित्यवासादि प्रशंसन्ति, परे चैत्याद्यालम्बनं कुर्वन्ति, तदत्र नित्यावासे ये दोषाः चशब्दाकेवलज्ञानदर्शनपक्षे च [ चैत्यमक्ति ] आर्यिकालाभविगतिपरिभोगपक्षे च ते वक्तव्याः ॥ ११२१ ।। पञ्च स्वरूपत आहपासत्थो ओसन्नो होइ कुसीलोतहेव संसत्तो। अहछंदोऽविय एए अवंदणिज्जा जिणमयंमि ॥१॥(प्र०)
[इयमन्यकत्तृकीगाथा ], 'सो पासत्थो दुविहो सब्वे देसे य होइ णायवो । सबंमि णाणदंसणचरणाणं जो उ पासंमि ॥१॥ देसंमि य पासत्यो सिजायरऽभिहड रायपिंडं वा । णिययं च अग्गपिंडं झुंजति णिक्कारणेणं च ॥ २॥ कुलणिस्साए विहरह
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पार्श्वस्थाद्यवन्द्यस्वरूपं
आवश्यक- ठवणकलाणि य अकारणे विसइ । संखडिपलोयणाए गच्छइ तह संथवं कुणई ॥ ३ ॥ ओसनोऽवि य दुविहो सके देसे य तत्थ निर्यक्रवण सबंमि । उउबद्धपीढफलगो ठवियगभोई यणायबो॥४॥' सामाचार्यासेवनेऽवसन्नवदवसन्नः, 'ठविअगमोई' ति चूर्णि
स्थापनापिण्डमोजी ॥१-४॥ देशावसनस्तु-'आवस्सगसज्झाए पडिलेहणझाणमिक्खऽमत्तढे । आगमणे णिग्गमणे |
ठाणे य णिसीयणतुअट्टे ॥ ५॥ आवस्सयाइयाई ण करे करेइ अहवावि हीणमधियाई । गुरुवयणवलाइ तथा मणिओ एसो ॥१९॥ य ओसन्नो ॥ ५-६ ॥''गुरुवयणबलाइ' ति गुरुणा शिक्षित आलजालानि जल्पति ॥ ६ ॥ ‘गोणो जहा वलंतो मंजइ
समिलं तु सोऽवि एमेव । गुरुवयणं अकरेंतो बलाई कुणइ व उस्सोढं ॥ ७॥'' गोणो' त्ति गौः गलिः, 'कुणई व उस्सोढं' ति गच्छादिनिष्कासनभयात् यद्वा त्वत्समीपे किमहमेवैकोऽस्मि येन पुन: पुनर्मामेवाकारयतेत्याद्यस्यावाक्यमुक्त्वा करोति ॥ ७॥ 'तिविहो होइ कुसीलो णाणे तह दंसणे चरित्ते य । एसो अवंदणिज्जो पन्नत्तो वीयरागेहिं ॥ ८॥णाणे णाणायारं जो उ विराहेइ कालमाईयं । दसणे दसणायारं चरणकुसीलो इमो होइ ॥ ९॥ कोउय भूईकम्मे पसिणापसिणे णिमित्तमाजीवे | कक्ककुरुए य लक्खण उवजीवइ विजमंताई ॥१०॥ सोभग्गाइणिमित्तं परेसि ण्हवणाइ कोउयं भणियं । जरियाइ भूइदाणं भूईकम्मं विणिद्दिढ ॥ ११ ॥ सुविणयविजाकहियं आईखणिघंटियाइकहियं वा । जं सासइ अन्नेसि पसिणापसिणं हवइ एयं ॥ १२ ॥' शुभाशुभं पृष्टः, स्वप्नविद्यां पृच्छति, तत्कथितं तेषां कथयति, अथवा आख्यायिकादेवता मन्त्रेणाहता घण्टिकाद्वारेण शुभाशुभं कथयति तच्च देवतोक्तं अन्येषां कथयति इति प्रश्नाप्रश्नः ॥ १२ ॥ 'तीयाइभावकहणं होह णिमित्तं इमं तु आजीवं । जाइकुलसिप्पकम्मे तवगणसुत्ताइ सत्तविहं ॥१३॥' आहाराद्यर्थ जातिकुलशिल्पकर्मगुणैर्दायक
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दए चेव । उचिमणकरुगा य माय लिया णियडिए जं भणति
आवश्यक तुल्यमात्मानमाख्याति तपः[गणसूत्रांश्च प्रकटयति स जात्याद्याजीवः ॥ १३॥ 'कककुरुगा य माया णियडिए जं भणंति INपार्श्वस्थाद्यनिर्युक्तेरवा तं मणियं । थीलक्खणाइ लक्खण विजामंताइया पयडा ॥१४॥' 'कककुरुगा य माय 'त्ति कोऽर्थः निकृत्या परेषां | वन्द्यस्वरूचूर्णिः । मेदवचनं ॥ १४॥ संसत्तो य इदाणी सो पुण गोमत्तलंदए चेव । उचिट्ठमणुच्चिटुं जं किंची छुब्भई सत्वं ॥१५॥' संसक्त
वत्संसक्तः, पार्श्वस्थादिकं तपस्विनं वाऽऽसाद्य सन्निहितदोषगुणः, गोभक्तकलन्दके यथा 'छुब्भई 'त्ति क्षिप्यते सर्व ॥ १५ ॥ ॥२०॥
वन्दने एमेव य मूलुत्तरदोसा य गुणा य जत्तिआ केइ । ते तम्मिबि सन्निहिया संसत्तो भण्णई तम्हा ।। १६॥ रायविदूसगमाई अहवावि
| दोषाः णडो जहा उ बहुरूवो। अहवावि मेलगो जो हलिदरागाइ बहुवण्णो ॥१७॥ एमेव जारिसेणं सुद्धमसुद्धेण वाऽवि संमिला ।
नि० गा. तारिसओ चिय होति संसत्तो भण्णई तम्हा ।। १८॥ सो दुविकप्पो भणिओ जिणेहि जियरागदोसमोहेहिं । एगो उ संकिलिट्ठो
११२२ असंकिलिट्ठो तहा अण्णो ॥१९॥ पंचासवप्पवत्तो जो खलु तिहि गारवेहि पडिबद्धो । इत्थिगिहिसंकिलिट्ठो संसत्तो संकिलिट्ठो उ ॥ २० ॥ पासत्थाईएसुं संविग्गेसुं च जत्थ मिलती उ । तहि तारिसओ भवई पिअधम्मो अहव इयरो उ ॥ २१॥" एषोऽसंक्लिष्टः॥ 'उस्सुत्तमायरंतो उस्सुत्तं चेव पनवेमाणो। एसो उ अहाछंदो इच्छाछंदोत्ति एगट्ठा ॥ २२ ॥' अथाच्छन्दोऽपि यथाछन्दो यथेच्छयैवागमनिरपेक्षं प्रवर्त्तते यः स अथाच्छन्दः-' उस्सुत्तमणुवदिढ़ सच्छंदविगप्पियं अणणुवाइ । परतत्ति पवत्तिति णेओ इणमो अहाछंदो ॥ २३ ॥ सच्छंदमहविगप्पिय किंची सुहसायविगइपडिबद्धो । तिहिगारवेहिं मजह तं जाणाही अहाछंदं ॥ २४ ॥' स्वच्छन्दमत्या किश्चिदालम्बनं विकल्प्य सुखस्वादविकृतिप्रतिबद्धः ॥ २४ ॥ पासत्थाई वंदमाणस्स नेव कित्ती न निजरा होइ । कायकिलेसं एमेव कुणई तह कम्मबंधं च ॥११२२॥
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आवश्यक नियुक्तेरव
अवन्धव
दने दोषाः
चूर्णिः
॥२१॥
कीर्तिी-अहोऽयं पुण्यभागित्येवंलक्षणा, 'एवमेव' मुधैव करोति, कर्मबन्धं च, चशब्दादाज्ञामगादींश्च दोषा- नवाप्नुते ॥ १११२ ॥
एवं वन्दमानस्व दोषा उक्ताः, अथ तेषामेव गुणाधिक[वन्दन] प्रतिषेधमकुर्वतामपायानाहजे बंभचेरभट्टा पाए उड्डुति बंभयारीणं । ते होंति कुंटमंटा बोही य सुदुल्लहा तेसि ॥ ११२३ ॥
भ्रष्टब्रह्मचर्याः, ब्रह्मचर्यशब्दो मैथुनविरतिवाचकः, तथौधतः संयमवाचकश्च, ब्रह्मचारिणां वन्दमानानां, भवन्ति कोण्टमण्टाः कुच्छ्रेण मानुषत्वमाप्ताः ॥ ११२३ ।। सुट्टतरं नासंती अप्पाणं जे चरित्चपब्भट्ठा । गुरुजण वंदाविती सुसमण जहुत्तकारिं च ॥ ११२४ ॥
'गुरुजन' गुणस्थसाधुवर्ग, शोभना: श्रमणा यस्मिन् स तथा तं, यथोक्तकारिणं च ॥ ११२४ ॥ तथा गुणवन्तोऽपि ये पार्श्वस्थादिभिः सह संसर्ग कुर्वन्ति तेऽपि न वन्दनीया:, किमित्यत आहअसुइट्ठाणे पडिया चंपगमाला न कीरई सीसे । पासत्थाईठाणेसु वट्टमाणा तहा अपुजा ॥११२५॥
पार्श्वस्थादिस्थानेषु वर्तमानाः साधवस्तथा 'अपूज्याः' अवन्दनीयाः, पार्श्वस्थादीनां स्थानानि-वसतिनिर्गमनभृम्यादीनि, चम्पकप्रियः कुमारश्वम्पकमालया शिरस्थया अश्वारूढो यान् अशुचिपतितां ज्ञात्वा स्थानदोषेण मुमोच ॥११२५ ।। दृष्टान्तान्तरमाह
संसर्गजा दोषगुणाः नि० गा० ११२३११२५
॥२१॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरव
चूर्णिः ।
।। २२ ।।
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पक्कणकुले वसंतो सउणीपारोऽवि गरहिओ होइ । इय गरहिया सुविहिया मज्झि वसंता कुसीलाणं । ११२६ पक्कणकुले गर्हितकुले वसन् शकुनीपारगोऽपि गर्हितः स्यात्, शकुनीशब्देन चतुर्द्दश विद्यास्थानानि, एकस्य द्विजातेः पञ्च पुत्राः शकुनीपारगाः, तत्रको मरुको दासीसङ्गान्मद्यादिप्रसङ्गी ज्ञात्वा पित्रा स निर्वासितः, एवं यावच्चतुर्थः, पञ्चमः पुत्रो नेच्छति, तेन मरुकेण स गृहस्वामी चक्रे, इतरे चत्वारोऽपि वहिष्कृताः ।। ११२६ ।। ' मालामरुए 'त्ति गयं, वैडूर्यपदं व्याख्यायते, तत्राह - कः पार्श्वस्थादिसंसर्गमात्राद्गुणवतो दोषः १
जो जारिसेण मित्तं करेइ अचिरेण (सो)तारिसो होइ । कुसुमेहिं सह वसंता तिलावि तग्गंधया होंति । १ सुचिरंपि अच्छमाणो वेरुलिओ कायमणीयउम्मीसो । नोवेइ का यभावं पाहण्णगुणेण नियएणं ॥ ११२७॥ काचमणिकोन्मिश्रः ।। ११२७ ।। अत्राह आचार्य:
भावुगअभावुगाणि य लोए दुविहाणि होंति दव्वाणि । वेरुलिओ तत्थ मणी अभावुगो अन्नवेहिं ॥ ११२८ भाव्यन्ते - प्रतियोगिना स्वगुणैरात्मभावमापाद्यन्ते इति मान्यानि प्राकृतत्वाद् भावुकानि ।। ११२८ ॥ स्यान्मतिःजीवोsयेवम्भूत एव भविष्यति, तदसत् यतःजीवो अणाइनिहो तब्भावणभाविओ य संसारे । खिष्पं सो भाविज्जइ मेलणदोसाणुभावेणं ॥११२९॥ ' तद्भावनाभावितश्च' पार्श्वस्थाद्याचरितप्रमादादिभावनाभावितश्च, मीलनदोषानुभावेन ।। ११२९ ॥ एतदर्थप्रति
संसर्गजा दोषगुणाः
नि० गा०
११२६
११२९
॥ २२ ॥
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आवश्यक- नियुक्तरव-
चूर्णिः ।
पादको दृष्टान्तोऽप्यस्त्येव
| संसर्गजा अंबस्स य निंबस्स य दुण्हपि समागयाइं मूलाई। संसग्गीइ विणट्ठो अंबो निबत्तणं पत्तो ॥११३०॥ दोषगुणाः
तिक्तनिम्बोदकवासितायां भूमौ अम्बवृक्ष उत्पन्ना, पुनस्तत्रामस्य निम्बस्य च द्वयोरपि 'समागते' एकीभूते मुले ॥ निगा ॥ ११३० ॥ पुनरप्याह-नन्वेतदपि सप्रतिपक्षं
१९३०सुचिरंपिअच्छमाणो नलथंभो उच्छवाडमज्झमि। कीस न जायइ महुरो? जइ संसग्गी पमाणं ते॥११३१ ८ ११३४
नलस्तम्बो वृक्षविशेषः ॥ ११३१ ॥ आचार्य:-विहितोत्तरमेतत्-'भावुग.' इत्यादि, अत्रापि च केवली अभाव्यः पार्श्वस्थादिभिः, सरागास्तु भाव्या:, आह-तैः सहालापमात्रतायां क इव दोप, उच्यतेऊणगसयभागेणं बिंबाइं परिणमंति तब्भावं । लवणागराइसु जहा वज्जेह कुसीलसंसग्गिं ॥११३२॥
ऊनश्चासौ शतमागश्च ऊनशतभागः, तेन तावता अंशेन प्रतियोगिना सह सम्बद्धानि बिम्बानि-काष्टेष्टिकाद्विपदचतुप्पदादीनि परिणमन्ति तद्भावं लवणीभवन्तीत्यर्थः ॥ ११३२ ।। पुनरपि संसगिंदोषमाहजह नाम महुरसलिलं सायरसलिलं कमेण संपत्तं । पावेइ लोणभावं मेलणदोसाणुभावेणं ॥११३३॥
मधुरसलिलं-नदीपयः ॥ ११३३ ॥ एवं खुसीलवंतो असीलवंतेहिं मीलिओ संतो। पावइ गुणपरिहाणि मेलणदोसाणुभावेणं ॥११३४॥
१ ॥२३॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरव
चूर्णिः ।
॥ २४ ॥
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अशीलवद्भिः पार्श्वस्थादिभिः || १९३४ ॥ अतः -
खणमवि न खमं काउं अणाययण सेवणं सुविहियाणं। हंदि समुद्दमइगयं उदयं लवणत्तणमुवेइ ॥ ११३५॥ लोचननिमेषमात्रः कालः क्षणस्तं न क्षमं-न योग्यं, अतो व्यवस्थितमिदं-ये पार्श्वस्थादिभिः सार्द्धं संसर्गिं कुर्वन्ति तेऽपि न वन्दनीयाः, सुविहिता एव वन्द्या इति ।। ११३५ ।। अत्राह
सुविहिय दुविहियं वा नाहं जाणामि हं खु छउमत्थो । लिंगं तु पूययामी तिगरणसुद्धेण भावेणं ॥ ११३६ ॥
सुविहितं वा पार्श्वस्थादिकं नाहं जानामि, लिङ्गं-रजोहरणादिधरणरूपं ॥ ११३६ || आचार्य आह
जइ ते लिंग पमाणं वंदाही निण्हवे तुमे सवे । एए अवंदमाणस्स लिंगमवि अप्पमाणं ते ।। ११३७ ॥ निवान् जमालिप्रभृतीन् एतान् [द्रव्य ] लिङ्गयुक्तानप्यवन्दमानस्य लिङ्गमप्यप्रमाण तव ।। ११३७ ।। इत्थमुक्तेऽनभि निविष्ट एव जिज्ञासयाह नोदकः
जइ लिंगमप्पमाणं म नज्जई निच्छएण को भावो ? | दट्ठण समणलिंगं किं कायवं तु समणेणं ? ॥११३८॥ कस्य को भावः १ यतोऽसंयता अपि लब्ध्याद्यर्थं संयतवच्चेष्टन्ते, संयता अपि कारणतोऽसंयतवत् एवं दृष्ट्वा श्रमणलिङ्गं किं पुनः कर्त्तव्यं श्रमणेन १ ।। ११३८ ।। आहाचार्य:
संसर्गजा
| दोषगुणाः
११३५
११३८
॥ २४ ॥
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आवश्यक- निर्युक्तेरव
चूर्णिः ।
अपूर्वसाधौ कृत्यं लिङ्गे | कारणिकं वन्दनं च
अप्पुवं दट्टणं अब्भुट्ठाणं तु होइ कायवं । साहुम्मि दिट्ठपुल्वे जहारिहं जस्स जं जोगं ॥ ११३९ ॥
अपूर्व, माधुमिति गम्यते, दृष्ट्वा, अभ्युत्थान-आसनत्यागलक्षणं, तुशब्दाद्दण्डकादिग्रहणं च, दृष्टपूर्जास्तु द्विधा-उद्यतविहारिणः शीतलविहारिणश्च, तत्रोद्यतविहारिणि साधौ दृष्टपूर्व यथाईमभ्युत्थानवन्दनादि यस्य बहुश्रुतादेर्यद्योग्यं तत्कर्तव्यं, यः पुनः शीतलविहारी न तस्याभ्युत्थानवन्दनादि उत्सर्गतः किञ्चित्कार्यम् ॥११३९ । कारणतः शीतलविहारिगतविधिमाहमुकधुरासंपागडसेवीचरणकरणपब्भदे। लिंगावसेसमित्ते जं कीरइ तं पुणो वोच्छं ॥ ११४०॥
मुक्ता धूः-संयमधूर्येन, सम्प्रकटं मृलोत्तरगुणजालं सेवितुं शीलमस्येति सम्प्रकटसेवी, इत्थम्भूते 'लिङ्गावशेषमात्रे केवलद्रव्यलिङ्गयुक्ते यत् क्रियते कारणमाश्रित्य तद्वक्ष्ये ॥ ११४०।। वायाइ नमोक्कारो हत्थुस्सेहो य सीसनमणं च । संपुच्छणऽच्छणं छोभवंदणं वंदणं वावि ॥११४१॥
निर्गमभूम्यादौ दृष्टस्य वाचाऽभिलापः क्रियते, गुरुतरपुरुषकार्यापेक्षं वा तस्यैव नमस्कारः क्रियते, एवमभिलापनमस्कार. गर्भो दस्तोच्छ्यश्च क्रियते, 'सम्प्रच्छनं' कुशलं भवत इत्यादि, 'अच्छणं 'ति तद्बहुमानस्तत्सन्निधौ आमनं कश्चित्कालं, एष बहिदृष्टस्य विधिः, कारणात्तत्प्रतिश्रयमपि गम्यते, तत्राप्येष एव विधिः, नवरं 'छोमवंदणं 'ति छोमवन्दनं क्रियते, वन्दनं वा परिशुद्धं ।। ११४१ ।। एतच्च वाङ्नमस्कारादि नाऽविशेषेण क्रियते, किं तर्हि १परियायपरिसपुरिसे खित्तं कालंच आगमनच्चा। कारणजाए जाए जहारिहं जस्त जं जुग्गं ॥११४२॥
११३९
४२
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आवश्यक
निर्युक्तेरवचूर्णिः ।
॥ २६ ॥
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‘यथार्ह' यथानुकूलं ‘यस्य' पर्यायादिसमन्वितस्य यद्योग्यं वाइनमस्कारादि तत्तस्य क्रियते ||११४२॥ अवयवार्थमाहपरियाय बंभचेरं परिस विणीया सि पुरिस णच्चा वा । कुलकज्जादायत्ता आघवउ गुणागमसुयं वा २०४ भा० पर्याय ब्रह्मचर्यमुच्यते, तत्प्रभूतं कालमनुपालितं येन, परिषद्विनीता ' से ' तस्य, पुरुषं ज्ञात्वा वा, कुलकार्यादीन्यनेनात्तानि, आदिशब्दाद्गण सङ्घ कार्यसङ्ग्रहः, ' आघवउ 'त्ति आख्यातस्तत्र क्षेत्रे प्रसिद्धस्तद्बलेन तत्रास्यत इति क्षेत्रद्वारार्थः, गुणाः - अत्रमप्रति जागरणादयः इति कालार्थः आगमः - सूत्रार्थोभयरूपः श्रुतं सूत्रमेव, तद्वाऽस्य विद्यते इत्येवं ज्ञात्वा क्षेत्रादीनि || २०४ || पुनराह - खितं ॥ १ ॥ एवं || २ || ( हमे द्वे गाथे कापि न लब्धे अतो न दर्शिते ) ताई अकुतो जहारिहं अरिहदेसिए मग्गे । न भवइ पवयणभत्ती अभत्तिमंतादओ दोसा ॥११४३ ॥ 'एतानि ' वाङ्नमस्कारादीनि कषायोत्कटतया अकुर्वतोऽर्हद्देशिते मार्गे न भवति प्रवचनमक्तिस्ततोऽभक्त्यादयो दोषाः ।। ११४३ || प्रेरक - ननु किमनेन पर्यायाद्यन्वेषणेन १, सर्वथा भावशुद्ध्या जिनप्रणीतलिङ्गनमनमेव युक्तं यतःतित्थयरगुणा पडिमा नत्थि निस्संसयं वियाणंतो । तित्थयरेत्ति नमंतो सो पावइ निज्जरं विडलं ११४४ लिंग जिणपण्णत्तं एव नमंतस्स निज्जरा विउला । जइवि गुणविप्पहीणं वंदइ अज्झप्पसोहीए ११४५
' एवं ' यथा प्रतिमा इति नमस्कुर्वतः || १९४५ ॥ दृष्टान्तदान्तिक वैषम्यमादाचार्य:संता तित्रगुणातित्थयरे तेसिमं तु अज्झप्पं । न य सावज्जा किरिया इयरेसु धुवा समणुमन्ना १९४६
लिङ्गे कारणिके
अवन्दने
दोषाः
लिङ्गमात्र
स्य अनम्यता भ
निo गा० ११४३४६
मा० गा० २०४
।। २६ ।।
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लिङ्गमात्र. स्य अनम्यता नि० गा०
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आवश्यकता सन्तस्तीर्थकरगुणा:-ज्ञानादयस्तीर्थकरे, इयं च प्रतिमा तस्य, तेषां-नमःकुर्वतामिदमध्यात्म-चेतः, न च तासु सावद्या नियुक्तरव- क्रिया प्रतिमासु, इतरेषु पार्श्वस्थादिषु ध्रुवा सावधक्रियानुमतिरित्यर्थः ।। ११४६ ।। पुनः प्रेरक:चूर्णिः । जह सावजा किरिया नस्थिय पडिमासु एवमियराऽवि। तयभावे नत्थि फलं अह होइ अहेउगहोइ ११४७ ॥२७॥
इतरापि-निरवद्यापि नास्त्येव, ' तदभावे ' निरवद्यक्रियाऽभावे नास्ति ' फलं' पुण्यरूपं, अथ भवति अहेतुकं भवति ॥११४७॥ आचार्यः [ आह ]| कामं उभयाभावो तहवि फलं अस्थि मणविसुद्धीए। तीए पुण मणविसुद्धीइ कारणं होति पडिमाउ ११४८
उभयाभावः-सावद्येतरक्रियामावः प्रतिमासु, फलमस्ति, मनोविशुद्धेः सकाशात् ॥ ११४८ ॥ आह-एवं लिङ्ग मनो| विशुद्धिकारणं स्यादेव, उच्यतेजइविय पडिमाउ जहा मुणिगुणसंकप्पकारणं लिंग।उभयमवि अस्थि लिंगे न य पडिमासूभयं अत्थि११४९/
प्रतिमा यथा मुनिगुणसङ्कल्पकारणं 'लिंग' द्रव्यलिङ्ग, तथापि प्रतिमाभिः सह वैधर्म्यमेव, यत उभयमप्यस्ति लिङ्गे सावद्यकर्म निरवद्यं च, तत्र निरवद्यकर्मयुक्त एवं यो मुनिगुणसङ्कल्पः स सम्यक्सङ्कल्पः, स एव च पुण्यफल:, यः पुनः सावद्यकर्मयुक्तेऽपि मुनिगुणसङ्कल्पः स विपर्याससङ्कल्पः क्लेशफलश्च, न च प्रतिमाभयमस्ति चेष्टारहितत्वात् , ततश्च तासु जिनगुणविषयस्य क्लेशफलस्य विपर्याससङ्कल्पस्याभावः, सावद्यकमरहितत्वात् प्रतिमानां, आइ-इत्थं तर्हि निरवद्यकर्मरहितत्वात्सम्यक्सङ्कल्प
॥ २७॥
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निर्युक्तेव चूर्णिः
।। २८ ।।
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स्यापि पुण्यफलस्याभाव एव प्राप्तः, उच्यते तस्य तीर्थकरगुणाध्यारोपेण प्रवृत्तेर्नाभावः ॥। ११४९ ।। तथा चाह-नियमा जिणेसुंउ गुणा पडिमाओ दिस्स जे मणे कुणइ । अगुणे उ वियाणंतो कं नमउ मणे गुणं काउं ? ११५० | अगुणानेवाऽविद्यमानगुणानेव विजानन् पार्श्वस्थादीन् कं मनसि कृत्वा गुणं नमस्कारं करोतु तान् ? स्यादेतदन्यसाधुसम्बन्धिनं तेष्वभ्यारोपम्मुखेन कृत्वा नमस्करोतु, न तेषां सावद्य कर्मयुक्ततयाऽध्यारोपविषयलक्षणविकलत्वात् ॥११५०॥
आह च-
जइ वेलंबगलिंगं जाणंतस्स नमओ हवइ दोसो । निद्धंधसमिय नाऊण वंदमाणे धुवो दोसो ॥११५१ ॥
विडम्बकलिङ्ग, माण्डादिकृतं, ' दोषः ' प्रवचनहीलनादिलक्षणः, 'निधसं' प्रवचनोपघातनिरपेक्षं पार्श्वस्थादिकमिति ज्ञात्वा वन्दमाने दोषः ।। ११५१ ॥ एवं न लिङ्गमात्रमकारणतोऽवगतसावद्यक्रियं नमस्क्रियते इति स्थितं, मावलिङ्गमपि द्रव्यलिङ्गरहितमित्थमेव, भावलिङ्गगर्भ तु द्रव्यलिङ्गं नमस्क्रियते, रूपकदृष्टान्तश्चात्र
रुष्पं टंकं विसमाहयक्खरं नवि रूवओ छेओ । दुण्हंपि समाओगे रूवो छेयत्तणमुवेइ ॥ ११५२ ॥
रूपं शुद्धाशुद्धभेदं, टङ्कं विषमाहताक्षरं विपर्यस्तनिविष्टाक्षरं नैव रूपक छेकः असंव्यवहारिक इत्यर्थः, द्वयोरपि शुद्धरूपसमाइताक्षरटङ्कयोः समायोगे सति रूपक छेकत्वमुपैति । अत्र चतुर्भङ्गी - रूपमशुद्धं टङ्कं विषमाहताक्षरं १, रूपमशुद्धं टङ्कं समाइताक्षरं २, रूपं शुद्धं टङ्कं विषमाहताक्षरं ३, रूपं शुद्धं टङ्कं समाहताक्षरं ४ । अत्र रूपकम्पं भावलिङ्गं टङ्ककल्पं द्रव्य
लिङ्ग
मात्रनतौ
दोषाः
नि० गा०
११५०
५२
1 || 26 ||
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आवश्यक निर्युक्तेरव |
चूर्णिः । ॥२९॥
५५
लिङ्गं, आद्यभङ्गतुल्याश्चरकादयः, अशुद्धोभयलिङ्गत्वात् , द्वितीय भङ्गतुल्याः पार्श्वस्थादयः, तृतीयमङ्गतुल्याः प्रत्येकबुद्धा N/ज्ञानिद्वारं अन्तर्मुहूर्तमानं कालमगृहीतद्रव्यलिङ्गाः, चतुर्थभङ्गतुल्याः साधवस्त एव वन्द्याः॥११५२।। रूपकदृष्टान्ते दार्शन्तिकयोजनामाह- सोचरं रुप्पं पत्तेयबुद्धा टंकं जे लिंगधारिणो समणा। दव्वस्स य भावस्स य छेओसमणो समाओगे॥११५३॥ । नि० गा.
द्रव्यस्य भावस्य च छेकः श्रमणः, समायोगे ।। ११५३ ॥ उक्तं वैडर्य द्वारं, ज्ञानद्वारे कश्चिदाह-' अण्णाणी कम्म ११५३खवेह बहुयाहि वासकोडीहिं । तं णाणी तिहि गुत्तो खवेह ऊसाममित्तेणं ॥ १॥ सुई जहा ससुत्ता ण णासई कयवरंमि पडियावि । जीवो तहा मसुत्तो ण णस्मइ गओऽवि संसारे ॥ २॥णाणं गिहा गाणं गुणेइ णाणेण कुणइ किच्चाणं । भवसंसारसमुदं गाणी णाणे ठिओ तरह ॥ ३ ॥ कामं चरणं भावो तं पुण नाणसहिओ समाणेई। न य नाणं तु न भावोतेण र णाणि पणिवयामो । ११५४
काममनुमतं, यदुत चरणं भावः, भावशब्दो भावलिङ्गोपलक्षणार्थः, तत्पुन नसहितः समापयति-निष्ठां नयति, न च | जानं तु न भावः, भाव एत्र, तेन कारणेन, 'र' इति पूरणे, ज्ञानिनं प्रणमामः ।। ११५४ ।। तम्हा ण बज्झकरणं मज्झ पमाणंन याविचारित्तं नाणं मज्झ पमाणं नाणे अठिअंजओतित्थं ११५५
'बाह्यकरणं' पिण्डविशुद्ध्यादिकं, ज्ञाने च स्थितं यतस्तीर्थ, तस्यागमरूपत्वात् ॥ ११५५॥ सम्यग्दर्शनमपि ज्ञाना. यत्तोदयमेव, तथा चाह
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आवश्यक- नियुक्तेरव
चर्णिः
ज्ञानिद्वारं सोचरं नि०मा० १९५६५८
नाऊणय सब्भावं अहिगमसंमंपिहोइ जीवस्स। जाईसरणनिसग्गुग्गयाविन निरागमा दिट्ठी ॥११५६॥
मतां भावः सद्भावस्त, अधिगमाव-जीवादिपदार्थपरिच्छेदलक्षणात्मम्यक्त्वं-श्रद्धानलक्षणमधिगमसम्यकृत्वम्, अपिशब्दाचारित्रमपि, जीवस्य, नैसर्गिकमाश्रित्याह-जातिस्मरणात् मकाशान्निसर्गेण-स्वमावेनोद्गता-जातिस्मरणनिसर्गोद्गता, अमावपि न निरागमा दृष्टिः, यतो मत्स्यादीनामपि जिनप्रतिमाद्याकारमत्स्यदर्शनाजातिमनुस्मृत्य भृतार्थालोचनपराणा(रिणाम)मेव नैसर्गिकं सम्यक्त्वमुपजायते, भूतार्थालोचनं च ज्ञानं, तस्माज्ज्ञानिन एव कृतिकर्म कार्यमिति स्थितम् ॥११५६॥ आहाचार्यःनाणं सविसयनिययं न नाणमित्तेण कजनिप्फत्ती। मग्गण्णू दिटुंतो होइ सचिट्ठो अचिट्ठोय ॥११५७।।
स्वविषये नियतं स्वविषयनियतं, स्त्रविषयोऽस्य प्रकाशनमेव, मार्गज्ञोऽत्र दृष्टान्तः, सचेष्टोऽचेष्टश्च, यथा पाटलिपुत्रमार्गज्ञो जिगमिषुश्चेष्टदेशप्राप्तिलक्षणं कार्य गमनचेष्टोद्यत एव साधयति न चेष्टाविकलः, एवं ज्ञानी शिवमार्गमवगच्छन्नपि संयमकियोद्यत एव तत्प्राप्तिरूपं कार्य साधपति ॥ ११५७ ॥ दृष्टान्तान्तरमाहआउजनहकुसलावि नहिया तं जणं न तोसेइ। जोगं अर्जुजमाणी निंदं खिंसंच सालहइ ॥११५८॥ - आतोद्यानि-मृदङ्गादीनि, तैः करणभूतैर्नृत्तं तस्मिन्कुशला, अपिशब्दाद्रङ्गजनपरिवृताऽपि · तं जनं ' रङ्गजन, योग| मयुञ्जन्ती कायादिव्यापारमकुर्वती रङ्गजनान किञ्चिद्व्यजातं लमते इति गम्यते, तत्समक्षं एव या हीलना सा निन्दा,
॥३
॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरवचूर्णिः ।
॥ ३१ ॥
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परोक्षं तु खिसा ॥ ११५८ ॥
इय लिंगनाणसहिओ काइयजोगं न जुंजई जो उन लहइ स मुक्खसुक्खं लहइ य निंद सपक्खाओ ११५९ तुल्यः साधुः, आतोद्यतुल्यं द्रव्यलिङ्ग, नृतज्ञानतुल्यं ज्ञानं, योगव्यापारतुल्यं चरणं, रङ्गपरितोषतुल्यः सङ्घपरितोषः, दानलाभतुल्यः सिद्धिसुखलाभः ।। ११५९ ।। पुनरपि दृष्टान्तमाहजाणंतोऽवि य तरिउं काइयजोगं न जुंजइ नईए । सो वुज्झइ सोएणं एवं नाणी चरणहीणो ॥११६० ॥ स पुमान् ' उह्यते ' ह्रियते ' श्रोतसा - पयःप्रवाहेण तस्मादुभययुक्तस्यैव कृतिकर्म कार्यम् | ११६० || अपरस्त्वाहगुणाहिए वंदrयं छत्थो गुणागुणे अयाणंतो । वंदिज्जा गुणहीणं गुणाहियं वावि वंदावे ॥ १९६१ ॥
उत्सर्गतो गुणाधिकं साधौ वन्दनं कर्त्तव्यमिति शेषः, अयं चार्थः श्रमणं वन्देतेत्यादिना सिद्धः, गुणहीने तु प्रतिषेधः पञ्चानां कृतिकर्मेत्यादिना, च्छद्मस्थस्तच्वतो गुणागुणानात्मान्तरवर्त्तिनो अजानानो वन्देत वा गुणहीनं, गुणाधिकं चापि बन्दापयेत्, तस्मादलं वन्दनेन ।। ११६१ ।। व्यवहारनयमतेन गुणाधिकत्वपरिज्ञानकारणान्याहाचार्यः -- आलएणं विहारेणं ठाणाचंकमणेण य । संक्को सुविहिओ नाउं भासावेणइएण य ।। ११६२ ॥
आलय: सुप्रभार्जितादिलक्षणः रुयादिरहितो वा तेन, नागुणवत एवंविध आलय: स्यात्, विहार:- मासकल्पादिः, स्थानसूर्ध्वस्थानं, चङ्क्रमणं गमनं, भाषावैनयिकेन आलोच्य भाषणेनाचार्यादिविनयकरणेन च ।। ११६२ ।। पुनः परः
ज्ञानिद्वारं सोचरं
सुविहित
त्वज्ञानकारणानि
च
नि० गा०
११५९
६२
॥ ३१ ॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरव
चूर्णिः
।। ३२ ।।
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आलएणं विहारेणं ठाणेचंकमणेण य । न सक्को सुविहिओ नाउं भासावेणइएण य ॥ ११६३ ॥ उदायिनृपमारकादिभिर्व्यभिचारात् ।। ११६३ ॥ किञ्च -
भरहो पसन्नचंदो सम्भितरबाहिरं उदाहरणं । दोसुप्पत्तिगुणकरं न तेसि बज्झं भवे करणं ॥ १९६४ ॥ साभ्यन्तरबाह्यं, आभ्यन्तरं भरतस्तस्य बाह्यकरणरहितस्यापि केवलमुत्पन्नं, बाह्यं प्रसन्नचन्द्रस्तस्योत्कृष्टबाह्यकरणवतोऽप्यन्तःकरणविकलस्याधः सप्तमनरकप्रायोग्यबन्धः, एवं दोषोत्पत्तिगुणकरं न तयोर्बाझमभूत्करणं, दोषोत्पत्तिकद्धरतस्य नाभूदशोभनं बाह्यं करणं, प्रसन्नचन्द्रस्य गुणकरं नाभूत् शोभनमपि तस्मादान्तरमेव करणं प्रधानं न च तदालयादिना ज्ञातुं शक्यमतस्तूष्णीभावः श्रेयान् ॥। ११६४ ॥ एतद्वादिनामपायमाहाचार्य:पत्तेयबुद्धकरणे चरणं नासंति जिणवरिंदाणं । आहञ्चभावकहणे पंचाहि ठाणेहि पासत्था ॥११६५॥
प्रत्येकबुद्धाः- पूर्वभवाम्यस्तोभयकरणा भरतादयस्तेषां करणं तस्मिन्, आन्तरे एव फलसाधके सति जडाचरणं नाशयन्ति जिनवरेन्द्राणाम् सम्बन्धि आत्मनोऽन्येषां च ' आहच्चभावकहणे 'ति कादाचित्कभावकथने - बाह्यकरणरहितैरेव भरतादिभिः केवलमुत्पादितमित्यादिलक्षणे, पञ्चभिः स्थानैः पारम्पर्येण करणभूतैः पार्श्वस्थाः || १२६५।। यतश्चउम्मग्गदेसणाएं चरणं नासिंति जिणवरिंदाणं । वावन्नदंसणा खलु न हु लब्भा तारिसा दहुँ ।।११६६ ॥ उन्मार्गदेशनया अनया चरणं नाशयन्ति जिनवरेन्द्राणां सम्बन्धिभूतं आत्मनो अन्येषां चातो व्यापमदर्शनाः- विनष्ट
सुविहित
स्वज्ञानकारणानि
नि० गा०
११६३
६६
॥ ३२ ॥
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आवश्यक नियुक्तेरव
चूर्णिः । ॥ ३३ ॥
सम्यग्दर्शना निश्चयतः, नैव कल्पन्ते तादृशा द्रष्टुमपि ॥ ११६६ ।। गतं ज्ञानद्वारं, दर्शनमतोऽवलम्ब्याह
दर्शनपक्षः जह नाणेणं न विणा चरणं नादसणिस्स इय नाणं। न यदसणं नभावो तेन र दिट्टि पणिवयामो ।११६७ नि० गा० ___ यथा ज्ञानेन विना न चरणं, किन्तु सहैव, नादर्शनिन एवं ज्ञानं, ' दिदि 'ति दर्शनिनं प्रणमामः ॥ ११६७ ॥ स्या- 17
११६७देतत्-सम्यक्त्वज्ञानयोयुगपद्भावादुपकार्योपकारकभावानुपपत्तिरित्य सत् , यतःजुगवंपि समुप्पन्नं सम्मत्तं अहिगमं विसोहेइ। जह कायगमंजणाई जलदिट्ठीओ विसोहेति ॥११६८॥
समुत्पन्न सम्यक्त्वं ज्ञानेन सहाधिगम-ज्ञानं विशोधयति-विमलीकरोति यथा काचकाजने जलदृष्टी विशोधयतः, कचको वृक्षस्तस्येदं काचकं फलं, अञ्जनं-सौवीरादि ॥ ११६८ ।। जह जह सुज्झइसलिलं तह तह रूवाइंपासई दिट्ठी। इय जह जह तत्तरुई तह तह तत्तागमो होइ ११६९ ___ शुद्ध्यति सलिलं काचकफलसंयोगात् तथा तथा 'रूपाणि ' तद्गतानि पश्यति द्रष्टा, एवं यथा यथा ' तत्त्वरुचिः' सम्यक्त्वलक्षणा संजायते तथा तथा तत्त्वावगमस्तत्त्वपरिच्छेदः स्यात् , एवमुपकारकं सम्यक्त्वं ज्ञानस्य ।। १२६९॥ । कारणकज्जविभागो दीवपगासाण जुगवजम्मेवि । जुगवुप्पन्नपि तहा हेऊ नाणस्स सम्मत्तं ॥ ११७०॥
यथा कारण कार्यविभागो दीपप्रकाशयोयुगपजन्मनि, युगपदुत्पन्नमपि तथा ' हेतुः' कारणं ज्ञानस्य सम्यक्त्वं, तस्मादर्शनिन एव कृतिकर्म कार्यम् ॥ ११७० ।। आहाचार्यः
॥३३॥
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AGI ७२
आवश्यकता नाणस्स जइवि हेऊ सविसयनिययंतहावि सम्मत्तं। तम्हा फलसंपत्ती न जुज्जए नाणपक्खेव ॥१॥
प्र दर्शनपक्षः निर्युक्तेरव- जइ तिक्खरुईवि नरो गंतुं देसंतरं नयविहूणो। पावेइ न तं देसं नयजुत्तो चेव पाउणइ ॥ २ ॥ (प्र. नि. गा.
चूर्णिः । इय नाणचरणहीणो सम्मदिट्ठीविमुक्खदेसंतु।पाउणइ नेय(व)नाणाइसंजुओ चेव पाउणइ॥३॥ (प्र०)। ॥ ३४॥ इदमन्यकतृक गाथात्रयं, स्वविषयनियतं, स्वविषयश्चास्य तथरुचिरेव, फलसम्प्राप्तिन युज्यते मोक्षसख प्राप्ति
घटते, स्वविषयनियतत्वादेव, असहायत्वादित्यर्थः, ज्ञानपक्ष इव, यथा ज्ञानपक्षे मार्गज्ञादिभिर्दृष्टान्तरसहायस्य ज्ञानस्य | फलासाधकत्वमुक्तम् एवमत्रापि ज्ञेयं, दिङ्मात्रमाह-यथा ' तीक्ष्णरुचिरपि' तीव्रश्रद्धोऽपि पुरुषो गन्तुं देशान्तरं-देशान्तरगमने ' नयविहीनो' ज्ञानगमनक्रियालक्षणनयशून्यः, प्राप्नोति न तं देशं-गन्तुमिष्टं ॥१-३॥ एवमप्युक्ते ये यानि चासदालम्बनानि वदन्ति तदेतदाहधम्मनियत्तमईया परलोगपरम्मुहा विसयगिद्धा । चरणकरणे असत्ता सेणियरायं ववइसंति॥११७१॥ धर्मनिवृत्तमतयः श्रेणिकराजानं व्यपदिशन्त्यालम्बनम् ।। ११७१ ॥ ___ण सेणिओ आसि तया बहुस्सुओ, न यावि पन्नत्तिधरो न वायगो। सो आगमिस्साइ जिणो भविस्सइ, समिक्ख पन्नाइ वरं खु दंसणं ॥ ११७२ ॥
N॥ ३४॥
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आवश्यक- प्रज्ञप्तिधरः-भगवतीवेत्ता, न वाचक:-पूर्वधरः, तथापि स दर्शनादेवायत्यामागामिनि काले, अतः समीक्ष्य प्रज्ञया दर्शनपक्षः नियुक्तरव- दर्शनविपाक, वरं दर्शनमेवाङ्गीकृतम् ॥ ११७२ ।। अतः
नि० गा. चर्णिः || भट्टेण चरित्ताओ सुट्ठयरं दंसणं गहेयत्वं । सिज्झंति चरणरहिया दंसणरहिया न सिझंति ॥११७३॥ ||११७३असहायदर्शनपक्षे दोषानाह
१९७६ दसारसीहस्स य सेणियस्सा, पेढालपुत्तस्स य सच्चइस्स।
अणुत्तरा दंसणसंपया तया, विणा चरित्तेणहरं गई गया ॥ ११७४ ॥ 'दशारसिंहस्य ' कृष्णस्य अनुत्तरा क्षायिकी सम्पत्तदा, 'अधरां गति' नरकगतिं गताः॥११७४ ।। किनसबाओवि गईओ अविरहिया नाणदंसणधरेहि। तामाकासि पमायं नाणेण चरित्तरहिएणं ॥१९७५॥
सर्वा अपि नारकादिगतयो अविरहिता बानदर्शनधरैः, न च नरगतिव्यतिरेकेणान्यासु मुक्तिश्चारित्राभावात्तस्मान्मा कार्षीः प्रमाद, ज्ञानेन चारित्ररहितेन ॥ ११७५ ॥ इतश्च चारित्रमेव प्रधान, नियमेन चारित्रयुक्त एव सम्यक्त्वसद्मावात् , आह चसम्मत्तं अचरित्तस्स हुज भयणाइ नियमसो नत्थि। जो पुण चरित्तजुत्तो तस्स उनियमेणसम्मत्तं ११७६) ॥ ३५॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरव
चूर्णिः ।
॥ ३६ ॥
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सम्यक्त्वमचारित्रस्य प्राणिनो भवेद्भजनया कदाचित्स्यात् कदाचिन्न, नियमेन नास्ति प्रभूतानां चारित्ररहितानां मिथ्यादृष्टित्वात् ।। ११७६ ।। किश्वजिणवयणबाहिरा भावणाहिं उवट्टणं अयाणंता । नेरइयतिरियएर्गिदिएहि जह सिज्झई जीवो ॥ ११७७॥ जिनवचनबाह्या ज्ञानदर्शनभावनाभ्यामेव सकाशान्मोक्ष मिच्छन्तीति शेषः, 'उद्वर्त्तनाम जानाना: ' नारकतिर्यगेकेन्द्रियेभ्यो यथा सिध्यति जीवस्तथा अजानानाः, नारकास्तिर्यश्वश्व ज्ञानदर्शनसहिता अपि एकेन्द्रियाश्च तद्रहिता मनुष्यभवं प्राप्य चारित्रणैव सिद्धयन्तीत्यर्थः, उद्वर्त्तनाकारण वैकल्यं सूचयति ।। ११७७ ॥ चारित्रमेव समर्थयति —
सुट्रुवि सम्मद्दिट्ठी न सिज्झई चरणकरणपरिहीणो । जं चैव सिद्धिमूलं मूढो तं चैत्र नासेइ ॥ ११७८ ॥
यदेव सिद्धिमूलं चरणकरणं मूढस्तदेव नाशयति अनासेवनया ।। ११७८ ॥ केवलदर्शनपचः कस्य स्यादित्याह - दंसणपक्खो सावय चरित्तभट्ठे य मंदधम्मे य । दंसणचरित्तपक्खो समणे परलोग कंखिमि ||११७९ ॥
दर्शनपक्ष: ' श्रावके ' अप्रत्याख्यान कषायोदयवति स्यात्, चारित्रभ्रष्टे च मन्दधर्मे च पार्श्वस्थादौ, दर्शनचारित्रपक्षः श्रमणे परलोकाकाङ्क्षिणि, दर्शनग्रहणे ज्ञानमपि गृहीतं ज्ञेयं ।। ११७९ ॥ पारंपरसिद्धी दंसणनाणेहिं होइ चरणस्स । पारंपरप्पसिद्धी जह होइ तहऽन्नपाणाणं ॥ ११८० ॥ पारम्पर्येण प्रसिद्धिः-स्वरूपसत्ता सा दर्शनज्ञानाभ्यां सकाशात् स्याच्चरणस्य, अतत्रितयमप्यस्तु, पारम्पर्यप्रसिधिर्यथा
सत्रयीयोगे मोक्षः
नि० गा०
११७७
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॥ ३६ ॥
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आवश्यक नियुक्तरव
चूर्णिः ॥३७॥
स्यात्तथा अन्नपानयोलोकेऽपि प्रतीतैव, तथा चानार्थी स्थालीन्धनाद्यपि गृह्णाति पानार्थी च द्राक्षाद्यपि अतत्रितयमपि INसत्रयीयोगे प्रधानं ॥ १९८० ॥
मोक्षः जम्हा दंसणनाणा संपुण्णफलं न दिति पत्तेयं । चारित्तजुया दिति उविसिस्सए तेण चारित्तं ॥११८१॥ | सालम्बनविशिष्यते तेन चारित्रं ॥ ११८१ ।। आइ-विशिष्यतां चारित्रं, किन्तु
सेवा च उज्जममाणस्सगुणा जह हंति ससत्तिओतवसुएसुं।एमेव जहासत्तीसंजममाणे कहंन गुणा ? ॥११८२॥ नि० गा० उद्यच्छतस्तपःश्रुतयोः गुणास्तपोज्ञानावाप्त्यादयो यथा स्युः, संयम पृथिव्यादिसंरक्षणादिलक्षणं कुर्वति सति साधौ
११८१कथं न गुणाः १, गुणा एवेत्यर्थः ।। ११८२ ।। उच्यते
८५ अणिगृहंतोविरियंन विराहेइ चरणं तवसुएसुं। जह संजमेऽवि विरियं न निगृहिजा नहाविजा॥११८३ ___ अनिगूहयन् वीर्य तपाश्रुतयोर्न विराधयति चरणं, यदि संयमेऽपि उपयोगादिरूपतया न निगृहयेन्मातृस्थानेन हाप-17 येत्संयम, स्यादेव संयमगुणाः॥ ११८३ ॥ संजमजोएसुसया जे पुण संतविरियावि सीयंति।कह ते विसुद्धचरणा बाहिरकरण
कथं ते विशुद्धचरणाः स्युः १ बाह्यकरणालसाः सन्तः-प्रत्युपेक्षणादिबाह्यचेष्टारहिताः ॥ ११८४ ॥ आलंबणेण केणइ जे मन्ने संयम पमायति । न हु तं होइ पमाणं भूयत्थगवेसणं कुज्जा ॥ ११८५ ॥ ॥ ३७॥
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एवमहं मन्ये संयम 'प्रमादयन्ति' परित्यजन्ति, नैतदालम्बनमानं स्यात्प्रमाणं, किन्तु भूतार्थगवेषणं कुर्यात् , यद्यपुष्ट- INसालम्बनमालम्बनमविशुद्धचरणा एव ते, अथ पुष्टं विशुद्धचरणाः ॥ ११८५ ॥ आह पर:-आलम्बनाको विशेषः १, उच्यते
सेवा सालंबणो पडतो अप्पाणं दुग्गमेऽवि धारेइ । इय सालंबणसेवा धारेइ जई असढभावं ॥ ११८६ ॥
नित्यवाद्रव्या(भावा)लम्बनमपुष्टं ज्ञानाद्यनुपकारकं तद्विपरीतं तु पुष्टं, तथा चाह-'काहं अछित्ति अवा अहीहं, तवोवहाणेसु
साद्यालम्बय उज्जमिस्सं । गणं व णीईइ व हु सारविस्सं सालंबसेवी समुवेइ मुक्खं' ॥१॥ सालम्बनसेवा यतिमशठमावं ॥ १९८६ ॥
नानि च आलंबणहीणो पुण निवडइ खलिओ अहे दुरुत्तारे।इय निकारणसेवी पडडभवोहे अगामि ॥११८७॥
नि.मा. भवौधेऽगाधे ।। ११८७ ॥ गतं दर्शनद्वारं, 'नीयावासे 'ति
१९८६जे जत्थ जया भग्गा ओगासं ते परं अविंदंता। गंतुं तत्थऽचयंता इमं पहाणंति घोसंति॥११८८॥
ये साधवः शीतलविहारिणो यत्रानित्यवासादौ यदा भना निर्विणीः ' अवकाशं' स्थानमालम्बनं परमन्यदलममानाः गन्तुं 'तत्र' शोमने स्थानेऽशक्नुवन्तो यदस्माभिरङ्गीकृत साम्प्रतकालमाश्रित्येदमेव प्रधान घोषयन्ति ॥११८८।। तदाहनीयावासविहारं चेइयभत्तिं च अजियालाभं । विगईसु य पडिबंध निदोसं चोइया बिंति ॥११८९॥
नित्यवासेन विहारस्तं, नित्यवासकल्पमित्यर्थः, चैत्यभक्ति, चशब्दात् कुल कार्यादिपरिग्रहः, आर्यिकाम्यो लाभस्तं, क्षीराद्या विगतयस्तासु प्रतिवन्ध निर्दोष नोदिता अन्येनोद्यतविहारिणा ब्रुवते ॥ १९८९ ॥ कथमित्याह
।॥ ३८॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरवचूर्णिः ।
नित्यवासाधालम्ब
नानि नि० गा. ११९..
जाहेवि य परितंता गामागरनगरपट्टणमडंता। तो केइ नीयवासी संगमथेरं ववइसति ॥ ११९० ॥
परिश्रान्ताः केऽपि नित्यवासिनः संगमस्थविरमाचार्य व्यपदिशन्ति आलम्बनतया ॥११९० ॥ कथंसंगमथेरायरिओ सुट्ट तवस्सी तहेव गीयत्थो । पेहित्ता गुणदोसं नीयावासे पवत्तो उ ॥ ११९१ ॥ ओमे सीसपवासं अप्पडिबंध अजंगमत्तं च। न गणंति एगखित्ते गणंति वासं निययवासी॥ ११९२ ॥
'ओमे' दुर्भिक्षे 'शिष्यप्रवासं ' शिष्यगमनं, तथा तस्यैवाप्रतिवन्धं 'अजङ्गमत्वं च ' वृद्धत्वं, चशब्दात्तत्रैव क्षेत्रे विभागमजनं च, नित्यवासिनः ॥ ११९२ ॥ चैत्यद्वारमाह- . चेइयकुलगणसंघे अन्नं वा किंचि काउनिस्साणं। अहवावि अजवयरं तो सेवंती अकरणिज्ज ॥११९३॥
कृत्वा निश्रां-आलम्बनं, मा भूचैत्यादिव्यवच्छेदोऽतोऽस्माभिरसंयमोऽङ्गीकृतः, आर्यवैरं कृत्वा निश्रां ॥ ११९३ ।। चेइयपूया किं वयरसामिणा मुणियपुत्वसारेणं। न कया पुरियाइ ? तओ मुक्खंगसावि साहणं ॥११९४॥
वैरस्वामिनमालम्बनं कुर्वाणा इदं नेक्षन्तेओहावणं परोसिं सतित्थउब्भावणं च वच्छल्लं । न गणंति गणेमाणा पुवुच्चियपुप्फमहिमं च ॥११९५॥ अपभ्राजनं परेषां-शाक्यादीनां स्व तीर्थोद्भावनां च दिव्यपूजाकरणेन तथा 'वात्सत्यं ' श्रावकाणां, एतन्न गण यन्ति
॥३९॥
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आवश्यक नियुक्तरवचूर्णिः ।।
आर्यिकालाभायालम्बनानि नि० गा०
॥४०॥
। १२००
आलम्बनानि गणयन्तः, तथा पूर्वावचितैः-प्राग्गृहीतैः पुष्पैमहिमा-पात्रा तां च न गणयन्ति ॥ ११९५ ॥ अजियलाभेगिद्धा सएणलाभेण जे असंतुद्रा।भिक्खायरियाभग्गा अन्नियपुत्तं ववइसति ॥ ११९६॥
कथंअन्नियपुत्तायरिओ भत्तं पाणं च पुप्फचूलाए । उवणीयं भुजंतो तेणेव भवेण अंतगडो ॥११९७ ॥ गयसीसगणं ओमे भिक्खायरियाअपञ्चलं थेरं। नगणंति सहावि सढा अजियलाहं गवसंता ॥११९८॥
गतः शिष्यगणोऽस्य तं, सहा:-समर्था अपि शठाः ॥ ११९८ ॥ विगतिद्वारमाहभत्तं वापाणंवा भुत्तूणं लावलवियमविसुद्धं । तो अवजपडिच्छन्ना उदायणरिसिं ववइसंति॥११९९ ॥
'लावलवियंति लौल्योपेतं, अविशुद्धं विगतिसम्पर्कदोषात् , ततः केनापि नोदिताः सन्तोऽवद्यप्रतिच्छन्ना उदायनर्षि व्यपदिशन्ति, वीतमये उदायननृपो जामेयदत्तराज्यः प्रबजितो रोगोत्पत्तौ वैद्योक्तः दध्ना आत्मानं यापयन् अमात्यपरावर्तितमतिजामेयेन तत्राऽऽगतो विषमिश्रदध्ना देवतायां प्रमत्तायां मारितः सिद्धा, ऋषिधावरुष्टया देवतया तत्र पांशुवृष्टिं कृत्वा सेनापल्या शय्यातरः कुम्भकारो राजा चक्रे, ततः कुम्भकारपुरं जातं ॥ ११९९ ॥ . सीयललुक्खाऽणुचियं वएसु विगईगएणजावित। हट्ठाविभणंति सढा किमासि उदायणो न मुणी? १२००
शीतलरुक्षमन्नमिति गम्यते, तस्यानुचितः, राजप्रबजितत्वात् रोगामिभूतत्वाच, तं' व्रजेषु' गोकुलेषु विगतिगतेन
५
॥४०॥
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आवश्यक नियुक्तेरव
चूर्णिः
॥४१॥
यापयन्तं, समर्था अपि भणन्ति शठा:-[किं] उदायनो न मुनिः, मुनिरेव विगतिभोगे सत्यपि ॥ १२०० ॥ अन्ये सूत्रादीन्येवालम्बनानि कृत्वा सीदन्तिसुत्तत्थबालवुड्ढे य असहुदवाइआवईओ या। निस्साणपयं काउं संथरमाणावि सीयंति ॥ १२०१ ॥
सूत्रं निश्रापदं कृत्वा यथा अहं पठामि किं ममान्येन ?, एवं बालत्वं वृद्धत्वं असहत्वं, एवं द्रव्यापदं-दुर्लममिदं द्रव्यं, तथा क्षेत्रापदं-क्षुल्लकमिदं क्षेत्रं, कालापदं-दुर्मिक्षं वर्तते, भावापदं-ग्लानोऽहमित्यादि निश्राणां पदं कृत्वा संस्तरन्तोऽपि सीदन्ति ॥ १२०१॥ आलंबणाण लोगोभरिओजीवस्स अजउकामस्त। जंजंपिच्छह लोए तंतं आलंबणं कुणइ ॥१२०२॥
अयतितुकामस्य ।। १२०२॥ जे जत्थ जया जइयां बहुस्सुया चरणकरणपब्भट्टा । जंते समायरंती आलंबण मंदसड्ढाणं ॥१२०३॥
चरणकरणप्रभ्रष्टाः सन्तो यत्ते समाचरन्ति पार्श्वस्थादिरूपं तदालम्बनं मन्दश्रद्धानां स्यात् ।। १२०३ ॥ जे जत्थ जया जइया बहस्सुया चरणकरणसंपन्ना। ते समायरंती आलंबण तिब्बसढाणं ॥१२०४॥ सा यत्ते समाचरन्ति भिक्षुप्रतिमादि ॥ १२०४ ॥ तस्मात् स्थितमिदं-पश्चानां कृतिकर्म न कर्त्तव्यं, निगमयन्नाह
दंसणनाणचरित्ते तवविणए निच्चकालपासस्था। एए अवंदणिज्जा जे जसघाई पवयणस्स ॥१२०५॥
सूत्राद्यालम्बनानि योग्या
योग्य| वन्दने गुणदोषाश्च नि० गा.
१२०५
॥४१॥
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आवश्यक-IN दर्शनज्ञानचारित्राणां तपोविनययोः सर्वकालपार्थस्थाः, नित्यकालग्रहणमित्वरप्रमादव्यवच्छेदार्थम् ॥ १२०५ ॥ योग्यानियुक्तेरव- एतद्वन्दनेऽपायानाह
| योग्यपूर्णिः । | किइकम्मं च पसंसा सुहसीलजणम्मि कम्मबंधाय। जे जेपमायठाणा ते ते उववूहिया इंति॥१२०६॥ वन्दने 4॥४२॥
___ कृतिकर्म प्रशंसा च, 'सुखशीलजने ' पार्श्वस्थजने कर्मबन्धाय, यतस्ते पूज्या एव वयमिति निरपेक्षतराः स्युः, तानि गुणदोषाः तान्युपबृंहितानि स्युः, तत्प्रत्ययश्च बन्धः ॥ १२०६ ।।
के वन्द्याश्च दसणनाणचरित्ते तवविणए निच्चकालमुज्जुत्ता। एए उ वंदणिज्जा जे जसकारी पवयणस्स ।। १२०७०नि० गा० किइकम्मं च पसंसा संविग्गजणंमि निजरद्वाए। जे जे विरईठाणा ते ते उववूहिया इंति॥ १२०८ ॥ IN|१२०६___ व्याख्याता पश्चानां कृतिकर्मेत्यादिद्वारगाथा, अथ वन्दनीयान् आचार्यादिभेदत आह
१२०९ आयरिय उवज्झाए पवत्ति थेरे तहेव रायणिए। एएसिं किइकम्मं कायवं निजरट्ठाए ॥ १२०९ ॥ __ आचार्यः सूत्रार्थोभयवेचा, यथोचितं साधून प्रवर्तयतीति प्रवर्तकः, सीदमानान् साधून मोक्षमार्गे एव स्थिरीकरोति. स्थविरः, गणावच्छेदकोऽत्रानुपात्तोऽपि ज्ञेयः, एषामूनपर्यायाणामपि कृतिकर्म कर्त्तव्यं । 'सुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो गच्छस्स मेदिभूओ य । गणतत्तिविप्पमुक्को अत्थं मासेइ आयरिओ ॥१॥' गणतप्त्या-गच्छचिन्तया विप्रमुक्ता, न तु सूत्रं, यतः'एक्कग्गया य झाणे वुड्डी तित्थयरअणुकिती गरुआ। आणाहिजमिइ गुरू कयरिणमुक्खा न वाएइ ॥२॥' ध्याने वक्ष्मार्थरूपे ॥४२॥
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आवश्यक निर्युक्तेरवचूर्णिः । ॥४३॥
वन्दापनेऽ. नुचिताः नि० गा.
एकाग्रता सूत्रार्थोन्मीलनाद्वृद्धिरुपजायते, तीर्थकरानुकृतिर्यतस्तेऽपि सूत्रं न भाषन्ते गणतप्ति च न कुर्वन्ति, तीर्थकृतामेवाज्ञा- पालनमाज्ञास्थैर्यमिति यदाचार्यैरर्थ एव भाषणीयः, कृतऋणमोक्षश्च तेन पूर्वमनेके साधवः सूत्रमध्यापिताः ॥ २ ॥ 'सम्मत्त- णाणसंजमजुत्तो सुत्तत्थतदुभयविहिन्न । आयरियठाणजुग्गो सुत्तं वाए उवज्झाओ ।। ३ ।।' किं निमित्तं १-'सुत्तत्थेसु थिर रिणमुक्खो आयतीयऽपडिबंधो। पाडिच्छामोहजओ सुत्तं वाए उबझाओ ॥ ४॥' आयत्यामाचार्यपदाम्यासेऽप्रतिबन्धोऽस्यन्ताम्यस्ततया सूत्रस्यानुवर्त्तनं स्यात् , ' पाडिच्छ 'त्ति प्रतीच्छकाः सूत्रवाचनादानेनानुगृहीताः स्युः, मोहजयश्च कृतः स्यात् ॥ ४॥ तवसंजमजोगेसुं जो जोगो तत्थ तं पवत्तेइ । असहुं च नियत्तेई गणतत्तिल्लो पबत्ती उ॥ ५॥ थिरकरणा पुण थेरो पवत्तिवावारिएसु अत्थेसुं । जो जत्थ सीपह जई संतबलो तं थिरं कुणइ ॥ ६ ॥ उद्धावणापहावणखित्तोवधिमग्गणासु अविसाई । सुत्तत्थतदुभयविऊ गणवच्छो एरिसो होइ ॥ ७ ॥' गच्छकार्ये उत्पन्ने उत्प्राबल्येन धावनं उद्धावनं आत्मानुग्रहबुद्ध्या तत्करणे प्रवृत्तिः, शीघ्रं च तस्य कार्यस्य निष्पादन-प्रधावनं ॥ ७॥ १२०९ ॥ गतं कस्येति द्वारं, अथ केनेति द्वारे केन कृतिकर्म कार्य, केन न ?, तत्र मातापित्रादिरनुचित इत्याहमायरं पियरं वावि जिट्रगं वावि भायरं । किडकम्मं न कारिजा सवे राइणिए तहा ॥ १२१०॥ __अपिशब्दान्मातामहादिग्रहः, सर्वान् रत्नाधिकान् पर्यायज्येष्ठान् , आलोचनप्रत्याख्यानसूत्रार्थेषु तु कारयेत् , सागारिकाध्यक्षं तु यतनया कारयेत, एष प्रव्रजितानां विधिः, गृहस्थास्तु कारयेत् ॥ १२१० ॥ उचितमाह-'विअडणपञ्चक्खाणे सुयंमि रायणियावि हु करंति । मझिल्ले न करंती सो चेव करेइ तेसिं तु ॥१॥' [बृहत्कल्प गा. ४५००]
॥४३॥
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कदा
आवश्यकनियुक्तेरवचूर्णिः ।
कति कृत्वः
वन्दनं
कार्यम्
॥४४॥
नि. गा. १२११
| पंचमहत्वयजुत्तो अणलस माणपरिवजियमईओ।संविग्गनिजरट्ठी किइकम्मकरो हवइ साहू ॥१२११॥
'अणलस 'त्ति आलस्यरहितः, मानपरिवर्जितमतिः ॥ १२११ ।। गतं केनेति, कदा कृतिकर्म कर्त्तव्यं कदा न १, तत्र- वक्खित्तपराहुत्ते अ पमत्ते मा कया हु वंदिजा। आहारं च करितो नीहारं वा जइ करेइ ॥ १२१२॥
व्याक्षिप्तं धर्मकथादिना, पराङ्मुखं, प्रमत्तं क्रोधादिप्रमादेन ।। १२१२ ।। कदा तर्हि वन्देतेत्याहपसंते आसणत्थे य, उवसंते उवट्रिए । अणुन्नवित्तु मेहावी किइकम्मं पउंजए ॥ १२१३ ॥ ___ प्रशान्तं' व्याक्षेपरहितं, 'आसनस्थं ' निषद्यागतं, उपशान्त-क्रोधादिरहितं, 'उपस्थितं' छन्देनेत्यभिधानेन | प्रत्युद्यतं, एवम्भूतं सन्तमनुज्ञाप्य ॥१२१३।। कतिकृत्वोद्वारे प्रत्यहं नियतान्यनियतानि च वन्दनानि स्युरित्युभयस्थानान्याहपडिक्कमणे सज्झौए काउस्सग्गावराह पाहुणेए । आलोयणसंवरणे उतमढे य वंदणयं ॥ १२१४ ॥
प्रतिक्रमणे सामान्यतो वन्दनं स्यात् , तथा स्वाध्याये' वाचनादिलक्षणे, कायोत्सर्गे' यो विगतिपरिभोमायाऽऽचाम्ल. विसर्जनार्थ क्रियते, 'अपराधे' गुरुविनयलङ्घनरूपे, यतस्तं वन्दित्वा क्षामयति, पाक्षिकवन्दनान्यपराधे पतन्ति, 'प्राघूर्णके ' ज्येष्ठे समागते, तथाऽऽलोचनायां विहारापराधमेदमिनायां, 'संवरणं' भुक्तेः प्रत्याख्यान, अथवाऽमक्तार्थ गृह्णतः संवरणं तस्मिन् , 'उत्तमार्थे वा' अनशनसंलेखनायां वन्दनं ॥ १२१४ ॥ इत्थं सामान्येन नियतानियतस्थानानि वन्दनान्युक्तानि, अथ नियतस्थानवन्दनसक्थामाह
॥४४॥
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कति
आवश्यक नियुक्तेरवचूर्णिः।
कृति
कर्माणि
.
॥४५॥
चत्तारि पडिक्कमणे किइकम्मा तिन्नि हुंति सज्झाए । पुवण्हे अवरण्हे किइकम्मा चउदस हवंति॥१२१५
चत्वारि प्रतिक्रमणे, त्रीणि भवन्ति स्वाध्याये, प्रातिक्रमणिकानि चत्वारि प्रसिद्धान्येव, सज्झाए [पुण ] वंदित्ता पट्ठवेइ पढमं, पट्ठविए पवेदयंतस्स बिइअं, पच्छा उद्दिष्टुं समुदिटुं पढइ, उद्देससमुद्देसवंदणाणमिहेवंऽतब्भावो, तओ कालवेलाए वंदिउं पडिक्कमइ, एयं तह । एवं पूर्वाद सप्त, अपराह्वे अपि सप्तव, अनुनावन्दनानां स्वाध्यायवन्दनेष्वेवान्तर्भावात् । एतानि ध्रुवाणि प्रत्यहं चतुर्दश भवन्ति अभक्तार्थिकस्य, इतरस्य [तु] प्रत्याख्यानवन्दनेनाधिकानि स्युः ॥ १२१५॥ कत्यवनतमित्याद्यद्वारार्थमाहदोओणयं अहाजायं किडकम्मं बारसावयं । चउसिरं तिगुत्तं च दुपवेसं एगनिक्खमणं ॥ १२१६ ॥
द्वे अवनते यस्मिन् तद् व्यवनतं, यदा प्रथममेव 'इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं जाणिजाए निसीहिआए'त्ति उक्त्वा छन्दोऽनुज्ञापनायावनमति, द्वितीयमपि तथैव, यथाजातं रजोहरण [मुखवस्त्रिका]चोलपट्टकमात्रया श्रमणो जातः, रचितकरपुटस्तु योन्या निर्गतः, एवम्भूत एव वन्दते, तदव्यतिरेकाच्च यथाजातं, द्वादश आवर्ता:-त्राभिधानगर्भाः कायव्यापारविशेषा यस्मिन् तत्तथा, प्रथमप्रविष्टस्य षट्, पुनः प्रविष्टस्यापि षट्, एतच्चापान्तरालद्वारद्वयमाद्यद्वारोपलचितं ज्ञेयं । 'कतिशिर 'इत्याह 'चउसिमित्यादि, चतुःशिरः, प्रथमप्रविष्टस्य क्षामणाकाले शिष्याचार्यशिरोद्वयं, निष्क्रम्य प्रविष्टस्य तथैव, अत्र द्वारत्रयं कतिशिरोद्वारेणोपलक्षितं ज्ञेयं ॥ १२१६ ॥ कतिभिर्वाऽऽवश्यकैः परिशुद्धमित्याह
वन्दने आवर्ताश्च नि० गा. १२१५
॥४५॥
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________________
आवश्यक
निर्युक्तेरव चूर्णिः
॥ ४६ ॥
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अवणामा हुन्न हाजायं, आवत्ता बारसेव उ। सीसा चत्तारि गुत्तीओ, तिन्नि दो य पवेसणा ॥ १२१७ ॥ एगनिक्खमणं चेव, पणवीसं वियाहिया । आवस्सगेहिं परिसुद्धं, किइकम्मं जेहि कीरई ॥ १२१८ ॥ एभिरावश्यकैः परिशुद्धं कार्य ।। १२१७-१२१८ ॥
किकम्मंपि करितो न होइ किइकम्मनिज्जराभागी । पणवीसामन्नयरं साहू ठाणं विराहिंतो ॥१२१९ ॥ पञ्चविंशतेरावश्यकानां ॥ १२१९ ॥
पणवीसा [आवस्सग ] परिसुद्धं किइकम्मं जो पउंजइ गुरूणं । सो पावइ निवाणं अचिरेण विमाणवासं वा ॥ पञ्चविंशत्यावश्यक शुद्धं ।। १२२० || कतिदोषविप्रमुक्तमित्याह -
अणाढियं च थद्धं च पविद्धं परिपिंडियं । टोलगइ अंकुसं चेत्र तहा कच्छभरिंगिंयं ॥ १२२१ ॥
अनादृतमनादरं सम्भ्रमरहितं वन्दते १, 'स्तब्धं ' जात्यादिस्तब्धो वन्दते २ ' प्रविद्धं ' वन्दनं दददेव नश्यति ३, 'परिपिण्डितं ' प्रभूतानेकवन्दनेन वन्दते, आवर्त्तान् व्यञ्जनाभिलापान् वा व्यवच्छिन्नान् कुर्वन् ४, 'टोलगति ' तिङ्कवत् उत्प्लुत्य २ विसंस्थूलं वन्दते ५, ' अङ्कुशं ' रजोहरणमङ्कुशवत् करद्वयेन गृहीत्वा वन्दते ६, 'कच्छ भरिंगिअं 'ति कच्छपवत् रिङ्गन्वन्दते || १२२१ ॥
वन्दने आवर्त्ताः
दोषाच
नि० गा०
१२१७
२१
| ॥ ४६ ॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरव
चूर्णिः ।
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मच्छ्रुत्तं मणसा उट्टं तह य वेइयाबद्धं । भयसा चैव भयंतं, मित्ती गारवकारणा ॥। १२२२ ॥
'मत्स्योद्वृत्तं ' एकं वन्दित्वा मत्स्यवत् द्रुतं द्वितीयं साधुं द्वितीयपार्श्वे रेचकावर्त्तेन परावर्त्तते ८, मनसा प्रदुष्टं वन्द्यो हीनः केनचिगुणेन, तमेव च मनसि कृत्वा साम्रयो वन्दते ९, वेदिकाबद्धं जानुनोरुपरि हस्तौ निवेश्याऽधो वा पार्श्वयोर्वा उत्सङ्गे वा एक वा जानुं करद्वयान्तः कृत्वा वन्दते १०, ' भयसा चैव 'त्ति भयेन वन्दते मा गच्छादिभ्यो निर्द्वाटयिष्यति ११, ' भयंत 'ति भजमानं वन्दते, ' भजत्ययं मामतो भक्तं भजस्वेति तदार्यवृत्तं ' १२, ' मित्ती 'ति मैत्रीनिमित्तं १३, ' गारवे 'ति गौरवनिमित्तं विदन्तु मां यथा सामाचारी कुशलोऽयं १४, कारण 'ति ज्ञानादिव्यतिरिक्तं कारणमाश्रित्य वन्दते, वस्त्रादि मे दास्यतीत्यादि १५ ।। १२२२ ॥
तेणियं पडिणियं चैव रुटुं तज्जियमेव य । सढं च हीलियं चैव तद्दा विपलिउंचियं । १२२३ ॥
स्वैन्यं परेभ्य आत्मानं गृहयन् स्तेन इव वन्दते, मा मे लाघवं भविष्यति १६, ' प्रत्यनीकं ' आहारादिकाले वन्दते १७, क्रोधो मातो वन्दते क्रोधाध्मानं वा १८, ' तर्जितं ' न कुप्यसि नापि प्रसीदसि काष्टशिव इवेत्यादि तर्जयन्नगुल्यादिभिर्धा तर्जयन् वन्दते १९, ' शठं ' शाठयेन विश्रम्भार्थं वन्दते, ग्लानादिव्यपदेशं वा कृत्वा न सम्यग्वन्दते २०, ' हीलितं ' हे गणिन् ! वाचक ! किं भवता वन्दितेनेत्यादि हीलयित्वा वन्दते २१, विपलिकुञ्चितमर्द्धवन्दित एव देशादिकथाः करोति २२ ।। १२२३ ॥
वन्दने दोषाः
नि० गा०
१२२२
२३
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आवश्यक- निर्युक्तेरवचूर्णिः ।
वन्दने दोषाः नि० गा. १२२४
॥४८॥
२५
दिट्ठमदिटुं च तहा सिंगं च करमोअणं । आलिट्ठमणालिटुं, उणं उत्तरचूलियं ॥ १२२४ ॥
दृष्टादृष्टं तमसि व्यवहितो वा न वन्दते, दष्टस्तु बन्दते २३, शृङ्गमुत्तमाङ्गैकदेशेन वन्दते २४, करं मन्यमानो वन्दते न निर्जरार्थ २५, मोचनं नान्यथा मोक्षः, एतेन पुनर्दत्तेन मोक्ष इति बन्दते २६, 'आश्लिष्टानाश्लिष्ट' अत्र चतुर्भङ्गी रजोहरणं कराभ्यामाश्लिषति शिरश्च एष शुद्धः, रजोहरणं न शिरः २, शिरो न रजोहरणं ३, उभयमपि न ४, शेषेषु त्रिषु प्रकृतवन्दनावतारः २७, 'ऊनं' व्यञ्जनाभिलापावश्यकैरसम्पूर्ण वन्दते २८, 'उत्तरचूडं' वन्दित्वा पश्चान्महता शब्देन | मस्तकेन बन्दे इति भणति ॥ १२२४ ॥
मूयं च ढवरं चेव चुडुलिं च अपच्छिमं । बत्तीसदोसपरिसुद्धं किइकम्मं पउंजई ॥ १२२५ ॥ ___ 'मूकं' आलापकाननुच्चारयन् वदन्ते ३०, 'ढड्डरं ' महता शब्देनोच्चारयन् वन्दते ३१, 'चुड्डलि 'त्ति उन्मुक इव पर्यन्ते गृहीत्वा रजोहरणं भ्रमयन् वन्दते, अपश्चिममिदमित्यर्थः ३२, ॥ १२२५ ॥ आयकरणमित्याद्या एकोनविंशतिगाथा: प्रक्षिप्ता:-'आयरकरणं आढा विवरीयं अणाढियं होइ । दवे भावे थद्धो चउभंगो दवओ भइओ ॥१॥ पविद्धमणुषवारं जे अपितो णितिओ होई । जत्थ व तत्थ व उज्झइ कियकिच्चोवक्खरं चेव ॥ २॥ संपिडियं व बंदइ परपिडियवयणकरणओ वावि । टोलोव उप्फिडंतो ओसक्कहिसक्कणे कुणइ ॥ ३ ॥ उवमरणे हत्थंमि व घेत्तु निवेसेइ अंकुसं विति । ठिउवदुरिंगणं जं तं कच्छवरिंगियं जाण ॥४॥ उद्वितो निवेसिंतो उत्तर मच्छउञ्च जलमज्झे । वंदिउकामो वनं झसो व परियत्तए तुरियं
ज्यइ कियकिञ्चोवक्खरं चेव ॥
सह अंकुसं चिंति । ठिउवद्वरिंगणार
॥४८॥
॥ ८ ॥
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वन्दन
आवश्यकनियुक्तरव चूर्णिः ।
दोषाः
॥४९॥
॥५॥ अप्पपरपत्तिएणं मणप्पओसो य वेड्यापणगं । तं पण जाणवरि जाणुहिवाओ जाणुबाहिं वा ॥ ६ ॥ कुणइ करे जाणुं वा एगयरं ठवह करजुयलमज्झे । उच्छंगे करइ करे मयं तु निज्जूहणाईयं ॥७॥ मयह व भयइस्सइत्ति य इअ वंदइ ण्होरयं निवेसंतो । एमेव य मित्तीए गारवसिक्खावणीओऽहं ॥ ८॥ नाणाइतिगं मोत्तुं कारणमिहलोयसाहयं होई । पूया. गारवहेऊं नाणग्गहणेवि एमेव ॥ ९॥ हाउं परस्स दिद्धि वंदंते तेणियं हवइ एयं । तेणो विव अप्पाणं गृहह ओभावणा मा मे ॥ १० ॥ आहारस्स उ काले नीहारस्सावि होइ पडिणीयं । रोसेण धमधमंतो जं वंदह रुद्रुमेयं तु ॥११॥ नवि कुप्पसि न पसीयसि कट्ठसिवो चेव तज्जियं एयं । सीसंगुलिमाईहिं य तज्जेइ गुरुं पणिवयंतो ॥ १२ ॥ वीसंभट्ठाणमिणं सम्भावजढे सहं भवह एयं । कवडंति कइयवति य सढयावि य हुंति एगट्ठा ॥१३॥ गणिवायगजिटुञ्जत्ति हीलिउं किं तुमे पणमिऊण । दरवंदियंमिवि कह करेह पलिउंचियं एयं ॥ १४ ॥ अंतरिओ तमसे वा न वंदई वंदई उ दीसंतो। एवं दिवमदिg लिंग पुण मुद्धपासेहिं ॥ १५ ॥ करमिव मन्नइ दितो वंदणयं आरहंतिय करोत्ति । लोइयकराउ मुक्का न मुच्चिमो बंदणकरस्स ॥ १६ ॥ आलिद्धमणालिद्धं रयहरणसिरेहिं होइ चउभंगो । वयणकरेहिं ऊणं जहन्नकालेवि से सेहिं ।। १७॥ दाऊण वंदणं मत्थएण वंदामि चूलिया एसा । मृयत्व, सद्दरहिओ जं बंदह मूयगं तं तु ॥ १८ ॥ ढड्डरसरेण जो पुण सुत्तं घोसेइ ढड्डरं तमिह । चूहलिं व गिहिऊणं रयहरणं होइ चूडलिं तु॥ १९॥"अपितो 'त्ति यद्वन्दनं ददानोऽनियन्त्रित: स्यात् , झप इव मत्स्यवत् , 'मयइ ' मजति भजिष्यतीति वा, 'होरयं ' मौल्यमावं चिन्तयन् , 'पच्छपणइस्स 'त्ति पश्चाद्याचिष्ये ।। ११२५ ।। किइकम्मपि करितोन होइ किइकम्मनिजराभागी। बत्तीसामन्नयरं साहू ठाणं विराहिंतो॥ १२२६ ॥
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NI
आवश्यकनिर्युक्तेरव- चूर्णिः ।
॥५०॥
द्वात्रिंशदोषाणामन्यतरत् ॥ १२२६ ॥
वन्दनफलं बत्तीसदोसपरिसुद्धं किइकम्मंजो पउंजइ गुरूणं। सो पावइ निवाणं अचिरेण विमाणवासंवा॥१२२७॥ वन्दनआवस्सएसुजह जह कुणइ पयत्तं अहीणमइरत्तं । तिविहकरणोवउत्तो तह तह से निजरा होइ॥१२२८॥ कारणानि __ 'आवश्यकेषु' अवनतादिषु दोषत्यागलक्षणेषु च यथा यथा करोति प्रयत्नं ॥ १२२८ ॥ किमिति क्रियते इति द्वारे | वन्दनकरणकारणान्याह
निगा |विणओवयारमाणस्स भंजणा पूअणा गुरुजणस्स।तित्थयराण य आणा सुयधम्माराहणाऽकिरिया१२२९१२२७ विनय एवोपचारो विनयोपचारः कृतः स्यात् , स एव किमर्थं ? मानस्य भञ्जना-विनाशस्तदर्थः, मानभनेन च पूजना
१२३१ गुरुजनस्य कृता स्यात् , तीर्थकराणां चाज्ञानुपालिता स्यात् , तथा श्रुतधर्माराधना कृता स्यात् , ' अकिरिय 'चि पारम्पर्येणाक्रिया स्याद्यतोऽक्रियः सिद्धः ।। १२२९ ॥ विणओसासणे मूलं विणीओ संजओ भवे । विणयाउ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो को तवो? ॥१२३०॥
शासने विनयो मूलमतो विनीतः संयंतो भवेत् ॥ १२३० ।। अतो विनयोपचारार्थ कृतिकर्म क्रियते इति स्थितं, आहविनय इति कः शब्दार्थः १, उच्यतेजम्हा विणयइ कम्मं अट्टविहं चाउरंतमुक्खाए। तम्हा उवयंति विऊ विणउत्ति विलीनसंसारा ।१२३१ ॥५०॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरवचूर्णिः ।
॥ ५१ ॥
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व्याख्याता
यस्माद्विनयति विनाशयति कर्म, चतुरन्तमोक्षाय - संसारविनाशायेति विद्वांसो वदन्ति ।। १२३१ ॥ द्वारगाथा, अत्रान्तरेऽध्ययनशब्दार्थो वांच्यः पूर्ववत् गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, सूत्रालापकनिष्पन निक्षेपे सूत्रं' इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं जावणिजाए निसीहियाए अणुजाणह मे मिउग्गहं निसीहि, अहोकायं कायसंफासं, खमणिज्जो भे किलामो, अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइक्कतो ?, जत्ता भे ? जवणिजं च भे ? खामेमि खमासमणो ! देवसियं वइक्कमं, आवस्सियाए पडिक्कमामि खमासमणाणं देवसिआए आसायणाए तित्तीसण्णयराए जंकिंचि मिच्छाए मणदुक्कडाए वयदुक्कsir का दुक्का कोहाए माणाए मायाए लोभाए सबकालियाए सवमिच्छोवयाराए सबधम्माइकमणाए आसायणाए जो मे अइयारो कओ तस्स खमासमणो! पडिक्कमामि निन्दामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ ( सूत्रम् )
सूत्रस्पर्शिकां गाथामाह
इच्छा य अणुन्नवणा अबाबाहं च जत्त जवणा य। अवराहखामणावि य छट्टाणा हुंति वंदणए ॥१२३२ ॥ तत्रेच्छामाह
वन्दनक
सूत्रम्
वन्दन के
षट् स्थानानि
नि० गा०
१२३२
॥ ५१ ॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरव
चूर्णि :
॥ ५२ ॥
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मंठवणादवि खित्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु इच्छाए णिक्खेवो छविहो होइ ॥ १२३३ ॥
द्रव्येच्छा सचितादिद्रव्याभिलाषः, अनुपयुक्तस्य वेच्छामीत्येवं भणतः, क्षेत्रेच्छा मगधादिक्षेत्राभिलाषः, कालेच्छा रजन्यादिकाला मिलाषः, भावेच्छा द्विधा - प्रशस्ता ज्ञानाद्यभिलाषः, अप्रशस्ता रुयाद्यभिलाषः । अत्र विनेयभावेच्छयाधिकारः, क्षमादीनां तु पदानां यथासम्भवं निक्षेपादि वक्तव्यं, विस्तरमयादत्र नोक्तं ।। १२३३ ॥ नामंठवणादवि खित्ते काले तहेव भावे य । एसो उ अणुण्णाए णिक्खेवो छविहो होइ ॥ १२३४॥
द्रव्यानुज्ञा लौकिकी लोकोत्तरा कुप्रावचनिकी च, [ लौकिकी ] सचित्तादिद्रव्यमेदात्रिधा, अश्वभूषित युवतिवैडूर्याद्यनुज्ञा, लोकोत्तरा - केवलशिष्य सोपकरण शिष्यवस्त्राद्यनुज्ञा, एवं कुप्रावचनिक्यपि, एवं क्षेत्रकालानुज्ञे विज्ञेये ( क्षेत्रानुज्ञा या यस्य यावतः क्षेत्रस्य यत्र वा क्षेत्रे व्याख्यायते क्रियते वा, एवं कालानुज्ञापि ), भावानुज्ञा आचाराद्यनुज्ञा, भावानुज्ञयाऽधिकारः ।। १२३४ ॥ अत्रान्तरे गाथायामनुपात्तस्याप्यवग्रहस्य निक्षेपः
मंठवणादवि खित्ते काले तहेव भावे य । एसो उ उग्गहस्सा णिक्खेवो छविहो होइ ।।१२३५॥
सचितादिद्रव्यावग्रहणं द्रव्यावग्रहः, क्षेत्रावग्रहो यो यत्क्षेत्रमवगृह्णाति तत्र च समन्ततः सक्रोशं योजनं, कालावग्रहो यो यं कालमवगृह्णाति वर्षासु चत्वारो मासान्, ऋतुबद्धे मासं, भावावग्रहो ज्ञानाद्यवग्रहः प्रशस्तः [इतरस्तु क्रोधाद्यवग्रहः ] अथवा अवग्रहः पञ्चधा - ' देविंदरायगिहवह सागरिसाधम्मिउग्गहो तह य । पंचविहो पण्णत्तो अवग्गहो वीयरागेहिं ॥ १ ॥
इच्छादीनां निक्षेपाः
नि० गा०
१२३३
१२३५
॥ ॥ ५२ ॥
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आवश्यकनियुक्तरव
चूर्णिः ।। ॥ ५३॥
1741
अव्याबाधादीनां निक्षेपाः वन्द्यस्य | वचनानि
अत्र भावावग्रहेण साधर्मिकावग्रहेण चाधिकारा-'आयप्पमाणमित्तो चउद्दिसि होइ उग्गहो गुरुणो । अणणुण्णातस्स सया ण कप्पए तत्थ पइसरिउं ॥२॥' ततश्च तमनुज्ञाप्य प्रविशतीत्याहबाहिरखित्तमि ठिओ अणुन्नवित्ता मिउग्गहं फासे। उग्गहखेत्तं पविसेजाव सिरेणं फुसइ पाए ॥१२३६॥
बहिरक्षेत्रे स्थितोऽनुज्ञाप्य मितावग्रहं स्पृशेत् रजोहरणेन, ततश्चावग्रहक्षेत्रं प्रविशेत , यावत् [ शिरसा ] स्पृशेत्पादान् ॥ १२३६ ।। अव्यावाचं द्रव्यतः खगायाघातव्याचाधाकारणविकलस्य, भावतः सम्यग्दृष्टेः चारित्रवतः, यात्रा द्रव्यतस्तापसादीनां स्वक्रियोत्सर्पणा, भावतः साधूनां, यापना द्रव्यत औषधादिना कायस्य, भावतस्तु इन्द्रियनोइन्द्रियोपशमेन, क्षमाणा द्रव्यतः कलुषाशयस्यैहिकापायभीरोः, भावतः संवेगापत्रस्य सम्यग्दृष्टेः, आह चअवाबाहं दुविहंदवे भावे य जत्त जवणाय। अवराहखामणावि य सवित्थरत्थं विभासिज्जा ॥१२३७।।
एवं शेषेष्वपि निक्षेपादि वक्तव्यं, इत्थं वन्दमानस्य प्रायशो विधिरुक्तः ॥ १२३७ ॥ अथ बन्यस्याहछंदेणऽणुजाणामि तहत्ति तुज्झपि वट्टई एवं । अहमविखामेमि तुमे वयणाई वंदणरिहस्स ॥ १२३८ ॥
अहमपि क्षमयामि त्वां ॥ १२३८ ॥ तेणवि पडिच्छियत्वं गारवरहिएण सुद्धहियएण। किइकम्मकारगस्सा संवेगं संजणतेणं ॥ १२३९ ॥
तेण' वन्दनाhण, एवं प्रत्येष्टव्यं ॥ १२३९ ॥ चालनामाह
नि० गा० १२३६ १२३९
॥५३॥
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॥ ५४॥
आवश्यक- आवत्ताइसु जुगवं इह भाणओ कायवायवावारो। दुण्हेगया व किरिया जओ निसिद्धाअउ अजुत्तो॥१२४० चालनानियुक्तेरव- आवर्तादिषु युगपदुक्तः कायवाग्व्यापारः, तथा च सत्येकदा क्रियाद्वयप्रसङ्गः, द्वयोरेकदा च क्रिया यतो निषिद्धा, प्रत्यवचूर्णिः। उपयोगद्वयाभावात् , अतोऽयुक्तः स व्यापारः, ततश्च सूत्रं पठित्वा कायव्यापार कार्यः, उच्यते
स्थानं भिन्नविसयं निसिद्ध किरियाद्गमेगयाण एगमिाजोगतिगस्स वि भंगियसुत्ते किरियाजओ भणिया१२४१] नि० गा०
विलक्षणवस्तुविषयं क्रियाद्वयं निषिद्धमेकदा, यथा-उत्प्रेक्षते सूत्रार्थ [ नयादि ] गोचरमटति च, अविलक्षणविषया तु १२४०योगत्रयक्रियाप्यविरुद्धा, यथोक्तं-'भंगिअसुअं गुणंतो वट्टद तिविहेऽवि ज्झाणं(जोगं)मि'इत्यादि ॥१२४१।। गतं प्रत्यवस्थानं- १२४४ सीसो पढमपवेसे वंदिउमावस्सिआए पडिक्कमिडं। बितियपवेसंमि पुणो वंदइ किं? चालणा अहवा॥१२४२ ॥ ___अथवा जानतापि मया चालना क्रियते इत्यध्याहारः ॥ १२४२ ॥ गुरुराहजह दूओ रायाणं णमिउं कजं निवेइउं पच्छा । विसजिओवि वंदिय गच्छइ साहवि एमेव ॥ १२४३ ॥
इदं प्रत्यवस्थानं ।। १२४३ ।। एयं किइकम्मविहिं जुजंता चरणकरणमुवउत्ता। पंति कम्मं अणेगभवसंचियमणंतं ॥१२४४॥ युञ्जानाः ॥१२४४।। उक्तोऽनुगमः, 'नायंमि' इत्यादिनयवक्तव्यता यथा सामायिकाध्ययनेऽत्रैवोक्ता तथा अत्रापि ज्ञेया। ॥ इति वन्दनाध्ययननियुक्त्यवचूर्णिः ॥३॥
॥५४॥
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आवश्यकनियुक्तरवचूर्णिः ।
चाणा
॥५५॥
अथ चतुर्थं प्रतिक्रमणाध्ययनम्
-Peteeनामनिष्पन्ने निक्षेपे प्रतिक्रमणाध्ययनमिति, तत्र शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य शुभेष्वेव प्रतीपं प्रतिकुलं वा क्रमणं प्रतिक्रमणं । यथा च (इह च यथा) करणात् कर्मकोंः सिद्धिरेवं प्रतिक्रमणादपि प्रतिक्रामकप्रतिक्रान्तव्यसिद्धिरित्यतस्त्रितयमप्याहपडिकमणं पडिकमओ पडिकमियत्वं च आणुपुवीए।तीए पच्चुप्पन्ने अणागए चेव कालंमि ॥१२४५॥ ___ आनुपूर्व्या अतीते ' प्रत्युत्पन्ने' वर्तमानेऽनागते काले प्रतिक्रमणादि योज्यं, आह-प्रतिक्रमणमतीतविषयं, 'अईअं पडिक्कमामि' इतिवचनात् , कथमिह कालत्रये ?, उच्यते, प्रतिक्रमणशब्दोऽशुभयोगनिवृत्तिमात्रार्थो गृह्यते ॥ १२४५॥ प्रतिक्रामकस्वरूपमाह-- जीवो उ पडिक्कमओ असुहाणं पावकम्मजोगाणं । झाणपसत्थाजोगा जे ते ण पडिक्कमे साहू ॥१२४६॥
जीवः सम्यग्दृष्टिरुपयुक्तः प्रतिक्रामको अशुभानां पापकर्मयोगाना, ध्यानं च प्रशस्तयोगौ च ध्यानप्रशस्तयोगा ये तानविकृत्य न प्रतिक्रामति साधुः, मनोयोगप्राधान्यख्यापनार्थ पृथग् ध्यानग्रहणं ॥ १२४६ ॥ प्रतिक्रमणशब्दार्थपर्यायैराहपडिकमणं पडियरणा परिहरणा वारणा नियत्तीय। निंदा गरिहासोही पडिकमणं अदहा होड।१२४७१,
प्रतिक्राम| कस्वरूपं प्रतिक्रमण
शब्दार्थपर्यायाश्च नि. गा. ११४५| १२४७
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आवश्यक नियुक्तरवचूर्णिः ।।
प्रतिक्रम
णादिनिक्षेपाश्च नि०मा० १२४८| १२५०
॥५६॥
तत्वत उक्तं, मेदत आहणामंठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो पडिकमणस्सा णिक्खेवो छबिहो होइ॥१२४८॥
द्रव्यप्रतिक्रमण मनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेर्लब्ध्यादिनिमित्तं वा उपयुक्तस्य वा निहवस्य, क्षेत्रप्रतिक्रमणं यस्मिन् क्षेत्रे ब्यावर्ण्यते यतो वा प्रतिक्रम्यते खिलादेः, कालप्रतिक्रमणं यदुमयकालं प्रतिक्रम्यते, मावप्रतिक्रमणं प्रशस्तं मिथ्यात्वादेः, तेनाधिकारः॥ १२४८ ॥ प्रति २ तेषु २ अर्थेषु चरणं-गमनं तेन २ आसेवनाप्रकारेणेति प्रतिचरणा तामाहणामं ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो पडियरणाए णिक्खेवो छबिहो होइ ॥१२४९॥
द्रव्यप्रतिचरणा अनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टस्तेषु तेष्वर्थेष्वाऽऽचरणीयेषु चरणं तेन २ प्रकारेण लब्ध्यादिनिमित्तं वा इत्यादि, क्षेत्रप्रतिचरणा यत्र क्षेत्रे सा व्याख्यायते क्रियते वा क्षेत्रस्य वा प्रतिचरणा, यथा शालिगोपिकाद्याः शालिक्षेत्रादीनि प्रतिचरन्ति, कालप्रतिचरणा यस्मिन् काले सा व्याख्यायते क्रियते वा कालस्य वा प्रतिचरणा कालप्रतिचरणा, यथा साधवः प्रादोषिकं वा प्रामातिकं वा कालं प्रतिचरन्ति, भावप्रतिचरणा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रप्रतिचरणा प्रशस्ता, तया इहाधिकारः, प्रतिक्रमणपर्यायता चास्या यतः शुभयोगेषु प्रति २(प्रतीपं) क्रमणं-प्रवर्त्तनं प्रतिक्रमणमुक्तं, प्रतिचरणाप्येवम्भूतैव ॥१२४९ ।। परिहरणा सर्वप्रकारैर्वर्जना, तामाह| णामं ठवणा दविएपरिरय परिहार वजणाए य । अणुगह भावे य तहा अट्टविहा होइ परिहरणा॥१२५०॥
॥५६॥
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आवश्यक नियुक्तेरव चूर्णिः।
वारणानि
वृत्तिनिक्षेपाः नि० गा. १२५११२५२
॥ ५७॥
द्रव्यपरिहरणा हेयं विषयमधिकृत्य अनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेरित्यादि कण्टकादिपरिहरणा वा, परिरयपरिहरणा गिरिसरि- परिरयपरिहरणा, परिहारपरिहरणा लौकिकी मात्रादिपरिहरणा, लोकोत्तरा पार्श्वस्थादिपरिहरणा, वर्जनापरिहरणा लौकिकी इत्वरा प्रसूतसूतकादिपरिहरणा, यावत्कथिका डोम्बादिपरिहरणा, लोकोत्तरा इत्वरा शय्यातरपिण्डादिपरिहरणा, यावत्कथिका तु राजपिण्डादिपरिहरणा, अनुग्रहपरिहरणा अक्खोडभंगपरिहरणा, अक्खोडं खिलं क्षेत्रं तस्य ये प्रथम भङ्गं कुर्वन्ति तेषामनुग्रहेण | राजा करं परिहरतीत्यनुग्रहपरिहरणा, भावपरिहरणा प्रशस्ता क्रोधादिपरिहरणा, तया इहाधिकारः । प्रतिक्रमणमशुभयोगपरिहरणैव ॥ १२५० ।। वारणा-निषेधना तामाहणामं ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो उ वारणाए णिक्खेवो छविहो होइ ॥ १२५१ ॥ ... द्रव्यवारणा तापसादीनां हलकृष्टादिपरिभोगवारणा, अनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेर्वा देशनायामित्यादि, क्षेत्रवारणा तु यत्र क्षेत्रे वर्ण्यते क्रियते क्षेत्रस्य वाऽनार्यस्य, एवं कालवारणापि, कालस्य वा विकालादेवर्षासु वा विहारस्य, भाववारणा प्रशस्ता प्रमादवारणा, तयाधिकारः ॥ १२५१ ॥ निवृत्तिमाहनामं ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो य नियत्तीए णिक्खेवो छबिहो होइ ॥ १२५२ ॥ द्रव्यनिवृत्तिस्तापसादीनां हलकृष्टादिनिवृत्तिरित्यादि यावत् प्रशस्तभावनिवृत्त्या इहाधिकारः ॥ १२५२ ॥ निन्दा आस्कोटकानां यो भङ्गस्तस्य परिहरणा प्रतिलेखनाविधिविराधनापरिहरणेत्यर्थः ।
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आवश्यक
निर्युक्तेरव
चूणिः ।
॥ ५८ ॥
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आत्माध्यक्षं तामाह
मंठवणादवि खित्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु निंदाए णिक्खेवो छविहो होइ ॥ १२५३ ॥ मानिन्दा प्रशस्ता असंयमाद्याचरणविषया ।। १२५३ || गर्दा परसाक्षिकी तामाह
नामं ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु गरिहाए णिक्खेवो छविहो होइ ॥ १२५४॥ द्रव्यगर्दा तापसादीनां स्वगुर्वालोचनादिना ।। १२५४ || शुद्धिः - विमलीकरणं तामाहनाठवणादवि खित्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु सुद्धीए निक्खेवो छविहो होइ ॥ १२५५ ॥
द्रव्यशुद्धिरनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेः वस्त्रसुवर्णादेर्वा जलक्षारादिभिः, क्षेत्रशुद्धियंत्र वर्ण्यते क्रियते वा क्षेत्रस्य वा कुलिकादिनाऽस्थ्यादिशल्योद्धरणं, एवं कालशुद्धिः, शङ्क्वादिभिर्वा कालस्य शुद्धिः क्रियते, भावशुद्धिः प्रशस्ता ज्ञानादेस्तया इहाधिकारः ।। १२५५ ।। अथ प्रतिक्रमणादिपदानां दृष्टान्तानाह
अद्धा पासाए दुद्धकाय विसभोयणतलाए । दो कन्नाओ पइमारिया य वत्थे य अगए य ॥ १२५६ ॥
अध्वानः १ प्रासादः २ दुग्धकायः ३ विषभोजनं तटाकं ४ द्वे कन्ये ५-६ पतिमारिका च ७ वस्त्रं चागदश्च ८ । तत्राध्वानेनृपप्रासादार्थ दत्तसूत्रान्तर्गच्छद्राम्यद्वयस्य निषिद्धस्य एको धृष्टत्वात्को दोष इति वदन् हतः, द्वितीयस्तैरेव पदैर्वलन् मुक्तः सुखी जातः, एवं द्रव्यप्रतिक्रमणं, भावे दृष्टान्तस्योपनयः - राजस्थानीयैरर्हद्भिः प्रासादस्तत्स्थानीयः संयमो रक्षणीय
निन्दा
गर्दाशुद्धि
निक्षेषाः
प्रतिक्रम
णादीनां दृष्टान्ताश्चनि० गा०
१२५३
१२५६
।। ५८ ।।
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प्रतिक्रम
आवश्यक- नियुक्तेरव चूर्णिः ।
णादीनां
दृष्टान्ता:
इत्यादिष्टे ग्राम्यस्थानीयसाधुना एकेनातिक्रान्तः स दुःखभागी, यः प्रमादेनासंयमं गतः प्रतिनिवृत्तोऽकरणतया प्रतिक्रमति स शिवभागी १। प्रतिचरणायां प्रासादेन दृष्टान्त:-कश्चिद्वणिगर्थसमृद्धः प्रासादोऽयं त्वया चिन्त्य इति भार्याय उक्त्वा देशान्तरमगात्तया देहमण्डनादिपरया स शनैः शनैः पतितो न प्रतिचरितः, आगतेन वणिजा दृष्ट्वा तथा सा निःसारिता यथा न दृष्टा, तेन पुनरन्यः प्रासादः कारितो अन्या च भार्या आनीता, तया प्रतिचरितं दृष्ट्वा सा गृहस्वामिनी कृता, एसा द्रव्यप्रतिचरणा, भावे वणिकस्थानीय आचार्यः प्रासादस्थानीयः संयम इत्यादि ज्ञेयं २ । दुग्धकायो-दुग्धघटकावडिः, एकः कुलपुत्रकस्तस्य द्वे भगिन्यौ अन्यग्रामयोर्वसतः, तस्य पुत्रीयाचनाय स्वस्वसुतकते आयाते, तेनोचेयुवां यातं, पुत्रौ प्रेष्यतां यो दक्षस्तस्मै दास्ये सुता, आगतौ तौ परीक्षायै गोकुले दुग्धाऽऽनयनाय प्रहितो, तौ दुग्धघटौ भृत्वा कापोत्याऽऽदाय प्रतिनिवृत्तौ, तत्र द्वौ पन्थानौ, एका परिहारेण समोऽपरः ऋजुर्विषमश्च, एकस्य अजुना प्रविष्टस्य प्रस्खल्यैक| घटमङ्गे द्वितीयोऽपि भग्नः, द्वितीयस्य समेन गतस्य कन्या दत्ता, एषा द्रव्यपरिहरणा, भावे कुलपुत्रकस्थानीया अर्हन्तः, दुग्धं चारित्रं, कन्या सिद्धिः, गोकुलं मनुष्यभवः ३ । वारणायां विषभोजनतडागेन दृष्टान्तः-एको राजा परचक्रागमं ज्ञात्वा ग्रामेषु दुग्धदधिभोज्यादिषु वृक्षपुष्पफलादिषु विषयोगं कारितवान् , आगतेन राज्ञा तथा ज्ञाते घोषणया वारितं सैन्यं, ये वारिता(विस्ता)स्ते सुखिनोऽभूवन , अपरे मृताः, भावे विषानपानसदृशा विषयाः ४। द्वयोः कन्ययो राजसुताचित्रकरसुतयोर्मध्ये पूर्व निवृत्तौ राजकन्यया दृष्टान्तः-एका शालापतिस्तस्य शालायामेको धूर्तो मधुरस्वरेण गायति, तेन समं शालापतिपुत्री तत्सखी राजपुत्री च लग्ने द्वेऽपि यातः, पठितं केनापि-'जइ फुल्ला कणियारया चूयय ! अहिमासयंमि
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आवश्यक निर्युक्तेरव
प्रतिक्रमणादीनां दृष्टान्ताः
चर्णिः
ते छद्मना बलिता तवा राजपुत्री कुविन्दसुता यो का नीचकाः कुर्वन्ति डमरकान्यातक ! अधिक
॥६
॥
न्यातुल्यः साधुणो ग्रहणधारणमा असरिसजणा परिणीता तान
घुटुंमि । तुह न खमं फुल्लेउं जइ पच्चंता करिति डमराई॥१॥' पुष्पिताः कुत्सितकर्णिकारा:-कर्णिकारकाः हे चूतक ! अधिक- मासे घोषिते शब्दिते सति तब न क्षमं युक्तं पुष्पितुं, यदि प्रत्यनी(त्यन्त)का नीचकाः कुर्वन्ति डमरकान्यशोभनानि, ततः किं त्वयाऽपि कर्त्तव्यानि ?, नैवेत्यर्थः तत् श्रुत्वा राजपुत्री कुविन्दसुता यद्येवं करोति ततः किं मयापि कार्यमिति विमृश्य रत्न. करण्डको विस्मृत इति छद्मना वलिता तद्दिन एव सामन्तपुत्राय शरणागताय सा राज्ञा दत्ता, तेन च श्वसुरवलेन गोत्रिणो जित्वा स्वराज्यमाप्य सा पट्टराज्ञी कृता, भावे कन्यातुल्यः साधुः, धूर्ततुल्यो विषयासक्तः, गीततुल्याऽऽचार्येण समनुशिष्टोनिवृत्तः सुखी। यद्वा द्रव्यभावनिवृत्तौ कापि गच्छे एकः साधुस्तरुणो ग्रहणधारणसमर्थ इति सूरिप्रियः, सोऽन्यदाऽशुभ कर्मोदयेन प्रतिगच्छन् शृणोति-'तरियव्वा य परिण्णा मरियवं वा समरे समत्थएणं । असरिसजणउल्लावा न हु सहियव्वा कुलपसूयएणं ॥२॥' बुद्धः प्रतिनिवृत्तः ५ । निन्दायां चित्रकरसुता-केनापि राज्ञा बुद्धिमती चित्रकरसुता परिणीता तया बुद्धिप्रपञ्चेन नृपः स्वावासे षण्मासानानीतः। सपत्न्यछिद्राणि विलोकयन्ति, सा चापवरके प्रविश्य पुराणमणि( पुराणानि मणियुक्तानि) चीवराणि पुरः कृत्वा आत्मानं निन्दति-त्वं चित्रकरसुता एतत्ते पितृसत्कमित्यादि, सपत्नीभिर्नृपस्योक्तंएषा तव कार्मणं करोतीति, राज्ञा दृष्टा तुष्टेन पट्टराज्ञी सा कृता, मावे साधुनाऽऽत्मा निन्दितव्यः६। द्रव्यगर्हायां पतिमारिकाकस्याप्यध्यापकस्य वृद्धविप्रस्य तरुणी मार्या नर्मदापरकुलवासिगोपे रता ज्ञात्वैकेन च्छात्रेणोचे-'दिवा विमेषि काकानां (केभ्यः ) रात्रौ तरति नर्मदा । कुतीर्थान्यपि जानासि जलजन्वक्षिरोधनं ॥ १॥' सा प्राह किं कुर्वे युष्मादृशा नेच्छन्ति, स उपचरितः प्राह-उपाध्यायाद्विमेमि, सा विप्रं व्यापाद्योज्झनाय पिटके (पेटिकायां) क्षिप्त्वा अटव्यां गता व्यन्तर्या पिटकं
॥६
॥
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आवश्यक- निर्युक्तेरव-
चूर्णि:
मालाकार| दृष्टान्तः निगा १२५७
॥दर
॥
AT
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शिरस्येव स्तम्मितं, क्षुधाकुला तथैवागत्याह-पतिमारिकाया(यै)भिक्षा दीयतामित्यादि । बहुकाले गते साध्वीरालोक्य पादेषु पतन्त्यास्तस्याः पिटकं पतितं, व्रतिनी जाता ७। शुद्धौ वस्त्रागदौ, तत्र वस्त्रदृष्टान्तः-राजगृहे श्रेणिकेन क्षौमयुगलं रजकस्य समर्पितं, कौमुदीक्षणे तेन भार्याद्वयस्य दत्तं, कौमुद्यां च श्रेणिकामयौ प्रच्छन्नं हिण्डन्तौ स्तः, श्रेणिकेन दृष्ट्वाऽभिज्ञाय ताम्बूलेन सिक्तं, रजकेन क्षारादिभिः शोधितं, आनायितेऽर्पितं सद्भावपृच्छायामुक्तं रजकेन, स सत्कृतः, एवं साधुना शीघ्रमाचार्यस्यालोचयितव्यं, तेनापि शुद्धिः कार्या। अगदो यथा नमस्कारे, एवं साधुनापि निन्दाऽगदेनातिचारविषमपसारयितव्यं ८ ॥१२५६॥ उक्तान्येकाथिकानि, अथ यथा साधुना इयं शुद्धिः कार्या तथाऽऽह-- आलोवणमालुंचन वियडीकरणं च भावसोहीय। आलोइयंमि आराहणा अणालोइए भयणा ॥१२५७
यथा मालाकारः स्वारामस्य द्विसन्ध्यमवलोकनं करोति, दृष्ट्वा कुसुमानामालुश्चनं ग्रहणं करोति, ततो विकटीकरणंविकसितमुकुलितादीनां मेदेन विभजनं, चशब्दात्पश्चाद् ग्रन्थनं, ततोऽभिलषितार्थलामो भावशुद्धिश्च चित्तप्रसादरूपा स्यात् । एवं साधुरपि कायोत्सर्गे देवसिकातिचारस्यावलोकनं करोति, पश्चादालुश्चनं-स्पष्टबुद्ध्याऽपराधग्रहणं, ततो विकटीकरणंगुरुलघ्वपराधविमजनं, तत आलोचनाप्रतिसेवनानुलोमेन ग्रन्थनं, तथा यथाक्रमं गुरोनिवेदनं करोति, एवं कुर्वतो भावशुद्धिः स्यात् । इत्थमालोचिते आराधना, अनालोचिते 'भजना' कदाचित्स्यात्कदाचिन, 'आलोअणापरिणओ सम्मं संपट्टिओ गुरुसगासं । जह अंतरावि कालं करिज आराहओ तहवि ॥१॥'कदाचित्र 'लज्जाइ गारवेण य (हड्डीए गारवेणं)' इत्यादि ॥ १२५७ ॥ इत्थमालोचनाप्रकारेणोमयकालं नियमत एवाद्यान्न्याहत्तीर्थे साधुना शुद्धिः कार्या, मध्यमाईत्तीर्थेषु
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आवश्यक नियुक्तर
चूर्णि।
।। ६२॥
चातिचारवतैवेत्याह
चतुसपडिकमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स ।
विंशतिमज्झिमयाण जिणाणं कारणजाए पडिक्कमणं ॥ १२५८ ॥
तीर्थकर'कारणजाते ' अपराध एवोत्पन्ने ॥ १२५८ ।।
तीर्थेषु जो जाहे आवन्नो साहू अन्नयरंमि ठाणमि । सो ताहे पडिक्कमई मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥ १२५९ ॥
IN प्रतिक्रमण... यः साधुर्यदाऽऽपनोऽन्यतरस्मिन् स्थाने प्राणातिपातादौ स तदैव प्रतिक्रामति ॥ १२५९ ॥ आह-किमयमेव भेदः ।
मेद:
| संयमप्रतिक्रमणकृतः उतान्योऽप्यस्ति', अस्तीत्याह
मेदश्व कति बावीसं तित्थयरासामाइयसंजमं उवइसति।छेओवट्ठावणयं पुणवयंति उसभोय वीरो य॥१२६०॥
प्रतिक्रमयदैव सामायिकमुच्चार्यते तदैव व्रतेषु स्थाप्यते, च्छेदोपस्थापनिकं, आद्यान्त्याहत्तीर्थे प्रवजितमात्रः सामायिकसंयतः
| णानि स्यात् , षड्जीवनिकायावगमे व्रतेषु स्थाप्यते ॥ १२६० ॥ यदुक्तं-सप्रतिक्रमणो धर्मस्तत्प्रतिक्रमणं देवसिकादिभेदेनाह- नि० गा० पडिकमणं देसियंराइयं च इत्तरियमावकहियं च पक्खियचाउम्मासिय संवच्छर उत्तिमटे य ।१२६११ १२५८
'इत्वरं ' स्वल्पकालिकं दैवसिकायेव, यावत्कथिक' यावजीविकं व्रतादिलक्षणं, देवसिकेनैव शोधिते सत्यात्मनि पाक्षिकादि किमर्थ १, उच्यते-'जह गेहं पइदियहपि सोहियं तहवि पक्वसंधीए । सोहिजइ सविसेसं एवं इहयंपि णायवं ॥१॥
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आवश्यकनियुक्तरवचूर्णिः ।
यावत्कधित्वरप्रतिक्रमणानि नि. गा. १२६२१२६३
| उत्तमाथे च ' भक्तप्रत्याख्याने प्रतिक्रमणं भवति निवृत्तिरूपत्वात्तस्य ॥ १२६१ ॥ यावत्कथिकं प्रतिक्रमणमाहपंच य महत्बयाईराईछट्ठाइ चाउजामो य । भत्तपरिण्णा य तहा दुण्डंपि य आवकहियाई॥१२६२॥
पश्च महाव्रतानि रात्रिभोजननिवृत्तिषष्ठानि आधान्तिमाईतीर्थे, चातुर्यामश्च निवृत्तिधर्म एव भक्तपरिक्षा च, चशब्दादिङ्गिनीमरणादिग्रहः, द्वयोरप्याद्यान्तिमाईतोः, चशब्दात् मध्यमानां च यावत्कथिकान्येतानि ॥ १२६२ ।। इत्थं यावत्कथिकमनेकधोक्तं इत्वरमपि दैवसिकादिभेदमुक्तमेव, पुनरित्वरमाहउच्चारे पासवणे खेले सिंघाणए पडिक्कमणं । आभोगमणाभोगे सहस्सकारे पडिक्कमणं ॥ १२६३॥
'खेले श्लेष्मणि 'सिद्धानके नासिकोद्भवे श्लेष्मणि व्युत्सृष्टे सति सामान्येन प्रतिक्रमणं स्यात् , अयं पुनर्विशेष:-'उच्चार पासवणं भूमीए वोसिरित्तु उवउत्तो । वोसिरिऊण य तत्तो इरियावहियं पडिक्कमह ॥१॥ वोसिरह मत्तगे जइ तो न पडिक्कमइ मत्तगं जो उ । साहू परिडवेई णियमेण पडिक्कमे सो उ ॥२॥ खेलं सिंघाणं वाऽपडिलेहिय अप्पमजिउ तह य । वोसिरिय पडिक्कमई तं पिय मिच्छुकडं देह ॥ ३ ॥, प्रत्युपेक्षणादिविधिविवेके तु न ददाति, तथा आभोगेऽनाभोगे सहसात्कारे सति योऽतिचारस्तस्य प्रतिक्रमणं-'आभोगे जाणतेण जोड्यारो को पुणो तस्स । जायम्मिवि अणुतावे पडिक्कमणेऽजाणया इयरो॥ ४ ॥, आभोगेन जानता सहसात्कारेणातिचारे सति प्रतिक्रमणं तस्यैवानुपातेऽनुस्मरणे जाते पुनर्द्वितीयवेलायां प्रतिक्रमणं, अजानता इतरोऽनायोगः, [अनाभोग] सहसास्कारं इत्थं-'पुत्विं अपासिऊणं छुढे पायंमि जं पुणो पासे । ण य
॥६३॥
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आवश्यक- नियुक्तरव-
चूर्णिः । ॥६४॥
तरह णियत्तेउं पायं सहसाकरणमेयं ॥५॥' तस्मिश्च सति प्रतिक्रमणं ॥१२६३ ॥ इदं पुनःप्राकरणिकं-'पडिलेहेङ पमजियप्रतिक्रमणमत्तं पाणं च वोसिरेऊणं । वसहीकयवरमेव उणियमेण पडिकमे साहू ॥१॥ हत्थसया आगंतुं गंतुं च मुहुचगं जहिं चिढ़े। स्थानानि पंथे वा वच्चंतो णदिसंतरणे पडिकमइ ॥ २॥' गतं प्रतिक्रमणद्वारं, अथ प्रतिक्रान्तव्यं पञ्चधा, तदाह
नि० गा० मिच्छत्तपडिक्कमणं तहेव अस्संजमे पडिक्कमणं। कसायाण पडिक्कमणं जोगाण य अप्पसत्थाणं ।१२६४॥
१२६४
१२६५ संसारपडिक्कमणं चउविहं होइ आणुपुबीए । भावपडिकमणं पुण तिविहं तिविहेण नेयत्वं ॥ १२६५॥
मिथ्यात्वप्रतिक्रमणं प्रतिक्रान्तव्यं वर्त्तते, यदाभोगानाभोगसहसाकारैर्मिध्यात्वं गतस्तस्य प्रतिक्रान्तव्यमित्यर्थः, तथा असंयमे प्रतिक्रमणं, असंयमः प्राणातिपातादिरूपः प्रतिक्रान्तव्यो वर्त्तते ॥ १२६४ ॥ संसारप्रतिक्रमणं चतुर्विध, अयमर्थःनारकायुषो ये हेतवो महारम्भादयस्तेष्वाभोगानाभोगसहसाकारैर्यद्वतितमन्यथा वा प्ररूपितं तस्य प्रतिक्रान्तव्यं, एवं तिर्यग्नरामरेष्वपि, नवरं शुभनरामरायुहेतुभ्यो मायाद्यनासेवनादिभ्यो न प्रतिक्रान्तव्यं, भावप्रतिक्रमणं [त्रिविधं ] त्रिविधेनैव नेतव्यं, अयमर्थः-'मिच्छत्ताइ न गच्छइ ण य गच्छावेइ णाणुजाणेई । जं मणवइकारहिं तं मणियं भावपडिकमणं ॥१॥ मनसा न गच्छति-चिन्तयति यथा शोमनः शाक्यादिधर्मः, वाचा नाभिधत्ते, कायेन न तैः सह निष्प्रयोजनं संसर्ग करोति, तथा ' न य गच्छावेइ 'ति मनसा न चिन्तयति-कथमेष तच्चनिकादिः स्यात् १, वाचा न प्रवर्तयति यथा बौद्धादिर्भव, कायेन न बौद्धादीनामर्पयति, तथा नानुजानयति, कश्चिद् बौद्धादिः स्यान तं मनसाऽनुमोदयति, वाचा न सुष्टु ॥६४॥
N
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आवश्यक
निर्युक्तेरवचूर्णिः ।
1184 11
कृतमिति मति, कायेन [न] नखच्छोटिकादि दत्ते, एवमसंयमादिष्वपि विभाषा ॥ १२६५ ॥ कषायप्रतिक्रमणे ज्ञातमुच्यतेसंत स्वर्गत सङ्केतं कृत्वा एकयुतो नागदेवताराधनाज्जातः श्रेष्ठिगृहे, नागदत्त इति नाम कतं, यौवने द्विसप्ततिकलाकुशलो गन्धर्वकलाप्रियत्वाद्गन्धर्वनागदत्तो भण्यते, ततः म गारुडी जातो बहुमित्रयुतो हिण्डति, इतो देवो रजोहरणादिविनाऽव्यक्तलिङ्गेन चतुःसर्पकरण्डिक आगात्, स्वजनादिसमक्ष मुक्तवान्
गंधव नागदत्तो इच्छइ सप्पेहि खिल्लिउं इहयं । तं जइ कहिंवि खज्जइ इत्थ हु दोसो न कायवो ॥ १२६६ ॥
'खाद्यते' भक्ष्यते ।। १२६६ ॥ यथा चतसृष्वपि दिक्षु मण्डलेषु स्थापितानां सर्पाणां माहात्म्यमसावकथयत् तथा आहतरुणदिवायरनयणो विज्जुलयाचंचलग्गजीहालो । घोरमहाविसदाढो उक्का इव पज्जलियरोसो । १२६७।
तरुण दिवाकरनयनो रक्ताक्षः, विद्युल्लतेव चञ्चलाग्रजिह्वा यस्य स तथा, उल्केन - चुडुलीव प्रज्वलितो रोषो यस्य ॥१२६७॥ डक्को जेण मणूसो कयमकथं न याणई सुबहुयंपि । अद्दिस्समाणमच्चुं कह घिच्छसि तं महानागं १ १२६८ अदृश्यमानोऽयं करण्डकस्थो मृत्युर्वर्त्तते ॥ १२६८ ॥ अयं च क्रोधसर्पः क्रोधसमन्वितश्च तरुणदिवाकरनयन एव स्यात्, इत्यादि योजना ज्ञेया ॥
| मेरुगिरितुंगसरिसो अट्ठफणो जमलजुगलजीहालो । दाहिणपासंमि ठिओ माणेण वियट्टई नागो ।। १२६९ मेरुगिरेस्तुङ्गानि - उच्छ्रितानि तैः सह उच्छ्रित इत्यर्थः, अष्टफणः, जात्यादीनि द्रष्टव्यानि यमं - मृत्युं लाति - लगयतीति
कषाय
प्रतिक्रमणे
नागदतो
दाहरणं
नि० मा०
१२६६
१२६९
।। ६५ ।।
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आवश्यकनियुक्तेरवचूर्णिः। ॥६६॥
यमला, यमला-युग्मा जिह्वा यस्य स तथा, दक्षिणपाचे स्थितः दक्षिणदिग्न्यासस्तु दाक्षिण्यवत उपरोधतो मानप्रवृत्तेः, नागदत्तो. 'मानेन' हेतुभूतेन व्यावर्त्तते नागः॥ १२६९ ॥
दाहरणं डको जेण मणुसोथद्धो न गणेइ देवरायमवि। तं मेरुपवयनिभं कह घिच्छसितं महानागं ? ॥ १२७० ॥ नि० गा. __अयं च मानसर्पः ॥ १२७०॥
१२७०सललियविल्लहलगई सत्थिअलंछणफणंकिअपडागा। मायामइआ नागी नियडिकवडवंचणाकुसला१२७१ ।। १२७३ | सललिता वेल्लहा (हला) गतिर्यस्याः सा तथा, स्वस्तिकलाञ्छनेनाङ्किता फणापताका यस्याः सा तथा, च्छन्दोभङ्गभयादित्थं पाठः, निकृतिः-आन्तरो विकारः, कपट-वेषपरावर्त्तादिः, आभ्यां या वश्चना तस्यां कुशला ॥ १२७१ ॥
तं च सि वालग्गाही अणोसहिबलो अ अपरिहत्थो य ।
सा य चिरसंचियविसा गहणंमि वणे वसइ नागी ॥ १२७२ ॥ इयमेवम्भूता नागी त्वं च 'व्यालग्राही' सर्पग्रहणशीलो अनौषधीवलश्च अपरिहत्यश्वादक्षः गहने-सङ्कुले बनेकार्यजाले वसति ।। १२७२ ॥ होही ते विणिवाओ तीसे दातरं उवगयस्स । अप्पोसहिमंतबलो न हु अप्पाणं चिगिच्छिहिसि॥१२७३/ त्वं अल्पौषधिमन्त्रबला, अतो नैवात्मानं चिकित्सिष्यसि ॥ १२७३ ॥ इयं मायानागी ।
॥६६॥
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आवश्यक नियुक्रव
चूर्णिः । ॥६७॥
नागदचोदाहरणं नि० गा. १२७४१२७९
उत्थरमाणो सवं महालओ पुन्नमेहनिग्योसो। उत्तरपासंमि ठिओ लोहेण विट्टयइ नागो॥ १२७४ ॥
'उत्थरमाणो 'त्ति अभिमवन् 'सर्व' वस्तु, महालया, सर्वत्रानिवारित्वात् , उत्तरदिग्न्यासस्तु सर्वोत्तरो लोभ इति ख्यापनार्थः, लोभेन हेतुभूतेन व्यावर्त्तते रुष्यति वा नागः॥ १२७४ ।। उक्को जेण मणुसो होइ महासागरुव दुप्पूरो। तं सवविससमुदयं कह घिच्छसितं महानागं ॥ १२७५ ॥
गृहीध्यसि त्वं ॥ १२७५ ॥ अयं लोभसर्पः॥ एएते पावाही चत्तारि वि कोहमाणमयलोभा।जेहि सया संतत्तं जरियमिव जयं कलकलेइ ॥१२७६॥
यैः सन्तप्तं सत् ज्वरितमिव जगत् कलकलायति भवाब्धौ कथयति ॥ १२७६ ॥ एएहिं जो खजइ चउहिवि आसीविसहि पावहिं। अवसस्स नरयपडणं णस्थि सि आलंबणं किंचि ।१२७७/ | तस्याऽवशस्य सतो नरकपतनं स्यात् ॥ १२७७॥ एवमुक्त्वा मुक्ताः, स दष्टः पतितः मित्रदत्तौषधैर्न गुणः, तस्य स्वजन: पादयोः पतित उज्जीवनाय, देवः प्राहएएहिं अहं खइओ चउहिवि आसीवीसेहि पावहिं। विसनिग्घायणहेउं चरामि विविहं तवोकम्म।१२७८ सेवामि सेलकाणणसुसाणसुन्नघररुक्खमूलाई। पावाहीणं तेसिं खणमवि न उवेमि वीसंभं ॥ १२७९ ॥
॥ ६७ ॥
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आवश्यक नियुक्तरव
चूर्णिः । ॥६८॥
काननानि-दवबिनानि, 'पापाहीनां' पापसाणां न उपैमि विश्रम्मं ।। १२७८-१२७९ ॥
नागदत्तोअच्चाहारो न सहे अइनिद्धेण विसया उइजंति । जायामायाहारो तपि पकामं न इच्छामि १२८०11.दाहरणं 'अत्याहारः' प्रभूताहारः, 'विषयाः' शब्दादयः उदीर्यन्ते, ततश्च यात्रामात्राहारः ॥ १२८० ॥
नि० गा. उस्सन्नकयाहारोअहवा विगईविवज्जियाहारो।जं किंचि कयाहारो अवउज्झियथोवमाहारो॥१२८१॥
१२८०
१२८४ 'ओसन्न' प्रायशोऽकृताहारस्तिष्ठामि, उज्झितधर्मस्तोक आहारो यस्य स तथा ॥ १२८१ ।। एवंक्रियायुक्तस्य गुणानाहथोवाहारो थोवभणिओ यजो होइ थोवनिदो य। थोवोवहिउवगरणो तस्स हुदेवावि पणमंति।१२८२। __ एवं यदि करोति तत उत्तिष्ठति, स्वजनैर्मतं, देवः पूर्वाभिमुखः स्थित्वा भणतिसिद्धेनमंसिऊणं संसारत्थाय जेमहाविजा।वोच्छामि दंडकिरियं सबविसनिवारणिं विजं ॥ १२८३॥
संसारस्थाश्च महावैद्या:-केवलिचतुर्दशपूर्वधरादयः, तांश्च नमस्कृत्य वक्ष्ये दण्डक्रियां विद्या ॥ १२८३ ।। सा चेयंसर्वपाणाइवायं पञ्चक्खाईमि अलियवयणं च । सबमदत्तादाणं अब्बंभ परिग्गहं स्वाहा ॥१२८४॥ - प्रत्याख्यात्येष महात्मेति ॥ १२८४ ।। एवं भणित उत्थितः, न श्रद्दधाति, पुनः पतितः, तृतीयवेलायां मात्रादि पृष्ट्वा तेनैव समं चलितः, वनान्तः पूर्वमवश्रवणात् प्रतिबुद्धः, प्रत्येकबुद्धो जातः, दीर्घपर्यायेण सिद्धः। उक्तं प्रतिक्रमणं, अत्रान्तरेऽध्ययनशब्दार्थः पूर्ववत् , स्त्रालापकनिष्पन्ने त्रं
॥६८॥
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आवश्यकता नियुक्तेरवचूर्णिः ।
करोमि भंते ! सामाइअं (सूत्रं) पूर्ववत्
चचारि
मंगलमाचत्तारि मंगलं अरिहंता मंगलं सिद्धा मंगलं साहू मंगलं केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं (सूत्र)
दीनि चत्तारि लोगुत्तमा अरिहंता लोगुत्तमा सिद्धा लोगुत्तमा साहू लोगुत्तमा केवलिपण्णत्तो धम्मो 11 सूत्राणि | लोगुत्तमो (सूत्रं)
चत्तारि सरणं पवजामि अरिहंते सरणं पवजामि सिद्धे सरणं पवजामि साहू सरणं पवजामि केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पवजामि (सूत्र)
इच्छामि पडिक्कमिउं जो मे देवसिओ अइआरो कओ काइओ वाइओ माणसिओ उस्सुत्तो उम्मग्गो अकप्पो अकरणिज्जो दुज्झाओ दुविचिंतिओ अणायारो अणिच्छियवो असमणपाउग्गो नाणे दंसणे चरित्ते सुए सामाइए तिण्हं गुत्तीणं चउण्हं कसायाणं पंचण्हं महत्वयाणं छण्हं जीवणिकायाणं सत्तण्डं पिंडेसणाणं अटण्हं पवयणमाऊणं नवण्हं बंभचेरगुत्तीणं दसविहे समणधम्मे समणाणं जोगाणं जं खंडिअंजं विराहियं तस्स मिच्छामि दुक्कडं (सूत्रं)
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आवश्यक
निर्युक्तेरवचूर्णिः ।
1110 ||
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मिथ्येति - प्रतिक्रमामि, अत्रेयं सूत्रस्पर्शिका गाथा
पडिसिद्धाणं करणे किच्चाणमकरणे य पडिक्कमणं । असद्दहणे य तहा विवरीयपरूवणाए य ॥ १२८५ ॥
प्रतिषिद्धानामकालस्वाध्यायादीनां करणे, प्रतिक्रमणमिति योगः, कृत्यानां कालस्वाध्यायादीनां ।। १२८५ ॥ अनया गाथया यथायोगं सर्वसूत्राण्यनुगन्तव्यानि यथा - सामायिकसूत्रे प्रतिषिद्धौ रागद्वेषौ तयोः करणे, कृत्यस्तु तनिग्रहस्तस्याकरणे, सामायिकं मोक्षहेतुरित्यश्रद्धाने, असमभावलक्षणं सामायिकमिति विपरीतप्ररूपणायां च प्रतिक्रमणं, एवं मङ्गलादिसूत्रेष्वप्यायोज्यं, [ समाप्ता ] प्रतिक्रमणनिर्युक्त्यवचूणिः ॥
पडिक्कमामि चउहिं झाणेहिं-अहेणं झाणेणं रुद्देणं झाणेणं धम्मेणं झाणेणं सुक्केणं झाणेणं (सूत्रम्) एषामर्थो ध्यानशतकादवसेयः, अस्य च शाखान्तरत्वान्नमस्कारमादावाह
वीरं सुकझाणग्गिदक मिघणं पणमिऊणं । जोईसरं सरणं झाणज्झयणं पवक्खामि ॥ १ ॥
जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चितं । तं होज्ज भावणा वा अणुपेदा वा अहव चिंता ॥ २ ॥
यत् स्थिरमध्यवसानं तद्ध्यानं, यत्तु चलं तच्चितं, तच्चित्तं भवेद्भावना ध्यानाम्यासक्रिया, अनुप्रेक्षा अनु-पश्चाद्भावे प्रेक्षणं प्रेक्षा, सा च स्मृतिध्यानाद् भ्रष्टस्य चित्तचेष्टेत्यर्थः, अथवा चिन्ता योक्तप्रकारद्वयरहिता चिन्ता-मनश्रेष्टा सा चिन्ता || २ || ध्यानलक्षणमुक्त्वा ध्यानमेव कालस्वामिभ्यामाह -
प्रतिक्रमणसूत्र स्पर्शि
कागाथा नि० गा०
१२८५ ध्यानशतकं
गा० १-२
|| 190 ||
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आवश्यक निर्युक्तेरवचूर्णिः
নিবন্ধ गा०३-६
॥७१ ॥
अंतोमुत्तमेत्तं चित्तावत्थाणमेगवत्थुमि । छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु ॥३॥ अन्तर्मुहर्तकालं चित्तावस्थानमेकस्मिन् वस्तुनि यत्तद् छद्मस्थानां ध्यान, योगनिरोध एव जिनानां केवलिनां ध्यानं, न तु चित्तावस्थानं, चित्तस्यैवाऽभावात् , एतदुपरिष्टावक्ष्यामः॥ ३॥ छअस्थानामन्तर्मुहर्तात्परतो यत्स्यात्तदाह
अंतोमुहुत्तपरओ चिंता झाणंतरं व होजाहिं । सुचिरंपि होज बहुवत्थुसंकमे झाणसंताणो ॥ ४॥ मिनमुहूर्ताचं चिन्ता प्रागुक्तस्वरूपा ध्यानान्तरं वा मवेद्भावनानुप्रेक्षात्मकं चेतः, सुचिरमपि कालं मवेद् बहुवस्तुसङ्कमे ध्यानसन्तानो ध्यानप्रवाहः, बहुवस्तूनि चात्मगतानि मनःप्रभृतीनि, परगतानि द्रव्यादीनि, तेषु सङ्क्रमः सञ्चरणं ॥ ४ ॥ इत्थं ध्यानस्य सामान्येन लक्षणमुक्त्वा विशेषत आह
भट्ट रुदं धम्म सुकं झाणाइ तत्थ अंताई । निबाणसाहणाई भवकारणमट्टरुदाई ॥५॥ आर्चच्यानं चतुर्दा, तत्राचं मेदमाह_अमणुण्णाणं सहाइविसयवस्थूण दोसमइलस्स । धणि विओगचिंतणमसंपोगाणुसरणं च ॥६॥
अमनोजानां [शब्दादयः] विषया इन्द्रियगोचरा [वा] वस्तूनि च तेषां शन्दादिविषयवस्तूनां सम्प्राप्तानां सतां, 'पणिय' अत्यर्थ वियोगचिन्तनं-कथमेभिर्वियोगः स्यात, अनेन वर्चमानकालग्रहः, तथा सति वियोगेऽसम्प्रयोगानुस्मरणं, कथमेमिः सह सदैव सम्प्रयोमाभावः, अनेनानागतकालग्रहः, चन्दात् पूर्वकालमपि वियुक्तासम्प्रयुक्तयोर्वहुमतत्वेनातीतकालाहः, किंविशिष्टस्य सत इदं वियोगचिन्तनादि, द्वेषमलिनस्य-तदाक्रान्तमर्जन्तोः॥६॥ द्वितीयमाह
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आवश्यक
निर्युक्तेरव
चूर्णिः ।
॥ ७२ ॥
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तह सूलसीसरोगाइवेयणाए व (वि) जोगपणिहाणं । तदसंपओगचिंता तप्पडियाराउलमणस्स || ७ ||
तथाsत्यर्थमेव, शूलशिरोरोगादिवेदनाया वियोगप्रणिधानं, वियोगे दृढाध्यवसाय इति वर्त्तमानग्रहः, ' तदसम्प्रयोगचिन्ता ' तस्याः - वेदनायाः कथञ्चिदभावे सति असम्प्रयोगचिन्ता, कथं ममानयाऽऽयत्यां सम्प्रयोगो न स्यादिति, चिन्ताध्यानं इत्यनागतकालग्रहः, पूर्ववदतीत ग्रहोऽपि ज्ञेयः, तत्प्रतीकारे - वेदनाप्रतीकारे चिकित्सायामाकुलं व्यग्रं मनो यस्य स तथाविधस्तस्य, वियोगप्रणिधानाद्यार्त्तध्यानं ॥ ७ ॥ तृतीयमाह
इद्वाणं विसयाईण वेयणाय रागरचस्स । अवियोगऽज्झवसाणं तह संजोगाभिलासो य ॥ ८ ॥
' इष्टानां ' मनोज्ञानां विषयादीनां आदिशब्दाद्वस्तुग्रहः, तथा वेदनायाश्चेष्टाया अवियोगाध्यवसानमिति वर्त्तमानग्रहः, तथा धणियं संयोगाभिलाषश्चायत्यां इत्यनागतग्रहः, रागोऽभिष्वङ्गस्तेन रक्तस्य जन्तोः ॥ ८ ॥ चतुर्थमाह
देविंदचकवत्तिणाई गुणरिद्धिपत्थणमईयं । अहमं नियाणचितणमण्णा णाणुगयमच्चतं ॥ ९ ॥
देवेन्द्र चक्रवदीनां गुणर्द्धयः, तत्र गुणाः- सुरूपादयः, ऋद्धिस्तु विभूतिः, तत्प्रार्थनात्मकं तदधमं - जघन्यं निदानचिन्तनं, अहमनेन तपस्त्यागादिना देवेन्द्रः स्यामित्यादिरूपं, यसादज्ञानानुगतमत्यन्तं, नाज्ञानिनो विहाय सांसारिकसुखेष्वन्येषामभिलाषः ॥ ९ ॥
एयंचविहं रागद्दोस मोहंकियस्स जीवस्स । अट्टज्झाणं संसारवद्धणं तिरियगइमूलं ॥ १० ॥
संसारवर्द्धनमोघतः, तिर्यग्गतिमूलं विशेषतः || १० || आह- साधोरपि शूलाद्यभिभूतस्याऽसमाधानात्तत्प्रतीकारकरणे च
ध्यानशतकं मा० : ७-१०
॥ ७२ ॥
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आवश्यक
निर्युक्तेवचूर्णिः ।
॥ ७३ ॥
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तद्विप्रयोगप्रणिधानापत्तेः, तथा तपःसंयमासेवने च सांसारिकदुःखवियोगप्रणिधानादार्त्तध्यानप्राप्तिः, अत्रोच्यते, रागादिवशवर्त्तिनः स्यादेव, न पुनरन्यस्य इत्याह च
मज्झत्थस्स उ मुणिणो सकम्मपरिणामजणियमेयंति । वत्थुस्वभावचितणपरस्स सम्मं सतस्स ॥ ११ ॥
स्वकर्म परिणामजनितमेतत् - शूलादि, इत्येवं वस्तुस्वभावचिन्तनपरस्य सम्यक्सहमानस्य सतः कुतोऽसमाधानम् १ अपि तु धर्म्यमनिदानं ॥ ११ ॥
कुणओ व पसत्थालंबणस्स पडियारमप्पसावज्जं । तवसंजमपडियारं च सेवओ धम्ममणियाणं ॥ १२ ॥ कुर्वतो वा प्रशस्तालम्बनस्य प्रतिकारमल्पसावद्यं, अल्पशब्दोऽभाववचनः स्तोकवचनो वा, धर्म्यमनिदानमेव, तथा तपःसंयमावेव प्रतिकारः सांसारिकदुःखानामिति गम्यते, तं च सेवमानस्य ' धर्म्यं ' धर्मध्यानमेव, अनिदानमिति क्रियाविशेषणं, देवेन्द्रादिनिदानरहितं ।। १२ । आह-कथमार्च संसारबर्द्धनं १, उच्यते
रागो दोसो मोहो य जेण संसारहेयवो भणिया । अहंमि य ते तिष्णिवि तो तं संसारतरुबीयं ॥ १३ ॥ अथ आर्त्तध्यायिनो लेश्या आह
कावोयनी कालालेस्साओ णाइसकिलिट्ठाओ । अट्टज्झाणोवगयस्स कम्मपरिणामणिआओ ॥ १४ ॥ 'नातिसंक्लिष्टाः' रौद्रध्यानलेश्यापेक्षया नात्यशुभानुभावाः स्युः || १४ || आर्त्तध्यायिनो लिङ्गान्याहतस्स कंदण सोयणपरिदेवणताडणाई लिंगाई । इट्ठाणिङ्कविओगा वियोग वियणानिमित्ताई ॥ १५ ॥
ध्यान
शतकं
गा० ११-१५
॥ ७३ ॥
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आवश्य निर्युक्तेरव-
चूर्णिः।
ध्यानशतकं
निमित्तानि वेदना विभईओ । पत्थेइ
त
॥७४॥
१६-१९
था प्रशंसति सविस्म
तस्याच्यायिनः आक्रन्दनं महता शब्देन रोदनं, शोचनं त्वश्रुपूर्णनयनस्य दैन्यं, परिदेवनं क्लिष्टभाषणं ताडनं-उरःशिरःकुट्टनकेशलुश्चनादि, एतानि 'लिङ्गानि' चिह्नानि, अमूनि च इष्टानिष्टवियोगावियोगवेदनानिमिचानि, इष्टवियोगनिमिचानि तथानिष्टावियोगनिमित्तानि वेदनानिमित्तानि च ॥१५॥ किश्चान्यत्
निदइ य नियकयाइं पसंसइ सविम्हओ विभूईओ । पत्थेइ तासु रजह तयजणपरायणो होइ ॥ १६॥ निन्दति निजकृतानि अल्पफलविफलानि कर्मशिल्पकलावाणिज्यादीनि, तथा प्रशंसति सविस्मयो विभृतीः परसम्पदः, तथा प्रार्थयते परविभूतीः, तासु प्राप्तासु, तदर्जनपरायणः स्यात्-ततश्चैवम्भूतोऽप्याध्यायी ॥ १६ ॥ किञ्च
सद्दाइविसयगिद्धो सद्धम्मपरम्मुहो पमायपरो । जिणमयमणवेक्खंतो वट्टइ अद्भृमि झाणंमि ॥ १७ ॥ जिनमतं-आगमरूपं, तदनपेक्षमाणः ॥ १७ ॥ आर्तध्यानं यदनुगतं यदनहें च स्यात्तदाह
तदविरयदेसविरया पमायपरसंजयाणुगं झाणं । सवपमायमूलं वजेयव्वं जइजणेणं ॥ १८॥ | तत् आर्तध्यानं अविरताः-मिथ्यादृष्टयः सम्यग्दृष्टयश्च, देशविरता:-श्रावकाः, प्रमादपरसंयतास्ताननुगच्छतीति, नैवाप्रमत्तसंयतानामिति भावः, यतिजनेन श्राद्धजनेन च ॥ १८ ॥ अथ रौद्रं चतुर्धा-हिंसानुबन्धि १ मृषानुबन्धि २ स्तेयानुबन्धि ३ विषयसंरक्षणानुबन्धि च ४, तत्राद्यमाह. सत्तवहवेहबंधणडहणकणमारणाइपणिहाणं । महकोहग्गहपत्थं निग्घिणमणसोऽहमविवागं ॥ १९॥
सत्त्वा:-पश्चेन्द्रियास्तेषां वधः-करकशलतादिभिः ताडनं, वेधः-आरादिभिः, बन्धनं रज्ज्वादिभिः, दहनं उल्मुकादिभिः,
॥ ७४॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरवचूर्णिः ।
॥ ७५ ॥
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अङ्कनं - लाञ्छनं श्वशृगालचरणादिभिः, मारणं-प्राणवियोजनमसिशच्यादिभिः, आदिशब्दादागाढपरितापनादिग्रहः, एतेषु प्रणिधानं - अकुर्वतोऽपि करणं प्रति दृढाध्यवसानं, रौद्र ध्यानं, अतिक्रोधग्रहग्रस्तं, क्रोधग्रहणाच्च मानादयोऽपि गृह्यन्ते, निर्घृणमनसः सतः, अधमो नरकादिप्राप्तिलक्षणो विपाको यस्य तत्तथाविधं ॥ १९ ॥ द्वितीयमाह
पिसूणा सभासम्भूयभूयधायाइवयणपणिहाणं । मायाविणोऽसंघण परस्स पच्छन्नपावस्स ॥ २० ॥
पिशुनमनिष्टसूचकं, असभ्यं जकारमकारादि, असद्भूतं त्रिधा अभूतोद्भावनं सर्वगत आत्मेत्यादि १, भूतनिवो नास्त्यात्मेत्यादि २, गामश्वमित्यादि ब्रुवतोऽर्थान्तराभिधं ३, भूतघातादि छिन्द्वि भिन्द्वि व्यापादयेत्यादि, तत्र पिशुनादि - वचनेष्वप्रवर्त्तमानस्यापि प्रवृत्तिं प्रति प्रणिधानं रौद्रध्यानं, मायाविनो वणिजादे, तथाऽतिसन्धानपरस्य - परवञ्चनाप्रवृत्तस्य, तथा ' प्रच्छन्नपापस्य ' कूटप्रयोगकारिणः ॥ २० ॥ तृतीयमाह -
तह तिव्वको लोहाउलस्स भूओवघायणमणज्जं । परदव्वहरणचित्तं परलोयावाय निरवेक्खं ॥ २१ ॥
तीव्रक्रोधलोभाकुलस्य जन्तोः, भूतानामुपहननं भूतोपहननं, अनार्य, परद्रव्यहरणचित्तं, रौद्रध्यानं ॥ २१ ॥ चतुर्थमाह
सद्दाइविसयसाहणघणसारक्खणपरायणमणिद्वं । सवाभिसंकण परोवघायकलुसाउलं चित्तं ॥ २२ ॥ शब्दादयश्च ते विषयाश्च ते, साधनं कारणं, तच्च तद्धनं च तत्संरक्षणे परायणं, तथाऽनिष्टं सतां, सर्वेषामभिशङ्कनेनन विद्मः कः किं करिष्यतीत्यादिलक्षणेन, तस्मात्सर्वेषामुपघातः श्रेयानित्येवं परोपवातेन च, तथा कलुषा:- कपायास्तैराकुलंव्याप्तं यत्तथा चित्तं तत् रौद्रध्यानं ॥ २२ ॥
ध्यान
शतकं
गा०
२०-२२
।। ७५ ।।
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आवश्यकनियुक्तरवचूर्णिः ।
ध्यानशतकं
गा. २३-२७
॥७६॥
इय करणकारणाणुमइविसयमणुचिंतणं चउम्मेयं । अविरयदेसासंजयजणमणसंसेवियमहणं ॥ २३ ॥ एवं करणं स्वयमेव, कारणमन्यैः, कृतानुमोदनमनुमतिरेता एव विषयो यस्य तत्करणकारणानुमतिविषयं, 'अनुचिन्तनं' पर्यालोचनं, 'चतुर्भेदं' हिंसानुबन्ध्यादि, रौद्रध्यानं, अविरताः सम्यग्दृष्टयः, इतरे च देशसंयताः श्रावकास्त एव जनास्तेषां मनांसि तैः संसेवितं, अधन्यमश्रेयस्करणं ॥ २३ ॥
एवं चउविहं रागदोसमोहाउलस्स जीवस्स । रोद्दज्झाणं संसारवद्धणं नस्यगइमूलं ॥ २४ ॥
कावोयनीलकाला लेसाभो तिवसंकिलिट्ठाओ । रोद्दज्झाणोवगयस्स कम्मपरिणामजणियाओ ॥ २५ ॥ तीव्रसक्लिष्टाः ॥२४-२५॥
लिंगाई तस्स उस्सण्णबहुलनाणाविहामरणदोसा । तेसि चिय हिंसाइसु बाहिरकरणोवउत्तस्स ॥ २६ ॥ 'तस्य ' रौद्रध्यायिनः, दोषशब्दः प्रत्येकं योज्यः, ततो हिंसानुबन्ध्यादीनामन्यतरस्मिन् प्रवर्त्तमान उत्सन्नमनुपरतं बाहुल्येन प्रवर्त्तत इत्युत्सन्नदोषः, सर्वेष्वपि चैवं प्रवर्त्तत इति बहुलदोषः, नानाविधेषु त्वक्तक्षणनयनोत्खननादिषु हिंसाधुपायेषु असदप्येवं प्रवर्तत इति नानाविधः दोषः, महदापद्गतो [ऽपि स्वतः महदापद्गते ]ऽपि च परे आमरणादसञ्जातानुताप इत्यामरणदोषः, तेष्वेव हिंसादिषु हिंसानुबन्ध्यादिषु बाह्यकरणोपयुक्तस्य सत उत्सनादिदोषलिङ्गानि, बाह्यकरणशब्देनेह वाकायौ गृह्येते, ततश्च ताभ्यामपि तीव्र उपयुक्तस्य ॥ २६ ॥ किश्च
परवसणं अहिणंदद निरवेक्खो निद्दओ निरणुतावो। हरिसिजह कयपावो रोइज्झाणोवगयचित्तो ॥ २७ ॥
॥ ७६ ॥
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ध्यान
आवश्यकनियुक्तेरव
चूर्णिः ।
शतकं
गा. २८-३२
॥७७॥
अभिनन्दति-बहु मन्यते, तथा निरपेक्षः-इहान्यमविकापायरहितः॥२७॥ अथ धर्मध्यानाभिधित्सया द्वारगाथाद्वयमाह
झाणस्स भावणाओ देसं कालं तहाऽऽसणविसेस । आलंबणं कम झाइयवयं जे य झायारो ॥ २८ ।।
तत्तोऽणुप्पेहाओ लेस्सा लिंगं फलं च नाऊणं । धम्मं झाइज मुणी तग्गयजोगो तओ सुकं ॥ २९ ॥ मावनाः ज्ञानाद्याः ज्ञात्वेति योगः, 'आलम्बनं ' वाचनादि, ‘क्रम' मनोनिरोधादि, ध्यातव्यमानादि ॥ २८ ॥ अनुप्रेक्षा' ध्यानोपरमकालभाविन्योऽनित्यत्वाद्यालोचनरूपाः, तत्कृतयोगः-धर्मध्यानकृताभ्यासः ॥ २९ ॥
पुवकयब्भासो भावणाहि झाणस्स जोग्गयमुवेइ । ताओ य नाणदंसणचरित्तवेरग्गजणियाओ ॥ ३०॥ पूर्व-ध्यानात् कृतोऽभ्यासः-आसेवनालक्षणो येन स तथाविधः, भावनाभिः ।। ३०॥
णाणे णिच्चन्मासो कुणइ मणोधारणं विसुद्धिं च । नाणगुणमुणियसारो तो झाइ सुनिञ्चलमईओ ॥ ३१ ॥ बाने श्रुतज्ञाने, नित्यं-सदा, अभ्यासा-आसेवनालक्षणः, करोति, मनसो धारणम्-अशुभव्यापारनिरोधेनावस्थानं, | तथा विशुद्धिं च सूत्रार्थयोः, चशब्दावनिर्वेदं च, एवं ज्ञानगुणेन ज्ञानमाहात्म्येन ज्ञातः सारो विश्वस्य येन स तथाविधः, सुनिश्चला-सम्यगज्ञानतोऽन्यथाप्रवृत्तिकम्परहिता मतिर्यस्य स तथाविधः ॥ ३१ ॥
संकाइदोसरहिओ पसमज्जाइगुणगणोवेओ । होइ असमूढमणो दंसणसुद्धीए झाणंमि ॥ ३२ ॥ . प्रशमादिना स्थैर्यादिना च गुणगणेनोपेतः प्रशमस्थैर्यादिगुणोपेतः, इत्थम्भूतः स्यादसम्मूढमनास्तत्वान्तरेऽभ्रान्तचित्तः ॥३२॥
॥७
॥
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बावश्यकनियुक्तरवचर्णिः ।
ध्यानशतकं
गा. ३३-३७
॥७८॥
नवकम्माणायाणं पोराणविणिज्जरं सुभायाणं । चारित्तभावणाए झाणमयत्तेण य समेइ ॥ ३३ ॥ चारित्रमावनया-सर्वसावद्ययोगनिवृत्तिरूपक्रियाभ्यासेन, ध्यानं नवकर्मानादानादि चायनेन समेति-प्राप्नोति ॥३३॥
सुविदियजगस्सभावो निस्संगो निन्मओ निरासो य । वेरग्गभावियमणो झाणंमि सुनिच्चलो होह ॥ ३४ ॥ निराशंसश्च इहपरलोकाशामुक्तः, चशब्दात्क्रोधादिरहितश्च ॥ ३४ ॥ देशद्विार]माह
निच्चं चिय जुवइपसुनपुंसगकुसीलवजियं जइणो । ठाणं वियणं भणियं विसेसओ झाणकालंमि ॥ ३५ ॥ नित्यमेव, न केवलं ध्यानकाले, कुशीला:-तकारादयः, स्थानं युवत्यादिव्यतिरिक्तशेषजनापेक्षया विगतजनं विजनं ॥३५॥
थिरकयजोगाणं पुण मुणीण झाणे सुनिश्चलमणाणं । गामंमि जणाइण्णे सुण्णे रण्णे व ण विसेसो ॥ ३६॥ स्थिरा:-संहननधृतिभ्यां बलवन्तः, कृताः-अभ्यस्ताः योगा:-ज्ञानादिभावनादिव्यापारा यैस्ते स्थिरकृतयोगास्तेषां, ग्रामे जनाकीर्णे शून्येऽरण्ये वा ॥ ३६ ॥
तो नत्थ समाहाणं होज मणोवयणकायजोगाणं । मूओवरोहरहिओ सो देसो झायमाणस्स ॥ ३७॥ आह-वाकाययोगसमाधानमत्र कोपयुज्यते ?, उच्यते, तत्समाधान मनोयोगोपकारक, ध्यानमपि तदात्मकं स्यादेव, यथा-' एवंविहा गिरा मे वत्तवा एरिसि न वत्तवा । इस वेआलिअवकस्स भासओ वाइअं झाणं ॥१॥' तथा-'सुसमाहिअकरपायस्स अकजे कारणमि जयणाए । किरिआकरणं जं तं काइअझाणं भवे जइणो ॥२॥'भृतोपघातरहिता, भूतानिपृथिव्यादीनि उपरोधः तत्संघट्टनादिलक्षणस्तेन रहितः यः, तथा अनृतादत्तादानमैथुनपरिग्रहाद्युपरोधरहितश्च स देशो
।। ७८॥
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ध्यान
बावश्यक नियुक्तरव
चूर्णिः ।
शतक
गा० ३८-४२
ध्यायत उचितः ॥ ३७॥
____कालोऽवि सो चिय जहिं जोगसमाहाणमुत्तमं लहह । न य दिवसनिसावेलाइनियमणं झाइणो भणियं ॥ ३८ ॥ कालोऽपि स एव ध्यानोचितः॥ ३८ ॥ आसनमाह
जच्चिय देहावस्था जिया ण झाणोवरोहिणी होइ । झाइज्जा तदवत्थो ठिओ निसण्णो निवण्णो वा ॥ ३९ ॥ यैव देहावस्था निषण्णादिरूपा जिताऽभ्यस्ता तथानुष्ठीयमाना, न ध्यानोपरोधिनी स्यात् नाधिकृतधर्मध्यानपीडाकारी स्यात् , ' स्थितः' कायोत्सर्गेण ईषन्त्रतादिना, निषन्नः उपविष्टो वीरासनादिना, निर्वित्रः शयितो दण्डायतादिना, वा। विकल्पार्थे ॥ ३९ ॥ आह-किं देशकाला[सना ]नामनियमः १, उच्यते
सबासु वट्टमाणा मुणओ जं देसकालचेट्ठासु । वरकेवलाइलामं पत्ता बहुसो समियपावा ॥ ४०॥ सर्वासु देशकालचेष्टासु, चेष्टा-देहावस्था, वर्तमाना मुनयो 'यद्यस्मात्कारणात् प्रधान केवलादिलाभ प्राप्ताः, IN आदेमनःपर्यायादिग्रहः, केवलवर्ज बहुशोऽनेकशः, शमितपापाः सन्तः ॥ ४० ॥
तो देसकालचेद्वानियमो झाणस्स नत्थि समयमि । जोगाण समाहाणं जह होइ तहा [प]यइयत्वं ॥ ११ ॥ तस्माद् ॥ ४१ ।। आलम्बनद्वारमाह
आलंबणाई वायणपुच्छणपरियट्टणाणुचिंताओ । सामाइयाइयाई सद्धम्मावस्सयाई च ॥ ४२ ॥ वाचना-विनेयाय स्त्रार्थदानं, शङ्किते सूत्रादौ गुरुप्रच्छनं प्रश्नः, परावर्त्तनं पूर्वाधीतस्यैव सूत्रादेरम्यासकरणं, अनुप्रेक्षा
॥७९॥
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ध्यान
शतकं
आवश्यक- नियुक्तरव-
चूर्णिः । ॥८ ॥
गा० ४३-४५
मनसैवाविस्मरणादिनिमित्तं सूत्रानुस्मरणं, एतानि श्रुतधर्मानुगतानि वर्तन्ते, तथा सामायिकादीनि सद्धर्मावश्यकानि च, अमनि चरणधर्मानुगतानि, सामायिकं प्रतीतं आदिशब्दात मुखवत्रिकाप्रत्युपेक्षणादिसामाचारीपरिग्रहः, सन्ति च तानि चारित्रधर्मावश्यकादीनि चेति विग्रहः, आवश्यकानि-नियमतः करणीयानि ॥ ४२ ॥
विसमंमि समारोहइ दढदवालवणो जहा पुरिसो । सुत्ताइकयालंबो तह झाणवरं समारुहह ॥ ४३ ॥ दृढद्रव्यं रज्जादि ॥ ४३ ।। क्रमं धर्मस्य, लाघवार्थ शुक्लस्य चाह
झाणपडिवत्तिकमो होइ मणोजोगनिग्गहाईओ। भवकाले केवलिणो सेसाण जहासमाहीए ॥ ४४ ॥ ध्यानस्य प्रतिपत्तिक्रमः परिपाटी, पूर्व मनोनिग्रहस्ततो वागूनिग्रहस्ततः काययोगनिग्रहः, अयं क्रमः भवकाले शैलेश्यवस्थान्तर्गतकेवलिनः, शुक्ल एवायं क्रमः, शेषस्य धर्मध्यानप्रतिपत्तुर्यथासमाधिना यथैव स्वास्थ्यं स्यात्तथैव प्रतिपत्तिः ॥४४॥ ध्यातव्यं चतुर्धा-आज्ञापायविपाकसंस्थानविचय मेदात , तदेवाह-'आणा.' इयं गाथान्यकर्त की ।। तत्राथमाह
___ सुनिऊणमणाइणिहणं भूयहियं भूयभावणमहग्धं । अमियमजियं महत्थं हाणुभावं महाविसयं ॥ ४५ ॥
सुनैपुण्यं च सूक्ष्मद्रव्याद्युपदर्शकत्वात्तथा मत्यादिप्रतिपादकत्वाच्च, अनाद्यनिधनां द्रव्यार्थादेशात् , भूतहितां, भूताः | प्राणिनस्तेषां हितां पथ्यां ' सो जीवा न हंतवा' इत्यादि- 'भूतभावनां' भूतं-सत्यं माव्यतेऽनयेति भूतभावना-अनेकान्तपरिच्छेदात्मिका, भूतानां वा सवानां चिलातीपुत्रादीनामिव भावना-वासना यस्याः सा तथा तां, अनामविद्यमानमूल्यां,
१ इयं गाथा क्वापि न लन्धा अतो न दर्शिता ।
॥८
॥
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ध्यान
आवश्यकनिर्युक्तेरव
चूर्णिः । ॥८१ ॥
AG
शतकं गा.
४६-४७
S
अथवा ऋणघ्नां-कर्मघ्नां, अनिय(अमि)तामपरिमितार्थां, यथा-' सबनईणं जा हुज वालुअ सव्वुद्दहीण जं उदयं । इत्तोवि अणंतगुणो अत्थो इक्कस्स सुत्तस्स ॥१॥' अमृतां वाऽमृतोपमा मृष्टां पथ्या वा, यथा-' जिणवयणमोअगस्स उ रत्तिं व दिआ य खजमाणस्स । तित्विं बुहो न वच्चइ सहस्सोवगूढस्स ॥१॥' तथा-नरनिस्यतिरिअसुरगणसंसारिअसबदुक्खरोगाणं । जिणवयणमेगमोसहमपवग्गदुहक्खयफलयं ॥ २॥' अमृतां सजीवां वा, उपपत्तिक्षमत्वेन, अजितां शेषप्रवचनाज्ञाभिरपराजिता, यथा-'जीवाइवत्थुचिंतणकोसल्लगुणेणऽणण्णसरिसेणं । सेसवयणेहिं अजिअं जिणिंदवयणं महाविसयं ॥१॥' महार्थां, पूर्वापराविरोधित्वादनुयोगद्वारात्मकत्वाचयगत्वाच, यद्वा महः पूजा तत्र तिष्ठतीति महस्था[ तां,] यथा-' सबसुरासुरमाणुसजोइसवंतरसुपूइ णाणं । जेणेह गणहराणं छुहंति चुन्ने सुरिंदावि ॥१॥' महान्-प्रधानः सम्भू(प्रभू )तो वाऽनुभावः-सामर्थ्यादिलक्षणो यस्याः सा तथा तां, प्रधानत्वं चतुर्दशपूर्वविदः लब्धिसम्पन्नत्वात , प्रभूतत्वं च [प्रभूतकार्यकरणाद्, उक्तं च-] 'पहू णं चउद्दसपुत्री घडाओ घडसहस्सं करित्तए' इत्यादि, परत्र यथा-' उववाओलंतगंमि चउदसपुबीस्स होइ उ जहन्नो । उक्कोसो सबढे सिद्धिगमो वा अकम्मस्स ॥१॥' महाविषयां, सर्वद्रव्य(ब्यादि)विषयत्वात् ॥४५॥
झाइज्जा निरवजं जिणाणमाणं जगप्पईवाणं । अणिउणजणदुण्णेयं नयभंगपमाणगमगहणं ॥ ४६ ॥ 'आज्ञां' वचनलक्षणां, नया नैगमादयस्तथा भङ्गा मङ्गकाः, प्रमाणानि-द्रव्यादीनि, गमाश्चतुर्विंशतिदण्डकादयः किञ्चिद्विसदृशाः सूत्रमार्गा वा, तैर्गहना तां ॥ ४६ ॥
तत्य य मइदोब्बलेणं तबिहायरियविरहओ वावि । णेयगहणत्तणेण य णाणावरणोदएणं च ।। ४७ ॥
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आवश्यक
निर्युके -
चूर्णिः ।
॥ ८२ ॥
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' तत्र ' तस्यामाज्ञायां मतिदौर्बल्येन बुद्धेः सम्यगर्थानवधारणेन, ज्ञेयं-धर्मास्तिकायादि, तद्गहनत्वेन च ॥ ४७ ॥ ऊदाहरण संभवे य सइ सुट्टु नं न बुज्झेजा । सव्वणुमयमवित तहावि तं चितए मइमं ॥ ४८ ॥
कश्चन पदार्थ प्रति हेतूदाहरणासम्भवः तस्मिन् सति, तत्र हेतुः कारको व्यञ्जकच, उदाहरणं चरितकल्पित भेदं, तथापि तदबोधकारणे सत्यनधगच्छन्नपि ' तत् ' - मतं चिन्तयेन्मतिमान् ॥ ४८ ॥
अणुवक पराणुग्गपरायणा जं जिणा जगप्पवरा । जियरागदोसमोहा य णण्णहावादिणो तेणं ॥ ४९ ॥ रागोऽभिष्वङ्गो द्वेषोऽप्रीतिर्मोहोऽज्ञानं ॥ ४९ ॥ द्वितीयमाह
रागद्दोस कसाया सवादिकिरियासु वट्टमाणाणं । इहपरलोयावाओ झाइज्जा वज्जपरिवज्जी ॥ ५० ॥
रागद्वेष कषायाश्रवादिक्रियासु वर्त्तमानानामिहपरलोकापायान् ध्यायेद्वर्ण्यपरिवर्जी, वर्ज्यमकृत्यं तत्परिवर्जी - अप्रमत्तः, यथा - ' रागः सम्पद्यमानोऽपि दुःखदो दुष्टगोचरः । महाव्याध्यभिभूतस्य अ(कु) पथ्यान्नाभिलाषवत् ॥ १ ॥ द्वेषः सम्पद्यमानोऽपि तापयत्येव देहिनं । कोटरस्थो ज्वलन्नाशु दावानल इव द्रुमं ॥ २ ॥ ' तथा ' दृष्टयादिमेदभिन्नस्य रागस्यामुष्मिकं फलं । दीर्घः संसार एवोक्तः सर्वज्ञैः सर्वदर्शभिः || ३ || दोसानलसंततो इहलोए चैव दुक्खिओ जीवो। परलोगंमि अ पावो पावइ निश्यानलं ततो ॥ ४ ॥ मिच्छत्तमोहिअमई जीवो इहलोग एव दुक्खाई । निश्ओवमाई पावो पावड़ पसमाइगुणहीणो ॥ ५ ॥ अज्ञानं खलु कष्टं क्रोधादिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः । अर्थ हितमहितं वा न वेत्ति येनावृतो लोकः ।। ६ ।। जीवा पाविति इह पाणवादविरईए पात्राए । निअसुअघायणमाई दोसे जणगरहिए पावा || ७ || पर लोगंमिवि एवं आसवकिरिआहिं अजिए
ध्यान
शतकं
[9]
गा० ४८-५०
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आवश्यक
निर्युक्तेरव चूर्णिः ।
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कम्मे | जीवाणं चिरमवाया 'निरयाइगईभमंताणं ॥ ८ ॥ किरियासु वट्टमाणा काइगमाईसु दुक्खिआ जीवा । इह चैव य पर लोगे संसारपवड्डगा भणिया ।। ९ ।। ' एवं रागादिक्रियासु वर्त्तमानानामपायान् ध्यायेत् ॥ ५० ॥ तृतीयमाह - इपिएसाणुभावभिन्नं सुहासुहविहतं । जोगाणुभावजणियं कम्मविवागं विचितेजा ॥ ५१ ॥
प्रकृत्यादिभेदभिन्नं, शुभाशुभविभक्तं, योगानुभाव जनितं योगा मनोवचनकायाः, अनुभावो जीवगुण एव, स च मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषायास्तैर्जनितं ॥ ५१ ॥ चतुर्थमाह
जिण दे सियाइँ लक्खण संठाणासणविहाणमाणाई । उच्पायट्टिभंगाइपज्जवा जे य दवाणं ॥ ५२ ॥
जिनदेशितानि लक्षणसंस्थानासनविधानमानानि विचिन्तयेदिति वक्ष्यति षष्ठयां गाथायां द्रव्याणामिति प्रतिपदमा योज्यं, तत्र लक्षणं धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां गत्यादि, तथा संस्थानं परिमण्डलाद्यजीवानां जीवशरीराणां च समचतुरस्रादि, कालस्य मनुष्यक्षेत्राकतिः, सूर्यादिक्रियाऽभिव्यङ्ग्यो हि कालः किल मनुष्यक्षेत्र एव वर्त्तते, अतो य एवास्याकारः स एव कालस्योपचारतो विज्ञेयः, धर्माधर्म्मयोरपि लोकक्षेत्रापेक्षया भावनीयं तथा आसनानि - आधारलक्षणानि धर्मास्तिकायादीनां लोकाशादीनि स्वस्वरूपाणि वा, तथा विधानानि धर्मादीनां यथा - ' धम्मस्थिका धम्मत्थिकायस्स देखे धम्मथिका पसे' इत्यादि, तथा मानानि धर्मादीनामेवात्मीयानि, तथा उत्पादस्थितिभङ्गादिपर्याया ये च द्रव्याणांधर्मास्तिकायादीनां तान् विचिन्तयेत् तत्र धर्मास्तिकायो विवक्षितसमयसम्बन्धरूपापेक्षयोत्पद्यते, तदनन्तरातीतसमयसम्बन्धरूपापेक्षया तु विनश्यति, धर्मास्तिकायद्रव्यात्मना तु नित्यः, आदिशब्दाद गुरुलघ्वादिपर्यायपरिग्रहः ।। ५२ ।।
ध्यान
शतकं
गा०
५१-५२
॥ ८३ ॥
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आवश्यक नियुक्तरव
चूर्णिः । ॥८४॥
गा०
पंचत्थिकायमइयं लोगमणाइणिहणं जिणक्खायं । णामाइमेयविहियं तिविहमहोलोयमेयाई ।। ५३ ॥
ध्यानपश्चास्तिकायमयं, अस्तिकाया:-धर्मास्तिकायादयस्तेषां चेदं स्वरूपं-'जीवानां पुद्गलानां च गत्युपग्रहकारणं । धर्मा- शतकं स्तिकायो ज्ञानस्य दीपश्चक्षुष्मतो यथा ॥ १॥ जीवानां पुद्गलानां च स्थित्युपष्टम्मकारणं । अधर्मः पुरुषस्येव तिष्ठासोरवनिस्समा (निर्यथा)॥२॥ जीवानां पुद्गलानां च धर्माधर्मास्तिकाययोः। बदराणां घटो यददाकाशमवकाशदं ॥३॥
५३-५४ ज्ञानात्मा सर्वभावज्ञो मोक्ता कर्ता च कर्मणां । नानासंसारिमुक्ताख्यो जीवः प्रोक्तो जिनागमे ॥४॥ स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दमृर्चस्वभावकाः । सङ्घातमेदनिष्पन्नाः पुद्गला जिनदेशिताः ॥५॥' जिनाख्यातमित्यादरख्यापनार्थत्वान्न पुनरुक्त, उक्तं च-'अनुवादादरचीप्साभृशार्थविनियोगहेत्वसूयासु । ईषत्सम्भ्रमविस्मयगणनास्मरणेष्वपुनरुक्तम् ॥१॥' तथा नामादिभेदमिन्नं ' नाम ठवणा दविए खित्ते काले भवे अ भावे अ | पजवलोगो अ तहा अट्ठविहो लोगनिक्खेवो ॥१॥' अर्थः पूर्ववत् , क्षेत्रलोकमधिकृत्याह-त्रिविधमधोलोकादिभेदं ॥ ५३ ।। तस्मिन्नेव क्षेत्रलोके इदं विचिन्तयेत्
खिइवलयदीवसागरनरयविमाणभवणाइसंठाणं । वोमाइपइहाणं निययं लोगट्टिइविहाणं ॥ ५४॥ क्षितयो धर्माद्या ईषत्प्राग्भारावसाना अष्टौ भूमयः, वलयानि-नोदधिधनवातात्मकानि धर्मादिसप्तपृथिवीपरिक्षेपीण्येकविंशतिः, द्वीपाः सागराश्चासङ्ख्येयया:, निरया:-सीमन्तकाद्या, विमानानि-ज्योतिष्कादिसम्बन्धीनि, मवनानिअसुरादिदशनिकायसम्बन्धीनि, आदिशब्दादसख्येयव्यन्तरनगरपरिग्रहः, एतेषां संस्थानं विचिन्तयेत् , तथा व्योम-आकाशं, आदिशब्दाद्वाय्वादिपरिग्रहः, व्योमादौ प्रतिष्ठानमस्येति तत्तथा, लोकस्थितिविधान, विधानं प्रकारः, लोकस्य स्थितिमर्यादा IN॥८४॥
अनुवादादरवायातिभेदनिष्पन्नाः पुनला निनासंसारिमुक्ताख्यो जीवा बदराणां घटो यदापुरुष
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आवश्यक-IN नियुक्तेरव
ध्यानशतक गा० ५५-६०
चूर्णि।
तद्विधानं, 'नियतं ' नित्य शास्वतं चिन्तयेत् ॥ ५४ ॥
उवओगलक्खणमणाइनिहणमत्थंतरं सरीरामओ । जीवमरूविं कारिं भोयं च सयस्स कम्मस्स ॥ ५५॥ अर्थान्तरं पृथग्भूतं शरीरात-शरीरेभ्यः ॥ ५५ ॥
तस्स य सकम्मजणियं जम्माइजलं कसायपायालं । वसणसयसावयमणं मोहावत्तं महाभीमं ॥ ५६ ।। 'तस्य च' जीवस्य स्वकर्माजनितं, संसारसागरमिति वक्ष्यति, व्यसनशतश्वापदवन्तं, व्यसनानि-दुःखानि यूतादीनि वा ५६।
अण्णाणमारुएरियसंजोगविजोगवीइसंताणं । संसारसागरमणोरपारमसुहं विचिंतेना ।। ५७ ॥
तस्स य संतरणसहं सम्मदंसणसुबंधणमणग्धं । णाणमयकण्णधार चारित्तमयं महापोयं ॥ ५८॥ अज्ञानमारुतेनेरितः-प्रेरितः, संयोगवियोगवीचिसन्तानो यस्मिन् स तथा तं ॥ ५७ ॥ अनपं, ज्ञानमयः कर्णधार:निर्यामकविशेषो यस्मिन् स तथा नं, चारित्रात्मकं महापोतं विचिन्तयेत् ।। ५८॥
संवरकयनिच्छिदं तवपवणाइद्धजइणतरवेगं । वेरम्गमग्गपडियं विसोतियावीइनिक्खोभं ॥ ५९॥ संवरेण कृतं निश्छिद्रं, तपःपवनेनाऽऽविद्धा-प्रेरितः जवनतर:-शीघ्रतरो वेगो यस्य स तथा तं, वैराग्यमार्गे पतितं-गतं, विस्रोतसिका:-अपध्यानानि ॥ ५९॥
आरोढुं मुणिवणिया महग्घसीलंगरयणपडिपुन्नं । जह तं निवाणपुरं सिग्धमविग्घेण पावंति ॥ ६ ॥ मुनिवणिजः, पोत एव विशेष्यते-महार्षाणि शीलाङ्गानि-पृथिवीकायसमारम्मपरित्यागादीनि, तान्येव रत्नानि त
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आवश्यक
निर्युक्तेरव
चूर्णिः ।
॥ ८६ ॥
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परिपूर्णस्तं यथा तन्निर्वाणपुरं शीघ्रमविघ्नेन प्राप्नुवन्ति तथा विचिन्तयेत् ॥ ६० ॥
तत्थ य तिरयण विणिओगमइयमेगंतियं निराबाहं । साभावियं निरुवमं जह सोक्खं अक्खयमुर्वेति ॥ ६१ ॥ तत्र च निर्वाणपुरे त्रिरत्नानि - ज्ञानादीनि विनियोगश्चैषां क्रियाकरणं, ततः प्रभूतेः तदात्मकं तथैकान्तिकमेकान्तमावि, यथा सौख्यमक्षयमुपयान्ति प्राप्नुवन्ति, क्रिया पूर्ववत् ॥ ६१ ॥
किंबहुना ? सच्चं चिय जीवाइपयत्थवित्थरोवेयं । सवनयसमूहमयं झाएज्जा समयसम्भावं ॥ ६२ ॥ किंबहुना भाषितेन ? सर्वमेव जीवादिपदार्थविस्तरोपेतं सर्वनयसमूहात्मकं ध्यायेत्समय सद्भावं सिद्धान्तार्थं ॥ ६२ ॥ गतं ध्यातव्यं, अथ येऽस्य ध्यातारस्तानाह -
सङ्घप्पमायरहिया मुणओ खीणोवसंतमोहा य । झायारो नाणधणा धम्मज्झाणस्स निद्दिट्ठा ॥ ६३ ॥ क्षीणोपशान्तमोहाथ, चशब्दादन्ये वाऽप्रमादिनो ध्यातारो धर्म्मध्यानस्य ॥ ६३ ॥ लाघवार्थं शुक्कुध्यानस्याप्याहएएच्चि पुवाणं पुबधरा सुप्पसत्यसंघयणा । दोण्ह सजोगाजोगा सुक्काण पराण केवलिणो ॥ ६४ ॥
' एते एव ' ये धर्मध्यानस्य ध्यातार उक्ताः, पूर्वयोः शुक्लध्यानभेदयोः पृथक्त्ववितर्कसविचारं एकत्ववितर्कमविचारं इत्यनयोर्ध्यातारः, अयं पुनर्विशेषः - पूर्ववराश्चतुर्दश पूर्वविदः, तदुपयुक्ताः, इदं च पूर्वधरविशेषणमप्रमादवतामेव ज्ञेयं, न क्षीणमोहादीनां (निर्ग्रन्थानां), माषतुषमरुदेव्यादीनामपूर्ववराणामपि तदुपपत्तेः, 'सुप्रशस्तसंहननाः' आद्यसंहननयुक्ताः, इदमोघत एव विशेषणं, तथा द्वयोः शुक्लयोः परयोः सूक्ष्मक्रियानिवृत्तिव्युपरतक्रियाऽप्रतिपातिलक्षणयोर्यथासख्यं सयोगायोग
ध्यान
शतकं
गा०
६१-६४
॥ ८६ ॥
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ध्यान
आवश्यक- निर्युक्तेरव
शतक
चर्णिः । ॥८७॥
गा. ६५-६८
केवलिनो ध्यातारः ॥ ६४ ॥ अनुप्रेक्षाद्वारमाह
झाणोवरमेऽवि मुणी णिच्चमणिच्चाइभावणापरमो । होइ सुभावियचित्तो धम्मज्झाणेण जो पुचि ॥६५॥ धर्मध्यानोपरमेऽपि मुनिनित्यमनित्यादिचिन्तनापरमः स्यात् , अनित्यताऽशरणकत्वसंसारानुगताश्चतस्रोऽनुप्रेक्षा भावयितव्या अनित्यादिचिन्तनापरमः स्यात् , सुभावितचित्तो धर्मध्यानेन यः कश्चित्पूर्व ॥६५॥ लेश्याद्वारमाह
- होति कमविसुद्धाओ लेसाओ पीयपम्हसुक्काओ । धम्मज्झाणोवगयस्स तिवमंदाइमेयाओ ॥ ६६ ॥ ___'क्रमविशुद्धाः' परिपाटिविशुद्धाः, अयमर्थ:-पीतलेश्यायाः पद्मलेश्या विशुद्धा तस्या अपि शुक्ललेश्या, एताः परि|णामविशेषास्तीव्रमन्दादिमेदाः ।। ६६ ॥ लिङ्गमाह
आगमउवएसाणाणिसग्गओ जं जिणप्पणीआणं । भावाणं सद्दहणं धम्मज्शाणस्स तं लिंगं ॥ ६ ॥ आगमोपदेशाज्ञानिसर्गतः, तत्रागमः सूत्रं, तदनुसारेण कथनमुपदेशः, आज्ञा स्वर्थो, निसर्गः स्वभावः, तल्लिङ्गं, तत्त्वश्रद्धानेन लिङ्गयते धर्माध्यानी ॥६७।। किश्व
जिणसाहुगुणकित्तणपसंसणाविणयदाणसंपण्णो। सुअसीलसंजमरओ धम्मज्झाणी मुणेयवो ॥ ६८ ॥ ___ श्रुतं सामायिकादि, शीलं व्रतादिलक्षणं, संयमस्तु प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणः, एतेषु रतो धर्मध्यानी ज्ञातव्यः॥६८॥ फलं शुक्लफलाधिकारे वक्ष्यति, उक्तं धर्मध्यानं, शुक्लस्यापि मावनादीनि द्वादश द्वाराणि स्युः, तत्र मावनादेशकालासनविशेषेषु न विशेष इत्यालम्बनादीन्याह
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आवश्यक
निर्युक्तेश्व
चूर्णिः ।
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अह खंतिमद्दवज्जवमुत्तीओ जिणमय पहाणाओ । आलंबणाई जेहिं सुकज्झाणं समारुइइ ॥ ६९ ॥ अथेत्यासनविशेषानन्तर्ये क्षान्तिमार्दवार्जवमुक्तयः क्रोधादिपरित्यागरूपाः, जिनमतप्रधानाः कर्मक्षयहेतुतामधिकृत्य, ततश्चैता आलम्बनानि ।। ६९ ।। क्रमश्चाद्ययोर्द्वयोधर्मध्यान एवोक्तः, अत्र स्वयं विशेष:
तिहुयणविसयं कमसो संखिविड मणो अणुमि छउमत्थो । झायइ सुनिप्पकंपो झाणं अमणो जिणो होइ ॥ ७० ॥ संक्षिप्य मनः, अणौ - परमाणौ, विधायेति शेषः, ध्यायति सुनिष्प्रकम्पोऽतीव निश्चलः ध्यानं शुक्लं, ततोऽपि प्रयत्नविशेषान्मनोऽपनीयाऽमना जिनः स्यात् चरमयोर्द्वयोर्ध्यातेति शेषः, तत्राप्याद्यस्यान्तर्मुहूर्तेन शैलेशीमप्राप्तः, तस्यां च द्वितीयस्य ।। ७० ।। आह-कथं च्छद्मस्थत्रिभुवनविषयं मनः संक्षिप्याणौ धारयति १, केवली वा ततोऽप्यपनयति १, उच्यते
जह सबसरीरगयं मंतेण विसं निरुंभए डंके । तत्तो पुणोऽवणिज्जइ पहाणयरमंतजोगेणं ॥ ७१ ॥
निरुध्यते निश्चयेन धियते ढङ्के, ततो डङ्कात् पुनरपनीयते प्रधानतरमन्त्रेण योगैर्वा औषधैः ॥ ७१ ॥ उपनयमाह -
तह तिहुयणतणुविषयं मणोविसं जोगमंतबलजुत्तो । परमाणुमि निरुंभइ अवणेइ तओवि जिणवेज्जो ॥ ७२ ॥ त्रिभुवनतनुविषयं मन्त्रयोगबलयुक्तो जिनवचन ध्यानसामर्थ्यसंपन्नः, ततोऽपि परमाणोः जिनवैद्यः ॥ ७२ ॥
दृष्टान्तान्तरमाद
उस्सारिर्येषणभरो जह परिहाइ कमसो हुयासुव्व । थोविंधणावसेसो निवाइ तमोऽवणीओ य ॥ ७३ ॥ अपसारिवेन्धनभरः हुताशो, 'वा' विकल्पार्थः, स्तोकेन्धनावशेषः हुताश्शमात्रं स्यात्तथा निर्वाति, ततः स्तोकेन्धनाद
ध्यानशतकं
गा० ६९-७३
॥ ८८ ॥
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ध्यान
आवश्यकनिर्युक्तेरव
चूर्णिः ।
शतकं
मा. ७४-७८
॥८९॥
पनीतश्च ॥७३॥
___तह विसइंधणहीणो मणोहुयासो कमेण तणुयमि । विसइंधणे निरंभइ निवाइ तोऽवणीओ य ॥ ७४ ॥ क्रमेण 'तनुके ' कृशे विषयेन्धने 'अणौ निरुध्यते ॥ ७४ ॥ पुनदृष्टान्तोपनयावाह
तोयमिव नालियाए तत्तायसभायणोदरत्यं वा । परिहाइ कमेण जहा तह जोगिमणोजलं जाण ॥ ७५ ।। 'नालिकायाः' घटिकायाः, तथा तप्तं च तदायसमाजनं च, तदुदरस्थं वा, योगिमनोजलं जानीहि ।। ७५ ॥ केवली मनोयोगं निरुणदीत्युक्तं, शेषयोगनिरोधविधिमाह
एवं चिय वयजोगं निरंभइ कमेण कायजोगंपि । तो सेलेसोच थिरो सेलेसी केवली होइ ॥ ७६ ।। एवमेव एमिरेव विषादिदृष्टान्तर्वाग्योग निरुणद्धि ।। ७६ ।। उक्तः क्रमः ध्यातव्यमाह
उप्पायट्ठिइभंगाइपज्जयाणं जमेगवत्थुमि । नाणानयाणुसरणं पुत्वगयमुयाणुसारेणं ॥ ७७ ।। उत्पादस्थितिमङ्गादिपर्यायाणां यदेकस्मिन् द्रव्ये अण्वात्मादौ, नानानयैः-द्रव्यास्तिकादिभिरनुस्मरण-चिन्तनं, पूर्वगतश्रुतानुसारेण पूर्वविदर, मरुदेव्यादीनां त्वन्यथा ।। ७७ ॥ तत्
सवियारमत्यवंजणजोगंतरमओ तयं पढमसुक्कं । होइ पुहुचवितकं सवियारमरागभावस्स ।। ७८ ।। सविचार, विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसङ्कमः, अर्थों द्रव्यं, व्यञ्जनं शब्दो, योगो मनःप्रभृति, एतदन्तरत:-एतद्दे(ताबद्रे)देन सविचारं, तकमेतत् प्रथमं शुक्ल नाम्ना पृथक्ववितर्क सविचारं, पृथक्वेन-मेदेन विस्तीर्णभावेनान्ये वितर्क:-श्रुतं यस्मि
॥८९॥
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ध्यानशतकं गा० ७९-८३
ज
बावश्यक स्तथा, स्यादरागभावस्य ।। ७८॥ नियुक्तरव
पुण सुणिप्पकंपं निवायसरणप्पईवमिव चित्तं । उप्पायठिइभंगाइयाणमेगंमि पजाए ॥ ७९ ॥ चूर्णिः । निवातशरणप्रदीप इव चित्तं, उत्पादस्थितिमङ्गादीनामेकस्मिन् पर्याये ॥ ७९ ॥ ततः
__अवियारमस्थवंजणजोगंतरओ तयं बितियसुकं । पुत्वगयसुयालंबणमेगत्तवितक्कमवियारं ॥ ८॥ ॥९०॥
___ अविचार-असङ्कम, अर्थव्यञ्जनयोगान्तरतः, तद् द्वितीय शुक्लं स्यात् , 'एकत्ववितर्कमविचारं' एकत्वेनामेदेन रावितों व्यञ्जनरूपोऽर्थरूपो वा यस्य तत्तथा ॥ ८॥
निवाणगमणकाले केवलिणो दरनिरुद्धजोगस्स । सुहुमकिरियाऽनियहि तइयं त गुकायकिरियस्स ॥ ८१ ॥ मोक्षगमनप्रत्यासनसमये केवलिनो मनोवाग्योगद्वये निरुद्धे सति अर्द्धनिरोध( रुद्ध )काययोगस्य सूक्ष्मक्रियाऽनिवर्ति' सूक्ष्मक्रियं च तदनिवर्ति च, प्रबर्द्धमानबरपरिणामान निवर्ति अनिवर्ति, तृतीयं ध्यानं, 'तनुकायक्रियस्य' तन्वी उच्ङ्कासनिश्वासादिलक्षणा कायक्रिया यस्य स तथाविधस्तस्य ॥ ८१ ॥
तस्सेव य सेलेसीगयस्स सेलोव णिप्पकंपस्स । वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाइ ज्झाणं परमसुकं ॥ ८२ ॥ इत्थं चतुर्विधं ध्यानमुक्त्वा तत्प्रतिवद्धमेव वक्तव्यताशेषमाह
पढम जोगे जोगेसु वा मयं वितियमेव जोगमि । तइयं च कायजोगे सुकमजोगंमि य चउत्थं ॥ ८३॥ प्रथम पृथक्त्ववितर्क सविचारं, ' योगे' मनादौ योगेषु वा सर्वेषु मतमिष्टं, तच्चाममिकश्रुतपाठिनः, द्वितीय मेकत्व-
॥९॥
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ध्यान
आवश्यक- निर्युक्तेरवचूर्णिः । I
शतकं
गा० ८४-८६
॥९१॥
वितर्कमविचारं, एकयोग एवान्यतरस्मिन् सङ्कमाभावात् , तृतीयं च मूक्ष्मक्रियानिवर्ति काययोगे, न [योगान्तरे ], शुक्लमयोगिनि-शैलेशीकेवलिनि चतुर्थ व्युपरतक्रिया प्रतिपाति ॥ ८३॥ आह-शुक्लोपरिमभेदद्वयेऽमनस्कत्वात्केवलिनो ध्यानं च मनोविशेषः 'ध्यै चिन्ताया 'मिति पाठात् , तदेतत्कथं स्थान १, उच्यते
जह छ उमत्थस्स मणो झाणं भण्णइ सुनिच्चलो संतो। तह केवलिणो काओ सुनिचलो भन्नए झाणं ॥ ८४ ।। यथा छअस्थस्य मनो ध्यान मण्यते सुनिश्चलं सत् , तथा योगत्वाव्यभिचारात्केवलिना कायः ॥ ८४ ॥ आह-चतुर्थे निरुद्धत्वादसावपि न स्यात्तत्र का वार्ता ?, उच्यते
पुबप्पओगमओ चिय कम्मविणिज्जरणहेउतो यावि । सद्दत्थबहुत्ताओ तह जिणचंदागमाओ य ॥ ८५ ॥
चित्ताभावेवि सया सुहुमोवरयकिरियाइ भण्णंति । जीवोवओगसब्भावओ भवस्थस्स झाणाई ॥ ८६ ॥ चिचामावेऽपि सति सूक्ष्मोपरतक्रियो भण्यते, सूक्ष्मग्रहणात् सूक्ष्मक्रियाऽनिवर्तिनो ग्रहणं, उपरतग्रहणाद् व्युपरतक्रियाऽप्रतिपातिनः, पूर्वप्रयोगादिति हेतुः, कुलालचक्रभ्रमणवत , यथा तच्चकं भ्रमणनिमित्तदण्डादिक्रियाऽभावेऽपि भ्रमति तथाऽस्यापि मनःप्रभृतियोगोपरमेऽपि जीवोपयोगसद्भावतो भावमनसो भावाद्भवस्थस्य ध्याने, एवं शेषहेतवोऽपि योजनीयाः, विशेषस्तूच्यते-- कर्मविनिर्जरणहेतुतश्चापि' क्षपकश्रेणिवत् क्षपकश्रेण्यामिवास्य भवोपग्राहिकर्मनिर्जरेत्यर्थः, 'तथा शब्दार्थबहुत्वात्' यथा एकस्यैव हरिशब्दस्य शक्रशाखामृगादयोऽनेकार्थाः, एवं ध्यानशब्दस्यापि, 'ध्ये चिन्तायां' 'ध्यै काययोगनिरोधे', 'ध्यै अयोगित्वे' इत्यादि, तथा जिनचन्द्रागमाच्चैतदेवं ॥ ८५-८६ ॥ उक्तं ध्यातव्यं, ध्यातारः,
भाववि सया सुहुमोवरयकिरियाइ
म
हणात् सूक्ष्मक्रियाऽनिवर्तिनी महानदण्डादिक्रियाऽभावेऽपि भ्रमात
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आवश्यकनियुक्तेरव
चूर्णिः ।
ध्यानशतकं
गा.
८७-९२
प्रागुक्ताः, अथानुप्रेक्षा आह
सुक्कज्झाणसुभावियचित्तो चिंतेइ झाणविरमेऽवि । णिययमणुप्पेहाओ चत्वारि चरित्तसंपन्नो ॥ ८७ । नियतमनुप्रेक्षाश्चतस्रः, चारित्रसम्पन्नस्तत्परिणामरहितस्य तदभावात् ।। ८७।। ताश्चैताः
___ आसवदारावाए तह संसारासुहाणुभावं च । भवसंताणमणतं वत्थूर्ण विपरिणामं च ॥ ८८॥
आश्रवद्वाराणि-मिथ्यात्वादीनि, तदपायान्-दुःखलक्षणान् , तथा संसाराशुभानुभावं, भवसन्तानमनन्तं भाविनं नारकाद्यपेक्षया, वस्तूनां विपरिणामंच, एताश्चतस्रोऽप्यपायाशुभानन्तविपरिणामानुप्रेक्षा आधभेदद्वयसङ्गता एव ज्ञेयाः ॥ ८८॥ अथ लेश्या आह
___ मुक्काए लेसाए दो ततियं परमसुक्कलेस्साए। थिरयाजियसेलेसि लेसाईयं परमसुकं ।। ८९॥ सामान्येन शुक्लायां लेश्यायां 'द्वे' आये, तृतीयं परमशुक्ललेश्यायां, लेश्यातीतं परमशुक्र्ल चतुर्थ ।। ८९ । लिङ्गद्वारमाह
____ अवहासंमोहविवेगविउसग्गा तस्स होंति लिंगाई। लिंगिजह जेहिं मुणी मुक्कज्झाणोवगयचित्तो ॥ ९ ॥ अवधासम्मोहविवेकव्युत्सर्गाः ' तस्य ' शुक्लध्यानस्य लिङ्गानि ॥९० ॥ भावार्थमाह- चालिज्जइ बीमेह व धीरो न परीसहोवसग्गेहिं । सुहुमेसु न संमुज्झइ भावेसु न देवमाया ॥ ९१ ॥ चाल्यते ध्यानाम परीषहोपसगैर्विमेति वा धीरो न तेभ्य इत्यवधलिङ्गं ॥ ९१ ॥
देहविवित्तं पेच्छह अप्पाणं तह य सव्वसंजोगे । देहोवहिवोसग्गं निस्संगो सबहा कुणा ॥ ९२ ॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरव
चूर्णि
॥ ९३ ॥
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देहविविक्तं पश्यत्यात्मानं तथा सर्वसंयोगान् इति विवेकलिङ्ग, देहोपधिभ्युत्सर्गं निःसङ्गः सर्वथा करोतीति व्युत्सर्मलिङ्गं ॥ ९२ ॥ पूर्वं धर्मफलमाह -
होंति सुहासव संवरविणिज्जरामरसुहाई विउलाई । झाणवरस्स फलाई सुहाणुबंधीणि धम्मस्स ॥ ९३ ॥
शुभाश्रवः - पुण्याश्रवः, संवरो - अशुभ कर्मागमनिरोधः, विनिर्जरा-कर्मक्षयः, अमरसुखानि च, 'शुभानुबन्धीनि सुकुल प्रत्यायातिपुनर्वोधिलाभ भोगप्रव्रज्या [केवलशैलेस्य ] पवर्गानुबन्धीनि धर्मध्यानस्य ॥ ९३ ॥ शुक्लमधिकृत्याहते विसेसेण सुभासबाद ओऽणुतरामरसुहं च । दोण्डं सुक्काण फलं परिनिवाणं परिल्लाणं ॥ ९४ ॥ ते च विशेषेण शुभाश्रवादयोऽनुत्तरामरसुखं च द्वयोः शुक्लयोः फलमाद्ययोः, परिनिर्वाणं 'परिल्लाणं 'ति चरमयोर्द्वयोः ।। ९४ ।। अथवा सामान्येनैवाह
आसवदारा संसारहेयवो जं ण धम्मसुकेसु । संसारकारणादं तयो धुवं धम्मसुकाई ॥ ९५ ॥
संसारप्रतिपक्षतया च मोक्षहेतुर्ष्यानमित्याह
संवरविणिज्जराओ मोक्खस्स पहो तवो पहो तासि । झाणं च पहाणंगं तवत्स तो मोक्खहेऊयं ॥ ९६ ॥ तपः पन्थाः ' तयोः ' संवरनिर्जरयोः, मोक्षहेतुस्तद्ध्यानं ॥ ९६ ॥ अनुमेवार्थ दृष्टान्तैराह
अंबरलोह महीणं कमसो जह मलकलंकपंकाणं । सोज्झावणयण सोसे सार्हेति जलाणलाइच्चा ॥ ९७ ॥ मलकलङ्कपङ्कानां यथासङ्ख्यं, शोध्यपनयनशोपान् यथासङ्ख्यमेव साधयन्ति जलानलादित्याः ॥ ९७ ॥
ध्यानशतकं
गा०
९३-९७
॥ ९३ ॥
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ध्यान
बावश्यकनियुक्तरवचूर्णिः ।
शतकं
पानां ध्यानतो यायिनः ॥ ९९णासहविहीहि । विधिभिरभो
गा ९८-१०३
-
तह सोज्झाइसमत्था जीवंबरलोहमेइणिगयाणं । झाणजलाणलसूरा कम्ममलकलंकपंकाणं ॥ ९८ ॥ शोध्यादिसमर्थाः ध्यानमेव जलानलसूर्याः, कमैव मलकलङ्कपङ्कास्तेषां ।। ९८ ॥ किश्च____ तापो सोसो मेओ जोगाणं झाणओ जहा निययं । तह तावसोसभेया कम्मस्सवि झाइणो नियमा ।। ९९ ॥
योगानां ध्यानतो यथा नियतमवश्यं, तापो दुःखं, तत एव शोषो दौर्बल्यं, तत एव भेदो विदारणं वागादीनां, तथा तापादयः कर्मणोऽपि स्युायिनः ॥ ९९ ॥ किश्च
जह रोगासयसमणं विसोसणविरेयणोसहविहीहिं । तह कम्मामयसमणं झाणाणसणाइजोगेहि ॥ १०॥ रोगाशयशमनं रोगनिदानचिकित्सा विशोषणविरेचनौषधविधिभिरभोजनादिप्रकारैः, तथा कर्मामयशमनं ध्यानानशनादिभिर्योगैः ॥१०॥ कि
जह चिरसंचियमिंधणमनलो पवणसहिओ दुयं दहह । तह कम्मेंधणममियं खणेण झाणाणलो डहइ ॥ १०१ ॥ कर्मेन्धनममितं ।। १०१॥
जह वा घणसंघाया खणेण पवणाहया विलिज्जति । झाणपवणावहूया तह कम्मघणा विलिज्जंति ॥१०२॥ ध्यानपवनावधूताः॥१०२ ॥ इदमन्यदिहलोकफलं
न कसायसमुत्थेहि य वाहिज्जह माणसेहिं दुक्खेहिं । ईसाविसायसोगाइएहि झाणोवगयचित्तो ॥ १०३ ॥ न बाध्यते न पीब्यते, प्रतिपक्षाभ्युदयोपलम्भजनितो मत्सरः ईर्ष्या, विषाद:-वैक्लव्यं, आदेहर्षादिग्रहः ॥ १०३ ॥
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आवश्यकनियुक्तरव-| चूर्णिः ।
ध्यानशतकं गा.
सीयायवाइएहि य सारीरेहिं सुबहुप्पगारेहिं । झाणसुनिच्चलचित्तो न वहिज्जा निजरापेही ।। १०४ ॥ न बाध्यते, ध्यानसुखात्, अथवा न शक्यते चालयितुं निर्जरापेक्षी ॥ १०४ । उक्तं फलं, उपसंहरबाह
इय सवगुणाधाणं दिट्ठादिट्ठसुहसाहणं झाणं । सुपसत्थं सद्धेयं नेयं झेयं च निचंपि ॥ १०५॥ एवं सर्वगुणाधानं ध्येयं, नित्यमपि ॥ १०५ ॥ आह-एवं शेष क्रियालोपः प्राप्नोति, न, तदासेवनस्यापि तच्चतो ध्यानत्वात् , नास्ति काचिदसौ क्रिया या आगमानुसारेण क्रियमाणा साधूनां ध्यानं न स्यात् अपि तु ध्यानमेव, पंचु०॥ समाप्ता ध्यानशतकावणिः ॥
___ पडिक्कमामि पंचहिं समिईहि-ईरियासमिइए भासासमिइए एसणासमिइए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिइए उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणपारिट्ठावणियासमिइए (सूत्रम् )
पारिट्ठावणियविहिं वोच्छामि धीरपुरिसपण्णतं । जंणाऊण सुविहिया पवयणसारं उबलहंति ॥ १॥ अत्र पारिष्ठापनि शानियुक्तिः धीरपुरुषप्रज्ञप्त, अर्थसूत्राभ्यां तीर्थकद्गगधरप्ररूपित, प्रवचनसारं पश्यन्ति (जानन्ति) ॥१॥
एगेंदियनोएगेदियपारिट्ठावणिया समासओ दुविहा । एएसिं तु पयाणं पत्तेय परूवणं वोच्छं ॥२॥ सापारिष्ठापनिका ओषत एकेन्द्रियनोएकेन्द्रियपरिष्ठाप्यवस्तुभेदेन द्विधा स्यात् , आह च-[एकेन्द्रिया:-पृथिव्यादयः] १ इयं गाथा क्यापि न प्राप्ता अतो न दर्शिता ।
१०५ पारिष्ठापनिकानियुक्तिः गा.१-२
G॥९५॥
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आवश्यकनियुक्तरव.
चूर्णिः ।।
पारिष्ठापनिका नियुक्तिः गा०३-
॥९६॥
नोएकेन्द्रियास्त्रसादयः, अनयोरेकेन्द्रियनोएकेन्द्रियलक्षणयोः प्रत्येकं 'प्ररूपणां ' स्वरूपकथनां वक्ष्ये ॥२॥
पुढवी आउक्काए तेऊवाऊवणस्सई चेव । एगेंदिय पंचविहा तज्जाय तहा य अतज्जाय ॥ ३ ॥ एतेषां चैकेन्द्रियाणां पारिस्थापनिकी द्विधा-तजातपारिस्थापनिकी अतजातपारिस्थापनिकी च, अनयोर्भावार्थमग्रे | वक्ष्यति ॥३॥ आह
दुविहं च होइ गहणं आयसमुत्थं च परसमुत्थं च । एक्केकंपि य दुविहं आभोगे तह अणाभोगे ॥४॥ ग्रहणेऽतिरिक्तस्य परिस्थापना स्यात्तत्र पृथिव्यादीनां कथं ग्रहणं १, उच्यते-आत्मसमुत्थं स्वयमेव गृहतः, परसमुत्थं परस्माद् गृहतः, पुनरेकै द्विविध-आभोगे सति तथानाभोगे॥४॥ भावार्थोऽयं-*आय.॥१॥ आय:॥२॥ अशादिदष्टे साधुरहिना दष्टो विषं भक्षितं, विषस्फोटिका वा उत्थिता ॥२॥ मग्गिः ॥३॥ अचित्तः पृथिवीकायः, प्रथम परस्मान्मार्ग्यते, अलब्धे स्वयमानीयतेप्राप्तौ मिश्रो हलखनन(नोत्थ )कड्यादिलग्नः, तस्याप्यप्राप्ती सचित्तोऽप्यानीयते ॥३॥ आह-हल०॥४॥ स्वयमानीयतेऽटवीतः, पथि वल्मीकदग्धक्षेत्रेभ्यः॥४॥ मग्गिः ॥५॥ नवरमाशुकारिणि कायें नायं नियमः, तत्र यः प्राप्तः स आनीयते, एवमाभोगतः कार्ये लवणमपि लाति ॥५॥ आय० ॥६॥ अनाभोगतो ज्ञात्वा वा अजीवं गृह्णीयात , मिश्रादिलवणमृत्तिकादि, खण्डेखण्डीकृते लवणे जिघृक्षते (क्षति) अखण्ड
* एताः सप्तत्रिंशगाथाः कापि न लब्धा अतोऽत्र न लिखिताः, किन्तु यथा अवचूर्णिकारेण तद्वयाख्या कृता तथैव दर्शिता, एवमग्रेऽपि यत्र मूलगाथानुपलब्धिस्तत्र तथैवावगन्तव्यम् ।
॥९६॥
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आवश्यक निर्युक्तेरवचूर्णि।
पारिष्ठापनिकानियुक्तिः
॥ ९७॥
आया ॥१०॥ विषकुम्मा सामग्गि० ॥ ११ ॥ अय भावातीयते ॥ १२ ॥ मग्गिः
मादिषु यतना इन्दुलोदकादि, १४ ॥ अनामोगतवानीर्य, गृहीत, इवे टाकादिष्वपि नामक
लवणं गृहीतं स्यात् , तत्तथै(त्रै )व त्यजेत् इत्यात्मसमुत्थं द्विविधं स्यात् ॥ ६॥ एए. ॥७॥ आमोगानाभोगाभ्यां द्विविधं ॥ ७॥ इत्थं०॥८॥ कार्ये सिद्धे यद्यदीयमुदत्तं तत्तस्यैव दातव्यं, तस्यानिच्छायां पृच्छेत्-कुत एतदानीतं , शिष्टे कथिते तत्र त्यजेत् , अशिष्टे वर्णादिभित्विा आकरे परिस्थापयेत् ॥ ८॥ वाघा ॥ ९॥ व्याघाते भयविकालादिना तत्र गन्तुमशक्ती मधुरे शुष्के कपरदले कृत्वा परिस्थाप्यते, तस्याभावे वटपिप्पलादिपत्रे कृत्वा आवाधावर्जिते स्थाने ॥९॥ आया० ॥१०॥ विषकुम्मो रोगविशेषः स हन्तव्यः, विषस्फोटिका वा सेक्तव्या, विषं वा भक्षितं, मूर्छया वा पतितः, ग्लानो वा, एवमादिषु यतना इयं ॥ १०॥ मग्गि० ॥११॥ अयं भावार्थः ।। ११ ।। अहु०॥ १२ ॥ अधुनोद्वत्तं तत्कालनिष्पन्न 'अट्टिकराइ 'त्ति तन्दुलोदकादि, क्षुद्रहदपुष्करादिभ्यः किश्चिन्मिश्रमानीयते ॥ १२ ॥ मग्गि. ॥ १३ ॥ आतुरे कार्य सचित्तमपि ॥ १३ ॥ आय० ॥ १४ ॥ अनाभोगतः कोकणदेशे पानीयमम्बिलं चैकत्र वेदिकायां स्यात् , अविरतिका मार्गिता सती भणति इतो गृहाण, साधूना चाम्लधिया पानीयं, गृहीतं, ज्ञाते ॥ १४ ॥ इत्थ० ॥१५॥ नादेयं नद्या, कोपं कुपे, ताडागं तडागे क्षिपेत् ।। १५॥ वड०॥ १६ ॥ नदीजलं नद्या, एवं तटाकादिष्वपि स्वस्वस्थाने शनैस्त्यजेत् यथा उजररिल्लका न स्युः, पत्रादिषु पत्रामावे भाजनेन यतनया त्यजति ॥ १६ ॥ छिन्न ॥ १७॥ च्छिन्नतटे अवटे कूपे पात्रं दवरकेण शिक्यके वध्वा मध्ये मुश्चेत् , ईषदप्राप्ते जले मूलदवरकमुस्क्षिप्य जलं विगिश्चेत् ॥ १७ ॥1 वाघा०॥१८॥ व्याघाते मयादिना कूपगमनासामध्यें [स]पतग्रहं तज्जलं क्षीरदुमाधो व्युत्सृजति, पात्राभावे आईपृथिवीकार्य मार्गित्वा तत्र परिस्थापयति, बसति शुष्कमप्यायित्वाष्णोदकेन क्षीरनुमाघस्तजलं निसृजेत् ॥१८॥ चिक्ख.
माय नद्या, कोपं कूपे, ताडाग तह, पत्रादिषु पत्रामावे भाजनेनजले मूलदवरकमुक्षिप्य जल पात्राभावे आई
॥ ९७॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरव
चूर्णिः ।
1186 11
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॥ १९ ॥ निर्व्याघाते चिक्खल्ले खड्डां कृत्वा पात्रनालकेन पात्र कण्ठकेन निसृज्य जलं च्छायां कुर्यात् कण्टकादिभिश्र रक्षेत् ॥ १९ ॥ मीसि० ॥ २० ॥ प्रत्यनीकया मिश्रोऽकायो दत्तः च्छर्धते, साधोरना भोगात् पूर्वगृहीते मिश्र जले स्तोके परिण भवति परिभोगः || २० || नवि० ॥ नापि परिणमेत यावता कालेन स्थण्डिलं गम्यते, परिणतोऽपि वा तत्र गतानां न भोगाई, किन्तु प्रति (परिष्ठाप्यः प्रवचनविधिना यतिना, तत्परिभोगेऽनवस्थादोषप्रसङ्गात् || २१ || आय० ॥ २२ ॥ शूलादिकृते, सर्पङङ्कदादार्थ, स्फोटिकावातग्रन्थि अन्त्रवृद्धिउदरशूलादितापनार्थं वा, वसतौ वाऽहिः प्रविष्टः इत्यादिकार्ये - तेजस्कायस्य ग्रहणं, स एव विधिः, पूर्वमचित्तादि ग्रहणरूपः, अयं विशेषः ।। २२ ।। अचि० ॥ २३ ॥ कृते कार्ये यत आनीतस्तत्रैव क्षिप्यते, स्यान्न दद्यात्ततः ॥ सक० ॥ २४ ॥ स्वकाष्ठोद्भवेऽग्नौ तदभावेऽन्यस्मिन्वा, तदभावे तज्जातकेन च्छारेण च्छाद्यते, पश्चादसदृशेनापि, दीपके नु विधिः ( एवं ) ॥ २४ ॥ उग्गा० ।। २५ ।। उद्गात्यते तैलं वर्त्तिं निष्पीड्य यतनया, मल्लकसम्पुटे निर्जनं यथायुष्कं परिणमेस्पश्चात् ॥ २५ ॥ कज्जं० ॥ २६ ॥ ग्लानादिकार्ये मल्लकसम्पुट एव धियते, अनाभोगेन श्लेष्म मल्ल लोचच्छारादिषु स्वयमग्नेर्ग्रहणं, परं आभोगेन रक्षा मिश्रमग्नि दद्यात्, अनाभोगेन पूपिकादिलग्नमग्नि दद्यात्, विधिना विवेकं कुर्यात् ॥ २६ ॥ आय० ॥ २७ ॥ ' बत्थिदइआइ 'ति । वस्तिर्भस्रिका तया दृतिना वा कार्यः स्यात् ॥ २७॥ अचि० ॥ २८ ॥ अचित्तो मिश्रच वायुः कालाद्विज्ञेयः, एकैकोऽपि कालखिधा || को० ||२९|| उत्कृष्टादिः उत्कृष्टमध्यजघन्यभेदः, तत्रोत्कुष्टे स्निग्धे शीतकाले बस्त्यादौ धमात्वा पूरिते प्रथमपौरुषी यावदचित्तः, द्वितीयस्यां मिश्रः, तृतीयस्यां सचितः ॥ २९ ॥ मज्झि० ॥ ३० ॥ मध्यमे शीते चतुर्थ्यां सचित्तः, मन्दे पञ्चम्यां सचितः ॥ ३० ॥
पारिष्ठा
पनिका - निर्युक्तिः
॥ ९८ ॥
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आवश्यक-VI लुक्खे०॥३१ ।। रूक्षे काले उष्णे मन्दे मध्यमे उत्कृष्ट क्रमेण त्रीणि चत्वारि पश्च चैव दिनानि वाच्यानि । एवं वस्तेईतेर्वा पारितानियुक्तेरव- पूर्व ध्मातस्य एष एव कालविभागः ॥३१॥ ताहे ॥ ३२ ॥ तदैव मात्वा यो जले क्षिप्यते उत्तरणाय, स प्रथमे हस्त- पनिकाचर्णिः |
शतेऽचित्तो यावत्तृतीये सचित्तः । पूर्वमचित्तो मार्यते, पश्चान्मियः पश्चात्सचित्तोऽपि, अनाभोगेन एषोऽचित्त इति मिश्र- | नियुक्ति
सचित्तौ गृहीतो, परोऽप्येवमेव जाननजानन्या दद्यात् ॥ ३३ ॥ इत्थ० ॥ ३४ ॥ बाते सति सचित्ते तस्यैव, अनिच्छतोऽस्य ॥९९॥
मा० गा. अपवरके सकपाटे प्रविश्य शनैमुच्यते, तदमावे शालायां, तदभावे वनगहने मधुरे, पश्चात् सङ्घाटिका-बृहत्प्रमाणा प्रच्छा-VI २०५ दनपटी, तया प्रावृत्य यतनया मुच्यते, गृहसङ्घाटिकान्तरे वा, मान्यविराधनेति सचित्तादिवातस्य सर्वस्याप्येष परिष्ठापनविधिः ॥ ३३ ॥ आय० ॥ ३४ ॥ आभोगतो वनस्पतिकाये मूलादीनां ग्रहणं ग्लानादिकार्ये स्यात् , अनाभोगतो भक्ते लोट्टा पतितः, पिट्टकं कुक्कुसा वा ॥ ३५ ॥ पुवु० ॥ ३६ ॥ अत्र स एव पौरुषीविभागः, दुष्कुट्टिते चिरमपि, परो राद्धचपलकमिश्राणि पीलुकानि कुरच्छविकायां (क्षिप्रचट्टिकायां) वान्तः क्षिप्त्वा दद्यात् , अनाभोगेन वा कथश्चिदचालितकणित्कादि गृहीतं स्यात् ।। ३६ ॥ एत्थ० ॥ ३७॥ प्रथमं परपात्रे पश्चात्स्वपात्रे त्याज्यं, संस्तारकादौ पनके जाते सति । आर्द्रमाक्षेत्रे शुष्कं च शुष्कस्थाने 'विवित्ता' विगिश्चेत्, शेषाण्याकरामावे मधुरमुवि, कपरे पत्रे वा ॥ ३७ ॥ तज्जातातजातपरिस्थापनिकीलक्षणंतज्जायपरिढवणा आगारमाईसु होइ बोद्धवा। अतजायपरिट्ठवणा कप्परमाईसु बोद्धवा ॥२०५(भा०)
तजातीयपरिस्थापनिकी आकरादिषु परिष्ठापनं कुर्वतः स्यात् , आकराः पृथिव्याकराद्या दर्शिता एव । २०५ ॥ गता
॥
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पारिष्ठासापनिका
नियुक्ति गा०५-७
आवश्यक-INएकेन्द्रियपारिस्थापनिकी, अथ नोएकेन्द्रियपारिस्थापनिकीमाहनिर्युक्तेरव
नोएगिदिएहिं जा सा सा दुविहा होह आणुपुबीए । तसपाणेहिं सुविहिया ! नायवा नोतसेहिं च ॥५॥ चूर्णिः ।।
सुविहित इति शिष्यामन्त्रणं, नोत्रसा:-आहारादयः, तैः करणभतैः॥५॥
तसपाणेहिं जा सा सा दुविहा होइ आणुपुबीए । विगलिंदियतसेहिं जाणे पंचिंविएहिं च ॥६॥ ॥१०॥
'जाण'चि विजानीहि ॥ ६॥
विगलिदिएहिं जा सा सा तिविहा होइ आणुपुवीए । वियतियचउरो यावि य तज्जाया तहा अतज्जाया ॥ ७ ॥ 'बियतियचउरो यावि य 'त्ति द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियांश्चाधिकृत्य, सा च प्रत्येकं द्विमेदा तजाते तुल्यजातीये या क्रियते सा तजाता, अन्या त्वतजाता ॥ ७॥ भावार्थोऽयं-बेइं०॥१॥ नलौकसो गण्डादिकार्ये गृहीताः पश्चात्तत्रैव त्यज्यन्ते, आभोगानाभोगाभ्यां संसक्ताः सक्तवो गृहीतास्तेषु भजना, यदि शोधिताः शुद्धयन्ति तदा कायें भोक्तव्या नो चेत्त्यक्तव्याः शीतलस्थाने ॥१॥ संस० ॥२॥ यत्र देशे सक्तवः संसक्ता एव लभ्यन्ते तत्र न गम्यते अशिवादौ गमने ते न गृह्यन्ते, करो मार्यते, यदि स न स्यात्ततस्तदिनजाः सक्तवो गृह्यन्ते, तदभावे द्वित्रिदिनजाः प्रतिलेख्य ग्राह्याः। पानके संसक्ते सपतद्ग्रहं तत् विजने मुच्यते ॥२॥ पाया०॥३॥ द्वितीयपात्रस्याऽभावे प्रातिहारिका अंबिलिं मार्गयेत ,
अभावे शुष्कार्मबिलिमाईयित्वा क्षिप्यते, अमावे प्रतिश्रये प्रातिहारिकमाजने, त्रिकालं प्रतिलेखना कार्या, परिणतं २ त्यज्यते, MU सर्वेषु मृतेषु भाजनं प्रत्यर्यते, भाजनामावेष्टव्यां छायायां चिखिल्ले गर्तायां निश्छिद्रं लिम्पित्वा पत्रनालेन यतनया प्रक्षिप्यते,
॥१०॥
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पारिष्ठा
आवश्यक- नियुक्तरवचूर्णिः ।
कण्टकैः पत्रैश्च पिधीयते ॥ ३ ॥ पायं०॥४॥ तस्मिश्च पात्रे अशीतपानकादि लाति, अवश्रावणादिना तद् घृष्यते एकं द्वे | त्रीणि वा दिनानि, संसक्तपानकमसंसक्तं च नैकत्र धरति, गन्धेनापि संमज्यते, संसक्तं गृहीत्वा विराधनाभयान हिण्ड्यते न || पनिकासमुद्दिश्यते, ये च प्राणा दृष्टास्ते परिणतास्ततत्रिके प्रेक्षिते-साधुत्रयवीक्षिते शुद्ध भोगोऽनुज्ञातः ॥ ४ ॥ तका० ॥ ५॥ नियुक्तिः तक्रादीनामपि नवनीतेऽप्येवं, तन्मध्ये 'उंडि'त्ति एका पिण्डी क्षिप्यते न समुद्दिश्यते, यदि तत्काया द्वीन्द्रियाः प्रेक्षन्ते तदा गा. त्याज्यन्ते, त्रीन्द्रियाणामपि विधिरेवमेव ज्ञेयः ॥ ५॥ कीडि० ।६॥ कीटिकादिसंसक्तं अनामोगगृहीतं विरलीकृत्य मुच्यते येन कोटिकादयः प्रयान्ति, उत्पूरो वा स्यात्ततस्तथैव त्यज्यते । संसारको मत्कुणैरुपदेहिकादिभिर्वा संसक्तस्त्यज्यते, त्रीन्द्रिया वान्यत्र यतनया संक्राम्यन्ते । लोचे षट्पदिकाः सप्तदिनान् श्राम्यन्ते, केशेभ्यः कृष्ट्वा वस्ने स्थाप्यन्ते, कारणं-तत् थालनादिकमासाद्यान्यत्रावाधे सञ्चार्यन्ते ॥ ६॥ चउ० ॥ ७॥ चक्षुषि दुष्यति अश्वमक्षिका 'बगाइ' अक्षरकर्षणाय गृहीता, कृते कार्ये त्यज्यते, स्नेहे पतिता मक्षिका रक्षया गुण्डथते, परहस्ते भक्ते पानके वा पतितायां मक्षिकायां तदनेषणीयं, संयतहस्ते तक्रादौ पतिता उद्वत्य त्यज्यते, कोत्थलकारिका-भ्रमरी वस्त्रे पात्रे वा गृहं कुर्यात्तत्यज्यते, तत्खण्डं "0" परिष्ठाप्यते, तद्गृहमेव चान्यत्र सङ्काम्यते ॥ ७॥
पंचिदिएहिं जा सा सा दुविहा होह आणुपुव्वीर । मणुएहिं च सुविहिया ! नायवा नोयमणुएहि ॥ ८ ॥ नोमनुजैश्च तिर्यग्भिः ॥ ८॥ मणुएहिं खलु जा सा सा दुविहा होइ आणुपुन्वीए । संजयमणुएहि तह नायबाऽजएहि च ॥९॥
॥ १०१॥
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पारिष्ठापनिकानियुक्तिः
गा० १०-१२
बावश्यक
संजयमणुएहिं जा सा सा दुविहा होइ आणुपुव्वीए । सचित्तेहिं सुविहिया अचित्तेहिं च नायव्वा ॥१०॥ नियुक्तरव-या सचित्तैर्जीवद्भिरचित्तैश्च मृतैः॥ ९-१० ॥ यथा व सचित्तसंयवानां ग्रहणपरिस्थापनिकासम्भवस्तथाहचूर्णिः ।
अणभोग कारणेण व नपुसमाईस होह सच्चित्ता । वोसिरणं तु नपुंसे सेसे काले पडिक्खिज्जा ॥ ११ ॥
अनाभोगेन कारणेन वाशिवादिलक्षणेन नपुंसकादिषु दीक्षितेषु सत्सु स्यात् सचित्तमनुष्यसंयतपरिस्थापनिका, आदि-11 ॥१२॥
शब्दाजहादिग्रहणं, तत्र योऽनाभोगेन दीक्षितस्तस्मिन्नपुंसके व्युत्सृजन कर्तव्यं, शेषकारणदीक्षितो जड्डादिर्वा, तत्र कालं यावता कारणसमाप्तिन स्यात्तावत्कालं प्रतीक्षेत, न तावद् व्युत्सृजेत् ॥ ११ ॥ तत्रानेकमेदं कारणमाह
___असिवे ओमोयरिए रायदुढे भए व आगाढे । गेलन्ने उत्तिमद्वे नाणे तवदंसणचरित्ते ॥ १२॥ ... एतेष्वशिवादिषु उपकुरुते यो नपुंसकादिरसौ दीक्ष्यते, उक्तं च-रायट्ठभएसु ताणढ निवस्स वाऽभिगमणट्ठा । वेजो वा सयं तस्स व तप्पिस्सह गिलाणस्स ॥१॥' राजद्विष्टे राज्ञि द्वेषिणि, भये च प्रत्यनीकादेखाणार्थ, नृपस्य वाभिगमनार्थमावर्जनार्थ, वैद्यो वा स क्लीवः स्वयं, तस्य वशयातस्य वातादिभमशरीरस्य ग्लानस्य वा रोगातस्य ' तप्पिस्सह 'त्ति उपकरिष्यति ॥१॥'गुरुणोच अप्पणो वा जाणाई गिण्हमाणि तपिहिई । अचरणदेसा णिन्ते तप्पे ओमासिवेहिं वा ॥२॥' गुरोरात्मनो वा ज्ञानादि गृढतो वा, अचरणदेशान्निति साधुवर्गे उपकरिष्यति, अवमाशिवेषु वा ॥२॥ 'एएहिं कारणेहि आगाढेहिं तु जो उ पहावे । पंडाई सोलसयं कए उ कजे विगिचणया ॥३॥' दुवि०॥४॥॥३-४ ॥ अजा.॥५॥ जानतोऽजानतश्च प्रज्ञापना द्वयोरपि क्रियते यथा तव प्रव्रज्या न युज्यते, अतो गृहस्थ एव साधूनामुपकुरु यदीच्छसि, ततो
॥१०२॥
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आवश्यक- नियुक्तरव
चर्णिः ।१०३ ॥
पारिष्ठापनिकानियुक्ति गा०१३
न दीक्षा, अनिच्छतः कार्ये च दीक्षमाणस्यायं विधिः
. कडिपट्टए य छिहली कत्तरिया भंडु लोय पाढे य । घम्मकहसन्निराउल ववहारविकिंचणं कुज्जा ॥ १३ ॥
कडिप, चास्य कुर्यात शिखां च, अनिच्छतः कर्तरिकया केशापनयनं, भंड 'त्ति मुण्डनं वा लोचं वा, पाठं च विपरीतं धर्मकथाः संज्ञिनः कथयेत् राजकुले व्यवहारं, इत्थं विगिश्वनं-त्यागं कुर्यात् । भावार्थोऽयं-'कडिपट्टमंडछिहली कीरति णवि धम्म अम्ह चेवासी । कत्तरि खुरेगऽणिच्छे, हाणी एकेक जा लोउ ॥१॥' कहिपट्टमनिच्छति भणन्त्यन्ये अस्माकमपि प्रथम कृत आसीत् ॥१॥ सिह ॥२॥ कर्तर्या भद्रकरणं, अनिच्छति लोचोऽपि क्रियते कार्ये ॥२॥ पाठो॥३॥ पाठो द्विविधशिक्षा, तत्र ग्रहणशिक्षायां ग्राह्यते परमतानि, आसेवनाशिक्षायां चरणकरणं तथा न ग्राह्यते ॥३॥ किन्तु-विरगोयरे थेरसंजुत्तो पत्तिं दूरि तरुणाणं । गाहेइ ममंपि तत्वो थेर अजत्तेणं गाहिति ।। ४॥' विचारगोचरयोः स्थविरसंयुतो याति, रात्रौ दरे तरुणानां क्रियते ॥ ४॥ 'वेरग्गकहा विसयाणां निंदणा उट्टनिसियणे गुत्ता। चुक्कखलितमि बहसो सरोसमिव तजए तरुणा ॥ ५॥' सरोषमिव तर्जयन्ति तरुणा विपरिणामाय ॥५॥ 'कतकजा से धम्म कहिंति चाहि लिंगमयति । मा हण दुएवि लोए अणुवता तुज्झ नो दिक्खा ॥ ६॥' धर्मकथाः पाठयन्ति वा कृत. कार्यास्तस्य धर्ममारूयान्ति मा वधीः पर(द्वय)मपि लोकं, अणुव्रतानि तव योग्यानि, न दीक्षा॥६॥ एवं प्रज्ञापितोऽपि यदा नेच्छति तदा-'सण्णि खरकम्मितो वा मेसेइ को इहेस संविग्गो ? । ते सासती रायकुले यदि सो ववहारमग्गिजा ।। ७॥' संज्ञिना-स्वजनाः (श्राद्धाः) खल( २ )कम्मिकास्तलारक्षास्तेषां प्रज्ञापना क्रियते, तथा ते भेषयन्ति तैः प्रजापितो यदि
ममपि तत्तो थेरनिंदणा उदुनिसियमजा से |
१०
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पारिष्ठापनिकानियुक्ति
गा० १४-१७
आवश्यक- याति ततो लष्ट-भव्यं ॥७॥ 'एएहिं दिक्खिओ हं साहिज लोगो ण याणते कोति । जह एतेहिं दिक्खितो हं तो ते बिति ग नियुक्तरव-
II दिक्खेमो॥८॥' अथ कदाचित स नरेन्द्रस्य कथयेत एते मां दीक्षयित्वा निःसारयन्ति, राजकुले स यद्यज्ञात एतैर्दीक्षित चूर्णिः । इति ततः प्रतिषेधः क्रियते एष गृही न दीक्षित इति, अथ लिङ्गं दर्शयति ततो भण्यते स्वयं गृहीतलिङ्गोऽयं साधूनां
चोलपट्टशिखादेरमावात् ॥ ८॥ अथ स भणति॥१०४॥
___ अज्झाविओ मि एएहिं चेव पडिसेहो, किंचऽहीतं !, तो । छलियकहाई कहह कत्थ जई कत्थ छलियाई ? ॥ १४ ॥ अध्यापितोऽहमेतैरित्युक्त प्रतिषेधः कार्यो वाच्यं च किंवाधीतं? छलितकथादिकर्षणे, का यतयः?, क्यच्छलितादयः ॥१४॥
पुन्वावरसंजुतं वेरग्गकर संततमविरुद्धं । पोराणमद्धमागहमासानिययं हवह मुत्तं ॥ १५ ॥
जे सुत्तगुणा वुत्ता तविवरीयाणि गाइए पुन्धि । निच्छिण्णकारणाणं सा चेव विगिचणे जयणा ॥ १६॥ . निस्तीर्णकारणानां सा चैव यतना ॥१६॥ ज्ञातेऽन्यदेशे गत्वा त्यजनं, अन्ये तु श्रीगृहोदाहरणं भणति-यथा राजन् ! युष्माक श्रीगृहे यश्चकति तस्य भवन्तः किं कुर्वन्ति ? राजा-तं निष्कासनादिदण्डेन दण्डयामः, तस्माकमप्यसौ ज्ञानादिरूपं श्रीगृहं विनाशयतीति वयं त्यजाम इत्युक्त्वा त्यज्यते अथ बहुस्वजनो राजवल्लभो वा त्यक्तुं न शक्यते तत्रेयं यतना
काबालिए सरक्खे तव्वण्णियवसहलिंगरूवेणं । वेढुंबगफव्वइए काय व विहीए वोसिरणं ॥ १७॥ ___ वृषभो गीतार्थः कापालिकरूपेण तमपि तद्वेषं लात्वा निर्याति, सरजस्कलिङ्गरूपेणेत्यर्थः । ' तवणिय'ति भिक्षुलिङ्गरूपेण इत्थं वेडंचगपवइए 'त्ति नरेन्द्रादिविशिष्टकुलोद्भवो वेहुंनगो मण्यते, तस्मिन् प्रबजिते कर्त्तव्यं विधिनोक्न व्युत्सृजनं
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आवश्यक- निर्युक्तेरवचूर्णिः ।
पारिष्ठा
पनिका| नियुक्ति
गा० १८-२३
॥१७॥ भावार्थोऽयं
निववल्लभबहुपक्खमि वावि तरुणवसहामिणं वेति । मिन्नकहाओ भट्ठाण घडइ इह वच्च परतित्थी ॥१८॥ इदं ब्रूवते भिन्नकथातो भ्रष्टानां घटते भवान् , परतीर्थी त्वं इतिकारणाद्ब्रज ॥ १८ ॥ स प्राइ
तुमए समग आमंति निग्गओ भिक्खमाइलक्खेणं । नासइ भिक्खुकमाइसु छोडूण तओवि विपलाइ ॥ १९ ॥ त्वया सहाहं निर्गतोऽस्मि, क्व यामीति, ततो भिक्षादिलक्ष्मणा नश्यति भिक्षुकापालिकादिषु क्षिप्त्वा ॥ १९ ॥ ___तिविहो य होइ जड्डो भासा सरीरे य करणजड्डो य । भासाजड्डो तिविहो जलमम्मण एलमूओ य ॥२०॥
जलमूको यथा जले मग्ने भाषमाणो बुडबुडारावं करोति, न किमप्यवबुद्धयते, ईदृग्यस्य शब्दः स जलमूकः । एडको यथा बुन्धुएइ स एलमूकः, मम्मणो यस्य वाक स्खलति, तस्य कदाचिदीक्षा स्यान्मेधागुणतः, ईदृशो ध्वनिः मम्मणस्य नेतरयोर्जडमूकैडमूकयोः ॥ २०॥ यतः
दंसणनाणचरित्ते तवे य समिईसु करणजोए य । उवदिटुंपि न गेहद जलमूओ एलमूओ य ॥ २१ ॥
णाणायट्ठा दिक्खा भासाजड्डो अपच्चलो तस्स । सो य बहिरो य नियमा गाहण उड्डाह अहिगरणे ॥ २२ ॥ ज्ञानाद्यर्थ दीक्षा, भाषाजहुश्चाऽप्रत्यलोऽसमर्थः, तस्य ज्ञानादिकत्यस्य ग्राहणे उड्डाहाधिकरणे ॥ २१-२२ ॥
तिविहो सरीरजड्डो पंथे भिक्खे य होइ वंदणए । एएहि कारणेहिं जगुस्स न कप्पद दिक्खा ॥ २३ ॥ पथि भिक्षायां वन्दनके च, एतैर्वक्ष्यमाणैः ॥ २३ ॥
॥१०५॥
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आवश्यक
नियुक्तेरवपूर्णिः ।
।। १०६ ।।
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ear पoिमंथो भिक्खायरियाए अपरिहत्थो य । दोसा सरीरजडे गच्छे पुण सो अणुण्णाओ ॥ २४ ॥ पलिमन्थो विमर्दः, भिक्षाचर्यायां अपरिहस्तोऽदक्षः, अनुज्ञातः कारणान्तरेण ॥ २४ ॥ तत्र शरीरजड्डेऽन्येऽप्येते दोषाः - उड्दुस्सासो अपरक्कमो य गेलन्नलाघवग्ग अहिउदए । जडुस्स य आगाढे गेलण्ण असमाहिमरणं च ॥ २५ ॥ ऊच्छ्वासः स स्यात्, अपराक्रमच, ग्लानत्वमलाघवं अग्निरधिकउये (अग्नौ अहो उदके च पलायितुमक्षमः ) ||२५|| सेएण कक्खमाई कुच्छे ण धुवणुपिलावणा पाणा । नस्थि गलओ य चोरो निंदिय मुंडाइवाए य ।। २६ । स्वेदेन कक्षादीनां कुत्सनं स्यात्, धावनोत्प्लावने प्राणा द्वीन्द्रियादयो विनश्यन्ति, नास्ति न युज्यते क्षालनगलनः स्वेदवतः, ततो निषिद्धस्याचरणे चौरः निन्दिता, अमी मुण्डा इत्यादि प्रवादश्व स्यात्, अतो देहजड्डो व्रतायोग्यः ॥ २६ ॥ इरियासमिई भासेसणा य आयाणसमिइगुत्तीसु । नवि ठाइ चरणकरणे कम्मुदएणं करणजड़ो || २७ ॥ करणजड्ड इन्द्रियचपलः ॥ २७ ॥
एसोवि न दिक्खिज्जइ उस्सग्गेणमह दिक्खिओ होज्जा । कारणगएण केणइ तत्थ बिहिं उवरि वोच्छामि ॥ २८ ॥ अथ दीक्षितः स्यात् कारणगतेन केनापि ॥ २८ ॥
मोतुं गिळाणकज्जं दुम्मेहं पडियरइ जाव छम्मासा । एक्केके छम्मासा जस्स व दद्धुं विचिणया ॥ २९ ॥ arsat naणकः कदाचित् प्रव्राज्यते गुणदोषा वालोच्य, ग्लानकार्ये चिरमपि धार्यते, तद्विना दुर्मेधसं पाठयेत् यावत् षण्मासान् एकैके कुले गणे स षण्मासान् यावत्परिचर्यते । 'जस्स व दडुं विचिणया ' जडत्वस्य स्था ( यं प्राप्य जाडयं
1
वरिष्ठापनिका
निर्युक्तिः
गा०
२४-२९
॥ १०६ ॥
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पारिष्ठापनिकानियुक्ति
गा.
३०-३२
बावश्यक-INI नश्ये)त्तस्यैवार्यते सः, अथवा यस्य दृष्ट्वा लष्टः स्यात्तस्य सोऽप्यते, न स्यात्ततो विगिचणया ॥ २९ ॥ शरीरजङ्क: नियुक्तेरव- परिचर्यते यावञ्जीवमपि-. चूर्णिः ।
जो पुण करणे जड्डो उक्कोस तस्स होति छम्मासा । कुलगणसंघनिवेयण एवं तु विहिं तहिं कुज्जा ॥ ३०॥
कुलगणसङ्गानां निवेदनं कुर्यात् , एवं विधि-धर्मकथादिना प्रतिबोध्य त्यागरूपं कुर्यात् ॥ ३०॥ एषा सचित्तमनुष्य॥ १०७
संयतपारिष्ठापनिका, अथाचित्तसंयतपारिष्ठापनविधिरुच्यते
आसुक्कारगिलाणे पच्चक्खाए व आणुपुब्बीए । अच्चित्तसंजयाणं वोच्छामि विहीए वोसिरणं ॥ ३१ ।। आशु-शीघ्रं करणं-कारोऽचित्तीकरणं आशुकारः, तद्धेतुत्वादहिविषविशुचिकादयस्तैयः खल्वचित्तीभूतः, ग्लानो मन्दश्च सन् या, 'प्रत्याख्याते वानुपूर्व्या' [करण] शरीरपरिकर्मकरणानुक्रमेण भक्ते वा प्रत्याख्याते सति योऽचित्तीभूतः, एतेषामचिचसंयतानां वक्ष्ये व्युत्सृजनं ।। ३१ ।।
एव य कालगयमी मुणिणा सुत्तत्थगहियसारेणं । न हु कायव विसाओ कायन्ध विहीए वोसिरणं ॥ ३२ ॥ एवं च कालगते साधौ ॥ ३२ ॥ अधिकृतविधिमाह
पडिलेहणा दिसौ णंतए य काले दिया य रौओ य । कुसपडिमा पाणगणियत्तँणे य तणसीसेउवगैरणे ॥ १२८६ ॥
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आवश्यक
नियुक्तरव- चूर्णिः ।
'पडिलेहण चि प्रत्यु
पारिष्ठापनिका| नियुक्तिः
३३-३४
उट्ठाणणामगहणे पोहिणे काउसग्गकरणे याखमैंणे य असझाए तत्तो अवलोयणे चेव ॥ १२८७ ॥ | 'पडिलेहण 'ति प्रत्युपेक्षणा महास्थण्डिलस्य कार्या, 'दिस 'त्ति दिग्भागनिरूपणा च 'पंतए यत्ति गच्छमपेक्ष्य सदौपग्रहिकं नन्तकं मृताच्छादनसमर्थ वस्त्र धारणीयं, चशब्दात्तथाविधं काष्ठं च ग्राह्यं, काले दिवा च रात्रौ मृते सति यथो. चितं लाञ्छनादि कर्त्तव्यं, नक्षत्राण्यालोच्य कुशप्रतिमाद्वयं एका वा कार्या न वा, उपधातरक्षार्थ पानकं गृह्यते, 'निअतणे य'ति कथञ्चित् स्थण्डिलातिक्रमे परिभ्रम्यागन्तव्यं, न तेनैव पथा, समानि तृणानि दातव्यानि, ग्रामं यतः शिरः कार्य, चिवार्थ रजोहरणाद्युपकरणं मुच्यते ॥ १२८६ ॥ उत्थाने सति शवस्य ग्रामत्यागादिकार्य, यदि कस्यचित्सर्वेषां वा नाम गृह्णाति ततो लोचादि कार्य, परिष्ठाप्य प्रदक्षिणा न कार्या, स्वस्थानादेव प्रतिनिवर्तितव्यं, परिष्ठापिते सत्यागम्य कायोत्सर्गकरणं, रत्नाधिकादौ मृते क्षपणं चाऽस्वाध्यायश्च कार्यः, न सर्वस्मिन्, ततोऽन्यदिने परिज्ञानायाऽवलोकनं कार्य ॥ १२८७॥ अथ प्रतिद्वारमवयवार्थ उच्यते, तत्राद्यद्वारमाह- . जहियं तु मासकप्पं वासावासंच संवसेसाहू।गीयत्थापढमंचिय तत्थ महाथंडिले पेहे॥१॥ (प्र०) संवसन्ति 'साधवः' गीतार्थाःप्रथममेव तत्र महास्थण्डिलानि मृतोज्झनस्थानानि प्रत्युपेक्षन्ते त्रीण्येव ॥१॥ दिगद्वारमाह
दिसा अवरदक्खिणा य अवरा य दक्षिणा पुषा । अवरुत्तरा य पुषा उत्तरपुवुत्तरा चेव ॥ ३३ ॥ पउरन्नपाणपढमा बीयाए भत्तपाण ण लहंति । तइयाए उवहीमाई नस्थि चउत्थीए सज्झाओ ॥ ३४ ॥
॥१८॥
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आवश्यक नियुक्तेरवचूर्णिः।
गा.
पंचमियाए असंखडि छट्ठीए गणविमेयणं जाण । सत्तमिए गेलनं मरणं पुण अठ्ठमी विति ।। ३५ ॥
पारिष्ठाअवरदक्षिणाए दिसाए महाथंडिल्लं पहिअवं, इमे गुणा:-मत्तपाणउवगरणसमाही भवइ, एकैकस्यां दिशि त्रीणि २ पनिकाप्रतिलेख्यानि, आसन्ने मध्ये दरे, कदाचित्कुत्रापि व्याघातः, क्षेत्रं कृष्टं, उदकेन वा प्लावितं, हरितकायो वा जात इत्यादि, नियुक्तिः पढमदिसाए विजमाणीए जइ दक्खिणदिसाए पडिलेहिंति तो इमे दोसा-भत्तपाणे न लहंति, अलहंते जं विराहणं पावडर तं पावंति, व्याघाते द्वितीया प्रतिलेख्यते, द्वितीयस्यां सत्यां यदि तृतीयामपरां-पश्चिमां प्रतिलेखयन्ति, तत उपकरणं ३५-३७ न लभन्ते, एवं चतुर्थी दक्षिणापूर्वा, तस्यां स्वाध्यायं न कुर्वन्ति ॥ ३३-३४ ॥ पञ्चमी अपरोत्तरा तस्यां कलहः, षष्ठी पूर्वा तस्यां गणभेदः चारित्रमेदो वा, सप्तमी उत्तरा तस्यां ग्लानत्वं, अष्टमी पूर्वोत्तरा तस्यामन्यमपि मारयति, आयदिगभावे द्वितीया प्रतिलेख्या, तस्यां स एव गुणो यः प्रथमायां, एवं शेषास्वपि ज्ञेयं ॥ ३५॥ 'तए यति द्वारमाह
पुव्वं दव्वालोयण पुर्दिव गहणं च णंतकट्ठस्स । गच्छंमि एस कप्पो अनिमित्ते होउवक्कमणं ॥ ३६ ।। पूर्व तिष्ठन्त एव साधवः तृणडगलच्छारादिद्रव्यमालोकयन्ति, पूर्व ग्रहणमनन्तकस्य मृताच्छादनीयवस्त्रस्य, तदा (था) तद्वहनयोग्यस्य काष्ठस्य, गच्छे एष कल्प:-अनिमित्ते-अकस्माद्भवत्युपक्रमण-मरणं, तन्निमित्तमेतद्धार्य, त्रीणि जघन्यतोऽनन्तकानि धार्यन्ते, एकमधः प्रस्तरणाय एकं परिधानाय, एकमुपरि, उत्कर्षतो गच्छं ज्ञात्वा बहून्यपि ॥ ३६ ॥ 'काले दिया य राओ य'चिद्वारमाह
सहसा कालगयमी मुणिणा मुत्तस्थगहियसारेण । न विसामो कायको कायब विहीह वोसिरणं ॥ ३७॥
२५॥
१०
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आवश्यक
निर्युरव
चूर्णिः ।
॥ ११० ॥
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जं वेलं कालगओ निक्कारण कारणे भवे निरोहो । छेयणबंघण जग्गणकाइयमत्ते य हत्थउडे ॥ ३८ ॥
ver वेलायां कालगतो दिवा वा रात्रौ वा स तस्यामेव नेतव्यो निष्कारणे, कारणं तु रात्रौ स्तेनभयं स्यात् स वा साधुस्तत्र प्रसिद्धः, स्वजना वा तस्य तत्र स्युः, आचार्यो वा अनशनी स्यात्, ततो रात्रौ न नीयते, दण्डिक आयाति निर्याति वा, इत्यादिना दिवसेऽपि कदाचिन्न नीयते, एवं कारणेन निरुद्धस्यायं विधि:-' छेपण ' इत्यादि, च्छेदनमङ्गुष्ठाझुल्योर्विचाले बन्धनं पादाङ्गुष्ठादिषु, जागरणं बालादीनपसार्य गीतार्थाः कुर्वन्ति, जाग्रद्भिः कायिकीमात्रको न परिष्ठाप्यते, ' इत्थउडे 'ति यद्युतिष्ठति ततो मात्रकात् हस्तपुटे कायिकीं कृत्वा सिञ्चन्ति ॥ ३८ ॥
अन्नविसरीरे पंता वा देवया उ उट्ठेना । काइयं डब्बहस्थेण मा उट्ठे बुज्झ गुज्झया ! ॥ ३९ ॥
यद्यच्छित्वाऽबद्धा तच्छरीरं जाग्रति स्वपन्ति वा तदान्याविष्टं सामान्येन व्यन्तराधिष्ठितशरीरं स्यात् प्रान्ता वा प्रत्यनीका देवता तस्प्रविश्योतिष्ठेत्, अथ कदाचिजागरतामप्युत्तिष्ठति तदा कायिक्या वामहस्तेन सिञ्चन्ति इदं च वदन्ति मा उचिष्ठ, बुद्ध्यस्व गृह्यक ! ॥ ३९ ॥
विद्यासेज इसेज्ज व भीमं वा अट्टहास मुंचेज्जा । अभीएणं तस्थ उ काय विहीए वोसिरणं ॥ ४० ॥ कदाचिद्विवासयेत् इसेद्वा, तत्राऽभीतेन च्छेदनादिविधिना ब्युत्सर्जनं कर्त्तव्यं ॥ ४० ॥ ' कुसपडिम 'चि द्वारमाहदोन्नि य दिवखेत्ते दब्भमया पुत्तला उ कायद्या । समखेतंमि उ एको अवgsमीए ण कायव्व ॥ ४१ ॥ द्वौ च सार्द्धक्षेत्रे - पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्ते, क्षेत्रे इति गम्यते, दर्ममयौ पुचलकौ कर्त्तव्यौ अकरणे अन्यौ द्वौ कर्षति,
पारिष्ठापनिका -
|निर्युक्तिः
गा०
३८-४१
॥ ११० ॥
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पारिष्ठापनिकानियुक्ति
गा. ४२-४७
आवश्यक-
II समक्षेत्रे त्रिंशन्महसे चैका, अन्यथैकं कर्षति, अपाढे पञ्चदशमुहऽभीचिनक्षत्रे च न कर्तव्यः पुत्तलकः॥४१॥ नियुक्तरव-4 तिण्णेव उत्तराई पुणब्वसू रोहिणी विसाहा य । एए छ नक्खत्ता पणयालमुहुत्तसंजोगा ॥ ४२ ॥ चूर्णिः ।
अस्सिणिकित्तियमियसिर पुस्सो मह फग्गुइत्थ चित्ता य । अणुराह मूल साढा सवणषणिट्ठा य भद्दवया ॥ ४३ ।। तह रेवइत्ति एए पन्नरस हवंति तीसइमुहुत्ता । नक्खना नायब्वा परिट्ठवणविहीय कुसलेणं ॥ ४४ ॥
सयभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साइ जेट्ठा य । एए छ नक्खता पनरसमुहुतसंजोगा ।। १५॥ 'पाणग'त्ति (यति ) द्वारमाह
सुत्तत्यतदुभयविऊ पुरओ घेत्तूण पाणय कुसे य । गच्छद य जउडाहो परिहवेऊण आयमणं ।। ४६ ॥ सूत्रार्थतदुभयविद्गीतार्थोऽसंसृष्टपानकं कुशांश्च चतुरकुलाधिकहस्तप्रमाणान् , तदभावे केसराणि चूर्णानि वा गृहीत्वा पुरतो व्रजति, स्थण्डिलाभिमुखः, परिष्ठाप्य सागारिके सति हस्तपादादि शौचं कुर्वन्ति, आचमनग्रहणेन यथा २ उड्डाहो न VI स्याचथा तथा कार्य ।। ४२-४६ ।। निवर्त्तनद्वारमाह
थंडिलबाधाएणं अहवावि अणिच्छिए अणाभोगा । भमिऊण उवागच्छे तेणेव पहेण न नियत्ते ॥ १७ ॥ स्थण्डिलस्य व्याघात उदकहरितादिना अनामोगादतिक्रान्ते वा स्थण्डिले भ्रान्ता प्रदक्षिणामकुर्वद्भिपागन्तव्यं स्थन्डिले, तेनैव वा न निवर्त्तनं कार्य, कदाचिदुत्तिष्ठेस उत्थितश्चाभिमुखमेव धावति ग्राम प्रति तस्माद्धान्त्वा स्थण्डिले गन्तव्यं ॥ १७ ॥ नियत्तणि(तण)त्ति द्वारमाह
M॥११॥
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आवश्यक नियुक्तेरव
चूर्णिः ।। ॥११२॥
पारिष्ठापनिकानिर्भुक्तिः
गा० ४८-५३
कुसमुठ्ठी एगाए अघोच्छिण्णाइ एत्थ धाराए । संथारं संथरेजा सवत्थ समो उ कायबो ॥ ४८॥ यदा स्थण्डिलं प्रमार्जितं स्याचदा कुशमुख्या एकया अम्युच्छिमया धारया संस्तारकः क्रियते सर्वत्र समः॥४८॥
विसमा जब होज तणा उवरि मज्झे व हेतुओ वावि । मरणं गेलणं वा तिण्हंपि उ निदिसे तस्थ ॥ ४९॥
उवरि आयरियाणं मज्झे वसहाण हेट्टि भिक्खूणं । तिण्डंपि रक्खणट्ठा सबत्थ समा उ कायबा ॥५०॥ सर्वत्र समानि तृणानि प्रत(स्त )रितव्यानि ॥ ४९-५० ॥
जस्थ य नस्थि तणाई चुण्णेहिं तत्थ केसरेहिं वा । कायबोऽस्थ ककारी हेतु तकारं च बंधेज्जा ।। ५१ ॥ चूर्णैर्दर्माणां नागकेसरैर्वा, तदभावे गोरपालेवा(प्रलेपा)दिमिः वाऽव्युच्छिन्नया धारया कत इत्यक्षरं कर्त्तव्यं ॥५१॥ सीसत्तिद्वारमाह
जाए दिसाए गामो तत्तो सीसं तु होइ कायवं । उर्दुतरक्खणडा एस विही से समासेणं ॥ ५२ ।। यस्यां दिशि ग्रामस्ततः शिरः कर्त्तव्यं, उपाश्रयादपि कर्षद्भिः पूर्व पादा नि:सार्यन्ते, उत्तिष्ठतो रक्षणार्थ, चेदुत्तिष्ठत्तथैव बहिमुखो गच्छेत् ॥ ५२ ॥ ' उवगरण 'ति द्वारमाह
चिण्हहा उवगरणं दोसा उ भवे अचिंधकरणंमि । मिच्छत्त सो व राया व कुणइ गामाण वहकरणं ॥ ५३॥ चिह्वार्थ मुखवत्रिका रजोहरणं चोलपट्टकश्वेत्युपकरणं परिष्ठाप्यमाने स्थाप्यं, अचिह्नकरणे स साधुर्मिध्यात्वं व्रजेत, राजा वा श्रुत्वा ( केना)प्युपद्रुत इति ग्रामवधं कुर्यात् ।। ५३ ।। ' उहाणे 'ति
॥ १२ ॥
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पारिष्ठा
आवश्यक-IN
वसहि निवेसण साही गाममज्झे य गामदारे य । अंतरउज्जाणंतर निसीहिया उहिए वोच्छं ॥ ५४॥ नियुक्तेरवबसहिनिवेसणसाही गामद्धं चेव गाम मोत्तवो। मंडलकंडुइसे निसीहिआ चेव रज्जं तु ॥ ५५ ॥
पनिकाचूर्णिः । यदि कडेवरं नीयमानं वसतावेवोत्तिष्ठति तदा वसतिरुपायो मोक्तव्यः, निवेशनमेकद्वारं वृत्तिपरिक्षिप्तं, अनेक- | नियुक्तिः
गृहं फलिहक, तत्रोत्थिते तच्याज्यं, 'साही' गृहपतिस्तस्यां सैव, ग्राममध्ये ग्रामाई, ग्रामद्वारे ग्रामः, ग्रामोद्यानयोरन्तरे ॥१३॥
गा. मण्डलं-देशान्तर्गतो देशा, उद्याने काण्डं, मण्डलान्महत्तरं, उद्यानस्य नैपेधिक्याश्चान्तरे देशः, नैषेधिक्यामुत्तिष्ठति राज्यं ||५४-५५ मोक्तव्यं, परिष्ठाप्य तत्र गीतार्था मुहूतं तिष्ठन्ति, कदाचिदुत्तिष्ठत् । तत्र यदि नषेधिक्यामुत्तिष्ठति तत्रैव च पतति, तदा भा. गा. उपाश्रयो मोक्तव्यः, एवं यावदसतो प्रविश्य पतति राज्यं ।। ५४-५५ ॥ तथा चाह
२०६ बच्चंतो जोउ कमो कलेवरपवेसणंमि वोच्चत्थो।नवरं पुणणाणतंगामहारंमिबोद्धवं ॥२०६॥ (भा०)
व्रजति क्लेवरे यः क्रम उक्तस्तत्प्रवेशेऽपि विपर्यस्तःस एव, ग्रामद्वारे न पुनर्नानात्वं, कोऽर्थः-उमयथापि ग्रामस्त्याज्यो | नात्र विपर्ययः, नियूंढो यदि द्वितीयवारमेति तदा द्वे राज्ये मोक्तव्ये, तृतीयवारायां त्रीणि, ततः परं बहुशोऽपि त्रीण्येव ॥२०६॥
असिवाइकारणेहिं तस्थ वसंताणं जस्स जो उ तवो । अभिगहियाणभिगहिओ सा तस्स उ जोगपरिवुड्डी ।। ५६ ॥ अथाशिवादिभिर्बहिर्न गच्छन्ति ततस्तत्रैव वसतां यद्यस्य तपोऽभिगृहीतमनभिगृहीतं वास्ति तेन योगपरिवृद्धिः कायों, नमस्कारसहितवता पौरुषी, तद्वता पुरिमार्द्ध इत्यादि ।। ५६ ॥ नाममहणे 'ति द्वारमाह
॥ ११३॥
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आवश्यक
निर्युतेरवचूर्णिः ।
॥ ११४ ॥
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गिort णामं एगस्स दोण्डमहवावि होज्ज सबेसिं । खिप्पं तु लोयकरणं परिण्णगण मेयवारसमं ॥ ५७ ॥ यस नाम गृह्णाति तावतां क्षिप्रं लोचकरणं, ' परिण्ण 'ति प्रत्याख्यानं द्वादशदशमाष्टमानि दीयन्ते, गणमेदव गणान्निर्यान्ति ।। ५७ ।। ' पयाहिणे 'ति द्वारमाह
जो जहियं सो ततो नियत्तइ पयाहिणं न कायवं । उट्ठाणाई दोसा विराहणा वालवुड्डाई ॥ ५८ ॥
यो यतः स तत एव निवर्त्तते, प्रायः कृतप्रदक्षिण उत्तिष्ठेत्, विराधना बालवृद्धादीनां यतः स यदभिमुखः स्थापिततत एव धावति ।। ५८ ।। काउसम्मकरणे य 'तिद्वारमाह
उड्डाणाई दोसा उ होति तत्थेव काउसग्गंमि । आगम्मुत्रस्स्यं गुरुसगासे विहीए उत्सग्गो ॥ ५९ ॥
तत्रैव स्थण्डिलोपान्ते कायोत्सर्गो न क्रियते, उत्थानादिदोषसम्भवात् तत आगम्य चैत्यगृहे विपर्यस्तं देवान् वन्दिस्वाऽऽचार्य पार्श्वेऽविधिपारिष्ठापनिकायाः कायोत्सर्गः क्रियते ॥ ५९ ॥ आय० । आयं० ॥ गाथाद्वयमन्यकृत ममव्याख्यातं च, क्षपणास्वाध्याये आइ
स्वमणे य असज्झाए राइणिय महाणिणाय नियगा वा । सेसेसु नत्थि खमणं नेत्र असज्झाइयं होइ ॥ ६० क्षपणमस्वाध्यायश्च, ' रायणिओ 'त्ति आचार्यः, महाणिणाय'त्ति महाजनज्ञातः निजका वा तत्र स्युः, एतेषु क्रियते ॥ ६० ।। ' अवलोयणे 'ति द्वारमाह
अवरज्जुस्स ततो सुचत्थविसारएहिं थिरएहिं । अवलोयण कायद्या सुहासुहगइनिमित्तट्ठा ।। ६१ ।
पारिष्ठा
पनिका -
निर्युक्तिः
गा०
५७-६१
।। ११४ ॥
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बावश्यक निर्युक्तेरव
चूर्णिः ।। ॥११५॥
जं दिसि बिकड़ियं खलु सरीरयं अक्खुयं तु संविखे । तं दिसि सिवं वयंती सुत्तत्थविसारया धीरा ।। ६२ ॥
पारिष्ठाअपरेधुद्धितीयदिने तस्य मृतदेहस्यावलोकनं कर्तव्यं, शुभाशुमनानाथ गतिज्ञानार्थ च तद्विलोक्यते आचार्यस्य महर्मोस्त- पनिकापोवतो वा । ६१॥ यस्यां दिशि तत् कुष्टं तस्यां दिशि सुभिक्षं सुखविहारं च वदन्ति, अथ तत्रैव तिष्ठेदक्षतं ततस्तस्मिन् नियुक्ति प्रदेशे शिवं. यावन्ति च दिनानि तदक्षतं तिष्ठति, तावन्ति वर्षाणि तत्र शिवं ।। ६२ ।। व्यवहारतो गतिमाह
गा० . एत्य य थलकरणे विमाणिओ जोइसिओ वाणमंतर समंमि । गड्डाए भवणवासी एस गई से समासेण ॥ ६३ ॥ IN
६२-६५ | इदं च सम्यग्दृष्टिदेवतादि कुर्यादिति सम्भाव्यते ।। ६३॥
एसा उ विही सबा कायद्या सिर्वमि जो जहिं वसइ । असिवे खमण विवही काउस्सग्गं च बजेजा ॥ ६४ ॥ - एष विधिारगाथाद्वयोक्तः कर्तव्या शिवे प्रान्तदेवताकृतोपसर्गवर्जिते काले यः साधुर्यस्मिन् क्षेत्रे वसति, अशिवे क्षपणमविधिकायोत्सर्ग च वर्जयेत् , योगवृद्धिः क्रियते, येन च संस्तारकेण वहिर्नीयते स खण्डीकृत्य परिष्ठाप्यते, उच्चारादिमात्रकारत्यज्यन्ते ॥ ६४ ।। उक्तार्थोपसंहारमाह
__एसो दिसाविभागो नायवो दुविहदवहरणं च । वोसिरणं अवलोयण सुहासुहगई विसेसो ।। ६५ ॥ एष दिग्विभागो ज्ञातव्यः, अथेयं संयत( अचित्त )संयतपरिष्ठापनविधि प्रति दिकप्रदर्शनमित्यर्थः, 'द्विविधद्रव्यग्रह(व्यहर )णं च ' पूर्वकाले गृहीतं वस्त्रादि तथा पश्चाद्गृहीतं कुशादि ज्ञातव्यं, 'व्युत्सर्जनं ' संयतशरीरस्य, 'अवलोकन' द्वितीये दिने शुभाशुभगतिविशेषश्च एषा अचित्तसंयनपरिष्ठापनिका ॥६५॥
११५॥
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आवश्यकनियुक्तरव
चर्णिः
।
पारिष्ठापनिकानियुक्तिः
गा० ६६-७०
अस्संजयमणुएहिं जा सा दुविहा य आणुपुवीए । सञ्चित्तेहिं सुविहिया ! अच्चित्तेहिं च नायवा ॥ ६६ ॥ तत्र सचित्तासंयतमनुष्यपरिष्ठापनिकासम्भवः कथं १, आह
कप्पट्ठगरूयस्स य वोसिरणं संजयाण वसहोए । उदयपह बहुसमागम विपज्जहालोयणं कुज्जा ॥ ६ ॥ काचिदविरतिका प्रत्यनीकतया उड्डाहार्थ काचिदनुकम्पया दुर्भिक्षे संयताना वमतावपत्यस्य व्युत्सर्जनं करोति, तत्र को विधिः १, दिने २ वसतिवृषभविलोक्या, प्रत्यपे प्रदोषे मध्याह्वेऽर्द्धरात्रे च, यदि मुञ्चन्ती दृष्टा तदा बोलः क्रियते, यथा लोको | मिलति, यज्जानानि तत्करोतु, अथ न दृष्टा तदा परिष्ठाप्यते उदकपथे जनसमागमस्थाने वा चतुष्पथे वा, दूरस्थस्त्यक्त्वावलोकनं कुर्यात् , यथा मार्जारादिना न मार्यते, केनापि दृष्टेऽपसरति ॥ ६७ ॥ अचित्तासंयतपारिष्ठापनिकामाह
पडिणीयसरीरछुहणे वणीमगाईसु होइ अचिना । तोवेक्खकालकरणं विप्पजह विगिचणं कुज्जा ॥ ६८॥ प्रत्यनीकः कोऽपि वनीकादिशरीरं तत्र क्षिपेत् , वनीपको वा तत्राऽऽगत्य मृतः, उद्बन्धनं वा कश्चित् कुर्यात् , दृष्टे बोल: क्रियते, नोपेक्षेत, रात्रौ यत्र कस्यापि गृहं नास्ति तत्र 'विप्पजह विगिचणं'ति मृग(त)त्यागं कुर्यात् , तदुपधेरपि विवेकः॥६८॥
णोमणुएहिं जा सा तिरिएहि सा य होइ दुविहा उ । सचिनेहि सुविहिआ ! अच्चित्तेहिं च नायव्वा ॥ ६९॥
चाउलोयगमाईहिं जलचरमाईण होइ सञ्चिता । जलथलखहकालगए अचित्ते बिगिचणं कुज्जा ॥ ७० ॥ तन्दुलोदकादौ मत्स्यो मण्डूकी वा स्यात् , सा जलाजले नीत्वा क्षिप्यते, तक्रादौ पुतरकादयः पूर्ववत् , जलस्थलखचरा MI वा शुकंतिकादि( काकादि )मुखात्ः पतिता विजने त्यज्यन्ते ॥ ७० ॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरव
| पारिष्ठापनिकानियुक्तिः
चूर्णिः ।
७१-७५
णोतसपाणेहिं जा सा दुविहा होह आणुपुव्वीए । आहारंमि सुविहिआ ! नायवा नोअआहारे ॥ ७१ ॥ नोआहार उपकरणादिः॥ ७१ ॥
थाहारमि उ जा सा सा दुविहा होइ आणुपुब्बीए । जाया चेव सुविहिया ! नायव्वा तह अजाया य ॥ ७२ ॥ दोषात् परित्यागार्हा आहारविषया सा जाता, अतिरिक्तनिरवद्याहारपरित्यागविषया अजाता॥७२।। तत्र जाता स्वयमेवाह
माहाकम्मे य तहा लोहविसे आभिओगिए गहिए । एएण होइ जाया वोच्छं से विहीए बोसिरणं ।। ७३ ॥ आधाकर्मणि तथा लोभाद् गृहीते विषकृते गृहीते आभियोगिके-वशीकरणाय मन्त्राभिसंस्कृते गृहीते सति,मक्षिकाव्यापत्तिचेतोऽन्यथात्वादिलिङ्गतश्च ज्ञाते, एतेनाधाकर्मादिना दोषेण भवति जाता परिष्ठापनिका, वक्ष्येऽस्या विधिना व्युत्सजेन ॥७३॥
एगंतमणावाए अञ्चिते थंडिल्ले गुरुवइडे । छारेण अक्कमित्ता तिट्ठाणं सावणं कुज्जा ॥ ७४ ॥ मस्मना सम्मिश्य 'तिद्वाणं सावणं कुज 'त्ति सामान्येन तिस्रो वाराः श्रावणं कुर्यात-अमुकदोषदुष्टमिदं व्युत्सृजामि ३, | विशेषतस्तु विषकताभियोगिकापकारकस्यैष विधिः, न त्वाधाकर्मादेः, तद्वतंत प्रसङ्गेनेहैव मणिष्यामि ।। ७४ ॥ अजातपारिष्ठापनिकामाह
आयरिएय गिलाए पाहुणए दुल्लहे सहसलाहे । एसा खलु अजाया वोच्छं से विहीए वोसिरणं ।। ७५ ॥ आचार्य सत्यधिकं गृहीतं किञ्चित् , एवं ग्लाने प्राघूर्णके दर्लमे वा विशिष्टद्रव्ये सहसा लामे सत्यतिरिक्तग्रहणसम्मवस्तस्य पारिष्ठापनिकाऽजाता ॥ ७५ ॥
M॥११७॥
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बावश्यक नियुक्तेरव
पारिष्ठापनिकानियुक्तिः
गा० ७६-७९
एगंतमणावाए अच्चित्ते थंडिले गुरुवबहे । आलोए तिणि पुंजे तिट्ठाणं सावणं कुज्जा ॥ ७६ ॥ आलोके प्रकाशे त्रीन् पुञ्जान् कुर्याद , अत एव मूलगुणदुष्टे त्वेकं, उत्तरगुणदुष्टे तु द्वौ, साध्वाद्यागमसम्भावनायां ॥७६॥
__णोाहारंमी जा सा सा दुविहा होइ आणुपुन्वीए । उवगरणमि सुविहिया ! नायब्वा नोयउवगरणे ॥ ७७॥ सुविहिताः इत्यामन्त्रणं सर्वत्र क्षेयं नोउपकरणं श्लेष्मादि ॥ ७७ ॥
उवगरणमि उ जा सा सा दुविहा होइ आणुपुवीए । जाया चेव सुविहिया ! नायचा तह अजाया य ।। ७८ ॥ उपकरणं च वस्त्रादि ।। ७८॥
जाया य वत्थयाए वंका पाए य चीवरं कुजा । अज्जावयत्थपाए वोचत्थे तुच्छपाए य ॥१॥ (प्र.) जाता बस्ने पात्रे च वक्तव्या, प्रेरकामिप्रायो वस्ने मूलगुणादिदुष्टानि वक्रीकृत्य परिष्ठापना, पात्रे च चीवरं कुर्यात् , अजाता च वक्तव्या-वस्ने पात्रे च 'वोच्चत्थे तुच्छपाए प्रति प्रेरकाभिप्रायो वस्त्रं विपर्यस्तमृजु स्थाप्यते पात्रं च तुच्छं-रिक्तं स्थाप्यते, सिद्धान्तं तु वक्ष्यामः, इयं चान्यकर्तृकी गाथा ॥१॥
दुविहा जायमजाया अभिओगविसे य सुद्धऽसुद्धा य । एगं च दोणि तिण्णि य मूलुत्तरसुद्धजाणट्ठा ॥ ७९ ॥ आभियोगिका विषकता, अशुद्धा शुद्धा च, तत्र शुद्धा जाता, अयं च प्रागतिदिष्टः सिद्धान्त:-मूलगुणाशुद्धे एको ग्रन्थि: पात्रे व रेखा, उत्तरगुणाशुद्धे द्वौ, शुद्ध त्रयः, एतेन विधिना एकान्तानापाते वस्त्रादि त्यजेत् , सामाचारी त्वेवं-जाता नाम
॥ ११८॥
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पारिष्ठापनिकानियुक्तिः
गा.
७९-८३
आवश्यक- यदस्त्रं पात्रं वा मूलोत्तरगुणाशुद्ध अभियोगादिकृतं वा, तत्खण्डीकृत्य त्याज्यं, श्रावणा तथैव ॥ ७९ ॥ नियुक्तरव
नोउवगरणे जा सा चउबिहा होइ आणुपुवीए । उच्चारे पासवणे खेले सिंघाणए चेव ॥ ८॥ पूर्णिः । विधिमाह
उच्चारं कुम्वंतो छायं तसपाणरक्खणट्ठाए । कायदुयदिसाभिम्गहेय दो चेवऽभिगिण्हे ॥ ८१ ॥ ॥११९ ॥
यस्योच्चारः संसक्तः स तं कुर्वन् छायां कुर्यात् , कायौ द्वौ, त्रसस्थावररूपो, सुप्रतिलेखितसुप्रमार्जिते व्युत्सृजन रक्षति, दिगभिग्रह:-' उमे मूत्रपरीषे च दिवा कुर्यादुदमुखः। रात्रौ दक्षिणतश्चैव तस्य आयुन हीयते ॥१॥'द्वे एवं दिशावभिगृह्णन्ति, द्वयोर्दिशोर्मूत्रपुरीषे न कार्ये ॥ ८१ ॥
पुढवि तसपाणसमुहिएहिं एत्थं तु होइ चउभंगो । पढमपयं पसत्थं सेसाणि उ अप्पसस्थाणि ॥ ८२॥ का समुत्थितपृथिवीत्रसप्राणेषु स्थण्डिलेषु चतुर्भक्षी-प्रतिलेख यति प्रमार्जयति स्थावरानसाच रक्षिताः १, प्रतिलेखयति न
प्रमार्जयति स्थावरा रक्षिता न साः २, न प्रतिलेखयति प्रमार्जयति सा रक्षिता न स्थावराः ३, न प्रतिलेखयति न प्रमार्जयति दयेऽपि त्यक्ताः ४, डगलकग्रहणेऽपि चतुर्भङ्गी तथैव ।। ८२ ॥ अथ शिष्यानुशास्तिरूपां समाप्तिमाह
-गुरुमूलेवि वसंता अनुकूला जे न होति उ गुरूणं । एएसि तु पयाणं दूरदूरेण ते होंति ॥ ८३ ॥ पदानामुक्तलक्षणानां ।। ८३ ।। इति पारिष्ठापनिकानियुक्त्यवचणिः। पडिकमामिछहिं लेसाहि-किण्हलेसाए नीललेसाए काउलेसाए तेउलेसाए पम्हलेसाए सुक्कलेसाए
॥ ११९॥
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आवश्यक नियुक्तेरवचूर्णिः ।
लेश्यास्वरूपम्
॥ १२०
बेतुंगोछा छह
अथ लेश्यादीनां स्वरूपमाह सङ्ग्रहणिकार:-जह जंबुतरुवरेगो सुपक्कफलमरियनमियसालग्गो । दिट्ठो छहिं पुरिसेहिं ते बिती जंबु भक्खेमो ॥१॥ किह पुण ? ते बेंतेको आरुहमाणाण जीवसंदेहो । तो छिंदिऊग मूले पाडेमु ताहे मक्खेमो ॥२॥ बितिआह एदहेणं किं छिण्णेणं तरूण अम्हंति । साहा महल्ल छिंदह तइओ बेंती पसाहाओ ॥३॥ गोच्छे चउत्थओ उण पंचमओ बेति गेण्ह फलाई । छट्ठो बेंती पडिया एएच्चिय खाह घेत्तुं जे ॥ ४ ॥ दिद्रुतस्सोवणओ जो बेति तरूवि छिन्न मूलाओ। सो वह किण्हाए सालमहल्ला उ नीलाए ॥ ५॥ हवह पसाहा काऊ गोच्छा तेऊ फला य पम्हाए । पडियाए सुक्कलेसा अहवा अण्णं उदाहरणं ॥ ६ ॥ चोरा गामवहत्थं विणिग्गया एगो बेंति पाएह । जं पेच्छह सवं दुपयं च चउप्पयं वावि ॥ ७॥ निइओ माणुस पुरिस य तहओ साउहे चउत्थे य । पंचमओ जुझते छटो पुण तस्थिम भणइ ॥ ८॥ एकं ता हरह धणं बीयं मारेह मा कुणह एवं । केवल हरह धणंती उपसंहारो इमो तेसि ॥९॥ सो मारेहत्ती वट्ट सो किण्हलेसपरिणामो। एवं कमेण सेसा जा चरमो सुक्कलेसाए ॥१०॥ आदिल्लतिणि एत्थं अपसत्था उत्ररिमा पसत्था उ । अपसत्थासुं वट्टिय न वट्टियं जं पसत्थासु ॥ ११ ॥ एसइयारो एयासु होइ तस्स य पडिकमामित्ति । पडिकूलं वट्टामी जं भणियं पुणो न सेवेमि ॥ १२ ॥ द्वादशगाथा अन्यद(त्र) व्याख्याताः। ___ पडिकमामि सत्तहिं भयठाणेहि, अट्टहिं मयठाणेहि, नवहिं बंभचेरगुत्तीहिं, दसविहे समणधम्मे, एगारसहिं उवासगपडिमाहि ( सूत्रम् )
१२०॥
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आवश्यक-IN नियुक्तेरव
चूर्णिः । ॥१२१
सप्त भवस्थानानि| अष्ट मदस्थानानि
चर्यस्था
इहपरलोयादाणमकम्हाआजीवमरणमसिलोए । जाईकुलबलरूवे तवईसरीए सुए लाहे ॥१॥ इहपरलोकभयं, तत्र मनुष्यादेः सजातीयादन्यस्मान्मनुष्यादेरेव सकाशाद् भपमिहलोकभयं, विजातीयात्तिर्यग्दे- वादेः सकाशाद्वयं परलोकभयं, आदान-धनं तदर्थ चौरादिभ्यो यद्भयं तदादानभयं, अकस्मादेव बाह्यनिमित्तानपेक्ष्य(क्षं) राध्यादौ भयमकस्माद्यं, आजीविकामयं निर्द्धनः कथं दुर्मिक्षादावात्मानं धारयिष्यामीति, मरणाझ्यं मरण भयं, 'असिलोग 'त्ति अश्लाघामयं एवं क्रियमाणे, महदपयशः इति तद्भयान प्रवर्तते । कश्चिद्राजादिः प्रबजितो जातिमदं करोति, एवं कुलबलरूपतपऐश्वर्यश्रुतलामेचपि योज्यं ॥१॥
विसहिकहनिसिजिदिये कुईतेरपुरकीलियपणीएँ । अइमायाहारविभूषणा य नव बंभचेरैगुत्तीओ ॥१॥ ब्रह्मचारिणा तद्गुप्त्यनुपालनपरेण न स्त्रीपशुपण्डकसंसक्ता वसतिरासेवितव्या, न स्त्रीणामेकाकिनां कथा कथनीया, उस्थितानामन्तहूर्त तदासने नोपवेष्टव्यं, नस्त्रीणामिन्द्रियाण्यालोकनीयानि, न स्त्रीणां कुद्यान्तरिताना मोहसंसक्तानां कणितध्वनिः श्रोतव्यः, न पूर्वक्रीडितानुस्मरणं कार्य, न प्रणीतं स्निग्धं भोक्तव्यं, नातिमात्राहारोपभोगः कार्यः, न विभूषणा कार्या।।
खंती य मद्दवज्जव मुत्ती तवसंजमे य बोद्धव्वे । सच्चं सोयं आकिंचणं च बंभं च जइधम्मो ॥१॥ क्षान्तिमाईवार्जवमुक्तयः क्रोधादिपरित्यागाः, तपो द्वादशविधं, संयमश्च विरतिलक्षणः, सत्यं प्रतीतं, शौचं संयम प्रति | निरुपलेपता, आकिश्चन्य कञ्चनादिरहितता, ब्रह्म च ब्रह्मचर्य । अन्ये स्वेवं पठन्ति- खंती मुत्ती अजब मद्दव तह लायवे नवे चेव । संयम चिआगऽकिंचण बोधे बंभचेरे अ॥१॥' अत्र लाघवं अप्रतिबद्धता, त्यागा-संयतेभ्यो वस्त्रादिदानं ॥२॥
नानि दशविधश्रमणधर्मः।
॥ १२१ ॥
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चूर्णिः
श्रावकप्रतिमा:।
॥१२२॥
बावश्यक-I
दसणवयसामाइय पोसहपडिमा अवंभ सचिते । आरंभपेसउद्दिढ वज्जए समणभूए य ॥ १॥ नियुक्तेरव-ला
दर्शनप्रतिमा, एवं व्रतसामायिकपौषधप्रतिमा अब्रह्मसचित्तआरम्भप्रेष्य उद्दिष्टवर्जकः, श्रमणभूतश्च, तत्र प्रतिमायाँ चतुष्पा रात्री कायोत्सर्गः कार्यः, प्राक्तनप्रतिमाविधिश्व, अब्रह्मवर्जकप्रतिमायां मैथुनं त्याज्यं, आद्यायां मासो यावदेकादश्यामेकादशमासाः ॥१॥ अर्थतत्स्वरूपं व्यक्त्याह-'सम्मदंसणसंकाइसल्लपामुक्कसंजुओ जो उ । सेसगुणविष्पमुको एसा खलु होति पडिमा उ॥१॥ विइया पुण वयधारी सामाइयकडो य तहयया होइ । होइ चउत्थी चउद्दसि अट्ठमिमाईसु दियहेसु ॥२॥ पोसह चउविहंपी पडिपुण्णं सम्म जो अणुपाले । पंचमि पोसहकाले पडिमं कुणएगराईयं ॥ ३॥ असिणाणवियडमोई पगासमोइत्ति जं भणिय होइ । दिवसओ न रत्ति मुंजे मउलिकडो कच्छ णवि रोहे ॥४॥ दिय बंभयारि राई परिमाणकडे अपोसहीएसुं । पोसहिए रतिमि य नियमेणं बंभयारी य ॥ ५॥ इय जाव पंच मासा विहरह हु पंचमा भबे पडिमा । छट्ठीए बंभयारी ता विहरे जाव छम्मासा ।। ६ ॥ सचम सत्त उ मासे णवि आहारे सचित्तमाहारं । जं जं हेडिल्लाणं तं तो परिमाण सर्वपि ॥ ७ ॥ आरंभसयंकरणं अट्ठमिया अट्ठमास बजेइ । नवमा णव मासे पुण पेसारंभे विवजेइ ॥ ८ ॥ दसमा पुण दस मासे उद्दिढकयंपि मत्त नवि भुंजे । सो होई छुरमुंडो छिहलिं वा धारए जाहिं ॥ ९ ॥ जं निहियमत्थजायं पुच्छंति नियाण नवरि सो आह । जइ जाणे तो साहे अह नवि तो ति नहि जाणे ॥१०॥ खुरमुंडो लोओ वा रयहरणपडिग्गहं च गेण्हित्ता । समणभूओ विहरे णवरि सण्णायगा उवरिं ॥ ११॥ ममिकारअवोच्छिन्ने बच्चा सण्णायपल्लि दह जे । तत्थवि साहुब जहा गिण्हइ फासुं तु आहारं ॥ १२ ॥ एसा एक्कारसमा इक्कारसमासियासु एगासु । पण्णवणतहअसदहाणभावाउ
॥ १२२॥
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आवश्यक
नियुक्तेरव
चूणिः ।
॥ १२३ ॥
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अइयारो || १३ || ' इत्याद्यास्त्रयोदशगाथा अन्य कर्त्तृक्यः ॥ १ ॥
बारसहिं भिक्खुपडिमा हिं, तेरसहिं किरियाठाणेहिं चोद्दसहिं भूयगामेहिं, पन्नरसहिं परमाइंमिहिं, सोलसहिं गाहासोलसएहिं, सत्तरसविहे संजमे, अट्ठारसविहे अबंभे, एगूणवीसाए नायज्झयणेहिं, वीसाए असमाहिठाणेहिं (सूत्रम् )
मासाई सता पढमाबितिसत्त[ सत्त ] राइदिणा । अहराई एगराई भिक्खूपडिमाण बारसगं ॥ १ ॥
मासाद्याः सप्तान्ताः प्रथमा एकमासिकी, एवं यावत्सप्तमी सप्तमासिकी, 'प्रथमाद्वित्रिसप्त [सप्त ] रात्रिदिवा ' प्रथमा सप्तरात्रकी, द्वितीया सप्तरात्रिकी, तृतीया सप्तशत्रिकी, अहोरात्रिकी, एकरात्रिकी, इदं भिक्षुप्रतिमानां द्वादशकं आसां भावार्थो दशाभ्यो ज्ञेयः किञ्चित्स्वरूपं च द्वादशभिरिमाभिर्गाथाभिरन्य कर्त्तृकीभिर्ज्ञेयं-' पडिवअह संपुण्णो संघयण धिरजुओ महासत्तो । पडिमाउ जिणमयंमी सम्मं गुरुणा अणुण्णाओ ॥ १ ॥ गच्छे च्चिय निम्माओ जा पुवा दस भवे असं पुण्णा । नवमस्स तवत्युं होइ जहन्नो सुवाभिगमो || २ || वोसकुचत्तदेहो उवसग्गसहो जहेव जिणकप्पी एसण अभिग्गहीया मतं च अलेवयं तस्स || ३ || गच्छा विणिक्खमित्ता पडिवजे मासियं महापडिमं । दत्तेगभोयणस्सा पाणस्सवि एग जा मासं ॥ ४ ॥ पच्छागच्छमईए एव दुमासि तिमासि जा सत्त। नवरं दत्तीवुडी जा सत्त उसत्तमासीए ।। ५ ।। तत्तो य अमीया हव हू पढमसत्तराहंदी । तीय चउत्थच उरथेण पाणएणं अह विसेसो ॥ ६ ॥ उताणगपासल्लीण सजीवावि ठाणे
द्वादश भिक्षु
प्रतिमाः ।
॥ १२३ ॥
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आवश्यक
निर्युक्तेश्व
चूर्णिः ।
॥ १२४ ॥
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ठाइत्ता | सह उवसग्गे घोरे दिवाई तत्थ अविकंपो || ७ || दोच्चावि एरिसच्चिय बहिया गामाइ आण नवरं तु । उक्कुडलगंड साई डाइतिठाता ॥ ८ ॥ तच्चाएवि एवं नवरं ठाणं तु तस्स गोदोही । वीरासणमहवावी ठाइज व अंबखुज वा ।। ९ ।। एमेव अहोराई छ भत्तं अपाणयं णवरं । गामनयराण बहिया वग्वारिपाणिए ठाणं ॥ १० ॥ एमेव एगराई अट्टमभत्तेज ठाण बाहिरओ । ईसीप भारगए अणिमिसन यणेगदिट्ठीए || ११ || साहहु दोषि पाए वग्बारियपाणिठायई ठाणं । वाघारि लंबियओ सेस दसासुं जहा भणियं ।। १२ ।। ' इत्यादि ॥ १ ॥
अट्ठा हिंसाका दिट्ठी य मोसऽदिण्णे य । अब्भत्थमाणमेत्ते मायालोहेरियावहिया || १ ||
अर्थाय क्रिया १, अनर्थाय क्रिया २, हिंसा क्रिया ३, योऽन्यं हन्तुं शरादि मुञ्चति परमन्यं हन्ति सा अकस्मात्क्रिया ४, मित्रमध्यमित्रमिति अचौरमपि चौरमिति वा भ्रान्त्या इन्तीति दृष्टिविपर्यासक्रिया ५, मृषाक्रिया ६, अदत्तादानक्रिया ७, निर्हेतुकं दौर्मनस्यं अध्यात्मक्रिया ८, मानक्रिया ९, मित्रादिष्वपि स्वल्पेऽप्यपराधे तीव्रतरदण्डकरणं अमित्रक्रिया १०, मायाक्रिया ११, लोभक्रिया १२, ईर्याक्रिया १३ ॥ १ ॥ एतत्स्वरूपं च किञ्चिद्विशेषत इमाभिः सप्तदशभिरन्य कर्त्तृकीभिर्गाथाभिर्ज्ञेयं, तस्थावरभृएहिं जो दंडं निसिरई हु कर्जमि । आय परस्स व अट्ठा अट्ठादंडं तयं वेति ॥ १ ॥ जो पुण सरडाईयं थावरकायं च वणलयाईयं । मारेतुं छिंदिऊण व छड्डे एसो अणट्ठाए || २ || अहिमाइ वेरियस्स व हिंसिंसु हिंसाइव हिंसिहिई । जो दंड आरम्भइ हिंसादंडो भवे एसो || ३ || अनडाए निसिरइ कंडाइ अन्नमाइणे जो उ । जो व नियंतो सस्सं छिंदिजा सालिमाई य || ४ || एस अकमहादंडो दिट्ठविवजासओ इमो होइ । जो मित्तममित्तंती काउं घाएइ अहवावि
त्रयोदश
क्रियास्थानानि ।
॥ १२४ ॥
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चतुर्दश भूतप्रामा।
आवश्यक नियुक्तेरव
चूर्णिः । ।। १२५॥
॥५॥ गामाईघाएसु व अतेण तेणंति वावि पाएा । दिद्विविवजासे सो किरियाठाणं तु पंचमयं ॥६॥ आयट्ठा पाय- गाइण वावि अट्ठाए जो मुसं वयइ । सो मोसपच्चईओ दंडो छट्ठो हवह एसो ॥ ७॥ एमेव आयणायगअट्ठा जो गेण्हह अदिनं तु । एसो अदिनवत्ती अज्झत्थीओ इमो होइ ॥८॥ नवि कोवि किंचि भणई तहबिहु हियएण दुम्मणो किंपि । तस्सऽजात्थी संसह चउरो ठाणा इमे तस्स ।। ९ । कोहो माणो माया लोहो अमत्थकिरिय एवेसो । जो पुण जाइमयाई अट्ठविहेणं तु माणेणं ॥ १०॥ मत्तो होलेह परं खिसइ परिमवह माणवत्तेसा । मायपिहनायगाईण जो पुण अप्पेवि अवराहे ॥ ११ ॥ तिवं दंडं करेइ डहणंकणबंधतालणाईयं । तं मित्तदोसवत्ती किरियाठाणं हबह दसमं ॥ १२ ॥ एकारसमं माया अण्णं हिययंमि अण्ण वायाए । अण्णं आयरई या स कम्मुणा गूढसामत्थो ॥ १३ ॥ मायावती एसा तत्तो पुण लोहबतिया इणमो। सावजारंभपरिग्गहेसु सत्तो महंतेसु ॥ १४ ॥ तह इत्थी कामेसुं गिद्धो अप्पाणयं च रक्खंतो। अण्णेसि सत्ताणं वहबंधणमारणं कुणइ ॥ १५॥ एसो उ लोहवित्ती इरियावहियं अओ पवक्खामि । इह खलु अणगारस्सा समिईगुत्तीसुगुत्तस्स |॥१६॥ सययं तु अप्पमत्तस्स भगवओ चक्खुपम्हंपि । निवयह ता सुहमा वि हु इरियावहिया किरिय एसा ॥१७॥' इत्यादि।
एगिदियसुहुमियरा सण्णियर पणिदिया य सचीतिचऊ । पजत्तापज्जत्ताभेएणं चोद्दसग्गामा ॥ १ ॥ एकेन्द्रियाः पृथिव्यादयः सूक्ष्मेतराः, सूक्ष्मा बादराश्चेत्यर्थः, संज्ञीतराः संझिनोऽसंज्ञिनश्च पश्चेन्द्रियाः, सह द्वीन्द्रिय[त्रीन्द्रिय ]चतुरिन्द्रियैः एते हि पर्याप्तापर्याप्तमेदेन बतईशभूतग्रामाः । एतानेव गुणस्थानद्वारेण [आह]
मिच्छद्दिट्ठी सासायणे य तह सम्ममिच्छदिट्ठी य । अविरयसम्मपिट्ठी विरयाविरए पत्ते य ॥१॥
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बावश्यकनियुक्तरवपूर्णिः ।
चतुर्दश गुणस्थानानि पञ्चदश परमाधार्मिकाः ।
॥ १२६॥
तत्तो य अप्पैमत्तो नियट्टिअनियट्टिबायरे मुंहुमे । उवैसंतखीणमोहे होइ सँजोगी अंजोगी य ॥२॥ कश्चिद्भूतग्रामो मिथ्यादृष्टिः, तथा सह ईपत्तचश्रद्धानरसास्वादनेन वर्त्तते इति सास्वादनः २, सम्यग्मिध्यादृष्टिः ३, अविरतसम्यग्दृष्टिः ४, विरताविरतः श्रावकग्रामः ५, प्रमत्तः प्रमत्तसंयतग्रामः ६, ततश्चाप्रमत्तसंयतग्रामः ७, क्षपक
वाप्रमत्तसयतनामः ७, क्षपक- श्रेण्याद्यन्तर्गतो जीवग्रामो [क्षीणदर्शनसप्तकः ] निवृत्तिवादरः ८, लोमखण्डवेदनं यावदनिवृत्तिवादः ९, लोमान् वेदयन् सूक्ष्मसम्परायः १०, उपशान्तमोहः श्रेणिपरिसमाप्तावन्तर्मुहुर्त यावदुपशान्तवीतरागः ११, क्षीणवीतरागश्च स्यात् १२, सयोगीभवस्थकेवलिग्रामः १३, अयोगी च निरुद्धयोगः १४ ॥ १-२ ॥ अथ परमाधार्मिकानाह
'अंबे अबैरिसी चेव, सामे अ सबैले इय । सैदोवरुद्दकीले य, महाकालेत्ति आवरे ॥ १ ॥
असिर्फत्ते धणे"कुंभे, वोल वेयरणी इय । खैरस्सरे महोघोसे, एए पन्नरसाहिया ॥ २॥ एतत्स्वरूपं सूत्रकृनियुक्तिगाथाभ्यो ज्ञेयं, ताश्चेमाः पञ्चदश-'धाडेंति पहावेंति य हणंति विधति तह निसुंभंति । मुंचंति अंबरतले अंबा खलु तत्थ नेरइया ॥१॥ ओहयहए य तहियं निस्सण्णे कप्पणीहिं कप्पंति । विदलियचटुलयछिन्ने अंबरिसा तत्थ नेरइए ॥२॥ साडणपाडणतुन्नण(तोदण) विंधण(बंधण)रज्जूतल(लय)प्पहारेहिं । सामा नेरइयाणं पबत्तयंती अपुण्णाणं ॥ ३ ॥ अंतगयफेफ(यकीक)साणिय हिययं कालेज फुप्फुसे चुण्णे । सबला नेरहयाणं पवत्तयंती अपुण्णाणं ॥४॥ असिसत्तिकुंततोमरसूलतिनलेसु सुइचिइयासु । पोएंति रुद्दकम्मा नस्यपाला तहिं रोदा ॥ ५ ॥ भंजंति अंगमंगाणि ऊरू बाहू सिराणि करचरणे । कप्पंति कप्पणीहिं उवरुद्दा पापकम्मरए ॥६॥ मीरास संडएस य कंइसु पयणगेसु य पयति ।
N॥१२६॥
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सप्तदश संयमस्थानानि
आवश्यक
कुंभीसु य लोहीसु य पयंति काला उ नेरइया ॥ ७॥ कम्पिति कागिणीमंसगाणि छिदंति सीहपुच्छाणि । खायति य नेरइए नियुक्तरव-VI महाकाला पावकम्मरए ॥ ८॥ हत्थे पाए ऊरू बाहू य सिरं च अंगुवंगाणि । छिदंति पगामं तु असिनेरहया उ नेरइए चर्णि:
॥९॥ कण्णोद्वनासकरचरणदसणथणपूअऊरुवाहूणं । छयणमेयणसाडण असिपत्तवहिं पाडिति ॥१०॥ कुंभीसु य
पदणीसु अलोहीसु कंडुलोहकुंभीसु । कुंभी उ नरयपाला हणंति पाइंति नरएसु ॥ ११ ॥ तडतडतडस्स अँजति भजणे ॥१२७॥
कलंबुबालुयापढे । वालुयगा नेरइया लोलेंति अंबरतलंमि ॥ १२॥ वसपूयरुहिरकेस द्विवाहिणी कलकलंतज उसोत्तं । वेयरणिनिरयपाला नेरइए ऊ पवाहति ॥ १३ ॥ कप्पंति करगतेहिं कप्पंति परोप्परं परसुएहिं । संवलियमारुहंती खरस्सरा तस्थ नेरहए ॥ १४ ॥ भीए य पलायंते समंतओ तत्थ ते निरंभंति । पसुणो जहा पसुवहे महघोसा तत्थ नेरहए ॥१५॥ इत्याद्याः॥
समयो वेयालीयं उवसग्गपरिणथीपरिगणा य । निरयविभत्तीवीरत्थओ य कुसीलाण परिहासा ॥ १ ॥
वीरियधम्मसमाही मांगसमोसैरणं अहेतहं गंथो" । जमईयं तह गाहाँसोलसमं होह अज्झयणं ॥ २ ॥ एतानि सूत्रकृताङ्गाद्यश्रुतस्कन्धाध्ययनानि ॥ १-२॥
पुढविदगअगणिमारुयवणस्सइबितिचउपणिदिअजीबो । पेहुप्पेहपमज्जण परिट्ठवण मणोवईकाए ॥१॥ पृथिव्यादीनां संघट्टादि न करोति ९, अजीवसंयमः पुस्तकचर्मपञ्चकादीनामनुपयोगो यतनया परिभोगो वा हिरण्यादित्यागो वा १०, प्रेक्षासंयमा स्थानादि यत्र करोति तत्र चक्षुषा प्रेक्ष्य रजोहरणादिना प्रमायं च कुर्यात् ११, उपेक्षासंयमो व्यापाराव्यापारविषयतया द्वेधा-तत्र सदनुष्ठाने सीदतः साधुनुपेक्षेत-प्रेरयेदित्यर्थः, गृहिणस्तु आरम्भे सीदत उपेक्षेत न
॥१२७॥
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सप्तदश संयमस्थानानि
आवश्यक-IN व्यापारयेत् १२, प्रमार्जनासंयमः पथि पादयोर्वसत्यादेश्च विधिना प्रमार्जनं १३, अविशुद्धभक्तोपकरणादित्यागः परिष्ठापनानियुक्तेरव- संयमः १४, अकुशलानां मनोवाकायानां निरोधः कुशलानां च उदीरणा मनोवाकायसंयमः १५, एतदेवाह-'पुढवाइयाण चूर्णिः ।।
जाव य पंचेंदियसंजमो भवे तेसिं । संघट्टणाइ न करे तिविहेणं करणजोएणं ॥ १॥ अजीवेहिवि जेहिं गहिएहि असंजमो ॥ १२८॥
हवइ जइणो । जह पोत्थदूसपणए तणपणए चम्मपणए य ॥ २॥ गंडी कच्छवि मुट्ठी संपुडफलए तहा छिवाडी य । एवं पोत्थयपणयं पण्णत्तं वीयराएहिं ॥ ३ ॥ बाहल्लपुहुत्तेहिं गंडीपोत्थी उ तुल्लगो दीहो। कच्छवि अंते तणुओ मज्झे पिहुलो मुणेयहो ॥ ४॥ चउरंगुलदीहो वा वट्टागिह मुडिपोत्यओ अहवा । चउरंगुलदीहोच्चिय चउरस्सोवावि विण्णेओ ॥५॥ संपुडओ दुगमाई फलगावोच्छं छिवाडिमेताहे । तणुपत्तूसियरूवो होह छिवाडी बुहा बेंति ॥ ६॥ दीहो वा हस्सो वा जो पिडुलो होइ अप्पबाहुल्ले । तं मुणियसमयसारा छिवाडिपोत्थं मणतीह ॥७॥ दुविहं च दसपणयं समासओ तंपि होइ नायवं । अप्पडिलेहिपणयं दुप्पडिलेहं च विष्णेयं ॥ ८॥ अप्पडिलेहियदसे तूली उपहाणगंच नायवं । गड्डवहाणालिंगणि मसूरए चेव पोचमए ॥९॥ परहवि कोयवि पावार णवयए तहा य दाढिगालीओ । दुप्पडिलेहियदूसे एयं बीयं भवे पणगं ॥ १० ॥ पल्हवि हत्थुत्थरणं कोयवओख्यपूरिओ पडओ। दढिगालि धोयपोती सेस पसिद्धा भवे मेया॥ ११ ॥ तणपणयं पुण भणियं जिणेहिं जियरायदोसमोहेहिं । साली वीही कोदवरालग रण्योतणाई च ॥ १२ ॥ अलएलगाविमहिसी मिगाणमइणं च पंचमं होइ । तलिगा खल्लग वज्झे कोसग कत्ती य बीयं तु ॥ १३ ॥ अह विअडहिरबाई ताइ न गिण्हह असंजमो साहू । ठाणाइ जत्थ चेते पेहपमजित्तु तत्थ करे ॥१४॥ एसा पेहुवपेहा पुणो य दुविहा उ होइ नायबा । वावारावावारे वावारे जह उ
वओल्यानीही को
।१३।।
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आवश्यक
निर्युक्तेरवचूर्णिः ।
॥ १२९ ॥
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गामस्स || १५ || एसो उविक्खगो हू अधावारे जहा विणस्संतं । किं एयं नु उवेक्खसि दुविहार वेत्थ अहिगारो ॥ १६ ॥ वावारुवेक्ख तहियं संभोइय सीयमाण चोए चोएई इयरंपी पावयणीयमि कर्जमि ॥ १७ ॥ अधावार उवेक्खा नवि चोएह गिर्हितु सीतं । कम्मे बहुविहेसुं संजम एसो उवेक्खाए ॥ १८ ॥ पाए सागारिए अपमजितावि संजमो होइ । ते पमअंते असागारिए संजमो होइ ॥ १९ ॥ पाणेहिं संसत्तं मत्तं पाणमवावि अविसुद्धं । उवगरणपत्तमाई जं वा अरि होजाहि ॥ २० ॥ तं परिठवणविहीए अवहट्ट संजमो भवे एसो । अकुसलमणवइरोहे कुसलाण उदीरणं जं तु ॥ २१ ॥ मणव संजम एसो काए पुण जं अवस्सकअंमि । गमनागमणं भवई तओवउत्तो कुणइ संमं ।। २२ ।। तब कुम्मस्सव सुसमाहियपाणिपायकायस्त । हवई य कायसंजमो चिट्ठतस्सेव साहुस्स ||२३|| ' इत्याद्याथ त्रयोविंशतिगाथा अन्यकर्त्तृक्यः । ओरालियं च दिवं मणवकाएण करणजोएणं अणुमोयणकारवणे करणेणऽद्वारसाबंभं ॥ १ ॥
मूलतो द्विधाऽब्रह्म - औदारिकं तिर्यग्मनुष्याणां दिव्यं च भवनवास्यादीनां मनोवाक्कायकरणं त्रिधा, योगेन त्रिविधेनैवानुमोदनकारणकरणेन निरूपितं अत्रह्माष्टादशधा, इयं भावना - औदारिकं स्वयं न करोति मनसा ३ नान्येन कारयति मनसा ३, कुर्वन्तं नानुमोदते मनसा ३, ९, एवं वैक्रियमपि १८ ।
उक्तिणाए संघाडे अंडे कुम्मे य सेलए । तुंबे य रोहिणी मल्ली मागंदी चंदिमा इय ॥ १ ॥ दावद्दवे उदगणाए मंडुक्के तेयली इय । नंदिफले अवरकंका ओयने सुंसु पुंडरिया ॥ २ ॥ दवदवचारेऽपमज्जियं दुपमज्जियेऽइरित सिज्ज आर्सेणिए । राइणियैपरिभासिय थेरै भूओघाई य ॥ १ ॥
अष्टादश
अब्रह्मस्था
नानि
एकोन
विंशतिः
ज्ञाताध्यय
नानि
॥ १२९ ॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरव
चूर्णि: ।
॥ १३०
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कोण पिट्ठमंसिंएंऽभिक्खमोहारी । महिकरेण करोईरेण अकालसैंज्झायकारी या ॥ २ ॥ ससरक्खपाणिपाए सहकरो कलहझंझकारी य । सूरप्पमाणभोती वीसइमे एसणासमिए ॥ ३ ॥
समाधिश्वेतसः स्वास्थ्यं मोक्षमार्गावस्थितिर्न समाधिरसमाधिस्तस्य स्थानान्याश्रयास्तान्युच्यन्ते द्रुतं २ चारित्वं प्रपतनादिनात्मनोऽन्य सच्चानां चासमाधिकारणत्वादसमाधिस्थानं, एवमन्यत्रापि ज्ञेयं १, अप्रमार्जितस्थाननिषीदनादि २, दुःप्रमार्जितस्थानादि ३, अतिरिक्तशय्या ४, अतिरिक्तासनसेवनं ५, रत्नाधिकः - आचार्योऽन्यो वा श्रुतपर्यायादिभिर्वृद्धस्तस्य ' परिभासी 'ति परिभवकारी ६, स्थविरा:- आचार्या गुरवस्तान् ज्ञानादिभिरुपहन्ति स्थविरोपघाती ७, भूतोपघाती अनर्थकेन्द्रियोपघाती ८, ' संजलण 'ति मुहूर्ते २ रुप्यति ९, 'कोहण 'त्ति सकृत् क्रुद्धः स्यात् १०, ' पिट्ठमंसिए 'ति पराङ्मुखस्यावज्ञां भणति ११, अभीक्ष्णमभ्याख्यानोदाहारी यथा दासस्त्वं चौरो वा अभीक्ष्णं, यद्वा शङ्कितं तनिशङ्कितं भणति एवमेवेति १२, ' अहिगरण करोदीरण 'त्ति अधिकरणादि करोति अन्यान् कलहयति यन्त्रादीनि वोदीरयति १३, अकाले स्वाध्यायकारी च १४, ॥ २ ॥ सह सरजस्केन ससरजस्कः, अस्थण्डिलात् स्थण्डिलं सङ्क्रामन्न ' प्रमार्जयति, ससरजस्कपाणिभ्यां भिक्षां गृह्णन्ति, अथवा अनन्तरहि ( न्तर्हि )तायां पृथिव्यां निषीदनादि कुर्वीत ससरजस्कपाणिपादः १५, शब्दकरोऽसङ्खडशब्दं करोति, विकालेऽपि महता शब्देनोल्लपति १६, 'कलहकरे 'ति तत्करोति येन कलहः स्यात् १७, झंझादस्तकारी १८, सूरप्रमाणभोजी उदितादारभ्यास्तं यावद्भोजी १९, एषणा असमितोऽनेषणां न परिहरति ॥ २० ॥
विंशतिरसमाधि
स्थानानि
॥ १३० ॥
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आवश्यकनिर्युक्तेरव
चूर्णिः । ॥ १३१ ॥
एकवीसाए सबलेहिं, बावीसाए परीसहेहि, तेवीसाए सूयगडज्झयणेहिं, चउवीसाए देवेहि, पंचवीसाए भावणाहिं, छव्वीसाए दसाकप्पववहाराणं उद्देसणकालेहि, सत्तावीसविहे अणगार- विंशतिः चरित्ते अट्ठावीसविहे आयारप्पकप्पे, एगणतीसाए पावसुयपसंगेहिं, तीसाए मोहणियठाणेहि,
शवला एगतीसाए सिद्धाइगुणहिं, बत्तीसाए जोगसंगहेहिं ( सत्रम्)
तंजह उ हत्थकम्मं कुछते मेहुणं च सेवंते। राई च भुंजमाणे आहाकम्मं च मुंजते ॥ १॥ तत्तो य रायपिंडं कीयं पामिच्च अभिइदं छेज्ज । भुजते सबले ऊ पञ्चक्खियऽभिक्ख जइ य ॥ २ ॥ छम्मासमंतरओ गणा गणं संकर्म करेंते य। मासभंतर तिण्णि य दगलेवा ऊ करेमाणो ॥ ३ ॥ मासभंतरओ वा माइठाणाई तिन्नि करेमाणे । पाणाइवाय उर्टि कुवंते मुसं वयंते य ॥४॥ गिण्हते य अदिण्णं आउट्टि तह अणंतरहियाए । पुढवीय ठाणसेजं निसिहियं वावि चेतेह ॥ ५ ॥ एवं ससणिद्वाए ससरक्खाचित्तमंतसिललेलं। कोलावासपट्टा कोलघुणा तेसि आवासो ॥६॥ संडसपाणसबीओ जाव उ संताणए भवे तहियं । ठाणा चेयमाणो सबले आउट्टियाए उ ॥ ७॥ आउट्टि मूलकंदे पुप्फे य फले बीयहरिए य । भुंजते सबलेए तहेव संवच्छरस्संतो ॥ ८॥ दस दगलेवे कुवं तह माइहाण दस य बरिस्संतो। आउट्टिय सी उदगं वग्धारियहत्यमत्ते य ॥ ९॥ दवीए भायणेण व दीयतं भत्तपाणं घेत्तूणं । भुंजह सबलो एसो इगवीसो होइ नायवो ॥ १०॥
इत्यादि गाथा दश, शवलचारित्रनिमित्तत्वास्करकीकरणादयः क्रियाविशेषाः शबला उच्यन्ते. तद्यथा-हस्तकर्म स्वयं IN॥ १३१ ॥
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एक
आवश्यक नियुक्तेरव
चूर्णिः । ॥१३२॥
विशतिः शवला:
| कुर्वन् परेण वा कारयन् शवलः १, एवमतिक्रमव्यतिक्रमातिचारमैथुनं सालम्बनः सेवमानः २, रात्रिभोजनं दिवा गृह्णति | दिवा भुङ्क्ते इत्यादि चतुर्भङ्ग्यामतिकमादिषु शवल: सालम्बनो दोषो यतनया ३ आधाकर्म ४ राजपिण्ड ५ क्रीत ६ प्रामित्य ७ अभ्याहृत ८ आच्छेद्यभोजी ९ अभीक्ष्णं प्रत्याख्याय २ भुञ्जानः१. षण्मासान्तर्गणाद्गणसङ्कम कुर्वन् अन्यत्र ज्ञानाबर्थात् मासान्तस्त्रीन् १२ दकलेपानुत्तरन् अथवा त्रीणि मातृस्थानानि प्रच्छादनादीनि कुर्वन् १३, 'आउट्टि' उपेत्य पृथिव्यादिप्राणातिपातं कुर्वन १४ मृषां वदन १५ अदत्तं गृहन् १६ अनन्तहितायां सचित्तायां पृथिव्यां स्थानं कायोत्सर्गः शय्यां शयनं नैषेधिकी निषदनं कुर्वन् सस्निग्धोदकेन ससरस्का[सरजस्का] पृथिवीरजसः 'चित्तमंतसिला' सचेतना शिलेत्यर्थः, 'लेलू' सचेतनो लेष्ट्र: कोला: घुणाः तेषामावासः, घुणखइयं कहूं, तत्थ ठाणाई करेमाणे सबले, एवं सह अंडाईहि जं तत्थवि ठाणाइ एमाणो सबले १८ आउट्टिाए मूलाई झुंजते सबले १८ वरिसस्संतो दस दगलेवे दस य माइट्ठाणाई कुणमाणे सबले १९-२०, सीउदगवग्धारिअहत्थमत्तेण गलंतेति मन्नइ, एवं दहीए गलतीए भायणेण व दिजंतं घेत्तण भुंजमाणे सबले २१ एवं दशानुसारेण शवलस्वरूपमुक्तं, सनहणिकारस्त्वेवमाह
वरिसंतो दस मासस्स तिन्नि दगलेवमाइठाणाई । आउट्टिया करेंतो वहालियादिण्णमेहुण्णे ॥१॥ निसिभत्तकम्मनिवपिंडकीयमाई अभिक्खसंवरिए । कंदाइ भुंजते उदउल्लहत्थाह गहणं च ॥ २ ॥
सच्चित्तसिलाकोले परविणिवाई ससिणिद्ध ससरक्खो । छम्मासंतो गणसंक्रमं च करकंममिइ सवले ॥ ३ ॥ व्याख्या पूर्वोक्तानुसारेण कार्या, नवरमचिरावनौ नवीनपृथिव्यां स्थानं ॥ १-३॥
॥ १३२॥
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आवश्यक निर्युक्तेरव
चर्णिः
द्वाविंशतिः परीषहाः।
॥१३३॥
खुहापिवासासीउण्डं दंसाचेलारइत्थीओ। चरियानिसीहिया सेज्जा अक्कोसवहजायणा ।। १ ।।
अलाभरोगतणफासा मलसकारपरीसहा । पण्णा अण्णाणसंमत्तं इइ बावीस परीसहा ॥ २ ॥ 'दंस 'त्ति दंशमशकादिभिर्दश्यमानोऽपि न ततः स्थानादपगच्छन्न च तानिवारयेत् , 'अचेल'त्ति अमहाधनमूल्यानि खण्डितानि जीर्णानि च वासांसि धारयेत् , 'अरइ'त्ति विहरतस्तिष्ठतो यद्यरतिरुत्पद्यते तथापि धर्मारामरतेनैव भवितव्यं, 'इत्थीउ 'तिन स्त्रीणामङ्गादिचेष्टाश्चिन्तयेत् , 'चरिय 'त्ति निर्ममत्वः प्रतिमासं चर्यामाचरेत् , 'निसीहिय 'त्ति निषद्यावसति: रुयादिवर्जिा तां सेवेत, शय्यासंस्तारको मृदुकठिनादिभेदेनोच्चावचस्तत्र नोद्विजेत् , आक्रोशो-अनिष्टवचस्तत् श्रुत्वा न कुप्येत् , वधस्ताडनं पाणिपाादिभिस्तत्सम्यक सहेत, परुषकुशदर्भादितणस्पर्श सम्यक सहेत, 'सक्कारपरीषहे 'त्ति सत्कारो-भक्तपानवस्वादीनां परतो योगः, पुरस्कारः सद्भूतगुणोत्कीर्तनादि, तत्रासत्कारितोऽपुरस्कृतो वा न द्वेष यायात , प्रज्ञा-बुसतिशयस्तत्प्राप्तौ न गर्वमुद्हेत् , 'अनाण 'त्ति कर्मविपाकजादज्ञानानोद्विजेत् , असंमत्तं असम्यक्त्वपरीषहोऽहमृत्कृष्टतपास्तथापि धर्माधर्मात्मदेवनारकादिभावाने अतो मृषा समस्तमेतदिति, तत्रैवमालोचयेत्-समस्ति परं सम्यग्ज्ञानाद्यभावान्नेक्ष्यते ॥ १-२ ॥
_पुंडरीयकिरियट्ठाणं आहारपरिण्णपञ्चक्खाणकिरिया य । अणगारअद्दनालंद सोलसाई च तेवीस ॥ १ ॥ अमूनि सूत्रकृताङ्गाध्ययनानि ॥१॥
भवणवणजोइवेमाणिया य दस अट्ठपंचएगविहा । इह चउवीसं देवा केइ पुण बेंति अरिहंता ॥१॥ १२
॥ १३३॥
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विंशतिः भावनाः।
बावश्यक- इरियासमिए सया जए उवेह मुंजेज व पाणभोयणं | आयाणनिक्खेवदुगुंछ संजए समाहिए संजमए मणोवई ॥ १ ॥ नियुक्तरव-|| अहस्ससच्चे अणुवीइ भासए जे कोहलोहमयमेव वज्जए । स दीहरायं समुपेहिया सिया मुणी हु मोसं परिवजए सया ॥ २ ॥ सयमेव उ पूर्णिः । उग्गहजायणे घडे मतिमं निसम्म सह भिक्खु उग्गहं । अणुण्णविय भुजिज पाणभोवणं जाइत्ता साहमियाण उगह ॥ ३ ॥ आहारगुत्ते
अविभूसियप्पा इस्थि निज्झाइ न संथवेजा । बुद्धो मुणी खुड्डकहं न कुज्जा धम्माणुपेही संधए बंभचेरं ॥ ४ ॥ जे सदरूवरसगंधमागए ॥१३४ ॥
फासे य संपप्प मणुण्णपावए । गिहीपदोसं न करेज पंडिए स होह दंते विरए अकिंचणे ॥ ५ ॥
इर्यासमितता प्रथमा भावना सदा यत उपयुक्तः सन् , ' उवेह ति अवलोक्य भुञ्जीत च पानभोजनमिति द्वितीया, आदाननिक्षेपौ-पात्रादेग्रहणमोक्षौ आगमप्रसिद्धौ जुगुप्सते-करोति आदाननिक्षेपजुगुप्सक इति तृतीया, संयतः साधुः समाहितः सन् 'संजमए मणोवह 'त्ति अदुष्टं मनः प्रवर्तयेदिति चतुर्थी, एवं वाचमपि पञ्चमी इत्याद्यवतभावना: ॥१॥ अहास्यात्सत्यो हास्यपरित्यागादित्यर्थः, हास्यादनृतपरित्यागादित्यर्थः, हास्यादनृतमपि बयात १, अनुविचिन्त्य-पर्यालोच्य माषेत २, यः क्रोधं लोभं भयमेव वा त्यजेत् , स दीर्घरात्रं-मोक्षं समुपेक्ष्य-सामीप्येन दृष्ट्वा स्यात् मुनिरेवं मृषां परिवर्जयेत् सदा, द्वितीयव्रतभावनाः ॥२॥ स्वयमेव प्रभुं प्रभुसंदिष्टं वा अधिकृत्यावग्रहयात्रायां प्रवर्ततेऽनुविचिन्त्यान्यथा अदत्तं गृहीयात् १, 'घडे महमं निसम्म 'त्ति तत्रैव तृणाद्यनुज्ञापनायां चेष्टेत मतिमानाकर्ण्य प्रतिग्रहप्रदातृवचनं २, सदा भिक्षुरवग्रहं स्पष्टमर्यादयानुज्ञाप्य भजेत ३, अनुज्ञाप्य गुरुमन्यं वा भुञ्जीत पानभोजनं ४, याचित्वा साधर्मिकाणामवग्रह स्थानादि कार्य ५, तृतीयव्रतभावनाः ॥३॥ आहारगुप्तः स्यानातिमात्रं स्निग्धं वा भुञ्जीत १, अविभूषितात्मा स्यात् २,
॥ १३४ ।।
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आवश्यक
निर्युरवचूर्णः ।
॥ १३५ ॥
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स्त्रियं न निरीक्षेत 'न संथविज्ज 'त्ति न रूपादिसंसक्तां वसतिं सेवेत ४, बुद्धो मुनिः क्षुद्रकथां न कुर्यात् स्त्रीकथां खीणां चेति ५, धर्मानुप्रेक्षी संधत्ते ब्रह्मचर्यचतुर्थव्रतभावनाः ॥ ४ ॥ यः शब्दरूपरसगन्धानागतान् स्पर्शाच संप्राप्य मनोज्ञपापकान् इष्टानिष्टान् गृद्धिं प्रद्वेषं न कुर्यात् पण्डितः, स भवति दान्तो विरतोऽकिञ्चनः, पञ्चममहाव्रत भावनाः ५ ॥ ५ ॥
अथ मान्यगाथाभिर्द्वादशभिरेता एवाह - पणवीस भावणाओ पंचण्ड महवयाणमेयाओ । भणियाओ जिणगण हरपुजेहिं नगर सुमि ॥ १ ॥ इरियासमिह पढमा आलोहयभत्तपाणभोई य । आयाणमंड निक्खेत्रणा य समिई मवे तहया || २ || मणसमिई वयसमिई पाणाश्वार्यमि होंति पंचेव । हास परिहार अणुवीइ भासणा कोहलोहमयपरिण्णा ॥ ३ ॥ एस मुसावायरस अदिन्नदाणस्स होंतिमा पंच । पहुसंदिट्ट पहू वा पढमोग्गह जाए अणुवीई ॥ ४ ॥ उग्गहणसील बिइया तत्थोग्गेण्हेज उग्गहं जहियं । तणडगलमल्ल गाई अणुण्णवेज तहिं तहियं ॥ ५ ॥ तच्चमि उग्गहं तु अणुण्णवे सारिउग्गहे जाउ । तावइय मेर काउं न कप्पई बाहिरा तस्स || ६ || भावण चउत्थ साइम्मियाण सामण्णमण्णपाणं तु । संघाडगमा
भुंजे अणुवि उ ॥ ७ ॥ पंचमियं गंतूणं साइम्मियउग्गहं अणुण्णविया । ठाणाई चेएजा पंचेन अदिष्णदाणस्स ॥ ८ ॥ बंभवयभावणाओ णो अहमायापणीयमाहारे । दोच्च अविभूषणा ऊ विभूसवत्ती न उ हवेजा ॥ ९ ॥ तच्चा भावण इत्थी इंदीया मणहरा ण णिज्झाए । सयणासणा विचित्ता इत्थिपसुविवजिया सेजा ।। १० ।। एस चउस्था ण कहे इत्थीण कहं तु पंचमा एसा । सदा रूवा गंधा रसफासा पंचमी एए ॥ ११ ॥ रागदोसविवजण अपरिग्गहभावणा उ पंचेव । सवा पणवीसेया एयासु न वट्टियं जं तु ॥ १२ ॥
पञ्च
विंशतिः भावनाः ।
।। १३५ ।।
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सप्त
चर्णि
गुणाः
आवश्यक
दस उद्देसणकाला दसाण कप्पस्स होंति छच्चैव । दस चेव बबहारस्स व होति सवेवि छबीसं ॥१॥ नियुक्तेरवबयछक्कमिदियाणं च निग्गहो भावकरणसच्चं च । खमयाविरागयाविय मणमाईणं निरोहो य ॥१॥
विंशतिः कायाण छक्क जोगाण जुत्तया वेयणाऽहियासणया । तह मारणतियऽहियासणा य एएऽणगारगुणा ॥ २॥
अणगारव्रतषट्कं, इन्द्रियाणां च निग्रहः, भावसत्य-भावलिङ्ग [ अन्तः शुद्धिः, करणसत्यं-बाह्यं प्रत्युपेक्षणादि, क्षमा-क्रोध॥१३६॥
निग्रहः, मनोवाकायानामकुशलानामकरणं कुशलानामपि(म)निरोधश्च ॥ १॥ कायानां पृथिव्यादीनां षट्कं सम्यगनुपालन- || एकोनविषयतयाऽनगारगुणाः, संयमयोगयुक्तता, वेदना-शीतादिलक्षणा तदभिसहना च, तथा मारणान्तिकाभिसहना च
|त्रिंशत्पापकल्याण मित्रबुद्ध्या मारणान्तिकोपसर्गसहनमेतेऽनगारगुणाः ॥ २॥
श्रुतानि च। सस्थपरिण्णा लोगो विजओ य सीओसणिज समत्तं । आवंति धुवविमोहो उवहाणसुय महापरिण्णा य ॥ १ ॥ पिंडेसेंणसिज्जि" रियो भासजाया य स्थपाएंसा । उग्गहँपडिमा सत्तेक्वतयं भावेणविमुत्तीओ ॥ २ ॥ उपायमणुपौयं आरूणा तिविहमो णिसीहं तु । इय अट्ठावीसविहो आयारपकप्पणामोऽयं ॥ ३ ॥ अट्ठनिमित्तंगाई दिव्वुप्पायतैलिक्खभोमं च । अंग्रेसरलक्खणवणं च तिविहं पुणोक्ककं ॥ १ ॥
सुत्तं विची" तह वत्तियं च पावसुय अउणतीसविहं । गंधवनवेत्थु आउं धणुवेयेसंजुतं ॥ २ ॥
पापोपादानं श्रुतं पापश्रुतं, अष्ट निमित्ताङ्गानि दिव्यं-व्यन्तराद्यदृट्टहासादिविषय, उत्पातं-सहजरुधिरवृष्ट्यादिविषयं, N] अन्तरिक्षं-ग्रहभेदादिविषयं, भौम भूकम्पादिविषयं, अङ्ग-अङ्गविषयं, व्यञ्जनं मषादि तद् विषयं, लक्षणं-करचरणरेखादि । १३६ ॥
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आवश्यक- निर्युक्तेरव
चूर्णिः । ॥ १३७॥
त्रिंशन्मो
हनीयस्थानानि ।
Songs
तद्विषयं, तथा चाङ्गादिदर्शनतस्तद्विदो भावि सुखादि जानन्त्येव, त्रिविधं पुनरेकैकं दिव्यादि ॥ १ ॥ सूत्रं वृत्तिस्तथा वार्तिकं चेत्यनेन भेदेन-'दिवाईण सरूवं अंगविवजाण होइ सत्तण्हं । सुत्तं सहस्स लक्खो अवित्ती तह कोडि वक्खाणं ॥१॥ अंगस्स सयसहस्सं सुत्तं वित्ती अकोडि विनेआ । वक्खाणं अपरिमिअं एमेव य वत्तियं जाण ॥२॥' एकोनत्रिंशद्विधं, अष्टौ मूलमेदार, सूत्रादिभेदेन त्रिगुणिताश्चतुर्विंशतिः, तथा गान्धर्व १ नाट्यं २ वास्तुविद्या ३ आयुर्वेदः ४ धनुर्वेदश्च ५॥२॥
वारिमज्झेवगाहित्ता तसे पाणे विहिंसई । छाएउ मुहं हत्थेणं अंतोनायं गलेरैवं ॥ १॥ सीसावेढेण वेद्वित्ता संकिलेसेण मारण् । सीसमि जे य आइंतुं दुहमारेण हिंसह ॥ २॥ बहुजणस्स नेयारं दीवं ताणं च पाणिणं । साहारणे गिलाणंमि पहू किच्चं न कुवइ ॥३॥ साहू अकम्भ धम्माउ जे भंसेइ उवैट्टिए । णेयाउयस्स मग्गस्स अवगारंमि वट्टई ॥ ४ ॥ जिणाणं णतणाणीणं अवणं जो उ भासह । आयरियउवज्झाए खिसई मंदबुद्धीए ॥ ५ ॥ तेसिमेव य णाणीणं समं नो पडितप्पह । पुणो पुणो अहिगरणं उप्पाए तित्थमेयए । ॥ ६ ॥ जाणं आइंमिए जोए पउंजइ पुणो पुणो। कामे वमित्ता पत्थेद इहऽनभविए इथे ॥ ७॥ भिक्खूर्ण बहुसुएऽइंति जो भासइऽबहुस्सुंए । तहा य अतवस्सी उ जो तवस्सित्तिऽहं वैए ॥ ८॥ जायतेएण बहुजणं अंतोधूमेण हिंसँइ । अकिच्चमप्पणा काउं कयमेएण भासइ ॥ ९ ॥ नियडवहिपणिहीए पलिउंचे साइजोगजुत्ते य । बेइ सवं मुसं वैयसि अक्खीणझंझए सयौं ॥१०॥ अद्धाणंमि पवेसित्ता जो धणं हर पाणिणं । वीसभित्ता उवाएणं दारे तस्सेव लुब्भैइ ॥ ११॥ अभिक्खमकुमारेहिं कुमारेऽहंति भास: । एवं अभयारीवि बंभयारित्तिऽहं वैए ॥ १२ ॥ जेणेविस्सरियं णीए वित्ते तस्सेव लुमई । तप्पभावुट्ठिए वावि अंतरायं करेइ“ से ॥१३॥ सेणावई पसत्थारं भत्तारं वावि हिंसई । रहस्स वावि निगमस्स नायगं सेविमेव वा ॥ १४ ॥ अपस्समाणो पस्सामि अहं देवेत्ति वा
१३७॥
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आवश्यक- नियुक्तरवचूर्णिः ।।
त्रिंशन्मोहनीयस्थानानि।
॥१३८॥
वए । अवण्णेणं च देवीणं महामोहं पकुबह ।। १५ ॥ एमपण.
सामान्येनाष्टविधं कर्म मोहः, विशेषेण चतुर्थी प्रकृतिर्मोहनीयं, तस्य स्थानानि-निमित्तानि मोहनीयस्थानानि, पाणियमझेऽवगाहित्ता तिवेण मणसा पाएण अक्कमित्ता तसे पाणे-इत्थीमाई विहिंसइ, 'से' तस्स महामोहमुप्पाएमाणे भवसयदुहवेअणिजं अप्पणो महामोहं पकुवइ, एवं सर्वत्र क्रिया १, छाएउ-दकिउं मुहं 'हत्येणं' ति उपलक्षणमिदं अन्नाणि कन्नाईणि, 'अंतोनायं' ति हिअए सुदुक्खमारडतं, 'गलेरवं' गलएण अच्चंतं रडतं २, 'सीसावेढेण' अल्लचमाइणा केणइ वेढित्ता ३, 'संकिलेसेण' तिवासुभपरिणामेण मारणं ३, सीसंमि जे य आहेतु-मोग्गराइणा दुहमारेण हिंसइ ४ 'बहुजणस्स नेआरं' ति-पहुं हंति दीवं समुदंमि व बुङमाणाणं संसारे आसासस्थाणभूताणं च-अन्नपाणाइणा ताणकारिणं पाणिणं तं च हिंसइ, ५, साधारणे-सर्वसामान्ये ग्लाने प्रभु-समर्थोऽपि सन् कृत्यमोषधयाचनादि महाघोरपरिणामो न करोति ६,[तहा 'साई' अकम्म-बलात्कारेण धम्माओ-सुपचरितमेयाओ जे मंसेतित्ति-विनिवारे ७] नैयायिकस्य मार्गस्य ज्ञानादेरुपस्थितं साधुमाक्रम्य धर्माद् यो भ्रंशयति स स्वस्थान्येषां चापकारे वर्तते ८, जिनानामवर्ण भाषते ९, आयरियउवज्झाए पसिद्धे 'खिसह' निदइ जच्चाईहिं, अबहुस्सुया वा एए तहावि अम्हेवि एएसिं तु समासे किंपि कहंचि अवहारियत्ति मंदबुद्धीए ' बालेति मणियं होइ १०, आचार्योपाध्यायानां ज्ञानिनामिति गुणोपलक्षणं सम्यग् न प्रतितर्यते(पति) आहारोपकरणादिना ११, पुनः पुनरधिकरणं ज्योतिषादि उत्पादयति-कथयति १२, तीर्थमेदको ज्ञानादिमार्गविराधकः १३, जानन् आधर्मिकान् योगान् वशीकरणादिलक्षणान् पुनः २ प्रयुते १४, पुनः २ कामानिच्छा-
माक्रम्य धम्मरणधम्माओ
रियउवज्झाए
॥१३८ ॥
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आवश्यक
निर्युकेरव चूर्णः । ।। १३९ ।।
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मदनरूपान् ' वमित्त 'त्ति त्यक्त्वा प्रव्रज्यामभ्युपगम्य प्रार्थयते ऐहिकानामुष्मिकांश्च १५, अभिकलणं २ बहुस्सुर्हति जो मास, बहुस्सुण अत्रेण वा पुट्ठो स तुमं बहुस्सुओ, आमंति भणे तुण्डिको वा अच्छा, साहवो चैव बहुत म
स तव विभासा १६, जाततेजसाऽग्निना बहुजनं गृहादौ क्षिप्त्वान्तर्धूमेन हन्ति १७, अक्रत्यं-प्राणातिपातादि आत्मना कृत्वा कृतमनेनेति भाषते १८, निकृतिरन्यथाकरणरूपा माया, उपधिरन्यथाकृतं येन प्रच्छाद्यते, प्रणिधिरेवम्भूतान् धरति ( एवम्भूत एव चर ) अनेन प्रकारेण 'पलिउंचह ' वंचेइ १९, साइजोगजुत्ते य'त्ति अशुममनोयोगयुक्तश्च, बेह-भणति वयसि (इ) समाए २०, 'अक्खीणझंझए सय 'त्ति सदाऽक्षीणकलहः २१, अध्वनि पथि ' पवेत्ति 'त्ति नीत्वा विश्रम्भेन यो धनं सुवर्णादि हरति प्राणिनां २२, विश्वासोपायेनातुलां प्रीतिं कृत्वा पुनर्दारे - कलत्रे तस्यैव लुभ्यति, २३, अभिक्खणं अकुमारे संते कुमारे अहंति मासइ २४, एवं अभयारिंमि विभासा २५, येनैवैश्वर्यं नीतो वित्ते तस्यैव लुभ्यति २६, तप्पभावुट्ठिए वाचि-लोगसंमयत्तणं पत्ते तस्से व केणइ पगारेण अंतरायं करेइ २७, सेनापति प्रशास्तारं राजानं भर्त्तारं वा स्वामिनं हन्ति, रस्स वावि निगमस्स जहासंखं नायगं सिडिमेव वा, निगमो - वणिसंघाओ ॥ २८ ॥ अपश्यम्मायया पश्यामि [देव]देवोऽहमिति वा वक्ति २९, ' अवनेणं च देवाणं' जहा किं तेहिं कामगदहेहिं जे अम्हाणं न उनगरिंति, महामोहं पकुवर कलुसि अचित्तत्तणओ ॥ ३० ॥
पडिसेण संठाणवण्णगंधरसफासवेए य । पणपणदुपणद्वविधा इगती समकाय संगरुहा ॥ १ ॥
प्रतिषेधेन संस्थानवर्णगन्धरसस्पर्शवेदानां पञ्चपञ्चद्विपञ्चाष्टत्रि मेदानामेकत्रिंशत्सिद्धादिगुणाः स्युः, ' अकायसंग -
एकत्रिंशत् सिद्धादि
गुणाः ।
॥ १३९ ॥
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द्वात्रिंश
द्योग
आवश्यक- निर्यक्रव-IP
। ।। १४०॥
चूर्णिः ।
| सनहा।
रुहति अकायोऽशरीरा, असङ्ग:-सङ्गवर्जितः, अरुहोऽजन्मा, एभिः सह एकत्रिंशत्स्युः। अथ प्रकारान्तरेण सिद्धादिगुणानाह-
अहवा कंमे णव दरिसणमि चत्तारि आउए पंच । आइम अंते सेसे दोदो खीणभिलावेण इगतीसं ॥१॥ 'कर्मणि' कर्मविषये क्षीणाभिलापेन एकत्रिंशद्गुणाः स्युः, तत्र दर्शनावरणीये नवमेदा:-क्षीणचक्षुर्दर्शनावरणइत्यादिरचनया, चत्वारि आयुष्के, पश्च आये ज्ञानावरणीयाख्ये कर्मणि, 'अंते'त्ति अन्तराये पश्चैत्र, शेषे कर्मणि बेदनीयमोहनीयनामगोत्रलक्षणे द्वौ द्वौ भेदौ भवतः, क्षीणसातावेदनीयः, क्षीणासातावेदनीयः क्षीणदर्शनमोहनीया, क्षीणचारित्रमोहनीयः, क्षीणशुभनाम, क्षीणाशुभनाम, क्षीणनीचैगोत्रः क्षीणोच्चैर्गोत्रः॥१॥ आलोयणा निरवलावे आवईसु दढधम्मया। अणिस्सिओहाणे य सिक्खा णिप्पडिकम्मया ॥१२८८ अण्णायया अलोहे य तितिक्खा अजवे सुई। सम्मदिट्टी समाही य आयारे विणओवएँ ॥१२८९॥ "धिई मई य "संवेगे "पणिही सुविहि संवरे । अत्तदोसोवसंहारो सबकामविरत्तिया ॥१२९०॥ पैञ्चक्खौंणा विउस्सग्गे अप्पमौए लवॉलवे । झाणसंवरजोगे य उदए मारणंतिए ॥ १२९१ ॥ संगाणं च परिण्णा पायच्छित्तकरणे इय । आराहणा य मेरेणंते बत्तीसं जोगसंगहा ॥ १२९२ ॥
योगा:-मनोवाकायव्यापारास्ते चाशुभप्रतिक्रमणाधिकारात्प्रशस्ता एवं गृह्यन्ते, तेषां शिष्याचार्यगतानामालोच. नादिना प्रकारेण सग्रहणानि योगसङ्ग्रहाः प्रशस्तयोगसङ्ग्रहनिमिचत्वादालोचनादय एव तथोच्यन्ते, शिष्येणाचार्याय सम्य
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आवश्यक नियुक्तेरव-
चूर्णिः । ॥ १४१॥
योगसञ्चहे आलोच. नायां अट्टन दृष्टान्तः
| गालोचना दातव्या १, आचार्योऽपि प्रदत्तायामालोचनायां निरपलाप: स्यात् , नान्यस्मै कथयेदित्यर्थः २, आपत्सु द्रव्या- दिभेदासु दृढधर्मता कार्या ३ अनिश्रितोपधाने च यत्नः कार्यः ४ शिक्षा आसेवितव्या सा च द्विप्रकारा, प्रहणशिक्षा |
आसेवनाशिक्षा च ५, निष्प्रतिकर्म शरीरता सेवनीया, न पुनर्नागदत्तवदन्यथा वर्तितव्यं ६, तपसि अज्ञातता कार्या ७, | अलोभश्च कार्य: ८ तितिक्षा-परीषहादिजयः सा कार्या ९, आर्जवं कर्त्तव्यं १०, शुचिना संयमवता भवितव्यं ११, सम्य.
ग्दृष्टि:-सम्यग्दर्शनशुद्धिः कार्या १२ समाधिः-चेतःस्वास्थ्यं स कार्यः १३, आचारोपगः स्यान मायां कुर्यात् १४, तथा विनयोपगः स्यात्, न मानं कुर्यात् १५, धृतिप्रधाना मतिधृतिमतिः सा च कार्या १६ संवेगः कार्यः १७, प्रणिधि. स्त्याज्या, माया न कार्या १८, सुविधिः कार्यः १९, संघस कार्यो न तु न कार्य इति व्यतिरेकोदाहरणमत्र भावि २०, आत्मनो दोषोपसंहारः कार्यः । २१, सर्वकामविरक्तता भावनीया २२, मूलगुणोत्तरगुणविषयं प्रत्याख्यानं कार्यमिति द्वारद्वयं २३-२४ व्युत्सगों द्रव्यभाव मेदभिन्नः कार्यः २५, अप्रमादा कार्यः २६ ‘लवालवे 'त्ति कालोपलक्षणं क्षणे २ सामाचार्यनुष्ठानं कार्य २७, ध्यानसंवरयोगश्च कार्यः ध्यानमेव संवरयोगः २८, वेदनोदये मारणान्तिकेऽपि न क्षोभः कार्यः २९, सङ्गानां च ज्ञपरिज्ञाप्रत्याख्यानपरिज्ञाभेदेन परिक्षा कार्या ३०, प्रायश्चित्तकरणं कार्य ३१, आराधना मरणान्ते मरणकाले कार्या ३२ ।। आद्यद्वारमाहउज्जेणि अट्टणे खलु सीहगिरिसोपारए य पुहइवई । मच्छियमल्ले दूरस्लकूविए फलिहमल्ले य ॥१२९३
उज्जयिनीपुरी तस्यां जितशत्रुनृपोऽनाख्योऽतिबलवान् [मल्लः], सोपारकपत्तने सिंहगिरिनामा पृथिवीपतिर्मल्लवल्लभः,
॥१४१॥
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आवश्यक-IM प्रस्यन्दमट्टनस्तत्र गत्वा जयपताको गृहाति, राज्ञा स्वराज्यस्य परामवं मत्वा वसां पिबन्तं मात्स्यिकमेकं बलवन्तं दृष्ट्वा आनीय योगसकहे निर्युक्तेरव
पोषयित्वा स नियोधितोऽट्टनेनाऽजितोऽदृनस्ततः स्वस्य हानि मत्वा प्रतिमल्लार्थमटन् दल्लवियाग्रामे गतः, तत्र चैकेन निरपलाचूर्णिः
पाणिना हलं वाहयन् अन्येन 'फलिह 'त्ति वपन्यस्ता ( कर्पासं) उत्पादयन् हारका( कूरघटमाना )हारोऽल्पपुरीषो हालिक एको दृष्टः । स चानीतः पोषितो नियुद्धं शिक्षितः काले सोपारके आनीतः। आधदिने फलही(लिह)मल्लो मात्स्यि
पतायां ॥१४२॥ कमल्लश्च युद्धे एको(ऽप्य)पराजितो, द्वावपि स्वाश्रये गतोऽट्टनेन दृष्ट्वा फलहि(लिह)मल्लः सजीकृतः मात्स्यिकेन नृपप्रहित
धनमित्रसंमर्दकेभ्यः सम्यग् नोक्तं, द्वितीयदिने तो समयुद्धौ, तृतीयदिने फलिहि(ह)मल्लेन मासिकः फलहि(लिह)ग्राहेण गृहीतो
दृढमित्रमृता, स सत्कारितः, यथाऽट्टनस्तथाचार्याः जयपताका-आराधनापताका, साधुमल्ल अपराधाः प्रहाराम, यस्तान् गुरोरा
दृष्टान्तः। लोचयति स निःशल्यो निर्वृतिपताकां गृह्णाति ॥ १२९३ ।।। दंतपुरदंतचक्के सञ्चवदी दोहले य वणयरए । धणमित्त धणसिरी य पउमसिरी चेव दढमित्तो ॥१२९४।।
दन्तपुरे दन्तचक्रो राजा, प्रिया सत्यवती, तस्या दोहदो दन्तप्रासादविषयोऽभूत् । राज्ञा वनचरास्तदर्थमादिष्टाः, शापितं च पुरे उचित मूल्यं ददामि, यो न ददाति तस्य विनाशं करोमि, तत्रैव पुरे धनमित्रो वणिग् द्वे भार्ये धनश्रीपद्मश्रियौ, अन्यदा तयोः कलहे धनश्रीः प्राह किं त्वमेवं गर्विता, यथा सत्यवत्यास्तथा तव किं प्रासादो जायमानोऽस्ति', पाश्रिया तथैव प्रतिज्ञाते ज्ञात्वा धनमित्रो दुःखी तन्मित्रेण पृष्ट उक्तवान् सर्व, ततो दृढमित्र: पुलिन्द्रप्रायोग्यं मणिकाऽलक्तकादि लात्वाऽटव्यां गतः तृणपिण्डान्तदन्तान् क्षिप्त्वा शकटैरानयन् पुरप्रवेशे गोकृष्टतणपूलकपाताहन्तदर्शने आरक्षकैधृत्वा | NU१४२॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरवचूर्णिः ।
॥ १४३ ॥
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राज्ञोऽर्पितः राज्ञा वध्य आदिष्टो, धनमित्र आगत्य पादपतितः प्राह-स्वामिन्! मया एते आनायिताः, स पृष्टः प्राह अहमेतं न जानामि, शज्ञाऽभये दत्ते सत्यमुक्तं, गुरुणैवं सुहृदे ( शिष्याय ) मान्यं निरपलापिना ।। १२९४ || उज्जेणीए धणवसु अणगारे धम्मघोस चंपाए । अडवीए सत्थविब्भम वोसिरणं सिज्झणा चैव ॥ १२९५ द्रव्यापद्युदाहरणं-उञ्जयिन्यां धनवसुसार्थपः, स चम्पां गन्तुमनाः समार्थश्वचाल । तेन सह धर्म्मघोषमुनिश्चलितो so सार्थे पुलिन्दैर्विलोडिते नष्टजनेन सममटव्यां प्रविष्टः जनः कन्दमूलाद्यत्ति जलं च पिवति, मुनिर्जनेन दीयमानं तदनिच्छन् शिलातले भक्तं प्रत्याख्याय केवली सिद्धः ।। १२९५ ।।
महुराए उण राया उणावंकेण दंडमणगारे । वहणं च कालकरणं सक्कागमणं च पव्वज्जा ॥ १२९६ ॥
मापदि मथुरायां यमुनो राजा, यमुनावङ्कमुद्यानं, तत्र यमुनाकूर्परे दण्डो अनगार आतापयन् राज्ञा दष्टः, फलेनाहतः सर्वैः प्रस्तरराशिः कृतः कालगतः सिद्धः, विमानेन शक्रागमनं शक्रेणोक्तं यदि प्रव्रजसि तदा मुञ्चामि प्रव्रजितो अभिगृह्णाति ऋषिषातस्मरणे न भोक्तव्यः, तेन भगवता एकशोऽपि नाहारितं, तस्य द्रव्यापत्, दण्डस्य भावापत् ।।१२९६ ।। | पाडलिपुत्त महागिरि अज सुहत्थी य सेट्ठि वसुभूती । वइदिस उज्जेणीए जियपडिमा एलकच्छं च ।। १२९७ श्री स्थूलभद्रशिष्यो महागिरिसुहस्तिनौ, महागिरिः सुहस्तिने गणं दत्वा व्युच्छिन्ने जिनकल्पे गच्छप्रतिबद्धो जिनकल्पपरिकर्म्म करोति, अन्यदा तौ पाटलीपुत्रं गतौ तत्र वसुभूतिः श्रेष्ठी धर्म श्रुत्वा श्रावको जातः, तत्कुटुम्बवोधार्थं सुहस्तिन
योगसाहे आपदि
धर्म
तायां अनिश्रितोपधा
नतायां च दृष्टान्ताः ।
॥ १४३ ॥
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आवश्यक
नियुक्तरव चूर्णिः ।
योगसनहे शिक्षायां | स्थूलमद्रदृष्टान्तः।
॥१४४॥
स्तद्गृहे उपदिशतो महागिरि भिक्षार्थमागतमभ्युतिष्ठतो वसुभूतिना पृष्टं कि युष्माकमपि गुरवः ?, सुहस्ती तेषां गुणसंस्तवं करोति, द्वितीयेऽसि तद्गृहेऽपूर्वकरणं दृष्ट्वा सुहस्ती उपालब्धो महागिरिणा, ततो द्वावपि वैदेशी भुवं गतो, तत्राजि(तत्र जीवत्स्वामिप्रतिमा वन्दित्वा महागिरिजाप्रपदपर्वतं वन्दारुरेडकाक्षपुरं गतः, तत्पूर्व नाम्ना दशार्णपुरमासीत्, गजाप्रपदे भक्तं प्रत्याख्याय महागिरिः स्वर्गतः । सुहस्ती उज्जयिन्यां जिन(जीवत् )प्रतिमां वन्दनाय प्राप्तः (गतः) । तन्मुखानलिनीगुल्माध्ययनं श्रुत्वा भद्रासूरवन्तिसुकुमालः प्रतिबुद्धः, आर्यमहागिरीणामनिश्रितं तपः ॥ १२९७ ।। खितिव(च)णउसभकुसग्गंरायगिहं चंपपाडलीपुत्तं। नंदे सगडाले थूलभद्दसिरिए वररुची य॥१२९८॥
अतीताद्धायां क्षितिप्रतिष्ठितं पुरं जितशत्रू राजा, तत् क्षीणवास्तुकं मत्वा वास्तुपाठकैरन्यनगरस्थानं विलोकयति स्म, चनकक्षेत्रमेकं पुष्पितं दृष्ट्वा तत्र चनकपुरं स्थापितं, कालेन तदपि क्षीणं मत्वाऽरण्येऽन्याजव्यं वृषभं दृष्ट्वा तत्र ऋषभपुरं निवेशितं, कालेन तस्मिन्नपि क्षीणे कुशस्तम्बं दृष्ट्वा कुशाग्रपुरं कृतं, तस्मिन् पुनरग्निना जलति सति प्रसेनजिन्नृपेण राजगृहं स्थापित, प्रसेनजितः पुत्रः श्रेणिको राह, तस्मिन् मृते, तत्सुतेन कोणिकेन चम्पा राजधानी कृता, कोणिके मृते तत्पुत्रण उदायिनृपेण पाटलीपुरं स्थापितं । तत्र उदायिमरणे नवभिनन्दै राज्यं कृतं, नवमे नन्दे राज्यं कुर्वति कल्पकमन्त्रिवंशप्रसूतशकटालो मन्त्री, तस्य द्वौ पुत्रौ स्थूलभद्रः सिरी(श्री)यकश्च, यक्षाद्या सप्त पुत्र्यः, पण्डितो वररुचिः, कपटेन शकटाले विपन्ने नन्देन दीयमानाममात्यमुद्रां नेच्छति स्म स्थूलभद्रः, स वैराग्यात्सम्भृतयतिपार्श्वे प्रवजितः, पूर्व कोशागृहे द्वादशवर्षी(ख)स्थितोऽपि स भगवांस्तयाऽक्षोम्यो जातः । शिक्षा प्रति योगाः सङ्ग्रहीताः स्थूलभद्रस्वामिना ॥ १२९८ ॥
॥१४४॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरवचूर्णिः ।
।। १४५ ।।
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पइठाणे नागवसू नागसिरी नागदत्त पबज्जा । एगविहा सट्टाणे देवय साहू य बिल्लागरे ॥१२९९ ॥ प्रतिष्ठानपुरे नागवसुः श्रेष्ठी, नागश्रीः मार्या, तयोः पुत्रो नागदत्तो निर्विण्ण कामभोगः प्रव्रजितः स जिनकल्पप्रतिमाधराणां पूजासत्कारं दृष्ट्वा आचार्यैवर्यमाणोऽपि जिनकल्पं प्रतिपद्य एकत्र व्यन्तरगृहे प्रतिमया तस्थौ, देवतया सम्यग्दृष्ट्या मा विनश्यत्विति स्त्रीरूपेण यक्षपूजाच्छद्मना मोदका आनीय दत्ताः, स तान् भक्षयित्वा रात्रौ प्रतिमां स्थितः अतिसारो जातः, देवतया आचार्याणामुक्तं स शैक्षोऽमुकत्र, साधवः प्रेषिता आनीतः, देवतयोक्तं बिल्वगिरं ( बीजपूरगर्भ ) दीयतां, दत्ते स्थितं पोट्टं शिक्षितश्च नैवं कार्य ६ ।। १२९९ ।।
कोलंबिय जियसेणे धम्मवसू धम्मघोस धम्मजसे । विगयभया विणयवई इड्डिविभूसा य परिकम्मे ॥१३०० कौशाम्ब्यामजितसेनो राजा, धारिणी देवी, तत्र धर्मवसुगुरोः शिष्यों धर्म्मघोषधर्मयशसौ, विगतभया महत्तरा विनयवती तस्याः शिष्यिणी, तया भक्तं प्रत्याख्यातं सङ्खेन महता ऋद्धिसत्कारेण निर्यामिता मृता, तौ द्वावपि शिष्यौ परिकर्म कुर्वतः ।। १३०० ॥ इतथउज्जेणिवंतिवद्धणपालगसुयरट्ठवद्धणे चेव । धारिय(णि) अवंति सेणे मणिप्पभा वच्छगातीरे ॥। १३०१ ॥
उञ्जयिन्यां चण्डप्रद्योतस्य द्वौ भ्रातरौ पालको गोपालकच, गोपालकः प्रव्रजितः, पालकस्य द्वौ पुत्रौ अवन्तिवर्द्धनो राष्ट्रवर्द्धनश्च तयो राजयुवराजपदवीं दवा पालकः प्रव्रजितः, राष्ट्रवर्द्धनस्य भार्या धारिणी, तस्याः पुत्रोऽवन्तिसेनः,
१३
योगसम निष्प्रति
कर्मतायां
अज्ञातके
च दृष्टान्ताः नि०गा०
१२९९१३०१
।। १४५ ।।
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आवश्यक
निर्युक्तेरवचूर्णिः।
॥ १४६ ॥
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अन्यदा राज्ञा धारिणीं दृष्ट्वा अध्युपपन्नेन दूत्या प्रार्थिता, तयोक्तं भ्रातुरपि न लञ्जसे । राज्ञा भ्रातरि इते सार्थेन सह कौशासागता, सा गर्ममनाख्याय महत्तरान्ते प्रवजिता, काले सुतो जातः, नाममुद्राभरणैः समं राजाङ्गणे मुक्तः, अजितसेनेन दृष्ट्वा राजगृहे मणिप्रभ इति च नाम कृतः, राज्ञि मृते मणिप्रभो राजा जातः, अवन्तिवर्द्धनस्तु पश्चात्तापादयन्तिसेनस्य राज्यं दत्वा प्रव्रजितः । स च मणिप्रभं दण्डं याचते, अदाने सर्वत्र लेन कौशाम्बीं प्रधावितः । तौ च द्वावपि मुनी परिकर्मसमाप्तौ एकः प्राह-यथा विनयवत्या ऋद्धिस्तथा ममाप्यस्तु नगरे भक्तं प्रत्याख्यातं, द्वितीयो धर्मयशा विभूषामनिच्छन् कोशाम्ब्या उज्जयिन्याश्चान्तरा वत्सकातीरे गिरिगुहायां भक्तं प्रत्याख्यातवान् तदाऽवन्तिसेनेन कौशाम्बी रुद्धा जनो भयार्त्तः कश्चिद्धर्मघोषस्यान्तेऽपि न याति स इष्टार्थमलभमानः कालगतः । मातृसाव्या स्वरूपं उक्त्वा सुतौ युद्धानिवारितौ द्वावपि भ्रातरौ मिलितौ कञ्चित्कालं तत्र स्थित्वा उज्जयिन्यां चलितौ, माताऽपि समहत्तरा चलिता, मार्गे ज्ञात्वा द्वापि नृपौ साधोर्दिने दिने पूजां चक्रतुः स्थित्वा स कालगतः, यथा धर्मयशमा तथा कर्त्तव्यं ।। १३०१ ॥ साए पुंडरीए कंडरिए चेव देविजसभद्दा | सावत्थिअजियसेणे कित्तिमई खुड्डड्गकुमारो ॥ १३०२ ॥ जसभद्दे सिरिकंता जयसंधी चेव कण्णपाले य । नट्टविही परिओसे दाणं पुच्छा य पव्वज्जा | १३०३ ॥ सुनुवाइ सुहु गाइ सुटु नच्चियं साम सुंदरि ! | अणुपालिय दीहराइयओ सुमिणते मा पमायए ।। १३०४ साकेते पुण्डरीको नृपः कण्डरीको युवराजः, तस्य देवी यशोभद्रा तां पुण्डरीको दृष्ट्वा प्रार्थितवान्, युवराजो हतः, सा
योगस
अलोभ
तायां
दृष्टान्तः
नि०गा०
१३०२१३०४
॥ १४६ ॥
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आवश्यकनियुक्तेरवचर्णिः।
| योगसनहे तितिक्षायां दृष्टान्त: नि०गा. १३०५१३०६
॥१४७॥
तथैव श्रावस्त्यां गता, तत्राऽजितसेन आचार्यः, कीर्तिमती महत्तरा, तस्याः पार्श्व सा प्रवजिता, यथैव धारिणी नवरं पुत्र| स्तया न त्यक्तः, क्षुल्लककुमार इति नाम कृतं, प्रव्रजितो यौवने उनिष्क्रमितुकामो मातृमहत्तराचार्योपाध्यायवचोभिरष्टा- चत्वारिंशद्वर्षाणि स्थितः, पश्चाद्विसृष्टो रत्नकम्बलनाममुद्राधादाय पुण्डरीकान्ते समागात् । रात्रौ नाटथे प्रभाते किश्चिनिद्राप्रमादपरां नर्तकीमुद्दिश्य धोरिकिन्या(नक्या) पठितं 'सुटु' इत्यादि श्रुत्वा क्षुल्लककुमारो रत्नकम्बलं, यशोभद्रो युवराजः कुण्डलं, श्रीकान्ता सार्थपा हार, जयसन्धिरमात्यः कटं, कर्णपालो मिण्ठोऽड्डशं ददुः, सर्वाणि लक्षमूल्यानि, आहूय प्रातः पृच्छा, सद्भावकथने नृपः प्रीतः, सर्वे क्षुल्लककुमारानुलग्नाः प्रबजिताः, सर्वैरपि लोमस्त्यक्तः ।। १३०२-१३०४ ॥ इंदपुर इंददत्ते बावीस सुया सुरिंददत्ते य । महुराए जियसत्तू सयंवरो निव्वुईए उ ॥ १३०५ ॥ अग्गियए पचयए बहुली तह सागरे य बोद्धवे । एगदिवसेण जाया तत्थेव सुरिंददत्ते य ॥१३०६॥
इन्द्रपुरे इन्द्रदत्तो राजा तस्येष्टदेवीनां द्वाविंशतिः पुत्राः, एकाऽमात्यसुता तदुद्भवः सुरेन्द्रदत्तः, तदिनजाताः चत्वारो | दासाः अग्निकः पर्वतको बहुलिकः सागरकः । इतश्च मथुरायां जितशत्रू राजा, तस्य सुता निवृत्तिर्नाम राज्यप्रदा, तदर्थ स्वयंवरमहे इन्द्रदत्तः ससुतो गतः । ज्येष्ठपुत्रः श्रीमाली तत्प्रमुखा द्वाविंशतिरपि राधावेधेऽसमर्याः, तेषु चतुर्पु दासेषु विघ्नं कुर्वत्स्वन्यस्मिंश्चासिव्यग्रकरनरद्वये भयं कुर्वति, अष्टचक्राणां छिद्राणि ज्ञात्वा अन्यत्र मनोऽकुर्वता सुरेन्द्रदत्तेन राधावामाक्षिवेधश्चक्रे, एषा द्रव्यतितिक्षा, यथा कुमारस्तथा साधुः दासाश्चत्वारः कषायाः, कुमारा द्वाविंशतिः परीषहा नरौ द्वौ रागद्वेषौ,
१४७॥
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योगसङ्घहे
आर्जवे
चूर्णि।
आवश्यक- राधावेधः आराधना निवृत्तिः सिद्धिः ॥ १३०५-१३०६ ॥ निर्युक्तेरव- चंपाए कोसियजो अंगरिसी रुहए य आणत्ते । पंथग जोडजसाविय अब्भक्खाणेय संबोही॥१३०७॥
चम्पायां कौशिकार्य उपाध्यायस्तस्य द्वौ शिष्यौ, अङ्गो भद्रकत्वादङ्गऋषिरिति नाम कृतं, रुद्रको प्रन्थिच्छेदका, उपा॥१४८॥ ध्यायेन तौ दार्थ प्रस्थापितो, अङ्गऋषिरटवीतो दारुभारं लात्वा प्रत्येति, रुद्रको दिने यत्र तत्र स्थित्वा विकाले बहिर्गतो
दृष्ट्वा आयान्तमङ्गऋर्षि चिन्तयति स्म उपाध्यायो मां ताडयिता इति ज्योतिर्यशा वत्सपाली पुत्रस्य पन्थकस्य भक्तकं दत्त्वा दारुभारेण एति । रुद्रकेण सा मारिता गर्तायां, तद्भारमादायान्यमार्गेणागत्योपाध्यायस्योचे-तव सुन्दरशिष्येण ज्योतिर्यशा मारितेति । स आगतो निष्कासितो वने शुभाध्यवसायेन जाति स्मृत्वा केवली, देवरुक्तं यथैतेनाऽभ्याख्यानं दत्तं, स चिन्तयन् प्रत्येकबुद्धो जातः ब्राह्मणो ब्राह्मणी च प्रव्रज्य सर्वेऽपि सिद्धाः॥१३०७ ॥ सोरिअसुरंबरेवि असिट्टी अधणंजए सुभद्दा य। वीरे अ धम्मघोसे धम्मजसेऽसोगपुच्छा य॥१३०८॥
शौर्यपुरे सुराम्ब(रव)रो यक्षस्तत्र श्रेष्ठी धनञ्जया, भार्या सुभद्रा, ताभ्यां सुसम्ब(स्व)रयक्षाय पुत्रार्थ महिषशतं मानितं, दैवात्पुत्रो जातः । अत्रान्तरे श्रेष्ठिना श्रीवीरान्तिकेऽणुव्रतप्रतिपत्तिः, यक्षेण मार्गितो दयया न दत्ते निजशरीरं शतखण्डं
कृत्वा दास्ये इति कतिपयेषु खण्डेषु कृतेषु यक्षः प्रतिबुद्धः । एष देशशुचिः, श्रीवीरस्य शिष्यौ धर्मघोषधर्मयशसौ अशोक 41 वृक्षाधो गुणवतः तच्छाया न परावर्त्तते, स्वामी पृष्टः कथयति स्म ॥ १३०८ ॥
शुचौ च दृष्टान्तो निगा १३०७१३०८
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आवश्यक-
योगसगृहे
नियुक्तेरव
चूर्णिः । ॥ १४९॥
सोरियसमुद्दविजए जन्नजसे चेव जन्नदत्ते य। सोमित्ता सोमजसा उंछविही नारदुप्पत्ती ॥ १३०९ ॥ | अणुकंपा वेयवो मणिकंचण वासुदेव पुच्छा य । सीमंधरजुगबाहु जुगंधरे चेव महबाहु ॥ १३१०॥
शौर्यपुरे समुद्रविजयो राजा आसीत्तदा यज्ञयशास्तापसस्तद्भार्या सौमित्रा, तस्याः पुत्रो यज्ञदत्ता, सोमयशा वधूः, तत्पुत्रो नारदः ते उञ्छवृत्तिं कुर्वते, एकान्तरे भुञ्जते च, अन्यदा नारदमशोकवृक्षाधो मुक्त्वा उञ्छार्थ गताः । अतो वैता. व्याज्जृम्भकामरैर्बजद्भिवधिना स्वनिकायच्युतं ज्ञात्वा अनुकम्पया[छाया]स्तम्भिता, प्रतिनिवृत्तैस्तैः स गृहीत्वा प्रज्ञप्त्याचा विद्या: पाठितः, स मणिपादुकाभ्यां काश्चनकण्डिकया नभसा हिण्डति, अन्यदा द्वारकां गतो वासुदेवेन पृष्टः किं शौचं, उत्तरदानासमर्थ उत्थाय पूर्वविदेहेऽगात् । तत्र सीमन्धरस्वामी युगबाहुवासुदेवेन पृष्टः किं शौचमिति, स्वामी प्राह-सत्य शौचं तेन ज्ञातं, पुनरपरविदेहेऽगात , तत्र युगन्धरस्वामी महाबाहुवासुदेवाग्रे तथैवाकथयत् । श्रुत्वा द्वारकामागतः कृष्णायोक्तवान् सत्यं शौचं, पुनः पृष्टः किं सत्यं ?, तदजानानश्चिन्तयन् जाति स्मृत्वा प्रत्येकबुद्धो जाता, प्रथममध्ययनं वदति स्म, एवं शौचेन योगाः सङ्गृहीताः॥ १३०९-१३१०॥ सागेयम्मि महाबल विमलपहे चेव चित्तकम्मे य । निप्फत्ति छट्टमासे भुमीकम्मस्स करणं च ॥१३११
साकेते महाबलो राजा, आस्थाने दूतं पृष्टवान् किं नास्ति मम यदन्येषां राज्ञामस्ति, तेन चित्रसमेत्युक्ते सा कारिता | तत्र द्वौ चित्रकरौ विमलः प्रभास(भाकर)श्व, तयोरीकृत्य चित्रायाऽपिता, यवनिकान्तरितौ चित्रयतः एकेन षण्मास्या
समग्दृष्टी च दृष्टान्ती | निगा १३०९१३११
M॥ १४९॥
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आवश्यक
चूर्णिः ।
॥१५
॥
चित्रं कृतं एकेन भूमिः कृता । राज्ञा विलोकनाय यवनिकापनीता कुड्ये प्रतिविम्बितं चित्रं दृष्ट्वा तुष्टेन तथैव स्थापितं, एवं सम्यक्त्वं विशुद्ध कर्त्तव्यं ॥ १३११ ॥ नयरं सुदंसणपुरं सुसुणाए सुजससुबए चेव । पव्वज सिक्खमादी एगविहारे य फासणया ॥१३१२॥
सुदर्शनपुरे शिशुनागो गृहपतिस्तद्भार्या सुयशास्तौ श्राद्धौ, तत्सुतः सुव्रतो गर्भादपि संविग्नो यौवने आपृच्छ्य प्रव्रजित एकाकिविहारप्रतिमा प्रतिपत्रः, शक्रप्रशंसायां 'फासणय 'त्ति सुरै नोपसर्गश्चालितोऽपि न चलितो यावस्सिद्धः ॥१३१२॥ पाडलिपुत्त हुयासण जलणसिहा चेव जलणडहणे य। सोहम्मपलियपणए आमलकप्पाइणहविही॥१३१३ ___ पाटलिपुत्रे हुताशनो ब्राह्मणः श्राद्धो भार्या ज्वलनशिखा तत्पुत्रौ ज्वलनदहनौ, चत्वारोऽपि प्रव्रजिता; ज्वलन अजुर्दहनो | मायी, द्वावपि मृतौ सौधर्म शकस्याभ्यन्तरपर्षदि सुरौ पञ्चपल्यायुःस्थिती, श्रीवीरस्याग्रे आमलकल्पायामम्बशालवने चैत्ये नाट्यविधि दर्शयतः, एक ऋजुरूपाणि करोति, अन्यस्य विपरीतं जातं, गौतमेन स्वामी पृष्टो मायादोषमकथयत्तस्य ॥१३१३।। उज्जेणी अंबरिसी मालगतह निंबए य पवजा।संकमणं च परगणे अविणय विणए य पडिवत्ती।१३१४।
उज्जयिन्यामम्बर्षिविप्रः श्राद्धो मालुका प्रिया निम्बः पुत्रः, मालुकायां मृतायां पुत्रेण समं प्रव्रजिता, पुत्रस्य दुर्विनीतत्वेनोजयिन्यां पञ्चसु प्रतिश्रयशतेषु स हिण्डितो निष्कासितश्च, संज्ञाभूमौ पितरोदने पृष्ट-तात ! किं रोदनं ! त्वया मे नाम कृतं निम्ब ( तव निम्ब इति नाम कृतं न निरर्थकम् ) इति, पुनर्विनीततायां तेषु तेषूपाश्रयेषु साधवस्तोषिताः ॥ १३१४ ॥
योगसबहे समाधौ आचारे विनयोपगते च दृष्टान्ताः नि०गा. १३१२
BA
॥ १५०॥
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आवश्यक- निर्युक्तेरव
चूर्णिः । ॥१५१॥
नयरी य पंडुमहुरा पंडववंसे मई य सुमई य । वारीवसभारुहणे उप्पाइय सुट्टियविभासा ॥ १३१५॥
योगसबहे नगरी पाण्डुमथुरा, तत्र पश्च पाण्डवा अभवन् , तद्वंशेऽन्यो राजा, तत्पुन्यौ मतिसुमती, उज्जयन्तचैत्यवन्दनाय
धृतौ संवेगे सुराष्ट्रायामायान्त्यौ वारिवृषभः [नाम ] प्रवहणं तदारुह्य उत्पाते भिन्ने बहने लोके स्कन्दरुद्रादिस्मृतिपरे संयमयोगेन
च दृष्टान्ती महासत्यौ सिद्धे, सुस्थितलवणाधीशेन महिमा चक्रे, देवोद्योतेन तत्प्रभासतीथं जातं ॥ १३१५ ॥
निगा. चंपाए मित्तपभे धणमित्तेधणसिरी सुजाते य । पियंगूधम्मघोसे य अरक्खुरी चेव चंदघोसे य ।१३१६॥
१३१५
१३१७ चंदजसा रायगिहे वारत्तपुरे अभयसेण वारत्ते । सुसुमार धुंधुमारे अंगारवई य पजोए ॥ १३१७ ॥
चम्पायां मित्रप्रभो राजा, धारिणी देवी, धनमित्रः सार्थवाहो, भार्या धनश्रीः तत्पुत्रोऽत्र कुले सुजात इति जनप्रशंसायां सुजातनामा सुरूपः, ते श्रावकाः, तत्रैव धर्मघोषोऽमात्यस्तस्य प्रियङ्गुः भार्या सा दृष्ट्वा सुजातं तल्ललितानि करोति, दृष्ट्वा. ऽमात्येन विनष्टमन्तःपुरमिति मत्वा कूटलेखप्रयोगश्चके उपायेन मारणाय, राज्ञा सोऽरक्खुरीपूर्या चन्द्रध्वजनृपान्ते प्रहितः, तेन लेखो दर्शितः, सुजातेनोक्तं यजानाति तत्कुरु, तेन प्रच्छन्नं संस्थाप्य चन्द्रयशा भगिनी दत्ता, सा वग्दोषिणी सुजातेन प्रतिबोधिता भक्तं प्रत्याख्याय देवोऽभूत् , अवधिना ज्ञात्वाऽऽगत्य शिलोचयेन नृपं भापयित्वा देवः सुजातं स्वस्थाने मुमोच, सुजातः नृपमापृच्छय मातृपितृसहितः प्रव्रज्य सिद्धा, मन्त्री राज्ञा निर्विषयः कृतो भ्रमन् वैराग्याद्राजगृहे स्थविरान्ते प्रव्रज्य बहुश्रुतो विहरन् वार्च(वारत्त)कपुरि गतः, तत्रामयसेनो राजा वात्र(वारत्त)कोऽमात्यस्तद्गृहे भिक्षार्थ गतः, स घृतादिपायसस्था- Id॥ १५॥
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योगसद्महे प्रणिधौ दृष्टान्त: | निगा १३१८
आवश्यक-IN लाद्विन्दौ पतिते नेच्छति, वारत्तकोऽवलोकनगतो दृष्ट्वा तत्र मक्षिकाद्युपप्लवं शुमाध्यवसायेन जाति स्मृत्वा देवतादत्तलिङ्गः नियुक्तेरव- प्राबजत् , वास्त्रकर्षिविहरन् सुंसुमारपुरमायातः, तत्र धुन्धुमारो राजा तस्याङ्गारवती सुव्रता श्राविका, रुष्टपरिव्राजकया चित्रे चूर्णिः ।। लिखित्वोजयिन्यां चन्द्रप्रद्योतस्य दर्शिता, दुतेन बलात् मागितेऽदाने सर्वबलेन रुद्धं सुंसुमारपुरं तेन, निमित्तज्ञेन बाला |
भापितास्ते भीता नागगृहस्थितवारत्तकमूले गता, मा विभ्यतेति मुनिनोक्ते राज्ञस्तेनाभयमुक्तं, युद्धे बद्धश्चण्डप्रद्योतः, महा॥१५२॥
शासनमिति कृत्वा दत्ताङ्गारवती तस्मै, प्रद्योतेन पृष्टा प्रिया, प्रिये ! त्वत्पित्राहं कथं जितः, तया मुनिवचः कथितं, दृष्ट्वा प्रद्योतः प्राह-वन्दे निमित्तकऋषि, साधुनोपयुक्तेन ज्ञातं स्खलितं, पश्चानिवृत्तः, चन्द्रयशासुजातधर्मघोषवारत्तकैः संवेगेन योगाः सगृहीताः ॥ १३१६-१३१७ ॥ भरुयच्छे जिणदेवो भयंतमिच्छे कुलाण भिक्खू या पइठाण सालवाहण गुग्गुल भयवं च णहवाहणे १३१०
भरुकच्छे नभोवाहनो राजा कोशसमृद्धः, इतः प्रतिष्ठाने शालवाहनो राजा बलसमृद्धः, स नभोवाहनं रुन्धति स्म, कोशसमृद्धोऽरिमस्तकाद्यानयिनां द्रव्यलक्षं दत्ते, एवं क्षीणवला प्रतिवर्ष याति, अन्यदा तन्मन्त्री निर्विषयकृतोऽहमिति | कपटेन निर्गत्य गुग्गुलभारमादाय भरुकच्छमायातो देवकुले गुग्गुलभगतानामाहमिति स्वं ख्यापयन् तस्थौ, राज्ञा सत्कृत्य मन्त्री चक्रे, राज्यं पुण्यलभ्यमितिच्छद्मना देवकुलकूपादिषु सर्व द्रव्यं तेन विश्वास्य निष्ठापितं पश्चात्शालवाहनेन जितः। एष द्रव्यप्रणिधिरमात्यस्य । भावप्रणिधौ तत्रैव जिनदेवाचार्यः भदन्तमित्रकुणालाख्यौ द्वौ भ्रातरौ मिथु, राजकुले वादे
॥ १५२ ॥
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आवश्यकनियुक्तेरव
चूर्णिः ।
संवरे
॥ १५३ ॥
जितौ जिनदेवेन, पश्चात्तत्सिद्धान्तपठनार्थ मायया तन्मले प्रवजितौ, पठन्तौ गोविन्दवत भावतः साधू जातौ ॥१३१८॥ योगसबहे बारवई धेयरणी धन्नंतरि भविय अभविए विजे। कहणा य पुच्छियंमि य गइनिइसे य संबोही ॥१३१९॥ अनुक
| म्पायां सो वानरजूहबई कंतारे सुविहियाणुकंपाए । भासुरवरबोंदिधरो देवो वेमाणिओ जाओ ॥ १३२० ॥ यथा सामायिकनियुक्तौ ॥ १३१९-१३२०॥
आत्मदोषोवाणारसीय कोट्टे पासे गोवालभद्दसेणे य । नंदसिरी पउमसिरी रायगिहे सेणिए वीरो ॥ १३२१॥
| पसंहारेच राजगृहे श्रेणिकः श्रीवीरमपृच्छत् या देवी नाट्यविधिमुपदर्य गता का एषा १, स्वाम्याह-वाराणस्यां भद्रसेनः श्रेष्ठी, IA दृष्टान्ताः भार्या नन्दा, तत्पुत्री नन्दश्रीः, वरवर्जिता, तत्र कोष्ठकचैत्ये श्रीपार्श्वः समवसृतः, नन्दश्रीः प्रव्रजिता गोपालिकामहत्तरान्ते ||
निगा० पूर्वमुग्रविहारेण विहृत्य पश्चादवसन्ना जाता, हस्तपादादिशौचं कुर्वाणा निषिद्धा पृथगुपाश्रये स्थिताऽनालोच्य मृत्वा
१३१२. हिमवति पद्माइदे श्रीर्जाता देवगणिका, एतया संवरो न कृतः ।। १३२१ ॥
१३२२ बारवइ अरहमित्ते अणुधरी चेव तहय जिणदेवो। रोगस्स य उप्पत्ती पडिसेह अत्तसंहारो॥१३२२॥
द्वारवत्यामर्हन्मित्रः श्रेष्ठी, अनुरी प्रिया, जिनदेवः पुत्रः, सर्वे श्राद्धाः, जिनदेवस्य रोगोत्पत्तिः, वैद्यैर्मासं गृहाणेत्युक्तः स्वजननिर्बन्धे स चिन्तयति स्म गृहीते द्विगुणो बन्ध इत्यात्मदोषोपसंहारश्चक्रे, सर्व सावा प्रत्याख्यातवान् कम्भेक्षयात्प्रगुणा, प्रव्रज्यां कृत्वा शुभाध्यवसायात्सिद्धः ॥ १३२२ ॥
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Pr
आवश्यक- नियुक्तेरव
चूर्णिः । ॥१५४ ॥
उज्जणिदेवलासुय अणुरत्ता लोयणा य पउमरहो। संगयओमणुमइया असियगिरी अद्धसंकासा ॥१३२३/ योगसगृहे
उज्जयिन्यां देवलासुतो राजा, अनुरक्ता लोचना प्रिया, सा राज्ञः शिरसि पलितं दृष्ट्वाऽऽह-धर्मदूत आयात इति, सर्वकामपद्मरथं सुतं राज्ये न्यस्य प्रियायुतो राजा तापसाश्रमे तपस्वी जातः, सङ्गतको दासो मनुमतिका दासी च प्रव्रज्य कालान्तरे विरक्तउत्प्रव्रजिते, देव्या तदा गर्भो नाख्यातः । पश्चात् सुतायां सूतायां मृता देवी, पुत्री त्वर्द्धसङ्काशाख्या यौवनं प्राप्ता, श्रान्तं तायां मूलपितरं विश्राम्यति, स तस्यामनुरक्तः अन्यदा आश्लेष्टुं धावितो अन्तरा उटजकाष्ठे आपतितश्चिन्तयति-इदमिहलोके ज्ञायते । | गुणप्रत्याकिश्चिदिति प्रत्येकबुद्धो जाति स्मृत्वा सर्वकामविरक्ताख्यमध्ययनमुक्त्वा पुत्रीं साध्वीनां दचा सिद्धः, पुज्यपि सिद्धा ॥१३२३॥ ख्याने कोडीवरिसचिलाए जिणदेवे रयणपुच्छकहणा य । साएए सत्तुंजे वीरकहणा य संबोही ॥१३२४॥ उत्तरगुण मूलगुणप्रत्याख्याने ज्ञात-साकेते शत्रुञ्जयो राजा, जिनदेवः श्राद्धः, स दिग्यात्रायां गतः कोटीवर्षपुरे, तत्रानार्य
प्रत्याचिलातराजस्य रत्नादीनि ढौकितवान् , स चिलातः पृच्छति-क एताति लभ्यन्ते ?, स प्राह-अन्यराज्ये, चिलातस्य ख्याने च तत्रागमनेच्छायां राज्ञोऽमयं दापयित्वा स आनीतः श्राद्धेन, श्रीवीरागमे शत्रुञ्जयो निर्गतः, चिलातः पृच्छति क जनो दृष्टान्ताः याति १, श्राद्ध ऊचे-स एष रत्नवणिक, द्वावपि गतौ, स्वामी मावरत्नानि द्रव्यरत्नानि च वर्णयति, चिलातः प्रवजितः |नि०गा. एतन्मूलगुणप्रत्याख्यानं ॥ १३२४ ॥
१२२३
१३२५ वाणारसी यणयरी अणगारेधम्मघोस धम्मजसे।मासस्सय पारणए गोउलगंगा व अणुकंपा।१३२५॥
॥ १५४॥
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आवश्यक
निर्युक्तेश्वचूर्णिः ।
।। १५५
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arti धर्म्मघोषधयशोमुनी वर्षासु स्थितौ मासात् २ भोजिनौ, चतुर्थपारण के प्रथमायां स्वाध्यायं द्वितीयस्यामर्थपौरुषीं कृत्वा तृतीयस्यां पौरुष्यां पात्रकाण्युग्राह्य चलितौ, उष्णाभिहतौ तृषातुरौ गङ्गामुत्तरन्तौ मनसा तजलं पातुमनिच्छन्तौ उत्तीण गङ्गादेवता आवर्जिता गोकुलानि विकृत्य प्रार्थयन्ती साधुभ्यामुपयुज्य निषिद्धा, पश्चादनुकम्पया वादलं चक्रे, साधू ग्रामं प्राप्तौ एतदुत्तरगुणप्रत्याख्यानं ।। १३२५ ।।
करकंडु कलिंगेसु पंचालेसु य दुम्मुहो । नमीराया विदेहेसु गंधारेसु य णग्गती ॥ २०५ ॥ ( भा० ) सभेय इंदकेऊ वलए अंबे य पुष्फिए बोही । करकंडु दुम्मुहस्सा नमिस्स गंधाररन्नो य ॥ २०६ ( भा० ) कलिङ्गेषु काश्चनपुरे दधिवाहनपद्मावतीसुतः करकण्डू राजा स गोकुलप्रियः, तेनैको वृषभः सलक्षणः पयोभिः पोषितो युद्धकुशलो दृष्टः, पुनः कालेन वार्द्धके महाकायः पडुकैः परिधृष्यमाणो दृश्यते, ततो विषण्णचिन्तयन् सम्बुद्धः ।। २०५-६ ।
तथा चाह
सेयं सुजायं सुविभत्तसिंगं जो पासिया वसभं गोट्ठमज्झे ।
रिद्धिं अरुद्धिं समुपेहिया णं कलिंगरायावि समिक्ख धम्मं ॥ २०७ ॥ ( भा० )
श्वेतं शुक्लं सुजातं - गर्भदोषविकलं, सुविभक्तशृङ्गं विभागस्थसमशृङ्गं यो राजा दृष्ट्वा वृषभं गोष्ठमध्ये गोकुलान्तः, पुनश्च तेनैवानुमानेन ऋद्धि-समृद्धिं विभूर्ति, तद्विपरीतां चाऋद्धिं सम्प्रेक्ष्याऽसारतयाऽऽलोच्य कलिङ्गराजोऽपि समीक्ष्य पर्यालोच्य
योगसाहे
द्रव्यव्यु
त्सर्गे
दृष्टान्ताः
भा०गा०
२०५
२०७
।।। १५५ ।।
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आवश्यक-II धर्म संबुद्ध इति शेषः ॥ २०७॥ किं चिन्तयन्
योगसङ्ग्रहे निर्युक्तेरव गोटुंगणस्स मज्झे ढेकियसद्देण जस्स भजति । दित्ताविदरियवसहा सुतिक्खसिंगा सरीरेण २०८ (भा०का व्युत्सर्ग चूर्णिः । पोराणयगयदप्पो गलंतनयणो चलंतवसभोटो। सोचेव डमोवसहो पड़यपरिघट्टणं सहड। २०९।भा० Tera
दृष्टान्ताः
मा. गा. गोष्ठाङ्गणस्यान्तः, 'टेकिअसद्देण 'त्ति ढेकितशब्देन यस्य भग्नवन्तः दीप्तरोषिणोऽपि दर्पितवृषाः, सुतीक्ष्णशृङ्गाः
२०८समर्था अपि शारीरेण बलेन । २०८॥ पौराणकः गतदर्पो गतपुरातनदर्पः गलन्नयनः चलद्रुपभोष्ठश्चलद्दशनौष्ठौ वा, स एवायं वृषभोऽधुना पडुकपरिघट्टनं सहते, धिगसारा संसार इति सम्बुद्धो जातिस्मृतिमान् विहरति ॥२०९ ॥ इतः पश्चालेषु काम्पील्यपुरे द्विमुखो ( दुर्मुखो) राजा स इन्द्रकेतुं पश्यति लोकेन पूज्यमानमनेकपताकाभिरामं, पुनः प्रविलुप्यमानं पतितं चामेध्यायुपरि, सोऽपि सम्बुद्धः, तथा चाह
जो इंदकेउं समलंकियं तु दटुं पडतं पडिलुप्पमाणं ।
रिद्धिं अरिद्धिं समुपेहिया णं पंचालराया वि समिक्ख धम्मं ॥ २१० ॥ (भा०) इतो विदेहासु मिथिलायां युगबाहुमदनरेखासुतो नमी राजा ग्लानो जातः, चन्दनघर्षणे देवीनां वलयरवः, एकैककरणे उपशान्त: ज्ञात्वा, तेन दुःखेन अभ्याहतः परेलोकाभिमुखो बहूनां दोष एकस्य नेति चिन्तयन् सम्बुद्धस्तथा चाह
॥१५६ ॥
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| योगसनहे द्रव्यम्यु. त्सगें दृष्टान्ताः |भागा०
२११.
आवश्यक
बहयाण सहयं सोचा एगस्स यअसहयं। वलयाणं नमीराया, निक्खंतोमिहिलाहिवो ॥२११।। (भा०) निर्युक्तेरव-1 इतो गन्धारदेशे पुरुष(पुरिम)पुरे नग्गती राजा अणु(नु)यात्रायां गतः पश्यति चूतं कुसुमितं, तेनैका मञ्जरी गृहीता,
चूर्णिः । यावत्सैन्येन स काष्ठावशेषः कृतः, प्रत्यावृत्तेन दृष्ट्वा व्यचिन्ति, एवं राज्यश्रीः, अलमनयेति सम्बुद्धस्तथा चाह॥१५७ ॥ जो चूयरुक्खं तु मणाहिरामं समंजरिं पल्लवपुप्फचित्तं ।
रिद्धिं अरिद्धिं समुपहिया णं गंधाररायावि समिक्ख धम्मं ॥ २१२ ॥ (भा०) ते चत्वारोऽपि विहरन्तः क्षितिप्रतिष्ठितपुरे चतुरि देवकुलमायाताः, पूर्वतः करकण्डुः दक्षिणतो द्विमुख (दुर्मुख) एवं शेषावपि, यक्षश्चतुर्मुखो जाता, आबाल्यात्करकण्डोः कण्डूरस्ति तेन कण्डूयनं गृहीत्वा मसृणं [कर्णः] कण्डूयितः, तत्तेनैकत्र सङ्गोपितं दृष्ट्वा द्विमुखः (दुर्मुखः) प्राह-'जया रजंचरटुं च पुरं अंतेउरं तहा। सबमेव परिचन्न संचयं किं करेसिौ ?' ॥१॥ यावत् करकण्डुः प्रतिवचो न दत्ते तावन्नमिराह-'जवा ते पेइए रजे, कया किचकरा बहू । तेसिं किच्चं परिच्चन्ज अन्नकिच्चकरो भवं?' ॥ २ ॥ पैतृके राज्ये ते त्वया कृत्यकराः कृताः अन्यकृत्यकरः कृत्यप्रवर्तको भवान् , नग्गतिराह-'जया सवं परिचअ मोक्खाय घडसी मवं । परं गरिहसी कीस ?, अतनीसे सकारए' ॥ ३ ॥ घटसे-घेष्ट से आत्मनिःश्रेयसकारकः, तं
करकण्डुर्भणति-'मोक्खमग्गं पवण्णाणं साहूणं मयारिणं । अहियत्थं निवारन्ते, न दोसं वत्तुमरिहसि ॥ ४ ॥ रूसउ वा IN परो मा वा विसं वा परिअत्तउ । भासियवा हिया भासा सपक्खगुणकारिणी ॥५॥
१४
INT २१२
७॥
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नियुक्रवचूर्णिः ।
जहा जलंताइ(त) कट्ठाई उवेहाइ न चिरं जले। घट्टिया घट्टिया ज्झत्ति तम्हा सहह घट्टणं ॥ १३२६ ॥ | योगसनहे यथा जलन्ति काष्ठानि, उपेक्षया न चिरेणापि जलन्ति, घट्टितानि २ पुनर्झगित्येव मलन्ति, तस्माद् घट्टना:
द्रव्यव्यु| प्रेरणाः सहत ॥ १३२६ ।।
त्सर्गे सुचिरपि वंकुडाई होहिंति अणुपमज्जमाणाई। करमविदारुयाइं गयंकुसागारबेंटाइं ॥ १३२७॥
दृष्टान्ताः गजाङ्कुशाकारवृन्तानि गजानुशाकारमूलानि करमन्दिकादारूणि सुचिरं बहोः कालादपि वक्राण्यपि ' अणुपम
निगा जमाणाई' ति अनु-पश्चात् स्नेहतापादिभिः ऋजूक्रियमाणानि ऋजूनि भवन्ति । एतेषां काष्ठ खण्डत्यागो राज्यत्यागश्च
१३२६. द्रव्यव्युत्सर्गः ॥ १३२७ ॥
१३२७ | रायगिहमगहसंदरि मगहसिरी पउमसस्थपक्खेवो। परिहरियअप्पमत्तानद्वंगीयं नविय चुका ॥१३२८
अप्रमादे राजगृहे जरासन्धनृपस्य द्वे गायक्यौ मगधसुन्दरीमगधश्रियौ। मगधश्रिया दुष्टया मगधसुन्दरीनाट्यदिने तस्या मार..
दृष्टान्ताः णाय रङ्गभूमौ कर्णिकारपुष्पेषु सौवर्णिका विषभाविताः शूच्यः केसरसदृशः क्षिप्ताः, ता मगधसुन्दरीमहत्चरिकया ज्ञाताः,
नि०मा० भ्रमराः कर्णिकाराणि नाश्रयन्ति चूतेषु लीयन्ते इत्येतानि सदोषाणि प्रकटोक्तौ ग्रामणी(मेयक)त्वं स्यात्ततस्तया मङ्गलगी
१३२८स्यवसरे पठितं ॥ १३२८॥
१३२९ पत्ते वसंतमासे आमोअ पमोअए पवत्तंमि। मुत्तूण कपिणआरए भमरा सेवंति चूअकुसुमाइं ॥१३२९॥ १५८ ॥
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आवश्यक-IN नियुक्तरव
तया चिन्तितमपूर्वा गीतिका, ततो ज्ञातं सदोषाणि कर्णिकाराणीति तानि परिहृतानि अप्रमत्ततया, एवं साधुनापि प्रमादस्त्याज्यः ॥ १३२९ ॥ भरुयच्छंमि य विजए नडपिडए वासवासनागघरे। ठवणा आयरियस्त[उ] सामायारीपउंजणया॥१३३०
भरुकच्छे एक आचार्यस्तेन विजयः शिष्य उज्जयिन्यां कार्येण प्रेषितः, सोऽन्तरा ग्लानादिकार्यव्याक्षिप्तोऽकालवृष्ट्या रुद्धः तृणादीन्युत्थितानि, ततो नटपिटकग्रामे नागगृहे वर्षावासं स्थितः चिन्तयति गुरुकुलबासो न जात इहापि करोमि कृत्य, तेन स्थापनाचार्यः कृतः, सर्वाः सामाचारीः प्रयुङ्क्ते, क्षणे क्षणे उपयुङ्क्ते-'किं मे कडमि 'त्यादि, एवं तेन योगाः सगृहीताः ॥ १३३० ॥ णयरं च सिंबवद्धण मुंडिम्बयअजपूसभूई य । आयाणपूसमित्ते सुहुमे झाणे विवादो य ॥ १३३१ ॥
सिम्बवर्द्धनपुरे मुडम्बिको (मुण्डिकाम्रको ) राजा पुष्पभूतिनामान आचार्यास्तैः स श्राद्धश्चक्रे, तेषां शिष्यः पुष्पमित्रो बहुश्रुतोऽत्रसन्नोऽन्यत्रास्ति, समीपस्थाः शिष्या अगीतार्थास्ततः पुष्पमित्र आहूतस्तस्योक्त्या आचार्यैः सूक्ष्म ध्यानमारब्धः मपवरकान्तः। स तद्वारेण स्थितोऽन्येषां प्रवेशं न दत्ते, एकेन शिष्येण प्रच्छन्नं गुरवो विलोकिता निश्चेष्टा दृष्टास्तेन सर्वेषामुक्तं मृता इति, राजा समागान , पुष्पमित्रस्य कथयतोऽपि कश्चिन्न प्रत्येति, एके भणन्त्यसौ सलक्षणाचार्यदेहेन वेतालं साधयन्नस्तीति, शिविका कृता दाहार्थ, ततः पुष्पमित्रेणाङ्गुष्ठः पूर्वसङ्केतितः स्पृष्टः, प्रबुद्धः प्राह-किमार्य ! व्याघातः कृतः, तेनोचे |
योगसङ्ग्रहे | लवालवे
ध्यान संवरयोगे च दृष्टान्ती निगा १३३०० १३३१
१५९॥
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आवश्यक- नियुक्तरव
चूर्णिः । ॥ १६०॥
युष्मच्छिष्यैः कृतमिदं । ईदृग् ध्यान कर्त्तव्यं ॥ १३३१॥
योगसबहे रोहीडगंच नयरं ललिआयुट्ठी अ रोहिणी गणिआ।धम्मरुइ कडुअदुद्धियदाणाययणे अकंमुदए १३३२
| उदयादिरोहीडकपुरे ललितागोष्ठी, तदर्थ रोहिणी गणिका भक्तं राध्नोति, अन्यदा 'कड्डयदुद्धिय'त्ति दुद्धि-तुम्बकं संस्कृतं, तया |
| मरणान्ताकटु च ज्ञातं, मासक्षपणपारण के धर्मरूचेर्दत्तं, तेन जीववधभयेनालोच्य प्रतिक्रम्य स्वयमेवाहारितं तीव्रवेदना सोऽधिसह्य
राधनायां सिद्धः।। १३३२ ।।
दृष्टान्ताः नयरी य चंपनामाजिणदेवो सत्यवाह अहिछत्ता। अडवी य तेण अगणी सावयसंगाण वोसिरणा।१३३३
निगा चम्पायां जिनदेवः श्राद्धः सार्थवाह उद्घोप्याहिच्छत्रां याति, भिल्लैलुण्टिते साथै सोऽटव्यां प्रविष्टो यावत्पुरतोऽग्निमयं
१३३२. मार्गतो व्याघ्र भयं उभयतः प्रपातभयं, स भीतोऽशरणं ज्ञात्वा स्वयमेव भावलिङ्गं प्रपद्य कृतसामायिक प्रतिमा स्थितः,
१३३४ श्वापदैर्भक्षितः सिद्धः ।। १३३३ ॥ पायच्छित्तपरूवण आहरणं तत्थ होइ धणगुत्ता। आराहणाए मरुदेवा ओसप्पिणीए पढमासिद्धो १३३४।।
एकत्र धनगुप्ताचार्यास्ते च्छास्था अपि तथेगितादिभित्विा प्रायश्चित्तं ददति ययाति चारशुद्धिरधिकनिर्जरा च स्यात् । तथा कर्त्तव्यं ३१, मरणान्ताराधनायां मरुदेवाऽवसर्पिण्या प्रथमसिद्धः ३२ ॥ १३३४ ।। इति योगसङ्ग्रहाः। तेत्तीसाए आसायणाहिं (सूत्रम् )
१६०॥
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आवश्यकनिर्युक्तेरव
प्रयस्त्रिंशदाशातनाः
चूर्णिः ।।
पुरओ पक्खासन्ने गंता चिट्ठणनिसीयणायमणे । आलोयणपडिसुणणा पुचालवणे य आलोए ॥ १ ॥ तह उवदंसनिमंतण खद्धाईयाण तह अपडिसुणणे । खद्धति य तत्थ गए कि तुम तज्जाद णो सुमणे ॥ २ ॥
णो सरसि कहं छेत्ता परिसं मिला अणुट्ठियाइ कहे । संथारपायघट्टण चिट्ठे उच्चासणाईसु ॥ ३ ॥ पुरतोऽग्रतो गन्ता आशातनावानेव १ पक्षाम्यामपि गन्ता २, आसन्ने पृष्ठतोऽप्यासन्ने गन्ता ३, एवं स्थाने-कायोत्सर्गकरणे ३ निपीदनेऽपि ३ एवं ९, प्रथममाचमनं करोति १० गमनागमनयोः पूर्वमालोचयति ११ रात्रौ विकाले वा रत्नाधिकस्य वचोऽप्रतिश्रोता स्यात् १२ किश्चिदालाप्यं पूर्वमालापयति १३ अशनादि पूर्व शैक्षस्यालोच्य पश्चाद्रत्नाधिकस्यालोचयति १४ ॥१॥ एवमुपदर्शयति १५ निमन्त्रयति १६ 'खद्ध 'चि रत्नाधिकमनापृच्छय स्वेच्छयाऽन्यस्मै स्निग्धमधुरादि दत्ते १७ आययणे (आईयाण)त्ति रत्नाधिकेन मार्बु भुञ्जानः [प्रचुरं प्रचुरं] स्निग्धादि खादति १८ रत्नाधिकस्य व्याहरतो न प्रतिशृणोति १९ 'खद्धंति यति रत्नाधिकं प्रति खरकर्कशनिष्ठुरं वक्ति २० वादितस्तत्रगत एवोल्लापं दचे २१ किमिति वक्ति २२ त्वमिति वक्ति २३ तजातेन प्रतिहन्ता स्यात् २४ रत्नाधिकस्य कथां कथयतो नो सुमनाः स्यात् २५ ॥२॥ एवं एयं हेऊ, कहं कहतस्स नो सुमणो होइ । तजाएण हीलइ य, पुणो पुणो निहुर भणई ॥१॥ इयमन्यकर्तृकी, नो स्मरसीति वक्ति २६ कथामाच्छेत्ता स्यात् २७ पर्षदं भेचा २८ अनुत्थितायां पर्षदि तामेव कथां कथयिता २९ शय्यासंस्तारकादि पादाम्यां घट्टयति ३१ तत्र स्थाता ३१ उच्चासने स्थानादि करोति ३२ एवं समासनेऽपि ३३ ॥३॥ अथवा सूत्रोक्ताशातनासम्बन्धमाह
॥ १६१।
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आवश्यक
निर्युक्तेरव
चूर्णिः ।
॥ १६२ ॥
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अवा-अरहंताणं आसायणादि सज्झाए किंचि णाहीयं । जा कंठसमुद्दिट्ठा तेतीस सायणा एया ॥ १ ॥ अथवाऽयमन्यः प्रकारः, अर्हतामाशातना, आदिशब्दात्सिद्धादिपरिग्रहः यावत्स्वाध्याये किञ्चिन्नाधीतं, एताः कण्ठसमुद्दिष्टा: ' निगदसिद्धात्रयस्त्रिंशदाशातनाः, इति [ प्रति ] क्रमणसग्रहण्यवचूणिः ॥ ( प्रतिक्रमणसङ्ग्रहणी समाप्ता )
सदेवमयासुरस्त लोगस्स आसायणाए (सूत्रम् )
देवादीयं लोयं विवरीयं भणइ सत्तदीबुदही। तह कइ पयावईणं पयईपुरिसाण जोगो वा ॥ २९३ ॥ (भा.) उत्तरं सत्तसु परिमियसत्ता मोक्खो सुण्णत्तणं पयावइ य । केण कउत्तऽणवत्था पयडीए कहं पवित्तित्ति ? जमचेयणत्ति पुरिसत्थनिमित्तं किल पत्रत्तती साय । तीसे च्चिय अपवित्ती परोत्ति सव्वं चिय विरुद्धं ॥ २१५ ॥
असझाए सज्झाइयं ( सूत्रम् )
अस्वाध्यायिके स्वाध्यायिकं ( तं ), तत्किमिदमस्वाध्यायिकमित्यनेन प्रस्तावनायाता अस्वाध्यायिक नियुक्तिः - असज्झाइयनिज्जुत्ती वुच्छामी धीरपुरिसपण्णत्तं । जं नाऊण सुविहिया पत्रयणसारं उबलहंति ॥ १३३५॥ असम्झाइयं तु दुविहं आयसमुत्थं च परसमुत्थं च । जं तत्थ परसमुत्थं तं पंचविहं तु नायवं ॥ १३३६॥
अस्वा ध्यायिक
निर्युक्तिः
नि०गा०
१३३५
१३३६
॥ १६२ ॥
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आवश्यकनिर्युक्तरव
चूर्णिः ।
अस्वा. ध्यायिकनियुक्ति निगा.
१३३७. । १३३९
दिव्य, व्युग्रहः
पासणयमिच्छ' इत्यादेशलादि, अस्मिन
स्वाध्याय एवं स्वाध्यायिक, न स्वाध्यायिकमस्त्राध्यायिकं, तत्कारणमपि रुधिरायस्वाध्यायिकमुच्यते [तद् द्विविधं-] आत्मसमुत्थं-व्रणोद्भवं, परसमुत्थं-संयमघातकादि, तदेव पश्चविधमादौ दर्शयन् द्वारगाथा माहसंजमघाउवघाए सादिवे बुग्गहे य सारीरे । घोसणयमिच्छरणो कोई छलिओ पमाएणं ॥१३३७॥
संयमघातकं महिकादि, औत्पातिक पांशुपातादि, गन्धर्वनगरादि दिव्य कृतं सादिव्यं, व्युद्ग्रहः-मझामोऽसावपि अस्वाध्यायिकनिमित्तत्वात्तथोच्यते, शारीरं तिर्यगमनुष्यपुद्गलादि, अस्मिन् पश्चविधेऽस्वाध्यायिके स्वाध्यायं कुर्वतः आत्मसंयमविराधना, तब दृष्टान्तः 'घोसणयमिच्छ' इत्यादेर्गाथाशकलस्यार्थः कथानकादवसे यः ॥१३३७॥ पश्चार्धावयवार्थमाहमिच्छभयघोसण निवे हियसेसा ते उदंडिया रणा। एवं दुहओ दंडो सुरपच्छित्ते इह परे य॥१३३८॥
क्षितिप्रतिष्ठिते जितशत्रू राजा, तेन स्वदेशे घोषि (घोषावि )तं यथा-म्लेच्छो राजा आयाति, तद् ग्रामादीनि त्यक्त्या समासने दुर्गे स्थातव्यं, ये राज्ञो वचमा [ दुर्गे] स्थितास्ते न विनष्टाः, अन्ये म्लेच्छविलुप्ता राज्ञा हृतशेषा दण्डिताच, एवमस्वाध्याये स्वाध्यायिकं कुर्वत उभयोर्द( उभयतो दण्डः, 'सुर'त्ति देवतया छल्यते, 'पच्छित्ते 'त्ति प्रायश्चित्तं च प्राप्नोति 'इह 'त्ति इहलोके 'परे 'त्ति परलोके ज्ञानादि विफलं स्यात् ।। १३३८ ॥ दृष्टान्तोपनय:राया इह तित्थयरोजाणवया साह घोसणं। सुत्तं मेच्छो य असज्झाओ रयणधणाईच न ___ यथा घोषणं तथा सूत्रं, अस्वाध्याये स्वाध्यायप्रतिषेधकं, अस्वाध्यायो महिकादिः ॥ १३३९ ॥
॥१६३॥
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आवश्यक
निर्युकेश्व
चूर्णिः ।
॥ १६४ ॥
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थोवात्र से सपोरिसि मज्झयणं वावि जो कुणइ सो उ । णाणाइसाररहियस्स तस्स छलणा उ संसारो १३४० स्तोकविशेषपौरुष्यां कालवेलायामित्यर्थः, अध्ययनं पाठोऽपिशब्दाद्व्याख्यानं वा यः करोति च्छलना ज्ञानादिवैफल्यात् ॥ १३४० ॥ आद्यद्वारावयवार्थमाह
महिया यभिन्नवासे चित्तरए य संजमे तिविहं । दवे खित्ते काले जहियं वा जच्चिरं सर्व्वं ॥ १३४१ ॥ महिका - धूमिका, भिन्नवर्षो बुबुद दि, सचित्तरजः - आरण्यकं वातोद्भूतं पृथिवीरजः, 'संयमे 'त्ति संयमघाति त्रिविधं इदं ' दवे 'ति द्रव्यं महिकादि, क्षेत्रे यस्मिन् पतति, काले यच्चिरं कालं, 'सवं 'ति भावतः सर्व स्थानमापादि त्यज्यते ।। १३४१ ॥ अवयवार्थे तु स्वयमेव वक्ष्यते, अस्वाध्यायिकं कथं परिहार्य इति तत्प्रसाधको दृष्टान्तःदुग्गाइतोसिनो पंचहं देइ इच्छियपयारं । गहिए य देइ मुलं जणस्स आहारवत्थाई ॥१३४२||
एकस्य राज्ञः पञ्च पुरुषाः, अन्यदा तैरत्यन्तविषमं दुर्गं लात्वा तोषितो नृपः स ईप्सितं नगरे प्रचारं दत्ते स्म यत्ते किञ्चित्रादि जनस्य गृह्णन्ति तस्य मूल्यं राजा सर्व ददाति ।। १३४२ ।। shu तोसियत हिमगिहे तस्स सबहिं वियरे । रत्थाईसु चउण्हं एवं पढमं तु सवत्थ || १३४३ ||
तेषां पञ्चानां मध्यादेकेन तोषिततरो राजा तस्य गृहापणरथ्यासु सर्वत्रेष्टप्रचारं प्रयच्छति, चतुर्णां रथ्यादिष्वेव य एतान् प्रचारान् परिभवति तस्य राज्ञा दण्डं करोति । यथा पञ्च पुरुषास्तथा पञ्चविधमस्वाध्यायिकं यथैकोऽभ्यहिततरः
अस्वा
ध्यायिक
निर्युक्तिः
नि०गा०
१३४०
१३४३
॥ १६४ ॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरवचूर्णिः ।
।। १६५ ।।
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पुरुषः एवं प्रथमं संयमोपघाति, तस्मिन्वर्त्तमाने न स्वाध्यायो न प्रतिलेखना, नैत्र कापि चेष्टा क्रियते, इतरेषु चतुर्षु अस्वा ध्यायिकेषु यथा ते चत्वारः पुरुषा रथ्यादिष्वेवानाशात्याः, [ तथा ] स्वाध्याय एव न क्रियते, आवश्यकाद्युत्कालिकं च पठ्यते ।। १३४३ || महिकादेर्व्याख्या
महिया उगमासे सञ्चिन्त्तरओ अ ईसिआयंबो । वासे तिन्नि पयारा बुब्बुअ तबज्ज फुसिए य २९६ भा.
महिका कार्त्तिकमार्गशीर्षादिषु गर्भमासेषु स्यात् सा च पतन्त्येव सूक्ष्मत्वात्सर्वमष्कायभावितं करोति, व्यवहारसतिः पृथिवीकाय आरण्यको वातोद्धतो रजो मण्यते, तस्य सचित्तत्वलक्षणं वर्णित ईषदातानं दिक्षु दृश्यते, तदपि निरन्तरं पतद्दिनत्रयात्परतः सर्व पृथिवीकार्यभावितं करोति, तत्र उत्पातशङ्कासम्भव भिन्नवर्षे त्रयः प्रकाराः - यत्र वर्षे पतति बुदबुदाः स्युस्तदवर्ष १, तैर्वैर्जितं तद्वर्ज २, सूक्ष्मतुषारेषु पतत्सु पृषत (बिन्दु) वर्ष ३, एतेषु यथासङ्ख्यं त्रिपञ्चसप्त दिनपरतः सर्वमष्कायभावितं स्यात् ॥ २१६ ॥ संयमघातिसर्व भेदानामयं परिहारः
दव्वे तं चिय दव्वं खित्ते जहियं तु जच्चिरं कालं । ठाणाइमास भावे मुत्तुं उस्सास उम्मे से॥ २१७॥ (भा०
द्रव्यतस्तदेव द्रव्यं महिकादि त्याज्यं, क्षेत्रे यत्र तत्पतति तच्या ( तत्रैव त्या ) ज्यं, काले यच्चिरं कालं स्यात्, भावे स्थानं - कायोत्सर्गं न कुर्वन्ति, न च भाषन्ते, आदिशब्दाद् गमनागमनाद्यपि न कुर्वन्ति, मुक्वोच्छवासोन्मेषौ शेषाः सर्वाः
१ "खेते जहिं पड जञ्जिरं कालं " इति पाठान्तरं । २ " मोतुं उस्सासउम्मेसं " इति पाठान्तरं
अस्वा ध्यायिक
निर्युक्तिः
नि०गा०
२१६
२१७
।। १६५ ।।
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अस्वाध्यायिकनियुक्तिः नि०गा. १३४४१३४६
आवश्यक- क्रिया निषिध्यन्ते, एष उत्सगपरिहार। आचीण तु मचिचरजसि त्रीणि मिन्नवर्षे त्रीणि पश्च सप्ताहोरामाण्यतः परं निर्युक्तेरव- स्वाध्यायादिसतं न कुर्वन्ति ॥ २१७ ॥ कथं ?चूर्णिः । PI वासत्ताणावरिया निकारण ठंति कजि जयणाए। हत्थत्थंगुलिसन्ना पुत्तावरिया व भासंति ॥१३४४॥
निष्कारणे वर्षावाणं-कम्बली, तदाताः सर्याभ्यन्तरे तिष्ठन्ति, कार्ये यतनेयं-हस्ते नाक्षिविकारेणाङ्गुल्पा वा 'सण'ति इदं कुरु मा वा कुर्विति, अथै नावगच्छति ततः 'पुत्तावरिय 'त्ति मुखयोतिका दचा मुखेन भाषन्ते, ग्लानादिकार्ये वर्षाकल्पप्रावृता यान्ति ॥ १३४४ ॥ औत्पातिकमाहपंस अमंसरुहिरे केससिलावुट्टि तह र उग्घाए । मंलरुहिरे अहोरत्त अवससे जञ्चिरं सुत्तं ॥१३४५॥
पांशुमांसरुधिरकेशानां वर्षणं कर कादिशिलावर्षगं रज उद्वातस्तत्र मासे रुधिरे चाहोरात्रं स्वाध्यायो न क्रियते, अवशेषाः पांवादयो य(याव)चिरं कालं पतन्ति तावत्काल सूत्रं नन्द्यादिन पठन्ति ॥ १३४५ ।। पश्यादिव्याख्यापंसू अचित्तरओ रयस्तिलाओ दिसा र उग्घाओ। तत्थ सवाए निव्वायए य सुत्तं परिहरति ॥१३४६।।
धूमाकारमापाण्डुरमचितं रजः पांशु ण्यते, अभ्यन्तरतो मध्ये विश्रमाप्रयोगाम्यां रजापतशिला रजाशिलोच्यते, दिशासु सर्वदिक्षु महास्कन्धावारगमनसम्भूत इव विश्रसापरिणामतः समन्ताद्रेणुपतन रज उद्घातः, एतेषु वातसहितेषु निर्वातेषु वा सूत्रपौरुषीं न कुर्वन्ति ॥ १३४६ ।। किश्चान्यत्
१६६॥
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आवश्यक-IN निर्युक्तेरव
चूर्णिः ।
॥१६७॥
साभाविय तिन्नि दिणासुगिम्हए निक्खिवंति जइ जोगं। तोतंमि पडतंभी करंति संवच्छरज्झायं॥१३४७N अस्वा
एते पांशुरजउद्घाता: स्वाभाविकाः स्युरस्वाभाविका वा, तत्रास्वाभाविका ये निर्धातभूमिकम्पचन्द्रोपरागादिदिव्य- ध्यायिकसहिताः, एतेष्वस्वाभाविकेषु कृतेऽप्युत्सर्गेन कुर्वन्ति बाध्यायं, 'सुगिम्हए'त्ति यदि चैत्रे योगं निक्षिपन्ति ततः शुद्धपञ्चम्याः नियुक्तिः पूर्वार्धादर्वाक, नो चेत्तदा प्रतिपदनन्तरं योगनिक्षेपः कार्यः, अनध्यायमध्येतुं न करपते, दशम्याः परतो यावत् पूर्णिमा, निगा. अत्रान्तरे त्रीणि दिनानि उपर्युपरि अचित्तरज उग्बाडावणं काउस्सग्गं करिन्ति, तेरसिमाईसु वा तिसु दिणेसु. तो सामाविगे १३४७ पडते वि संवच्छरं सज्झायं करिन्ति अह उसगं न करेंति तो साभाविगे पडते सज्झायं न करिति ॥१३४७।। सादिव्यमाह- १३४९ गंधव्वादिसाविज्जुक्कगजिए जूअजक्खआलित्ते। इकिक पोरिसी गज्जियं तु दो पोरसी हणइ ॥१३४८॥
गंधवं-नगरविउवणं, दिसादाहकरणं, विजुभवणं, उक्कापडणं, गजिप्रकरणं, जूवगो वक्खमाणो, जक्खालित्तंजक्खुद्दित्तं आगासे भवइ, तत्थ गंधवनगरं जक्खुद्दित्तं च एए नियमा दिवकया, सेसा भयणिजा, जउ फुड न नजन्ति तेण तेसिं परिहारो, एए गंधवाइआ इकिकं पोरिसिं उत्रहणन्ति, गजिअं दो पोरिसीउ उवहणइ ॥ १३४८ ॥ दिसिदाह छिन्नमूलो उक्क सरेहा पगासजुत्ता वा। संझाछेयावरणो उजूबओ सुक्कि दिणं तिन्नि ॥१३४९॥ ___अन्यतमदिगन्तरविभागे महानगरप्रदीप्तमिवोद्योतः किन्तूपरि प्रकाशोऽधस्तादन्धकारस ईक च्छिन्नमूलो दिग्दाहः, उल्का सरेखा पतति, प्रकाशयुक्ता वारेखाऽपि, संझप्पहा चंदप्पहा य जेण जुगवं भवंति तेण जूवगो, सा संझप्पभा चंदप्पमा- ॥१७॥
दिग्दाहा
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आवश्यक- नियुक्तरव
चूर्णिः। ॥१६८॥
वरिआ फिट्टन्ती न नजइ सकपक्खपडिवगाइसु दिणेसु, संझाछेयए अणजमाणे कालवेलं न मुणंति तो ते तिन्नि दिणे TV
अस्वापाओसिअं कालं न गिडंति ॥ १३४९ ।।
ध्यायिक केसिंचि हुंतिऽमोहा उजूवओ ता य हुँति आइन्ना। जोर्स तु अणाइन्ना तेसिं किर पोरिसी तिन्नि।।१३५०॥
नियुक्तिः
मा०मा० ___ केषाश्चित् भवन्ति अमोहादमूढत्वात् , जगस्स सुहासुहकम्मनिमित्तुप्पाओ अवितहो आइच्चकिरणविकारजणिओ, आइच
१३५०मुदयत्वमायंबो किन्हसामो वा सगड्ढद्धिसंठिओ दंडो[अमोहत्ति] स एव जूवगो, 'ता यति तत्र पौरुषी अनध्यायस्वेना. चीर्णा, उत्तरार्द्ध पौरुषीत्रयमनध्यायः ॥ १३५० ॥
१३५१ चंदिमसूरुवरागे निग्याए {जिए अहोरत्तं। संझा चउ पाडिवया जं जहि सुगिम्हए नियमा ॥१३५१॥
चन्द्रसरोपरागे-ग्रहणे, साभ्रे निरभ्र वा गगने व्यन्तरकतो महागर्जितसमो ध्वनिर्निर्धातस्तस्यैव वा विकारो गुञ्जावत् गुजमानो महाधनिर्गुञ्जितं, एतेषु चतुलपि सामान्यतोऽहोरात्रं स्वाध्यायो न क्रियते, निर्घातगुञ्जितयोर्विशेषो द्वितीय दिने यावत् सा वेला नाहोरात्रच्छेदेन च्छिद्यते यथान्येवस्त्राभ्यायिकेषु, 'संझा चउ 'त्ति अणुदिए सूरिए मजझण्हे अत्यमणे अड्डरते य, एआसु चउमु सज्झायं न करिति 'पाडिवए ' तिचउण्डं महामहाणं चउसु पाडिवएसु सज्झायं न करिति, एवमन्नपि 'जं'ति-महं जाणिज्जा 'जहि 'त्ति गामनगराइसु तंपि तत्थ वजिजा, सुगिम्हए पुण सव्वत्थ निश्मा असज्झाओ ॥ १३५१ ॥ के च ते महामहाः, उच्यन्ते
॥१६८॥
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आवश्यक- निर्युक्तेरव चूर्णिः ।
अस्वा . ध्यायिकनियुक्तिः नि०मा० १३५२. १३५६
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आसाढी इंदमहो कत्तिय सुगिम्हए य बोद्धवे । एए महामहा खलु एएसिं चेव पाडिवया ॥१३५२॥
आसाढी-आषाढपूर्णिणमायां स्यात् , इन्द्रमहा-आश्विनपूर्णिमायां, 'कत्तिय 'त्ति कार्तिकपूर्णिमाया, 'सुगिम्ह 'त्ति चैत्रपूर्णिमायां, एते अन्तिमदिवसाः, यस्मिन्यस्मिन् देशे यतो यतो दिवसात् महामहस्तदिवसादारभ्य यावदन्त्यदिवसस्तावत्स्वाध्यायो न कार्यः, पूर्णिमासु महामहे समर्थितेऽपि परिसरपर्यटनक्रीडाप्रियव्यन्तरादिभ्यछलनासम्भवाचतसृषु प्रतिपत्स्वपि स्वाध्यायो न क्रियते ॥ १३५२ ॥ प्रतिषिद्धकाले कुर्वत एते दोषाःकामं सुओवओगो तवोवहाणं अणुत्तरं भणियं । पडिसेहियंमि काले तहावि खलु कम्मबंधाय ॥१३५३॥
उपधान-योगोदहनं ॥ १३५३ ॥ छलया व सेसएणं पाडिवएसुं छणाणुसज्जंति। महवाउलत्तणेणं असारियाणं च संमाणो ॥ १३५४ ॥ अन्नयरपमायजुयं छलिज अप्पिड्डिओ न उण जुत्तं । अद्धोदहिट्रिइ पुण छलिज जयणोवउत्तंपि १३५५]
सरागसंयतत्वादेव इन्द्रियविषयाद्यन्यतरप्रमादयुक्तो भवेत् , विशेषतो महामहेषु, तं प्रमादयुक्तं प्रत्यनीकदेवता छलयेत , यतनायुक्तं पुनः साधुमल्पर्द्धिको देवोऽोदध्यनस्थितिकः छलयितुं न शक्नोति, अद्धोदधिस्थितिस्तु यतनायुक्तमपि पूर्वरिस्मरणतश्छलयेत् ॥ १३५५ ॥ ' चंदिमसूरुवरांग 'त्ति अस्य व्याख्याउक्कोसेण दुवालस चंदु जहन्नेण पोरिसी अट्ठ । सूरो जहन्न बारस पोरिसि उकोस दो अट्ठ ॥१३५६॥
-
॥ १६९॥
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आवश्यक-IN नियुक्तरव- चूर्णिः ।
अस्वा . ध्यायिकनियुक्तिः निगा० १३५७१३५९
॥ १७॥
चन्द्र उदयकाल एष गृहीतः सन्दुषितरात्रे पोरुषीचतुष्कमन्यच्चाहोरात्रं एवं द्वादश, अथवोत्पातग्रहणे सर्वरात्रिक ग्रहणं, सग्रह एवास्तमितस्ततो रात्रिरहोरात्रं च, अथवाऽभ्रच्छन्ने न ज्ञायते कस्यां वेलायां ग्रहणं इति रात्रिः परिहता, प्रभाते सग्रहेऽस्तमिते दृष्टेऽहोरात्रं च, एवं द्वादश, अस्तकाले ग्रहणे चाष्टौ चन्द्रस्य, सूर्यस्यास्तमनग्रहणे सग्रहास्ते रात्रिरहोरात्रं च त्याज्यं एवं द्वादश, 'दो अट्ट 'त्ति उदयग्रहणे [ संग्रहास्ते ] दुषितमहोरात्रमन्यच्चाहोरात्रं इति पोडश । एवं उत्पातग्रहणेष्वपि षोडश ॥ १३५६ ॥ सग्गहनिब्बुड एवं सूराई जेण हुंतिऽहोरत्ता । आइन्नं दिणमुके सुच्चिय दिवसो अ राई य ॥१३५७॥
सग्रहास्तमिते एतदन्यद(एकम) होरात्रमुपहतं, कथं ? उच्यते, 'सूराई जेण हुंतिऽहोरत्ता' सूरोदयायेनाहोरात्रस्यादिः स्यात् तत्परिहरतु, संदृषितं अन्यदप्यहोरात्रं त्याज्यं, इदं त्वाचीर्ण-चन्द्रो रात्रौ गृहीतो रात्रावेव मुक्तस्तस्या रात्रेः शेष | त्याज्यं यस्मात्सूरोदयेऽहोरात्रसमाप्तिः, सूरोऽपि दिवा गृहीतो दिवैव मुक्तस्तदिनशेषं रात्रिश्च वा ॥ १३५७ ॥ 'सादिवं' चि' गर्य, व्युद्ग्रहमाहवोग्गह दंडियमादी संखोभे दंडिए य कालगए।अणरायए य सभए जच्चिर निद्दोच्चऽहोरत्तं ॥१३५८॥
एतद्व्याख्यानगाथासेणाहिबई भोइय मयहरपुंसित्थिमल्लजुद्धे य । लोहाइभंडणे वा गुज्झग उड्डाहमचियत्तं ॥ १३५९॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरव
चूर्णिः ।
॥ १७१ ॥
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दण्डिकस्य व्युद्ग्रहः, आदिशब्दात्सेनाधिपतेः एवं द्वयोर्भोगिकयो:, [द्वयोः पुरुषयोः ] द्वयोः स्त्रियोः मल्लानां वा युद्धं, पिष्टातक ( पृष्ठायत) लोट्टमण्डने वा, कचिदेशे वा मुद्द्रादिलो हैः क्रीड्यते, आदिशब्दाडूल्यादिमहे, विग्रहाः प्रायोव्यन्तरबहुलास्तत्र प्रमत्तं देवता छलयेत्, उड्डाहो निदुक्खत्ति, जणो मणिजा-अम्हं आवइपत्ताणं इमे सज्झायं कर्रितिति । अचिअत्तं दविज, त्रिसय संखोभो परचक्कागमे, दंडिओ कालमओ भवद्द, ' अणरायए 'त्ति राज्ञि कालगते निर्भयेऽपि यावदन्यो राजा न स्थाप्यते, 'सभए'ति जीवत्यपि रात्रि चौरचरटाद्यैः समये यच्चिरं समयं तावत्कालं स्वाध्यायं न कुर्वन्ति यद्दिवसं श्रुतं निदोचं निर्भयं तत्परतोऽहोरात्रं त्यजन्ति, एष दण्डिके कालगते विधिः || १३५९ ।। शेषेष्वयंतद्दिवस भोइआई अंतो सत्तण्ह जाव सज्झाओ। अणहस्त य हत्थसयं दिट्ठि विवित्तंमि सुद्धं तु ॥ १३६०॥
एतद्व्याख्यानगाथा
मयहरपगए बहुपक्खिए य सत्तघर अंतरमए वा । निद्दुक्खत्ति य गरिहा न पढति सणीयगं वावि ॥ १३६१ ॥
ग्रामभोगिके कालगते तद्दिवसंति - अहोरात्रं त्याज्यं, आदिशब्दाद् ग्रामराष्ट्र महत्तरकोऽधिकारनियुक्तो बहुसम्मतव प्रकृतः बहुपाक्षिक:- बहुस्वजनपाट कशाखाधिपः शय्यातरश्च अन्वो वा अन्यतरगृहादारभ्य यावत्सप्तमं गृहं एतेषु मृतेष्वहोरात्रं स्वाध्यायो न क्रियते, अथ कुर्वन्ति ततो निर्दुःखा इति जनो गर्हति, अल्बशब्देन शनैर्वा कुर्वन्ति, अनुप्रेक्षन्ते वा योsनाथ म्रियते तस्मिन् भिन्ने हस्तशतं वज्र्ज्य, 'विवित्तंमि'त्ति परिष्ठापिते शुद्धं तत्स्थानं ।। १३६१ ।। अथ तस्य परिष्ठापकः
अस्वाध्यायिक निर्युक्तिः
नि०गा०
१३६०
१३६१
॥ १७१ ॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरव
चूर्णिः ।
॥ १७२ ॥
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कोऽषि न स्यात्ततः -
सागारियाइ कहणं अणिच्छ रत्तिं वसहा विचिंति । विक्किन्ने व समंता जं दिट्ठ सढेयरे सुद्धा ॥१३६२ ॥
सागारिकः- शय्यातरः आदिशब्दात् श्राद्धादयस्तेषां कथ्यतेऽस्माकं स्वाध्यायो न शुद्ध्यति, तदनिच्छ्या अन्या वसतिमयते, तदभावे वृषभा रात्रौ त्यजन्ति । अयमभिन्ने विधिः, मिने तु ढङ्कादिभिः समन्ताद्विकीर्णे यद्दष्टमभावेन गवेषयद्भिः तत्सर्वं त्यजन्ति, इतरस्मिन्नदृष्टे तत्रस्थेऽपि शुद्धाः स्वाध्यायं कुर्वन्ति ॥ १३६२ ।। ' बुग्गहे 'त्ति गयं, ' सारीरे 'चि आह
सारंपि यदुविहं माणुस तेरिच्छियं समासेणं । तेरिच्छं तत्थ तिहा जलथलखहजं चउद्धा उ ॥ १३६३ ॥
मत्स्यादीनां जलजं, गवादीनां स्थलजं, मयूरादीनां खचरजं, एकैकस्यायं द्रव्यादिकञ्चतुर्द्धा परिहारः ।। १३६३ ॥ पंचिदियाण दबे खेत्ते सट्ठिहत्थ पुग्गलाइन्नं । तिकुरत्थ महंतेगा नगरे बाहिं तु गामस्स ॥ १३६४ ॥
पञ्चेन्द्रियाणां रुधिरादिद्रव्यमस्वाध्यायिक क्षेत्रतः पष्ठिहस्ताभ्यन्तरेऽस्वाध्यायिकं, परतो न स्यात्, अथवा क्षेत्रतः पुग्गलाइनं 'ति पुद्गलं - मांसं तेन सर्वमाकीर्ण-व्याप्तं तत् तिसृभिरन्तरितं शुद्ध्यति, महत्या चैकयापि, अनन्तरितं दूरस्थितमपि न शुद्ध्यति, महारथ्या - राजमार्गः शेषाः कुरथ्याः, एष नगरे विधिः, ग्रामे तु बहिर्ग्रामसीमायां त्यक्ते शुद्ध्यति ।। १३६४ ॥
अस्वाध्यायिक
निर्युक्तिः
नि०गा०
१३६२
१३६४
॥ १७२ ॥
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आवश्यक- नियुक्तेरव
चूर्णिः
अस्वा. ध्यायिकनियुक्तिः निगा. १३६५१३६७
॥ १७३ ॥
काले तिपोरसिऽढ व भावे सुत्तं तु नंदिमाईयं । सोणिय मंसं चम्मं अट्ठी विय हुँति चत्तारि ॥१३६५॥
सम्भवकालाद्यावत्तृतीया पौरुषी तावदस्वाध्यायिकं, यत्राघातस्थान, तत्र भावतः सूत्रं नन्यनुयोगद्वारं तन्दुलवैचा. रिकचन्द्रावेध्यकादि परिहरन्ति, अथवा अस्वाध्यायिकं चतुर्विधं-मांसं शोणितं चर्म अस्थि ॥१४६५ ॥ मांसाशिनोक्षिप्ते मांसेऽयं विधिःअंतो बहिं च धो सट्टीहत्थाउ पोरिसी तिन्नि । महकाए अहोरत्तं रद्धे वुढे य सुद्धं तु ॥ १३६६ ॥
एतद्व्याख्यानगाथाबहिधोयरद्धपक्के अंतो धोए उ अवयवा हुँति । महकाय बिरालाई अविभिन्ने केइ इच्छंति ॥१३६७॥
साधुवसतेः सकाशात्पष्ठिहस्तानामन्तर्बहिश्च धौतमिति मङ्गदर्शनमेतत् , अन्तौतमन्तः पक्वं १, अन्तद्वौत बहिः पक्वं २, बहिौतमन्तः पक्वं ३ एतेषु विष्वप्यस्वाध्यायिकं, यस्मिन् प्रदेशे धौतमानीय वा राद्धं स प्रदेशः षष्ट्या हस्तैः त्याज्या कालतः पौरुषीत्रयं, यदुक्तं 'बहिधोयरद्धपक्के'चि एषः चतुर्थों भङ्गः, ईदृशं यदि षष्ठिहस्तान्तरानीतं तथाप्यस्वाध्यायिकं न स्यात् । आद्यद्वितीयभङ्गयोर्धावनस्थानेऽवयवाः पतन्ति तेनास्वाध्यायिक, यत् काकादिभिर्विप्रकीण नीयते तदाकीर्णपुद्गलं, 'महकाए 'त्ति यत्र पश्चेन्द्रियो हतस्तदाघातनं वय, क्षेत्रतः षष्ठिहस्तैः कालतोऽहोरात्र अत्राहोरात्रच्छेदः सरोदयेन, राद्धं पक्कं वा मांसमस्वाध्यायिकं न स्यात् , यत्र च धोतं तत्र प्रदेशे महानुदकप्रवाहो यदि व्यूहस्तदा त्रिपौरुषी-|
M
|१७३॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरव
चूर्णि
॥ १७४ ॥
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काsपूर्णेऽपि शुद्धं, आघातनं न शुद्ध्यति, ' महकाए 'त्ति अस्य व्याख्या - महाकायो मूषकादिर्बिडालादिना हतो यदि तमभिन्नमेव गिलित्वा गृहीत्वा वा पष्ठिहस्तेभ्यो वहिर्याति तत्केचिदस्त्राध्यायिकं नेच्छति । यदुक्तं ' के इच्छंति 'त्ति तत्र स्वाध्यायोऽभिसम्बध्यते, स्थविरपक्षस्त्वस्वाध्यायिकमेव ।। १३६७ ॥ अस्यैवार्थस्य प्रकटनार्थमाह
मूसाइ महाकायं मज्जाराईहयाघयण केई । अविभिन्ने गिण्हेउं पढंति एगे जइऽपलोओ ॥२१८॥ भा०)
मूषकादिर्यत्र हतस्तदाघातकं (नं ) || २१८ ॥ तिर्यगस्वाध्यायिकाधिकार एवेदमाह -
अंतो बर्हि च भिन्नं अंडग बिंदू तहा विआया य। रायपह वूढ सुद्धे परवयणे साणमादीणं ॥ १३६८ ॥
व्याख्या त्वस्याः प्रतिपदं करिष्यति, ' अंतो बहिं च भिन्नं अंडग बिंदु'त्ति अस्य व्याख्याअंडगमुज्झियकप्पे न य भूमि खणंति इहरहा तिन्नि । असज्झाइयपमाणं मच्छियपाओ जहि न बुड्डे २१९
षष्ठिहस्तानामन्तर्भिन्नेऽण्ड केऽस्वाध्यायिकं, बहिर्भिन्ने तु न, अथवा साधुत्रस तेरन्तर्बहिर्वाऽण्डकं ' उज्झिअं ' ति भिन्नं, तद्यदि कल्पे पष्ठितेभ्यो बहिधते शुद्ध्यति, अथ भूमौ भिन्नं तर्हि न भूमिं खनन्ति यतस्तत्खननेऽपि न शुद्ध्यति, 'इहरद्द'त्ति तत्रस्थे पष्ठिहस्तान् पौरुषीत्रयं च वर्ज्यते । अस्वाध्यायिकस्य प्रमाणं मक्षिकापादौ यत्र [न] बुड्डति ।। २१९ । 'विआय'त्तिअजराउ तिन्नि पोरिसि जराउआणं जरे पडे तिन्नि । रायपह बिंदु पडिए कप्पइ वूढे पुणऽन्नत्थ २२० (भा०) अजराणां वल्गुल्यादीनां प्रसूतिकालादारभ्य तिस्रः पौरुषीरस्वाध्यायो, मुक्त्वाऽहोरात्रच्छेदं, आसन्न प्रसूताया अपि
अस्वाध्यायिक
निर्युक्तिः
नि०गा०
१३६८
भा०गा०
२१८
२२०
।। १७४ ।।
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I
आवश्यक- नियुक्तेरव
चूर्णिः। ॥१७५॥
अहोरात्रच्छेदेन शुद्ध्यति, जरायुजानां गवादीनां यावजरा आलम्बते तावदस्वाध्यायिक, जरायां पतितायां प्रहरत्रयं अस्वात्याज्यं, 'रायपह बूढ सुद्ध'त्ति अस्य व्याख्या-साधुवसतेरासन्नं गच्छतस्तिरश्चो यदि रुधिरबिन्दवो गलितास्ते यदिध्यायिकराजपथान्तरिताः स्युस्तदा शुद्धाः, अथ राजपथ एव ते गलितास्तथापि शुद्धाः, अन्यस्मिन् पथेऽन्यत्र वा पतितेषु षष्ठि- नियुक्तिः हस्तान्तयादवृष्टिबाहेन तत् हतं ततः शुद्धं, 'पुण'त्ति विशेषार्थप्रतिपादका, प्रदीपन केन वा दग्धे शुक्ष्मति ॥ २२० ।। मागा. परवयणे साणपादीणं'ति अस्य व्याख्या-परस्य प्रेरकस्य वचनमिदं-यदि श्वा आदिशब्दान्मार्जारादिर्मासं भवयित्वा २२९ यावत्साधुवसतिसमीपं तिष्ठति तावदस्वाध्यायिक, आचार्य आह
निगा जइ फुसइ तहिं तुंडं अहवा लिच्छारिएण संचिक्खे। इहरा न होइ चोअग!वंतं वा परिणयं जम्हा ॥२२१॥ १३६९
आसन्नं गच्छतस्तस्य यदि तुण्डं रुधिरलिप्तं काष्ठादिषु स्पृशति ततोऽस्वाध्यायिक, अथवा रक्तलिप्ततुण्डो वसत्यासन्ने तिष्ठति तथाप्यस्वाध्यायिक, इतरथा आहारितेनाऽस्वाध्यायिकं न स्यात् , यस्मात्तदाहारितं वान्तमवान्तं षा आहारपरिणामेन परिणतं, तच्चास्वाध्यायिकं न स्यात् ।। २२१ । मानुषशरीरमाहमाणुस्सयं चउद्धा अलुि मुत्तूण सयमहोरत्तं । परिआवन्नविवन्ने सेसे तियसत्त अट्टेव ॥१३६९ ॥
चतुर्धा चर्ममांसरुधिरास्थिमेदात् , अस्थि मुवा शेषत्रयस्यायं परिहा:-क्षेत्रतो हस्तशतं कालतोऽहोरात्रं, यत्तु शरीरादेव व्रणादिष्वागच्छति पर्यापनं विवणं वा तदस्वाध्यायिकं न स्यात् , पर्यापनं यथा रुधिरमेव पूयतां गतं, विवर्ण १७५ ॥
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आवश्यकनियुक्तेरवचूर्णिः ।
खदिरकल्कसमरसिकं च, शेषमस्वाध्यायिकं स्यात् । शेषेऽगार्या आर्त्तवे त्रीणि दिनानि, पुत्रजाते सप्त, पुत्र्यामष्टौ ।।१३६९॥ अवारत्तुक्कड। उ इत्थी अट्ट दिणा तेण सत्त सुक्कहिए। तिन्नि दिणाण परेणं अणोउगंतं महोरत्तं ॥१३७०॥ ध्यायिकनिषेककाले रक्तोत्कटायाः स्त्रियः स्त्री प्रसूयते तेनाष्ट दिनानि त्याज्यानि, शुक्राधिकत्वतः पुरुषस्तेन सप्त, यत्तु निय
निर्मुक्तिः स्त्रयाणां ऋतुदिनानां परतोऽपि स्यात् तत्सरोगयोनिकत्वादनावं महारक्तं मण्यते, तस्योत्सर्ग कृत्वा स्वाध्यायः क्रियते, |
निगा. एष रुधिरे विधिः ॥ १३७० ॥ अस्थन्ययं विधिः
१३७०दंते दिदि विंगिचण सेसट्री बारसेव वासाइं । झामिय बूढे सीआण पाणरुहे य मायहरे ॥१३७१॥
१३७१ यदि दन्तः पतितो दृष्टस्ततो हस्तशतात्परतस्त्याज्या, अथ न दृष्टस्तत उग्घाटकाउस्सग्गं कृत्वा स्वाध्यायं कुर्वन्ति,
भागा. शेषास्थिषु जीवप्रमुक्तेषु हस्तशतान्तःस्थितेषु द्वादशवर्षाण्यस्वाध्यायः ॥ १३७१ ॥ पश्चार्द्धस्य व्याख्यामाह
२२२ सीआणे जं दिटुं तं तं मुत्तूणऽनाहनिहयाणि । आडंबरे य रुद्दे माइसु हिट्ठट्ठिया बारे ॥२२२॥(भा०)
स्मशाने यानि चितारोपितानि दग्धानि उदकवाहेन वा व्यूढानि न तान्यस्थीनि अस्वाध्यायं कुर्वन्ति, यानि तु तत्रान्यत्र वाऽनाथकलेवराणि परिष्ठापितानि, सनाथानि वा इन्धनाद्यभावे 'निहयाणि 'त्ति निखातानि अस्वाध्यायिक कुवन्ति । 'पाण 'त्ति मातङ्गास्तेषामाडम्बरो यक्षस्तस्याधः सद्योमृतास्थीनि स्थाप्यन्ते, एवं रुद्रगृहे मातृगृहे च चामुण्डादिगृहे, तानि । कालतो द्वादशवर्षाणि, क्षेत्रतो हस्तशतं त्यज्यन्ते ॥ २२२ ।।
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आवश्यकता आवास
निर्युक्तेख
चूर्णिः । ॥ १७७ ॥
आवासियं च बूढं सेसे दिलृमि मग्गण विवेगो।सारीरगाम वाडग साहीइ न नीणियं जाव ॥१३७२॥ ___ एतत्पूर्वार्द्धस्येयं विभाषाअसिवोमाघवणेसुबारस अविसोहियंमिन करंति। झामिय वूढे कीरइ आवासिय सोहिए चेव॥१३७३॥
यत्र श्मशानं यत्र वाशिवावमयोप॑तानि बहनि छर्दितानि, 'आघयणं 'ति यत्र वा महासकाममृता बहवः, एतेषु स्थानेष्वविशोधितेषु कालतो द्वादशवर्षाणि क्षेत्रतो हस्तशतं परिहरन्ति । अथैतानि स्थानादीनि दवाग्न्यादिना दग्धानि उदकवाहेन वा प्लावितानि, ग्रामनगरादिना वा आवसता स्वस्वस्थानानि शोधितानि, तत्र शुद्धिः, 'सेसे "त्ति यद्गृहिभिर्ने शोधितं पश्चात्तत्र साधवः स्थिताः, आत्मवसतेः समन्तात् मार्गित्वा यद् दृष्टं तस्य विवेकः, अदृष्टे वा दिनत्रयं उग्घाडणकाउस्सग्गं कृत्वा स्वाध्यायं कुर्वन्ति । 'सारीरगाम' इत्यादिपश्चार्द्धस्येयं विभाषा-सारी'ति मृतस्य शरीरं डहरकामे यावद्धहिन नीतं तावत्स्याध्यायं न कुर्वन्ति अथ नगरे महति वा प्रामे तत्र पाटकशाखागृहप्रतिस्तस्या यावन्नीतं (तस्याः यावन्न निष्काशितं ) तावदस्वाध्यायिकं ॥१३७३ ।। तथा चाहडहरगगाममए वा न करेंति जावण नीणियं होइ।पुरगामे व महंते वाडगसाही परिहरंती॥२२३॥(भा०)
प्रेरकः-वसतिसमीपेन नीयमानस्य मृतशरीरस्य पुष्पवस्त्रादि किश्चित्पतति तदस्वाध्यायिकं, आचार्य आहनिजंतं मुत्तूणं परवयणे पुप्फमाइपडिसेहो। जम्हा चउप्पगारं सारीरमओन वजंति ॥ १३७४॥
अस्वा . ध्यायिकनियुक्तिः निगा १३७२१३७४ भागा० २२३
॥ १७७॥
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आवश्यक
काल
NO.
नियुक्तेरव-
चूर्णिः। ॥१७८॥
विधिः निगा० १३७५.
मृतशरीरं वसतेः हस्तशतान्तीयमानं यावत्तावदस्वाध्यायिकं, शेष परवचनभणितं पुष्पादि प्रतिषेध्यं तदस्वाध्यायिक न स्यात् , यस्मात् शारीरमस्वाध्यायिक चतुर्विधं शोणितादि, अतः पुष्पादिषु स्वाध्यायो न वळते ॥ १३७४ ॥ एसो उ असज्झाओ तबजिउझाउतथिमा मेरा। कालपडिलेडणाए गंडगमरुएहिं दिटुंतो॥१३७५॥
एष संयमघातादिः पञ्चविधोऽस्वाध्यायो भणितः तैवर्जितः स्वाध्यायः, तत्र स्वाध्यायकाले इयं सामाचारी-प्रतिक्रम्य यावद्वेला न स्यात् तावत्कालप्रति लेखनायां कृतायां ग्रहणकाले प्राप्ते दण्डक(गण्डक) दृष्टान्तो भविष्यति गृहीते शुद्धे काले प्रस्थापनवेलायां मरूकदृष्टान्तः ॥ १३७५ ।। किमर्थ कालग्रहण ?, उच्यतेपंचविहअसज्झायस्त जाणणट्ठाय पेहए कालं । चरिमा चउभागवसेसियाइ भूमि तओ पेहे ॥१३७६॥ ___संयमघातादिपश्चविधास्वाध्यायपरिज्ञानार्थ प्रेक्षते काल वेला, कालनिरूपणमन्तरेण न ज्ञायते संयमघातादिकं, चेत्कालमगृहीत्वा कुर्वन्ति ततश्च लघवः, तस्मात्कालप्रतिलेखनायामियं समाचारी-दिनचरमपोहण्यां चतुर्भागावशेषायां कालग्रहणभूमयः, 'तउ 'त्ति तिस्त्रः प्रतिलेख्याः , अथवा उच्चारप्रसवणकालभूमवस्तिस्रः ॥ १३७६ ॥ अहियासिआइं अंतो आसन्ने चेव मज्झि दूरे य । तिन्नेव अणहियासी अंतो छ छच्च बाहिरओ।।१३७७॥
'अंतो 'त्ति वसतेरन्तः अधिसोढुरनधिसोढुश्च त्रीणि २ आसनमध्यदूरगानि स्थाण्डिलानि प्रतिलेखयति, एवमन्तः षट् , बहिरपि षट् मिलिता उच्चारस्य द्वादश भूमयः, परमधिसह्यानि दूरतरेऽनधिसह्यानि आसन्नतरे कर्त्तव्यानि ॥१३७७।।
१७८॥
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आवश्यकनियुक्तेरवचर्णिः ।
॥ १७९ ॥
एमेव य पासवणे बारस चउवीसतिं तु पेहेत्ता। कालस्स य तिन्नि भवे अह सूरो अस्थमुवयाई ॥१३७८॥ |
कालसर्वाणि चतुर्विशतिमत्वरितमसम्भ्रान्तमुपयुक्तः प्रतिलिख्य त्रीणि कालस्य प्रतिलेखयति, जघन्यतो हस्तान्तरितानि, IN ग्रहणअथानन्तरे सूरोऽस्तमेति ॥ १३७८ ॥
विधिः अह पुण निवाघाओ आवासं तो करंति सव्वेऽवि । सड्ढाइकहणवाघाययाइ पच्छा गुरूठंति॥१३७९॥ निगा.
अथ सूरास्तमनानन्तरमेवावश्यकं कुर्वन्ति, यदि निर्याघातं ततः सर्वे गुरुमहिताः, अथ गुरुः श्राद्धानां धर्म कथयति १३७८ततः सहकरणस्य व्याघातस्ततो गुस्वो निपद्याधरश्वावश्यके पश्चात्तिष्ठन्ति ॥ १३७९ ।।
१३८२ सेसा उ जहासत्तिं आपुच्छित्ताण ठंति सट्ठाणे । सुत्तत्थकरणहेउं आयरिए ठियमि देवसियं ॥१३८०॥
'आयरिए ठिअंमि 'ति यदा गुरुः सामायिकं कृत्वा वोसिरामित्ति भणित्वा स्थित उत्सर्ग, तदा पूर्वस्थिता देवसिकातिचारं चिन्तयन्ति, अन्ये भगन्ति यदा गुरुः सामायिकं करोति तदा पूर्वस्थिता अपि सामायिकं कुर्वन्ति ॥ १३८० ॥ जो हुज उअसमत्थो बालो वुड्डो गिलाण परितंतो। सो विकहाइ विरहिओ अच्छिज्जा निजरापेही।१३८१ ।।
परिश्रान्त:-प्राघूर्णकादिः, सोऽपि स्वाध्यायध्यानपरस्तिष्ठति, तदा तेऽपि बालादयस्तिष्ठन्त्येतेन विधिना ॥ १३८१ ॥ आवासगंतु काउं जिणोवइष्टुं गुरूवएसेणं। तिण्णि थुई पडिलेहा कालस्त इमा विही तत्थ ॥१३८२॥
कृत्वाऽऽवश्यकमन्यास्तिस्रस्तुतीः पठन्ति, अथवा एका एकश्लोकिका द्वितीया द्विश्लोकिका, तृतीया त्रिश्लोकिका
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आवश्यक
निर्युक्तेरव
चूणिः ।
11860 1:
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तत्समाप्तौ कालप्रति लेखनाविधिरयं कार्यः ।। १३८२ ।।
दुविउ होइ कालो वाघाइम इतरो य नायवो । वाघातो घंघसालाए घट्टणं सङ्घकणं वा ॥१३८३॥ यातिरिक्ता वसतिः कार्यटिकासेविता च सा घवसाला तस्यां निर्गच्छतां घट्टनपतनादिव्याघातदोषः, श्राद्धकथनेन च वेलातिक्रमः ।। १३८३ ॥
वाघाए तइओ सिं दिज्जइ तस्लेव ते निवेति । इयरे पुच्छति दुवे जोगं कालस्स घेच्छामो ॥१३८४॥ तत्र व्यावातिके द्वौ कालप्रतिजागरको निर्यातस्तयोस्तृतीय उपाध्यायादिदयते, तावापृच्छनं सन्देशनं कालप्रवेदनं तस्यैव कुरुतः अत्र द (ग) ण्डकदृष्टान्तो न स्यात्, इतरे उपयुक्तास्तिष्ठन्ति, शुद्धे काले उपाध्यायस्य प्रवेदयन्ति, तदा दण्डधरो बहिः कालप्रतिचरकस्तिष्ठति इतरे चान्तर्विशन्ति तदा उपाध्यायसमीपे सर्वे युगपत् प्रस्थापयन्ति, पश्चादेको निर्यात, दण्डधर एति, तेन प्रस्थापिते स्वाध्यायं कुर्वन्ति ।। १३८४ ।। इतरथा निर्व्याघाते ' इयरे 'इत्यादिव्याख्या - आपुच्छण किइकम्मे आवासिय पडियरिय वाघाते । इंदिय दिसा य तारा वासमसज्झाइयं चेव ।। १३८५ ॥ द्वौ नौ गुरुमापृच्छतः कालं गृहीष्यावः, ततो गुर्वनुज्ञातो 'किइकम्मे ' त्ति वन्दनकं कृत्वा दण्डकं कृ(गृहीत्वा आवश्यकमासजे ( शय्यामि ) ति भगन्ती [ प्रमार्जन्तौ ] निर्यातः, अन्तरे च यदि स्खलः ( प्रस्खलतः ) पततो वा वस्त्रादि वा लिगति कृतिकर्मादि किञ्चिद्वितयं कुरुतः गुरुर्वा प्रतीच्छन् वितथं करोति ततः कालव्याघातः, अयं कालभूमेः ॥ १८० ।।
•
काल.
ग्रहण
विधिः
नि०गा०
१३८३
१३८५
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आवश्यक नियुक्तरव- पूर्णिः।
।। १८१॥
प्रतिचरणविधिः, इन्द्रियैरुपयुक्तौ प्रतिचस्तः, 'दिसति यत्र चतस्रोऽपि दिशो दृश्यन्ते, ऋतुबद्धे यदि तिस्रस्तारा दृश्यन्ते । कालयदि तु नोपयुक्तो अनिष्टो वा इन्द्रियविषयो दिगमोहो वा दिशो वा तारका न दृश्यन्ते वर्ष वा पतति अस्वाध्यायिकं वा ग्रहणजातं ततः कालवधः ॥ १३८५ ॥ किञ्च
विधि: जइ पुण गच्छंताणं छीयं जोइं ततोनियत्तेति। निवाघाए दोणि उ अच्छति दिसा निरिक्खंता ॥१३८६॥ निगा० यदि तयोर्गुरुसमीपात कालभूमौ यातोः क्षत्स्यात ज्योतिर्वा स्पृशति ततो निवर्ततः, निावाते द्वावपि कालभूमि
१३८६गतौ सन्दंशकं प्रमार्जनादि विधिना ( सन्देशकादिविधिना प्रमृज्य ) निषण्णौ ऊर्ध्वस्थितौ वा एकैको द्वे द्वे दिशौ निरीक्ष
१३८८ माणौ स्तः ॥ १३८६ ॥ किश्च तत्र कालभूमिस्थौसज्झायमचिंतंता कणगं दहण पडिनियत्तति। पत्ते य दंडधारी मा बोलं गंडए उवमा ॥१३८७॥
स्वाध्यायमकुवन्तौ कालवेलां च प्रतिचरन्तौ तिष्ठतः, ग्रीष्मे त्रीन् शिशिरे पञ्च वर्षासु सप्त कनकान् दृष्ट्वा निवर्त्ततः, अथ निर्व्याघातेन प्राप्ता कालग्रहणवेला तदा यो दण्डधारी सोऽन्तः प्रविश्य भणति-बहुप्रतिपूर्णा कालवेला मा बोलं कुरुत, अत्र द(ग)ण्डकोपमा क्रियते ।। १३८७ ॥ आघोसिए बहुहिं सुयमि सेसेसु निवडए दंडो। अह तं बहुहिं न सुयं दंडिजइ गंडओ ताहे॥१३८८॥
यथा लोके ग्रामादिद(ग)ण्डकेनाघोषिते बहुभिः श्रुते स्तोकैरश्रुते प्रामादिष्व(दिस्थितिम )कुर्वत्सुदण्डः स्यात्, बहु- IN॥ १८१॥
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आवश्यक- नियुक्तरवः
चूर्णिः । ॥१८२॥
मिरश्रुते द(ग)ण्डकस्य दोषस्तथेहापि ज्ञेयं । ततो दण्डधरे निर्गते कालग्राही उत्तिष्ठति ॥ १३८८ ॥ स चेदृशः
कालपियधम्मो दढधम्मो संविग्गो चेव वजभीरू या खेयन्नो य अभीरू कालं पडिलेहए साहू ॥१३८९॥ NI
ग्रहणखेदवः सत्यवान् कालप्रतिलेखकः प्रतिजागरको ग्राहकश्वेशः॥१३८९॥ तौ च तद्वेला प्रतिचरन्तौ ईदृशं कालं तोलयत:
विधिः
निगा० कालो संझा यतहादोविसमप्पंति जह समंचे। तह तं तुलेंति कालं चरिमं च दिसं असंझाए ॥१३९०॥ अथवा चरमदिकायोत्सर्गोऽसन्ध्याका सन्ध्यातिक्रमेऽपि क्रियते न दोषः ॥ १३९० ।। स कालग्राही वेलां तोलयित्वा
१३८९
१३९२ कालभूमेः सन्देश(न्दिशन)निमित्तं गुर्वन्ते याति, तत्रायं विधिःआउत्तपुत्वभणियं अणपुच्छा खलियपडियवाघाओ।भासंतमूढसंकिय इंदियविसए तु अमणुण्ण।१३९१॥ ___ यथा निर्गच्छन् आयुक्तो निर्गतस्तथा प्रविशनप्यायुक्तः प्रविशति, पूर्वनिर्गत एवं यद्यनापृच्छय गृह्णाति प्रविशन्वा स्खलति, अत्रापि कालवधः, अथवा 'घाउ 'त्ति अभिधातो लेष्टवादिना, वन्दनं ददानोऽन्यद्भापमाणो दत्ते, क्रियासु वा मूढः,
आवादिषु वा शङ्का कृता न वेति, इन्द्रियविषयो वाऽमनोज्ञ आगतस्ततः कालवधः ॥ १३९१ ॥ | निसीहिआ नमुक्कारे काउस्सग्गेयपंचमंगलए।किइकम्मंच करिता बीओ कालं तु पडियरइ ॥१३९२॥ |
प्रविशतस्तिस्रो नैषेधिकी: करोति, नमो खमासमणाणं करोति, ईर्यापथिक्यां पञ्चोच्छासकालिकात्सर्ग करोति, उत्सारिते 'नमो अरिहंताणं 'ति पञ्चमङ्गलं पठति । ततः कृतिकर्म ददाति भणति च सन्दिशत प्रादोषिकं कालं गृहामि । ॥१८२॥
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॥ १८३ ॥
आवश्यक- गृहाणेति गुरुवचनं, एवं यावत्कालग्राही सन्दिश्याऽऽयाति तावद् द्वितीया-दण्डधरः कालं प्रति चरति ॥ १३९२ ॥ पुनः
कालनियुक्तेरव- पूर्वोक्तेन विधिना निर्गतः कालग्राही
ग्रहणचर्णिः । थोवावसेसियाए संझाए ठाति उत्तराहुत्तो । चउवीसगदुमपुस्फियपुवगमेक्ककि अदिसाए ॥१३९३॥ विधिः
'उत्तराहत्तोत्ति उत्तरामुखः वामपार्श्वे ऋजु[तिर्यग् दण्डधारी पूर्वाभिमुखस्तिष्ठति, कालग्रहणनिमित्तं अष्टोच्छ्रासकालिक निगा कायोत्सर्ग करोति, उत्सारिते चतुर्विंशतिस्तवं दुमपुष्पिका श्रामण्यपूर्व[क]पस्खलितमनुप्रेक्ष्य पश्चात्सूर्वादिषु प्रत्येकमेत- १३९३. दनुप्रेक्षते ॥ १३९३ ॥ कालं गृह्णतः एते व्याघाता ज्ञेया:बिंद छीए[य]परिणय सगणेवा संकिए भवेतिण्हं।भासंत मूढ संकिय इंदियविसए य अमणुण्णे।१३९४।। ____ अङ्गे यादकविन्दुः पतितोऽयवाऽङ्गे पार्श्वतो वा रक्तबिन्दुः, आत्मनः परतो वा क्षुजाता, अध्ययनं वा कुर्वतो यद्यन्यो भावः परिणतः, 'सगणे 'त्ति स्वगच्छे साधुत्रयस्य गर्जितादिशकायां, भवेद् व्याघातः ॥ १३९४ ॥ पश्चार्द्धस्य पूर्व IN न्यस्तस्य वा विभाषामूढो व दिसिज्झयणे भासंतो यावि गिण्हति न सुज्झे । अन्नं च दिसज्झयणे संकेतोऽनिविसए वा १३९५/
दिशमध्ययनं वा प्रति मूढः, स्फुटमेव व्यञ्जनामिलापेन भाषमाणो गृह्णाति, बुडबुडारावं वा कुर्वन् , एवं न शुद्ध्यति, अस्यां दिशि स्थितो न वा, अध्ययनमिदं चिन्तितं न वेति शङ्कति, इन्द्रियविषये चामनोज्ञे व्याघाता, यथा श्रोत्रस्य रुदितं
॥१८३॥
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शा
--
आवश्यकनियुक्तरव
चर्णि
-
॥१८४॥
ज्यन्तरेण वाढहासं कृतं, रूपे विकृतरूपं रष्ट, गन्धे कडेवरादिगन्धः रसस्तस्यैव, स्पोंऽग्निज्वालादि, यद्वा इष्टे राग यात्य
कालनिटे द्वेष ॥ १३९५ ॥ इत्याधु घातवर्जितं कालं लावा कालनिवेदनाय गुरुपार्थमागच्छत इदमाह
ग्रहणजो गळतमि विही आगच्छंतमि होइ सो चेव । जं एत्थ जाणत्तं तमहं वोच्छं समासेणं ॥१३९६ विधिः एषा भद्रबाहकृता । अस्यामतिदेशे कृतेऽपि सिद्धसेनक्षमाश्रमणोऽतिदेशं व्याख्याति
निगा. निमीडियाआसज्ज अकरणेखलिय पडियवाघाए। अपमजिय भीए वाछीए छिन्नेव कालवहो॥१॥
१३९६__यदि निर्गन्छन् आवश्यकीं न करोति, प्रविशन्वा नैषेधिकीं न करोति, गुरुसमीपमागच्छतोऽन्तरा यदि श्वमार्जारादि
१३९७ छिन्दति, शेषं पूर्वव्याख्यातं, एतेषु सर्वेषु कालवधः ॥१॥ गोणाइ कालभूमीइ हुज्ज संसप्पगाव उट्ठिजा। कविहसिअविज्जुयंमी गजिय उक्काइ कालवहो॥२॥(प्र०)।
पूर्व गुरुमापुच्छ्य कालभूमि गतस्तत्र यदि गवादिकं निषण्णं संसर्पका:-कीटिकोपदेहिकाद्या वा उत्थिता: ( उष्ट्रादि) पश्येत्ततो निवर्तते. यदि कालं प्रतिलेखयतो गृहतो निवेदनाय गच्छतो वा कपिहसितादि जातं तदा कालवधा, कपिइसितं नाम आकाशे विकृतं मुखं वानरसदृशं हासं कुर्यात् ॥ २ ॥ कालग्राही निर्व्याघातेन गुरुमूलमागत:इरियावाहिया हत्थंतरेऽविमंगल निवेयणा दारे। सोहि विपविए पच्छा करणं अकरणं वा॥१३९७॥ - यदि गुरोर्हस्तान्तरमात्रे कालो गृहीतस्तथापि कालप्रवेदनायामीर्यापथिकी प्रतिक्रान्तण्या, पञ्चोकासमात्रमुत्सर्ग १८४॥
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आवश्यकनियुक्तेरव-
चूर्णि।
काल. ग्रहणविधिः निगा. १३९८१४०१
कुर्वन्ति, उत्सारितेऽपि पञ्चमङ्गलं पठन्ति वन्दनं दत्त्वा कालं निवेदयन्ति शुद्धःप्रादोपिकः काल इति, दण्डधरं मुक्वा शेषाः सर्वे युगपत्प्रस्थापयन्ति, किं कारणं ? उच्यते, अत्र मरुकदृष्टान्तः ॥ १३९७ ॥ सन्निहियाण वडारो पटुविय पमादि णो दए काला बाहि ठिए पडियरए विसई ताएऽवि दंडधरो॥१३९८॥
यथा सन्निहिताना मरुकानां 'वडारो'त्ति वण्टो-विभाग इत्यर्थो लभ्येत, न परोक्षस्य, तथा देशकथादिप्रमादिनः कालं न ददति, 'दारे 'त्ति अस्य व्याख्या-'बाहि ठिए' इत्यादि, मध्यावहिः स्थिते प्रतिचरके प्रविशति दण्डधरः ।। १३९८ ॥ सवेहि वि इत्यादिपश्चास्य व्याख्यापटुविय वंदिए वा ताहे पुच्छंति किं सुयं ? भंते!। तेवि य कहेंति सवं जं जेण सुयं व दिटुं वा ।।१३९९॥
दण्डधरेण सर्वैरपि [च प्रस्थापिते वन्दिते दण्डधरोऽन्यो वा पृच्छति-केन किं श्रुतं दृष्टं वेति, ते सर्व कथयन्ति, यदि सर्भणितं न किश्चित् दृष्टं श्रुतं वा, ततः शुद्धे कुर्वन्ति स्वाध्यायं ॥ १३९९ ।। अथ शङ्कितंइक्कस्स दोण्ह व संकियंमि कीरइ न कीरती तिण्हं । सगणमि संकिए परगणं तु गंतुंन पुच्छति॥१४००॥
योकेन सन्दिग्धं-दृष्टं श्रुतं वा ततः क्रियते, त्रयाणां विद्युदाघेकसन्देहे न क्रियते स्वाध्यायः, त्रयाणामन्यान्यसन्देहे क्रियते, स्वगणे शङ्किते परगणवचसा न क्रियते ॥ १४००॥ कालचउक्के णाणत्तगं तु पाओसियंमि सवेवि । समयं पटुवयंती सेसेसु समं च विसमं वा ॥१४०१॥
॥ १८५॥
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आवश्यक नियुक्तेरव-
चूर्णिः ।
एतत्सर्व प्रादोषिके भणितं, सम्प्रति चतुषु कालेषु किश्चित्सामान्य किश्चिद् विशेषितं भणामि, प्रादोषिके दण्डधरं मुक्त्वा
कालशेषाः सर्वे युगपत् प्रस्थापयन्ति ॥ १४०१॥ किश्चान्यत्
ग्रहणइंदियमाउत्ताणं हणंति कणगा उतिन्नि उक्कोसं।वासासयतिन्नि दिसा उउबद्धे तारगा तिन्नि॥१४०२॥ly
विधिः सुष्ठु इन्द्रियोपयुक्तः सर्वे कालाः प्रति जागरितव्या:-ग्राह्याः, त्रयः कनका ग्रीष्मे घ्नन्ति, तदुत्कृष्टं चिरेण व्यापा- |निगा. तात् , सप्त जघन्येन, शेषं मध्यमं ॥ १४०२ ॥ अस्य व्याख्या
१४०२कणगा हणंति कालं ति पंच सत्तेव गिम्हि सिसिरवासे। उक्का उसरेहागा रेहारहितो भवे कणओ॥१४०३॥ १४०५
कनका ग्रीष्मे त्रयः शिशिरे पञ्च वर्षासु सप्त ध्नन्ति, उल्का त्वेकैव ।।१४०३॥ 'वासासु य तिमि दिसा' अस्य व्याख्यावासासु यतिन्नि दिसा हवंति पाभाइयंमि कालमि। सेसेसु तीसुचउरो उडुमि चउरो चउदिसिंपि।१४०४।।
वर्षासु यत्र स्थितस्तिस्रोऽपि दिशः प्रेक्षते तत्र प्रामातिकं, शेषेषु विष्वपि कालेषु वर्षाषु यत्र स्थितश्चतुरोऽपि दिग्भागान् प्रेक्षते तत्र, ऋतुबद्धे चत्वारोऽपि कालांश्चतुर्दिगवलोके गृह्णन्ति ॥ १४०४ ॥ ' उउबद्धे तारगा तिन्नि' अस्य व्याख्यातिसु तिन्नि तारगाओ उडुमि पाभातिए अदिद्वेऽवि। वासासु[य]तारगाओ चउरो छन्ने निविट्ठोऽवि१४०५
त्रिके च (त्रिषु कालेषु) जघन्येन यदि त्रीस्तारकान् प्रेक्षते ततो गृह्णाति, ऋतुबद्धे अभ्रादिसंस्तुते योकोऽपि न दृश्यते तथापि प्रामातिकं गृह्णन्ति, वर्षासु चत्वारोऽपि कालास्तारकाऽदर्शनेऽपि गृह्यन्ते ॥१४०५॥ 'छन्ने निविडो ति अस्य व्याख्या
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Jod
आवश्यक नियुक्तरवचूर्णिः ।
ठाणासइ बिंदूसुअ गिण्हं चिट्ठोवि पच्छिमं कालं। पडियरइ बहिं एक्को एक्को (व) अंतढिओ गिण्हे १४०६/- कालबसतेबहिः स्थानाभावेऽन्तश्छन्ने ऊर्ध्वस्थितो गृह्णाति, बहिःस्थितश्चैकः प्रतिक्षरति । वृष्टिबिन्दुषु पतस्सु नियमादन्तः |
ग्रहणऊर्ध्वस्थितो निषण्णो वा गृह्णाति, प्रतिचरकोऽप्यन्तः स्थित एवं प्रतिचरति । एष गच्छोपग्रहार्थ प्राभातिकेऽपवादविधिः, शेषाः
विधिः स्थानाभावे न ग्राह्याः ॥ १४०६ ॥ कालं गृहतो दिगाभिमुख्य(ख)माह
निगा. पाओसि अट्टरत्ते उत्तरदिसि पुत्व पेहए कालं। वेरत्तियंमि भयणा पुवदिसा पच्छिमे काले॥१४०७॥ १४०६प्रादोपिकऽर्द्धरात्रिके च नियमादत्तराभिमुखस्तिष्ठति, वैरात्रिके भजना, उत्तराभिमुखः पूर्वाभिमुखो वा, प्रामाति के ।
१४०९ नियमात्पूर्वाभिमुखः॥ १४०७॥ कालग्रहणपरिमाणमाहकालचउक्कं उक्कोसएण जहन्न तियं तु बोद्धवं । बीयपएणं तु दुगं मायामयविप्पमुक्काणं ॥ १४०८ ।। ____उत्कर्षतश्चत्वारो ग्राह्याः, उत्सर्गेण एव जघन्येन त्रिकं, द्वितीयपदेऽपवादे द्वयं स्यात् , मायाविप्रमुक्तस्य कारणे एकमपि कालमगृढतो न दोषः ॥ १४०८ ।। कथं कालचतुष्कं ?, उच्यतेफिडियंमि अहरत्ते कालं चित्तुं सुवंति जागरिया। ताहे गुरू गुणंती चउत्थि सवे गुरू सुअइ ॥१४०९॥ ___ प्रादोषिकं कालं गृहीत्वा सर्वे सूत्रपौरुषी कृत्वा पूर्णपौरुष्यां सूत्रपाठिन: स्वपन्ति, अर्थचिन्तका: कालपाठिनो ( उत्कालिकपाठकाश्च ) जाग्रति यावदर्द्धरात्रं, स्फिटितेऽतिक्रान्तेऽर्द्धरात्रे कालं गृहीत्वा ते स्वपन्ति, गुरुरुत्थाय गुणयति ॥१७॥
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आवश्यक निर्युक्तेरव
चूर्णिः ।
॥ १८८॥
यावच्चरमो यामः प्राप्तस्तस्मिन् सर्वे उत्थाय वैरात्रिक गृहीत्वा स्वाध्यायं कुर्वन्ति, तदा गुरुः स्वपिति, प्राप्ते [प्रामातिककाले यः कालप्रामातिकं कालं ग्रहीष्यति स कालं प्रतिक्रम्य प्राभातिककालं गृह्णाति, शेषाः कालवेलायां प्रामातिककालस्य प्रतिक्राम्यन्ति, ग्रहण ततः आवश्यकं कुर्वन्ति, एवं चत्वारः काला भवन्ति, त्रयः कथं ?, उच्यते, ] प्रामातिकेऽगृहीते शेषास्त्रयः, अथवा
विधिः गहियमि अङ्कुरत्ते वेरत्तिय अगहिए भवइ तिन्नि। वेरत्तिय अडरते अइ उवओगा भवे दुषिण ॥१४१०॥लानिगा०
१४१०. पडिजग्गियंमि पढमे बीयविवजा हवंति तिन्नेव । पाओसिय वेरत्तिय अइउवओगा उ दुण्णि भवे॥१४११॥
१४१२ वैरात्रिकेऽगृहीते शेषेषु त्रिषु गृहीतेषु त्रयः, अर्द्धरात्रिके वाऽगृहीते त्रयः, प्रादोषिकार्द्धरात्रयोहीतयोद्धा, अथवा प्रादोषिके वैरात्रिके च गृहीते द्वौ, अथवा प्रादोषिकप्राभातिकयो(योरगृहीतयोः, अत्र विकल्प प्रादोषिकेणैवानुपहतेन उपयोगतः सुप्रतिजागरितेन सर्वकालेन पठन्ति न दोषः, अथवाऽर्द्धरात्रिकवरात्रिकाग्रहणे द्वौ, अथवाऽर्द्धरात्रिकामातिको, वैरात्रिकप्रामातिको वा, यदा एक एष तदाऽन्यतरं गृह्णाति । कालचतुष्केऽग्रहण कारणान्येतानि-प्रादोषिकं न गृह्णन्ति, अशिवादिकारणतो न शुक्ष्यति, एवमर्द्धरात्रिकमपि न गृहन्ति [ कारणतो न शुद्ध्यति वा ] प्रादोषिकेण वा सुप्रतिजागरितेन पठन्ति न गृहन्ति, वैरात्रिक कारणतो [न गृहन्ति ] न शुक्ष्यति वा, प्रादोषिकार्द्धरात्रिकेण (काभ्यां ) वा पठन्ति, [त्रीणि वा] न गृह्णन्ति प्राभातिकं कारणतो वा [न गृह्णन्ति ] न शुद्ध्यति वा वैरात्रिकेण दिवसेन पठन्ति ।। १४१०-१४११ ॥ प्रामातिक[काल]ग्रहणविधिमाह
१८८॥
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चूर्णिः
।
आवश्यक- पाभाइयकालंमि उसंचिक्खे तिन्नि छीयरुन्नाणि । परवयणे खरमाई पावासिय एवमादीणि ॥१४१२ ॥ नियुक्तेरव
अस्या व्याख्या[माष्यकारः] स्वयमेव करिष्यति, तत्र प्राभातिके ग्रहणविधिः प्रस्थापनाविधिश्च, ग्रहणविधिरयं-
नवकालवेलसेसे उवग्गहियअट्ठया पडिक्कमइ । न पडिक्कमइ वेगो नववारहए धुवमसज्झाओ।भा.२२४॥ ॥१८९ मा सर्वेषामनुग्रहार्थ नवकालग्रहणकालाः प्रामातिकेऽनुज्ञाताः, अतो नवकालवेलासु शेषासु प्राभातिकग्राही कालस्य प्रति
क्रमते, शेषास्तदा प्रतिक्रामन्ति वा न वा, एको नियमान प्रतिक्रामति, यदि क्षुतरुदितादिभिर्न शुद्ध्यति ततः स एव वैरात्रिका प्रतिजागरितो भविष्यति, स शुद्धो गुरोः कालं निवेद्यानुदिते सूर्ये कालस्य प्रतिक्रमते, यदि गृह्यमाणो नववारा हतः ततो ज्ञायते ध्रुवमस्वाध्यायिकमस्तीति न कुर्वन्ति स्वाध्यायं ।। २२४ ॥ नववाराग्रहणविधिरयं-'संचिक्खे तिन्नि छीयरुनाणि 'त्ति अस्य व्याख्याइक्किक तिन्नि वारे छीयाइहयंमि गिण्हए काला चोएइ खरो बारस अणिविसए अकालवहभा.२२५॥
एकस्य गृह्णतः क्षुतादिहते ‘संचिक्खइ 'त्ति ग्रहणाद्विरमतीत्यर्थः, पुनद्वाति, पुनर्ग्रहाति, एवं वारत्रयं, ततः परमन्योऽन्य स्थण्डिले वारत्रयं, तस्याप्युपहतेऽन्योऽन्यत्र वारत्रयं । अभावे ग्राहकस्थण्डिलानां एक एव एकत्रैव नववारा गृह्णाति ।। २२५ ॥ 'परवयणे खरमाइ'त्ति अस्य व्याख्या-प्रेरक आह-यदि रुदितेऽनिष्टे कालवधः ततः खरेण रटिते द्वादशाब्दान्युपहन्तु, अन्येष्वप्यनिष्टेन्द्रियविषयेषु एवमेव कालवधो भवतु, आचार्य आह
प्रामातिक कालग्रहणविधिः निगा०
१४१२ भागा. २२४
२२५
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आवश्यक- नियुक्तेरव
चूर्णि ॥१९०।
२२६
चोअग माणुसऽणिटे कालवहोसेसगाण उपहारो। पावासुआइ पुत्विं पन्नवणमणिच्छ उग्घाडे ।भा.२२६। प्रामातिक
मानुषस्वरेऽनिष्टे कालवधः, शेषकानां तिरश्चां यद्यनिष्टः प्रहारशब्दः श्रूयते, ततः कालवधः 'पावासिति अस्य कालग्रहणव्याख्या-पावासुआइ इत्यादि, यदि प्रामातिकग्रहणवेलायां प्रोषितभार्या दिने दिने रोदिति ततो रोदनवेलायाः पूर्व
विधि: कालो ग्राह्यः, अथ साऽपि प्रत्यूपे रोदिति तदा दिवा गन्तुं (गत्वा ) प्रज्ञाप्यते, प्रज्ञापनमनिच्छन्त्यां उग्घाडण उस्सग्गो भा०मा० कीरइ ॥ २२६ ।। ' एवमाणीणि ' त्ति अस्य व्याख्यावीसरसहरुअंते अवत्तगडिंभगमि मा गिण्हे ।गोसे दरपट्ठविए छीए छीए तिगी पेहे ॥ २२७ ॥ (भा०) २२७
अत्यायासेन रुदन् विस्वरमुच्यते, तदुपहन्ति, यन्मधुरशन्दं घोलमानं च तन्नोपहन्ति, यावन्न सुजल्पति तावदवक्तव्यं निगा० (दव्यक्तं), तदाल्पेनाप्यविस्वरेणोपहन्ति । अथ प्रस्थापनविधि:-'गोसे' ति आदित्योदये दिगवलोकं कृत्वा प्रस्था- १४१३ पयन्ति, 'दरपट्टविए 'त्ति अर्द्धप्रस्थापिते यदि क्षुतादिना भग्नं प्रस्थापनमन्यो दिगवलोके कृते प्रस्थापयति, एवं तृतीय. वारायां, दिगवलोककरणे पुन: पुनरिदं कारणंआइन्न पिसिय महिया पेहित्ता तिन्नि तिन्नि ठाणाई। नववारहए काले हउत्ति पढमाइन पढंति १४१३
आकीर्ण पिशितं काकादिभिरानीतं भवेत् , महिका वा पतितुमारब्धा, एवमादि[भिः] एकस्मिन् स्थाने तिस्रो वारा हते हस्तशतादहिरन्यस्थाने गत्वा पेहंति ' ति प्रस्थापयन्ति, तत्रापि पूर्वोक्त विधानेन तिस्रो वारा: प्रस्थापयन्ति । एवं
१९०॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरव
चूर्णिः । ॥ १९१॥
द्वितीयस्थानेऽप्यशुद्ध ततोऽपि हस्तशतबहिरन्यस्थाने गत्वा प्रस्थापयन्ति, नववारा हते क्षुतादिना नियमाद् हतः कालः, प्रामातिकप्रथमायां पौरुष्यां न कुर्वन्ति स्वाध्यायं ॥ १४१३ ।।
कालग्रहणपट्टवियंमिसिलोगे छीए पडिलेह तिन्नि अन्नत्थ। सोणिय मुत्तपुरीसे घाणालोअंपरिहरिजा ॥१४१४॥ विधिरात्म.
यदा प्रस्थापनेत्रीण्यध्ययनानि समाप्तानि [तदा] तदुपर्वेकः श्लोकः पठितव्यः, तस्मिन् समाप्ते प्रस्थापनं समाप्नोति, समुत्थायदा श्लोकेऽर्द्धपठिते क्षुतं तत्र पुनःप्रस्थाप्यति, एवं तिस्रो वारास्तत्र, ततोऽन्यत्र गम्यते, 'सोणिप्रति अस्य व्याख्या
स्वाध्याआलोअंमि चिलिमिणी गंधे अन्नत्थ गंतु पकरंति । वाघाइयकालंमी दंडग मरुआ नवरिनत्थि १४१५ यिकंच यत्र स्वाध्यायं कुर्वद्भिः शोणितलवा दृश्यन्ते तत्र न क्रियते स्वाध्यायः, कटं चिलिमिलि-जवनिका वा अन्तरे दत्त्वा
निगा. क्रियते, मूत्रपुरीषादिदुर्गन्धे तत्रागच्छति अन्यत्र वा गत्वा कुर्वन्ति । एतत्सर्व निर्व्याघातकाले मणितं । व्यापातिकेऽप्येवमेव,
१४१४नवरं द(ग)ण्ड कमरुकदृष्टान्तावत्र न भवतः ॥ १४१५॥
१४१७ एएसामन्नयरेऽसज्झाए जो करेइ सज्झायं । सो आणाअणवत्थं मिच्छत्त विराहणं पावे ॥१४१६ ॥
परसमुत्थस्वाध्यायिकद्वारं सप्रपञ्च गतं, अथात्मसमुत्थास्वाध्यायिकद्वारमाहआयसमुत्थमसज्झाइयंतु एगविध होइ दुविहं वा। एगविहं समणाणं दुविहं पुण होइ समणीणं १४१७/ श्रमणीनां द्विविधं व्रणे ऋतुसम्मवे च ॥ १४१७ ॥ इदं व्रणे विधान
P॥१९१॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरव
चूर्णिः ।
१९२ ॥
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धोयांम उ निप्पगले बंधा तिन्नेव हुंति उक्कोसं । परिगलमाणे जयणा दुविहमि य होइ कायद्वा ।। १४९८ ॥ प्रथममेव व्रणो हस्तशतबहित्वा निष्प्रगलः कृतः, ततः परिगलति त्रितयो ( त्रयो) बन्धा भवन्त्युत्कर्षतः परिगलति क्षालयति तत्र यतना वक्ष्यमाणा द्विविधेऽपि व्रणसम्भवे ऋतुसम्भवे च एवं पट्टकयतना कर्त्तव्या ।। १४१८ ॥ समणो वणिव भंगदरिव बंधं करितु वाएइ । तहवि गलंते छारं दाउं दो तिन्नि बंधा उ ॥ १४१९ ॥ व्रणे भगन्दरे च धौते निष्प्रगले हस्तशतबहिः पटुकं दत्त्वा वाचयति, एवं तथापि गलति भिन्ने तस्मिन् पट्टके तस्यैवोपरि च्छारं दवा पुनः पट्टकं दवा वाचयति । एवं तृतीयमपि पट्टकं बच्चा वाचयति । ततः परं गलति हस्तशत बहिर्गत्वा aj पट्टकं च धौत्वा पुनरनेनैव क्रमेण वाचयति, अथवा अन्यत्र गत्वा पठन्ति ॥ १४१९ ॥
एमेव य समणीणं वर्णमि इअरंभि सत्त बंधा उ । तहविय अठायमाणे धोएउं अहव अन्नत्थ || १४२०॥ इतरस्मिनृतुसम्भवे, तत्राप्येवमेव ॥ १४२० ।।
एएसामन्नरेऽज्झाए अप्पणो उ सज्झायं । जो कुणइ अजयणाए सो पावइ आणमाईणि १४२१
न केवलमाज्ञाभङ्गादयो दोषाः किन्तु -
सुयनाणंमि अभत्ती लोअविरुद्धं पमत्तछलणा य। विज्जासाहणवइगुन्नधम्मया एव मा कुणसु ॥ १४२२ ॥ | श्रुतज्ञानेऽनुपचारतोऽभक्तिः, यदिहलोकविरुद्धं च तन्न कर्त्तव्यं, अविधिना च प्रमत्तो लभ्यते, तं देवता छलयेत्,
आत्म
समुत्था
स्वाध्या
यिकं
नि०गा०
१४१८
१४२२
। १९२ ।।
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आवश्यक-IN| यथा विद्या साधनवैगुण्यधर्मतया न सिद्ध्यति, एवमिहापि कर्मक्षयो न स्यात् , तस्मादस्वाध्याये स्वाध्यायं मा कार्षीः निर्युक्तेरव- ॥ १४२२ ॥ प्रेरकः प्राह-यदि दन्तमांसाधस्वाध्यायो ननु देह एतन्मय एव तेन कथं स्वाध्यायः क्रियते ?, गुरुराह- | चूर्णि।
कामं देहावयवा दंताई अवज्जुआ तहवि वजा। अणवज्जुआ न वज्जा लोए तह उत्तरे चेव ॥ १४२३॥
काममनुमताथें, सत्यं तन्मयो देहः, तथापि ये शरीरादवयुता:-पृथग्भूतास्ते वाः , अनवयुतास्तत्रस्थास्ते नो वाः । एवं लोके दृष्ट, लोकोत्तरेऽप्येवमेव ॥१४२३ ॥ किश्चान्यत्अभितरमललित्तोवि कुणइ देवाण अञ्चणं लोए।बाहिरमललित्तो पुण न कुणइ अवणेइ य तओणं१४२४
अपनयति च ततो बाह्यमलं ॥ १४२४ ।। किश्वान्यत्आउहियाऽवराहं संनिहिया नखमए जहा पडिमा। इह परलोए दंडोपमत्तछलणा इह सिआ उ १४२५ |
या प्रतिमा ' संनिहिय 'त्ति देवताधिष्ठिता, तां यदि कोऽप्याकुट्टयोपेत्य स्पृशति बाह्यमललिप्तः ततः साऽपराधं न क्षमते रोगं जनयति मारयति वा, एवं योऽस्वाध्यायिक स्वाध्यायं करोति तस्य कर्मबन्धः, एष पारलौकिको दण्डः, इहलोके प्रमत्तं देवता छलयेत् ॥ १४२५ ॥ स्यात् कदाचित् कोऽप्येतैरप्रशस्तकारणैरस्वाध्यायिके स्वाध्यायं कुर्यात्रागेण वदोसेण वऽसज्झाए जो करेइ सज्झायं। आसायणा व का से? को वा भणिओ अणायारो १४२६ रागेण वा [ दोषेण वा ] कुर्यात् , अथवा दर्शनमोहमोहितो मणति-काऽमूर्तस्य ज्ञानस्याशातना ? को वा तस्याना
१७
अस्वाध्यायिके स्वा. ध्यायस्य
दोषाः नि० गा० १४२३१४२६
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आवश्यक
निर्युक्तेरव
चूर्णिः ।
॥ १९४ ॥
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चारो १, नास्तीत्यर्थः ॥ १४२६ ॥ तेषामियं विभाषा -
गणि सद्दमाइ महिओ रागे दोसंमि न सहए सद्दं । सबम सज्झायमयं एमाई हुंति मोहाओ ॥ १४२७ ॥ उम्मायं च लभेज्जा रोगायकं व पाउणे दीहं । तित्थयरभासियाओ भस्सइ सो संजमाओ वा ॥ १४२८ ॥
'महिओ'ति हृष्टः परेण गणिवाचकादिशब्दैर्व्याहियमाणः स्यात् तदभिलाषी अस्वाध्यायेऽपि स्वाध्यायं करोत्येवं रागे, द्वेषे किं गणिहिते वाचको वा, अहमध्यधायें ( ध्येष्ये ) येनास्य प्रतिद्वन्द्वी भवामि, यस्माजीवदेहावयवोऽस्वाध्यायिक तस्मात्सर्वमस्वाध्यायिकमयं न श्रघातीत्यर्थो मोहात् ॥ १४२७ ॥ इमे [च] दोषाः -- क्षिप्तादिकः उन्मादः चिरकालिको रोगः, आशुषात्यातङ्कः ॥ १४२८ ॥
इहलोए फलमेअं परलोए फलं न दिति विजाओ । आसायणा सुयस्स उ कुवइ दीहं च संसारं ॥ १४२९ ॥
विद्याः कृतोपचारा अपि फलं न ददति, विधेरकरणस्य परिभवरूपत्वात् ।। १४२९ ॥
असज्झाइयनिज्जुत्ती कहिया भे धीरपुरिसपन्नत्ता । संजमतवड्डगाणं निग्गंथाणं महरिसीणं ॥ १४३०॥ असज्झाइयनिज्जुत्तिं जुंजंता चरणकरणमाउत्ता। साहू खवेंति कम्मं अणेगभव संचियमणंतं ॥१४३१॥ इति अस्वाध्यायिक नियुक्त्यव चूणिः ।
अस्वाध्या
यिके स्वा
ध्यायस्य
दोषाः
नि०गा०
१४२७
१४३१
॥ १९४ ॥
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आवश्यक-IN नियुक्तरवचूर्णिः ।
सूत्रनिबद्धा अन्या. आशातनाः
असज्झाइयनिज्जुत्ती समत्ता॥ एयं सुत्तनिवळू अत्येणऽण्णंपि विण्णेयं । तं पुण अवामोहत्यमोहओ संपवक्खामि ॥१॥ तेत्तीसाए उवरिं चोत्तीसं बुद्धवयणअतिसेसा । पणतीस वयणअतिसय छत्तीसं उत्तरज्झयणा ॥ २॥ एवं जह समवाए जा सयभिसरिक्ख होइ सततारं । तथा चोक्तं-सयभिसया नक्खत्ते सएगतारे तहेत्र पण्णत्ते । इय संखअसंखेहिं तहय अणतेहिं ठाणेहिं ॥३॥ संजममसंजमस्स य पडिसिद्धादिकरणाइयारस्स । होति पडिकमणं तू तेतीसेहिं तु ताइ पुण ॥ ४ ॥ अवराहपदे सुत्तं अंतग्गय होति नियम सल्वेवि । सबो वइयारगणो दुगसंजोगादि जो एस ॥ ५ ॥ एगविहस्सासंजमस्सऽहव दीहपजवसमूहो । एवsतियारविसोहि काउं कुणती णमोकारं ॥ ६॥ इमा: षट् गाथा अन्यकर्टक्यः ॥ ६ ॥ उक्तो अनुगमो नयाः प्रागवत् ।
समाप्ता चेयं प्रतिक्रमणाध्ययनावणिः ॥
A
*
Talu१९५॥
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आवश्यकनियुक्तरव
अथ कायोत्सर्गाध्ययनम्
चूर्णिः ।
| कायोत्स
ध्ययने प्रायश्चि
चानि निगा १४३२. १४३३
प्रयोजनतो हस्तभरण विकटना मिध्यापा, छेदः-तपसा तेषु नावस्था
इह कायोत्सर्गाध्ययने प्रतिक्रमणेऽप्यशुद्धस्यापराधवणचिकित्सा प्रायश्चित्तमेपजात्प्रतिपावते, तत्र प्रायश्चित्त मेषजमेव | विचित्रमाहआलोयण पडिक्कमणेमीस विवेगेतहाविउस्सग्गे। तव छेय मूल अणवट्या य पारंचिए चेव ॥१४३२ __आलोचना-प्रयोजनतो हस्तशताबहिर्गमनागमनादौ गुरोविकटना, प्रतिक्रमण-सहसाऽसमित्या( तादौ मिथ्यादुष्कृतकरणं, मिश्रं शब्दादि[] रागादिकरणे विकटना मिथ्यादुष्कृतं च, विवेक:-अनेषणीयस्य भक्तादेस्त्यागः, व्युत्सा-कुस्वप्नादौ कायोत्सर्गः, तपः-पृथिव्यादिसङ्घनादौ निर्विकृतिकादितपः, च्छेद:-तपसा दुर्दमस्य श्रमणपर्यायच्छेदनं, मूलं-प्राणातिपातादौ पुनर्बतारोपणं, हस्ततालादिप्रमाद( प्रदान )दोषाद् दुष्टतरपरिणामत्वात् व्रतेषु नावस्थाप्यते इति अनवस्थाप्यस्तद्भावो अनवस्थाप्यता च, पुरुषविशेषस्य स्वलिङ्गराजपत्न्याद्यासेवनायां पारश्चिकं स्यात् ।। १४३२॥ एवं प्रायश्चित्तभैषजमुक्तं, अथ व्रणः प्रतिपाद्यते, स च द्विभेदः-द्रव्य व्रणो भावव्रणश्च, द्रव्यव्रणः शरीरक्षतलक्षणोऽसावपि द्विविध एव, तथा चाहदुविहो कायंमि वणो तदुब्भवागंतुओ अ णायवो।आगंतुयस्स कारइ सल्लुद्धरणं न इयरस्स ॥१४३३॥
तस्मादुद्भवो गण्डादिरागन्तुकश्च कण्टकादिप्रभवः, तत्रागन्तुकस्य क्रियते शल्योद्धरणं नेतरस्य-तदुद्भवस्य ॥१४३३ ॥
१९६॥
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आवश्यक नियुक्तेरवचूर्णिः ।
यद्यस्य यथोद्वियते उत्तरपरिकर्म च क्रियत द्रव्यव्रणे एव तदाह
द्रव्यव्रणतणुओ अतिक्खतुंडो असोणिओ केवलं तए लग्गो। अवउज्झत्ति सल्लो सल्लो न मलिज्जइ वणोउ १४३४
चिकित्सा ___ तनुकं कृशं, न तीक्ष्णतुण्डमतीक्ष्णमुखं, यस्मिन् शोणितं न विद्यते इत्यशोणितं केवलं त्वगलग्नमुद्धत्य 'अवउज्झत्ति | नि०मा० सल्लो'त्ति परित्यज्यते शल्यं, न मृद्यते व्रणः, स्वल्पत्वाच्छल्यस्य ॥१४३४॥ प्रथमशल्येऽयं विधिः द्वितीयादिशल्यजे स्वयं
१४३४| लग्गुद्धियंमि बीए मलिज्जा परं अदरगे सल्ले । उद्धरणमलणपूरण दूरयरगए तइयगंमि ॥ १४३५॥ १४३७
लग्नमुद्धतं तस्मिन् द्वितीये, कस्मिन् ?- अरगे शल्ये मनाग दृढ लग्न इति भावना, अत्र मृद्यते यदि परं व्रण [इति], IN उद्धरणं शल्यस्य, मर्दनं व्रणस्य, [पूरणं] कर्णमलादिना तस्यैवैतानि क्रि यन्ते, दूरतरगते तृतीयशल्ये विधिः ।। १४३५ ॥ मा वेअणा उ तो उद्धरित्तु गालंति सोणिय चउत्थे। रुज्झइ लहुंति चिट्ठावारिजइ पंचमे वणिणो १४३६
मा वेदना भविष्यतीति तत उद्धृत्य शल्यं गालयन्ति शोणितं चतुर्थे शल्ये, तथा रुह्यतां शीघ्रमिति चेष्टा-परिस्पन्दनादिलक्षणा वार्यते पञ्चमे शल्ये उद्धृते व्रणिनः ।। १४३६ ॥ रोहेइ वणं छट्रे हियमियभोई अभंजमाणो वा । तित्तिअमित्तं छिज्जइ सत्तमए पूइमंसाई॥१४३७॥
रोहयति व्रणं षष्ठे शल्ये उद्धृते सति हितमितभोजी अभुञ्जानो वा, यावच्छल्येन दूषितं तावन्मानं छिद्यते सप्तमे शल्ये | उद्धृते पूतिमांसादि ॥ १४३७।।
॥ १९७॥
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आवश्यकनियुक्तरव
चूर्णिः । ॥ १९८॥
तहविय अठायमाणो गोणसखइयाइ रुप्फए वावि। कीरइ तयंगछेओ सअढिओ सेसरक्खट्ठा ॥१४३८॥ भावव्रण. तथापि चातिष्ठति विसर्पतीत्यर्थः, गोनसमक्षितादौ रस्फि(रुस्फ)के वा क्रियते तदङ्गछेदः सहास्थ्ना शेषरक्षार्थ ॥१४३८॥ चिकित्सा एवं द्रव्यव्रणः तचिकित्सा चोक्ता, भावव्रणमाह
निगा मूलुत्तरगुणरूवस्स ताइणो परमचरणपुरिसस्स। अवराहसल्लपभवो भाववणो होइ नायवो ॥१॥ (प्र०)|१४३८.
मूलोचरगुणरूपस्य तायिनः, परमचरणपुरुषस्य, अपराधा:-गोचरादिगोत्तरास्त एव शल्यानि तेभ्यः प्रभवो यः (यस्य) १४४१ स तथाविधो भावव्रणः स्यात् ॥१॥ अस्य विचित्रप्रायश्चित भेषजेन चिकित्सोच्यतेभिक्खायरियाइ सुज्झइ अइयारो कोइ वियडणाए उ। बीओ असमिओमित्ति कीस सहसा अगुत्तो वा?
भिक्षाचर्यादिः शुद्ध्यति अतिचारः कश्चिद्विकटनयैवेत्यर्थः, आदिशब्दाद्विचारभूम्यादिगमनजो गृह्यते, अत्रातिचार एवं व्रणः,द्वितीयो व्रणोऽप्रत्युपेक्षिते खेलविवेकादौ-हा असमितोऽस्मीति सहसा अगुप्तो वा मिथ्यादुष्कृतमिति विचिकित्सा॥१४३९॥ सहाइएसुरागंदोसंचमणा गओ तइयगंमि। नाउं अणेसणिजं भत्ताइविर्गिचण चउत्थे ॥१४४०॥
शब्दादिष्विष्टानिष्टेषु राग द्वेष वा मनसा गतोऽत्र तृतीयो व्रणो मिश्रभैषजचिकित्सा( त्स्यः )आलोचनाप्रतिक्रमणशोध्य इत्यर्थः, ज्ञात्वाऽनेषणीयं मक्तादि विकिंच(गिश्च )ना चतुर्थे ॥१४४०॥ उस्सग्गेणवि सुज्झइ अइआरोकोइ कोइ उ तवेणं। तेणवि असुज्झमाणंछेयविसेसा विसोहिंति १४४१
O॥१९८॥
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कायोसर्गस्य
चूर्णिः ।
आवश्यक- कायोत्सर्गेणापि शुद्ध्यत्यतिचारः कश्चित्कुस्वप्नादिः, कश्चित्तु तपसा, तेनाप्यशुक्ष्यमानं गुरुतरं छेदविशेषाद विशोधयन्ति नियुक्तरव- ॥१४४१॥ एवं सप्तप्रकारमात्रव्रणचिकित्सापि दर्शिता । मृलादीनि तु विषयनिरूपणद्वारेण स्वस्थानादवसेयानि, एवं सम्बन्धेनायातस्य कायोत्सर्गाध्ययनस्य नामनिष्पने निक्षेपे कायोत्सर्गाध्ययनमिति कायोत्सर्गमधिकृत्याह
निक्षेपादिनिक्खेवेग? विहाणमग्गणा कालभेयपरिमाणे। असैढसँढे विहिँ दोसा कस्सत्ति फैलं च दाराइं॥१४४२॥ द्वाराणि ॥१९९॥
कायोत्सर्गस्य नामादिलक्षणो निक्षेपः कार्यः, एकार्थिकानि वक्तव्यानि, विधानं भेदोऽभिधीयते भेदमार्गणा कार्या, कायस्य 'कालभेदपरिमाणं' [कालपरिमाणं अभिभवकायोत्सर्गादीनां वक्तव्यं, भेदपरिमाणमुच्छुितादिकायोत्सर्गार्णा वक्तव्यं,
उत्सर्गस्य अशठः कायोत्सर्गकर्ता वक्तव्यः, तथा शठश्च वक्तव्यः, कायोत्सर्गकरणविधिर्वाच्या, कायोत्सर्गदोषा वक्तव्याः, कस्य च निक्षेपाः कायोत्सर्ग इति वक्तव्यं, फलं च वाच्यं, एतावन्ति द्वाराणि ॥ १४४२ ॥ तत्र कायोत्सर्ग इति द्विपदं नाम इति कायस्य । निगा उत्सर्गस्य च निक्षेपः कार्यस्तथा चाह
१४४२काए उस्सग्गंमिय निक्खेवे हुंति दुन्नि उविगप्पा। एएसिंदुण्हंपी पत्तेय परूवणं वुच्छं ॥२२८॥ (भा०) १४४३ ___ काये कायविषयः उत्सर्गे च उत्सर्गविषयश्च, एवं निक्षेपविषयौ भवतो द्वावेच भेदौ ॥ २२८ ॥
|भा०मा०
२२८ KI कायस्स उनिक्खेवो बारसओ छक्कओ अ उस्सग्गे। एएसिंतु पयाणं पत्तेय परूवणं वुच्छं ॥१४४३ ॥ कायस्य तु निक्षेपो द्वादशप्रकारः ॥ १४४३॥ कायनिक्षेषमाह
१९९ ॥
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आवश्यक नियुक्तरवचूर्णिः ।
॥ २०
or Marrian
॥
नामंठवणेसरीरे गैई निकायर्थिकाय दविए य। माउय संगह पर्जव भारे तह भावकीए य ॥१४४४॥ कायस्य __नामकायः स्थापनाकायः शरीरकायः गतिकायः निकायकायः अस्तिकायः द्रव्यकायः मातृकाकायः सहकायः निक्षेपाः पर्यायकायः भावकायश्च ॥ १४४४ ॥ नामकायमाह
नियुक्तिः काओ कस्सइ नाम कीरइ देहोवि वुच्चई काओ। कायमणिओवि वुच्चइ बद्धमवि निकायमाहंसु॥१४४५॥
निगा. ___ कायः कस्यचित्पदार्थस्य सचेतनाचेतनस्य नाम क्रियते स नामकायः, तथा देहोऽपि कायः, तथा काचमणिरपि
१३४४भण्यते प्राकृते कायः, तथा बद्धमपि किश्चिल्लेखादि निकाचितमाख्यातवन्तः, प्राकृते 'निकाय 'त्ति (येति) ॥ १४४५ ॥
१३४६ स्थापनाद्वारमाहअक्खे वराडए वा कटे पुत्थे य चित्तकम्मे य। सब्भावमसब्भावं ठवणाकायं वियाणाहि ॥१४४६ ॥ ____ अक्षे-चन्दनके वराटके वा-कपर्दके काष्ठे-कुट्टिमे पुस्ते वा वस्त्रकृते चित्रकर्मणि वा सद्भावमाश्रित्यासद्भावं च [आश्रित्य | स्थापनाकार्य विजानीहि ॥ १४४६ ॥ सामान्येन सद्भाव[ असद्भाव स्थापनोदाहरणमाहलिप्पगहत्थी हस्थिति एस सब्भाविया भवे ठवणा। होइ असब्भावे पुण हस्थिति निरागिई अक्खो१४४७|| ___ यदिह लेप्यकहस्ती हस्तीति स्थापनायां निवेश्यते एषा सद्भावस्थापना, असद्भावे पुनर्हस्तीति निराकृतिः-शून्या एव चतुरङ्गादौ, एवं स्थापनाकायोऽपि भावनीयः ॥ १४४७ ॥ शरीरकायमाह
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॥ २००॥
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आवश्यकता निर्युक्तेरव
चूर्णिः । ॥२०१॥
ओरालियवेउवियआहारगतेयकम्मए चेव । एसो पंचविहो खलु सरीरकाओ मुणेयवो ॥१४४८॥
काय- शरीराण्येव कायः शरीरकायः॥१४४८॥
निक्षेपाः चउसुवि गईसुदेहो नेरइयाईण जो सगइकाओ। एसो सरीरकाओ विसेसणा होइ गइकाओ ॥१॥(प्र०नि०मा० देहो नारकादीनां यः स गतिकायः, प्रेरक आह-नन्वेष शरीरकाय उक्तः, तथाहि-नौदारिकादिष्यतिरिक्ता नारकादि
१४४८.
१४५० देहाः, आचार्य आह-विशेषणाद्भवति गतिकायः, विशेषणं चात्र गतौ कायो गतिकायः ॥ १॥ अथवा सर्वसचानामपान्तरालगतौ यः काय: स गतिकायो भण्यते, तथा चाहजेणुवगहिओ बच्चइ भवंतरंजच्चिरेण कालेण। एसो खल गइकाओ सतेयगं कम्मगसरीरं ॥१४४९॥
येन उपगृहीत:-उपकृतो यदुपगृहीतः, यावता कालेन समयादिना तावन्तमेव कालमसौ गतिकायो मण्यते, सतैजसं कार्मणशरीरं गतिकायः ।। १४४९ ॥ निकायकायमाहनिययमहिओवकाओजीवनिकाओनिकायकाओ या अत्थित्तिबहपएसा तेणं पंचत्थिकाया उ १४५०
नियतो नित्यः कायो निकायः, नित्यता चास्य त्रिष्वपि कालेषु भावात् , अधिको वा कायो निकायः, यथाधिको दाहो निदाहः, आधिक्यं चास्य धर्मा[स्तिकाया अपेक्षया स्त्रभेदापेक्षया वा, तथाहि-एकादयो यावदसख्येयाः पृथिवीकायिकास्तावत्काया, त एव स्वजातीयान्यप्रक्षेपापेक्षया निकाय इत्येवमन्येष्वपि विभाषा, एवं जीवनिकायसामान्येन ॥२०१॥
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काय. निक्षेपाः भागा. २२९२३०
आवश्यक-IN निकायकायो भण्यते, अथवा जीवनिकायः पृथिव्यादिभेदभिन्नः षड्विषोऽपि निकायो मण्यते तत्समुदायः, एवं निकायकायः, निर्यक्रव- अस्तिकायमाह-'अस्थित्ति' इत्यादि, अस्तीत्ययं त्रिकालवचनो निपातः, अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति च, बहुप्रदेशा यतस्तेन चर्णिकापश्चैवास्तिकायाः, धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकायः आकाशास्तिकायो जीवास्तिकाय[:पुद्गलास्तिकाय च, अस्तिकायाश्च
काय इति हृदयं ॥ १४५० ।। द्रव्यकायमाह॥ २०२॥
जंतु पुरक्खडभावंदवियं पच्छाकडं च भावाओ।तं होइ दवदवियं जह भविओ दवदेवाई॥२२९॥(भा०)
यद्रव्यं तुशब्दो विशिनष्टि जीवपुद्गलद्रव्यं न धर्मास्तिकायादि, ततश्चायमर्थो-यद्रव्यं पुरस्कृतभावं-भाविनो भावस्य योग्यमभिमुखमित्यर्थः, पश्चात्कृतभावं वा, यस्मिन् भावे वर्त्तते द्रव्यं ततो यः पूर्वमासीद्भावस्तस्मादपेतं पश्चात्कृतभावमुच्यते, तयं( त )दित्यम्भूतं द्विप्रकारमपि भाविनो भूतस्य च भावस्य योग्यं द्रव्यं वस्तु द्रव्यं भवति, यथा भव्योयोग्यो द्रव्यदेवादिः, या पुरुषादिमृत्वा देवत्वं प्राप्स्यति बद्धायुष्कोऽभिमुखनामगोत्रो वा स योग्यत्वाद् द्रव्यदेवः। एव. मनुभृतदेवभावोऽपि, आदिशब्दान्नारकादिपरिग्रहः परमाणुग्रहश्र, तथाहि-असावपि व्यणुकादिकाययोग्यः स्यात् एव, ततश्चेत्यम्भूतं द्रव्यं द्रव्य कायो भण्यते ॥ २२९ ।। आह-किमिति जीवपुद्गलद्रव्यमङ्गीकृत्य धर्मास्तिकायादीनामिह व्यवच्छेदः कृतः, उच्यते, तेषां यथोक्तद्रव्यलक्षणायोगात् , सर्वदेवास्तिकायत्वलक्षणभावोपेतत्वाद् , आह चजइ अस्थिकायभावो इअ एसो हुज अस्थिकायाणं। पच्छाकडुव तो ते हविज दवस्थिकाया य २३०भा०
चाय २२०भा०
॥ २०२॥
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कायनिक्षेपा: निगा. १४५१.
आवश्यकयद्यस्तिकायभावोऽस्तिकायत्वलक्षणः, '
इति एवं यथा जीवपुद्गलद्रव्ये विशिष्टपर्याय एण्यन्-आगामी भवेद् , अस्तिनिर्युक्तेरव-IN कायानां धर्मास्तिकायादीनां, य( तथा पश्चात्कृतो वा यदि भवेत्ततस्ते भवेरन् द्रव्यास्तिकायाः ॥ २३० ॥ चूर्णिः । तीयमणागयभावं जमाथिकायाण नत्थि अस्थित्तं। तेन र केवलएK नत्थी दवस्थिकायत्तं ॥ १४५१॥
___अतीतमनागतभावं यद्-यस्मादस्तिकायाना-धर्मादीनां न अस्तित्वं-विद्यमानत्वं, कायत्वापेक्षया सदैव कायत्वयोगात् ॥१४५१ ।। आह-यद्येवं द्रव्यदेवायुदाहरणोक्तमपि द्रव्यं न प्राप्नोति सदैव सद्भावयोगात् , तथाहि-स एव तस्य भावो यस्मिन्वते, अत्र गुरुराहकामं भवियसुराइसु भावोसो चेव जत्थ वहति। एस्सो न ताव जायइ तेन र ते दवदेवुत्ति ॥१४५२ ॥ ____ काममनुमतं भव्यसुरादिषु तद्विषये विचारे भावः स एव यत्र वर्त्तते तदानीं मनुष्यादिमावे, किन्तु एध्यो-भावी न | तावजायते तदा, तेन किल द्रव्यदेवाः, योग्यत्वात् योग्यस्य च द्रव्यत्वाद्, न चैतद्धर्मादीनामस्ति एष्यत्कालेऽपि तद्भावयुक्तत्वात् ॥ १४५२ ॥ यथोक्तं द्रव्यलक्षणमवगम्य तद्भावेऽतिप्रसङ्गं च मनस्याधायाह प्रेरक:दुहओऽणंतररहिया जइ एवं तोभवा अणंतगुणा। एगस्स एगकाले भवा न जुज्जति उ अणेगा ॥१४५३॥
'दुहउ'त्ति वर्तमानभवे स्थितस्योभयत एष्यत्कालेऽतीतकाले च अनन्तरौ एष्यातीतो अनन्तरौ च तौ रहि[ तौ च] वर्चमानभवमावेनेति प्रकरणाद् गम्यते अनन्तररहितौ तावपि यदि तस्योच्येते एवं सति ततो भवा अनन्तगुणाः, तद्भवदय-
गुणा एगस्स एगकाल H
अनन्तरौ च तौ रहि[ तो
२०३॥
२०३ ।।
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आवश्यकनियुक्तरव
चूर्णिः ॥२०४॥
व्यतिरिक्ता वर्तमानमवभावेन रहिता एच्या अतिक्रान्ताश्च तेऽप्युच्येरन् , ततश्च तदपेक्षयापि द्रव्यत्वकल्पना स्यात् , अथोच्येत-अस्त्वेवं का नो हानिः १, अत्रोच्यते. एकस्य-पुरुषादेरेककाले-पुरुषादिकाले भवा न युज्यन्तेऽने के ॥ १४५३ ॥
निक्षेपाः इत्थं परेणोक्त मुरुराह
नि०गा. दुहओऽणंतरभवियं जह चिट्ठइ आउअंतुजंबद्धं । हुजियरेसुवि जइ तं दत्वभवा हुज तो तेऽवि॥१४५४॥1
१४५४___ वर्तमानभवे वर्तमानस्योभयत एध्येऽतीते चानन्तरमविक, पुरस्कृतपश्चात्कृतभवसम्बन्धि यथा तिष्ठत्यायुष्कं एव,
१४५५ न शेष कर्म विवक्षितं यद् बद्धं, अयं भावार्थः, पुरस्कृतमवसम्बन्धि त्रिभागावशेषायुष्क: सामान्येन तस्मिन्नेत्र[भवे वर्तमानो बध्नाति पश्चात्कृतसम्बन्धि पुनस्तस्मिन्नेव मवे] वेदयति । भवेदितरेवपि-प्रभूतेष्वतीतेषु यद् बद्धमनागतेषु च यद् मोक्ष्यते यदि तस्मिन्नेव वर्तमानस्य द्रव्यमवा भवेरंस्ततस्तेऽपि, तदायुष्ककर्मसम्बन्धात , न चैतदस्ति, तस्मादसत्प्रेरकवचः ॥ १४५४ ॥ अस्यैवार्थस्य प्रसाधकं निदर्शनमाहसंझासु दोसु सूरो अदिस्समाणोऽवि पप्प समईयं । जह ओभासइ खित्तं तहेव एयपि नायवं ॥१४५५॥
सन्ध्ययोईयोः प्रत्यूषप्रदोषप्रतिवद्धयोः सूर्योऽदृश्यमानोऽपि प्रापणीयं-प्राप्यं समतिक्रान्तं-समतीतं यथाऽवभासते क्षेत्र, प्रत्यूषसन्ध्यायां पूर्वविदेहं भरतं च, प्रदोषसन्ध्यायां तु भरतमपरविदेहं च, तथैवेदमपि विज्ञेयं, वर्तमानभवे स्थितः पुरस्कृतभवं पश्चात्कृतभवं चायुष्कर्म स द्रव्यतया स्पृशति, प्रकाशेनादित्यवदित्यर्थः ॥ १४५५ ॥ मातृकाकायमाह
२०४॥
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आवश्यक निर्युक्तेरवचूर्णिः ।
॥ २०५॥
माउयपयंति नेयं(णेम)नवरं अन्नोवि जो पयसमूहो।सोपयकाओ भन्नइ जे एगपए बहू अत्था।२३१॥भा०
कायमातृकापदानि ' उप्पन्नेह वा' इत्यादीनि तत्समूहो मातृकाकायः, मातृकापदमिति, 'णेम'ति चिह्न, नवरमन्योऽपि यः निक्षेपाः पदसमूहः स पदकायो मातृकापदकायो मण्यते, नाविशिष्टपदसमूहः किन्तु यस्मिन्नेकस्मिन् पदे बहवोऽर्थास्तेषां पदानां यः
निगा० समूहः ।। २३१ ॥ सङ्ग्रहकायमाह
१४५६संगहकाओऽणेगावि जत्थ एगवयणेण धिप्पांत।जह सालिगामसेणा जाओवसही(ति)निविटुत्तिा१४५६।।
१४५८ सह एव कायः, स प्रभृता अपि यत्रैकवचनेन गृह्यन्ते, यथा शालिः ग्रामः सेना जातो वसति निविष्टा इति
भा.गा. यथासङ्ख्यं प्रभृतेष्वपि स्तम्बेषु सत्सु जातः शालिरिति व्यपदेशः, प्रभृतेष्वपि पुरुषविलयादिषु [वसति ग्रामः, प्रभूतेष्वपि २३१ हस्त्यादिषु ] निविष्टा सेनेति । अयं शाल्यादिरर्थः सङ्ग्रहकायो भण्यते ॥ १४५६ ॥ पर्यायकायमाहपज्जवकाओ पुण हंति पजवा जत्थ पिंडिया बहवे। परमाणुंमिविक्रमिवि जह वन्नाई अणंतगुणा॥१४५७॥
पर्यायकायः पुनर्भवति, पर्यायाः-वस्तुधर्मा यत्र परमाण्वादौ पिण्डिता बहवः, तथा च परमाणावपि कस्मिंश्चित्साव्यवहारिके यथा वर्णादयोऽनन्तगुणा अन्यापेक्षया, स चैकस्तिक्तादिरसस्तदन्यापेक्षया तिक्ततरतिक्ततम( मादि)मेदादानन्त्यं प्रपद्यते, एवं वर्णादिष्वपि ॥ १४५७ ॥ भारकाये गाथाएगो काओ दुहा जाओ एगोचिट्ठइ एगो मारिओ।जीवंतोअमएण मारिओतंलव माणव! केण हेउणा?/ २०५॥
१८
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आवश्यक
निर्युक्तेरवचूर्णिः ।
॥ २०६ ॥
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एकः काय:- क्षीरकायो द्विघा जातो घटद्वये न्यासात्, तत्र एकस्तिष्ठति, एको मारितः, जीवन्मृतेन मारितस्तल्लवेतिब्रूहि हे मानव ! केन कारणेन १, कथानकं यथा प्रतिक्रमणाध्ययने परिहरणायां, भारकायश्चात्र क्षीरभृतकुम्भद्वयोपेता कापोती भण्यते, मारश्वासौ कायश्चेति भारकायः अन्ये तु भारकायः कापोत्येव ।। १४५८ ।। भाव कायमाह -
दुग तिग चउरो पंच यभावा बहुआ व जत्थ वहति । सो होइ भावकाओ जीवमजीवे विभासा उ । १४५९ ।। वरः पञ्च वा भावा: - औयिकादयः प्रभूता वा अन्येऽपि ' यत्र ' सचेतनाचेतने वस्तुनि विद्यन्ते स भावकायः, भावानां कायो भावकायः, जीवाजीवयोर्विभाषा कार्या ।। १४५९ ॥ कायमधिकृत्य गतं निक्षेपद्वारं, एकार्थिकान्याह - काए सरीर देहे बुंदी य चय उवचएय संघाए । उस्सय समुस्सए वा कलेवरे भत्थ तण पाणू ॥ १४६० ॥ कायः शरीरं देहो बोन्दिश्चय उपययश्व सङ्घात उच्छ्रयः समुच्छ्रयः कडेवरं भस्त्रा तनुः पाणुः || १४६० ॥ अधुनोत्सर्गमधिकृत्य निक्षेपः एकार्थिकानि चोच्यन्ते
वादवि खित् काले तहेव भावे य । एसो उस्सग्गस्स उ निक्खेवो छविहो होइ ।। १४६१ ॥ नामस्थापने गते || १४६१ ।। द्रव्योत्सर्गाद्याहदव्वुज्झणा उ जं जेण जत्थ अवकिरइ दव्वभूओ वा । जं जत्थ वावि खित्ते जं जच्चिर जंमि वा काले । १४६२ । द्रव्योज्झना तु द्रव्योत्सर्गः स्वयं यद्द्रव्यमनेषणीयं 'अवकिरह 'त्ति उत्सृजति येन करणभूतेन पात्रादिना, यत्र द्रव्ये
काय
निक्षेपाः
उत्सर्ग
निक्षेपाच
नि०गा०
१४५९
१४६२
॥ २०६ ॥
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आवश्यक-IN
द्रव्यभृतो-अनुपयुक्तो वोत्सृजति, एष द्रव्योत्सर्गः । यत्क्षेत्रं दक्षिणदेशाद्युत्सृजति, यत्र वापि क्षेत्रे उत्सग्र्गो व्यावयेते एष उत्सर्गनियुक्तेरव- क्षेत्रोत्सर्गः । यं कालमुत्सृजति यथा भोजनमधिकृत्य रजनी साधवः, यावन्तं कालमुत्सर्गः, यस्मिन्या काले उत्सर्गो वर्ण्यते, निक्षेपाः चूर्णिः । एष कालोत्सर्गः ॥ १४६२ ।।
निगा० भावे पसत्थमियरंजेण व भावेण अवकिरड जंतु।अस्संजमं पसत्थे अपसत्थे संजमंचयइ ॥१४६३॥ १४६३. ॥२०७॥
भावोत्सर्गो द्विधा-प्रशस्तं [ शोभनं ] वस्तु अधिकृत्य, इतरदप्रशस्तं, तथा येन भावेनोत्सर्जनीयवस्तुगतेन खरादिना १४६५ अवकिरति उत्सृजति यत् तत्र भावेनोत्सर्गः । तत्रासंयम प्रशस्ते भावोत्सर्गे त्यजति, अप्रशस्ते तु संयमं त्यजति ।।१४६३।। यदुक्तं येन भावनोत्सृजति तत्प्रकटयन्नाहखरफरुसाइसचेयणमचेयणं दुरभिगंधविरसाई। दवियमवि चयइ दोसेणजेणभावुज्झणा सा उ।१४६४
खरपरुषादिसचेतनं, खरं-कठिनं, परुषं-दुर्भाषणोपेतं, अचेतनं दुरभिगन्धविरसादि यद्व्य मपि त्यजति दोषेण येन खरादिनैव भावोज्झना सा उक्ता येनोत्सर्गः ( ' भावुझणा सा उ' भावेन उत्सर्ग इति ) ॥ १४६४ ॥ उस्सग्ग विउस्सरणुज्झणाय अविगरण छड्डण विवेगो।वजण चयणुम्मुअणा परिसाडण साडणाचेव१४६५
उत्सर्गः व्युत्सर्जना उज्झना च अवकिरणं च्छईनं विवेको वर्जनं त्यजनमुन्मोचना परिशातना शातना च ॥१४६५ ।। उक्तान्युत्सग्गैकार्थिकानि, ततश्च कायोत्सर्ग इति स्थितं, अथ विधानमार्गणाद्वारमाह
N२०७॥
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चूर्णिः ।
आवश्यक- उस्सग्गे निक्खेवो चउक्कओ छक्कओ अकायहो।निक्खेवं काऊणं परूवणा तस्स कायवा॥ १॥ (प्र०) | कायोत्सर्गनियुक्तरवसोउस्सग्गो दुविहो चिट्ठाए अभिभवे य नायवो। भिक्खायरियाइ पढमो उवसग्गभिजुंजणे बिइओ १४६६४ विधानचेष्टायामभिमवे च ज्ञातव्यः, भिक्षाचर्यादौ विषये प्रथमश्चेष्टाकायोत्सर्गः, दिव्याद्यभिभूत एव महामुनिस्तदैवायं
मार्गणा॥ २०८॥ करोतीति हृदयं, अथवोपसर्गाणामभियोजनं-सोढव्या मयोपसर्गास्तद्भयं न कार्यमित्येवम्भृतं तस्मिन् द्वितीयः॥ १४६६ ॥
द्वारम् आह प्रेरकः-कायोत्सर्गे न हि साधुनोपसर्गाभियोजनं कार्य
नि०मा०
१४६६हयरहवि ता न जुज्जइ अभिओगो किं पुणाइ उस्सग्गे। नणु गवेण परपुरं अभिरुज्झइ एवमेयंति (पि)।
१४६८ इतरथापि-सामान्यकार्येऽपि तावदवस्थानादौ न युज्यतेऽभियोगः कस्यचित्कतुं, किं पुनः कायोत्सर्गे कर्मक्षयाय क्रियमाणे, स हि सुतरां गवरहितेन कार्यः, अभियोगश्च गों वर्तते, ननु इत्यनुयायां गर्वेण-अभियोगेन परपुर-शत्रुनगर. मभिगृह्यते ( रुध्यते ), यथा तद्गर्वकरणममाधु एवमेतदपि कायोत्सर्गेऽभियोजनं ॥ १४६७ ॥ आह आचार्य:मोह पयडीभयं अभिभवित्तुजो कुणइ काउसग्गंतु।भयकारणे यतिविहे णाभिभवो नेव पडिसेहो १४६८
मोहप्रकृतौ भयं मोहप्रतिभयं मोहनीयकर्मभेद इत्यर्थः, तदमिभ्य यः कश्चित्करोति कायोत्सर्ग, तुशब्दो विशेषणार्थः । नान्यं कश्चन बाह्यमभिभूयेति, भयकारणे त्रिविधे दिव्यमानुष्यतैरश्चमेदभिन्ने सति तस्य नाभिभवो-नाभियोगः। अथेत्थम्भूतोऽप्यभियोगस्तस्य नैव प्रतिषेधः ॥ १४६८ ॥ किन्तु
२०८॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरव चूर्णिः
॥ २०९ ॥
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आगारेऊण परं रणिव जइ सो करिज्ज उस्सग्गं । जुंजिज्ज अभिभवो तो तदभावे अभिभवो कस्स १ । १४६९ / ' आगारेऊण 'त्ति आकार्य रे रे क्व यास्यसि इदानीं एवं परं कञ्चन रणे इत्र यदि कुर्यात्कायोत्सर्ग युज्यतेऽभिभवः, ततस्तदभावे-परा[ भिभवा ]भावेऽभिभवः कस्य १ ।। १४६९ ।।
अविपय कम्मं अरिभूयं तेण तज्जयट्ठाए । अब्भुट्टिया उ तत्रसंजमंमि कुवंति निग्गंथा ॥ ९४७० ॥ तजयार्थ-कर्म्मजयनिमित्तं अभ्युत्थिता एकान्तेन गर्वविकला अपि तपःसंयमं कुर्वन्ति निर्ग्रन्थाः, अतः कर्म्म जयार्थमेव तदभिभवोऽपि (भवनाथ) कायोत्सर्गः कार्य एव ।। १४७० ॥ तथा चाह
तस्स कसाया चत्तारि नायगा कम्मसत्तुसिन्नस्स । काउस्सग्गमभग्गं करंति तो तज्जयट्ठाए ॥ १४७१ ॥ ' तस्य ' प्रक्रान्तशत्रुसैन्यस्य अभिभत्रकायोत्सर्गं कुर्वन्ति तपःसंयमवत् ।। १४७१ ॥ गतं विधानमार्गणं, अथ कालपरिमाणमाह
संवच्छरमुक्कोसं अंतमुहुत्तं च (त) अभिमवुस्सग्गे । चिट्ठाउस्सग्गस्स उ कालपमाणं उवरि वुच्छं । १४७२।
संवत्सरमुत्कृष्टं कालपरिमाणं, बाहुबलिना संवत्सरं कायोत्सर्गः कृतः, अभिमवकायोत्सर्गेऽन्तर्मुहूर्त्त च जघन्यं कालपरिमाणं, चेष्टाकायोत्सर्गस्य तु कालपरिमाणमुपरिष्टाद्वक्ष्यामः || १४७२ ।। अथ भेदपरिमाणमाह-उसिउस्सिओ अ तह उस्सिओ अ उस्सियनिसन्नओ चेव । निसनुस्सिओ निसन्नो निसन्नगनिसन्नओ चेव ।
कायोत्सर्गविधानमार्गणा
कालभेद
परि
माणानि
नि०गा०
१४६९
१४७२
॥ २०९ ॥
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आवश्यक नियुक्तरव
पूर्णिः ।। ॥२१० ॥
कायोत्सर्ग
भेदपरिमाण तत्करणे
गुणश्च
उच्छितोच्छुितः १ उच्छुितश्च २ उच्छ्रितनिषण्णः ३ निषण्णोच्छुितः ४ निषण्णः ५ निषण्णनिषण्णश्च ६ ॥१४७३ ॥ निवणुस्सिओ निवन्नो निवन्ननिवन्नगो य नायबो। एएसं तु पयाणं पत्तेय परूवणं वुच्छं॥१४७४॥
निवन्नोच्छितः ७ निवन्नः ८ निवननिवन्नः ९॥ १४७४ ।। उस्सिअनिसन्नग निवन्नगे य इकिक्कगमि उपयमि। दवेणय भावेण य चउकभयणा उकायवा।१४७५||
उच्छ्तिनिषण्णनिवन्नेषु एकैकस्मिन्नेव पदे द्रव्यभावाभ्यां चतुष्कमजना कार्या, द्रव्यत उच्छ्रित ऊर्धस्थानस्थः भावतो धर्मशुक्लध्यायी १ अन्यस्तु द्रव्यत उच्छ्रित ऊर्ध्वस्थानस्थः न भावत उच्छ्रितो ध्यानचतुष्टयरहितः कृष्णादिलेश्यागतपरिणाम इत्यर्थः २, अन्यस्तु न द्रव्यत उच्छूितो [ नोर्वस्थानस्थः भावतः उच्छ्रितः धर्मशुक्ललध्यायी ३ अन्यस्तु न द्रव्यतो नापि मावतः, एवमन्यपदचतुर्भङ्गिकेऽपि वाच्ये ॥ १४७५ ।। ननु कायोत्सर्गकरणे को गुणः १, उच्यतेदेहमइजडसुद्धी सुहदुक्खतितिक्खया अणुप्पेहा । झायइ य सुहं झाणं एयग्गो काउसग्गंमि ।१४७६।
देह जाड्यशुद्धिः-श्लेष्मादिप्रहाणतः, मतिजाड्यशुद्धिः तथावस्थितस्योपयोगविशेषतः, सुखदुःखतितिक्षा, अनित्यत्वाद्यनुप्रेक्षा च तथाऽवस्थितस्य स्यात् , ध्यायति च शुभध्यानं धर्मशुक्ललक्षणमेकाग्रचित्तः कायोत्सर्गे ॥ १४७६ ।। ध्यायति शुभध्यानमित्युक्तं, तत्र किमिदं ध्यानमित्यत आहअंतोमुहुत्तकालं चित्तस्लेगग्गया हवइ झाणं । तं पुण अहँ रुदं धम्म सुकं च नायवं ॥ १४७७ ॥
निगा० १४७३१४७६
॥ २१०॥
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आवश्यक निर्युक्तेरव
चूर्णिः । ॥ २११॥
१४७८
तत्थ य दो आइल्ला झाणा संसारवडणा भणिआ।दुन्नि य विमुक्खहेऊ तेसिऽहिगारोन इयरेसिं १४७८ ध्यान| संवरियासबदारा अबाबाहे अकंटए देसे । काऊण थिरं ठाणं ठिओ निसन्नो निवन्नो वा ॥ १४७९॥ स्वरूपम् ____ अव्यावाधे-गान्धर्वादिलक्षणभावव्यावाधाविकले अकण्टके-पाषाणादिद्रव्यकण्टकविकले देशे-भूभागे ध्यायति, कृत्वा
निगा० स्थिरमवस्थानं स्थितो निषण्णो निवन्नो वा ॥ १४७७-७९ ।। चेयणमचेयणं वा वत्थु अवलंबिघणं मणसा। झायइ सुअमत्थं वा दवियं तप्पजए वावि ॥१४८०॥
१४८२ चेतनं-पुरुषादि अचेतनं-प्रतिमादि वस्त्ववलम्ब्य धनं मनसा ध्यायति सूत्रमर्थ वा, किम्भूतमर्थमत आह-द्रव्यं तत्पर्यायान्वा ॥ १४८० ॥ तत्थ उभणिज कोई झाणं जो माणसो परीणामो।तंन हवइ जिणदिटुं झाणं तिविहेवि जोगमि।१४८
ध्यानं यो मानसः परिणामस्तदेतन्न भवति यस्मार्जिनदृष्टं ध्यान त्रिविधेऽपि योगे मनोवाकायलक्षणे ॥ १४८१ ॥ किन्तु ? कस्यचित्कदाचित्प्राधान्यमाश्रित्य भेदेन व्यपदेशः, तथा चाहवायाईधाऊणंजो जाहे होइ उक्कडोधाऊ। कुविओत्ति सो पवुच्चइ न य इयरे तत्थ दो नत्थि ॥ १४८२॥ ।
वातपित्तश्लेष्मणां [यो यदा] उत्कटः-प्रचुरो धातुः कुपित इति स प्रोच्यते न चेतरौ तत्र द्वौ न स्तः ॥ १४८२ ॥ ॥ २११ ॥
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-
ध्यान
प्रकारा: नि०गा. १४८३१४८६
आवश्यक | एमेव य जोगाणं तिण्हवि जो जाहि उक्कडोजोगो। तस्सतहिं निद्देसो इयरे तत्थिक्क दो व नवा ॥१४८३॥ निर्युक्तेरव- इतरस्तत्रैकः स्यात् द्वौ वा भवतः तथा [ नवा ] भवत्येव, केवलिनो वाचि उत्कटायां कायोऽप्यस्ति, अस्मदादीनां | चर्णिः |
तु मनः कायो न वेति, केवलिनः शैलेश्यवस्थायां काययोगनिरोधकाले स एव केवलः, अनेन च शुभयोगोत्कटत्वं तथा
निरोधश्च द्वयमपि ध्यानमित्यावेदितं ॥ १४८३ ॥ विशेषेण त्रिप्रकारमप्याह॥२१२॥
काएविय अज्झप्पं वायाइमणस्स चेवजह होइ।कायवयमणोजुत्तं तिविहं अज्झप्पमाहंसु।। १४८४॥
कायेऽपि साध्यात्म ध्यान, एकाग्रतया एजनादिनिरोधात् , तथा वाचि अध्यात्म अयतभाषानिरोधात् , मनसश्चैव यथा भवत्यध्यात्म एवं काये वाचि चेत्यर्थः, एवं भेदेनोक्त्वा अधुनकादावाह-कायवाङ्मनोयुक्तं त्रिविधमप्यध्यात्ममाख्यातवन्तः, वक्ष्यते च 'भंगिअसुअं गुणतो वट्टइ तिविहेवि जोग( झाणं )मिति ॥ १४८४ ।। जइ एगग्गं चित्तं धारयओ वा निरंभओवावि। झाणं होइ नणु तहा इअरेसुवि दोसु एमेव॥ १४८५॥
हे आयुष्मन् ! योकाग्रं चित्तं क्वचिद्वस्तुनि धारयतो वा स्थिरतया निरुन्धानस्य वा तदपि योगनिरोध इव केवलिनो ध्यानं भवति मानसं यथा तथा इतरयोरपि वाक्काययोः, एवमेव-एकानधारणादिनैव प्रकारेण तल्लक्षणयोगात् ध्यानं स्यात् ॥१४८५ ॥ इत्थं त्रिविधे ध्यान सति यस्य यदोत्कटत्वं तस्य तदेतरसद्भावेऽपि प्राधान्या[स]यपदेशस्तथा चाहदेसियदंसियमग्गो वच्चंति नरवई लहइ सदं। रायत्ति एस वच्चइ सेसा अणुगामिणो तस्स ॥१४८६॥
॥२१२॥
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आवश्यक नियुक्तरव-
चूर्णिः । ।। २१३ ॥
देशिक:-अग्रयायी देशिकेन दर्शितो मार्गो यस्य स तथा लभते शब्दं किम्भूतमित्याह-राजा एष व्रजति, न चासौ कायिकादिकेवलः, प्रभूतलोकानुगतत्वात् , शेषाः-अमात्यादयोऽनुगामिनस्तस्य राज्ञ इत्यतः प्राधान्याद्राजेति व्यपदेशः॥१४८६ ॥
ध्यानअयं लोकानुगतो न्याया, अयं तु लोकोत्तरानुगत:
स्वरूपम् पढमिल्लुअस्स उदए कोहस्सिअरेवितिन्नि तत्थस्थि । न यतेण संति तहियं न य पाहन्नं तहेयंमि१४८७ निगा०
प्रथम एव प्रथमिल्नुकस्तस्यानन्तानुबन्धिनः, प्रयोऽप्रत्याख्यानाद्याः उदयतस्तत्र जीवद्रव्ये सन्ति न चातीताद्यपेक्षया १४८८तत्सद्भावः, यत आह-न च ते न सन्ति तदा, किन्तु सन्त्येव, न च प्राधान्यं तेषां, तथैतदप्पधिकृतं ज्ञेयं ॥ १४८७॥ १४९० स्वरूपतः कायिक मानसं च ध्यानमाहमा मे एजउ काउत्ति अचलओ काइअंहवइ झाणं । एमेव य माणसियं निरुद्धमणसो हवइ झाणं।१४८८ ____ एजतु कम्पता कायः, एवमचलतः कायिकं ध्यानं ॥ १४८८ ॥ आह प्रेरकःजह कायमणनिरोहे झाणं वायाइ जुज्जइन एवं । तम्हावई उझाणं न होइ को वाविसेसुत्थ ?॥१४८९॥
यथा कायमनसोनिरोधे ध्यानमुक्तं वाचि न युज्यते एव, कदाचिदप्रवृत्यैव निरोधाभावात् , तथाहि-न कायमनसी यथा सदा प्रवृत्ते तथा वाक् , तस्माद्वाचि ध्यानं न स्यादेव, को वा विशेषोऽत्र ? येनेत्थमपि वाग् ध्यानं स्यात् ।।१४८९॥ गुरुराहमा मे चलउत्ति तण जहं तं झाणं निरेडणो होड। अजयाभासविवजस्स वाइअंझाणमेवं तु १४९० IN॥२१३॥
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आवश्यकनिर्युक्तेरव
चूर्णिः ।
कायोत्सर्ग
भेदाः निगा १४९११४९५
॥२१४
।
निरेजिनो निष्कम्पस्य, अयतामाषाविवर्जिनो दुष्टवाक्परिहर्नुः ॥ १४९० ॥ स्वरूपत एव वाचिकध्यानमाहएवंविहा गिरा मे वत्तवा एरिसा न वत्तवा । इय वेयालियवकस्त भासओ वाइयं झाणं ॥ १४९१ ॥
एकाग्रतया विचारितवाक्यस्य सतो भाषमाणस्य वाचिकं ध्यानं ॥ १४९१ ॥ एवं भेदेन त्रिविधमप्युक्तं, अधुनकदैवैकत्रैव च त्रिविधमाह| मणसा वावारंतो कायं वायं च तप्परीणामो। भंगिअसुयं गुणंतो वहइ तिविहेवि झाणमि ॥१४९२॥
मनसोपयुक्तः स्यात् (सन् ) तत्परिणामो विवक्षितश्रुतपरिणामः भङ्गिकश्रुतं-दृष्टिवादान्तर्गतमन्यद्वा तथाविधं गुणयन् त्रिविधेऽपि मनोवाक्कायव्यापारलक्षणे ॥ १४९२ । उक्तमानुषङ्गिकं, अधुनोच्छ्रितोच्छ्रितादिभेदो यो नवधा कायोत्सर्ग उपन्यस्तः स व्याख्यायते, तत्रधम्मं सुकं च दुवे झायइ झाणाइजो ठिओ संतो। एसो काउस्सग्गो उसिउसिओ होइ नायवो ॥१४९३॥ ____ उच्छ्रितोच्छ्रितः, यस्मादिह शरीरमुच्छ्रितं भावोऽपि थर्मशुक्लध्यायित्वादुच्छ्रित एव ॥ १४९३ ।। धम्मं सुकं दुवे नवि झायइ नवि य अट्टरुद्दाई। एसो काउस्सग्गो दव्वुसिओ होइ नायवो ॥१४९४॥
द्रव्योच्छ्रितः स्यात् ।। १४९४ ॥ ननु कस्यामवस्थायां न शुभं ध्यायति नाप्यशुभं ?, अत्रोच्यतेपयलायंत सुसुत्तो नेव सुहं झाइ झाइ झाणमसुहं वा। अबावारियचित्तो जागरमाणोवि एमेव १४९५
पा
N
२१४ ॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरवचूर्णिः
।। २१५ ।।
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प्रचलायमान ईषत्स्वपन्नित्यर्थः, सुष्ठु सुप्तः, स नैव शुभं ध्यायति ध्यानमशुभं वा न व्यापारितं कचिद्वस्तुनि चित्तं येन स जाग्रदपि एवमेव-नैव शुभं ध्यायति नाप्यशुभं ॥। १४९५ ॥ किञ्च - अचिरोववन्नगाणं मुच्छिय अवत्तमत्तसुत्ताणं । ओहाडियमवत्तं च होइ पाएण चित्तंति ॥ ९४९६ ॥
अचिरोपपन्नकानामचिरजातानां मूच्छिताव्यक्तमत्तसुप्तानां मूच्छितानामभिघातादिना अव्यक्तानामव्यक्तचेतसां विषयादिना, मत्तानां मदिरादिना सुप्तानां निद्रया, 'ओहडिअं 'ति स्थगितमव्यक्तममेव भवति प्रायः चित्तं ।। १४९६ ।। नवे भूतस्यापि चेतसो ध्यानताऽस्तु को विरोधः १, उच्यते
गाढलंबणलग्गं चित्तं वृत्तं निरेयणं झाणं । सेसं न होइ झाणं मउअमवत्तं भमंतं वा ॥ १४९७ ॥
गाढालम्बनलग्नं-एकालम्बने स्थिरतयाऽवस्थितं चित्तमुक्तं, निरेजनं ध्यानं, [न] मृदुभावनयाऽकठोरं अव्यक्तं पूर्वोक्तं भ्रमद्वाऽनवस्थितं वा || १४९७ ॥ ननु कथमस्य पश्चादपि व्यक्तता १, अत्रोच्यतेउम्हासेसोऽवि सिही होउं लद्धिंधणो पुणो जलइ । इय अवत्तं चित्तं होउं वत्तं पुणो होई ॥१४९८ ॥
ऊष्मावशेषोऽपि शिखी भूत्वा लब्धेन्वनः सन् पुनर्ज्वलति एवमव्यक्तं चित्तं मदिरादिसम्पर्कादिना भूत्वा व्यक्तं पुनर्भवति ॥ ४९८ ॥ प्रासङ्गिकमुक्तं, प्रक्रान्तं च कायिकादि त्रिविधं ध्यानं, अत्राशङ्कामाहपुवं च जं तदुत्तं चित्तस्सेगग्गया हवइ झाणं । आवन्नमणेगग्गं चित्तं चिय तं न तं झाणं ॥ १४९९ ॥
ध्यानविषये
शङ्कासमा
धानानि
नि०गा०
१४९६
१४९९
।। २१५
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आवश्यकनियुक्तरव-
चूर्णि। ॥२१६॥
ध्यानविषवे शङ्कासमाधानानि नि०मा० १५... १५०२
-
ननु त्रिविधे ध्याने सति पूर्व च यदुक्तं चित्तस्यै काग्रता भवति ध्यानं, चशब्दाच्च तत ऊर्धमुक्त-भंगिस गुणतो बट्टइ तिविहेवि झाणमि' तदेतत् परस्परविरुद्धं, यतस्त्रिविघे ध्याने सति आपनमनेकविषयं ध्यानं, तथाहि-मनसा किश्चिद्ध्यायति वाचाऽभिधत्ते कायेन क्रियां करोतीत्यनेकाग्रता, अत्राचार्य इदमनादृत्य सामान्येनैकाग्रं चित्तं हृदि कृत्वाह-यदनेकाग्रं तच्चित्तमेव न ध्यानं ॥ १४९९ ।। आह-एवं त्रिविधध्यानस्य ध्यानत्वानुपपत्तिः, न, अभिप्रायापरिज्ञानात् , तथाहिआ.मणसहिएण उकाएण कुणइ वायाइभासई जंच। एवं च भावकरणं मणराहियं दबकरणंच १५००
मनःसहितेनैव कायेन करोति यत् , वाचा माषते यच्च मनासहितया, एतदेव भावकरणं, तच्च ध्यानं, मनोरहितं तु द्रव्यकरणं, ततश्चायमर्थः-अत्रानेकाग्रतैव नास्ति सर्वेषां मनःप्रभृतीनामेकविषयत्वात् ।। १५००॥ इत्थमुक्ते सत्यपरस्त्वाहचो.जइ ते चित्तं झाणं एवं झाणमविचित्तमावन्नं तेनर चित्तं झाणं अह नेवं झाणमन्नं ते ॥ १५०१॥
यदि ते चित्तं ध्यानं' अंतोमुत्तकालं चित्तस्सेगग्गया हवइ झाणं 'ति वचनात् , एवं ध्यानमपि चित्तमापन्न, ततश्च कायिकवाचिकध्यानासम्भवः, तेन किल चित्तमेव पानं नान्यदिति हृदयं, अथ नैवमिष्यते, इत्थं तर्हि ध्यानमन्यत्ते चित्तादिति गम्यते, यस्मानावश्यं ध्यानं चित्तं ॥ १५०१ ।। अत्राहाचार्य:-अभ्युपगमाददोषस्तथाहि
आ. नियमा चित्तं झाणं झाणं चित्तं न यावि भइयत्वं । जह खइरो होइ दुमो दुमो य खइरो अखयरो वा ॥ १५०२ ॥
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आवश्यक नियुक्तरव
चूर्णिः ॥ २१७
कायोत्सर्ग
भेदा: निगा. १५०३. १५०७
नियमादुक्तलक्षणं चित्तं ध्यानमेव, ध्यानं तु चित्तं न चापि एवं भक्तव्यं, दृष्टान्तमाह-'जह' इत्यादि, यथा खदिर स्याद्रुम एव, द्रुमस्तु खदिरोऽखदिरो वा धवादिर्वा ॥१५०२॥ प्रकृतो द्वितीय उच्छूिताख्यः कायोत्सर्गभेदो व्याख्यातः, तत्र ध्यानचतुष्टयाध्यायी लेश्यापरिगतो शेयः, तृतीयकायोत्सर्गमेदमाहअ रुदं च दुवे झायइ झाणाइंजो ठिओ संतो।एसो काउस्सग्गो दव्वुसिओ भावउ निसन्नो ॥१५०३॥
चतुर्थमाहधम्मं सुकं च दुवे झायइ झाणाई जो निसन्नो अ। एसो काउस्सग्गो निसनुसिओ होइ नायबो १५०४
कारणिक एव ग्लानस्थविरादिनिषण्णकारी ज्ञेयः, वक्ष्यते च ' अतरंतो उ' इत्यादि ॥ १५०४ ॥ पञ्चममाहधम्मं सुकं च दुवे नवि झायइ नवि य अहरुदाई। एसो काउस्सग्गो निसण्णओहोइ नायबो १५०५
प्रकरणानिषण्णः सन् धर्मादीनि न ध्यायतीत्यवगन्तव्यं ॥ १५०५ ॥ षष्ठमाहअहँ रुदं च दुवे झायइ झाणाइं जो निसन्नो य। एसो काउस्सग्गो निसन्नगनिसन्नओ नामं ॥१५०६ ॥
निगदसिद्धा ॥ १५०६ ॥ अधुना सप्तममाहधम्म सुकं च दुवे झायइ ज्ञाणाई जो निवन्नो उ। एसो काउस्सग्गो निवनुसिओ होइ नायवो ॥१५०७॥
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॥ २१७ ॥
१९
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कायो
आवश्यकनिर्युक्तरव
चूर्णिः ॥ २१८॥
सर्गाष्टमनवम
NE
मेदौ
कारणिक एव ग्लानादियों निषण्णोऽपि कर्तुं न समर्थः स निष(व)मकारी गृह्यते ॥ १५०७ ॥ अष्टममाह-- धम्मसुकं च दुवे नवि झायइ नविय अहरुदाई। एसो काउस्सग्गो निवण्णओ होइ नायवो ॥१५०८॥
इहापि निष(व)मः सन् धर्मादीनि न ध्यायतीत्यवगन्तव्यं ॥ १५०८ ॥ नवममाह-- अझं रुदं च दुवे झायइ झाणाई जो निवन्नो उ। एसो काउस्सग्गो निवन्नगनिवन्नओ नाम ॥१५०९॥ अतरंतोउनिसन्नो करिज तहविय सह निवन्नोउ।संवाहुवस्सए वा कारणियसहवि य निसन्नो॥१५१०/
यो गुरुवैयावृत्त्यादिना व्यापूतः कारणिकः समर्थोऽपि स निषण्णः करोति ॥१५०९-१०॥ अत्रान्तरे अध्ययन| शब्दार्थो निरूपणीयः, [स चान्यत्र न्यक्षेण निरूपितत्वान्नाधिकृतः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेपस्यावसरः], सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपे सूत्रं यथा सामायिके, अपरं सूत्रं
इच्छामि ठाइउं काउस्सग्गं जो मे देवसिओ अइयारो कओ काइओ वाइओ माणसिओ उस्सुत्तो उम्मग्गो अकप्पो अकरणिज्जो दुज्झाओ दुविचिंतिओ अणायारो अणिच्छियवो असमणपाउग्गो नाणे दंसणे चरित्ते सुए सामाइए तिण्हं गुत्तीणं चउण्हं कसायाणं पंचण्हं महत्वयाणं छण्हं जीवनिकायाणं सत्तण्हं पिंडेसणाणं अट्ठण्हं पवयणमाऊणं नवण्हं बंभचेरगुत्तीणं दसविहे
निगा० १५.८१५१०
॥२१८॥
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आवश्यक निर्युक्तेरव
चूर्णिः । ॥ २१९ ॥
समणधम्मे समणाणं जोगाणं जं खंडिअं जं विराहियं तस्स मिच्छामि दुकडं ॥ (सूत्रम् ) ॥ कायोत्सर्ग: अन्यत्सूत्र
प्रयोजनता ___ तस्स उत्तरीकरणेणं पायच्छित्तकरणेणं विसोहीकरणेणं विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं निग्घायणट्टाए ठामि काउस्सग्गं अन्नत्थ ऊससिएणं नीससिएणं खासिएणं छीएणं जंभाइएणं उड्डएणं वायनिसग्गेणं भमलिए पित्तमुच्छाए सुहुमेहिं अंगसंचालेहिं सुइमेहिं खेलसंचालेहिं । सुहुमहिं दिविसंचालहिं एवमाइएहिं आगारेहिं अभग्गो अविराहिओ हुज में काउस्सग्गो जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमुक्कारेणं न पारेमि ताव कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि ॥ (सूत्रम्)॥ ___तत्र इच्छामि स्थातुं, कायोत्सर्गस्य प्रयोजनतामाहकाउस्सग्गमि ठिओ निरेयकाओनिरुद्धवइपसरो।जाणइ सुहमेगमणो मुणि देवसियाइअइयारं ॥१॥ परिजाणिऊण यजओसंमं गुरुजणपगासणेणंतु।सोहेइ अप्पगं सो जम्हायजिणेहिं सो भणिराप्र०९॥
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आवश्यक नियुक्तरव- पणिः
ओघतो देवसिकरात्रिकातिचाराः निगा. १५१२
॥२२०॥
कायोत्सर्गे स्थितः सन् निरेजकायो निष्प्रकम्पदेहो निरुद्धवाकप्रसरो जानीते सुखमेकमना मुनिवसिकायतिचार ॥१॥ परिज्ञायातिचार, यतः सम्यग्गुरुजनप्रकाशनेन शोधयत्यात्मानमसौ, यस्माञ्च जिनः कायोत्सग्गों मणितस्तस्माञ्च कायोत्सर्गस्थानं कार्य ॥ २ ॥ यतश्चैवमतःकाउस्सग्गं मुक्खपहदेसियं जाणिऊण तोधीरा। दिवसाइयारजाणणट्रयाइ ठायंति उस्सग्गं ॥१५११॥
भोषणेनोपचारातीर्थकता देशितस्तं दिवसातिचारज्ञानार्थमुपलक्षणं राज्यति चारज्ञानार्थमपि ॥ १५११ ॥ तत्रौषतो । विषयद्वारेण तमतिचारमाहसयणासणण्णपाणे चेइय जइसेज काय उच्चारे।समितीभावणगुत्तीवितहायरणमि अइयारो॥१५१२॥ ___ शयनीयं संस्तारकादि, आसनं पीठकादि, अन्नपाने प्रतीते तेषामविधिना ग्रहणादौ वितथाचरणेऽतिचारः, चैत्यविषयं | च वितथाचरणमविधिना वन्दनेऽकरणे चेत्यादि, यतिविषयं वितथाचरणं ययाई विनयाद्यकरणं, शय्या-वसतिः तद्विषयम-| विधिना प्रमार्जनादौ रुयादिसंसक्तायां वा वसत,इत्यादि, 'काय' इति कायिका उच्चार:-पुरीषं तद्विषयमस्थण्डिले व्युत्सृजव इत्यादि, समितयः पञ्च, भावना अनित्यत्वादिगोचरा द्वादश पञ्चविंशतिर्वा, गुप्तयस्तिस्रः, वितथाचरणं चासामविधिनासेबनेऽनासेवने चेत्यादि, तस्मिन् सत्वतिचारः॥१५१२ ॥ इत्थमतिचारमुक्त्वा कायोत्सर्गगतस्य मुनेः क्रियामाहगोसमुहणंतगाई आलोए देसिए य अइयारे । सवे समाणइत्ता हियए दोसे ठविजाहि ॥ १५१३॥
॥ २२० ॥
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आवश्यकनियुक्तेरव
चूर्णिः ।। ॥ २२१॥
___गोषः प्रत्यूषो 'मुहनन्तकं' मुखवत्रिका, ततश्चायमर्थः-गोपादारभ्य मुखवत्रिकादौ विषयेऽवलोकयेत्-निरीक्षेत दैवसि
कायोत्सर्गकातिचारान्-अविधिप्रत्युपेक्षितादीन् , ततः सर्वानतिचारान मुखस्त्रिकाप्रत्युपेक्षणादारभ्य यावत्कायोत्सर्गेणावस्थानं I स्थितअत्रान्तरे 'सव्वे समाणइत्त 'त्ति समाप्य बुद्ध्यवलोकनेन एतावन्त एते नातः परमतिचारोऽस्तीति, ततो हृदये दोषाना- मुनिक्रिया लोचनीयान् स्थापवेत् ।। १५१३ ॥
| पञ्चप्रतिकाउंहिअए दोसे जहक्कम जा न ताव पारेइ । ताव सुहमाणुपाणू धम्मे सुक्कं च झाइजा ॥१५१४॥
क्रमणे त्रिः दोषान् यथाक्रमं [प्रतिसेवनानुलोम्येन आलोचनानुलोम्येन च, प्रतिसेवनानुलोम्यं ये यथाऽऽसेविताः, आलोचनानु- सामायिक लोम्यं तु पूर्व लघव आलोच्यन्ते पश्चाद गुरवः, यावत्र तावत्पारयति गुरुः, तावत्सूक्ष्मप्राणापान:-सूक्ष्मोच्छ्वासनिश्वासो धम्यं शुक्लं च ध्यायति ।। १५२४ ॥
निगा देसिय राइय पक्खिय चाउम्मासे तहेव वरिसेय। इकिके तिन्नि गमा नायबा पंचसेएसु ॥१५१५॥
१५१३.
१५१६ । देवसिके रात्रिके पाक्षिके चातुर्मासिके [वार्षिक ] च, एकैकस्मिन् प्रतिक्रमणे यो गमा ज्ञातव्याः, पञ्चस्वेतेषु देवसिकादिषु, कथं १, सामायिकं कृत्वा कायोत्सर्गकरणं, सामायिकं कृत्वा च प्रतिक्रमणं, सामायिकं कृत्वा पुनः कायोत्सर्ग: करणं ॥ १५१५ ।। अत्राह पर:आइमकाउस्सग्गे पडिकमणे ताव काउ सामइयं।तो किं करेह वीयं तइयं च पुणोऽवि उस्सग्गे? ॥१५१६॥॥ २२१॥
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आवश्यक- नियुक्तेरव-
चूर्णिः । ॥ २२२॥
:
आपकायोत्सर्ग कृत्वा सामायिकमिति योगः, 'पडिक्कमणे वीज (ताब वितिउं) काउं सामाइति योगः, '
ताचालताकिं करेह तइ [च] सामाइ पुगोवि उस्सग्गो, यः प्रतिक्रान्तोपरि ॥ १५१६ ॥ चालना चेयम् , अत्रोच्यते
प्रत्ववसमभावांमठियप्पा उस्सग्गं करिय तोपडिक्कमइ। एमेव य समभावे ठियस्स तइयंतु उस्सग्गे॥१५१७॥ स्थानानि समभावस्थितस्य भाव[प्रति]क्रमणं स्थानान्यथा, ततश्च समभावे स्थितात्मा दिवसातिचारपरिज्ञानाय कायोत्सर्ग |
मिच्छामि कृत्वा गुरोरतिचारजालं निवेद्य तत्प्रदत्तप्रायश्चित्तं समभावपूर्वकमेव [प्रपद्य] ततः प्रतिकामति । एवमेव च समभावस्थितस्य
दुक्कडमिसतश्चारित्रशुद्धिरपि स्यादितिकृत्वा तृतीयं सामायिकं कायोत्सर्गे क्रियते ॥ १५१७ ।। प्रत्यवस्थानमिदं
त्यवयवार्थ सज्झायझाणतवओसहेसु उवएसथुइपयाणेसु । संतगुणकित्तणेसुअन हुंति पुणरुत्तदोसा उ॥१५१८॥
निगा० 'तस्स मिच्छामि दुक्कड 'मित्यवयवार्थमाह
१५१७ | मित्ति मिउमद्दवत्ते छत्तिअदोसाण छायणे होइ।मित्ति य मेराइ ठिओ दुत्ति दुगुंछामि अप्पाणं ॥१५१९॥1
१५२१ कत्ति कडं मे पावं डत्तिय डेवमि तं उवसमेण । एसो मिच्छाउकडपयक्खरत्थो समासेणं॥१५२०॥ ___ यथा सामायिके ॥ १५१९-२० ॥ ' तस्योत्तरीकरणेनेत्या(ने'ति सूत्रावय विवृण्वन्ना )हखंडियविराहियाणं मूलगुणाणं सउत्तरगुणाणं । उत्तरकरणं कीरजह सगडरहंगगेहाणं ॥१५२१॥
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आवश्यक
चूर्णिः ।।
॥ २२३ ॥
खण्डितविराधितानामधारवलकादिनोत्तकरणं क्रियते ॥ १९२१ ॥ प्रायश्चित्तकरणेनेत्याह
तस्तउत्तरीपावं हिंदड जम्हा पायच्छित्तं तु भन्नई तेणं । पाएण वावि चित्तं विसोहए तेण पच्छित्तं ॥ १५२२॥ करणेणं पापं-कर्म छिनत्ति यस्मात्तेन पापच्छिदुच्यते, प्रायसो वा चित्तं-जीवं शोधयति तेन प्रायश्चित्तमित्युच्यते ॥ १५२२ ॥
अन्नत्थ | विशोधिकरणेनेत्याह
ऊससिएणं दवे भावे य दुहा सोही सल्लं च इकमिकं तु । सवं पावं कम्मं भामजइ जेण संसारे ॥१५२३॥
च सूत्रद्रव्यतो भावतश्च द्विधा विशुद्धिः, शल्यं चैकैकं, तत्र द्रव्यशुद्धिर्जलादिना वस्त्रादेः, भावशुद्धिः प्रायश्चित्तादिना आत्मन भयोयोख्या एव, द्रव्य शल्यं कण्टकादि, भावशल्यं तु मायादि, सर्व ज्ञानावरणीयादि कर्म पापं वर्तते, भ्राम्यते येन कारणेन तेन निगा. कर्मणा जीवः संसारे ॥ १५१२ ।। अन्यत्रोच्वसितेने त्याह
|१५२१. | उस्सासंन निरंभइ आभिग्गहिओवि किमुअचिट्ठाउ?। सजमरणं निरोहे गुस्सासंतु जयणाए१५२४
१५२५ ऊर्ध्व प्रबलो वा श्वास उच्छ्वासस्तं न निरुणद्धि आभिग्रहिकोऽपि-अभिभवकायोत्सर्गकार्यपीत्यर्थः, किं पुनश्चेष्टाकायोसर्गकारी, स तु सुतरां न निरुणद्धि, सद्योमरणं निरोधे उच्चासस्य, ततश्च सूक्ष्मोच्छ्वासमेव यतनया मुश्चति, नोल्वणं, मा भूत्सवघातः ॥ १५२४ ॥ कासितेने त्याद्याह- . कासखुअजंभिएमा हुसत्थमणिलोऽणिलस्त तिव्वुहो। असमाही य निरोहे मा मसगाई अतो हत्थो २२३ ॥
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आवश्यक
चूर्णिः।
অশ্ব ऊससिएणं सूत्रस्य व्याख्या निगा० । १५२६. १५२८
॥ २२४
कायोत्सर्गे कासातजम्मितानि नायतनया क्रियन्ते मा शस्त्रं भविष्यति, कासितादिसमुद्भवोऽनिलो-वायुरनिलस्यबाह्यवायोस्तीतोष्णो बाह्यानिलापेक्षयाऽत्युष्णः। न च न क्रियन्ते न च न निरुक्ष्यन्ते एव, असमाधिः, चशब्दान्मरण| मपि सम्भाव्यते, कासितादिसमुद्भवपवन श्लेष्माभिहता [मशकादय:] मरिष्यन्ति, जम्मिते वा (च) मुखप्रवेशं करिष्यन्ति ततो हस्तोऽग्रे दीयते ॥ १५२५ ।। उच्छ्वसितेन तुल्ययोगक्षेमत्वानिःश्वसितेनेति न व्याख्यातं, उद्गारितेनेत्याद्याहवायनिसग्गुड्डोए जयणासहस्स नेव य निराहो। उड्डोए वा हत्थो भमलीमुच्छासु अनिवेसो॥१५२६॥ ___ वातनिसर्मोद्गारयोर्यतना शब्दस्य क्रियते, न निसृष्टं मुच्यते नैव च निरोधः क्रियते, असमाधिभावादेव, उद्गारे वा | हस्तोऽन्तरे दीयते, भ्रमिमूर्छयोनिविशेत, मा मृत्सहसापतितस्यात्मसंयमविराधना ॥१५२६ ॥ सूक्ष्मरणासश्चारैरित्याबाह
वीरियसजोगयाए संचारा सुहमबायरा देहे। बाहिं रोमंचाई अंतो खेलाणिलाईया ॥ १५२७॥ M वीर्यसयोगतया सश्चाराः सूक्ष्मवादरा देहे अवश्यम्माविनः, वीर्य वीर्यान्तरायक्षयोपशमक्षयजमात्मपरिणामः, योगस्तु
मनोवाकायास्तत्र वीर्यसयोगतयैव सञ्चाराः (अतिचारा ) सूक्ष्मबादराः स्युः न केवलाद्वीर्याद देह एव नादेहस्य, तत्र वही रोमाश्चोत्कम्पादयः अन्तः-मध्ये सूक्ष्माः श्लेष्मानिलादयो विचरन्ति ॥ १५२७ ॥ सूक्ष्मदृष्टिसञ्चारैरित्याहआ(अव)लोअचलं चक्खू मणुव तं दुक्करं थिरं काउंरूवहिं तयं खिप्पइ सभावओवा सयंचलइ।१५२८
अवलोकचलं-दर्शनलालसं चक्षुरतो मनोवदुष्करं स्थिरं कां, यतो रूपैस्तदाऽऽक्षिप्यते स्वभावतो वा स्वयं चलति
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॥ २२४ ॥
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आवश्यक- नियुक्तेरव
चूर्णिः
अन्नत्थ ऊससिएणं सूत्रस्य व्याख्या निगा०
॥ २२५॥
॥१५२८ ॥ तस्मात्न कुणइ निमेसजत्तं तत्थुवओगेण झाण झाइज्जा। एगनिसिं तु पवन्नोझायइसाह आणिमिसच्छोऽवि॥
न करोति निमेषयत्नं कायोत्सर्गकारी, तत्र निमेषयत्ने य उपयोगस्तेन सता मा न ध्यानं ध्यायेदभिप्रेतं, एकरात्रिकी तु प्रतिमा प्रतिपन्नो ध्यायति समर्थोऽनिमेपाक्षोऽपि निश्चलनयनः ॥ १५२९ ॥ एवमादिभिराकारैरित्याद्याहअगणीओछिदिज व बोहियखोभाइदीहडकोवा आगारोहिं अभग्गो उस्सग्गो एवमाईहि ॥१५३०॥
'अगणिति यदा ज्योतिः स्पृशति तदा प्रावरणाय कल्पग्रहणं कुर्वतोऽपि न कायोत्सर्गमङ्गः। जाह-नमस्कारमेवोक्या किमिति तद्ग्रहणं न करोति ? येन तद्भङ्गो न स्याद् , उच्यते, नात्र नमस्कारेण पारणमेवाविशिष्टं कायोत्सर्गमानं क्रियते, किन्तु यो यत्परिमाणो यत्र कायोत्सर्ग उक्तस्तत ऊर्ध्व समाप्तेऽपि तस्मिन्नमस्कारमपठतो मङ्गोऽपरिसमाप्ते च पठतो भङ्ग एव, स चात्र न स्यादेवं सर्वत्र ज्ञेयं । 'छिदिज व 'त्ति मार्जारो मूषकादिर्वा पुरतो यायात् तत्राप्यग्रतः सरतो न कायोत्सर्गमङ्गः, बोधिका:-स्तेनकास्तेभ्यः क्षोभा-सम्भ्रमः आदिशब्दाद्राजादिक्षोमस्तत्रास्थानेऽप्युच्चारयतो वाऽनुच्चारयतो वा न कायोत्सर्गभङ्गः । 'दीहडको वत्ति सर्पदष्टे चा आत्मनि परे वा साधौ सहसा-अकाण्डे एवोचरतस्तथैव ॥ १५३० ।। ओषतः कायोत्सर्गविधिमाहते पुण ससूरिए चिय पासवणुच्चारभूमीओ । पहित्ता अत्थमिए ठंतुसग्गं सए ठाणे ॥ १५३१ ॥
॥ २२५॥
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चूर्णिः
कायोत्सर्ग
विधिः निगा १५३११५३५
आवश्यक
ते कायोत्सर्गकारः साधवः ससूर्य एव दिवसे प्रस्रवणोच्चारकालभूमीः प्रत्युपेक्ष्य ततश्चास्तमिते सूर्ये तिष्ठन्त्युत्सग स्वके नियुक्तरव- स्थाने, अयं विधिः ॥ १५३१ । कारणान्तरेण गुरोर्व्याघाते सति
जइ पुण निवाघाए आवासंतो करिति सव्वेवि । सड्ढाइकहणवाघाययाइ पच्छा गुरू ठति ॥१५३२॥
यदि निर्व्याघात एव सर्वेषामावश्य-प्रतिक्रमणं ततः कुर्वन्ति, सर्वेऽपि सहैव गुरुणा ॥ १५३२ ॥ यदा च ॥ २२६ ॥
पश्चाद्गुरवस्तिष्ठन्ति तदा| सेसा उ जहासत्तिं आपुच्छित्ताण ठंति सट्टाणे।सुत्तत्थसरणहेउं आयरिए ठियमि देवसियं ॥१५२३॥
सूत्रार्थस्मरणहेतुं ॥ १५३३ ।। कायोत्सर्गस्थानाख्यम( सर्गेण स्थातुमशक्तानां )विधिमाहजो हुज उ असमत्यो वालो वुड्डो गिलाण परितंतो। सो विकहाइरहिओझाइजाजा गुरू ठंति॥१५३४॥
ध्यायेत्सूत्रार्थ यावद् गुरवस्तिष्ठन्ति कायोत्सर्ग ॥ १५३४ ॥ आचार्ये स्थिते दैवसिकमित्युक्तं तद्गतं विधिमाहजा देवसिअं दुगुणं चिंतइ गुरू अहिंडओऽचिटुं । बहुवावारा इअरे एगगुणं ताव चिंतंति ॥१५३५॥ ___ अहिण्डकचेष्टां-व्यापाररूपा ॥ १५३५ ।। MI पवइयाण व चिट्ठ नाऊण गुरू बहुं बहुविहीअं। कालेण तदुचिएणं पारेइ थोवचिट्ठोऽवि ॥१॥ (प्र०)
।
M॥ २२६ ॥
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आवश्यकनियुक्तेरवचूर्णिः ।
।
॥ २२७॥
नमुक्कारचउवीसगकिइकम्मालोअणं पडिक्कमणं। किइडम्मदुरालोइअदुप्पडिकते य उस्सग्गो ॥१५३६॥ देवसिक
कायोत्सर्गसमाप्तौ नमस्कारेण पारयन्ति चतुर्विशतिस्तवं भणन्ति मुखानन्तकं शरीरं च प्रतिलिख्य कृतिकर्म कुर्वन्ति । प्रतिक्रमणपूर्वपरिचिन्तितान दोषान् रत्नाधिकतया आलोचयन्ति ततो गुरुदत्तप्रायश्चित्ताः सामयिकपूर्वक समभावे स्थित्वा प्रतिक्रम्य
विधिः क्षामणानिमित्तं कृतिकर्म कुर्वन्ति आचार्यादीन् क्षामयन्ति । किमपि दुरालोचित्तं दुष्प्रतिक्रान्तं वानाभोगादि स्यात् | नि०मा० अतः पुनरपि कृतसामायिकाचारित्रविशोधनार्थ कायोत्सर्ग कुर्वन्ति ॥ आलो० ।। इत्यादिगाथानवकमन्यकर्तृकं
१५३६एस चरित्तुस्सग्गो दंसणसुद्धीइ तइयओहोइ । सुयनाणस्स चउत्थो सिद्धाण थुई अकिइकम्म।।१५३७॥ १५३८
दर्शनशुद्धिनिमित्तं तृतीयः स्यात् कायोत्सर्गः, तृतीयत्वं चास्यातिचारालोचनविषयप्रथमकायोत्सर्गापेक्षया । विशुद्धचरणदर्शनश्रुतातिचारा मङ्गलनिमित्तं चरणादिदेशकानां सिद्धानां स्तुति पठन्ति, ततः पुनः कृतिकर्म आचार्याणां कुर्वन्ति ॥ १५३७ ।। किं निमित्तं ?, उच्यतेसुकयं आणत्तिं पिव लोगे काऊण सुकयकिइकम्म। वढतियाथुईओ गुरुथुइगहणे कए तिन्नि॥१५३८॥
सुकृतामाज्ञप्तिमादेशं लोके इवेति, यथा राज्ञा मनुष्या आज्ञप्तिकया प्रेषिताः प्रणम्य यान्ति तां च सुकृतां कृत्वा प्रणम्य निवेदयन्ति, एवं साधवो गुरुसमादिष्टा वन्दनपूर्व चारित्रादिविशुद्धिं कृत्वा पुनः सुकृतकृतिकर्माणः सन्तो गुरोनिवेद१ इदं गाथानवकं न क्वापि लब्धं अत एव न दर्शितम् ।
N२२७॥
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आवश्यक- यन्ति, तावत्तिष्ठन्ति यावद् मुरवः स्तुतिग्रहणं कुर्वन्ति, समाप्तायां प्रथमस्तुतौ वर्द्धमानास्तिस्रः स्तुतीः पठन्ति, एवं देवसिकं रात्रिकनियुक्तरव- गतं, रात्रिके प्रथमं चारित्रशुद्ध्यर्थ कायोत्सर्ग कुर्वन्ति, श्रुतज्ञानविशुद्ध्यर्थ श्रुतस्तवं पठन्ति, कायोत्सर्गे प्रादोषिकमतिचारं पाक्षिकाचूर्णिः। || चिन्तयन्ति ।। १५३८ । आह-किमर्थमाद्यकायोत्सर्ग एव न चिन्तयन्ति ?, उच्यते
| दिप्रतिक्र॥ २२८॥
निद्दामत्तो न सरइ अइयारं माय घट्टणंऽणोऽन्नं । किइअकरणदोसा वा गोसाई तिन्नि उस्सग्गा॥१५३९ ॥ मणविधिः भा निद्दामचो-निद्राभिभूतो न स्मरति सुष्टु अतिचारं, मा घट्टणं योऽन्नं अंधयारे बंदंतयाण, किइअकरणदोसा वा, अंधयारे पनि गा.
अदंसणाओ मंदसद्धा न बंदति, एएण कारणेग गोसे-पच्चूसे आइए तिनि काउस्सग्गा भवन्ति, न धुण पाओसिए जहा एकोत्ति ॥ १५३९ ॥
१५४२ एत्थ पढमो चरित्ते दंसणसुद्धीए बीयओ होइ।सुयनाणस्स य ततिओ नवरं चिंतंति तत्थ इमं ॥१५४०॥
तइएनिसाइयारंचिंतइ चरमंमि किं तवं काहं छम्मासा एगदिणाइहाणिजा पोरिसि नमो वा ।१५४१। न यावत् पौरुषी नमस्कारसहितं वा ॥ १५४१॥ पाक्षिकादिविधिः स्वयं ज्ञेयः, क्षामणेवाचार्यो यदभिवचे तदाहअहमवि भे खामेमी तुब्भेहिं समं अहं च वंदामि।आयरियसंतियं नित्थारगाउ गुरुणो अवयणाई।१५४२।।
अहमवि खामेमि तुम्मेहि समं, अहमवि वंदामि चेहआई, आयरिअसंति, नित्थारगपारगा होह, गुरोरेतानि वचनानि IN२२८॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरवचूर्णिः ।
।। २२९ ।।
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॥ १५४२ ॥ क्षामणकपञ्चके चातुर्मासिकादो लेशतो विधिमाह -
चाउम्मासियवरिसे आलोअण नियमसो हु दायवा । गहणं अभिग्गहाण य पुवगाहिए निवेएउं| २३२ (भा.) चातुर्मासिक वार्षिकयोः सर्वेऽपि मूलोत्तरगुणानामालोचनां दत्त्वा प्रतिक्रामन्ति, पूर्वगृहीतानभिग्रहान्निवेद्य पुनरन्यान् गृहन्ति, निरभिग्रहाणां न युज्यते स्थातुं ॥ २३२ ॥
चाउमा सियवरिसे उस्सग्गो खित्तदेवयाए उ । पक्खिय सिज्जसुरीए करिंति चउमासिए वेगे २३३ ( भा.) क्षेत्रदेवताया उत्सर्ग कुर्वन्ति, पाक्षिके शय्यासूर्याः, केचित् चातुर्मासिके शय्यादेवताया अभ्युत्सर्गे कुर्वन्ति ॥ २३३ ॥ नियतकायोत्सर्गानाह
देसिय राइय पक्खिय चउमासे या तहेव वरिसे य । एएसु हुंति नियया उस्सग्गा अनिअया सेसा । १५४३ ॥
शेषाः - गमनादिविषयाः ।। १५४३ ॥ नियतकायोत्सर्गाणामोघत उच्छ्वासमानमाह -
साय सयं गोसऽद्धं तिन्नेव सया हवंति पक्खमि । पंच य चाउम्मासे अट्ठसहस्सं च वारिसए ॥१५४४॥
सायं-प्रदोषस्तत्र शतमुच्छ्वासानां चतुर्भिरुद्योतकरैः, 'गोसद्धं 'ति प्रत्यूषे पञ्चाशत् उद्योतकरद्वयेन, पाक्षिके त्रीणि शतानि द्वादशभिरुद्योतकरैः, चातुर्मासके पश्चशतानि विंशत्योद्योतकरैः, वार्षिकेऽष्टोत्तरं सहस्रं चत्वारिंशतोद्योतकरैर्न मस्कारे च ।। १५४४ ॥ दैवसिकादिषूद्योतकरमानमाह
२०
चातुर्मासि कादौ क्षामणकादि
विधिः
नियतकायोत्स
र्गमानं च
नि०गा०
१५४३
१५४४
भा. गा. २३२
२३३
॥ २२९ ॥
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आवश्यक निर्युक्तेरव
चूर्णिः । ॥ २३० ॥
चत्तारि दो दुवालस वीसं चत्ताय हुंति उज्जोआ।देसियराइय पक्खिय चाउम्मासे अवरिसे या१५४५। ___ मावितार्था ॥ १५४५ ॥ अथ श्लोकमानमाहपणवीसमद्धतेरस सिलोग पन्नतरिंच बोद्धबा। सयमगं पणवीसंबे बावन्ना य वारिसए॥१५४६॥
चतुर्भिरुच्यासः श्लोकः परिगृह्यते, दैवसिके पश्चविंशतिश्लोकाश्चतुद्योतकरेषु, रात्रिकेऽर्द्धत्रयोदशश्लोका द्वयोरुद्योतकरयोरित्यादि यावद्वार्षिके द्वे शते द्विपश्चाशदधिके ।। १५४६ ॥ अनियतकायोत्सर्गवक्तव्यतावसरे द्वारगाथेयंगमणागमणविहारे सुत्ते वा सुमिणदंसणे राओ।नावानइसंतारे इरियावहियापडिक्कमणं॥१५४७॥ ___गमनं भिक्षाद्यर्थ अन्यग्रामादौ, आगमनं तत एव, अत्र ईर्यापथिकी प्रतिक्रम्य पञ्चविंशत्युच्छ्वासः कायोत्सर्गः कार्यः ॥ १५४७ ॥ तथा चाहभत्ते पाणे सयणासणेय अरिहंतसमणसिज्जासु। उच्चारे पासवणे पणवीसं हुांत उस्सासा॥२३४॥(भा.)
भक्तपाननिमित्तमन्यग्रामादिगता यावन स्याद्वेला तावदीर्यापथिकी प्रतिक्रम्य स्वाध्यायं कुर्वन्ति, आगता अपि पुनः प्रतिक्रामन्ति, एवं शयनासननिमित्तमपि, शयनं संस्तारकादि, आसनं पीठकादि, 'अरिहंतसमणसिजासु 'ति चैत्यगृहं गताः प्रतिक्रम्य तिष्ठन्ति, एवं श्रमणशय्यायां-साधुवसतौ उच्चारप्रश्रवणयोर्युत्सर्गे, स्वस्थानात् हस्तशताबहिर्गमने ॥२३४ ॥ 'विहार 'त्ति आह
देवसिकादिकायो| सर्गेषु
उद्योतकरश्लोक
मानं अनियतकायोत्सर्गवक्तव्यता
निगा० १५४५१५४७ भा. गा. - २३४
॥ २३०॥
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आवश्यक निर्युक्तेरव
चूर्णः ।
4 २३१ ॥
नियआलयाओ गमणं अन्नत्थ उ सुत्तपोरिसिनिमित्तं । होइ विहारो इत्थवि पणवीसं हुंति ऊसासा ॥१॥ प्र० सुत्ते व 'त्ति सूत्रद्वारमाह
उद्देसस मुद्दे से सत्तावीसं अणुन्नवणियाए । अट्ठेव य ऊसासा पटूवण पडिकमणमाई ॥ १५४८ ॥
'सूत्रस्योद्देशे [ समुद्देशे ] च यः कायोत्सर्गस्तत्र सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः, अनुज्ञायां च ' पट्ठवण 'त्ति प्रस्थापितः कार्यनिमित्तं यदि स्खलति ततोऽष्टोकासं, द्वितीयवारायां स्खलति षोडशोच्छ्वासं तृतीयवेलायां न याति, अन्यः प्रस्थाप्यते, अवश्यकार्ये देवानत्वा पुरतः साधुं स्थापयित्वा अन्येन समं याति, कालप्रतिक्रमणेऽष्टोच्छ्वासाः, आदिशब्दात् कालग्रहणे प्रस्थापनायां गोचरचर्यायां श्रुतस्कन्ध परिवर्त्तनानन्तरं ( परावर्त्तने ) च । १५४८ ॥ अत्राह प्रेरकः
जुज्जइ अकालपढियाइएस दुहु अ पडिच्छियाईसु। समणुन्नस मुद्दे से काउस्सगस्स करणं तु ॥ १५४९ ॥
अकालपठितादिषु सत्सु दुष्ठु च प्रतीच्छितादिषु समनुज्ञासमुद्देशयोग कायोत्सर्गस्य करणं ।। १५४९ ॥ जं पुण उद्दिसमाणा अणइ कंतावि कुणह उस्सग्गं । एस अकओवि दोसो परिधिप्पइ किं मुहा भंते ! ११५५० यत्पुनरुद्दिश्यमानाः श्रुतमनतिक्रान्ता अपराधमप्राप्ता अपि कुरुत कायोत्सर्ग एष अकृतोऽपि दोषः कायोत्सर्गशोध्यः परिगृझते किं सुधा भदन्त । १ । १५५० ।। आहाचार्य:
अनियत
कायोत्सर्ग
वक्तव्यता
नि०गा०
१५४८
१५५०
।। २३१ ॥
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आवश्यक- पावुग्धाइ कीरइ उस्सग्गो मंगलति उद्देसो।अणुवहियमंगलाणं मा हुज कहिचिणे विग्धं ॥१५५१ ॥
अनियतनियुक्तरव
कायोत्सर्ग____ अनुपहितमङ्गलानामकृतमङ्गलानां 'णे' इत्यस्माकं ॥ १५५१ ॥ ' सुमिणदसण'त्ति आहचूर्णिः ।
वक्तव्यता पाणवहमुसावाए अदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव । सयमेगं तु अणूणं ऊसासाणं हविजाहि ॥१५५२ ॥
नि०या० ॥ २३२॥टा स्वप्ने प्राणवधादिष्वासेवितेषु सत्सु शतमेकमन्यूनं उच्छासानां ध्यायेत् , दृष्टिविपर्यासे शतं, स्त्रीविपर्यासे अष्टोत्तरं
१५५१. शतं, उक्तं च-"दिट्ठीविपरियासे सय मेहुमि थीविपरियासे । बवहारेणट्ठसयं अणभिस्संगस्स साहुस्स ॥१॥"
१५५३ 'नावानइसंतार 'त्ति आहनावा[ए] उत्तरिउं वहमाई तह नइं च एमेव । संतारेण चलेण व गंतुं पणवीस ऊसासा ॥१॥ (प्र०)
संतारेण चलेन-सङ्कमेण वाशब्दात्पादाभ्यामुत्तीर्यापि ॥ १॥ उच्छ्वासमानमाहपायसमा ऊसासा कालपमाणेण हुंति नायवा । एवं कालपमाणं उस्सग्गेणं तु नायवं ॥ १५५३ ॥
पादः श्लोकपादः ॥ १५५३ ॥ आद्यद्वारगाथागतमशठद्वारमाह-शाट्यरहितेन स्वबलापेक्षया कायोत्सर्गः कार्यः, अन्यथा दोष इत्याहजो खलु तीसइवरिसो सत्तरिवरिसेण पारणाइसमो। विसमे व कूडवाही निविन्नाणे हु से जड्डे ।२३५।भा०॥ २३२ ॥
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आवश्यक नियुक्तरव-
चूर्णिः ।
॥ २३३ ॥
यः साधुत्रिंशद्वर्षः सन् खलुशब्दाबलवान आतङ्करहितश्च सप्ततिवर्षेणान्येन पद्धेन साधुना पारणके समः-कायोत्सर्ग-12 प्रारम्मपरिसमाप्त्या तुल्य इत्यर्थः, विषम इव-उदृतादौ इव कूटवाही विषमवाही बलीवर्दवनिर्विज्ञान एवासौ जहः, स्वहित- कायोत्सर्ग: परिज्ञानशून्यत्वात् ।। २३५ ।। दृष्टान्तमेव विवृण्वन्नाह
| कार्य: समभूमवि अइभरो उजाणे किमुअकूडवाहिस्स? अइभारेण भजइ तुत्तयघाएहि अमरालो।२३६॥भा.निगा.
समभूमावपि अतिभारो( भर )विषमवाहित्वात् , ऊर्द्ध यानमस्मिमिति उद्यानं तस्मिन् किमत', सुतरामित्यर्थः, कूट- १५५४. बाहिन:-बलिवईस्य, तस्य च दोषद्वयं, अतिमारेण मज्यते यतो विषमवाहिन एवातिमार: स्यत् , तुत्तकपातैश्च विषमवाही च पीड्यते मरालो-गलिः ॥ २३६ ॥ दार्शन्तिकयोजनामाहएमेव बलसमग्गोन कुणइ मायाइसम्ममुस्सग्गं मायावडिअ कम्मंपावइ उस्सग्गकेसंच॥१॥(प्र०)
समायाप्रत्ययं कर्म प्राप्नोति, तथा कायोत्सर्गक्लेशं च निष्फलं ॥१॥ मायावतो दोषानाहमायाए उस्सग्गं सेसंच तवं अकुवओ सहुणो। को अन्नो अणुहोही सकम्मसेसं अणिजरियं ? ॥१५५४॥
मायया कायोत्सर्ग शेषं च तपः-अनशनादि अकुर्वतः 'सहिष्णोः' समर्थस्य कोऽन्योऽनुभविष्यति ? स्वकर्मशेषम. निर्जरितं, शेषता चास्य सम्यत्वप्राप्त्योत्कृष्टकर्मापेक्षया ॥ १५५४॥ यतश्चैवमतःनिकूडं सविसेसं वयागुरूवं बलाणुरूवं च । खाणुव उद्धदेहो काउस्सगं तु ठाइजा ॥ १५५५ ॥
॥२३३॥
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आवश्यक
निर्युके रखचूर्णिः ।
।। २३४ ।।
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निष्कूटमशठं, सविशेषं समबलादन्यस्मात् सकाशात् || १५५५ ॥ वयो बलं चाधिकृत्य कायोत्सर्गकरण विधिमाह - तरुणो बलवं तरुणो अ दुब्बलो थेरओ बलसमिद्धो । थेरो अबलो चउसुवि भंगेसु जहाबलं ठाई ॥१५५६ ॥ तरुणो बलवान् १ तरुणच दुर्बलः २ स्थविरो बलसमृद्धः ३ स्थविरो दुर्बल: ४, चतुर्ष्वपि भङ्गकेषु यथाबलं तिष्ठति बलानुरूपमित्यर्थः ।। १५५६ ।। गतमशठद्वारं, शठद्वारे गाथेयं
पयलाइ पडिपुच्छइ कंटयवियारपासवणधम्मे । नियडी गेलन्नं वा करेइ कूडं हवइ एयं ॥ १५५७ ॥
कायोत्सर्गकरणवेलायां मायया प्रचलायति निद्रां गच्छति, प्रतिपृच्छति सूत्रमर्थं वा, कण्टकमपनयति, 'वियार 'ति पुरीषोत्सर्गाय याति, प्रस्रवणं व्युत्सृजति, धर्मं कथयति, निकृत्या - मायया ग्लानत्वं वा करोति, कूटं भवत्येतदनुष्ठानं ।। १५५७ ॥ विधिद्वारं---
ठतिय गुरुणो गुरुणा उस्तारियंमि पारेंति । ठायंति सविसेसं तरुणा उ अनूणविरिया उ ॥ १५५८ ॥ रंगुल मुहपत्ती उज्जूए डब्बहत्थ रयहरणं । वोसट्टचत्तदेहो काउस्सग्गं करिज्जाहि ॥ १५५९ ॥ चत्वार्यकुलानि पादयोरन्तरं कार्य, मुखपोतिका दक्षिणहस्तेन ग्राह्या, वामहस्ते रजोहरणं कार्य, एतेन विधिना व्युत्सृष्टत्यक्तदेहः कायोत्सर्ग कुर्यात् ।। १५५९ ।। दोषद्वारमाह
कायोत्सर्गे शठ विधि
द्वारे
नि०गा०
१५५६
१५५९
॥॥ २३४ ॥
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कायोत्सर्गे दोषद्वारं निगा० १५६०१५६१
आवश्यक- घोडगलयाइखंभे कुड्डेमाले यसवरि बहु नियले।लंबुत्तर थण उद्धी संजय खलि[य]वायसकवि₹१५६० नियुक्तेरव-सीसुक्कंपिय सूई अंगुलिभमुहा य वारुणी पेहा । नाहीकरयलकुप्पर उस्सारिय पारियंमिथुई ॥१५६१॥ चूर्णिः ।
एतद्व्याख्यानगाथाः 'आसुक्व०' इत्याद्याः॥२३५॥
आसुध विसमपायं गाय ठावित्तु ठाइ उस्सग्गे । कंपइ काउस्सग्गे लयच्व खरपवणसंगेणं ॥ १ ॥ खंभे वा कुडे वा अवठंभिय ठाइ काउस्सग्गं तु । माले य उत्तमंग अवठंभिय ठाइ उस्सग्गं ॥ २ ॥ सवरी वसणविरहिया करेहि सागारियं जह ठवेइ । ठइऊण गुज्झदेसं करेहि तो कुणइ उस्सग्गं ॥ ३ ॥ अवणामि उत्तमंगो काउस्सगं जहा कुलबहुन्छ । नियलियओविव चलणे वित्थारिय अहव मेलबिउं ॥ ४ ॥ काऊण चोलपट्टे अविधीए नाभिमंडलस्सुवरि । हिट्ठा य जाणुमित्तं चिट्ठई लंबुत्तरुस्सग्गं ॥ ५ ॥ उच्छाईऊण य थणे चोलगपट्टेण ठाइ उस्सग्गं । साइरक्खणट्ठा अहवा अन्नाणदोसेणं ॥ ६॥ मेलित्तु पण्डियाओ चलणे विस्थारिऊण बाहिरओ। ठाउस्सग्गं एसो बाहिरउद्धी मुणेयत्वो ॥७॥ अंगुढे मेलविउं वित्थारिय पण्डियाओ बाहिं तु। ठाउस्सगं एसो भणिओ अमितरुद्धित्ति ॥ ८॥ कप्पं वा पटुं वा पाइणिउं संजइब उस्सग्गं । ठाइ य खलिणं व जहा स्यहरणं अग्गओ काउं ॥९॥ भामेइ तहा दिर्डि चलचित्तो वायसुख उस्सग्गे । छप्पइआण भएणं कुणई अ पढें कबिटुं व ॥ १० ॥ सीसं पकंपमाणो जक्खाइट्ठव कुणइ उस्सग्गं । मूयब हुबहुअंतो तहेब छिज्जंतमाईसु ॥ ११ ॥ अंगुलिभमुहाओवि य चालतो तय कुणइ उस्सग्गं । आलावगगणणट्ठा संठवणत्थं च जोगाणं ॥ १२ ॥ काउस्सग्गंमि ठिओ सुरा जह बुडबुडेइ अवत्तं । अणुपेहंतो तह वानरुत्व चालेह ओहउडे ॥ १३॥ एए काउस्सग्गं
॥ २३५ ॥
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आवश्यक
निर्युकेरव
चूर्णिः ।
।। २३६ ।।
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कुणमाणेण विबुहेण दोसा उ । सम्मं परिहरियवा जिणपडिकुट्ठत्तिकाऊणं ॥ १४ ॥
चतुर्द्दश [गाथाः] स्पष्टाः, नवरं ' आउंडावितु 'त्ति आकुञ्चय कराभ्यां सागारिकं भगं स्थगयति-आच्छादयति, कल्पं वा पट्टे वा चोलपङ्कं वा प्रानृत्यावगुण्ठ्य कविद्धं वा शब्दं इत्यर्थः । 'छिअंतमाईसु 'त्ति छिद्यमानाद्यवयव इव । ' नाभीकरयलकुप्पर उस्सारि पारिअंमि थुह 'त्ति गाथाशकलं लेशतोऽदुष्टकायोत्सर्गावस्थानप्रदर्शनपरं विध्यन्तरसङ्ग्रहपरं च तत्र नामेघोलपट्टः कार्यः, ' करयल 'ति सामान्येनाघः प्रलम्बकरतलः यावत् 'कोप्पर 'त्ति सोऽपि कृपराभ्यां वार्यः, एवम्भूतेन कायोत्सर्गः कार्यः, उत्सारिते च कायोत्सर्गे पारित नमस्कारेणावसाने स्तुतिर्दातव्या ।। १५६१ ॥ कस्येतिद्वारे यस्यायं कायोत्सर्गे यथोक्तफलः स्यात्तमाह
वासी चंदण कप्पो जो मरणे जीविए य समसण्णो । देहे य अपडिबद्धो काउस्सग्गो हवइ तस्स ॥ १५६२॥
तथा
तिविहाणुवसग्गाणं दिवाणं माणुसाण तिरियाणं । सम्ममहियासणाए काउस्सग्गो हवइ सुद्धो ॥ १५६३॥
फलद्वारमाह
इहलोiमि सुभद्दा राया उदओद सिट्टिभज्जा य । सोदासखग्गथंभण सिद्धी सग्गो य परलोए ।। १५६४ ॥ इहलोके यत् कायोत्सर्गफलं तत्र सुभद्रोदाहरणं - वसन्तपुरे जिनदचश्रेष्ठिसुता सुभद्रा बौद्धभक्तेन चम्पापुरीनिवासिना
कायोत्सर्गे कस्येतिद्वारं
फलद्वारं च
नि०मा०
१५६२
१५६४
॥ २३६ ॥
1
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आवश्यक
निर्युक्तेरवचूर्णिः ।
॥ २३७ ॥
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कपटश्राद्धीभूय बुद्धदासेन परिणीय स्वगृहं नीता । कुटुम्बकलहे पृथग्गृहे स्थापिता । तत्र प्रायोग्यापान के ( ग्यमक्तपानार्थ ) सात्र आगच्छन्ति, एषा संयतेषु रक्तेति अन्यवचोभिर्भर्त्ता न प्रत्येति । अन्यदा अस्याः साध्वक्षितॄणापनोदं जिह्वया कुर्वाणायास्तिलकः सङ्क्रान्तो भर्तुर्दर्शितः, स मन्दस्नेहो जातः, सुभद्रया ज्ञात्वा प्रवचनोड्डाहं रात्रौ कायोत्सर्गचक्रे, आगम्य देवतयोक्ता -- प्रातरस्याः पुर्याः स्तब्धेषु द्वारेषु चालन्याकृष्टोदकेनाच्छोट्या द्वारश्रयमुद्घाटनीयं त्वया यथा उड्डाहो याति प्रशंसा च स्यात्, तया सत्या तथैव विदधे । राजा उदितोदयो यथा तस्य राज्ञो भार्या धर्मलाभागतं नृपरुद्धस्य (अन्तःपुररुद्धं श्रमणमुपसर्गयति, तस्य ) कायोत्सर्गेणोपसर्गप्रशमनं जातं । श्रेष्ठिमार्या मित्रवती मनोरमा अपरनाम्नी, यथा तथा कायोत्सर्गे कृते सुदर्शनस्य दिव्यानुभावादुपसर्गान्मुक्तिः । सौदासो नमस्कारे । ' खग्गथंमण 'त्ति कोsपि विशद्ध श्रामण्यः खङ्गः समुत्पन्नः, वने साधुमारणाय प्रधावितः साधवः कायोत्सर्गे स्थिताः, न प्रभवति पञ्चादुपशान्तः, एतदेवैहिकं फलं, सिद्धिः स्वर्गश्च परलोके फलं ।। १५६४ ॥ ननु सिद्धिः कर्म्मश्चयात् सा कथं कायोत्सर्गफलं ?, उच्यते, कर्मक्षयस्यैव कायोत्सर्गफलत्वात्, यत आह
जह करगओ निकिंतइ दारुं इंतो पुणोवि वञ्चंतो । इअ कंतंति सुविहिया काउस्सग्गेण कम्माई २३७ भा० यथा करपत्रकं निकृन्तति-छिनत्ति दारु-काएं आगच्छन् पुनश्च व्रजन् एवं कृन्तन्ति सुविहिताः कायोत्सर्गेण कर्माणि ॥ २३७ ॥ आइ - किमिदमित्थमित्यत आह
फलद्वारं
भा. गा. २३७
॥ २३७ ॥
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आवश्यक निर्युक्तेरव
चूर्णिः । ॥ २३८॥
काउस्सग्गेजह सुट्टियस्स भजति अंगमंगाई। इय भिंदति सुविहिया अट्टविहं कम्मसंघायं ॥१५६५॥ ___ यथा कायोत्सर्गे सुस्थितस्य मज्यन्तेऽङ्गोपाङ्गानि एवं चित्तनिरोधेन भिन्दन्ति ॥ १५६५ ॥ अन्नं इमं सरीरं अन्नो जीवुत्ति एव कयबुद्धी। दुक्खपरिकिलेसकरं छिंद ममत्तं सरीराओ॥ १५६६ ॥
किञ्च-एवं भावनीयंजावइया किर दुक्खा संसारे जे मए समणुभूया। इत्तो दुविसहतरा नरएसु अणोवमा दुक्खा ॥१५६७॥ तम्हाउ निम्ममेण मुणिणा उवलद्धसुत्तसारेणं । काउस्सग्गो उग्गो कम्मक्खयट्ठाय कायवो ॥१५६८॥
____ काउस्सग्गनिज्जुत्ती समत्ता। नयाः पूर्ववत् , इति कायोत्सर्गाध्ययननिर्युक्त्यवचूर्णिणः ॥
| फलद्वारं कायोत्सर्गे भावना च निगा. १५६५१५६८
२३८ ॥
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आवश्यक
अथ प्रत्याख्यानाध्ययनं । नियुक्तरव- प्रत्याख्यानाध्ययनस्य नामनिष्पन्ने निक्षेपे प्रत्याख्यानाध्ययनमिति प्रत्याख्यानमध्ययनं च, तत्र प्रत्याख्यानमधिकृत्य | चूर्णिः ।
द्वारगाथामाह।। २३९॥
पञ्चक्खाणं पञ्चक्खाओ पञ्चक्खेयं च आणुपुवीए। परिसा कहणविही या फलंच आईइ छब्भेआ॥१५६९॥
प्रत्याख्यानक्रियैव प्रत्याख्यानं, प्रत्याख्याता-गुरुर्विनेयश्च, प्रत्याख्येयं-प्रत्याख्यानगोचरं वस्तु, आनुपा कथनीयमिति वाक्यशेषः, तथा परिषद्वक्तव्या, कथनविधिश्च वक्तव्यः, तथा फलं चास्य कथनीयं, आदावेते षड् मेदाः
नामं ठवणादविए अइच्छपडिसेहमेव भावे य । एए खलु छब्भेया पञ्चक्खाणंमि नायवा ॥२३८॥(भा०) K नामप्रत्याख्यानं, स्थापनाप्रत्याख्यानं, द्रव्यप्रत्याख्यानं, न दित्सा अदित्सा सैव प्रत्याख्यानं, प्रतिषेधप्रत्याख्यानं, |
? एवं भावप्रत्याख्यानं ।। २३८ ॥ नामस्थापने गतार्थे, द्रव्यप्रत्याख्यानमाहला दवनिमित्तं दवे दवभूओ व तत्थ रायसुआ। अइच्छापञ्चक्खाणं बंभणसमणा न(अ)इच्छत्ति॥२३९॥भा०
द्रव्यनिमित्तं प्रत्याख्यानं वस्त्रादिद्रव्यार्थमित्यर्थः, तथा द्रव्ये प्रत्याख्यानं द्रव्यप्रत्याख्यानं यथा भूम्यादौ व्यवस्थितः करोति, तथा द्रन्यभूतोऽनुपयुक्तः सन् यः करोति, तुशब्दाव्यस्य द्रव्याणां द्रव्येणेत्यादि ज्ञेयं, तत्र राजसुता-एकस्य
प्रत्याख्यानद्वारगाथा प्रत्याख्यानमेदाश्च निगा
१५६९ भागा० मागा | २३८.
२३९
२३९॥
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आवश्यकता
नियुक्तेरव
चूर्णिः । ॥२४॥
प्रत्याख्यानभेदाः भा० गा० २४०२४१
राज्ञः सुता भर्तरि मृते पितृगृहमागता धर्मार्थिनी पाखण्डिनां दानं दत्ते । अन्यदा कार्तिक को धर्म )मास इति मांसं प्रत्याख्यातवती, पारणकेऽनेकेषां नानाविधानि मांसानि दीयन्ते, तत्र साधवोऽद्रेण यान्तो निमन्त्रिताः, भक्तं गृहीतं मांसं नेच्छन्ति, राजसुता प्राह-किं युष्माकं न तावत्कार्तिकमासः पूर्यते ?, तैरूचे यावजीवं कार्त्तिका, कथं १, धर्मकथायां मांसदोषाः कथिताः, सा प्रबुद्धा प्रव्रजिता, एवं तस्याः पूर्व द्रव्यप्रत्याख्यान, पश्चाद्भावप्रत्याख्यानं जातं । अदित्साप्रत्याख्यानंहे ब्राह्मण ! हे भमण ! अदित्सेति-न मे दातुमिच्छा, न तु नास्ति यद्भवता याचितं, ततश्चादित्सव वस्तुतः प्रतिषेधात्मिकेति कृत्वा प्रत्याख्यानं ।। २३९ ।। अमुगं दिजउ मज्झं नस्थि ममंतं तु होइ पडिसेहो।सेसपयाण य गाहा पञ्चक्खाणस्स भावमि।२४०भा०
अमुकं घृतादि दीयतां मां, इतरस्त्वाह-नास्ति मम तदिति, न तु दातुं नेच्छा, एष प्रतिषेधः, अयमपि वस्तुतः प्रत्याख्यानं, प्रतिषेध एव प्रत्याख्यानं प्रतिषेधप्रत्याख्यानं भावप्रत्याख्यानमाह-शेषपदानामागमनोआगमइत्यादीनां साक्षादि. हानुक्तानां प्रत्याख्यानस्य सम्बन्धिनां गाथा कार्येति शेषः, इह गाथा प्रतिष्ठोच्यते, निश्चितिरित्यर्थः, 'भावंमि 'त्ति भावप्रत्याख्याने ॥ २४० ।। तदाहतं दुविहं सुअनोसुअ सुयं दुहा पुवमेव नोपुवं । पुवसुय नवमपुत्वं नोपुवसुयं इमं चेव ॥२४१॥(भा०)
तद्भावप्रत्याख्यानं द्विविधं श्रुतप्रत्याख्यानं नोश्रुतप्रत्याख्यानं च, श्रुतं( तप्रत्याख्यानं )द्विविध-पूर्वश्रुतप्रत्याख्यानं
॥ २४०॥
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आवश्यकनियुक्तरव
प्रत्याख्यानमेदार मागा २४२
चूर्णिः
॥ २४१॥
नोपूर्वश्रुतप्रत्याख्यानं च, पूर्वश्रुतप्रत्याख्यानं नवमं पूर्व प्रत्याख्यानपूर्वमित्यर्थः, नोपूर्वश्रुतप्रत्याख्यानमिदमेव प्रत्याख्यानाध्ययनं, उपलक्षणत्वादन्यच्चातुरप्रत्याख्यानादि पूर्वबाह्यं ॥ २४१॥ नोश्रुतप्रत्याख्यानमाहनोसुअपञ्चक्खाणं मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य। मुले सवं देसं इत्तरियं आवकहियं च ॥२४२॥ (भा०)
श्रुतप्रत्याख्यानं न भवतीति नोश्रुतप्रत्याख्यानं, मूलगुणांश्चाधिकृत्योत्तरगुणांश्च, मूलगुणा एवं प्राणातिपातादिनिवृत्तिरूपत्वात् प्रत्याख्यानं वर्तन्ते, उत्तरगुणा एवाशुद्धपिण्डनिवृत्तिरूपत्वात प्रत्याख्यानं तद्विषयं वाऽनागतादि वा दशविधमुत्तरगुणप्रत्याख्यानं, 'मूले सत्वं देसं 'ति मूलगुणप्रत्याख्यानं द्विधा-सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानं देशमूलगुणप्रत्याख्यानं च, सर्व मूलगुणप्रत्याख्यानं पश्च महाव्रतानि, देशमूलगुणप्रत्याख्यानं पश्चाणवतानि, इदं चोपलक्षणं यत उत्तरगुणप्रत्याख्यानं द्विधवसर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानं देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानं च, तत्र सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानं दशविधं ' अणागयमहतं' इत्याद्युपरिष्टाद्वक्ष्यामः, देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानं सप्तविध-त्रीणि गुणव्रतानि चत्वारि शिक्षाव्रतानि, एतान्यप्यूचं वक्ष्यामः । पुनरुत्तरगुणप्रत्याख्यानं द्विधा-इत्वरं साधूनां किश्चिदभिग्रहादि, श्रावकाणां तु चत्वारि शिक्षावतानि, यावत्कथिकं तु [साधूनां] नियन्त्रितं, यत्कान्तारदुर्भिक्षादिषु न भज्यते, श्रावकाणां तु त्रीणि गुणव्रतानि ॥ २४२ ॥ स्वरूपतः सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानमाहमूलगुणावि यदुविहासमणाणं चेव सावयाणंचाते पुणविभज्जमाणापंचविहा हुति नायवा॥१॥(प्र०)
इयमन्यकर्तृकी ॥१॥
॥२४१॥
२१
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आवश्यक नियुक्तेरव
चूर्णिः ।
॥२४२ ॥
पाणिवहमुसावाए अदत्तमेहुणपरिग्गहे चेव।समणाणं मूलगुणा तिविहंतिविहेण नायवा॥२४३॥(भा०) श्रावकधर्म
प्राणवधादिषु विषयभूतेषु श्रमणानां मूलगुणास्त्रिविधं त्रिविधेन योगत्रयकरणत्रयेण नेतव्याः, श्रमणाः प्राणातिपातादि. विधिः विरतास्त्रिविधं त्रिविधेनेत्यर्थः ॥ २४३ । देशमूलप्रत्याख्यानं श्रावकाणां स्यादिति तद्धर्मविधिमेवौधत आह
निगा० सावयधम्मस्स विहिं बुच्छामी धीरपुरिसपन्नत्तं।जंचरिऊण सुविहियागिहिणोवि सुहाईपावति ।१५७० १५७०साभिग्गहा यनिरभिग्गहा य ओहेण सावया दविहा। ते पुण विभज्जमाणा अटविहा हंति नायवा १५७IN १५७२
साभिग्रहैः प्रतिज्ञाविशेषैर्वर्तन्ते इति साभिग्रहाः, निरभिग्रहाः केवलसम्यग्दर्शनिनः, ते पुनर्द्विधा अपि विभज्यमाना अभिग्रहविशेषेण निरूप्यमाणा अष्टविधाः स्युः ।। १५७१ ॥ तथाहदुविहतिविहेण पढमो दुविहं दुविहेण बीयओ होइ । दुविहं एगविहेणं एगविहं चेव तिविहेणं ॥१५७२॥
इह योऽसौ कञ्चनाभिग्रहं गृह्णाति स ह्येवं-- द्विविधं कृतकारितं 'त्रिविधेन' मनसा वाचा कायेन, अयमर्थ:-स्थूलप्राणातिपातं न करोत्यात्मना न कारयत्यन्यैमनसा वाचा कायेनेति प्रथमः, अस्यानुमतिरप्रतिषिद्धा, अपत्यादिपरिग्रहसद्भावात् , तत्तप्तिकरणे च तस्यानुमतिप्रसङ्गाद् , इतरथा सपरिग्रहापरिग्रहयोरविशेषेण प्रव्रजिताप्रबजितयोरभेदापत्तेः। यत्तु भगवत्यादौ त्रिविधं त्रिविधेनेत्यपि प्रत्याख्यानमुक्तं अगारिणस्तद्विशेषविषयं, तथाहि-यः प्रविजिषुरेव प्रतिमा प्रतिपद्यते पुत्रादिसन्ततिपालनाय स एव त्रिविधं त्रिविधेनेति करोति, तथा विशेष्यं वा किश्चिद्वस्तु स्वयम्भरमणमत्स्यादिकं ॥ २४ ॥
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आवश्यक नियुक्तेरवचूर्णि।
श्रावकधर्म
विधिः निगा १५७३. १५७४
।। २४३॥
तथा क्वचिदवस्थाविशेषे स्थूलप्राणातिपातादिकं चेत्यादि, न तु सर्वसावधव्यापारविरमणमधिकृत्य, बाहुल्येन तु द्विविधं | त्रिविधेनेत्यादिभिरेव षभिर्विकल्पैः सर्वस्यागारिणः सर्वमेव प्रत्याख्यानं स्यात् । द्विविधं द्विविधेनेति द्वितीयः, तत्र यदा मनसा वाचा न करोति न कारयति तदा मनसा अभिसन्धिरहित एव [वाचापि हिंसकमब्रुवन्नेव कायेनैव दुश्चेष्टादिना करोत्यसंज्ञिवत् , यदा तु मनसा कायेन च न करोति न कारयति तदा मनसा अभिसन्धिरहित एव ] कायेन दुश्चेष्टितादि परिहरन्नेव अनाभोगाद्वाचैव हिंसकं ब्रूते । यदा तु वाचा कायेन च न करोति न कारयति तदा मनसैवाभिसन्धिमधिकृत्य करोति, एवं शेषविकल्पा अपि ज्ञेयाः ॥ १५७२ ॥ एगविहं दुविहेणं इक्विक्कविहेण छ?ओ होइ । उत्तरगुण सत्तमओ अविरओ चेव अट्ठमओ ॥१५७३॥
प्रतिपन्नोत्तरगुणः सप्तमः, अविरतसम्यग्दृष्टिरष्टमः ॥ १५७३ ॥ एत एवाष्टौ मेदा विभज्यमाना द्वात्रिंशत्स्युः, कथमित्यत आहपणय चउकं च तिगं दुगंएगंचगिण्हइवयाई। अहवावि उत्तरगुणे अहवावि न गिण्हई किंचि॥१५७४॥
पश्चाणुव्रतानि समुदितान्येव गृह्णाति कश्चित्तत्र उक्कलक्षणाः षड् भेदाः, तथाणुव्रतचतुष्टयं गृह्णात्यपरस्तत्रापि पडेब, यावदन्य एकमेवाणुव्रतं गृह्णाति तत्रापि षडेव, एवमनेकधा गृह्णाति व्रतानि, विचित्रत्वात् श्रावकधर्मस्य । एवमेते पञ्च षद्कास्त्रिंशद , अथवोत्तरगुणान् गृह्णाति समुदितान्येवेत्येकत्रिंशत् , अथवा न गृह्णाति कानप्युत्तरगुणान् केवलं सम्यग्
॥ २४३
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आवश्यक
निर्युक्तेरवचूर्णिः ।
॥ २४४ ॥
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दृष्टिरेव इति द्वात्रिंशत् ।। १५७४ ॥ इह मूलगुणोत्तरगुणानामाधारः सम्यक्त्वं स्यात्, तथा चाहनिस्संकियनिक्कंखिय निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । वीरवयणांमे एए बत्तीसं सावया भणिया ॥१५७५ ॥ तथा एते चैव विभज्यमानाः सप्तचत्वारिंशदधिकं श्रमणोपासकशतं स्यात् कथं १, करणकारणानुमतीनां मनोवाक्कायैः सह संयोगे सत्येककद्विकत्रिकयोगे सप्त सप्तकाः स्युः, तथाहि प्राणातिपातं न करोति मनसा १ वाचा २ कायेन ३ मनसा वाचा ४ मनसा कायेन ५ वाचा कायेन ६ मनसा वाचा कायेन च ७ एते करणेन १ एवं कारणेन २ अनुमत्या ३ करण कारणाभ्यां ४ करणानुमतिभ्यां ५ कारणानुमतिभ्यां ६ करणकारणानुमतिभिरपि ७, एवमेते सप्त सप्तकमङ्गकानामेकोनपञ्चाशद् भवन्ति, एकोनपञ्चाशत्तमोऽयं विकल्पः- प्राणातिपातं न करोति न कारयति कुर्वन्तमन्यं नानुजानाति मनसा वाचा कायेनेतिस्वरूपः प्रतिमाप्रतिपन्नस्य श्राद्धस्य स्यात् एषां त्रिकालविषयता चाडतीतस्य निन्दया साम्प्रतिकस्य संवरणेनानागतस्य प्रत्याख्यानेन, एवमे कोनपञ्चाशत्कालत्रय गुणिताः सप्तचत्वारिंशदधिकं शतं ।। १५७५ ।।
सीयालं भंगसयं गिद्दिपश्च्चक्खाण भेयपरिमाणं । तं च विहिणा इमेणं भावेयत्वं पयतेणं ॥ १ ॥ तिन्नि तिया तिन्नि दुया तिनिक्किका यहुंति जोगे । तिदुकं तिदुइक्कं तिदुएगं चैव करणाई || २ || पढमे लब्भइ एगो सेसेसु परसु तिय तिय तियंति । दो नव तिय दो नवगा तिगुणिय सीयाल मंगसयं || ३ || स्थापना -
श्रावकधर्मविधिः
नि०गा०
१५७५
॥ २४४ ॥
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आवश्यकनिर्युक्तेरव
३२
चूर्णिः
॥ २४५॥
एतत्पुनः प्रचमिरणुव्रतैर्गुणितं सप्तशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि
| |३| |२ २|२|
श्रावकधर्म
|१| | भाद्धानां म्युः, अथवा अणुव्रतान्येव प्रतीत्य एककादिसंयोगद्वारेण
१|३|२|१|३|२|१|
विधिः प्रभूततरा मेदाः स्युः, तत्रेयमेकादिसंयोगपरिमाणप्रदर्शनपरा गाथा- १ ३ ३|३|९|९| |९|९| पंचण्हमणुवयाणं इक्कदुगतिगचउक्कपणगहि । पंचगदसदसपणहक्कगेय संजोग कायवा॥१॥ (अन्यक०)
पञ्चानामणुव्रतानामेककेन चिन्त्यमानानां पञ्चसु गृहेषु पञ्चैव संयोगाः ( भङ्गाः), द्विकेन चिन्त्यमानानां दश, कथं , प्रथमद्वितीयगृहेण १ प्रथमतृतीयगृहेण २ प्रथमचतुर्थगृहेण ३ इत्यादि चारणिकया ज्ञेयं, त्रिकेण चिन्त्यमानानां दश, चतुष्केन पञ्च, पश्चकेन एक एव ।। १॥ एतेषामागतफलगाथा:वयमिक्कगसंजोगाण हुंति पंचण्ह तीसई भंगा। दुगसंजोगाण दसह तिन्नि सट्टा सया हुँति॥१॥(प्र०) तिगसंजोगाणदसण्ह भंगसयं इक्वीसई सट्ठा।उसंजोगाण पुणो चउसट्ठिसयाणिऽसीयाणि॥२॥प्र० सत्तुत्तरि सयाइं छसत्तराई च पंचसंजोए । उत्तरगुण अविरयमेलियाण जाणाहि सत्वग्गं॥३॥ (प्र०)
पश्चानामणुव्रतानामेककयोगात् पश्च, एकैकस्मिश्चैककसंयोगे द्विविधत्रिविधादयः पड् भङ्गाः, एते सर्वेऽपि मिलिताः ३०, ततश्च यदुक्तं-' वयमिक्कगसंयोगाण हुंति पंचण्ह तीसई भंग 'त्ति तद् भावितं, तथा एकैकस्मिन् द्विकसंयोगे पत्रिंशद् IN२४५॥
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आवश्यकनियुक्तेरव
लाप:
चूर्णिः ।
॥ २४६॥
भङ्गाः, तथाहि-आद्यव्रतसम्बन्धी आद्याऽवस्थितो मृषावादसत्कान् षड् भङ्गकान् लभते, एवमाद्यव्रतसम्बन्धी द्वितीयोऽपि, सम्यक्त्वाततश्च षट् षड्भिर्गुणिताः षट्त्रिंशत् , दश चात्र द्विकसंयोगाः, अतः पत्रिंशद् दशभिर्गुण्यन्ते, जातानि ३६०, ततश्च यदुक्तं'दुगसंजोगाण दसह तिन्नि सट्ठा सया हुंति' तद् भावितं । एवं त्रिकसंयोगादिष्वपि भङ्गसङ्ख्यामावना कार्या । ' उत्तरगुण अविश्यमेलियाण जाणाहि सत्वग्गं "ति प्रतिपन्नोत्तरगुणाविरतलक्षणभेदद्वयमीलितानामन्तरोक्तानां त्रिंशत्प्रभृतीनां भङ्गानां सर्वाग्रमाहसोलस चेव सहस्सा अट्ठसया चेव होंति अट्टहिया। एसो उवासगाणं वयगहणविही समासेण॥४॥(प्र०। ___ तत्र यस्मात् श्रावकधर्मस्य मूलं सम्यक्त्वं तस्माद् तद्गतमेव विधिमभिधातुकाम आह
तत्थ समणोवासओ पुवामेव मिच्छत्ताओ पडिक्कमइ, संमत्तं उवसंपजइ, नो से कप्पइ अजपभिई अन्नउथिए वा अन्नउस्थिअदेवयाणि वा अन्नउत्थियपरिग्गहियाणि अरिहंतचेइआणि वा वंदित्तए वा नमंसित्तए वा पुविं अणालत्तएणं आलवित्तए वा संलवित्तए वा तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पयाउं वा, नन्नत्थ रायाभिओगेणं गणाभिओगेणं बलाभिओगेणं देवयाभिओगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तीकंतारेणं, से य संमत्ते पसत्थसंमत्तमोहनीय
IMIM २४६॥
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नियुक्तेरव
सम्यक्त्वाधिकारः
आवश्यकII कम्माणुवेयणोवसमखयसमुत्थे पसमसंवेगाइलिंगे सुहे आयपरिणामे पन्नत्ते, सम्मत्तस्स समणो-
वासएणं इमे पंच अइयारा जाणिवा न समायरियवा, तंजहा-संका कंखा वितिगिच्छा पर- चूर्णिः । ।
पासंडपसंसा परपासंडसंथवे ॥ ( सूत्रम् ) ॥२४७॥
तवार्थश्रद्धानरूपमुपसम्पद्यते, सम्यक्त्वमुपसंपन्नस्य सतो न से तस्य कल्पते-युज्यते 'अद्यप्रभृति ' सम्यक्त्वप्रतिपत्तिकालादारभ्य अन्यतीथिकान्-चरकपरिव्राजकभिक्षुभौतादीन् अन्यतीर्थिकदेवतानि वा रुद्रविष्णुसुगतादीनि, अन्यतीर्थिकपरिगृहीतानि वा [अर्हत ] चैत्यानि-अईत्प्रतिमालक्षणानि यथा भौतपरिगृहीतानि वीररु( रम )द्रमहाकालादीनि बोटिकपरिगृहीतानि वा वन्दितुं वा नमस्कतुं वा, तत्र वन्दनं-अभिवादनं नमस्करण-प्रणामपूर्वकं प्रशस्तध्वनिभिर्गुणोत्कीर्तनं, अन्येषां तद्भक्तानां मिथ्यात्वादिस्थिरीकरणात् , तथा पूर्वमनालप्तेन सतान्यतीर्थिकैस्तानेवालप्तुं वा संलप्तुं वा, तत्र सकृत्संभाषणमालपनं पौनःपुन्येन संलपनं, को दोषः स्यात् ?, ते तप्ततरायोगोलकल्पा आसनादिक्रियायां नियुक्ता भवन्ति तत्प्रत्ययः कर्मबन्ध इत्यादि, प्रथमालप्तेन त्वसम्भ्रमं लोकोपवादभीरुतया कीदृशस्त्वमित्यादि वाच्यं । तथा तेषामन्यतीथिकानां [ अशनं पानं खादिमं स्वादिमं वा ] दातुं वाऽनुप्रदातुं वा न कल्पते, तत्र सकद्दानं पुनः पुनरनुप्रदानं, किं सर्वथैव न कल्पते इति !, न, अन्यत्र राजाभियोगेनेति-राजाभियोगं मुक्त्वा, अयमर्थः-राजाभियोगादिना दददपि न धर्म: मतिकामति, करुणागोचरं पुनरापनानामेतेषामनुकम्पया दद्यादपि । अतिचारा मिथ्यात्वमोहनीयोदयादात्मनोऽशुभ-
२४७ ॥
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आवश्यकनियुक्तेरव
चर्णिः
।। २४८ ॥
परिणामविशेषा ज्ञातव्याः ज्ञपरिक्षया न समाचरितव्याः नासेव्याः। शङ्का-अईत्प्रणीतेषु पदार्थेषु संशयः, सा द्विमेदा
प्रथमाणुदेशशङ्का सर्वशङ्का च, आद्या यथा किमयमात्माऽसङ्ख्येयप्रदेशात्मकोऽथ निष्प्रदेशः स्यादिति, सर्वशङ्का सकलास्तिकाय
व्रताधिबा(जा)त एव किमेवं स्यान्नैवमिति । कासा सुगतादिप्रणीतदर्शनेषु ग्राहोऽभिलाष इत्यर्थः, इयमपि देशसर्व भेदाभ्यां वाच्या,
कार: अथवा ऐहिकामुष्मिकफलानि काङ्क्षति । विचिकित्सा मतिविभ्रमः, युक्त्यागमोपपन्नेऽप्यथें फलं प्रति सम्मोहः, किमस्य महतस्तपःक्लेशायासस्य आयत्यां मम फलसम्पद्भविष्यति किं वा नेति । शङ्का हि सकलाऽसकलपदार्थमात्त्वेन द्रव्यगुणविषया इयं तु क्रियाविषयैव, अथवा विद्वांसः-साधवस्तेषां जुगुप्सा-निन्दा विद्वज्जुगुप्सा । परपाखण्डानां-सर्वज्ञप्रणीतपाखण्डव्यतिरिक्तानां प्रशंसा-स्तुतिः, परपाखण्डैः सह संस्तवः [-परिचयः] परपाखण्डसंस्तवः संवसनभोजनालापादिः लक्षणोऽयमपि न समाचरणीयः, तथाहि-एकत्र संवासे तत्प्रक्रियाश्रवणात्तक्रियादर्शनाच्च तस्याऽसदभ्यस्तत्वादवाप्त तत्सहकारिकारणान्मिथ्यात्वोदयतो दृष्टिभेदः स्यादतोऽतिचारहेतुत्वान्न समाचरणीयः । एवं शङ्कादिरहितः सम्यक्त्ववान् | शेषाणुव्रतादिप्रतिपत्तियोग्यः स्यात् , तानि चाणुव्रतानि स्वरूपत आह
थूलगपाणाइवायं समणोवासओ पञ्चक्खाइ, से पाणाइवाए दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-संकप्पओ आरंभओ अ, तत्थ समणोवासओ संकप्पओ जावज्जीवाए पञ्चक्खाइ, नो आरंभओ, थूलगपाणाइवायवेरमणस्स समणोवासगेणं पंच अइयारा जाणिअवा, तंजहा-बंधे वहे छविच्छेए अइभारे N२५८ ॥
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द्वितीयाणु
व्रताधि
कार:
आवश्यक-IN
भत्तपाणवुच्छेए ॥ १॥ (सूत्रम् ) निर्युक्तेरव ___स्थूला:-द्विन्द्रियादयः, स्थूला एव स्थूलकास्तेषां प्राणा:-इन्द्रियादयस्तेषामतिपातस्तं प्रत्याख्याति, तस्माद्विरमति । चूर्णिः ।
स च प्राणातिपातो द्विविधः-सङ्कल्पज आरम्भजश्व, सङ्कल्पजो मनसः सङ्कल्पाद् द्वीन्द्रियादिप्राणिनं मांसास्थिचर्मनखवाल
दन्ताद्यर्थ व्यापादयतः स्यात् , आरम्भाजात आरम्भजस्तत्रारम्भो हलदन्तालादिखननसूना( नलवन )प्रकारस्तस्मात् ॥२४९॥
शङ्खचन्दणकपीपिलिकादिसट्टानपरितापापद्रावणलक्षणः, तत्र सङ्कल्पतो यावजीवयैव प्रत्याख्याति न आरम्म, तस्यावश्यंतया सम्मवात् । आह-एवं सङ्कल्पतः किं सूक्ष्मप्राणातिपातमपि न प्रत्याख्याति ?, उच्यते, एकेन्द्रियाः प्रायो दुष्परिहारा गृहिणां सङ्कलप्यैव सचित्तपृथिव्यादिपरिभोगात् , सम्बन्धः(बन्धः)-संयमनं रज्जुदामा( मनका)दिभिः १, वधस्ताडनं कसादिभिः २, छविः-शरीरं तस्य च्छेदः-पाटनं करपत्रादिभिः ३, अतिभारः प्रभूतस्य पूगफलादेः स्कन्धपृष्ठ्यादिषु आरोपणं ४, भक्तपानस्य व्यवच्छेदोऽदानं ५, एतान् समाचरनतिचरति प्रथमाणुव्रतं ॥ १॥ .
थलगमुसावायं समणोवासओ पच्चक्खाइ, से य मसावाए पंचविहे पन्नने, तंजहा-कन्नालीए गवालीए भोमालीए नासावहारे कूडसक्खिज्जे। थूलगमुसावायवेरमणस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियवा, तंजहा-सहस्सब्भक्खाणे रहस्स-भक्खाणे सदारमंतभेए मोसुवएसे कूडलेहकरणे ॥ २॥ (सूत्रम् )
भः २, छवि-सातप्रथिव्यादिपरिभोगानणातिपातमपि न प्रत्याख्यात प्रत्याख्याति न आरम्मजस्तस्मात् ।
॥२४९॥
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आवश्यकनिर्युक्तेरव
चर्णिः। / परसत्कामेव भिन्न ]कन्यका वक्ति विपर्ययो वा परिस्थूलकमृपावादं प्रत्याख्याति.
॥२५॥
मृषावादोऽपि द्विविधः-स्थूल: सूक्ष्मश्च, तत्र परिस्थूलकमृषावादं प्रत्याख्याति, कन्याविषयमलीकं कन्यालीकं, अभिन्न- तीयाणुकन्यकामेव [भिन्न ] कन्यका वक्ति विपर्ययो वा, एवं गवालीकमलपक्षीरामेव गां बहुक्षीरां वक्ति विपर्ययो वा, भूम्यली व्रताधिपरसत्कामेव भुवमात्मसत्का वक्ति इत्यादि, न्यास:-रूपकाद्यर्पणं तस्यापहरणं न्यासापहास, ननु अदत्तादानरूपत्वादस्य कथं मृषावादत्वं ?, उच्यते, अपलपतो मृषावादः, कूटसाक्षित्वं लश्चामत्सराद्यभिभूतः प्रमाणीकृतः सन् कूटं वक्ति, अविधवाद्यनृतस्यात्रैवान्तर्भावो ज्ञेयः, सहसा-अनालोच्याम्याख्यानं सहसाभ्याख्यानं अभिशंसनं-असदध्यारोपणं, चौरस्त्वं पारदारिको वेत्यादि १, रहस्याम्याख्यानं-एकान्ते मन्त्रयमाणान् [दृष्टा] वक्ति-एते हि इदं चेदं च राजापकारित्वादि मन्त्रयन्ति २, स्वदारमन्त्रभेद:-स्वकलत्रविश्रन्धविशिष्टावस्थामन्त्रितान्यकथनं ३, मृषोपदेशोऽसदुपदेशः ४, कूटलेखकरण-अन्यमुद्राक्षरविम्बस्वरूपलेखकरणं ५ । एतानि समाचरन्नतिचरति द्वितीयाणुव्रतं ॥ २ ॥
थूलगअदत्तादाणं समणोवासओ पच्चक्खाइ, से अदिन्नादाणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-सचित्तादत्तादाणे अचित्तादत्तादाणे य । थूलादत्तादाणवेरमणस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियबा, तंजहा-तेनाहडे तक्करपओगे विरुद्धरजाइक्कमणे कूडतुलकूडमाणे तप्पडिरूवगववहारे ॥३॥ (सूत्रम् )
अदत्तादानं द्विविध-स्थूलं सक्ष्मं च, तत्र परिस्थूलविषयं चौर्यारोपणहेतुत्वेन प्रसिद्धं, अतिदुष्टाध्यवसायपूर्वकं स्थूलं, IT॥ २५० ॥
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आवश्यक- निर्युक्तेरव- चर्णिक
चतुर्थाणुव्रताधिकार:
॥२५१॥
विपरीतमितरत् । सेशन्दस्तच्छब्दार्थः, तथा( चा )दत्तादानं द्विविधं-सचित्त-द्विपदादिलक्षणं वस्तु तस्य क्षेत्रादौ सुन्यस्त- दुय॑स्तविस्मृतस्य स्वामिनाऽदत्तस्य चौर्यबुद्ध्या आदानं सचित्तादत्तादानं, एवमचित्तादानमपि, नवरं अचित्तं वस्तु कनकादि। स्तेनाचौरास्तेराहतं-आनीतं किश्चित्कुङ्कुमादि देशान्तराद् स्तेनाहृतं तत्सममिति लोमाद् गृहृतोऽतिचारः १, तस्कराणां प्रयोगो हरणक्रियायां प्रेरणमभ्यनुज्ञान( नुज्ञा )तस्करप्रयोगः, तान् प्रयुङ्क्ते-हरत ययमिति २, विरुद्धनृपयो राज्यं विरुद्धराज्यं तस्याऽतिक्रम:-अतिलकनं विरुद्धराज्यातिक्रमः न हि ताभ्यां तत्र तदाऽतिक्रमोऽनुज्ञातः ३, 'कूटतुलाकूटमान' तुला प्रतीता मान-कुडवादि, कूटत्वं-न्यूनया ददतोऽधिकया गृहतोऽतिचारः ४, तेन-अधिकृतेन प्रतिरूपकं-सदृशं तत्प्रतिरूपकं, तस्य व्यवहारा-प्रक्षेपस्तत्प्रतिरूपकव्यवहारः, यद्यत्र घटते व्रीह्यादिघृतादिषु पलञ्जीवसादि तस्य प्रक्षेप इत्यर्थः, तत्प्रतिरूपकेण वा वसादिना व्यवहरणं तत्प्रतिरूपकव्यवहारः ५॥३॥ ___परदारगमणं समणोवासओ पञ्चक्खाति सदारसंतोषं वा पडिवजइ, से य परदारगमणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-ओरालियपरदारगमणे वेउवियपरदारगमणे, सरदारसंतोसस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियबा, तंजहा-अपरिगहियागमणे इत्तरियपरिग्गहियागमणे अणंगकीडा परवीवाहकरणे कामभोगतिवाभिलाषे ॥ ४ ॥ (सूत्रम् )
आत्मव्यतिरिक्तो योऽन्यः स परः तस्य दारा:-कलत्रं परदारास्तत्र गमनं परदारगमनं, गमनमासेवनरूपतया ज्ञेयं,
No
२५१॥
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आवश्यकनियुक्तेरव
चूर्णिः । ॥ २५२॥
-
-
स्वदारा:-स्वकलत्रं तस्तेषु वा [ सन्तोषः तं वा ] प्रतिपद्यते, अयमर्थ:-परदारगमनप्रत्याख्याता यावेव परदारशब्दा | पश्चमाणु प्रवर्तते ताभ्य एव निवर्त्तते, स्वदारसन्तुष्टस्तु एकानेकस्वदाव्यतिरिक्ताम्यः सर्वाम्य एव । औदारिकपरदारगमनं-स्त्रयादि-IN| व्रताधि. गमनं, वैक्रियपरदारगमनं-देवाङ्गनागमनं । इत्वरकालपरिगृहीता कालशब्दलोपादित्वरपरिगृहीता, भाटिप्रदानेन कियन्त- कार: मपि कालं दिनमासादिकं स्ववशीकता तस्यां गमनं-मैथुनासेवनं इत्वरपरिगृहीतागमनं १, अपरिगृहीता वेश्या अन्यसत्काऽगृहीतमाटिः कुलाङ्गना वाऽनाथा तस्यां गमनं २, अनङ्गानि-कुचकक्षोरुवदनादीनि तेषु क्रीडनमनङ्गक्रीडा अथवाऽनङ्गक्रीडा समाप्तप्रयोजनस्यापि स्वलिङ्गेन आहायः काष्ठपुस्तकफलमृत्तिकाचादिघटितप्रजननयोंषिदवाच्यप्रदेशासेवनं ३, | स्वापत्यव्यतिरिक्तमन्यापत्यं परशब्देनोच्यते, तस्य कन्याफललिप्सया स्नेहसम्बन्धेन वा विवाहकरणं परविवाहकरणं ४, कामा:-शब्दरूपगन्धाः भोगा:-रसस्पर्शास्तेषु तीव्रामिलापोऽत्यन्ततदध्यसायित्वं, तस्माचेदं करोति-समाप्तरतोऽपि योषिन्मुखोपस्थकर्णकक्षान्तरेष्वतृप्ततया प्रक्षिप्य लिङ्गं मृत इवास्ते महतीवेलां, दन्तनखादिभिर्वा मदनमुत्तेजयति, वाजीकरणानि चोपयुङ्क्ते, योषिदवाच्यदेश वा मृनाति ४ । एतानि इत्वरपरिगृहीतादीनि समाचरभतिचरति चतुर्थाणुव्रतं । तत्राद्यौ द्वौ अतिचारौ स्वदारसन्तुष्टस्य स्यातां नो परदारविवर्जकस्य, शेषा द्वयोरपि ॥ ४ ॥ ___अपरिमियपरिग्गहं समणोवासओ पञ्चक्खाइ इच्छापरिमाणं उवसंपज्जइ, से परिग्गहे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-सचित्तपरिग्गहे अचित्तपरिग्गहे य, इच्छापरिमाणस्स समणोवासएणं इमे पंच २५२ ॥
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आवश्यक
निर्युकेरव
चूर्णिः ।
॥ २५३ ॥
अइयारा जाणियचा, तंजा - धणधन्नपमाणाइकमे, वित्तत्रत्युपमाणाइकमे हिरन्नसुवन्नपमाणाइक्कमे दुपयच उप्पयपमाणाइक्कमे कुवियपमाणाइक्कमे ॥ ५ ॥ (सूत्रम् )
अपरिमितः अपरिमाणः स चासौ परिग्रहश्च अपरिमितपरिग्रहस्तं, इच्छापरिमाणं, सचिचादिगोचरेच्छापरिमाणं । क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिचारः, तत्र शस्योत्पत्तिभूमिः [ क्षेत्रं ] तच्च सेतुकेतुभेदाद् द्विविधं तत्र सेतुक्षेत्र मरघट्टादिसेक्यं, केतुक्षेत्रं तु आकाशपतितोदकनिष्पाद्यं, वास्तु-अगारं, तदपि त्रिविधं खातं १ उच्छ्रितं २ खातोच्छ्रितं च ३ । तत्र खातं - भूमिगृहादि उच्छ्रितं प्रासादादि खातोच्छ्रितं भूमिगृहस्योपरि प्रासादः, एतेषां क्षेत्रवास्तूनां प्रमाणातिक्रमः, प्रत्याख्यान काल१ हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रमः, तत्र हिरण्यं रजतं घटितमघठितं वा एवं सुवर्णमपि एतग्रहणाचेन्द्रनीलमरकताद्युपलग्रहः २, धनधान्यप्रमाणातिक्रमः, तत्र धनं- गुडखण्डादि गोमहिण्याद्यन्ये, धान्यं - व्रीह्यादि ३, द्विपदचतुष्पदप्रमाणातिक्रमः, तत्र द्विपदानि - दासीदास मयूरादीनि चतुष्पदानि - हस्त्यादीनि ४, कुप्यप्रमाणातिक्रमः, तत्र कुप्यंआसनचयन मण्डककरोटक लोहाद्युपस्करजातं, एवग्रहणाच्च वस्त्र कम्बल परिग्रहः ५ | अणुव्रतानां परिपालनाय भावना भूतानि गुणवतान्युच्यते
दिसिव तिविपन्नत्ते - उड्डदि सिवए अहोदिसिवए तिरियादसिवए, दिसिवयस्स समणोवासरणं इमे पंच अइयारा जाणिवा, तं जहा- उदिसिपमाणाइक्कमे अहोदिसिपमाणाइकमे
२२
दिग्वताषि
कारः
॥ २५३ ॥
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परिमोद
व्रताकि
आवश्यक || तिरियदिसिपमाइक्कमे खित्तवुड्डी सइअंतरद्धा ॥ ६ ॥ (सूत्रम् ) नियुक्तेरव
I ऊर्ध्व दिग्वतमेतावतीदिगूर्व पर्वताद्यारोहणादवगानीया, एतावती पूर्वेणावगाहनीया एतावती दक्षिणेनेत्यादि न परत चूर्णिः ।
इत्येवम्भूतं, अस्मिश्च सत्यवगृहीतक्षेत्रावहिः स्थावरजङ्गमप्राणिगोचरोदण्डः स्यात्यक्त इति गुणः। क्षेत्रवृद्धिरिति एकतो ॥ २५४॥ योजनशतं गृहीतमन्यतो दशयोजनान्यभिगृहीतानि तस्यां दिशि समुत्पन्ने कार्य योजनशतमध्यादपनीयान्यानि दशयो
जनानि तत्रैव स्वबुद्ध्या प्रक्षिपति । स्मृतेरन्तनि-ग्रंशः स्मृत्यन्तर्धानं, किं मया परिगृहीतं कया मर्यादया व्रतमित्येवमननुस्मरणं, स्मृतिमूलं नियमानुष्ठानं, तशे नियमत एव नियमभ्रंश इत्यतिचारः॥६॥
उवभोगपरिभोगवए दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-भोअणओ कम्मओ अ। भोअणओ समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियवा, तं जहा-सचित्ताहारे सचित्तपडिबद्धाहारे अप्पलिओसहिभक्खणया तुच्छोसहिभक्खणया दुप्पलिओसहिभक्खणया। कम्मओ णं समणोवासएणं इमाइं पन्नरस कम्मादाणाइं जाणियवा, तं जहा-इंगालकम्मे वणकम्मे साडीकम्मे फोडीकम्मे, दंतवाणिज्जे लक्खवाणिजे रसवाणिजे केसवाणिजे विसवाणिज्जे, जंतपीलणकम्मे निल्लंगणकम्मे दवग्गिदावणया सरदहतलायसोसणया असईपोसणया ॥ ७ ॥ (सूत्रम् )
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आवश्यक - निर्युक्तेरव
चूर्णिः
।। २५५ ।।
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उपशब्दः सकदर्थेऽन्तर्भोगे वात उपभोग आहारादेः, परिशब्द आवृत्तौ पुनः पुनरित्यर्थः बहिभोंगे वा, ततः परिभोगो वस्त्रादेः, एतद्विषयं व्रतमुपभोगपरिभोगवतं । तत्र भोजनत उत्सर्गेण निरवद्याहारमोजिना भवितव्यं, अपवादतोऽनन्त कायबहुव्रीविवर्जकेन, कर्म्मतोऽपि निश्वद्य कर्मानुष्ठानयुक्तेन, अशक्तौ अत्यन्तसावद्यत्यागिना । भोजनतो यद्व्रतमुकं तदाश्रित्य सचिवासवाहारथ सचिचाहारः १, सचिचप्रतिबद्धाहारो यथा वृक्षप्रतिबद्धो गुन्दादि पक्कफलानि वा २, अपक्कोषधिभक्षणत्वं प्रतीतं, सचित्तसंमिश्राहार इति पाठान्तरं ३, दुष्पकोषघिमक्षणता दुष्पका :- अस्विन्ना इत्यर्थः ४, तुच्छौषधिभक्षणता तुच्छा असारा मुगफलीप्रभृतयः, अत्र महती विराधनाऽल्पा च तुष्टिः ५, कम्मदानानीत्य सावद्य जीवनोपायाrasपि तेषामुत्कज्ञानावरणीयादि कर्महेतुत्वादादानानि, अङ्गारकरणविक्रयक्रिया १, एवं वन २ शकट ३ भाटक ४ स्कोटन ५ दन्त ६ विष ७ लाक्षा ८ र ९ केशवाणिज्यं १० यन्त्रपीडन ११ निलच्छन १२ दवदापन १३ सरोइदादिशोषण १४ असतीपोषणेपि १५ द्रष्टव्यं प्रदर्शनं चैतद् बहुसावद्यानां कर्मणामेवं जातीयानां न पुनः परिगणनं ॥ ७ ॥
अणत्थदंडे चविपन्नत्ते, तं जहा -अवज्झाणायरिए पमत्तायरिए हिंसप्पयाणे पावकम्मोवएसे, अणत्थदंडवेरमणस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणिवा, तं जहा- कंदष्पे कुक्कुइए मोहरिए संजुत्ता हिगरणे उवभोगपरिभोगाइरेगे ॥ ८ ॥ ( सूत्रम् )
अर्थः- प्रयोजनं, गृहस्थस्य क्षेत्रवास्तुधनधान्यशरीरपरिजनादिविषयं तदर्थं आरम्भो - भूतोपमर्दोऽर्थदण्डः, अनर्थ:
विरमण
॥ २५५ ॥
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बावश्यक निर्युकेरव
॥२५६॥
अप्रयोजनं भूतानि दण्डयति विनाशयतीत्यनर्थदण्डः, अपध्यानेन आचरितोऽपध्यानाचरितः, अप्रशस्तं ध्यानमपध्यानं, सामायिकप्रमादेनाचरितः प्रमादाचरितः, प्रमादस्तु मद्यादिः, हिंसाप्रदानं हिंसाहेतुत्वादायुधानलविषादयोऽपि हिंसा उच्यन्ते, तेषां व्रताधिप्रदानमन्यस्मै क्रोधाभिभूतायानभिभूताय वा न कल्पते, प्रदाने त्वनर्थदण्डः, पापकर्मोपदेशो यथा 'कुष्यादि कुरु' कार: इत्यादि । कन्दप्पो रागोद्रेकात्महासमिश्रं मोहोद्वीपकं नर्म १, कौकुच्यमनेकप्रकारा मुखाक्षिप्रभृतिविकारपूर्विका परिहासादिबनिका माण्डादीनामिव विडम्बनक्रिया २, मौखयं धाट्यप्रायमसत्यमसम्बद्धप्रलापित्वं ३, संयुक्ताधिकरणं, [अधिकरणं वास्तुदुखलशिलापुत्रकादि, संयुक्तमर्थक्रियाकरणक्षम, संयुक्तं च तदधिकरणं च संयुक्ताधिकरण ४, उपभोगपरिमोगयोरतिरेक:-आधिक्यं ५॥ ८॥ __सामाइ नाम सावजजोगवरिवज्जणं निरवजजोगपडिसेवणं च । सिक्खा दुविहा गाहा उववायठिई गई कसाया य । बंधता वेयंता पडिवजाइक्कमे पंच ॥ १॥ सामाअंमि उ कए समणो इव सावओ हवइ जम्हा। एएणं कारणेणं बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥ २॥ सबंति भाणि
ऊणं विरई खलु जस्स सबिया नत्यि । सो सहविरहवाई चुक्का देसं च सवं च ॥३॥ सामाइ। १] यस्स समणोवासरणं इमे पंच अइयारा जाणियबा, तं जहा-मणदुप्पणिहाणे वइदुप्पणिहाणे ॥ २५६ ॥
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बावश्यक नियुक्तरकचर्णिः ।
सामायिकव्रताधिकार:
॥२५७
कायदुप्पणिहाणे सामाइयस्स सइअकरणया सामाइयस्स अणवट्टियस्स करणया ॥९॥ (सूत्रम्)
सावधयोग परिवर्जनं कालावधिनेति गम्यते, निरवद्ययोगप्रतिसेवनं च। आइ-सावद्ययोगपरिवर्जनादिरूपत्वासामायिकस्य कृतमामायिकायको वस्तुतः साधुरेव, स कस्मादित्वरं सर्वसावध योगप्रत्याख्यानमेव न करोति त्रिविधं | त्रिविधेनेति', उच्यते, सर्वसावधयोगप्रत्याख्यानस्यागारिणोऽमम्भवाम् आरम्भेष्वनुमतेरव्यवच्छिनत्वात् , कनकादिषु चात्मीयपरिग्रहानिपतेः, साधुश्रावकयोश्च प्रपश्चेन मेदस्तथाचाहसिक्खा दुविहा गाहा उववातठिता गती कसाया य । बंधता वेदेन्ता पडिवजाइक्कमे पंच ॥१॥
शिक्षाकृतः साधुश्रावकयोमहान् विशेषः, सा च शिक्षा द्विविधा-आसेवनशिक्षा ग्रहणशिक्षा च, शिक्षा-अभ्यासः, तत्रासेवनाशिक्षामधिकृत्य सम्पूर्णामेव चक्रवालसामाचारी सदा पालयति साधुः, श्रावकस्तु न तत्कालमपि सम्पूर्णामपरि ज्ञानादसम्मवाच्च, ग्रहणशिक्षा त्वधिकृत्य साधुःसूत्रतोऽर्थतश्च जघन्येनाष्टौ प्रवचनमातर उत्कृष्टतस्तु बिन्दुसारपर्यन्तं गृह्णाति, श्रावकः सूत्रतोऽर्थतश्च जघन्येन तावत्प्रवचनमातरः उत्कृष्टतः पहजीवनिकायां यावदुभयतोऽर्थतस्तु पिण्डषणां यावत् , सूत्रप्रामाण्याच विशेषस्तथा चोक्तं-" सामा." सामायिक एव कृते श्रमण इत्र श्रावकः स्याद्यस्मात् , अत्र श्रमण इव चोक्तो न तु श्रमण एव, यथा समुद्र इव तडागो न तु समुद्र एव, तथा उपपात: विशेषका, साधुः सर्वार्थसिद्धावु(दे उत्पद्यते श्रावकस्त्वच्युते परमोपपातेन जघन्येन तु द्वावपि सौधर्म एव । स्थितिः मेदिका, साधोरुत्कृष्टा त्रयस्त्रिंशत्साग-
॥ २५७ ॥
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आवश्यक नियुक्तेरव
गतिमेदिका साधुः सुरगतौ मोक्षे ।
वशषकाः साधुः कषायोदयमाश्रित्य
देशाकाधिक व्रताकि कार
चर्णिः
अकषायोऽपि स्यात
राणि जघन्या तु पल्योपमपृथक्त्वं, श्रावकस्योत्कृष्टा द्वाविंशतिरतराणि, जघन्या तु पल्यं । गति दिका साधुः सुरगतौ मोक्षे च श्रावकश्चतसृष्वपि । कषायाश्च विशेषकाः साधुः कषायोदयमाश्रित्य सवलनापेक्षया चतुस्त्रिव्ये ककषायोदयवान् अकषायोऽपि स्यात् छद्मस्थवीतरागादिः, श्रावकस्तु द्वादशकषायोदयवानविरतः अष्टकषायोदयवांश्च विरताविरतः । बन्धश्च भेदकः साधुः मूलप्रकृत्यपेक्षयाऽष्टविधवन्धको वा सप्तविधवन्धको वा पतिवन्धको वा एकविधबन्धको वा अबन्धको वा, श्रावकस्त्वष्टविधवन्धको वा सप्तविधवन्धको वा । वेदनाकतो भेदः, साधुरष्टानां सप्तानां चतसृणां वा प्रकृतीनां वेदका, श्रावस्तु नियमादष्टानां । प्रतिपत्तिकृतो विशेषः, साधुः पश्च महाव्रतानि, श्रावकस्त्वेकमणुव्रतमित्यादि, अथवा साधु: सकृत्सामायिक प्रतिपद्य सर्वकालं धारयति, श्रावकस्तु पुनः पुनः प्रतिपद्यते । अतिक्रमो विशेषकः, साधोरेकवतातिक्रमे पञ्चव्रतातिक्रमः, श्रावकस्य पुनरेकस्यैव, पाठान्तरं वा, किश्च इतरश्च सर्वशब्द, प्रयुते, मा भूदेशविरतेरप्यभावः, आह च-'सवं' विरतिर्यस्य 'सर्वा' निरवशेषा नास्ति अनुमतेनित्यप्रवृत्तत्वात् । सामायिकस्य सम्बन्धिनी या स्मृतिरूपयोगलक्षणा तस्या अकरणं, अयमर्थः-प्रमादानैव स्मरत्यस्यां वेलायां मया सामायिक कर्त्तव्यं कृतं न कृतमिति वा, सामायिकस्यानवस्थितमल्पकालं करणानन्तरमेव वा त्यजति, यथाकथञ्चिदव्यवस्थितं करोति ॥९॥
दिसिवयगाहियस्स दिसापरिमाणस्स पइदिणं परिमाणकरणं देसावगासियं, देसावगासियस्स १ म्यवहारतः साधुः पक्षस्वपि गच्छति, तथा च बुरटोत्कुस्टौ नरक गतौ ( आव. हारि. वृतिः पत्र ८३३/२) ।
२५८॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरवचूर्णिः । ।। २५९ ।।
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समणोवासणं इमे पंच अइयारा जाणियवा, तं जहा - आणवणप्पओगे पेसवणप्पओगे सद्दाणुare सुवाणुवा बहिया पुग्गलपकखेवे ।। १० । ( सूत्रम् )
दिव्रतगृहीतस्य दिशापरिमाणस्य दीर्घकालिकस्य यावज्जीवसंवत्सरचतुर्मासादि मेदस्य प्रतिदिनमित्येतच्च प्रहरमहूचद्युपलक्षणं प्रमाणकरणं-दिनादिगमनयोग्य देशस्थापनं प्रतिदिनप्रमाण करणं देशावका शिकं, दिग्वतगृहीतदिपरिमाणस्यैकदेशो देशस्तस्मिन्नवकाशो गमनादिवेष्टास्थानं देशावकाशस्तेन निर्वृत्तं देशावका शिकं, एतच्चाणुत्रतादिगृहीतदीर्घतरकालावधिविरतेरपि प्रतिदिनसङ्क्षेपोपलक्षणं । आनयनप्रयोगः - विशिष्टे देशावकाशिके ( देशादिके ) भूदेशाभिग्रहे परतः स्वयं गमनायोग्याद्यदन्यः सचित्तादिद्रव्यानयने प्रयुज्यते सन्देशकप्रदानादिना त्वयेदमानेयमित्यानयनप्रयोगः १, बलाद्विनियोज्यः प्रेष्यस्तस्य प्रयोगो यथाभिगृहीतप्रवी ( परवि ) चारदेशव्यतिक्रममयाच्वयावश्यमेव गत्वा मम गवाद्यानेय - मिदं वा तत्र कर्त्तव्यमिति प्रेष्यप्रयोगः २, स्वगृहवृत्तिप्राकारकादिव्यवच्छिन्नभूप्रदेशाभिप्रहे बहिः प्रयोजनोत्पत्तौ वृत्यादिप्रत्यासन्नवर्त्तिनो बुद्धिपूर्वकं क्षुल्कासितादिशब्दकरणेन बोधयतः शब्दानुपातः ३, एवं शब्दमनुच्चारयत एव परेषां समीपानयनार्थं स्वशरीररूपप्रदर्शनं रूपानुपातः ४, एवं बहिः परेषां बोधनाय लेष्वादिशेषः पुद्गलप्रक्षेपः ५ ॥ १० ॥
पोसहवासे च पन्नत्ते, तं जहा-आहारपोसहे सरीरसक्कारपोस हे वंभचेरपोसई अवावारपोसहे, पोसहोववासस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणिवा, तं जहा - अप्पाड -
पौषधी
पवास
ब्रताषिकारा
।। २५९
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बावश्यक
अतिथि
चूर्णिः ।
संविमायब्रताधिकार
॥२६.1
लेहियदुप्पडिलेहियसिज्जासंथारए अपमज्जियदुप्पमज्जियसिज्जासंथारए अप्पडिलेहियदुप्पडिलेहिय- उच्चारपासवणभूमीओ अप्पमजियदुप्पमज्जियउच्चारपासवणभूमीओ पोसहोववासस्स सम्म अणणुपालाण]या ॥ ११ ॥ (सूत्रम् )
पौषधशब्दो सत्यापर्वसु, पर्वाणि चाष्टम्यादितिथयः, पौषधे उपवसनं पौषधोपवासः नियमविशेषामिधानं चेदं, आहारपोषधा-आहारनिमित्तपोषधः आहारपोषधः ब्रह्मचर्य-कुशलानुष्ठानाचरणीयं । अप्रत्युपेक्षितदुष्प्रत्युपेक्षितशय्यासंस्तारौ उपयोगिनः पीठिकादेरपि, प्रत्युपेक्षणं चक्षुषा निरीक्षणं, प्रमार्जन-आसेवनाकाले वनोपान्तादिना, उच्चारप्रश्रवणं निष्ठयूत खेद( खेल )मलाग्रुपलक्षणं । पोषधोपचासस्य सम्यग्-विधिना निष्प्रकम्पेन चेतसा अननुपालन[मना] सेवनं ॥११॥
अतिहिसंविभागो नाम नायागयाणं कप्पणिजाणं अन्नपाणाईणं दवाणं देसकालसद्धासक्कारकमजुअं पराए भत्तीए आयाणुग्गहबुद्धीए संजयाणं दाणं, अतिहिसंविभागस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणियबा, तं जहा-सच्चित्तनिक्खेवणया सञ्चित्तपिहणया कालाइक्कमे परववएसे मच्छरिया य ॥ १२॥ (सूत्रम् )
साधुरेव मुख्योऽतिथिस्तस्य संविभागोऽतिथिसंविभागः, न्यायो द्विजादीनां स्वकृत्यनुष्ठानं, तेनागतानां प्राप्तानां कल्प
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इहलो.
बावश्यकनिर्युक्तेरव
चर्णिः । ॥ २६१ ॥
काशंसाधतिचाराधिकार:
नीयानामुद्गमादिदोषवर्जितानां द्रव्याणां देशकालश्रद्धासत्कारक्रमयुक्तं, तत्र शाल्यादिनिष्पत्तिमागदेशः सुमिधदुर्भिक्षादि. कालः विशुद्धश्चिचपरिणामः श्रद्धा अभ्युत्थानासनदानवन्दनानुव्रजनादिः सत्कारः, पाकस्य पेयादिपरिपाट्या प्रदानं क्रमः, एभियुक्तं परया मच्या, आत्मानुग्रह बुढ्या, न यत्यनुग्रहबुद्ध्या, संयता मलोत्तरगुणप्रतिपन्नास्तेभ्यो दान। अत्र सामाचारी-पौषधोपवासपारणे श्रादेन नियमाद्दत्त्वा साधूनां भोक्तव्यं, अन्यदाऽनियमः, सचित्तनिक्षेपणं सचित्तेषु निक्षेपणमन्नादेरदानबुझ्या मावस्थानतः १, एवं सचित्तपिधानं २, कालातिक्रमः उचितो यो मिक्षाकालः साधूनां तमतिक्रम्याऽनागतं वा मुझेऽतिक्रान्ते वा, तदा च किं तेन लब्धेनापि ३, परव्यपदेशः साधोः भिक्षायै समुपस्थितस्य प्रकटमन्नादि पश्यत: श्रावकोऽभिधत्ते परकीयमिदमतो न ददामीत्यादि ४, 'परोअतिवैमनस्यं च मात्सर्य' तेन द्रमकेण याचितेन दत्तं किमहं ततोऽपि न्यून इति मात्सर्याददाति ५॥१२॥ ____ इत्थं पुण समणोवासगधम्मे पंचाणुव्वयाई तिन्नि गुणवयाइं आवकहियाई, चत्तारि सिक्खा.
वयाइं इचरियाई, एयस्त पुणो समणोवासगधम्मस्स मूलवत्थु सम्मत्तं, तं जहा-तं निसग्गेण | वा अभिगमेण वा पंचअईयारविसुद्धं अणुवयगुणवयाइं च अभिग्गहा अन्नेऽवि पडिमादओ | विसेसकरणजोगा, अपच्छिमा मारणतिया संलेहणाझूसणाराहणया, इमीए समणोवासएणं इमे
२६१॥
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आवश्यक नियुक्तेरवचूर्णिः ।
इहलो का
साबक्तिचाराधि
१२६२ ॥
| पंच अइयारा जाणियबा, तं जहा-इहलोगासंसप्पओगे परलोगासंसप्पओगे जीवियासंसप्पओगे मरणासंसप्पओगे कामभोगासंसप्पओगे ॥ १३ ॥ (सूत्रम् )
यावत्कथिकानि सकद्गृहीतानि यावज्जीवमपि भावनी यानि, शिक्षापदव्रतानीत्वराणीति तत्र प्रतिदिवसानुष्ठेये सामा-1 यिकदेशावकाशिंके पुनः पुनरुचायें इत्यर्थः, पौषधोपवासातिथिसंविभागो नियतदिवसानुष्ठेयौ न प्रतिदिवसाचरणीयौ, तन्मूलवस्तुभूतं सम्यक्त्वं निसर्गेण वाधिगमेन वा स्यात् , तत्र निसर्गः-स्वभावोऽधिगमस्तु यथावस्थितपदार्थपरिच्छेदः, आईक्षयोपशमादेरिदं स्यात्तत्कथं १, उच्यते, स एव क्षयोपशमादिनिसर्गाधिगमजन्मा इति न दोषः । उक्तस्यैवार्थस्य विशेषज्ञापनायानुक्तशेषस्य चाभिधानायेदमाह-इदं च सम्यक्त्वं शङ्कादिपञ्चातिचारविशुद्धमनुपालनीयमिति शेषः, अन्ये चाने के प्रतिमादयो विशेषकरणयोगाः सम्यक परिपालनीयाः, तथाऽपश्चिमा मारणान्तिकी संलेखना-तपोविशेषलक्षणा तस्याः जोषणं सेवनं तस्याराधना-अखण्डकालस्य करणं, चः समुच्चयार्थः । अस्याः केऽतिचारा इति तानाह-'इमीए 'इत्यादि, इहलोकाशंसाप्रयोगः इहलोको मनुष्यलोकस्तस्मिन्नाशंसा-अभिलाषस्तस्याः प्रयोगः श्रेष्ठी स्याममात्यो वेति १, एवं परलोकाशंसाप्रयोग:-परलोको देवलोक: २, जीविताशंसाप्रयोगः पूजादिदर्शनादेवं मन्यते जीवितमेव मे श्रेयः प्रत्याख्याताशनस्यापि ३. मरणाशंसाप्रयोगः अपूज्यत्वे शीघ्र म्रियेऽहमिति चिन्तयति ४, मोगासाप्रयोगो जन्मान्तरे चक्री स्यां वासदेवो वेत्यादि ५॥ व्याख्यातं देशोत्तरगुणप्रत्याख्यान, अथ सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानमाह
S२६२
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आवश्यकनियुक्तरव
चूर्णिः ।
॥ २६३॥
विषय
पञ्चक्खाणं उत्तरगुणेसु खमणाइयं अणेगविहं । तेण य इहयं पगयं तंपि य इणमोदसविहं तु॥१५७७॥ सर्वोचर
प्रत्याख्यानमुत्तरगुणेषु उत्तरगुणविषयं प्रकरणात्साधूनामिदं-क्षपणादि, क्षपणग्रहणाचतुर्थादिभक्तपरिग्रहा, तेनैवात्र गुणप्रत्यासर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानप्रक्रमे प्रकृतं-उपयोगः, तदपि चेदं दशविधं मूलापेक्षया ॥ १५७७ ॥
रूयानं अणागयमइक्वंतं कोडियसहियं निअंटियं चेव । सागारमणागारं परिमाणकडं निरवसेसं ॥१५७८॥ बनाम
अनागतकरणादनागतं पर्युषणादावाचार्यादिवैयावृत्यकरणान्तरायसद्भावादारत एव तत्तपःकरणं एवमतिक्रान्तकर तादिदरणादतिक्रान्त, कोटीम्यां सहित कोटीसहितं-मिलितोमयप्रत्याख्यानकोटि, चतुर्थादिकरणं, नियन्त्रितं प्रतिज्ञातदिनादौ ग्लानाद्यन्तरायभावेऽपि नियमतः कर्त्तव्यं, सहाकारैरनाभोगादिभिरिति साकारं, अविद्यमानाकारं अनाकारं, परिमाणकृतं नि.मा. दत्त्यादिकृतपरिमाणं, निरवशेष समग्राशनादिविषयं ॥ १५७८ ॥
१५७०संकेयं चेव अद्धाए पच्चक्खाणं तु दसविहं । सयमेवणुपालणियं दाणुवएसे जह समाही ॥१५७९॥11 १५७४
केत-चिड्समष्ठादि सह केतेन सङ्केत, 'अद्धाए 'त्ति पौरुष्यादिकालमानमित्यर्थः, प्रत्याख्यानं दशविषमेव । इदं स्वयमेवानुपालनीयं, न पुनः प्राणातिपातादिप्रत्याख्यानवदन्यकारापणे अनुमतौ वा निषेधः, आह च-'दाणुवएसे बह समाहि 'त्ति अन्याहारप्रदाने यतिप्रदानोपदेशे च यथा समाधानमात्मनोऽप्यपीडया प्रवर्जितव्यं ॥ १५७९ ॥ दशविध प्रत्याख्यानाबमेदावयवाथेमाह
NA.
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बावश्यक नियुक्तरव
पूर्णिः । ॥२६४॥
होही पज्जोसवणा मम य तपा अंतराइयं हुज्जा । गुरुवेयावच्चेणं तवस्सिगेलनयाए वा ॥१५८०॥ ___मम च तदान्तरायं भवेत् गुरुवैयावृत्ये न तपस्विग्लानतया वेत्युपलक्षणमिदं ॥ १५८० ॥ सो दाइ तवोकम्म पडिवजे तं अणागए काले। एयं पञ्चक्खाणं अणागयं होइ नायवं ॥१५८१॥॥
स इदानीं तपःकर्म प्रतिपद्यत तदनागते काले ॥१५८१ ॥ पज्जोसवणाइ तवं जो खलु न करेइ कारणजाए। गुरुवेयावच्चेणं तवस्सिगेलन्नयाए वा ॥ १५८२॥
पर्युषणायां यस्तपो न करोति कारणजाते सति, तदेवाह-गुरुवयावृत्येन तपस्विग्लानतया वा ॥ १५८२ ॥ सो दाइ तवोकम्मं पडिवज्जइ तं अइच्छिए काले । एवं पञ्चक्खाणं अइकंतं होइ नायवं ॥१५८३॥ पट्ठवणो अदिवसो पञ्चक्खाणस्स निढवणओ आजहियं समिति दुन्निवितं भन्नइ कोडिसहिय तु १५८
प्रस्थापकश्च-प्रारम्भकश्च दिवसः प्रत्याख्यानस्य निष्ठापकच-समाप्तिदिवसश्च प्रत्याख्याने 'समिति 'चि मिलितो द्वावपि पर्यन्तौ तद्भण्यते कोटीसहितं ॥ १५८४ ॥ | मासे २ अतवो अमुगो अमुगे दिणमि एवइमो। हटेण गिलाणणय कायवो जाव ऊसासो ॥१५८५॥
हष्टेन-नीरोगेण ग्लानेन वा कर्तव्यं यावदुच्कासो यावदायुः ॥ १५८५ ॥
अनागतादिदशविघंप्रत्याख्यानम् नि. गा. १५८०. १५८५
॥ २६४॥
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बावश्यक नियुक्तेरव
६प्रत्याख्याना
चूर्णिः ।
ध्ययनम्
॥२६५॥
१० प्रत्या. ख्यानानि।
एयं पञ्चक्खाणं नियंटियं धीरपुरिसपन्नतीज गिव्हतऽणगारा अणिस्सि(भि)अप्पा अपडिबछ।।१५८६
नियन्त्रितं अनिश्रि(भृता)तात्मानोऽनिदाना अप्रतिबद्धाः ।। १५८६ ।। चउदसपुवी जिणकाप्पिएसु पढममि चेव संघयणे। एयं विच्छिन्नं खलु थेरावि तया करेसी य॥१५८७॥
तदा चतुर्दशपूर्विकाले, अपिशब्दादन्ये च कृतवन्तः ।। १५८७ ॥ मयहरगागारोहिं अन्नत्थवि कारणमि जायंमि । जो भत्तपरिच्चायं करेइ सागारकडमेयं ॥ १५८८ ॥
महत्तराकारः, प्रभृतैवंविधाकारसत्तारूयाफ्नार्थ बहुवचनं, हेतुभूतैः, अन्यत्र वा-अन्यस्मिश्चानामोगादौ कारण जाते सति भुजिक्रियां करिष्येऽहं इत्येवं यो भक्तपरित्यागं करोति साकार कृतमेतत् ॥ १५८८ ॥ निजायकारणंमी मयहरगा नो करंति आगारं । कतारवित्तिदुभिक्खयाइ एयं निरागारं ॥ १५८९ ।।
निश्चयेन यातं-अपगतं कारणं-प्रयोजनमस्मिन्निति असो निर्यातकारणस्तस्मिन् साधौ महत्तरा:-प्रयोजनविशेषास्तत्फलाभावाम कुर्वन्त्याकारं, क ?, कान्तारवृत्तौ दुर्भिक्षमावे च, अत्र यत्क्रियते तत्प्रत्याख्यानं निराकारं । मावार्थस्त्वत्रापि काष्ठमङ्गुलिं वा मुख प्रक्षिपेदनाभोगेन सहसा वा तेनैतौ द्वावाकरौ क्रियते ॥ १५८९ ॥ दत्तीहि उ कवलेहि व घरेहिं भिक्खाहिं अहव दवेहि। जो भत्तपरिच्चायं करेइ परिमाणकडमेयं ॥१५९०॥
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आवश्यकनियुक्तरव
चूर्णिः । ॥ २६६ ॥
६ प्रत्याख्यानाध्ययनम् |१० प्रत्याख्यानानि ।
दत्तिभिर्वा कलैर्वा गृहे पिक्षाभिरथवा द्रव्यैः-ओदनादिभिराहारायामितमानों भक्कारित्यागं करोति कृतपरिमाणमेतत् ।। १५९०॥ सवं असणं सवं पाणगं सबखजभुजविहं । वोसिरइ सवभावेण एयं भणियं निरवसेसं ॥ १५९१ ॥ ___ सर्वखाद्यभोज्यं-विविधं खाद्यप्रकारं भोज्यप्रकारं च व्युन्सृजति सर्वभावेन-सर्वप्रकारेण ॥ १५९१ ।। अंगुटमुद्विगंठीघरसेउस्सासथिबुगजोइक्खे । भणियं संकेयमेयं धीरोहिं अणंतनाणीहि ॥१५९२ ॥
अङ्गुष्टमुष्टिग्रन्थिगृहस्वेद उच्छासस्तिबुकज्योतिष्कान् चिह्नं कृत्वा यत्क्रियते प्रत्याख्यानं, अयमर्थः-पूर्णेऽपि पौरुप्यादिप्रत्याख्याने साधुः श्रावको वा यावन्न मुते तावत्किञ्चिचिह्नमभिगृह्णाति, न युज्यतेऽप्रत्याख्यानिनः (नेन) स्थातुमिति, ततोऽष्ठं यावत न मुश्वामि यावद्वा ग्रन्थि न च्छोटयामि गृहं न प्रविशामि यावत्स्वेदो न शुष्यति यावद्वा एतावन्त उच्छ्वासाः पानीयमश्चिकायां वा यावदेतावन्तः स्तिबुका:-बिन्दवः यावदेषो दीपो चलति तावदहं न भोक्ष्ये न केवलं भक्तेऽन्येष्वप्यभिग्रहविशेषु सङ्केतं स्यात् ।। १५९२ ॥ अद्धा पच्चक्खाणं जं तं कालप्पमाणछेएणं। पुरिमड्डपोरिसीए मुहुत्तमासद्धमासहिं ॥१५९३ ॥ ___अद्धा-काले प्रत्याख्यानं अद्धाप्रत्याख्यानं, यत्कालप्रमाणच्छेदेन स्यात् पुरिमार्द्ध पौरुषीम्यां मुहूर्तमासार्द्धमासैः॥१५९३।। भणियं दसविहमेयं पच्चक्खाणं गुरूवएसेणं । कयपच्चक्खाणविहिं इत्तो तुच्छं समासेणं ॥१५९४ ॥
२६६ ।।
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आवश्यक निर्युक्तेरव
चूर्णिः । का २६७॥
६ प्रत्याख्यानाध्ययनम् १.प्रत्यारूपानानि।
__ कृतं प्रत्याख्यानं येन स तथाविधस्तस्य विधिः कृतप्रत्याख्यानविधिस्तं अतो वक्ष्ये ॥ १५९४ ॥ आह जह जीवघाए पच्चक्खाएनकारए अन्नं। भंगभयाऽसणदाणे धुव कारवणेय नणु दोसे॥१५९५॥
आह पर:-यथा जीवघाते-प्राणातिपाते प्रत्याख्याते सति असौ न कारयति जीवघातमन्यप्राणिना प्रत्याख्यानभङ्गभयात् , अशनदानेऽशनशब्दः पानाद्युपलक्षणार्थः, अयमर्थः-कृतप्रत्याख्यानस्य सतो अन्यस्मै अशनादिदाने ध्रुवं कारणमिति-अवश्य भुजिक्रियाकारणं, अशनादिलाभे सति भोक्तुर्भुजिक्रियासद्भावात् , ततो ननु दोषः-प्रत्याख्यानमङ्गः ॥ १५९५ ।। अत:नोकयपच्चक्खाणो आयरियाण दिज्ज असणाई। न य विरईपालणाओ वेयावच्चं पहाणयरं ॥१५९६ ॥
न कृतप्रत्याख्यानः पुमान् आचार्यादिभ्यो दद्यादशनादि, न च विरतिपालनाद्वैयावृत्यं प्रधानतरं ॥१५९६॥ गुरुगहनोतिविहंतिविहेणं पच्चक्खइ अन्नदाणकारवणं। सुद्धस्स तओ मुणिणोन होइ तभंगहे उत्ति।।१५९७॥
न' त्रिविधं 'करणकारणानुमतिभेदभिन्न त्रिविधेन मनोवाकाययोगत्रयेण प्रत्याख्याता प्रत्याचष्टे प्रक्रान्तमशनादि, अन्यस्मै दानमन्नदानं अशनादेरिति गम्यते, तेन हेतुभूतेन कारणं भुजिक्रियागोचरमन्यदानकरणं तच्छुदस्य-आशंसादि. दोषरहितस्य, ततो मुनेन स्यात्तद्भहेतु:-प्रकान्तप्रत्याख्यानभङ्गहेतुः ।। १५९७ ।। किञ्चसयमेवणुपालणियं दाणुवएसो य नेह पडिसिद्धो। ता दिज उवइसिज्ज व जहा समाहीइ अन्नेसि १५९८
॥ २६७ ॥
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आवश्यक
निर्युक्तेश्व चूर्णिः ।
॥ २६८ ॥
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स्वयमनुपालनीयं प्रत्याख्यानमित्युक्तं निर्वृत्तिकारेण, दानोपदेशौ च नेह प्रतिषिद्धौ तत्रात्मना आनयित्वा दानं दानश्राद्धकादिकुलाख्यानं तूपदेशः, तस्माद्दद्यादुपदिशेद्वा यथासमाधिना, अन्येभ्यः- बालादिभ्यः || १५९८ || अनुमेवार्थं स्पष्टयन्नाहकयपञ्चकखाणोऽवि य आयरियगिलाणचालवुड्डाणं । दिज्जासणाइ संते लाभे कयवीरियायारो ।। १५९९॥ दाणेत्ति गयं, उवदिसेअ वा ।। १५९९ ।। संविग्गअण्णसंभोइयाण देसेज्ज सड्डगकुलाई। अतरंतो वा संभोइयाण देखा जहसमाही ॥ २४४॥ भा० संविग्नान्यसाम्भोगकानामुपदिशेत् यथा एतानि दानकुलानि श्राद्धकुलानि वा, अतरंतोत्ति अशक्नुवन् साम्भोमिकानामपि उपदिशेन दोषः यथासमाधिर्नाम यथा यथा साधूनामात्मनो वा समाधिस्तथा तथा प्रयतितव्यं ॥ २४४ ॥ प्रत्याख्यान शुद्धिमाह -
सोही पञ्चक्खाणस्स छविहा समणसमय केऊहिं । पन्नता तित्थय रेहिं तमहं वुच्छं समासेणं ॥ २४५॥भा.
श्रमणसमय केतुभिः साधुसिद्धान्तचिह्नभूतैः ॥ २४५ ॥
सा पुण सद्दहणा जाणणाय विणयाणुभासणा चेव । अणुपालणा विसोही भावावसोही भवे छट्टा १६०० समुद्धरेव पत्रिधा श्रद्धाशुद्धिः १ शुद्धिः २ विनयशुद्धिः ३ अनुभाषणाशुद्धिः ४ अनुपालनाशुद्धिः ५ गाँवशुद्धिय ६ भवति पष्ठी || १६०० ॥ अवयवार्थमाह
६ प्रत्या
ख्याना
ध्ययनम्
१० प्रत्याख्यानानि ।
॥ २६८ ॥
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६ प्रत्या आवश्यक- पञ्चक्खाणं सबन्नुदेसि जं जहिं जयाकाले। तं जो सद्दहइ नरोतं जाणसु सदहणसुद्धं ॥२४६॥(भा.)
ख्यानानियुक्तरव- यत्सप्तविंशतिविधस्यान्यतमत् , सप्तविंशतिविधं च पञ्चविध साधुमूलगुणप्रत्याख्यानं दशविधमुत्तरगुणप्रत्याख्यानं
ध्ययनम् चूर्णिः । द्वादशविधश्रावकप्रत्याख्यानं, 'यत्र' जिनकल चतुर्यामे पञ्चयामे वा श्रावधम्म वा, 'यदा' मुभिक्षे दुर्मिक्षे वा
१० प्रत्या॥ २६९॥ पूर्वाद्वेऽपरावे वा, 'काल' इति चरमकाले ॥ २४६ ।।।
वख्यानानि। पच्चक्खाणंजाणइ कप्पे जंजंमि होइ काम्यत्वं । मूलगुणे उत्तरगुणे तंजाणसुजाणणासुद्धं ॥२४७॥(भा.)
करपे-जिनकल्पादौ यत्प्रत्याख्यानं यस्मिन् भवति कर्त्तव्यं मलोतरगुणविषय २४७ ॥ किइकम्मस्स विसोही पउंजइ जो अहीणमहरित।मणवयणकायगुत्तोतंजाणसु विणयओसुद्धं २४८भा०
विनयतो विनयेन शुद्धं ॥ २४८॥ अणुभासइ गुरुवयर्ण अवखरपयवंजणहिं परिसुद्धं पंजलिउडो अभिमुहोतं जाणसु भासणासुद्धं २४९भा० NI कृतकृतिकर्मा प्रत्याख्यानं कुर्वननुभाषते गुरुवचनं, लघुतरेण शब्देन भण तीत्यर्थः, अक्षरपदव्यञ्जनः परिशुद्धं, नवरं Mगुरुभणति कोसिरह [शिष्यः ] वोसिरामीति ॥ २४९ ॥
| कंतारे दुभिक्खे आयंके कामहई समुप्पन्ने। जे पालियं मानतं जाणसु पालणासुद्धं ॥२५॥ (मा.) २१९ ॥
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आवश्यक-रागेण वदासणव
| रागेण व दोसेण व परिणामण वन दूसियं जंतु।तं खलु पच्चक्खाणं भावविसुद्धं मुणेयत्वं ॥२५१॥(भा०) ६प्रत्यानिर्युक्तेरव- रागेण वा-अभिष्वङ्गलक्षणेन द्वेषेण वा-अप्रीतिलक्षणेन, परिगामेन च-इहलोकाद्याशंसालक्षणेन न दूषितं यदेव तदेव
ख्यानाचूर्णिः । प्रत्याख्यानं भावशुद्धं ।। २५१॥
ध्ययनम् ॥ २७० ॥ एएहिं छहिं ठाणेहिं पच्चक्खाणं न दूसियंजंतु। तं सुद्धं नायवं तप्पडिवक्खे असुद्धं तु ॥२५२॥ (भा०) ||२० प्रत्या
एभिः पभिः स्थानकः श्रद्धानादिभिः प्रत्याख्यानं न दृषितं यदेव ॥ २५२ ॥ परिणामेन वा न दषितमित्युक्तं ख्यानाना तत्र परिणाममाहथंभा कोहा अणाभोगा अणापुच्छा असंतई। परिणामओ असुद्धो अवाउ जम्हा विउ पमाणं॥२५३॥भा०
(पञ्चक्खाणं समत्तं) स्तम्भात यथा एप मान्यतेऽहमपि प्रत्याख्यामि येन मान्यो भवामि, क्रोधान्न मुझे, अनामोगात् किं मम प्रत्याख्यातं इति न जानाति, अनापृच्छातः स्वेच्छया असंरच्या (असदिति) नास्त्यत्र किश्चिद्भोक्तव्यं वरं प्रत्याख्यातमिति, परिणामश्चाशुद्धः प्राग्व्याख्यातः, 'अबाउ'चि अहमपि प्रत्याख्यामि मा निःसारयिष्यन्तीति, एवं न करपते, तस्माद्विद्वान् प्रमाणं, सोऽन्यथा न करोति तस्य शुद्धं स्पादित्यर्थः ॥ २५३ ॥ प्रत्याख्यानमिति द्वारं व्याख्यातं, अत्रान्तरेऽध्ययनशब्दार्थः पूर्ववत् , सूत्रालापकनिष्पन्ने निक्षेपे सूत्रं
॥२७॥
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आवश्यकनियुक्तरवचूर्णिः ।
६ प्रत्याख्यानाध्ययनम् १० प्रत्याख्यानानि।
व। २७१ ॥
सूरे उग्गए णमोक्कारसहितं पञ्चक्खाति चउविहपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं, अण्णत्थणाभोगेणं सहसाकारेणं वोसिरामि । (सूत्रम् ) ।
सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्या एतदेवाहअसणं पाणगं चेव खाइमं साइमं तहा । एसो आहारविही चउबिहो होइ नायहो ॥ १६०१ ॥ ___ अशनं मण्डकौदनादि, पानकं द्राक्षापानादि, स्वादिम फलादि, स्वादिमं गुडादि ॥१६०१॥ समयपरिभाषया शब्दार्थमाहआसं खहं समेई असणं पाणाणुवग्गहे पाणं। खे माइ खाइमंति य साएड गुणे तओ साई॥१६०२॥
आशु-क्षुधां शमयतीत्यशन, प्राणानां-इन्द्रियादिलक्षणानामुपग्रहे यद्वर्तते तत् पानं, खमिति-आकाशं तच्च मुखविवरM मेव, तस्मिन्मातीति खादिम, स्वादयति गुणान्-रसादीन् संयमगुणान्वा [यतः] ततः स्वादिम, हेतुत्वेन तदेव स्वादयती.
त्यर्थः ।। १६०२ ।। चालनामाहसवोऽविय आहारोअसणं सवोऽविवुच्चई पाणं । सबोऽवि खाइमंतिय सवोऽवि य साइमं होई ॥१६०३ ॥
यद्यनन्तरोक्तपदार्थापेक्षया अशनादीनि ततः सर्वोऽपि चाहारश्चतुर्विधोऽप्यशनं ॥ १६०३ ॥ संयमोपकारकमस्त्येवं कल्पनायाः, अन्यथा दोषः, तथाचाह
२७१।
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बावश्यक नियुक्तेरव
चर्णिः । ॥२७२
ध्ययनम्
जइ असणमेव सवं पाणग अक्विजणमिसेसाणं। हवइय सेसविवेगो तेण विहत्ताणि चउरोऽवि१६०४ ।६ प्रत्यायद्यशनमेव सर्वमाहारजातं गृह्यते ततः शेषापरिभोगेऽपि पानकादिवर्जन-उदकादिपरित्यागे शेषाणामाहारभेदानां
ख्यानानिवृत्तिर्न कृता स्यादिति शेषः, मवति च शेषविवेक:-शेषाहार मेदस्यागः, न्यायोपपनत्वात् , स चेह सम्भवति, तेन विभक्तानि चत्वार्यपि अशनादीनि, एवं तु सामान्यविशेषभेदनिरूपणं सुखावसेयं सुखश्रद्धेयं च स्यात् ।।१६०४॥ तथा चाह
११.प्रत्याअसणं पाणगं चेव खाइमं साइमं तहा । एवं परूक्यिमी सहहिउ जे सुहं होइ।। १६०५॥
ख्यानानि। श्रद्धातुं सुखं स्यादुपलक्षणार्थवादीयते पाल्यते च सुख ॥ १६०५॥ आइ-मनसाऽन्यथा सम्प्रधारिते प्रत्याख्याने त्रिविधस्य प्रत्याख्यानं करोमीति वागन्यथा विनिर्गता चतुर्विधस्थति, गुरुणापि तथैव दत्तं अत्र के प्रमाणे ?, उच्यते, शिष्यस्य मनोमावः, आह चअन्नस्थनिवाडिए वंजणमि जोखलमणोमओभावोतंखल पञ्चवखाणंम पमाणं कंजणच्छलणा९६०६
अन्यत्र निपतिते व्यञ्जने-त्रिविधप्रत्याख्यानचिन्तायां चतुर्विध इत्येवमादौ निपतिते शन्दे यः खलु मनोगतो भावः प्रत्याख्यातुरधिकतरसंयमयोगकरणाक्षिप्तचेतसः, न तु तथाविधप्रमादान , तत् खलु प्रत्याख्यानं प्रमाणं, न प्रमाणं व्यञ्जनं, च्छलना असो व्यञ्जनमात्र, तदन्यथाभावसद्भावात् ॥१६०६॥ इदं च प्रत्याख्यानं प्रधाननिर्जराकारणं इति विधिवदनुपालन यं, तथा चाह
॥२७॥
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बावश्यकनियुक्तरव
चूर्णिः । ॥२३॥
६प्रत्याख्यानाध्ययनम् प्रत्या . ख्यानगुणाः ।
फासियं पालियं चेव सोहियं तीरियं तहा। किट्टिअमाराहिअंचेव एरिसयंमी पयइयत्वं ॥१६०७॥
स्पृष्टं-प्रत्याख्यानग्रहणकाले विधिना प्राप्त, पालितं-पुनः पुनरुपयोगप्रतिजागरणेन रक्षितं, शोभितं-गुर्वादिप्रदानशेषभोजनासेवनेन, तीरितं-पूर्णेऽपि कालावधौ किञ्चित्कालावस्थानेन, कीर्तितं भोजनवेलायाममुकं प्रत्याख्यातं तत्पूर्णमधुना मोक्ष्य इत्युच्चारणेन, आराधितमेभिरेवप्रकारैः सम्पूर्णैनिष्ठां नीतं, ईशि प्रयतितव्यं ॥ १६०७ ।। एतदेवाहउवि० ॥ गुरु०॥ भो०॥
एतद्गाथात्रयमन्यकर्तृकं [न क्वापि लब्धं ] प्रत्याख्यानगुणानाहपञ्चक्खाणंमि कए आसवदाराई हुंति पिहियाई । आसववुच्छेएणं तण्हावुच्छेअणं होइ ॥ १६०८ ॥
तुइव्यवच्छेदनं स्यात् तद्विषयाभिलापनिवृत्तिः ।। १६०८ ॥ तण्हावोच्छेदेण य अउलोवसमो भवे मणुस्साणं । अउलोवसमेण पुणो पञ्चक्खाणं हवइ सुद्धं ॥१६०९॥ ___ अतुलः उपशमः-माध्यस्थ्यपरिणामः स्यात् ॥ १६०९ ॥ तत्तो चरित्तधम्मो कम्मविवेगो तओ अपुत्वं तु।तत्तो केवलनाणं तओ अ मुक्खोसयासुक्खो॥१६१०॥ ___ ततः प्रत्याख्यानाच्छुद्धाचारित्रधर्मः स्फुरति, कर्मविवेकः-कर्मनिर्जरा, ततश्चारित्रधर्मात् , ततः कर्मविवेकात् क्रमेणापूर्वकरण, ततः श्रेणिक्रमेण केवलज्ञानं, ततश्च मोक्षः सदासौख्यः ॥ १६१० ॥ इदं च प्रत्याख्यानमुपाधिमेदादश
॥ २७३॥
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बावश्यक-IN निर्युक्तेरव
चूर्णिः । ॥२७४
६प्रत्या ख्यानाध्ययनम् आकाराः।
विधं स्यात् , आकारसमन्वितं च गृह्यते पाल्यते च, अत इदमाहनमुक्कारपोरिसीए पुरिमद्वेगासणेगठाणे य । आयंबिल अभत्तद्वे चरमे य अभिग्गहे विगई ॥१६११॥ दो छच्च सत्त अट्र सत्तट्रय पंच छच्च पाणमि। चउ पंच अट्र नव य पत्तेयं पिंडए नवए ॥१६१२॥
नमस्कारसहिते १ पौरुष्यां २ पुरिमार्द्ध ३ एकाशने ४ एकस्थाने च ५ आचाम्ले ६ अभक्तार्थे ७ चरमे च ८ अभिग्रहे ९ विकृतौ १० यथासङ्ख्यमेते आकाराः द्वौ १ षट् २ सप्त ३ अष्टौ ४ सप्त ५ अष्टौ ६ पञ्च ७ षट् पाने चत्वारः ८ पञ्च ९ अष्टौ नब १० प्रत्येकं पिण्डो नवकसहितः, को व्यञ्जनेष्वाद्यवर्णः ? तत एककः अङ्कानां वामतो गतिरिति । एकोनविंशतिलभ्यते, ते च प्रस्तावादत्राकारा ग्राह्यास्तद्यथा एकासनगता अष्टावाकाराः, विकृतिप्रत्याख्याना. चाधिकाश्चत्वारः, पौरुषीप्रत्याख्यानाच्च त्रयः, एकचोलपट्टकाकारः, पानाश्रिताः षट् , उक्ता अपि अलेपेन वा लेपकृतेनापि अच्छेन वा बहुलेनापि ससिक्थेन वा असिक्थेनापि न भङ्ग इति त्रय एवाकाराः, त्रयश्वोपमाभूतत्वेन गताः, सर्वेऽपि मीलिताः उक्तसंख्याः पिण्डका-समूह इत्यर्थः, भावार्थमाहदो चेव नमुक्कारे आगारा छच्च पोरिसीए उ । सत्तेव य पुरिमड्डे एगासणगमि अटेव ।। १६१३ ॥
द्वावेवाकारौ नमस्कारसहिते अन्नत्थणाभोगेणं १ सहसागारेण २ इति, षट् पौरुष्यां अन्नत्थ०१ सहसा. २ पच्छन्नकालेणं ३ दिसामोहेणं ४ साहुवयणेणं ५ सवसमाहिवत्तिआगारेणं ६ इति, सप्तैव तु पुरिमा॰, पद् त एव महत्तरागारेण
॥ २७४॥
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आवश्यक- नियुक्तरव-
चूर्णिः । .२७५॥
६ प्रत्याख्यानाध्ययनम् आकाराः।
भतार्थ उपवासः, तस्य प
मिति सप्तमः, एकाशनेऽष्टावेच अन्नत्थ० १ सहमा० २ सागारिआगारेणं ३ आउंटणपसारणेणं ४ गुरु अन्भुट्ठाणेणं ५ पारिट्ठावणि आगारेणं ६ मह० ७ सब०८॥१६१३ ।। सत्तेगट्ठाणस्स उ अट्ठवायंबिलंमि आगारा । पंचेव अभत्तटे छप्पाणे चरिमि चत्तारि ॥१६१४ ॥
सप्तकस्थानस्य तु, अत्राकुश्चनप्रसारणं नास्ति शेषा यथा एकाशने, अष्टौ चाचाम्लस्याकाराः अन्न १ सह. २ लेवालेवेण ३ गिहत्थसंपटेणं ४ उक्खिनवि वेगेणं ५ पारि०६ मह० ७ सव०८, इदं च बहुवक्तव्यमितिभेदेन वक्ष्यामो 'गोनं नाम' मित्यादिना, अभक्तार्थ उपवासा, तस्य पञ्च आकाराः अन्न.१ सह. २ पारि०३ मह०४ सब० ५, यदि त्रिविधस्य प्रत्याख्याति तदा पारिष्ठापनिक कल्पते, यदि चतुर्विधस्य प्रत्याख्यातं पानकं च नास्ति ततो न कल्पते, यदि तु पानकमप्यधिकं ततः कल्पते, षट् पाने लेवाडेण वा १ अलेवाडेण वा २ अच्छेण वा ३ बहुलेण वा ४ ससित्थेण वा ५ असित्थेण वा ६, चरमे च चत्वारि, चरमं द्विविधं-दिवसचरमं भवचरमं च, तस्मिन् द्विविधेऽपि अन्न. १ सह०२ मह० ३ सब ४॥ १६१४ ॥ पंच चउरो अभिग्गहि निबीए अट्ठनव य आगारा।अप्पाउराण पंच उ हवंति सेसेसु चत्तारि ॥ १६१५॥
पञ्च चत्वारश्चाभिग्रहे, निर्विकृतौ अष्ट नव आकाराः, पञ्च चत्वारश्चाभिग्रहे इति सामान्ये नोक्तः, विशेषतस्तु अप्रावरणे पश्चैव, अयमर्थः-प्रावृतत्वं कोऽपि प्रत्याख्याति, तस्य पञ्च अन्न १ सहसा० २ चोलपट्टागा० ३ मह० ४ सबसमाहि०,
प्रत्याख्यातं पानकं च नास्तिमित्येण वा ५
२७५ ॥
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६प्रत्याख्याना. ध्ययनम्
विकृतयः।
बावश्यक-ना शेपेष्वभिग्रहेषु दण्डकप्रमार्जनादिषु ग्रन्थिसहितादिषु चत्वार एव, चोलपट्टाकारो नास्ति, निर्विकृती अष्ट नव चाकारा इत्युक्तं निर्युक्तेरव- तत्र दश विकृतय:-क्षीरं १ दधि २ नवनीतं ३ घृतं ४ तैलं ५ गुडो ६ मधु ७ मा ८ मांसं ९ अवगाहिम पकानमिति चूर्णिः । रुढ १० । तत्र पञ्च क्षीराणि-गो १ महिषी २ अजा ३ उष्ट्री ४ एलिकानां ५। दधिनवनीतघृतानि चतुर्दा, उष्ट्रोणां
तदभावात , तैलानि चत्वारि-तिल १ अतसी २ लट्टा (कुसुम्भ) ३ सर्वपाणां, विकृतयः लेबाडाणि स्युः, मयं विकटमित्युच्यते, तद्विधा काष्ट पिष्टजं च । फाणितो गुड उच्यते, स द्विधा द्रवगुडः पिण्डगुडश्च, मधूनि त्रीणि-माक्षिकं १ कौलिकं २ भ्रामरं च ३, मांसं पुद्गल उच्यते, तत् त्रिधा-जल १ स्थल २ खेचर ३ जन्तूनां अथवा चर्म १ मांसं २ शोणितं च ३, एता नव विकृतयः, अगाहिमं च दशमं, स्नेहपूर्णायां तापिकायां एकमवगाहिमं चलचलत् पच्यते सफेनं द्वितीयं तृतीयमिति, शेषाणि योगवाहिना कल्पन्ते, यद्ये केनैव पूपकेन तापिका पूर्यते तदा द्वितीयमपि कल्पते निर्विकृतिप्रत्याख्यानिनः, लेवाडं तु स्यात् । अधुना प्रकृतमुच्यते, विकृतिषु कासु अष्टौ क वा नव आकाराः १, तत्रनवणीओगाहिमए अवदाहि(व)पिसियघयगुलेचेवानव आगारातेसि सेसदवाणंच अट्टेव ॥१६१६॥
नवनीते, ओगाहिमके, अद्रवदनिमालिते ('अद्दवदवे' निगालिते) इत्यर्थः, पिशिते मांसे, घृतगुडे च, अद्रवग्रहणं सर्वत्र योज्यं, नव आकारा अमीषां विकृतिविशेषाणां स्युः । अन्न. १ सह०२ लेवा० ३ गिह० ४ उक्खि०५ पडुच्चमक्खिएणं. ६ पारि०७ मह० ८ सब० ९ इति, शेषाणां द्रवाणां विकृतिविशेषाणामष्टावेवाकाराः, उत्क्षिप्तविवेको न स्यात् ।। १६१६ ॥
॥ २७६ ।।
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बावश्यकनिर्युक्तेरव
६ प्रत्याख्याना
चूर्णिः ।
ध्ययनम्
॥ २७७॥
आकारार्थः।
इह चेदं सूत्रम्
'णिवियतियं पच्चक्खाती' त्यादि अन्नत्थऽणाभोगेणं सहसाकारेणं लेवालेवेणं गिहत्थ उक्खित्तविवेगेणं पडुच्चमक्खिएणं पारिट्ठावणियागारेणं महत्तरागारेणं सबसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरति । ( सूत्रं ) ___ इदं च प्रायो गतार्थमेव विशेषं तु 'पंचेव य खीराई' इत्यादिनोपन्यासक्रमप्रामाण्यादुत्तरत्र वक्ष्यामः । आचामाम्लमाहगोन्नं नामं तिविहं ओअण कुम्मास सत्तुआ चेव । इकिपि य तिविहं जहन्नयं मज्झिमुक्कोसं ॥१६१७॥
आयामाम्लमिति गौणं नाम, आयामः अवशायनं, आम्लं-चतुर्थरसं ताभ्यां निर्वृत्तं आयामाम्ल, इदं चोपाधिभेदात त्रिविधं स्यात् , ओदनः १ कुल्माषाः २ सक्तवश्चैव ३, ओदनमधिकृत्य तथा कुल्मापान सक्तूंच, एकैकमपि चामीषां त्रिविधं स्यात्-जघन्यं १ मध्यमं २ उत्कृष्टं च ३ ॥ १६१७ ।। कथमित्यत्राहदवेरसे गुणे वा जहन्नयं मज्झिमं च उक्कोसं। तस्सेव य पाउग्गं छलणा पंचेव य कुडंगा॥ १६१८॥
द्रव्ये रसे गुणे चैव, द्रव्यमधिकृत्य रसमधिकृत्य [गुणमधिकृत्य] जघन्य मध्यमं चोत्कृष्टं च, तस्यैव चाचामाम्लस्य प्रायोग्य वक्तव्य, तथा आयामाम्लं प्रत्याख्यातमिति दध्ना भुञ्जानस्यादोषः प्राणातिपातप्रत्याख्याने तदानासेवनवदिति
T
॥ २७॥
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६-प्रत्यारूयाना
आवश्यक नियुक्तेरव
चूर्णिः ।। 4॥ २७८॥
आकारार्थः।
छलना वक्तव्या, पश्चैव कुडगा:-क्रविशेषाः॥१६१८ ॥ तद्यथालोए वेए समए अन्नाणे खलु तहेव गेलन्ने । एए पंच कुडंगा नायबा अंबिलांमि भवे ॥ १६१९ ॥
लोके १ वेदे २ समये ३ अज्ञाने चैव ४ तथा ग्लानत्वे ५, एते पश्च कुडङ्गा भवन्त्यायामाम्लविषये ।। १६१९ ॥ अत्र वृद्धसम्प्रदायोऽयं-आचाम्लं नाम उत्कृष्ट शालिकरादिद्रव्यं तेन किल आचाम्लं क्रियते, अत उपचाराचदप्याचाम्लमुक्तं, इदं चोत्कृष्टत्वात्प्रायो न गृह्यते एव, आचाम्लप्रायोग्यं च तण्डुलकणिकापिष्टपोलिकामण्डकादि, अस्य च निरपवादग्राह्यत्वात् प्रायोग्यत्वमुक्तं, एवं कुल्माषा आचाम्लप्रायोग्य, तुषमिश्रतत्कणिकादि सक्तको यगोधूमादीनामाचाम्लप्रायोग्य, धानादि (१) कलमशालिकूरो द्रव्यत उत्कृष्टद्रव्यं चतुर्थरसेन भुज्यते रसत उत्कृष्ट तत्सत्केनापि आयामेनोत्कृष्ट रसतो गुणतो जघन्य स्तोका निर्जरा इति, स एव कूरो यदाऽन्येषामा( न्यैरा )यामैस्तदा द्रव्यत उत्कृष्टो रसतो मध्यमो गुणतोऽपि मध्यमः, यदोष्णोदकेन तदा द्रव्यत उत्कृष्टं रसतो जघन्यं गुणतो मध्यममेव, मध्यमाः ओदनाः ते द्रव्यतो मध्यमा आचामाम्लेन रसत उत्कृष्टा गुणतो मध्यमाः, तथैव उष्णोदकेन द्रव्यतो मध्यमं रसतो जघन्यं गुणतो मध्यम मध्यमं द्रव्यमितिकृत्वा, रालगणकूरा द्रव्यतो जघन्यास्ते [ आचामाम्लेन रसत उत्कृष्टं गुणतो मध्यमं, ते एवाचामाम्लेन द्रव्य तो जघन्यं रसतो मध्यमं गुणतो मध्यम], यदा उष्णोदकेन तदा द्रव्यतो जघन्यं रसतो जघन्यं गुणोत्कृष्टमित्यादि । छलना नाम कश्रिदाचाम्लं प्रत्याख्याय विकृती क्तुमुपविष्टो गुरुक्ता-कथमाचाम्लं प्रत्याख्याय विकृतीभॊक्ष्यसे ?, स ऊवे यथा प्राणातिपातं प्रत्या
२७८॥
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आवश्यकनियुक्तेरव
चूर्णिः । ॥ २७९॥
६ प्रत्याख्यानाध्ययनम् आकारार्थः।
ख्याय प्राणातिपातो न क्रियते, एवमाचाम्लेऽपि प्रत्याख्याते तन्न क्रियते, एषा च्छलना, परिहारस्तु प्रत्याख्यानं भोजने तभिवृत्तौ च स्यात् , भोजने आपामाम्लं प्रतिय( म्लप्रायोग्या )दन्यत् तत् प्रत्याख्याति आयामाम्ले च वर्त्तते, तन्निवृत्ती चतुर्विधमप्याहार प्रत्याचक्षाणस्य, तेन एषा छलना निरथिका । पञ्च कुडङ्गा-एकेनाचाम्लं प्रत्याख्यातं, संखण्डयां पक्कानादि लब्ध्वा गुरूणां दर्शितं गुरुभिरूचे त्वयाचाम्लं प्रत्याख्यातं, स प्राह-मया चहूनि लौकिकशास्त्राणि परिमिलितानि तत्राचाम्लशब्दो नास्ति इति प्रथमः कुडङ्गः, अथवा वेदेषु चतुषु साङ्गोपाङ्गेषु नास्त्याचाम्लं इति द्वितीयः, अथवा समये चरकचीरिकभिवादीनां नास्ति, न जाने कुतोऽपि युष्माकमागतः, तृतीयः, अबानेन भणति-न जानामि कीदृशमाचारलं, अहं जाने घृतदध्यादिभिराीकृत्य भुज्यते तेन गृहीतं इति चतुर्थः, ग्लानकडाः पञ्चमः मणति-न शक्नोम्याचाम्लं कर्नु । शूलं मे आयातीत्यादि । निर्विकृतिकाधिकारशेषमाहपंचेव य खीराइं चत्तारि दहीणि सप्पि नवणीता। चत्तारिय तिल्लाइं दो वियडे फाणिए दुन्नि ॥१६२०॥ - महपुग्गलाई तिन्नि चलचलओगाहिमं तु जं पकं । एएसिं संसटुं वुच्छामि अहाणुपुत्रीए ॥ १६२१ ॥
इदं गाथाद्वयं विकृतिस्वरूपप्रतिपादकं मतार्थमेव ॥ १६२०-२१ ॥ गृहस्थसंसृष्टाकारो बहुवक्तव्य इति गाथाभ्यां तमाहखीरदहीवियडाणं चत्तारि उ अंगुलाई संसटुं । फाणियतिल्लघयाणं अंगुलमेगं तु संसटुं ॥ १६२२ ॥
२७९ ॥
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आवश्यक
निर्युक्तेरवचूर्णिः
॥ २८०
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महुपुग्गलरयाणं अद्धंगुलयं तु होइ संसयुं । गुलपुग्गलनवणीए अद्दामलयं तु संसट्टं ॥ १६२३ ॥
क्षीरेण मिश्रितः कुरो यदि लभ्यते, यदि च तस्य कुडङ्गस्य ओदनाच्चत्वार्यङ्गुलानि दुग्धं तदा निर्विकृतिकं कल्पते । पञ्चमं चारब्धं (य) विकृति, एवं दधिविकटयोरपि, फाणित [गुड ] तैलघृतानां मिश्रिते यद्यङ्गुलमुपरि ततः कल्पते, परतो न ।। १६२२ ।। मधुनः पुद्गलरसकस्यार्द्धाङ्गुलेन संसृष्टं स्यात् पिण्डगुडस्य पुद्गलस्य नवनीतस्य च आर्द्रामिलकमात्रं संसृष्टं, यदि बहून्येतत्प्रमाणानि कल्पन्ते, एकमपि वृद्धं ( एकस्मिन् वृहति ) न कल्पते ।। १६२३ ।। पारिष्ठापनिकाकार एकाशनैस्थानादिषु साधारणः इति विशेषेण तमाह
आयंबिलमणायंबिल चउथा बालबुड्डस हुअ सहू । अणहिंडिय हिंडियए पाहुणयनिमंतणावलिया १६२४
पारिष्ठापनिक [भोजने] योग्याः साधवो द्विषा - आचामलवन्तोऽना चाम्लत्रन्तश्च ते ( अनाचामलवन्तः ) एकासनएकस्थान चतुर्थषष्ठाष्टमनिर्विकृतिकृतः, दशमभक्तिका ( दशभक्ता) दीनां पारिष्ठापनिकं न कल्पते दातुं । एक आचामलक एकचतुर्थभक्तिकः कतरस्य दातव्यं ?, चतुर्थभक्तिकस्य, सोऽपि द्विधा - बालो वृद्धश्व, बालस्य दातव्यं, बालोऽपि द्विधा-सहोSसह, असहस्य दातव्यं, सोऽपि द्विधा - हिण्डितोऽहिण्डितश्च, हिण्डितस्य दातव्यं, सोऽपि द्विधा - वास्तव्यः प्राघूर्ण कश्च, प्राघूर्णकस्य दातव्यं, एवं चतुर्थ भक्तो बालोऽमहो हिण्डितः प्राघूर्णिकः पारिष्ठापनिक भोज्यते, तदभावे बालोऽसहो हिण्डितो वास्तव्यः, [तदभावे बालोऽमहोऽहिण्डमानः प्राघूर्णकः, तदभावे बालोऽसहोऽहिण्डमानो वास्तव्यः ], एवमेतैश्चतुर्भिः [पदैः]
६ प्रत्या
ख्याना
ध्ययनम्
आका
रार्थः ।
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बावश्यक-नाषोडशावलिकामगाः, एवमावलिकाक्रमेण निमन्त्रणा कार्या, मुख्यतः प्रथमभने दातव्यं, अमावे यावच्चरमे, प्रचुरपारि
६ प्रत्यानियुकेरव. ष्ठापनिकायां सर्वेषां दातव्यं, एवमाचाम्ल कतः षष्ठभक्तिकस्य षोडशमङ्गाः, एवमष्टमभक्तिकस्यापि, एवमाचाम्ल कृतो ख्यानानिर्विकृतिकस्य च, नवरमाचाम्ल कृतो दातव्यं, एवं सर्वत्र यत्राधिकं तपस्तत्र दातव्यं ।। १६२४ ॥ तच्च पारिष्ठापनिक
किंध्य यनम् स्वरूपं १, इत्यत आह
पारिष्ठा१२८१
विहिगहियं विहिभुत्तं उवरियं जं भवे असणमाई। तं गुरुणाऽणुन्नायं कप्पइ आयंबिलाईणं ॥१६२५॥ पनिकं किं (विहिगहिअं विहिभुत्त)तह गुरूहि (जं भवे)अणुन्नायं। ताहे वंदणपुवं भुंजइ से संदिसावेडे(पाठान्तर) स्वरूपम् ।।
विधिना अलुब्धेन गृहीतं, पश्चान्मण्डल्यां कटप्रतरच्छेदादिना विधिना भुकं, एवंविधं पारिष्ठापनिकं यदा गुरुर्भणतिआर्य ! इदं पारिष्ठापनिकं इच्छाकारेण भुक्षय इति, तदा तस्य कल्पते वन्दनं दचा सन्दिश्य भोक्तुं ॥१६२५।। अत्र चतुर्भङ्गी- चउरो य हुंतिभंगा पढमे भंगमि होइ आवलिया। इत्तो अतइयभंगो आवलिया होइ नायव्वा ॥१६२६॥ ||
विधिगृहीतं विधिभुक्तं १ विधिगृहीतमविधिभुक्तं २ अविधिगृहीतं विधिभुक्तं ३ अवधिगृहीतमविधिभुक्तं ४, प्रथमभने कल्पते पूर्वोक्तावलिकानां भोक्तुं, द्वितीयः परिष्ठाप्यते, ईदृग् यो ददाति यश्च भुते द्वयोरपि विवेकः क्रियो, अपुन:कारेण वोपस्थितयोः पञ्चकल्याणकं दीयते, तृतीये तु कल्पते, चतुर्थे न ॥ १६२६ ॥ व्याख्यातं मूलद्वारगाथोपन्यस्तं प्रत्याख्यानं, अथ प्रत्याख्याता उच्यते, तथा चाह
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१।
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आवश्यक
निर्युक्तेव
चूर्णिः ।
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पञ्चकखाएण कया पच्चक्खाविंतएव सूआए (उ) । उभयमवि जाणगेयर चउभंगे गोणिदिट्टंतो ॥१६२७॥
प्रत्याख्याता - गुरुस्तेन प्रत्याख्यात्रा कृता प्रत्यारूपापयिवर्षपि शिष्ये सूचा - उल्लिङ्गना, न हि प्रत्याख्यानं प्रायो गुरुशिष्यान्तरेण सम्भवति, अत्र ज्ञातरि अज्ञातरि च चतुर्भङ्गः, तत्र चतुर्भङ्गे गोदृष्टान्तः ।। १६२७ ।। भावार्थं स्वयमेवादमूलगुण उत्तरगुणे सवे देसे य तह य सुद्धीए । पञ्चक्खाणावहिन्नू पच्चक्खाया गुरू होइ ॥ १६२८ ॥ मूलगुणेषु उत्तरगुणेषु च, 'सवे देसे यति ' सर्वमूलगुणेषु देशमूलगुणेषु च एवं सर्वोत्तरगुणेषु देशोचरगुणेषु च, तथा च शुद्धौ पधायां श्रद्धानादिलक्षणायां प्रत्याख्यानविधिज्ञः प्रत्याख्याता गुरुर्भवति ।। १६२८ ।। कि कमाइ विहिन्नू उवओगपरो अ असढभावो अ । संविग्गथिरपन्नो पञ्चक्खाविंतओ भणिओ १६२९ कृतिकर्मादिविधिज्ञः- वन्दनाकारादिप्रकारज्ञः उपयोगपरच अशठभावश्च संविग्नो-मोक्षार्थी स्थिरप्रतिज्ञः प्रत्याख्यापयिता- शिष्य एवम्भूतो भणितः ।। १६२९ ।।
इत्थं पुण चभंगो जाणगइ अरंभि गोणिनाएणं । सुद्धासुद्धा पढमंतिमा उ सेसेसु अ विभासा ॥१६३०॥
अत्र प्रत्याख्यातुः प्रत्याख्यापयितुश्च चतुर्भङ्गः - जानन् जानतः प्रत्याख्यानं कारयति शुद्धं प्रत्याख्यानं, जानन् अजान को ज्ञापयित्वा कारयति यथा तेऽमुकं प्रत्याख्यातं इति शुद्धं, अजानन् जानत: अयमपि तथाविवगुरोरभावे गुरुमच्या गुहेः स्थाने पित्रादिकं साक्षिणं कुर्वतः शुद्धः, अन्यथा त्वशुद्धः, अजानच जानतो ऽयुद्धमेव, अत्र दृष्टान्तो गावः, यदि मां प्रमाणं
६ प्रत्या
ख्याना
ध्ययनम्
प्रत्या
रुपाता प्रत्यारूपापविता च ।
॥ २८२ ॥
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आवश्यक- नियुक्तरवपणिः ।
वा २८३॥
स्वामी विजानाति गोपालोऽपि जानाति तदा द्वयोर्जातोः स्वामी सुखं मृतिं ददाति गोपालथ गृहाति, शेषयोमध्ययोर्विभाषा ॥ १६३० ।। उक्तः प्रत्याख्याता, प्रत्यारूपातव्यमुक्तमप्यध्ययने द्वाराशून्यार्थमाहदवे भावे य दुहा पञ्चक्खाइव्वयं हवइ दुविहं । दबंमि अ असणाई अन्नाणाई य भावंमि ॥ १६३१ ॥ . द्रव्ये प्रत्याख्यातव्यमशनादि, अज्ञानादि तु मावे ॥ १६३१ ॥ अथ परिषदमाहसोउं उवट्ठियाए विणीयवक्खित्ततदुवउत्ताए । एवंविहपरिसाए पच्चक्खाणं कहेयवं ॥ १६३२ ॥
श्रोतुं सम्यग उपस्थिताया विनीताया अभ्याक्षिप्तायातदुपयुक्तायाः परिषदः ॥ १६३२ ॥ अथ कथन विधिरुच्यतेपूर्व मूलगुणरूपः साधुधर्मः कथ्यते, तदशक्तस्य श्राद्धर्मः, उत्तरगुणेष्वपि पाण्मासिकमादौ कृत्वा यद् यस्य योग्य तत्तस्य दातव्यं, अथवायं कथनविधि:आणागिज्झो अत्थो आणाए चेव सो कहेयवो।दिटुंति उदिटुंता कहणविहि विराहणा इयरा ॥१६३३॥
आज्ञा-आगमस्तद्ग्राह्यः-तद्विनिश्चयः अर्थः, अनागतातिकान्तप्रत्याख्यानादिः आजयत्र आममेनैव असौ कथयितव्यः | न दृष्टान्तेन, तथा दार्शन्तिका-दृष्टान्तपरिच्छेद्यः प्राणातिपानाधनिवृत्तानां एते दोषाः स्युः, एवमादिदृष्टान्तात्-दृष्टान्देन कथयितव्यः, कथनेऽयं विधिः, विराधना इतरथा ॥ १६३३ ॥ अथ फलमाहपच्चक्खाणस्स फलंइहपरलोए अ होइ दुविहंतु। इहलोइ धम्मिलाई दामनगमाई परलोए ॥१६३४॥
६ प्रत्यारुयानाध्ययनम् प्रत्यारूपातम्य कथनविधिः
॥ २८३ ॥
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बावश्यक नियुक्तरव
चर्णिः । १२८४॥
इहलोके धम्मिलादय उदाहरणं, दामन कादयः परलोके, धम्मिलज्ञातमिदं-कुशाग्रपुरे मार्थवाहसुरेन्द्रदत्तभार्यासुभद्रा- | प्रत्यासुतो धम्मिलः द्वासप्ततिकलादक्षो यौवने धर्मपरोऽनिच्छ नपि यशोमती कन्यां परिणायितः पित्रा, विषय परामुखो ख्यानाबलान्मात्रा दुर्ललितगोष्ट्यां क्षिप्तः, वसन्ततिल कावेश्यासक्तः पित्रादिपूरितधनो द्वादशाब्दी तत्रैव तस्थौ। निर्द्धनत्वेऽकया
ध्ययनम् त्यक्तः, मातापित्रोर्मरणं पत्न्याः पितृगृहगमनं च, स ज्ञात्वा दुःखी मृत्यर्थमुद्याने गतः, तत्र चागडदत्तराजनत्वा
प्रत्यास्वदःखमकथयत् , साधुना आसक्तानां दुःखस्य किं वाच्यं इति सचरित्रकथनपूर्वकं बोधितोऽपि न विषयेच्छामत्यजत ,
ख्यानफले तपसेष्टप्राप्तिरिति च मुनिवचः श्रुत्वा द्रव्यमाधुलिङ्गमादाय षण्मासान् आचाम्लान्य करोत् , ततो मुनि नत्वा वेषं मुक्त्वा
धम्मिलाभूतगृहपर्वतकन्दरं गतः, सुप्तस्य तस्य देवी आख्यत्-अस्मात्तपसः खेचरामात्यनृपाणां द्वात्रिंशत्कन्यास्त्वं प्राप्स्यसि, अथ काचित् स्त्री द्वारे आगत्य ऊचे-भो धम्मिल्ल ! इहागच्छ रथमारुह इत्याकर्ण्य रथारूढः प्रयाति प्रातस्तं पिशाचप्रायं दृष्ट्वा
दीनां स्थान्तःस्था कन्या धात्री निर्भर्स यति स्म, ग्रामे कयापि हयं सशल्यं चिकित्सितवान् , धम्मिल्लो हयस्वामिना सत्कृतो
दृष्टान्ताः । रात्रि स्थापितः, धम्मिल्लपृष्टा धात्री कन्याचरित्रमाह-मागधपुरेऽमित्रदमनस्य राज्ञः सुता विमला, इयं च पुरुषद्वेषिणी सरेन्द्रदत्ताङ्ग धम्मिल्लं दृष्ट्वा रक्ता भूतगृहे पाणिग्रहणार्थ स सङ्केतितोऽपि नागात् , स्वामिहागतं दृष्ट्वा विरक्ता इयं, अहं त्वस्या धात्री कमला, क्रमेण त्वयि रक्तामिमा करिष्यामि, चमायां गतो नृपसुतरविशेखरेण कलावानिति अभ्यर्थ्य प्रासादे धनपूरिते स्थापितः, धम्मिल्ले प्रियानुरक्ताऽभूत , तत्र राजसुता कपिला परिणीता, एवमपरा अपि परिणीताः। यशोमतीवसन्ततिल-10 कादिचतुस्त्रिंशद्वधूभोगान् बुभुजे, प्राग्मवे स वसुनन्दः पश्च मत्स्यान् रक्षितवान् , ततो मृतः पल्लीपतिसुतोऽनशनेन |
यां गतो नृपसुतरांवशख
रिणीताः। यशोमता
॥२८४ ॥
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बावश्यक नियुक्तरवचूर्णिः । २८५॥
६प्रत्याख्यानाध्ययनम् नयमतम्।
धम्मिल्लो जातस्त्वं इति धर्मरुचिगुरुवचः श्रुत्वा विरक्तः प्रव्रज्याऽच्युते गत्वा ततश्यत्वा महाविदेहे सेत्स्यति, आदिशब्दादामौषध्यादयो गृह्यन्ते । दामनकज्ञातं यथा-राजपुरे कुलपुत्रको मत्स्यमांसं प्रत्यारूपाय दुर्भिक्षे मृतोऽनशनेन राजगृहे मणिकरश्रेष्ठिसुतो दामनको जातः, मार्या कुलमुच्छिन्नं, स क्रमेण सागरपोतमार्थवाहगृहस्वामी जातः, धर्मानुष्ठानेन स्वर्गतः ॥ १६३४ ॥ अथ प्रधानफलमाह| पञ्चक्खाणमिणं सेविऊण भावेण जिणवरुद्दिटुं। पत्ता अणंतजीवासासयसुक्खं लहुं मुक्खं ॥१६३५॥
सुगमा ॥ १६३५ । नयमतमाहनायंमिगिहियत्वे अगिहियवमि चेव अत्थंमि। जइअवमेव इह जो उवएसो सो नओ नाम ॥१६३६॥
ज्ञाते ग्रहीतव्ये-उपादेये अगृहीतव्ये-हेये उपेक्षणीये चशब्दाक्षिप्ते ज्ञाते एवार्थे ऐहिकामुमके यतितव्यमेव इति य उपदेशो ज्ञानप्राधान्यख्यापनपरः स नयो ज्ञाननयः, अयं च सम्यक्त्वश्रुतमामायिकद्वयमेवेच्छति ज्ञानात्मकत्वादस्य, तथा ज्ञाते गृहीतव्येऽग्रहीतव्ये चार्थे यतितव्यमेव इति य उपदेशः क्रियाप्राधान्यख्यापनपरः स क्रियानयः, अयं च देशविरतिसर्वविरतिसामायिकद्वयमेवेच्छति । ननु किमत्र तचं ?, उच्यतेसबेसिपि नयाणं बहुविवत्तवयं निसामित्ता।तं सवनयविसुद्धं जं चरणगुगढिओ साहू ॥ १६३७ ।।
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________________ यावश्यकनियुक्तरव- चर्णिः / // 286 // 6 प्रत्याख्यानाध्ययनम् सम्पूर्ण ततः सर्वनयविशुद्धं-सर्वनयसम्मतं वचनं यच्चरणगुणस्थितः साधुः, यस्मात् सर्वनया भावनिक्षेपमिच्छन्ति // 1637 / इति प्रत्याख्याननियुक्त्यवचूणिः॥ आद्यपञ्चविंशति[ हस्तलिखितावपकनियुक्ति पत्रसका तु किश्चित्सविस्तरा / / श्रीमत्तपागणनभोङ्गणमास्कराणां, श्रीदेवसुन्दरखुगोचमपादुकानां / शिष्यैजिनागमसुधाम्बुधिलीनचिचः, श्रीज्ञानसामरगुरूत्तमनामधेयः // 1 // खाम्धियुगेन्दु 1440 मितेऽन्देऽप्रचूणिरावश्यकस्य जयिनी। विदधे वृहविवरणात् श्रुतमक्या परहितहेतोः // 2 // समाप्ता चेयं श्रीआवश्यकतान्धनिर्यक्यागिराचार्य श्रीहरिभद्रपूरिकृतवृत्त्यनुसारेण भट्टारकत्रीज्ञानसापरसूरिविरचिता // छ / // इति सिरिभद्दबाहुसामीविरइया पञ्चखाणनिज्जुत्ती समत्ता / / 286 // Jain Education Inte For Private & Personel Use Only JNMainelibrary.org