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आवश्यक निर्युक्तेरव
चूर्णिः । ॥ २३८॥
काउस्सग्गेजह सुट्टियस्स भजति अंगमंगाई। इय भिंदति सुविहिया अट्टविहं कम्मसंघायं ॥१५६५॥ ___ यथा कायोत्सर्गे सुस्थितस्य मज्यन्तेऽङ्गोपाङ्गानि एवं चित्तनिरोधेन भिन्दन्ति ॥ १५६५ ॥ अन्नं इमं सरीरं अन्नो जीवुत्ति एव कयबुद्धी। दुक्खपरिकिलेसकरं छिंद ममत्तं सरीराओ॥ १५६६ ॥
किञ्च-एवं भावनीयंजावइया किर दुक्खा संसारे जे मए समणुभूया। इत्तो दुविसहतरा नरएसु अणोवमा दुक्खा ॥१५६७॥ तम्हाउ निम्ममेण मुणिणा उवलद्धसुत्तसारेणं । काउस्सग्गो उग्गो कम्मक्खयट्ठाय कायवो ॥१५६८॥
____ काउस्सग्गनिज्जुत्ती समत्ता। नयाः पूर्ववत् , इति कायोत्सर्गाध्ययननिर्युक्त्यवचूर्णिणः ॥
| फलद्वारं कायोत्सर्गे भावना च निगा. १५६५१५६८
२३८ ॥
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