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दए चेव । उचिमणकरुगा य माय लिया णियडिए जं भणति
आवश्यक तुल्यमात्मानमाख्याति तपः[गणसूत्रांश्च प्रकटयति स जात्याद्याजीवः ॥ १३॥ 'कककुरुगा य माया णियडिए जं भणंति INपार्श्वस्थाद्यनिर्युक्तेरवा तं मणियं । थीलक्खणाइ लक्खण विजामंताइया पयडा ॥१४॥' 'कककुरुगा य माय 'त्ति कोऽर्थः निकृत्या परेषां | वन्द्यस्वरूचूर्णिः । मेदवचनं ॥ १४॥ संसत्तो य इदाणी सो पुण गोमत्तलंदए चेव । उचिट्ठमणुच्चिटुं जं किंची छुब्भई सत्वं ॥१५॥' संसक्त
वत्संसक्तः, पार्श्वस्थादिकं तपस्विनं वाऽऽसाद्य सन्निहितदोषगुणः, गोभक्तकलन्दके यथा 'छुब्भई 'त्ति क्षिप्यते सर्व ॥ १५ ॥ ॥२०॥
वन्दने एमेव य मूलुत्तरदोसा य गुणा य जत्तिआ केइ । ते तम्मिबि सन्निहिया संसत्तो भण्णई तम्हा ।। १६॥ रायविदूसगमाई अहवावि
| दोषाः णडो जहा उ बहुरूवो। अहवावि मेलगो जो हलिदरागाइ बहुवण्णो ॥१७॥ एमेव जारिसेणं सुद्धमसुद्धेण वाऽवि संमिला ।
नि० गा. तारिसओ चिय होति संसत्तो भण्णई तम्हा ।। १८॥ सो दुविकप्पो भणिओ जिणेहि जियरागदोसमोहेहिं । एगो उ संकिलिट्ठो
११२२ असंकिलिट्ठो तहा अण्णो ॥१९॥ पंचासवप्पवत्तो जो खलु तिहि गारवेहि पडिबद्धो । इत्थिगिहिसंकिलिट्ठो संसत्तो संकिलिट्ठो उ ॥ २० ॥ पासत्थाईएसुं संविग्गेसुं च जत्थ मिलती उ । तहि तारिसओ भवई पिअधम्मो अहव इयरो उ ॥ २१॥" एषोऽसंक्लिष्टः॥ 'उस्सुत्तमायरंतो उस्सुत्तं चेव पनवेमाणो। एसो उ अहाछंदो इच्छाछंदोत्ति एगट्ठा ॥ २२ ॥' अथाच्छन्दोऽपि यथाछन्दो यथेच्छयैवागमनिरपेक्षं प्रवर्त्तते यः स अथाच्छन्दः-' उस्सुत्तमणुवदिढ़ सच्छंदविगप्पियं अणणुवाइ । परतत्ति पवत्तिति णेओ इणमो अहाछंदो ॥ २३ ॥ सच्छंदमहविगप्पिय किंची सुहसायविगइपडिबद्धो । तिहिगारवेहिं मजह तं जाणाही अहाछंदं ॥ २४ ॥' स्वच्छन्दमत्या किश्चिदालम्बनं विकल्प्य सुखस्वादविकृतिप्रतिबद्धः ॥ २४ ॥ पासत्थाई वंदमाणस्स नेव कित्ती न निजरा होइ । कायकिलेसं एमेव कुणई तह कम्मबंधं च ॥११२२॥
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