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गुरुगुणाष्टक और स्मरणाञ्जलि ।
(५) विश्ववंद्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरि । [ वकील मिश्रीलाल जैन, कुक्षी ] जिनमहामहिम की ज्ञान-आभा है विभासित किये विश्व सारा । शुष्क जिनकी सुघि से ही होती
मनुज-मन-निर्झर पाप-धारा ॥ भूतमात्र हित जिनका ध्येय था, जन्म पर्यन्त ही ज्ञान त्रयकी त्याग, तप में सदैव निरत रहे । की जिन्होंने समोद उपासना । निजपथ प्रचार निमित्त जिन्होंने स्पर्श जिनको न कर पाई कभी विश्वके कठिनतर संकट सहे ॥ विश्व की मधुर मोहक वासना ॥ जिन मुमुक्षु जनसे सर्व भक्षक रक्षक रहे सदैव संस्कृति के क्रूर कृतान्त तक रहा पराजित । मुदित सर्वस्व अपना दान कर । वे न रहे, पर कर रही जिनकी पतित पापी उठाये जिन्होंने कीर्ति-चन्द्रनिशि अब भी धरा सित ॥ ईश्वर अंश सभी में जान कर ॥ मात्र पुरुषार्थ से ही जिन्होंने विश्व अखिल यह भक्ति श्रद्धामयी कर अकथनीय निज ज्ञान अर्जन कर रहा स्तुति जिनकी भूरि-भूरि । लोक-कल्याण निमित्त कर गये विश्व वंदित उन विभूतियों में जो अतुल ग्रंथ-रत्न का विरचन ॥ एक थे श्रीमद राजेन्द्रसूरि ॥
चल रहा शुभ इनसे परिशोधित त्रिस्तुतिक जैन धर्म ललाम है। इन युग-प्रेरक अमर महर्षि को स्मरण कर कोटि-कोटि प्रणाम है ।।