Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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समयार्थवोधिनी टीका प्र. थु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम्
यत् हे महर्षे ! इत्यादावुरविश्य क्रीडनार्थं वाटिकां गच्छ, सर्वत उत्तमं भोगं स्वीकुरु । अनेनोपायेन भवन्तं वयं पूजयाम इति भावः ॥ १६ ॥ पुनरप्याह -- 'वस्थे' त्यादि ।
मूलम् - वत्थगंध मलंकारं इत्थाओ सयणाणि थे ।
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जाहिमाई भोगाई आउसो पूजयामु तं ॥ १७ ॥
छाया -- त्रगंध मलंकारं स्त्रियः शयनानि च ।
भुंक्ष्वेमान् भोगानायुष्मन् ! पूजयामस्त्वाम् ||१७| अन्वयार्थः -- (आउसो ) हे आयुष्मन् ! ( वत्थगंधमलंकारं वखगंधमलंकारम्
आशय यह है कि पूर्वोक्त चक्रवर्ती राजा आदि साधु के समीप पहुंचकर इस प्रकार कहते हैं - हे महर्षे ! हाथी घोडा आदि पर सवार होकर क्रीडा करने के हेतु वाटिका में पधारिए । उत्तमोत्तम भोगों को स्वीकार कीजिए । इस उपाय से हम आप की पूजा करते हैं ॥ १६ ॥
पुनः कहते हैं - 'वत्थ' इत्यादि ।
शब्दार्थ - - ' आउसो - आयुष्मन् ' हे आयुष्मन् 'वत्थं - वस्त्रम्' उत्तम वस्त्र 'गंध - गन्धम्' गन्ध और 'अलंकारं - अलङ्कारम्' अलंकार आभूषण 'इत्थिओ - स्त्रियः' स्त्रियां 'य-न' और 'सणाणि - शयनानि शय्या आसन उपवेशन - बैठने के योग्य वस्तु 'इमाई भोगाई इमान् भोगान्' इन्द्रिय और मन के अनुकूल इन भोगों को 'भुज-भुक्ष्य' आप भोगें 'तं स्वाम् आप को 'पूजयामु- पूजयामः' पूजा करते हैं ||१७||
अन्वयार्थ - आयुष्मन् | वस्त्र, गंध, आभूषण, स्त्री शय्या और કરીને રાજા, રાજમત્રી, આદિ પૂકિત લેાકેા સાધુને સંયમના માગેÖથી ચલાચમાન કરીને ભાગે પ્રત્યે આસકત કરે છે, "ગાથા ૧૬૫
'वत्थ' 'त्याहि-
शब्दार्थ - 'आउलो - आयुष्मन् ' डे आयुष्मन् वत्थं - वस्त्रम्' उत्तम गंव -गन्धम्' गंध अने 'अलंकारं - अलङ्कारम्' असार - आभूषणु 'इत्थिओ - स्त्रियः ' स्त्रिये! 'य-च' भने 'सयणाणि शयनानि ' शैया अर्थात् पथारी आसन ७५वेशन अर्थात् मेसत्राना योग्य वस्तु 'इमाई भोगाई - इमान् भोगान्' इन्द्रिय मने भनने अनुज था लोगोने 'भुत-भुंव' माय' लोगवा 'तं- त्वाम्' यायनी 'पुजयामु- पुजयाम' अभी पूल हरी छीये. ॥१७॥