Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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श०५
समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५०३ , अन्वयार्थः-(अणुत्तरं धम्ममुदीरहत्ता) अनुत्तरं-सर्वत उत्तरं श्रेष्ठं धर्म-श्रु. चारित्ररूपम् उदीर्य-कथयित्वा (अणुत्तरं झाणवरं झियाइ) अनुत्तरं-सर्वश्रेष्टं ध्यानवरं ध्यायति (सुसुक्कसुका) सुशुक्लशुक्लम् -अत्यन्त शुक्लवच्छुक्लम् (अपगंडमुक्क) अपगण्डशुक्लं निर्दोषशुक्लम् (संखिकुएगंतवदातसुक्क) शंखेन्दुवदेशान्ताऽवदातशुक्लम्, शंखचन्द्रवत् सर्वथा विशुद्धमिति ॥१६॥ 'अणुत्तरं' इत्यादि।
शब्दार्थ-अनुत्तरं धम्ममुदीरत्ता-अनुत्तरं धर्ममुदीरयित्वा' भग. वान् महावीर स्वामी सर्वोत्तम श्रुतचारित्र रूप धर्म को कहकर 'अणु त्तरं झाणवरं झियाइ-अनुत्तरं ध्यानवरं ध्यायति' सर्वोत्तम ध्यान ध्यातेथे 'सुसुकसुक्कं-सुशुक्ल शुक्लं' भगवान् का ध्यान अत्यन्त शुक्ल वस्तु के समान शुक्ल था 'अपगंडसुक्कं-अपगण्डशुक्लं' तथा वह दोषरहित शुक्ल था 'संखिदुएगतवदातसुक्कं-शखेन्दुवदेकान्तावदातशुक्लम्' वह शंख तथा चन्द्रमा के समान सर्व प्रकार से शुक्ल था ॥१६॥ ___ अन्वयार्थ-ज्ञातपुत्र महावीर अनुत्तर श्रुत चारित्र धर्म का कथन करके अनुत्तरध्यान करते थे। उनका ध्यान अत्यन्त शुक्ल वस्तु के समान शुक्ल, दोषवर्जित तथा शंख या चन्द्रमा के समान सर्वथा स्वच्छ और शुद्ध था ॥१६॥
'अणुतर' यह
'साथ'-'अणुत्तरं धम्ममुदीरइचा-अनुत्तरं धर्ममुदिरयित्वा' मावान् महावीर स्वामी सत्तिम सेवा श्रुतयारित्र३५ यम ४ीन 'अनुत्तरं झाणवरं झियाइ-अनुत्तरं ध्यानवरं ध्यायति' सत्तिमध्यान ५२ ता. 'सुसुक्कसुकसुशुक्लशुक्क' भगवाननुं ध्यान सत्यात शुस १२तु सरभु शुस खत 'अपगण्डप्लुक्लं-अपगण्डसुक्लम्' तथा ते निषि शुस तु.. 'संखिदु एगंतव. दातसुकं-शंखेन्दुवदेकांतशुक्लम्' शम तथा यमा भरभु साथी शुsa तु ॥१६॥
સ્વાર્થ-જ્ઞ તપુત્ર મહાવીર અનુત્તર (સર્વોત્તમ) શ્રતચારિત્રરૂપ ધર્મની પ્રરૂપણ કરતા હતા અને અનુત્તર ધ્યાન ધરતા હતા. તેમનું ધ્યાન અત્યંત શુકલ વરતુના સમાન શુકલ, દોષરહિત, તથા શંખ અથવા ચન્દ્રમાના समान सथा २१२७ भने शुद्ध तु ॥ १६॥ . . . . . . . . ..