Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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समायबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.७ उ.१ कुशीलवतां दोपनिरूपणम्
६०७ ।, पार्थक्येन कुशीलानां मतान्युक्तानि, अतः परं सामान्येन तेषामपररीत्या निराकर्तुमाह-'अपरिक्ख' इत्यादि । मूलम्-अपरिक्ख दिटुं गेहु सिद्धी एहिंति ते घायमधुंजमाणा।'
एहिं जाणं पंडिलेह सातं विजं गहाय तसथावरहि।१९। छाया--अपरीक्ष्य दृष्ट नैवं सिद्धि रेष्यन्ति ते घातमबुद्धयमानाः। - भूतै र्जानीहि प्रत्युपेक्ष्य सातं विद्यां गृहीत्वा प्रसस्थायरैः ॥१९॥
पृथक पृथक् रूप से कुशीलों के मत का दिग्दर्शन कराया गया। इसके बाद दूसरे प्रकार से सामान्य रूप से उनका निराकरण करते हैं-'अपरिक्ख' इत्यादि। .. शब्दार्थ-'अपरिक्ख दिट्ट-अपरीक्ष्य दृष्टम्' जलावगाहन और अग्नि होत्र आदिसे सिद्धि मानने वाले लोगों ने विना परीक्षा ही इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया है 'णहु सिद्धी-न एवं सिद्धिः' इस प्रकारसे सिद्धि नहीं मिलती है 'अवुज्झमाणा ते घायं एहिति-अवुद्धचमाना ते घातमेष्यन्ति' यथार्थ वस्तुतस्वको न समझने वाले वे लोग संसार को 'प्राप्त करेंगे 'विज्ज गहाय-विद्यां गृहीत्वा' ज्ञानको ग्रहण करके 'पडिलेह-प्रत्यूपेक्ष्य' और विचार करके 'तसथावरेहिं भूएहि-त्रसस्थावर भृतः'. घस और स्थावर प्राणियों में सात-सात' सुख की इच्छा
जाणं-जानीहि जानो ॥१९॥ "- * અલગ અલગ રૂપે કુશીલધમઓના મતનું નિરૂપણ કરીને તેનું ખંડન
કરવામાં આવ્યું. હવે સામાન્ય રૂપે તેમના મતનું નિરાકરણ (ખંડન) : ४२वामा मावे -'अपरिक्ख' त्याह
हा अपरिवन विट्र-अपरीक्ष्य 'दृष्टम्' ivarans भने मनહત્ર વિગેરેથી સિદ્ધિ માનવાવાળા લોકોએ વિના-વિચાર્યું જ આ સિદ્ધોત્તમ वी२ यो छ. 'गहु सिद्धी-ण एवं सिद्धिा मा शत AA प्राप्त बता नथी. 'अबुझमाणा ते घायं एहिति-अबुध्यमानाः ते घातमेष्यन्ति यथार्थ वरत. तत्पनन सभा मेवा समारने प्रांत ४२. विज गहाय-विद्यां गृहीत्वा' ज्ञानने हय धरीने 'पडिलेह-प्रत्युप्रेक्ष्य' 'मन वियार ४सने से'थावरेहिं भूएहि-त्रसस्थावरैः भूतै.' स भने स्थापन प्राणियोमा 'सात-सात' सुभनी छ। 'जाण-जानीहि' mQl. All १६॥ . .