Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 677
________________ - - समयार्थपोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् स्सिया) रागद्वेषाश्रिताः कषायकलुषितान्तरात्मानः (ते वाला) · ते वाला:-सदाः सद्विवेकविकला' अज्ञानिनः (बहुपावं कुव्वंति) - बहु-अनन्तं पापम् : असद्वेध: कुर्वन्ति-विदधतीति ॥८॥ ___टीका-'अत्तदुक्कडकारिणो' आत्मदुष्कृतकारिणा, आत्मना . स्वयमेव दुष्कृतकर्मकर्तारः सावधकर्मानुष्ठानमाचरन्तः 'संपरायं गियच्छंति' सांपरायिक नियच्छन्ति । द्विविधं हि कर्म भवति-ईपिथम् सांपरायिकं च। तत्र-संपराया:वादरकपायाः, तेभ्य आगतं यत् सांपरायिकम्, तादृशं कर्म जीवोपमर्दनाद आत्मदुष्कृतकारिणोऽभद्राः पुरुषाः नियच्छन्ति-बध्नन्ति । कथंभूतास्ते ये तादृशं साम्परायिकं कर्म अनुबध्नन्ति,, ताह-'रागदोसस्तिया' रागद्वेषाश्रिताः कषाय:: कलुपितान्तरात्मानः रागद्वेषाभ्यां युक्ताः सन्तो जीवान् हिंसन्ति नरकादिकुगति हेतुकर्म अनुवघ्नन्ति च । तथाविधं कर्म- रागद्वेषात्मककपायकलंपिताऽन्त:करणा , अत एक पालाः सदसद्विवेकविकलाः, 'पावं' पापम् अष्टादशभेदरूपं. विविधासदनीयजनकम् । 'बहु' अनेकविधम् 'ते कुवंति' ते कुर्वन्ति । स्वेनैव भ्रमण के) कर्म का पन्ध करते हैं। वे अज्ञानी रागद्वेष से मलीन होकर बहुत पाप उपार्जन करते हैं ॥८॥ टीकार्थ--जो स्वयं पापकर्म का आचरण करते हैं, वे साम्परायिक कर्म को घांधते हैं । कर्मपन्ध दो प्रकार का है ईर्यापथ और साम्परायिक । जो कर्मबन्धन बादर कषाय से होता है, वह साम्परायिक कहलाता है। जीवहिंसा.से साम्परायिक कर्मे का,बन्ध होता है। - जो जीव रागद्वेष के आश्रित हैं अर्थात् जिनकी अन्तरात्मा, कषायों से कलुषित हैं-और-इस कारण जो-हिंसा-करते हैं, वे नरकआदि दुर्गतियों के कारणभूत कर्म का बन्ध'करते हैं। ऐसे कर्म अनेक પરિભ્રમણ) કર્મને બંધ કરે છે, તેઓ અજ્ઞાની અને રાગદ્વેષથી મલીન न घा, ४ 'पापा ४: छे. ॥८॥? 1. At-2 वय ५५४भानु:- मान्य२९२ छ, तेसा सांपयित કર્મને બાંધે છે. કર્મબંધ બે પ્રકારના છે, ઈર્યાપથ અને સાંપરાંયિક જેવા मन मार पायथी थाय छ, 'ते'सायि वाय. छ.. 04હિંસાથી સાંપરાયિક કમને બંધ થાય છે. 04 देथा युत, डाय"छे मर्थात माना मामा ४ायोथी मान थय। छे, मन ते ४२४थी. मी हिसारे, छतमा न२६ विमतियाना ॥२भूत मनसाय रे छ. मेवा. मग

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