Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 698
________________ सूत्रकृतागसूत्र जानीयाद, तदा स्वायुपः क्षयात् पूर्वमेव संलेखनारूपां शिक्षां गृहीयात्, इति भावः ||१५|| मूलम् - जहा कुंमे सअंगाई सए दे हे समाहरे । एवं पीवाई मेहावी अज्झेंपेण संमाहरे ॥१६॥ छाया—यथा कूर्मः स्वाङ्गानि स्वस्मिन् देहे समाहरेत् । एवं पापानि मेधावी अध्यात्मना समाहरेत् ॥ १६ ॥ अन्वयार्थ : - ( जहा ) यथा ( कुंमे ) कूर्म :- कच्छपः ( सअंगाई) स्वाङ्गानि - हस्तपादादीनि (सर देहे समाहरे) स्वके देहे - स्वशरीरे एव समाहरेत्- संकोचयेत्. ( एवं मेहावी) एवमेव मेधावी - मर्यादावचन सदसद्विवेकी वा (पावाई)- पापानि-सावधानुष्ठानानि (अज्झष्पेण) अध्यात्मना - सम्यग् धर्मध्यानादिभावनया (समाहरे) समाहरेत् - संकोचयेदिति । १६ ।। आया जान ले तो आयु के क्षय से पहले ही संलेखना करके और पण्डितमरण अंगीकार करे | १५|| 'जहा कुंमे स अंगाई' इत्यादि । शब्दार्थ - 'जहा - पथा' जैसे 'कुसे - कूर्मः' कछुमा 'सअंगाई-वाज्ञान' अपने अंगों को 'लए देहे समाहरे- स्वके देहे समाहरेत्' अपने. देह में सीकोड देता है एवं मेहावी एवं मेधावी' इसीप्रकार बुद्धिमान् पुरुष 'पावाई - पापानि' पापों को 'अज्झम्पेण-अध्यात्मना' धर्म ध्यान आदि की भावनाले 'लमाहरे- समाहरेत्' संकुचित् करदे ॥ १६ ॥ अन्वयार्थ --- जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने देह में सकोड. આયુષ્યના અંત આવેલા જાણે તે આયુના ક્ષયની પહેલાંજ સલેખના કરીલે અને પંડિત મરણુ સ્વીકારીલે ૧૫ 'जहा कुंभे स अंगाई' शहार्ध.-'जहा-स्था' प्रेम 'कुंसे- कूर्मः' अथ 'सअंगाई - स्वाङ्गानि ' पोताना गंगाने 'सए देहे समाहरे - स्वके देहे समाहरेत्' पोताना शरीरभां सभावी से हे, ‘एव ं मेहावी - एवं मेधावी ४ प्रभा युद्धिमान् पुष 'पावाईपापानि' पाने 'अज्झप्पेण-अध्यात्मना' धर्म ध्यान वगेरे लावनाथी 'समाहरे- समाहरेत्' सथित उरी हे ||१६|| અન્નયા જેવી રીતે કાચખેા પેાતાના અંગાને પેાતાના દેહમાં

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