Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराजविरचितया समयार्थबोधिन्याख्यया व्याख्यया समलङ्कृत हिन्दी-गुर्जर-भाषाऽनुवादसहितम् ॥श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्रम्॥ SHREE SUTRAKRUTĀNG SUTRAM (द्वितीयो भागः) नियोजकः संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि पण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः प्रकाशकः पालणपुरनिवासी महेता सूरजमलभाई भाईचंदभाईना (मद्रास) धर्मपत्नी जासुदवाईना स्मरणार्थे तत्प्रदत्त-द्रव्यसाहाय्येन अ. भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुखः श्रेष्ठि-श्रीशान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदयः मु० राजकोट प्रथमा-आवृत्ति धीर-संवत् विक्रम संवत् ईसवीसन् प्रति १२०० २४९ २०२६ १९६९ मूल्यम्-रू. २५-०-० CRY02090805 STERESHESAR CERYODAYGROpm ROWEROOROOROOR WAN 289000 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મળવાનું ઠેકાશું ? श्री. म. सा. ka. स्थानकासी જૈનશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, ४. गठिया का , २००४ औट, (सौराष्ट्र). Published by : Shri Akhil Bharat S. S. Jain Shastroddhara Samiti, Garedia Kuva Road, RAJKOT, (Saurashtra), W. Ry, India, ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यत्रज्ञां, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैप यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥१॥ हरिगीतच्छन्दः करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये । जो जानते हैं तत्त्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनभेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्त्व इसले पायगा। है काल निरवधि विपुलपृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥१॥ मूल्य: ३. २५300 પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રત ૧૨૦૦વીર સંવત્ ૨૪૯૬ "વિક્રમ સંવત્ ૨૦૨૬ ઇસવીસન ૧૯૬૯ मुद्र: મણિલાલ છગનલાલ શાહનવપ્રભાત - પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, ઘીકાંટા રેડ, અમદાવાદ, Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XALAALAAAALALEAAAAALALEEX સદગત શ્રીમતી જાસુદબાઈની જીવન ઝરમર ઉત્તમ તેમજ પ્રબળ ધાર્મિક ભાવના સાથે ધર્મના સમસ્ત કાર્યોમાં પ્રવૃત્ત રહેનાર, છે # દરેકે દરેક વ્યક્તિ પ્રત્યે સરળ સ્નેહ તેમજ સમસહિષ્ણુતા દર્શાવનાર, > ૩૭૩૭૭૭૭૭૭૭૭૭૩૭૭૭૩૩૭૩૭૭૭ * જીવનના પ્રત્યેક ક્ષણમાં પરહિતરત રહેનાર, 999999999999999999૭૭૭૭૭૭૭ સંયુક્તકુટુંબમાં અતીવ વૈર્ય તેમજ સદ્ભાવપૂર્વક ઉષ્માભર્યું જીવન જીવનાર, ઘરના સી સાથે તેમજ સમાગત અતિથિઓ સાથે અતીવ માયાળુપણે વર્તનાર, * કષાયના સમસ્ત પ્રસંગે પિતે ભૂલવા તેમજ અન્ય વ્યક્તિઓને તે પ્રસંગો ભૂલી જવા માટે પ્રેરણા આપનાર ક ભોજશેખને તિલાંજલિ આપીને જીવનમાં સદા સાદગીને વરનાર, ત) ક કોઈને ય પણ અસમાધિ થાય તેવું કદાપિ આચરણ ન કરનાર તેમજ સંતપ્રજનેને સદા દિલાસે આપનાર ૭૭૭૩૭૩૭૭૭૭૭૭૭૭ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LAVAVASVAVARVAVEXAVEVAAALALAVEN. પાલણપુરનિવાસી સદગત શ્રીમતી જાસુદબાઈ સુ. મહેતાના સ્મરણાર્થે દેહત્યાગ ૨૯-૧-૧૯૦૯ ૨૭–૨–૧૯૬૭ HAAVEVAASAELAVENENAAEAAENGEVALDASALALE સુરજમલ ભાઈચંદ મહેતા તથા કુટુંબીઓ તરસ્થી Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આમુરબ્બીશ્રીઓ શ્રી શાંતિલાલ મંગળદાસભાઈ અમદાવાદ, (સ્વ) શેઠશ્રી શામજીભાઈ વેલજીભાઈ વીરાણું–રાજકોટ (સ્વ.) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર અમદાવાદ, પs * * * * * * શેઠશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ વીરાણુ-રાજકેટ વચ્ચે બેઠેલા લાલાજી કિશનચંદજી સા. જોહરી ઉભેલા સુપુત્ર ચિ. મહેતાબચન્દ્રજીસા, નાના – અનિલકુમાર જૈન (દેયત્તા) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આમુરબ્બીશ્રીઓ - - = - : = . * s : - (સ્વ) શેઠશ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વારિઆ ભાણવડ (સ્વ.) શેઠ રંગજીભાઈ મેહનલાલ શાહ અમદાવાદ, t (સ્વ) શેઠશ્રી દિનેશભાઇ કાંતિલાલ શાહ અમદાવાદ, શ્રી વિનોદકુમાર વીરાણું e st . B રૂ ; વન E , શેઠશ્રી જેસિંગભાઈ પાચાલાલભાઈ અમદાવાદ સ્વ. શેઠશ્રી આત્મારામ માણેકલાલ અમદાવાદ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આમુરબ્બીશ્રીઓ 34: * * * પટેલ ડોસાભાઈ ગોપાલદાસ મુ. સાણંદ (જી. અમદાવાદ) ૧ અમીચંદભાઈ તથા ૨ ગીરધરભાઈ બાટવિયા E? - મકર : - જિક, ઇને કt - - • **** . . ' હું જો કે शाहाजी श्री मोडीलालजी गलुन्डिया સ્વર્ગસ્થ ન્યાયમૂર્તિ રતીલાલભાઈ ભાયચંદભાઈ મહેતા 2.4 *. - * - * - -- ~-- श्रीमान शेठ सा. श्री कानुगा धिंगडमलजी साब Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * આદ્યમુરખ્ખીશ્રીએ શ્રી વૃજલાલ દુર્લભજી પારેખ રાજકાય. શેઠશ્રી મિશ્રીલાલજી લાલચ છ સા. લુણિયા તથાશેઠશ્રી જેવતરાજજી લાલચજી સા. (સ્વ.) શેઠશ્રી ધાÁિીભાઇ ખુલાલ ખારી કાઠારી હર્ગેાવિદ જેચંદભાઇ રાજકાય. : સ્વ. શ્રીમાન રોડથી મુનચંદજી સા બાલિયા પાલી મારવાડ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આઘમુરબ્બીશ્રીઓ સ્વ. શેઠશ્રી હરિલાલ અનેપચંદ શાહ ખંભાત, . શેઠ તારાની સાહેબે मद्रास. श्रीमान् शेठ सा. चीमनलालजी सा. ऋषभचंदजी सा अजीतवाले (सपरिवार) : : '' Sત , છે. વચ્ચે બેઠેલા મોટાભાઈ શ્રીમાન મૂલચંદજી જવાહરલાલજી બરડિયા ૨ બાજુમાં બેઠેલા ભાઈ મિશ્રીલાલજી બરડિયા કે ઉભેલા સૌથી નાનાભાઈ પૂનમચંદ બરડિયા श्रीमान् सेठश्री खीमराजजी सा. चोरडिया Page #12 --------------------------------------------------------------------------  Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७-२६ सूत्रकृताङ्गसूत्र भा. दूसरे की विषयानुक्रममणिका अनुक्रमाङ्क विषय पृष्ठ तीसरा अध्ययन का पहला उद्देशा १ साधुको परीपह और उपसर्ग को सहन करनेका उपदेश २ संयम का रूक्षत्व का निरूपण ९-१२ ३ भिक्षापरीपह का निरूपण १३-१६ ४ वधपरीपह का निरूपण ५ दंशमशकादि परीपहों का निरूपण २७-२८ ६ केशलंचन के असहत्व का निरूपण २९-३१ ७ परतीर्थिकों का पीडित करनेका निरूपण ३१-३७ ८ अध्ययन का उपसंहार ३७-३९ तीसरे अध्ययन का दूसरा उद्देशा ९ अनुकूल उपसर्गों का निरूपण ४०-८७ तीसरे अध्ययन का तीसरा उद्देशा १० उपसर्गजन्य तपासंयम विराधना का निरूपण ८८-१०६ ११ अन्यतीथिकों के द्वारा कहे जानेवाले ____ आक्षेपवचनों का निरूपण १०७-१११ १२ अन्यतीथिको के द्वारा किये गये आक्षेप वचनों का उत्तर १११-१२५ १३ बाद में पराजित हुए अन्यतीर्थिकों की धृष्टता का प्रतिपादन १२५-१३० १४ वादिके साथ शास्त्रार्थ में समभाव रखने का उपदेश १३१-१३७ तीसरे अध्ययन का चतुर्थ उद्देशा १५ मार्ग से स्खलित हुए साधु को उपदेश Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००-२७७ २७८-३२६ ३२७-३९० चोथा अध्ययन का पहला उद्देशा १६ स्त्री परीपह का निरूपण दूसरा उद्देशा १७ स्खलित साधु के कर्मवन्ध का निरूपण पांचवां अध्ययन का पहला उद्देशा १८ दना का निरूपण पांचवा अध्ययन का दूसरा उद्देशा १९ नारकीय वेदना का निरूपण छट्ठा अध्ययन २० महावीर भगवान के गुणों का वर्णन सातवां अध्ययन २१ कुशीलवालो के दोषों का कथन आठवां अध्ययन २२ वीय के स्वरूप का निरूपण ३९१-४५२ ४५३-५४७ ५४८-६४३ ६४४-७१४ समाप्त Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री वीतरागाय नमः॥ श्री जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री घासीलालतिविरचितया समयार्थप्रबोधिन्याख्यया व्याख्यया समलङ्कृतम् ॥श्री-सूत्रकृताङ्गसूत्रम् ॥ (द्वितीयो भागः) ॥ अथ तृतीयबध्ययनम् ॥ व्याख्यातं द्वितीयाध्ययनम् , सम्पति क्रमप्राप्तं तृतीयमध्ययनं मारमते, द्वितीयाध्ययने स्वसमयपरसमययोनिरूपणमभिहितम् । तत्रापि परसमयस्य दोपा उक्ता, स्वसमयस्य गुणाश्च । प्रतिबुद्धपुरुपत्य संयमोत्थानेनोस्थितस्य कदाचिदनुकूलपतिकूलोपसर्गाः प्रादुर्भवेयुः । ते सोढव्या इति तृतीयाध्ययने कथ्यते । तस्येदमादिमं सूत्रम्-'सूरं मण्णइ' इत्यादि । मूलम्-सूरं मण्णइ अपाणं जाव जैयं न पस्तई। जुझंतं दढधम्नाणं सिसुपालोव्व महारहं ॥१॥ छाया--शूरं मन्यत आत्मानं यावज्जेतारं न पश्यति । युद्धयमानं दृढधर्माणं शिशुपाल इच महारथम् ॥१॥ तीसरे अध्ययन का प्रारंभद्वितीय अध्ययन की व्याख्या की जा चुकी। अब अनुक्रम से प्राप्त तृतीय अध्ययन आरंभ किया जाता है। द्वितीय अध्ययन में स्वसमय और परसमय का निरूपण किया है, और उसमें भी परसमय के दोष तथा स्वसमय के गुणों का कथन किया गया है। तीसरे अध्ययन में यह निरूपण करते हैं कि बोध सम्पन्न और संयम में परायण मुनि को कदा. चित् अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्गों की प्राप्ति हो तो उन्हें समभाव पूर्वक - ત્રીજા અધ્યયનને પ્રારંભ બીજા અધ્યયનનું વિવેચન પૂરું થયું હવે ત્રીજા અધ્યયનની શરૂઆત થાય છે. બીજા અધ્યયનમાં સ્વસમય અને પરસમસ્યાનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે અને તેમાં સ્વસમયના ગુણે અને પરસમયના દોષ પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે. હવે આ ત્રીજા અધ્યયનમાં એ વાત પ્રકટ કરવામાં આવે છે કે બધસંપન્ન અને સંયમમાં પરાયણ મુનિને ક્યારેક અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગોની પ્રાપ્તિ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___ अन्वयार्थः--(जाब) यावत् (जेयं) जेतारं पुरुष (न परसइ) न पश्यति तावत्पर्यन्तं कातरोपि (अपाणं) आत्मानं स्वात्मानम् (रं) शूरं संग्रामवीरं (मन्नइ) मन्यते (जुझंतं) युध्यमानम् संग्रामं कुर्वन्तम् (महारह) महारथं (दढधम्माण) दृढधर्माणं नारायणं कृष्णम् (सिसुवालोद) शिशुपाल हब-यथा कृष्णं युध्यमानं दृष्ट्वा शिशुपालः क्षोभमाप्तवानित्यर्थः ॥१॥ लहन करना चाहिए। तीसरे अध्ययन का प्रथम सूत्र यह है-'सूरं मण्णा अप्पाण' इत्यादि। शब्दार्थ-'जाव-यावत् ' जक्तक 'जेयं-जेतारम् ' विजयी पुरुष को न पस्सह-न त्यति नहीं देखता है तबतक हायर पुरुष 'अपाणंआत्मानम् ' अपने को 'स्वरं-शूरम् ' शूरवीर 'मन्नई' -मन्यते' मानता है 'जुज्नं तं-युध्यमानम् ' युद्ध करते हुए 'महार-महारथम् महारथी 'दढ धम्याण'-दृढ धर्माणम्' दृढ धर्म दाले-कृष्ण को देखकर 'सिसुपा. लोच-शिशुपालइच' शिशुपाल जले क्षोभ को प्राप्तहुआ था वैसे क्षोभ को प्राप्त होते हैं ॥१॥ अन्जयार्थ-जब तक विजेता पुरुष को नहीं देखता तब तक कायर श्री अपने आप को संग्राम शूर मानता है । संग्राम करते हुए महारथी और दृढधर्मा नारायण (कृष्ण) को देखकर जैसे (पहले गर्जना करनेवाला) शिशुपाल क्षोभ को प्राप्त हुआ ॥१॥ થાય છે. તે ઉપસર્ગો તેણે સમભાવપૂર્વક સહન કરવા જોઈએ. ત્રીજા અધ્યયનનું पड़े सूत्र मा प्रमाणे 2.-'सूरं मण्णइ अप्पाणं' त्या शीर्थ-'जाव-यावत्' यi सुधी जय-जेतारम्' विन्या ५३५ने, 'न पस्सइ-न पश्यति' ते नथी त्यां सुधी य२ पु३५ 'अप्पाणं-आत्मानम् । पाताने 'सूरं-शूरम्' शूरवीर 'मन्नइ-मन्यते' माने छे. 'जुझ तं-युध्यमानम्' युद्ध ४२di 'महारह-महारथम्' महारथी 'दढयम्माणं-दृढवर्माणम्' यम वाअपने नन ' सिपालोव-शिशुपालइव' शिशुपास रेभ सामने प्राप्त थयो । तम शासन प्रान थाय छे. !!३॥ સૂત્રાર્થ-જ્યાં સુધી વિજેતા પુરુષનો ભેટે ન થાય, ત્યાં સુધી કાયર પણ પિતાને સંગ્રામર માને છે. જેવી રીતે સમરાંગણમાં વીરતાપૂર્વક લડતા મહારથી અને દૃઢધમ નારાયણ (કૃષ્ણ)ને જોઈને (પહેલાં ગર્જના કરનાર) શિશુપાલ સુબ્ધ થઈ ગયા હતા, (એજ પ્રમાણે ઉપસર્ગો અને પરીષહ આવી પડતાં ઢીલા પિચા માણસે સંયમ માર્ગેથી વિચલિત થઈ જાય છે) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ३ उ. १ परिपहोपसर्गसहनोपदेशः ___टीका-'जाव' यावत्-यावत्पर्यन्तम् 'जेयं' जेतारं मति द्वन्द्विनं राजानं 'न पस्सई' न पश्यति प्रतियोद्धारं न पश्यति तावदेव कापुरुप. 'अप्पाणं' आत्मानम् 'सूरं मण्णई' शूरं मन्यते-न मत्कल्पः परानीके शूरो विद्यने किन्तु शुरोऽहमेव इति मन्यते । यावत पर्यन्तं समुद्यतायुधं जेतारं युद्धायोपस्थितं पुरतो न पश्यति, तावदेवाऽल्पवीर्यः स्वात्मानं नीर इति मन्यते । तावदेव गजः प्रस्तमदः अकालघनाम्बुदवघोरगर्जनं करोति यावत् नखलांगूलमात्रायुधं शटाघटासमन्वितं कंपितकेशरकेशरिणं शब्दायमानं न पश्यति । तदुक्तम् 'तावद्गजः प्रस्तुतदानगण्डः करोत्यकालाम्बुदगजितानि । यावन्न सिंहस्य गुहास्थलीषु लांगूलविस्फोटरवं शृणोति ॥१॥ टीकार्थ-जप तक रिजेता विरोधी राजा को अर्थात् प्रतियोद्धा को नहीं देखता है, तब तक कायर पुरुष भी अपने को शूरवीर समझता है। वह ऐसा मानता है कि शत्रु की सेना में मेरे जैसा कोई वीर नहीं है, एक मात्र में ही वीर है । अर्थात् जब तक शस्त्र ऊँचा उठाये हुए और युद्ध के लिए सामने आये हुए बिजेता पुरुष को सन्मुख नहीं देखता है, तभी तक अल्पवीर्य अपने आपको वीर मानता है । मदोन्मत्त हाथी तभी तक वेमौसिम के सघन बादलों के समान घोर गर्जना करता है जब तक नाखून और पूछ मात्र आयुध वाले, सघन अयाल से युक्त केसर को कपाने वाले एवं दहाडले हुए केसरी को नहीं देखता है। कहा भी है-'सावद्गजः प्रस्तुतदानगण्ड' इत्यादि। - ટીકાઈ– જ્યાં સુધી પ્રતિસ્પધી સાથે લડવાને પ્રસંગ ન આવે, ત્યાં સુધી કાયર પુરુષ પણ પિતાની જાતને શુરવીર માને છે તે એવું માને છે કે શત્રુની સેનામાં મારા જેવા પરાક્રમી કેઈ નથી. જ્યાં સુધી તેને સામનો કરવાને માટે કોઈ શસ્ત્રસજજ વિજેતા પુરુષ તેની સામે શો ઉઠાવીને ખડે થતું નથી. ત્યાં સુધી તે અપવીય પુરુષ પોતાને વીર માને છે. મદેન્મત્ત હાથી કમોસમી સઘન વાદળાંઓની જેમ ત્યાં સુધી જ ઘેર ગર્જના કરે છે કે જ્યાં સુધી માત્ર નહાર અને પૂંછડી રૂ૫ શવાળે, સઘન કેશવાળીથી યુક્તકેસરોને કપાવત અને ગર્જના કરતો સિંહ તેની સામે ઉપસ્થિત થતો નથી. સિંહને જોતાં જ महोन्मत्त हाथी भी पूछी नासी जय छ ।यु. ५६ छ -'तीवद्गजः प्रस्तुतदानगण्ड.' त्याहिजेतुं २५० भ६ १२वाने ॥२) लातुं व Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे दृष्टान्तद्वारा यादृशोऽर्थः सरलतयाऽवगतो भवति, तत्तथा न दृष्टान्ताऽभावे । अत इह स्वसमयप्रसिद्ध कृष्णशिशुपालयोहान्तं प्रदर्शयति 'जुज्झंति' इत्यादि । 'जुझत' युद्धधमानम्-युद्धं कुर्वन्तम् 'दढधम्माणं' दृढधर्माण दृढः धर्मः पराक्रमो यस्य स दृढधर्मा, तं दृढ़धर्माणाम् । 'महारह' महारथं-महान् रथो यस्य स महारथः-तम् , कृष्णं दृष्ट्वा 'शिशुपालोब' शिशुपाल इव-यथा माद्रीसुतः शिशुपाल: कृष्णस्य दर्शनात्माक् स्त्रात्मप्रशंशाप्रधानकं गजनं कृतवान्, किन्तु पश्चात् युद्धाय पुरः स्थितं कृष्णवासुदेवं दृष्ट्वा क्षोभं प्राप्तः । कृष्णशिशुपालयोः कथा चरित्रग्रन्थात् अवगन्तव्येति भावः ॥१॥ ___ जिसके गण्डस्थल मद झरने से गीले हो रहे हैं ऐसा हाथी तभी तक अकाल मेघों के लश गर्जनाएं करता है, जब तक गुफा में होनेवाली सिंह की पूछ की फटकार की ध्वनि नहीं सुनता है। ___ दृष्टान्त से आशय जैसे सरलता से प्रलीन होता है, वैसे दृष्टान्न के विना नहीं प्रतीत होता है । अतएव यहाँ स्वतमय में प्रसिद्ध कृष्ण और शिशुपाल का दृष्टान्त प्रदर्शित करते हैं । युद्ध करते हुए, दृढ पराक्रम वाले और महान रथ वाले कृष्ण को देख कर जैसे माद्रीपुत्र शिशुपाल क्षोभ को प्राप्त हुआ। उसने कृष्ण को देखने से पहले तो खूब अपनी प्रशंसापूर्ण गर्जना की, परन्तु बाद में जब युद्ध के लिए सन्मुख उपस्थित कृष्ण वासुदेव को देखा तो घबरा उठा ! कृष्ण और शिशुपाल की कथा चरितग्रन्धों से जान लेना चाहिए ॥१॥ ગયું છે એ હાથી ત્યાં સુધી જ અકાળ મેઘની સમાન ગર્જનાઓ કરે છે કે જ્યાં સુધી ગુફામાં રહેલા સિંહની પૂંછડીને પછડાટને ઇવનિ સંભાળ નથી. દષ્ટાન્ત દ્વારા આશયને જેટલી સરળતાથી સમજી શકાય છે, એટલી સરળતાથી દૂછાત વિના સમજી શકાતા નથી. તેથી સૂત્રકારે અહીં સ્વસમયમાં (જે સિદ્ધાંતમાં) પ્રસિદ્ધ એવું કૃષ્ણ અને શિશુપાલનું દૃષ્ટાંત પ્રકટ કર્યું છે. દઢપરાક્રમી અને મહારથી કૃષ્ણને સમરાંગણમાં યુદ્ધ કરતા જોઈને માદ્રીપુત્ર શિશુપાલ ખૂબ જ ક્ષુબ્ધ થઈ ગયે હતું. જ્યાં સુધી તેણે કૃષ્ણના પરાક્રમને પ્રત્યક્ષ જોયું ન હતું, ત્યાં સુધી તે તે પિતાની વિરતાના બણગાં ફેંક્યા કરતે હતા, પરંતુ પરાક્રમી કૃષ્ણ વાસુદેવને પિતાની સામે સમરાંગણમાં ઉપસ્થિત થયેલ જોઈને તે કે ગભરાઈ ગયો હતો. કૃષ્ણ અને શિશુપાલની કથા ચરિતપ્રથમાંથી વાંચી લેવી જોઈએ. તેના Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र शु. अ. ३ उ. १ परिषहोपसर्गसहनोपदेशः ५ अधुना सर्वजनातीतं दृष्टान्तं प्रदर्शयति सूत्रकार:-'फ्याता' इत्यादि । पयाता सूरा रणसीसे संगामम्मि उवटिए । माया पुत्तं न जाणाइ जेएण परिविच्छए ॥२॥ छाया-प्रयाताः शूरा रणशीर्षे संग्रामे उपस्थिते । माता पुत्रं न जानाति जेना परिविक्षताः ॥२॥ अन्वयार्थ:-(संगामम्मि) संग्रामे (उदहिए) उपस्थिते प्राप्ते (रणसीसे) रणशीर्ष युद्धाग्रभागे (पयाता) प्रयाताः प्राप्ताः (मरा) शूराः शूरं मन्यमानाः (माया) माता (पुत्तं न जाणा) पुत्रं न जानाति कटिप्रदेशतो भ्रश्यन्तं स्तनंध अब सूत्रकार सर्वविदित दृष्टान्त को दिखलाते हैं-'पयाता' इत्यादि। शब्दार्थ-'संगामम्मि-संग्रामे ' युद्ध 'उहिए'-उपस्थिते ' छिडने पर 'रणसीसे-रणशीर्षे ' युद्ध के अग्रभाग में 'पयाता-प्रयाताः' गया हुआ 'सूरा-शमः' वीराभिमानी पुरुष 'माया-माता' माता 'पुत्तं न जाण-पुत्रं न जानाति' अपने पुत्र को गोदसे गिरता हुआ नहीं जानती • है ऐसे व्यग्रता युक्त युद्र में 'जेएण-जेत्रा' विजेता पुरुष के द्वारा 'परिविच्छए-परिविक्षताः' छेदन भेदन किया हुआ दीन बन जाता है ॥२॥ अन्वयार्थ-संग्राम उपस्थित होने पर युद्ध के अग्रभाग में उपस्थित हुए शर अर्थात वीरत्व का अभिमान करने वाले किन्तु वास्तव में कायर पुरुष, जिस भयानक युद्ध में माता अपनी गोदी से गिरते हुवे पुत्र को भी नहीं जानती, ऐसे युद्ध में विजेता के द्वारा पराजित कर दिए जाते हैं ॥२॥ डवे सूत्रधार समिति eld ट ४२ छ-'पयाता' त्याहि. शहाथ-'सगामम्मि-संग्रामे' युद्ध 'उवहिए-उपस्थिते' थवा सागे त्यारे 'रणसिसे-रणशीपे' युद्धनी गाना HTRAI 'पयाता-प्रयाता" गयेस 'सूरा-शूराः' पी२ मलिभानी पु३५ 'माया-माता' माता 'पुत्त न जाणाइ'-पुत्रं न जानाति' પિતાના પુત્રને ખેાળામાંથી પડતાં જાણતી નથી, એવા વ્યગ્રતા યુક્ત યુદ્ધમાં 'जेरण-जेत्रा' विरेता ५३१ना द्वा२। 'परिविच्छए-परिविक्षताछेहन बहन २di દીનતાયુક્ત બની જાય છે. સૂત્રાર્થ –જેવી રીતે યુદ્ધની ભીષણતાને કારણે ગભરાઈ ગયેલી માતાની ગોદમાંથી નીચે સરી પડતા બાળકનું ધ્યાન પણ માતાને રહેતું નથી, એજ પ્રમાણે પિતાના વીરત્વનું અભિમાન કરનાર-કાયર હોવા છતાં પણ પિતાને શૂરવીર માનનાર-પુરુષ સમરાંગણમાં જ્યારે દુશ્મનની સામે ઉપસ્થિત થાય છે ત્યારે જોત જોતામાં શૂરવીર વિજેતા દ્વારા પરાજિત કરાય છે. રા Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसू यम् (जेएण) जेना-जयनशीलेन (परिविच्छए) परिविक्षता: कातराः युद्धाग्रभागे गच्छन्ति किन्तु भशनके युद्धे प्रारंभे सति रिपुभिः ते कातराः जीयन्ते इति भावः ॥२॥ टीका-'संगामम्मि' संग्रामे 'उहिए' उपस्थिते सति 'रणसीसे रणशी युद्धाग्रभागे-शत्रुसैन्यसंमुखे ‘पयाता' प्रयाताः उपस्थिताः 'सूरा' शूराः पुरुषाः= वीराऽभिमानिनः । युद्धे प्रारब्धे सति वीराभिमानिनः वस्तुतः कातराः पुरुषाः युद्धाने उपस्थिता भवंति । किन्तु साहसविनाशके युद्धे समारब्धे ते कातराः भया. दिना आकुला भवंति, युद्धमेव विशिनष्टि, मायापुत्तमित्यादि । 'माया' माता 'पुत्तं पुत्रं स्वकीयपुत्रमपि स्वकटिमदेशात् पतन्तम् प्रियमपि पुत्रम् 'न जाणाई' न विजानाति एतादृशव्यग्रताजनके घोरे संग्रामे 'जेएण' जेत्रा-विजेत्रा शत्रुपुरु. षेण 'परिविच्छए' परिविक्षता: हताः भवन्ति ॥२॥ टीकार्थ-संग्राम छिड़ने पर वीरता का अभिमान करने वाले शूर पुरुष, जो वास्तव में कायर होते हैं युद्ध के अग्रभाग में चतुरंगी सेना के समान, उपस्थित हो जाते हैं। किन्तु जब साहस को समाप्त कर देने वाला संग्राम प्रारम्भ होता है, तब वे कायर भय आदि से व्याकुल हो उठते हैं । वह युद्ध कैसा भीषण होता है, यह दिखलाने के लिए सूत्रकार कहते हैं-उस युद्ध की भीषणता से घबराहट में आई हुई माता को अपनी गोद से गिरते हुए प्रिय पुत्र का भी ध्यान नहीं रहता है । इस प्रकार व्यग्रता उत्पन्न करने वाले घोर संग्राम में विजेता शत्रु के द्वारा वे पराजित कर दिए जाते हैं ॥२॥ ટીકાર્થ–પિતાના શૌર્યનું અભિમાન કરનાર પણ વાસ્તવમાં કાયરતાથી યુક્ત હોય એ પુરુષ, જ્યારે યુદ્ધને પ્રસંગ આવી પડે છે ત્યારે પિતાની ચતુરંગી સેના સહિત સમરાંગણના અગ્રભાગમાં ઉપસ્થિત થઈ જાય છે. પરંતુ જયારે ભીષણ સંગ્રામ શરૂ થાય છે ત્યારે દુશ્મનનું પરાક્રમ જોઈને તે કાયરના ભય અને વ્યાકુળતા વધી જાય છે તે યુદ્ધ કેવું ભયાનક હોય છે તે બતાવવાને માટે સૂત્રકાર નીચેનું દષ્ટાન્ત આપે છે-તે યુદ્ધની ભીષણતાને કારણે ગભરાઈ ગયેલી માતાને તેની ગોદમાંથી સરી પડતા બાળકનું પણ ભાન રહેતું નથી. એજ પ્રમાણે વ્યગ્રતા ઉત્પન્ન કરનારા તે ઘેર સંગ્રામમાં વિજેતા શત્રુ દ્વારા તે કાયરને જોતજોતામાં પરાજિત કરી દેવામાં આવે છે. રા Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ परिषहोपसर्गसहनोपदेशः ७ पूर्व दृष्टान्तः प्रोक्तः सम्पति दार्टान्तिकमाह-एवं सेहे वि' इत्यादि । मूलम्-एवं सेहे वि अपुढे भिक्खायरिया अकोविए। सूरं मण्णइ अप्पाणं जाव लूहं न सेवए ॥३॥ ' छाया--एवं शिष्योऽप्यस्पृष्टो भिक्षाचर्याऽकोविदः । ___ शूरं मन्यत आत्मानं यावत् रूक्षं न सेवते ॥३॥ अन्वयार्थः-(एवं) एवमनेन प्रकारेण (भिक्खायरिया अकोविए) भिक्षाचर्या कोविदः (अपुढे) अस्पृष्टः परीपहोपसर्गः (सेहे वि) शिष्योपि-अभिनवपत्रजितः (अप्पाण) आत्मानं (मुरं) शूरं चारित्र शूरं (मनइ) मन्यते (जाब) यावत पर्यन्तं (लह) सक्षम् संयम (न सेवए) न सेवते इति ॥३॥ दृष्टान्त कहकर अछ दार्शन्तिक कहते हैं-'एवं सेहे वि' इत्यादि। . शब्दार्थ-एवं-एवम् ' इसी प्रकार 'भिक्खायरिया अकोविए'भिक्षाचर्या कोविदः 'भिक्षाचर्या कि विधि के मर्म को न जानने वाले 'अपुढें-अस्पृष्टः' और परीषहों से जिन को संबन्ध नहीं है ऐसा 'सेहेविशिष्योपि' अभिनव प्रव्रजिन शिष्य भी 'अप्पाणं-आत्मानम्' अपने को 'रं-शरम्' तबतक शूर 'मन्नइ-मन्यते' मानता है 'जाव-यावत' जब तक वह 'लूहं-रुक्षम्' संयमको 'न सेवए-न सेवते' सेवन नहीं करता॥३॥ - अन्वयार्थ-इसी प्रकार भिक्षाचर्या में अनिपुण एवं उपसों से रहित नवदीक्षित साधु अपने को चारित्र में शूर मानता है परन्तु जब तक संयम का सेवन नहीं करता (तभी तक) ॥३॥ હવે સૂત્રકાર દૃષ્ટાનોદ્વારા જે વાતનું પ્રતિપાદન કરવા માગે છે તે (Elelfis) ५४८ ४२ छ.-'एवं सेहे वि.' त्याह સૂત્રાર્થ-એજ પ્રમાણે ભિક્ષાચર્યામાં અનિપુણ અને પરીષહ તથા ઉપસર્ગોથી રહિત સાધુ પણ પિતાને ચારિત્રની આરાધનામાં શૂર માને છે. પરતુ જકારે પરીષહ અને ઉપસર્ગો આવી પડે છે, ત્યારે તે સંયમન પાલન કરી શકતા નથી. રૂપા शहाथ-एवं-एवम्' मा प्रमाणे 'भिक्खाचरिया अकोविए-भिक्षाचर्याs कोविद. मायर्यानी विधिन। मम ने नवावाणा 'अपुढे-अस्पृष्टः' भने पशपाथा भने समय नथी मेवा 'सेहेवि-शिष्योपि' अभिनव प्रमानित शिष्य ५ 'अप्पाणं-आत्मानम्' पाताने सूर-शूरम्' त्या सुधी शूरवी२ 'मन्नइ -मन्यते' भान छ. 'जाव-यावत्' जयां सुधात 'लह-रुक्षम्' सयभनुन सेवए -ज सेवते' सेवन, ४२ता नथी. ॥३॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गने टीका--'एवं' एवम् अनेनै मझारेण 'मिक्खारिया अकोविए' भिक्षाचर्याऽकोविदः, भिक्षाचर्याविधिम नभिज्ञः उपलक्षणात् सकल साध्वाचाररिज्ञानदिकला अभिनवप्रव्रजितत्वात् 'अपुढे' अस्पृष्टः परीपर्यस्य संबन्धो न जातः एताहगः 'सेहे वि' अभिनवपत्र जितः कोमलवुद्धिशिष्योऽपि 'अप्पाण' आत्मानं= स्वात्मानं तावदेव 'पुरं' शूरम् 'मण्णइ' मन्यते तावदेव स्वात्मानं उत्कृष्टसाध्याचारपालने सिंहनाद करोति । शूरत्वस्य मर्यादामाह-'जावेत्ति' 'जाप' यावत्'लूई' रक्षं संयमम् 'न सेवए' न सेवते यथा संग्रामशीर्षे समुपस्थितः शिशुपालो जेतारं वासुदेवं न दृष्टवान् सावदेव सिंहनादं कृतवान् तथैव कोमलवुद्धिरभिनव प्रवजितः यावत् परीपहोपसर्गरूपलेशरशटामुच्छालयन्तं संयम केसरिणं न पश्यति तावदेव स्वात्मानं संयमवीर इति मन्यते तत्माप्तौ स गुरुशर्माऽल्पसत्व चारित्र. भंगमुपयाति ॥३॥ टीकार्थ-इली पति जो नवीन दीक्षित साधु, जो भिक्षा की विधि के मर्म से अनभिज्ञ है और उपलक्षण से साधु के समस्त आचार से नवदीक्षित होने के कारण अपरिचित है और जो परिषहों एवं उपसर्गों से अस्पृष्ट है अर्थात् जिले इनका सामना नहीं करना पडा है, ऐसा साधु भी अपने को तभी तक चारिबार समझता है तभी तक उत्कृष्ट साध्वाचार पालन करने का मनोरथ करता है, जब तक संयम का सेवन नहीं करना है। जैसे संग्राम के शीर्ष भाग में उपस्थित शिशुपाल ने तभी तक सिंहनाद कि जब तक विजेता बासुदेव पर उसकी दृष्टि नली पडी, उसी प्रकार कोमलवुद्धि नवदीक्षित साधु जब तक परीपर और उपसर्गरम्प केसर को हिलाने वाले संयमरूपी सिंह को नहीं देखता है, तभी तक अपने को संयमवीर मानता है। परीषह ટીકા–એજ પ્રમાણે નવદીક્ષિત સાધુ કે જે ભિક્ષાની વિધિના મર્મથી અનલિત છે. અને સાધુના સમસ્ત આચારાથી અપરિચિત છે, અને જેને પરીપદે અને ઉપસર્ગોને સામને ક પડયો નથી, એ સાધુ પિતાને ત્યાં સુધી જ ચારિત્રશુર-ઉત્કૃષ્ટ સાધવાચારનું પાલન કરનાર-માને છે કે જ્યાં સુધી તેની સામે ભયંકર પરીવહે અને ઉપસર્ગો ઉપસ્થિત થતા નથી. જેવી રીતે સામના અણગમાં ઉપસ્થિત થપેલા શિશુપાલે ત્યાં સુધી જ સિહનાદ છે કે જ્યાં થી વિજેને વરુદેવ પર તેની નજર ન પડી, એજ પ્રમાણે નવદન કમળ સાધુ પાં સુધી પરીવ અને ઉપસર્ગો રૂ૫ (કેશવાળી)ને કંપાવનાર સંયમ રૂપે સિકને તે નથી, ત્યાં સુધી જ પિતાને ચારિત્રશુર Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ संयमरय रुक्षवनिरूपणम १ संयमस्य रूक्षता प्रतिपादयति सूत्रकार:-'जया हेअंत' इत्यादि । मूलम्-जया हेमलमासंमि सीतं फुसई सव्वग्गं । तत्थ मंदा विसीयंति रजहीणाव खत्तिया ॥४॥ छाया--यदा हेमन्तमासे शीतं स्पृशति सर्वांगम् । तत्र मन्दा विषीदन्ति राज्यहीना इव क्षत्रियाः॥४॥ अन्वयार्थ:--(जया) यदा येन प्रकारेण (हेमंतमासंमि) हेमंतमासे हेमन्तऋतौ-पोपमासे (सीतं) शीतं शैत्यं (सध्वग्गं) सर्वागं प्रतिकूलतया (फुसइ) स्पृशति (तत्थ) तत्र तदा (मंदा) मंदा जडा:-गुरुकर्माणः (रज्जहीणा) राज्यहीना' राज्यभ्रष्टाः (खत्तियाव) क्षत्रिया इच (विसीयति) विपीदति-विषादमनुभवन्तीति ॥४॥ और उपसर्ग की प्राप्ति होने पर वह गुरुकर्मा एवं अल्पसत्व साधु चारित्र को भंग कर देता है ॥३॥ - सूत्रकार अब संयम की रूक्षता का प्रतिपादन करते हैं-'जया हेमंत' इत्यादि। शब्दार्थ-'जया-घदा' जब 'हेमंतमासंमि'-हेअन्तमाझे' हेमन्त ऋतु में अर्थात् पोषमहीने में 'सीतं-शीतम्' ठंडी 'सव्वंगं सागम्' सर्वाङ्गको 'फुसइ-स्पृशति' स्पर्श करती है 'तत्थ-तत्र' तब 'मंदा-मंदा' कायर पुरुष 'रजजहीणा-राज्यहीना: राज्य भ्रष्ट 'खत्तिया व-क्षत्रिया इच क्षत्रीय के जैसे 'विसीयंति-विषीदंति' विषाद को प्राप्त होते हैं ॥४॥ अन्वयार्थ--जय हेमन्त मास में अर्थात् पौष के महीने में पूरी तरह शीत का स्पर्श होता है तब भारी कर्मों वाले माद साधु राज्य से भ्रष्ठ हुए क्षत्रियों के जैसे विषाद का अनुभव करते हैं ॥४॥ માને છે. જ્યારે પરીષહ અને ઉપસર્ગો આવી પડે છે, ત્યારે તે ગુરુકમ અને અલ્પસત્વ સાધુ ચારિત્રને ભંગ કરી નાખે છે. ૩ हुवे सूत्रा२ सयसनी ३क्षतानु प्रतिपाइन ४२ छ-'जया हेमंत' त्यहि शहाथ-'जया-यदा' न्यारे 'हेमतमासमि-हेमन्तमासे सन्त ऋतमा मर्थात पाष महीनामा 'सीत-शीतम्' 'सव्वगं-सर्वागम्' सर्वागने फसल -स्पृशति' २५ ४२ छे 'तत्थ-तत्र' त्यारे 'मंदा-मंदाः' २६५सय ५३५ 'रज्जहिणा-राज्यहिनाः' सय भ्रष्ट 'खत्तियाव -क्षत्रियाइव' क्षत्रियनी । 'विसीयति -विषीदति' विषाहनात थाय छे. ॥४॥ સત્રાર્થ-જ્યારે હેમન્ત ઋતુમાં–પિષ માસમાં ભયંકર ઠંડીનો અનુભવ કરવો પડે છે, ત્યારે ગુરુકમ મંદ (અજ્ઞાની) સાધુ પદભ્રષ્ટ થયેલા ક્ષત્રિની જેમ વિષાદનો અનુભવ કરે છે. પણ सू०२ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ . सूत्रकृतागचे टीका--'जया' यथा 'हेमंतमासंमि' हेमन्तमासे हेमन्तभती पोपमासादौ वा 'सीत' शीतं शैत्यम् 'सवंग' सर्वांगम् 'फुसइ' रपृशति 'तत्य' तत्र तदा तस्मिन् काले 'मंदा' मन्दानडाः, गुरुकर्माणः पुरुषाः । 'रजहीणा' राज्यभ्रष्टाः 'खत्तिया' क्षत्रियाः 'व' इव 'विसीयंति' विपीदन्ति ' कष्टमनुभवन्ति, यथा राज्यरहिताः क्षत्रियत्वजात्यभिमानिनः दुःखायन्ते, तथा हेमन्तत्रातौ पौष मासादौ अमन्दमन्दाऽनिलान्दोलितप्रबलशैत्यसंपर्क सति गुरुकर्माणः संयमकातराः पुरुषाः दुःखानुभवं कुर्वन्ति । “कुटुम्बकटुवागिव व्यथयते निळ.' अनेन हेमन्तकालिकशीतस्पर्शस्याऽतिदुस्सहत्वमुक्तमिति ॥४॥ धूलम्-पुढे गिम्हाहितारेणं विमणे सुपिशासिए । तस्थ मंदा निस्लीयति मच्छा अप्पोदये जहा ॥५॥ छाया---स्पृष्टो ग्रीष्माभितापेन चिमनाः सुपिपासितः । ___ तत्र मन्दा विषीदन्ति मत्स्या अल्पोदके यथा ॥२॥ टीकार्थ--जध हेमन्त ऋतु में, सम्पूर्ण शरीर में शीत का स्पर्श होता है, उस समय जड और भारी कौ चाले पुरुष, राज्यच्युत क्षत्रियों के सम्मान दुःख का अनुभव करते हैं । जैसे क्षन्धियत्व का अभिमान करने वाले पुरुष राज्य छिन जाने पर दुःखी होते हैं, उसी प्रकार शीतऋतु में तेज या धीमी-धीमी चलने वाली वायु के सम्पर्क से आन्दोलित प्रवल शीत के कारण संयम में कायर गुरुकर्मा पुरुष दुःख का अनुभव करते हैं । 'वायु कुटुम्ब के कटु वचनों के जैली व्यथा पहुंचाती है' इस प्रकार हेमन्त के समय का शीतस्पर्श अत्यन्न दुरसह कहा गया है ॥४॥ ટીકાઈ—-હેમન્ત ઋતુમાં જ્યારે આ આ શરીરે શીતને સ્પર્શ થાય છે. -જ્યારે હાડ ગાળી નાખે એવી કડકડતી ઠંડીનો અનુભવ કરવો પડે છે–ત્યારે ગુરુકમ સાધુ રાજયભ્રષ્ટ થયેલ ક્ષત્રિની જેમ દુખનો અનુભવ કરે છે. જેવી રીતે ક્ષત્રિયત્વનું અભિમાન કરનાર પુરુષ રાજ્ય ગુમાવી બેસવાથી વિષાદ અનુભવે છે, એ જ પ્રમાણે શિયાળામાં તેજ અથવા મન્દ ગતિથી વાતા પવનના સંપર્કને લીધે જે પ્રબળ ઠડીને અનુભવ કર પડે છે તેને કારણે, સંયમના પાલનમાં કાયર અને ગુરુકમ સાધુ પણ દુખને અનુભવ કરે છે. વાયુ કુટુંબીઓના કટુવચન જેવી વ્યથા પોંચાડે છે. એ જ પ્રમાણે હેમંતના સમયને શીતસ્પર્શ પણ અત્યન્ત દુસહ કહેવામાં આવે છે. ફા Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ संयमस्य रूक्षत्यनिरूपणम् ११ अन्वयार्थ:--(गिम्हाहितावेणं) ग्रीष्माभितापेन- ग्रीष्मकालिकोष्णेन (पुढे) स्पृष्टः (विमणे) विमना=खिन्नान्त:करणः (सुपिवासिए) सुपिपासिता हपार्लो. दीनो भवति (तत्थ) तत्र ग्रीष्मोपसर्ग प्राप्ताः सन्तः (मंदा) मन्दाकातराः (विसीयति) विपीदन्ति (अप्पोदर) अल्बोदके (जहा मच्छा) यथा मत्स्या विपीदन्ति तथैवेति ॥५॥ शीतस्पर्श का परीपह दु.खजनक होता है, यह कह कर अब उष्णपरीपह की दुस्सहता का निरूपण करते हैं शब्दार्थ-'गिम्हाहितावेणं-ग्रीष्माभितापेन' ग्रीष्म ऋतु के अभिताप से अर्थात् गर्मी से 'पुढे-स्पृष्टः' स्पर्श पाया हुवा विमणे-विमनः' खिन्न अन्तःकरणवाले अर्थात् उदास 'लुपिचालिए-सुपिपासित' और प्यास ले युक्त होकर पुरुष दीन हो जाता है, 'तत्थ-तत्र' इस प्रकार गर्मी का परीषद प्राप्त होने पर 'मंदा-मन्दाः' कायर पुरुष 'विसीयंतिविषीदन्ति' इस प्रकार विषादको अनुभव करते हैं, 'अप्पोदए-अल्पो. दके थोडे जलमें जहा मच्छा-यथा अत्स्याः ' जैग्ने मछली विषाद का अनुभव करती है ॥५॥ अन्वयार्थ-ग्रीष्मकाल की उष्णता से स्पृष्ट हुआ साधु खिन्न चित्त और विपासा से पीडित होता है। गर्मी के परीषह को प्राप्त झायर जन उसी प्रकार छटपटाते हैं जैसे चिना पानी की मछली ॥५॥ શીતસ્પર્શને પરીષહ દુઃખજનક હોય છે. તે પ્રકટ કરીને હવે સૂત્રકાર ઉષ્ણસ્પર્શની ‘સ્મહતાનું નિરૂપણ કરે છે– शहाथ-'गिम्हाहितावेणं- ग्रीष्माभितापेन' श्रीभ ऋतुन ममिताथी पति शमी या 'पुठे-स्पृष्टः' २५श पाम 'विमणे-विमन.' भिन्न मन्त: ४२वाये। अर्थात् स 'सुपिवासिए-सुपिपासितः' गने तरसथा युत्त थान । ५३५. हीन 23 14 छ. 'तत्थ-तत्र' २ रे सभी परीष प्रात थवाथी मंदा-मन्दाः' भूद ५३५ 'विसीयंति-विपीदन्ति' मेवा प्रारना विषाहना भनुम ४रे छे. 'अपदिए-अल्पोदके' या मा 'जहा मच्छा-यथा मत्स्या જેવી રીતે માછલી વિષાદને અનુભવ કરે છે. પ - સત્રાર્થ–જેવી રીતે પાણી વિના માછલી તફડે છે, એજ પ્રકારે શ્રીમ કાળની ઉષણતાથી પૃષ્ટ થયેલે અને પિપાસાથી વ્યાકુળ થયેલ ખિન્નતાનો અનુભવ કરે છે. પા Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतागसूत्रे टीका--'गिम्हाहितावेणं' ग्रीष्माभितापेन ग्रीनमासस्य ज्येष्ठमासादेः अभितापेनाऽतिशयितोष्णस्पर्शन 'पुढे' स्पृष्टः स्पर्श माप्तः पुरुषः 'विमणे' विमनाः विखिन्नान्तःकरणः 'सुपिशासिए' सुपिपासितः अतिशयितपिपासया क्लान्तः दीनो भवति । 'तत्थ तत्र ग्रीष्मसमये उष्ण परीपहं प्राप्ताः, 'मंदा' मन्दाः जडाः 'विप्रीयंति' विपीदन्ति, विषादमनुभवन्ति, 'जहा' यथा येन प्रकारेण 'मच्छा' मत्स्याः 'अप्पोदये' अल्पोदके स्वल्पे जले विपादमनुभवन्ति । यथाऽल्पजले मत्स्याः दुःखिनो भवन्ति, तथोष्णपरिपहेण मन्दाः दुःखभाजो भवन्ति ॥५॥ संपति भिक्षापरीपहमधिकृत्य मृत्रकारो ब्रूते-'सयादत्तेसणा' इत्यादि । मूलम्-सया दत्तेसणा दुक्खा जायणा दुप्पणोल्लिया। कम्मत्ता दुब्भगा चेव इच्चाहंसु पुढो जणा ॥६॥ छाया--सदा दत्तैषणा दुःखं याचा दुष्प्रणोद्या। ____ कसा दुर्भगाश्चैवेत्येवमाहुः पृथग् जनाः ॥६॥ टीकार्थ-ग्रीष्म के ताप से अर्थात् ज्येष्ठ माल आदि में तीन गर्मी के स्पर्श से पुरुष खिन्न मन हो जाता है और तेज प्यास लगने से दीन बन जाता है। उस ग्रीष्म के समय में उष्ण परीषह को प्राप्त कायर जन विषाद का अनुभव करते हैं। जैसे जल के अभाव में या अत्यल्प जल में मत्स्य दुःखी होते हैं । अर्थात् जैसे अल्प जल में मत्स्य दुःख से छटपटाते हैं, उसी प्रकार उष्ण परीषह से काघर साधु दुःखी होते हैं ॥५॥ - ટીકાર્થ– ગ્રીષ્મ ઋતુમાં–વૈશાખ અને જેઠ માસમાં-જ્યારે અસહ્ય ગરમી પડે છે, ત્યારે તેનાથી ત્રાસીને સાધુઓ મનમાં ઉદ્વેગને અનુભવ કરે છે. ઉષ્ણુતાને કારણે તીવ્ર તૃષાને અનુભવ કરવાનો પ્રસંગ આવે ત્યારે તેવા સાધુઓ વ્યાકુળ થઈ જાય છે. એટલે કે ઉણપરીષહ સહન કરવાને પ્રસંગ આવે, ત્યારે કાયર સાધુઓ વિષાદ અનુભવે છે. તેમની સ્થિતિ કેવી થાય છે, તે સૂત્રકારે આ પ્રકારે પ્રકટ કર્યું છે જેમ પાણી વિના અથવા અલ્પ પાણીમાં માછલી તરફડે છે, એજ પ્રમાણે ઉષ્ણપરીષહ આવી પડતાં કાયર સાધુ વિષાદ અનુભવે છે પા वे सूत्रार लिक्षापरीषनु नि३५] ४२ है-'सया दत्तेसणा' ध्या: - दत्तेसणा-दत्तैपणा' मन्यन Aruीधेस परतुने मन्वषय ४२ 'दुक्खा-दुःखम्' मा म 'च्या-सदा' पनना मत सुधी अर्थात् Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ भिक्षापरीषह निरूपणम् १३ अन्वयार्थः- (दत्तेा दत्तेपणा अन्यप्रदत्तवस्तुनोऽन्वेषणम् (दुक्खा) दुःखम् (सया) सदा जीवनपर्यन्तं साधूनां भवति तथा (जायणा) यांचा (दुष्पणोलिया) दुष्प्रगोधा याञ्चापहः अल्पसत्वेन दुःखेन प्रणोद्यते सद्यते ( पुढो जणा) पृथगूजनाः = नाकृतपुरुषाः ( इच्चा हंसु ) इत्येवमाहुः = कथयंति, (कम्नत्ता) कर्मार्त्ताः स्वकृतपूर्व कर्मणः फरक्का (दुन्नगा चेन) दुगा=भाग्यहीना इसे इति ||६|| टीका -- 'दत्तेसणा' दतेपणा 'दुक्खा' दुःखजनिका 'सपा' सदा आजीवनं साधूनां भवति 'जायणा' याचा 'दुपणोल्लिया' दुष्प्रणोद्या = दुःखेन सोढव्या अब सूत्रकार भिक्षा परीषह के विषय में कथन करते हैं'सया दत्तेसणा' इत्यादि । शब्दार्थ- 'दत्तेसणा- दत्तेषणा' अन्य के द्वारा दी गई वस्तु को ही अन्वेषण करना (दुक्खा - दुःखन् ' यह दुःख 'सया-लदा' जीवन पर्यन्त साधु को 'रहता है 'जायणा-यांचा' भिक्षाकी याचना करने का कष्ट 'दुष्पणोल्लिया - दुष्प्रणोद्या' असह्य होता है 'पुढो जणा-पृथक् जनाः प्राकृतपुरुष अर्थात् साधारण लोक 'इच्चाहंसु - एवमाहुः' ऐसा कहते हैं कि 'कम्मत्ता-कर्मार्त्ताः' ये लोक अपने पूर्वकृन पापकर्म का फल भोग रहे हैं 'दुभगाचेव - दुर्भगाश्चैव' तथा ये लोग भाग्यहीन हैं ॥ ६ ॥ " अन्वयार्थ साधुओं को दत्तेषणा का अर्थात् दूसरो के द्वारा प्रदत्त वस्तु को ही ग्रहण करने का दुःख सदैव सहन करना पडता है । याचना परीषद भी दुस्सह होता है । साधारण जन साधुओं को देख कर कहते हैं, ये अपने कर्मों से पीडित हैं भाग्य हीन है' || ६ || टीकार्थ-साधुओं को जीवनपर्यन्त दत्तेषणा का दुःख भोगना पडता है अर्थात् अदत्तादान के कारण सदैव दूसरों की दी हुई वस्तु से ही लवन पर्यंत साधुने र छे. 'जायणा-यांचा' लिक्षानी याथना श्वानुंष्ट दुप्पणोलिया- दुष्प्रणोद्या' असा थाय छे 'पुढो जणा-पृथक् जनाः ' आत पुष अर्थात् साधारण सो 'इच्चाहमु - पवमाहु' मे 'कम्मत्ता- कर्मार्त्ताः ' मा सोझे पोताना पूर्वईत पाय इण लोगवी रह्या छे. 'दुब्भगाचैव दुर्भगाश्चैव' तथा था बोडी लाग्यहीन छे. ॥ ॥ - સૂત્રા—સાધુએએ અન્યના દ્વારા પ્રદત્ત વસ્તુને ગ્રહણ કરવાનુ... દુઃખ સદા સહન કરવું પડે છે, તે કારણે યાચનાપરીષહ પણ દુસ્સડુ ગણાય છે. સામાન્ય લેાકે તે સાધુઓને જોઇને કહે છે— बोतेभनां भेथी पीडित छे, लाग्यहीन छे. ॥ ६॥ ટીકા”—સાધુઓ જીવનપર્યંત દનૈષણાનું દુઃખ સહન કરવું પડે છે, કારણ કે તે અદત્તાદાનના ત્યાગી હાવાને કારણે તેમને અન્યના દ્વારા Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे भवति । याञ्चापरीपहो हि अल्पसत्वानां दुःखेन प्रणोद्यते, सह्यतेभिक्षाऽतीवकष्टदायिनी भवति । तथाचोक्तम्-- "गतिभ्रंशो मुखे दैन्यं गात्रस्येन्दोर्विवर्णता।। मरणे यानि चिह्नानि तानि चिह्नानि याचके ॥१॥” इति । तावदेव स्वमानं स्थीयते, यावन किंचिद् याचतेः । तस्मात् याश्चा परीपहोऽतीय दुःख जनको भवति । तदेवं दुस्सहं याञ्चापरीवहं परिसह्य विगताऽभिमानमहा. सत्वज्ञानाद्यभिवृद्धये महापुरुषसेवितं पन्धानमव्रजतीति । आक्रोशपरीपहं श्लोका न अपरभागेन दर्शयति-"पुढो जगा" इत्यादि। निर्वाह करना पड़ता है। इसी प्रकार याचना परीषह भी उनके लिए दुस्सह होता है । अल्पसत्व प्राणी बड़ी कठिनाई ले उसे सहन कर पाते हैं । भिक्षावृत्ति अत्यन्त कष्टजलक होती है । कहा भी है-'गतिभ्रशो मुखे दैन्यं' इत्यादि। मृत्यु के समय जो चिह्न प्रकट होते हैं, वही चिह याचक में भी दिखाई देते हैं । उसकी गति अटक जाती है, मुख पर दीनता छा जाती है और चेहरा तेजोहीन हो जाता है ।' तभी तक मनुष्य का गौरव टिकता है जब तक वह किसी वस्तु की याचना नहीं करता। अतएव याचा परीषह अत्यन्त दुःखजनक होता है । महासत्व पुरुष इस प्रकार दुस्सह याचना परीषह को सहन करके ज्ञानादि की निरन्तर वृद्धि के लिए महापुरुषों द्वारा सेवित पथ पर चलते हैं। આપવામાં આવેલી વસ્તુ વડે જ નિર્વાહ ચલાવ પડે છે. આ પ્રકારને યાચનાપરીષહ પણ તેમને માટે દુસ્સહ થઈ પડે છે. જેનામાં આત્મબળ ઓછું હોય છે એવાં સાધુ બે મહામુશ્કેલીએ આ પરીષહ સહન કરે છે. આ પરીષહ અસહ્ય બનવાથી કઈ કઈ કમર સાધુએ સંયમને પરિત્યાગ પણ કરી દે છે. ભિક્ષાવૃત્તિ કેટલી કચ્છજનક હોય છે તે નીચેના લેકમાં भताभ भाव्यु छ. 'गतिभ्रंशो 'मुखे दैन्य' त्या6ि-मृत्युना समये रे ચિન્હો પ્રગટ થાય છે તે ચિહ્નો યાચકમાં પણ દેખાય છે. તેની ગતિ અટકી જાય છે, મુખ પર દીનતા છવાઈ જાય છે અને ચહેરો તેજહીન થઈ જાય છે” - જ્યાં સુધી માણસ કોઈની પાસે કઈ વસ્તુની યાચના કરતું નથી, ત્યાં સુધી જ તેનું ગૌરવ ટકે છે. તેથી જ યાચના પરીષહને અત્યંત દુસહ માનવામાં આવે છે. દૃઢ મનોબળવાળા પુરુષ જ યાચના પરીષહને સહન કરીને જ્ઞાનાદિની વૃદ્ધિ કરવા માટે મહાપુરુષે દ્વારા સેવિત માર્ગે આગળ વધે છે. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनो टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ भिक्षापरीपहनिरूपणम् १५ 'पुढो जणा' पृथग्जना. माकृतपुरुषाः साधारणलोका इत्थमाक्रोशन्ति। 'इच्चाहंसु' एवमाहुः अनेन प्रकारेण कथयन्ति । तथाहि-ये एते साधवः मलिनांगाः लुचितशिरसः क्षुधादिवेदनामग्नाः । ते-एते 'कम्मत्ता' कर्माः पूर्वजन्मनि अनुष्ठितैः कर्ममिराताः पूर्वजन्मनि स्वकृतकर्मणां फलमनुभवन्ति । अथवाकर्ममि:-कृष्णादिभिः आताः, तत्कत्तुमशक्ता उद्विग्नाः सन्तः साधवः संवृत्ता इति । तथा एते 'दुभगा दुर्भगा-भाग्यहीनाः सर्वैरेव पुत्रकलत्रादिभिः परि त्यक्ताः, अन्यत्र शरणमलब्ध्वा सायचः संवृत्ताः प्रनज्याधारिणो जाता इविः॥६॥ मूलम्-एए सद्दे अचायंता गामेसु नयरेसु वा। तस्थ मंदा विसीयंति संगाम मिव भीरुया ॥७॥ छाया--एतान् शब्दान् अशक्नुवन्तो ग्रामेषु नगरेषु वा । तत्र मन्दा विपीदन्ति संग्राम इव भीरुकाः ॥७॥ ___गाथा के उत्तरार्द्ध भाग में आक्रोश परीषह का उल्लेख किया गया है साधुओं को देखकर साधारण लोग इस प्रकार कहते हैं-इन साधुओं का शरीर मैला कुचैला है, इन्हों ने मस्तक नोच रक्खा है और ये क्षुधा की वेदना से पीडित हैं। ये बेचारे अपने कर्मों से दुःखी हो रहे हैं-पूर्वजन्म में उपार्जित अशुभ कर्मों का फल भुगत रहे हैं। अथवा ये कति हैं अर्थात् कृषि आदि कर्म करने में असमर्थ हैं, इसी कारण साधु बन गए हैं। ये अभागे हैं क्योंकि पुत्र पत्नी आदि सभी ने इनका परित्याग कर दिया है। जब कहीं शरण नहीं मिली तो साध बन गए ! दीक्षाघारी हो गए हैं ॥६॥ ગાથાના ઉત્તરાર્ધમાં આક્રોશ પરીષહને ઉલ્લેખ કરવામાં આવ્યું છે. સાધુઓને જોઈને સામાન્ય લેકે આ પ્રમાણે કહે છે-“આ સાધુઓનું શરીર ગંદુ છે, તેમણે કેશનું લંચન કરીને માથે મુંડો કર્યો છે અને તેઓ સુધાની પીડા સહન કરે છે. તે બિચારા તેમના પૂર્વોપાર્જિત કર્મોનું ફળ ભેગવી રહ્યા છે. અથવા તેઓ કમત છે” આ વાકયને અર્થ આ પ્રમાણે પણ કરી શકાય –તેઓ ખેતી આદિ કર્મ કરવાને અસમર્થ છે, તે કારણે જ તેઓ સાધુ બન્યા છે. તેઓ દુર્ભાગી છે, કારણ કે પુત્ર, પત્ની આદિ સૌએ તેમનો પરિત્યાગ કર્યો છે. કેઈ પણ જગ્યાએ આશ્રય નહીં મળવાથી તેઓ દીક્ષા લઈને સાધુ બની ગયા છે,’ ગાથા ૬ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ____ अन्वयार्थः--(गामेसु) ग्रामेषु (नयरेसु वा) नगरेषु वा (एए सहे) एतान् शब्दान् एतान् पूर्वोक्तानाक्रोशख्यान् नथा चौरचाटिकादिरूपान शब्दान् (अचायंता) सोटुमशक्नुवन्तः (तत्थ) तत्र-तस्मिन् आक्रोशे सति (मंदा) मन्दा अज्ञालघुप्रकृतयः (विसीयति) विषीदन्ति विमनस्का भवन्ति संयमाद्वा भ्रश्यन्ते (इव) यथा (संगामंमि) संग्रामे रणशिरसि (भीरुया) भीरुकाः विषीदन्ति ॥७॥ टीका--'गामेसु' ग्रामेषु 'नयरेसु वा' नगरेषु वा 'एए सद्दे अवार्यता' एतान् शब्दान् अशक्नुवन्तः एतान् पूर्वोक्तान आक्रोशरूपान् तथा चौरचाटि शब्दार्थ-'गामेसु-प्रामेषु' ग्रामों मे लयरेलु वा-नगरेषु वा अथवा नगरों में 'एए सद्दे-एतान् शब्दा' इन शब्दों को 'आचार्यता-अशक्नुवन्ता' सहन नहीं कर सकते हुए 'तत्य-तत्र उस आक्रोश वचनों को सुनकर 'मंदा-मन्दाः' मंदमतिक्षाले 'विसीयंति-विषीदन्ति' इस प्रकार विषाद करते हैं-'हच-यथा' जैसे 'संगामंमि-संग्रामे संग्राममें 'भीरुयाभीरुका' भीरु पुरुष विषाद करते हैं ॥७॥ ____ अन्वयार्थ--ग्रामों में अथवा नगरों में पूर्वोक्त आक्रोशरूप शब्दों को तथा 'यह चोर हैं, चोर है' इत्यादि शब्दों को सहन करने में असमर्थ होते हुये सन्दप्रकृति साधु विषाद को प्राप्त होते हैं या संयम से भ्रष्ट हो जाते हैं, जैसे संग्राम के शीर्ष भाग में भीरुजन विषाद को प्राप्त होते हैं ॥७॥ टीकार्थ--ग्रामों में या नगरों में पहले कहे हुये आक्रोश रूप शहाथ-'गामेसु-ग्रामेषु' गाभमा 'नयरेसु वा-नगरेषु वा' अथवा नगरामा 'एए सद्दे-एतान् शब्दान्' मा शहीने 'अचार्यता-अशन्क्रुवतः' सहन न री शzdi 'तत्य-तत्र' ते मोश क्या अर्थात् ४ वयनाने साजाने मंदा -मन्दाः' म भतिवाणा 'विसीयंति-विषीदन्ति' विघा ४२ छ 'इव-यथा' सी शत 'संगामंमि-संपामे' सयाममा मर्थात् युद्धमा 'भीरुया-भीरुकाः' भी३ ५३५ विषा 3रे छे. ॥७॥ આ સૂત્રાર્થ_આ સાધુ તેના કર્મોથી દુ:ખી છે” ઈત્યાદિ આક્રોશરૂ૫ શબ્દ તથા આ ચાર છે, આ ચાર (ાસૂસ) છે,” ઈત્યાદિ સામાન્ય લેકે દ્વારા ઉચ્ચારાતા શબ્દો સાંભળવાને અસમર્થ એ તે મન્દ પ્રકૃતિ સાધુ વિષાદ અનુભવે છે, અને જેવી રીતે સંગ્રામના ખરાના ભાગમાં સ્થિત કાયર પુરુષ વિવાદ અનુભવે છે અને સમરાંગણ છોડીને ભાગી જાય છે, એ જ પ્રમાણે મદમતિ સાધુ પણ સંયમના માર્ગેથી ભ્રષ્ટ થાય છે. મહા ટીકાથ–પૂર્વોક્ત આક્રોશ રૂપ શબ્દ તથા “આ ચોર છે, આ જાસૂસ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ वधपरीषहनिरूपणम् १७ कादिरूपान् सोढुमशक्नुवन्तः, 'मंदा' मन्दा=मन्दमतयोऽल्पसत्वाः, 'तत्थ' तत्र तादृशानोशादिरूप ग्रामकण्टकादि शब्दश्रवणकाले, 'विसीयंति' विषीदन्ति अतिशयेन दुःखमनुभवंति । 'व' यथा 'भीरुया' भीरुकाः कातरपुरुषाः 'संगामंमि' संग्रामे रणशिरसि चक्रकुन्तासिशक्तिनाराचाकुले स्टत्पटहशंखझल्लरीनादसमाकुले विषादं गच्छन्ति अयशः पटह-मंगीकृत्य पलायन्ते । ग्रामे नगरे वा विद्यमानोऽल्पमतिः साधुराकोशशब्दजनितं दुःखं तथाऽनुभवति, यथा संग्रामे कातरः पुरुषो दुःखमनुभवतीति भावः ॥७॥ • अतः परं वधपरीपहं सूत्रकारः दर्शयति-'अप्पेगे खुधियं' इत्यादि । मूळम्-अप्पगे खुधियं भिक्खं सुणी डंसइ लूसह । ____ तत्थ मंदा विसीयंति तेउ पुट्ठा व पाणिणो॥८॥ शब्दों को एवं 'यह चोर है, यह जासूस है' इत्यादि कहे जानेवाले शब्दों को सहन करने में असमर्थ होकर मन्दमति या अल्पसत्व साधु उस समय अर्थात् कानों में कांटे के समान चुभने वाले उन आक्रोश वचनों को सुनने के समय अतीव दुःख का अनुभव करते हैं । जैसे चक्र, कुन्त, असि शक्ति एवं नाराच (पाणों) से युक्त तथा बजते हुए ढोल शंख झालर आदि वाद्यों की ध्वनि से व्याप्त संग्रामशीर्ष में जैसे कायर पुरुष विषाद को प्राप्त होते हैं और अपयश सहन करके भी भाग खड़े होते हैं। तात्पर्य यह है कि ग्राम या नगर में धैर्यहीन साधु को आक्रोश पूर्ण वचन सुनकर उसी प्रकार दुख का अनुभव होता है जिस प्रकार संग्राम में कायर पुरुष को ॥७॥ છે, ઈત્યાદિ ગ્રામ્યજને અને નગરજનો દ્વારા ઉચ્ચારાતા શબ્દ સાંભળીને તે અલપમતિ અથવા અલ્પસર્વ સાધુ અત્યંત વિષાદ અનુભવે છે. પિતાના કાનમાં કાંટાની જેમ પીડા પહેચડનારા તે શબ્દો તેનાથી સહન થઈ શકતા નથી, તેથી આ પ્રકારના આકશ વચને સાંભળવાથી તેને ઘણું જ દુખ થાય છે જેવી રીતે ચક્ર, કુન્ત. ખડગ, બ ણ આદિથી યુક્ત અરિદળને જોઈને, હેલ, શંખ, ઝાલર આદિ વાદ્યોના ધ્વનિથી વ્યાપ્ત સંગ્રામના અગ્રભાગમાં સ્થિત કાયર પુરુષ ડરી જઈને અપયશની પરવા કર્યા વિના સંગ્રામમાંથી નાસી જવાને તૈયાર થઈ જાય છે, એ જ પ્રમાણે મન્દમતિ, અલ્પસર્વ સાધુ પણ પૂર્વોક્ત આક્રોશ વચનેને સાંભળીને વિષાદને અનુભવ કરે છે અને સ યમથી ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે. ગાથા છા सू० ३. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे छाया--अप्येकः क्षुधितं भिक्षु शुनि दशति लूषकः।। तत्र मन्दा विषीदन्ति तेजः स्पृष्टा व माणिनः ॥८॥ अन्वयार्थः--(अप्पेगे) अप्येकः (लूमए) लूषकः क्रूरः (खुधियं) क्षुधितं बुभु. क्षित भिक्षामटन्तं (भिक्खु) भिक्षुम् (सुनीदंशति) शुनी दाति भक्षयति (तत्थ) तत्र-श्वादिभक्षणे (मंदा) मंदा:-अज्ञाः अल्पसत्त्रतया (विसीयंति) विपीदन्तिदैन्यं भजन्ते (तेउपुट्टा) तेजः स्पृष्टा-अग्निना दह्यमानाः (पाणिणोव) माणिनो. जन्तइइवेति ॥८॥ इसके अनन्तर सूत्रकार वधपरीषह का वर्णन करते हैं'अप्पेगे खुधियं' इत्यादि। शब्दार्थ-'अप्पेगे-अप्येका' यदि कोई लसए-लूषक' क्रूर 'खुधियंक्षुधितम्' भूखे 'भिक्खु-भिक्षुम्' साधु को 'स्लुणी दंसनि-सुनीदशति' कुत्ता काटने लगता है तो 'तस्थ-तत्र' उस समय 'मंदा-मन्दाः' अज्ञ पुरुष 'विसीयंति-विषीदन्ति' इस प्रकार दीनता को पाता है की 'तेउ. पुट्ठा-तेजास्पृष्टाः' अग्नि के द्वारा स्पर्श किया हुआ 'पाणिणोव-प्राणिनइव' प्राणी घबराता है ।।८॥ ____ अन्धयार्थ--कोई क्रूर कुत्ता आदि प्राणी भूखे (भिक्षा के लिए भ्रमण करते) साधु को काट लेता है । तब कुत्ता आदि के काटने पर मंदसत्व साधु विषाद करता है-दीन बन जाता है, मानों उसे अग्नि का स्पर्श हो गया हो ! ॥८॥ वे सूत्रा२ १५ परीषनु ४थन ४२ छ-'अप्पेगे खुधियं' त्याह महा-'अप्पेगे-अप्येकाने 'लूसए-लुषकः ४२ 'खुधिय-क्षुधितम्' भूज्या भिक्खु-भिक्षुम्' साधुने 'सुणी दसति-शुनी दशति' इतरे। ४२७॥ साग त: 'तत्थ-तत्र' ते समये 'मंदा !-मन्दा:' २१ ५३५ ‘विसीयति-विषीदन्ति' भाभा हीनता युस्त मनी नय छ ? 'तेउपुट्ठा-वेजः स्पृष्टाः' मशिना वास २५ शेयर 'पाणिणो व-प्राणिन इव' प्राणी सराय छे. ॥८॥ સવાર્થ_ભિક્ષાપાસિને માટે ભ્રમણ કરતા ભૂખ્યા સાધુને કઈ કઈ વાર કેઈ ફૂર કૂતરા કરડે છે. આવું બને ત્યારે મન્દસર્વ સાધુ વિષાદ અનુભવે છે. અગ્નિને સ્પર્શ થઈ ગયે હોય એટલું દુઃખ તેને તે વખતે થાય છે. ૮ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थचोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ वधपरीपहनिरुपणम् १९ टीका--'अप्पेगे' अपि एकः, अपि शब्द: संभावनायाम् , एकः कश्चित् 'लूसए' लपका क्रूरपाणी, स्वभारत क्रूर एव । यथा कुक्कुरादिः । 'खुधियं क्षुधि तम्-क्षुधार्तम् 'भिक शिक्षुकम् , भिक्षया परिभ्रमन्तं साधुम् । 'सुणी दंसति' शुनि दशति, स्वकीयदन्तैः साधोरंग विलुपति । 'तत्य तत्र अस्मिन् आघातकाले 'मंदा' अल्पसत्यतया मन्दाः अक्षाः 'वसीयंति' विपीदन्तिम्-विषादमुपगच्छन्ति । क इत्र तत्राह 'तेउपुट्ठा' तेगोभिरग्निभिः स्पृष्टाः दह्यमानाः, 'पाणिगोव' प्राणिनो जन्तवः वेदनााः सन्तो यथा विवादमुपगञ्छन्ति । यातध्यानोपहताः गात्रसंकोचनं कुर्वन्ति, एवम् अल्पमतयः साधवोऽपि क्रूरमाणिभिः अभिद्रुताः संयमाद् भ्रश्यन्ति । यतो ग्रामकण्टकानामति दुःसहत्त्वादिति तात्पर्यम् ॥८॥ मूलम्-अप्पेगे पडिभासंति पडिपंथियमागया। पडियारगया एए जे एए एवंजीविणो॥९॥ टीकार्थ--यहां 'अपि' शब्द संभावना के अर्थ में है । कोई स्वभाव से ही क्रूर कुत्ता आदि जानवर भिक्षा के लिए अटन करते हुए भूखे साधु को काट खाता है, साधु के अंग में अपने तीक्ष्ण दांत गडा देता है, उस समय जो साधु धैर्यहीन या अल्पसत्व होते हैं, वह विषाद का अनुभव करते हैं, जैसे आग से जले हए प्राणी वेदना ले आत हो उठते हैं और आर्तध्यान से युक्त होकर अङ्गों को सिकोड लेते हैं। इसी प्रकार सत्वहीन साधु भी क्रूर प्राणी का उपद्रव होने पर संयम से गिर जाते हैं, क्योंकि ग्रामकंटक अर्थात् इन्द्रियों से प्रतिकूल स्पर्श आदि अत्यन्त ही दुस्सह होते हैं ।।८॥ ટીકાર્ય–આ સૂત્રમાં “કવિ પદ સંભાવનાના અર્થમાં વપરાયું છે કે કૅઈ વાર એવું પણું બને છે કે-ભિક્ષાને માટે ભ્રમણ કરતા સાધુને કઈ ફૂર કૂતરા આદિ જાનવર કરડે છે–સાધુના ચરણ આદિ અંગમાં તેની તીક્ષણ દાઢે ભેંકી દે છે. તે સમયે અપસવ અને શૈર્યહીન સાધુ વિષાદને અનુભવ કરે છે. જેવી રીતે અગ્નિથી દાઝેલું પ્રાણ વેદનાથી આત્ત થઈ જાય છે અને આર્તધ્યાનથી યુક્ત થઈને પિતાનાં અંગોને સંકેચી લે છે, એ જ પ્રમાણે ક્રર પ્રાણ દ્વારા ઉપદ્રવ થવાથી સત્વહીન સાધુ પણ સંયમના માર્ગેથી ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે, કારણ કે ગ્રામ કંટક-ઈન્દ્રિાને પ્રતિકૂળ સ્પર્શ આદિ-સહન કરવાનું કાર્યું ઘણું જ દુષ્કર ગણાય છે. ગાથા ૮ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूत्रकृताङ्गसूत्रे छाया--अपके प्रति मापन्ते प्रातिपथिकतामागताः । मतिकारगता एते य एते एवं जीविनः ॥९॥ अन्वयार्थः--(पडिपंथियमागया) प्रातिपथिकतामागता प्रतिपथः प्रतिक्ल त्वं तेन चरन्तीति प्रातिपथिकाः साधुविद्वेषिणस्तद्भावमागताः (अप्पेगे) अपि एके धर्मरहिताः (पडि भासंति) प्रतिभापते (जे एए) ये एते यतया (एवं जीविणो) एवं जीविनः (एए) एते (पडियारगया) प्रतिकारगमा प्रतिकारः-पूर्वकृतकर्मणोऽनुभवस्तं गताः प्राप्ता इति ॥९॥ टीका--'पडिपंथियमागया' प्रातिपथिकनामागताः, प्रतिकूलतां भाषन्ते ये ते मातिपथिकाः साधूनां विद्वेषकारकाः, तद्भावमागताः इति मातिपथिकता शब्दार्थ-'पडिपंथियमागया-प्रतिरधिकतामागताः' साधुजन के पी 'अप्पेगे-अपिएके' कोई कोई 'पडिभासंति-प्रतिभाषन्ते' कहते हैं कि "जे एए-थे एते' जो ये लोग एवं जीविणो-एवं जीविनः' इस प्रकार भिक्षावृत्ति ले जीवन धारण करते हैं 'एए-एते' ये लोग परियारगताप्रतिकारगताः' अपने पूर्वकृत पाएका फल भोग रहे हैं ॥९॥ ___अन्वद्यार्थ-कोई कोई अधर्मी और साधुओं से द्वेष रखने वाले लोग कहते हैं, इस प्रकार जीवनयापन करनेवाले ये साधु अपना बदला चुका रहे हैं अर्थात् पूर्वकृत कर्मों का फल भुगत रहे हैं ॥९॥ टीका--जो साधुओं के विरोधी है, प्रतिकूल वचन बोलते हैं, साधुओं के प्रति द्वेषसाब रखते हैं वे अनार्यों के सम्मान लोग साधु को Aval-'पडिपंथियमागया-प्रातिपथिकतामागताः' साधु सनना देषी 'अपेगे-पिएके' | 'पडिभासंति-प्रतिभाषन्ते' ४ छ है 'जे एए-ये एते' २ मा साधुमे। ‘एवंजीविणा-एव जीविनः' मा ४२ मिक्षावृत्तिथी वन धारण ४२ छे. 'एए-एते' २॥ माणुसे'परियारगता-प्रतिकारगताः' पाताना पूर्व કૃત પાપનું ફળ ભેગવી રહ્યા છે. સેલા વાઈ—કઈ કઈ અધમ અને સાધુઓનો દ્વેષ કરનાર લોકો કહે છે કે “આ પ્રકારે જીવન વ્યતીત કરતાં આ સાધુએ પૂર્વકૃત કર્મોને બદલે ચુકવી રહ્યા છે–ફળ ભેગવી રહ્યા છે.” પલા ટકાથ–સાધુએના વિરોધીઓ-સાધુઓ પ્રત્યે દ્વેષભાવ રાખનારા અનાર્ય લેક જેવા માણસે સાધુઓને જોઈને આ પ્રકારનાં પ્રતિકૂળ વચને બોલે છે Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ वधपरीषहनिरूपणम् २१ मागताः कथंचित् प्रतिपथइव द्रष्टारः 'अप्पेगे' अपि एके, अनार्यकल्पाः 'पडिभासंति' प्रतिभाषन्ते, एवं त्रुवते । किं नुस्ते-तत्राह-'जे एए' ये एते साधवः । 'एवं जीविणो' एवम् अनेन प्रकारेण भिक्षावृत्या जीवनयात्रां निवर्तयन्तः इमे यतयः । 'पडियारगया' प्रतिकारगता =स्वकीयपूर्वकृत कर्मणां फळापभु जन्ते । केचित साधविद्वेपकारिणो भिक्षार्थ साधुं दृष्ट्वा इत्थं वदन्ति, ये एते साधयो लुचितशिरसोऽइत्तदानाः परगृहाणि परिभ्रान्ति । इमे सर्वभोग चिताः दुखितं जीवन जीवन्ति । सर्वथा इमे भाग्यरहिताः परजन्मनि कृतमशुभकर्माऽनुष्ठान तस्यैवं फलं परगृहादौ भिक्षावृत्या जीवनं संपादयन्तीति ॥१॥ मूलम्-अप्पेगे वइ जुजइ नगिणा पिंडोलगाहमा । मुंडा कडू विणटुंगा उज्जल्ला अलमाहिया ॥१०॥ छाया--अप्येके बचो युञ्जन्ति नग्नाः पिण्डोलमा अधमाः । मुण्डाः कण्डूविनष्टाङ्गा उज्जल्ला असमाहिताः ॥१०॥ देखकर इस प्रकार भाषण करते हैं-'भीख मांग कर जीवन व्यतीत करने वाले ये साधु अपने पूर्वकृत अशुभ कर्म का फल भोग रहे है कोई साधुढेपी भिक्षार्थ निकले साधु को देख कर कहता है-'इन सिर नोंचने वाले साधुनों ने पहले दान नहीं दिया है, इसी कारण ये घर घर भीख के लिए भटकते फिरते हैं । ये समस्त भोगों से वंचित हैं और दुःखमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। ये भाग्यहीन है । पूर्वजन्म में अशुभ कर्म करके आए हैं, उसी का यह फल है कि पराए घरों में भीख मांग कर इन्हें प्राणों का निर्वाह करना पड़ता है ॥९॥ शब्दार्थ-'अप्पेगे-अपके' कोई कोई पुरुष 'वह जुजंति-वचो युंजंति' कहते हैं कि नगिणा-नग्न' ये लोग नंगे हैं 'पिंडोलगा– ભીખ માગીને જીવન વ્યતીત કરનારા આ સાધુએ તેમના પૂર્વકૃત અશુભ કર્મોનું ફળ ભેગવી રહ્યા છે... ભિક્ષા પ્રાપ્તિ માટે નીકળેલા સાધુને જોઈને કઈ સાધુ દેવી માણસે એવું કહે છે કે-“આ કેશલુચન કરનારા સાધુઓએ પૂર્વભવમાં દાન દીધાં નથી, તે કારણે તેમને ભિક્ષાને માટે ઘેર ઘેર ભટકવું પડે છે. તેઓ સઘળા ભેગોથી વચિત છે અને દુઃખી જીવન વ્યતીત કરી રહ્યા છે. તેઓ ભાગ્યહીન છે. પૂર્વજન્મના અશુભ કર્મોના કારણે તેમને પારકા ઘરોમાં ભ્રમણ કરીને ભીખ માંગીને ગુજરાન ચલાવવું પડે છે ગાથા લા - Awai -'अप्पेगे-अप्येके' 5 पु३५ 'वइ जुंजंति-वचो युति' छ । 'नगिणा-नग्नाः' मा all ना छे. "पिंडोलगा-पण्डोलगा' oilanet Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - सूत्रकृताङ्गसूत्रे ____ अन्वयार्थ:--(अप्पेगे) अप्येके केचन पुरुपाः (व जुंजइ) वचो युजति वाचं भाषन्ते तद्यथा (नगिणा) नग्ना एते जिनकल्पिकादयः तथा (पिंडोलगा) विण्डोलकाः परपिण्डपार्थकाः (अहमा) अधमा:-मलमलिनदेहाः (सुंडा) मुण्डाः लुंचित शिरसः (कंडूविणटुंगा) कंडुविनष्टांगा: कण्डूकृतक्षतैः विकृतशरीराः (उज्जल्ला) उज्जल्लाः उद्गतः जल्ला मलं शुष्कमस्वेदो वा येषां ते उज्जलाः कठिनमलयुक्तशरीरका यथा तथा (असमाहिया) असमाहिताः अशोभना वीमत्सा वा इत्थं कथयन्तीति ॥१०॥ ____टीका-'अप्पेगे' अप्येके एके अनार्यतुल्याः पुरुषाः साधूनधिकृत्य 'वइझुंजई' वचो युञ्जन्ति वाचमुदीरयन्ति, कीदृशीं वाचमुदीरयन्ति, तत्राह-'नगिणा' पिण्डोलगाः' पर पिंडके इच्छुक हैं 'अहमा-अधम:' अधम हैं 'मुंडामुण्डाः' मुण्डित हैं 'कंदविणटुंगा-कंदूविनाष्टांगाः' कंदूरोगसे इनके अङ्ग नष्ट होगये हैं 'उज्जल्ला-उज्जल्लाः' ये शुष्क पसीने युक्त और 'अस. माहिया-असमाहिता' अशोभन अर्थात् बीभत्स हैं ऐसा कहते हैं ॥१०॥ ____ अन्वयार्थ-साधु को देखकर कोई कोई कहते हैं, ये नग्न हैं (जिनका ल्पिक आदि) पराये पिण्ड की प्रार्थना करने वाले हैं, अधम हैं मलीन शरीरवाले हैं, मुडित हैं, खुजली के कारण इनका शरीर क्षत विक्षत हो रही है, मैल जमाहुओ है, ये पसीने से तर हो रहे हैं या इनका शरीर कठिन मल से युक्त है, ये कैसे अशोभन या बीभत्स दिखाई देते हैं ? ॥१०॥ टोकार्थ-अनार्यों के सदृश कोई कोई पुरुष साधुओं के सम्बन्ध में इस पिन २ . 'अहमा-अधमाः' मधम छ मुंडा- मुण्डा.' भुलित छे. 'कविणटुंगा-कंडूविनष्टांगाः' ४'डू गथी तमना A1 नष्ट ७ गया छे. 'उज्जल्ला-उजल्लाः' मा सशु परसेाथी युक्त भने 'असमाहिया-असमाहिताः' मलिन अर्थात् मालास छ माई डे छ ॥१०॥ સુવાર્થ-જિનકલ્પિક આદિ સાધુઓને જોઈને કોઈ કોઈ માણસો એવું કહે है-'म न छ, ५२राया पिंडने (मारने) माटे प्रार्थना ४२ना। छ, અધમ છે, મવીન શરીરવાળા મુંડિત છે, ખુજલીને કારણે તેમનું શરીર ક્ષત વિક્ષત થઈ ગયું છે, તેમના શરીર પર મેલને થર જામી ગયે છે, તેમનું શરીર પરસેવાથી તરબળ છે, અથવા તેમનું શરીર કઠણ મેલથી યુક્ત છે. તેઓ કેવાં ડેળ અને બીભત્સ દેખાય છે૧ ટીકાઈ– અનાર્યોના જેવા રવભાવવાળા લેકે સાધુઓને અનુલક્ષીને આ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ वधपरीषहनिरूपणम् २३ नग्ना एते जिनकल्पिकादयः वस्त्ररहिताः । 'परपिंडोलगा' परपिण्डोलकाः परपिण्डमार्थकाः सन्ति । तथा 'अहमा' अधमा:, मलमलिनत्वात् निन्दिताः। तथा (मुंडा) मुण्डा टुंचित केशाः तथा 'कंडूविणटुंगा' कण्डूविनष्टाङ्गाः कण्डूमिः खर्जनः विनष्टानि अगानि येषां ते कण्डविनष्टाङ्गाः, कण्डूकृतरेखाभिः विकृतशरीराः । करकण्डवत् सनत्कुमारवत् विनष्टशररीराः । तथा 'उज्जल्ला' उज्जल्ला:उद्गतः सलग्न जल्ला कठिनमल येषां ते उज्जल्लाः । तथा 'असमाहिया' अस. माहिता: अशोभनाः दुष्टा वा माणिनामसमाधिमुत्पादयन्ति । कदाचित् कुपुरुषा जिनकल्पिसाधुं दृष्ट्वा एवं वदन्ति यदीमे परपिण्डोपभोक्तारः नग्ना अधमाश्च तथा इमे मुण्डिताः कंडूरोगादिना विनष्टाङ्गा मलयुक्तबीभत्सवेषयुक्ताः सन्तीति भावः ॥१०॥ प्रकार के वचनों का प्रयोग किया करते हैं ये जिनकल्पिक आदि नग्न हैं, ये पराये आहार की प्रार्थना करते हैं, अलीन होने के कारण ये अधम निन्दित हैं। ये मुण्डिन है खुजली के कारण इनके अंग खराध हो रहे हैं खाज की रेखाओंने इनके शरीर को विकृत कर दिया है ? करकण्डू या सनत्कुमार के समान विनष्ट शरीर वाले हैं ? इनके शरीर पर जमा हुआ मैल चिपका है ? ये अशोभन हैं दुष्ट हैं, प्राणियों को असमाधि उत्पन्न करते हैं। तात्पर्य यह है कि कभी कभी कुपुरुष जिनकल्पी साधु को देख कर कहते हैं, ये परान्नजीवी हैं, नग्न हैं, अधम हैं, सिरमुंडे हैं, खुजली आदि से इनके अंग खराब हो रहे हैं मलीन बीभत्स वेष वाले हैं ॥१०॥ પ્રકારનાં વચનનો પ્રયોગ કરે છે–આ જિનકલ્પિક આદિ સાધુઓ નગ્નાવસ્થામાં રહે છે. તેઓ અન્યની પાસે અહારાદિની ભીખ માગે છે. મલીનતાને કારણે તેઓ અધમ-અપ્રીતિકર લાગે છે ! તેમને માથે મુંડે છે. ખુજલીને કારણે તેમનાં અંગો ખરાબ થઈ ગયાં છે-શરીર પર વારંવાર ખ જવળવાને લીધે તેમનું શરીર ક્ષતવિક્ષત થઈ જવાને લીધે વિકૃત થઈ ગયું છે! તેઓ કરક અથવા સનસ્કુમારના સમાન વિનષ્ટ શરીરવાળા (ક્ષત વિક્ષત યુક્ત શરીરવાળા થઈ ગયા છે. તેમના શરીર પર મેલના પોપડા જામ્યા છે. તેમને દેખાવ અશોભન (સુંદરતા રહિત) અને બીભત્સ (અણગમાં પ્રેરે તે) અથવા અસમાધિ જનક છે. આ કથનનો ભાવાર્થ એ છે કે-કયારેક કઈ કઈ કપુરુષ જિનકલ્પિક સાધુઓને જોઈને એવું કહે છે કે-આ સાધુઓ પરન્નજીવી, નગ્ન અને અધમ છે, તેઓ માથે મુંડાવાળા અને ખુજલીને કારણે ખરાબ અંગો ળા છે, તથા તેઓ મલીન અને બીભત્સ દેખાવવાળા છે. ગાથા ૧છે Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे शूलम्-एवं विपडिबन्नेगे अप्पणा उ अजायणा । तमाओ ते तमं जति मंदा मोहेण पाउंडा ॥११॥ छाया--एवं विप्रतिपन्ना एके आत्मना तु अज्ञाः । तमस्ते तमसो यान्ति मन्दा मोहेन मावृताः ॥११॥ अन्वयार्थः--(एवं) एवमनेन प्रकारेण (विप्पडिवन्ना) विपतिपन्नाः साधु सन्मार्गहें पिणः (एके) एके केचन-अनार्याः (अध्पणा उ) आत्मना तु (अजायणा) अज्ञाः विवेकाविज्ञा: (मोहेन पाउडा) मोहेन प्रावृताः मोहेन मियादर्शनरूपेण मावृता आच्छादितमतयः (ते) ते (माओ) तमस: अज्ञानरूपान्धकारात् (तमे) तमा उत्कृष्टमज्ञानान्धकार (जति) यान्ति गच्छन्तीति ॥११॥ ___ शब्दार्थ-एवं-एवम्' इस प्रकार विप्पडिबन्ना-विप्रतिपन्नाः साधु और लन्मार्ग के द्रोही 'एगे-एगे' कोई कोई 'अप्पणा उ-आत्मना तु' स्वयं 'अजायणा-अज्ञाः' अज्ञ जीव 'मोहेण पाउडा-मोहेन प्रवृताः' मोह से ढके हुए अर्थात् मिथ्यादर्शन से ढकी हुइ मनिघाले हैं 'ते-ते' वे 'तमाओ-तबला' अज्ञान रूप अंधकारसे तमं-तम.' उत्कृष्टः अज्ञान रूपी अन्धकार को 'जति-घान्ति' प्रवेश करते हैं ॥११॥ । ___ अन्वयार्थ-जो लोग इस प्रकार साधु ओं के विरोधी हैं, अनार्य है, विवेकविकल हैं, मोह से अच्छादितभति वाले हैं, ते वे अज्ञान से अज्ञान की ओर जाते हैं अर्थात् अज्ञानाधिकार से उत्कृष्ट अन्धकार की दिशा में अग्रसर होते है ।।११।।। शार्थ - ‘एवं-एवम्' या प्रमाणे 'विप्पडियन्ना-विप्रतिपन्नाः साधु भने सभागना दाही 'एके-एके' | 'अपणा उ-आत्मना तु' पाते 'ज.. यणा-अज्ञाः' अज्ञ 94 'मोहेण पाउहा- मोहेन प्रवृताः' माथा ढiसा छ अर्थात् मिथ्या नथी ढासी मति छे 'ते-ते' तसा 'तमाओ-तमसे:' अज्ञान ३५ माथी 'तमं-तमः' उत्कृष्ट मझान ३५ी मारने 'जंति-यन्ति' प्राप्त ४२ छे. ॥११॥ સુત્રાર્થ–જે લેકે આ પ્રકારે સાધુઓના વિરોધી હોય છે, અનાર્ય અને વિવેકથી વિહીન હોય છે, અને મેડથી આચ્છાદિત મતિવાળા હોય છે, તેઓ એક અજ્ઞાનમાંથી બીજા અજ્ઞાન તરફ જાય છે એટલે કે અજ્ઞાન રૂપ અંધકારમાં ડૂબેલા તે લકે નરક અદિ રૂપ ઉત્કૃષ્ટ અંધકારની દિશામાં અસર થાય છે. ગાથા ૧૧ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ३ उ. १ वधपरीषनिरूपणम् २५ टीका - - ( एवं ) एवम् = उपर्युक्तरीत्या 'गे' एके = अपुण्यकर्माणिः धर्ममर्म विवर्जिता अनार्याः 'विप्पविना' विपतिपन्ना: साधूनां मोक्षमार्गस्य च मद्वेष कारकाः, साधुद्वेषकारकाः की शास्तत्राह - 'अप्पणा' आत्मना स्वयम् 'उ' तु 'अजायणा' अजानन्तोऽज्ञाः धर्माचरणवर्जिताः, 'तपाओ' तमसः अज्ञानरूपात् अन्धकारात् । 'तमं' तनः = उत्कृष्ट अन्धकारमज्ञानम् 'जंति' यान्ति प्राप्नुवन्ति, नादपि नीचां गतिं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः । कथं ते अधनां गतिं प्राप्नुवन्ति तत्राह - मंदा इति । मन्दा यतो ज्ञान वरणीयादिकर्मणा व्याप्ताः । अतोऽधो गति गच्छन्ति । हेत्वन्तरनप्याह - 'मोहेण पाउड ।' इति मोहेन मिथ्यादर्शनरूपेण मावृताः आच्छादिताः, अवान्यायाः साधुविद्वेषकारिणः कुमार्गमाश्रयन्ति । एकं चक्षुर्विवेकः द्वितीयं चक्षुर्विवेकिना सह सहवासः एतद्वयं यस्य नास्ति स एव श्वतोन्धः एतस्य यदि कुमार्गे प्रवृत्तिर्भवेत्तदा तस्य कोपराध टीकार्थ- इस प्रकार जो लोग पापकर्मी हैं, धर्म के मर्म से अनभिज्ञ हैं अनार्य हैं साधुओं के और मोक्षमार्ग के द्वेषी हैं, स्वयं अज्ञान हैं और धर्माचरण से रहित हैं, वे अज्ञान रूप अन्धकार से उत्कृष्ट अज्ञान को प्राप्त होते हैं अर्थात् नीच से नीच तर गति प्राप्त करते हैं । उन्हें अत्रम गति की प्राप्ति क्यों होती है, इसका उत्तर यह है कि वे मन्द हैं, ज्ञाना वरणीय आदि कर्मों से ग्रस्त हैं, इसी कारण अधोगति प्राप्त करते हैं । अधोगति प्राप्त करने का दूसरा कारण यह है कि वे मिथ्यादर्शन रूप मोह के द्वारा आच्छादित हैं । इस कारण वे अन्धे के समान हैं साधुओं से द्वेष करते हैं कुमार्ग का अवलम्बन करते हैं । एक चक्षु विवेक है और दूसरी चक्षु विवेकी जन के साथ सहवास 4 ટીકા—આ પ્રકારે જે લેાકેા પાપકમી છે, ધર્માંના થી અનભિજ્ઞ છે, અનાય છે, સાધુએના અને મેક્ષમાના દ્વેષી છે સ્વય. મજ્ઞાન છે અને ધર્માચરણથી રહિત હાય છે, તેએ અજ્ઞાનરૂપ અધકારમાંથી ઉત્કૃષ્ટ અધકારમાં જાય છે એટલે કે નીચ ગતિમાંથી નીચતર ગતિમાં જાય છે શા કારણે તેમને અધમ ગતિની પ્રાપ્તિ થાય છે? તેએ! મન્ત્ર છે, જ્ઞ'નાવરણીય આદિ કનૈસઁથી ગ્રસ્ત છે, તે કારણે તેમને અધોગતિની પ્રાપ્તિ થાય છે, અધેાગતિ પ્રાપ્ત થવાનું ખીજુ` કે રણુ એ છે કે તેએ મિથ્યાદન રૂપ મેહ વડે આચ્છાદિત છે તે કારણે તેઓ આંધળ જેવાં હાવાને કારણે સાધુએ પ્રત્યે દ્વેષભાવ રાખે છે અને ક્રુમા' અવલ મન કરે છે વિવેક એક ચક્ષુ સમ'ન છે અને વિવેકીનાને! સહવાસ ખીજા ચક્ષુ सू० ४ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे इति तदुक्तम्-- "एक हि चक्षुरपलं सहजो विवेकः तद्वद्भिरेव सह संसतिद्वितीयम् । एतद्वयं भुवि न यस्य स तत्वतोऽन्धः तस्याप्पमार्गचलने खलु कोऽपराधः ॥१॥" एवं साधुमिः सह विद्वेषं कुर्वन्तः सन्मार्गादपि गुप्यन्तेऽज्ञानिनः मोहाच्छादिताः अनार्या एकस्मादज्ञानानिर्गत्याऽज्ञानाऽन्तरं नरकादि रूपां दुर्गति गच्छन्ति, विवेकशून्यत्वादिति भावः ॥११॥ फरना है। जिसके यह दोनों ही चक्षु नहीं है वही वास्तव में अन्धा है। ऐला मनुष्य यदि कुमार्ग में प्रवृत्त हो तो उसका क्या अपराध है ? कहा भी है-'एकं हि चक्षुरमलं सहजो विवेकः' इत्यादि । 'सहज स्वाभाविक विवेक एक-निर्मल नेत्र है और विवेकी जनों का लहवाल (समानम) दुसरा नेत्र है। यह दोनों ही नेत्र जिले प्राप्त नहीं है, वास्तव में वही इस भूनल पर अंधा है। वह अगर अपथगामी होता है तो उस वेचारे का क्या अपराध है ? अर्थात् उसका कुमार्गगामी होना तो स्वभाविक ही है।। इस प्रकार साधुनों के प्रति द्वेष रखने वाले, सन्मार्ग से द्रोह करने वाले, अज्ञानी, मोह ले घिरे हुए अनार्य जन एक अज्ञान से निकल कर नरकगति आदि रूप दूसरे अज्ञाज को पाप्त करते हैं, क्योंकि वे विवेक रहित होते हैं ॥११॥ સમાન છે જેમને આ બને ચક્ષુ હોતાં નથી, તેઓ જ ખરી રીતે આંધળા છે. એ માણસ જે કુમાર્ગે પ્રવૃત્ત થાય, તો તેને શો અપરાધ ! કહ્યું પણ छ -'एकं हि चक्षुरमलं सहजो विवेक.' इत्याहि “વાભાવિક વિવેક એક નિર્મળ નેત્ર રૂપ છે. અને વિવેકી જનોને સહવાસ બીજા નેત્ર રૂપ છે. આ સંસારમાં જેને આ બે નેત્રની પ્રાપ્તિ થઈ નથી તેને જ વાસ્તવિક રૂપે તે અંધ કહી શકાય છે, જે આ, બને પ્રકારના નેત્રના અભાવવાળો માણસ કુમાર્ગગામી બને, તે તેને શે અપરાધ! એટલે કે એ માણુસ કુમાર્ગગામી બને તે સ્વાભાવિક જ છે.. આ પ્રકારે સાધુઓ પ્રત્યે દ્વેષ રાખનાર સન્માગને દ્રોહ કરનાર અજ્ઞાની, મેહથી ઘેરાયેલા અજ્ઞાન માણસ એક અજ્ઞાનમાથી નીકળીને નરકગતિ આદિ રૂપ બીજા અજ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરે છે, કારણ કે તેઓ વિવેકરહિત હેય છે. ગાથા ૧૧ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्र. अ. ३ उ. १ देशमशकादिपरीपहनिरूपणम् २७ , दंशमशकादि परीरहमाह-'पुढो य' इत्यादि । मूलम्-पुट्रो य दंसमसएहिं तणफालमचाइया। न मे दिट्टे परे लोए जइ परं मरणं सिया ॥१२॥ छाया--स्पृष्टश्च दंसमशकैस्तृगस्पर्शमशक्नुवन् । न मया दृष्टः परलोको यदि परं मरणं स्यात् ॥१२॥ अन्वयार्थ :--(दसमसएदि) दंशमशकैः (पुट्ठो) स्पृष्टश्च मक्षितः तथा (तणफासमचाइया) तृणस्पर्शमशक्नुवन् निष्किचनत्वात् तृणेषु शयानः तत्स्पर्शमशक्नुवन् कदाचिदेवं चिन्तयेत् (मे) मया (परे लोए) परो लोकः स्वर्गादिरूपः (न दिखें) दंश मशक आदि परीषहों का कथन करते हैं-'पुट्टो थ' ' शब्दार्थ-'दंसमसएहि-दंशमशकै, देश और मशकों द्वारा 'पुट्ठोस्पृष्टः' स्पर्श किया गया अर्थात् काटा गया तथा 'तणफासमचाइयातृणस्पर्शमशक्नुवन्' तृणस्पर्श को नहीं सहसकता हुआ साधु ऐसा भी विचार कर सकता है कि 'मे-मया मैने 'परलोए-परलोक' स्वर्गादि रूप परलोक को तो 'न दिढे-न दृष्ट:' प्रत्यक्ष रूप से देखा नहीं है 'परंपरंतु' तथापि 'जह-यदि' कदाचित् 'भरणं लिया-मरणं स्यात्' इस कष्ट से मरणती स्पष्ट दिखता है और कोई फल दीखता नहीं है।॥१२॥ । 'अन्धाधे-देशमशक परीषह अर्थात् डांस मच्छरों के डंसने पर तथा तृगस्पर्श परीषह को लहन न करलकने के कारण अर्थात् अकिंचन होने से घास पर शयन करते हुए उसके कठिन स्पर्श को सहन न कर सकने से साधु कदाचित् इसप्रकार विचार करे परलोक तो मैंने देखा હવે સૂત્રકાર ડાંસ, મચ્છર આદિ દ્વારા આવી પડતાં પરીષહનું ४थन ४२ छ–'पुट्ठो य' त्या शा-'दंसमसपहि-दशमशकैः' । अनेभश द्वारा 'पुढो-स्पृष्टः' २५४२वामां मावसमर्थात् ३२७वाभां भाव तथा 'तण फासमचाइयातृणस्पर्शमशक्नुवन्' तृणना २५शन सहन न ४ शपायाको साधु सेवा पियार ४२छ 'मे-मया मे परे लोए-परो लोक.'२१ वगेरे ३५ ५२ख नतो 'न दिवे-न दृष्ट.' प्रत्यक्ष ३५थी नया नया 'परं-पर' al ५ 'जइ-यदि' हाय 'मरण सिया-मरणं स्यात्' माथी भए ता २५ट नेवाय छ भने हेमातुनथी. ॥१२॥ 'સૂત્રાર્થ–દંશમશક પરીષહ એટલે કે ડાંસ, મચ્છર આદિ જ તુ કરડવાથી જે ત્રાસ સહન કરવું પડે છે તે ત્રાસ સહન કરવાને પ્રસંગ આવે ત્યારે તથા તૃણસ્પર્શ પરીષહને સહન ન કરી શકવાને કારણે (અકિંચન હોવાને કારણે ઘાસ પર શયન કરતી વખતે તેના કઠિન સ્પર્શ સહન ન કરી શકવાને કારણે) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतागसूत्रे न दृष्टः प्रत्यक्षेण नोपलब्धः (परं) परन्तु (नई) यदि कदाचित (मरणं सिया) भरणं स्यात् अनेन क्लेशेन मरणमेव स्यात् नान्यत्फलं शिमपीति ॥१२॥ ___टीका--'दंशमसएहि दंशमशः 'पुट्ठो' स्पृष्टः कदाचिदंशमशकादिवहुले कोकणादिनदेशे विहरन साधुः दंशमशदष्टो भवेत् । तथा-'तणफासमचाइवा' तृणस्पर्शमशक्नुवन् तृणादौ शयनं कुर्वन् तदीयं कठोरं स्पर्श सोढुमशक्नुवन् । आर्ताः सन् एवं विचिन्तये परलोकप्राप्तये मया प्रत्रज्या गृहीता, तथा एतानि दंशमशकादि जनित दुःखानि अपि सोढानि । परन्तु स परलोक 'न मे दिट्टे' मया न दृष्टः प्रत्यक्षेण, न वा परलो के अतुमानाद्यपि विद्यते । अव्यभिचरित हेतोरभावात् । अतः परं केवलम् । 'जई' यदि 'मरणं' मृत्युरेस 'सिया' स्यात् । नहीं है, परन्तु कदाचित् इस क्लेश से मेरा मरण हो जाएगा । इस कष्ट को सहन करने का अन्य कोई फल नहीं है' ॥१२॥ टीकार्थ--जहां डांस और मच्छर बहुप्रमाण से होते हैं, ऐसे कोंकण आदि प्रदेशों में विचरते हुए साधु को डांस मच्छर डंसते हैं। कभी कभी घास आदि पर शयन करना पडता है तो उसका कठोर स्पर्श सहा नहीं जाता, ऐसी स्थिति में पीडा का अनुभव करते हुए साधु कदाचित् ऐसा विचार करे-परलोक में सुख की प्राप्ति के लिए मैंने दीक्षा अंगीकार की और डांस मच्छरों के काटने के कष्ट भी सहन किये । मगर वह परलोक मैंने प्रत्यक्ष ले देखा नहीं। उसके विषय में अनुमान प्रमाण भी विद्यमान नहीं है, क्योंकि अन्यभि वारी (निदोष) हेतु का अभाव है। अतः मरना ही पड़ेगा। કોઈ અલ્પસર્વ સાધુ કયારેક આ પ્રકારને વિચાર કરે છે– પરલેક તે મેં જે નથી, પરંતુ આ કહેશથી મારું મૃત્યુ થઈ જશે. આ કષ્ટને સહન કરવાનું બીજું કઈ પણ ફળ મને દેખાતું નથી. ૧૨ ટીકાર્ય–જ્યાં ડાંસ, મચ્છર આદિ જંતુઓ વિશેષ પ્રમાણમાં હોય છે. એવાં કાંકણ આદિ પ્રદેશમાં વિચરતા સાધુઓને ડાંસ, મચ્છર આદિ કરડે છે. ક્યારેક તેને ઘાસ આદિ પર શયન કરવું પડે છે, એવું બને ત્યારે તેને કઠેર સ્પશે તે સહન કરી શકતા નથી. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં પીડાનો અનભવ કરતે તે સાધુ ક્યારેક આ પ્રકારનો વિચાર કરે છે–પરલેકના સુખની પ્રાપ્તિ માટે મેં દીક્ષા ગ્રહણ કરી છે, અને તે માટે હું ડાંસ, મચ્છર આદિને ત્રાસ પણ સહન કરી રહ્યો છું. પરંતુ તે પરલેક મેં પ્રત્યક્ષ તે જે નથી. પરના વિષયમાં અનુમાન પ્રમાણ પણ વિદ્યમાન નથી, કારણ કે તે વિષયમાં નિર્દોષ હેતુને અભાવ છે. પરંતુ આ ત્રાસને કારણે મરવું પડશે, એ વાત તે નિશ્ચિત છે. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ३ उ. १ केशलुंचना सहत्वनिरूपणम् २९ अयं भावः - परलोकस्तु प्रत्यक्षतो नाऽवगम्यते, अनुमानादिकमपि नास्ति, एवं च परलोकस्तु नैव प्राप्तः । केवल मेतादृशदुःख सहनेन मरणमेव फलम् । नान्यत् मरणाऽतिरिक्तं फलमेव न स्यादित्यविचिन्तयेत् कोऽपि साधुः देशकालादिपीडितः सन्निति ॥१२॥ २ मूलम् - संतत्ता केसलोपणं वंभचेरपराइया । १० मंदाविति मच्छा बिट्टा व केषणे ॥ १३ ॥ ९ छाया - संतप्ताः केशलुंचनेन ब्रह्म वर्यपराजिताः । तत्र मन्दा विपदन्ति मत्स्या विद्धा इव केतने ॥१३॥ आशय यह है - परलोक प्रत्यक्ष से प्रतीत नहीं होता और न उसका साधक कोई अनुमान आदि प्रमाण है । इसप्रकार परलोक तो प्राप्त नहीं है, इस दुःख को सहन करने का फल मृत्यु ही है, अन्य कुछ भी नहीं । देशकाल आदि से पीड़ित कोई साधु इस प्रकार विचार करता है ||| १२ ॥ शब्दार्थ - 'केसलोएणं- केशलुंचनेन' केशलुश्चन से 'संतत्ता - सन्त प्ताः' पीडित 'बंभचेरपराधा- ब्रह्मचर्यपराजिताः' और ब्रह्मचर्य से परा जित होकर 'लहथ-तत्र' केशचन में दुर्बल 'मंदा - मन्दा: ' मूर्ख पुरुष 'केपणे केलने ' जाल में 'विद्वा - विद्वा:' फसी हुई 'मच्छा व मत्स्यादव' मछली के जैसे 'विसी यति-विषीदति' क्लेश का अनुभव करते हैं ॥ १३ ॥ આ કથનનુ તાત્પર્ય એ છે કે પરલેાકનુ' અસ્તિત્વ પ્રત્યક્ષ તા દેખાતુ નથી, અને તેનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ કરનાર કાઇ અનુમાન આદિ પ્રમાણુ પણુ મેદ નથી. આ રીતે પરલેાકના સુખની પ્રાપ્તિ થવાની વાત તે દૂર રહી પણ આ દુઃખ સહન કરવાના ફૂલ રૂપે મૃત્યુને તેા ચાસ ભેટવુ' પડશે ! મેાત સિવ ય ખીજુ કાઈ પણ ફળ મળવાનુ` નથી ! દેશ, કાળ આદિથી પીડિત કાઈ સાધુ આ પ્રકારના વિચાર પણ કરે છે. ાગાથા ૧૨૫ शब्दार्थ' - 'केस कोपणं- केशलुंचनेन' देश सुंयनथी 'संतत्ता- सम्तप्ता' दुःखी अर्थात् पिडायमान 'बंमचेर पराइया ब्रह्मचर्घ्यपराजिता.' भने ब्रह्मचर्य थी पराछत तत्थ तन्त्र' देशसुनमां दुर्गा 'मंदा - मन्दाः ' सूर्य' ५३ष 'केयणेकेतने' लगभi 'विट्ठा - विद्धा:' इसायेत्री 'मच्छा व मत्स्या इव' भाछसीनी भ 'विखीयंति- विपोति' सेश अर्थात् दुःमनो अतुल रे है ||१३|| Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___ अन्वयार्थः--(केसलोएणं) केशलुंचनेन (संवत्ता) संतप्ताः पीडिताः (वंभ चेरपराइया) ब्रह्मचर्यपराजिताः ब्रह्मचर्ये भग्नाः सन्तः (तत्थ) तत्र केशोत्पाटने दुर्जयकामोद्रेके वा (मंदा) मन्दा अल्पसत्वाः कातराः (केयणे) केतने जाले (विठ्ठा) विद्धाः (मच्छा च) मत्स्या इव (विसीयंति) विषीदंति क्लेशमनुभवंति नियन्ते वा इति ॥१३॥ ___टोका-'केसलोएणं' केशलंबनेन 'संतत्ता' सन्तप्ता: पीडिताः केशोत्पाटनेन महती खलु पीडा समुत्पद्यते देहिनाम् । तादृश पीडयाऽल्पसत्वो दीनतामुपगच्छति । तथा 'वंभचेरपराइया' ब्रह्मचर्यपराजिताः ब्रह्मचर्यभग्नाः सन्तः । 'तस्थ' तत्र केशलोचने प्रबळ कामोद्रेके सति 'मंदा' मन्दा:-जडाः पुरुषः । 'विसीयंति' विषीदन्ति संयमानुष्ठानं प्रति शिथिली भवन्ति । यद्वा-सर्वथा संयमानुष्ठानात् परिभ्रष्टा एव भवन्ति । तत्र दृष्टान्तमुदाहरति-मच्छा इत्यादि । 'केयणे' केतने जाले 'विहा' विद्धाः 'मच्छा' मत्स्पाः 'व' इव-यथा मत्स्यो __अन्वयार्थ--केशलोंच से पीडित होकर तथा ब्रह्मचर्य से पराजित होकर अर्थात् कामवासना का दुर्जय उद्रेक (कामवासना में अत्यन्त आतुर होकर) होने पर कायर साधु जाल में फसे हुए मच्छों के जैसा फ्लेश को अनुभव करते हैं या मर जाते हैं ॥१३॥ ___टीक्षार्थ--केशों का लुचन करने में प्राणियों को बहुत पीडा होती है और उस पीडा ले कायरजन दोनता को प्रापम होते हैं अतएव केशलोंच से संतप्त होकर तथा ब्रह्मचर्य का पालन करने में असमर्थ होकर मन्द अर्थात् धैर्यहीन पुरुष विवाद करते हैं-संयम के अनुष्ठान में शिथिल हो जाते हैं । अथवा संयमानुष्ठान से सर्वथा भ्रष्ट हो जाते हैं । इस विषय में दृष्टान्त कहते हैं-जैसे मत्स्य जाल में फंस कर और સૂવા–કેશલંચનથી પીડા અનુભવતો તથા બ્રહ્મચર્યવ્રતનું પાલન કરવાને અસમર્થ એ કાયર સાધુ-કામવાસનાને દુર્જય ઉદ્દેક થાય ત્યારે જાળમાં ફસાયેલી માછલીની જેમ કલેશને અનુભવ કરે છે, અને સંયમના માગેથી ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે. ટીકાઈ–કેશને લેચ કરતી વખતે સાધુઓને ખૂબ જ પીડા થાય છે, તે પીડાને કારણે કાયર (અપસવ) સાધુને વિષાદને અનુભવ કરે છે, એ જ પ્રમાણે બ્રહ્મચર્યનું પાલન કરવાને અસમર્થ હેય એ સાધુ કામવાસનાને ઉક થાય ત્યારે સંયમના અનુષ્ઠાનમાં શિથિલ થઈ જાય છે, અથવા સંયમને પરિત્યાગ કરી નાખે છે. આ વાતને વધુ સ્પષ્ટ કરવા માટે સૂત્રકારે નીચેનું टात मास्यु. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ परतीथिकैः पीडोत्पादनम् ३१ जालेन बद्धो निःसरणोपायमनवाप्य तत्रैव जाले म्रियते. तथा प्रवलकामेन परा भूताः केऽपि साधवः सयमानुष्ठानमेव त्यति । यद्वा तादृश संयमानुष्ठाने शिथिला भवंति ॥१३॥ मूलम्-आयदंडसमोयारे मिच्छासंठियमावणा। हरिसप्पओसमावन्ना केइ लूसंतिऽनारिया ॥१४॥ छाया-आत्मदण्डसमाचारा मिथ्यासंस्थितभावना । हर्पद्वेपं समापन्नाः केपि लुपयंत्यनाः ॥१४॥ अन्वयार्थः--(आयदंडसमायारे) आत्मदडसमाचारा=आत्मा दण्डयते उससे बाहर निकलने का उपाय न पाकर उस्ली में मर जाता है, उसी प्रकार प्रपल कान से पराजित होकर कोई कोई साधु संयम का ही त्याग कर देते हैं या संयम में शिथिल पड जाते हैं ॥१३॥ ' शब्दार्थ-'आयदंडसमायारे-आत्मदंडसमाचाराः' जिससे आत्मा कल्याण से भ्रष्ट हो जाता है ऐसा आचार अनुष्ठान करनेवाले 'मिच्छा संठियभावणा-मिथ्यासंस्थितभावना' जिनकी चित्तवृति मिथ्यात्व से व्याप्त हैं अर्थात् हिंसादि में तत्पर है तथा 'हरिसप्पओसमावण्णाहर्षपद्वषमापना। जो राग और द्वेष से युक्त हैं ऐसे 'के ई-केपि कोई 'अणारिया-अनार्याः' अनार्य पुरुष 'लूसन्ति-लूषयन्ति' साधुको पीडा पहुँचाते हैं ॥१४॥ ___ अन्वयार्थ-जिससे आत्मा दण्डित होता है या हित से रहित होता જેવી રીતે જાળમાં ફસાયેલી માછલી તેમાથી છુટવાને માટે વલખાં મારે છે, પણ છુટવાને કેઈ ઉપાય નહીં જડવ થી તેમાં જ મરી જાય છે, એજ પ્રમાણે પ્રબળ કામવાસનાથી પરાજિત થઈને કઈ કઈ કાયર સાધુઓ સંયમને ત્યાગ કરે છે અથવા શિથિલાચારી બની જાય છે. ગાથા ૧૩ शाय-'आयदंडसमायारे-आत्मद डसमाचाराः' नाथी मामा ४क्ष्याथी अट थ य छे, मेवो माया२-1नु11 ७२पावणा 'मिच्छासंठियभावणा-मिथ्यासस्थितभावना भनी चित्तवृत्ति मिथ्यापथी व्याछ अर्थात् हिंसा कोषमा ५२ छ तथा 'हरिसप्पओप्स मावण्णा-हर्षप्रद्वेषमापन्न । रागद्वेषामा छ. . 'के ई-केपि' 5 'अणारिया-अनार्या ' मनाय पुरुष 'लूसंति-लूपयन्ति' साधुन पिडा पहाडे छे. ॥१४। * સૂત્રાર્થ–જે આચારને કારણે આભા દંડિત થાય છે. અથવા આત્મ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ रसूत्रकृताहरु हितात् खण्डयने येन स आत्मदण्डः एतादृशः आचारः अनुष्ठानं येषां ते तथा 'मिच्छासंठियभावणा' मिथ्यासंस्थितभावना मिथ्यात्वोपहतघ्यः' (हरिसप्पोसमावन्ना) हपंपद्वपमानाः रागद्वेषममालाः (केइ) केपि (श्रणारिया) अनार्याः (लू मंति) लूपयन्ति कथयति दण्डादिभिः ताडयंति साधूनिति ॥१४॥ टीका--'आयदंडसमाचारे' आत्मदण्डसमाचारः, दण्डवते वण्डयते मोक्षा. दधः पात्यते आत्मा येन स आत्मदण्डः साधुनिन्दाताडनादिप्राणालिपातादि. लक्षणः । सपाचारः अनुष्ठानम् , एतादृश आचारो विद्यते येषां ते आत्मदण्डसमाचाराः। तथा-'मिच्छासंठियभाषणा' मिथ्यासंस्थित भावनाः, मिथ्या-विपरीता संस्थिता कदाग्रहाभिरूढा भावना येषां ते मिथ्यासंस्थितभावनाः मिथ्यात्वोपहतबुद्धयः हिंसादिपरायणाः इति यावत् । 'हरिसप्पोसमावन्ना' पद्वेपसमापन्नाः हर्पश्च पद्वेषश्चेति हपमद्वेषं तदाएन्नाः पापाचरणे हवन्तः धर्माचरणे द्वेषवन्त: है, ऐसा आचार कहलाना है। जिनका ऐसा आचार है और जिनकी दृष्टि मिथ्यात्व के कारण उपहत हो गई है, जो हर्ष और खेप अर्थात् रागद्वेष से युक्त है, ऐसे कोई कोई अनार्य पुरुष साधुओं को दण्ड आदि से ताडन करते हैं ॥१४॥ ___टोकार्थ--साधु की निन्दा, ताडना या हत्या करना आदि कार्य, जो आत्मा को दण्डित करने वाले हैं, 'आत्मदण्ड समाचार' कहे गए हैं। मिथ्या अर्थात् विपरीत कदाग्रह रूर मावना दाले को 'मिथ्या संस्थित भावना' कहते हैं अर्थात् जिनकी बुद्धि मिथ्यात्व के कारण नष्ट हो गई है, जो हिंसादिपापों में तत्पर रहते हैं । जो हर्ष और હિતનું જેના દ્વારા ખંડન થાય છે, એવા આચારને “આત્મદંડ સમાચાર' કહે છે. જેમને એવો અચાર છે અને જેમની દૃષ્ટિ મિચ્યવને કારણે ઉપહત થઈ ગઈ છે, જેઓ રાગ અને દ્વેષથી યુક્ત છે, એવા કેઈ કેઈ અનાર્ય લોકે સાધુઓને લાકડી આદિ વડે મારે છે. ૧૪. ટીકાથ–- સાધુ ની નિદા, સાધુને મારપીટ, સાધુની હત્યા આદિ કૃત્ય આ ત્માને દંડિત કરનાર-આત્માના હિતનું ખંડન કરનારા છે. તેથી એવાં કુને “અ મદંડ સમાચાર' કહે છે. મિચ્છાદષ્ટિ જીવોને, એટલે કે વિપરીત કદાઝડ રૂપ ભાવનાવાળા માણસોને “મિચ્યા સંસ્થિત ભાવનાવાળા કહે છે. આ અને વિશેષણોથી યુક્ત લેક-એટલે કે જેમની બુદ્ધિ મિથ્યાત્વને કારણે નષ્ટ થઈ ગઈ છે, જેઓ હિસાદિ પાપમાં પ્રવૃત્ત રહે છે, જેઓ રાગ અને છેષથી યુક્ત છે–એટલે કે જેઓ પાપનું આચરણ કરવામાં હર્ષનો અનુભવ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ परतीथिकैः पीडोत्पादनम् ३३ रागद्वेषाऽधीनाः । 'के ई' केपि इत्थंभूताः 'अनारिया' अनार्या:-अहिंसा धर्ममर्माऽनभिज्ञाः सदाचारे वर्तमानं साधु क्रीडापद्वेषाभ्याम् 'लूसंति' लूपयंति पीडयन्ति दण्डादिप्रहारैः कटुशब्दैर्वा । केचित् अनायाः आत्मदण्डसमाचाराः तया विपरीतमतयः रागद्वेषाभ्यां साधु पीडयन्ति, इति ।।१४।। मूलम्-अप्पेगे पलियंतेसिं चारो चोरो ति सुव्ययं । बंधति भिक्खुयं बाला कलायवयहि य ॥१५॥ छाया--अप्ये के पर्यन्ते चारश्चौर इति सुव्रतम् । वनन्ति भिक्षुकं वालाः कपायवचनैश्च ॥१५॥ वेष से आपन्न हैं अर्थात् पाप को ओचरण करने में अनुरागी और धर्म का आचरण करने में द्वेषवार हैं-रागी और द्वेषी हैं, ऐसे कोई कोई अनार्य, अहिंसा धर्म के मर्म से अनभिज्ञ लोग सदाचारपरायण साधु को क्रीडा या देष से प्रेरित होकर दण्ड आदि का प्रहार करके अथवा कटुक शब्द कहकर पीडा पहुंचाते हैं । तात्पर्य यह है कि कोई कोई आत्मा के लिए अहितकर आचरण करने वाले और विपरीत बुद्धि वाले लोग रागद्वेष से प्रेरित होकर साधु को कष्ट देते हैं ॥१४॥ शब्दार्थ-'अप्पेगे-अप्येके कोई 'बाला-बाला' अज्ञानी पुरुष 'पलि यंतेसिं-पर्यन्ते' अनार्य इसके आसपाल विचरते हुए 'सुब्वयं-सुव्रतम्' साधु को 'भिक्खयं-भिक्षुकम्' भिक्षुक को 'चारो चोरगेत्ति-चारश्चोर इति' यह गुप्तचर है अथवा चोर है ऐसा करते हुए 'बंधंति-बध्नन्ति' रस्सी आदि से बांधले है तथा किसाघवधणेहिय-कषायवचनैः' कटुवचन कहकर साधु को पीडित करते हैं ॥१५॥ કરે છે અને ધર્માચરણ કરવામાં ષ યુક્ત છે એવાં રાગ દ્વેષ યુક્ત, અને અહિંસા ધર્મથી અનભિજ્ઞ કઈ કઈ અનાર્ય કે સદાચાર પરાયણ સાધુઓને પિતાના આનંદને ખાતર અથવા ઠેષભાવથી પ્રેરાઈને લાકડી આદિના પ્રહાર વડે અથવા કટુ શબ્દો વડે પીડા પહોચાડે છે. આ સમસ્ત કથનને ભાવાર્થ એ છે કે કઈ કોઈ આત્મહિતના ઘાતક અને વિપરીત બુદ્ધિવ ળા રાગદ્વેષથી પ્રેરાઈને સાધુને કષ્ટ દે છે. ગાથા ૧૪ शहाथ----'अप्पेगे-अप्येके' । 'बाला-बाला' अज्ञानी ५३५ 'पलियंतेसि -पर्यन्ते' मनाय शन। २यासमा २०i 'सुव्वयं-सुव्रतम्' साधुन "भिक्खयं -धिक्षुकम्' लिने 'चारो-चोरोत्ति-चारचौर इति' मा तयर छ अथवा व्यार छ सयु उडे। 'बंधति-बध्नन्ति होरी पोशी आधे छे-तथा 'कसायवयणेहियकषायवचने.' ४४ पयन सीने साधुने पीडित अर्थात् on ४२ छ. ।।१५।। , सू०५ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ सूत्रकृताइसूत्रे । अन्वयार्थ:--(अप्पेगे) अप्येके (बाला) बालाः अज्ञानिनः पुरुषाः (पलियं. बेसि पर्यन्तेऽनार्यदेशममीपे विचरन्तं (सुव्यय) सुव्रत-साधुम् (भिवखुयं) भिक्षु: कम् (चारो .चोरो ति) चारथौर इति पन्तः (वंधति) बध्नन्ति रज्जादिना तथा (कसायचयणेहि य) कवाय स्वनैः कटुनाव पैः पीडयन्ति चेति ॥१५॥ टीका--'अप्पेगे' अपि एके अनार्याः पुरुषाः 'बाला' वाला-अज्ञानिनःसदसद्विवेकविकलाः 'पलियं तेर्सि' पर्यन्नसीमासु परिभ्रसन्तम् 'सुक्यं' सुव्रतं साधुम् , सुष्टु सम्यगहिंसादिव्रतं यस्य स तम् 'भिक्खुर्य' भिक्षुकं मिक्षाचरणशीलम् 'चारो चोरो त्ति' चारोऽयं चौरोऽयं-कस्यचिद्भूपतेतोऽयं चौशेऽयं तस्कर कर्मशीलोऽयं चेति नुवन्तः । सुत्रतं पट्कायरक्षकं निरवद्यभिक्षाचरणशीलमपि मुनि चौर इति मत्वा तं क्लेशयन्ति दण्डादिना । तथा-बंधति' वध्नन्ति रज्वादिना 'य' च पुनः 'कसायवयणेहि' कपायवचनैर्भस पन्ति । ते ऽनार्य पुरुषाः, ____ अन्वयार्थ--कोई कोई अज्ञानी पुरुष अनार्थ देश के आस पास विचरते हुए साधु को चार था चोर कहते हुए रस्सी आदि से बांध देते हैं तथा कटुक वचनों द्वारा पीडा पहुंचाते हैं ॥१५॥ टोकार्थ-कोई कोई अनार्य पुरुष, जो सत् असत् के विवेक से हीन हैं, सीमा पर विचरते हुए और अहिंसा आदि व्रतों का सम्यक् प्रकार से पालन करने वाले भिक्षु को 'यह किसी राजा का जास्तूल (दम) है, यह चोर है, इत्यादि कहते हुए एवं पद हार के रक्षक, निर्दोष भिक्षा ग्रहण करने वाले मुनि को भी चोर शान कर उसे दण्ड आदि से पीडा पहुंचाते हैं, रस्सी आदि से बांध देते हैं और सपाययुक्त वचनों से भर्त्सना करते हैं। સૂત્રાર્થ––કઈ કઈ અજ્ઞાની પુરુષે અજ્ઞાની પુરુષે અનાર્ય દેશમાં વિચરતા સાધુઓને ચેર, જાસૂમ આદિ માની લઈને, તેમને દેરડા આદિ વડે બાંધીને કટુ વચને દારા પીડા પહોચાડે છે. ૧૫ ' ટીકાઈ–-સ રા નરસાંના વિવેકથી રહિત અનાર્ય પ્રદેશની સીમા પર વિચરતા, અહિંસા આદિ તેનું સમ્યક્ પ્રકારે પાલન કરનારા સાધુને કઈ રાજાનો જાસૂસ માની લઈને આ પ્રકારના કટુ વચને બોલે છે-“આ ચાર છે, આ ચાર (જાસૂસ) છે, એટલું જ નહીં પણ તેઓ તેને દોરડા વડે બાંધીને લાકડી આદિ વડે માર મારે છે તથા કપાયયુક્ત વચને દ્વારા તેનો તિરસ્કાર કરે છે છ કાયના જીના રક્ષક અને નિર્દોષ ભિક્ષા ગ્રહણ કરનારા મુનિઓને પણુ તેમના દ્વારા આ પ્રકારનાં કષ્ટ સહન કરવા પડે છે, Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. थु. अ. ३ उ. १ परतीर्थिकैः पीडोत्पादनम् ३५ सुव्रतमपि अनार्यपरिसरे भ्रमन्तम्, अयं चोर इति मत्वा कदर्थयन्ति, रज्वादिना वध्नन्ति, क्रोधमधानकटुवचनेत्यन्ति चेति ॥१५॥ पुनरप्याह 'तत्थ दंडेण' मित्यादि । १ a ४ ५ मूलम्-तत्थं दंडेग संत्रीते मुट्टिणा अदु फलेण वा । ९ ११ १२ १० नाती सरई वाले इत्थी वा कुद्धगामिणी ॥ १६ ॥ छाया -तत्र दण्डेन संवीतो मुष्टिनाऽथ फलेन वा । ज्ञातीनां स्मरति वाला स्त्रीवत् क्रुद्धगामिनी ॥ १६ ॥ अभिप्राय यह है कि अनार्य लोग देश की सीमा में विहार करने वाले सुव्रत साधु को भी चोर समझकर कष्ट पहुंचाते हैं, रस्सी आदि से बांधते हैं और क्रोधप्रधान कटुक वचन कहकर उसकी भर्त्सना करते हैं ॥ १५ ॥ पुनः कहते हैं - 'तत्थ दंडेन' इत्यादि । शब्दार्थ--'तत्थ-तत्र' वहां अर्थात् अनार्य क्षेत्रकी सीमा में विचरते हुए उन मुनिको 'दंडेण दण्डेन' लाठी से 'मुट्टिणा - मुष्टिना' मुकासे अदुवा अथवा ' अथवा 'फलेण फलेन' फल से 'संवीते- संवीत:' ताडित किया हुआ 'वाले बाल:' अज्ञानी पुरुष 'कुद्रगामिणी- क्रुद्धगामिनी' क्रोधित होकर घर से निकलकर भागने वाली 'इत्थी व स्त्रीव' स्त्री के जैसे 'नातीणंनातीनां' अपने स्वजन वर्ग को 'सरई - हमरति' स्मरण करता है || १६ || - આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે અનય લેાકેાના પ્રદેશની સીમા પાસેથી વિહાર કરનારા સુવ્રતધારી સાધુને પણ ચાર આદિ સમજીને અનાય લેકે દેરડા વડે બાંધીને મારે છે તથા કટુ શબ્દો મેલીને તેમની ભત્સ ના अरे छे. गाथा १५ આ પ્રકારના પરીષહે આવી પડે ત્યારે અલ્પસવ સાધુ પર તેની કેવી असर थाय छे, ते सूत्रार अरे छे - 'तत्थ दडेन' धत्यादि शब्दार्थ—‘तत्थ-तत्र' त्यां अर्थात् अनार्यक्षेत्रनी सीमामां (भां) इश्ता ते सुनीने 'दंडेग - दण्डेन' साडीथी 'मुट्टिणा - मुष्टिना' भुथी 'अदुवा अथवा ' अथवा फळे - फलेन' थी 'संत्री संवीत' भारवामां भाषेत 'बालें- बाल !' अज्ञानी पुरुष 'कुद्धगामिणी - क्रुद्धगामिनी' अधित धर्धने धरेथी निउजाने लागवावाणी 'इत्थीव - स्त्रीव' खेती प्रेम 'न तीणं ज्ञातीना' पोताना नव 'सरह - स्मरति' स्मरण अरे छे. ||१६| Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ___सूत्रकृताङ्गसूत्र ___ अन्वयार्थ:--(तत्थ) तत्रानार्यक्षेत्रसीमासु विचरंतं मुनि (दंडेण) दण्टेन यष्ट्यादिना (मुष्टिणा) मुष्टिना (अदुवा) अथवा (फलेण) फलेन-मातुलिंगादिना (संवीते) संवीतः प्रहृतः कश्चिदपरिणतः (बाले) बालो मुनिः बाल इव (कुद्धगामिणी) क्रुद्धगामिनी (इत्थीय) स्त्री व (नातीणं) ज्ञातीनां (सरई) स्मन्तीति ॥१६॥ ___टीका-'तत्थ' तत्र-स्मिन्न नार्य देशपरिसरे विद्यमानः साधुः तादृशाऽनायः पुरुषैः । 'दंडे' दण्डेन=शष्टयादिना 'अदु' अथवा 'मुट्ठिणा' मुष्टिना 'वा' अथवा 'फलेण' फलेन-मातुलिंगादिना फडेन 'संरीते' संवीतस्ताडितः 'वाले' वाला=अपक्कमतिः कश्चित्साधुः तत्र ताडनादिसमये 'नातीणं सरई' ज्ञातीनां स्मरति “अत्र कर्मणि पष्ठी' स्वबान्धवादिकं स्मरनि । यद्यत्र एकोऽपि बान्धवो अन्वयार्थ-अनार्य क्षेत्र की सीमा पर विचरते हुए साधु को डंडे से, सुट्टी से या फल ले प्रहार किया जाता है तो कोई कोई बाल जैसा साधु अपने ज्ञातिजनों को उसी प्रकार स्मरण करता है जैसे क्रोध करके घरसे बाहर निकली स्त्री उन्हें स्मरण करती है ॥१६॥ टीकार्थ--अनार्य देश के समीप विचरता हुआ साधु उन अनार्य पुरुषों के द्वारा डंडे से अथश छुट्टी (धू से) ले अथवा विजोरा आदि फलों से ताडना पाकर, अपरिपक्व वुद्धि वाला होने के कारण ताडना के समय अपने बन्धु बान्धव आदि ज्ञातिजनों का स्मरण करता है । वह सोचता है अगर यहाँ मेरा कोई एक भी बन्धु (सहायक) होता तो ऐसी पीडा का अनुभव न करना पडता । मेरा कोई आत्मीयजन रक्षक સૂત્રાર્થ—અનાર્યક્ષેત્રની સીમા પર વિચરતા સાધુઓને લાકડીઓના પ્રહાર, ફળના પ્રહાર ઘુમ્મા તથા લાતેના પ્રહર સહન કરવા પડે છે. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિ ઉત્પન્ન થાય ત્યારે કઈ કઈ બાલ (અજ્ઞાન) અને અલ્પસર્વ સાધુ અસહાય દશાને અનુભવ કરે છે, અને જેવી રીતે કેવા વેશમાં ગૃહત્યાગ કર નારી સ્ત્રી મુશ્કેલી આવી પડતાં કુટુંબીઓ અને જ્ઞાતિજનોને યાદ કરે છે, એ જ પ્રમાણે એ સાધુ પણ પોતાના કુટુંબીઓ અને જ્ઞાતિજનોને યાદ કરે છે. ૧૬ ટકાથ-કઈ કઈ વાર અનાર્ય દેશોની સરહદ પાસેથી વિહાર કરતા સાધુઓને અનાર્યો લાકડીઓ મારે છે, ઘુમ્મા મારે છે અને બીજેરા આદિ ફળને તેમના પર ઘા કરે છે આ પ્રકારની પરિસ્થિતિ ઉદ્ભવે ત્યારે કોઈ કેઈ અપરિપકવ બુદ્ધિવાળા સાધુઓ પિતાના બધુએ આદિ જ્ઞાતિજનોનું મરણ કરે છે. તેઓ વિચાર કરે છે કે જો અહીં મારે એક પણ બધુ આદિ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ १ समयार्थवोधिनी टीका F. श्रु. अ. ३ उ. १ सूत्रकृतोपसंहारः भवेत्, तदा मे-एमिरेताहशी पीडा नो भवेत् । यस्मान्नास्ति कोऽध्यात्मोयो रक्षकोऽतएवेमे मामित्थं कथयन्ति । तत्र दृष्टान्त दर्शयति-'इत्थी वा कुद्धगामिणी' स्त्रीवत् क्रुद्धगामिनी । यथा काचित् अविवेकवती स्त्री क्रोधात् स्वगृह परित्यज्य निर्गता मार्गे असभ्यपुरुषः कदाथिता, तत्र निराश्रया सती ज्ञातीन् (ज्ञातीनाम्) स्मरति । तथा-अयमपि अकमतिः साधुः ज्ञातीन् स्मरति ॥१६॥ अथ उपसंहरन्नाह सूत्रकास- एते भो कसिणा' इत्यादि । मूलम्-एए भो कसिणा फासा फरुमा दुरहियालया। हत्थी वा सरसं वित्ता कीवारसा गया गिह ॥१७॥ तिबेमि॥ छाया--एते भोः कृत्स्नाः स्पीः परुषा दुरधिसह्याः । हस्तिन इब गरसंवीताः क्लीवा अवशा गता गृहम् ॥१७॥इति ब्रवीमि॥ नहीं है, इसी कारण ये सुझे सता रहे है । इसी विषय में दृष्टान्त प्रदर्शित किया गया है-जैसे कोई विवेकविहीन स्त्री क्रोध में आकर घर को त्याग कर बाहर निकल पडी, मार्ग में अलभ्य पुरुषों ने उसे सताया। तब वह निराधार होकर अपने ज्ञातिजनों को स्मरण करती है। उसी प्रकार अपरिपक्व बुद्धि वाला साधु भी ज्ञातिजनों को स्मरण करता है ॥१६॥ सूत्रकार उपसंहार करते हुए कहते हैं-'एए सो कसिणा' इत्यादि । शब्दार्थ--'मो-भोः' हे शिष्यो ! 'एए-एते' पूर्वोक्त दंडादि रूप परीषहोपसर्ग 'कसिणा कासा-कृत्स्नाः स्पर्शाः समस्त स्पर्श-'फरसा સહાયક હેત તે માટે આવી પીડાનો અનુભવ કરે ન પડત. અત્યારે મારી રક્ષા કરનાર કઈ પણ આત્મીયજન મારી સાથે નથી, તે કારણે આ લેકે મને હેરાન કરે છે આ વાતને સ્પષ્ટ કરવા માટે નીચેનું દૃષ્ટાન્ત આપવામાં આવ્યું છે—કેઈ સ્ત્રી ક્રોધાવેશમાં ઘર છે ડીને નીકળી ગઈ માર્ગમાં કોઈ અસભ્ય પુરુષે તેની પજવણી કરવા લાગ્યા. ત્યારે તે પોતાની નિરાધાર દશા જોઈને પોતાના આત્મીયજનને યાદ કરવા લાગી. એ જ પ્રમાણે અપરિપકવ બુદ્ધિવાળે સાધુ પણ આ પ્રસંગ આવી પડે ત્યારે પિતાના સંસારી સંગા વહાલાને યાદ કરે છે. ગાથા ૧૬ हवे सूत्रः .२३२ता सूर हे छ- एए भो करिणा' त्या शहाथ----'भो भो.' शिष्य! ! 'एए-एते' मा त मेरे ३५ परिपडे।५स 'कमिणाफामा-कृत्स्नाः स्पर्शा' समान २५ 'फरुसा-परुपा' . Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 सूत्रकृतास्त्रे ___ अन्वयार्थ:--(भो) भोः भोः शिष्याः (एए) एते पूर्वोक्ताः दण्डादिघात रूपाः परीपहोपसर्गाः (कसिणा फासा) कृत्स्नाः स्पर्शाः (फरुसा) परुपाः कठिनाः (दुरहियासया) दुरबिसह्याः दुःखेन सोढुं योग्याः एतानसहमानाः केचनलघुमतयः, (सरसविता) शरसवीता:-रणशिरसि शरताडिताः (हत्थी व) हस्तिन इच (कीया) क्लीवा-कातराः पुरुषाः (अवसा) अशाः परायचाः कर्माधीनाः गुरुकर्माणः (गिह) गृहं (गया) गताः गच्छंति परित्यज्य साधुषेशम् । (त्ति बेमि) इति ब्रवीमि अहमिति ॥१७॥ ___टीका-गुरुरुपदिशति शिष्यान 'भो' भोः भोः शिष्याः। एते पूर्वोक्ताः दण्डादिधातादिरूपाः परीपहोपसर्गाः, 'कसिणा' कृत्स्ना -निखिला अपि परुपाः' कठिन 'दुरहियाला-दुरधिसह्याः' और दुःसह हैं 'सरसंवित्तीशरसंवीताः' बाणों से पीडिन 'हत्यी व-हस्तिन इच' हाथी के जैसे 'कीबा-लोबाः' नपुंसक पुरुष 'अवती-अवशा' घबराकर 'गिह-गृहम् ' करको 'गया-गताः' चले जाते हैं अर्थात् साधु वेश को छोडकर चले जाते हैं ॥१७॥ ___अन्वयार्थ--हे शिष्यो ! ये पूर्वोक्त लब स्पर्श अर्थात् परीषह और उपसर्ग कठोर हैं, दुस्सह हैं, इनको सहन न करते हुये कोई कोई लघु बुद्धि साधु, संग्राम के शीर्ष भाग में स्थित हस्ती के समान कायर एवं विवश होकर साधुवेश त्याग कर घरचले जाते हैं। ऐसा मैं कहता ॥१७॥ टीकार्थ-गुरु शिष्यों को सम्बोधन करके उपदेश करते हैं-हे अन्तेवालियो ? ये पूर्वोक्त दण्ड का आघात आदि परीषह और उपसर्ग रूप 38 'दुरहियासा-दुरधिसह्याः' भने म छ 'सरसंपित्ता-शरसंवीताः' मा। थी पीठत 'इत्यी व-हस्तिन इव' हाधीनी रेभ 'कीबा क्लीवा' नपुस ५३५ 'अवसा-अवगा.' गभराधन 'गिह-गृहम्' धे२ गया-गताः' याहया नय छ, અર્થાત્ સાધુવેશને છોડીને ઘેર જતા રહે છે. ૫ ૧ળા. सूत्राथ-डे शिष्य ! पूरित सघणा-२५-५शेष अने पसगाઘણા જ કઠેર-સ્સહ છે તેમને સડન ન કરી શકનારા કોઈ કેઈ અપરિક પકવ બુદ્ધિવાળા સાધુએ સંગ્રામને ખરે ઊભેલા હાથીની જેમ કાયર અને વિવશ થઈને સાધવેશને ત્યાગ કરીને ફરી સંસારમાં ચાલ્યા જાય છે. એવું (सुधा स्वामी सन २२॥ 'सारमा यादया जय ટીકાર્ય–સુધમ વામી પોતાના શિષ્યોને આ પ્રમાણે ઉપદેશ આપે છે હે તેવીઓ ! લાકડીના પ્રહાર આદિ પૂર્વોક્ત પરહે અને ઉપસર્ણ રૂપ સમસ્ત પર્ણો (અનુભ) ઘણા જ દુસ્સહ હોય છે. એવાં પરીષહે Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ सूत्रकृतोपसंहारः 'फासा' स्पशाः नाडनादिरूपाः सर्वेऽपि 'फरुमा परुषाः रूक्षाः अनाय्यैः कृतस्वात् पीडाकारिणः इति यावत् । 'दुरहिया' दुरधिसखाः दुःखेनापि सोहुम. शक्षा भवन्ति, 'सरसंवीत्ता' शरसंवीता-रणशिरसि तीक्ष्णशरेण ताडिताः 'हत्थी' हस्तिन: शकीवा जीवाः कातराः 'अवता' अशाः गुरुकर्माणः 'गिह' गृहं 'गया' गताः गच्छन्ति । इमे ऽल्पप्रकृतयः साधवोऽपि, प्रतिकूलोपसगै पूर्वप्रदर्शितदंशमशकादिभिः वाधिताः सोढुं तान् असमर्थाः पुनरपि परित्यक्तमपि गृहवासमाश्रयन्ति । तमेव शरणं मन्यपानाः इति ब्रवीमि । सुधर्मस्वामी शिष्येभ्यः कथयतीति भावः ॥१७॥ इति श्री विश्वविख्यातजगद्वल्लभादिपदभूपितवालब्रह्मचारि 'जैनाचार्य पूज्यश्री घासीलाल व्रतिविरचितायां श्री "समयार्थबोधिन्याख्यायां" व्याख्यायां तृतीयमध्ययनस्य प्रथमोदेशकः समाप्तः ॥३-१॥ समस्त स्पर्श वडे कठोर होते हैं अर्थात् अनार्थ पुरुषों द्वारा दिये हुए यह उपसर्ग पीडा जनक होते हैं। इनको सहन करना अतीव कठिन है। इन उपसगों के आने पर कोई कोई साधु युद के अग्रभाग में स्थित हाथियों के समान कातर हो जाते हैं, और साधुवृत्ति त्याग कर घर का रास्ता पकड़ लेते हैं। । अभिप्राय यह हैं कि धैर्यहीन साधु पूर्वप्रदर्शित दंशमशक दंडप्रहार आदि प्रतिकल उपसर्गों से बाधित होकर उन्हें सहन करने में जब अम्ल मर्थ हो जाते हैं तो त्यागे हुए गृहवास को पुनः स्वीकार कर लेते हैं। वे गृहवास को ही शरणभूत मान बैठते हैं। ऐसा में कहता है, यह सुधर्मा स्वामी अपने शिष्यों से कहते हैं ॥१७॥ तृतीय अध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त ॥ અને ઉપસર્ગો આવી પડે ત્યારે કઈ કઈ કેઈ અપસવ, કાયર સાધુઓ સમરાંગણના અગ્રભાગમાં સ્થિત હાથીની જેમ ડરી જઈને અથવા વિવશ થઈ જઈને સાધુવૃત્તિને ત્યાગ કરીને ઘરને રસ્તો પકડી લે છે– સંસારમાં પાછાં ફરી જાય છે આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે પૂર્વ પ્રદર્શિત શીત પરીષહ, ઉષ્ણ પરીષહુ, ડાંસ અને મરછર કરડવા રૂપ પરીપ, લાકડીના પ્રહાર આદિ પ્રતિફળ ઉપસર્ગોથી ત્રાસી જઈને કઈ ધૈર્યહીન સાધુ જ્યારે તેમને સહન કરવાને અસમર્થ બની જાય છે, ત્યારે એક વાર ત્યાગ કરેલા ગૃહવાસને ફરી સ્વીકાર કરી લે છે તેઓ ગૃહવાસને જ શરણભૂત માને છે, એવું હું કઈ છું. આ પ્રમાણે સુધર્મા સ્વામી પિતાના શિષ્યોને કહે છે. ગાથા ૧ણા ત્રી અદયયનને પડેલો ઉદ્દેશક સમાપ્ત - Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ४० द्वितीयोदेशका प्रारभ्यतेतृतीयाध्ययनस्य प्रधनोद्देशकः समाप्तः । अधुना द्वितीयोदेशकस्याऽऽरंभः क्रियते । इहोपसर्गपतिपादनपरके तृतीयाऽध्ययने उपसर्गाः प्रतिपिपादयिपिताः। ते उपसर्गाः पतिकूला अनुकूलाच, तत्र प्रतिकूलोपसर्गाणां प्रतिपादन तृतीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देशके संवृत्तम् । प्रकृदोद्देशकेऽनुकूला उपसर्गाः प्रतिपादनीयाः, इत्यनेन संबन्धेन प्राप्तस्य द्वितीयोद्देशकस्येदं प्रथम सूत्रपाह-'अहिमे सुहमासगा' इत्यादि। मूलम्-अहिले सुहुमा संगा भिक्खुणं जे दुरुत्तराः। तत्थ एगे विसीयंति न चयंति जवित्तये ॥१॥ छाया--अथेमे सूक्षयाः संगाः भिक्षुगां ये दुरुत्तराः। तत्र एके विपीदन्ति न शक्नुवन्ति यापयितुम् ॥१॥ दूसरे उद्देशे का प्रारंभतीसरे अध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त हुआ। अब दूसरा उद्दे शक आरम्भ किया जाना है। तीसरा अध्ययन उपसर्गों का प्रतिपादन करने वाला है। इसमें उन्हीं का प्रतिपादन करना अभीष्ट है। उपसर्ग दो प्रकार के होते हैं प्रतिकूल और अनुकूको प्रतिकूल उपसोका पतिपदन तीसरे अध्ययन के प्रथम उद्देशक में हो चुका है। इस उद्देशक में अनुकूल उपसगों का प्ररूपण करना है। इस सम्बन्ध ले प्राप्त दूसरे उद्देशक का प्रथम सूत्र यह है 'अहिले सुबुमा' इत्यादि । બીજા ઉદેશાનો પ્રારંભ– ત્રીજા અધ્યયનનો ઉદેશક પૂરો થશે. હવે બીજા ઉદ્દેશકની શરૂઆત થાય છે. ત્રીજા અધ્યયનમાં ઉપસર્ગોનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. ઉપસર્ગો બે પ્રકારના હોય છે-(૧) પ્રતિકૂળ અને (૨) અનુકૂળ. ત્રીજા અધ્યયતના પહેલા ઉથકમાં પ્રતિરળ ઉ પગેનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. હવે આ બીજ ઉદશકમાં અનુકળ ઉપસર્ગોનું રૂપણ કરવામાં આવશે. પહેલાં દેશક સાથે આ કરને સંબંધ ધરાવતા બીજા ઉદ્દેશકનું ५९३ सय मा अमाने थे- 'अहिमे सहमा' Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ४१ .. अन्वयार्थ :--(अ) अ तिकूलोपसर्गकथनानन्तरम् (इमे) इमे अनन्तरं वक्ष्यमाणाः (सुहुमा) सूक्ष्मा:-परैरलक्ष्यत्वात् (संगा) संगा मातापित्रादिसंबन्धाः (जे) ये संगाः (भिक्खुणं) भिक्षूणां-साधूनामपि (दुरुत्तरा) दुरुत्तरादुलैघ्याः (एगे) एके-केचन पुरुषाः (तत्थ) तत्र-तस्मिन्ननुकूलोपसमें (विसीयंति) रिषी. दन्ति शिथिलाचारिणो भवन्ति संयनं वा त्यजन्ति अथवा (वित्तये) यापयितुम् = संयमे स्वात्मानं व्यवस्थापयितुं (ण वयंति) न शक्नुवन्ति न समर्थाः भवन्तीति ॥१॥ शब्दार्थ--'अह-अथ प्रतिकूल उपवर्ग के कथनानन्तर 'इमे-इमे' ये अनन्लर कहे जाने वाले 'सुहमा-वक्षमाः' सूक्षम बहार नहीं दिखने घाले 'संगा-संगा" मातापित्रादि एवं धांधव आदि के साथ का संबंधरूप उपसर्ग होते हैं 'जे-ये' ये संग भिवरणं-भिक्षूणां' साधुओं के धारा 'दुरुत्तरा-दुरुत्तरा' दुरुत्तर-अर्थात् दुस्तर हैं 'एगे-एके' कोई पुरुष 'तत्थ-तत्र उस संवरूप उपसर्ग विसीयंति-विषीदन्ति' विषाद को प्राप्त होते हैं अर्थात् शिधिलाचारी होते हैं अथवा 'जचित्तये-यापयितम' संयमपूर्वक अपना निर्वाह करने में 'न चयंति-न शक्नुवन्ति' समर्थ नहीं होते हैं ॥१॥ - अन्वयार्थ-यह जो सूक्ष्म अर्थात् दूसरों को प्रतीत न होने वाले संग माता पिता आदि के सम्बन्ध हैं, वे साधुओं के लिए भी दर्जेय हैं। कोई कोई साधुजन अनुकूल उपसर्गों के आने पर विषाद युक्त हो जाते हैं-शिथलाचारी बन जाते हैं अथवा संयम का त्याग कर बैठते हैं। वे अपनी आत्मा को संयम में स्थिर रखने में समर्थ नहीं होते हैं।१। ____ण्डा - 'अह-अथ' प्रति अपना ४थनानन्तर 'इमे-इमे' मा मानन्त वाममावेश 'सुहुमा-सूक्ष्माः' सूक्ष्म महा२ नहीभावापासंगा-संगा' भाता पित्राहि मे मा कोरेनी साना समध३५ उपस थाय छ 'जे-ये' मास 'भिक्खूण-भिक्षणां' साधुसाना द्वारा 'दुरुत्तरा-दुरुत्तरा' हु३त्तर अर्थात् स्तर छ 'एगे-एके' ५३१ 'तत्थ-तत्र' मध३५ उपसभा विसीयंति -विपीदन्ति' विषाहने प्राप्त थाय छे, अर्थात् शिथितायारी सनी लय छे. भया 'जवित्तये-यापयितुम्' संयमपूर्व पाताने निवड ४२वामा 'न चयंति-न शक्नुवति' समर्थ थता नथी. । १॥ સૂત્રાર્થ–આ જે આ સૂક્ષ્મ–અન્યના દ્વારા જાવામાં આવનારો-સંગ છેમાતાપિતા આદિને સંબંધ છે, તે સાધુઓને માટે પણ દુર્જાય છે. અનકળ ઉપસી આવી પડે ત્યારે કઈ કઈ સાધુઓ વિષાદને અનુભવ કરે છે– -શિથિલાચારી બની જાય છે, અથવા સંયમને ત્યાગ કરી નાખે છે. તેઓ પિતાના આત્માને સંયમમાં સ્થિર રાખી શકવાને સમર્થ હતા નથી. ૧ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे _____टीका-'अहिमे' अथ इमे, अत्राऽथशब्द आनन्तर्येऽर्थे विद्यते। तथा च मतिकूलोपसर्गानन्तरमनुकूलोपसर्गा निरूप्यन्ते । तेऽनुकूलोपसर्गाः के ? कथंभूताः तत्राह-'सुहुमा' सूक्ष्माः, प्रायशः इमे प्रतिपाद्यमानाः अनुकूलोपसर्गाश्चेतोविकारकारितया सूक्ष्मा आन्तराः । न तु प्रतिकूलोपसर्गा इव प्राचुर्येण देहादिविकारकारित्वेनाऽतिप्रकटतया बादरा एते भवन्ति । ते के तत्राह--' संगा' संगाः-मातापितृ कलत्रपुत्रादिसंबन्धाः। एते संगा:-'भिक्खूणे' मिथूणामपि । 'दुरुत्तरा' दुरुत्तरा=दुरतिक्रमणीया इति । प्रायशः मरणान्तिकैरपि दुःखै कजनकैः' प्रतिकूलोपसगैः' कदाचिन्माध्यस्थ्यवृत्तिमासाद्य महापुरुषास्तानधिसहित क्षमन्ते । परन्तु एते तु अनुकूलोपसर्गाः महा टीक्षार्थ-'अथ' यहां अनन्तर अर्थ में है। इसका अभिप्राय यह है कि प्रतिकूल उपसमौ का प्रतिपादन करने के अनन्तर अनुकूल उपसर्गों का निरूपण किया जाता है। अनुकूल उपसर्ग क्या है और कैसे होते हैं ? यह स्पष्ट करने के लिए कहा गया है वे 'सूक्ष्म' होते हैं अर्थात् चित्त में विकार उत्पन्न करने वाले होने से आन्तरिक होते हैं । प्रतिकूल उपसर्गों की भांति प्रचुरता से देह आदि में विकार जनक होने के कारण प्रकट रूप से स्थूल नहीं होते हैं। __ वे संग अर्थात् अनुकूल उपसर्ग माना, पिना, पत्नी, पुत्र आदि के सम्बन्ध रूप हैं। इनको जीतना कठिन होला है । मारणान्तिक अथवा अत्यन्त दु:ख जनक प्रतिकूल उपसर्गों के आने पर महापुरुष कदाचित् मध्यस्थभाव धारण करके उनको सहन कर लेते हैं, परन्तु ये अनुकूल टी -मी. 'अथ' मा ५४ मनन्तर' (त्या२माह)ना मनु पाय છે. તેનો આશય એ છે કે પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગોનું પ્રતિપાદન કરીને હવે સૂત્રકાર અનફળ ઉપસર્ગોનું નિરૂપણ કરે છે અનુકૂળ ઉપસર્ગો કેવાં હોય છે, તેનું હવે સૂત્રકાર સ્પષ્ટીકરણ કરે છે–તેઓ સૂક્ષમ હોય છે, એટલે કે ચિત્તમાં વિકાર ઉત્પન્ન કરનારા હોવાથી તેઓ આન્તરિક હોય છે. પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગોની જેમ તે શરીર આદિમાં વિશેષ પ્રમાણમાં વિકારજનક નહીં હોવાને કારણે રસ્થૂલ હોતા નથી. તે અનુકૂળ ઉપસર્ગો માતા, પિતા, પુત્ર, પત્ની આદિના સંગ (સંબંધ) રૂપ હોય છે. તેમને જીતવાનું કાર્ય ઘણું જ મુશ્કેલ છે. કદાચ મારણાન્તિક અથવા અત્યંત દુઃખજનક પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગો આવી પડે ત્યારે મહાપુરુષે મધ્ય ભાવ ધારણ કરીને તેમને સહન કરી લે છે, પરંતુ આ અનુકૂળ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपलर्गनिरूपणम् ४३ स्मनां महतामपि मनोधर्माराधनात् पच्यापयन्ति । अत इमेऽनुकूलोपस' दुरु चरा इति । 'जत्थ' यस्पिन यस्मिन्ननुक्लोपसमें संप्राप्ते सति । 'एगे' एके अल्पसत्वाःसाधवः' सदनुष्ठानं प्रति । 'विसीयति' विषीदन्ति-विहारादिषु साधुकृत्येषु शिथिलप्रयत्ना भवन्ति । यद्वा-सर्वथा त्यजन्ति माप्तमपि संयमादिकम् । 'जवित्तये' यापयितुं संपर्म पारयितुम् । 'ण चयंति' नैव शक्नुवन्ति कथ. मपि संयमानुष्ठाने आत्मानं व्यवस्थापयितुं समर्था न भवन्ति । प्रतिकूलोपसगास्तु कदाचित्साहसमधिरुह्य सोढा भवन्त्यपि, किन्तु अनुकूलोपसहने महतामपि धैर्य प्रस्खलति ॥१॥ वानेव अनुकूलोपसर्गानाह-'अप्पेगे नायओ' इत्यादि । मूलम्-अप्पेगे नायओ दिसा रोगति परिवारिया। पोसणे ताय पुट्ठोसि कम्स ताय जहासि णो॥२॥ उपसर्ग बडे बडे महात्माओं के मन को भी धर्माराधना से विचलित कर देते हैं। इस कारण इनको जीतना बडा ही कठिन है। इन उपसों के प्राप्त होने पर कोई कोई अल्पसत्व साधु सदनुष्ठानों के प्रतिविषण्ण हो जाते हैं अर्थात् विहार आदि साधुकृत्यों में शिथिल बन जाते हैं अथवा प्राप्त हुए संघम का पूरी तरह त्याग कर देते हैं । वे संयम का पालन करने में असमर्थ हो जाते है । __अभिप्राय यह है कि प्रतिकूल उपसर्ग तो कदाचित् साहस धीरत्व का अवलम्बन करके सह लिए जाते हैं परन्तु अनुकूल उपसर्ग सहने में बड़ों घडों का भी धैर्य छट जाता है ॥१॥ ઉપસર્ગો તે મોટા મોટા મહાત્માઓના મનને પણ ધર્મારાધનામાંથી વિચલિત કરી દે છે. તે કારણે અનુકૂળ ઉપસર્ગો પર વિજય પ્રાપ્ત કરવાનું કાર્ય અતિ દુષ્કર ગણાય છે. આ પ્રકારના ઉપસર્ગો આવી પડે ત્યારે કઈ કઈ અ૫સર્વ સાધુ સદનુષ્ઠાનના પાલનમાં શિથિલ બની જાય છે, એટલે કે વિહાર આદિ સાધુ કૃમાં શિથિલ બની જાય છે. અથવા તેઓ સંયમનું પાલન કરવાને એટલા બધાં અસમર્થ થઈ જાય છે કે સંયમને (સાધુવૃત્તિન) પણ પૂરેપૂરે ત્યાગ કરી નાખે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગો તો કદાચ સાહસનું અવલંબન લઈને સહન કરી લેવામાં આવે છે, પરંતુ અનુકૂળ ઉપસર્ગો સહન કરવાને પ્રસંગ આવે ત્યારે ભલ ભલાંનું ધૈર્ય એગળી જાય છે. આગાથા ના Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - सूत्रकृतासूत्रे छाया--अप्येके ज्ञातयो दृष्ट्वा रुदन्ति परिवार्य च । पोषय नस्तात पोषितोऽसि कस्य तात जहासि नः ॥२॥ अन्वयार्थ:-(अप्पेगे) अप्येके (नायओ) ज्ञातयो-मातापित्रादिस्वजनाः (दिस्ता) दृष्ट्वा साधु (परिवारिया) परिवार्य वेष्टयित्वा (रोयंति) रुदंति (ताय) हे तात (णे पोस) नः अस्मान् पोषय-पालय (पुट्ठोसि) पोषितोसि अस्माभिस्त्वं पालितोसि (ताय) हे तात (झस्स) कस्य हेतो (णो) ना अस्मान (जहासि) जहासि-त्यजसीति ॥२॥ अब उन्हीं अनुकूल उपसर्गों को कहते हैं-'अप्पेगे नायओं' इत्यादि । शब्दार्थ-'अप्पेगे-अप्थेको' कोई 'नायो-ज्ञातयः' ज्ञातियाले अर्थात् मातापित्रादि स्वजन एवं संबधिजन 'दिस्ला-दृष्ट्वा' साधु को देखकर 'परिधारिया-परिवार्य' उसे घेरकर रोयंति-रुदंति' रोते हैं 'ताय-तात' वे कहते हैं कि हे तात ! 'णे पोस-नः पोषय' तुम हमारा पालन करो 'पुट्ठोलि-पोषिलोसि' हमने तुम्हारा पालन किया है 'ताय - तात' हे तात ! 'कस्स-कस्य' किसलिये तू 'गो-न' हम लोगों को 'जहालि-त्यजलि' छोड देते हो ॥२॥ अन्ध्यार्थ-कोई कोई ज्ञाति जन साधु को देखकर और उसे घेरकर रोदन करने लगते हैं-हे लात ! हमारा पालन पोषन करो। हमने तुम्हारा लालन पालन किया है। हे तात! किस कारण से हमें त्यागते हो ? ॥२॥ હવે સૂત્રકાર એજ અનુકૂળ ઉપસર્ગોનું વર્ણન કરે છે– 'अप्पेगे नायओ' इत्याहि शहाथ-'अप्पेगे-अप्येके छ 'नायओ-ज्ञातय.' ज्ञातिवाणमर्थात् मातापिता स्व सेव' समधी - 'दिस्सा-दृष्ट्वा' साधुन त ने 'परिवारियापरिवार्य तन रीत 'रोयति-रुदति' २३ छे 'ताय-तात' तमा हे छ । तात ! 'णे पोस-नः पोपय' तमे मा३ यासन । 'पुट्ठोखि-पोपितोसि' असे ताई पास ध्यु छे 'ताय-तात' है तात 'कस्स-कस्य' श॥ माटे तुणो न' समन 'जहासि-त्यमसि छोडी हे छे. ॥२॥ સૂત્રાર્થ –કઈ કઈ જ્ઞાતિજને સાધુને જોઈને તેના ફરતાં વીટળાઈ વળીને કરુણાજનક શબ્દ બોલવા લાગે છે–“હે પુત્ર! અમે તારુ પાલનપથણ કર્યું છે, હવે તું અમારું પાલન-પોષણ કર. તું શા કારણે અમારે ત્યાગ કરીને ચાલી નીકળ્યો છે. પારા Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समार्थबोधिनी टोका प्र . अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ४५ टीका- 'अप्पेगे' अपि एके, अपि शब्दः संभावनायाम् । एके केचित् 'नायओ' ज्ञातयः, मातापितृस्वननमभृतयः । 'दिस्स' दृष्ट्वा साधु 'परिवारिया' परिवार्य, सर्वती वा 'रोयंति' रुदन्ति = शिरस्ताडनवक्षःस्थल ताडनपुरःसरं रुदन्ति रुदन्वश्च दीनवचनं वदन्ति 'वाय' हे वात | इति कोमलामंत्रणे हे कुलतिलक हे मातृपितृकुटुंबरक्षक ! वाल्यात्मभृति त्वमस्माभिः पालितोऽसि, यत् अयम् वृद्धावस्थायां मां पालयिष्यतीति मत्वा, तस्मादधुना 'गो' नः अस्मान् 'वाय' तात ! पुत्र ! 'पोस' पोषय, त्वमस्माभिः वाल्याद्रक्षितः पोपित, अउः परं वार्द्धक्येऽस्मान् त्वं पालय, पोपय च । 'ताय' हे तात ! 'कस्य' कस्य कृते 'ण' नः - अस्मान 'जहासि' त्यजसि - मादृशानां दीनानां वृद्धानां पालनपोषण टीकार्थ - यहां 'अपि' शब्द संभावना के अर्थ में है । कोई कोई मानापिना आदि स्वजन मुनि को देखकर और उसको चारों ओर से घेरकर, मस्तक कूटकूटकर और छाती पीट पीट कर रोते हैं और रोते हुए दीननापूर्ण वचन कहते हैं- हे तात ! 'तात' शब्द कोमल सम्बोधन के अर्थ में है, हे कुलतिलक | हे मातापिता और कुटुम्ब के रक्षक ! हमने बचपन से तेरा लालन पालन पोषण किया है सो यही समझकर किया है कि यह वृद्धावस्था में हमारा पालन करेगा । इस कारण हे तात! तू अब हमारा पालन कर । हमारे जैसे दीन, बूढे और पालन पोषण करने योग्य जनों का तू किस कारण से त्याग कर रहा है ? तेरे सिवाय हमारा कोई पालन पोषण करने वाला नहीं हैं, , टीडार्थ' - साडी' 'अपि' यह संभावना अर्थे परासु छे । अर्थ માતા, પિતા, આદિ મુનિના સસારી સગ મુનિને જોઈને તેને ઘેરી લઇને માથું અને છાતી કૂટતાં ફૂટતાં એને આક્રંદ કરતાં કરતાં આ પ્રકારનાં દીનતા यता मोझे छे - ' तात ! (अट्टी' 'तात' यह हैमस सबोधनना अर्थभां વપરાયેલું હાવાથી તેના અર્થો ‘કુલતિલક’ સમજવેા) હું માતા-પિતા અને मुटुजना २क्ष ! अभे जयपथी ताडु सासन-पालन युद्ध छे. अभारी वृद्धाવસ્થામાં તુ અમારુ' પાલન-પાષણુ કરશે એવી આશા સેવીને અમે તારુ‘ લાલન-પાલન કર્યું છે. તેા હે પુત્ર! તું હવે પાલનપેાષણ કર અમારા જેવાં દીન, વૃદ્ધ અને પાલન-પાષણ કરવા ચેાગ્ય જનાના ત્યાગ તુ... શા કારણે કરે છે? તારા સિવાય અમારું' પાલન-પોષણુ કરનાર એવુ' કાણુ છે કે જેને માથે એ જવાબદારી નાખી દઈને તું સાધુ ખની ગર્ચા છે! તું અમારા નાધારાના Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ सूत्रकृतासूत्रे योग्यानां केन हेतुना त्यागं करोपि । नडि भवन्तमन्तरा कश्चित् अस्माकं पोपको रक्षको वा विद्यते यस्मिन् मां न्यस्येहाऽऽगतोऽसि प्रचल स्वगृहमित्यादिवक्ति।।२।। मूलम्-पिया ते थेरओ ताय ससा ते खुड्डिया इमा। भायरो ते सगा ताय सोयरा किं जहासि णो॥३॥ छाया-पिता ते स्थविरस्तात ! स्वसा ते क्षुल्लिका इयम् । __ भ्रातरस्ते स्वकास्तात ! सोदराः किं जहासि नः ॥३॥ अन्वयार्थ:--(तात) हे तात पुत्र (ते पिया) ते तब पिता (थेरओ) स्थविरो वृद्धो विद्यते (इमा) इयं (ते) ते तव (ससा) स्वसा भगिनी (खुड्डिया) क्षुस्लिकालध्वी विद्यते (ते सगा) ते स्वकाः (सोयरा) सोदराः (भायरो) भ्रातरः (जो किं जहासि) नः अस्मान् किं कथं जहासि त्यजसीति ॥३॥ जिसे सौंपकर तू यहां आया है ! अतएव तृ अपने घर लौट चल ।' वे इस प्रकार कहते हैं ॥२॥ शब्दार्थ-'ताय-तात' हे तात ! 'ते पिया-ते पिता' तुम्हारे पिता 'थेरओ-स्थविरः' वृद्ध हैं 'इमा-इयं' और यह 'ते ससा-तव श्वसा' तुम्हारी बहिन 'खुड्डिया-क्षुल्लिका' छोटी है 'ते सगा-ते स्वका.' ये तुम्हारे 'सोयरा-सोदाः' सहोदर 'भायरो-भ्रातरः' भाई है 'जो कि जहासि-नः किम् त्यजसि' तू हमें क्यों छोड़ रहा है ? ॥३॥ ___ अन्वयार्थ हे लाल ! तेरा पिता वृद्ध है, तेरी यह बहिन छोटी है। तेरे सहोदर भाई हैं । फिर क्यों हमें स्यागता है ? ॥३॥ આધાર છે, તે તું ઘેર પાછો ફર.” આ પ્રકારના દયાજનક વચને તેઓ તેને સંભળાવે છે. ગાથા ૨ val-'ताय-तात' तात! 'हे पिया-ते पिता' तमा। पिता 'थेरओ -स्थविरः' वृद्ध छ 'इमा-इयं' मने मा 'ते सगा-तव श्वसा' तमारी मन 'खड़िया-क्षुल्लिका' नानी 'ते सगा-ते सहाः म त २। 'सोयरा-सोदराः' साह२ 'भायरो-भ्रातरः' मा छे 'णे कि जहासि-नः किम् त्यजसि' तु ममत भ छोडी शो छ. ॥31 સત્રાર્થ–હે પુત્ર! તારા પિતા વૃદ્ધ છે. તારી આ બહેન હજી નાની છે આ તારે સહોદર (સગો ભાઈ) પણ હજી અલ્પવયસ્ક (કાચી ઉંમરને) છે, છતાં શા માટે તે અમારે ત્યાગ કર્યો છે? આવા Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्र. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ४७ टीका--'तात' हे तात ! हे पुत्र ! 'ते पिया' ते पिता-ते तव पिताजनकः 'थेरओ' स्थविरः स्थविरो विद्यते-शतवर्षवयस्कः प्रशिथिलसर्वांगः कासश्वासादिरोगपीडितो मंदजठरो नोत्थानोपवेशनसमर्थों नहि अधुना किमपि कत्तु समर्थः । 'इमा' इयम् , प्रत्यक्षे उपस्थिता । 'ते ससा' ते-तव स्वसा भगिनी 'खुड्डिया' क्षुल्लिका, कनीयसी विद्यते । एतस्या विवाहादिकमपि त्वामन्तरा का करिष्यति । हे तात ! 'ते सगा' स्वकाः ते त्वदीयाः स्वकाः 'सोयरा' सोदरा समानोदरमवाः 'भायरो' भ्रातरः-संति एते बालवयस्का मृदुस्वभावा मुग्ध. युदयः कः त्वामन्तरा उद्धारका 'ण' न:-अस्मान् हीनदीनानशरणानत्राणान् किं कथम् केन हेतुना कं वा शरणं मम दृष्ट्वा 'जहासि' परित्यजसि । पारिवारिकाः पुरुषाः समागत्य साधु प्रति कथयन्ति एवम्-यत् हे पुत्र ! पिता ते वृद्ध : भगिनी कनीयसी भ्राता तेऽसहायो विद्यते । कथमेतान् परित्यजसीत्यर्थः ॥३॥ टीकार्थ--हे पुत्र ! तुम्हारा पिता बृढा हो गया है । वह सौ वर्ष का है, उसके अंग अङ्ग शिथिल पड गए हैं, खांसी और श्वास आदि रोगों से पीडित हैं, उसकी जठराग्नि मंद पड गई है, उठने बैठने में भी असमर्थ है । अब उससे कुछ भी करते धरते नहीं बनता । और सामने खडी हुई तुम्हारी यह बहिन अभी छोटी है । तुम्हारे विना कोन इसका विवाह आदि करेगा ? हे पुत्र ! तुम्हारे सहोदर भाई हैं। वे अल्पवयस्क हैं, मृदु स्वभाव वाले हैं, नासमझ हैं। तुम्हारे सिवाय कौन इनका उद्धार कर्ता है ? हम दीन हीनों को, शरण और त्राण से रहितों को किस कारण से त्याग रहे हो ? हमारे लिए क्या शरण देख कर हमारा परित्याग करते हो ? ૧ ટીકાર્થ–કુટુંબીઓ સાધુ પાસે આવીને તેને આ પ્રમાણે સમજાવે છે“હે પુત્ર! તારા પિતા વૃદ્ધ થઈ ગયા છે તેમનાં અંગે શિથિલ થઈ ગયાં ' છે. ઉધરસ, દમ આદિ રોગોથી તેઓ પીડાઈ રહ્યા છે તેમની પાચનશક્તિ મંદ પડી ગઈ છે. હવે તેમનાથી કંઈ પણ કાર્ય કરી શકાતું નથી. આ તમારી સામે ઊભેલી તમારી બેનની સામે જરા નજર કરો ? તે હજી ઘણી નાની ઉંમરની છે તમારા સિવાય તેને વિવાહ કેણ કરશે? હે પુત્ર તારા નાના ભાઈઓને જરા વિચાર કર! તેઓ હજી કાચી ઉંમરના હોવાને કારણે ઘરને તથા દુકાન આદિને ભાર વહન કરવાને અસમર્થ છે. તારા સિવાય તેની સંભાળ લેનાર બીજુ કોણ છે? શું તારા ભાઈ-બહેનની પણ તને દયા આવતી નથી ? અમારાં જેવા દીન, હીન અને નિરાધાર કુટુંબીજનાને શા કારણે તું ત્યાગ કરી રહ્યો છે? અમને તેના આધારે છેડીને તું સંસાર છોડી રહ્યો છે?? આ પ્રકારના દીનતાપૂર્ણ વચને દ્વારા સાધુના સંસારી સગાં-વહાલાઓ તેને Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮ ५ मूल - मायरं पिवरं पोस एवं लोगोस् । १२ एवं खु लोइयं ताय जे पालतिथ सावरे ॥४॥ मुत्रकृताह छाया - मातरं पितरं पोषय एवं लोको भविष्यति । एवं खलु लौकिकं तात ! ये पालयन्ति मातरम् | ४ || अन्वयार्थः -- ( ताय) हे ताa (सागरं पियरं ) मातर पितरं=जननीजनको 'पोस' पोषय पालयेत्यर्थः ' एवं ' एवं मातापितृपोषणेन 'लोगो' लोकः परलोक' (Rates ) भविष्यति (ताय) हे वात ( एवं ) एवमेतदेव (ख) खल्= निश्वयतः (लोइयं) लौकिकं लोकाचार : (जे) ये (मापरं) मातरम् (पाति) पालयंतीति । तस्य लोको भक्तीति ॥ श्र आशय यह है- कुटुम्बीजल आकर साधु से कहते हैं हे पुत्र !तुम्हारा पिता वृद्ध है, भगिनी छोटी है और भ्राता अतशय है । इन सब को तुम कैसे त्यागते हो ? ॥ ३ ॥ शब्दार्थ- 'ताय-तान' हे तात! 'मायरं पियरं मातरं पितरं माता और पिता का 'पोस - पोक्य' पोषण करो 'एवं एवम्' माता पिता का पोषण करने से ही 'लोगो-लोको' परलोक 'भविस्सह-भविष्यति' होगा 'ताय-ताल' हे तान ! 'एवं - एवम्' यही 'खु-ग्वलु' निश्चय से 'लोयंलौकिक' लोकाचार है कि 'जे - ये' जो 'मायर - सातरम्' माता को 'पालंति - पालयन्ति' पालन करते हैं उनको परलोक की प्राप्ति होती है || ४ || अन्वयार्थ - हे पुत्र ! माता पिता का पालन करो। ऐसा करने से तुम्हारा परलोक सुधरेगा । हे पुत्र ! निश्चय ही यही लोक में उत्तम आचार સુયમના માર્ગથી વિચલિત કરવાના પ્રયત્ન કરે છે. આ પ્રકારના અનુકૂળ ઉપસગેર્યાં આવી પડે ત્યારે અલ્પમત્ત્વ સાધુએ સયમના માના પરિત્યાગ કરીને ફરી ગૃહવાસને સ્વીકાર કરી લે છે. ાગાથા ગા शब्दार्थ –'ताय-ताव' हे तात! 'मावरं पियरं मातर पितरं भाता भने पितानु' 'पोन- पोषय' घोषशु रे । ' एवं - एदम्' भाता पितानुं घोषणा वाथी ४ 'लोगो - लोकः' पर 'भविस्सइ - भविष्यति' सुधरशे 'ताय-तात.' हे तात ! ‘एवं-एवम्' २५४ 'खु खलु' निश्चयथी 'लोइयं - लौकिक' सोयार छे } ‘जे - ये' ? 'माचरं मातरम्' भाताने 'पा ंति - पालयन्ति' पालन रे छे, પરલેાની પ્રાપ્તિ થાય છે ।૪।। તેમને સૂત્રä-હે પુત્ર! તુ માતાપિતાનું પાલન કર. એવુ" કરવાથી તારા પરલેાક સુધરી જશે. હે પુત્ર! લેકમાં તેને જ ઉત્તમ આચાર ગણુામાં - 1 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकलापसर्गनिरूपणम् ४५ टीका-'ताय' हे नात ! 'मायरं पियरे मातरं पितर-मातरं जननीं पितरं जनकम् 'पोस' पोपय अन्नादिभिः सेवय शुश्रूषया च सेवां कुरु । एवं कृते:सत्ति, तर 'लोए' लोक इह लोकः (एष लोक:) परलोकश्च सम्यक् साधितः 'भविस्सई' भविष्यति । इह परत्र उभयस्मिन् लोके विशिष्ट स्थानं तव भविष्यति । एवं' एवम् इदमेव 'खु' खलु-निश्चयेन 'लोइयं लौकिकं लोकाचारो विद्यते, यदुत 'मायरं मातरं पितरं च 'पालंति' पालयति । अयमेव च लौकिको मार्गः यदुतमातापित्रोः वृद्धयोः परिपालनमिति ॥४॥ मूलम् -उत्तरा महुरुल्लावा पुत्ता ते ताय खुड्ड्या । भारिया ते णवा ताय ला ला अन्न जण गमे॥५॥ .. छाया-उत्तरा मधुरालापाः पुत्रास्ते तात ! क्षुद्रकाः । . . .. भार्या तेहि नवा तात | मा साऽन्य जनं गच्छेत् ॥५॥ ... है। जो माता पिता का पालन सेवा शुश्रूषा करते हैं, उन्हीं का लोक सुधरता है ॥४॥ ____टीकार्थ-हे पुत्र! माता और पिता को अन्न आदि के द्वारा पाले और उनकी सेवा करो। ऐसा करने से तुम्हारा इह लोक भी सुधरेगा और परलोक भी सुधरेगा ! तुम्हारा इस लोक में और परलोक में विशिष्ट स्थान होगा। यही निश्चय से लोक की रीति है कि वृद्ध जननी और जनक की सेवा की जाय ॥४॥ । शब्दार्थ-'ताय-तात' हे तात ! 'ते पुत्ता-ते पुत्रा' तुम्हारे पुत्र 'उत्तरा-उत्तरा: उत्तरोत्तर जन्में हुये 'महुरुल्लावा-मधुरालपाः' मधुर આવે છે. જે પુત્ર માતા-પિતાનું પાલનપોષણ અને સેવા શુશ્રુષા કરે છે, તેને જ આ લેક અને પરલોક સુધરી જાય છે. જો સંયમના માર્ગેથી સાધુને વિચલિત કરવા માટે તેના માતા-પિતા આદિ સંસારી સગાએ તેને આ પ્રમાણે કહે છે-“હે પુત્ર ! માતા અને પિતાનું પાલન-પોષણ અને સેવા કરવાનું તારું કર્તવ્ય છે. એવું કરવાથી તારો આ લેક પણ સુધરી જશે અને પરલેક પણ સુધરશે, આ લોક અને પરલોકમાં તને વિશિષ્ટ સ્થાન પ્રાપ્ત થશે સંસારને એજ સાચે વહેવાર છે કે વૃદ્ધ માતા-પિતાની સેવા કરવામાં આવે આ પ્રકારની તારી ફરજ અદા નહી કરવાથી તારે–આ લેક અને પરલોક, અને બગડશે” ગાથા ૪ - शहाथ-'ताय-तात' हे तात! 'ते पुत्ता-ते पुत्राः' तमा। पुत्र'उत्तरा उत्तरा" उत्तरोत्तर - मत छे 'महुरुल्लावा-मधुरालपाः' मधुर मालवा सू०७ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० सूत्रकृतासूत्रे ___ अन्वयार्थः--(ताय) तात-(ते पुत्ता) ते पुत्राः (उत्तर।) उनरा: उत्तरोत्तर जाताः (महुरुल्लावा) मधुरालापा:मधुरभाषिणः (खुड्डुया) क्षुल्लकाअल्पवयस्काः सन्ति (ताय) हे तात ! (ते भारिया) ते भार्या पत्नी (णवा) नवानवीना नवयौवनेत्यर्थः (सा) सा तव भार्या (अन्न) अन्यम् (जणं) जनम् परपुरुषं प्रति (मा गमे) मागच्छेदेवं कुरु ॥५॥ टीका-'ताय' तात हे पुत्र ! 'ते पुना' ते तव पुत्राः 'उत्तरा' उत्तरा:= उत्तरोत्तरं समुत्पद्यमानाः क्रमेण जाता अनेके 'महुरुल्लावा' मधुरालापाः, मधुरः मनोहारी आलापो वचनपचारो येपान्ते मधुरालापाः मिष्टमापिणः सन्ति । अमृततुल्यं वचनं समुच्चारयन्ति, एतादृशमनोज्ञपुत्राणां त्यागोऽनुचितो भवति । अतः एव साधुवेशं विहाय गृहं चल इति । तथा-'ते भारिया' ते तव भार्या षोलने वाले 'खुड्ड्या -क्षुल्लका.' और छोटे हैं 'ताय-तात' हे तात ! 'ते भारिया-ते भार्थी' तुम्हारी पत्नी 'णचा-नवा' नव यौवना है अर्थात् युवावस्था वाली है 'सा-सा' वह तुम्हारी पत्नी 'अन्नं-अन्यम्' दूसरे 'जर्ण-जनम्' जन के पास अर्थात् परपुरुष के पास'मा गमे-मागच्छेत्' न जावे ऐसा करो ॥५॥ ____ अन्वयार्थ-हे पुत्र ! एक दूसरे के पश्चात् उत्पन्न हुए, मीठी मीठी घोली बोलने वाले तुम्हारे पुत्र अभी छोटे हैं । तुम्हारी पत्नी नव युवती है । ऐसा करो जिससे वह दूसरे पुरुष के पास न जाय ॥५॥ टीकार्थ-हे पुत्र ! तुम्हारे कर से जन्मे हुए अनेक पुत्र, जो मधुर आलाप करने वाले अर्थात् मिष्ट नाषी हैं, अमृत के समान वचन बोलते हैं, ऐसे पुत्रों का त्याग करना उचित नहीं है । अतएव साधु वेश त्याग वाणा 'खुड़िया-क्षुल्लकाः' मन नाना छे 'ताय-तात' है तात! 'वे भारियाते भार्या' भारी पत्नी ‘णवा-नवा' नवयौवना छे. अर्थात् युवापरावाणी छे. 'सा-सा' ते भारी पत्नी 'अन्नं-अन्यम्' मी जणं-जनम्' भाष्यसनी पासे अर्थात् ५२५३पनी पासे 'मा गमे-मा गच्छेत्' न लय ते ४२।।५।। સૂત્રાર્થ–હે પુત્ર! તારે પુત્ર-પરિવાર, કે જે મીઠી મીઠી બોલી બોલનારે છે, તે હજી કાચી ઉંમર છે. હે પુત્ર! તારી પત્ની હજી નવયૌવના છે. તું એવું કર કે જેથી તે અન્ય પુરુષને સાથ ન શોધે. પા ટીકાર્થ–માતા સાધુ બનેલા પુત્રને એવું કહે છે કે હે પુત્ર! કમેક્રમે તારે ત્યાં અનેક પુત્રને જન્મ થયો છે તારા તે પુત્રોની વાણી અમૃતના જેવી મીઠી છે. એવાં લાડીલા પુત્રોને ત્યાગ કરવો ઉચિત નથી, તે સાધુને Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9a १० समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ५५ पत्नी 'णवा' नवा-नवयौवनोन्मत्ता विद्यते । त्वया परित्यक्ता सती 'अनं' अन्यम् 'जणं' जनम् ‘मा सा' माऽसौ 'गमे गच्छेद , यदि त्वं तां त्यक्ष्यसि, तदा अवस्थोचितमदविकारेणऽसन्मार्ग कदाचिदाश्रयेत् । अयन्ते महान् जना. ऽपवाद उत्पधेत भार्यापदप्रयोगात् त्वया पोपणीया सेति ध्वनिः । तथा पुत्रस्य यतस्त्वं पिता, भार्यायाश्च पतिरसि, अत इमौ स्त्रयैव रक्षणीयौ । अन्यथा दुनिवारो जनापवादः स्यादेवेति त्यज साधुवेपं चल गृहमिति ॥५॥ मूलम्-एहि ताय घरं जामो माय कम्मसहा क्यम्। वितियपि ताय पासामो जामु ताव सयं गिह॥६॥ छाया-एहि तात ! गृहं यामो मा त्वं कर्मसहावयम् । द्वितीयमपि तात पश्यामो यामस्तावत्स्वकं गृहम् ॥६॥ कर घर चलो । इसके अतिरिक्त तुम्हारी पत्नी अभी नवयौवना है। तुम्हारे त्याग देने पर वह परपुरुष के पास न चली जाय ! तुम उसका त्याग कर दोगे तो तरुणावस्था के योग्य कामविकार के कारण कदाचित् वह असन्मार्ग का अवलम्बन करेगी ! इससे तुम्हारा घोर लोकापवाद होगा। सूत्र में 'भार्था' शब्द का प्रयोग करके यह सूचित किया गया है कि वह तुम्हारे द्वारा भरण पोषण करने योग्य हैं । चुंकि तुम पुत्रों के 'पिता' और भार्या के पति हो अतएव तुम्हें ही उनकी रक्षा करनी चाहिए। ऐसा न किया तो लोकापवाद अनिवार्य होगा। अतएव छोडो इस देश को और चलो अपने घर ॥५॥ વેશ છેડી દઈને આપણે ઘેર આવતે રહે. વળી તારી પત્ની પણ હજી નવ. ૌવના છે તે મુનિવેષ છેડીને ઘેર પાછો આવે નહીં તે કદાચ તે પર પરૂષના ઘર માંડશે-જે તું તેનો ત્યાગ કરીશ તે કદાચ તે કુમાર્ગે ચડી જશે. કારણ કે નવયૌવના નારીની કામવાસના નહીં સંતોષાય તે એવા માર્ગનું અવલંબન લેવાની પરિસ્થિતિ તેને માટે ઉત્પન્ન થશે. જે એવું બનશે તો લોકમાં આપણું નિંદા થશે અને આપણું કુળને કલંક લાગશે સૂત્રમાં “ભાર્યા? પદને પ્રગ કરીને સૂત્રકારે એ વાત પ્રગટ કરી છે કે પત્નીના ભરણપોષણની જવાબદારી પતિ ઉપર હોય છે, તુ પુત્રને પિતા ભાર્યાને પતિ હોવાથી તેમના પાલનપોષણ અને રક્ષણની જવાબદારી તારી છે. જે તે તેમના પ્રત્યેની તારી જવાબદારી અદા કરવામાં નિષ્ફળ જશે, તે લેકેમાં જરૂર તારી નિદા થશે માટે કા૫વાદથી બચવા માટે પણ તારે સાધુને વેષ છોડી દઈને આપણું ઘેર આવી જવું જોઈએ. ગાથા પા Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतागसूत्र ____ अन्वयार्थः-(ताय) हे ताद (एहि) एहि आगच्छ (घरं जामो) गृहं यामः गच्छामः (माय) मा त्वं किमपि कार्य करिष्यसि (वयं) व्यं (कम्मसहा) कर्मसहा-सर्वकार्य तब करिष्यामः (ताय) हे तात (वित्तीयं पि) द्वितीयमपि-द्वितीयवारम् (पासामो) पश्यामः सर्व कार्यम् (ताव) तावत् (सयं) स्वकम् (गिह) गृहम् (जामु) यामः गच्छाम इति ॥६॥ टीका--'ताय' हे तात ! त्वमसि कार्येऽतिभीरुरिति जानामि, तथापि 'एहि' आगच्छ 'घरं जामो' गृहं वामः, 'माय' मा स्वम् । पुत्र ! चल गृहम् । गृहकर्मत्वया किमपि न कर्त्तव्यम् , क्यमेव सकलकार्य करिष्यामः, कार्यभया___ शब्दार्थ--'ताय-तात' हे तात ! 'एहि-एहि' आवो 'घरं जामोगृहं याम:' घर जावें 'माय-मा स्वम्' अब तू कोई काम मत करना "वयं-अयम्' हम लोग 'कम्मसहा-कर्मसहाः' तुम्हारा सब काम करेंगे "ताय-तात' हे तात ! 'वितीयंपि-द्वितीयमपि' दूसरी बार पासामो'पश्यामः' घरका कार्य हम देखेंगे 'ताव-ताश्त्' इसलिये 'सयं-स्वकम्' अपने 'गिह-गृहम् घर 'जानु-धान' जावे ॥६॥ अन्वयार्थ-हे पुत्र | आओ घर चलें तुम कुछ भी काम मत करना हम तुम्हारा सब काम करदेंगे हे पुत्र ! अबकी बार हम सब काम कर दिया करेंगे। चलो, अपने घर चलें ॥६॥ ' टीकार्थ-हे पुत्र ! में जानता हूँ शि तुम काम करने से बहुत डरते हो । फिर भी चलो,घर चले। तुम घर का काम बिल्कुल मत करना। "शीर्थ-'ताय-तात' 8 तात! 'एहि-एहि' मा घरजामो-गृहं यामः' ३२ १ 'माय-मा त्वम् तु मन शश. 'वयं-वयम्' भने सो 'कम्मसहा-कर्मसहा.' तमा३' मधु म ४शशु' 'ताय-तात' हे ad1 'वितीयंशि-द्वितीयमंपि' भी २ 'पासामो-पश्यामः' तमा३ य सभे । 'तात्र-तावन्' मेटा माटे 'सय-स्वकम' पोताना 'गिह-गृहम्' धरे 'जामु-याम.' ४४. !.६ સૂત્રાર્થ–હે પુત્ર! ચાલ, ઘેર ચાલ્યા આવ તારે કંઈ પણ કામ કરવું પડશે નહીં. અમે તારું સઘળું કામ કરી દઈશું હે પુત્ર! હવેથી તારું બધું કામ અમે જ કરી દઈશું. માટે સાધુને વેષ છેડી દઈને આપણે ઘેર પાછા ફર. 1 ટીકાર્ય–પિતા આદિ સ્વજને તે મુનિને કહે છે કે હે પુત્ર! તને કામ કરતાં બહુ ડર લાગે છે, તે હું જાણું છું. તું ઘેર ચાલ, તારે ઘરનું કામ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ५३ सरित्यक्तगृहोऽसि, तन्माभत्र । गृहमागच्छ। 'ताय' हे तात ! 'विनियंपि' द्वितीयमपि (कारणम्) । एकवारं पुराऽपि त्वं गृहकार्यकारणादुद्विग्नो भूत्वा पलायितोसि । द्वितीयं वारं पुनश्चल । वयमेव तत्तत्सर्व कार्य करिष्यामः । 'पायामी' पश्यामः, वयमेव सर्व कार्य पश्यामः । तस्मात् 'ताव सयं गिहं जामु' तस्मात् स्वकं गृहं यामः सर्वे वयमपि । हे तात! गृहकार्यात् त्वमुद्विग्नोमा भूः त्वदीयं सर्वमेव कार्यजातं वयमेव संपादयिष्यामः । गत्वा प्रत्ययं कुरु, न मनोऽनागतं प्रत्येति। आ सधैर्गन्तव्यमेव गृहम् , माऽत्र किंचिदपि प्रयोजनविशेष प३ गामः ॥६॥ मुलम्-गंतुं ताय पुणो गच्छे ण तणासमणो सिया। अकामगं परिकम को ते वारेउ मरिहति ॥७॥ छाया--गत्वा तात पुनरागच्छे न तेनाऽश्रमणस्याः। ___ अकामगं पराक्रान्तं कस्त्वां वारयितुमर्हति ॥७॥ हम ही सब काम कर लेंगे। तुमने काम के भय से घर त्यागा है, ऐसा मत करो। घर चलो। एक बार तुम गृहकार्य से घबरा कर भाग आये हो, अष दुवारा चलो। अब हम ही सब कार्य कर लिया करेंगे।हमी सब काम देख लेते हैं। हे पुत्र ! चलो घर चलें। आशय यह है हे पुत्र ! घर के कामकाज से मत घबराओ। तुम्हारे सभी कार्य हम ही कर दिया करेंगे। घर चल कर खातरी कर लो। भविष्य की बात पर विश्वास नहीं करना, अतः सब को घर ही चलना चाहिए। यहां कोई विशेष प्रयोजन दिखाई नहीं देता।६।। બિલકુલ કરવું નહીં પડે. અમે જ બધુ જ કામ કરી લઈશું. કામના ભયથી તારે ઘર છેડવાની જરૂર નથી. ઘરના કામથી ત્રાસીને તું સાધુ બની ગયે છે, પણ અમે તને ખાતરી આપીએ છીએ કે હવે તારે ઘરનું કામકાજ કરવાની જરૂર જ નહી રહે. અમે અમારી જાતે જ બધુ કામ કરી લઈશ. માટે હે પુત્ર! સાધુને વેષ ઉતારી નાખીને ઘેર પાછા ફર. • આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે-પુત્ર ઘરના કામકાજથી તારે ગભરાવું નહીં, કારણ કે અમે તારું બધું કાર્ય પતાવી દઈશું. ઘેર પાછા ફરીને તે તેની ખાતરી કરી લે. મન ભવિષ્યની વાત પર વિશ્વાસ કરતું નથી, માટે તારે ઘેર જ પાછા ફરવું એઈએ. અહીં કઈ ખાસ પ્રજન દેખાતું નથી. દા Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___ अन्वयार्थ:--(ताय) हे तात । प्रियपुत्र ! (गंतु) गन्तुमेवारं गत्वा (पुणो गच्छे) पुनरागच्छेः (तेण) तेन गृहगमनेन (ण असमणोसिया) न अश्रमणः स्यात् साधुस्वं न व्यपैष्यतीत्यर्थः । (अकामग) अकामकं कार्ये इच्छारहितम् (परिक्कम) पराक्रमन्तं स्वाभिलपितानुष्ठानं कुर्भागम् (ते) त्वाम् (को) कः (वारेउमरिहति) वारयितुमर्हति नो कोपीत्यर्थः ॥७॥ शब्दार्थ-'ताय-तात' हे प्रिय पुत्र ! 'गंतुं-गन्तुम्' रक्षवार घर जाकर 'पुणो गच्छे-पुनरागच्छे' फिर आ जाना 'तेण-तेन' जिससे 'ण असमणो सिया-न अश्रमणः स्यात्' तुं अश्रमण नहीं हो सकता अर्थात् इससे तेरा साधुपन चला नहीं जायणा 'अकामग-अकामकम्' घर के कामकाज में रहित होकर 'परिकपराकान्तम्' अपनी इच्छानुसार संयम का अनुष्ठान करते हुए 'ते-त्वाम् तुमको 'को-का' कौन 'बारे उमरिहति-वारयितुमर्हति' पीछे हटाने के लिये समर्थ हो सकता है अर्थात् कोई समर्थ नहीं है ॥७॥ ___ अन्धार्थ-हे पुत्र ! एक वार घर आकर फिर पीछे चले आना ऐसा करने से साधुता चली नहीं जाएगी अगर तुम्हारी इच्छा कार्य करने की न हो या तुम्हें अपनी इच्छानुसार कोई काम करना हो तो कौन रोकेगा? अर्थात् कोई उसमें रुकावट नहीं डालेगा ॥७॥ शा---'ताय-तात' 3 तत! 'गंतु-गन्तुम्' सेवा२ घरे ने 'पुणोगच्छे-पुनरागच्छेः' पाछे। भावी ने 'तेण-तेन' नाथी 'ण असचणो-न अश्रमणः स्यात्' तु सश्रम य श नथी, अर्थात् मानाथी तार साधुपा नतुनही २७. 'अकामग-अकामकम्' धरना st0rni छाडित ने परिक्कम-पराक्रान्तम्' पातानी ४२छानुसार सयभनु मनुष्ठान ४२di 'वेत्वाम्' भने “को-कः' । 'वारेउ मरिहति-वारयितुमर्हति' पाछा पाना માટે સમર્થ થઈ શકે છે? અર્થાત્ કઈ પણ સમર્થ નથી. છા સૂત્રાર્થ–હે પુત્ર ! એક વાર ઘેર આવીને તને ન ફાવે તે પાછો ચાલ્યો જજે. એવું કરવાથી તારી સાધુતા નષ્ટ નહીં થઈ જાય. જે તારી કામ કરવાની ઈચ્છા ન હોય અથવા તારે તારી ઈચ્છાનુસાર કોઈ કામ કરવું હોય તે તને કેણ રોકવાનું છે ? એટલે કે તારી ઈચ્છાનુસાર કામ કરવામાં અમે કેઈ નડતર રૂપ બનશું નહી. શા Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ५५ टीका--'ताय' हे तात ! हे प्रियपुत्र ! 'गंतु' गत्वैकवारम् । गृहमिति शेषः । 'पुणो' पुनः 'गच्छे' आगच्छेः 'तेण' तेनैकवारगृहगमनेन । 'असमणो सिया' न अश्रमणः स्यान त्वमसाधुभविष्यसि, किमेकवारं गृहगमनेन कोऽप्यश्रमणो भवति । यदि गृहं नो रोचते तदा पुनरप्यागन्तव्यमिदेव । 'अकामगं' अकाम-अनिच्छन्तं गृहकार्यम् , गृहकार्येच्छाविरहित भवन्तम् । 'परिकम्म' पराक्रान्तम्-स्वेच्छानुसारसंयमानुष्ठान कुवन्तम् । अथवा-वृद्धावस्थायाम् । अकामर्ग अकामक-मदनेच्छारहितं संयमानुष्ठानं पति पराक्रमन्तं 'को ते' कस्ते त्वाम् 'वारेउमरिहति' वारयितुं संयमानुष्ठानानिषेधुमईति, तदाऽवसरमाप्ते संयमा नुष्ठानाख्ये कर्मणि त्वां वारयितुं न प्रभविष्यति कोऽपि । 'वार्धक्ये मुनिवृत्तीना' मिति लोकोक्तेः । अधुना तु गृहमेव गन्तव्यम् , नायमवसरः संयमाऽनुष्ठानस्य । सति समयेऽबाधितेन त्वयाऽवश्याऽनु ठेयः संयम इति भावः ॥णा टीकार्थ-हे मिय पुत्र ! एक धार घर चल कर फिर लौट आना। एक चार घर चलने से तुम असाधु नहीं हो जाओगे । एक वार घर जाने से ही क्या कोई असाधु हो जाता है ? अगर घर में रहना रुचिकर न हो तो पुन: यहीं आ जाना । यदि तुम्हारी इच्छा गृहकार्य करने की न हो या अपनी इच्छा के अनुसार संयम का अनुष्ठान करना हो अथवा वृद्धा वस्था में कामेच्छा से रहित और संयम का अनुष्ठान करते हुए तुम्हें कौन रोक सकता है ? संघमानुष्ठान के योग्य उस अवसर पर तुम्हें संयम साधन से कोई नहीं रोक सकेगा? लोक में भी कहा जाता है कि वृद्धावस्था में मुनि वृत्ति अंगीकार करनी चाहिए । परन्तु इस समय तो ટીકા–માતા, પિતા આદિ વજને મુનિને આ પ્રમાણે સમજાવે છેહે પ્રિય પુત્ર તું ! એક વાર તે ઘેર પાછા ફર પછી તને ઠીક લાગે તે પાછો ફરજે. એક વાર ઘેર આવવામાં તું અસાધુ નહીં બની જાય. શું એક વાર ઘેર આવવાથી સાધુતાનું ખંડન થાય છે ખરું ! જે તને ઘરમાં રહેવાનું ન ગમે, તે તું અહી પાછા આવી જજે. જે તું ઘરકામ કરવા ન માગતું હોય અને ધર્મની આરાધના કરવા માગો હોય, તે અમે તને તેમ કરતો રોક નહીં. અથવા વૃદ્ધાવસ્થામાં કામેચ્છાને પરિત્યાગ કરીને જે તે સંયમની આરાધના કરીશ, તે તને કેણ રોકવાનું છે? વૃદ્ધાવસ્થા જ સંયમની આરાધના કરવા માટેનો યોગ્ય સમય છે ત્યારે તું ખુશીથી સંયમની આરાધના કરજે. કેમાં પણ એવી જ માન્યતા પ્રચલિત છે કે વૃદ્ધાવસ્થામાં જ પ્રવજ્યા અંગીકાર કરવી જોઈએ સંયમ સાધનાને આ અવસર નથી, માટે અત્યારે તો તારે ઘેર જ ચાલ્યા આવવું જોઈએ. જ્યારે અવસર આવે Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताने प्रकरणमुपसंहरन्नाह-सूत्रकारः-'इच्चेवणं सुसेहति' इत्यादि । मूलम् इच्छेवणं सुसेहंति कालगाये लमुटिया । विवद्धो नाइसंगेहि तओऽगार पहावइ ॥९॥ छाया-इत्येव सुशिक्षयन्ति कारुण्यं समुपस्थिताः। विवद्धो ज्ञातिसंगेन ततोऽगारं प्रधावति ॥९॥ अन्वयार्थः-(ग) खलु (कालणीये समुट्ठिया) कारुण्ये समुपस्थिताकारुण्यमुत्पादयंतः (इच्चेव) इत्येवं पूर्वोक्तरोत्या (सुसेहति) सुशिक्षयंति स चापरिणतधर्मा, नवमानितः (नाइसंगेहि। ज्ञातिसंगैः (दिवद्धो) विवद्ध मातापिदपुत्रकलादिमोहितः (तो) ततस्तदनन्तर (अगारं) अपारं गृहं (पहावा) अधावति गच्छतीत्यर्थः ॥९॥ प्रकरण का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं 'इच्चेव ' इत्यादि। शब्दार्थ-'-खलु' निश्चय 'कालुणिये समुष्टिया'-कारुण्ये समुपस्थिता' करुणाजनक बन्धु वर्ग के 'इच्चेवं-स्त्येवम्' इस प्रकार के 'पूर्वोक्त रीति से 'सुलेहति-सुशिक्षयन्ति' साधु को शिक्षा देते है अर्थात् समझाने पर 'नाइसंगेहि-ज्ञातिसंगैः' ज्ञातिसंग से 'विवद्धोविषदः' बंधा हुआ अर्थात् मानापिता पुत्र कलत्रादि में मोहित होकर 'तओ-तता' उस समय 'अगारं-अगारम्' घर की ओर 'पहावा-प्रधा. वति' जाता है ॥१॥ . अन्वयार्थ-करुणा से परिपूर्ण ज्ञानिजन इस प्रकार साधु को सिख लाते हैं । वह नवदीक्षित और अपरिणतधर्मा साधु ज्ञातिजनों के मोह में फंस कर घर चला जाता है ॥९॥ हवे ॥ ४२ने ५ 8२ ४२ ॥ सूत्र॥२ ४३ छ-'इच्चेएण' त्याह शहा- 'ण-खलु' निश्च५ ‘क लुगिये समुडिया-कारण्ये समुपस्थिताः' ४३४४ मधु ना इच्छेव-इ-येवम्' मा ४२ना पूति शतथी 'सुसेहति-सुशिक्षयन्ति' साधुन शिक्षा है छे ? अर्थात् समताथा 'नाइसंगहि-ज्ञातिसंगैः' शातिसगथी विवद्धो-विवद्धः' मधायेसा अर्थात् माता, पिता पुत्र, ४त्र, गेरेभा माहित न 'तो-तन.' ते समये 'अगारं-अगारम' घरनी त२५ 'पहावइ-प्रधावति' नय छे. ॥६ સૂત્રાર્થ કુટુંબીઓ અને સગાં-સંબંધીઓ આગળ વર્ણવ્યા પ્રમાણેના કરુણાજનક વચને વડે તે નવદીક્ષિત સાધુને સંસારમાં પાછા ફરવા માટે થશાવે છે. તેને પરિણામે નવદીક્ષિત અને અપરિણતધર્મ સાધુ જ્ઞાતિજનોના Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेमयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ५९ · टीका-'कालुणीय समुट्टिया' कारुण्य समुपस्थिताः, हीनदीनवचनेन फरु. णया युक्ता मोहजालं प्रसार्य संयमप्रासादशिवरात् पातकाः बन्धुबान्धवाः । 'इच्चेव' इत्येवंरूपेण, पूर्वोतरकारेण 'सुसेहति' मुशिक्षयन्ति, सम्यग् रूपेण मार्थयन्ते । यद्यपि वान्धवकथिनवचनजातस्य संपारे प्रवर्तकतया न सुशिक्षार्थ व सभाति । अपि तु अनिष्टोत्पादकनया. विपरीतमेव, तथापि इह शिक्षारदेन गृहस्याभिमतशिक्षाया एव कथनात् । वान्धवय वनैः शिक्षितो नवदीक्षितः साधुः तेषां बान्ध. वानां मोहपाशैर्वद्धः। 'नाइसंगेहि' ज्ञातिसगैः ज्ञातीनां संगेन 'विवद्धो' विवद्धः दृढ विवाधितः अल्पसत्रः गुरुकर्मा साधुः । 'तओ' ततस्तदनन्तरम् । 'अगा' अगारं-पूर्वगृहमेव 'पहावई' प्रधावति । यथा रज्जुबद्धः पशुः सरज्जुपुरुषेण यथा. कामं नीयते, तथा वान्धवविलपितमोहपाशैवलादल्यसत्यः साधुर्गृहं नीयते । टीकार्य-करुणा से युक्त अर्थात् दीनता हीनता से परिपूर्ण वचनों का प्रयोग करके और मोहजाल फैला कर संयम रूपी महल के शिखर से नीचे गिराने वाले बन्धु बान्धव साधु को पूर्वोक्त प्रकार ले सिखलाते हैं-प्रार्थना करते हैं। यद्यपि धन्धु घान्धवों के वे वचन संसार में प्रवृत्ति कराने वाले हैं, अनिष्ट कारक होने से विपरीत हैं,अतएव उन्हें सुशिक्षा नहीं कहा जा सकता, तथापि यहां 'शिक्षा' पद से गृहाभिमत शिक्षा का ही आशय समझना चाहिए । अपने बान्धवों के वचनों से शिक्षित नवदीक्षित साधु मोहपाश में बंध जाता है। ज्ञातिजनों के मोह में फँसा हुआ अल्प सत्व वाला और भारी कर्मों वाला साधु तत्पश्चात् घर चल देता है। जैसे મોહમાં ફસાઈને દીક્ષા પર્યાયને ત્યાગ કરીને પુનઃ ગૃહસ્થાવસ્થાને સ્વીકાર કરી લે છે. શા ટીકા-કરુણાનક એટલે કે દીનતા હિનતાથી પરિપૂર્ણ વચનો પ્રવેગ કરીને અને મેહજાળ ફેલાવીને સંયમરૂપી મહેલને શિખરથી સાધુને નીચે પછાડનારા સગાંસ્નેહીઓ સાધુને પૂર્વોક્ત પ્રકાર સમજાવે છે, અને સાધુપર્યાયને ત્યાગ કરવાની વિનંતિ કરે છે. જો કે સગાં-સનેહીઓનાં આ વચને સંસારમાં પ્રવૃત્તિ કરાવનારાં હોવાને કારણે અને તેનું અનિષ્ટ કરનારાં હોવાને કારણે વિપરીત શિખામણું રૂપ હેવાને કારણે તે વચનેને સુશિક્ષા કહી શકાય નહીં, છતાં પણ અહીં “શિક્ષા પદને ગૃહાભિમત શિક્ષાનું જ-ઘેર પાછા ફરવાના બંધનું જ–વાચક સમજવું જોઈએ. તેમનાં આ પ્રકારનાં વચનેથી નવદીક્ષિત, અપસવ સાધુ મેહપાશમાં જકડાઈ જાય છે અને પ્રત્રજ્યાને ત્યાગ કરીને ઘેર પાછા ફરી જાય છે. જેવી રીતે દેરડા Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतागसूत्रे मूलम्-ज किं च अणगं तात तंपि सव्वं लसीकतम्। हिरणं ववहाराइ तेषि दाहासु ते वयं ॥८॥ छाया-यत्किचिच त्राणं तात! तस्सर्वं हि समीकृतम् । हिरण्यं व्यवहारादि तदास्यामो वयं वसु ॥८॥ अन्वयार्थ-(तात) हे तात हे कुडुम्बरक्षकपुत्र (जं किंचि) यत् किंचित (अणगं) ऋणं (तं वि सम्बं) तदपि सर्वम् अस्माभिविभज्य (समीकतं) समीकृतम्-समभागेन व्यवस्थापितम् (क्वहाराइ) व्यवहारादिः (हिरण) हिरण्यसुवर्णादिकं (तंपि) तदपि (ते) तुभ्यम् (वयं) वरम् (दाहामु) दास्यामा त्वदीयव्यवहारोपयोगिसुवर्णादिकं दास्याम इति भावः ॥॥ घर पर ही चलो । संयम साधना का यह अवसर नहीं है। जब अवसर आवेतो चिना किसी बाधा के तुम संघम का अवश्य अनुष्ठान करना ॥७॥ शब्दार्थ--'तात-तात' हे पुन्न ! 'जं किंचि अणगं-यत् किंचित् ऋणम्' जो कुछ ऋण था 'ते वि सव्यं तदपि सर्वम्' वह भी लव 'समीकतं-समीकतम्' हमने विभाग कर बराबर कर दिया है 'वहाराइव्यवहारादिः' व्यवहार के योग्य जो 'हिरणं-हिरण्यम्' सुवर्णादिश है 'तं पि-तदपि' वह भी 'ते-तुभ्यम्' तुझको 'वयं-वयम्' हम लोग 'दाहायु-दास्थामा देंगे अतः तुमको घर ही चलना उचित है ॥८॥ अन्वयार्थ-हे पुत्र ! हे कुटुम्ब के रक्षक ! जो ऋण चढाथा, उस सब को हम लोगों ने वशंट कर वराबर कर लिया है। व्यवहार के लिए तुम्हें जो हिरण्य (चांदी) सुवर्ण आदि चाहिए वह हम तुम्हें देंगे॥८॥ ત્યારે કઈ પણ પ્રકારના અવરોધ વિના તું અવશ્ય સંયમની આરાધના કરજે. ગાથા ના शvatथ-'तात-तात' हे पुत्र! ‘ज किंचि अणगं-यत् किंचित्ऋणम्' ? ४४४ अय तु तं वि सव्वं-तदपि सर्वम्' ते ५ मधु 'समीकतं-समीकृतम्' अभे विमा N मराभ२ ४ी दाधु छ 'ववहाराइ-व्यवहारादिः', व्यवहारमा याय २ हिरणं-हिरण्यम्' सुवारि छे. 'तपि-तदपि' ते ५५ 'ते-तुभ्यम्' तने 'वयं-वयम्' समे वो 'दाहामु-दास्य म.' भापीशु थी तभ.२ ३२ આવવું જ ચગ્ય છે, તો સૂત્રાર્થ–હે પુત્ર! હે કુટુંબના આધાર! તારે માથે જે અણ (દેવું) વધી ગયું હતું, તે અમે સૌ કુટુંબીઓએ ભાગે પડતું ચુકવી દીધુ છે તારે વ્યવહાર ચલાવવા માટે તારે જે સુવર્ણ, ચાંદી આદિની જરૂર હોય તે અમે तने भाप गाथा ८॥ , Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. थु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ५७ 1 टीका- 'वात' हे पुत्र ! हे कुटुम्बरक्षकपुत्र ! जं किंच अणगं' यह किंचित् ऋणादिकमासीत् । 'तंपि सन्च' तत्सर्वमपि 'समीकर्त' समीपम् अस्माभिरेव समं विभज्य ऋणं दत्तम्, नास्ति ते ऋणभारः । यदि कदाचिद ऋणभाराद्भीत इहागतोऽसि तदा तद्भयं त्यज । अस्माभिरेव तत्सर्वं समीकृतम् | 'बवहाराई ' व्यवहारयोग्यं व्यापारादिप्रयोजनीभूतं यदपि विद्यते । 'हिरणं' हिरण्यं सुवर्णादि धनं गृहेऽवशेषितम् । 'तं वि' तदपि 'ते' तुभ्यम् 'वर्य' वयम् ' दाहास्रु' दास्यामः । हे पुत्र ! तवोपरि यद् ऋणमासोत् तदस्माभिरेव विभज्य स्त्र स्वशिरसि न्यस्तम् । अथ च गृहे यत् व्यवहारयोग्यं स्वर्णादिरूपं धनं विद्यते, तदपि तुभ्यं दास्यामि, अतस्त्वयाऽवश्यमेव गन्तव्यं गृहम् । यद्भयात्यक्तगृहः, तत् दूरं गतं तदर्थ शोको न कर जीवः | अतः परं गृह सेवा व्यापारे नास्ति अबाधितस्य ते वाघाव्याधिरिति भावः॥८। fe टीकार्थ- हे कुटुम्ब के रक्षक पुत्र ! तुम्हारे ऊपर जो भी ऋण आदि था वह हमने बराबर कर दिया है-वॅटवारा करके चुका दिया है। अब तुम्हारे ऊपर ऋण का भार नहीं रहा है । ऋण के भय 'भयभीत हो कर यहां आए हो तो उस भय को दूर कर दो। वह ऋण तो हमने ही उतार दिया है । व्यवहार अर्थात् व्यापार आदि के योग्य जो हिरण्य चांदी स्वर्ण आदि घर में है, वह भी हम तुम्हें देंगे । अभिप्राय यह है- हे पुत्र ! तुम्हारे ऊपर जो ऋण चहा था, उसका बटवारा करके हम लोगों ने अपने अपने माथे ले लिया है। इसके अति रिक्त घर में व्यवहार योग्य जो भी सोना चांदी आदि है, वह भी तुम्हें देंगे । अतएव तुम अवश्य घर चलो। जिस डरसे तुमने घर छोडा है, वह दूर होगया है । उसके लिए चिन्ता मत करो | इसके पश्चात् घर पर रहने में तुम्हारे लिए कोई विघ्नबाधा नहीं है | ટીકા”—હું કુટુ'ખના રક્ષક પુત્ર ! તારે માથે ઋણુના જે બેો હતેા, તે અમે ભરપાઈ કરા દીધા છે. કુટુંબીઓએ અંદરોઅંદર વહેચણી કરીને તે ઋણ ચુકવી દીધુ છે. હવે માથે ઋણના ભાર રહ્યો નથી જો ઋણુના ભયથી તે સાધુજીવન અગીકાર કર્યુ હાય, તે તે ભય હવે દૂર થઈ ગયેા છે વ્યવહુાર (વેપાર) આદિને માટે તારે જે સુવર્ણ, ચાંદી, ધન આદિની જરૂર હાય, તે અમે તને ઘરમાંથી આપશું વળી આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે ઋણના ભયથી ને તે' ઘર છેાડ્યુ. હાય, તા હવે તે ભય દૂર થઈ ગયા છે. વળી વેપાર આદિને માટે જરૂરી ધન અમે તને આપશું, એટલે તને કાઇ પણ પ્રકારની વ્યવહારિક મુશ્કેલી પણ નહી' પડે. હવે તમારે ઘેર પાછા ફરામાં શી મુશ્કેલી છે ? માટે છે। આ સાધુપર્યાય અને ફરી ઘેર ચાલ્યા આવેા ાગાથા દ્વા सू०. ८ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० सूत्रकृतार्कसूत्रे मोहपाशकूपपातकाः वान्धवाः पूर्वोक्तरीत्या साधुं तयासुशिक्षर्यति, यथा तेषां संगेन बद्ध व विभ्रान्तः गुरुकर्मा साधुः मोक्षदायिनीमपि मत्रज्यां परित्यज्य गृहपाशे एवानुबध्नात्यात्मानम् । इति भावः ॥९॥ 1 १ 3 ४ मूलम् - जहा रुत्रखं वणे जायं मालया पडिवंधई । દ एवं पडिवति णातओ असमाहिला ॥१०॥ छाया - यथा वृक्षं दने जातं मालुका प्रतिवचनाति । एवं ते प्रतिबध्नन्ति ज्ञातयो असमाधिना ॥ १०॥ रस्सी से बंधे पशु को रस्सी पकडने वाला पुरुष इच्छानुसार से जाता है, उसी प्रकार बन्धुबान्धवों के बिलापरूपी मोहपाश में आबद्ध सत्वहीन साधु घर ले जाया जाता है । आशय यह है कि मोह के कूप में पटकने वाले बान्धवजन पूर्वोक्त प्रकार से साधु को इस प्रकार सीख देते हैं जिससे उनके संग से बद्ध जैसा भ्रान्त गुरुकर्मा साधु मोक्षदायिनी दीक्षा को भी त्याग कर गृह "के बन्धन में बंध जाता है ||९|| शब्दार्थ- 'जहा-यथा' जैसे 'वणे जायं वने जातम्' वन में उत्पन्न हुवा 'रुक्खं - वृक्षम् ' वृक्ष को 'मालुया- मालुका' लता - वेल 'पडिबंह-प्रतिबध्नाति' वेष्टित हो जाती है ' - खलु' निश्चय ' एवं - एवम्' इसी प्रकार 'जातो ज्ञानयः' ज्ञातिवाले अर्थात् कुटुंबिजन 'असमाहिणा- असमाधिना' अल्प सत्व वाले उस साधु को 'पडियंति - प्रतिवध्नंति' बांध लेते हैं ॥१०॥ વડે ખાધેલા પશુને દોરડું' પકડનાર માણસ પેાતાની ઈચ્છાનુસાર દારી જાય છે, એજ પ્રમાણે સગાં-સ્નેહીએના વિલાપ રૂપ માહુપાશથી જકડાયેલા સહીન સાધુને, તે ઘેર લઈ જવામાં સફળ થાય છે. આ કથનનુ' તાત્પર્ય એ છે કે મેહંરૂપ કૂવામાં હડસેલનારા બન્ધુજને તે નવદીક્ષિત સાધુને એવી રીતે સજાવે છે કે તે ભ્રાન્ત, ગુરુકર્માં સાધુને મેક્ષદાયિની પ્રવ્રજયાના પણ ત્યાગ કરીને ગૃઢના મન્ધનમાં બંધાઈ જાય છે લા शद्वार्थ–'जहा-यथा' देवी रीते 'वणे जायं वने जातम्' 'वनभां उत्पन्न थयेस 'रुक्ख-वृक्षम्' 'उने 'मालुया -मालुका' सता- वेस 'पडिबंध - प्रतिबुध्नाति ' वीरणाई भयछे 'णं-खलु' निश्चय 'एवं - एवम्' मा प्रभा 'णातयो - ज्ञातयः ' ज्ञातिवाजा अर्थात् कुटु भिन्न 'अमांहिणा - असमाधिना' अस्य सत्त्ववाना ते स.धुने 'पडिवंधंति - प्रतिबध्नन्ति' गांधी सेहे ॥१०॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ६१ अन्वयार्थः-(जहा) यथा (वणे जायं) वने जातं (रुख) वृक्षम् (मालुया) मालकालना (पडिबंबइ) प्रतिवध्नाति-रिवेष्टयति (ण) खलु (एवं) एवमनेनैव प्रकारेण णातयो) ज्ञातयो-मातापितस्वजनाः (असमाहिणा) असमाधिना (पडि. बंधंति) प्रतिवध्नंति, येनास्यासमाधिरुत्पद्यते इति ॥१०॥ ____टीका-'जहा' यथा- येन प्रकारेण 'दणे जाय' बने जातम् बने समुत्पन्न वने वद्धितं पुष्पफलान्वितम् 'रुख' वृक्षम् , 'यालया' माल्लकामाला, लता इति यावत 'पडिवंबई प्रतिवध्नाति, यथा वने समुत्पन्ना लता बने समुत्पन्न स्वसमीपवंतिन वृक्षादिकं परिवेष्टयति 'ग' खलु ‘एवं' एवमेव ‘णातओ' ज्ञातयः परिवारिकाः कुटुम्बकदम्बकानि । 'असमाहिणा' असमाधिना तं नवदीक्षितं साधुम् , यद्वा-अल्पसत्त्वमसमाराधितचित्तं गुरुकर्माणं साधुम् । 'पडिवंधति प्रतिवध्नन्ति, तथा ते व्यवस्यन्ति यथाऽस्याऽसमाधिरुत्पधेत । असमाहितः स प्रव्रज्यां परित्यज्यगृहं गच्छति। __अन्वयार्थ--जैसे वन में उत्पन्न वृक्ष को मालुका-लता घेर लेती है . इसी प्रकार माता पिता स्वजन आदि उस साधु को ऐसा घेर लेते हैं जिससे उसे असमाधि उत्पन्न होती है ॥१०॥ ___टीकार्थ--जैसे वन में उत्पन्न, वन में वृद्धि को प्राप्त तथा पुष्पों और फलों से सम्पन्न वृक्ष को समीपवर्ती मालुका लता परिवेष्टित कर लेती है, उसी प्रकार कुटुम्बीजन असमाधि से उस नवदीक्षित साधु को अथवा सत्वहीन, असमाराधित चित्तवाले एवं भारी कर्मों वाले साधु को घेर लेते हैं । वे ऐसा करते हैं जिससे उसे असमाधि उत्पन्न हो । समाधि से रहित होकर वह साधु दीक्षा त्याग कर घर चला जाता है। ' સૂત્રાર્થ જેવી રીતે વનમાં ઉત્પન્ન થતાં વૃક્ષને માલુકા લતા વીંટળાઈ વધે છે, એજ પ્રમાણે માતા, પિતા, સ્વજને આદિ તે નવદીક્ષિત સાધુને એવાં તે ઘેરી લે છે કે તેમને કારણે તે સાધુના ચિત્તમાં અસમાધિભાવ ઉત્પન્ન થાય છે ૧૦ ટીકર્થ-જેવી રીતે વનમાં જ ઉગતા અને વનમાં જ વૃદ્ધિ પામતાં, પુપિ અને ફળોથી યુક્ત વૃક્ષને સમીપવતી માલુકા ના વીટળાઈ જાય છે, એ જ પ્રમાણે સાધુના ફૂટબીઓ અસમાધિભાવથી–મેહને વશવત થઈને તે સાધુને ઘેરી લે છે અથવા તે એ સવહીન, ગુરુકર્મા, અને અમારાધિત ચિત્તવાળા તે સાધન ઘેરી લે છે તેઓ એવાં વચને બોલે છે કે જે વચનને કારણે તે સાધુ અસમ ધિભાવ ઉત્પન્ન થાય છે અને તેનું ચિત્ત ડામાડોળ થઈ જાય છે. તેથી તે દીક્ષાને ત્યાગ કરીને ફરી ગૃહસ્થાવસ્થાને સ્વીકાર કરી લે છે. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे । ___ अमित्ररूपा अपि कुटुम्विनः साधु परिवेष्टन्य कथयन्ति हे तात ! यादृशस्थाने द्वयोरावयो न गमनं तत्रैकाकिना गमनेन किम् आवां मिलित्वा एकत्रैव स्थास्यावः कदाचिदुर्गतिं वा गच्छावः । तथा चोक्तम्-- "अमित्तो मित्तवेसेणं कंठे घेत्तुण रोयइ । मा मित्ता सोग्गई जाहि दो वि गच्छामु दुग्गइं ॥१॥ छाया--अमित्रं मित्रवेषेण कण्ठे गृहीत्वा रोदिति । मा मित्र मुगति याहि द्वावपि गच्छावो दुर्गतिम् ॥१॥ इति ॥१०॥ मूलम्-विचंद्धो नाइसंगहि हत्थी वावी नवगहे। पिट्रओ पंरिलप्पंति सुबगोव्व अदूरए ॥११॥ छाया--विवद्धो ज्ञातिसंगैईस्ती वापि नवग्रहे। पृष्ठतः परिसर्पन्ति सूतगौरिख अदूरगा ॥११॥ अमित्र रूप वे कुटुम्बीजन साधु को घेरकर कहते हैं हे पुत्र ! जिस जगह हम दोनों (हम सब) नहीं पहुंच सकते वहां तुम्हारे अकेले जाने से क्या लाभ! हम तुम मिलकर एक ही जगह रहे, भले ही दुर्गति में जाएँ परन्तु साथ रहें । कहा भी है-'अमित्तो मित्तवेसेणं' इत्यादि । . वास्तव में जो मित्र नहीं है, वह मित्र होने का ढोंग करके और गले से लगाकर रोता है । कहता है हे मित्र ! तुम अकेले सुगति में मत जाओ। हम दोनों साथ साथ दुर्गति में ही चले गे ॥१०॥ . . અમિત્રરૂપ તે કુટુંબીજનો તે સાધુને ઘેરી લઈને તેને એવું કહે છે કે આપણે બધાં એક સાથે જ્યાં પહોંચી ન શકીએ, ત્યાં તમારે એકલા શા માટે જવું જોઈએ! દુર્ગતિ કે સદ્ગતિ, જે ગતિ મળવી હોય તે મળે, પણ આપણે એકબીજાને સાથે છેડે જોઈએ નહીં. તમે સદ્ગતિમાં જાઓ અને અમે દુર્ગતિમાં જઈએ, એવું શા માટે કરવું જોઈએ ! કહ્યું પણ છે કે- ' , 'अमित्तो मित्तवेसेण' त्या: જેઓ સાધુના સાચા મિત્ર નથી તેઓ તેના મિત્ર હોવાને હગ કરીને તેને ભેટી પડીને વિલાપ કરવા લાગી જાય છે અને તેને કહે છે કે હે મિત્ર! તું એકલે સુગતિમાં જવાને વિચાર ન કર આપણે બધાં દુર્ગતિમાં સાથે સાથે જ ચાલ્યા જઈશું.' ગાથાં ૧ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनो टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ६३ __ अन्वयार्थ:--(नाइसंगेहि) ज्ञातिसगैः-मातापितृप्तम्बन्धैः (विवद्धो) विबद्धः (पिट्टओ) पृष्टतः (परिसप्पंति) परिसर्पन्ति साधोरनुकूलमाचरन्ति स्वजनाः (अवि) अपि (नवगहे) नवग्रहे (हत्थी व) हस्ती इव (सुयगोच्च अदूरए) सूतिगौरिवा दूगा यथा नवपम्ता गौः स्ववत्ससमीपे एव तिष्ठति तथैवतस्य परिवारा एतस्य समीपे एव तिष्ठन्तीति भावः ॥११॥ __ टीका-'नाइसंगेहि ज्ञातिसंगैः, मातापितृ कलत्रमित्रादिस्वजनवगैः। 'विवद्धो' शब्दार्थ-'नाह संगेहि-ज्ञातिसंगैः' माता पिता आदि स्वजनवर्ग के संबंध द्वारा 'विपद्धो-विपद्धः' बंधे हुए साधु के 'पिट्ठो पृष्टतः' पीछे पीछे 'परिसप्पंति-परिसर्पन्ति' उनके स्वजनवर्ग चलते हैं 'अविअपि' और 'नवगहे-नयग्रहे' नवीन पकडे हुए हत्थीव-हस्ती इव' हाथी के समान उसके अनुकूल आचरण करते हैं तथा 'सुयगोच्च अदूरएसूत गौरिचादरगा' नई व्याई हुई गाय जैसे अपने बछडे के पास ही रहती है उसी प्रकार उनका परिवारवर्ग उसके पास ही रहते हैं ॥११॥ _ अन्वयार्थ-मातापिता आदि के संबंधो से बंधे हुए साधु के पीछे पीछे स्वजन चलते हैं और नवीन पडे हुए हाथी के समान उसके अनुकूल व्यवहार करते हैं जैसे नबीन व्याई हुई गाय अपने बछडे के समीप ही रहती है उसी प्रकार वे भी उसी के पास रहते हैं ।११। टीकार्थ--मातापिता कलत्र मित्र आदि स्वजनों के सम्बन्ध से शपथ-'नाइसंगेहि-ज्ञातिसंगै' माता-पिता वगैरे वनपर्गना समा विबद्धो विबद्ध.' पाये। साधुना पिट्ठ प्रो-पृष्ठत.' या या 'परिसप्पति-परिसर्पन्ति' तमन। २१ व्याले छ 'अवि-अपि' भने 'नवगगहे-नवग्रहे' नवा ५४ये 'हत्थीव-हस्ती इव' बाथीनी म भने मनु ण मायर ४२ छ तथा 'सुयगोव्ध अदूरए-सूतगौरिवादूरगा' नवी पीयायल [, ગાય જેમ પિતાના વાછરડાની પાસે જ રહે છે તે જ પ્રકારે તેમને પરિવાર १ तेनी पासे १ २ छ. ॥११॥ , સૂત્રાર્થ_જેવી રીતે નવી વિયાયેલી ગાય પિતાના વાછડાની સમીપમાં જ રહે છે, એ જ પ્રમાણે માતા-પિતા આદિના સંબંધથી બંધાયેલા સાધુની પાછળ પાછળ તેના સંસારી સ્વજને ચાલે છે, ને નવા પકડી લાવેલા હાથીની સાથે જેવો વ્યવહાર કરવામાં આવે છે, એ તેને અનુકૂળ વ્યવહાર તેની સાથે કરે છે. ૧૧ टी-माता-पिता, पत्नी, भित्रमा २४ नाना स यथा पाया Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे विवद्धः साधुरल्पमत्वो भवति यस्य 'पिट्ठो' पृष्टना पश्चात् 'परिसपंति परिसर्पन्ति चलन्ति बान्धवाः, 'नवगहे हत्थी' नाहः हस्तीव, नवीनगृहीतो हप्तीव विवद्धो अवति, यथा ग्रहणकारः पश्चात् तमनुवर्तमानाः भवंति चलन्ति । तथाऽस्यापि साधोस्ते अनुकूच्चामेव चरंति, तेषां पश्चात्मवलंति, तथा 'सुयगोच्च अदुरए' सूतागौरिव अदूरगा, यथा नवसमूता गौः स्ववत्सस्य पार्वे एव तिष्ठति, तं परित्यज्य न कुत्रापि गच्छति तथा नवजातसाधोः परिवाराः वान्धवादयः साधु परित्यज्य न कुत्रापि गच्छन्ति, साधोः सामीप्य मेवानुतिष्ठन्ति । एवं स्वजनाऽऽहितमोहमापन्नः साधुः पत्रज्यां परित्यज्य गृहं विशति, तत्राऽपारमोह नालपरिवृतः परिवार परिवेष्टित एव तिष्ट नीति भावार्थः ॥११॥ प्लम्-एं संगो मणुस्साणं पायर्याला इव अतारिमा। ' कीया जत्थ व किरतति नाइसंगहि मुंच्छिया॥१२॥ बंधे हुए साधु के पीछे पीछे उसके बान्धव चलते हैं। जैसे नवीन हाथी को पकड़ने वाले उसी के अनुकूल वर्ताव करते हैं, उसी प्रकार वे भी उसी के अनुसार चलते हैं। जैसे नवीन ब्याई हुई गाय अपने बछडे के पास ही रहती है, उसे छोड कर अन्यत्र नहीं जाती, उसी प्रकार उस लाधु के चान्धव आदि परिजन उसके पास ही रहते हैं । उसे छोड़कर अन्यत्र नहीं जाते। आशय यह है कि इस प्रकार स्वजनों के सम्पर्क से मोह को प्राप्त वह साधु प्रव्रज्या का परित्याग कर घर चला जाता है। वहां अपार मोहजाल में फंसकर और परिवार से घिरकर रहता है ॥११॥ સાધુની પાછળ પાછળ તેના સંસારી સ્વજને ચાલે છે–ગૃહવાસને ત્યાગ કરવા છતાં તે તે સાધુનો સાથે છેડતા નથી જેવી રીતે જગલમાંથી હાથીને પકડી લાવનાર માણસે હાથીને અનુકૂળ વર્તાવ કરીને હાથીને પિતાને વશ કરી લે છે, એ જ પ્રમાણે સંસારી સ્વજનો પણ તે સાધુને અનુકૂળ થઈ પડે એ વર્તાવ રાખીને તેને વશ કરી લે છે. જેમ તાજી વિવાયેલી ગાય પોતાના વાછડાની પાસે જ રહે છે. તેને છોડીને બીજે જતી નથી, એજ પ્રમાણે તે સાધુના સ્વજને તેની પાસે જ રહે છે–તેને પિતાની નજરથી દૂર થવા દેતા નથી. આ પ્રકારે સ્વજનોને સંપર્ક ચાલુ રહેવાથી તે નવદીક્ષિત, અલ્પસત્વ સાધુ મેહને વશ થઈને સાધુ પ્રવ્રજપાને ત્યાગ કરીને ઘેર ચાલ્યા જાય છે. ત્યાં તે અપાર મોહજાળમાં ફસાઈ જઈને સંસારમાં અટવાયા કરે છે ૧૧ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् छाया-एसे संगा अनुष्याणां पाताला इवाऽताः । क्लीवा या लिश्यन्ति माति सगैश्चमूछिताः ॥१२॥ अन्वयार्थ:--(एए) एते पूर्वोक्ताः (संगा) सनामावृषितजनसंबन्धाः (मणुस्साण) मनुष्याणाम् (पायाला इव) पाताला इस समुद्रवत (अतारिमा) अतार्याः दुस्तराः (जत्थ) यत्र येषु संगेषु (नाइसंगे हिं) ज्ञातिसंगः (मुच्छिया) मूञ्छिता गृद्धिमावमुपागठा: (कीवा) क्लीवाः कातरा असमर्थाः (किस्संति) क्लिश्यति क्लेशमनुमति संसारान्तर्वत्तिनो भवन्तीति ॥१२॥ टीका--'एए संगा' एते पूर्वोक्ताः संगाः सज्यन्ते इति संगाः पितृमात. प्रभृतीनां मोहपाशपातकाः तात्कालिकाऽनुकूलदेदनीयाः संबन्धाः, नवीनको शव्दार्थ-'एए-एते' यह पूर्वोक्त 'संगा-सङ्गा मातापिता स्वजन आदि का संबन्ध 'मणूलाण-मनुष्याणाम् अनुष्यों के लिए 'पायाला. इव-पाताला इच' समुद्र के समान 'अतारिमा-अता: दुस्तर है 'जत्थ-यन्त्र' जिस संग में 'नाइसंगहि-ज्ञानिलंगः' ज्ञातिसंसर्ग में 'मुच्छिया-मूच्छिताः' आसक्त हुए 'कीवा-क्लीवा' असमर्थ पुरुष किस्संति-क्लिश्यन्ति दुःखित होते हैं ॥१२॥ ' अन्वयार्थ--ये पूर्वोक्त संग अर्थात् मातापिता आदि स्वजनों के सम्बन्ध मनुष्यों के लिए समुद्र के समान दुस्तर हैं जिनमें स्वजने संसर्ग से मूर्छित हुए कायर जन क्लेश का अनुभव करते हैं या संसार में परिभ्रमण करते हैं॥१२॥ - टीकार्थ-ये पूर्वोक्त संग अर्थात् माता पिता आदि, स्वजनों के सम्बन्ध शहाथ-- 'एए-श्ते' ! पूरित 'सगा-सगा.' भाता-पिता २१४न वगैरेन। समय 'मणूमाणं-मनुष्याणाम्' मनुष्याना माट 'पायाला इव-पाताला इच' समुद्रना अमान 'अतारिमा-अतार्या' स्तर छ. 'जत्थ-यत्र' 2 समा 'नोई संगेहि-ज्ञातिसंगै.' ज्ञातिस समय 'मुच्छिया-मूर्छिता' मासरत थये 'कीवाक्लीवाः' असमय ५३५ 'किस्संति क्लिश्यन्ति हुभी थाय छे. ।।१२। સૂત્રાર્થ–માતા-પિતા આદિ સ્વજનોના સંબ ધરૂપ પૂર્વેતસ ગ માણસોને માટે સમુદ્રના સમાન દુસ્તર છે સ્વજનોના મેહમાં આસક્ત થયેલા મૂછલાવને કારણે તેમને સ સર્ગ નહી છેડી શકનારા-હાયર માણસે આ સંસારમાં પરિ. ભ્રમણ કર્યા જ કરે છે અને જન્મ, જરા અને મરણનાં દુઃખને અનુભવ કર્યા જ કરે છે ? ટીકા–આ પહેલાં કહેલ માતા-પિતા વિગેરે વજન સંબંધીજને મહા Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ • सूकृतास्त्रे पादानस्वरूपाः। 'मणुस्साणं' मनुष्याणाम् 'पाताला' पाताला समुद्राः व=इव 'आरिमा' अतार्याः अतीवदुस्तराः, यथाऽलयसत्त्वानां समुद्रो न लंघनीयः भवति, तथाऽल्पसत्यानां मातृपितृस्वजनादीनां पारस्परिकाः सम्बन्धाः अनुल्लंघनीयाः भवन्ति । 'जत्थ' यत्र यस्मिन् संगे 'कीवा' क्लीवा असमर्थाः कातराः पुरुषा 'किम्संति' क्लिश्यन्ति-क्लेशमनुभवन्ति विधिप्रभेदभिन्नसंसारके एवाऽऽवि. शन्ति । कथं भूतास्ते पुरुषा:-ये संसारमेव विशन्ति तत्राह-'नाइसंगेहिं मुच्छिया' ज्ञातिसंगैः पुत्रकलत्रादिसंबन्धैः मूच्छिता आसक्ताः सन्तः । स्वजनसंमर्ग: स्नेहो मनुष्याणामतिदुस्तरः समुद्र इव । अस्मिन् स्नेहे संसक्तोऽसमर्थः पुरुषार्थचतुर्थपरमपुरुषः मतिपुरुषोऽतीच क्लिश्यतीति महतां विमर्शः ॥१२॥ मूलम्-तं च भिक्खू परिनाय सम्वे संगो महासंवा। जीवीयं नावकंखिज्जा सोचा धम्ममणुत्तरं ॥१३॥ छाया--तं च भिक्षुः परिज्ञाय सर्वे संगा महास्रवाः । ___ जीवितं नाऽवकांक्षेत श्रुत्वा धर्ममनुत्तरम् ॥१३॥ मनुष्यों के लिये तात्कालिक अनुकूल वेदनीय है, न कि परिणाम के लिये, परिणामसमेंतो ये लम्बन्ध अल्प जीवों के लिये समुद्र के जैसे दुस्तर हैं जिनमें स्वजन संसर्ग से प्रेमवशात् आसक्त होकर कायरजन नाना प्रकार के क्लेश का अनुभव करते हैं या संसार चक्र में परिभ्रमण करते हैं ॥१२॥ ___शब्दार्थ --'भिक्खू-भिक्षुः' साधु 'तं च-तं च' उस ज्ञाति सम्बन्ध को 'परिन्नाय-परिज्ञायज्ञपरिज्ञा से अनर्थकारक जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञासे' छोड देवें क्योंकि 'सव्वे संगा-सर्वे संगा' सभी सम्बन्ध પાશ રૂપસંબંધ સમુદ્રની માફક અતિ દુસ્તર હોય છે. જેમ અપ પરાક્રમી સમુદ્રને પાર કરી શકતો નથી તે જ રીતે અલ્પ પરાક્રમવાળા પુરૂષને માતા-પિતા વિગેરે સ્વજનાદીઓને સંબંધ છેડવો તે ઘણો જ મુશ્કેલી ભર્યો છે કે જે સંગમાં કાયર પુરુષે દુખ ભોગવ્યા જ કરે છે. તે કાયર પુરૂષો કેવા હે ય છે? તે માટે કહે છે કે–તેઓ પુત્રકલત્રાદિ સબમાં ઘણા જ આસક્ત થઈને તેમાં જ રચ્યાપચ્યા હોવાથી પરમ પુરૂષાર્થરૂપ મોક્ષ મેળવવા પ્રયત્ન કરી શકતા નથી. અને સંસારરૂપી સમુદ્રમાં જ ભ્રમણ કર્યા કરે છે. ૧૨ સૂત્રકાર સાધુને ઉપદેશ આપતાં આ પ્રમાણે વિશેષ કથન કરે છે– Avata-'भिक्खू-भिक्षुः' साधु 'तं च-तंच' ते ज्ञाति सधने 'परि न्नाय-परिज्ञाय परिक्षाथी सन २४ जाने प्रत्याध्यान परिज्ञाथी छाडी भडे 'सव्वे संगा-सर्व संगाः' मा ४ सय 'महासवा-महालवा. महान Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकुलोपसर्गनिरूपणम् ६७ ___ अन्वयार्थः--(भिक्खू) भिक्षुः साधुः (तं च) त च ज्ञातिसंवन्धं (परिनाय) परिज्ञाय ज्ञात्वा त्यजेत् (सव्वे संगा) सर्वेपि संगाः संबन्धाः (महासवा) महावा कर्मणामास्रवद्वाररूपा भवंति अतः (अणुत्तरं) अनुत्तरं सर्वत उत्तमं (धम्म) धर्ममहिंसादिलक्षणं (सोच।) श्रुत्वा (जीवियं) जीवितम् असंयमजीवनम् (नामिकंखेज्जा) नामिकांक्षेत् जीवनेच्छां न कुर्यादिति ॥१३॥ टीका--'भिक्खू' भिक्षुः साधुः 'तं च तं च तादृशं परिजनसंबन्धम् । 'परिनाय' परिज्ञाय=ज्ञपरिज्ञया अनर्थस्वरूपं परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया त्यजेत् । यतः-'सव्वे संगा' सर्वे एव संगा आसक्तयः 'महासा' पहावाः महतां कर्मणाम् आस्रवाः द्वारभूता', उत्पादका भवन्ति कर्मणाम् , इति विमृश्याऽनुकूलस्योपः 'महासवा-महाश्रवाः' महान् कर्म के आस्रवद्वार होते हैं अतः 'अणुत्तरं--अनुत्तरम्' सर्वसे उत्तम 'धम्म-धर्मम्' अहिंसादिलक्षणवाछे धर्म को 'सोच्चा-श्रुत्वा' सुनकर 'साधुजीवियं-साधुजीवितम्' असंयम जीवन की 'नाभिकंखिज्जा नाभिकांक्षेत्' इच्छा न करे ॥१३॥ . - अन्वयार्थ-साधु उस ज्ञातिसंबंध को ज्ञ परिज्ञा से अनर्थमूलक जानकर प्रत्याख्यान प्रतिज्ञा से उनका त्याग करें, क्योंकि ये सभी सम्बन्ध कर्म के आश्रयद्वाररूप होते हैं अतः सर्वे से उत्तम अहिंसादि लक्षणवाले धर्म को सुनकर साधु असंयमी जीवन की इच्छा न करें ॥१३॥ टीकार्थ--साधु स्व जन सम्बन्ध को ज्ञपरिज्ञा ले अनर्थ का कारण जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से उसका त्याग कर दे । क्योंकि समस्त संग:महान् आश्रव का कारण है-कर्मों के बन्ध का कारण है। इस भना भासप वा२ ३५ छ, मत: 'गुत्तरं-अनुत्तरम्' माथी उत्तम 'धम्म -धर्म' महिमा परे पक्षपात धमन साच्चा-श्रुत्वा' सालजीने साधु 'जीवियं -जीवितम्' २१सयम पननी 'नाभिकखिज्जा-नाभिकांक्षेत् ५२छन ४२.१३॥ ' સૂવા–સાધુ એ જ્ઞાતિસંબંધને પરિણાથી અનર્થનું મૂળ સમજીને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી તેને ત્યાગ કરે કેમ કે આ બધા જ સંબંધો કમરના આસ્રવ દ્વાર રૂપ હોય છે. તેથી બધાથી શ્રેષ્ઠ અહિઆદિલક્ષણવાળા ધર્મને સાંભળીને સાધુ અસંયમી જીવન ધારણ કરવા ન ઈચ્છે છે૧કા ટીકાઈ–સાધુએ શપરિજ્ઞાથી એવું સમજવું જોઈએ કે સ્વજનેના સંસર્ગ અનર્થનું કારણ છે. તેને અનર્થનું કારણ સમજીને તેણે પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞા - વડે તેનો ત્યાગ કર જોઈએ કારણ કે સમસ્ત સંગ મહાન આનું કારણ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे सर्गस्योपस्थितौ संयविरहितम् , 'जीवियं' जीवनं हाऽऽवासपाशकल्पम् 'नाभिऋखिज्जा' नाभिका क्षेत् । नैवाऽभिलपेदिति प्रतिकूलोपस रुपस्थितैस्तु सद्भिजीविताभिलाषी न भवेत् । दुःखजनकतथा सांसारिकजीवन नवाऽभिलपेत् । के वस्तुविशेषमवाप्य ज्ञात्वा तादृशं जीवनं नाऽमिलपेत्तत्राह-सोच्चेत्यादि । 'अणुत्तरं' अनुत्तरम् लारमादुत्तरोऽस्तीत्यनुत्तरम् सर्वतः श्रेष्ठम् । 'धम्म' धर्म-श्रुतचारिव्याख्यं 'सोचा' श्रुत्वा-निशम्येति-तीर्थंकरगणधरसंयतानां समीपे ज्ञातिसंबन्धः संसारकारणमिति मत्वा साधुः स्वजनासक्ति परिहरेत् । यतः सर्वेऽपि संबन्धाः कर्मणां समुत्पादकाः । अतः साधुभिः सर्वोत्तमः श्रुतचारित्र्यारूप: धर्म एव परिप्रकार विचार करके लाधु को अनुकूल उपसर्ग उपस्थित होने पर संघमहीन जीवन की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए । प्रतिकूल उपसर्ग उपस्थित होने पर जीवन की ही इच्छा नहीं करनी चाहिए। सांसारिक जीयन की, जोकि दुःखजनक है, इच्छा करना उचित नहीं। किस वस्तु को प्राप्त करके और जानकर के असंयममय जीपन की अभिलाषा नहीं करना चाहिये । इसका उत्तर देते हैं जिससे उत्तर अर्थात् श्रेष्ठ कोई और न हो, वह अनुत्तर कहलाता है। ऐसे अनुत्तर अर्थात् सर्वश्रेष्ठ श्रुतचारित्ररूप धर्म को तीर्थंकर, गणधर था अनगारों के मुखारविन्द से श्रवण कर और स्वजन सम्बन्ध संसार का कारण है, ऐसा मानकर साधु स्वजन संबंधी पालक्ति का परित्याग करे । -કર્મોના અન્યનું કારણ છે. આ પ્રકારને વિચાર કરીને, જ્યારે અનુકૂળ ઉપ -સળે આવી પડે ત્યારે સાધુએ સંયમહીન જીવનની આકાંક્ષા કરવી જોઈએ. નહી પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગો આવી પડે ત્યારે જીવનની આકાંક્ષા રાખ્યા વિના મધ્યસ્થભાવે ઉપસર્ગોને સહન કરવા જોઈએ આ પ્રકારના ઉપસર્ગો અને પરીષહ આવી પડે ત્યારે તેણે પ્રવજ્ય ને ત્યાગ કરીને સાસારિક જીવન સ્વીકાર ધાનો વિચાર પણ કરવો જોઈએ નહીં, કારણ કે સાંસારિક જીવન તે દુઃખ જનક જ છે. તેના દ્વારા આત્મહિત સાધી શકાતું નથી. તે આત્મહિત ससाना या राड छे, ते -सूत्रा२ ५४८ ४२ छ- .. અનુત્તર (સર્વશ્રેષ્ઠ) શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્મનું તીર્થકર, ગણધર અથવા અણુગારના મુખારવિન્દથી શ્રવણ કરવું અને માતા-પિતા આદિ સ્વજનેનો સંસર્ગ સંસારનું કારણ છે, એવું માનીને સાધુઓએ સ્વજને પ્રત્યેની આસક્તિનો પરિત્યાગ કરે જઈએ. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1 समयार्थबोधिनी टीका प्र. भुं. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् पालनीयः । एतादृशस्याऽस्य धर्मविशेषस्य सर्वश्रेष्टतां श्रुत्वा असमतजीवनमपि नाऽभिलषेत् । तादृशधर्मस्य समुपस्थिते त्यागकारणे जीवनत्यागो वरम् न पुनः संयमत्यागः श्रेयानिति भावार्थः ॥ १३ ॥ उपदेशान्तरमाह - 'अहिमे' इत्यादि । E 8 मूलम् अहि संति आंबट्टा कासवेणं पया । 99 १० बुद्धा जत्थावसर्पति सीयंति अहा जहिं ॥ १४ ॥ छाया - अथेमे सन्ति आवर्त्ताः काश्यपेन मवेदिताः । वृद्धा यत्रापसर्पन्ति सीदन्ति अबुधा यत्र || १४ || आशय यह है कि सभी सम्यन्त्र कर्मजनक हैं अतएव उनका त्याग करके साधु को श्रुतचारित्र धर्म का पालन करना चाहिये । इस प्रकार के धर्म की सर्वश्रेष्ठता को सुनकर असंग्रमजीवन की भी अभिलापा नहीं करनी चाहिए । इस धर्म के त्याग का कारण उपस्थित होने पर जीवन का त्याग कर देना अच्छा किन्तु संघम का त्याग करना श्रेयस्कर नहीं है || १३ ॥ शब्दार्थ - 'अह - अध' इसके पश्चात् 'कासवेणं-काइपेन' काश्यपगोत्री भगवान् वर्धमान महावीरस्वामी के द्वारा 'पवेश्या - प्रवेदिताः' कहे हुए 'हमे आट्ठा - हमे आवर्ताः' ये आवर्त अर्थात् कौटुम्बिक सम्बन्ध जलचक्र की भ्रमरूप 'संनि सन्ति' है ' जत्थ-पत्र' जिनके आने पर આ કથનના ભાવાથ એ છે કે સાંસારિક સમસ્ત સબધેા કરેંજના છે, તેથી તે પ્રકારના સંબધાના ત્યાગ કરીને સાધુએ શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મોનુ પાલન કરવું જોઇએ. આ પ્રકરના ધમ ને સ શ્રેષ્ઠ અણીને તેણે સયવિહીન જીવન જીવવાની અભિલાષા પણ કરવી જોઈએ નહીં. આ ધમ નું પાલન કરતાં કરતાં કદાચ જાનનું જોખમ આવી પડે તે પણ તેને સયમના ત્યાગ કરવા જોઈએ નહી-પેાતાનાં પ્રાણાનું ખલિદાન આપીને પશુ તેણે સંયમના માગે અડગ રહેવુ જોઈએ. ાગાથા ૧૩૫ अहिमे संति शब्दार्थ –‘अह-अथ’ खाना पछी 'कासवेण काश्यपेन' श्ययगोत्री भगवान् वर्धमान महावीर स्वाभीना द्वारा 'पवेइया - प्रवेदिताः ' डे ' इमे श्रावट्टा- इमे आवर्त्ताः' या आवर्त' अर्थात् भेटुम्भः समंध भयनी अमीर३य 'संति IT Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ____ अन्वयार्थ :- (अह) अथ (कासवेणं) काश्यपेन बर्द्धमानस्वामिना (पवेइया) प्रवेदिताः कथिताः (इमे आत्रा) इमे आवाःल भ्रमिरूपाः (संति) संति भवंति (जत्थ) यत्र (बुद्धा) वृद्धाः तत्त्वज्ञाः (अवसप्पंति) दूरीभवन्ति, परन्तु (अवुधा) अबुधा=अज्ञानि पुरुषाः (जर्हि) यत्र (सीयंति) सीदन्ति-दुःखिनो भवन्तीति ।।१४॥ टीका--'अह' अथ अनन्तरम् 'कासवेण' काश्यपेन भगवता तीर्थकरेण महावीरेण काश्यपगोत्रोद्भवेन 'पवेइग्रा' प्रवेदिताः कथिताः 'इमे आवट्ठा संति' इमे बुया संनिहिताः कुटुम्बसम्बन्धाः आवर्ताः सन्ति । 'जत्थ' यत्र यस्मिन्नावर्त समागते संपाप्ते सति । 'बुद्धा' वृद्धाः विवेकिनः । 'अयसप्पंति' अपसर्पन्ति, 'बुद्धा-वृद्धा" ज्ञानी पुरुष 'अवसपंति-अपसर्पन्ति' उनसे दूर हट जाते हैं परन्तु 'अवुहा-अबुधा' अज्ञानि पुरुष 'जहि-यत्र' जिसमें 'सीयंतिसीदन्ति दुःखित हो जाते हैं ॥१४॥ - और भी उपदेश करते हैं-'अहिमे संति' इत्यादि। अन्वयार्थ-काश्यप बर्द्धमान भगवान के द्वारा प्ररूपित ये (कुटुम्प सम्पन्धरूप) आवत-भंवर हैं, तत्वज्ञ पुरुष जिनसे दूर रहते हैं और अज्ञानी पुरुष जिनमें फंस जाते हैं ॥१४॥ टीकार्थ-काश्यपगोत्रीय भगवान महावीर स्वामी के द्वारा कथित यह अर्थात् बुद्धि के समीप कौटुस्थिक सम्बन्धरूप आवत हैं। इस आवर्त के प्राप्त होने पर तत्वज्ञानी पुरुष उसले दूर हट जाते हैं। आवत दो प्रकार के होते हैं उसमें नदी आदि के जल भ्रमीरूप आवत सन्ति' छे. 'जत्य-यत्र' रमना मावा ५२ 'बुद्धा-वृद्धाः' ज्ञानी ५३५ 'अक्सप्पंतिअपसर्पन्ति' तमनाथी ६२ &टी लय छ परतु 'अबुहा-अवुर्धा.' अज्ञानी ५३५ 'जहि-यन' मा सीयंति-सीदन्ति' हुभित 25 नय छे. ॥१४॥ સૂત્રાર્થ-કાશ્યપ ગોત્રીય વર્ધમાન ભગવાને એવી પ્રરૂપણ કરી છે કે આ કુટુમ્બ સંબંધ રૂપ સંગ આવર્તા (વમળ) સમાન છે. તત્વજ્ઞ પુરુષે આ આ આવર્તથી દૂર રહે છે અને અજ્ઞાની પુરુષે તેમાં ફસાઈ જાય છે. ૧૪. ટીકર્થ-કાશ્યપ ગોત્રીય મહાવીર પ્રભુએ આ ઐખિક સંબંધને આવર્ત–પાણીના વમળ - સમાન કહ્યો છે તત્વજ્ઞ પુરુષે તે આ આવર્તથી દૂર જ રહે છે. જેવી રીતે નદી અથવા સાગરના ઘેર આવર્તમાં ફસાયેલો Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ७१ तादृशावर्त विलोक्य, आवर्तात् परावृत्ता भवन्ति, तत्र द्रव्यावतः नद्यादीनां जलभ्रमिरूपाः, भावावर्तास्तु उत्कटमोहोदयापादितविषयाभिलाषसंपादकधनादिपार्थनाविशेषाः, 'जर्हि' या आवर्ते 'अवुहा' अबुधा = अज्ञानिनः 'सीयंति' सीदन्ति आसक्ति कृत्वा क्लिश्यन्ति । तारशावर्त क्लिोक्याऽपि न ततो विनिवर्तन्ते । किन्तु साग्रहं तमेाऽऽवत भविश्य अतिदुःखिनो भवन्ति ॥१४॥ ... तानेवारन्मिदर्शयितुं सूत्रकारः प्रक्रमते-रायाणो' इत्यादि । ' मूलम्--रायाणो रायमचा य माहणा अदुव खत्तिया। निमंतयति भोगेहि भिक्खूयं साहुजीविण ॥१५॥ . छाया-गजानो राजा मात्याश्च ब्राह्मणा अथ क्षत्रियाः । __ निमंत्रयन्ति भोगेन मिक्षुकं साधुनीविनम् द्रव्यावर्त कहलाते हैं और उत्कट मोह के उदय से उत्पन्न होने वाली विषयों की अभिलाषा की पूर्ति करने वाली धन आदि की प्रार्थना भावावर्स है। अज्ञानी जीव इस आवर्त में फंसकर अर्थात औसक्ति धारण करके क्लेशों के पात्र बनते हैं। वे आवर्त को देख करके भी उससे निवृत्त नहीं होते हैं। प्रत्युत हठपूर्वक उसी आवर्स में प्रवेश करके उत्पन्न दुःखी होते हैं ॥१४॥ उन आवत्तों को दिखलाने के लिए सूत्रकार कहते हैं-'रायाणो' इत्यादि। शब्दार्थ--'रायाणो-राजानः' चक्रवादि राजा महाराजा 'य-च' और रायमच्चा-राजामात्या' राजमंत्री, राजपुरोहित आदि 'माहणाब्राह्मणा.' ब्राह्मण 'अदुवा-अथवा' अगर 'खत्तिया-क्षत्रियाः'क्षत्रिय મનુષ્ય તેમાંથી બહાર નીકળી શકતું નથી એજ પ્રમાણે સ્વજનના મોહરૂપ આવર્તમાં ફસાયેલે માણસ પણ તેમાંથી બહાર નીકળી શકતો નથી. આવ मे ॥२॥ ४॥ छ-(१) द्रव्यापत, (२) भावात. नही, समुद्र महिना પાણીમાં જે વમળો ઉત્પન્ન થાય છે, તેને દ્રવ્યવર્ત કહે છે ઉત્કૃષ્ટ મહિના ઉદયને કારણે ઉત્પન્ન થનારી, વિષયેની અભિલાષાની પૂર્તિ કરનારી ધન આદિની પ્રાર્થનાને ભાવાવ કહે છે અજ્ઞાની જીવો આ આવર્તમાં ફસાઈ જઈને–એટલે કે આસક્તિ ધારણ કરીને કલેશને અનુભવ કરે છે. તેઓ આવર્તાને જેવા છતાં પણ તેનાથી નિવૃત્ત થતા નથી, ઊલટા હઠપૂર્વક તેમાં પ્રવેશ કરીને હાથે કરીને દુ ખ વહોરી લે છે. તેના ૧૪ '. वे सूत्र२त भापत्तोनु १३५ सभव छ–'रायाणो' त्याह शहाथ-'सयाणो राजान.' ती पोरे रात' महासत 'य-च' भने रायमच्चा-राजामात्याः' मत्री, १०८ पुरोहित कोरे 'माहणा-ब्राह्मणाः' माझ 'अहुवा-अथवा', २२ खत्तिया-क्षत्रिया.' क्षत्रिय साहुजीविण-माधु Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २ .. : . . सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ:---(रायाणो) राजानः चक्रवर्यादयः (य) च पुनः (रायमच्चा) रानामात्याः मंत्रिपुरोहितप्रभृतयः (माहणा) ब्राह्मणाः (अदुवा) अथवा (खत्तिया) क्षत्रिया: इक्ष्वाकुवंशजभृतयः (साहुजीविणं) साधुजीविन-निरपद्यमिक्षाजीवनशीलम् (भिक्खुयं) भिक्षुकं साधु (भोगेहि) भोगैः शब्दादिविषयभोगैः (निमंतयति) निमन्त्रयन्ति भोगेष्वासक्तिं कारयन्तीत्यर्थः ।।१५।। टीका-'रायाणो' राजाना चक्रवर्त्यादयः 'रायमचा राजामात्यादयः मन्त्रिपुरोहितसामन्तादयः 'माहणा' ब्राह्मणाः ब्राह्मणत्वजातिमन्तो वेदपारगाः 'अदुवा' अथवा 'खत्तिया' क्षत्रियानाकुवंशजमभृतयः, एते सर्वे राजादियभृतयः, 'भोगेहि' भोगैश्शब्दादिविषयमोगं भोक्तुम् , "निमंतयति' निमन्त्रयन्ति आमन्त्रान्ति भोगं स्वीकारयन्ति । कं निमन्त्रयन्ति-तत्राह-'साहुजीविण' 'लाहुजीविण-साधु जीवितम्' उत्सम आचार से जीवन निर्वाह करनेवाले 'भिक्खुयं-भिक्षुकम्' साधु को 'भोगेहि-भोग' शब्दादि विषयभोगों को भोगने के लिए 'निमंतयंति-निमन्त्रयन्ति' आकर्षित करते हैं ॥१५॥ अन्वयार्थ-राजा, राजमंत्री ब्राह्मग और इक्ष्वाकुवंशीय आदि क्षत्रीय साधु जीवी अर्थात् निरवध भिक्षा से जीवन निर्वाह करने वाले भिक्षु को भोगों के लिए आमंत्रित करते हैं, भोगों में आसक्ति उत्पन्न करते हैं ॥१५॥ टीकार्थ-चक्रवर्ती आदि राजा, राजमंत्री-पुरोहित, सामन्त आदि, ब्राह्मण अर्थात् ब्राह्मणत्व जाति वाले तथा वेद के पारगामी तथा क्षत्रिय अर्थात् इक्ष्वाकुवंशीय आदि, यह सच, शब्द आदि विषयों का उपभोग करने के लिए आमंत्रित करते है । किसे आमंत्रित करते हैं ? साधु जीवी को अर्थात् जो सम्यग् चारित्र का पालन करके जीवित रहना चाहता है। जोविनम्' उत्तम मायारने लवन निर्वाड ४२वावा भिक्खुयं-भिक्षुकम्' साधुने 'भोनेहि-भोगैः' श५४ को३ विषय सामान सेवा माटे निमंतयंतिनिमन्त्र रन्ति' मर्षित रै छ ।१५॥ ટીકાઈ–ચક્રવર્તી આદિ રાજા, રાજમંત્રી, પુરોહિત અને સામન્ત આદિ આગેવાને વેદના પારગામી બ્રાહ્મણે તઘ ઈવાકુ આદિ ઉત્તમ કુળમાં ઉત્પન્ન થયેલા ક્ષત્રિય સાધુ જીવને (કમ્યફ ચારિત્રનું પાલન કરવા માગતા સાધુને સંચમને માર્ગે જ જીવન વ્યતીત કરવા માગતા સાધુને શખડાદિ વિને ઉપભેગ કરવાને માટે આમંત્રિત કરે છે. તેઓ તેને ભેગો પ્રત્યે આકર્ષવાનો Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T समयार्थवोधिनी टीका प्र. थु. अ. ३ उ. २ अनुकूलापसर्गनिरूपणम्. Ga साधुजीविनम्', साधु शोभनाचारेण जीवितुं शीलं विद्यते यस्य तं साधुजीविनम् । श्रूयते हि ब्रह्मना चक्रवर्ती नानाविधभोगोपायैः चित्रकनामानं साधु भोगं भोक्तुं निमन्त्रितानिति । राजादिब्राह्मगान्ताः साधुजीवने व्यवस्थितं मुर्नि मोगाव निमन्त्रयन्तीति भावः ||१५|| अधुना आवर्त्तस्वरूपविशेषमाह - 'हत्या' इत्यादि । ८ मूलम् - हस्थस्सर हजाणेहिं विहारगमनेहिय । 3 २ भुंजे भोगे इसे सम् महरिली घे महरिसी पूजयामु तं ॥ १६ ॥ छाया -- हरस्यश्वरथयाने विहारगमनेन च । ger भोगान इमान् श्लाध्यान् महर्षे पूजयामस्त्वाम् ॥१६॥ 1 } भावार्थ यह है सुना जाता है कि ब्रह्मदत्त नामक चकवत ने नानाप्रकार के भोगों को भोगने के लिए चित्तनाशक मुनि को निमंत्रित किया था। इस प्रकार राजा मे ले कर साधारण क्षत्रियपर्यन्त, पूर्वोक्त सभी . साधुजीवन में अवस्थित सुनि को भोगों के लिए आमंत्रित करते हैं ॥ १५ ॥ अब आवर्त्त का स्वरूप कहते हैं - 'हस्थस्स' इत्यादि । शब्दार्थ -- 'महरिसी - हे महर्षे' हे महर्षि ! 'तं त्वाम्' हम तुम्हारी 'पूजयामु- पूजयामा' पूजा करते हैं 'इसे - इवान्' इन 'सग्घे - श्लाध्यान' उत्तम मनोरम 'ओगे-भोगान्' शब्दादि योगों को 'भुजे सुक्ष्य' भोगो 'हत्थस्सरष्टजाणेहिं-हस्त्यश्वरथपाने:' हाथी, घोडा, रथ, और पालखी आदि 'य-च' और 'बिहारगम मेहि-विहारगमनैः' बिहार गमन के लिए अर्थात् चिविनोद के लिए बगीचे आदि में विचरण करो ॥ १६ ॥ પ્રયત્ન કરે છે. જેમ કે-બ્રહ્મદત્ત નામના ચક્રવર્તીએ ચિત્ત નામના મુનિને વિવિધ પ્રકારના ભાગે ભેગવવા માટે નિમંત્રિત કર્યાં હતેા. એજ પ્રમાણે રાજાથી લઈને ક્ષત્રિય પર્યંન્તના પૂર્વોકત સઘળા લેાકા સ'યમની આરાધના કરતા સાધુને ભાગેા પ્રત્યે આકવાના પ્રયત્ન કરે છે. પા આવર્ત્તના સ્વરૂપ્નું વિશેષ નિરૂપણ કરતા સૂત્રકાર કહે છે કૈં ' इत्थस्छ' त्याि त्तभ शब्दार्थ –'मइरिखी - हे महर्पे' हे भर्षि' ! 'तं त्वाम्' अभे तभारी "पुजयामु- पुजय मे।' युरी, 'इमे इमान्' मा 'सभ्धे-लाध्यान्' भनारंभ 'भोगे - भोगान्' शब्द वगेरे लोगोने 'भुंजे भुंक्ष्य' लोग 'इत्यस्सरह जाणेहिं - हस्त्यश्वरथयानैः' हाथी, घोडा रथ, अने पाली वगेरे ५२ 'य-च' भने 'विहारगमणेहिं - विहारगमनैः' विहारगमनना भाटे अर्थात् त्तिविनोदना भाटे शिया वगेरेमां ॥१६॥ सू० १० Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे (अन्वयार्थ : - - (महरिसी ) हे महर्षे (तं) स्वाम् (पूजयामु) पूजयामो वयम् (इमे) इमान् (सग्धे) श्लाध्यान मनोरमान् (भोगे) भोगान् शब्दादीन् (भुंजे) भुंक्ष्व=भोगं कुरु (हस्थस्सरह जाणेहि ) हस्त्यश्वरथयानैः (य) च= पुनः ( विहारगमणेहि) विहारगमनैः उपवाटिकादिषु इत्यर्थः ॥१६॥ टीका- 'महरिसी ' हे महर्षे' 'तं' स्वाम् 'पूजयामु' पूजयामो वयम् 'इसेसग्धे' इमान श्लाघमान् 'मोगे' भोगान् 'भुंज' भुंन=भोग्यं वस्तुजातं भक्षय भोगक्रियाप्रयोजकं पदार्थजातं दर्शयति-' इत्थे' त्यादि । 'हत्य' seat 'अस्स' अश्वः 'रह' रथः 'जाणेहिं' यानम् - यानं मनुष्यवाह्य शिविकादिः एभिर्हस्त्यश्वरथयाने, तथा 'विहारगमणेहि य' विहारगमनैः, विहरणं क्रीडनं विहारः तेन गमनानि वि विहारगमनानि, उद्यानवाटिकादौ क्रीडार्थ गमनानीति यावत्, एभिर्योग्यपदार्थे': 'पूजयामु' पूजयामः = सत्कारयामः वयं विषयोपभोगकरणमदानेन भवन्तं सत्कारयामः। पूत्रोक्ताश्चक्रादयः साधुसमीपमागत्य एवं कथयन्ति । अन्वयार्थ - हे महर्षे ! हम आप का सत्कार करते हैं। आप इन प्रशंसनीय मनोरम भोगों को भोगिए । हाथी, घौडा, रथ तथा पान पर आरूढ होइए और बाग बगीची में बिहार कीजिए ||१६|| टीकार्थ - राजा आदि साधु से निवेदन करते हैं - हे महर्षे ! आप इन श्लाघनीय भोगों को भोगिए । भोग में काम आने वाले पदार्थों को सूत्रकार दिखलाते हैं-हम्ती, अश्व, रथ, यान अर्थात् मनुष्यों द्वारा वहन करने योग्य पालखी आदि तथा उद्यान एवं वाटिका आदि में क्रीडा बिहार के लिए गमन, इत्यादि भोग्य पदार्थों के द्वारा हम आप का सत्कार करते हैं । સૂત્રા-ડે મહર્ષિ ! પધારે, અમે આપનેા સત્કાર કરીએ છીએ. આપ આ પ્રશંસનીય મનારમ ભેગે ના ઉપભેગ કરે. હાથી, ઘેાડા રથ. પાલખી, આદિ પર વિરાજમાન થઈને અપ બ-મગીચામાં વિદ્વાર કરે. ૧૬ń टीडार्थ - —રાજા આદિ ઉપર્યુક્ત લેાકેા સાધુને આ પ્રમાણે વિન ંતિ કરે છે હૈ મહર્ષિ ! આપ આ અનુપમ ભેગેને ભાગવે ભોગના ઉપચાગમાં भावती वस्तुओ। सूत्रभर गया है- हाथी, घोडा, रथ, यन (पासणी) माहि વસ્તુએને આપ ઉપભેાગ કરેા હાથી, ઘેાડા આઢિ પર આરૂઢ થઈને આપ આનન્દ્વ પૂર્વક ઉદ્યાન, વાટિકા આદિ સુંદર સ્થાનામાં વિચરણ કરે અમે આ ભાગ્ય પદાર્થો દ્વારા આપના સત્કાર કરીએ છીએ આ કન દ્વારા સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરવા માગે છે કે આ પ્રકારની ભેગ્ય સામગ્રીએ સાધુએને અપણુ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 समयार्थवोधिनी टीका प्र. थु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् यत् हे महर्षे ! इत्यादावुरविश्य क्रीडनार्थं वाटिकां गच्छ, सर्वत उत्तमं भोगं स्वीकुरु । अनेनोपायेन भवन्तं वयं पूजयाम इति भावः ॥ १६ ॥ पुनरप्याह -- 'वस्थे' त्यादि । मूलम् - वत्थगंध मलंकारं इत्थाओ सयणाणि थे । १० जाहिमाई भोगाई आउसो पूजयामु तं ॥ १७ ॥ छाया -- त्रगंध मलंकारं स्त्रियः शयनानि च । भुंक्ष्वेमान् भोगानायुष्मन् ! पूजयामस्त्वाम् ||१७| अन्वयार्थः -- (आउसो ) हे आयुष्मन् ! ( वत्थगंधमलंकारं वखगंधमलंकारम् आशय यह है कि पूर्वोक्त चक्रवर्ती राजा आदि साधु के समीप पहुंचकर इस प्रकार कहते हैं - हे महर्षे ! हाथी घोडा आदि पर सवार होकर क्रीडा करने के हेतु वाटिका में पधारिए । उत्तमोत्तम भोगों को स्वीकार कीजिए । इस उपाय से हम आप की पूजा करते हैं ॥ १६ ॥ पुनः कहते हैं - 'वत्थ' इत्यादि । शब्दार्थ - - ' आउसो - आयुष्मन् ' हे आयुष्मन् 'वत्थं - वस्त्रम्' उत्तम वस्त्र 'गंध - गन्धम्' गन्ध और 'अलंकारं - अलङ्कारम्' अलंकार आभूषण 'इत्थिओ - स्त्रियः' स्त्रियां 'य-न' और 'सणाणि - शयनानि शय्या आसन उपवेशन - बैठने के योग्य वस्तु 'इमाई भोगाई इमान् भोगान्' इन्द्रिय और मन के अनुकूल इन भोगों को 'भुज-भुक्ष्य' आप भोगें 'तं स्वाम् आप को 'पूजयामु- पूजयामः' पूजा करते हैं ||१७|| अन्वयार्थ - आयुष्मन् | वस्त्र, गंध, आभूषण, स्त्री शय्या और કરીને રાજા, રાજમત્રી, આદિ પૂકિત લેાકેા સાધુને સંયમના માગેÖથી ચલાચમાન કરીને ભાગે પ્રત્યે આસકત કરે છે, "ગાથા ૧૬૫ 'वत्थ' 'त्याहि- शब्दार्थ - 'आउलो - आयुष्मन् ' डे आयुष्मन् वत्थं - वस्त्रम्' उत्तम गंव -गन्धम्' गंध अने 'अलंकारं - अलङ्कारम्' असार - आभूषणु 'इत्थिओ - स्त्रियः ' स्त्रिये! 'य-च' भने 'सयणाणि शयनानि ' शैया अर्थात् पथारी आसन ७५वेशन अर्थात् मेसत्राना योग्य वस्तु 'इमाई भोगाई - इमान् भोगान्' इन्द्रिय मने भनने अनुज था लोगोने 'भुत-भुंव' माय' लोगवा 'तं- त्वाम्' यायनी 'पुजयामु- पुजयाम' अभी पूल हरी छीये. ॥१७॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतागसूत्र (इथियो) स्त्रिया मनोरमाः (4) च-चुनः तयणाणि' शयनानि-शयनशय्याम् उपलक्षणत्वात् आसनयुपवेशनयोग्यं च वस्तु (इमाई भोगाई) इमान् पूर्वोक्तान् भोगान् विषयान् (मुंज) सुंश्व (ते) त्वां (पूजयामु) पूजयामः सत्कारयामः इति ॥१७॥ टीका--'आउसो' हे आयुष्मन् ! 'वत्थं' वस्त्रप्-चीनांशुक्रादिकम् 'गंध' गन्धकोषपुटपाकादिकं, वस्त्राणि च गन्धाश्चेवि समाहारे वस्त्रगंधमिति, 'अलंकारं' , अलंकारम् अलंकरणम्-कटककेयूरादिक सौवर्णरानं च भूपणम् । 'इत्यिओ' स्त्रिया अनेकरूपाः पाप्तयौवनाः 'सयणाणि य' शयनानि च, पर्यकलुलितमचल. मच्छइपटोपधानयुक्तानि, 'इमाई भोगाई' इमान् भोगान-इमान् अस्माभिः घदत्तान् इन्द्रियमनोनुकूलान् भोगान् 'भुंज' भुस, एतेषामुपभोगेन जन्मसफली. कुरु । 'त' त्वाम् वयम् 'पूजयामु' पूजयामासत्कारयामा यथा विंशतितमेऽध्यबने उत्तराध्ययनस्य श्रेणिकेन विविधभोगैरनाथी मुनिः प्रार्थितः ॥१७॥ उपलक्षण से आसन तथा बैठने के योग्य अन्य वस्तु इन सय भोगों को भोगिए हम आप की पूजा सत्कार करते हैं ॥१७॥ टीकार्थ-(पूर्वोक्त राजा आदि ऐसा भी कहते हैं) हे आयुष्मन् ! चीनांशुक (चाइना सिल्क) आदि वस्त्र, कोप पुटपा आदि गंध, स्वर्ण और रत्नों के बने हुए कटक केयूर आदि आभूषण, तरुणी स्त्रियां, कोमल गद्दे, चद्दर एवं तकिया से युक्त सेज, इन सब हमारे द्वारा प्रदत्त तथा इन्द्रियों को और मन को अनुकूल प्रतीत होने वाले भोगों को भोगिये । इनका उपभोग करके अपने जीवन को सफल कीजिए । हम आप का सत्कार करते हैं । जैसे उत्तराध्ययन सूत्र के वीसवें अध्ययन સૂત્રાર્થ–હે આયુષ્યમન્ ! વસ્ત્ર, ગંધ, આભૂષણે, સ્ત્રી, શય્યા અને આસન આદિ વસ્તુઓને આપ ઉપભેગ કરો. આ બધી વસ્તુઓ દ્વારા અમે આપનો પૂજા સત્કાર કરીએ છીએ, પ૧ળા ટીકાઈ-પૂર્વોક્ત રાજા, રાજમંત્રી આદિ તે સાધુને એવું પણ કહે છે કહે આયુશ્મન ! ચીનાંશુક (ચાઈને સિક) આદિ વસ્ત્ર, કેષ પુટપાક આદિ ગ, સોનાં અને રત્નનાં કટક, કેયૂર આદિ આભૂષણે, નવયુવતીઓ, કમળ ગાદલાં, ચાદર અને તકિયાથી યુક્ત સેજ-શણ્ય. ઈયાદિ વસ્તુઓ અમે આપને , અર્પણ કરવા તૈયાર છીએ, તે ઈન્દ્રિયો અને મનને અનુકૂળ થઈ પડે એવાં ભેગોને આપ ભેગ. તે ભેગોને ઉપભોગ કરીને આપ આપનું જીવન સફળ કરે. અમે આ વસ્તુઓ વડે આપને સત્કાર કરીએ છીએ. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. 8. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ७७ सूत्रम्-जो तुमे नियमो चिण्णो भिक्खुभावंति सुव्वया । आगारमावसंतस्स सम्बो सविजए तहा ॥१८॥ छाया--यस्त्वया नियमचीणों भिक्षुभावे सुव्रत ? । आगारमाविशतस्तव सर्वः संविधते तथा ॥१८॥ ... अन्वयार्थ:--(मुब्धया) हे सुव्रत ! शोमनवतशील ! (तुमे) स्वया (भिक्खुमामि) भिक्षुभावे-प्रव्रज्यावसरे (जो) यः (नियमो) नियमः व्रतविशेषः (विष्णो) चीर्णोऽनुष्ठितः (आगारमावसंतस्स) आगारमावसतोपि तव (सन्नी) सर्वोऽपि महाप्रतादिः (तहा) तथा तेनैररूपेण (संविज्जए) संविद्यते तथैव सर्व स्यात् न किंचिदपि हियतेति ॥१८॥ में वर्णन है कि श्रेणिक राजा ने अनाथी मुनि को विविध प्रकार के भोग भोगने के लिए निवेदन किया था ॥१७॥ __शब्दार्थ-'सुव्वया-सुव्रत' हे सुन्दर व्रत वाले मुनिवर 'तुमे-त्वया' तुमने 'भिक्खुभावंमि-भिक्षुभावे' प्रव्रज्या के समय 'ज.-यः' जो 'नियमो-नियमः' नियम 'चिपणो-चीर्णः' अनुष्ठान किया है 'अगारमाध. संतस्स-अगारमाविशत: घर में निवास करने पर भी 'सन्यो-सर्व' वह सब तहा-तथा उसी प्रकार संविजए-सविद्यते' बने रहेंगे॥१८॥ अन्वयार्थ--हे सुव्रत ! तुमने दीक्षा के अवसर पर जो नियम पाला था, गृहवास में रहने पर भी वही सष नियम उसी रूप में बने रहेंगे ॥१८॥ વીસમાં અધ્યયનમાં આ પ્રકારને એક પ્રસંગ પ્રકટ કરવામાં આવે છે–શ્રેણિક રાજાએ અનાથી મુનિને વિવિધ પ્રકારના ભોગો ભેગવવાને માટે વિનતિ કરી હતી. ગાથા ૧ણા Awaan - 'सुव्वया-सुव्रत' हे सु२ 14 भुनि१२ 'तुमे त्वया' तमे 'भिक्खुभावंमि-भिक्षुमावे' अयाना समय 'जो-यः' 2 'नियमो-नियमः' नियम चिण्णो-चीर्णः' माय२० छ, 'अगारमावसंतरस-अगारमाविशतः' ५२मा निवास ४२१छतi ५ 'सनो-सर्वः' मधु 'तहा-तथा' ते घारे 'संविजएसंविद्यते' ते प्रमाणे मनी २७२ । १८॥ સૂત્રાર્થ – સુવ્રત ! તમે સાધુ અવસ્થામાં જે નિયમ પાળી રહ્યા છે. તે નિયમોનું ઘરમાં રહીને પણ એજ પ્રમાણે પાલન કરજે. ૧૮ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतास्त्र ____टीका--'सुब्बया' हे सुव्रत ! शोभनं माणातिपातविरमणलक्षणव्रतं नियमानुष्ठानं यस्य तत्संबोधने हे सुत्रा ! 'तुमे' त्वया 'भिक्खु मामि' भिक्षु मावे संयमे 'जे' या 'निययो' नियमः पंचमहाव्रतादिरूपः प्रवज्यावसरे 'चिण्णो' चीर्णः अनुष्टितः 'आगारमावसंतस्स' आगारमावसतस्तव गृहवासम् अधिवसतस्तव 'सव्वे' सर्व-पंचमहाव्रतादिः । 'तहा' तथैव 'संविज्जए' संविद्यते । हे सुन्दरव्रतधारिन् । प्रव्रज्याग्रहणसमये यो हि पंचमहाव्रतादिरूपो नियमस्त्वया स्वीकृतः, स सर्वोऽपि यथैवपूर्वमासीत् तथैव गृहनासेऽपि रक्षितो भविष्यतीति तद्वतभंगभयेन सूखोपभोगे मा शिथिलीभवेदिति भावः ॥१८॥ पुनरप्याह--'चिर' मित्यादि। मूलम्-चिरं दूइज्जमाणस्त दोसो दाणिं कुतो तव। . . इच्चैव णं निमंतेति नीवारेण व सूर्यरं ॥१९॥ छाया--चिरं विहरतो दोष इदानीं स कुतस्तव । इत्येव निमन्त्रयन्ति नीवारेणेव सूकरम् ।।१९॥ .. ____टीकार्थ--प्राणातिपात विरमण आदि व्रत जिसके समीचीन हो, वह सुव्रत कहलाता है । यहाँ उसे संबोधन करके कहा गया है-हे सुव्रत । तुमने साधु अवस्था में पंचमहावन आदि जो नियम पाले हैं गृहस्थी में रहते हुए भी वही सब ज्यों के त्यों बने रहेंगे। आशय यह है कि साधु पर्याय में तुमने जिन नियमों को पालन किया है, उन नियमों का गृहवास में भंग नहीं होगा। वे ज्यों के स्यों रहेंगे। अतएव नियम भंग के भय से सुखों का उपभोग करने में शिथिल मत बनों ॥१८॥ * ટીકાર્થ–પ્રાણાતિપાત વિરમણ આદિ વ્રતનું જે સમ્યક્ પ્રકારે પાલન કરે છે, તેને સુવ્રત કહે છે. અહીં સાધુને “સુવ્રત' પદ દ્વારા સંબોધન કરીને રાજા આદિ પૂર્વોક્ત લેકે આ પ્રમાણે કહે છે કે-હે સુવત! પ્રત્રજ્યા અગી. કાર કર્યા બાદ આપે પ્રાણાતિપાત વિરમણ આદિ પાંચ મહાવ્રતની જે પ્રકારે આરાધના કરી એ જ પ્રકારે ગૃહવાસમાં રહીને પણ આપ તે વ્રતની આરાધના કર્યા કરે. તે નિયમનું પાલન કરવા માટે સાધુપર્યાયમાં રહેવાની શી આવશ્યકતા છે ! ગૃહુવાસમાં રહીને પણ આપ તે નિયમોનું પાલન કરી શકે છે ગૃહવાસનો સ્વીકાર કરવાથી તે નિયમ ભંગ થશે, એ ભય રાખીને સસારના સુખનો ઉપભોગ કરવાથી વંચિત રહેવાની શી જરૂર છે! ગાથા ૧૮ * Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थचोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ७९ अन्वयार्थ:--(चिर) चिरचिरकालं (दुइजमाणस्स) विहरतः प्रामानुग्राम गच्छतः (व) व (दाणि) इदानीं (दोसो) दोपः (को) कुतः नैशस्तिदोषः (इच्चेवं) इत्येवं क्रमेण (नीवारेण) नीवारेण ब्रीहिविशेषकणदानेन (सूयरंच) मकरमिव (निमंते ति) निमंत्रयंति-भोगवुद्धि कारयन्तीति ॥१९॥ ___टीका-हे मुनिश्रेष्ठ ! 'चिर" चिरं बहुकालम् 'दुइज्जमाणस्स' विहरतासंयमानुष्ठानपूर्वक ग्रामानुग्रामं विहरतस्तव 'दाणि' इदानीमेतस्मिन् समये (कृतो) ___ पुनः कहते हैं-'चिरं दुइजनमाणस्त' इत्यादि। - शब्दार्थ-हे मुनि श्रेष्ठ 'चिरं-चिरम्' बहुत काल से 'दइज्जमा जस्त-विहरत: संयम का अनुष्ठानपूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करते हुए 'तब-तब आप को 'दाणि-इदानों' इस समय 'दोसो-दोषः' दोष 'को-कुमा' कैसे हो सकता है 'इच्चेव-इत्येवम्' इस प्रकार 'निवारेण-नीवारेण' चावल के दानों का लोभ दिखाकर 'स्यरंध-सूकरमिय' सूकर को जैसे लोग फसाते हैं इसी प्रकार मुनि को 'निमंतेति-निमंत्रयन्ति' भोग भोगने के लिए निमंत्रित करते हैं ॥१९॥ ___अन्वयार्थ-चिरकाल तक संयम विहार करने वाले तुम्हें अंष दोष कैसे लग सकता है ? इस प्रकार भोगों के लिए आमंत्रित करके वे लोग साधु को उसी प्रकार लुभाते हैं, जैसे चावल के कणों से - शूकर को लुभाया जाता है ॥१९॥ . जी तेमा तन मे छ ?--'चिरं दूइज्जमाणस्स' त्या: शाय- मुनिश्रेष्ठ 'चिरं-चिरम्' मई it थी 'दूइज्जमाणस्स -विहरनः' यमना मनुठान ४ श्राभानुश्राम विडार ४२त ४२di 'व- तव' मापने दाणि-इदानी' भी समये 'दोसो-दोषः' ५ 'कओ-कुतः' पीशत थप रा छ ? 'इच्चेव-इत्येवम्' मा ५४ारे 'नीवारेण-नीवारेण' यामाना हावामाना सोम मा 'सूयरंव-सू कर मित्र' सू४२२ था रीते भायुसे। सावे छ तवा सारे मुनिने 'निमंतेति-निमंत्रयन्ति' -सागवाना भाटे निमत्रित छ ।१।। સૂત્રાર્થ –દીર્ઘ કાળથી આપ સંયમની આરાધના કરી રહ્યા છે, તે • . હવે આપને કોઈ પણ દેષ સ્પશી શકે તેમ નથી! જેવી રીતે ચાખાના દાણા પાથરી દઈને શુકરને (સૂવરને) લલચાવવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે લેકે દ્વારા સાધુને ભેગોમાં આસક્ત કરવા પ્રયત્ન કરાય છે. ૧૯ ટીકાથ– તેઓ તેને કહે છે, “હે મુનિશ્રેષ! આપે ચિરકાળ પર્યત Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सूत्रकृताङ्गसूत्रे कुता कस्मात्कारणात् ते 'दोसो' दोपः समरिपालनपूर्वक विहारकारिणः सर्वमपि पाएं विनष्टम् । तपसा क्षीणक्लेशस्य भवनोऽत: पर नेत्र पापं संभवति । तपामभावादेव अतो वस्त्रालंकारादिभिः कृतेऽप्युरभोगे न ते पापसंभावनेति भावः । 'इच्चे' इत्येवं प्रसारण साधु ते नकवादयः । 'निमंतेति' निमन्त्रयन्ति । नीवारेण मूयर व नीवारेण मुकरमित्र । यथा नीरारादि धान्यविशेपाणां प्रलोभनं दत्त्वा बधिकस्तं मूकर गर्ने पातयति । तद्वदिमे राजानो मुनि प्रलोभ्य यातनाय प्रयतन्ते । हे साधो ! भत्रता चिरकालं संयमानुष्ठानं कृतम् , अतः परं स्त्रीवस्त्रादिभोगेनापि भवतो दोषो न भविष्यति । एवं प्रलोभनपूर्वकमामन्य साधुपपि लोकाः पातयन्ति, सुकर धान्यदानेनैवेति भावः ॥१९॥ टीकार्थ--(वे कहते हैं) हे मुनिश्रेष्ठ ! आपने चिरकालपर्यन्त संयम विहार किया है अर्थात् संयम का पालन करते हुए प्रामानुग्राम विय रण किया है, अब आप को पाप का रूपा कैसे हो सकता है ? संयम पालनपूर्वक विहार करने वाले के सभी पाप नष्ट हो चुके हैं । तपस्या के द्वारा आप के सभी क्लेश क्षीण हो चुके हैं। आप को अष. पाप कैसा ! उस तप के प्रभाव से अब आप को पाप का स्पर्श नहीं होगा, भले ही आप इस्त्र गंध अलंकार आदि का भोग करें। इस प्रकार कह कर वे चक्रवर्ती आदि साधु को भोगोपभोग के लिए आमंत्रित करते हैं। जैसे चावल आदि के दानों का प्रलोभन देकर घर (शिकारी) शुकर को गड्ढे में गिराता है, उसी प्रकार वे लोग मुनि को परित करने के लिये प्रयत्न करते हैं। સંયમવિહાર કર્યો છે, એટલે કે સંયમનું પાલન કરતા થકા આપે ગ્રામાનુગ્રામમાં વિચરણ કર્યું છે. સંયમની દીર્ઘકાળ પાન્ત આરાધના કરવાને લીધે આપના સઘળાં પાપ નષ્ટ થઈ ચૂક્યાં છે. તપસ્યા દ્વારા આપના સઘળાં પાપો ક્ષીણ થઈ ચુકયાં છે હવે આપને પાપને સ્પર્શી જ કેવી રીતે થઈ શકે? આપના તે તપના પ્રભાવથી આપને પાપને સ્પર્શ જ નહીં થઈ શકે ! -વસ્ત્ર, ગંધ, અલંકાર આદિને ઉપભેગા કરવા છતાં આપને પાપ સ્પશી શકે તેમ નથી ? તે આપ તેને ઉપગ શા માટે કરતા નથી આ પ્રમાણે રાજા, રાજમંત્રી, પુરોહિત આદિ જો સાધુને ભેગપગ પ્રત્યે આકર્ષે છે. જેવી રીતે ચેખા અદિનું પ્રલેભન દઈને શિકારી ભૂકરને ખાડામાં પાડી નાખે છે, એ જ પ્રમાણે લેક મુનિને સંયમના માર્ગથી ચલાયમાન કરીને સંસારરૂપ ખાડામાં તેનું પતન કરાવવા પ્રયત્ન કરે છે, Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् मूलम् - चोइया भिक्खुचरियाए अचयेतो जवित्तये । ६ . तत्थ मंदा विसीति उज्जाणंसि व दुब्बला ॥२०॥ छाया--नोदिता भिक्षुचर्ययाऽशक्नुवन्तो यापयितुम् । तत्र मन्दा विषीदन्ति उद्यान हव दुर्बल|| ||२०|| ८१ अन्वयार्थः -- (भिक्खुचरियार) भिक्षावर्या (चोइया) नौदिताः (जवित्त) यापयितुम् (अचयंता) अशक्नुवन्तः (तन्य) तत्र = तस्मिन् संयमे (मंदा) मन्दाः अभिप्राय यह है- हे साधो ! आपने दीर्घकालपर्यन्त संयम का अनुष्ठान किया है, अतएव अब स्त्री वस्त्र आदि का उपयोग करने पर भी आप को दोष नहीं लगेगा। इस प्रकार प्रलोभन देकर और विषयभोगों के लिए आमंत्रित करके राजा आदि लोग साधु को पतित करते हैं, जैसे बधक - शिकारी अन के कणों से लुभाकर शुकर को फँसाते हैं ।। १९ । 'बोइया भिक्खुरियाए' इत्यादि । · शब्दार्थ---' भिक्खुनरियाए - मिक्षाचर्यया साधुओं की सामाचरी को पालन करने के लिए 'बोइया-नोदिता' आचार्य आदि के द्वारा प्रेरित किए हुए 'जवित्तए - वापवितुम्' एवं उस सामाचारी के पालनपूर्वक अपना निर्वाह 'अवयं-अशक्नुवन्स' नहीं कर सकते हुए 'मंदा - मन्दा:' अज्ञानिजन 'तत्थ-तत्र' उस संयम में 'वितीयंति-दिषी આ કથનના ભાવાર્થ એવા છે કે- હું સાથે!! આપે દીર્ઘકાળ ત સયમની આરાધના કરી છે, તેથી હવે સ્ત્રી, રસ, આદિના ઉપભેાગ કરવા છતાં પણ આપને દોષ લાગશે નહી! આ પ્રકારના પ્રલેાભના દ્વારા રાજા આદિ પૂર્વોક્ત લેાક સાધુને વિષયોાર્ગો પ્રત્યે આાકી ને તેનું પતન કરે છે. જેવી રીતે શિકારી ચેાખાના કણે! બતાવીને શૂને ફસાવે છે, એજ પ્રમાણે લેકે ભેગોપભોગની સામગ્રી દ્વારા સાધુને લલચાવીને તેને સયમના માગ થી ચલાયમાન કરે છે. ૫૧૯૫ 'चोइया भिक्खुचरियाए ' त्यिाहि शब्दार्थ - भिवखुरियाए - भिक्षाचर्यया' साधुमानी सभायारीने पासन ४२वाना भाटे 'चोइया-नोदिता:' मायार्य वगेरेना द्वारा प्रेरित 'जवित्तए - यापयितुम्वु ते साभायारीना पासन पूर्व पोताना निर्वाह 'अघयताअशक्नुवन्त नारी शत 'मंदा - मन्दा: ' भूर्भ भाथुस 'तत्थ-तत्र' ते सभयभां सू० ११ , Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे जडाः (विसीयंति) विपीदन्ति-शिथिला भवंति, (उज्जाणंसि) उद्याने उच्चमार्गे (दुबला व) दुर्वला वृषमा इन अमार्थाः भवन्तीति ॥२०॥ टीका--इहाऽऽनन्तर्येऽर्थे सत्रुपन्यास्तस्योपसंहारार्थमाह-'भिक्खुचरियाए' भिक्षुर्यायाम् भिक्षूणां साधुनामुधुन्नाविहारिणां, चरिया चर्या दशविध-चक्रचाल, सामाचारी, इच्छा, विथ्येलादिका । लाशचर्यया-'चोइया' नोदिताः आचार्यादिमिः प्रेरिता', साधनामाचारपरिपालनाय 'जवित्तये' यापयितुम् साधुसमाचारे अशक्तिपन्तः । स्वनिर्वाह करणे-'अचयंता' अशक्नुवन्तः । 'संदा' मंदाः कातराः अररसत्वाः जीवाः, 'तस्थ' तस्मिन् संचमपरिपालने । 'विसीयंति' विपी. दन्ति' शिथिल हो जाते हैं 'उजाणसि-उद्याने' चे मार्ग में 'दुन्दलाय-दुर्बलाः' इव दुर्श बैल जो दिन जाते हैं अर्शत् लूखंजन संयम से चलित हो जाते हैं ॥२०॥ • अन्दधार्थ--भिक्षुचर्या अर्थात् लाधु को समाचारों का पालन करने के लिए प्रेरित किये हुए और उसका पालन करने में समर्थ न होते हुए मन्द साधु संयम में शिथिल हो जाते हैं उसका परित्याग कर देते हैं, जैसे उच्च मार्ग में अर्थात् बढाथ में दुर्बल बैल जलमर्थ हो जाते है ॥२०॥ • टीकार्थ-जो विषय पहले प्रतिपादन किया गया है, उसका उपसंहार करने के लिए कहते हैं-शास्त्रानुसार विहार करने वाले मुनियों की इच्छाकार मियाकार आदि दन्त प्रकार की सामाचारी ही गई है। उस सामाचारी का पालन करने के लिये जब्द आचार्य आदि के द्वारा प्रेरणा की जाती है और साधु उसका पालन करने में समर्थ नहीं होते 'विसीयति-विषीदन्ति' शिथिल थ य छ, 'उन्नाणंसि-उद्याने' या भाभी 'दुबलाव-दुर्बलाः इव' हुम मावी रीते ५डी नय छ अर्थात् य२ - માણસ સંયમથી ચલિત થઈ જાય છે. ૨૦ સૂત્રાર્થ–જેવી રીતે દુર્બળ બળદે સીધું ચઢાણ ચડવાને અસમર્થ હોય છે, એજ પ્રમાણે સાધુની સમાચારીનું પાલન કરવા માટે ગમે તેટલે પ્રેરિત કરવામાં આવે, તે પણ તેનું પાલન કરવાનું સામર્થ્ય જે સાધુમાં ન હોય, તે સાધુ સંયમના પાલનમાં શિથિલ થઈ જાય છે અને સંયમને પરિત્યાગ પણ કરી નાખે છે પાર ટીકાઈ–આ ઉદ્દેશાના પહેલાના સૂત્રોમાં જે વિષયનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે, તે વિષયને ઉપસંહાર કરતા સૂત્રકાર કડે છે કે–સાધુઓએ ઈચ્છાકાર, મિથ્યાકાર આદિ દસ પ્રકારની સમાચારીનું પાલન કરવું પડે છે, આચાર્ય દ્વારા આ સાધુ સમાચારીનું પાલન કરવાની સાધુઓને વારંવાર પ્રેરણા આપવામાં આવતી હોય છે. પરંતુ કોઈ કોઈ અલ્પસત્વ, મન્દીમતિ અને કાયર સાધુ તેનું Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रृं. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ॥ दन्ति, विषण्णा: शिथिल्यस्नाः संयमरहिवाः भान्ति । दृष्टान्तं दर्शयति-'उज्जा गसि' उद्याने, ऊर्ध्वयानमुद्यानम् , मार्गस्य उच्च भागः, तस्मिन् उद्यानांग्रभागे, पृष्ठे धृतमहामाराः 'दुबला' दुर्चकाः वृषभाः । 'ब' इव यथा दुर्वला वृषभाः पृष्ठे धृतमहामारा: मार्गस्य कचिन्नवोनतभागमासाघ तमतिक्रमितुमसमर्थाः, भारं परित्यजन्ति । तथा संयमे मोक्षमार्गे धृतपंचमहावतभार वोढुमसमर्थाः शिथिलविहारिणो भवन्ति । यद्वा महापुरुषैः सेवितं संयम परित्यजन्ति ते.. कातराः इति भावः ॥२०॥ मूळम्-अचयंता व लूहेणं उपहाणेण तजिया । तत्थ मंदा विसीयंति उजाणांस जररगया ॥२१॥ छाया--अशक्नुवन्तो लक्षण उपयानेन तर्जिताः । तत्र मंदा विषीदन्ति उद्याने हि जगद्गवाः ॥२१॥ ___ अन्वयार्थी--(हेण) रूक्षेग-संयमेन (अचयंता) अशक्नुवन्तः तथा (उप हाणेण' उपयानोप्रतपसा (तजिया) तनिताा पीडिताः (मंदा) मन्दाः कातराः हैं, तब वे अल्पलत्व मंद कायर संयम में विषण्ण हो जाते हैं अर्थात् संयम का परित्या कर देते हैं । इस विषय में दृष्टान्त दिखलाते हैं जैसे ऊचे अर्थात् चढाव वाले मार्ग में, भार से लदे दुर्बल बैल असमर्थ हो जाते है, उले पार नहीं कर पाते हैं। उसी प्रकार संया या मोक्ष मार्ग में, धारण किए हुए पंचमहावतों के भार को वहन करने में असमर्थ होकर वे संयम को त्या देते हैं या वे कायर महापुरुषों द्वार सेवित संघम का परित्याग कर देते हैं ॥२०॥ ___. 'अचयंता चलूहेणं' इत्यादि। शब्दार्थ--'लूहेणं-रुक्षेश' विषयास्वादरहित रुक्ष संथम को पालने में 'अचयंता-अशक्नुवन्तः' असमर्थ तथा 'उदहाणेण-उपधादेन' પાલન કરવાને સમર્થ હતા નથી, તેથી તેઓ સંયમને પરિત્યાગ કરીને ફરી ગૃહવાસને સ્વીકાર કરે છે. જેવી રીતે નિર્બળ બળદ સીધા ચઢાણવાળા મા પર ભારે બેજાનું વહન કરવાને અસમર્થ હોય છે, એજ પ્રમાણે સંયમના માર્ગ–મેક્ષમાગે પ્રયાણ કરનારા અપસવ સાધુ ઓ પણ પાંચ મહત્ર તથા સાધુને આચારેનું પાલન કરવાને અસમર્થ હોવાને કારણે સંયમને પરિત્યાગ કરી દે છે. દઢ આત્મબળવાળા પુરુષો જ સંયમનું પાલન કરી શકે છે. ગાથા ૨૦ 'अचयंता व लूहेणं' शार्थ-लुहेणं-रूक्षेग' विषयास्पा २डित ३६ सयभने पावमा 'अवयंता-प्रशानुपन्त.' २५५मय तथा उपहाणेग-उपधानेन' अनशन वगैरे Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देश सूत्रकृतासूत्रे " 'वत्थ' तत्र संयमे (विसीति) दिपीति दुःखिनो भवन्ति (उज्जाणंसि) उद्याने उच्चमार्गे (जरग्गवा ब) जरा इत्र जीर्णवलीवर्दवत् दुःखिता भवन्तीति ॥ २१ ॥ टीका--'लूपेणं' रूक्षेण विपयास्त्रादरहितेन संयमेनाऽऽत्मानं पालयितुम् । (अंचता) अशक्नुवन्तः तथा 'उच्हाणेग' उपधानेन अनशनादिना वाह्याभ्य न्तरेणोप्रतपसा । ' वज्जिया' तर्जिताः- वाघिवा सन्तः, 'तत्थ' तत्र संपमे 'संदा' मन्दा: - कातराः 'विसीति विषीदन्ति, 'उज्जाणंति' उद्याने उद्यानायोन्नतभागे, 'जग्गा' जरा 'व' इव जीर्णशीर्णाः अतिदुर्बलाः वृद्धा पलीवर्दा इव ऊर्ध्वा वस्थित भूभागे-मार्गे यौवनसंपन्नानां सराहानामपि महाबलीवर्दानामवसादनं अनशन आदि वाह्य और आभ्यन्तर उग्रतप से 'तज्जिया - तर्जिताः' पीडित 'संदा - मन्दा' मन्द बुद्धिवावे 'तस्थ-तत्र' उस संयम में 'विसीयंति - विषीदति' दुःखित होते है 'उज्जमंदि - उद्याने' ऊंचे मार्ग में 'जग्गा व जागवा इब' बूढे बैल के जैमा दुखित होते हैं ||२१|| अन्वयार्थ -- संयम पालन में असमर्थ होते हुये तथा तपश्चरण से पीडित होकर फायरजन संघ में विवाद का अनुभव करते हैं, , जैसे चढाव वाले मार्ग में बूढे बैल दुखी होते हैं ॥२१॥ C टोकार्थ-लक्ष का अर्थ है संयल, क्योंकि उसमें विषयों का स्वाद नहीं होना । जो उसका पालन करने में असमर्थ होते हैं संयमपूर्वक आत्मा का पालन नहीं कर सकते, तथा अनशन आदि बाह्य तथा आभ्यन्तर उग्र तपश्चरण में पीड़ा का अनुभव करते हैं, ऐसे मंद बाह्य भने आल्यन्तर थ तपथी 'सज्जिया - तर्जिताः' पीडित अर्थात् दुःजी 'मंदा - मन्दा' भन् युद्धिवाना 'तत्थ - तत्र' ते सत्यभभां 'विमीयंति - विषीदति' हुमित थाय छे, 'उज्जाणंसि - उद्याने' या भाग भां 'जरगवाद - जरद्गवा इव' ઘરડા મળદની જેમ દુઃખિત થાય છે. ।।૨૧૫ સૂત્રા—જેવી રીતે સીધા ચઢાણવાળા માર્ગ પર ભારે ખાન્તનું વહન કરતાં વૃદ્ધે ખળદો પીડા અનુભવે છે, એજ પ્રમાણે સંયમનું પાલન ડેરવાને અસમર્થ હોય એત્રા સાધુએ અનશન આદિ તપસ્યાની આરાધના કરતાં દુઃખને અનુભવ કરીને સયમ પાલન કરામાં વિષાદ અનુલવે છે. ૬૧૫ ટીકા”—રૂક્ષ’ આ પદ સંયમનુ વાચક છે, કારણ કે તેમાં વિષયેાનું આસ્વાદન થતું નથી. જેએ તેનુ' (સંયમ) પાલન કરવાને અસમર્થ હોય છે— આત્માને સંયમમાં દેઢ કરવાને જેએ શક્તિમાન હૈાતા નથી, એવાં કાયર અને અલ્પસત્ત્વ મુનિએ અનશન આદિ માહ્ય તથા આભ્યન્તર તપસ્યામાં પીડાનેા અનુભવ કરે છે. એવાં મંદ, કાયર સાધુને વૃદ્ધ બળદ સાથે સરખાવવામાં Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् १५ संभाव्यते । तत्र का कथाऽतिदुर्वलानां वृद्धवलीवदर्दानाम् । एवमावत्तरहितस्य धैर्यशालिनो विकिनोऽपि यदाऽवसादनं संभाव्यते तदा का कथा जगदुपद्रवोपद्रुतानां मन्दानामिति भावः । संयमपरिपालनेऽसमर्थास्तथा तपसा भीतभीता. मन्दप्रज्ञाः साधकः संयममार्गे तथा क्लेशमनुभवन्ति, यथा अत्युच्चमार्गे वृद्धा दुर्वला वृषभा इति ॥२१॥ उपसंहरन्नाइ-भूत्रकार:-'ए' इत्यादि। मूलम्-एवं निमंतणं लड़े मुच्छिया गिद्धा इत्थीसु। • अज्झोववन्ना काहिं चोइज्जता गयागिहं ॥२२॥त्ति बेमि॥ छाया--एवं निमन्त्रणं ला मूच्छिता गृद्धाः स्त्रीषु । अध्युपपन्नाः कामेषु नोधमाना गता गृहम् ॥२२॥ इति ब्रवीमि॥ अर्थात् कायर लोग उसी प्रकार दुःखी होते है जिस प्रकार बूढे एवं दुर्वल बैल सीधे चढ़ाव वाले विकट मार्ग में असमर्थ हो जाते हैं ? ऐसे मार्ग में यौवनलम्पन्न और शक्तिशाली बडे बडे बैल भी हार मान सकते हैं जो बूढे एवं निबल दलों की तो बात ही क्या है। आपत्तों से रहित धैर्यवान् और विवेकशाली छुनि भी हार मान सकते हैं तो दूसरों का उपद्रव होने पर अधीर लोग क्यों नहीं हार माने गे? आशय यह है कि संयमपालन में असमर्थ और तपस्या से पीडित हुए अधैर्यशन साधु संथम के मार्ग में क्लेश का अनुभव करते है जैसे बूढे एवं दुर्बल बैल चढाव वाले मार्ग में दुःखी होते है ॥२१॥ આવેલ છે. જેવી રીતે વૃદ્ધ, નિર્બળ બળદે સીધા ચઢાણવાળા વિકટ માગે પર બેજાનું વહન કરતા પીડા અનુભવે છે, એ જ પ્રમાણે અ૫સત્વ, કાયર પુરુષે પણ સંયમભારનું વહન કરતા પીડા અનુભવે છે. સીધા ચઢાણવાળા માર્ગ પર બેજાનું વહન કરવામાં યૌવન અને શક્તિસંપન્ન બળદે પણ જે પાછાં પડે છે, તે વૃદ્ધ અને નિબળ બળદની તો વાત જ શી કરવી? એજ પ્રમાણે ઉગ્ર ઉપસર્ગો અને પરીષહો આવી પડે ત્યારે ભલભલા ધેયવાન અને વિવેકશાળી મુનિઓ પણ સંયમના માર્ગેથી ચલાયમાન થઈ જાય છે, તો અધીર અને કાયર મુનિજનની તે વાત જ શી કરવી? - આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જેવી રીતે વૃદ્ધ અને કમજોર બળદે ચઢાણવાળો માર્ગ કાપતાં દુઃખી થાય છે, એ જ પ્રમાણે અલપસવ અને અબૈર્યવાન સાધુએ સંયમભારનું વહન કરવામાં કલેશને અનુભવ કરે છે, કારણ કે તેઓ પાંચ મહાવ્રત, સાધુ સામાચારી અને તપસ્યા આદિનું પાલન કરવાને અસમર્થ હોય છે. '૧૨૧ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतोकसत्रे ___ अन्वयार्थः -- (एवं) एवमुक्तपकारेण (निमंतण) निमंत्रणमामंत्रणं (ल ) लब्ध्वा (मुच्छिया) मूछिताः (इत्यीसु गिद्धा) स्त्रीपु गृद्वा-गृद्धिमावागताः (कामेहिं) कामैः (अझोपवना) अध्युपपनाः (चोइज्जता) नोद्यमानाः (गिह) गृह (गया) गता इति ॥२२॥ ____टीका--'एवं' एवम् पूर्वोक्तरकारेग, राजाऽमात्यत्राह्म गादिभिः । निमं. तणं' निमन्त्रणम् अनुकूलपरीपहरूपयोगभोगाय 'लथु लब्ध्यामाप्य 'मुच्छिया' 'एव निमंतणं लछु' इत्यादि । शब्दार्थ---एवं-एवम्' पूर्वोक्त प्रकार से निमंतण-निमंत्रणम्' अनुकूल परीषहरूपी आग लोगने के लिए आमंत्रण 'लधु-लध्वा' पाकर 'च्छिया-छित्ताः' काम भोगों में आक्षत 'इत्थीलु-गिद्धा' त्रिपु गृद्धाः स्त्रियों में आसक्ति काले और कालेह-शामा काम भोगों में अज्झोववन्ना-अध्युपपन्नाः' इत्तचित्त पुरुष 'चोहज्जना-नोद्यमानाः' संयम पालने के लिये आचार्य आदि के छोर प्रेरित करने पर भी 'गहगृहम्' घर को 'नया-गला' चले जाते हैं ॥२२॥ ___अन्वयार्थ इस प्रकार आमंत्रण पाकर लोहग्रस्त होकर स्त्रियों में एवं कामभोगों में आसक्त बने हुए काई कापर साधक संयम पालन की प्रेरणा पाकर मी पुनः घर लौट गए हैं ॥२२॥ टीकार्थ- पूर्वोक्त प्रकार से रामा, अमात्य, ब्राह्मण आदि के द्वारा अनुकूल परीषहरूर लोग भोगने का निमन्त्रण पाकर मोहग्रस्त यन ‘एवं निमतणं लटुं' त्य6ि शहाथ-एवं-एवस्' पूर्वरित ४२थी 'निमंतण-निमंत्रणम्' मनु ५शेष३३पी सागवाना भाट मात्र 'लद्भु-लम्बा' याभान 'मुच्छिया -मूछिनाः' मागोमा यासत 'इत्थीसु गिद्धा' त्रिपु गृद्धाः श्रियामा मासहित भने 'कामेहिं-कामः' असले गोमा 'अज्ञवदन्ता-अध्युपपन्नाः' त्तिश्रित ५३५ 'चोइज्जना-नोद्यमानाः' सयम पावन माटे गाया मेरे द्वारा प्रेरित ४२३॥ छ । ५५ 'गिह-गृहम्' धरे 'गया-ताः' छाय. ॥२२॥ સૂવા– આ પ્રકારે રાજાઓ આદિ દ્વારા આમંત્રણ મળવાને કારણે, કાયર સાધુએ મેહસ્ત થઈને, તથા સ્ત્રીઓ અને કામગોમાં આસક્ત થઈને, અ ય આદિ દ્વારા સંયમમાં અવિચલ રહેવાની પ્રેરણા મળવા છતાં પણ સંયમને ત્યાગ કરીને ગુડાસમાં આવી ગયાના ઘણા દાખલાઓ મોજુદ છે પર आय-पूर्वरित प्रारे शत, अमात्य, ब्राह्मणे, क्षत्रिय माहिद्वारा અનુકૂળ પરીષહ રૂપ લેગ ભેગવવાનું નિમંત્રણ મળવાને કારણે કેટલાય કાયર Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपलगनिरूपणम् ८७ मूच्छिताः आसक्ताः कामभोगे 'इत्थी' स्त्रीषु 'गिद्धा' शृद्धा:=भूच्छिता= 'कामेहि' कामैः कामभोगेषु 'अज्झे रवन्ना' बध्युपपन्नाः दत्तचेतसः समासत्ता इति यावत् । 'चोइज्जंता नोद्यमाना=संयमपालनाय मेरिताः आचार्यादिभिः । 'गिहं गया' गृहं गताः, प्रेरितास्तु संयमपालनाय, किन्तु समूलमबहत्य संयम गृहं गताः । विषयोपयोगकरणभूतं वस्त्रास्त्यादिदारपूर्वक विश्लोभिता विपयोपभोगं प्रति राजादिभिनिमन्त्रणं संप्राप्य गुरुकर्माणः संयमपालने काराः जीवाः स्थादिषु समासक्तचित्ताः मत्रज्या परित्यज्य गृहवासिनो भवन्ति । इति शब्दः उद्देशकपरिसमाप्ति बोधकः । मुधर्मस्वामी कथयति जंबुस्वामिनं प्रति तीर्थकरोदितं वचनमहं ब्रवीमि इति ॥२२॥ इति श्री विश्वविख्यातजगद्नल्लभादिपदभूपितवालब्रह्मचारि 'जैनाचार्य पूज्यश्री घासीलाल व्रतिविरचितायां श्री "समयार्थबोधिन्याख्याया" ___व्याख्यायां तृतीयाध्ययनस्य द्वितीयोद्देशकः समाप्तः ॥३-२॥ कर तथा शामलोगों में गृद्ध होकर तथा स्त्रियों में आसक्त होकर आचार्य आदि के द्वारा संयम का पालन करने की प्रेरणा होने पर भी संयम को नष्ट करके घर लौट गये हैं। अभिप्राय यह है कि विषयभोग के साधन बन हाधी आदि के दान द्वारा विषयोपभोग के लिए लुभाए हुए, राजा आदि का निमन्त्रण पाकर गुहकर्मी एवं संयम के पालन में कायर जीव स्त्रियों आदि में आसक्त चित्त होकर दीक्षा को त्याग देते हैं और गृष्मण बन जाते हैं। ___ "इति" शब्द उद्देशक की समाप्ति का सूचक है। सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं-मैं तीथे करोक्त वचन ही तुम्हें कहता ॥२२॥ સાધુએ સંયમનો ત્યાગ કરીને ઘેર પાછાં ફરી ગયાના દાખલાઓ મળી આવે છે. એવાં સાધુઓને આચાર્યો દ્વારા સંયમના માર્ગે સ્થિર રહીને આત્મકલ્યાણ સાધવાની પ્રેરણા તે મળતી જ હોય છે, પરંતુ રાજા આદિ પૂક્તિ સંસારી લેકે તેમને કામ પ્રત્યે આકર્ષવા પ્રયત્ન કરતા હોય છે. તે કારણે સ્ત્રીઓમાં તથા કામમાં આસક્ત થઈને તે કાયર, ગુરુકર્મા સાધુઓ સંયમને માર્ગ છેડી દઈને સંસારમાં પુનઃ પ્રવેશ કરે છે. 'इति' मा ५६ असानी सभासिनुसूय छे. सुधा स्वामी पोताना શિષ્યોને કહે છે... આપને જે ઉપદેશ આપે છે, તે તીર્થકર દ્વારા प्रपितापाथी प्रभाशुभूत छे.' ॥२२॥ .. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतागसूत्र ॥अथ तृतीयोद्देशकः मारभ्यते ॥ उपसर्गपरिज्ञायां कथितो द्वितीयोद्देशकः । अधुना तृतीयोदेशकः प्रारभ्यते । इहानन्तरोद्देशव द्वयेऽतुकूलपतिकूलोपसर्गयो निरूपणं कृतम् । तरूपस रतपःसंयमविराधना भवतीति तृतीयोदेश के प्रतिपादयिष्यति । अनेन संबन्धेलाऽऽालस्य तृतीयोद्देशकस्येदमादिमं त्रं-'जहा संगाम' इत्यादि। मूलम्-जहा संगाखकालंकि पिटुओ भीरु वेहइ । वलयं गहमां घूमं कोइ जाणइ पराजयं ॥१॥ छाया-यथा संग्रामकाले पृष्टतो मील प्रेक्षते । बलयं गहनमाच्छादकं को जानाति पराजयम् ॥१॥ तीला उद्देशक उपसर्गपरिक्षा अध्ययन के दूसरा उद्देशे का व्याख्यान हो चुका । अब तीसरा उद्देशक का प्रारम्भ किया जाता है। पूर्व के दो उद्देशकों में प्रतिकूल और अनुकूल उपलों का निरूपण किया गया है। उन उपसगों से तप और संयम की चिराधना होती है, यह विषय तृतीय उद्देशन में प्रतिपादन किया जाएगा । इस सम्बन्ध से आए हुए इस उद्देशे का यह आदि थुन्न है-'जहा संगामः' इत्यादि। शब्दार्थ-'जहा-यथा' जैसे संगालकालेषि-संग्रामकाले' शत्रु के साथ युद्ध के अवसर में 'श्रीरु-भी' कायर पुरुष 'विटुमो-पृष्टतः' पीछे की ओर 'वलयं-घलयम्' गादिक 'महणं-गहनम्' गहन स्थान ‘णूम-आच्छादकस्' वलयाकार छिपा हुआ स्थान पर्वत के गुहादिक त्री देशाना मारलઉપસર્ગ પરિજ્ઞા અધ્યયનને બીજો ઉદ્દેશક પૂરો થયે, હવે ત્રીજા ઉદ્દેશકનો પ્રારંભ થાય છે. પહેલા બે ઉદ્દેશકમાં પ્રતિકૂળ અને અનુકૂળ ઉપસર્ગોની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી છે. તે ઉપસર્ગો વડે તપ અને સંયમની વિરાધના થાય છે, આ વિષયનું આ ત્રીજા ઉદ્દેશકમાં પ્રતિપાદન કરવામાં આવશે. આગલા ઉદ્દેશક સાથે આ પ્રકારને સંબંધ ધરાવતા આ ઉદ્દેશકનું પહેલું સૂત્ર આ प्रभारी छे.-'जहा संगाम०' त्यहि शार्थ-'जहा-यथा' २वीशत 'संगामकालंमि-संग्रामकाले' शत्रुनी सार्थना युद्धता अवसरमा 'भीड़-भीरुः' ४१५२ ५३१ 'पिट्ठओ-पृष्टतः' पाछनी मा 'वलयं-बलयम्' पाया.२ शताहि 'गहणं-गहनम्' गहन स्थान ‘णूम-बाच्छादुकम्' छुपाय स्थान, पतनी शुशवाणु पोरे स्थान 'वेहइ-प्रेक्षते' ने छ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.३ उ.२ उपसर्गजन्यतपःसंयमविराधनानि० ८९ अन्वयार्थ-(जहा) यथा (संगामकालंमि) संग्रामकाले रिपुयुद्धावसरे प्राप्ते सति (भीर) भीरुः कातरः (पिट्ठभो) पृष्ठता-प्रथमतः (वलयं) वलयम् वलयाकार गर्तादिकं (गहणं) धवादिवृक्षादिगहनस्थानम् (शमं) आच्छादकं पच्छन्नं गिरिगुहादिकं (वेहइ) प्रेक्षते (पराजय) पराजयं (को जाणइ) को जानाति इति ॥१॥ टीका-कठिनार्थाऽवबोधो मन्दमतीनां न दृष्टान्तमन्तरेण संमवति । सति च दृष्टान्ते कठिनार्थोप्यववुध्यते । इति अन्वयव्यतिरेकाभ्यां मन्दमतीनाम् अर्थाऽवबोधे दृष्टान्तस्य कारणता समधिगता, इति प्रथमतो दृष्टान्तमेव दर्शयतिप्रतिपाद्यार्थाऽवबोधे-'जहे' इत्यादि । 'जहा' यथा 'संगामकालंमि' संग्रामकाले, स्थान 'वेहइ-प्रेक्षते' देखता है 'पराजय-पराजयम्' किसका पराजय होगा 'को जाणइ-को जानाति' कौन जानता है ॥१॥ ___अन्धयार्थ-जैसे संग्राम का अवसर आने पर भीरु पुरुष प्रारंभ में ही पीछे की तरफ गोलाकार खडा, गहन अर्थात् वृक्षवेल आदि से आच्छादित गहन स्थान एवं पर्वत की गुफा आदि देखता है (और सोचता है कि) कौन जाने पराजय हो जाए ॥१॥ टीकार्थ--मन्दबुद्धिशिष्य दृष्टान्त के विना कठिन अर्थ को नहीं समझ सकते । दृष्टान्त हो तो कठिन अर्थ भी समझ में आ जाता है। इस प्रकार अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा मन्द मतियों के लिये अर्थ 'समझने में दृष्टान्त कारण है, यह बात सिद्ध है। अतएव यहां जो अर्थ कहा जाने वाला है, उसको समझाने के लिए सर्वप्रथम दृष्टान्त ही प्रदशित किया जाता है। वह इस प्रकार से है जैसे युद्ध का अवसर उपस्थित 'पराजय-पराजयम्' होना ५२।०४५ थरी ? 'को जाणइ-को जानाति' કે જાણે છે? ૧ સૂત્રાર્થ-ચુદ્ધને પ્રસંગ આવી પડે ત્યારે ભીરુ પુરુષ યુદ્ધના પ્રારંભે જ, પાછળની બાજુએ ગોળાકાર ખાઈ, વૃક્ષો અને લતાઓથી આચ્છાદિત ગહન સ્થાન અને પર્વતની ગુફા આદિ છુપાઈ જવા લાયક સ્થાની જ તપાસ કરતા રહે છે, કારણ કે તેને એવો ડર રહે છે કે યુદ્ધમાં કદાચ પરાજય પણ થાય! . ટીકાઈ–મદ બુદ્ધિવાળો શિષ્ય દષ્ટાન્ત દ્વારા કઠણમાં કઠણમાં અર્થને પણ સમજી શકે છે. આ પ્રકારે અન્વય અને વ્યતિરેક દ્વારા અર્થ સમજવાના કાર્યમાં મન્દીમતિ શિષ્યને માટે દષ્ટાન્ત મદદ રૂપ થઈ પડે છે, આ વાત તે 'સિદ્ધ જ છે. તેથી પિતે જે વિષય સમજાવવા માગે છે. તેનું સૂત્રકારે દષ્ટાન્ત सु०१२ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतामसूत्रे संग्रामसमये उपस्थिते सति 'भीरू' भीमा प्रवलशत्रुपरगतीक्ष्णाशिकुन्तशक्ति प्रभृतिशस्त्राघातेन विभेति यः स भीरुः कातरः पुरुषः 'पिटओ' पृष्ठता प्रथमत एच 'वलयं' वल यम्-परिखास् , यत्र जलं वलयाकारेण व्यवस्थितं भवति, तादृशं 'दुर्गस्थानम् । तथा 'गहणं' गहनम् , कठिनरवानं दुःख निर्गमयदेशगादिकं स्था'नम् । तथा-'शूम' आच्छादकं वृक्षादिभिशतीर्ण गिरिगृहादिरथानम् 'वेहइ' पेक्षते-पश्यति आत्मनस्त्राणाय भीरुः पुरुष एवं चिन्तयति-पराजय' पराजयम् कोकः 'जाणई' जानाति, कदाचिदल्पवलोऽपि जति, बाटोऽपि पराजयम् आसादयति । प्रथमत एवाऽऽत्मनो रक्षणाय स्थानमन्वेषयति । यतः जीवन नरो भद्रशतानि पश्येत्' इति । तस्मात् पधात एद स्वप्राणाणस्थानमवलोकयति । होने पर, सबल शत्रु के द्वारा अत्यन्त लीक्ष्ण तलवार, लाला शक्ति आदि शस्त्रों के आघात से डरने वाला भीरु अर्थात् ज्ञायर पुरुष पहले से ही, पीछे की ओर बलय या परिखा को, जिसमें जल गोलाकार रूप में रहता है, देखता है। अधवा बह गहन अर्थात् ऐसे कठिन स्थान को : देखता है, जहां वडी कठिनाई से प्रदेश किया जाय या निकला जाए। या वह वृक्ष आदि से आच्छादित गिरि गुप्ता आदि स्थानों को अन्वेषण करता है। वह भीरु लोचता है पराजय को कौन जानता है। कभी कभी निर्बल भी जीत जाता है और बलवान् श्री हार जाता है। ऐसा सोचकर वह अपने प्राण बचाने के लिए पहले से ही स्थान कीतलाश करता है। क्योंकि कहा है-'जीवन् न भद्र शतानि पश्येत्' इत्यादि। દ્વારા જ અહીં પ્રતિપાદન કર્યું છે–જેવી રીતે યુદ્ધને પ્રસંગ આવી પડે ત્યારે સબળ શત્રુના અત્યંત તીક્ષણ તલવાર, તીર, ભાલા આદિ શોના ઘાથી ડરનારે કાયર પુરુષ પહેલેથી જ પાઈ જવા લાયક સ્થાનોની શોધ કરતે રહે છે. એવાં સ્થાને અહીં ગણાવવામાં આવ્યાં છે–ચારે બાજુ પાણીથી ઘેરાયેલું દુશ્મન પ્રવેશ ન કરી શકે એવું સ્થળ, જ્યાં પ્રવેશ કરવામાં ઘણી મુશ્કેલી પડે એવું ગહન સ્થાન, વૃક્ષે અને લતાઓથી આચ્છાદિત ગિરિગુફા આદિ સ્થાનોની તે શેલ કરતો રહે છે. તેને એવો વિચાર થાય છે કે યુદ્ધમાં જ્ય થશે કે પરાજય થશે તે કશું જાણે છે? કયારેક નિર્બળ દુશ્મનો વિજય મેળવે છે અને શુરવીર હારી જાય છે. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તે પોતાનાં પ્રાણ બચાવવાને માટે પહેલેથી જ આશ્રયસ્થાનની શોધ કરે છે કહ્યું પણ छ -'जीवन् नरो भद्रशतानि पश्येत्' 'पते। न२ इंद्री पाभ-भाणुस पते। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ ७.२ उपसर्गजन्यतपासंयमविराधनानि० ९१ यथा कातरः पुरुषः संग्रामात्मागेव यदि कदाचिन्मम पराजयः उपस्थितो भवेत्तदा मया किं करणीयं कथं वाऽऽत्मा रक्षगीय इत्यादिविवार्य स्वरक्षणाय आदित एवं दुर्गादीनामन्वेषणं करोति ॥१॥ मलम्-मुहुत्ताणं मुहुत्तस्ल मुहुत्तो होइ तारिलो। पराजियाऽबसप्पामो इति भीरु उवहइ ॥२॥ छाया-मुहूर्तानां मुहूर्तस्य मुहूतौ भवति तादृशः । पराजिता अवसामः इति भीरुरुपेक्षते ॥२॥ 'मनुष्य जीवित रहे तो बैंकडो कल्याण देखता है।' अतः यह अपने प्राणों के रक्षण के लिए पहले से ही स्थान की खोज करता है। . आशय यह है कि कायर पुरुष संग्राम से पहले ही, पीछे की ओर. दुर्ग आदि स्थानों को देखता है कि कदाचित्यू पराजय का सामना करना पडा तो में पीछे भागकर कहां छिपूना और अपने प्राण पचाऊंगा ॥१॥ शब्दार्थ-'हुताणं-मुहूतानाम्' बहुत मुहूतौ का 'हुत्तस्समुहत्तस्य' अथवा एक मुहत का 'तारितो-तादृशः' कोई ऐसा 'मुटुत्तो होइ-मुहूतों भवति' अवरूर होता है 'पराजिया-पराजिताः' शत्रु से पराजित हम 'अक्सप्पामो-अवसामः' जहां छिप सके 'इति-इति' ऐसे स्थान को 'श्रीरा-भीम.' काघर पुरुष 'उबेहद-उपेक्षते' सोचता है ॥२॥ રહે તે ઍક કલ્યાણકારી પ્રસંગો દેખે છે આ પ્રકારનો વિચાર કરીને કાયપુરુષ પહેલેથી જ પિતાના પ્રાણનું રક્ષણ કરી શકાય એવા સ્થાનની શોધ કરતા જ રહે છે. - આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે કાયર પુરુષ સંગ્રામની શરૂઆત થયા પહેલાં જ પોતાનાં પ્રાણની રક્ષાને વિચાર કર્યા કરે છે. કદાચ યુદ્ધમાં પરાજય થાય તે પીછેહઠ કરીને કયાં છૂપાઈ જવાથી પોતાના પ્રાણોની રક્ષા થઈ શકશે, તેને વિચાર તે પહેલેથી જ કરી રાખે છે. કોઈ કિલ્લે, પર્વતની ગુફા આદિ આશ્રયસ્થાને તે દયાનમાં રાખી લે છે ગાથા ૧ • शा--'मुहुत्ताणं-मुहूर्तानाम्' म भुत्तानु 'मुहुत्तस्स-मुहुर्तस्य' मथवा मे मुडूतनु ,'तारिख-ताश.' १७ वा 'मुहुत्तो होइ-मुहूत्तों भवति' अपस२ हाय छे 'पराजियां-पर जिता.' शत्रुथी ५ird ममे 'अवखप्पामोअवसर्गमः' यां छुपा शकीले 'इति-इति' वा स्थानने 'भीरू- भीमर ५३१ 'उवेहइ-उपेक्षवे' पियारे छे. ॥२॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गहने __ अन्वयार्थः-(मुहुत्ताणं) मुहुर्तानाम् (मुहुत्तस्स) मुहूर्तस्यैकस्य (तारिसो) तादृशः (बहुत्तो होइ) मुहूतौऽवसरः भवति (पराजिया) पराजिताः शत्रुभिः (अवसप्पामो) अवसामः (इति) इति (भीरु) भीरुः कातरः (उवेहइ) उपेक्षते-शरणमिति ।।२।। टीका'मुहुत्ताणं' मुहूर्तानां क्षणानाम् अनेकेपाम्, अथवा 'मुहुवस्स' मुहूर्तस्यैकस्यैव 'तारिसो' तादृशः 'मुटुत्तो' मुहूर्तः कालविशेपलक्षणोऽवसरः 'होइ' भवति, न सर्वस्मिन् एव काले जया पराजयो वा संभवति । तत्रैवं व्यवस्थिते यदि वयं 'पराजिया अवसप्पामो' पराजिताः सन्तः अवसामः। इति एवं रूपेण 'भीरु' भीरु:-कायरः पुरुषः 'उवेहई उपेक्षापत्प्रतीकाराय दुर्गादीनां शरणं प्रथमतः एव प्रेक्षते, मनसि चिन्तयन्ति स्थानादिकम् । यदि माशस्य मरणनिमित्तं युद्धे उपस्थितं भवेत्तदा आत्मरक्षणार्थ स्थानमवलोकयति इति ॥२॥ ____ अन्वयार्थ--अनेक मुहरों में या एक मुहर्त में ऐसा अवसर होता है जबकि जय पराजय होती है । शत्रु से पराजित होकर हम कहां भागेगे? ऐसा सोचकर कायर पुरुष शरणभूत स्थान का अन्वेषण करता है ॥२॥ ____टीका--बहुत से मुहत्तों से अथवा एक ही मुहूर्त में ऐसा एक अवसर रूप क्षण होता है जब कि जय पराजय का निश्चय होता है । सभी कालों में जय पराजय नहीं हुआ करते । कदाचित् पराजय का अवसर आ जाय तो हम पीछे भाग सके, ऐसा सोचकर कायर पुरुष आपत्ति के प्रतीकार के लिए दुर्ग-किल्ला आदि को पहले से ही देख रखता है। तात्पर्य यह है कि युद्ध में यदि मृत्यु का कोई निमित्त उपस्थित हो जाय तो आत्मरक्षा के लिए स्थान की खोज करता है ॥२॥ સૂત્રાર્થ—અનેક મુહૂર્તોમાં અથવા એક મુહૂર્તમાં એવો અવસર આવે છે કે જ્યારે જય પરાજય નકકી થાય છે. કદાચ યુદ્ધમાં પરાજિત થઈને ભાગવું પડે, તે ક્યાં ભાગી જવાથી આશ્રય મળી શકશે, તેને કાયર પુરુષો પહેલેથી જ વિચાર કરી લે છે. પર ટીકાર્થઘણું મુહૂર્તોમાં અથવા એક જ મુહૂર્તમાં, જયપરાયને નિશ્ચય કરાવનાર તે એક જ અવસરરૂપ ક્ષણ પ્રાપ્ત થાય છે. જીવનમાં જય પરાજયને પ્રસંગ કાયમ પ્રાપ્ત થતું નથી. કયારેક જયને પ્રસંગ પ્રાપ્ત થાય છે અને ક્યારેક પરાજયને પ્રસંગ પણ પ્રાપ્ત થાય છે. કદાચ યુદ્ધમાં પરાજય થાય દુશ્મનના હાથે મરવા કરતાં ભાગી જઈને જાન બચવવાનું કાયર પુરુષને વધુ ગમે છે. તેથી આશ્રય મળી રહે એવાં દુગ આદિ સ્થાને તે ધ્યાનમાં રાખી લે છે. યુદ્ધમાં પરાજિત થઈને મૃત્યુને ભેટવાને બદલે તે કાયર પુરુષ તે દુર્ગાદિમાં નાસી જઈને પિતાનાં પ્રાણ બચાવે છે. ગાથા રા Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ.१ उपसर्गजन्यतपःसंयमविराधनानि० ९३ દ सूत्रम् - एवं तु समणाएंगे अवलं नञ्चाण अप्पगं । ७ १२ ११ farai भयं दिस अविकप्पतिमं सुयं ॥३॥ छाया - एवं तु श्रमणा एके अवलं ज्ञात्वा खल्वात्मानम् । अनागतं भयं दृष्ट्वा कल्पन्तीदं श्रुतम् ॥३॥ अन्वयार्थ:- ( एवं तु) एवं तु (एगे समणा) एके श्रमणाः - अल्पमतयः (अध्यi) आत्मानम् (अवलं) अवलं - यावज्जीवसंयम भारवहन समर्थम् (णच्चा ण) ज्ञात्वा खल (अणागयं) अनागतं (भयं दिस्स) भयं दृष्ट्वा (इमं सुर्य) इदं व्याकरणगणितादिश्रुतम् (अविकप्पंति) अवकल्पयन्ति इति ॥ ३२ ॥ टीका- ' एवं एवम् पूर्वोक्तदृष्टान्तेन - 'एगे समणा' एके श्रमणाः = एके शब्दार्थ -- 'एवं तु एवं तु' इस प्रकार 'एगे समणा - एके श्रमणः ' कोई अल्प मतिवाले श्रमण 'अप्पर्ग - आत्मानम्' अपने को 'अलं -अबलम्' जीवनपर्यन्त संयम पालन करने में असमर्थ 'णच्चा ण-ज्ञाश्वा खलु' जानकर 'अणामयं - अनागतम् ' भविष्यकाल के 'भयं दिस्स भयं दृष्ट्वा ' भय को देखकर 'इमं - सुयं इदं श्रुतम्' व्याकरण एवं ज्योतिष आदि को 'अविकति- अविकल्पयन्ति' अपने निर्वाह का साधन बनाते हैं ॥३॥ अन्वयार्थ - - इसी प्रकार कोई कोई अल्पमति श्रमण अपने को निर्बल अर्थात् जीवनपर्यन्त संयम का भार वहन करने में असमर्थ जानकर भावी भय को देखकर व्याकरण गणित आदि श्रुत की कल्पना करते हैं ॥३॥ टीकार्थ-- पूर्वोक्त दृष्टान्त के अनुसार कोई कोई अल्पत्व कायर शब्दार्थ——एवं तु-एवं-तु' मा अरे 'एगे - समणा - एके श्रमणाः' अह्यणुद्धिवाणा श्रभष्य 'अप्प - आत्मानम्' पोताने 'अबलं - अबलम्' लवन पर्यंत सत्यभ पालने ४२वामां असमर्थ' 'जच्चा ण ज्ञात्वा खलु' लखीने 'अणागयं - अना' गतम्” भविष्यअजना “भयं दिस्स भयं दृष्ट्वा' लयने लेने 'इमं सुयं इदं श्रुतम्' व्या४२षु येव ं ज्योतिष वगेरेने 'अविकप्पंति - अविकल्पयन्ति' घोताना निर्वानु साधन मनावे छे. ॥३॥ સૂત્રા—એજ પ્રમાણે કાઈ કાઇ અલ્પમતિ સાધું સંયમ રૂપ ભારનું જીવનપર્યંત વહન કરવાને પેાતાની જાતને અસમર્થ માનીને, ભાવી ભયને જોઈને વ્યાકરણ, ગણિત, આદિ શ્રતની કલ્પના કરે છે, પ્રા Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूत्रकृतङ्गिसूत्र अल्पसत्त्वाः कातराः साधवः 'अप्पगं' आत्मानं स्वात्मानम् 'अवलं' अवलंबलरहिम् , यावज्जीवनं संयममारं वोढुमशक्यम् 'नचा ण' ज्ञात्वा खलु अवमृश्य, यावज्जीवन संयमस्य पालनकरणे अस्मदात्मवलं नास्तीति विचार्य । तथा 'अणागयं' अनागतम्, भविष्यत्कालिकम् 'भयं' भयम्-शीतोष्णादिपरीषहोपसर्गजनितंभयम् 'दिस्स' दृष्ट्वा इमं छु यम्' इदं श्रुतम्- व्याकरणगणित वैद्यकमंत्रादिशास्त्रादिकं जीविकासाधकमेव । 'अविकप्पंति' अविकल्पयन्ति जीविकायाः साधनं मन्यते । __यथा-कातरः पुरुषो युद्धे आत्मत्राणाय दुर्गादिकं साधनमन्वेषयति । तथाये के वित्साघवोऽपि स यमपरिपालनसामर्थाभाव विमृश्य. स्वकीयत्राणाय जीविकासाधनाय च व्याकरणायुर्वेदज्योति शास्त्रादिकमेव निर्णयन्ति इति ॥३॥ साधु अपने आप को यादजीवन संयमभार वहन करने में असमर्थ लमझकर अर्थात् जीवनपर्यन्त संयल का पालन करने में आत्मघल का अभाव जानकर तथा अविष्यत् कालीन शीत उष्ण आदि परीषहों एवं उपलों से उत्पन्न होने वाले भय को देखकर व्याकरण गणित वैद्यकमंत्र आदि शास्त्रों को आजीविका का साधन धनाते हैं। तात्पर्य यह है कि जैले फायर पुरुष युद्ध में आत्मरक्षण के लिए दुर्ग आदि साधनों का अन्वेषण करता है, उसी प्रकार कोई कोई साधु लंयम का परिचालन करने में अपनी असमर्थता जानकर अपनी रक्षा के लिये एवं आजीविका के लिये व्याकरण आयुर्वेद, ज्योतिष आदि शास्त्रों का अवलम्बन लेते हैं ॥३॥ ટીકાઈ–આગળ બતાવેલા દૂતમાન કાયર પુરુષની જેમ કઈ કઈ અપસવ કાયર સાધુ પણ એ વિચાર કરે છે કે હું જીવનપર્યત સંયમ ભારતું વહન કરી શકીશ નહીં. તેનામાં આત્મબળને અભાવ હોવાને કારણે તેને એ વિચાર થયા કરે છે કે શીત, ઉણુ આદિ ઉગ્ર પરીષહને હું જીવનપર્યત સહન કરી શકીશ નહીં. મારે ગમે ત્યારે સંયમનો માર્ગ છેડીને ગૃઢવાસ સ્વીકાર પડશે. આ પ્રકારના વિચારથી પ્રેરાઈને તે વ્યાકરણ, ગણિત, વૈિદક, તિપ આદિ શાનું અધ્યયન કરીને ભવિષ્યમાં તેના દ્વારા પિતાની આજીવિકા ચલાવવાનો વિચાર કરે છે. જેવી રીતે કાયર પુરુષ યુદ્ધના ભયથી દુર્ગ કિલા આદિ આશ્રયસ્થાનોનું અન્વેષણ કરે છે, એ જ પ્રમાણે કઈ કેઈ સાધુ સંયમનું પરિપાલન કરવાને પોતે અસમર્થ છે એવું સમજીને, પિતાવીરક્ષાને માટે તથા આજીવિકાને માટે વ્યાકર, આયુર્વેદ જ્યોતિષ, આદિ શસ્ત્રને આધાર લે છે.-ભવિષ્યમાં તેના દ્વારા પિતાનું ગુજરાન ચલાવવાનું વિચાર કરે છે. ગાથા - ૩ - Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ उ.२ उपसर्गजन्यतपःसंयमविराधनानि० -२५ अल्पसत्वो जीव इत्थर पि विकल्पयति, तदिह सत्रकारो दर्शपति को जाणई' इत्यादि। मूलम्-को जाणइ दिऊवातं इत्थीओ उदगाउ वा।। चोइजता पाखामो ण णो अस्थि पकप्पियं ॥४॥ - छाया-हो जानाति व्यापातं स्त्रीतो उदकादवा । ... नोद्यमाना पक्ष्यामो न नोऽस्ति मकल्पितम् ॥४॥ . . अन्वयार्थ:--(इत्थीओ) स्त्रीतः (उदगाउवा) उदकार-चा (विउवातं) व्यापातं संयमजीवितात् भ्रशं (को जापइ) को जानाति (णो) म अस्माकम् (पकश्यि ) अल्पसन्द जीव ऐला भी विचार करता है यह दिखलाते हुए शुनकार कहते हैं-'को जाणइ' इत्यादि । शब्दार्थ--'इथिओ-स्त्रीतली से 'उदगाउ बां-उदकात्वा अथवा उदक नाम कच्चे जल से विऊवातं-व्यापातम्' मेरा संयम भ्रष्ट हो जायगा 'को जाणई-को जानाति' यह कौन जानता है ? 'णो-लो'मेरे पास 'पफप्पियं-प्रकल्पितम्' पहले का उपार्जित द्रव्य भी 'ण अस्थिनास्ति' नहीं है इसलिये 'चेइज्जंता-नोचमानः' किसी के पूछने पर हम हस्तशिक्षा और धनुर्वेद आदि को 'पवखामो-प्रवक्ष्यामः' बतावेगे। ४॥ . . .अन्वयार्थ--कौन जाने स्त्री या जल के निमित्त से संचम ले, भ्रष्ट होना पडे ? पहले उपार्जन किया हुआ द्रव्य है नहीं । अत: दूसरों के पूछने पर धनुर्विद्या आदि का उपदेश करेंगे ॥४॥: . . . . . - તે અલ્પસર્વ કાયર સાધુ કેવા કેવા વિચાર કરે છે, તે સત્રકાર હવે अट ४२ छ-'को जाणइ' त्यादि, शहा--'इथिओ-स्त्रीतः' खीथी 'उदगाउपा-उदकातवा' अथवा 63 नाम या पाणीधी 'विऊवातं-व्यापातम्' मारे। सयमा भ्रष्ट थ शे को जाणइ-को जानाति' मा onी छ ? 'णो-नो' भारी पासे पकास्पियं -प्रकल्पितम्-पडसानु ति घन ५६ ‘ण अस्थि-नास्ति': नथी, सरसा भाट 'चेइज्जंता-नोद्यमानाः' न पूछपाथी समेतशिक्षा मने धनु परेने ‘पवक्खामो-प्रवक्ष्यामः' मतावीशु ॥४॥ સૂત્રાર્થ–-કેને ખબર છે કે સ્ત્રી અથવા જલ આદિને કારણે સંયમના भागे था ४यार,अष्ट थवु. ५-! पखi S 1 ४२९ द्र०य, छे नही Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मकलित समुपाणिम् द्रव्यमपि (ण अस्थि) नास्ति, अतः (चोइज्जंता) नोद्यमानाः परपृष्टाः सन्तः (परक खामो) प्रवक्ष्यामः धनुर्विद्यादिकं कथयिष्याम इति ॥४॥ टीका-'इत्थीभो' स्त्रियः सकाशात् 'उदकाउ वा अथवा-उदकात् जलात् स्त्रीपरीषहाद वृष्टथुपद्रवाद्वा, इत्येवं ते ऽल्पसत्वाः विवेचयन्ति, पाणिनोऽल्पसत्वा भवन्ति, कर्मणां च विचित्रा गतिविद्यते. अनेकानि प्रमादस्थानानि विद्यन्ते । अतः क ऋते सर्वज्ञात् जानाति, मम संयमात् पतनं केन हेतुना स्यात् । किं स्त्री परीपहात् जलोपवाद्वा इति ते कातराः शोचन्ति । तथा 'गो' ना=अस्माकं किमपि । 'पापियं' प्रकल्पितम् , पूर्वोपार्जितं द्रव्यमपि । 'ण अस्थि' न अस्ति, अतः 'चोइज्जता' नोद्यमानः परेण पृच्छयमानाः । 'पविक्खाम' प्रवक्ष्यामः, धनुर्वेदाऽऽयुर्वेदज्योतिःशास्त्रादिकं वा कथयिष्यामः । इत्येवं रूपेण ते मन्द टीकार्थ-वे अल्पलत्व प्राणी इस प्रकार विचार करते हैं-प्राणियों की शक्ति अल्प होती है और कर्मों की गति विचित्र होती है। प्रमाद के अनेक स्थान हैं । अतएव सर्वज्ञ के सिवाय कौन जान सकता है कि किस कारण से मैं संयम से पतित हो जाऊं? संभव है स्त्री के परीषह से अथवा जल के उपद्रव से मेरा पतन हो जाय ! कायर पुरुष इस प्रकार का विचार करते हैं । वे यह भी सोचते हैं कि हमारे पास पूर्वोपार्जित कुछ भी द्रव्य नहीं है। उसे उपार्जित करने के लिए दसरों के प्रश्न करने पर धनुर्वेद (धनुष चलाने की विद्या) आयुर्वेद, ज्योतिष आदि का कथन करेंगे। ऐसा विचार कर वे मन्दमति व्याकતેથી જોતિષ, આવેદ, ધનુર્વિદ્યા આદિ મારા જ્ઞાનને દ્રવ્યોપાર્જનને માટે ઉપગ કરીશ, ઝા ટીકાર્થ–તે અલ્પસર્વ સાધુ એ વિચાર કરે છે કે-આપણી શક્તિ મર્યાદિત હોય છે અને કર્મોની ગતિ વિચિત્ર હોય છે. પ્રમાદનાં અનેક સ્થાન મજુદ છે. તેથી સર્વજ્ઞ ભગવાન્ સિવાય એવું કોણ જાણી શકવાને સમર્થ છે કે હું ક્યારે સંયમના માર્ગેથી ભ્રષ્ટ થઈશ? સ્ત્રીના પરીષહથી અથવા જળના ઉપદ્રવથી પણ મારું પતન થઈ શકવાને સંભવ છે. સંયમનો પરિત્યાગ કર્યા બાદ મારે માટે આજીવિકાને પ્રશ્ન ઉપસ્થિત થશે મારી પાસે પર્વોપાર્જિત ધન તે છે નહીં, તે મારું ગુજરાન કેવી રીતે ચલાવીશ? આ સાધુજીવનમાં વ્યાકરણ, તિષ. ધનુર્વિધા, આયુર્વેદ આદિનું અધ્યયન કર્યું હશે, તે તેના દ્વારા મારી આજીવિકા ચલાવી શકાશે આ પ્રકારના વિચારથી પ્રેરાઈને તે ધનુર્વેદ, તિષ, આયુર્વેદ આદિ લૌકિક શાસ્ત્રના Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ उ.२ उपसर्गजन्यतपासंयमविराधनानि० ९७. मतयो विचार्य व्याकरणादिलौकिकशास्त्रे प्रयत्न सुर्वन्ति । किन्तु प्रयतमाना अपि ते मन्दभागाः अभिलपितार्थ नैत्र प्राप्नुवन्ति । मोक्षविद्यारूपं बीजं शांतिरूपं फलमुत्पादयति, तेन विद्यावी जेन यदि कश्चिद् धनमभिलपेत् तथा तस्य परिश्रमो यदि विफलो भवेत्तदा किमाश्चर्यम् वस्तूनां फलं नियतं भवति, अतो यस्य यत् फलम् वदतिरिक्तं फलम् नैव ददाति यथा शाल्यंकुरम् न जनयति यक्वीजमिति । तथा चोकम् "उपशमफलाद विद्या बीजारफलं धनमिच्छतास् । भवति विफलो यघायासरतुदन किमद्भुतम् ॥१॥" रण आदि लौतिक शास्त्र में उद्या करते हैं परन्तु प्रयत्न करने पर भी वे अभागे अपना अभीष्ट नहीं प्राप्त कर पाते । मोक्षविद्यालय बीज शान्ति रूपी फल को उत्पन्न करता है। उस विद्यावीज में यदि कोई धन की अभिलाषा करता है और उसका परिश्रम निष्फल होता है तो हमें क्या आश्चर्य है ? प्रत्येक वस्तु का फल नियत होता है । जिस वस्तु का जो फल है वह उसके अतिरिक्त फल नहीं देती, जस्ले शालि (बादल) के अंगुर प का बीज को उत्पन्न नहीं करता। कहा भी है-'पशामफलाद् विद्या बी मात्' इत्यादि । ' 'उपशम रूप फलोत्पण करने वाले विद्यापीज से धन प्राप्त करने की अभिलाषा करने वाली कामददि निष्फल होता है तो यह कोई अनोखी बात नहीं ॥१॥ અધ્યયનમાં પ્રવૃત્ત થાય છે. પરંતુ પ્રયત્ન કરવા છતાં પણ તે દુર્ભાગી માણસો અભિલષિત વસ્તુની પ્રાપ્તિ કરી શકતા નથી. | મોક્ષવિદ્યા રૂપ બીજ શાન્તિ રૂપી ફળને ઉત્પન્ન કરે છે તે વિદ્યાબીજ, દ્વારા જે કઈ ધનની અભિલાષા સેવે, તે તેને પરિશ્રમ નિષ્ફળ જ જાય છે, તેમાં આશ્ચર્ય પામવા જેવું શું છે? પ્રત્યેક વસ્તુ નિયત ફળ આપનારી ' હેય છે. કઈ પણ વસ્ત પાસેથી નિયત ફળને બદલે અન્ય ફળની આશા ' રાખવાથી નિરાશ જ થવું પડે છે. જેવી રીતે ચોખાનું બીજ વાવીને યવ ઉત્પન્ન કરી શકાતા નથી. એ જ પ્રમાણે ઉપશમ રૂપ ફલ ઉત્પન્ન કરનારી विधा द्वारा घननी प्रतिशती नथी. ४ ५५ 3-'उपशमफलाद् । विद्या वीजातू छत्याहि* ઉપશમપ ફલને ઉત્પન્ન કરનારા–વિદ્યાબીન વડે ધન પ્રાપ્ત કરવાની ઈચ્છા રાખનારા લોકોને પરિશ્રમ જે નિષ્ફળ જાય, તે તેમાં આશ્ચર્ય પામવા જેવું શું છે? सू० १३ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % सूकृताङ्गसूत्रे न नियतफलाः कषुर्भागः फलान्तरमीशते। .' जनयति खलु ब्रीहेर्बीजं न जातु यवांकुरमिति ॥२॥गा. ४॥ उपसंहारमाह-'इच्चेदपडिलेइंति' इत्यादि। मूलम्-इच्चेई पंडिलेहति वलंगा पडिलहिणो । वितिषिच्छ समाया पंथाणं व अकोविया ॥५॥ छाया--इत्येवं प्रतिले सन्ति वलयतिलेखिनः । विचिकित्सासमापनाः पन्यानं च अकोविदाः ॥५॥ लमस्त पदार्थ नियन फल वाले होते हैं। ये अन्यफल को उत्पन्न नहीं कर सकते। शालि का बोझ घर के अंकुर को उत्पन्न नहीं कर सकता ॥४॥ उपसंहार-इन्चेष पडिलेहंति' इत्यादि। . शब्दार्थ-विलिनिच्छलमापना-विचिकित्सा समापन:' इस संयम का पालन मैं कर सकूगा अगर नहीं कर सकेंगt ? इस प्रकार का संदेह करने वाले 'पंधाणं च असोशिया-पन्यानं च अकोविदः' मार्ग को नहीं जानने वाले 'वलया पडिलैहिमो-दलपतिलेखिनः संग्राम में हाडा आदि का अन्वेषण करने वाले कायन पुरुषों के लमान 'इच्चेव पडिलेहंति-इत्येवं प्रनिखन्ति' इस प्रकार का पूर्वोक्त हीदि ले संयम में कायर पुरुष विचार करता ॥५॥ જેવી રીતે ચેખાતું બીજ યવના અંકુર ઉત્પન્ન કરી શકતું નથી પણ ખાજ ઉત્પન્ન કરી શકે છે– જેમ જ ઉત્પન્ન કરી શકતું નથી. એજ પ્રમાણે પ્રત્યેક પદાર્થ નિયત ફલ જ દેનાર હોય છે-નિયત ફળ સિવાયના અન્ય ફળની આશા રાખનારને નિરાશા જ સાંપડે છે. ગાથા ૪ 6५स हा२-'इच्चेध पसिन्नहति' इत्याहि- शहा-'नितिगिच्छसमावन्ना-विचिकित्सा समापन्नाः' मा सयभर्नु . પાલન હું કરી શકીશ અથવા કરી શકીશ નહિ ? આ પ્રકારને સંદેહ ४२वावाणा पवाणं-च ससोदिया-मन्यानं च अकोजिदा.' मागन न तणुका वाणा 'बलया पहिलेरिणो-वलयपति विन.' म मा वगैरेनु अन्वेष ४२मावाणा १५२ ५३पाना समान 'इच्वेव पहिलेहंति-इत्येव प्रतिलेखन्ति'. આ પ્રકારને પૂર્વોક્ત રીતથી સંયમમાં કાયર પુરૂષ વિચાર કરે છે. પા Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संमयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ उ.२ उपसर्गजन्यतपासयमविराधनानि० २९ . अन्या:-(वितिमिच्छतमाना) विचिकित्सा समापना संयम पालयितु समर्था भविष्यामो न वेति संशयापन्नाः (पंयाणं च अकोविया) पन्थानं च अकोविदापोक्षपन्यानं प्रत्यपडिताः (बलयापडिलेहिणो) वलयतिलेखिनासंग्रामे दुर्गमस्थानान्वेषककाता इत्र (इच्चेवरडिले हे ति) इत्येचं पूर्वोक्तकरण संयमकातरा विचारयन्तीति ॥५॥ टीका--वितिपिच्छसमावन्ना' विचिकित्सा समापनाः, संयमस्य परिपा. लने समर्थाः भविष्ामो नवेति सन्देहं कुर्वाणा, तथा 'पंथाणं च अकोदिया पन्थानं मार्गम्-सम्पपू ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणमोक्षपति, अकोचिदा निपुणा = अयं ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणो मार्गों मोक्षं नेष्यति न वेति संशयजालाकुलमानसा, 'वलयापडिलहिणो' वलयपतिले खिला-निर्वाहार्थप्रष्टांगादिनिमित्तं वलय रूपमन्वेपयन्तः, वलयं गादिकमन्वेष्यत्पुरुषात् , 'इञ्चेव पडिलेहंति' इत्येवं पतिले____ अन्वयार्थ-छम संयम का पालन कर सकेंगे या नहीं इस प्रकार शंकाशील तथा मोक्षमार्ग में अकुशल, संमार के समय दुर्गम स्थानों की गवेषणा करने वाले कायरों के समान संपन्न कातर लोग पूरॆक्त प्रकार से विचार करते हैं ॥५॥ टीकार्थ-जो विचिकित्सा से युक्त हैं अर्थात् हम संयम पालन में समर्थ हो सकेगे या नहीं, इस प्रकार के शक से ग्रस्त हैं, तथा जो सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारिन्न तप रूप मोक्षमार्ग के विषय में कुशल नहीं है अर्थात् जिन्हे ऐसी शंका है लिएर दर्शन आदि से मोक्ष प्राप्त होगा या नहीं, जो जीवन निर्वाह के लिये अष्टांग निमित्तरूप रक्षास्थान की खोज करते हैं, वे इस प्रकार विचार करते हैं। સૂત્રાર્થ-અમે સયમનું પાલન કરી શકશું કે નહીં, આ પ્રકારને. સંદેહ રાખનારા, તથા મેલના માર્ગે આગળ વધવાને અકુશલ કાયર લેકે, સંગ્રામને સમયે પિતાની રક્ષા નિમિત્ત દુર્ગમ સ્થાનોની ગવેષણ (ધ) કરનારા કાયરની જેમ, પૂર્વોક્ત પ્રકારે વિચાર કરે છે પાપા . ટીકાઈ–જેઓ વિચિકિત્સ થી યુક્ત હોય છે એટલે કે અમે સ યમનું પાલન કરી શકશું કે નહીં, આ પ્રકારના સ શયથી ગ્રસ લેકે, તથા સમ્યગૂજ્ઞાન. દર્શન અને ચારિત્રતપરૂપ મોક્ષમાર્ગના વિષયમાં અકુશલ લેકે, એટલે કે સમ્યગુદર્શન આદિથી મેક્ષની પ્રાપ્તિ થશે કે નહી, એવી શંકા સેવનારા અજ્ઞાની લેકે જિવન નિર્વાહને નિમિત્ત, અષ્ટાંગ નિમિત્તરૂપ રક્ષા થાનની २.५ ४२ छ. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० सूत्रकृतागसूत्रे खन्ति । यथा भीरवः संग्रामं प्रविशन्त एव वलयादिकं प्रत्यपेक्षमाणा भवन्ति । एवं मत्रज्यां जिघृक्षवः अलासस्वा मन्दभाग्याः संयमो यदि पालिनो न स्यात्तदा व्याकरणादिकमेव जीवनोपायरया कल्पयिष्याम इति विचारयन्तीति भावः ॥५॥ संप्रति संयममतिपालनशूराणां महापुरुषाणां कीदृशो व्यापारो भवति, तत्र दृष्टान्तं प्रतिपादपति सूत्रकारः-'जे उ संगामकालंमि' इत्यादि । । मूलम्-जे उ लगामकालंकि नाया सूरपुरंगला। जो ते पिट्ठसुबेहिति किं परं सरणं सिया ॥६॥ छाया--ये तु संग्रामकाले ज्ञाताः शूरपुरोगमाः । नो ते पृष्टमुन्प्रेक्षा कि परं मरणं स्यात् ॥६॥ - तात्पर्य यह है कि जैसे भीरू जन संग्राल में पेश करते ही छिपने का स्थाल खड़ा आदि खोजते हैं, उसी प्रकार दीक्षा अंगीकार करने , वाले लत्यतीन अभागे लोग विचार करते हैं कि यदि मंधन न पाला .. गया तो जीविका निर्वाह के लिधारज यादि वे शान चलाएंगे ||५|| अब सूत्रकार प्रतिपादन करते हैं कि हम का पालन करने में , शूर महापुरुषों का व्यापार किस प्रकार का होता है-- . 'जे उ संगामवालंमि' इत्यादि। ... शब्दार्थ--'उ-तु' परन्तु 'जे-,' जो पुरुष 'नाया-ज्ञाता' जगत् प्रसिद्ध 'स्लूरधुरंगमा-शरपुरोगमा।' दीरों में अनमण्य हैं । 'ते-ते' वे , पुरुष 'संगालकालंमि-संग्रामकाले युद्ध का समय आने पर 'णो पिट्ट मुवेहंति-नों पृष्ठापेक्षन्हे' आपत्ति से रक्षण के लिए दुर्गादिकों को આ કથનનો ભાવાર્થ એ છે કે જેવી રીતે ભીરુ માણસે સંગ્રામમાં પ્રવેશ કરતા પહેલાં જ છુપાઈ જવાનાં દુ", ગુફા, ખાઈએ આદિ - સ્થાનોની શોધ કરે છે, એ જ પ્રમાણે દીક્ષા ગ્રહણ કરનારા સત્વહીન લેકે એ વિચાર કરે છે કે જે સંયમનું પાલન નહીં કરી શકાય, તે વ્યાકરણ, તિષ આદિ જે વિદ્યાઓ પ્રાપ્ત કરાશે તેના દ્વારા જીવનનિર્વાહ તે જરૂર ચલાવી શકાશે. પા હવે સૂત્રકાર એવું પ્રતિપાદન કરે છે કે સંયમનું પાલન કરવાને માટે शूर, महापुरुषो । प्रयत्न ४३ छ-'जे उ खंगामझालंमि' त्याह शा -'उ-तु' ५२' 'जे-ये' रे ५३५ 'नाया-ज्ञाताः' गत प्रसिद्ध सूरपुरंगमा-शूर पुरोगमाः' वीमा माय छ 'ते-ते' ते ३१ 'संगामकलमि-सग्रामकाले' युद्धमा समय मापी 43थी 'णो पिट्ठमुवेहंति-नो Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i ! समयार्थ वोधिनी टीका म. थु. अ. ३ उ. २ उपसर्गजन्य तपःसंयमविराधनानि० १०१ अन्वयार्थः- (उ) तु परंतु (जे) ये - महासत्वाः (नाया) ज्ञाताः - जगत्मसिद्धाः (नूरपुरंगमा) शूरपुरोगमा :- शूरणामप्रगासिनः (ते) ते पुरुषाः ( संगामकालंमि) संग्रामकाले समुपस्थिते सति (गोपिमुचेर्दिति) नो पृष्ठमुत्मेक्षन्ते पश्यति दुर्गादिकमापत्त्राणाय न पर्यालोचयंति 'किं परं मरणं सिया' किं परं मरणं स्यात् = मरणादन्यत् किं स्यादिति ॥ ६ ॥ टीका -- भीरवस्तु पूर्वोपदर्शितप्रकारेण संग्रामं परित्यज्य स्वत्राणाय दुर्गादिकमपेक्षते । 'उ' परन्तु 'जे' ये पुरुषाः नलवन्तः वस्तुतः शूराः । 'नाया' ज्ञाताः लोके स्वकीयशूरतायाः ख्यातिं लब्धवन्तः । 'सरपुरंगमा' शुरेषु वीरेषु 'अग्रे गणनीयाः 'ते' ते वीराः पुनः 'संगातकालंमि' संग्रामकाले युद्धशीर्षे समाविचारते नहीं है कि परं मरणं लिया- किं परं मरणं स्यात् ' मरण से भिन्न और क्या हो सकता है | ६ || अबार्थ - किन्तु जो महान् सत्वशाली होते हैं, जगत्प्रसिद्ध और शूरवीरों में अग्रगामी होते हैं, वे पुरुष संग्राम का अवसर आने पर पीछे की ओर नहीं देखते - आपत्ति से बचने के लिये दुर्ग आदि का गवेषण नहीं करते । तो यही विचार करते हैं कि मृत्यु से अधिक और क्या होगा ? || ६ || टीकार्थ- पूर्वोक्त कथन के अनुसार भीजन संग्राम का त्याग करके अपने रक्षण के लिए दुर्ग आदि की अपेक्षा रखते हैं, किन्तु जो पुरुष सवल एवं वस्तुतः शूरवीर होते हैं जिन्हों ने शुरवीर के रूप में जगत् में ख्याति प्राप्त की है, जो सूरों में अग्रगण्य होते हैं, वे संग्राम के समय, युद्ध के पृष्ठ मुपेक्षन्छे' सायत्तिश्री रक्षचुना भाटे दुर्ग वगेरेने विचारता नथी. “कि परं मरणं लिया- किं परं मरण स्यात्' भरथी लिन्न मिळु शु थर्ध शडे छे. ॥६॥ સૂત્રાપરન્તુ જેએ ખૂબ જ સત્ત્વશાળી હાય છે, જગવિખ્યાત શૂરવીરેમાં જેમણે અગ્રસ્થાન પ્રાપ્ત કર્યુ. હાય છે, એવાં લા યુદ્ધના પ્રસ‘ગ આવે ત્યારે ભવિષ્યના વિચાર કરતા નથી. આપત્તિથી ખચવાને માટે દુગ સ્માદિની તે ગવેષણા કરતા નથી. તેઆ એવેા વિચાર કરે છે કે યુદ્ધમાં અધિકમાં અધિક મૃત્યુ પ્રાપ્ત કરવાના પ્રસ ́ગ આવશે, એથી અધિક અન્ય अलया तो सलव नथी । ટીકા આગળ જેમનુ વર્ણન કરવામાં આવ્યુ છે એવા કાર્યશ યુદ્ધમાંથી નાસી જઈને હુ આદિમાં રક્ષણુને માટે આશ્રય લેવાને વિચાર કરે છે; પરન્તુ જે પુરુષા સબળ અને ખરેખરા શૂરવીરામાં અગ્રગણ્ય હોય છે, તેએ યુદ્ધને પ્રસંગ આવે ત્યારે સમરાંગણુને માખરે પાતની સેના Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताइसूत्रे रूहाः सेनापतित्वं अजमानाः। 'यो विशुदेहिरिनो पृष्ठमुत्प्रेक्षन्ते-पृष्ठं नोमेक्षन्ते, बापमाणाय दुर्गादिकं न शोधयन्ति । ते इत्थं विचारयन्ति, "किं पर मरण सिया' कि परम् अन्यत् , यदि मरणं स्यात् । किमपरं युद्धधमानानामस्माकम् , यदि मरण स्यात् । यदि अस्माकं जयः तदा लोके यशः यदि वा मरणं भवेत् तदापि लोके ख्यातिः । नवरशरीरपातेनापि यदि स्थिरं कशः लस्यते तदा का क्षतिः संग्राममरणे तदुक्तंत्रिशरारुभिरविनश्वरमपि चपल स्थाम्नु वाञ्छतां विशदम् । प्राणैयदि शूराणां भवति यशः किन्न पर्याप्तम् ॥१॥ नश्वरशरीरनिधनेनाऽनश्वरं यशः प्राप्यते इति विचिन्त्य संप्रामाद्विमुखा नैव भवन्ति शुराः कदाचिद पीति भावः ॥६॥ शीर्ष भाग में उपस्थित होकर लेना का अधिपतित्व करते हुये पीछे की और नहीं देखते। आपत्ति ले बचने के लिए जुर्ग आदि स्थानों का अन्वेषण नहीं करते । वे तो यही सोचते हैं कि अधिक से अधिक होगा तोमरण ही छोणा-उसले अधिक और क्या होगा ? युद्ध करते हो यदि विजय प्राप्त हो गई तो लोक में यश खिलेगा और यदिभरण हो गया तो भी लोक में ख्याति होगी ! यदि नाशशील शारीर के नष्ट होने से स्थायी यश की प्राप्ति होती है तो संग्राम में भर जाने में क्या हानि है ? कहा है-'विशरारुभिरविनश्वर' इत्यादि। 'ताण बिलाशशील है और चपल है। इनके द्वारा अगर अविनचर और शार्थी निर्मल घश की प्राचिन्न होती है तो क्या शूरवीर पुरुषों के के लिए यह पर्याप्त नहीं है ? ॥१॥ સાથે ઉપસ્થિત થઈ જાય છે. તેઓ સમરાંગણમાંથી નાસી જઈને હું આદિમાં આશ્રય લેવાનો વિચાર પણ કરતા નથી તેઓ એ વિચાર કરે છે કે યુદ્ધમાં કદાચ મેં તને ભેટવું પડશે મોતથી અધિક અન્ય ભયનો તો ત્યાં અવકાશ જ નથી. જે યુદ્ધમાં વિજય મળશે, તે લેકમાં મારી કીતિ ગાવાશે અને કદાચ લડતાં પ્રાણ ગુમાવવા પડશે તે પણ લેકમાં મારો યશ ફેલાશે. જે આ નાશવંત શરીરને નાશ થવાથી સ્થાયી યશની પ્રાપ્તિ થવાની હિય તે આ સંગ્રામમાં પ્રાણોની આહુતિ દેવામાં પણ શી હાનિ થવાની १४. ५४ थे 3-'विशरारूभिरविनश्वर' त्याहि “પ્રાણ વિન રાશીલ અને ચંચળ છે. જે તેના દ્વારા અવિનશ્વર અને સ્થાયી યશની પ્રાપ્તિ થતી હોય, તે શૂરવીર પુરુષને માટે એ શું પૂરતું નથી ?” Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ उ.२ उपसर्गजन्यतपःलंयमविराधनानि० १०३ तदेवं शूराजतरस्य दृष्टान्तं प्रदर्य दान्तिकं मदर्शयति-‘एवं इत्यादि । मूलम् -एवं समुट्रिए भिवरखू बोलिन्नाऽगारंबंधणं । आरंभ तिरिय को अत्तत्र परिचए ॥७॥ छाया--एवं समुत्थितो भिक्षुः पुन्हज्यागारबन्धनम् । आरंभ तिर्यक कृत्वा आत्मत्वाय परिव्रजेत् ॥७॥ अन्वयार्थ :---(एवं) एवं (अमारबंधण) आगारवंधनं गृहपाशस् (बोसिज्जा) पुत्सृज्य-स्यतया (आरंभ) आरंभ सावधानुष्ठान (तिरियं क१) तिर्यक कृत्वा अपहत्य तात्पर्य यह है कि वीर पुरुष नश्वर शरीर के विनाश से अधि. नश्वर यश की प्राप्ति होती है, इस प्रकार विचार करके कदापि संग्राम से विमुख नहीं होते है ॥६॥ शब्दार्थ--एवं-एवम्' इस प्रकार 'अभार पंक्षण-अगाधनम्' गृहबन्धन को 'वोसिज्जा-व्युत्सृज' त्यागकर तथा 'आरंभ-आरंभ आरंभ का अर्थात् सावध अनुष्ठान को 'तिरियं फटु-निर्यक कृत्वा' छोडकर 'समुहिए-समुत्थितः' संयम के पालन में तत्पर बना हुआ 'शिक्खू-भिक्षुः साधु अतत्साए-आमत्याय' मोक्ष प्राप्ति के लिये 'पवि. व्यए-परिव्रजेत् संयम के अनुच्छालदत्तचित पन्ने ।७।। अन्वयार्थ-- इसी प्रकार गृहबन्धन को त्यागकर तथा आरंभ को दूर करके संयनपालन के लिए उच्छत हुभा भिक्षु संयमानुष्ठान में ही दत्तचित्त हो ॥७॥ - આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે “આ નશ્વર શરીરના વિનાશથી અવિ નશ્વર યશની જે પ્રાપ્તિ થતી હોય, તે શૂરવીર પુરુષેએ સંગ્રામમાંથી પીછે હઠ શા માટે કરવી જોઈએ આ પ્રકારને વિચાર કરીને શૂરવીર પુરુષો રણસંગ્રામમાંથી ભાગી જઈને પ્રાણુરક્ષા કરવાને વિચાર કરતા નથી પરા शा-एवं-एवम्' ! रे 'भगारबंधणं-अगारबंधनम्' मनन 'वोसिज्जा-व्युत्सृज्य' छाडी धन तथा 'आरंभं-आरंभम्' आरसने अर्थात् सावध मनुष्ठानने 'तिरिय कटु-तिर्यकृत्वा' छडीने 'समुदिए-समुत्थितः' सयमना पादानमा तत्पर बने 'भिक्खू-भिक्षु' साधु 'अत्तत्ताए-आत्मत्वाय' भाक्ष मातिना भाटे 'परिव्वए-परिव्रजेत्' सयमन मनुठानमा हत्तचित्त भने. ॥७॥ ! સૂત્રાર્થ–એજ પ્રમાણે ગૃહબન્ધનને ત્યાગ કરીને તથા આરંભને દર કરીને સંયમનું પાલન કરવાને કૃતનિશ્ચયી થયેલે સાધુ સ યમાનુષ્ઠાનમાં જ दीन लय छे. ॥७॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ सूत्रकृतसूत्रे (समुह ) समुत्थितः = संयमपालनाय (भक्खू ) भिक्षुः = साधुः (अत्ताए ) आत्मवाय- समानुष्ठ नाय (परिव्वए) परिव्रजेत् संयमानुष्ठाने दत्तचित्तो भवेदिति ॥७॥ टीका--' एवं ' एवं यथा संग्रामे शुगः कुलेन, बचेन, शिक्षणा च लोके प्रसिद्धाः सन्नद्धवद्धपरिकराः पाणौ शस्त्रमुत्थाप्य ममां पराभवाय प्रयतमानाः कदापि पृष्ठावलोकितो व भवन्ति । तथा 'अगारबन्धन' आगास्वन्धनम् = गृहबन्धनम् 'बोसिज्जा' व्युत्सृज्य = विविधानित्यादि वैराग्यभावना उत्पावल्येन परित्यज्य । तथा 'आरंभं तिरियं का आरं तिर्यक कृत्या आर=सावधान ठानं परित्यज्य 'समुहिए समुत्थिनः = संयमपरिपालना सथितः समद्ध इति यात्रत् । 'भिक्खू' भिक्षुः=साधुः 'अत्तत्ता ए' आश्नत्वाय आत्मनः स्वरूपमातये, मोक्षाय संयमाचेति यावत् । 'परिव्वर' परिव्रजेत् = संयम गृह्णीयादिति । गृहचन्धनं साधर्मानुष्ठानं च परित्यज्य मोक्षप्राप्तिमुद्दिश्व तपश्चरणादिभिः समद्धः साधुः संयमानुष्ठाने संलग्नो भवेदिति भावः ॥७॥ टीकार्थ — जैसे संग्राम में शर, कुल वल और शिक्षा के द्वारा लोक में प्रसिद्ध, कमर कसकर तैयार एवं हाथमें शस्त्र उठा कर शत्रुओं का पराभव करने में उद्यन होते हैं, कभी पीछे की ओर नहीं देखते, उसी प्रकार गृह संबंधी पत्रों को विविध प्रकार की अनिता आदि पैराग्य भावनाओं के द्वारा त्याग कर तथा साक्ष्य अनुष्ठान का स्थान करके संयम पालन के लिए सन्नद्ध हुआ साधु आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए संघम को ही ग्रहण करें। आशय यह है कि गृह संबंधी न को और सावध कर्म के अनुष्ठान को त्याग कर, मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से तपश्चरण आदि के द्वारा वचन हुआ साधु संयम का आचरण करने में संलग्न हो ||७|| ટીકા—જેવી રીતે સગ્રામમાં શૂર અને કુળ, ખળ અને શિક્ષા દ્વારા લેકમાં પ્રસિદ્ધ પુરુષ હાથમાં શસ્ત્ર ઉપાડીને શત્રુઓના પરાભવ કરવાને માટે કમર કસીને તૈયાર થઈ જાય છે કદી ભાગી જવાના વિચાર પણુ કરતા નથી, એજ પ્રમાણે વિવધ પ્રકારની અનિત્યતા આદિ વૈરાગ્ય ભાવનાએથી પ્રેરાઈને ગૃડ ધનના ત્યાગ કરનાર તથા સાવદ્ય અનુષ્ઠાનેાના પરિત્યાગ કરીને સયમના પાલનને માટે કટિબદ્વ થયેલેા સાધુ આત્મસ્વરૂપની પ્રાપ્તિને સાટે સયમની આરાધનામાં જ લીન રહે છે. આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે ગૃડબન્ધનના અને સાવદ્ય કર્માંના ત્યાગ કરીને સચમને માત્ર શુ કરનાર સાધુએ મેાક્ષપ્રાપ્તિને માટે તપસ્યા આદિદ્વારા સયમની આરાધનામાં જ લીન રહેવુ જોઈએ. ભા Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ उ.३ उपसर्गजन्यतप संयमविराधनानि० १०५ मूलम्-तमेगे परिभाति भिवरखूयं साहुजीविणं। ' जे एवं परिभासंति अंतएँ ते समाहिएं ॥८॥ ,. छाया--तमे के परिमापन्ते भिक्षुकं साधुजीविनम् । . य एवं परिभापन्ते अन्तके ते समाधेः॥८॥ - अन्वयार्थ:--(साहुजीविणं) साधुजीविनम्-उत्तमाचरेण जीवन्तं (त) तम् (भिक्खुयं) भिक्षुकं (एगे) एके-केचन (परिभासंति) परिभाषन् आक्षेपवचनं कथयन्ति (जे एवं परिभासंति) चे एवं परिमापते (ते) ते (समाहिए) समाधे समभावतः (अंनए) अंके-दुर वसन्तीति ॥८॥ टीका--'साहुजीविण' साधु नी विनम् साधुः सम्यक परोपकारकरणादिरूपमाचरणं यस्य स साधु बीवो तं साधु नीचिनम् । 'त' अत्युत्तमजीविनम् 'भिक्खूयं' शब्दार्थ--'साहुजीवणं-साधुजीविनम्' उत्तम प्रकार के आचार से जीवन निर्वाह करने वाले तं-तम्' उस भिक्षु-भिक्षुकम्! साधु के विषय में 'एगे-एके' कोई अन्य दर्शनचाले 'परिभासंति-परिभाषन्ते' आगे कहे जाने वाले आक्षेप वचन कहते हैं 'जे एवं परिभासंति-ये एवं परिभाषन्ते' परन्तु जो इस प्रकार के आक्षेपवचन कहते हैं 'ते-ते' वे पुरुष 'समालिए-समाधे' समभाव से 'अंतए-अन्तिके दूर ही हैं॥८॥ अन्वयार्थ-साधु जीवन जीने वाले उस भिक्षुक के प्रति कोई भाक्षेपवचनों का प्रयोग करते हैं। जो ऐसा करते है वे समाधि से दूर ही रहते हैं ॥८॥ ___टीकार्थ-जो साधुजीवी से है अर्थात् जो परोपकार. आदि रूप सम्पक आचरण करता है, ऐसे उत्तम जीवन वाले भिक्ष पर भी कोई शा--'खाहुजीविणं-साधुजीविनम्' उत्तम ॥२ना' 'मायाश्या पन निवड ४२१ वा 'त-तम्' व 'भिक्खू-भिक्षुकम्' साधुन विषयमा 'एगे-एके' मान शनवा 'परिभासंति-परिभाषन्ते' 'डमी भावना२ सा५ वय ४७ छ, 'जे एवं परिभासति-ये एवं परिभापते, २४२ मा५ क्यन ४ छ 'हे-वे' ते ३५ 'समाहिए-समाधेः' सभमाथी 'अंतए-अन्तके' ६२ छ, ul - સૂત્રાર્થ-સાધુજીવન જીવનારા તે સાધુને માટે કઈ કઈ માણસે આક્ષેપ વચનનો પ્રયોગ કરે છે. એવા લેકે સમાધિથી દૂર જ રહે છે દ્ર - ટીકા–જેઓ સાધુજીવી છે એટલેં કે સાધુના આચારો પાર્ટન કરનારા છે, પરોપકારે આદિ રૂપ સમ્યક્ આચરણેથી જેઓ યુક્ત છે, એવા सू० १४ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे भिक्षुकं भिक्षाचरणशीलम् 'एगे' एके केचनाऽन्यकुदर्शनमतानुसारिणः । ' परिभासंति' परिभाषन्ते आक्षेपयुक्तं वचनं । 'जे एवं परिभासति' ये एवं परिभाषन्ते ये एवत्थं साक्षेपवचनं कथयन्ति ते गोशाळरुमतानुसारिणः 'समाहिए' समावे= मोक्षरूपात् समाधेः संयमानुष्ठानद्वा । 'अंतिए' अन्तिके दूरे एव विष्ठन्ति । निरवद्याचारेण संयमानुष्ठानं कुर्वतोऽपि मिशुकस्य निन्दावचनं ये कथयन्ति ते गोशाककमतानुसारिणोऽन्यदर्शननो वा मोक्षात्संयमानुष्ठानाद्वा दूरे स्थितन्ति । 'परीवादाद खरो भवति श्वा वै भवति निन्दकः' इति - लोकोक्त्या der निन्दाकारिणोऽघमलोकगमनस्य श्रवणात् संयममाप्तिर्नैव कथमपि भवतीति ॥ ८॥ कोई कुमानुसारी लोग आक्षेप करते हैं । किन्तु जो इस प्रकार आक्षेप वचन कहते हैं, वे गोशालक के अनुमाषी मोक्षरूप अथवा संयमानु छानरूप समाधि से दूर ही रहते हैं अर्थात् उन्हें न तो संयमरूप समाधि की प्राप्ति होती है और न मोक्षरूप समाधि ही प्राप्त होती हैं । */- अभिप्राय यह है कि निष्पाप आचरण के द्वारा संघम का अनुष्ठान करने वाले भिक्षु के प्रति जो निन्दामय वचनों का प्रयोग करते हैं, वे गोशालकमत के अनुधायी अथवा अन्यमतावलम्वी मोक्ष से या संघमानुष्ठान से दूर ही रहते हैं । 'दुसरे का परिशद करने वाला गर्दर्भ के रूप में और निन्दा करने वाला कुत्ते के रूप में उत्पन्न होता है' इस लोकोक्ति के अनुसार निन्दक को अधोगति में जाना पडता है । उसे संघम की प्राप्ति किसी भी प्रकार नहीं हो सकती ॥८॥ ઉત્તમ જીવન જીવનારા ભિક્ષુને માટે પણ કાઈ કાઇ કુમતાનુસારી. અવિચારી લાક આક્ષેપ કરે છે. પરન્તુ આ પ્રકારના આક્ષેપ કરનારા આજીવિકા (ગૈાશાલકના અનુયાયીએ) આદિ લેાકેા ક્ષરૂપ અથવા સ’યમાનુષ્ઠાન રૂપ સમાધિની દૂર જ રહે છે. એટલે કે તેમને સંયમરૂપ સમાધિની પ્રાપ્તિ પશુ થતી નથી અને મેક્ષરૂપ સમાધિની પણુ પ્રાપ્તિ નથી. -- આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે નિષ્પાપ આચરણ દ્વારા સયમની આરાધના કરનારા ભિક્ષુની વિરુદ્ધમાં જેએ નિન્દા વચસ્તાના પ્રયાગ કરે છે, એવા લેાકેાગે શાલકના અનુયાયીએ તથા અન્ય મતવાદીઓ-માક્ષથી અથવા સયમાનુષ્ઠાનથી દૂર જ રહે છે. પરપરિવાદ કરનારા લેકા ગધેડારૂપે અને નિન્દા કરનાર લેકા કૂતરા રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે,’ લેાકેાકિત અનુસાર નિન્દકને અધેગતિમાં જવું પડે છે. એવા નિન્દકને કોઈ પણ પ્રકારે સમની પ્રાપ્તિ થઈ શકતી નથી. ડા 9 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ३ अन्यतिथिकोक्ताक्षेपवचननि० १०७ · · यादृशमाक्षेपवचनं ते परदर्शिनः समुच्चारयन्ति तानि वचनानि सूत्रकारः प्रतिपादयति-'संबद्ध' इत्यादि । मूलम्-संबंद्धसमकप्पा उ अन्नमन्नेसु मुच्छिया। पिंडवायं गिलाणस जं सारेह दलाह य ॥९॥ . 1 : छाया-सम्बद्धसमकलास्तु अन्योऽन्येषु च्छिताः । पिण्डपातं हि ग्लानस्य यत्सारयत ददध्वं च ॥९॥ ' अन्वयार्थ-(संबद्धप्तमझप्पा) संबद्धसमकल्ाः (अन्नमन्नेसु) अन्योन्यम् परस्परम् (समुच्छिया) संमृच्छिता गृद्धाः (पिंडवाय) पिण्डपातम् भैक्ष्यम् (गिलाणस्स) ग्लानस्य (सारेद) सारयतः अन्वेपयतः (दलाह य) ददध्वं च इति ॥ टीका-~-'संबद्धसरकप्पा' संबद्ध समकल्पाः सम्-एकीभावेन परस्परोप: अन्यमतापलम्बी जिस प्रकार के आक्षेपवचनों का प्रयोग करते हैं, सूत्रकार उन्हें दिखलाते हैं-'संबद्ध' इत्यादि । __ शब्दार्थ-संघद्धलमकप्पा-संबद्धसमकल्पाः ' थे लोग गृहस्थ के समान व्यवहार करते हैं 'मनमानेतु-अन्योन्यम्' ये परस्पर एक दूसरे में 'समुच्छिया-संञ्छिता' आसक्त रहते हैं 'पिंडवायं-पिण्डपातम' आहार 'गिलाणस्स-रलानस्थ' रोगी साधु का 'सारेह-सारयत: अन्वेषण करके 'दलाइ थ-द्ध्वं च देते है ॥९॥ • अन्वयार्थ-ये साधु गृहस्थों के समान व्यवहार करते हैं, परस्परमें अनुरागी है, ग्लान तथा रोगी साधु को भिक्षा लाकर देते हैं ॥९॥ - હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે અન્ય મતવાદીઓ જૈનશ્રમણના विरुद्धमi Bidi मा५३यनान। प्रयेा ४२ छ-'संबद्ध' त्याह Ava- 'संबद्धसमकप्पा'-संबद्धसमकल्पाः' २tah स्थना समान ०५६।२ ३२ छ 'अन्नमन्नेठ-अन्योन्यम्' ते ५२९५२ सालमा 'समुच्छिया-समूर्छिता.' मासात २९ छे, पिंडवायं-पिण्डपातम्' मा.२ 'गिला. णस-ग्लानस्य' २०ी साधुनु 'सारेह-मारयतः' मन्वेष ४ीने 'दलाह य-दध्वं च' हावी माथे छे. ॥ સૂત્રાર્થ –આ સાધુઓને વ્યવહાર ગૃહસ્થના જેવો જ છે. તેઓ પર સ્પરના અનુરાગથી મુક્ત છે. તેઓ ગ્લાન (બીમાર), 94 દિ સાધુઓને માટે ભિક્ષા વહોરી લાવે છે. લો - Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 - - सूत्रकृताङ्गसूत्रे कारित्या च बद्धाः मातापितकलत्रादिरागपाशैः ये ते सबद्धाः गृहवासिनः पामराः पुरुषाः, तादृशैः पुरुषैः समस्तुल्यः कल्पो व्यवहारोऽनुष्ठानं येषां ते संबद्धसमकलयाः, गृहस्थाऽनुष्ठानतुल्याऽनुष्ठानवन्तः । 'अन्नमन्ने समुच्छिया! अन्योऽन्येषु मूञ्छिताः, यथा गृहस्थ पिता पुत्रेषु आसक्तः, कलत्रं पत्यौ, पतिश्च कलत्रादौ आसक्तो भवति । तथा साधुरपि-गुरुः शिष्येऽनुरज्यति, शिष्यश्च स्वगुरौ, दृश्यते हि इदानीमपि गुरुः यः कश्चित् स्वशिष्यं यथा सम्मानयति स्निग्धसालसनेत्रः सस्नेहं पश्यति न तथा परकीयं शिष्य , न वा शिष्यो यथा स्वगुरुं संमानदृष्टया पश्यति तथाऽन्यं साधुम् । अतः कथं न गृहस्थव्यवहारस्य समानतां न करोति। । टीकार्थ-जैसे गृहस्थ मातापिताकलत्र आदि के रागबन्धन में बंधे होते हैं और परस्पर एक दूसरे के सहायक होते हैं, उसी प्रकार ये साधु भी आपस में बंधे हैं, अतएव इलका आचार गृहस्थी में पिता पुत्रों पर आसक्त होता है, पत्नी पति पर अनुराम करती है, और पति पत्नी में आसक्त होता है, उसी प्रकार इनमें गुरु का शिष्य पर और शिष्य का गुरु पर अनुराग है। आजकल भी ऐसा देखा जाता है कि गुरु अपने शिष्य का जैसा सन्मान करता है, स्नेहपूर्ण नेत्रों से जिस प्रकार देखता है, वैला परकीय साधु को नहीं देखता। इसी प्रकार शिष्य जिस प्रकार अपने गुरु के प्रति सन्मान की दृष्टि रखता है, बेसी दृष्टि अन्य साधु के प्रति नहीं रखना। तो फिर इनका व्यवहार गृहस्थों के समान क्यों नहीं - - - ટીકા–અન્ય મતવાદીઓ જૈન સાધુની આ પ્રક રની ટીકા કરે છેવસ્થ માતા-પિતા, પત્ની આદિના રાગ બધમાં બંધાયેલા હોય છે, તે પ્રમાણે શ્રમણે પણ પરસ્પરના રાગ બધનમાં બંધાયેલા હોય છે. જેવી રીતે ગૃહસ્થ એક બીજાના સહાયક બને છે, એ જ પ્રમાણે સાધુઓ પણ એ બીજા પ્રત્યેના અનુરાગને કારણે એક બીજાને સહાય કરતા હોય છે. આ પ્રકારે તેમને આચાર ગૃહસ્થના જેવું જ છે. જેવી રીતે ઘરમાં માતા, પિતા, પુત્ર, પત્ની, પતિ, આદિ એક બીજા પ્રત્યે અનુરાગ રાખે છે. –એક બીજામાં આસકત હોય છે, એ જ પ્રમાણે સાધુઓમાં ગુરુ-શિષ્ય પ્રયે. અને શિષ્ય-ગુરુ પ્રત્યે અનુરાગ રાખતા હોય છે. એવું જોવામાં આવે છે કે ગુરુ પિતાના શિષ્યો પ્રત્યે જેવા સન્માનભાવથી જોવે છે–તેમની સામે, એવી નેહપૂર્ણ દષ્ટિ વડે દેખે છે, એવી સ્નેહપૂર્ણ નજરે અન્ય સાધુઓ તરફ જતા નથી. એ જ પ્રમાણે શિષ્ય પિતાના ગુરુ પ્રત્યે જે સન્માનભાવ રાખે છે. એ સન્માનભાવ અન્ય સાધુઓ પ્રત્યે રાખતા નથી. આ પ્રકારે Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 मोधिनी टीका प्र. थु. अ. ३ उ. ३ अन्यतिथिकोक्काक्षेपञ्चननि० १०९ किन्तु तत्तुल्य एवायमपि । अन्योऽन्यम् उपकार्योपकारकत्वमेव दर्शयति'गिलास' ग्लानस्य, पीडायुक्तस्य रोगिणः साधोःकृते - यद्भोजनमनुकूलं तदेवानीयते, अविष्यान्विष्य | 'पिंडवायें' भोजनम् 'सारेह दलाह य' सारयव- ददध्वं च । अनुकूलं मोजनमन्विष्यत, आनीय ददध्वं । अतः कथं न गृहस्थस्य तुल्यः साधुरपि तु तत्तुल्य एव भवति ॥९॥ पुनरप्याह सूत्रकारः - ' एवं तु मे सरागस्था' इत्यादि । मूलम् एवं तुभे सरागत्था अन्नमन्नर्मेणुव्वंसा । सप्पहसम्भावा संसारस अपारंगा ॥१०॥ छाया -- एवं यूयं सरागस्था अन्योऽन्यमनुवशाः । नष्टसत्पथसद्भावाः संमारस्य अपारगाः ॥ १०॥ है ? वास्तव में इनका व्यवहार गृहस्थों जैसा ही है। इसके अतिरिक्त ये परस्पर में एक दूसरे का उपकार करते हैं। जब कोई साधु रोगी हो जाता है तो उसके लिए अनुकूल अन्न आदि आहार अन्वेषण कर करके उसे देते हैं । ऐसी स्थिति में ये साधु गृहस्थ के समान क्यों नहीं है ? अपि तु उनके समान ही हैं ॥९॥ सूत्रकार पुनः कहते हैं - ' एवं तुभे सरागत्था' इत्यादि । शब्दार्थ - - ' एवं - एवम्' इस प्रकार 'तुभे- यू' आप लोग 'सरा गत्या - सरागस्था' रागसहित है 'अन्नमन्नमव्या-अन्योन्यमनुवंशा:' 'और परस्पर एक दूसरे के वश में रहते हैं, अतः 'नट्टस पह सन्भावा- नष्टसत्पथसद्भावाः' आप लोग सत्पथ और सद्भाव से જેવી રીતે ગૃહસ્થા એક જાય અથવા વૃદ્ધાવસ્થાને અન્ય સાધુએ તેમને માટે આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં તેમના વ્યવહાર ગૃડસ્થાના જેવા જ લાગે છે. ખીલને મદદ કરે છે. કૈાઇ સ ધુ ખીમાર પડી કારણે ગે:ચરી કરવા જઈ શકે તેમ ન હાય, તે અનુકૂળ આહાર વહેરી લાવીને તેમને આપે છે. તેમના વ્યવહાર ગુડસ્થાના જેવે જ લાગે છે. અમને તૈા સાધુ અને ગૃહસ્થના વ્યત્રહારમાં કેાઈ અન્તર દેખાતું નથી ' ।!લા , વળી અન્ય મતવાદીએ એવા આક્ષેપ પણ કરે છે કે— ' एवं तुभे, सरागत्या' शार्थ- 'एव-एवम्' या अरे 'तुच्भे-यूयं' मा बोओ 'सरागत्थासरागस्थाः' रागयुक्त छ। 'अन्नमन्नमणुव्वया - अन्योन्यमनुवशाः' भने परस्पर मीना शमां रा हो, अतः 'नटुप्पमावा-नष्ट्रसत्पथसद्भावाः' माप Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० सूत्रकृताङ्गसूत्र अन्वयार्थ-(एवं) एवम् (तुम्भे) यूयं (सरागत्था) सरागस्थाः रागेण युक्ताः (अन्नमन्नमणुव्यसा)अन्योन्यमनुदशा. पररुपराधीनाः(नहसपहसभावा) नष्ट सत्पथसद्भावासत्पथ सद्भावरहिताः। (संपारस्स) संसारस्य चातुर्गतिकस्य (अपारगा) अपारमाः।१०। टीका--'एवं' एवम् अनेन प्रकारेग 'तुम्भे' यूयम् 'सरागत्था' सरागस्थाः , रागेण सह वर्तन्ते ये ते सरागाः तस्मिन - सरागे तिष्ठन्ति, इति (सरागस्थाः) 'अन्नमन्नमणुव्वसा' अन्योऽन्यवशवर्तिनः, सर्वे हि परस्पराधीनाः, न केऽपि निस्संगाः । साधवो हि स्वाधीना भवन्ति, न तु परवशवर्तिनः। एपा रीतिस्तु गृहस्थानाम् , यत् परस्पराऽनुवर्तित्वमिति । 'नट्ठसप्पहसम्भावा' नष्टसत्पथसद्भावाः, नष्टोपगतस्सत्पथा सन्मागों येभ्य स्ते तथा । 'संसारस्स अपारगा' संसारस्य चतुर्गतिकस्य मध्ये एव भवन्तः परिणमन्ति । न तस्य पारगामिनो भवन्तः। हीन हैं 'संसारस्ल-संसारस्य' चार गति वाला इस संसार से 'अपारगाअपारगाः' पार जाने वाला नहीं है ॥१०॥ अन्वयार्थ-अन्य मतावलम्बी यह आक्षेप भी करते हैं कि इस प्रकार तुम राम ले युक्त हो, एक दूसरे के वशीवर्ती हो, सन्मार्ग से रहित हो और संसार से पारगामी नहीं हो ॥१०॥ पूर्वोक्त प्रकार से तुम लोग सराग हो, परस्पर सभी एक दूसरे के अधीन हो निस्संग नहीं हो । साधु स्वाधीन होते हैं, पराधीन नहीं होते । पराधीन रहना तो गृहस्थों की नीति है। तुम सत्पथ (मोक्षमार्ग) से भी रहित हो । इन सब कारणों से तुम लोग चतुर्गति संसार के पारगामी नहीं हो संसार में ही भटकने शले हो । अर्थात् जस्ले गृहस्थ जन पूर्वोक्त कर्मों को करने के कारण चतुर्गतिक संसारसागर से पार ही सत्५५ भने समाथी हीन छी, 'संसारस्स-संसारस्य' या२ गतिमा मा संसारनी 'अपारगा-अपारगाः' पा२ पडाया शवावा नथी. ॥१०॥ સૂત્રાર્થ-(અન્ય મતવાદીઓ જૈન સાધુઓ સામે આક્ષેપ કરે છે કે આ પ્રકારે તમે રાગથી યુક્ત છે, એક બીજા પર આધાર રાખનારા છે, સન્માર્ગથી રહિત છે અને સંસાર પાર કરનારા નથી ૧૦ ટીકાઈ—કેટલાક લોકે સાધુઓ સામે એવા આક્ષેપ કરે છે કેતમે સરાગ છે, તમે એક બીજા પર આધાર રાખનારા હોવાથી નિઃસંગ નથી. સાધુ વધીન હોય છે–પરાધીન હોતા નથી. ગૃહસ્થ જ પરાધીનતા ભગવે છે. તમે સપથ (મોક્ષમાર્ગ)થી પણ રહિત છે. તે કારણે તમે જીતતિરૂપ સંસારને પાર જવાને બદલે સંસારમાં જ ભટકવાના છે. એટલે કે જેવી રીતે ગૃહસ્થો પૂર્વોક્ત કર્મો કરવાને કારણે ચાર ગતિવાળા સંસાર Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : समयार्थवोधिती टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अन्यतीथिकोक्ताक्षेपोत्तरम् १११ यथा गृहस्थाः, यथोक्तकर्माऽनुष्ठानात् चातुर्विधकसंमारसागरस्य पारगा न भवन्ति । तथा भवन्तोऽपि साधुकल्पा:-गृहस्यतुल्यतया संसारातिक्रमणेऽसमर्था एवेति आक्षेपकर्तुरभिमायः इति ॥१०॥ मूळम्-अह ते परिभालेन्ज भिकरवू लोकखविसारए। एवं तुन्भे पासंता दुपखं चेव सेवह ॥११॥ छाया--अथ तान् परिभाषेत भिक्षुर्मोक्षविशारदः। एवं यूयं प्रभाषमाणा दुःपक्षं चैव सेवध्वम् ॥११॥ अन्वयार्थ--(अह) अथ अनन्तरं (ते) तान् प्रतिकूलत्वेनोपस्थितान् पुरुपान (भिक्खू) भिक्षुः साधुः (मोक्ख विसारए) मोक्षविशारदा मोक्षमार्गनहीं होते, उसी प्रकार आए लाधु के समान रहते हुए भी गृहस्थों के सदृश अनुष्ठान करने के कारण संसार को पार करने में समर्थ नहीं हैं। ऐसा आक्षेप करने वालों का अभिप्राय है ॥१०॥ शब्दार्थ-'अह-अर्थ' इसके पश्चात् 'ते-तान्' उस अन्य तीर्थकों से 'भिक्ख-भिक्षः' साधु 'मोक्खविसारए-मोक्षविशारदः' मोक्षविशारद-अर्थात्-ज्ञानदर्शन और चारित्र की प्ररूपणा करने वाला परिभासेज्जा-परिभाषेत' कहे कि 'एवं-एवम्' इस प्रकार 'पासना-प्रभाषमाणाः' कहते हुए 'तुम्भे-यूयं आप लोग 'दुपक्खंचेव-दुष्पक्ष चैव' दो पक्ष का राग और हेयात्मक 'सेवह-सेवध्वम्' लेवन करते हैं॥११॥ ____ अन्वयार्थ-मोक्षमार्ग में कुशल भिक्षु उपयुक्त प्रकार से भाषण करने वालों से इस प्रकार कहे-इस प्रकार भाषण करते हुए तुम लोग સાગર તરી જવાને અસમર્થ હોય છે, એ જ પ્રમાણે સાધુ રૂપે રહેવા છતાં તમે ગૃહસ્થના જેવું જ આચરણ કરનારા હોવાને કારણે સંસાર સાગરને તરી જવાને અસમર્થ છે.” ૧ । Avarय - 'अहं-अथ' भाना पछी ते-तान्' ते अन्य तीन 'भिक्खू -भिक्षुः साधु 'मोक्खदिशारए-माक्षविशारद.' भाक्ष विशाह-अर्थात् ज्ञान न भने यात्रिनी ३५९४२वावा परिभासेज्ज-परिभाषेत छ । एवं-एवम्' ! ४२ पन्भासंता-प्रभापमाणाः' ४di 'तुम्भे-यूयं मा att दुपक्वं चेव-दुष्पवं चैव' में पक्षन। उय भने उपाय से पक्षन : 'सेबह-सेवध्वम्' सेवन ४२वावामा छे. ॥११॥ સૂત્રાર્થે મોક્ષને માર્ગે આગળ વધવામાં કુશળ સાધુએ પૂર્વોક્ત આક્ષેપ કરનાર લોકોને આ પ્રમાણે જવાબ આપ જોઈએ— . Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ज्ञानदर्शनचारित्रस्य प्ररूपकः (परिमासेज्जा) परिभाषेत ब्रूयात् (एवं) एवं अनन्तरोक्तं (मासंता) प्रभाषमाणाः (तुम्मे) यूयं (दुपक्खं चेव) हुपक्षं दुष्टः पक्षो दुरुपक्षः तम् अथवा रागहेयात्मकं पक्षद्वयं (सेवह) सेवध्वमिति ॥११॥ टीका:--'हे' अय पूर्वपक्ष समाप्त्यनन्तरम् 'मोक् खविसारए मोक्षविशारदः मरूपकः, मोक्षस्य तत्कारणस्य ज्ञानदर्शनचारित्राख्यस्य विशारदः २रूपकः 'भिक्खू' भिक्षुः भिक्षणशीलः, 'ते' तान् प्रतिकूलोपस्थितान् अन्यदर्शिनः । 'एवं' अनन्तरोदीरितमार्गेण 'पभासंता' मभाषमाणाः सन्त : अन्यदनिनः साधुस्वरूपधारिणो गृहस्थाश्च 'दुपख' दुष्पक्षम् , दुष्टः पक्षो दुप्पक्षः तमेव । 'तुम्भे' यूयम् ‘से वह' सेवध्वम् । अपवा-रागद्वेषात्मक पक्षद्वयं सेवध्वम् । सदूपण स्यापि स्वपक्षस्य समर्थनात् रागः । तथा-निर्दुधरयाऽपि संयममार्गमतिक्षेपकरणात् प्रद्वेषः। यद्वा-आधार्मिको शिकान्नादिभोजिशद् गृहस्थपक्षस्याऽसेवनम् । दुष्पक्ष अर्थात् दूषित पक्ष या छिपक्ष (रागद्वेषरूप पक्ष) का सेवन कर रहे हो ॥११॥ टीकार्थ-यहां 'अध' शब्द पूर्वपक्ष की समाप्ति का सूचक है। मोक्ष में विशारद अर्थात् मोक्ष के कारणभूत ज्ञान, दर्शन और चारित्र तप का निरूपण करने में कुशल भिक्षु प्रतिकूल रूप से उपस्थित उन अन्य दर्शनियों से इस प्रकार कहे हमारे ऊपर असमीचीन आक्षेप करते हुए तुम साधुवेषधारी था गृहस्थ दूषित पक्ष का सेवन करते हो या रागद्वेष रूप द्विपक्ष का सेवन करते हो। अपने सदोष पक्ष का समर्थन करने के कारण राग और निर्दोष संयममार्ग पर भी आक्षेप करने के कारण द्वेषरूप पक्ष है । अथवा आधाकर्मी तथा औद्देशिक अन्न આ પ્રકારના આક્ષેપ કરનારા તમે લોકે દુપક્ષ (દૂષિત પક્ષ)નું અથવા દ્વિપક્ષનું (રાગદ્વેષ રૂપ પક્ષનુ) સેવન કરી રહ્યા છે.” ૧૧ . साथ-मही अर्थ ५६ पक्षनी समातितुं सूय -छ. भाक्षभाना વિશારદ એક્ષ સાધવામાં કારણભૂત જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર અને તપનું નિરૂપણ કરવામાં સાધુએ અન્ય મતવાદિઓના પૂર્વોક્ત આક્ષેપોને જવાબ આ પ્રમાણે આપવો જોઈએ—અમારા ઉપર અનુચિત આક્ષેપ કરનારા તમે સાધુવેષધારી અથવા ગૃડ દૂષિત પક્ષનું સેવન કરે છે–અથવા રાગદ્વેષ દ્વિપક્ષનું સેવન કરે છે. એટલે કે તમારા સદેષ પક્ષનું સમર્થન કરવાને કારણે તમે રાગ રૂપ પક્ષનું સેવન કરે છે અને નિર્દોષ સંયમમાર્ગ સામે આંક્ષેપ કરવાથી ઠેષ રૂપ પક્ષનું સેવન કરો છે. અથવા આધાકર્મ આદિ દેવયુકત તથા ઓશિક અન્ન આદિને અહાર કરવાને કારણે આપ ગુહ અપક્ષનું Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ३ अन्यतीथिकोक्ताक्षेपोत्तरम् १ तथा साधुस्वरूपधारणात प्रवजिताश्चेति उभयपक्ष सेवित्वम् । यद्वा-स्वतोऽसदनु. ष्ठानम् , सदनुप्ठानकर्तृणां निन्दनमिति पक्षद्वयं सेवध्वम् । एवं रूपेण-'परिभासेज्जा' परिभाषेन, भिक्षुस्तानिति भावः ॥११॥ पुनरन्तरमाह-'तुम्थे' इत्यादि । म्लम्-तुले भुजह पालतु गिलाणो अभिहडंमि या। तं च वीओदगं सोचा तमुस्लिादि जंकडे ॥१२॥ , छाया----यूयं भुद्धवं पात्रेषु ग्लानस्य अभ्याहृते च यत् । . तं च वीजोदकं भुक्त्वा तमुद्दिश्यादि यत्कृतम् ॥१२॥ आदि आहार करने के कारण गृहस्थपक्ष का सेवन कर रहे हो और साध का रूप धारण करने तथा दीक्षित होने के कारण साधु पक्ष का सेवन करते हो, इस प्रकार द्विपक्ष सेबी हो । अथवा स्वयं तो असत आचरण करते हो और सत् आचरण करने वालों की निन्दा करते हो, इस कारण भी दोनों पक्षों के सेवन करने वाले हो । इस प्रकार साधु उन आक्षेप कर्ताओं को उत्तर देखें ॥११॥ पुनः कहते हैं-'तुम्भे' इत्यादि । शब्दार्थ--'तुले-यूयम्' आपलोग पाएस्सु-पात्रेषु' कांसे आदि के पात्रों में 'भुंजह-सुध्वम्' भोजन करते हैं तथा 'गिलाणो-ग्लानस्य रोगी साधु के लिए , अभिल्डंमिया-अव्याहते यत्' गृहस्थों द्वारा जो. भोजन मंगवाते हैं 'तं च वीओदग-तं च पोजोदकम्' सो आप बीज और कच्चे जल का 'भोच्चा-भुक्त्वा उपभोग करके तथा 'तमुद्विस्तादि સેવન કરી રહ્યા છે, અને સાધુનો વેષ ધારણ કરેલ હોવાથી તથા દીક્ષિત હોવાને કારણે આપ સાધુ પક્ષનું સેવન કરી રહ્યા છે-આ પ્રકારે આપે દ્વિપક્ષનું સેવન કરનારા છે. અને સત્ આચરણની નિંદા કરી છે, તે કારણે તમે બન્ને પક્ષોનું સેવન કરનાર, છો તે આક્ષેપ કરનારાઓને સાધુએ આ પ્રકારને ઉત્તર આપવું જોઈએ, n૧૧ા __ . जी तमने मेवे वाम मा५वा है-'तुभे' या - Awar-'तुम्भे-यूयम्' मा५ । 'पाएसु-पात्रेसु' ४ial पोरेन। पात्रोमा 'भुजह- भुम्' a ४३॥ छ।, ता, 'गिलाणो-ग्लानस्य'., जा साधुना भाटे सन 'अभिहडमि या-अभ्याहृते यत्' स्थान RI... भाव छ. 'तच बीओदगं-तच धीजोदकम्' मा५ ते ular भने ४ाया पानी सू० १५ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२१७ सूत्रकृताङ्गसू " अन्वयार्थ : - (तुभे) यूयं ( पारस ) पात्रेषु कांस्यादिमाजनेषु (मुंज) भुङ्क्ष्वं भोजनं कुरुत (गिलाणो) ग्लानस्य (अभिहडेमिया) अभ्पाहते यत् गृहस्थद्वारा आनाय्यते (तं च वीओदयं तं च बीजोदकं (भोचा) भुक्वा (मुदिसादियं कर्ड) मुद्दिश्य यत्कृतम् ग्लानामुद्दिश्य यदाहारादिकं कृतं तमुपभुंजानाः यूयम् उद्देशिकादिकृतभोजित इति ॥१२. टीका- 'कु' व 'पाएसु' पात्रेषु = रजत कांस्यादिपात्रेषु वचस्य अकिंचनस्वम्, परिग्रहराहित्यं च स्वीकुर्वाणा अपि 'अंजर' भोजनं कुरुभ्यम्, गृहस्थस्य पात्रेषु भोजनकरणात तत्परिग्रहोऽवश्यमेव भवति तथा भाहारादिषु रागोऽपि भक्त्येव, तत्कथं रागपरिग्रहाभ्यां रहिता भवन्तः इति विचारयत । एतावन्त एव प्रदेश करके जो " कुडे-तमुद्दिश्य यत्कृतम्' उस ग्लान साधु को ¥ आहार बनाया गया है उसका उपभोग करते हो ॥१२॥ अन्वयार्थ -- तुम लोग कांसे आदि के भजनों में भोजन करते हो रुग्ण साधु के लिए गृहस्थ के द्वारा आहार मंगवाते हो और बीज तथा सचित्त जल का उपभोग करते हो तथा रुग्ण साधु को उद्देश्य करके बनाये हुए आहार का भोजन करते हो ॥ १२॥ " टीकार्थ - - ( भिक्षु उन आक्षेप कर्त्ताओं को इस प्रकार उत्तर दे) तुम लोग अपने आप को आकिंचन और अपरिग्रह कहते हुए भी रजत (चाँदी) एवं कांसे आदि के पात्रों में भोजन करते हो । गृहस्थ के पात्र में भोजन करने से उसका परिग्रह अवश्य होता है और आहार आदि में राग भी होता ही है । ऐसी स्थिति में तुम राग और 'भोच्चा - भुक्त्वा' उपभोग उरीने तथा 'तमुद्दिस्सादि यं कडे - तमुद्दिश्य यत् कृतम्' ગ્યાન સને ઉદ્દેશીને જે આહાર મનાયેલ છે તેના ઉપભાગ કરે છે. ।૧૨।। સૂત્રા——તમે લેકે કાંસા આદિ ધાતુઆનાં પાત્રામાં જમેા છે. બીમાર સાધુને માટે ગૃહસ્થ દ્વારા આહાર મગાવા છે. તમે ખીજ તથા સચિત્ત પાણીને ઉપભાગ કરે છે અને ભીમાર સાધુને નિમિત્તે તૈયાર કરેલું ભેાજન જમે છે. ૫૧૨ ટીકા”—તે આક્ષેપ કર્તાને જૈન સાધુએ આ પ્રમાણે જવાખ દેવે જોઈએ તમે તમારી જાતને ક્રિંચન અને અપરિગ્રહી રૂપે ઓળખાવા છે, છતાં પશુ તમે ચ’દી, કાંસુ આદિ ધાતુના પાત્રમાં ભેાજન કરી છે. ગૃહસ્થના પાત્રમાં ભેાન કરવાને કારણે આપ તેને પરિગ્રહ અવશ્ય કરા છે અને આહાર આદિમાં રાગ પણ અવશ્ય રાખેા જ છે. આ પ્રકારની પરિ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ३ अन्यतीथिकोक्ताक्षेपोत्तरम् ११५ दोपा इति न, किन्तु दोपान्तरमपि ते भवत्येवेति-अत्त आइ-'गिलाणो' ग्लानस्य व्याध्यादि पीडितस्य भिक्षाऽऽनयनेऽसमर्थस्य गृहस्थद्वारा आनाय्यते। 'तंच वीओदक' तं च बीजोदकम् , बीजोदकम् , बीजोदकादि विनशनपूर्वकमेव गृहस्थै भॊजनं संपाद्यते तदाहारम् । 'भोच्चा' भुक्त्वा तथा-'तमुदिश्य यत् भोजनादिक संपादितं तस्यापि मोक्ता भवान् भवति, एवं च गृहस्थगृहेषु गृहस्थयात्रेषु साध्वर्थ पाचितान्नभोजित्वात् तदीयपापकर्मणा अवश्यपेव संवन्धो भविष्यतीति ॥१२॥ पुनरप्पाह-लित्ता तिव्यामितावेणं' इत्यादि । मूलम्-लित्ता तिव्वामितावणं उज्झियों असमाहिया। नातिकडूइयं से अरुथस्लावरझइ ॥१३॥ द्वेष से रहित किस प्रकार हो सकते हो ? इस बात पर विचार करों। इतने ही दोप नहीं, तुम लोग इनके अतिरिक्त अन्य दोषों का भी सेवन करते हो । जो व्याधि ले पीडित हैं और भिक्षा लाने में अस. मर्थ हैं, उसके लिए तुम मृदस्य के द्वारा भिक्षा मंगवाते हो। ऐसा करने में भी दोष लगता है । गृहस्थों द्वारा लाया हुआ भोजन अभ्याहत कहलाता है। बीजों का तथा जल का विनाश करके ही गृहस्थ भोजन बनाते हैं । उसकातुम उपभोग करते हो । इसके अति. रिक्त रोगी साधु के उद्देश्य से बनाये हुए आहार को भी तुम भोगते हो । इस प्रकार गृहस्थ के घरब तथा गृहस्थ के पात्रों में साधक निमित्त पकाये हुए अन्न का सेवन करने के कारण उसके पाप कर्म के साथ अवश्य ही तुम्हारा सम्बन्ध होगा ॥१२॥ સ્થિતિમાં તમે રણપથી રહિત કેવી રીતે રહી શકે? આ છે પણ તમે સેવન કરે છે. રોગને કારણે જેઓ ભિક્ષાચર્યા કરવાને અસમર્થ હેય છે એવા સ ધુઓને માટે તમે ગૃડ દ્વારા ભોજનની સામગ્રીઓ મંગાવે છે. એવું કરવામાં પણ રોષ લાગે છે. ગૃહ દ્વારા લાવવામાં આવેલા ભેજનને અભ્યાહત કહે છે. બીજેને તથા જળને વિનાશ કરીને જ ગૃહસ્થ ભેજન બનાવે છે. એવાં ભેજનને તમે ઉપભેગ કરો છે રોગી સાધુને નિમિત્તે બનાવેલું ભોજન પણ તમે જમે છે. આ પ્રકારે ગૃહસ્થના ઘરમાં તથા ગૃહસ્થનાં પાત્રોમાં તમારે નિમિત્તે રાંધવામાં આવેલા ભોજનનો ઉપભોગ કરવાને કારણે તેના કર્મની સાથે તમારે પણ અવશ્ય સંબંધ થશે. એટલે કે તમે પણ તે પાપકર્મના ભાગીદાર જ બને છે. ગાથા ફરા !' Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :-११६ छाया - लिप्तास्तीवाभितापेन उज्झिता असमाहिताः । FE नाऽतिकण्डूयितं श्रेयो अरूपोऽपराध्यति ॥ १३ ॥ - अन्वयार्थ - (तिभाभितावेणं) तीघ्राभितापेन कर्मबन्धनेन (लित्ता) लिप्ता:= उपलिया : ( उज्झिना): उज्झिताः = रद्विवेकरहिताः (असमाहिया) असमाहिता:= शुभाध्यवसाय रहिमाः (थरूपस्त) अरुप त्रास्त्र (अतिकंट्टयं) अतिकण्डूयितं (न सेयं) न श्रेयः यतः (अवरज्झ ) अपराध्यति दोषमुत्पादयतीत्यर्थः ||१३|| टीका--'तिनाभिलावेणं' तीव्रामिसापेन पञ्जीवनिकायोपमर्दनपुरःसरसंपादिताधाकर्मोदिष्ट भोजनेन । तथा मिथ्यादृष्टया साधुनिन्दया च संजातापुनः कहते है- 'लिता तिव्यभिलावेणं' इत्यादि । शब्दार्थ -- 'सियाभितावेण - पीत्रासितापेन' आप लोग तीव्र अभि ताप अर्थात् कर्मबन्ध से 'लिसा-लिप्ताः' उपलिप्त 'उज्झिया - उज्झिताः' सदसद्विवेक से रहित 'असमाहिया - असमाहिताः' शुभ अध्यवसाय से रहित हैं। 'अरुग्रह - अहषः ' - घाव के 'अतिकं अतिकंडुषितम्' अत्यन्त खुजलाना 'न सेयं न भेषः' अच्छा नहीं हैं 'अवरज्ज - अपसंपत्ति' क्योंकि वह कण्डन दोषावह ही है || १३ || - अन्वयार्थ--तुम लोग तीव्रकर्मवन्ध से लिप्स हो सम्यग् विवेक से हीन हो और शुभ अध्यवसाय से रहित हो । घाद को बहुत खुजलाना ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा करने से दोष की उत्पत्ति होती है ॥१३॥ टोकार्थ - - तीव्र कर्मबन्ध से अर्थात् षट्काप की हिंसापूर्वक सम्पा दिन आधाकर्मी एवं उद्दिष्ट आहार का उपभोग करने के कारण तथा है -- 'लित्ता तित्राभिचावेण' ४त्याहि सूत्रकृतागसूत्रे - वजी सूअर शार्थ - 'तिव्बाभितावेणं- तीव्रभित पेन' साथ ही तीव्र अमिताय अर्थात उभ घथी 'कित्ता - लिपाः' पनि 'उझिया - उज्झित्ताः' सद्दविवे४थी रहित भने 'असमाहिया - असमताहिताः शुल अध्यवसायथी रहित छो. 'अरु' 'यस - अरुषः ' वथु-धाने अतिकंडूइयं अतिकण्डूयितम्' अत्यंत भेजवु' 'न सेयं-न श्रेयः' सा३ नथी 'अवरज्जइ - अपराध्यति' प्रेम ते उडूयन દાષાવહુ જ છે. ૫૧૩મા સૂત્રા સાધુએ તે આક્ષેપકર્તાને કહેવુ જોઇએ કે–તમે તીવ્ર ક અન્યથી લિપ્ત છે, સમ્યગ્ વિવેકથી રહિત છે અને શુભ અધ્યવસાયથી પશુ રહિત છે ઘાવને ખડ઼ે ખંજવાળવા તે ઉચિત ન ગણાય, કારણ કે એવું કરવાથી દાષની ઉત્પત્તિ થાય છે. ૫૧૩૫ ટીકા”—છકાયની હિંસાપૂર્વક પ્રાપ્ત આધાકમ, ઉદ્ધિ આદિ દોષયુક્ત આહારને ઉપભેગ કરવાને કારણે તથા મિથ્યાર્દષ્ટિ અને સાધુની નિંદા દ્વારા Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ३ अन्यतीथिकोक्ताक्षेपोत्तरम् ११७ शुभकर्मरूपाऽमितापेन 'लित्ता' लिप्ताः 'उझिया' उज्झिताः सदसद्विवेकरहिताः । तपा-'असमाहिया' असमाहिताः साधूनां विद्वेषकरणात् शुभाऽध्यवसायवर्जिता भवन्तो विचन्ते । यथा 'अरुयस्स' अरुषः अरुपोन्नणस्य 'अतिकंडूइयं' अतिकण्डूयितम्-खर्जनम् । 'न सेयं न श्रेयः यथा-व्रणस्याऽतिखर्जनं न श्रेयो भवति । अपि तु 'अवरज्झइ' अपराध्यति, तत्कण्डूयनं दोघमेवाऽऽवहति । .. अयं मावः-वयं निकिचनाः परिग्रहरहिता इति कृत्वा षड्जीवनिकायानां रक्षासाधनं पात्रायुपकरणमपि परित्यज्याऽशुद्धाहारादिकानामुपभोगेनाऽवश्यं भावी, अशुभफर्मलेगः। द्रध्यक्षेत्रकालभावानपेक्षणेन संयमोपकरणानामपि पात्रादीनां त्यागो न शुमाय । अपि तु व्रणादिकण्डूयनयत् दोपाय एव भवतीति ॥१३॥ · मिथ्यादृष्टि एवं साधुनिन्दा के द्वारा उत्पन्न अशुभ कर्मरूप अभिताप से लिप्त हो, मत् असत् के विवेक से रहित हो तथा साधुओं पर द्वेष रखने के कारण शुभ अध्यवसाय से रहित हो। याद रक्खो घाव को बहुत खुजलाना श्रेयस्कर नहीं है। उसे खुजलाने से दोष की ही उत्पत्ति होती है। तात्पर्य यह है-'हम अचिन हैं, अपरिग्रही है। ऐसा मान कर षह जीवनिकायों की रक्षा के साधन पात्र आदि उपकरणों को भी त्यागकर यदि अशुभ आहार का उपभोग करें तो दोषों से बचाव नहीं हो साना । ऐसा करने से अशुभ कर्मों का लेप अवश्य होगा। द्रव्य, क्षेत्र काल और भाछ की अपेक्षा न करके संयम के उपकरण पात्र आदि ઉપ જિત, અશુભ કર્મરૂપ અભિતાધી તમે લિસ છે, તમે સત અસના વિવેકથી વિહીન છે, તથા સાધુઓ પર દ્વેષ રાખવાને કારણે શુભ અધ્યવસમયથી પણ રહિત છે, ઘને બહુ ખંજવાળ શ્રેયસ્કર નથી ! જેમ ઘાને વધારે ને વધારે ખંજવાળવાથી ઘા વકરે છે, એ જ પ્રમાણે પોતાના દ સામે જોવાને બદલે અન્યના ગુણોને દેષરૂપે બતાવવાથી પિોતે જ તીવ્ર કર્મને બબ્ધ કરે છે. तात्पर्य छ है-मे मयिन भने मपरिग्रही छी.' मे. માનીને છકાયના જીવોની રક્ષાને માટે પાત્ર આદિ ઉપકરણોને ત્યાગ કરવામાં આવે અને ગૃહસ્થના પાત્રમાં અશુદ્ધ (દેષયુક્ત) આહારને ઉપગ કરવામાં આવે, તે સાધુ તે દેથી બચી શકતા નથી, એવું કરવાથી અશુભ કમને લેપ અવશ્ય લાગે છે. દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવની દષ્ટિએ વિચાર Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ 'सूत्रकृतसूत्रे पुनरप्याह - ' तत्तेग' इत्यादि । मूलम् - ततेर्णे अणुसिद्धा ते अपडिन्नेन जाणंया । र्ण एस जियएं मैग्गे अससिक्ख वइ किईं ॥ १४ ॥ छाया -- तत्वेन अनुशिष्टास्ते अप्रतिज्ञेन जानता । न एप नियतो साsसमीक्ष्य वाक् कृतिः ॥ १४ ॥ अन्वयार्थ - - (अपडिनेण) अप्रतिज्ञेन रागद्वेषरहितेन ( जाणया) जानता हेयोपादेयपरिच्छेद केन (ते) तेऽन्यदर्शनावलंविनः (वज्रेण अणुसिद्धा) तत्त्वेनानुका भी त्याग कर देना श्रेयस्कर नहीं है, किन्तु व्रण (घाव) का खुजलाने के समान दोषजनक ही है ||१३|| और भी कहते हैं- 'तत' इत्यादि । शब्दार्थ - ' अपडिन्नेन - अप्रतिज्ञेन' राग द्वेष से रहित ऐसे तथा 'जायणा - जानता' जो हेन एवं उपादेय पदार्थों को जानता हैं यह साधु पुरुष 'ते-ते' अन्य दर्शन वालों को 'तत्ते अणुसिट्टा-तत्वेनानुशिष्टाः' यथावस्थित अर्थ की शिक्षा देते हैं कि 'एसमग्गे - एषो मार्गो' आप लोगों ने जिस मार्ग का अनुसरण किया है वह मार्ग 'ण निधए-न नियतः ' युक्तियुक्त नहीं हैं 'वई - वाकू' तथा आप ने जो सम्यक दृष्टि साधुओं के प्रति आक्षेप वचन कहा है वह भी 'असमिक्a - असमीक्ष्य' विना विचारे ही कहा है 'किह-कृतिः' तथा आप लोग जो कार्य करते हैं भी विवेकशून्य है ॥ १४॥ वह अन्वयार्थ - - रागद्वेष से रहित तथा हेय और उपादेय का ज्ञाता કર્યા વિના સચમનાં ઉપકરણેાને-પાત્ર આદિના પશુ ત્યાગ કરવા શ્રેયસ્કર નથી, પશુ ણુને (ગુમડને) ખજવાળવા સમાન દોષજનક છે. ગાથા ૧૩ા वजी सूत्रभर हे छे – 'तत्ते' इत्याि शार्थ' - 'अपडिन्नेन - अप्रतिज्ञेन' रागद्वेषथी रहित सेवा तथा 'जायणाનારીક' જે હેય અને ઉપાદેય પદાર્થાને જાણે છે, આ સાધુપુરુષ તે તે’ બીજા अन्य हर्शनवाणामाने 'तत्तेण अणुसिट्ठा - तत्वेनानुशिष्टाः' यथावस्थित अर्थनी शिक्षा हे छे है 'एस मगे- एषो माग' या सोये ? भार्ग अनुसरणु यु छेते भार्ग' 'ण नियए-न नियत' युक्तियुक्त' नथी, 'वई - वाक्' वयन डेल हे ते पशु 'असमिक्ख - असमीक्ष्य' वगर वियायु उद्धुं छे 'किइ - कृति ' તથા આપ લેકે જે કા` કરા છે તે પણ વિવેક શૂન્ય છે. ૫૧૪ા સૂત્રા —રાગદ્વેષથી રહિત અને હેય તથા ઉપાદેયના જાણકાર મુનિએએ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ३ अस्पतीथिकोक्ताक्षेपोत्तरम् ११९ शिष्टाः यथावस्थितार्थप्ररूपणया तु शासिताः (एस मग्गे) एपो मागों पापपरिगृहीतः (ण नियए) न नियतः न युक्तिसंगतः (बई) वाक ये पिण्डपातं ग्लानस्यानीय ददाति ते गृहस्थकल्पा इत्यादिरूपा सा (असमिक्खा) असमीक्ष्यापर्यालोव्य कार्यता तथा (किइ) कृतिः करणमपि भवदीयमसमीक्षितमेवेति ॥१४॥ टीका--'अपडिन्नेन' अप्रतिज्ञेन प्रतिज्ञारहितेन, इदमहमवश्यं करिष्यामीस्येवं प्रतिज्ञा न विद्यते यस्य सः अमविज्ञः, नेन रागद्वेपरहितेन साधुना 'जाणया' जानता, इदं हेयमिदमुपादेयमितिज्ञानवता 'तत्तेम' तत्वेन, परमार्थतया-जिनामिायेण यथास्थितार्थपरूपमाद्वारा 'ते' ते गोशालकमतानुसारिणः अन्यदर्शनिनश्च 'अणुसिट्टा' अनुशिष्टा: वोधिता भवंति, किं वोधिताः भवन्ति तत्राह'एसमग्गे' इत्येषमार्ग:गृहस्थ-पात्रादिषु भोजनम् ग्लालार्थ गृहस्थद्वारा आनय मुनि उन अन्यदर्शनियों को तत्व की शिक्षा दे कि तुम्हारा यह मार्ग पाप से युक्त है, युक्तिसंगर नहीं है और 'रुग्ण सुनि को आहार लाकर जो देते हैं वे गृहस्थ के समान हैं यह तुम्हारा वचन विचारशून्य है। तुम्हारा आचार भी विचार विकल है अर्थात् तुम विना विचारे पोलते और क्रिया करते हो ॥१४॥ टीकार्थ--'मैं यह कार्य अवश्य करूगा' इस प्रकार की प्रतिज्ञा से रहित · अर्थात् राग और द्वेष से रहित तथा हेय और उपादेय को जानने वाले साधु के द्वारा उन आक्षेप करने वाले गोशालक के अनुयाधियों को तथा अन्यदर्शनियों को जिन भगवान के मत के अनुसार यथार्थ वस्तुस्वरूप की शिक्षा दी जाती है। साधु उन्हें इस . તે અન્ય મતવાદીઓને તત્વની આ પ્રમાણે શિક્ષા દેવી જોઈએ. તમારો આ માર્ગ પાપથી યુક્ત છે અને યુક્તિસંગત નથી. ‘બિમાર સાધુઓને માટે આહાર વહેરી લાવનારા સાધુએ ગૃહસ્થના સમાન છે, આ તમારા આક્ષેપ વિચારશૂન્ય છે તમારે આચાર જ વિચાર વિહીન છે. એટલે કે તમે વગર વિચાચે ગમે તેમ બેલે છે અને મન शव तेम ४२। छ.. ॥१४॥ - ટીકાથ– હું આ કાર્ય અવશ્ય કરીશ.” આ પ્રકારની પ્રતિજ્ઞાથી રહિત એટલે કે રાગદ્વેષથી રહિત તથા હેય અને ઉપાદેયને જાણનારા મુનિઓ દ્વારા તે આક્ષેપકર્તા ગોશાલકના અનુયાયીઓ તથા અન્ય મતવાદીઓને જિનેન્દ્ર ભગવાનના મત અનુસાર યથાર્થ તવ (વસ્તુ સ્વરૂપ) સમજાવવામાં આવે છે. તેમને આ પ્રમાણે કહેવામાં આવે છે–ગૃહસ્થના પાત્રમાં જમવું Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० सूत्रकृताङ्गसूत्रे नम् आधाकर्मिकोद्देशिकादिभोजनं तथा शुद्धसंयमिनामाक्षेपकरणम् एव तच मार्गः 'न विए' न नियतः, न नियवो न युक्तिसंगतः । 'वह' वचनं तत् साधुमुद्दिश्य यदाक्षेपवचनं भवद्भिः प्रतिपादितम् । तदपि - 'असमिकाच' असमीक्ष्य, विचारमन्तरेणैव कथिनम् । तथा 'क' कृतिः भवतामाचरणमपि न समीचीनमिति ॥ १४ ॥ मूलम् - एरिलो जो वैई एसी अग्गवेणुन करिखिता । गिहिणो अभिहर्ड से जिउ ण उ भिक्खुणं ॥१५॥ छाया -- ईदृशी या बागेपा अग्रवेणुवि कर्षिता । गृहिणोऽस्याहृतं श्रेयः भोक्तुं न तु मिक्षूणम् | १५ || प्रकार कहे गृहस्थ के पात्र में भोजन करना और विसार लाधु के लिए गृहस्थ द्वारा भजन मंगवाना, आधाकर्मी एवं औदेशिक आहार करना और शुद्ध संयम का पालन करने वालों पर आक्षेप करना, यह आप का मार्ग युक्तिसंगत नहीं है । साधु के विषय में आप ने जो आक्षेप वचन कहे हैं, वह आप के वचन बिना बिचारे ही कहे गए हैं । इसके अतिरक्त आप का आचार भी समीचीन नहीं है' ||१४|| शब्दार्थ- 'एरिसा - ईदृशी' इस प्रकार की 'जा-या' जो 'बई - बागू' कथन है कि 'गिहिणो अभिहर्ड - गृहिणोऽभ्याहृतम्' गृहस्थ के द्वारा लाया हुआ आहार 'भुंजिरं सेयं भोक्तुं श्रेय' साधु को ग्रहण करना कल्याणकार क है 'उभिक्खु न तु भिक्षूणाम्', परन्तु साधु के द्वारा लाया हुआ आहारादिक लेना ठीक नहीं है 'एसा - एषा' यह बात 'अग्गवेणुव्व करिसिता अग्रवेणुरिव कर्षिताः' बांस के अग्रभाग के जैसा कुश दुर्बल है । १५॥ - અને ખિમાર સાધુને માટે ગૃહસ્થ દ્વારા ભેાજન મંગાવવું-આવાક દ્વેષ ચુક્ત તથા ઔદ્દેશિક દેયુક્ત આહાર કરવા, તથા શુદ્ધ સયમનું પાલન કરનારા જૈન સાધુએ પર આક્ષેપ કરવા. આ તમારી રીત યુક્તિસબત નથી જૈન સાધુએ સામે તમે જે આક્ષેપ 'વચનેા ઉચ્ચાર્યા છે તે . વગર વિચારે જ ઉચ્ચાર્યાં છે. સાધુએ સામે આ પ્રકારના આક્ષેપ કરનારા આપ લેાકેાના मायार पशु येोग्य (शुद्ध-होषरहित) नथी. ॥जाथा १४॥ शब्दार्थ' – 'एरिस्सा-ईहंशी' मा प्रअरनी 'जा-या' ? 'वई - वाग् छे 'गिहिणो अभिहड - गृहिणोऽभ्याहृन्म्' गृहस्थना द्वारा सापवाभा भावेस भाडार वगेरे सेवा ही नथी 'एसा - एषा' मा वात 'अग्गवेणुव्वकरिसिता - अप्र: वेणुरिव कर्षिताः' वांसना आगणना लागना प्रेम शा Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ३ अन्यतीथिकोक्ताक्षेपोत्तरम् र ... अन्धयार्थ-(एरिसा) ईदशी (जा) या (वइ) व.गूाणी कथनं' (गिहिणो अभिहडं) गृहिणोऽभ्याहृतम् गृहस्थैरानीतम् (भुंजिउ सेयं) भोक्तु श्रेय:-कल्याण करम् (ण उ भिक्खुणं) न तु भिक्षूणाम् परन्तु साधुभिरानीतमाहारादिकं ग्लोनसाधवे न श्रेयः (एसा) एपा चाकू (अगवेणुव्व करिसिता) अग्रवेणुरिव कर्पिता वंशाग्रभागवत् दुवेलेत्यर्थः ॥१५॥ टीका--'एरिसा' ईदृशी 'जा' या 'बई' वाक् 'मिहिणो अभिहडं' गृहस्थ द्वारा आनीतमाहारादिकं 'भुजिउ सेय' भोक्तुं श्रेय साधुभि भोक्तुं श्रेयः प्रशस्तम् ‘ण उ' न तु=भिक्षुभिरानीतमाहारादिकं भोक्तुं श्रेयः-प्रशस्तम् , 'एसा' एपा वाक् 'अग्गवेणुव्य' अग्रवेणुरिव वंशस्याऽग्रइव 'करिसिता' कर्षिता दुला विद्यते युक्त्यक्षमत्वात । गृहस्थद्वारा आनीतमाहारादिकं साधुना भोक्तव्यमिति ____अन्वयार्थ--गृहस्थ के द्वारा लाया हुआ आहार करना श्रेयस्कर है. किन्तु भिक्षु के द्वारा लाये आहार का उपभोग करना श्रेयस्कर नहीं है, आप का यह कथन वांस के अग्रभाग के समान दुर्घल है ॥१५॥ टीकार्थ--आप का यह जो कथन है कि गृहस्थ के द्वारा लाया: हुआ आहारादि भोगना लाधुओं के लिए कल्याणकर है परन्तु साधुओं के द्वारा लाये आहार का उपभोग करना श्रेयस्कर नहीं है, यह कथन: बांस के अग्रभाग के समान दुर्वल है। वह युक्ति को सहन नहीं करता। तात्पर्य यह है कि साधु. यदि गृहस्थ के द्वारा लाये आहार आदि का उपभोग करे तो अच्छा परन्तु साधु के द्वारा लाये आहार को भोगना अच्छा नहीं है, यह आप का कथन युक्तिहीन है । जैसे पांस का अग्रभाग दुर्बल होता है, उसी प्रकार यह कथन भी दुर्वल है। સૂત્રાર્થ–ગૃહસ્થના દ્વારા લાવવામાં આવેલ આ હાર શ્રેયકર છે, પરતુ સીધુ દ્વારા લાવવામાં આવેલા આહારનો ઉપભોગ કરે શ્રેયસ્કર નથી,” આપનું આ કથન વાંસના અગ્રભાગ સમાન કમજોર છે. ૧૫ • ટીકાર્થ—અન્ય મતવાદીઓના આક્ષેપને ઉત્તર આપતા સૂત્રકાર કહે છે કે “ગૃહસ્થના દ્વારા લાવવામાં આ લે આહાર સાધુઓને માટે કલ્યાણકારી છે, પરંતુ સાધુ ઓ દ્વારા લાવેલા આહારને ઉપભોગ કરે સાધુને માટે શ્રેયસ્કર નથી, આ પ્રકારની અ૫ની દલીલ વાંસના અગ્રભાગ જેવી નિર્બળ છે તેનું ખંડન સહેલાઈથી થઈ શકે તેમ છે. જેવી રીતે વાંસનો અગ્રભાગ એટલે કમર હોય છે કે તેને સહેલાઈથી તેડી શકાય છે, એ જ પ્રમાણે તમારા આ આક્ષેપનો જવાબ પણ ઘણો સરળ છે-ગૃહસ્થા દ્વારા લાવવામાં Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ सूत्रकृताङ्गसूत्रे प्रशस्तम् । परन्तु साधुभिरानीतमाहारादिकं भोक्तव्यमिति न श्रेयस्करम्, इति कथनं भवतो युक्तिर हतम् । यथा वंशस्याग्रभागो दुर्वलो भवति तद्वदेव युक्तिरहितं, गृहस्थैरानीतं जीवोपमर्दनसहितेन सायम् भिक्षुभिरानीतं तूगमादिदोपरहितम् अतो गृहस्थानीतमाहारादिकं-श्रेय इति कथनं युक्तिशास्त्रविरुद्ध मिति भावः ॥१५॥ यथा गृहस्थैर्दानं दीयते तथा साधुभिरपि दानादिकं देयं दानस्य सामान्यधर्मत्वेन सर्वप्तमानत्वादित्याशंकामपनेतुमाह-'धम्मपन्नवणा' इत्यादि । मूलम्-धम्मपन्नवणा जा सौ सारंभाण विसोहिया । . . ..उ एयाहिं दिहिहिं पुव्वांसी पंग्गप्पियं ॥१६॥ - छापा--धर्मपज्ञापना या सा सारंभाणां विशोधिका । . . न त्वे ताभिदृष्टिभिः पूर्वमासीत् मकल्पितम् ॥१६॥ गृहस्थों के द्वारा जो लाया जाएगा वह छक्कायों की जीवविराधना से युक्त '. होने के कारण सावध होगा। इसके विपरीत साधुओं के द्वारा लाया , आहार उद्गम आदि दोषों से रहित होगा। अतएक गृहस्थों द्वारा लाये आहार को भोगना श्रेयस्कर है, यह आप का कथन युक्ति से और शास्त्र से भी प्रतिकूल है ॥१५॥ - जैसे गृहस्थों के द्वारा दान दिया जाता है, उसी प्रकार साधुओं को भी दान देना चाहिये । दान सामान्य धर्म होने के कारण सभी के लिये समान है । इस प्रकार की आशंका का निवारण करने के लिये सूत्रकार कहते हैं-"धम्मपण्णवगा" इत्यादि । ___ આવેલે આહાર છકાયની વિરાધના યુક્ત હોવાને કારણે દેષયુક્ત હોય છે, પરન્તુ સાધુઓ દ્વારા લાવવામાં આવેલ આહાર ઉદ્ગમ આદિ દેથી રહિત હોય છે તેથી ગૃહસ્થો દ્વારા લાવેલા આહારને શ્રેયસ્કર માનવો તે વાત યુક્તિ, સંગત પણ લાગતી નથી અને શાક્ત કથનથી પણ વિરૂદ્ધ જાય છે. માટે આપની તે દલીલ બિલકુલ ટકી શકે તેમ નથી. ગાથા ૧પ અન્ય મતવાદીઓ એવું કહે છે કે જેવી રીતે ગૃહ દ્વારા દાન અપાય છે એ જ પ્રમાણે સાધુઓએ પણ દાન દેવું જોઈએ દાન સામાન્ય ધર્મ હોવાને કારણે સીને માટે સમાન છે. આ પ્રકારની અન્ય મતવાદીઓની : દલીલનું નિરાકરણ કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે કે – 'धम्मपण्णवणा' त्याह Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ३ उ. ३ अन्यतीथिकोक्ताक्षेपोत्तरम् । १२३ अन्वयार्थः--(जा) या (धम्मपन्नवणा) धर्मप्रज्ञापना यतीनां दानादिनोपकर्तव्यमित्यादिका धर्मदेशना (सा) सा धर्मदेशना (सारंभाण) सारंभाणां गृहस्थानाम् (विसोहिया) विशोधिका-शुद्धिकरिणी, यतयस्तु संयमानुष्ठानेनैव विशुध्यंति -(एयाहि दिहिहिं) एताभि दृष्टिभिः (पुच्छ) पूर्वम् (उ) न तु (पगप्पियं आसी) ‘मकल्पितमासीत् नैतादृशी भवकथितादेशना सर्वज्ञैः पूर्व कृतेति ॥१६॥ i: टीका--'जा धम्मपन्नपणा' या धर्मप्रज्ञापना-साधवे दानादिकं गृहस्थैर्दयमित्याकारिका या धर्मदेशना, सा 'सा सारंभाण विसोहिया' सा सारंभाणां गृह शब्दार्थ-'जा धम्मपन्नधणा-या धर्मप्रज्ञाना' साधुओं को दान आदि देकर उपकार करना चाहिये यह जो धर्म की देशना हैं 'सा-सा' वह धर्मदेशना 'सारंभाण-सारंभाणा' गृहस्थों को 'विसोहिया-विशोधिका' शुद्ध करने वाली है, साधुओं को नहीं 'एघाहिं दिहिहि-एताभिदृष्टिभिः' इस दृष्टि से 'पुन्व-पूर्वम् " पहले 'ण उ-न तु' नहीं 'पगप्पियं आसीप्रकल्पितमासीत्' ऐसी देशना सर्वज्ञों ने पहले की गई थी॥१६॥ '' “अन्वयार्थ--यह जो धर्मदेशना है कि साधुओं को दान देकर उपकार करना चाहिये, यह गृहस्थों की ही शुद्धि करने वाली है-साधु तो संयम का आचरण करके ही शुद्ध होते हैं। धर्मदेशना इस अभिप्राय से पहले सर्वज्ञों ने नहीं की है ॥१६॥ . . . . टीकार्थ--साधु दानादि करे, यह धर्मदेशना गृहस्थों को ही पवित्र करने वाली उनकी विशुद्धि करने वाली है। यह धर्मदेशना साधुओं शहा--'जा धम्मन्नवणा-या धर्मप्रज्ञापना.' साधुमा हान पर દઈને ઉપકાર કરવા જોઈએ જે આ ધર્મની દેશના છે “-” તે घदेशना 'सारंभाण-सारंमाणां' गृहस्थाने 'विसोहिया-विशोधिकाः' शुद्ध ४२१॥ पाणी छे. साधुमाने नहि एयाहिं दिद्विहि-एताभिदृष्टिभि.' माथी पुर्वपूर्वम्' पडai 'ण उ-न तु' ना 'पगप्पिय आसी-प्रकल्पितमासीत्' की शिना - જ્ઞોએ પહેલા કરી હતી. ૧૬ सूत्रा--'साधुभास हान हेन,' मा १२नी धमशिना 8. સ્થાને સાટે જ કરવામાં આવી છે, કારણ કે સાધુઓએ દાન દેવાથી ગૃહની શુદ્ધિ થાય છે અને સાધુ પિતાના સંયમને નિર્વાહ કરી શકે છે. સાધુઓ તે સંયમનું પાલન કરીને શુદ્ધ થતાં જ હોય છે, તેથી સર્વજ્ઞોએ દાન દેવાની જે ધર્મ દેશના કરી છે, તે ગૃહસ્થાને અનુલક્ષીને કરી છે, સાધુને અનુલક્ષીને કરી નથી ૧૬ ટીકાઈ–સાધુને દાનાદિ દેવાની જે ધર્મદેશના છે, તે ગૃહસ્થને જ પવિત્ર કરનારી તેમની વિશુદ્ધિ કરનારી છે. તે ધર્મદેશના સાધુઓની શુદ્ધિ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ सूत्रकृतात्रे स्थानां विशोधिका कल्याणकारिणी, न तु साधूनां सा देशना कल्याणकारिणी । 'एहियाहि दिविहि' एताभि दृष्टिभिः 'सुव्वं पूर्वम् ‘ण उ एग्गप्पियं न तु प्रकल्पितम् । 'आसी' आसीत् न तु एतादृशी देशना पूर्व सर्वज्ञैः कथिताऽऽसीद । साधुभिर्दानादिकं दत्त्वा उपकर्त्तव्यमित्येपा या धर्मदेशना, सा गृहस्थस्यैव पवित्रकारिणी, न तु साधूनां कल्याणक रिणी । अनेनाऽभिमायेण न पूर्व सर्वज्ञैर्देशना दत्तेति । अयं भाव-भान्ति हि साधशे धनधान्यादिवित्तराहित्येनाकिंचनाः सन्तः यतस्ततो निरदध आहारादिमात्रमेवादाय संयमं निहन्ति यदि कदाचित्साधुभिरपि दानं दीयेत तदा दानार्थं सावधाहारादीनामपि स्वीकरणेन संयमव्याघातो भवेदतः साधो दानादिकं न कुर्वन्तीति शास्त्रमर्शदेति, तथा यदि साधुर्दानं दद्यात् तदा अधैको याचका समागतः परदिने द्वौ ततः परसने के समागमिष्यन्तीति 'तेभ्यः सर्वेभ्यो दानं ददतः साधोभित्रैव दुर्लभा स्यादिति, तथा यदि साधुर्दानकी शुद्धि करने वाली नहीं है। सर्वज्ञों ने ऐसा उपदेश पहले नहीं दिया है। तात्पर्य यह है कि साधुओं के पास धन-धान्य नहीं होता। वे -अकिंचन होते हैं। निर्दोष भिक्षा करके ही वे अपने संयम का निर्वाह करते हैं । यदि वे भी दान देने लगें तो उन्हें सावद्य आहार आदि भी स्वीकार करना पडेगा और ऐसा करने से संयम में बाधा उत्पन्न होगी। इस कारण साधु दान नहीं देले । यह शास्त्र की मर्यादा है । इसके अतिरिक्त साधु यदि दान देने लगे तो प्रथम दिन एक याचक आएगा तो दूसरे दिन दो आ जाएँगे और फिर उनकी भीड़ लग जाएगी। परिणाम यह होगा कि सबको दान देते देते साधु के लिए भिक्षा ही दुर्लभ કરનારી નથી.” સર્વજ્ઞોએ એવો ઉપદેશસાધુઓએ દાન દેવું જોઈએ એ ઉપદેશ આપ્યો નથી. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે સાધુની પાસે ધન, ધાન્ય, હોત નથી તેઓ અકિંચન હોય છે. નિર્દોષ ભિક્ષા ગ્રહણ કરીને તેઓ પિતાને સંયમન નિર્વાહ કરે છે. જે તેઓ પણ દાન દેવા માંડે, તે તેમણે પણ સાવધ આહાર અદિને પણ સ્વીકાર કરે પડે અને એમ કરવાથી સંયમની વિશુદ્ધિ જાળવી શકાય નહીં. તે કારણે સાધુ દાન દેતા નથી. શાસ્ત્રોએજ આ મર્યાદા મૂકી છે. જે સાધુ દાન દેવાનું શરૂ કરે, તો પહેલે દિવસે એક યાચક આવે, બીજે દિવસે બે યાચક આવે, અને દિનપ્રતિદિન તેમની સંખ્યા વધતી જ જાય. તેથી તેમને દાન દેતાં દેત સાધુને પિ.તાને માટે તે કાઈપણ ભોજન સામગ્રી વધે જ નહી! સાધુ સંયમયાત્રાના નિર્વાહને માટે આહારની યાચના Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ उ.३ वादपराजितान्यतीर्थिकधृष्टताप्र० १२५ दधात् तदा संयमयात्रानिहाथै याचिताहारादेव दानेन अदत्तादानमृषाभापिस्वदोषौ स्याताम् यतः दात्रा साधुम्प एव दत्तं न तु अन्यस्मै दातुमाहारादिकं दत्तमत इमो दोषौ भवतः इति ॥१६॥ मूलम्-सव्वाहि अणुजुत्तीहिं अयंता जवित्तये । तओ वायं णिराकिच्चा झुंनो वि पग्गभिया ॥१७॥ - छाया--सर्वाभिरनुयुक्तिभिरशक्नुवन्तो यापयितुम् । ततो वादं निराकृत्य ते भूयोऽपि प्रगलिमताः ॥१७॥ अन्वयार्थः-(सव्वाहि अणुजुत्तीहि) सर्वाभिरनुयुक्तिभिः सर्वै रेव प्रमाणभूत हेतुदृष्टान्तः (जवित्तये अचयंता) यापयितुमशक्तुवन्तः स्वकीयपक्षं-स्थापयितुमसमर्थी हो जाएगी। साधु संघम यात्रा के निर्वाह के लिए आहार की याचना करता है। उसमें से यदि दान दे तो उसे अदत्तादान और मृषावाद दोष होगे । दाता साधु के उपभोग के लिए आहार आदि देता है, दूसरों को दान देने के लिये नहीं देता-दूसरों को तो वह अपने हाथ से स्वयं दे सकता है। ऐसी स्थिति में साधु यदि अन्य याचकों को 'दान देने लगे तो उसे पूर्वोक्त दोनों दोषों का भागी होना पडेगा॥१६॥ शब्दार्थ--'सवाहिं अणुजुत्तीहिं-सर्वाभिरनुयुक्तिभिः सब युक्तियों बारा 'जवित्तये अचयंता-यापयितुमशक्नुवन्तः' अपने पक्ष की सिद्धि . न कर सकते हये 'ते-ते' वे अन्य तीर्थी 'वायं णिराकिच्चा-वाद निराकृस्य' वाद को छोड़कर 'भुजो वि-भूयोपि' फिर से 'पगभियामंगल्भिताः' स्वपक्ष की स्थापना करने की पृष्टता करते हैं ॥१७॥ ___अन्वयार्थ-सभी युक्तियों से अपने पक्ष को सिद्ध करने में अस.. કરે છે. જે તે આહારનું દાન દે, તે તેને અદત્તાદાન અને મૃષાવાદ દેશે લાગે સાધુના ઉપભેગને માટે દાતા આહારાદિ દે છે, અન્યને દાન આપવાને માટે દેતે નથી જે અન્યને આપવું હોય તો તે પોતાને હાથે જ આપી શકે છે. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં દાતાએ પિતાને અર્પણ કરેલું દાન, જે સાધુ બીજા કેઈને આપી દે તે તેને અદત્તાદાનદેષ અને મૃષાવાદદોષના ભાગીદાર બનવું પડે છે. ગાથા ૧૬ साथ-सव्वाहि अणुजुत्तीहिं-सर्वाभिरनुयुक्तिभिः' मधी युतिय द्वारा 'जवित्तये अचयंता-यापयितुमशक्नुवन्त' पाताना पक्षनी सिद्धि न री शतi , 'वे-ते. मन्यताथा 'वायं णिराकिच्चा-वादं निराकृत्य' वाहन छोडीने 'मुज्जोवि -भूयोपि' ३शन 'पगभिया-प्रगल्भिता' पोताना पक्षनी स्थापना ४२वानी धृष्टता ४३ छे. ॥१७॥ સૂવાથ–સઘળી દલીલેનો ઉપયોગ કરવા છતાં પણ જ્યારે તે અન્ય Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूत्रकृताङ्गसूत्र गोशालकान्यतीथिकादयः, (ते) ते अन्यदर्शनिनः (बायं णिराकिच्चा) वादं निरा. कृत्य सम्यग् हेतुदृष्टान्तपूर्वकवाद परित्यज्य (भुजो वि) भूयोपि पुनरपि (पगमिया) प्रालिमता आक्रोशादिना धृतां गता इति ॥१७॥ ___टीका-सव्वाहि अणुजुत्तीहि' सर्वाभिरनुयुक्तिभिः शास्त्रप्रमाणहेतुदृष्टान्तः 'जवित्तए' यापयितुम् अवयंता' अशक्नुवन्तः स्वपक्षं हेतुदृष्टान्तसत्पमाणैः स्था. पयितुम् अशक्नुवन्तः परतीथिकाः, स्वपक्षं हेतुदृष्टान्तः समर्थयितुम् ते गोशालकादि मतानुसारिणः प्रमाणभूतैः सर्वैहेतुयुक्तिदृष्टान्तादिभिरात्मानं स्वपक्षे संस्थापयितु. - मस्समर्थाः, युक्त्यादिभिरपि स्वपक्षस्य साधने सामर्थ्याऽभावात् । ते अन्यमतानु. - यायिनः, "वायं णिराकिच्चा' वादं निराकृत्य समीचीनयुक्तिवादिद्वारा, प्रवर्तः - मानवाद परित्यज्य, 'भुज्जो वि पग्गभिया' भूयोपि पगल्भिताः पुनरपि अशुभ- वचनोच्चारणयष्टिमुष्टयादिभिः प्रहरन्तो धाष्टयमासादिताः सन्तः एवं कथयन्ति । तथाहि-'अष्टांगनिमित्तं ज्ञेयं सर्वलोकोपकारकम् ।। - ... स एव धर्मो मन्तव्यो लोककल्याणकारकः ॥१॥' मर्थ होकर वे अन्य दर्शनी वाद का परित्याग करके पुनः आक्रोश करने लगते हैं ॥१७॥ . . टीकार्थ- जब पूर्वोक्त अन्यसतानुयायी शास्त्रप्रमाण, हेतु और - दृष्टान्त के द्वारा अपने पक्ष की पुष्टि करने में असमर्थ हो जाते हैं, उस समय वे वाद का त्याग कर देते हैं अर्थात् समीचीन युक्तियों एवं तर्को के अभाव में चालूवाद से किनारा काट लेते हैं और धृष्टता का आश्रय लेते हैं । वे अप्रशस्त वचनों का प्रयोग करते हैं, यष्टि (लकड़ी) या मुष्टि से प्रहार करते हैं और इस प्रकार कहने लगते हैं सम्पूर्ण लोक का उपकार करने वाला अष्टांग निमित्त ही जानने योग्य है । उसी को धर्म मानना चाहिये। वे यह भी कहते हैं-"अष्टांगनिमित्तं जेयं" इत्यादि। મતવાદીએ પિતાના પક્ષનું સમર્થન કરી શકવાને અસમર્થ બને છે, ત્યારે તેઓ વાદવિવાદને પરિત્યાગ કરીને આક્રોશ (ક્રોધ) કરવાને લાગી જાય છે. ૧૭ ટીકાર્થ-જ્યારે પૂર્વોક્ત અન્ય મતવાદી શાસ્ત્ર પ્રમાણ, હેતુ અને દૃષ્ટાન્ત દ્વારા પિતાના પક્ષનું (મતનું) સમર્થન કરવાને અસમર્થ થઈ જાય છે, છે ત્યારે તેઓ વાદને ત્યાગ કરીને ધૃષ્ટતાનો આશ્રય લે છે. એટલે કે તેમના મતનું પ્રતિપાદન કરવા માટે યોગ્ય દુષ્ટો અને દલીલેને આશ્રય લેવાને બદલે અપ્રશસ્ત વચનને આશ્રય લે છે અને કઈ કઈ વાર ક્રોધાવેશમાં આવીને લાકડી અથવા મુષ્ટિ પ્રહરનો આશ્રય લે છે અને આ પ્રમાણે કહે છે. 'अम्टांग निमित्तं ज्ञेयं त्या-- Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t समयार्थबोधिनो टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ३ वादपराजितान्यतीर्थिक धृष्टता प्र० १२७ अत्र धर्मविचारे हेत्वादिद्वारेण निर्णयो न विधेयः किन्तु प्रत्यक्ष एव बहुजनसंगततया तथा राजाद्याश्रयतया 'अयमेव सदीयो धर्मः' श्रेयसे, न तु धर्मान्तरमिति विवदन्ते । अत्रोत्तरम् - यदि बहवोपि - - अन्धा रूपं न पश्यन्ति घटादौ, किन्तु -एकोऽपि - अनन्धः पश्यति रूपम् । किं तावता घटे रूपाभावम् उत्प्रेक्षितुं शक्नोति कोsपि तथैव वातः बहवोऽपि सर्वज्ञप्रतिपादितं धर्म न जानन्ति । किं तावता - 'न स धर्म:' इति प्रतिपादयितु शक्ष्यन्ति ? केऽपि ? इति । तथोक्तं'एरंडक रासी जहा य गोसीसचंदणपलस्स | मोल्ले न होज्ज सरिसो कित्तियमेत्तो गणिज्जंतो ॥१॥ धर्म के विषय में हेतु आदि के द्वारा निर्णय नहीं करना चाहिये । हमारा धर्म बहुसंख्यक लोगों द्वारा मान्य है और उसे राजादि का आश्रय प्राप्त है, अतएव वही कल्याणकारी है ।' इसका उत्तर यह है बहुतेरे अन्धे घट आदि में रहे हुए रूप को नहीं देख पाते किन्तु एक ही सूझता मनुष्य उस रूप को देखता है। इतने मात्र से क्या कोई घट में रूप के अभाव की कल्पना कर सकता है ? इसी प्रकार अज्ञानी होने के कारण अधिकांश लोग सर्वज्ञ' प्रतिपादित धर्म को नहीं जान पाते । क्या इसी से यह कहा जा सकता है कि वह धर्म ही नहीं है ? कहा भी है- " एरण्डकटुरासी" इत्यादि । ' एरंड की लकड़ियों का ढेर होने पर भी वह एक पल प्रमाण गोशीर्ष चन्दन के मूल्य की बराबरी नहीं कर सकना, चाहे उसे कितना ही क्यों न गिना जाय ॥ १ ॥ *આખા સંસારનુ હિત કરનાર અષ્ટાંગ નિમિત્ત જ જાણવા ચેાગ્ય છે. તેને જ ધમ માનવે જોઇએ.’ વળી તેઓ એવુ' કહે છે કે-ધર્મની ખાખતમાં હેતુ આદિ દ્વારા નિષ્ણુય કરવે। જોઇએ નહી. અમારા ધર્મને લેાકેાની મેાટી સખ્યાએ સ્વીકાર્યું છે અને તેને રાજ્યાશ્રય પણ મળ્યેા છે, તેથી તેને જ કલ્યાણકારી માનવેા જોઇએ.’ J: આ પ્રકારના તેમના કથનનો આ પ્રમાણે ઉત્તર આપવે જોઇએ-ઘણાઆંધળાંએ ઘડા આદિના રૂપને જોઇ શકતા નથી, પરન્તુ એક જ દેખતે માણસ તે રૂપને જોઇ શકે છે. શુ' તે કારણે ઘટ આદિમાં રૂપને અભાવ હાવાની કલ્પના કરવી ન્યજગી છે ખરી? એજ પ્રમાણે અધિકાંશ લેાકેા અજ્ઞાની હોવાને કારણે સજ્ઞ પ્રતિપાદિત ધમને જાણી શકતા નથી. શુ તેથી એવું” કહી શકાય છે કે તે ધમ જ નથી ? કહ્યુ પણ છે કે 'एरण्डकटूरासी' त्याहि એરડાના લાકડાઓનો એક ઢગલા હાય તે - પણ તે એક પલપ્રમાણુ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १२८ सूत्रकृतागो तहवि गणणातिरेगो जहरासी सो न चंदणसरिच्छो। तह निविण्णाण महाजणो विमोल्ले विसंवयति ॥२॥ एक्को सचक्खुगो जह अंघलयाणं सएहि बहुए हिं। होइ वरं दबो गहु ते बहुगा अपेच्छंता ॥३॥ एवं बहुगावि मूढा ण एमाण जे गईण याणंति । संसारगमणगुविल णिउणस्स य बंधमोक्खस्स ॥४॥ छाया-एरण्डकाष्ठराशियथा च गोशीपचन्दनपलस्य । मूल्ये न भवेत् सदृशा कियन्मात्रो गण्यमानः ॥१॥ तथापि गणनातिरेको यथा राशिः स न चन्दनसहशः। तथा निविज्ञानमहाजनोऽपि मूल्ये विसंवदते ॥२॥ एकः सचक्षुष्को यथा अन्धानां शतवहभि । भवति वरं द्रष्टव्यो नैव ते बहुका अप्रेक्षमाणाः ॥३॥ एवं बहुका अपि मृढा न प्रमाण ये गति न जानन्ति ।' संसारगमन गुपिलं निपुणस्य च वन्धमोक्षस्य ॥४॥१७॥ "तह वि गणणातिरेगो" इत्यादि । . गणना में अधिक वह ढेर जैले चन्दन के समान नहीं हो सकता, उसी प्रकार ज्ञानहीन बहुसंख्यक लोग भी ज्ञानवान् अल्पसंख्यको की परापरी नहीं कर मकते । वे लोग उसके मूल्य में विसंवाद करते हैं ॥२॥ . "एको सचखुगो जह" इत्यादि । एक नेत्रवान् पुरुष अनेक सैकड़ों अंघों से अच्छा समझना चाहिए। न देखने वाले बहुत से लोग अच्छे नहीं कहे जाते ॥३॥ ગશીર્ષ ચન્દનના મૂલ્યની બરાબરી કરી શકતા નથી, પછી ભલે તેની ગમે તેટલી કિંમત આંકવામાં આવતી હોય. ૧ 'तह वि गणणातिरेगो' त्याह પ્રમાણમાં માટે હોવા છતાં પણ તે એરંડાના લાકડાઓને ઢગલે જેવી રીતે ચન્દનના મૂલ્યની બરાબરી કરી શકતા નથી, એ જ પ્રમાણે જ્ઞાનહીન ઘણા લેકે પણ જ્ઞાનવાનું શેડા લેકની બરાબરી કરી શકતા નથી તે અન્ય મતવાદીઓ અનુયાયીઓની સંખ્યાને આધારે કઈપણ મતનું મૂલ્ય भावाम भूख ४२ छे. ॥२॥ . 'एक्को सक्खुगो जह' त्याह આંધળા ઘણા માણસે કરતા દેખતે એક પુરુષ વધુ મહત્વ ધરાવે છે. સેંકડો આંધળાએ દેખ્યા વિના વહુના રૂપનું જે વર્ણન કરે તેના કરતાં એક જ દેખવા માણસ દ્વારા વસ્તુના રૂપનું જે વર્ણન કરવામાં આવે, તે અધિક માનવા ચોગ્ય ગણાય છે. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ उ.३ वादपराजितान्यतीर्थिकधृष्टताप्र० १२२ मूलम् -रागंदोलाभिभूयप्पा मिच्छतेण अभिदुता। " आउस्ले सरणं जति टंकणा इंई ५०अयं ॥१८॥ * छाया--रागद्वेषाभिभूतात्मानः मिथ्यात्वेन अभिगुनाः। आक्रोशान् शरणं यान्ति टंकणा इव एवंम् ॥१८॥ 'अन्वयार्थ:-(रागदोसामियप्पा) रागद्वेषाभिभूतात्मानः येषामात्मानो रांगडेपाभ्यामाच्छादिताः (मिक उत्तेण अभिदुना) मिथ्यात्वेनाभिद्रुताः विपरीत . "एवं बहुगाचि मूढा" इत्यादि। इसी प्रकार बहुसंख्यक श्री मूह पुरुष प्रमाणभूत नहीं होते जो संसारगमन में वक्रगति को तथा बन्ध और मोक्ष की गति को नहीं जानते है ॥४॥१७॥ . शब्दार्थ--'रागदोसाभिभूयप्पा-रागद्वेषाभिभूतात्मानः' राग औरदेष से जिनका आत्मा छिपा हुआ है ऐसे तथा 'मिच्छत्तण अभिदता' मिथ्यात्वेन अभिद्रताः' मिथ्यात्व से भरे हुए अन्यतीर्थी-'आउसेआक्रोशान्' शास्त्रार्थ से पराजित होने पर असा प्रवचनरूप गाली आदि का 'सरणं जति-शरणं यान्ति' आश्रय ग्रहण करते हैं 'टंकणा-टडणां' पहाड़ में रहने वाली मलेच्छ जाती के लोग युद्ध में हार जाने पर 'पव्वयं इव-पर्वतम् इच' जैले पत का आश्रय लेते हैं ॥१८॥ ___ अन्वयार्थ-जो राग और द्वेष से युक्त हैं, मिथ्यात्व से व्याप्त है. वे बाद में पराजित होकर असभ्य भाषणरूप आक्रोश (क्रोध) की ... 'एव बहुगावि मुढा' या એજ પ્રમાણે જે માણસો સંસારમાં પરિભ્રમણ કરાવનાર કર્મબન્ધના સ્વરૂપને જાણતા નથી અને પ્રાપ્તિનો માર્ગ જાણતા નથી એવાં અનેક મૂઢ માણસોનાં વચનને પ્રમાણભૂત માની શકાય નહી (૪) ૧૭૫ Avail:-'रागदासाभिभूयापा-रागद्वेषाभिभूतात्मानः' २॥२॥ मन द्वषथा भनी साना पाये छ वा तथा 'मिच्छत्तेण अभिद्दा-मिथ्यात्वेन " अभिद्रुताः' भिथ्यात्वथा मरे भी अन्य तथा 'आउसे-आक्रोशान्' 'शा यथा ५२रित थवाथी असल्ययन३५ वगेरेना 'सरण जंति-शणयान्ति' माश्रय ४२ 2. 'टंकणा-टकणा' ५९मा २३वावाणी छ तीना सो युद्धमा डारी तय त्यारे 'पक्यं इव-पर्वतम् इव' २वी रीत પર્વતને આશ્રય લે છે ૧૮ સૂત્રાર્થ –જે લકે રાગ અને દ્વેષથી યુક્ત હોય છે અને મિથ્યાત્વથી ભરેલા હોય છે, તેઓ વાદમાં પરાજિત થવાથી અસભ્ય વચને રૂપ આક્રોશ . सू० १७ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे घोधव्यासाः वादे पराजिताः सन्तः (आउसे) आक्रोशान् असभ्यवचनरूपान् (सरण जंति) शरणं यान्ति (टंकणा इव) टंकण : पर्वतनिवासिनो म्लेच्छजातीयाः (पवयं इव) पर्वतमिव-यथा युद्धे पराजिता स्लेच्छाः पर्वतमाश्रयन्ति तथा वादे पराजिताः परतीथिका आक्रोशरचनमाश्रयन्तीति ॥१८॥ टीका--'रागदोसाभिभूयप्पा' रागद्वेषाभिभूतात्मानः राग:-भीत्यात्मक द्वेषः-अभी तः, ताभ्याम् अभिभूतः आच्छादित आत्मा येषां ते रागद्वेपाभिभूतास्मानः । तथा-'मिच्छत्तेण अमिददुता' मिथ्यात्वेनाभिद्रुताः मिथ्यात्वेन विपर्यस्तमत्या अभिद्रुताः व्याप्ताः, अन्यवादिनः युक्तितर्कपमाणादिभिः स्वपक्षस्थापनेऽसमर्थाः सन्तः । 'आउस्से' आक्रोशानभमभ्यत्रचनरूपान् दण्डादिभिश्च 'सरणं' शरणम् 'जति' यान्ति, तानेवाश्रयन्ते । "इच' यथा 'टंकणा' पर्वते विद्यमानाःम्लेच्छ जातीयाः युद्धादौ पराजिताः सन्तः १० पर्वतमेव आश्रयन्ते । रागद्वेषाभिभूतात्मानो मिथ्यात्वोपहतमानसाः मंदा वादिनोऽसभ्यवचनान्येव आश्र यन्ते युक्त्याऽमिजेतुमपमर्थाः सन्तः, यथा म्लेच्छजातीया युद्ध पराभूताः पर्वत शरणमंगीकुर्वन्ति तद्वदिमेपोऽति भावः ॥१८॥ शरण लेने हैं, जैसे टकण पर्वन के निवासी म्लेच्छ युद्ध में पराजित होकर पर्वत का आश्रय लेते हैं ॥१८॥ ___टीकार्थ--प्रीतिरूप राग और अप्रीतिरूप द्वेष से जिनकी आत्मा अभिभूत हो गई है तथा जो मिथ्यात्व से युक्त हैं, ऐसे अन्धमतावलम्बी जब युक्ति, तर्क और प्रमाण आदि के द्वारा अपने पक्ष की सिद्धि करने में असमर्थ हो जाते है तब वे आक्रोश का आश्रय लेते हैं अर्थात् असभ्य वचनों का प्रयोग करते हैं अधवा दण्ड आदि का प्रहार करने पर उतारू हो जाते हैं। जैले पर्वत के निशमी म्लेच्छ जातीय पुरुष युद्ध में पराजित होकर पर्वत का ही सहारा लेते हैं । (ક્રોધ)ને આશ્રય લે છે જેવી રીતે પર્વતનિવાસી ઑો યુદ્ધમાં પરાજય થવાથી પર્વતને આશ્રય લે છે, એ જ પ્રમાણે તે પરમતવાદીઓ વાદમાં પરાજિત થવાથી આકાશને આશ્રય લે છે. ટીકાઈ––જેવી રીતે પર્વતમાં રહેનારા મ્લેચ્છ યુદ્ધમાં હારી જવાથી " પર્વતને આશ્રય લે છે, એજ પ્રમાણે પ્રીતિરૂપ રાગ અને અપ્રીતિ રૂપ ષથી યુક્ત અને મિથ્યાત્વ રૂપ અંધકારે જેમની વિવેકબુદ્ધિને આચ્છાદિત કરી નાખી છે એવા અન્ય સતવાદીએ જ્યારે દલીલે, તર્ક અને પ્રમાણ આદિ દ્વારા પિતાના પક્ષનું સમર્થન કરવાને અસમર્થ થાય છે ત્યારે આક્રોશને આશ્રય લે છે, એટલે કે અસભ્ય વચનને પ્રવેગ કરે છે અથવા Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • समयार्थवोधिनी टीका प्र शु. अ. ३ उ. ३ वादिशास्त्रार्थे समभावोपदेशः १३१ मूलम् - चहुं गप्पगपाई कुंजा असमाहिए । विरुझे ना तेणं तं तं समीयरे ॥ १९ ॥ जेने छाया - बहुगुण कल्पानि कुर्यादात्मसमाधिकः । येनाsन्यो न विरुद्वेत तेन तत्तत्समाचरेत् ॥ १९॥ अन्वयार्थः--(अत्तसमाहिए) आत्मसमाधिकः = प्रसन्नमनाः मुनिः (बहुगुणप्प तात्पर्य यह है कि जिनकी आत्मा रागद्वेष से मलीन हो चुकी है और जिनका मानस मिथ्यात्व से मलीन हैं, ऐसे मन्दवादी अन्त में असभ्य वचनों का आश्रय लेते हैं, क्योंकि वे युक्ति के बल से विजयी नहीं हो सकते। जैसे म्लेच्छ लोग युद्ध में पराजित होकर पर्वत की शरण ग्रहण करते हैं ॥१८॥ शब्दार्थ - 'अत्तसमाहिए- आत्मसमाहितः' प्रसन्न चित्त वाला मुनि बहुगुणप्पगप्पाईं - बहुगुणप्रकल्पानि' परतीर्थि जनों के साथ शास्त्रार्थ के समय जिनसे बहुत गुण उत्पन्न होते हैं ऐसे अनुष्ठानों को 'कुज्जाकुर्यात् ' करे 'जेण येन' जिससे 'अन्ने- अन्वे' दूसरा मनुष्य 'णो विरुज्मज्जा - न विरुध्येत ' अपना विरोध न करे 'तेर्ण-तेन' इस कारण से 'तं तं - तत् तत् ' उस उस अनुष्ठान का 'समायरे - समाचरेत्' आचरण करे।। १.९ ॥ अन्वयार्थ - अन्यतीर्थिकों के साथ वाद करते समय प्रसन्न मनપ્રતિપક્ષીને લાકડી આદિ વડે મારવા પણુ દાડે છે. આ કથનનેા ભાવાથ એ છે કે જેમના આત્મા રાગદ્વેષથી અને બિન્ધ્યાત્મથી મલીન થઇ ચુકયે છે; એવા મન્દબુદ્ધિ અન્ય મતવાદીએ જ્યારે તક આદિ દ્વારા પેાતાની માન્યતાને સિદ્ધ કરી શકતા નથી, ત્યારે અસભ્ય વચનેા તથા મારામારીને આશ્રય લે છે, એજ પ્રમાણે તે મન્દમતિ અન્યમતવાદીએ અસભ્ય વચનાને આશ્રય લે છે!ગાથા ૧૮૫ 'शहाथ' – 'अत्तसमाहिए - आत्मसमाहितः प्रसन्न शित्तवाणा भुनि 'बहुगुणपगप्पा - बहुगुणप्रकल्पानि' परतीर्थ भालुसोनी साथै शास्त्रार्थना समये नाथी षडु गुगु उत्पन्न थाय छे, सेवा अनुष्ठानाने 'कुल्मा-कुर्यात् ४२ जेण येन' नाथी 'अन्ने - अन्ये' जीन भाग से। 'णो विरुज्झेना-न विरुध्येत ' पोताना विरोध ना अरे 'वेण - वेन' या अरथी ततं तत् तत् ' ते ते अनुष्ठा - } ' समाचरे - समाचरेत्' आयर रे ॥१७॥ सूत्रार्थ —अन्यतीर्थि। साथै वाह (विवाह) उश्ती, वसते भुनियो Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફેર सूत्रकृतासूत्रे गप्पाई) बहुगुणप्रकल्पानि = परतीर्थिकैः सह वादसमये येन हेतुदृष्टान्तादिना बहवोगुणा उत्पन्ते तादृशानुष्ठानम् (कुजा) कुर्यात् (जेग) येन (अग्ने) अन्य परतीर्थिकः (जो विरुज्झेज्जा) न विरुद्वयेव - विरोधं न कुर्यात् (तेण ) तेन कारणेन (तं तं) तत् तत् अनुष्ठानं (समायरे ) समाचरेत् कुर्यादिति ॥ १९ ॥ टीका- 'अत्तसमाहिए' आत्मसमाधिका, आत्मनः चित्तस्य समाधिः एकाव्यं यस्य सः आत्मसमाधिकः मंशान्तहृदयः साधुः 'बहुगु गप्पगपाई' बहुगुणप्रकल्पानि, बहवो गुणाः स्वपक्षसिद्धिपरमतदूषणोद्भावनादयो माध्यस्थ्यादयो वा प्रकल्पन्ते, प्रादुर्भवन्ति आत्मनि यादृशानुष्ठानेषु तानि बहुगुणप्रकल्पानि, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपन्यनिगमनानि मध्यस्थवचनमकाराणि वा अनुष्ठानानि साधुर्वादिकाले 'कुज्जा' कुर्यान् - 'जेग' येनानुष्ठितेन भाषितेन वा परतीर्थिको धर्मश्रवणादौ प्रवृतः । वाला मुनि ऐसे हेतु तथा दृष्टान्त आदि का प्रयोग करे जिससे अनेक गुणों की प्राप्ति हो अर्थात् स्वपक्ष की सिद्धि और परपक्ष का निराकरण हो । मुनि ऐसा आचरण करें जिससे अन्यतीर्थी विरोध न करें ||१९|| टीकार्थ -- जिसके चित्त में समाधि अर्थात् एकाग्रता हो, वह आत्मसमाधिक कहलाता है । इसका अर्थ है प्रशान्त हृदय साधु । ऐसा साधु इस प्रकार के वचनों का प्रयोग करे जिनसे अनेक गुणों की प्राप्ति हो, अर्थात् अपने पक्ष की सिद्धि हो, परत में दूषणों का उद्भावन हो और मध्यस्थता का भाव प्रकट हो । ऐसे ही प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन आदि का प्रयोग करें । उसे ऐसे वचनों का भी प्रयोग करना चाहिए जिससे अन्यतीर्थिक धर्मश्रवण में प्रवृत्त ! ખિલકુલ ક્ષે’ભ પામ્યા વિના પ્રસન્નચિત્તે વિવાદ કરવા જોઈએ. તેણે એવાં દૃષ્ટાન્ત, તર્ક અને પ્રમાણેાના પ્રયાગ કરવા જોઇએ કે જેથી પેાતાના પક્ષની સિદ્ધિ અને પરપક્ષનુ નિરાકરણ થઈ જાય. વાદ કરતી વખતે મુનિએ એવું આચરણ કરવું જોઇએ કે જેથી અન્ય તીથિ કે પણ તેના વિરોધ ન કરે ૫૧૯ા ટીકા —જેના ચિત્તમાં સમાધિ હાય એટલે કે જે જેનામાં ચિત્તની એકાગ્રતા હાય છે, તેને આત્મસમાધિ કહે છે. આત્મસમાધિ એટલે પ્રશાન્ત થવાળા સાધુ એવા સાધુએ અન્ય મતવાદીએ સાથે વિશ્વાઢ 'કરતી વખતે એવાં વચનાના પ્રયાગ કરવા જોઇએ કે જેના દ્વારા અનેક ગુણુાની પ્રાપ્તિ થાય. એટલે કે તેશે એવાં પ્રતિજ્ઞા, હેતુ, ઉદાહરણુ, ઉપનય અને નિગમન અાદિના પ્રચેગ કરવા જોઈએ કે જેથી પેાતાના પક્ષને સિદ્ધ કરી શકાય અને પરમતના દૂષણે પ્રકટ કવાને કારણે પરતનું ખુડન થઈ ' Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ.३ वादिशास्त्रार्थ समभावोपदेशः १३३ 'अण्णे' अन्यः ‘णो विरुझेजा' नो विरुद्धयेत स्वविरोधी न भवेत् । 'तं तं समा. यरे' तत्तत्समाचरेत् तादृशं तादृशं पराविरोधकरणेन तत्तविरुद्धमनुष्ठानमविरुद्धवचनं वा. समाचरेत् , कुर्यादिति । परतीयिकैः सह विवादं कुर्वन समाहितान्तः करणः साधुर्यन स्वपक्षसिद्धिः परपक्षनिराकरणं भवेत् ताहमतिज्ञा हेतुदृष्टान्तोपः नयनिगमनानि प्रतिपादयेत् । तथा यादृशकार्यकरणेनाऽन्यो विरोधी न भवेत् , अपि तु स्वपक्षाश्रितो भवेत् , तादृशाऽनुष्ठानं वचनं प्रतिपादयेदिति भावः ॥१९॥ । तदित्यं परमतं व्युदस्योपसंहारे स्वमतं व्यवस्थापयितुं सूत्रकारः आह । 'इमं धम्प्रमादाय' इत्यादि। मूकम्-इमं च धर्मममादाय कालवेण पंवेइयं । . कुंजा सिक्खं गिलाणस्ल अगिलाए समाहिएं ॥२०॥ 'छाया--इमं च धर्ममादाय काश्यपेन प्रवेदितम् । . कुर्याद भिक्षुः ग्लानस्य अग्लान श्च समाहितः॥२०॥ -.... हो और अन्य लोग अपने विरोधी न बन जाएँ । ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए। - आशय यह है कि परतीर्थिकों के साथ विवाद करते समय समाधि युक्त चित्तवाला साधु ऐसे प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन का प्रयोग करे जिलले अपने पक्ष की स्थापना हो और विरोधी पक्ष का निराकरण हो । साथ ही उस साधु को ऐसा व्यवहार और वचनप्रयोग करना चाहिए जिससे प्रतिपक्षी विरोधी न बने किन्तु अपने पक्ष को स्वीकार कर ले ॥१९॥ "જય અને પરમતવાદીઓને પણ તેમના મનમાં રહેલી ભૂલનું ભાન થઈ જાય, તેણે એવાં વચનને પ્રયોગ કરવે જોઈએ કે જેથી અન્ય મતવાદીઓ તેના વિરોધી બનવાને બદલે તત્વને સમજવાને પ્રવૃત્ત બને. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે પરીથિ કેની સાથે વિવાદ કરતી વખતે સમાધિયુક્ત ચિત્તવાળા સાધુએ એવાં તર્ક, હેતુ, ઉદાહરણ આદિને પ્રયોગ કરવો જોઈએ કે જેથી પોતાના પક્ષનું સમર્થન થાય અને વિરોધીએના પક્ષનું નિરાકરણ થઈ જાય. વળી સાધુનું વર્તન એવું હોવું જોઈએ કે જેથી પ્રતિપક્ષી વિરોધી ન બની જાય પણ પિતાના (સાધુના) પક્ષને वीर ४ से.॥३८ . . . Arma Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ सूत्रकृताङ्गसूत्र ___ अन्वयार्थ:--(कासवेणं) काश्यपेन बद्धर्मानस्वामिना (पवेइय) प्रवेदितं मकर्षेण वेदितं कथितम् द्वादशपरिपदि (इमं च धम्ममादाय) इमं धर्ममादायम वक्ष्यमाणं प्राणातिपातविरमणादिरूपं धर्म गृहीत्वा (समाहिए) समाहितः प्रसन्नचेताः (भिक्खु) भिक्षुः (गिलाणस्स) ग्लानस्यापटोर परस्य (अगिलाए) अग्लान: सन् (कुज्जा) कुर्यात् वैयावृत्त्यं कुर्यादिति ॥२०॥ ____टीका--'कासवेणं' काश्यपेन काश्यपगोत्रोत्पन्नेन समुत्पन्न केवलज्ञानवता महावीरस्वामिना 'पवेइयं प्रवेदितं प्रकर्षेण वेदितं कथितं द्वादशपरिषदि इमं च इस प्रकार परपक्ष को निराकरण करके सूत्रकार उपसंहार में अपने मत की सिद्धि करने के लिये कहते हैं 'इमं च धम्नमादाय' इत्यादि। ... शब्दार्थ--'कासवेणं-काश्यपेन' काश्यप गोत्र वाले वर्धमान महावीर स्वामी ने 'पवेड्यं-प्रवेदितम्' कहा हुआ 'हम च धम्ममादाय-हमं धर्ममादाय' यह वक्ष्यमाण धर्म को स्वीकार करके 'समाहिए-समाहितः' प्रसन्नचित्त भिक्खू-भिक्षुः साधु 'गिलाणस्स-ग्लानस्थ' रोगी साधु का 'अगिलाए-अग्लान: सन्' ग्लानिरहित होकर 'कुज्जा-कुर्यात्' वैयावृश्य करे ॥२०॥ ____ अन्वयार्थ--काश्यप भगवान् वर्द्धमान के द्वारा प्रतिपादित इस धर्म को अंगीकार करके समाधियुक्त षिक्षु ग्लान (रुग्ण) मुनि की ग्लानि हीन होकर वैधावृत्त करे ॥२०॥ . टीकार्थ--काश्यप गोत्र में उत्पन्न तथा केवलज्ञान से सम्पन्न श्री महावीरस्वामी ने बारह प्रकार की परीषद् में इस धर्म का निरूपण : આ પ્રકારે પરપક્ષનું નિરાકરણ કરીને સૂત્રકાર આ ઉદેશાનો ઉપસંહાર કરતા પોતાના મતનું સમર્થન કરવા માટે આ પ્રમાણે કહે છે – _ 'इमं च धम्ममादाय' त्याह शहाथ-'कासवेणं-काश्यपेन' ४श्य५ गोत्र. १ भान महावीर ३१ भाये 'पवेइयं-प्रवेदितम्' हे 'इमं च धम्ममादाय-इमं धर्ममादाय' । १६५मा मन ५२ ४शन 'समाहिए-समाहितः' प्रसन्नचित्त 'भिक्खू-भिक्षुः' साधु 'गिलाण स्स-ग्लानस्य' २०ी साधुनी 'अगिलाए-अग्लान सन्' निहित यन 'कुम्जा-कुर्यात्' वैय कृय ४२. ॥२०॥ * સૂત્રાર્થ-કાશ્યપ ગોત્રીય ભગવાન વર્ધમાન દ્વારા પ્રતિપાદિત આ ધર્મને અગીકાર કરીને સમાધિયુક્ત સાધુએ પ્લાન બીમાર) મુનિની ગ્લાનિ રહિત ચિત્તે (પ્રસન્ન ચિત્ત) સેવા કરવી જોઈએ પર Lટીકર્થ-કાશ્યપ ગેત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલા, કેવળજ્ઞાન સંપન્ન મહાવીર સ્વામીએ બાર પ્રકારની પરિષદમાં જે ધર્મનું નિરૂપણ કર્યું છે, તેને જ ધર્મ કહેવાય Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्थबोधिनी टीका प्र. अ. अ. ३ उ. २ वादिशास्त्रार्थे समभावोपदेशः १३५ इमं वक्ष्यमाणम् 'धम्मं' धर्मम् - धरतिदुर्गतौ प्रपततः प्राणिनः शुभस्थाने च धत्ते इति धर्मस्तम् । अथवा - अभ्युदयनिःश्रेयससाधको धर्मः तादृशम् - धर्मम् श्रुतवा-' रित्राख्यम् 'आदाय' आदाय गृहीला 'समाहिए' समाहितचित्तः 'भिक्खु' भिक्षु: साधु: ' गिळाणस्स ' ग्लानस्य = ज्वरादि पीडितस्य साधोः 'अगिलाए' अग्लानःग्लानिरहितो भूत्वा 'कुज्जा' कुर्यात् वैयावृत्यादिकम् ॥२०॥ मूलम् - संखाय पेसलं धम्मं दिट्टिमं परिनिबुडे । उवर्सगे नियमित्ता आमोक्खीय परिवएजीसि ॥ २१ ॥ ॥ ततीय अज्झयणस्स तइओ उद्देसो समन्तो ॥ तिमि ॥ छाया -- संख्याय पेशलं धर्म दृष्टिमान् परिनिर्वृतः । उपसर्गान् संनियम्य आमोक्षाय परिव्रजेत् ||२१|| इति ब्रवीमि ।।. किया है वह 'धर्म' कहलाता है । अथवा जिससे अभ्युदय अर्थात् स्वर्ग और निश्रेयस अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है, वह धर्म कहलाता है । ऐसा धर्म श्रुतरूप और चारित्ररूप है । इस धर्म को धारण करके समाधियुक्त चितवाला मुनि ज्वर आदि से ग्रस्त दूसरे मुनि की ग्लानि से रहित होकर वैयावृत्य आदि करें ||२०|| " शब्दार्थ- 'दिडिमं दृष्टिमान्' जीवाजीवादि पदार्थ के स्वरूप को रूप से जानने वाला 'परिनिन्धुडे - परिनिर्वृतः 'राग द्वेषवर्जित शांत मुनि 'पेसलं धम्मं - पेशलं धर्मम्' उत्तर श्रुतचारित्ररूप धर्म को संखाय - संख्याग' जानकर' उवसग्गे -उपसर्गान्' अनुकूल प्रतिकूल उपसर्गी को'नियामित्ता- नियम्य' अपने वश में करके 'आमोक्खाय - आमोक्षाय' मोक्षापर्यन्त ' परिवए-परिव्रजेत्' संगमका अनुष्ठान करें ॥ २१॥ छे. अथवा लेना द्वारा अभ्युदय ( स्वर्ग भने निःश्रेयसनी - भोक्षनी) आि થાય છે, તેને ધર્મ કહે છે. એવા ધમ શ્રુત ચારિત્ર રૂપ ધર્મ છે. આ ધને ધ રણુ કરીને સમાધિયુક્ત ચિત્તવાળા મુનિએ ગ્લાનિના ત્યાગ કરીને -પ્રસન્ન ચિત્તે, ત વ આદિ ખીમારીથી પીડાતા મુનિની સેવા કરવી જોઇએ રા शब्दार्थ - 'दिट्टिमं - दृष्टिमान्' वाव वगेरे पहार्थना स्व३पने यथार्थ ३५थी लघुवात्राणा 'परिनिब्बुडे - परिनिर्वृत' रागद्वेष व शांतभुनि 'पेसलं धम्म - पेशल धर्मम्' उत्तम श्रुत शास्त्रिय धर्मने 'संखाय - संख्याय' लगाने 'उसो- उपसर्गान्' अनुण प्रतिक्षण उपसगनि 'नियामित्ता- नियम्य' पोताने वशमां रीने 'आमोक्लाय - आमोक्षाय' भोक्षप्रासि पर्यंत (सुधि) 'परिव्वएपरिव्रजेत्' सयभनु अनुष्ठान रे ॥२१॥ I Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ 'सूत्रकृती सूत्रे - अन्वयार्थः -- (दिट्टिम) दृष्टिमान् यथावस्थितपदार्थपरिच्छेदवान- (परिनिब्बुडे) परिनिर्वृतः = रागद्वेषराहित्यांत् शान्तो मुनिः (पेसलं धम्मं ) पेशलं धर्मम् = सुश्लिष्टं श्रुतचारित्ररूपं धर्मम् (संवाय) संख्याय = ज्ञात्वा (उवसग्गे) उपसर्गान = अनुकूलघतिक्लान् (नियामित्ता) नियम्य = स्ववशे कृत्वा (आमोक्खाय) आमोक्षाय =मोक्षमाप्तिपर्यन्त (परिव्वए) परिव्रजेत् संयमानुष्ठानं कुर्यात् । 'चिमि' इत्यहं ब्रवीमि = कथयामीति ॥२१॥ 1 9 टीका - - ' दिडियं' दृष्टेमान् = जीवाजीवादिपदार्थानां यथावस्थितस्वरूपविषयकज्ञानवान् । 'परिनिब्बुडे' परिनिर्वृतः = रागद्वे परहितः सन् 'पेसलं धम्मं' पेशलं धर्मम् = मनोज्ञम् प्राणिनामहिंसादिमवृत्या मीतिकारणं धर्मं सर्वज्ञप्रणीतं श्रुतचात्रिभेदभिन्नम् | 'संखाय' संख्या = ज्ञात्वा 'आमोक्खाय' आमोक्षाय, निश्शेष कर्मक्षयपर्यन्तम् । 'वि' परिभ्रजेत् परि सर्वतः संयमानुष्ठानरतो भवेत् । ि : अन्वयार्थ -- पदार्थो के यथार्थ स्वरूप को जानने वाला अर्थात् सम्यग् दृष्टि तथा रागद्वेष से रहित होने के कारण शान्त मुनि इस सुन्दर धर्म को जानकर एवं उपसर्गों पर विजयी होकर मोक्षप्राप्ति पर्यन्त संयम का अनुष्ठान करें । त्ति बेमि - ऐसा मैं कहता हूं ॥ २१ ॥ टोकार्थ -- जो मुनि दृष्टिसम्पन्न है अर्थात् जीव अजीव आदि पदार्थो के वास्तविक स्वरूप का ज्ञाता है और राग द्वेष से रहित होने के कारण प्रशान्त है, वह प्राणियों की अहिंसा आदि में प्रवृत्ति कराने के कारण प्रीतिकर, सर्वज्ञवणीन, नचरित्र के भेद से भिन्न धर्म को जानकर समस्त कर्मों का क्षय होने तक संयम के परिपालन में निरत रहे । સૂત્રા—પદાર્થાંના યથાર્થ સ્વરૂપને જાણુનારા એટલે કે સમ્યગ્યેષ્ટિ તથા રાગદ્વેષથી રહિત હાવાને કારણે શાન્ત અને સમભાવયુક્તમુનિએ આ શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્માંને જાણીને અને પરીષહે અને ઉષસગે† પર વિજય પ્રાપ્ત કરીને, જ્યાં સુધી મેક્ષની પ્રાપ્તિ થાય ત્યાં સુધી સયમની આરાધના ४२वी लेई मे, 'चि वेमि' से हुं (सुधर्मा स्वाभी) ४हुँ छु ॥२१॥ ટીકા—જે મુનિ સમ્પૠષ્ટિવાળો છે-એટલે કે જીવ, અજીવ આફ્રિ પદાર્થાંના વાસ્તવિક સ્વરૂપને જાણકાર છે, અને રાગ અને દ્વેષથી રહિત હાવાને -કારણે પ્રશાન્ત છે, તેણે અહિંસા આદિમાં પ્રવૃત્તિ કરાવનાર હૈાવાને લીધે પ્રીતિકર, સજ્ઞ પ્રરૂપિત શ્રુત ચારિત્ર રૂપ ધર્મને જાણીને, સમસ્ત કર્મના ક્ષય થાય ત્યાં સુધી, સયમના પાલનમાં લીન રહેવુ જોઈએ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ उ.३ वादिशास्त्रार्थे समभाघोपदेशः १३७ वेमि' इति ब्रवीमि इति शब्दः समाप्त्यर्थकः सुधर्मास्वामी जंबुस्वामिनं कथयतिसर्वज्ञमुखात श्रुत्वा प्रतिपादयामि, न तु स्वकपोलकल्पनया कथयामि ॥२१॥ इति श्री विश्वविख्यातजगवल्लभादिपदभूपितबालब्रह्मचारि 'जैनाचार्य पूज्यश्री घासीलालबतिविरचितायां श्री "समयार्थबोधिन्याख्यायां" , " व्याख्यायां तृतीयाध्ययनस्य तृतीयोदेशका समाप्तः ॥३-३॥ 'त्ति वेमि' यह शब्द समाप्ति का सूचक है । सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं-हे जम्बू भगवान् के मुख से सुनकर में यह प्रतिपादन कर रहा हूं, अपनी बुद्धि से नहीं कहता हूं ॥२१॥ जैनाचाय जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत 'सूत्रकृतानसून की समयार्थबोधिनी व्याख्या के तीसरे अध्ययन का ॥तुतीय उद्देशक समाप्त ३-३ ॥ ' 'त्ति बेमि' २0 Avat देशी समातिना सूय छे. सुधर्मा स्वामी જંબૂ સ્વામીને કહે છે કે “હે જબ્બ! આ બધી વાત મેં ભગવાનના શ્રીમુખે સાંભળેલી છે. સર્વજ્ઞ પ્રતિપાદિત લવનું જ હું તમારી પાસે કથન કરી - રહ્યો છું. મારી પિતાની બુદ્ધિથી ઉપજાવી કાઢેલી આ વાત નથી.” પરના જૈનાચાર્ય જેનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત “સૂત્રકૃતાંગસૂત્રગ્ની સમયાઈધિની વ્યાખ્યાના ત્રીજા અધ્યયનને ત્રીજો ઉદ્દેશક સમાપ્ત ૩-૩ सू० १८ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे --11 . . ॥अथ तृतीयोपसर्गाऽध्ययने चतुर्थोद्देशकः प्रारभ्यते॥ - - • प्रक्रान्ततृतीयोद्देशकेऽनुकूलपतिकूलाश्चोपसर्गाः कथिताः । तादृशोपसगैः कदाचित् साधोः स्वमार्गात् स्खलनमपि संभाव्यते । स्खलितस्य तस्य साधोः यादृश उपदेशो भवति, ताशोपदेशमकारश्चतुर्थो देशके मतिपाद्यते । अनेन संवन्धेन प्राप्तस्य चतुर्थीद्देशकस्येदमादिमं सूत्रं-'आहेसु' इत्यादि । मूलम्-आहंसुं महापुरिसा पुदि तत्ततबोधणा । - उदएण सिद्धिंसावन्ना तथं मंदो विश्लीयं ॥१॥ छाया-आहुर्महापुरुषाः पूर्व तप्ततपोधनाः । . उदकेन सिद्धिमापनास्तत्र मन्दो विषीदति ॥१॥ . ॥चौथा उद्देशेका प्रारम्भ ॥ तीसरे उद्देशे में कूल और प्रतिवू ल जएसगों का कथन किया गया है । इस प्रकार के उपसगों से कोई साधु कदाचित् अपने मार्ग से स्खलित भी हो सकता है। अगर कोई साधु स्खलित हो जाय तो उसे जिस प्रकार का उपदेश सन्मार्ग पर आरूढ होने के लिए दिया जाता है, वह इस चौथे उद्देशे में प्रतिपादन किया जा रहा है। इस सम्बन्ध से प्राप्त चौथे उद्देशेका यह प्रथम सूत्र है 'बालु' इत्यादि । शब्दार्थ-'आहंसु-आहुः' कोई अज्ञानी पुरुष कहते हैं कि 'पुट्विपूर्व' पूर्वकालमें 'तत्ततवोधणा-तप्ततपोधनाः' तपे हुए तप ही जिनकाधन है ऐसे 'महापुरिसा-महापुरुषाः' महापुरुष 'उदएण-उदकेन' योथा देशाने भारलત્રીજા ઉદ્દેશકમાં સૂત્રકારે અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગોનું કથન કર્યું છે. આ પ્રકારના ઉપસર્ગો સહન નહીં કરી શકવાને કારણે કઈ કઈ સાધુ સંયમના માર્ગને પરિત્યાગ પણ કરી દે છે. એવા સંયમથી ભ્રષ્ટ થયેલા સાધુને સન્માર્ગે પાછા વળવા માટે કે ઉપદેશ આપ જોઈએ તે આ ઉદ્દેશકમાં પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. ત્રીજા અધ્યયન સાથે આ પ્રકારને સંબંધ घराता मा याथा उदेशनु पडेयु सूत्र मा प्रमाणे छ-'आईसु' त्याल शा--आसु--आहु.' अज्ञानी पु३५ ४ छ हैं 'पुट्वि-पूर्व पूर्व-पडसाना भी 'तत्ततवोधणा -तप्ततपोधना.' तपे त५ । सानु धन ले । 'महापुरिसा-महापुरुषाः' भ७५३५ 'उदएण-उदकेन' या पाणी Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ मार्गस्खलित' साधुमुद्दिश्योपदेश' १३९ अन्वयार्थः--(आहंस्रु) आहुः केचन मन्दबुद्धयो वालाः (पुबि) पूर्व (तत तवोधणा) तप्ततपोधनाः = तप्तं तप एव धनं येषां ते तथा ( महापुरिसा) महापुरुषा:(उदयेग) उदकेन = शीतजलसेवनेन (सिद्धिमावना) सिद्धिमापन्ना - मोक्षं प्राप्ताः (मंदा) मन्दा - अज्ञानी साधुः इत्थं श्रुत्वा (तत्थ ) तत्र = शीतजला दिसेवने (विसी३) विषीदति प्रवृत्तो भवतीत्यर्थः ॥१॥ > टीका- 'आहंसु' आहुः = केचन धर्मतत्वमजानाना मन्दबुद्धयः एवं प्रतिपाद यन्ति, किमित्याह - 'महापुरिसा' महापुरुषाः = नारायणप्रभृतयः प्रधानपुरुषाः, 'पुच्धि' पूर्व = पुराकाले 'तत्त्तवोषणा' तप्ततपोधनाः=तप्तं तप एव धनं येषां ते तप्ततपोधनाः पंचाग्नितपोविशेषे संतप्तशरीराः इत्थं भूतास्ते महापुरुषाः | 'उदरण' उदकेन = शीतजलेन जलोपभोगकन्दमूलफलादीनामुपभोगेन च । 'सिद्धिकच्चाजलका सेवन करके 'सिद्धिमाचन्ना - सिद्धिमापन्नाः' मुक्ति को प्राप्त हुवे थे 'मंदो - मन्दो' अज्ञानी पुरुष यह सुनकर 'तस्थ - तत्र' = शीतल जलके सेवन आदि में 'वितीय - विषीदति' प्रवृत्त हो जाता है |१| - अन्वयार्थ – कोई अज्ञानी कहते हैं कि प्राचीन काल में तपोधन महापुरुष कच्चे जलका सेवन करके मोक्ष को प्राप्त हुए है । इस प्रकार के कथन को सुनकर अज्ञानी साधु शीतलजल के सेवन में प्रवृत्तहो जाता है ॥ १ ॥ - टीकार्थ-- धर्म के रहस्य से अनभिज्ञ कोई मन्दमति ऐसा कहते हैं कि नारायण आदि प्रधान पुरुष प्राचीन कालमें तप्तपोधन हुए हैं, अर्थात् तपा हुआ तप ही उनका धन था - उन्होंने पचाग्नि तप करके सेवन ने 'सिद्धिमादन्ना - खिद्धिमापन्नाः ' भुम्तिने प्राप्त थया हुता, 'मंदो - मन्दो' अज्ञानी पु३ष मा सांगीने 'तत्थ - तत्र' शीतज पाणीना सेवन व | 'विखीयइ विषीदति' प्रवृत्त धर्ध लय छे. ॥१॥ સૂત્રા—-કાઈ કાઇ અજ્ઞાની લેાકેા એવું પ્રતિપાદન કરે છે કે પ્રાચીનકાળમાં કેટલાક તપેાધન મહાપુરુષોએ કાચા પાણીના (સચિત્ત જળના) ઉપયાગ, કરવા છતાં પણ મેક્ષની પ્રાપ્તિ કરી છે. આ પ્રકારનુ` કથન સાંભ. ળીને અજ્ઞાની સાધુ શીતળ જળનુ સેવન કરવા લાગી જાય છે. ૧ ટીકા-ધર્મના રહસ્યથી અનભિજ્ઞ એવાં કાઈ કાઇ સંક્રમતિ લેકે એવુ' કહે છે કે નારાયણ આદિ પ્રખ્યાત પુરુષા પ્રાચીન કાળમાં થઈ ગયા હતા. તેઓ તત તપેાધન હતા, એટલે કે જે તપ તેએ તપતા–જે તપની આરાધના તેઓ કરતા તે તપ જ તેમનુ ધન હતુ. તેમણે પચાગ્નિ તપ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. - - - सूत्रकृताङ्गसूत्र भावना' सिद्धिमापन्ना:-सिद्धि मोक्ष प्राप्तवन्तः । 'तत्थ' तत्र एवं भूतार्थश्रवणेन वाशार्थसद्भावावेशात् 'मंदो' भन्दा तपः संयमाराधने असमर्थः 'विसीय' विपीदति, दुःखं प्राप्नोति । परन्तु इमे सावद्यधर्मपतिपादकाः घालाः नैवं जानन्तियत् तेषां पूर्वऋषीणां न शीतलजलसेवनेन मुक्तिरभूद , किन्तु-वापसवतमनुविष्ठतां जातिस्मरणादिकारणवशात् प्रादुभूतकेवलज्ञानात सकलकर्मक्षये सत्येव मोक्षमाप्ति ता । भरतादिवत् न तु कन्दमूलफलाघुपभोगेन मुक्तिरभूदिति ॥ १॥ अपने शरीर को तपा डाला था। सचित्त जल का उपभोग करके तथा कन्दमूल फल आदि का उपयोग करके मुक्ति प्राप्त की थी। इस प्रकार का कथन सुनकर मन में यही बात बैठ जाने के कारण संयम पालन में असमर्थ कोई कोई साधु विषाद को प्राप्त होते हैं। किन्तु सावध कर्म की प्ररूपणा करनेवाले ये अज्ञानी नहीं जानते कि उन पूर्वकालीन ऋषियों ने सचित्त जलके सेवन से मुक्ति प्राप्त नहीं की है। उन्होंने ' पहले तापस के व्रतों का आचरण किया। उससे उन्हें जाति स्मरण आदि विशेषज्ञान उत्पन्न हो गया। उनके प्रभाव से भावसंयम प्राप्त करके ही ये केवलज्ञानी हुए और समस्त कर्मों का क्षय होने पर ही मोक्ष प्राप्त करने में समर्थ हो सके, जैसे भरत चक्रवर्ती। सचित्त जल या कन्दमूल के खाने से उन्हें मुक्तिप्राप्त नहीं हुई ॥ १ ॥ તપીને પિતાના શરીરને ક્ષીણ કરી નાખ્યાં હતાં. તેમણે સચિત્ત જળ તથા કન્દમૂળ, ફળ આદિને ઉપભેગા કરીને મુકિત પ્રાપ્ત કરી હતી. આ પ્રકારની વાત સાંભળીને કઈ કઈ મંદમતિ સાધુ - સંયમથી ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે. સંમનું પાલન કરવાને અસમર્થ સાધુઓ આ પ્રકારની તેમની વાત સાચી માની લઈને સચિત્ત જળ આદિને ઉપભેગ કરતા થઈ જાય છે. પરંતુ સાવદ્ય કર્મની પ્રરૂપણ કરનારા તે અજ્ઞાની પુરૂષે એ વાત જાણતા નથી કે નારાયણ આદિ પ્રાચીન ઋષિઓએ સચિત્ત જળ આદિનું સેવન કરીને મુકિત પ્રાપ્ત કરી નથી. તેમણે પહેલાં તાપસેનાં વ્રતનું સેવન કર્યું હતું. તે કારણે તેમને જાતિસ્મરણ આદિ વિશિષ્ટ જ્ઞાન ઉત્પન્ન થયાં હતાં. તેના પ્રભાવથી ભાવસંયમ પ્રાપ્ત કરીને જ તેઓ કેવળજ્ઞાની થયા હતા અને સમસ્ત કને ક્ષય થયા બાદ જ તેઓ મેક્ષ પ્રાપ્ત કરવાને શકિતમાન થયા હતા. જેમ કે ભરત ચક્રવતી. સચિત્ત જલનું સેવન કરવાથી અથવા કંદમૂળને આહાર કરવાથી તેમને મુક્તિ પ્રાપ્ત થઈ નથી.' ના - Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ उ.४ मार्गस्खलित साधुमुद्दिश्योपदेशः १४१ - तदेव स्पष्टयति-'अभुजिया' इत्यादि । मम्-अभुजिया नमी विदेही रामयुत्ते ये सुंजिया । बाहुए उदगं भोच्चा तहा नारायणे रिसी ॥२॥ - छाया--अभुक्त्वा नमिदेही रामगुप्तश्च भुक्त्वा । .: वाहूक उदकं भुक्त्वा तथा नारायण ऋषिः ॥२॥ ___ अन्वयार्थ:-(नमी विदेही अधुंजिया) नमिर्वैदेही अभुक्त्वा-विदेहरानानमिराहारं परित्यज्य (य) च (रामगुत्ते झुंजिया) रामगुप्तो भुक्त्वा (वाहुए) बाहुकः एतन्नामा कश्चित् (उदगं) उदकं-शीतं जलं (भोच्चा) भुक्त्वा -शीतजलं पीत्वा (तहा) तथा (नारायणे रिसी) नारायणः ऋषिः शीतं जलं पीत्वा मोक्षं माप्तवानिति कथयति ॥२॥ इसी तथ्य का स्पष्टीकरण करते हैं-'अभुंजिया' इत्यादि । शब्दार्थ--'नमी विदेही अभुजिया-नमिवदेही अभुक्त्वा' विदेह देशका अधिपति नमि राजाने आहार छोडकर 'य-च' और 'रामगुत्ते भुजिया-रामगुप्तो भुक्त्वा रामगुप्तने आहार करके 'बाहुए-घाहुकः' बाहुकने 'उदगं-उदकम्' शीतल जलका 'भोच्चा-भुक्त्वा सेवन करके 'तहा-तथा' इसी प्रकार 'नारायणे रिसी-नारायण ऋषिः' नारायण ऋषिने 'उदय-भोच्चा-उदकं भुक्त्वा' शीतल जलका पान करके मोक्ष प्राप्त किया था ऐसा कहते हैं ॥२॥ ___ अन्वयार्थ--विदेह जनपद के राजा नमि आहार का त्याग करके रामगुप्त आहार का उपयोग करके, बाहुक सचिस जलका लेवन करके तथा नारायण ऋषि भी शीतल जल पीकर मोक्ष को प्राप्त हुए हैं ॥२॥ मे पातनु वधु १५०टी४२९ ४२ता तशा छ है-'अभुंजिया'- त्याह साथ-'नमी विदेही अभुंजिया-नमिदेही अभुक्त्वा' वह देशना ' अधिपती नभी शनये माडा२ छ।डीने 'य-च' मने 'रामगुत्ते मुंजिया-राम गुप्तो भुक्त्वा रामगुप्त मा.२ ४ीन 'वाहुए-बाहुकः' मा 'उद्ग-उदकम्' शीतल पाणीनु भोच्चा-भुक्त्वा' सेवन ४री तहा-तथा' मा प्रकारे 'नारायणे-नारायण ऋषिः' नाशय ऋषिये 'उदयं भोच्चा-उदकं भुक्त्वा' शीत પાણીનું પાન કરીને મોક્ષ પ્રાપ્ત કર્યો હતે. એવું કહે છે. મારા સૂત્રાર્થ—વિદેહ જનપદને રાજા નમિ આહારને ત્યાગ કરીને, રામ 'ગુપ્ત આહારને ઉપભેગ કરીને, બાહક સચિત્ત જલનું સેવન કરીને તથા નારાયણ ઋષિ પણ સચિત્ત જળનું સેવન કરીને મુક્તિ પામેલ છે. પરા Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર सूत्रकृताङ्गो टीका--केचन परतीथिकाः साधूनां व्यामोहाय-एवमुक्तवन्तः, तद् यथा'नमी' नमिराजा विदेही, विदेहदेशविशेषः तत्र भवाः वैदेहाः तनिवासिनो. लोकाः ते सन्ति अस्येति वैदेही नमी राजा । 'अभुजिया' अभुक्त्वा भोजनादिकमकृत्वैत 'य' च 'रामगुत्ते' रामगुप्तनामकः । 'भुंजिया' भुक्त्वा आहारं भुक्त्वा, तथा 'वाहुर' वाहुका बाहुकनामकः 'उदर्ग मोचा' उदकं शीतोदकमेव भुक्त्वा, तथा 'नारायणे रिसी' नारायणः ऋपि नारायण नामा मह पिः प्रणीतोदकमचिन्जलं भुक्त्वैव सिद्धिं गताः ॥२॥ अपि च-'आसिले देविले' इत्यादि । मूलम्-आसिले देविले व दीवायणमहारिसी। पारासरे देशं भोच्चा बीयाणि हरियाणि यं ॥३॥ छाया-असिलो देवलश्चैव द्वैपायनमहाऋषिः । पाराशर उदकं भुक्त्वा वीजानि हरितानि च ॥३॥ टीशार्थ-किन्हीं किन्हीं परतीचिकोंने साधुओं को भ्रम में डालने के लिए इस प्रकार कहा है कि-वैदेही अर्थात् विदेह देश के राजा नमि ने भोजन आदि त्याग करके ही मोक्ष प्राप्त किया, रामगुप्त ने भोजन करके मोक्ष प्राप्त किया। बाहुक नामक किसीने सचित्त जल का उपभोग करके तथा नाराषण नामक ऋषिने अचित्त जल का उपभोग करके मुक्ति प्राप्त की ॥२॥ और भी कहते हैं--'आसिले देविले' इत्यादि । ' शब्दार्थ--'आसिले-असिलो ऋषिः' असिलऋषि देविलेचेव-देवलश्च' और देवल ऋषि 'दीवायणमहारिसी-द्वैपायनो महाक्रषिः' तथा * ટીકાર્ય કઈ કઈ પરતીથિકે સાધુઓને ભ્રમમાં નાખવા માટે એવી દલી કરે છે કે-વૈદેહીઓ-વિદેહ દેશના રાજા નમિએ ભજનને ત્યાગ કરીને જ મેક્ષ મેળ છે, રામગુપ્ત ભોજનને ત્યાગ કર્યા વિના-ભજનને ઉપભગ ચાલુ રાખીને મેક્ષ પ્રાપ્ત કરેલ છે. બાહુક નામના કેઈ પુરૂષે સચિન જળનો ઉપભોગ કરીને તથા નારાયણ નામના ઋષિએ શીતળ જળને ઉપ ભંગ કરીને મુક્તિ પ્રાપ્ત કરેલી છે. પરા 4जी ५२तीय। यु ४ छे है--'आसिले देविले' त्या:-- शा-आसिले-असिलो ऋषि.' असिसऋषि देविले चेव-देवलश्च' मन वलपि 'दीवायणमहारिसी-द्वैपायनो महाऋषिः' तथा भबि द्वैपायन Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ उ.४ मार्गस्खलित साधुमुद्दिश्योपदेश १४३ __ अन्वयार्थः-(आसिले) असिलो ऋषिः (देविले चेव) देवलय ऋषिः (दीवायणमहारिसी) द्वैपायनो महाऋषिः (पारासरे) पराशरः (दगं) उदकं शीतजलं पील्या (य) च (हरियाणि वीयाणि) हरितानि वीजानि (भोच्चा) सुक्त्वा मोक्ष प्राप्तवानिति कथयन्तीति ॥३॥ ____टीका-'आसिडे' असिला असिलो नाम पिः 'चेत्र' अपि च 'देविले' देवल नामा ऋपिः 'दीवायण महारिसी' द्वैपायनो महर्षिः, अथ च 'पारासरे' पराशरः पाराशरश्च, इत्येते ऋषयः 'दगं' उदकं 'य' च 'हरियाणि वीयाणि' हरितानि वीजानि-शीतोदकबीनहरितादिकं 'भचाः' मुक्त्वा सिद्धि प्राप्ताः । एतेहि महाऋपय आसन् एभिर्यत् कृतस् येन च पथा मोक्षं लब्धयन्तः इमे, माहशेरपि तथैव कर्तव्यम्, न तु तद्विपरीतमार्गे ॥३॥ महर्षि द्वैपायन 'पारासरे-पराशरः' एवं पराशर ऋषि इन लोगोंने 'उदगं-उदयम्' शीतल जलका पान करके 'य-च' और 'हरियाणि बीयाणि-हरितानि बीजानि' हरित वनस्पतियों को 'भोच्चा-भुक्त्वा' आहार करके मोक्ष प्राप्त किया था ऐसा कहते हैं ॥ ३ ॥ ___ अन्वयार्थ--असिल, देवल, द्वैपायन और पराशर नामक ऋषियों ने शीत जल पीकर और हरित तथा बीजों का भोजन करके मोक्ष प्राप्त किया है। ऐसा वे कहते हैं ॥ ३॥ टीकार्थ--असिल नामक ऋषि, देविलनामक ऋषि द्वैपायन महर्षि, और पराशर ऋषिने शीतल जल, हरितकाय और पीजों का उपभोग करके सिद्धि प्राप्त की। ये सब महान् ऋषि थे । इन्होंने जो किया और 'पारासरे-पाराशरः' भवभू पराशर ऋषि मा सामे, 'उदगं-उदकम्' शीत पान सेवन ४शन 'य-च' मने 'हरियाणि बीयाणि-हरितानि बीजानि' रित वनस्पतिमान 'भोच्चा-मुक्त्वा'माहा उशन मोक्ष प्रास ४ ता. मे .४ छे. ॥3॥ सूत्राथ:--मासिदा, पक्ष, वैपायन, भने पाराश२ नामना ऋषिमा શીતળ જળનું પાન કરીને તથા હરિત (લીલોતરી) તથા બીનું ભજન કરીને સેક્ષ પ્રાપ્ત કરેલ છે, એવું તેઓ કહે છે. આવા 10---मसिन नामना ऋषि, हेवि नामाना *षि द्वैपायन महापा અને પારાશર ઋષિએ સચિત્ત જલ, હરિતકાય (લીલેરી) અને બીજે ઉપભોગ કરીને સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી છે. તેઓ મહાન ઋષિઓ હતા. તેમણે જે કર્યું, અને જે માર્ગ મોક્ષ પ્રાપ્ત કર્યો તે માર્ગને આપણે પણ આશ્રય Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूत्रकृतागसूत्रे मूलम्-एए पुत्वं महापुरिसा आहिता इहे संमंता। " भोच्चा बीओदगं लिद्धा इंइ मेयमणुस्सुयं ॥४॥ छाया--एते पूर्व महापुरुषा आख्याता इह संमताः । भुक्ता बीनोदकं सिद्धा इति एतत् अनुश्रुतम् ॥४॥ अन्वयार्थ:--(पु) पूर्व =पूर्वकाले (एए महापुरिसा) एते महापुरुषाः (आहिया) आखाता:-जगत्मसिद्धाः, तथा (इह) इहास्मिन जैनागमेपि (संन्ता) सम्मताः मान्याः, (चीभोदग) बीजोदकं (भोच्चा) भुक्त्वा (सिद्धा) सिद्धा--मोक्षं पाता: (इइमेयं) इत्येतत् (अणुश्मय) मयाऽश्रुनं महाभारतादि ग्रन्थत इति ॥४॥ जिस मार्ग से मोक्ष प्राप्त किया, हमें भी वैसा ही करना चाहिये। उनसे विपरीत मार्ग का आश्रय नहीं लेना चाहिए ॥ ३ ॥ .. . शब्दार्थ-'पुवं-पूर्व' पूर्व काल में 'एए महापुरिसा-एते महापुरुषा' ये महापुरुष 'आहिया-आख्याता' जगत्प्रसिद्ध थे, तथा 'इह-इह' इस जैन आगम में भी 'संमता-सम्मताः' मान्यपुरुष थे 'बीओदग:बीजोदकम्' इन महापुरुषोंने बीज-कन्दमूलादिक और उदक-शीतल जल का 'भोच्चा-भुक्त्वा' उपभोग करके सिद्धा सिद्धा: मोक्ष प्राप्त किया था 'इहमेयं-इत्येतत्' यह 'अणुस्स्तुथं -मया अनुश्रुतम् ' मैंने (महाभारत आदिमें सुना है ॥ ४ ॥ ___ अन्वयार्य--प्राचीन काल में यह महापुरुष जगत्प्रसिद्ध थे और जैनागममें भी ये मान्य हैं। ये बीज और सचित्त जलको उपभोग करके सिद्ध हुए हैं, ऐसा मैंने महाभारत आदि ग्रन्थों से सुना है ।। ४ ॥ લે જોઈએ તેમના તે માર્ગને અનુસરવાથી જ મોક્ષ પ્રાપ્ત થશે-વિપરીત માર્ગે ચાલવાથી આત્મકલ્યાણ સાધી શકીએ નહીં. આ પ્રકારનું તેઓ પ્રતિપાદન કરે છે. પણ शहा---'पुव्वं-पूर्व' नुन समयमा १ 'एए महापुरिसा-एते महापुरुषाः' मा महा५३५ 'आहिया-आख्याताः' गत् प्रसिद्ध ता, तथा "इह-इह' मा २ भागममा ५५ 'समता-सम्मताः' भान्य ५३५ ता 'बीओदगं-बीजोदकम्' सा महापु३षामे मीर-3-४, भूद वगैरे अने ४-शीत पाना 'भोज्ञाभुक्त्वा' प ४शन "सिद्धा-सिद्धाः' मोक्ष प्राध्या -ता. 'इइमेयं-इत्येततू' भा प्रभा अणुस्सुयं-मयाअनुश्रुतम्' में' (महामारत विगैरेभा) सामन्यु छ. १४ સૂત્રાર્થ–-પ્રાચીત કાળમાં આ પુરૂ જગતવિખ્યાત હતા. જૈન આગમામાં પણ આ પુરૂને માન્ય ગણવામાં આવેલ છે. તેમણે બીજ અને Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ उ.४ मार्गस्खलित साधुमुद्दिश्योपदेशः १४५ • टीका--'पुवं' पूर्वम् त्रेतायुगादौ 'एए महापुरिसा' एते पूर्वोक्ता महापुरुषाः द्वैयापनपराशरमभृतयः स्वथ्या वा । 'ह' इह जैनमतेऽपि प्रसिद्धा, बहुमानदृष्टया दृष्टाः। ते च सर्वे 'वीभोदगं' वीजोदकं बीजकन्दमूलादिकम् , उदकं-शीतं जलं च । 'भोच्चा' भुक्त्वा सिद्धा' सिद्धाः संजाताः मोक्ष प्राप्ताः । 'इइमेयं-इत्येतत् =एवं रूपेण 'अणुस्सुयं मया अनुश्रुतम् । महाभारतादि इतिहासे स्कन्दादि पुराणेषु च ! शीतनलादिना शौचादिकं कृतवन्तः मूलफलादिकं चाऽ. भ्यवहरन्त: सिद्धि गता इति श्रूयते शास्त्रे महाभारतस्मृतिपुराणादिषु अन्यतीथिका बदन्तीति भावा ॥४॥ ___टीकार्थ--पहले वेना आदि युग में यह द्वैपायन, पराशर आदि महापुरुष हुए हैं। यह जैनागमों में भी प्रसिद्ध हैं और पहुंमान की दृष्टि से देखे गए हैं । ये सभी कन्दमूल आदि तथा शीतल जल का उपभोग करके सिद्ध हुए हैं । इस प्रकार मैंने सुना है। महाभारत मादि इतिहास में तथा स्कंदपुराण आदि में इनका कथन उपलब्ध है। ___ तात्पर्य यह है कि अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं कि सचित्त जल आदि से शौच आदि करते हुए और मूल फल आदि का भोजन, करते हुए भी उन्होंने मुक्ति प्राप्त की है। यह बात महाभारत, स्मृति भौर पुराण आदि में सुनी जाती है।॥ ४ ॥ અચિત્ત જલને ઉપભોગ કરીને મુક્તિ પ્રાપ્ત કરી છે, એવું મેં મહાભારત આદિ ગ્રન્થ દ્વારા સાંભળ્યું છે. આ ટીકાથ–પહેલાં ત્રેતા આદિ યુગમાં પૂર્વોક્ત દ્વૈપાયન, પરાશર આદિ મહાપુરુષ થઈ ગયા છે જૈન આગમાં પણ તે મહાપુરુષોનાં નામ ઉલેખ થયેલો છે અને તેમના પ્રત્યે ખૂબ જ માનની દષ્ટિએ જોવામાં આવેલ છે. તે મહાપુરુષે કન્દમૂળ આદિને આહાર કરીને તથા શીતલ જળનું પાન કરીને સિદ્ધ થયા છે, એવું મેં સાંભળ્યું છે. મહાભારત આદિ ઈતિહાસમાં, સ્કન્દ પુરાણ આદિમાં તેમની વાત ઉપલબ્ધ છે. આ કથનનું તાત્પર્ય, નીચે પ્રમાણે છે-અન્યતીથિકે એવું પ્રતિપાદન કરે છે કે સચિત્ત જલ આદિ વડે સન્માન આદિ કરવા છતાં અને કદમૂળ આદિનું ભોજન કરવા છતાં પણ દ્વૈપાયન, પરાશર આદિ શષિએ મુકિત પ્રાપ્ત કરેલી છે. મહાભારત, પુરાણું, મૃતિ આદિ ધર્મન્થ પણ એ વાતનું સમર્થન કરે છે. જા . * : स०१९ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REE सूत्रकृताङ्गसूत्रे एतदुत्तरं सूत्रकारः प्राह-- ' तत्थ मंदा' इत्यादि । मूलम् - तरंथ मंदा विसीयांते वाहच्छिन्ना वे गैहमा | पिट्टेओ परिसंपति पिटुप्पीय सभमे ॥५॥ छाया -- तत्र मन्दा विषीदन्ति वाहच्छित्रा इव गर्दभाः । पृष्ठतः परिसर्पन्ति पृष्ठसप च संभ्रमे ॥५॥ अन्वयार्थः -- (दत्थ) तत्र - वस्मिन् कुथुत्युपसर्गे (मंदा) मन्दाः बालाः (वाहच्छिन्ना) वाहच्छिन्नाः भाराक्रान्ताः (गद्दभा व) गर्दभाइ (विसीति) विषीदन्ति = संयमपालने दुःखमनुभवन्ति (संभमे) संभ्रमे अग्न्यादिदा दे (पिसप्पी) पृष्ठस + इसके अनन्तर सूत्रकार कहते हैं-- 'तत्थ मंदा' इत्यादि । शब्दार्थ - ' तत्थ - तथ' उस क्रुश्रुतिका उपसर्ग होने पर 'मंदा - मन्दा ' अज्ञानी पुरुष 'वाहच्छिन्ना- वाहच्छिन्नाः ' भारसे पीडित 'गद्दभा वगर्दभाइव' गदहे के जैसा 'विसीयंनि-विषीदन्ति संयम पालन करने में दुःख का अनुभव करते हैं 'संभमे-संभ्रमे' जैसे अग्नि आदिका उपद्रव होने पर 'पिसप्पी- पृष्ठतर्पिणः' लकडे की सहायता से चलनेवाला हाथ पैर रहित पुरुष 'पिट्ठओ - पृष्ठतः ' भागनेवाले पुरुषों के पीछे पीछे 'परिसम्पति - परिसर्पन्ति' चलता है उसी प्रकार ये अज्ञानी जन संयम पालने में सबसे पीछे ही हो जाते हैं ॥ ५ ॥ अन्वयार्थ -- कुशास्त्र का उपसर्ग होने पर अज्ञानी साधु उसी प्रकार संगम पालन में दुःख का अनुभव करते हैं, जिस प्रकार भारा त्यार आई सूत्र र ४ छे - 'तत्थ मंदा' छत्याहि--- शब्दार्थ—'तत्थ-तत्र' ते श्रितिना उपसर्ग थाय त्याने 'मंदा - मन्दाः ' अज्ञानी पुरुष 'वाइच्छिन्ना - वाइच्छिन्नाः' लारथी थीडित 'गद्धभाव-गर्दभा इव' गधेडानी प्रेम 'विमीयंति- विपीदन्ति' सयभ पावन उवास हुमने अंतुभवरे छे. 'सभमे संभ्रमे' लेवी रीते अग्नि वगेरेन। उपद्रव थाय त्यारे 'विप्पी - पृष्ठ सर्पिणः ' साध्यानी सहायताथी यासवावाणी हाथ, पण वगरने युष 'पिओ - पृष्ठतः ' भागवावाणा पुरुषानी पाटण पाहण 'परिस्रपंति - परि વૃન્તિ” ચાલે છે તે જ પ્રકારે આ અજ્ઞાની માણસે સયમ પાલન કરવામાં બધાથી પાછળ જ થઇ જાય છે. પા સૂત્રાય—જેવી રીતે ભારતુ' વહેન કરવાને અસમર્થ ગભ વિષાદને અનુભવ કરે છે, અથવા જેવી રીતે ચાલવાને અસમર્થ પુરુષ અગ્નિના ભય Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ उ.४ मार्गस्खलित साधुमुद्दिश्योपदेशः १४७ पिणः काष्ठपादुकया चलनकर्तारः हस्तपादरहिताः पुरुषाः (पिट्ठओ) पृष्ठतः पश्चात् (परिसप्पति) परिसर्पन्ति चलन्ति तथैव इमे संयमपालने सर्वेभ्यः न्यूनाः भवन्तीति ॥५॥ .. टीका--'तत्थ' तत्र-तस्मिन् कुत्सि शास्त्रोपदेशाख्योपसोदये सति 'मंदा' मन्दाः विवेकनिकलाः, न केवलज्ञानादिनैव मोक्षोऽपि तु शीतोदकादिनापि भवतीति निर्णयं कृत्वा 'बाहच्छिन्ना' चाहच्छिन्नाः बहन वाहः भारः तस्योद्वहनम् तेन छिन्नाः आक्रान्ताः गहभा' गर्दभा इव =रासभा इव 'विसीयंति' विपीदंति, यथा गर्दभाः भाराकान्ताः मार्गे एव दुःखमाजो भवन्ति तथा-इमे कुशास्त्रोपदर्शितक्रमेण शिक्षिताः संयममार्गे संयमभारं परित्यज्य शिथिलाचाराः सन्तो क्रान्त, गर्दभ दुःख का अनुभव करते हैं । अथवा जैसे चलने में असमर्थ पुरुष अग्नि का भय उपस्थित होने पर पिछड जाता है उसी प्रकार वे भी संयम पालने में पीछे रह जाते हैं ।। ५ ।। टीकार्थ--कुत्सित शास्त्रों के उपदेशरूप उपसर्ग के उपस्थित होने पर विवेकविहीन साधक, केवलज्ञान आदि से ही मोक्ष नहीं होता वरन शीत जल आदि के सेवन से भी होता है, इस प्रकार का निर्णय करके भारवहन ले दुर्बल बने हुए गधे के समान विषाद के पात्र होते. हैं। अर्थात जसे घोझ से लदे हुए गर्दभ मार्ग में ही दुखि का अनुभव ઉપસ્થિત થાય ત્યારે બીજા લોકો કરતાં પાછળ રહી જાય છે, એ જ પ્રમાણે કુશાસ્ત્રને ઉપસર્ગ થાય ત્યારે અજ્ઞાની સાધુ સંયમનું પાલન કરવામાં વિષાદ અનુભવે છે અને સંયમના માર્ગે આગળ વધવાને બદલે સંયમના પાલનમાં શિથિલ બની જાય છે. પાપા ટીકાથ-જ્યારે કુશાસ્ત્રોના ઉપદેશ રૂપ ઉપસર્ગ ઉપસ્થિત થાય છે ત્યારે વિવેકહીન સાધક સંયમના માર્ગેથી ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે. તે એવું માન થાય છે કે કેવળજ્ઞાન આદિ દ્વારા જ મોક્ષ પ્રાપ્ત થતી નથી, પરંતુ શીતલ જળ, કન્દમૂળ આદિના સેવનથી પણ મોક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે. આ પ્રકારને નિર્ણય કરવાને કારણે તે ભારવહન કરવાને અસમર્થ ગધેડાની જેમ વિષાદને પાત્ર બને છે એટલે કે ભારે બજે વહન કરતો ગધેડા જેવી રીતે માર્ગમાં જ વિષાદને અનુભવ કરે છે, એ જ પ્રમાણે વિપરીત ઉપદેશ સાંભળીને Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફેબ્રુ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मोक्षमनवाप्य संसारे एव दुःखायन्ति । दृष्टान्तान्तरं दर्शयति-संभमे इति । 'संभमे' संभ्रमे = अग्न्यादिभये समुपस्थिते सति उद्भ्रान्ताः 'पिट्टसप्पी' पृष्ठसर्पिणः पंगवः प्रणष्टजनस्य - 'पिओ परिसप्पति' पृष्ठतः परिसर्पन्ति = पृष्ठतो गच्छन्ति, नाऽग्रगामिनो भवन्ति । तथैत्र - इमे ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षो भवतीति अजानानाः नेम्या दिमार्गानुसारिणः शीतोदकबीजभोजकाः मोक्षं प्रति प्रवृत्ता अपि मोक्षगतयो न भवन्ति । किन्तु तस्मिन्नेव संसारे अनन्तकालं परिभ्रमन्ति येषामपि सिद्धिगमनमभूत् न तेषां शीतोदकादि सेवनात् किन्तु कुतश्चित् जातजाविस्मरणादिप्रत्ययावाप्तकरते हैं उसी प्रकार खोटे शास्त्रों से विपरीत शिक्षा पाये हुए वे साधु भी संयममार्ग में संघम के भारको त्याग करके शिथिलाचार परायण बन जाते हैं। वे मोक्ष न प्राप्त करके संसार में ही दुःखका अनुभव करते हैं । इसी विषय में दूसरा दृष्टान्त दिखलाते हैं-अग्नि आदि का भय उपस्थित होने पर घबराए हुए लँगडा पुरुष भागनेवाले दूसरे लोगों के पीछे पीछे चलते हैं - उनसे पिछड जाते हैं । वे आगे नहीं बढ़ पाते । इसी प्रकार ज्ञान और क्रिया से मोक्ष होता है, इस तथ्य को न जानने वाले और नमि आदि के मार्ग का अनुसरण करनेवाले, सचित्तं जल और बीजों का उपभोग करनेवाले मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होकर भी मोक्ष गमन नहीं कर सकते । वे अनन्तकाल तक संसार में ही परिभ्रमण करते हैं । जिन्होंने भी मोक्ष प्राप्त किया है, उन्हें शीतोदक के सेवन से नहीं प्राप्त हुआ । उन्हें जातिस्मरण आदि किसी कारण से सम्यगुસંયમના માર્ગેથી ચલાયમાન થનાર સયમના ભારને ત્યાગ કરીને શિથિલાચારી બનનાર–સાધુને પણુ ષાદ જ અનુભવવેા પડે છે. તેઓ મેક્ષ પ્રાપ્ત કરવાને ખલે સંસારમા જ અટવાયા કરે છે અને દુ:ખનાં 'अनुभव' अर्थाने छे. "' આ વિષયને અનુલક્ષીને એક મીજી દૃષ્ટ,ન્ત આપવામાં મારે છેઅગ્નિ આદિના ભય ઉપસ્થિત થાય ત્યારે લગા પુરૂષ દોડી ન શકવાને કારણે ખીજા ભાગનારા લેાકેાની પાછળ રહી જાય છે, એજ પ્રમાણે ‘જ્ઞાન અને ક્રિયાથી મેક્ષ મળે છે,' આ તથ્યને નહી જાણનાર અને નમિ આદિના માને અનુસરનારા, સચિત્ત જળ અને ખીજાના ઉપભોગ કરનારા લેાકેા સાક્ષમાગ માં પ્રવૃત્ત થવા છતાં પણ મેાક્ષગમન કરી શકતા નથી. તેએ અન`ત કાળ સુધી સ’સારમાં જ પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. એ વાત તા નિશ્ચિત્ત છે. કે જેમણે મોક્ષ પ્રાપ્ત કર્યો છે તેમણે શીતેાદક (શીતળ જલ) ના સેવનથી જ મેપ્રાપ્ત કરેલ નથી. તેમને કાઈ પણ કારણે જાતિસ્મરણુ આદિ જ્ઞાનની, Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. Q. अ.३ उ.४ मार्गस्खलित साधुमुद्दिश्योपदेशः १४९ सम्यग्ज्ञानचारित्रवतामेव वल्कलचीरप्रभृतीनामिव सिद्धिगमनमभूत् न पुनः कदाचिदपि सर्वविरतिपरिणामभावकारणभावमन्तरेण शीतोदकबीजाद्युपभोगेन जीवोपमर्दसावद्यकर्मणेति ॥५॥ प्रकृतविषये मतान्तरमपि दर्शयति खण्डनाय-'इहमेगे' इत्यादि । मूलम्-इहमेगेउ भासंति सायं सायेण विजइ। जे तत्थ आरियं मंग्गं परमं च समाहिए ॥६॥ ' छाया-इह एके तु भाषन्ते सात सातेन विद्यते । ये तत्र आर्य मार्गन्तु परमं च समाधिकम् ॥६॥ ज्ञान दर्शन और चारित्र की प्राप्ति हुई। तभी वे वल्कल चीरी आदि की तरह सिद्धि प्राप्त करने में समर्थ हो सके। सर्वविरतिरूप भाव चारित्र मोक्ष का कारण है । उस के अभाव में शीतोदक और बीज का उपभोग करने रूप जीवहिंसामय सावद्यकर्म से कदापि मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती॥५॥ प्रस्तुत विषय में मतान्तर का खण्डन करने के लिए उसे दिखलाते हैं--'इह मेगे' इत्यादि। शब्दार्थ--'इह-इह' इस मोक्ष प्राप्ति के विषय में 'एगे-एके' कोई शाक्यादि मतवाले "भासंति-भाषन्ते' कहते हैं कि 'सात-सातम्' सुख 'सातेन-सोतेन' सुखसे ही 'विजइ-विद्यते' प्राप्त होता है 'तत्थतत्र' इस मोक्ष के विषय में 'आरिय-आर्यम्' समस्त हेय धर्म से दूर તથા સમ્યગ્ર જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રની પ્રાપ્તિ થઈ હતી. ત્યારે જ તેઓ વકલ, ચીરી આદિની જેમ સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી શકવાને સમર્થ થયા સર્વવિરતિ રૂપ ભાવચારિત્ર મોક્ષનું કારણ ગણાય છે. જે તેને અભાવ હોય તે શીતેદક અને બીજને ઉપભોગ કરવા રૂપે જીવહિંસામય સાવદ્ય કર્મ કે મેક્ષની પ્રાપ્તિ કદી પણ થઈ શકતી નથી પા પ્રસ્તુત વિષય સંબંધી જે અન્ય મને છે તે પ્રકટ કરીને તેમનું સૂત્રકાર मन रे छ--'इह मेगे' ४त्याह शहाथ-'इह-इह' मोक्ष प्रातिना विषयमा 'एके-एके' ४५ पोरे भताण 'भासंति-भापन्' ४ छ ? 'सात-सातम् ' सुभ 'सातेन-सातेन' सुभथी. 2. 'विज्जइ-विद्यते' प्राप्त थाय छ, 'तत्थ-तत्र' मा भाक्षना वि५. यमा 'आरिय-आर्यम् ' समस्त य यथा इ२ २७वावाणा ताय"४२ प्रति Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० "सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ :- (ह) इहास्मिन् मोक्षगमनाधिकारे (एगे ) एके = केचन शाक्यादय (भासंति) भाषन्ते - कथवन्ति, (सातं) सार्वखं ( सातेन) सातेन सुखेनैव (विज) विद्यते प्राप्यते ( तत्थ) तत्र = मोक्षविषये (आरियं ) आर्यम् = समस्त य धर्मतो दूरं तीर्थकरप्रतिपादितम् (मग्गं) मार्ग ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं (परम समाfre) परमं च समाधिकं ज्ञानदर्शनचारित्ररूपम् एनं धर्म (जे) ये जना त्यजन्ति ते स्वार्थभ्रष्ट भवन्तीति ॥ ६ ॥ टीका--' इह' इह मोक्षगमन विचारप्रवाहे 'एगे' एके = शाक्यमतानुयायिनः लोचादिनोपतता: दंडिप्रभृतय: 'उ' तु शब्दः शीतोदकादिभोजिभ्योऽस्य पार्थक्यं दर्शयति- 'भासंति' मापन्ते द्रवन्ति । 'सायं सायेण विज्जह' सात सातेन विद्यते, रहनेवाला तीर्थकर प्रतिपादित 'सग्गं-मार्गम्' ज्ञानदर्शनचारित्ररूप मार्ग 'परमं समाहिए - परमं समाधिकम् ' परम शांतिको देनेवाला है इस धर्म को 'जे-ये' जो पुरुष छोडते हैं वे अज्ञानी जन स्वार्थ से पतित होते हैं ॥ ६ ॥ अन्वयार्थ -- कोइ शाक्य आदि कहते हैं कि साता से ही साता की प्राप्ति होती है अर्थात् सुख भोगने से ही सुख मिलता है, किन्तु जो लोग तीर्थंकरप्रतिपादित आर्षमार्ग को, जो सम्यग्ज्ञानदर्शन चारित्र रूप है, त्याग देते हैं वे स्वार्थ से भ्रष्ट होते हैं ॥ ६ ॥ टीकार्थ- मोक्ष के प्रकरण में शाक्य आदि तथा केशलुंचन आदि मैं कष्ट माननेवाले दंडी आदि इस प्रकार कहते हैं-मोक्ष का सर्वोत्कृष्ट चाहित ‘मां-मार्गम्' ज्ञानदर्शन यस्त्रि३य मार्ग' 'परमं समाहिए - परमं समाविक्रम्' परम शांति यभावावा साधने 'जे-ये' ? पुरुष छोडे ते અજ્ઞાની માણસે સ્વાથી પતિત થાય છે. uku સૂત્રા – કાઇ શાકચ અહિં મતવાદીએ એવું પ્રતિપાદન કરે છે કેસાતા દ્વારા જ સાતાની પ્રાપ્તિ થાય છે, એટલે કે સુખ ભોગવવાથી જ સુખ મળે છે, પરન્તુ જે લેાકેા તીર્થંકર પ્રતિપાદિત, સમ્યગ્ જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રરૂપ ઉત્તમ માર્ગના ત્યાગ કરે છે, તેએ કદીપણુ આત્મકલ્યાણુ સાધી શકતા નથી, પશુ દુ:ખ જ ભોગવ્યા કરે છે. ॥૬॥ ટીકા--શાકય આદિ પરતીથિકા તથા કેશલુ'ચન આદિને કષ્ટજનક માનનારા 'ડી સાદિ લેાકા માક્ષપ્રાપ્તિ વિષે એવું મતભ્ય ધરાવે છે કે વિષય જનક સુખ વડે જ મેાક્ષનુ સર્વોત્કૃષ્ટ અને અનત સુખ ઉત્પન્ન થાય છે. Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १५१ सात-मोक्षसुखं निरतिशयाऽपरिच्छिन्नम् । सातेन-विषयजनितमुखेनैव जायते । तथा च वत्तारो बदन्ति-- 'सर्वाणि सत्तानि मुखेरतानि सर्वाणि दुःखाच समुद्विजन्ते ।। तस्मात्सुखार्थी च सुखाय दद्यात् सुखमदाता लमते मुखानि ॥१॥ न केवलं सुखादेव, सुखमित्यत्र वचनमेव प्रमाणम् , किन्तु युक्तयोऽपि भवन्ति । तथाहि-कारणमनुसरति कार्यम् , यादृशं कारणं तागेव भवति कार्यम् , न तु तद्विपरीतम् , यथा वटवीजात वटांकुरमेव जायते, न तु अस्मादन्यस्य विजातीयस्य । एवमैहलौकिक वादेव मोक्षसुखं स्यानतु लोचादि दुःखात् कथमपि तद्विजातीएवं अनन्त सुख विषयजनित सुख से ही उत्पन्न होता है । कहने वाले कहते भी हैं--'सर्वाणि सत्यानि सुखेरतालि' इत्यादि। ___ संसार के समस्त प्राणी सुख में रत हैं, सब दुःख से घबराते हैं, अतएव जो सुख का अभिलाषी है वह दूसरों को सुख पहुँचावे । जो दूसरों को सुख देता है वह स्वयं सुख प्राप्त करता है ॥१॥ . सुख से सुख की प्राप्ति होती है, इस विषय में केवल वचन ही प्रमाण नहीं है बल्कि युक्तियां भी विद्यमान हैं। वह इस प्रकार हैंकार्य कारणं का अनुसार करता है । जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है उससे विपरीत नहीं होता। जैसे वट के बीज से घट का ही अंकुर उत्पन्न होता है। अन्य वीज से अन्य विजातीय अंकर उत्पन्न नहीं होता । इसी प्रकार लौकिक सुख से ही मोक्ष का सुख हो सकता है, लोच आदि के दुःख को सहन करने से नहीं । दुःख मेव at ' छ –'सर्वाणि सत्त्वानि सुखेरतानि' त्या:--'. . 'ससारमा समस्त प्राणी सुममा २a (प्रवृत्त) छे. मां मया ગભરાય છે. તેથી એવું કહી શકાય કે જે સુખની અભિલાષા રાખતે હેયે તેણે સૌને સુખ આપવું જોઈએ. જે બીજાને દુઃખ દે છે તે પોતે જ भी थाय छे. ॥१॥ .. સુખ દ્વારા જ સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે, આ કથનનું માત્ર વચન, દ્વારા જ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું નથી, પણ તક, દલીલ આદિ દ્વારા પણ તેઓ તેનું સમર્થન કરે છે–કાર્ય કારણનું અનુસરણ કરે છે. જેનું કારણ હોય છે, તેવું જ કાર્ય થાય છે કારણથી વિપરીત કાર્ય સંભવી શકતું નથી. વડના બીજમાંથી વડનું જ બીજ ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. કોઈ પણ બીજ વિજાતીય અંકુરની ઉત્પત્તિ કરી શકતું નથી, એજ પ્રમાણે લૌકિક સુખ વડે જ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ यस् मोक्षस्योद्भवाशा | आगमोऽप्यमुमेवार्थं पुष्णाति । 'मणुण्णं भोयणं भोच्चा मणुष्णं सयणासणम् । मणुष्णंसि अगारसि मणुष्णं झायर मुणी ॥१॥' छाया - मनोज्ञ भोजनं भुक्त्वा मनोज्ञे शयनासने । मनोज्ञे आगारे मनोज्ञं ध्यायेत् मुनिरिति ॥ १॥ तथा -- ' मृद्वीशय्या प्रातरुत्थाय पेवाः भक्तं मध्ये पानकं चापर हे | द्राक्षाखण्डं शर्करा चार्द्धरात्रे मोक्षश्चान्ते शाक्यपुत्रेण दृष्टः ॥ १ ॥ अतः स्थितं यत् सुखेनैव सुखावाप्तिः । न तु लोचादिना कायक्लेशसदनेन । प्रत्युतःतेनाऽऽर्त्तध्यानसमुद्भवात् एवं मोहमुग्धमतयः 'जे' ये केचन शाक्यादयः कथको भुगतने से उससे विजातीय मोक्षसुख की प्राप्ति की आशा नहीं की जा सकती । आगम भी इसी बात का समर्थन करता है- 'मगुणं भोषणं भोच्चा' इत्यादि । सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'मनोज्ञ भोजन करके, मनोज्ञशय्या और आसन का उपभोग करके और मनोज्ञ गृह में निवास करके मुनि मनोज्ञ ध्यान करता है |१| और भी कहा है- 'मृद्वीशय्या प्रातरुत्थाय पेयाः' इत्यादि । कोमल शय्या, प्रातःकाल उठते ही पेय का पान, मध्याह्न में भोजन, अपराह्न में पान, अर्धरात्रि में द्राक्षा खांड और शर्करा का उपभोग और अन्त में मोक्ष ! ऐसा शाक्यपुत्र (बुद्ध) ने देखा है । तात्पर्य यह है कि सुखपूर्वक रहने से ही आगे मोक्ष का सुख प्राप्त होता है ॥ १ ॥ अतएव यह सिद्ध हुआ कि सुख से ही सुख की प्राप्ति होती है, लोच મેાક્ષનું સુખ પ્રાપ્ત થઈ શકે છે, લેાચ આદિનું દુઃખ સહન કરવાથી મેાક્ષનું સુખ મળી શકતુ નથી દુઃખને ભાગવવાથી તેના કરતાં વિજાતીય મેક્ષના સુખની પ્રાપ્તિ થઈ શકતી નથી. તેમના આગમેામાં પશુ એજ વાતનું સમર્થાંન वामां मन्युछे है- 'मणुण्णं भोयणं भोच्चा' इत्याहि ‘મનેાજ્ઞ ભેાજન કરીને, મનેાજ્ઞ શય્યા અને આસનના ઉપલેાગ કરીને અને મનેાન ઘરમાં નિવાસ કરીને મુનિ ધ્યાન ધરી શકે છે. छेउ- 'मृद्वीशय्या प्रातरुत्थाय पेयाः' इत्याहि— वजी मेवु કામળ શય્યા, પ્રાતઃકાળે ઉઠતાં જ પૈયનું પાન, મધ્યાહ્ને લેાજન, અપેાર પછી પેયનું પાન, મધ્યરાત્રે દ્રાક્ષ, ખાંડ અને સાકરને ઉપલેાગ અને मन्ते भोक्ष ! मेर्बु शाययुत्रे (मुद्धे) लेयु छे. तात्पर्य मे सुखपूर्व રહેવાથી જ આખરે મેાક્ષનું સુખ પ્રાપ્ત થાય છે. ૧૫ તેઓ આ પ્રકારની દલીલા દ્વારા એવું સિદ્ધ કરવાના પ્રયત્ન કરે. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 i समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेश: १५३ यन्ति ते 'तत्य' तत्र = तस्मिन् मोक्षमार्गविचारप्रवाहे समुरस्थिते सति - 'आरियं 'आर्यमार्गम् आरात् दूरं जातः सर्वदेयधर्मेभ्यः इति आर्यः स चासौ मार्ग श्वेति आर्यमार्गः । भगवता सर्वज्ञेन महावीरेण प्रदर्शितो मोक्षमार्गः, तादृशमार्यमार्ग ते परित्यजन्ति । तथा 'प मं सप्ताहिए' परमं च समाधि = सम्यक दर्शनज्ञानचारित्र्यात्मकं रत्नत्रयं च परिहरन्ति ते सर्वथैव मन्द : चातुर्गतिकसंसारकान्तारमेव सर्वदा परिभ्रमन्ति । तथाहि - यत्तैरभिहितम् -' कारणानुरूपमेव कार्य जायते' तन्न युक्तम् । कदाचिदन्यथाभावस्यापि दर्शनात् यथा दृश्यते-गर्दभमुत्र योगेन गोमयात् वृश्चिकस्य आदि कायक्लेश सहन करने से नहीं । कायक्लेश ले तो उलटा आध्यान उत्पन्न होता है । सूक्ष्मति शाक्य आदिकों का यह कथन है । इस कथन को मान्य करके जो अज्ञांनी आर्य अर्थात् समस्त हेय । (त्यागने योग्य) धर्मों से दूर एवं श्रमण भगवान महावीर के द्वारा उपदिष्ट मोक्षमार्ग का परित्याग कर देते हैं तथा परमसमाधि अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि को त्याग देते वे सर्वथा मन्द प्राणी चातुर्गतिक संसाररूपी अटवी में भटकते हैं । कारण के अनुरूप ही कार्य होता है, उनका यह कथन एकान्त रूपसे समीचीन नहीं है । कभी कभी इस नियम का भंग भी देखा जाता है, अर्थात् कारण से विलक्षण भी कार्य होता है । जैसे गर्दभ કે સુખ વડે જ સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે, લેચ ાદિ કાયલેશ સહુને કરવાથી સુખની પ્રાપ્તિ થતી નથી. કાયલેશ દ્વારા તે ઊલટુ'આન્ત ધ્યાન થાય છે. મૂઢમતિ શાકય આદિ પરતીથિકાની ઉપર્યુક્ત માન્યતા છે આ માન્યતાને માન્ય કરીને જેએ સમરત હેય (ત્યાગ કરવા ચેાગ્ય) ધર્મથી ભિન્ન એવા શ્રમણુ ભગવાન્ મહાવીર દ્વારા પ્રરૂપિત સર્વત્કૃષ્ટ મેાક્ષમા'ના પરિત્યાગ કરે છે તથા પરમ સમાધિના-સમ્યગ્દર્શન આદિના ત્યાગ કરે છે, એવા મન્દમતિ લેાકેા ચાર ગતિવાળા સંસારરૂપી કાનનમાં ભટકથા કરે છે. ‘કારણને અનુરૂપ જ કાય થાય છે,' આ પ્રકારનું તેમનુ’કથન એકાન્ત રૂપે (સપૂર્ણતઃ) ચેગ્ય નથી. કાઈ કેઇ વાર આ નિયમમાં ભંગ પણ થતા જોવામાં આવે છે. એટલે કે કારણથી જુદા જ પ્રકારનુ કાષ્ટ પશુ સંભવી राडे छे. प्रेम - ગધેડાના સૂત્ર સાથે છાણુના ચૈાગ થવાથી વીછીની ઉત્પત્તિ થાય છે, દાવાનળ વડે ખળી ગયેલા નેતરના મૂળમાંથી કદલી વૃક્ષની ઉત્પત્તિ થાય છે, सू० २० Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे - समुद्भवः, दनाग्निदग्धवेत्रमूलात् कदलीवृक्षस्योत्पत्तिः, आमतण्डुलजलसंसिक्तभूनलात् रक्तवर्णविशेपित्तशाकस्य समुत्पत्तिभवति, तथा गोलोमतों दुर्वा जायते । तथा-यदपि मनोज्ञाहारादिकं सुखकारणतया-उपक्षिप्तम् , तदपि न सम्यक् । मनोज्ञाहारसेबनेनापि रोगादिसंभवात् । किं च-वैषयिकन्तु दुःखपतीकारकारणतया सुखं भवितुं नाईति | विषयजनितसुखस्य सर्वदेव दुःखमिलितत्वाद दुःखरूपतेव विद्यते । योऽयन्तत्र मूढानां सुखाऽऽभासः सोऽपि दुःखरूप एव । तदुक्तम्- - - दुःखात्मकेषु विषयेषु सुखाऽसिमानः, , सौख्यात्मकेषु नियमादिषु दुःखबुद्धिः । उत्कीर्णवर्णपदपंक्तिरिवाऽन्यरूपा, ....... सारूप्यमेति विपरीतगतिपयोगात ।। के मूत्र का योग होने पर धोबर ले बिच्छू की उत्पत्ति हो जाती है, दावानल ले दग्ध बेत के मूल ले कदली वृक्ष की उत्पत्ति होती है। कच्चे तन्दुल एवं जल से लिक्त भूतल से लाल रंग का एक विशेष शाक उत्पन्न होता है तथा गोरोन ले दूब की उत्पत्ति देखी जाती है। : मनोज्ञ आहार आदि को सुख का कारण कहना भी ठीक नहीं क्योंकि उसके सेवन से भी रोगादि की उत्पत्ति देखी जाती है। इसके अतिरिक्त वैषयिक स्मुख बास्तव में सुख ही नहीं है, वह तो दःख काही कारण होता है। वैषयिक सुख में दुःखों का सम्मिश्रण रहता है, अतएव वह विषमिश्रित भोजन के समान वस्तुतः दुःख ही है કાચા તન્દુલ (ચોખા) અને પાણી વડે સિક્ત ભૂતલમાંથી લાલ રંગનું એક વિશિષ્ટ શાક ઉત્પન્ન થાય છે, તથા ગોરા (ગાયની રુવાંટી) વડે દબ (कास)नी त्यत्ति थाय छे. મનોજ્ઞ આહાર આદિને સુખના કારણરૂપ ગણવા તે પણ ઉચિત નથી. કારણ કે તેના સેવનથી પણ રેગાદિની ઉત્પત્તિ થતી જોવામાં આવે છે. વળી વૈષવિક સુખ વાસ્તવિક દૃષ્ટિએ જોતાં સુખ રૂપ જ નથી, તે તે ઉખના પ્રતીકારના જ કારણ રૂપ હોય છે. વિષયિક સુખમાં દુ ખેનું સંમિશ્રણ રહે છે, તેથી વિષમિશ્રિત ભેજનની જેમ તે ખરી રીતે તે દુખ રૂપ જ હોય છે. મૂઢ માણસે જ તેને સુખરૂપ માને છે, પરંતુ ખરી રીતે તે તે સુખાભાસ રૂપ હોવાને કારણે દુઃખ રૂપ જ છે. કહ્યું પણ છે કે , Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनो टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १६५ सिक्केतिभाषाप्रसिद्धवर्णदत् दर्शने विपरीतं दृश्यते मुद्रणे च सम्यगाकारण दृश्यते इति । एतादृशं सुखं परमानन्दमोक्षसुवस्य कारणं कथं स्यात, कथमपि कारणभावं नाश्रयन्ते इति । यदपि केशलोचादिकं दुःखकारणतया भवद्भिः प्रतिपादितम्, मूढ पुरुष ही उसे सुख मानते हैं किन्तु असल में सुखाभास होने के कारण वह दुःख है । कहा भी है 'दुःखात्मकेषु विषयेषु' इत्यादि । अज्ञानी जीवों की गति कैसी विपरीत होती है। जो विषय दुःखरूप हैं उन्हें वे सुखरूप मानते हैं और जो यमनियमसंयम आदि -सुखरूप हैं उन्हें दुःखल्प समझते हैं ! किसी धातु पर जो अक्षर या वर्ण अंकित किये जाते हैं, ये देखने पर उलटे दिखाई देते हैं, परन्तु -जब उन्हें मुद्रित किया जाता-छापा जाता है, तब सीधे हो जाते हैं। संसारी जीवों की सुखदुःख के विषय में ऐसी ही उलटी समझ होती है। . इस प्रकार पर पदार्थों पर अवलम्बिल, इन्द्रियों ग्राह्य, कर्मबन्ध का कारण, दुःखका मूल, क्षणविनश्वर और अनैकान्तिक विषय सुख स्वावलम्बी, इन्द्रियागोचर दुःख से अस्पृष्ट शाश्वत और ऐकान्तिक मुक्तिसुख का कारण किस प्रकार हो सकता है ? इनमें कोई अनुरू. . पना नहीं है, अतएच.आपके कथनानुसार सो विषयसुख .मोक्षसुख का कारण नहीं हो सकता। 'दुःखात्मकेषु विपयेपु' त्याह અજ્ઞાની મનુષ્યનો સ્વભાવ કેવો વિચિત્ર હોય છે! વિષયે કે જે દુઃખ રૂપ છે તેમને તેઓ સુખરૂપ માને છે, અને યમ, નિયમ, સંયમ આદિ જે સુખરૂપ વસ્તુઓ છે તેમને તેઓ દુખરૂપ સમજે છે. કઈ ધાતુના સિક્કા પર જે અક્ષર અથવા વ અંકિત કરવામાં આવે છે, તેમને જોવામાં આવે તે ઉલટા દેખાય છે, પરંતુ જ્યારે તેમને મુદ્રિત કરવામાં–છાપવામાં આવે - છે, ત્યારે તેઓ સવળા દેખાય છે. સંસારી જીવોની સુખદુખના વિષયમાં એવી જ ઊટી, સમજ હોય છે. આ પ્રકારનું પર પદાર્થો પર અવલંબિત, ઇન્દ્રિયો દ્વારા ગ્રાહ્ય કર્મબન્ધના કારણરૂપ, દુખનું મૂળ, ક્ષણવિનર અને અગ્નિકાન્તિક વિષયસુખ સ્વાવ-मी, छन्द्रियागोयर, हुमथी मस्पृष्ट, शयत मने सन्ति भुति सुमन કારણ કેવી રીતે હોઈ શકે? તેમની વચ્ચે કઈ પણ પ્રકારની અનુરૂપતા (સમાનતા) જ જણાતી નથી, તેથી આપના કથનાનુસાર પણ વિષયસુખ મેક્ષિ સુખનું કારણ હોઈ શકતું નથી. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्ग सूत्रे तदपि अल्पसत्वानामेव दुःखकारणं केशलोचादिकम् । महापुरुषाणां परमार्थचिन्तापरायणानां महत्सत्वतया सर्वमेवैतत् सुखायैव भवति । अपगतभयरागभेदोमुनिः तृणादि संस्तारलेऽपि शयानो यादृशं सुखं लभते तादृशं सुखं चक्रवर्तिनामपि न भवति । तथोक्तम् - 'तणसंथारनिसण्णो वि मुणिवरो भट्टरागमयमोहो । जं पावई मृत्तिमुहं कत्तो तं चकटी वि ॥१॥' छाया-तृणसंस्तारनिषण्णोऽपि मुनिवरो भ्रष्टरागमदमोहः । ____ यत्माप्नोति मुक्तिसुखं कुतस्तत् चक्रवर्त्यपि ॥१॥ आपने केशलोच आदि को दुःख का कारण कहा है किन्तु वह कायर पुरुषों को ही दुःख का कारण होता है । परमार्थ के चिन्तन में परायण महापुरुष महान् सत्वशाली होते हैं । उनको वह सुखावह ही होता है । - रागद्वेष मदमोह आदि विकारों से रहित मुनि घास की-शय्या पर शयन करता हुआ भी जिस अनिर्वचनीय सुख का अनुभव करता है, वह सुख तो चक्रवतियों के नसीब में भी नहीं होता। कहा भी है-'तण संधारनिसण्णो वि' इत्यादि । - तृणों के संस्तारक पर आलीन मुनि रागद्वेष मदमोह से रहित होने के कारण जिस निवृत्ति सुख की अनुभूति करता है, वह सुख चक्रवर्ती को कहां प्राप्त हो सकता है ? . આપે કેશલુંચન આદિને દુઃખનું કારણ કહ્યું છે, પરંતુ તે માત્ર કાથર પુરુષને માટે જ દુઃખનું કારણ બને છે. પરમાર્થના (આત્મહિતના-મોક્ષના). ચિત્વનમાં પરાયણ મહાપુરુષો ખૂબ જ સત્વશાળી હોય છે તેમને માટે તે તે સુખાવડ જ હોય છે. રાગદ્વેષ, મદ, મોહ આદિ વિકારોથી રહિત મુનિને ઘાસની શિષ્યા પર શયન કરતાં જે અવર્ણનીય સુખને અનુભવ થાય છે, તે સુખ તે ચવતી એને સુંદર, મુલાયમ શખ્યામાં શયન કરવા છતાં પ્રાપ્ત થતું નથી धु ५ छ ४तणसंधारनिसण्णो वि' त्याह તૃણના સંસ્તારક (બિછાના) પર શયન કરતા અથવા બેસતા મુનિ રાગ, દ્વેષ, મદ અને મેહથી રહિત નિવૃત્તિ સુખને અનુભવ કરે છે, તે જે સુખને અનુભવ કરે છે, તે સુખ તે ચકવતીઓને પણ કયાં પ્રાપ્ત થઈ શકે છે ? Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १५७ महतां घोरपरीवहोपसर्ग ननितदुख दुःखनाशायैव भवति, क्षमया निः शत्रुवर्तते शरीरमालिन्यं वैराग्यमार्गों वृद्धता वैराग्यकारणं भवति समस्तवस्तुपरित्यागरूपं. मरणं महोत्सवाय भवतीति संपूर्णमेव जगत् संपत्त्यैव पूरितं न कुत्रापि दुःखस्थान विद्यते । तथोक्तम् 'दुःखं दुष्कृतसंक्षयाय महतां क्षान्ते. पदं चैरिणः, कायस्याऽशुचिता विरागपदवी संवेगहेतुर्जरा। सर्वत्यागमहोत्सवाय मरणं जातिः सुहृद भीतये, संयद्भिः परिपूरितं जगदिदं स्थानं विपत्तः कुतः ॥१॥ घोर परीषहों और उपसगों से उत्पन्न होनेवाला दुःख महा. पुरुषों के लिए दुःखविनाश का ही कारण होता है। क्षमा से उनके शत्रु मिट जाते हैं। उनके लिए शरीर की मलीनता वैराग्य का मार्ग है, वृद्धता वैरोग्य का कारण है और समस्त वस्तुओं का त्याग रूप मरण महोत्सव होता है । इस प्रकार इन माहात्माओं के लिए सम्पूर्ण जगत् सम्पत्ति से परिपूर्ण होता है। उनकी दृष्टि में दुःख का कहीं कोई स्थान ही नहीं है। कहा भी है-'दुःखं दुष्कृतसंक्षयाय महता' इत्यादि। महान् पुरुषों के लिये दुःख पापकों के क्षय के लिए होता है, शत्र क्षमा के पात्र होते हैं, शरीर की अशुचिता वैराग्य का कारण होती है, वृद्धावस्था वैराग्य का कारण बन जाती है, मृत्यु महोत्सव का रूप धारण करती है, जन्म सज्जनों की भीति का कारण होता है। इस ઘેર પરીષહ અને ઉપસર્ગોને કારણે મહાપુરુષે પર જે દુઃખ આવી પડે છે, તે દુખે તેમના દુખવિનાશમાં જ કારણભૂત બને છે. ક્ષમાગુણને કારણે તેમના શત્રઓને અભાવ થઈ જાય છે. તેમને માટે શરીરની મલીનતા વિરાગ્યનો ભાગ છે, વૃદ્ધતા વૈરાગ્યનું કારણ છે અને સમસ્ત વસ્તુઓના ત્યાગરૂપ મરણ મહોત્સવરૂપ બની જાય છે. આ પ્રકારે તે મહાત્માઓને માટે તે સંપૂર્ણ જગત સંપત્તિથી પરિપૂર્ણ હોય છે. તેમની દૃષ્ટિમાં તે કયાંય પણ દુઃખનું કે ઈ સ્થાન જ હોતું નથી. કહ્યું પણ છે કે – 'दुःखं दुष्कृतसंक्षयाय महतां' त्याह મહાન પુરુ પર આવી પડતાં દુ ખ કર્મક્ષય કરનારા થઈ પડે છે. તેઓ શત્રુઓને પણ ક્ષમાને પાત્ર ગણે છે, તેમના શરીરની અશુચિતા ધરા ગ્યમાં કારણભૂત થાય છે, તેમની વૃદ્ધાવસ્થા તેમનામાં વૈરાગ્યભાવની વૃદ્ધિ કરનારી થઈ પડે છે, તેમને મન મયુ તે મહોત્સવરૂપ થઈ પડે છે. (સંસાર Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮ सूत्रकृतागसूत्रे किं च यदि एकान्ततः सुखेनैव सुखं मन्यते चेत्, तदा संसारे विचित्रता न स्यात् । स्वर्गस्थाः सर्वदा स्वर्गस्था एव भवेयुः नारका नारकाएक, नत्वेवं संभ afa | कदाचित नारकोsपि विहाय नरकं सुखमनुभवति, सुखिनोऽपि दुःखम् । न च दृष्टविरोधः कल्प्यमानः पण्डितपरिषदि शोभेत इति || ६ || अस्यैवोत्तरं माह-'मा एयं' इत्यादि । मूलम् - मां एवं अवमन्नंता अप्पेणं लुपहा बहु | एयस्स उं अमोक्खाय अओहारिव्व जूरेह ॥ ७॥ छाया - मा एतमवमन्यमाना अल्पेन लुम्पथ बहु । तस्य तु अमोक्षे अयोहारीव जूरयथ ॥७॥ प्रकार यह अखिल जगत् उनके लिए सम्पत्ति से परिपूर्ण है । उनके - लिए विपत्ति कहां ॥१॥ यदि यह एकान्त मान लिया जाय कि सुख से ही सुख की प्राप्ति होती है तो संसार में विचित्रता नहीं होनी चाहिए | स्वर्ग के देव सदा स्वर्ग में ही रहने चाहिए और नारक नरक में ही सडते रहने चाहिए | किन्तु ऐसा होता नहीं है । नारक जीव भी नरक से उवतेन (निकलकर ) करके सुख का पात्र बनता है और सुखी भी कदाचित् दुःख का अनुभव करते हैं । प्रत्यक्ष का विरोध करना पण्डितों के समूह में शोभा नहीं देता ||६|| માંથી છૂટીને માક્ષપ્રાપ્તિ થવાને કારણે) અને તેમને જન્મ સજજનેાની પ્રીતિનું કારણ મને છે. આ પ્રકારે આ અખિલ જત્ તેમને માટે તેાસપત્તિથી પરિપૂર્ણ હાય છે. આ પ્રકારે તેમને વિપત્તિ સહન કરવાના અવકાશ रहेता नथी. ॥१॥ α એ એકાન્તતઃ એવુ' માની લેવામાં આવે કે સુખ વડે જ સુખની ઉત્પત્તિ થાય છે, તેા સૌંસારમાં સુખટ્ટુ ખ રૂપ વિચિત્રતા હાવી જોઈએ જ નડી', સ્વર્ગના દેવે સડા સ્વગમાં જ રહેવા જોઇએ અને નારકેએ સદા નરકમાં જ પીડા સહન કરતા રહેવું પડે. પરન્તુ એવુ' તે ખનતું નથી. નારક જીવે પણ નરકમાંથી ઉત્તતા કરીને-નીકળીને-સુખને પાત્ર બની શકે છે, અને સુખી જીવેા પશુ ચારેક દુ:ખના અનુભવ કરે છે. આ પ્રકારના જે પ્રત્યક્ષ અનુભવ થાય છે તેને વિશેષ કરવેા તે ડિનેાના સમૂહમાં "शोभतु थी, ॥६॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संमयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः अन्वयार्थ : - (एयं ) एनं सर्वज्ञपतिपादितमार्गम् (अत्रमन्नंता) अवमन्यमानास्तिरस्कुर्वाणाः (अप्पेणं) अल्पेनापि शब्दादिकभोगलोभेन (बहु) बहु - अत्यधिकं (मा पहा) मा लुम्पथ=मा विध्वंसय (एयस्स) एतस्य सुखादेव सुखमितिपक्षस्य ( अमोखा) अमोक्षेऽपरित्यागे (अओहारिन ) भयोहारीव सुवर्ण परित्यज्य लोहं गृहन वर्णिग् इत्र (ज्ररह) जूरयथ = पश्चात्तापं करिष्यथ इति ॥७॥ १५९ इसीका उत्तर देते हैं--'मा एवं' इत्यादि । शब्दार्थ - - ' एवं - एनम् ' यह सर्वज्ञ प्रतिपादित जिन मार्गको 'अव-'" मन्नंता - अवमन्यमानाः' तिरस्कार करनेवाले तुम लोग 'अप्पेणंअल्पेन' अल्प- अर्थात् तुच्छ ऐसे शब्दादि विषय भोग के लोभसे बहुबहु' अत्यधिक मुल्यवान् मोक्षसुखको 'मा लुपहा-मा लुम्पथ' खराब न करो 'एयस्स - एतस्य, सुखसे ही सुख होता है ऐसा यह असत्पक्ष को 'अमोक्खाय - आमोक्षे' नहीं छोडने पर 'अओहारिव्व - अयोहारीव' सुवर्ण को छोड़कर लोहे को ग्रहण करनेवाला वणिक पुरुष के जैसा 'जूरह - जूग्यथ' पश्चात्ताप करना पडेगा ||७|| अन्वयार्थ - इस प्रकार सर्वज्ञप्रतिपादित मार्ग की अवगणना करते हुए थोडे के लिए बहुत को नष्ट मत करो । सुख से ही सुख होता. है, इस पक्षका त्याग न करने पर आपको उसी प्रकार पश्चात्ताप करना શાચ આદિ પરતીથિકાની ઉપર્યુક્ત માન્યતાના સૂત્રકાર ઉત્તર આપેછે. ' मा एयं' त्याहि शब्दार्थ—‘एय-एनम्' मा सर्वज्ञ प्रतिपादित भागने 'अवमन्नंता - अवमन्यमाना ' तिरस्र पुरवावाणा तमे बोओ 'अप्पेणं-अल्पेन' अस्थ -અર્થાત્ તુચ્છ એવા શબ્દ વગેરે વિષય ભાગના ટેાલથી ‘દું-વહુઁ' અત્યધિક भुयवान् भोक्षसुमने 'मा लुंपदा - मा लुम्पथ' अत्मना । 'एयरस - एतस्य ' सुभथी सुभ थाय छे भावु मा असत्ययक्षने 'अमोक्खाय - आमोक्षे' न छोरवाथा 'अओहारिव्त्र - अयोहारीव' सोनाने छोडीने सोड़ने ગ્રહણ २वावाजा बलि पु३षना ना 'जूरह -जूरयथ पश्चात्ताप ४२व उशे ॥ માર્ગની અવગણુના કરીને ले यो नहीं. सुभ द्वारा .' सूत्रार्थ - —આ પ્રમાણે સજ્ઞ પ્રતિપાતિ थोडा (सुख)ने भाटे वधारे ( सुम) ने नष्ट ४२ સુખ પ્રાપ્ત થાય છે, આ પ્રકારની માન્યતાનેા ત્યાગ ન કરવાથી આપને સુખ પ્રાપ્ત થાય છે, આ પ્રકારની માન્યતાના ત્યાગ ન કરવાથી આપને એવા Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० सूत्रकृताङ्गसूत्रे टीका- भो भो अन्यतीर्थिकाः बीजोदकाद्युपभोगेन मोक्षो भवतीति मन्यमानाः । तथा सावधपूजां मोक्षकारणं मन्यमानाः पूजापतिष्ठापरायणा दण्डिनः शीथिकाचारिपार्श्वस्थादयः 'ए' एनम् = सर्वज्ञपतिपादितमोक्षमार्गम्, सुखेनैव सुखं जायते इत्यादि असदाय हे न व्यामोहिता भवथ, 'अवमन्नंता' अवमन्यः मानाः= तिरस्कुर्वाणाः 'अप्पेण' अल्पेन चैपयिकसुखेन 'बहु' बहु=अधिकं सर्वतः श्रेष्ठं मोक्षसुखं, 'मापा' मा लुम्पथ = अत्यल्पचैपथिकसुखेच्छया सावागारवादि सुखलिप्स्या वा निरतिशयं मोक्षं सुखं मा तिरस्कुरुत । विषयसुखप्राप्त्या कामोद्रेक एव स्यात् । ततश्च चित्तास्वास्थ्यं न पुनः समाधेरुद्भवः, तदभावात् कुतो मोक्षाशा । अपि च- 'एक्स' एतस्य मोक्षविपरीतपक्षस्य ' अमोक्खाय' पडेगा जैसे स्वर्ण की उपेक्षा करके लोह के भार को वहन करनेवाले को करना पडता है ॥ ७ ॥ टीकार्थ--हे अन्घतीर्थिको ! बीज और सचित्त जल आदि के उपभोग से मोक्ष प्राप्ति माननेवालो ! सावध पूजा को मोक्ष का कारण माननेवालो | पूजा प्रतिष्ठा में परायणो ! दण्डियो ! शिथिलाचारी पार्श्वस्यो ! सुख से ही- सुख की प्राप्ति होती है, इस प्रकार के दुराग्रह से भ्रान्ति के शिकार होकर आप लोग सर्वज्ञ प्ररूपित मोक्षमार्ग की अवगणना करते हैं । परन्तु अल्प तुच्छ वैषयिक सुख के लिए अधिक अर्थात् श्रेष्ठ मोक्षसुख को मत गंमाओ । अत्यन्त अल्पविषय सुख की इच्छासे निरतिशय मोक्षसुख का तिरस्कार न करो । विषयसुख की प्राप्ति से काम का उद्रेक ही होगा । उससे चित्त अस्वस्थ बनेगा પશ્ચાત્તાપ કરવા પડશે કે જેએ પશ્ચત્ત'પ સેાનાની ઉપેક્ષા કરીને લે ઢાના ભાર વહન કરનારને કરવે પડે છે. રાણા ટીકા — અન્યતીથિકા । બીજ અને સચિત્ત જલ આદિના ઉપભાગથી માક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે, એવું માનનારા હૈ પૂજા પ્રતિષ્ઠામાં લીન રહેનારા અજ્ઞાની से. ! हे हंडीओ!! हे शिथिलायारी थे । सुख द्वारा ४ सुमंती प्राप्ति थाय છે, એવા દુરાગ્રહ તથા ભ્રામક ખ્યાલને ભેગ બનીને તમે સર્વજ્ઞ પ્રરૂપિત મેક્ષમાર્ગની અવગણના કરી રહ્યા . પરન્તુ ૯૫ (તુચ્છ) વૈષયિક સુખને ખ તર અધિક સુખના સર્વેřત્તમ મેક્ષસુખને-ત્યાગ કરવે જોઇએ- નહી.. અત્યન્ત અલ્પ વિષયસુખ ભાગવવાને માટે નિરતિશય મેાક્ષસુખને તિરસ્કાર કરવે ઉચિત નથી. વિષયસુખની પ્રાપ્તિ દ્વારા કામના ઉદ્રેક જ થાય છે– મણુસ વાસનાઓને અધિકને અધિક ગુલામ ખનતે જાય છે, તેથી ચિત્તની Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका प्र. शु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १६१ अमोक्षेप्रपरित्यागे 'अोहारिव्य जूरह' अयोहारीद जूरयथ, आत्मानं पीड़यथ एक केवलम् । यथा कश्चिद् अयोहारी लोहवणिक गृहमागच्छन् मार्गे स्वर्णादिकं परित्यज्यायोभारमपरित्यजन् तमारेणाऽऽक्रान्तो दुःखमात्रमनुभवन्नासीत् । तथैव भवान् असदाग्रहेण ग्रहेण रत्नत्रयसाध्यं मोक्षमुपेक्ष्य तादृशकुतर्कभारेण पीडितो भविष्यति-इति ॥७॥ और समाधि की उपलब्धि नहीं होगी । समाधि के अभाव में मोक्ष की आशा ही कैसे की जा सकती है। __इसके अतिरिक्त मोक्ष संबंधी इस विपरीत पक्ष का त्याग न करोगे तो लोह का भार उठानेवाले पुरुष के समान झुरना पडेगा । जैसे लोह के भार को वहन करनेवाला लोह वणिक अपने घर की ओर लौट रहा था, मार्ग में उसे स्वर्ण आदि की खान मिली, किन्तु लोह मोह के कारण उसने लोह का परित्याग न करके स्वर्ण को ग्रहण नहीं किया । लोह के भार से पीडिन होता हुआ यह अपने घर पहुँचा और दुःखमय दिन व्यतीत करने लगा। इसी प्रकार आप लोग कदा. ग्रह के वशीभूत होकर रत्नत्रय से प्राप्त होनेवाले मोक्षसुख की उपेक्षा करके कुतर्क के भार से पीडित होओगे । अतएव स्वर्ण के समान मोक्षसुख को त्याग कर लोक के समान विषयसुख को मत ग्रहण करो।। સવસ્થતા રહેતી નથી અને સમાધિ માટે અવકાશ જ રહેતે નથી સમાધિને જ અભાવ હોય તો મોક્ષની આશા જ કેવી રીતે રાખી શકાય ? જે મોક્ષપ્રાપ્તિના સાચા માગને ગ્રહણ કરવાને બઢલે તમે ઉપર્યુક્ત ખાટા માર્ગનો આધાર લેશે તે તમારે લોઢાનો ભાર વહન કરનાર માણસની જેમ પસ્તાવું પડશે લેઢાને ભાર વહન કરનારા પુરુષનું દેષ્ટાન્ત નીચે પ્રમાણે છે-કેઈ એક વણિક લોઢાના ભારને વહન કરતા પિતાને ગામ પા છે ફરતો હતો માર્ગમાં તેણે એક સેનાની ખાણ જોઈ. પરતુ લોઢા પ્રત્યેના મેહને કારણે તેણે લેઢાને ત્યાગ કરીને તે સોનું ગ્રહણ કર્યું નહીં. લોઢાને ભાર વહન કરીને ખૂબ જ થાક્યો પાક્યો તે પોતાને ગામ પાછો ફથી, અને સેનાને ગ્રહણ ન કરવા માટે ખૂબ જ પસ્તાવા લાગ્યા. એજે. પ્રમાણે આપ પણ કદાગ્રહનો ત્યાગ કરીને જે સર્વજ્ઞ પ્રરૂપિત માર્ગનું અવલંબન નહી લે, તે આપને પણ પસ્તાવું પડશે રત્નત્રય વડે પ્રાપ્ત થનારા મોક્ષસુખની ઉપેક્ષા કરીને જે આપ સુખદ્વારા સુખ પ્રાપ્ત કરવાના કુતર્કને આધાર લેશે, તે તે કુતકના ભારથી દુઃખી થવું પડશે. તે સુવર્ણના સમાન મોક્ષસુખને ત્યાગ કરીને લોહના સમાન વિષયસુખની અભિલાષા २014 से नही ॥७॥ सू० २१ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ । - सूत्रकृताङ्गसूत्र मूलम्-पाणाइवाए वढता मुलावोए अलंजता। अदिन्नादाणे वदंता सेहुणे य परिगहे ॥८॥ छाया-प्राणातिपाते वर्तमाना मृषावादे असंयताः । ___ अदत्तादाने वर्तमाना मैथुने च परिग्रहे ॥८॥ अन्वयार्थः-(पाणाइवाए) प्राणातिपाते जीवहिंसायां पट् जीवनिकायमर्दनरूपायां (मुसावाए) मृपावादे (अदिन्नादाणे) अदत्तादाने (मेहुणे) मैथुने (परिग्गहे) परिग्रहे (वता) वर्तमानाः यूयम् (असंजना) असंयत्ताः सन्तीति । ८॥ टीका-मुखादेव सुखं जायते इति मिथ्यासिद्धान्तं दुषयितुं सूत्रकारः अन्यतीथिकान् माह-पाणाइवाए' प्राणातिपातेवजीवनिकायहिंसने, 'सुसा. वाए' मृषावादे, मिथ्यावचनप्रयोगे । 'अदिन्नादाणे' अदत्तादाने 'मेहुणे' मैथुने . शब्दार्थ-पाणाइवाए-प्राणालिपाते' षड्जीवनिकायके मर्दनरूप जीवहिंसा में 'सुहावाए-मृषावादे' मियाभाषण में 'अदिन्नादाणे-अदत्तादाने अदत्तादान में 'मेहुणे-मैथुने' मैथुन में 'परिगहेपरिग्रहे, परिग्रह में 'वता-पतमाना.' प्रवृत्त रहनेवाले आप लोक 'असंजता-असंयताः' असंयमी है ॥८॥ ___ अन्वयार्थ--प्राणातिपात, मृषावाद, अदन्तादान, मैथुन और परिग्रह में प्रवृत्ति करते हुए आप लोक असंयमी हैं ॥८॥ . टीकार्थ-सुख से ही मुख की उत्पत्ति होती है, इस मिथ्या सिद्धान्त को दषित करने के लिए मूत्रकार अन्यतीर्थिकों के प्रति कहते हैं-प्राणातिपान अर्थात् पटू जीवनिकाय की हिंसा में मृषावाद मिथ्या'शार्थ-पाणाइवाए-प्राणातिपाते' १३ नियनी भहन३५ १ हिंसामा 'मुसावाए-मृपावादे' मिथ्या लापमा 'अदिनादाणे-अदत्तादाने महत्ता होनi 'मेहणे-मैथुने' भैथुनमा 'परिग्गहे-परिग्रहे' परियडमा 'वटुंता-वर्तमानाः', प्रवृत्त २२वाणा माला। 'असंजता-असंयताः' भसयभी छ। ॥८॥ સૂત્રાર્થ–પ્રાણાતિપાત, મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, મિથુન અને પરિગ્રહમાં પ્રવૃત્ત એવાં આપ લેકે અસંયમી છે. ૮ : , ટીકાર્ચ–“સુખ દ્વારા જ સુખ ઉત્પન્ન થાય છે, આ પ્રકારના મિથ્યા સિદ્ધાંતમાં રહેવા દે પ્રકટ કરવાને માટે સૂત્રકાર પરતીWિકેને આ પ્રમાણે કહે છે–તમે પ્રાણાતિપાત-કાયના જીવોની હિંસામાં પ્રવૃત્ત રહે છે, Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १६३ तथा-'परिग्गहे' परिग्रहे, 'पटुंता' वर्तमानाः सन्तो यूयम् 'असंजता' असंयता, संयमरहिता भवन्तः, न तु साधवः । प्राणातिपातमृषावादाऽदत्तादानमैथुनपरिग्रहेषु विद्यमाना भवन्तः संयमरहिताः वर्तमानसुखमात्रलिप्सवः वैषयिकमुखलालसया ऐकान्तिकमोक्षसुखं नाशयन्तो मोक्षमार्गबहिभूता यूयम् । प्रतिवादी पृच्छति-कथं मया प्राणातिपातादिकं सेव्यते-तत्रोत्तरमाह-पचनपाचनादि सावधकर्मानुष्ठानेन हिंसा जायत एव । तथा वयं संन्यासिनः साधवचेति स्वीकृत्यापि गृहस्थाचारं-कुन्ति ततो मृपावादः प्राप्नोति, तथा-पज्जीवनिकायानां शरीरेण वचनों के प्रयोग में, अदत्तादान चौरी में मैथुन में तथा परिग्रह में प्रवृत्ति करते हुए आप संयम से रहित हैं, साधु नहीं हैं। __ आशय यह है-प्राणातिपात, कृषादाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह इन पापों में प्रवृत्ति करनेवाले आप संयम से रहित हैं और केवल वर्तमानकालीन सुख के अभिलाषी हैं। आप वैषयिक सुखकी लालसा से प्रेरित होकर ऐकान्तिक मोक्षलुख को विनष्ट कर रहे हैं, इस कारण आप मोक्षमार्ग ले बहिभूत हैं। ... प्रतिवादी का प्रश्न-हम प्राणातिपात आदि का सेवन कैसे करते हैं ? * उत्तर-पचन पाचन आदि सावध कर्मों को करने से हिंसा होती ही है। तथा अपने आपको संन्याली और साधु कहते हुए भी गृहस्थों जैसा आचरण करने के कारण कृपाबाद की भी प्राप्ति होती है। जिन અસત્ય વચનોને પ્રયોગ કરે છે, અદત્તાદાન (ચોરી), મૈથુન અને પરિગ્રહમાં પણ તમે પ્રવૃત્ત રહે છે. આ પ્રકારની પાપપ્રવૃત્તિ કરનારા તમે સંયમથી રહિત છે. તમે સાધુ જ નથી. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે પ્રાણાતિપાત, મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, મૈથુન અને પરિગ્રહ રૂપ પાપકર્મોમાં પ્રવૃત્ત રહેનારા આપ સંયમથી રહિત છે, અને આપ માત્ર વર્તમાન કાલીન સુખની જ અભિલાષા રાખનારા છે, આપ વૈષયિક સુખની લાલસા વડે પ્રેરાઈને સર્વોત્તમ મોક્ષસુખને વિનાશ કરી રહ્યા છે. તે કારણે આપ મોક્ષમાર્ગની બહાર જ પડેલા છે. પ્રતિવાદીને પ્રશ્ન–અમે પ્રાણાતિપાત આદિનું સેવન કેવી રીતે કરી રહ્યા છીએ? ઉત્તર–તમે તમારે માટે ભજન રાંધે છે અથવા બીજા પાસે ૨ધા છે. આ પ્રકારના ચાવઘ કર્મો કરવા-કરાવવાથી હિંસા થાય છે વળી આપઆપને સાધુ તરીકે ઓળખાવે છે. છતા પણ ગૃહસ્થના જેવું આચરણ • રાખે છે, તેથી આપ મૃષાવાદથી થતાં પાપકર્મના પણ બન્ધક બને છે. Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे भवन्त उपभोगं कुर्वन्ति, तत् शरीर तत्स्वामिना नैव दत्तं भवद्मिश्चोपमुक्तमिति अदत्तादानमपि भवति । तथा-गवादीनां मैथुनस्याऽनुमोदनादब्रह्मेति । धनधान्य द्विपदचतुष्पदादीनां परिग्रहोऽपि भवत्येवेति भावः ॥८॥ __ मतान्तरं दृषयितुं पूर्व तन्मतं प्रदर्शयति सूत्रकारः-'एवमेगे उ' इत्यादि । मूलम्-एवमेगे उ पासस्था पनवंति अगारिया। इत्थी वंसं गया बाला जिणलालणपरंमुहा ॥९॥ छाया-एवमेके तु पार्श्वस्थाः प्रज्ञापयन्त्यनार्याः । स्त्रीवशं गता वाला जिनशासनपराङ्मुखाः ॥९॥ जीवों के शरीर से आप उपभोग करते हैं, वह शरीर उनके स्वामियों ने आपको भोगने के लिए प्रदाल नहीं किया है, अतएष अदत्तादान भी होता है । गौ आदि के मैथुन की अनुमोदना करने के कारण अब ह्मचर्य का दोष लगता है । धन धान्य, द्विपद चतुष्पद आदि का परि ग्रहतो होता है ।।८॥ मतान्तर को दुषित करने के लिए सूत्रकार उसे पहले दिखलाते हैं-'एवमेगे उ' इत्यादि। शब्दार्थ-'इत्थी वसं गया-स्त्रीवशं गताः' स्त्रीके वश में रहनेवाले 'बाला-बाला:' अज्ञानी 'जिणसाप्तणपरंमुहा-जिनशासनपराङ्मुखाः' जैनेन्द्र के शासनसे पराङ्मुख-अर्थात् विपरीत चलनेवाले 'अणारिया જે એના શરીર વડે આપ ઉપભેગ કરો છો, તે શરીર તેમના 'સ્વામીએએ આપને ભેગને માટે પ્રદાન કર્યા હતાં નથી, તેથી આપ અદત્તાદાનનું પણ સેવન કરનારા છે આપ ગ ય આદિના મૈથુનની અનુમોદના કરે છે તેથી આ૫ અબ્રહ્મચર્યના દોષના પણ ભાગીદાર બને છે. આપ 'धन, धान्य, द्वि५४, यतु:५४ आहिना परियड ५९ ॥ छ।, तथा 'मा५ પરિગ્રહજન્ય પાપકર્મના પણ બન્ધક બને છે. ૮ મતાન્તરો (અન્ય મતવાદીઓના મત)નું સ્વરૂપ પ્રકટ કરીને સૂત્રકાર तमा २सा होषा ४८ ४२ छ-'एवमेगे उ' त्याहि शा-'इस्थीवसं गया-स्त्रीवशं गताः' मीना शभा पापा 'बाला बालाः' अज्ञानी 'जिणसासणपरंमुहा-जिनशासनपरा मुखाः' मन्द्रना शासनथा पशंभुभ-अर्थात् विपरीत यासापामा 'अणारिया-अनार्याः' मनाय' 'एगे Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १६५ अन्वयार्थ:-(इत्थी वसंगया) स्त्रीवशं गताः (वाला) बालाऽज्ञानिनः (जिणसासणपरंमुहा) जिनशासनपरांमुखा जैनमार्गलज्जयितारः (अणारिया) अनार्याः (एगे पासत्था) एके पार्श्वस्थादयः (एवं) एवं वक्ष्यमाणम् (पन्नवंति) प्रज्ञापयन्ति-कथयन्तीति ॥९॥ टीका-'इत्थीवसंगया' स्त्रीवशंगता स्त्रीणामाज्ञायां विद्यमानाः 'वाला' पाला-अज्ञानिनो रागद्वेषोपहतमानसाः जीवाः 'जीणसासणपरंमुहा' जिनशासनपराङ्मुखाः जिनप्रतिपादितपायमोहोपघातहेतुभूतामाज्ञामननुवर्तमानाः तत्पराङ्. मुखाः । 'अणारिया' अनार्या:-आर्यकुलोत्पन्नत्वेपि अनार्यकर्मकारिणः । 'एगे उ पासस्था' एके तु पार्श्वस्थाः शाक्यविशेषाः, सत्कर्माननुष्ठानात् पार्श्वे समीपे विधमानाः उपलक्षणान् अबसन्नकुशीलयथाच्छन्दादयः ‘एवं' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अनार्या।' अनार्य 'एगे पासस्था-एके पार्श्वस्था' कोई पार्श्वस्थ एवंएवम्' इस प्रकार 'पन्नति-प्रज्ञापयन्ति' कहते हैं ॥९॥ ____ अन्वयार्थ-स्त्रियों के अधीन, विवेक से हीन जिन शासन से विमुख कोई कोई अनार्थ-पावस्थ आदि इस प्रकार-आगे कही जानेवाली प्ररूपणा करते हैं ॥९॥ 'टीकार्थ--स्त्रियों की आज्ञा के अनुसार चलनेवाले, राग और द्वेष से मोहितप्रतिवाले, जिनशासन लें विमुख अर्थात् जिनेन्द्र द्वारा प्रति. पादितकषाय और मोह के उपशन के कारणभूत आज्ञा का अनेसरण न करनेवाले और आयकुल में जन्म लेकर भी अनार्य 'कर्म करने वाले कोई कोई पाश्वस्थ अर्थात् शिथिलाचारी और उपलक्षण से अचपासत्था-एके पार्श्वस्था.' ४ ५।२५ ‘एवं-एवम्' ! ४ारे पन्नवतिप्रज्ञापयन्ति' ४. छ. neu સૂત્રાર્થ–સ્ત્રીઓને આધીન, વિવેક, અને જિનશાસનથી વિમુખ એવા કેઈ કેઈ અનાર્યો (પાર્શ્વ આદિ લેકે) નીચે પ્રમાણે પ્રરૂપણા કરે છે–ાલો ટીકાર્થ–સ્ત્રીઓની આજ્ઞાનુસાર ચાલનાશ, રાગ અને દ્વેષથી માહિત મતિવાળા, જિનશાસનનું અનુસરણ ન કરનારા-જિનેન્દ્રો દ્વારા પ્રતિપાદિત, કષાય અને મેહને ઉપશમ કરવામાં કારણભૂત એવી આજ્ઞાનું અનુસરણું ન કરનારા અને આર્યકુળમાં જન્મ લેવા છતાં પણ અનાનાં જેવાં કર્મો કરનારા કઈ કઈ પાર્થ-શિથિલાચારી લેકે (તથા આ પદ દ્વારા ઉપલક્ષિત અવસગ્ન, કુશીલ અને સ્વછંદી લેકે આ પ્રકારની પ્રરૂપણ કરે છે, કારણ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'पन्नवंति' प्रज्ञापयन्ति कथयन्ति । ललनाललामाऽपांगविधान्तःकरणाः । । तथाहि तेषां कथनम् १६६ હૃદ 'प्रियदर्शनमेवास्तु किमन्यैर्दर्शनान्तरैः । प्राप्यते येन निर्माण सरागेणापि चेतसा ॥१॥ कमनीय कान्तारंगजनितसुखमेव सुखमिति मन्यन्ते ते । वस्तुतस्तु एगे इति पदेन शाक्तविशेषाणामेव ग्रहणम् समीचीनम् । तेषामागमे व्यवहारे च स्त्रीणां मधा नतया उपादानात् । स्त्रीसंबन्धेनैव मोक्षस्यापि प्रतिपादनात् ||९|| मूलम् - जहा 'गंड पिलागं वा परिपीलेज - मुहुत्तगं । एवं विन्नवणित्थी दोसो त केओसिया ॥१०॥ सन्न, कुशील तथा यथाच्छन्दक इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं, क्योंकि उनका अन्तःकरण स्त्रियों के कटाक्ष से विद्व होता है । वे कहते हैं-'प्रियदर्शनमेवास्तु' इत्यादि । 'प्रिया का दर्शन ही बस है, अन्यदर्शनों से क्या लाभ है ? रागयुक्तचित्त होने पर भी प्रियदर्शन से निर्वाण की प्राप्ति हो जाती है।' वे ऐसा मानते हैं कि कान्ता के संवर्ग से उत्पन्न हुआ सुख ही वास्तव में सुख है । वास्तव में 'एगे' इस पद से शाक्तों का ग्रहण करना ही उचित है। उनके आराम में और व्यवहार में भी स्त्रियों को प्रधानरूप से ग्रहण किया जाता है । उन्होंने स्त्रियों के संबंध से ही मोक्ष की प्राप्ति भी कही है ॥ ९ ॥ કે તેમનાં 'તઃકરણ સ્રિનાં મેાહક કટાક્ષેાથી વીધાઇ જતાં ડાય છે. તેઓ शेवी हन्त्रीस १रे थे है- 'प्रियदर्शनमेवास्तु' इत्यादि પ્રિયાનાં દર્શન જ ખસ છે' અન્ય દશનાથી શ। લાભ થાય છે રાગયુક્ત ચિત્ત થવા છતાં પણ પ્રિયદર્શનથી નિર્વાણુની પ્રાપ્તિ થઈ જાય છે. તેએ એવુ માને છે કે કાન્તાના સંસર્ગથી ઉત્પન્ન થતું સુખ જ વાસ્તવિક સુખ છે. ì' ઇત્યાદિ પદો દ્વારા સ્ત્રીસસને જ વાસ્તવિક સુખ માનવાની માન્યતા ખાસ કરીને શાકતા ધરાવે છે. તેમનાં મારામ સ્થાનામાં તથા વ્યવહારમાં પણ સ્રિયાને પ્રાધાન્ય આપવામાં આવેલુ છે. તેએ એવુ પ્રતિપાદન કરે છે કે સ્ત્રિઓના સ'સથી જ મેાક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે. પા Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिभो टीका प्र.श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः. १६७ -- छाया-यथा गण्ड पिटकं वा परिपीडयेत मुहूर्त्तकम् । एवं विज्ञापनीस्त्रीषु दोषस्तत्रकुतो भवेत् ॥१०॥ अन्वयार्थः- (जहा) यथा (गंड) गण्डलघुविस्फोटका (पिलागं वा) पिट___ कं वा=गुरुविस्फोटका (मुहुत्तगं) मुहूर्त क्षणमात्रम् (परिपीलेज्ज) परिपीड येत (एवं विनवणित्थीसु) एवं विज्ञापनीस्त्रीषु सकामप्रार्थितास (तत्य) तत्र-स्त्री. संभोगे (दोसो) दोषः (कओ सिया) कुतः स्नान्नैव भवेत् यथा विस्फोटकजनित. पीडा विस्फोटकमर्दनेनापयाति क्षणमात्रेण सुखी भवति न तत्र कोपि दोष स्तथैव स्त्रीसमागमेपि न दोष इति ॥१०॥ टीका-ते यत् प्रतिपादयन्ति तदेव सूत्रकारः प्रतिपादयति । 'जहा' यथा 'गंडं' गण्डं अल्पं स्फोटकं 'पिलाग' पिटकं महास्फोटं वा 'मुहुत्तगं' मुहूर्त्तक शब्दार्थ-'जहाँ-यथा' जैसे 'गंडं-गण्ड' छोटे फुन्शी को अथवा , 'पिलागं वा-पटक वा' बडे फोडेको 'मुहत्तर्ग-मुहर्तकम्' क्षणमात्र 'परिपीलेज्जा-परिपीडयेत' वा देना चाहिये 'एवं चिन्नवणिस्थीसु-एवं विज्ञापनी स्त्रीषु' इसी प्रकार समागमकी प्रार्थना करनेवाली स्त्रीसे समागम करना चाहिये 'तत्थ-तत्र' इस कार्य में 'दोसो-दोषः' दोष 'कओसिया-कुतः स्यात्' कहां से हो सकता है ? अर्थात् नहीं होता है।१०॥ - अन्धयार्थ-घे कहते हैं-जैसे कुंलिया-फोडे को थोडी देर दयाया जाता है तो (पीच निकल जाने ले शान्ति हो जाती है ) इसी प्रकार कामभोग की प्रार्थना करनेवाली स्त्री के साथ संभोग करने से शान्ति हो जाती है। इसमें दोष कैसे हो सकता है ? ॥१०॥ ___टीकार्थ-वे अन्यदर्शनी जिस प्रकार प्रतिपादन करते हैं, वह सूत्रकार शहाथ-'जहा-यथा' २वी रीत 'गंडं-ठम्' नानी ने मथा 'पिलागं वा-पिटकं वा' मारी टीन 'मुहत्तग-मुहुर्तकम्' क्षमात्रमा परिपिलेजा-परिपीरयेत' ४ावी हे 'एवं विन्नवणित्थीसु-एवं विज्ञापनीસ્ત્રીપુ' આ પ્રકારે સમાગમની પ્રાર્થના કરવાવાળી સ્ત્રી સાથે સમાગમ કર श. 'तत्थ-तत्र' मा आय भी 'दासो-दोषः' घोष 'कओ सिया-कुतः स्यात्' ક્યાંથી થઈ શકે છે? અર્થાત દેષ લાગતું નથી. ૧૧ સૂત્રાર્થ_એ એવું પ્રતિપાદન કરે છે કે-જેમ ખીલ અથવા ગુમડાને ડીવાર દબાવવાથી તેમાંથી દાણે અને પરુ નીકળી જવાથી શાતિ થાય છે, એ જ પ્રમાણે કામગની પ્રાર્થના કરનારી કામિની સાથે સંભોગ કરવાથી શાન્તિ થઈ જાય છે. તેમાં દોષ જ કેવી રીતે સંભવી શકે છે? ૧૦ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ सूत्रकृताङ्गसूत्र मुहर्त्तमात्रम् 'परिपीलेज्ज' परिपीड येत, यथा व्रणवान् व श्चित् क्षणमात्रं निष्पीडय ततः पूयादिकं निस्सारयंति, तत्र च सुखमुत्पद्यते-न तु कोऽपि दोपो भवति । तया 'विनवणित्थीसु' विज्ञापनीस्त्रीपु समागमाशया कृतमार्थनासु स्त्रीपु समागमेन न कश्चिद् दोषः। 'तत्थ' तस्मिन् स्त्रीमसङ्गे 'दोसो' दोषः 'कओ' कुतः 'सिया' स्यात् । अर्थात् नैव दोषसंभावनेति तेषां बालानां कथनमिति ॥१०॥ मूळम्-जहा मंधादणे नाम थिमियं मुंजइ देंगे। __ एवं विन्नवणित्थीसु दोसी तत्थ कओसिया॥११॥ छाया-यथा मन्धादनो नाम तिमितं भुङ्क्ते दकम् । एवं विज्ञापनी स्त्रीषु दोपस्तन कुतः स्यात् ॥११॥ दिखलाते हैं जैसे गण्ड (छोटे फोडे) और पिलाग (बडे फोडे) को थोडी देर दबा दिया जाता है अर्थात् फोडेवाला कोई फोडे को क्षण भर के लिए दबा कर मवाद बाहर निकाल देता है तो उससे सुख की प्राप्ति होती है। ऐसा करने में कोई दोष-पाप नहीं हैं। इसी प्रकार समागम की प्रार्थना करनेवाली स्त्री के साथ समागम करने से भी कोई दोष नहीं होता। इस प्रकार स्त्री प्रसंग करने ले कैले दोष हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता । ऐसा अज्ञानियों का कथन है ॥१०॥ शब्दार्थ-'जहा-यथा' जैसे 'मंधादणे नाल-मन्धादलो नाम' भेडिया 'थिमियं-स्तिमित्तं' विना हिलाये 'दगं-उदकम्' जल 'भुजा-भुक्ते' ' ટીકાથ–શાકત આદિ અન્ય મતવાદીએ પિતાની ઉપર્યુક્ત માન્યતાનું સમર્થન કરવાને માટે કેવી કેવી દલીલ કરે છે, તે સૂત્રકાર હવે પ્રકટ કરે છે–જેવી રીતે નાની ફેડકીઓ તથા મોટા ખીલ અથવા ગુમડાંને છેડી વાર દબાવીને તેમાંથી પરુ કાઢી નાખવામાં આવે તે પીડા ઓછી થઈ જવાથી સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે, એ જ પ્રમાણે સમાગમની પ્રાર્થના કરનારી સ્ત્રી સાથે રતિસુખ સેવવાથી સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે. જેવી રીતે ફેડકી અથવા ખીલને દબાવીને સુખ પ્રાપ્ત કરવામાં કઈ દેષ નથી, એજ પ્રમાણે સ્ત્રીઓ સાથે રતિસુખ ભેળવવામાં પણ કેઈ દોષની સંભાવના રહેતી નથી. તે અજ્ઞાની લોકે આ પ્રકારની વિચિત્ર દલીલ કરે છે. ૧૦ शहाथ-'जहा-यथा' की रीत 'मधादए नाम-मन्धादनो नाम टु 'थिमियं-स्तिमित' साव्या २ 'दगं-उदकम्' पाए 'भुजइ-भुक्ते' पाव छे. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १६९ - अन्वयार्थः-(जहा) यथा (मंगदए नाम) मन्धादनो नाम-मेषः (थिमिय) स्तिमितमनालोड्यमानमेव (दगं) उदकम् (भुंज३) भुक्ते पिवति तत्रान्येषां जीवानामुपमर्दनाभावान्न दोपः (एवं) एवं तथैव (विनवणित्यीमु) विज्ञापनीस्त्रीषु (तत्थ) तत्र-ताशसमागमे (दोसो को सिया) दोपः कुतः स्यात् नैव कोऽपि दोष इति ॥११॥ ___टीका-- स्यादपि मेथुने दोपो यदि कश्चित् तत्र पीडादिकमुस्पयेत, न तु तथा प्रकृतेऽस्तीति दृष्टान्तद्वारा पुनर्दर्शयति-'जहा' यथा-'मंधादणे नाम' पीता है उसमें अन्यजीवों के उपमर्दन का अभाव होने से दोष नहीं है 'एवं-एवम्' इसी प्रकार विन्नविणित्थीसु-विज्ञापनीस्त्रीषु' समागम की प्रार्थना करनेवाली स्त्रीके साथ समागम करने से 'तत्थ-तत्र' इसमें 'दोसो को सिया-दोषः कुतः स्यात्' दोष कैसे हो सकता है ? अर्थात् कोई दोष नहीं है ।।११॥ . अन्वयार्थ-जैसे सेढा विलोडे विना ही जल को पीता है, इसमें जीवों का उपमर्दन न होने से दोप नहीं है, उसी प्रकार संभोग की प्रार्थनाकरनेवाली स्त्रीके साथ समागम करने से भी कैसे दोष हो सकता है ? अर्थात् कोई दोष नहीं है ॥११॥ , टीकार्थ-यदि किसी जीव को पीडा उत्पन्न होती तो मैथुन सेवन में दोष माना जा सकता था। मगर किसी की पीडा तो होती नहीं हैं। यही बात दृष्टान्त के द्वारा प्रदर्शित करते हैं-जैसे सेष मेढा हिलाये तेभा भन्य गीत बना मनन मा पाथी होष नथी. 'एवं-एवम भा २ 'विन्नविणित्थीसु-विज्ञापनीस्त्रीषु' समागभनी प्रार्थना ४२वावाणी सीनी माथे समागम ४२पाथी 'तत्थ-तत्र' मामा 'दोसो को सिया-दोषः कुतः સ્થા” દોષ કેવી રીતે થઈ શકે છે? અર્થાત કેઈપણ દોષ નથી. ૧૧ સૂત્રાર્થ–જેવી રીતે ઘેટું પાણીને ડખેળ્યા વિના જ તેનું પાન કરે છે, અને તે પ્રકારે તેના દ્વારા જીનુ” ઉપમર્દન ન થવાને કારણે તેને દોષ લાગતું નથી, એ જ પ્રમાણે સંગની પ્રાર્થના કરનારી સ્ત્રી સાથે સંભોગ કરવાથી કેવી રીતે દેષ લાગી શકે? એટલે કે એમાં કોઈ દોષ સંભવી શકતે જ નથી ૧૧ - ટીકાર્થ–મૈથુન સેશન કરવાથી જે કઈ જીવને પીડા ઉત્પન્ન થતી હોય, તો તે તેને દેષ માની શકાય. પરંતુ તેના દ્વારા સ્ત્રી કે પુરુષને પીડા ઉત્પન્ન થતી નથી. ઊલટાં સુખ પ્રાપ્ત થાય છે, તે મૈથુન સેવનમાં શા માટે દોષ सू० २२ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे १७० मन्धादनो नाम=मेषः, 'धिमियं' स्तिमितमेव । 'दगं' उदकम् 'झुंज' भुंक्ते= frefa ' एवं ' at 'निवणित्थीसु' विज्ञापनीस्त्रीषु समागमनप्रार्थनया आगेतवंतीषु स्त्रीषु समागमकरणेन । 'तत्थ' तत्र - तादृशसमागमे 'दोसो' दोषः 'कओ' कुतः 'सिया' स्यात् नैव तत्र कोऽपि दोष इति भावः ॥ ११॥ मूलम् - जहा विहंगमा पिंगा थिमियं मुंज देगं । एवं दिवणित्थी दोसो तस्थ केंओ सिया ॥१२॥ छाया -यथा विहङ्गमा पिङ्गा स्तिमितं युक्ते दकम् । एवं विज्ञापन स्त्रीषु दोषस्तत्र कुवो भवेत् ॥ १२॥ बिना ही जलको पीता है, इसी प्रकार समागम की प्रार्थना के लिए क्या दोष हो सकता है ? तात्पर्य दोष नहीं है ॥ ११ ॥ 1. - आई स्त्री के साथ समागम करने से यह है कि ऐसा करने में कोई भी शब्दार्थ --- 'जहा - यथा' जैसे 'पिंगा विहंगमा- पिङ्गा विहङ्गमा ' पिङ्ग नामक पक्षिणी 'विषियं स्तिमितम्' विनाहिलाचे दगं उदपम् ' जल 'भुजइ-भुक्त' पान करती है, उसमें दोष नहीं है 'एएवम्' इसी प्रकार 'विन्नवणित्वसु - विज्ञापनी स्त्रीषु' समागम की प्रार्थना करनेवाली स्त्रीके साथ समागम करने पर 'तत्थ तत्र' उसमें 'दोसो कभी लिया - दोषः कुतः स्यात् ' दोष कहां से हो सकता है अर्थात् कोई भी दोष नहीं है ॥ १२ ॥ 1 માનવા જોઈએ ? જેવી રીતે જળાશયમાંથી ખેાળ્યા વિના પાણી પીનાર (ઘેટુ પાણીમાં ઉતરીને ડખેાળીને ખગાડતું નર્કા) ને ાઈ દોષ લાગતા નથી, એજ પ્રમાણે સંમાગમની પ્રાર્થના કરનાર સ્ત્રી સાથે સમાગમ કરનારને પણ કેવી રીતે દોષ લાગી શકે ? આ કથનનુ તાત્પ એ છે કે સ્ત્રીની ઈચ્છા સ’તેાષવા માટે તેની સાથે સ ભાગ કરવામાં કઈ દે ષ નથી, આ પ્રકારનું તે અજ્ઞાનીએ પ્રતિપ ઇન કરે છે.૧૧ शब्दार्थ'~~'जहा-यथा' देवी रीते 'पिंगा विहंगमा पिङ्गा विहङ्गमा ' पिंग नाम भाहा पक्षी 'थिमिच - स्तिमितम् ' 'सु'जइ - भुक्ते' यान रे, तेमां होष नथी. वणित्थी सु- विशांपनीसोपु' सभागभनी प्रार्थना शुभ स्वार्थी 'तत्थ - तत्र' तेमां 'दोसो कम सिया- दोषः कुतः स्यात्' होष यांथी હાઈ શકે? અત્ કેાઇપક્ષુ દોષ નથી, ૧૨॥ डाव्या वगर्र 'दगं - उदकम् ' पाएगी 'एवं - एवम् ' भी प्रारे 'विन्न४२वावाणी श्रीनी साथै सभा Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १७५ __ अन्वयार्थः- (जहा) यथा (पिंगा विहंगमा) पिङ्गा विहङ्गमा-पिंगनामकपक्षिणी (थिमियं) स्तिमित-निश्चलं (दगं) उपकं जलम् (भुजइ) भुक्ते पिवति तत्र न कोपि दोषः, (एवं) एवं तथैव (विन्नवणित्थीस) विज्ञापनीस्त्रीषु (तत्थ) तत्र तादृशोपभोगे (दोसो) दोपः (कओ सिया) कुतः स्यात्-न तत्र कोपि दोष इति॥१२॥ ___टीका- अस्मिन्नर्थे दृष्टान्तबहुत्तख्यापनाय दृष्टान्तान्तरं पुनर्देर्शयति । 'जहा' यथा 'पिंगा विहंगमा' पिङ्गो विहङ्गमा कपिजलपिङ्गनामकपक्षी आकाशे विपरिवर्त्तमानः, 'थिनियं' स्तिमितं निभृतस्थिरमेवोदकम् 'मुंबई' मुंक्त-पिवति 'एवं' एवम् 'विन्नवणिन्थीसु' विज्ञापनीत्रीषु । एवमत्रापि दर्भमदानपूर्विकयाक्रियया अरक्तहिष्टपुरुपस्य पुत्रोत्पादमात्रप्रयोजनाय स्त्रीपरिभोगं कुर्वतोऽपि कपिजलस्य इव न भवति दोषः । तथा च ते कथयन्ति___ अन्वयार्थ-जैसे पिंग नामक पक्षी निश्चल जल को पीते हैं, उसमें कोई दोष नहीं है, इसी प्रकार समागम की प्रार्थना करनेवाली स्त्रीके साथ समागम करने में क्या दोष है ? अर्थात् कुछ भी दोष नहीं है ।१२। टीकार्थ--प्रस्तुत विषय में उदाहरणों की बहुलता प्रदर्शित करने के लिए दूसरा दृष्टान्त दिखलाया जाता है-जैसे पिंग (कपिजल) पक्षी आकाश में रहते हुए स्थिर जल को ही पीते हैं, इसी प्रकार कामप्रार्थिनी स्त्री के साथ समागम करने में कोई दोष नहीं है। स्त्रीके शरीर को दर्भ से ढंक कर, रागद्वेष से रहित होकर, केवल पुत्र उत्पन्न करने के उद्देश्य से स्त्री का परिभोग करनेवाले को, फपिंजल पक्षी के समान कोई दोष नहीं होता। वे कहते हैं--"धर्मा) पुत्र कामस्थ इत्यादि। સૂત્રાર્થ –જેવી રીતે હિંગ નામનું પક્ષી નિશ્ચલ જલનું પાન કરે છે, તેમાં કઈ દેષ નથી, એ જ પ્રમાણે સમાગમની પ્રાર્થના કરનારી સ્ત્રી સાથે સંગ કરવામાં કઈ દોષ નથી. ૧૨ 1 ટીકાઈ–ઉદાહરણો દ્વારા પ્રસ્તુત વિષયનું સમર્થન કરવા માટે તે શાકત આદિ મતવાદીઓ પિગ પક્ષીનુ દૃષ્ટાંત આપે છે– જેવી રીતે આકાશમાં રહેતાં પિગ (કપિલ) પક્ષીઓ સ્થિર જલનું જ પાન કરતા હોવાથી તેમને જીવનું ઉપન કરવાના દેષને પાત્ર બનવું પડતું નથી, એજ પ્રમાણે કામાર્થિની સ્ત્રીની સાથે કામગ સેવવાથી કે દેષ લાગતું નથી. સ્ત્રીને શરીરને દર્ભ ડાભ નામના ઘાસ) વડે આછાદિત રાગદ્વેષથી રહિત ભાવે, કેવળ પુત્પત્તિની અશિલાષાથી સ્ત્રીને પરિભોગ કરનારને કપિજલ પક્ષીના સમાન કેઈ દોષ લાગતો નથી. તેઓ એવા प्रतिपाइन छ है-'धमार्थे पुत्रकामस्य' त्याह Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ सूत्रतात्रे 'धर्मार्थ पुत्रकामस्य स्वदारेश्वधिकारिणः। ऋतुकालविधानेन दोपस्तत्र न विद्यते ।।१।।' एवमुदासीनतया व्यवस्थितानां वादिनां दोपो भवति । किं यदि कोऽपि कस्यचिच्छिरः खण्डयित्वा, उदासीनतया पराङ्मुखस्तिप्ठेत् । तावता किं राजदण्डाद्वि. मुखः स्यात् । तत्कि स राजपुरुप नै निबद्धयेन । यथा वा कश्चिद् द्विषन् अन्येनाऽदृष्टो विपं पीत्वोदासीनः उपविशेत् , तावता किं तस्य मरणं न भवेत् । यथा वा-कश्चिद्राजकुलात रत्लान्यादाय मूक उदासीनतया उपविशन् चौराऽपराधादपगतो भविष्यति ? ___तथैव यथा कथंचित्कृतः स्त्रीभोगो न कथमपि अदोपाय । अपि तु दोपोत्पादकः स्यादेव । तथोक्तम् धर्म का पालन करने के लिए पुत्रोत्पत्ति के निमित्त अपनी स्त्री पर अधिकार रखनेवाला पुरुष यदि ऋतुकाल में स्त्री से समागम करता है तो इसमें कोई दोष नहीं है ॥१॥ इस प्रकार उदासीन होकर रहे हुए वादियों को दोष होता है। अगर कोई किसी का मस्तक काटकर और उदासीन होकर विमुख हो जाय तो क्या राजकीय दण्ड से छुटकारा पा जाएगा? क्या राजपुरुष उसे गिरफ्तार नहीं करेंगे ? अथवा जैसे कोई दूसरों के देखे बिना विषका पान करके उदासीन होकर बैठ जाएँ तो उसका मरण नहीं होगा क्या कोई राजमहल से चुरा कर कोई वस्तु ले आये और उदासीन हो कर चुपचाप बैठ जाएँ तो चोरी के अपराध से मुक्त हो जाएगा। इसी प्रकार स्त्री के साथ समागम किसी भी प्रकार क्यों न किया ધર્મનું પાલન કરવાને માટે પુત્રે ત્યત્તિને નિમિત્તે, પિતાની પત્ની પર અધિકાર રાખનારો જે ઋતુકાળમાં પિતાની પત્ની સાથે સંભોગનું સેવન કરે, તે તેમાં કોઈ દોષ લાગતો નથી. ૧ આ પ્રકારે ઉદાસીનવૃત્તિ ધારણ કરીને સ્ત્રીઓ સાથે કામગ સેવનારને દોષ અવશ્ય લાગે જ છે. જે કઈ માણસ કેઈનું મસ્તક કાપી નાંખીને ઉદાસીનતા ધારણ કરીને ત્યાંથી હટી જાય તે શું રાજ્યદંડમાંથી બચી શકે છે ખરે? કોઈ ન જાણે એવી રીતે વિષપાન કરી લઈને ઉદાસીનભાવ ધાર કરનાર વ્યક્તિ શું વિષની અસરથી મુક્ત રહી શકે છે ખરી? રાજમહેલમાં ચોરી કરીને કેઈ માણસ ઉદાસીનવૃત્તિ ધારણ કરીને ચુપચાપ બેસી જાય તે શું અપરાધથી મુક્ત થઈ જાય છે ખરો? એજ પ્રમાણે કેઈ પણ પ્રકારે અથવા કઈ પણ નિમિત્તે સ્ત્રીની સાથે Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ .४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १७३ 'प्राणिनां वाधर्क चतच्छास्त्रे गीतं महर्षिभिः । नलिका तस्य प्रवेशज्ञानतस्तथा ॥ मूलं चैतदधर्मस्य भयभावप्रवर्द्धनम् ॥१॥ तस्माद्विपान्नवत् त्याज्य मिदं पाप मनिच्छता। अनिच्छयापि संम्पृष्टो दहत्येव हि पावकः ॥२॥ तस्मात् स्त्री सम्पर्के दोपः स्यादेवेति भावः ॥१२॥ अधुना उपसंहरन नकारः गण्डपीडादि दृष्टान्तवादीनां दोपदानाय आह'एवमेगे उ' इत्यादि। मूलम्-एवमेगे उ पासस्था मिच्छेदिट्टी अणारिया। अज्झोवैवन्ना कामेहि पूर्यणा इव तरुणए ॥१३॥ जाय, वह दोष रहित नहीं हो सकता। वह तो दोषजनक ही है। कही भी है--'प्राणिनां बाधकं चैतत्' इत्यादि। महर्षियों ने मैथुन को शास्त्र में प्राणियों का घातक कहा है। जैसे नली में अग्नि डालने से उसके भीतर की रुई आदि का विनाश हो जाता है, इसी प्रकार समागम करने से जीवों का विनाश होता है। मैथुन अधर्म का मृल है और भय के भाव को बढानेवाला है। ___ अतएव जो पाप से बचने की इच्छा करता है, उसे विषमिश्रित अन्न के समान मैथुन का त्याग करना ही चाहिए। क्योंकि इच्छा न होने पर भी अगर अग्नि का स्पर्श हो जाय तो भी वह जलाये विना नहीं रहती। ____ तात्पर्य यह है कि स्लीसम्पर्क करने से दोष होता ही है ॥१२॥ સંભોગ કરનાર માણસ દોષને પાત્ર અવશ્ય બને જ છે. તેને દોષરહિત ગણી १४१ १ नही. यु. ५ छ है-'प्राणिनां बाधकं चैततू' त्याह - મહર્ષિઓએ મિથુનને શામાં પ્રાણુઓનું ઘાતક કહ્યું છે. જેવી રીતે નળીમાં અગ્નિને તણખે નાખવાથી તેની અંદર રહેલ રૂ આદિને નાશ થઈ થઈ જાય છે, એ જ પ્રમાણે મિથુનનું સેવન કરવાથી જીવોને વિનાશ થાય છે. મિથુન અધર્મનું મૂળ છે અને ભયના ભાવની વૃદ્ધિ કરનારું છે. તેથી જેઓ પાપથી બચવા માગતાં હોય, તેમણે વિષમિશ્રિત અન્નની જેમ મૈથુનનો ત્યાગ કર જોઈએ જેવી રીતે ઈછા વગર અથવા અજાણતા પણ અનિનો સ્પર્શ થઈ જાય તો અગ્નિ દઝાડયા વિના રહેતી નથી, એ જ પ્રમાણે રાગશ્રેષથી રહિત બનીને પણ મૈથુનનું સેવન કરનારને દોષ અવશ્ય લાગે છે ૧a Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ૯૪ छाया - एवमेके तु पार्श्वस्था सिध्याष्टयोsनार्याः । अध्युपपन्नाः कामेषु पूदना इव तरुणके || १३|| अन्वयार्थः - ( एवं ) एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण मैथुनं निरवद्यं मन्यमानाः, (एगे) एके तु - केचन ( पात्या) पावस्था: (मिच्छादिट्ठी) मिथ्यादृष्टयः विपरीarasोधाः (अणारिया ) अनार्या : ( कामेहि) कामैरिच्छामदनरूपैः कामेषु वा शब्दादिपु (झा) अध्युपपन्ना: - गृद्धिभावमुपगताः (तरुण) तरुणकेस्वापत्ये (पूयणा इव) पूतना इ = पूतना उरभ्रीवेति ||१३|| - अब सूत्रकार उपसंहार करते हुए गण्ड पीडा (फोडे को दबाने) आदि दृष्टान्त देनेवालों के कथन को दूषित करने के लिए कहते हैं- 'एवमेगे उ' इत्यादि । 9 शब्दार्थ- 'एवं - एवम् पूर्वोक्त प्रकार से मैथुन को निरवद्य मानने वाला 'एगे उ- एके तु' कोई 'पासत्था - पार्श्वस्थाः' पार्श्वस्थ 'मिच्छदिट्ठीमिथ्यादृष्टयः मिथ्यादृष्टिवाले 'अणारिया अनाथ' अनार्य 'कामेहिकामैः कामभोगो में अथवा शब्दादिविषयों में 'अज्झोवचन्ना-अध्युप'पन्ना' अत्यन्त आसक्त होते हैं 'तरुण-तरुण के' अपने बालकों पर 'पूयणा इव-पूतना इच' जैसे पूतना नामकी डाकिनी आसक्त रहती हैं | १३ | अन्वयार्थ-३ - इस प्रकार मैथुन को निर्दोष मानने वालेकोई कोई पार्श्व - स्थ मिथ्यादृष्टि हैं, अनार्य हैं, और कामभोगों में उसी प्रकार आसक्त है जैसे पूतना डाकिनी बालकों पर आसक्त होती है | १३|| હવે સૂત્રને ઉપસંહાર કરતા સૂત્રકાર ઉપર્યુક્ત દૃષ્ટાન્તા દ્વારા (ખીલને दृभाववाना, સ્થિર જળ પીનાર પિંગ પક્ષી આદિના દૃષ્ટાન્ત દ્વારા) પેાતાના મતનુ’ समर्थन ४२नारा बोनी मान्यतानु भ'उन उरे छे.- 'एव मेगे' इत्यादि शढाथ—‘एवं-एवम्' यूवेति प्रारथी मैथुनने निरुद्य भानवावाजा 'एगे उ- एके तु' | 'पासत्या पार्श्वस्थाः' पार्श्वस्थ 'मिच्छदिट्टी - मिध्यादृष्टयः ' मिथ्यादृष्टिवाणा 'अणारिया -अनार्याः' अनार्य' 'कामेहिं - कामे.' अभलेोगमां अथवा शब्द वगेरे विषयोभां 'अज्जोववन्ना - अध्युपपन्ना अत्यन्त वधारे आसत डाय छे. 'तरुण-तरुणके' पोताना माजी उ२ 'पूराणा इव - पूतना इव' જેવી રીતે પૂતના નામની ડાકણુ આસક્ત રહે છે ૫૧૩૫ > સૂત્રા—મા પ્રકારે કામાગાને નિર્દોષ માનનારા કાઈ કાઈ પાશ્વ સ્થા (શિથિલાચારીએ) મિથ્યાષ્ટિ છે અને અનાય છે. તેએ કામલાગે માં એટલાં બધાં માસક્ત છે કે જેટલી પૂતના ડાકણુ ખાલકે પર આસક્ત હાય છે, ૫૧૩ગા Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ increer समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ.४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १७५ ___टीका-एवमिति-एवं व्रणं स्फोटयित्वा ततः पूयादिकमपनीयते तत्र न भवति कोपि दोपः, एवं मैंथुन सेवनेऽपि नास्ति दोष इति मन्यमानाः 'एवं' एवं 'एगे' एके ललनासक्ताः पार्थस्थादयः संदननुष्ठानात् स्वपाचे तिष्ठन्तः नाथवादिकमंडलचारिणः स्वयूथ्यां वा केचन। तथा 'मिच्छदिट्टी' मिथ्यादृष्टयां मिथ्याविपरीतातत्वग्राहिणीदृष्टिदर्शनं येषां तथाभूताः 'अणारिया' अनार्याः-धर्मविरुद्धानुष्ठानकर्तारः सर्वपरित्याज्यधर्मेभ्यो र वर्तमानाः आर्या, न आर्याः इति अनार्याः विरुद्धधर्मानुष्ठानात् 'कामेहिं' कामेषु-कामभोगादौ 'अज्झोववन्ना' अध्युपपन्नाः पृद्धिभावमुपगताः । अथवा-रागैरसदनुष्ठाने आसक्ता ... टीकार्थ--जो लोग ऐसा मानते हैं कि फोडे को फोडकर उसमें से यदि मवाद निकाल दिया जाता है तो ऐसा करने में कोई दोष नहीं है, वे वास्तव में स्त्रियों में आसक्त पार्श्वस्थ हैं। वे प्रशस्त आचार सें दरै रहनेवाले हैं। अपने आपको 'नाथ' कहते हैं और मण्डल में विचरण करते हैं। कोई कोई स्वयूधिक भी ऐसे हैं जो इस प्रकार मानते हैं। वे वास्तव में मिथ्यादृष्टि हैं अर्थात् तत्त्व को विपरीत ग्रहण करनेवाले हैं । जो धर्म विरुद्ध अनुष्ठान नहीं करते और समस्त हेय धर्मों में दूर रहते हैं, वे आर्य कहलाते हैं और जो आर्य न हों वे अनार्य कहे जाते हैं। धर्मविरुद्ध अनुष्ठान करने के कारण ऐसा कहनेवाले अनार्य है। कामभोगों में गृद्ध हैं अथवा राग के कारण असत् आचरण में आसक्त 1 ટીકા –-જે લેકે એમ માને છે કે ખીલ ગુમડાં આદિને દબાવીને. તેમાંથી પરુ આદિ કાઢી નાખવામાં જેમ કેઈ દોષ નથી, એ જ પ્રમાણે કામ પ્રાર્થિની સ્ત્રી સાથે કામગ સેવવામાં પણ કોઈ દોષ નથી. તેઓ ખરી રીતે તે સ્ત્રીઓમાં આસક્ત પાર્શ્વસ્થ જ હોય છે. તેઓ પ્રશસ્ત આચારને ત્યાગ કરીને શિથિલાચારી બની ગયા હોય છે. તેઓ પોતાને નાથ કહે છે. અને મંડળમાં વિચરણ કરે છે. કોઈ કેઈ સ્વયૂથિકે પણ આ પ્રકારની માન્યતાને આધાર લઈને શિથિલાચારી બની ગયા હોય છે. તેઓ ખરી રીતે મિથ્યાદષ્ટિ જ છે; એટલે કે તત્વને વિપરીત રૂપે ગ્રહણ કરનારા છે. જેઓ ધર્મનાં આદેશનું પાલન કરનારા અને હેય ધર્મોથી દૂર રહેનારા છે. તેમને જ આ કહેવાય છે, પરંતુ ધર્મવિરૂદ્ધનું આચરણ કરનારા લોકો આર્યકુળમાં જન્મ ધારણ કરવા છતાં પણ એનાર્ય જ છે. તેઓ કામગોમાં લે છે, અને રોગને કારણે અસત્ આચરણમાં આસક્ત છે. જેવી રીતે પૂતના ડાકણ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ सूत्रकृताङ्गसूत्र ते विद्यन्ते । अत्र दृष्टान्तं दर्शयति-'तरुणए' तरुणके, स्तनधयबालके इब-यथा 'पूयणा' पूतना=उरनी आसक्ता भवति । तथैवेयेऽपि शाक्तादयो वादिनः मनोरमासु आसक्ताः। . यद्वा-तरुणके स्वापत्ये यथा, पूतना पशु जातिविशेषः सेपः अध्यासक्तः, तद्वदेव । मेषाणां स्थापत्येऽवीव स्नेहो भवति । एकदा सर्वपशूनामपत्यानि निर्जलकूपे पतितानि । तद् दृष्ट्वा सर्वे पशः संजानदया अपत्यस्नेहाचन समवेता। किन्तु प्राप्तुमुपायमपश्यन्तः कूपतटे एव निषण्णाः । पेपस्तु तथाविधमपत्यं दृष्ट्वा कूपे पतितः । इति दृष्ट्वा सर्वैनिणीतं यत् मेपाणां स्थापत्ये स्नेहाधिक्यमिति । हैं। इस विषय में दृष्टान्त दिखलाते हैं-जैसे पूनना चालकों में आसक्त होती है, उसी प्रकार यह शाक्त आदि भी महिलाओं में आसक्त है। अथवा जैले पूतना अर्थात् सेड अपने बालक में आसक्त होती है, उसी प्रकार यह वादी भी स्त्रियों में आसक्त हैं। सेडों को अपनी सन्तान पर अतीव अनुराग होता है। एक बार सब पशुओं के बच्चे कप में गिर गए। यह देखकर सभी पशुजों को बड़ी रुणा उत्पन्न हुई और सन्तान प्रेम के कारण वे इकटे हुए । किन्तु कुए में गिरे बच्चों को प्राप्त करने का कोई उपाय न सूझा। अतएव वे सब विषादयुक्त होकर कूपके किनारे ही खडे हो रहे मगर सेड अपने बच्चे को गिरा देख स्वयं भी कूप में गिर पडा । यह घटना देखकर सबले यह निर्णय किया कि भेडों को अपनी सन्तान पर अत्यधिक स्नेह होता है । तात्पर्य “બાળકેમાં આસક્ત હોય છે, એ જ પ્રમાણે શાકત આદિ પરતીર્થિક લલનાઓમાં આસક્ત હોય છે. , પૂતનાને બીજો અર્થ “ઘેટી થાય છે. જેવી રીતે ઘેટી પિતાના બચામાં ખૂબ જ આસક્ત હોય છે, એજ પ્રમાણે શાકત આદિ પરતીથિકે સ્ત્રીઓમાં આસક્ત હોય છે. ઘેટીને પોતાના બચ્ચાંઓ પર ઘણો અનુરાગ હોય છે, તે વાત નીચેની કથા દ્વારા સિદ્ધ થાય છે. એક વખત એવું બન્યું કે ઘણાં પશુઓનાં બચ્ચાં કૂવામાં પડી ગયાં. તે વાતની ખબર પડતાં તે પશુઓનાં દુઃખને પાર ન રહ્યો. તેઓ સતાનપ્રેમને કારણે કૂવાને કાંઠે એકઠાં થયાં. પરતુ કૂવામાં પડી ગયેલાં પોતાનાં બચ્ચાંઓને બહાર કાઢવાને કઈ ઉપાય તેમને જ નહીં. તેથી તેઓ ખૂબ જ વિષાદને અનુભવ કરતાં કૂવાને કાંઠે જ ઊભાં રહ્યાં. પરંતુ મેઢી (ઘેટી) પેતાના બચાને પાણીમાં પડેલું દેખીને કુવામાં કૂદી પડી. આ ઘટના જોઈને સમરત પ્રાણુઓએ એવું કબૂલ કર્યું ૐ ઘેટીને પિતાનાં બચ્ચાં પર સૌથી વધારે અનુરાગ હોય છે. આ કથનને Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ३ उ.४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १७७ एवमेव ते. वादिनः स्त्रीषु नितरामेवापताः। यतः सर्वज्ञविनिन्दितमैथुनसेव. नाय स्त्रियामासक्ताः इति ॥१३॥ कामाऽऽपक्ततायां यद् मयति तद्रूपणं वदति सूत्रकार:-'अणागय' इत्यादि मूलम्-अगोगयमपस्संता एच्चुप्पन्नगवेलगा। ' ते पछा परितप्पंति खीणे आउंमि जोवणे ॥१४॥ छाया-~-अनागतमपश्यन्तः प्रत्युत्पन्नगवेषकाः । ते पश्चात् परितप्यन्ते क्षीणे आयुपि यौवने ॥१४॥ अन्वयार्थः-(अणागयमपरसंता) अनागतमपश्यन्तः भविष्यदुःखमजा. यह है कि ये वादी नियों में अत्यन्त आसक्त है, क्योंकि सर्वज्ञों द्वारा अत्यन्त निन्दित भैथुन में आसक्त हैं ॥१३॥ ____ काम में आसक्ति होने पर जो दोष होता है, सूत्रकार उसे दिखलाते हैं-'अणागय' इत्यादि । शब्दार्थ-'अणागयलपरसंता-अनागतमपश्यन्तः' भविष्य में होने वाले दुःखको न देखने वाले पच्चुपन्नगवेसगा-प्रत्युत्पन्नगवेषका जो लोक वर्तमान सुखकी खोज में लगे रहते हैं 'ते-ते' वे शाक्यादि मतानुयायी 'पच्छा-पश्चात् पीछे 'आमि-आयुषि' आयुष्य 'जोवणे-यौवने' और युवावस्था 'खीणे-क्षीणे' क्षीण होने पर 'परितप्पंति-परितप्यन्ते' पश्चात्ताप करते हैं ॥१४॥ ___ अन्वयार्थ-भविष्य की ओर आंख मीचनेवाले अर्थात् भावी ભાવાર્થ એ છે કે ઉપર્યુક્ત શાકત આદિ મતવાદીઓ સ્ત્રીઓમાં એટલાં બધાં આસક્ત છે કે તેઓ સર્વના ઉપદેશની અવગણના કરીને મૈથુન જેવાં પાપકૃત્યમાં આસક્ત રહે છે ૧૩ કામમાં આસક્ત થવાથી જે દોષ લાગે છે, તે હવે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે. . 'अणागय' त्या साथ-'अणागयमपरसंता-अनागतमपश्यन्तः' लावण्यम यावाणामने नले 'पच्चुप्पन्नगवेसगा-प्रत्युत्पन्नगवेषकाः' भासे पत मान सुमन शाम साश्या २ छ ते-ते ते शय पगेरे भतानुयायी ‘पच्छा-पश्चात्' पाछगया 'आउंमि-आयुघिमायुष्य 'जोवणे-यौवने' मने युवान१२था 'खोणे-क्षीणे' क्षार थया ५छी 'परितप्पंति-परितप्यन्ते' परताव। ४३ छे ॥१४॥ સૂત્રાર્થ–સવિષ્યમાં આવી પડનારાં દુખેને વિચાર નહીં કરનારા અને. सु०२३ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ सूत्रकृताङ्ग सूत्रे - नाना: ( पच्चु पन्नगवेसगा) प्रत्युत्पन्नगचेपका = दर्तमानसुखान्वेषकाः, (ते) ते-, शाक्पादयः (पच्छा) पश्चात् (आउंस) आयुषि ( जोखणे) यौवने (खीणे) क्षीणेविनष्टे सति (परितपति) परितप्यन्ते पश्चात्तापं दुर्वन्ति इति ॥ १४ ॥ टीका- 'अणागयं' अनागतम्, कामासक्तानां पञ्चान्नरकादिस्थाने महती यातना भवतीति तत्रत्यं दुःखम् 'अपस्संता' अपश्यन्तः 'पच्चुपपन्नगवेसगा' प्रत्युत्पन्नगवेषकाः- प्रत्युत्पन्नं वर्तमानकालिकपकिम् अन्वेषयन्तः विविधप्रकारैः कामानामेव गवेषकाः 'ते' पुरुषाः शाक्यादयः 'पच्छा' पश्चात् 'आउंमि' आयुषि 'खीणे' क्षीणे सति अथवा 'जोन्वणे' यौवने नष्टे सति 'परितप्पंति' परितप्यन्ते= पश्चात्तापं कुर्वन्ति । कामान्धतया पूर्वन्तु अविचार्यैव स्त्रीषु समासक्ता अभवन् । पश्चादायुषः क्षये समुत्पन्नवैराग्याः युवावस्थाया अपगमे वा शोचन्ति आत्मानमेव निन्दन्ति । तदुक्तम् दुःखों को न देखनेवाले और वर्त्तमान कालीन सुख की गवेषणा करने वाले वे शाक्त आदि बाद में आयु और यौवन के क्षीण होने पर पश्चात्ताप करते हैं ॥ १४ ॥ टीकार्य - कामभोगों में आसक्त पुरुषों को बाद में नरक आदि स्थानों में घोर यातना होती है। वे वादी वहां के दुःखों को नहीं देखते वे तो केवल वर्त्तमानकालीन विषयसुख की ही गवेषणा करते हैं । किन्तु जब आयु क्षीण होती है अथवा यौवन व्यतीत हो जाता है, तब उन्हें परिताप होता है । 1 आशय यह है कि पहले तो कामान्ध सोकर विना विचारे ही स्त्रियों में आसक्त हो गए, बाद में आयु क्षीण होने पर या युवावस्था व्यतीत हो जाने पर वैराग्य उत्पन्न होता है तो शोक करते हैं और अपने को कोसते हैं । कहा भी है- 'हतं बुष्टिभिराकाशे' इत्यादि ।વર્તમાનકાલીન સુખની જ ખેવના કરનાવા શાકત આદિ પરતી િકાને આયુ અને ચૌવન ક્ષીણ થાય ત્યારે પસ્તાવાના વારે આવે છે. ૧૪ ટીકાય —કામલેગામાં આસક્ત લેાકેાને મનુષ્યભવનુ... આયુષ્ય પૂરુ કરીને નરક આદિ દુગતિએમાં ઘેાર યાતનાએ વેઠવી પડે છે. તે નરકા દિના દુઃખને વિચાર કરવાને બદલે વર્તમાનકાલીન વિષયસુખમાં જ આસક્ત રહે છે. પરન્તુ જ્યારે માયુષ્ય ક્ષીણ થાય છે અથવા યુવાની ચાલી જાય છે, ત્યારે તેમને પસ્તાવાના વખત આવે છે. -" આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે તેએ પહેલાં તેા કામાન્ય થઈ ને વિનાવિચારે સ્ત્રીએમાં આસક્ત થાય છે, પરન્તુ જ્યારે યુવાવસ્થા પૂરી થઈ જાય છે અને આયુષ્ય પૂરૂ થવાના સમય નજીક આવે છે, ત્યારે તેમનામાં વૈરાગ્ય સાવ પેદા થવાને કારણે તેમને પસ્તાવેશ થાય છે. કહ્યું પણ છે કે Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलिनस्य साधोरुपदेश. १७९ हतं मुष्टिभिराकाशं तुषाणां कण्डन कृतम् । __ यन्म या प्राप्य मानुष्यं सदर्थे नादरः कृतः ॥१॥ अपिच-मृल्कुम्भवालुकारन्ध्रपिधानपरमार्थिना । दक्षिणावर्तशंखोऽयं हन्त ! चूर्गीकृतो मया ॥२॥ तथा-'विदवावलेवनडि एहिं जाई कीरति जोत्रणमरणं । वय परिणामे सरियाई ताई हियए खुडुकंति ॥३॥ छाया--विभवावलेपनाटितर्यानि क्रियन्ते यौवनमदेन । क्यः परिणामे स्मृतानि तानि हृदयं व्ययन्ते ॥३॥१४॥ - मनुष्यभवको प्राप्त करके भी मैंने उत्तम अर्थ का आदर नहीं किया, यह मानों ऐसा ही है जैसे मुट्टिणे ले आकाश में आघान किया और छिलकों को कूटा । अर्थात् जैसे आकाश में आघात करना और तुषको खांड़ना निष्फल प्रयास है, उसी प्रकार मनुष्य भव पाकर उत्तम अर्थ के लिए प्रयास न करने से मनुष्यभव व्यर्थ हो जाता है । पुनः 'मृत्कुभवालुकारन्ध्र' इत्यादि । .. और मनुष्यभव को उत्तम अर्थ मोक्ष में न लगाकर विषयभोगों में लगाकर मैंने मानो मृत्तिका के घट में हुए छिद्र को झूदने के लिए दक्षिणावर्त इख जैसे अनमोल पदार्थ का चूरा कर दिया हो! । और भी कहा है-विहवाबलेवनडिएहि' इत्यादि। 'हत मुष्टिभिराकाशं' त्याहि-- તે માણસને એ પશ્ચાત્તાપ થાય છે કે મેં મનુષ્યભવ પ્રાપ્ત કરીને ઉત્તમ તત્વની અવગણના કરી મેં તે આકાશમાં મુઠ્ઠી વડે આઘાત કરવા જેવાં અથવા ફીફા (ફતરા) ખાંડવા જેવાં નિરર્થક કાર્યમાં જીવનને વેડફી નાખ્યું એટલે કે આકાશમાં આઘાત કરો અથવા ફેતરાં ખાંડવા, તે જેવી રીતે નિરર્થક છે, એજ પ્રમાણે મનુષ્યભવ પ્રાપ્ત કરવા છતાં ઉત્તમ અને પ્રાપ્ત કરવાનો પ્રયાસ ન કરવાથી મારે મનુષ્યભવ મેં વેડફી નાખે છે.” 'मृत्कुंभवालु कारन्ध्र' त्याह જેવી રીતે કોઈ મૂર્ખ માણસ માટીના ઘડામાં પડેલા છિદ્રને સાંધવા માટે દક્ષિણવત્ત શખ જેવા અણમેલ પદાર્થને ચૂરે કરી નાખે છે, એ જ પ્રમાણે મેં આ અણમોલ મનુષ્યભવને ઉત્તમ અર્થ (મેલ) ની સાધનામાં વ્યતીત કરવાને બદલે વિષય ભેગોમાં વ્યર્થ ગુમાવી નાખ્યો.” વળી તેને એ ५॥। थाय छ है-'विहवावलेवनहिएहिं' याह-वैभना महमा छ? Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतागसूत्रे - ये तूत्तममहापुरुषास्ते तु अनामतमुखजनकमेव तपः संयमाऽनुष्ठानं कुर्वन्ति । तेन वार्द के पश्चात्तापं न कुर्वन्तीति दर्शयितुमाह सूत्रकार:-'जेहिं काले' इत्यादि। मूलम्-जहिं कोले परिक्षेतं न पच्छा परितप्पए। ते धीरां बंधणुर्मुस्का नाकखंति जीवियं ॥१५॥ छाया-यैः काले पराक्रान्तं न पश्चाद परिवष्यन्ते । ते धीरा बन्धनोन्मुक्ताः नाशंक्षन्ति जीवितम् ॥१५॥ - वैभव के अभिमान में आकर लथा यौवन के मद में चूर होकर जो कार्य किये जाते हैं, अवस्था बीत जाने पर अब उनका स्मरण हृदय में शल्य की तरह खटकला है ॥१४॥ किन्तु उच्चकोटि के महापुरुष भविष्यत् में सुख उत्पन्न करनेवाले तप एवं संयम का अनुष्ठान करते हैं। उन्हें वृद्धावस्था में पश्चासाप नहीं करना पडता। इस तथ्य को दिखलाते हुए सूत्रकार कहते हैं-जेंहिं काले' इत्यादि । शब्दार्थ-'जेहि-यैः जिन पुरुषोंने 'काले-काले' धर्मोपार्जन कालमें 'परिकंत-पराकान्तम् ' धर्मोपार्जन किया है 'ते-ते' वे पुरुष 'पच्छापश्चात् ' पीछेसे 'न परितप्पए-न परितप्यते' पश्चात्ताप नहीं करते हैं 'वंधणुम्मुक्का-बन्धनमुक्ताः' बन्धन से टेहए 'धीरा-धीराः' वे धीर पुरुष 'जीवियं-जीवितम् ' असंयमी जीवनकी 'नायकंखति-नावा. क्षन्ति' इच्छा नहीं करते हैं ॥१५॥ જઈને તથા યૌવનના મદમાં ભાન ભૂલીને જે કાર્યો મેં કર્યા છે, તેનું સમરણ હવે આ વૃદ્ધાવસ્થામાં હૃદયની અંદર કાંટાની જેમ ખટકે છે” ૧૪ અજ્ઞાની માણસોને પાછળથી પસ્તાવું પડે છે, પણ ઉચ્ચકોટિના મહાપુરુ ભવિષ્યમાં સુખ ઉત્પન્ન કરનારા તપ અને સંયમની આરાધના કરે છે. તેમને વૃદ્ધાવસ્થામાં પશ્ચાત્તાપ કરે પડતું નથી. આ તથ્યને હવે સૂત્ર४२ ४८ ४रे छ-'जेहिं काले' त्याह साथ-'जेहि-यैः २ ५३षा में काले-काले' धर्मापानमा 'परिक्त। पराक्रान्तम्' ध पान यु छे 'ते-ते' ते ५३५ पच्छो-पश्चात्' ५७थी 'न परितप्पर-न परितप्यते' पस्ताव ४२di नथी. 'बंधणु मुक्का-बन्धनोन्मुक्ताः' म धनया छुटेल 'धीरा-धीरा.' धा२ ५३५ 'जीवियं-जीवितम्' असयभी पनी 'नाव खंति-नावकान्ति ' २७५ ४२ता नथी. ॥१५॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेश १८५ ___ अन्वयार्थ:-(जेहिं) यैः पुरुषैः (काले) काले धर्मोपार्जनकाले (परिकतं) पराक्रान्तं धर्मा पार्जनं कृतम् (ते) ते पुरुषाः (पच्छा) पश्चात् (न परितपए) न परितप्यन्ते पश्चात्तापं न कुर्वन्ति (बंधणुम्मुक्का) बन्धनमुक्ताः (धीरा) धीरा=महासत्वाः (जीवियं) जीवितं असंयम जीवन (नावखंति) नावकांक्षन्ति नेच्छन्तीति ॥१५॥ ___टीका-'जेहि यशात्महितकर्तृभिः 'काले' धर्मोपार्जनसमये 'परिवंत' पराक्रान्तम् , इन्द्रियरूपायाणां पराजयाय सद्योगः कृतः। 'ते' ते तादृशाः 'धीरा' कर्मविदारणे शौर्यादिगुणोपपनाः। एश्वात् मरणकाले,-अपगतयौवने वृद्धावस्थायाम् । 'न परितप्पंते' न परिसप्यन्ते, पश्चात्तापं न कुर्वन्ति शोकाग्निना दग्धान भवन्ति । 'बंधणुम्मुक्का' वन्धनमुक्ताः स्यादिवन्धनरहिताः 'ते' ते 'धीरा' महापुरुषाः 'जीवियं' जीवितमसंयमनीवनम् ‘नावखंति' नावकांक्षन्ति=नाभिलपन्ति । अन्वयार्थ--जिन्होंने समय पर पराक्रम किया अर्थात् धर्मसेवन किया है. बाद में पश्चात्ताप नहीं करते। बन्धन मुक्त धीर पुरुष असंयम-जीवन की आकांक्षा नहीं करते ॥१५॥ टीकार्थ--आत्मा का हित करनेवाले जिन विवेकशील दीर्घदर्शी पुरुषों ने धर्मोपार्जन के अवसर पर पराक्रम किया है अर्थात् इन्द्रियों और कषायों के निग्रह के लिए उद्योग किया है, वे कर्मविदारण में शरता आदि गुणों से सम्पन्न वीरपुरुष प्ररण के समय या यौवन व्यतीत हो जाने पर वृद्धावस्था में परिताप नहीं करते। उन्हें शोक की अग्नि में दग्ध नहीं होना पडता । स्त्री आदि के बन्धन से रहित वे धीर पुरुष असं. यममय जीवन की आकांक्षा नहीं करते। સૂત્રાર્થ–જેમણે ચગ્ય અવસરે પરાક્રમ કર્યું છે. એટલે કે ધર્મનું સેવન કર્યું છે, તેમને પાછળથી પસ્તાવું પડતું નથી. બલ્પન યુક્ત ધીર પુરૂષે અસંયમી જીવનની આકાંક્ષા રાખતા નથી. ૧પ ટીકાર્ય–આત્મહિતની ખેવના રાખનારા જે વિવેકશીલ પફ ભવિષ્ય. કાલીન સુખને વિચાર કરીને ધર્મોપાર્જનને અવસર આવે ધર્મકરણીમાં પ્રવૃત્ત થાય છે જેમાં ઇન્દ્રિ અને કષાના નિગ્રહ માટે પ્રયત્નશીલ રહે છે-એવા કર્મવિદારણમા શૂરતા આદિ ગુણોથી સંપન્ન ધીર પુરૂષને મરણને સમય નજીક આવે ત્યારે અથવા યૌવન વ્યતીત થઈને વૃદ્ધાવસ્થા આવે ત્યારે પસ્તાવું પડતું નથી. તેને શેકની અગ્નિમાં શેકાવું પડતું નથી. સ્ત્રી આદિ બ ધનથી રહિત તે ધીરપુરૂષે સંયમરહિત જીવનની ઈચ્છા કરતા નથી, Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૨ सूत्रकृतानं सूत्रे धर्मोपार्जनकालस्तु प्रायः सर्व एव भवति विवेकिनाम् । यतो धर्मस्यैव सर्वतः प्राधान्यात् पुरुषार्थाऽवसरे, प्रधानस्यैव उपार्जनं क्रियमाणं दृष्टम् । अत आ वाल्यात् ये संयमानुष्ठाने धर्मसाधने समुद्यतास्त एव धीराः । इत्थंभूता धीरा शैशवाद्धर्ममनुष्ठाय कर्मविनाशने समर्थः । अत एव कर्मबन्धनरहिता असंयमसंबद्धं जीवनं नावकांक्षन्ति । जीविते मरणे वा निःस्पृहाः सर्वदा सर्वथा संयमोद्यममतय एव भवन्ति ||१५|| • नारी परीपहस्याऽतिदुखहत्व दर्शयति सूत्रकारः - 'जहा नई' इत्यादि । मूलम् - जहा नई वेयरणी दुत्तरा इंह संमता । एवं लोगंसि नोरीओ दुरुतेरा असेंईमया ||१६|| छाया -- यथा नदी वैतरणी दुस्तरेह सुसंमता । एवं लोके हि नार्यो दुस्वरा अमतिमता ||१६|| आशय यह है विवेकवान् जनों के लिए सभी समय धर्माचरण के लिए होता है । धर्म ही सब में प्रधान है और पुरुषार्थ के अवसर पर प्रधान वस्तुका उपार्जन करना ही देखा जाता है । अतएव वाल्यावस्था से ही जो संयम के अनुष्ठान या धर्म के साधन में उद्यत हैं, वही वास्तव में धीर कहलाते हैं। ऐसे भीर पुरुष शैशव (पालपन से) अवस्था से ही धर्म का अनुष्ठान करके कर्मविनाश करने में समर्थ होते हैं । अतएव जो कर्मबन्ध से रहित हैं वे असंयममय जीवन की अभिलाषा नहीं करते हैं । वे जीवन में और मरण में निस्पृह होते हैं सदा सर्वथा संयमपालन के ही अभिलाषी होते हैं ॥१५॥ આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે વિવેકવાન્ પુરૂષ! પેાતાની જીવનની ક્ષથે ક્ષશુના ઉપયાગ ધર્માચરણમાં કરે છે. ધ જ સૌથી ઉત્તમ છે. તે ઉત્તમ વસ્તુનું ઉપાર્જન કરવામાં જ વિવેકવાન્ પુરુષેા પ્રયત્નશીલ રહે છે તેથી જે બાલ્યાવસ્થાથી જ સંયમના અનુષ્ઠાનમાં અથવા ધર્માંના સાધનમાં પ્રવૃત્ત રહે છે, તેને જ ખરી રીતે ધીર કહીશકાય છે. એવાં ધીર પુરૂષ માલ્યાવસ્થાથી જે ધર્મનું પાલન કરીને કમના ક્ષય કરવા લાગી જાય છે. તેથી તેએ કમને ક્ષય કરીને માક્ષ પ્રાપ્ત કરવાને સમર્થ અને છે. એવા પુરુષા કેમ અન્યથી રહિત હાય છે, તેઓ કદી પણ અસયમી જીવનની અભિલાષા સેવતા નથી. તેઓ જીવન અને મરણના વિષયમાં નિઃસ્પૃહ હાય છે. સંયમનું પાલન કરતાં કદાચ મૃત્યુને ભેટવુ પડે તે પણ તેઓ ગસરાતા નથી તેએ સદા સયમપાલનની જ અભિલાધાવાળા હોય છે. ૫૧૫ા Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ ३.३ स्खलितस्य साधोरुपदेशः अन्वयार्थ:--(जहा) यथा (इह) इहास्मिन् लोके (वेयरणी नई) वैतरणी नदी (दुरुत्तरा संमता) दुस्तरा संमता दुःखेन तत्तु योग्या (एवं) एवमनेन प्रकारेण (लोगसि) लोके (नारीभो) नार्यः स्त्रियः (अमइमया) अमतिमता-विवेकशून्यपुरुषेण (दुरुत्तरा) दुस्तरा भवतीति ॥१६॥ ___टीका--'जहा' यथा 'वेयरणी' वैतरणी 'नई' नदी 'दुत्तरा' दुस्तरा इहलोके संमता, अत्यन्तवेगवाहितया विषमतटबत्तया च वैतरणी नदी अनिष्णातेस्तर्तुमशक्या भवति । नदीसंतरणे कृतमतयः एव तां तरन्ति । 'एवं' एवं प्रकारेण___स्त्री परीषद को सहन करना अत्यन्त कठिन है, सूत्रकार यह दिखलाते हुए कहते हैं--'जहा नई' इत्यादि । शब्दार्थ-'जहा-वधा' जैसे 'इह-इह' इस लोकमें 'वेयरणी नईवैतरणीनदी' वैतरणी नदी 'दुरुत्तरा संलता-दुस्तरा संमता' अनिष्णात. जनोंसे दुस्तरमानी गई है 'एवं-एवम्' इसी प्रकार 'लोगसि-लोके' इस लोकमें 'नारीओ-नार्यः' स्त्रियां 'अमई मया-अमति भता' विवेकशून्य पुरुष से 'दुरुत्तरा-दुस्तरा' दुस्तर मानी गई है ॥१६॥ ____ अन्वयार्थ--जैले लोक में दैतरणी नदी को पार करना कठिन है, उसी प्रकार विवेकहीनजनके लिए स्त्रियां दुस्तर हैं ॥१६॥ टीकार्थ-वैतरणी नदी को पार करना कठिन माना गया है। वह तीव्र वेगके साथ वहती है और उसके तट बडे विकट होते हैं। अतएव अनिपुणपुरुष उसे लिर नहीं सकते । उसे वही लोग पारकर - હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે સ્ત્રી પરીષહને સહન કરે ઘણો भुस छ-'जहा नई' त्या Avat:-'जहा-यथा' २वी शत 'इह-इह' मामा 'वेयरणीनई -वैतरणीनदी' वैत२९ नही 'दुरुत्तरा संमता-दुस्तरा संमता' भनिन्यात भासाथी हुस्तरभनाये छे. 'एवं-एवम्' मा घरे 'लोग सि-लोके' मा सभा 'नारीओ-नार्यः' श्रीम! 'अमईमया-अमतिमता' विवशून्य ५३षयी 'दुरुत्तरा-दुस्तरा' रत२ માનવામાં આવેલ છે ૧૬ સૂત્ર. જેવી રીતે લેકમાં વૈતરણી નદીને પાર કરવાનું કાર્ય અતિ કઠણ ગણાય છે, એ જ પ્રમાણે સ્ત્રી પરીષહને જીતવાનું કાર્ય વિવેકહીન પુરુષને માટે દુષ્કર ગણાય છે. ૧૬ ટકાથ–વૈતરણી નદીને પાર કરવી તે ઘણું કઠણ ગણાય છે. તે તીવ્ર વેગે વહે છે અને તેના તટ ઘણા વિકટ છે. તેથી અનિપુણ પુરુષે તેને તરી શકતા નથી. તેને તે લેકે જ પાર કરી શકે છે કે જે તેને પાર કરવાને Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ सूत्रकृतासूत्रे 'लोगंसि' लोके अस्मिन् लोके 'नारीओ' नाय: 'अमईमया' अमतिमता=अविवेकि पुरुषेण 'दुरुत्तरा' दुस्तरा दुःखेन तत्तुं योग्या । सा हि स्वकीयबल्गुवचनहावभावैः विद्वांसमपि कर्पति, मार्गादधः पातयति । प्रमदा सर्वथा नरं पातयितु मिच्छति । तदुक्तम् "ममदा धुत्पथं नेतुं प्रयतन्ते शरीरिणाम् ।" सर्वा अपि स्त्रियः कलं कायैव भवति यथा स्वर्णमभवापि शृंखला बन्धनकारिका भवति । तदुक्तं 'कामं कुलकलंकाय कुलजातापि कामिनी । शृंखला स्वर्णजाताऽपि बन्धनाय न संशयः ॥१॥ हे संसार ! तब पारगमनमशक्यं न भवेत् यदि मध्ये इयं स्त्री प्रतिवन्धिका न भवेत् तदुक्तंपाते हैं जो पार करने का सुदृढ संकल्प कर लेते हैं। इसी प्रकार इस लोक में स्त्री परिषह को जीतना अविवेकी पुरुषों के लिए अत्यन्त कठिन है । स्त्री अपने मधुरवचनों एवं हावभावों से विद्वात् पुरुषको भी आकर्षित कर लेती है और सन्मार्ग से स्खलिग कर देती है। वह पुरुष को सदैव गिराने की इच्छा करती है। कहा भी है-'प्रमदा जुत्पथं नेतुं' इत्यादि। 'स्त्रियां पुरुषों को मार्ग पर ले जानेका ही प्रयत्न करती हैं।' संघ स्त्रियां कलंक के लिए ही होती हैं जैसे सोने की सांकल भी पन्धनकारिणी ही होती है । कहा भी है--'कामं कुल कलंकाय इत्यादि । उच्चकुलीन काग्निनी श्री कुल के कलंक काही कारण होती है, जैसे स्वर्ण की बनी सांकल भी बन्धन के लिए होनी है। इसमें तनिक भी लन्देह नहीं है ॥१॥ દઢ સંકલ્પ કરી લે છે. એ જ પ્રમાણે આ લેકમાં સ્ત્રી પરીષહને જીતવાનું કાર્ય અવિવેકી પુરુષને માટે તે ઘણું જ મુશ્કેલ છે. સ્ત્રી તેનાં મધુર વચને અને હાવભાથી વિદ્વાન પુરુષને પણ આકપીને સન્માર્ગથી ભ્રષ્ટ કરીને કુમાગે દેરી જાય છે. તે પુરુષનું પતન કરવાને જ સદા ઉત્સુક રહે છે કહ્યું પણ છે કે સ્ત્રીએ પુરુષને કુમાર્ગે ખેંચી જવાનો પ્રયત્ન કરે છે.' 'प्रमदा बुत्स्थं नेतुं' इत्याहि જેવી રીતે સોનાની સાંકળ પણ બધનકારિવું જ હોય છે. એ જ પ્રમાણે સ્ત્રીઓ પણ પુરુષને કુમાર્ગે ચડાવીને સંસારબમાં કારણભૂત બને છે ४घु' ५ छ 3-कामं कुल कलंकाय' या Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १८५ 'संसार ! तव दुस्तारपदवी न दवीयसी। अन्तरा दुस्तरा न स्युर्यदि रे मदिरेक्षणाः ॥१॥ तावदेव पुरुषः सन्मार्गे तिष्ठति यावत् स्त्रीसंपर्को न भवेत् , तत्संपर्के जाते सर्वमपि विस्मृत्य तत्रैवासक्तो भवति । तदुक्तं-- सन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति पुरुषस्तावदेवेन्द्रियाणां, लज्जां तावविधत्ते विनयमपि समालम्बते तावदेव। . .. भूचापाऽऽकृष्टभुक्ताः श्रवणपथजुषो नीलपक्ष्माण एते, . . यावल्लीलावतीनां न हृदि धृतिमुषो दृष्टियाणाः पतन्ति ॥१॥ . तदेवं वैतरणीनदीचर इमा दुस्तरा नार्यों, भवन्तीति श्लोकाऽभिप्रायः ॥ १.६. हे संसार ! तुझे पार करना कठिन न होता यदि बीच में यह नारी भाडी न आई होती ! कहा भी है-संसार ! तब दुस्तार' इत्यादि । ___ अरे संसार ! यदि बीच में ये दुस्तर नारियां न होती तो तेरी यह जो 'दुस्तार' पदवी है उसका कोई मूल्य न होता । अर्थात स्त्री रूप बाधा के कारण ही संसार दुस्तर है । यह बाधा नहीं होती तो सुतर हो जाता। . पुरुष तभी तक सन्मार्ग पर स्थिर रहता है जब तक उसका स्त्री के साथ सम्पर्क नहीं होता । स्त्री के साथ सम्पर्क होने पर सब कुछ भूलकर उसी में आसक्त हो जाता है। कहा है--सन्मार्गे तावदास्ते' इत्यादि। ' જેવી રીતે સોનાની સાંકળ પણ બનને માટે જ હોય છે, એજ પ્રમાણે ઉચ્ચકલીન કામિની પણ કુળને કલંક લગાડવામાં કારણભૂત બને છે, તેમાં સહેજ પણ સંદેહ નથી. તેના જે આ નારી સંસારમાં ને હેત, તે આ સંસારને પાર કરવાનું કઠણ य ५त नही. यु ५५ छे है-'संसार, तव दुस्तार' त्याहि હે સંસાર! જે તું આ દસ્તર નારીઓથી યુક્ત ન હોત, તે તારી ' આ જે “દુસ્તાર પદવી છે તેનું કોઈ મહત્ત્વ જ ન રહેત.” • 4 આ કથનનો ભાવાર્થ એ છે કે સ્ત્રિઓ રૂપ અવરોધને કારણે જ આ સંસાર સ્તર છે. જે તે અવરોધનું અસ્તિત્વ જ ન હોત તો સંસારને પાર કરવાનું કાર્ય સરળ બની જાત. પુરુષ ત્યાં સુધી જ સન્માર્ગ પર સ્થિર રહી શકે છે કે જ્યાં સુધી તેને સ્ત્રિની સાથે સંપર્ક થતો નથી. સ્ત્રીના સંપર્કમાં આવતાં જ તે સઘળું ભૂલી જઈને સ્ત્રીમાં આસક્ત થઈ જાય છે. કહ્યું પણ છે કે 'सन्मार्गे तावदास्ते' त्याहसू० २४ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गस्त्रे १८६ सूप - जेहिं नारीण संजोगा पूर्येणा पिट्टेओ कया । सव्वमेयं निराकिंच्चा ते ठिया सुसमाहिए ॥१७॥ 2 छाया -- बैनरीणां संयोगाः पूजना पृष्ठः कृताः । सर्वमेतन्निराकृत्य ते स्थिताः सुसमाधिना ॥ १७ ॥ पुरुष तभी • तक सन्मार्ग पर आरूढ रहता है, तभी तक इन्द्रियों फो काबू में रख पाता है, तभी तक लज्जाशील रहा है और तभी तक विनय का अवलम्बन (आधार) देता है, जब तक मोहरूपी धनुष्य को खींच कर छोडे हुए, श्रवणवण को प्राप्त हुए, नीले पंखवाले, धैर्य को नष्ट करनेवाले स्त्रियों के दृष्टिक्षण हृदय में नहीं लगते हैं ॥१॥ इस प्रकार इस गाथा का अभिप्राय यही है कि नारियां वैतरणी 'नदी के समान दुस्तर हैं ॥ १६ ॥ " शब्दार्थ - 'जेहि-यैः ' जिन पुरुषोंने 'नारीण संजोगा-नारीणां 'संयोगा' स्त्रियोंका संबंध 'दूधना-पूजना' और काशृंगारको 'पिडओ कया - पृष्ठतः कृताः' छोड दिया है 'ते-ते' वे पुरुष एवं सव्वं निराकिच्चा - एतत् सर्व निराकृत्य' समस्त उपसर्गों को दूर करके 'सुसमाहिए - सुसमाधिना' प्रसन्न चिन्त होकर 'हिया - स्थिताः' रहते हैं. ॥१७॥ પુરુષ ત્યાં સુધી જ સન્માર્ગ પર આરૂઢ રહે છે-ત્યાં સુધી જ · ઇન્દ્રિયા કાબૂમાં રાખી શકે છે, ત્યાં સુધી જ લજ્જાશીલ રહે છે અને ત્યાં સુધી જ વિનયનું અવલંબન (આધાર) લે છે કે જ્યાં સુધી ભવાં રૂપી ધનુષને ખે’ચીને છેાડેલાં, શ્રવણુપથ પર અગ્રેસર થતાં, નીલ પાખવાળાં, ધૈ ને નષ્ટ કરનારા સ્ત્રીઓનાં દૃષ્ટિખાણા તેના હૃદયને ઘાયલ કરતાં નથી.’ આ ગાથા દ્વારા સૂત્રકાર એ વાતનું સમર્થન કરે છે કે આની આસક્તિના ત્યાગ કરવાનુ` કાય વૈતરણી નદીને પાર કરવા જેવું દુષ્કર છે. ૧૬ शफ़्टार्थे–जेहि-यैः' ? ५३षे मे 'नारीणसंजोता - नारीणां संयोगाः स्त्रियांना सध 'पूयणा-पूजना' भने अमश्रृंगारते 'दिओ कया- पृष्ठतः कृताः - छोडी हीघो 'छे, 'वे-वे' ते ३षा 'एयं सव्यं - निरा किच्चा - एतत् सर्वं निराकृत्य' - अधा ४ उपसगनि दूर उरीने 'सुसमाहिए - सुसमाधिना' प्रसन्न चित्त थर्धने 'हिया - स्थिताः' २३ छेः ॥१७॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी नौका में ऐ. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः .. १८७ -- अन्वयार्थ:--(जेहिं) थैः - पुरुषैः, (नारीण संजोगा) नारीणां संयोगाः । संवन्धाः 'पूयणा' पूजनाकामविपा (पिटओ कया) पृष्ठतः कृताः परित्यक्ता (ते) ते पुरुषाः (एये सव्वं निराश्चिा ) एतत् सर्व निराकृत्य (सुसमाहिए) सुस... माधिना (ठिया) स्थिताः संसिनः स्थिता भवन्तीति ॥१७॥ टीका--'जेहि यैः विवेक्षिभिः स्त्रीसंबन्धी विषमफलकः इति विज्ञाय 'नारीण संजोगा' नारीणां संयोगा।। 'पिहलो कया' पृष्ठनः कृताः परित्यक्ताः। तथा 'पूण्णा' पूजना त्रिपमनुकूलयितु वस्त्रालंकारादिना स्त्रीणां पूजनमपि परि त्यक्तम् । 'सबसेयं निराकिच्चा' सर्वम्-एतत् ललनासंबन्धम् , क्षुत्पिपासादिकप्रतिकूलोपसर्गनियहं च निराकृत्य महापुरुषैरनुष्ठितं मार्गमाश्रित्य कृतगमनमः । तयः । ते ठिया सुसमाहिए' ते स्थिताः सुसमाधिना, ते स्वस्थचित्तवृत्तिरूपेण : । अन्वयार्थ जो पुरुष नारियों के संयोगों का तथा कामविभूषा का परित्याग कर चुके, वही यह सब त्याग करके उसमाधि में स्थित होते हैं ॥१७॥ टीकार्थ--जिन विवेकविभूषित पुरुषोंने स्त्रियों के सम्बन्ध को . विषम फलप्रद जानकर स्थान दिया है तथा जिन्होंने स्त्रीको अनुकूल बनाने के लिए बन अलंकार आदि से सत्कृत करने का त्याग कर, दिया है, वे इन सब नारी संबंधों को तथा क्षुधा पिपाप्ता आदि प्रतिः । कूल उपलगों को हटाकर महापुरुषों द्वारा आचीर्ण (स्वीकृत) मार्ग... का आश्रय लेलें हैं और उसी पर चलने का संकल्प करते हैं, वही सुसमाधि में स्थित होते हैं। उनकी चित्तवृत्ति शुद्ध' रहती है। अनुकूल उपसर्ग उपस्थित होने पर भी वे महारुद के लमान स्थिर ' સૂત્રાર્થ–જે પુરુષ નારીઓના સંગે તથા કામવિભૂષાને પતિ ત્યાગ કરી ચૂક્યા છે, તેઓ સઘળી વસ્તુઓને ત્યાગ કરીને સુસમાધિમાં સ્થિર રહી શકે છે. એટલે કે તેમનું ચિત્ત જ વિશુદ્ધ રહી શકે છે. (૧છા . ટીકાર્થ–જે વિવેકવાન પુરુષોએ જિઓના સંબંધને વિષમ ફલપ્રદ જાણીને તેનો પરિત્યાગ કર્યો હોય છે, તથા જેમણે સ્ત્રિઓને વશ કરવાને માટે વસ્ત્ર, અલંકાર આદિથી તેને સત્કાર કરવાને અને તેને રિઝવવાને स्या ये-छ, पुरुषार प्रियिनी सिस्तिना, या ४शन तथा ભૂખ તૃષા આદિ ઉપસર્ગો પર વિજય પ્રાપ્ત કરીને મહાપુરુ દ્વારા આચીણું : સ્વિીકૃતી પામેલા) માર્ગને આશ્રય લે છે, અને તે માર્ગ ૪ આગંળ વધવાને ૮ સંકલ્પ કરે છે. તેઓ જ સુસમાધિમાં રિત–રહી શકે છે. તેમની ચિત્તવૃત્તિ શુદ્ધ રહે છે. અનુકૂળ ઉપસર્ગો આવી પડે ત્યારે પણ તેઓ મહા હદ (સરવરીના Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतासूत्रे ध्यवस्थिताः। ते हि अनुठूलोपसगैः महाहंदवत् क्षोभरहिता भवन्ति । अन्ये तु विष याभिलापिणो ललनादिपरीपहेजिताः संसारे अङ्गारपतितमीनवद् रागाग्निना दामाना अवतिष्ठन्ते इति ॥१७॥ . . . . . . ये ललनापरीषहेण पराजिताः तेषां कीदृशं फलं भवतीति दर्शयितुं सूत्रफार उपक्रमते-'एए.ओघ' इत्यादि। . . . मूलम्-एएं ओघ तरिस्तंति समुदं ववहारिणो। :- जत्थ पाणा विर्सनासि किञ्चती सर्यकम्मुणा ॥१८॥ ' छाया-एते ओघं तरिष्यन्ति समुद्र व्यवहारिणः । - - - यत्र प्राणा विषण्णाः सन्तः कृत्यन्ते स्वककमणा ॥१८॥ रहते हैं । जो इनसे विपरीत वृत्तिवाले क्षुद्र पुरुष होते हैं विषयों के. अभिलाषी और स्त्री परीषह आदि ले पराजित होते हैं और परिणामतः अंगार में पडे हुए मीन की तरह संसाररूपी अंगार से जलते रहते हैं।॥१७॥ - जो स्त्री परीषह से पराजित होते हैं, उन्हें किस प्रकार का फल प्राप्त होता है, यह दिखलाने के लिए सूत्रकार कहते हैं-'एए ओघं' इत्यादि। : शब्दार्थ--'एए-एते' अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को जीतनेवाले ये पूर्वोक्त संयमी पुरुष 'ओघं-ओघं' चातुतिक संसार को 'तरिस्संति-तरिष्यन्ति' पार करेंगे जैसे 'सत्रुई-झामुद्रम् ' समुद्रको 'चवहारिणो-व्यवहारिणः' व्यापार करनेवाले वणिकूजन पार करते हैं 'जरंथ-यत्र' जिस संसार में विसनासि-विषण्णासन्ता' पडे हुए 'पाणाप्रोणा' प्राणी-जीव 'सयकम्नणा-स्वककर्मणा' अपने कर्मों के बलसे "किच्चंति- कृस्यन्ते' पीडित किये जाते हैं ॥१८॥ સિમીને સ્થિર રહે છે. પરંતુ જે પુરુષે તેમના કરતાં વિપરીત વૃત્તિવાળા હોય છે, તેઓ વિષમાં આસક્ત રહે છે. એવા પુરુષ સ્ત્રી પરીષહ આદિ દ્વારા પરાજિત - થાઇ છે. તેને પરિણામે તેઓ અંગારમાં પડેલ માછલાની માફક સંસારરૂપી शा२१ १ ४ाता २७, छे. ॥१७॥ . - જે ક્ષુદ્ર પુરુષે પરીષહ દ્વારા પરાજિત થાય છે તેમને કેવું ફલ लागवतु ५ छ, त सूत्र५२ वे 2. छ- 'एए ओघ' त्याहि. २... हाथ-'एए-एते' अनुण भने प्रति पनि तापमा भूत संयमी ५३५ :-'ओघं-ओघं' यार गतिवाणास सारने तरिस्संति-तरिष्यन्ति'. पा२ ४२ वी रीत 'समुई-समुद्रम् समुद्रने 'ववहारिणो-व्यवहारिणः' व्यापा२ ४२4141वान पा२ ४२ छ, जत्थ-यत्र' संसारमा 'विसन्नासिविषण्णाः सन्तः ५ पाणा-प्राणा' आ-04 'सयकम्मुणा-स्वकर्मणा' घोताना ना मणथी : किच्चंति:त्यन्ते' मि ४२वामां आवे छे. ॥१८॥ rur Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १८६ अन्वयार्थः--(एए) एसे अनुकूलपतिकूलोपसर्गविजेतारः, (ओघं) ओघं= चातुर्गतिकसंसारं (तरिस्संति) तरिष्यन्ति पारं यास्यन्ति यथा (समुई) समुद्रम् (ववहारिणो) व्यवहारिणः (जत्थ) यत्र यस्मिन् संसारे (विसन्नासि) विषण्णाः स्थिताः सन्तः (पाणा) माणा:-जीवाः (सयकम्मुणा) स्वककर्मणा स्वकृतकर्मवलेन (किच्चंती) कृत्यन्ते-पीडयन्ते इत्यर्थः ॥१८॥ टीका-'एए' अनन्तरोदीरितललनादिपरीपहजेतारः ते सर्वेऽपि दुस्तारमपि 'ओघ' ओघ-संसारौघम् 'तरिस्सति' तरिष्यन्ति तथा तीर्णा बहवः तरन्ति च । 'समुई' समुद्रम् 'ववहारिणो' व्यवहारिणो वणिजः। यथा-यानपात्रमारुह्य व्यवहारिणः समुद्रं तरन्ति । एवं भावौघं संसारसागरं स्यादिप्रतिकूलोपसर्गजेतारः संयमे कृतमतयः संयमात्मकंयानपात्रमालम्ब्य तरिष्यन्ति । भावौघं - अन्वयार्थ--अनुकूल और प्रतिकूल उपलगों को जीतनेवाले पुरुष. संसार प्रवाह को पार कर जाएंगे जैसे व्यापारी सागर को पार कर, जाते हैं। जिस संसार में स्थित जीव अपने कर्मों के कारण, पीडित होते हैं ॥१८॥ "टीकार्थ--जो पुरुष पूर्वोक्त स्त्री परीषह आदि को जीत लेते हैं, वे सभी इस दुस्तर संसार प्रवाह को पार कर जाएँगे। घड़तों ने इसे पार किया है और अब भी बहुत से पार कर रहे हैं। जिस प्रकार यणिक जहाज के सहारे समुद्र को पार करते हैं, इसी प्रकार स्त्री आदि के अनुकूल एवं प्रतिकूल उपसों पर विजय प्राप्त करनेवाले, संयम में स्तुस्थिर धुद्धिवाले पुरुष संयमरूपी जहाजका अव- સૂત્રાર્થઅનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગો પર વિજય મેળવનાર પુરુષ સંસારપ્રવાહને તરી જશે. જેવી રીતે સાહસિક વ્યાપારી પિતાના જહાજ વડે સમુદ્રને પેલે પાર જાય છે, એ જ પ્રમાણે તે મહાપુરુષે પણ સંસાર સાગરને પાર કરી જશે આ સંસારમાં રહેલા જ પિતાનાં કર્મોને કારણે દુઃખી થાય છે. ૧૮ - ટીકાર્ય–જેવી રીતે વેપારી જહાજની મદદથી સમુદ્રને પાર કરી શકે છે, એજ પ્રમાણે સ્ત્રી પરીષહ આદિને જીતનાર મહાપુરૂષો આ દસ્તર સંસાર પ્રવાહને પાર કરશે. આ પ્રકારે અનેક મહાપુરુષોએ તેને પાર કર્યો છે અને અનેક મહાપુરુષે વર્તમાનકાળે પણ તેને પાર કરી રહ્યા છે. જેમ વ્યાપારીઓ જહાજને આધાર લઈને સમુદ્રને પાર કરે છે, એ જ પ્રમાણે શ્રી આદિના અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગો પર વિજય મેળવનારા, સંયમ દઢતાપૂર્વક પાલન કરનારા વિવેકવાન્ હૈ સંયમરૂપી જહાજનું અવલંબન Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रतासूत्रे विशिष्टि । 'जत्थे त्यादि । 'जस्थ' यत्र संसारसागरे प्राणिनो विषण्णाः स्थिताः सन्तः ललनादिविषयासक्ताः स्वम्वकर्मणा पापेन कृत्यंते पीडयन्ते । एतादृश-: मतिदुस्तरमपि संसारसागर , प्रतिकूला पसर्गलागेन , संयमानुष्ठानादिना च कारणेन संतरन्ति भावशुद्धा विद्वांस इति ॥१८॥. . . . . , .. -7,' संप्रति प्रकृतोपसंहरन्नुपदेशान्तरमाह-'तं च भिक्खु परिणाय' इत्यादि। मुलम्-तच भिकाबू परिणाय - सुए लमिए चरे। .. __मुलाबाचं च वजिजा अदिनांदाणं चोसिरे ॥१९॥ ' छाया-तं च भिक्षुः परिज्ञाय सुनतः समितश्चरेत् । . मृपावादं च वर्जयेददत्तादानं च मुत्सृजेत् ॥१९॥ लम्धन लेकर लंबार सागर को पार करते हैं। जिनका मन नारी आदि. विषयों में आसक्त है, वे जिला संसार में अपने किये पापकामों के कारण पीडा पाले हैं, ऐसे दुस्तर संसार साधर को भी प्रतिकूल आदि उपसों का त्याग क्षरने ले तथा संघ के अनुष्ठान आदि के द्वारा पार किया जा सकता है। किन्तु हो वहीं पार कर पाते हैं जिनकी भावना विशुद्ध होती है और जो खल्या ज्ञान र सम्पन्न होते हैं ॥१८॥ अब प्रस्तुत विषय का उपसंहार करते हुए सूत्रकार उपदेश करते हैं-- चमिश्खू इत्यादि। ' शब्दार्थ--भिवसू-भिक्षुः साधु 'तं च परिणाय-तं च परिज्ञाय' पूर्वोत कथन को जानकार अर्थात् बैनरणी नदी के जैसी स्त्रियां दुस्तर લઈને સારસાગરને પાર કરી શકે છે પરંતુ જેમનું મન નારી આદિમાં ર આસક્ત હોય છે તેઓ સંસારમાં જ અટવાયા કરે છે. આ સંસારમાં સઘળા જીવે અનંતકાળથી આવાગમન કર્યા કરે છે અને પિતા પોતાનાં પાપકર્મોને કારણે પીડા ભોગવે છે. એવા દસ્તર સંસારસાગરને પણ ઉપસર્ગો અને પરી સામે વિજય મેળવનારા લેકે સંયમની આરાધના કરીને તરી શકે છે. જેમની ભાવના શુદ્ધ હોય છે અને જેઓ સમ્યજ્ઞાનથી યુક્ત હોય છે, તેઓ જ તેને તરી શકે છે ૧૮ હવે પ્રરતુત વિષયનો ઉપસંહાર કરતા સૂત્રકાર એ ઉપદેશ આપે છે કે __'तं च भिक्खू त्याहि... Ava-भिक्खू-भिक्षु' साधु 'तं च परिण्णाय-तं च परिज्ञाय' पूyिa કથનને જાણીને અર્થાત્ વૈતરણ નદીની જેમ સ્ત્રીઓ સ્તર છે ઈત્યાદિ સમ્યક Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः .१९१ -- अन्वयार्थ:--(भिवखू) भिक्षुः=निः (तं च परिमाय) तं च परिज्ञाय वैत. रणीव स्त्रियो दुरुत्तरा, नारोंः यैः त्यक्तास्ते समाधिस्था: संसारे तरंति स्त्रीसंगिनश्च स्वकृतकर्मणा कृत्यन्ते इति ज्ञात्वा (सुयो) सुव्रत शोभनवदान (समिए) समितः पञ्चसमितिभिः (चरे) चरेत् संयमानुष्ठानं कुर्यात् तथा (मुसावाय) सुपावादम् (वज्जिज्जा) दर्जयेत् परित्यजेत् तथा (अदिन्नादाणं च) अदत्तादान च (वोसिरे) व्युत्सृजे परित्यजेत् ॥१९॥ । टीका--नायर्यो दुस्ता भवन्ति वैतरणीवत् , ललनासत्ताः स्वकृतकर्मणा संसारकांतार नातिक्रामन्ति । तदेतत्सर्वम्-'भिक्खू' भिक्षु निरवद्यमिक्षाभिहै इत्यादि सम्यकप से समझकर 'सुवओ-सुन्नता' उत्सा व्रतोपाला पुरुष 'लमिए-लखितः' पांच समिलियों से युक्त होकर 'चरे-चरेत् । संयप्रका अनुष्ठान करे तथा 'लुसावायं स्वृषावादम्' असत्यवादः यो वजिजा-वर्जयेत्' छोड देखें और 'अदिशादाणं च-अदत्तादानं च' अदत्तादान को 'कोलिरे-व्युत्सृजेत्' त्याग देवें ॥१९॥ • अन्वयार्थ-त्रियों वैतरणी नदी के सम्मान दुस्तर हैं, जिन्होंने स्त्री-का परित्याग कर दिया है, सम्माधिस्थ होकर संसार ले तिर जाते हैं आर जो स्त्री के साथ संदर्ग रखते हैं वे अपने कर्मों के कारण पीडित होते हैं यह सब जानकर भिक्षु ललीचीन व्रतवान् तथा समितियों से युक्त होकर संयम का अनुष्ठान करे। वह स्मृषावाद का त्याग करे और अदत्तादान का भी त्याग करे ॥१९॥ टीकार्थ--जैले बैतरणी नदी को पार करना आसान नहीं है, उसी ३५था संभलने 'सुब्बो -सुव्रत.' उत्तम प्रतवाणे। पु३५ ‘समिए-समित.' पाय समितियोथी युक्त ने 'चरे-चरेत्' सयभनु अतुन तथा 'गुसावायमृषावादम्' सत्यवान वज्जिजा-वर्जयेत्' घडी हे भने 'अदिन्नादाण च'अदत्तादानं च' हाहानना 'वोसिरे-व्युत्सृजेन्' त्या ४२. ॥१६॥" सूत्राय - शिया वैतरणी नहीना समान हुस्त२ छे. २मा खाना पर ત્યાગ કર્યો છે, તેમાં સમાધિસ્થ થઈને સંસારસાગરને તરી જાય છે, પરંતુ જેઓ અિને સંસ છોડતા નથી, તેઓ પિતાનાં પાપકર્મોને કારણે પીડા અનુભવે છે. આ વાતને બરાબર સમજી લઈને સાધુએ પાંચ મહાવ્ર, સંમિતિઓ આદિથી યુક્ત થઈને સંયમની આરાધના કરવી જોઈએ. તેણે મૃષાવાદ, અદત્તાદાન આદિને ત્યાગ કર જોઈએ ૧૯ 1 ટીકાથ–જેવી રીતે વૈતરણી નદીના પ્રવાહને પાર કરવાનું કાર્ય સરળ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ '. -- --:...... सूत्रकृतासूत्र अन्वयार्थ:--(उड़) ऊर्ध्वम् (अहे) अधः (तिरियं वा) तिर्यग् वा (जे केइ तसथावरा) ये केचन सस्थावरा जीवाः (सव्वत्थ) सर्वत्र सर्वस्थानेषु (विरति) विरति भाणातिपातनिवृति (कुज्जा) कुर्यात् । संतिनिव्वाणमाहियं) शांतिनिर्वाणमाख्यातम् माणातिपावविरतस्य शांतिमोक्षौ अवश्यमेव भविष्यत इति ॥२०॥ ____टीका-'उड़' ऊर्ध्वम्-अज़दिशि स्थितान् 'अहे' अधः अधोदिशि स्थितान् 'तिरियं वा तिर्यक् वा-तिर्यदिशि स्थितान् एतेन क्षेत्रमाणालिपातो गृहीतः। 'जे केई ये केचन-तत्र ये केचन 'तसवादरा' सस्थावराः, सन्ति अयं प्राप्नुवन्ति गच्छन्ति वा इति प्रसाः द्वित्रिचतुःपंचेन्द्रियाः पर्याप्तकाऽपर्याप्तफमेदभिन्नाः । तथा-तिष्ठन्तीति स्थावराः पृधिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः, सूक्ष्मबादरपर्याप्तकाऽपर्याप्तकभेदभिन्नाः । अनेन द्रव्यमाणातिपातो गृहीतः। तथा'सवत्थ' सर्वत्र सर्वस्थानेषु सर्वाग्ल अवस्थासु जीवस्थानेषु अनेन कालभावपभेदभिन्नः प्राणातिपातो गृहीतो भवति । तदेवं सास्वप्यवस्थासु कृतकारितानुमतिभिर्मनो अन्वयार्थ-अर्च, अधो या तिछि दिशाओं में जो भी उस और स्थावर प्राणी हैं, सर्वदा उनकी हिंसा से निवृत्ति करे। जो प्राणातिपात से निवृत्त होना है उसे शान्ति और मुक्ति की प्राप्ति अवश्य होती है।२०॥ टीकार्थ-ऊर्ध्व दिशा में, अघोदिशा में तथा तिर्थी दिशाओं में प्रस और स्थावर प्राणी स्थित हैं । जो प्राणी अप ले उनिग्न होते हैं या गमन करते हैं वे नस कहलाते हैं। दीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय भौर पन्चेन्द्रिय जीव त्रस हैं वे पर्याप्त और अपर्याप्त सेवाले होते हैं हो।जो स्थितिशील हैं वे पृथ्वी काय, असाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के जीव स्थावर कहलाते हैं । इनके सूक्ष्म, दादर, पर्याप्त अपर्याप्त आदि अनेक भेद प्रभेद हैं । तथा सभी काल में और जीव સૂત્રાર્થ—ઊર્ધ્વ, અધે અને તિરકસ દિશાઓમાં જે ત્રસ અને સ્થાવર છો છે. તેમની હિંસા સાધુ દ્વારા કદી થવી જોઈએ નહીં. જેઓ પ્રાણાતિપાતથી નિવૃત્ત હોય છે, તેમને શાન્તિ અને મુક્તિની પ્રાપ્તિ અવશ્ય થાય છે. ૨૦ -ટીકાઈ–ઊર્વ દિશામાં, અધે દિશામાં તથા તિછી દિશાઓમાં ત્રણ અને સ્થાવર જી રહેલા છે. જે જીવે ભયથી ઉદ્વિગ્ન હોય છે, અથવા જેઓ મન કરે છે, તેમને ત્રસ કહેવામાં આવે છે. દ્વીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય કાર ચન્દ્રિય છે, તેઓ પર્યાપ્ત પણ અપર્યાપ્તક એ ભેદવાળા હોય છે. અને 2 એ સ્થિતિશીલ છે તેવા પૃથ્વીકાય, અષ્કાય, તેજસ્કાય, વાયુકાય અને પતિકાય જીવોને સ્થાવર જી કહે છે. તેમના સૂરમ. બાદર, પર્યાપ્ત આદિ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ f f 'समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. म. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १५ वाक्कायैः | 'विरर्ति' विरर्ति प्राणातिपातनिवृत्तिम् 'कुज्जा' कुर्यात् भावमाणातिपातो दर्शितः, कस्मिन्नपि काले कस्मिन्नपि देशे कस्यापि प्राणिनः कस्याप्यवस्थायां विराधनं मनोवाक्कायैः कृतकारितानुमतिभिर्न कुर्यादिति । तदेवमुक्त रीत्या तपःसंयमाराधकस्य किं फलं भवतीति तदर्शयति । संति - निव्वाण' इत्यादि । 'संति' शान्तिः - सर्वकर्मोपशमः, तदेव 'निव्वाणं' निर्वाण = मोक्षपदम् । 'आदि' आख्यातम् - कथितम् । एतादृशो मोक्षो यथोक्तसर्वविरतिमतः चरणकी अवस्थाओं में - जीवस्थानों में हिंसा का त्याग करे। इन सभी जीवों के विषय में कृत, कारित और अनुमोदना से तथा मनवचन- और काय से हिंसा का त्याग कर देना चाहिये । - यहाँ ऊर्ध्व अधो और तिर्यक दिशा का उल्लेख करके क्षेत्र प्राणीतिपात का ग्रहण किया है, अस स्थावर का उल्लेख करके द्रव्यप्राणातिपात को सूचित किया है, सर्वत्र अर्थात् सर्वकाल में इस उल्लेख से कालप्राणातिपात को सूचित किया है और 'निवृत्त करे' ऐसा कहकर भावप्राणातिपात को प्रकट किया गया है । अभिप्राय यह है कि किसी भी काल में किसी भी देशमें किसी भी प्राणी की किमी भी अवस्था में, मन वचनकाय से और कृत, कारित तथा अनुमोदना से विराधना न करे । जो इस प्रकार से तप और संयम की आराधना करता है, उसे = किस फल की प्राप्ति होती है ? इसका उत्तर देते हैं - उसे शान्ति और અનેક ભેદો અને પ્રભેદે છે. સાધુએ સઘળામાં અને જુદી જુદી અવસ્થાઓમાં જીત્ર સ્થાનમાં વિદ્યમાન જીવાની હિંસાના ત્યાગ કરવા જોઈએ. તેણે કૃત, કારિત અને અનુમેાદના રૂપ ત્રણે કરણ અને મન, વચન અને કાયરૂપ ત્રણ ચૈાગદ્વારા હિંસાને ત્યાગ કરવા જોઈએ. અહી' ઊ, અધે! અને તિક્ દિશાઓના ઉલ્લેખ કરીને ક્ષેત્રપ્રાશ્ચાત્ તિપાતને ગ્રતુણુ કરવામાં આવેલ છે. ત્રસ અને સ્થાવર વેના ઉલ્લેખ કરીને સૂત્રકારે દ્રવ્યપ્રાણાતિપાતને સૂચિત કર્યુ છે, સત્ર પદના અથવા સર્વકાળના ઉલ્લેખ કરીને કાલપ્રાણાતિપાતને સૂચિત કર્યુ છે, અને નિવૃત્તિ કરે' આ પદના પ્રયેાગ દ્વારા ભાવપ્રાણાતિપાતને પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. આ કથનનુ તાપ એ છે કે કઈ પણ કાળે, કેાઈ પણ દેશમાં (ક્ષેત્રમાં); કોઈ પણ જીવની કેાઈ પશુ અવસ્થામાં મન, વચન અને કાયાથી તથા કૃત, કારિત અને અનુમેાદના દ્વારા વિરાધના કરવી જોઇએ નહી. આ પ્રકારે તપ અને સયમની આરાધના કરનારા સાધુઓને કેવા ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે, તે સૂત્રકાર હવે પ્રકટ કરે છે-તેને શાન્તિ અને મુક્તિની Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे क्षणशीलो यतिः। 'परिणाय' परिज्ञायज्ञपरिज्ञया नारीसंग दुःखजनकं ज्ञात्वा 'मुवए' सुव्रता शोमनपंचमहाव्रतादियुक्तः। 'समिए' समित: पंचभिः समितिभियुक्तः । चरेत्-विचरेत-अत्याख्यानपरिज्ञया स्त्रीसंग परित्यज्य सर्वदा समाहितः सन् संयमाऽनुष्ठाने तत्परो भवेत् । तथा-'मुसाबाय' मृपावादर-स्त्रीसेवनेपि'मुक्तिर्भवतीत्याकारकासदर्थप्ररूपणं परिहरेत् । तथा 'अदिन्नादाणं च वोसिरे' अदत्तादानं च व्युत्सृजेत् । दन्तशोधनमात्रादिकमपि अदत्तं सदन गृह्णीयाद , प्रकार नारी के आकर्षण से ऊपर उठना भी सरल नहीं है। किन्तु जो पुरुष ललनाओं में आसक्त होते हैं वे अपने पाप कर्म के फलस्वरूप पीडा ओं का अनुभव करता हैं और संसार कान्तार (अटवी) में ही भटकते रहते हैं। यह बातें जानकर निर्दोष भिक्षा अहण करनेवाला भिक्षु पांच महाव्रतों से युक्त तथा पांच समितियों से युक्त होकर विचरे । अर्थात् ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से स्त्री संग का परित्याग कर दे तथा सर्वदा समाधि में स्थित रहकर संयम के अनुष्ठान में तत्पर रहे। स्त्री का सेवन करने से भी मुक्ति प्राप्त होती है, इस प्रकार के असत् मरूपणरूप भृषावाद का परित्याग करे और अदत्तादान को भी त्याग दे। दांत साफ करने के लिए एक तिनका भी अदत्तग्रहण न करे, अधिक परिग्रह की तो घात ही दूर रही। और मैथुन आदिका भी નથી, એજ પ્રમાણે સિઓના આકર્ષણથી બચવાનું કાર્ય પણ સરળ નથી. જે પુરુષે લલનાઓમાં આસક્ત થાય છે, તેઓ પિતાનાં પાપકર્મોના ફલ રિવરૂપે પીડાઓને અનુભવ કરે છે, અને તેઓ સંસારરૂપી અટવીમાં પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. આ વાતને સમજી લઈને, નિર્દોષ ભિક્ષા ગ્રહણ કરનારા સાધુએ પાંચ મહાવ્રતોનું પાલન કરવું જોઈએ અને પાંચ સમિતિઓથી યુક્ત થઈને વિચરવું જઈએ. એટલે કે સ્ત્રી સમાગમને જ્ઞપરિણા વડે દુખપ્રદ જાણને પ્રત્યાખ્યાન પરિણા વડે તેને પરિત્યાગ કરીને, તથા સતા સમાધિમાં ચિત્તની વિશુદ્ધિમાં ચિત્તની એકાગ્રતામાં સ્થિત રહીને સંયમના અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્ત રહેવું જોઈએ. શ્રીના સેવનથી પણ મોક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે. આ પ્રકારની અસંત, પ્રરૂપણારૂપ મૃષાવાદને તેણે પરિત્યાગ કરવું જોઈએ તથા અદત્તાદાનનો પણ પરિત્યાગ - કરવું જોઈએ. દાંત સાફ કરવા માટે પણ એક તિનકાને (તણખલાને-સળીને) તેણે અદત્ત (કેઈએ આપ્યા વિના) ગ્રહણ કરવું જોઈએ નહીં અદત્ત સળીને ગ્રહણ કરવાને જ જ્યાં નિષેધ છે, ત્યાં અધિક પરિગ્રહની તે વાત જ શી કરવી! Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १९३. किमधिकं परिग्रहणम् । तथा मैथुनाद्यपि सर्वथैवोत्सृजेत् । एतेषां मोक्षविघातकतया एभ्यो द्रत एव चरेत् । एतान् परित्यजेदिति भावः ॥१९॥ ___अहिंसाव्रतं सर्वतः श्रेष्ठतरम् , तदन्यत्सर्वं तस्यैवाङ्गभूतमित्यहिंसायाः सर्वतः' : श्रेष्ठत्वं दर्शयति सूत्रकारः-'उड्डमहे' इत्यादि। मूलम्-उड्डसहेतिरियं वा, जे केई तस-थावरा । सर्वत्थ विरतिं कुजा, "संतिनिवाणमाहियं ॥२०॥ छायाः--ऊर्ध्वमस्तिर्यग्वा ये केचित् सस्थावराः । सर्वत्र विरतिं कुर्यात् शान्तिनिर्वाणमाख्यातम् ॥२०॥ सर्वथा त्याग कर दे। यह लय दुष्कृत्य मोक्ष के विघातक हैं, अतएव इनसे दूर ही रहे ॥१९॥ ___ अहिंसा व्रत खथ व्रतों में प्रधान है । अन्य व्रत उसी के अंग हैं। अतएव सूत्रकार अहिंसा की सर्वश्रेष्ठता को सूचित करते हुए कहते है-'उड्हमहे' इत्यादि। शब्दार्थ--'उर्दू-ऊर्ध्वम्' ऊपर 'अहे-अधः' नीचे 'तिरिय वातिर्यग् या' अथवा तिरछा 'जे केई तसथावरा-ये केचन, प्रसस्थावरा' जो कोई, अस और स्थावर प्राणी है 'लम्वत्थ-लवत्र' सर्व कालमेंबिरति-विरतिम्' विरति अर्थात उनके नाशसे निवृत्ति 'कुज्जा-कुर्यात, करनी चाहिये 'संतिनिव्वाणमाहियं-शांतिनिर्वाणमाख्यातम्' ऐसा करने से शांतिरूपी निर्वाण पदकी प्राप्ति कही गई है ॥२०॥ . તેણે મિથુન રાદિ દુષ્કૃત્યોને પણ પરિત્યાગ કરવો જોઈએ, કારણ કે આ દુષ્ક મોક્ષના વિઘાતક છે. તેથી સાધુએ સદા તેનાથી દૂર જ રહેવું જોઈએ ૧લ સઘળાં વ્રતોમાં અહિંસાવ્રત પ્રધાન છે. અન્યત્ર તેનાં અંગરૂપ છે. તેથી હવે સૂત્રકાર અહિંસાની સર્વશ્રેષ્ઠતાનું પ્રતિપાદન કરે છે. __'उड्ढमहे' त्याह'शहा – 'उड्ढ-ऊर्ध्वम्' ५२ 'अहे-अधः' नीय 'तिरिय वा-तिर्यग् षा' अथवा ति२७. 'जे केई तसथावरा-ये केचन सस्थावरा जीवाः ।त्रस भने स्था१२ प्राण छ 'सव्वत्थ-सर्वत्र' स भा 'विरति-विरतिम्' वितिः मात् तमना नाशथी निवृत्ति 'कुज्जा-कुर्यात्' ४२वी नये 'संतिनिव्वाणमाहिये-शांतिनिर्वाणमाख्यातम्' मे ४पाथी शांति३५ निवा! पदमी प्राप्ति ४स छे. ॥२०॥ सू० २५ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ . ............. ................ सूत्रकृताङ्गसूत्रे करणानुष्ठायिनः साधोः अवश्यमेव भवतीत्यहिंसाया मोक्ष एव फलं व्यवस्थित . भवतीति भावः ॥२०॥ . संपूर्णस्य तृतीयाध्ययनार्थस्योपसंहारं कुर्वन्नाह सूत्रकारः मूलम्-इमं च धम्ममादाय कासवेण पवेइयं । । कुजा भिक्खू गिलाणस्त अगिलाए समाहिए ॥२१॥ छाया-इमं च धर्ममादाय काश्यपेन पवेदितम् । कुर्याद्भिक्षुग्लानस्याग्लानतया समाहितः ॥२१॥ मुक्ति प्राप्त होती है। समस्त कर्मों का उपशम हो जाना शान्ति और क्षय हो जाना मुक्ति है। आशय यह है कि पूर्वोक्त सर्वविरति का पालन करने वाले और चरणकरण क्रिया का अनुष्ठान करनेवाले साधु को अवश्य मोक्ष प्राप्त होता है। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि अहिंसा की आराधना का फल मोक्ष है॥२०॥ . अब सम्पूर्ण तृतीय अध्ययन का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं--'इमं च धम्ममादाय' इत्यादि .. शब्दार्थ-'कासवेण पवेयं-काश्यपेन प्रवेदितम्' काश्यपगो. श्रीभगवान् महावीर स्वामी के द्वारा कहे हुए 'इमं च धम्म मादाय-इम च धर्ममादाय' श्रुतचारित्र रूप इस धर्म को स्वीकार करके 'समाहिएसमाहितः समाधियुक्त 'भिक्खू-भिक्षुः साधु 'अगिलाए-अग्लानतया' પ્રાપ્તિ થાય છે. સમસ્ત કર્મોને ઉપશમ થઈ જવાથી તેને શક્તિ પ્રાપ્ત થાય છે અને સમસ્ત કર્માને ક્ષય થઈ જવાથી તેને મુક્તિ પ્રાપ્ત થાય છે. આ સમસ્ત કથનને ભાવાર્થ એ છે કે સર્વવિરતિનું પાલન કરનારા અને ચરણકરણ ક્રિયાનું અનુષ્ઠાન કરનારા સાધુને અવશ્ય મોક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે. આ રીતે એ વાત સિદ્ધ થાય છે કે અહિંસાની આરાધનાનું ફલ મેક્ષ છે. ૨૦ હવે ત્રીજા આખા અધ્યયનને ઉપસંહાર કરતા સૂત્રકાર કહે છે કે. . 'इमं च धम्मादाय प्रत्याहि शा-'कासवेणं पवेइयं-काश्यपेन प्रवेदितम्' श्ययात्री सापाम् भावी वामीना वास 'इमंध धम्ममादाय-इमं च धर्ममादाय श्रुतयारित्र. ३५ धमना २४२ ४ीने 'समाहिए-समाहितः' समाधियुत 'भिक्खू-भिक्षु.' Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशं १९७ अन्वयार्थः-(कासवेण पवेइयं) काश्यपेन प्रवेदित कथितम् (इमं च धम्म मादाय) इमं श्रुतचारित्रलक्षणधर्ममादाय स्वीकृत्य (समाहिए) समाहितः (भिक्ख्) भिक्षुः साधुः (अगिलाए) अग्लानतया-यथाशक्ति (गिलाणस्स) ग्लानस्योगाधभिभूतस्य साधोः (कुज्जा) कुर्यात् सेवामिति ॥२१॥ टीका-'कासवेण' काश्यपेन श्रीमन्महावीरस्वामिना 'पवेइयं मवेदितं कथितम् किं कथितमित्याह 'इमंच' इमं च पूर्वोक्तं श्रुतचारित्र्याख्यम् 'धम्म धर्मम् दुर्गतिपततो धारणात् सुगतौ धत्ते च यः स धर्मस्तम् 'आदाय' आदाय-गृहीत्वा समधिगम्येति यावत् 'समाहिए' समाधियुक्तः। तथा स्वतः-'अगिलाए' ग्लानिरहितः । 'गिला. णस्य' ग्लानस्य साधोः कुर्यात् यथाशक्ति वैया त्यादिकं कुर्यात् इति ॥२१॥ मूलम्-संखाय पेसलं धम्मं दिट्रिमं परिनिव्वुडे। उवसंग्गे नियामित्ता आमोखाय परिव्वएज्जासि ॥२२॥ त्तिबेमि॥ अग्लान भावसे 'गिलाणस्स-ग्लानस्य' ग्लान-रोगी साधु की 'कुज्जाकुर्यात्' सेवा करे ॥२१॥ अन्वयार्थ- काश्यप अर्थात भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित केस धर्म को स्वीकार करके समाधिमान् भिक्षु यथाशक्ति ग्लान साधु की सेवा करे ॥२१॥ टीकार्थ-श्रीमन्महावीर स्वामी के द्वारा उपदिष्ट इल पूर्वोक्त श्रुतचारित्र धर्मको दुर्गति में पडते जीयों को पचार सुमति में धारण करनेवाले 'धर्म को-ग्रहण करके तथा समाधि से युक्त होकर, स्वयं ग्लानि रहित होकर ग्लान (रुग्ण) साधु की यथाशक्ति सेवा करे ॥२१॥ साधु 'अगिलाए-अग्लानतया' वानमाथा 'गिलाणस्य-ग्लानस्य' सानी साधुनी 'कुज्जा-कुर्यात्' सेवा ४२. ॥२१॥ * સૂત્રાર્થ–કાશ્યપ શેત્રીય મહાવીર પ્રભુ દ્વારા પ્રરૂપિત 'આ ધર્મની આરાધના કરનાર સમાધિમાનું સાધુએ પ્લાન (બિમાર) સાધુની બની શકે તેટલી સેવા કરવી જોઈએ. મારા ટીકાથ–સૂત્રકાર સાધુને એ ઉપદેશ આપે છે કે મહાવીર પ્રભુ દ્વારા ઉપદિષ્ટ પૂર્વોત થતચારિત્ર રૂપ ધર્મને-જીને દુગતિમાં પડતાં બચાવીને સુગ તમાં દેરી જેનાર ધર્મને અપનાવીને સમાધિયુક્ત ચિત્તે-બિલકુલ વિષાદ (ક્લાનિ) અનુભવ્યા વિના–વલાન (બીમાર) સાધુઓની યથાશક્તિ સેવા કરતા રહો. ૨૧ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ . . . . . . . . . संत्रतासा छाया--संख्याय पेशलं धर्म दृष्टिमान परिनिर्वृतः। उपसर्गान् नियस्य आमोक्षाय परिव्रजेत् ॥२२॥ अन्वयार्थः-(दिटिमं) दृष्टिमान-सम्यग्दृष्टिः (परिनिव्वुडे) परिनिर्वृतः शान्तः पुरुषः (पेसलं धम्मं संखाय) पेशलं-मोक्षानुकूलं धर्म श्रुतचारित्रलक्षणं संख्यायज्ञात्वा (उपसग्गे) उपसर्गान् अनुकूलपतिकूलान् (नियामित्ता) नियम्य-अविसह्य, (आमोक्खाय) आमोक्षाय मोक्षपर्यन्तं (परिधए) परिव्रजेत् संयमानुष्ठानं कुर्यात्।२२। टीका--'दिद्विमं दृष्टिपान् सम्यग्दर्शनी 'परिनिव्वुडे' परिनि तः कषायोपशमाच्छान्तः 'पेसलं धम्म संखाय' पेशलं-मनोज्ञ मोक्ष प्रत्यनुकूलम् 'धम्म' धर्मम्-श्रुनचारित्राख्यम् ‘संखाय' सम्यक् स्वबुद्धया ज्ञात्वा, अन्यस्मादुपश्रुत्य वा शब्दार्थ:-दिष्टिमं-दृष्टिमान्' सम्यग्दृष्टी 'परिनिव्वुडे-परिनिर्वृतः' शांतपुरुष 'पेसलं धम्म संखाय-पेशलं धर्म संख्याय' मुक्ति प्राप्त करने में अनुकूल ऐसा श्रुतचारित्ररूप इस धर्म को जान करके 'उवसग्गे-उपसर्गान्' अनुकूल प्रतिकूल उपसर्गों को नियामित्ता-नियम्य' सहन करके 'आमोक्खाय-आमोक्षाय' मोक्ष प्राप्ति पर्यंत 'परिवए-परिव्रजेत्' संयम का पालन करे ॥२२॥ अन्वयार्थ--सम्यग्दृष्टि से सम्पन्न शान्त पुरुष मोक्ष के अनुकूल इस सुन्दर धर्मको जानकर तथा अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को सहन करके मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त संयम का आचरण करे ॥२२॥ , टीकार्थ--सम्यग्दर्शन से युक्त तथा कषायों के उपशम से शान्त पुरुष इस मनोज्ञ एवं मोक्ष के अनुकूल श्रुतचारित्ररूप धर्म को सम्यक सार्थ-दिद्विमं-दृष्टिमान्' सभ्यष्टि 'परिनिव्वुडे-परिनिवृतः' शांत ५३५ पेखलं धम्म संखाय-पेशलं धर्म संख्याय' भुति प्राप्त ४२वाम गनुण मेवा श्रुतयारित्र३५ मा मन नीने 'उवसग्गे-उपसर्गान्' मनु प्रति 64सनि नियामित्ता-नियम्य' सहनशन 'आमोक्खाय-आमोक्षाय' मोक्ष प्राप्ति सुधी परित्रए-परिव्रजेत्' सयम पालन.४२. ॥२२॥ સૂત્રાર્થ–સમ્યગ્દષ્ટિથી યુક્ત, શાન્ત પુરુષે મોક્ષને અનુકૂળ આ સુંદર ધર્મનું સ્વરૂપ સમજી લઈને તથા અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગોને સહન કરીને મોક્ષપ્રાપ્તિ થાય ત્યાં સુધી સંયમની આરાધના કરવી જોઈએ. મારા , - टीर्थ-सभ्य श नथी युत भने ४५.योना भने बीच मेनु ચિત્ત શાન્ત થઈ ગયું છે એવા પુરુષે મોક્ષ પ્રાપ્ત કરાવનારા શ્રુતચારિત્રરૂપ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थषोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. ४ स्खलितस्य साधोरुपदेशः १९९ 'उपसग्गे' उपसर्गान्-अनुकूलप्रतिकूलान 'नियामित्ता' नियम्य उपसर्ग सहमानः। 'आमोक्खाय' आमोक्षायमोक्षमाप्तिपर्यन्तम् 'परिबए' परिव्रजेत् परि सर्वताव्रजेत् संयमानुष्ठानेन गच्छे संयमं पालयेदिति यावत् । भगवना प्रतिपादितं धर्म सम्यगावुध्य दृष्टि मान समाहितः परिनि तश्च मोक्षपर्यन्तं संयमानुष्ठानकरतो भवेदिति. भावः ॥ 'तिमि' इति ब्रवीमि-भगवन्मुखात् यथाश्रुतं तथा कथयामीति ॥२२॥ इति श्री--विश्वविख्यातनगवल्लभादिपदभूपितवालब्रह्मचारि--'जैनाचार्य' पूज्यश्री-घासीलालचतिविरचितायां श्री सूत्रकृताङ्गस्य "समयार्थवोधिन्या ख्यायो" व्याख्यायां तृतीयाध्ययनस्य चतुर्थीद्देशकः समाप्तः ॥३-४॥ समाप्तं तृतीयाध्ययनम् ॥ प्रकार से अपनी बुद्धि द्वारा जानकर या दूसरों से सुनकर तथा अनुकूल प्रतिकूल उपसर्गों को सहन करता हुआ मोक्ष प्राप्ति होने तक संयम का ही अनुष्ठान करता रहे । ____ आशय यह है कि भगवान के द्वारा प्रतिपादित धर्म को ललिभांति समझकर सम्पदृष्टि, समाधिमान् और प्रशान्त पुरुष मोक्षप्राप्ति पर्यंत संयम के अनुष्ठान में ही रत रहे। 'सि वेमि' अर्थात् सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं हे जम्बू ! भगवान् के मुख से जैसा सुना है, उसी प्रकार तुझे कहता है। जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत 'सूत्रकृताङ्गास्त्र' की समयार्थयोधिनी व्याख्या के तीसरे अध्ययन का ॥चौथा उद्देशक समाप्त ३-४॥ . ॥ तृतीय अध्ययन समाप्त । ધર્મને પિતાની બુદ્ધિ દ્વારા અથવા જ્ઞાની પુરુષના ઉપદેશના શ્રવણ દ્વારા જાણી લઈને અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગોને સહન કરતાં કરતાં, મોક્ષની પ્રાપ્તિ થાય ત્યાં સુધી સંયમની આરાધના કર્યા કરવી જોઈએ. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદિત ધર્મના સ્વરૂપને બરાબર સમજી લઈને સમ્યગ્દષ્ટિ, સમાધિયુક્ત અને પ્રશાન્ત પુરૂષે મોક્ષ પ્રાપ્તિ પર્યંત સંયમની આરાધનામાં પ્રવૃત્ત રહેવું જોઈએ. , ___ 'त्ति बेमि' सुधा स्वामी स्वाभान छ है ! भगवान મહાવીરના શ્રી સુખે આ ઉપદેશ મેં સાંભળે છે, અને એ ઉપદેશ જ હું તમારી સમક્ષ આપી રહ્યો છું. મારા જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી વઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત સૂત્રકૃતાંગસૂત્રની સમયાર્થાધિની વ્યાખ્યાનો ત્રીજા અધ્યયનને ચોથે ઉદ્દેશક સમાપ્ત ૩-૪ - છે ત્રીજી અદયયન સમાપ્ત છે કે : Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० सूत्रकृतागसूत्रः ॥अथ चतुर्थमध्ययनमारभ्यते। तृतीयाध्ययनं गतम् । अतः परं चतुर्थमारभमाणरतृतीय चतुर्थयोः संवन्धं दर्शयति तृतीयाध्ययने उपसर्गाः मलपिताः । तेषु चानुकूला उपसर्गाः प्रायो दुस्सहाः, तत्रापि ललनोपसर्गोऽनीव जेतुमसमर्थः, अतः स्त्रीपरीपहजयाय चतुर्थमध्ययनं मारभ्यते, अनेन संपन्धेनाऽऽगतस्य चतुर्याध्ययनस्य प्रथममिदं सूत्रम्-'जे मायरं च' इत्यादि। मूळम्-जे सायरं च पियरं च विप्पजहाय पुर्वसंजोग । एंगे लहिते चरिौलालि आरंतमेहुणो विचित्तसु ॥१॥ छाया-यो मातरं च पितरं च विभहाय पूर्वसंयोगम् । एकः सहितश्चरिष्यामि आरतमैथुनो विविक्तेसु ॥१॥ चौथा अध्ययन का पहला उद्देशे का प्रारंभ तृतीय अध्ययन समाप्त हुआ। इसके पश्चात् चतुर्थ अध्ययन को प्रारंभ करते हुए तृतीय और चतुर्थ अध्ययन का सम्बन्ध दिखलाते हैं। तीसरे अध्ययन में उपसानों का निरूपण किया गया है। उनमें से अनुकूल उपलर्ग प्रायः दुस्सह होते हैं और उनमें भी स्त्री संबंधी उपसर्ग तो अतीव दुस्लह है । अतएव स्त्री परीषह को जीतने के लिए चतुर्थ अध्ययन प्रारंभ किया जाता है । इस सम्बन्ध से प्राप्त चतुर्थ अध्ययन का यह आद्य सूत्र है-'जे भायरं च' इत्यादि । ચોથા અધ્યયનના પહેલા ઉદ્દેશાનો પ્રારંભત્રીજુ અધ્યયન પૂરું થયું. હવે ચોથા અધ્યયનનો પ્રારંભ કરતાં સૂત્રકાર ત્રીજ અધ્યયનને ચોથા અધ્યયન સાથે સંબંધ પ્રકટ કરે છે ત્રીજા અધ્યયનમાં ઉપસર્ગોનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. ઉપસર્ગોના અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગોરૂપ જે બે પ્રકારે કહ્યા છે, તેમાંના અનુકૂળ ઉપસર્ગો સામા ન્યતઃ દુસહ હોય છે. તેમાં પણ સ્ત્રી–સંબંધી અનુકુળ ઉપસર્ગો તે ખૂબ જ દુસહ છે. તેથી સ્ત્રી પરીષહનું સ્વરૂપ અને તેમને જીતવાનું મહત્વ બતાવવા માટે આ ચતુર્થ અધ્યયનની શરૂઆત કરવામાં આવે છે. પૂર્વ અધ્યન સાથે આ પ્રકારને સંબંધ ધરાવતા આ ચેથા અધ્યયનનું પહેલું સૂત્ર આ પ્રમાણે છે 'जे मायरं च' त्याह- . Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. स. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २०१ .. अन्वयार्थः--(जे) यः (मायरं पियरं च) मातरं पितरं च (पुन्चसंजोगं) पूर्वसंयोगम् तथा श्वशुरादिकं परसंयोगम् (विप्पजहाय) विप्रहाय-त्यक्त्वा- (आरतमेहुणो) आरतमैथुनः परित्यक्तमैथुनः (एगे सहिए) एकः सहितः एको ज्ञानदर्शनचारित्रयुक्तः (विवित्तेसु) विविक्तेपु-स्त्रीपशुपण्डकवर्जितस्थानेषु (चरिस्सामि) चरिष्यामि संचममार्गे विचरिष्यामि ॥१॥ । टीका--'जे' यः कश्चित्पुरुषः 'मायरं मातरम् 'पियरं' पितरम् , जननीजनकं च 'पुग्धसंजोग' पूर्वसंयोग-मातृमभृतिम् , तथा अपरसंयोगं श्वशुरादि. शब्दार्थ--'जे ये जो पुरुष 'मायरं पियरं च-मातरं पितर 'माता पिता का 'पुव्यसंजोगं-पूर्वसंयोगम्' पूर्वसंयोग को और श्वसुरादिके पर संयोगको 'विपजहाय-विमहाय' छोडकर और 'आरतमेहुणो-आरतमैथुनः' मैथुन से रहित होकर 'एगेसहिए-एक सहितः' अकेला ज्ञान, दर्शन, और चारित्र से युक्त रहता हुआ 'विवित्तेस्तु-विविक्तेषु' स्त्री पशु • और नपुंसक वर्जित स्थानों में 'चरिरसामि-चरिष्यामि' पिचरूंगा ॥१॥ ," अन्वयार्थ-जो पुरुष ऐसा संकल्प करता है कि मैं माता, पिता और सम्पूर्ण पूर्व संयोग को त्याग कर तथा मैथुन से विरत होकर, एकाकी ज्ञान दर्शन और चारित्र से युक्त होकर, स्त्री पशु और पण्डक से वर्जित स्थान में रहकर संयम का पालन करूंगा ॥१॥ - टीकार्थ-जो कोई पुरुष ऐली प्रतिज्ञा करता है कि माता, पिता, का 'पूर्वसंयोग (माता आदि का) तथा अपरसंयोग (श्वशुर आदि का) त्याग शाय-'जे-ये'२ ५३५ 'मायरं पियरं च-मातर पितरं च' मातापिताना 'पुव्वसंजोग-पूर्वसंयोगम्' पूस यागने तथा सास। विरेन। ५२ अयोगद 'विप्पजहाय-विप्रहाय' छोडने 'आरतमेहुणो-आरतमैथुनः' तथा भैथुन ना त्यास ४शन 'एगे सहिए-एकः सहितः' / ज्ञानहश न मने यात्रि थी युत सीन 'विवित्तेसु-विविक्तेषु' श्री पशुमने न ४२छित स्थानमा "परिस्सामि-चरिष्यामि' वियरीश. ॥१॥ "; સૂત્રાર્થ...જે પુરુષ એવો સંકલ્પ કરે છે કે હું માતા-પિતા વિગેરેના સંપૂર્ણ પૂર્વસંગેનો ત્યાગ કરીને, મિથુનસેવનમાંથી નિવૃત્ત થઈને, જ્ઞાનદર્શન અને ચારિત્રથી યુક્ત થઈને, સ્ત્રી, પશુ અને પડક (નપુસક)થી રહિત સ્થાનમાં એકલો 'રહીને સંયમનું પાલન કરીશ, તે પુરુષ જ સંયમની આરાધના કરી શકે છે. ૧ : - ટીકાર્ય જે કોઈ પુરુષ એવી પ્રતિજ્ઞા કરે છે કે હું માતા-પિતા આદિના સંગરૂપ પૂર્વસંગને તથા પત્ની, સાસુ, સસરાના સંગરૂપ અપગને 'स० २६ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।' . . . . . . . सूत्रकृतात्रे फम् ‘विप्पजहाय' विमहाय-परित्यज्य 'एगे' एका रागद्वेषरहितः । 'सहिते' सहितः-ज्ञानदर्शनचारित्रंयुक्तः परमार्थाऽनुष्ठान विधायी । 'आरतमेहुणो' आरत"मैथुना=आरतमुपरतं मैथुनं कामाघभिलापो यम्य स आरतमैथुनः । 'विवित्तेमु' 'विविक्तदेशेषु स्त्रीपशुपण्डकपरिवर्जितस्थानेषु 'चरिस्सामि' चरिष्यामि-इति निश्चित्य संयममनुतिष्ठेत् । आमोक्षाय परिव्रजेदिति वृतीयाध्ययनान्ते उक्तम् । तत्सर्वाभिपंगरहितस्यैव संभवति । अतः सर्वसंगान्तर्गतमा पितृकलत्रादिरहित एकएव संयममार्गे चरिष्यामीति कृतसंकल्पः साधुर्भवेदिति ॥१॥ " एतादृशप्रतिज्ञाप्रतिष्ठितस्य यद्भवति साधोरविवेकि स्त्रीजनसंपर्कात् तदर्शयति सूत्रकारः-'सुहुमेणं त' इत्यादि । - मूलम्-सुहमेणं तं परितम्म छन्नपएण इथिओ संदी। . उवायपि ताउ जाणंसु जहा लिस्तंति भिखुणो एंगे॥२॥ 'कर, रागद्वेष से रहित होकर, ज्ञान दर्शन और चारित्र से युक्त होकर, -मैथुन से उपरत होकर, स्त्री पशु और पण्डक से रहित स्थान में रहता हुआ विचरण करूंगा, वही संयम का अनुष्ठान करता है। । तीसरे अध्ययन के अन्त में कहा था-मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त संयम का अनुष्ठान करना चाहिए। ऐसा वही कर सकता है जो सय प्रकार के संग से रहित हो । अतएव सब प्रकार के संसर्गों के अन्तर्गत माता पिता पत्नी आदि का त्याग करके एकाकी ही संयममार्ग में विचरूंगा, इस प्रकार का मनोभाव जिसने किया है, वही साधु हो सकता है ॥१॥ ત્યાગ કરીને, રાગદ્વેષથી રહિત થઈને જ્ઞાનદર્શન અને ચારિત્રથી સંપન્ન થઈને મિથુનસેવનને ત્યાગ કરીને તથા સ્ત્રી, પશુ અને નપુંસકથી રહિત સ્થાનમાં એકાકી વિચરીશ, તે પુરુષ જ સંયમનું પાલન કરી શકે છે. ત્રીજા અધ્યયનને અન્ત સૂત્રકારે એવું કહ્યું છે કે-મોક્ષપ્રાપ્તિ થાય ત્યાં સુધી સંયમની આરાધના કર્યા કરવી જોઈએ. જે પુરુષ બધા પ્રકારના સંગાથી (સંસારી સં૫ર્કેથી) રહિત હોય છે, એજ આ પ્રમાણે કરી શકે છે. તેથી જ સૂત્રકારે અહીં એવું પ્રતિપાદન કર્યું છે કે “માતા-પિતા પત્ની આદિ બધા પ્રકારના સંસર્ગોને પરિત્યાગ કરીને હું એકલે સંયમમાર્ગે વિચરણ કરીશ, આ પ્રકારને સંકલ્પ જે કર્યો છે, એ પુરુષ જ સાધુ बनी . . . . . . . Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1 समयार्थबोधिनी टीका प्र. क्षु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषं हनिरूपणम् छाया—-मुक्ष्मेण तं परिक्रम्य छन्नपदेन स्त्रियो मन्दाः । उपायमपि ता जानंति यथा श्लिष्यन्ति भिक्षव एके ॥२॥ अन्वयार्थः -- (मंदा इथिओ) मन्दास्त्रियः = कामोद्रेकविधायितया विवेकविकला : (तं परिक्कम्म) तं साधु परिक्रम्य तत् समीपमागत्य (छन्नपण) छन्नपदेन कपटजालेन तं भ्रंशयन्ति (वा) ताः = स्त्रियः ( उच्चापि ) उपायमपि ( जाणंसु) जानंति (जहा एगे भिक्खुणी) यथा एके भिक्षत्रः - साधवः (लिस्संति) श्लिष्यन्ति तथाविधकर्मोदयात् वासु संगमुपयान्तीति ॥२॥ इस प्रकार के मनोभावों में स्थित साधु के समक्ष विवेकहीन स्त्री जनों के सम्पर्क से जो परिस्थिति उत्पन्न होती है, उसे सूत्रकार दिखलाते हैं-'सुमेणं तं' इत्यादि । ગ્ शब्दार्थ- 'मंदा इत्ओि-भन्दा स्त्रिषः' अविवेकिनी स्त्रियां 'सुमेणं 'सूक्ष्मेण' कपटले 'तं परिकम्म- तं परिक्रम्य' साधुके पास आकर 'छन्न`पएण–छन्नपदेन' कपटजालसे अथवा गूढार्थ शब्द से भ्रष्ट करने का प्रयत्न करती है 'ता- ताः ' वे स्त्रियाँ 'उन्वापि - उपायमपि' उपाय भी जाणति - जानन्ति' जानती है 'जहा एगे भिक्खुणी - यथा एके भिक्षवः" जिससे कोई साधु 'स्सिंति - श्लिष्यन्ति' उनके साथ संग करते हैं ||२॥ अन्वयार्थ -- कामोद्रेक उत्पन्न करने के कारण विवेकहीन स्त्रियाँ उस साधु के समीप आकर और कपट का जाल बिछाकर उसे भ्रष्ट करती है । वे उपाय को भी जानती हैं और समझती हैं कि कोई कोई આ પ્રકારના સંકલ્પપૂર્ણાંક સાધુપર્યાંય સ્વીકારનાર સાધુની સાથે વિવેક હીન સ્ત્રીઓના સપ થવાથી જે પરિસ્થિતિ પેદા થાય છે, તેનુ સૂત્રકાર वेनिरे छे.- 'सुसेणं तं' त्याहि +16 शदार्थ–‘मंदा इत्थिओ-मन्दा स्त्रियः' अविवेऽवाणी स्त्रिया 'सुहुमेणं- सूक्ष्मेण' ४पटथी 'तं परिषत्म-तं परिक्रम्य' साधुनी यासे भावीने 'छन्नपएण छन्नपदेन કપટ જાળથી અથવા ગૂઢ અર્થવાળા શબ્દેથી સાધુને ભ્રષ્ટ કરવાના પ્રયત્ન કરે छे. 'ता- ताः' ते स्त्रियो 'उत्रायपि - आचमपि' उपाय पाये 'जाणंति - जानन्ति ' ये छे. 'जहा एगे भिक्खुणो-यथा एके भिक्षत्रः' लेनाथी अर्ध अर्थ साधु ' लिस्संति - श्लिष्यन्ति' तेनी साथै सग उरी से छे. સુત્રા —વિવેકહીન સ્ત્રીએ તે સાધુની પાંસે આવીને, પરજાળ બિછાવીને ક્રામેદ્રેક ઉત્પન્ન કરનારી પેાતાની ચેષ્ટાઓ દ્વારા તે સાધુને સયમ ભ્રષ્ટ કરે છે. તેએ તેને સાવવાની યુક્તિએ જાણતી હોય છે અને સમજતી Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ सूत्रकृतसूत्रे टीका - - ' संदा इथिओ' मन्दाः काममज्वालकतया सदसद्विवेकरहिताः 'थिम' स्त्रिया 'तं' तं महापुरुषं साधुम् 'सुहमेग' सूक्ष्मेण = दर्शन मांगलिकनि'मित्तेन 'छन्नपण' छनपदेन - कपटजालेन 'परिवकम्म' परिक्रम्य - साधुसमीपमागत्य, अथवा पराक्रम्य अभिभूय व्यामोहयन्ति साधुम् । शीलात् पातयन्ति इवि यावत् । स्त्रियो हि मायाप्रधानाः । ननु कथं ताः शीलवन्तं जागरुकमपि व्यामोहयन्ति इत्यादि । ' उच्चापि' उपायमपि ' ताउ जाणंसु' तां भिक्षु राम के वशीभूत हो जाते हैं - कर्मोदय से स्त्री के साथ संसर्ग कर लेते हैं ॥२॥ टीकार्थ - - कामवासना को प्रज्वलित कर देने वाली होने के कारण जो सत् और असत् के विवेक से रहित है ऐसी मन्द स्त्रियां महापुरुष साधु के पास दर्शन या मांगलिक श्रवण के बहाने से कपट का जाल फैलाकर आती है या साधु को मोहित करती है अर्थात् शील से च्युत करती हैं। स्त्रियों में मायाचार की प्रधानता होती है। कहा भी हैगुप्त पदों द्वारा या गुप्त नाम के द्वारा या मधुर भाषण करके वे अपना जाल फैलाती हैं । . 14 : - स्त्रियां शीलवान् और सावधान पुरुष को किस प्रकार मोहित कर खेती हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा गया है वे स्त्रियां मोहित 1 इत्यत आह- उन्नायंपि । जानन्ति मायाप्रधानाः હાય છે કે કેાઈ કાઈ ભિક્ષુએ રાગને વશીભૂત થઇને સ્ત્રીની સાથે . સ'સગ કરી લે છે. શિ ટીકાથ—કામવાસનાને પ્રજવલિત કરનારી હેાવાને કારણે જે સ્ત્રીએ સત અને અસના વિવેકથી રહિત છે, એવી મન્દમતિ સ્ત્રિઓ દર્શીન કરવાને અહાને અથવા પ્રવચન માંગલિક શ્રવણુ કરવાને ખંહાને સાધુની પાસે આવે છે, અને પેાતાની કપટજાળ બિછાવીને સાધુને પેાતાની તરફ આકર્ષવાના પ્રયત્ન કરે છે. તેને પરિણામે કાઈ કાઇ સાધુ સયમના માગેથી “ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે. સ્ત્રિઓ માયાચારમાં નિપુણ હોય છે. કહ્યું પણ છે કે . - સ્ત્રીએ ગુપ્ત પદ્મા દ્વારા ગુપ્ત નામ દ્વારા અથવા મધુર વાણી દ્વારા પેાતાની કપટજાળ ફેલાવે છે.’ સ્ત્રીએ શીલવાન અને સાવધાન પુરુષાને કેવી રીતે માહિત કરે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તર આપતા સૂત્રકાર કહે છે કે સ્ત્રિઓ પુરુષાને માહિત કરવાના એવા ઉપાચા' પણ જાણતી હૈાય છે કે જે ઉપાય અજમાવીને તે Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् स्त्रियः व्यामोहोपायमपि । 'जहा' यथा 'एगे' एके 'भिक्खुणो' भिक्षुकाः 'लिस्संति' 'श्लिष्यन्ति । विवेकिनोऽपि साधवः तथाविधकर्मोदयात् तस्याः संगं कुर्वन्तीति ॥२॥ मूलम्-पासे भिंसं णिसीयति अभिक्खणं पोलवेत्थं परिहिति। " कायं अहे वि दंसंति बाहू उद्ध, कखमणुध्वजे ॥३॥ ..., छाया-पार्श्वे भृशं निवीदन्ति अभीक्ष्णं पोषवस्त्रं परिदधाति ।। - कायमधोपि दर्शयति बाहुमुद्धृत्य कक्षामनुव्रजेत् ॥३॥ अन्वयार्थः-(पासे) पार्श्व साधोः समीपे (भिसं) भृशमत्यर्थम् (निसीयंति) उपविशन्ति (अभिक्खग) अभीक्षण-निरन्तरं (पोसवत्थं ) पोपवस्त्रं कामोद्दीपककरने का ऐसा उपाय भी जानती है, जिलले विवेकशील साधु भी उनका संसर्ग करने को उद्यत हो जाते हैं ॥२॥ ५. शब्दार्थ--'पासे-पावे' साधुके निकट 'भिस-भृशम् ' अत्यन्त 'णिमीयंति-निषीदन्ति' बैठती है 'अभिक्खणं-अभीक्षणम् ' निरन्तर 'पोसवत्थं-पोषवस्त्रम्' कामोत्तेजक सुन्दर वस्त्र ‘परिहिती-परिधति' पहिनती है 'अहे वि कार्य-अधोपि कायम्' शरीर के नीचे के भागको भी 'दंसंति-दर्शयन्ति' दिखलाती है 'याहू उद्धटु-बाहुमुद्धृत्य तथा भुजा को उठाकर 'कक्खमणुव्वजे-कक्षामनुव्रजेयुः' काख दिखाकर साधुके सामने जाती है ॥ ३॥ अवधार्थ- साधु के समीप में चार बार जंघा आदि उघाडकर उसे दिखलाती हुई बैठनी हैं कामोद्दीपक बस्त्र पहनती हैं शरीर के વિવેકશીલ સાધુને પણ પિતાને સંસર્ગ કરવાને લલચાવી શકે છે. તેની કિપટજાળમાં ફસાઈને ભલભલા સાધુઓ સંયમભ્રષ્ટ થઈ જાય છે. જરા - તે સ્ત્રિઓ સાધુને માહિત કરવા માટે શું શું કરે છે, તે હવે સૂત્રકાર બતાવે છે शहाथ-पासे-पावें। साधुनी सभी 'भिस-भृशम्' अत्यन्त 'णिसी यन्ति -निपीदन्ति' मेसे छे. 'अभिक्खण-अभीक्ष्णम्' मेशा 'पोसवस्थं-पोपवस्त्रम' भाते१४ सु२ वर परिहिती-परिदधति' ५७२ 2. 'आहे वि काय-अधो पि कायम्' शरीरनी नीयना मायने ५५ 'दसति दर्शयन्ति' मताव छे. 'बाहूउद्धटु-बाह. मुद्धृत्य' तथा हाथ थे। शत 'कलमणुव्वजे-कक्षामनुव्रजेयुः' मनी ભાગ બતાવીને સાધુની સામે જાય છે. ૩ સૂત્રાર્થ તે પિતાની જાંઘ આદિ કાદ્ધિપક અંગે દબાય એવી રીતે બેસે છે, કામે દિપક વો ધારણ કરે છે, શરીરના ભાગને દેખાડે છે, .. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ __सूत्रकृतास्त्र मधोवस्त्र (परिहिति) परिदधति धारयति (अहे वि कार्य) अधोपि कार्य -कायाधोभागमपि (दंसंति) दर्शयन्ति (वाहूउद्धछु) वाहुमुद्धृत्य याहू ऊर्वीकृत्य (कक्खें) कक्षां च दर्शयन्ति (अणुव्यजे) अनुव्रजेयुः साध्वभिमुख व्रजेयुः गच्छेयुरितिं ॥३॥ टीका--'पासे' पार्श्व-समीपमागत्य 'भिसं' भृशमत्यर्थम् , अतिस्नेहमाविकुर्वत्यः । 'णिसीयंति' निषीदन्ति-विश्वासमुत्पादयितुमुपविशन्ति । 'पोसवरयं' पोषवस्त्रम् , कामोत्पादकं मनोज्ञमधो वस्त्रेम् । 'अभिक्खणे' अभीक्ष्ण, अनेकशः शिथिलादिव्याजेन । परिहिति' परिदधति, साधोव्यामोहनाय बद्धमपि वस्त्रं शिथिलीकृत्य पुनः पुनरपि बध्नन्ति । तथा-'अहे विकायं' अवकायमषि' अधाकायं जघनादिकं कामोद्दीपकम् । 'दंसंति' दर्शयन्ति-प्रकटयन्ति । तथा-'बाहु उद्धटु बाहुमुद्धृत्य कसं दर्शयन्ति च 'अणुव्बजे' अनुव्रजेयु -अनुकूलं स्वाभिप्रेतस्थलं व्रजेयुः-तों गच्छेयुरिति । स्त्रियाः साधूनां प्रतारणाय साधुसमीपमतिशयेन तिष्ठन्ति । तथानिरन्तरं-दृढमपि वस्त्रं शिथिलमिति कृत्वा पुनः पुनर्वघ्नन्ति । शरीरस्याऽपरभागं साधवे अधोभाग को दिखलाती हैं भुजाएं ऊंची करके, कांखों को दिखला. कर साधु के सामने जाती हैं ।।३।। टीकार्थ--स्त्रियां साधु के समीप आकर अत्यन्त गाढा प्रेम प्रकट करती हैं। विश्वास उत्पन्न करने के लिए पास में बैठ जाती हैं, काम वर्द्धक मनोज्ञ वस्त्र को बार बार ढोला करने के मिष से ठीक करती हैं अर्थात् साधु को मोहित करने के लिए बंधे हुए वस्त्र को भी ढीला करके पुनः बांधती हैं । जया आदि शरीर के अंधो माग को दिखलाती हैं । काखों को दिखलाती हुई चलती हैं। 'तात्पर्य यह है कि साधुओं को ठगने के लिए स्त्रियां उनके पास पार घार आती हैं । कसकर पहने वस्त्र को भी ढीला करके बार बार અને સધુની સમક્ષ જઈને કંઈ પણ નિમિત્તે ભુજાઓ ઊંચી કરીને કારણે (Anal)तुं प्रहशन रे छ. ટીકાર્થસિએ સાધુની પાસે જઈને તેમના પ્રત્યેના પિતાનો ગઢ પ્રેમ પ્રકટ કરે છે, વિશ્વ સ ઉત્પન્ન કરવાને માટે તે સાધુની પાસે જઈને બેસી જાય છે. સાધુની કામવાસનાને પ્રજવલિત કરવા માટે તે શરીરને ચુત પણે બાંધેલા કે વી ટેલા વસ્ત્રને ઢીલું કરીને ફરી બાંધે છે. જાંઘ આદિ શરીરના અધેભાગેને બતાવે છે, અને પિતાની કાનું પ્રદર્શન કરતી રહે છે. - આ સમસ્ત કથનને ભાવાર્થ એ છે કે સાધુઓને ફસાધવાને માટે મિએ વારંવાર તેમની પાસે જાય છે, શરીર પર ચુસ્ત પહેલાં બે વારં Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ.१ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २०७ दर्शयन्ति, किंबहुना बाहू ऊ कृत्य स्वकामषिपदर्शयन्ति, ततोऽनुकूल स्थान वजन्ति एते हि प्रकाराः पुरुषव्यामोहाय भवन्तीति कामशास्त्रे प्रसिद्धा, इति भावः ।। मलम्-सयासणेहिं जोगेहिं इथिओ एगया णिमंतंति। एंयाणि चेव से जीणे पासाणि विरूवबैबाणि ॥४॥ छाया- शयनासनेन योग्येन स्त्रिय एकदा निमंत्रयन्ति । एतानि चैव स जानीयात् पाशान् विरूपरूपान् ॥४॥ ___ अन्वयार्थः-(गया) एकदा-कदाचित् (इत्थीओ) स्त्रियः (जोग्गेहि) योग्यः उपभोगयोग्यैः (सयणासणेहि) शयनाशनेन (निमंतंति) निमंत्रयन्ति साधुम् यांधने का बहाना करती हैं । शरीर के निम्न भाग को उन्हें दिखलाती हैं । भुजाएं ऊंची करके और अपनी कांखें दिखलाकर अनुकूल स्थान में जाती हैं ॥३॥ शब्दार्थ-'एगया-एकदा' किसी समय 'इथिओ-स्त्रियः' स्त्रियों 'जोगेहि-योग्येन' उपभोग करने योग्य 'सयणासणेहि-शयनासनैः' पलंग और आसन आदिका उपभोग करने के लिये 'णिमंतति-निमंत्रयन्ति' 'साधुको आमंत्रण देती है परंतु 'से-सः' वह साधु 'एयाणिएतानि' इन्हीं सब बातों को 'विरूवरूवाणि-विरूपरूपान्' अनेक प्रकार के 'पासाणि-पाशान्' पाशवन्धन 'जाणे-जानीयात्' जाने ॥४॥ ... अन्वयार्थ--कभी कभी स्त्रियां उपभोग के योग्य शाय्या (विछौना) और आसन के लिए साधु को आमंत्रित करती हैं, परन्तु साधु उन शरया आसनों की विविध प्रकार के कर्मों का बन्धन समझे ॥४॥ વાર કીધું કરીને ફરી ઠીક કરવાને ટૅગ કરે છે, પોતાના શરીરના અધે ભાગને બતાવીને તથા કઈ પણ બહાને ભુજાઓ ઊંચી કરીને બને બગલે બતાવીને સાધુની કામવાસનાને પ્રદીપ્ત કરવા પ્રયત્ન કરે છે. આવા ___evar-'एगया-एकदा' । समये 'इथिओ-स्त्रियः' श्रियो 'जोगेहि -योग्येन' Guin ४२१॥ येय 'सयणासणेहि-शयनासनैः' ५ अने मासन विगेरे San B२१॥ माटे 'णिमंतति-निमंत्रयन्ति' साधुने मात्र ४२ - ५२'तु 'से-सः' साधु 'एयाणि-एतानि' सा तमाम पाताने 'विरूवरूवाणि -विरूपरूपान्' भने ४२न 'पासाणि-पाशान्' पाश मन्धनाने 'जाणेबानीयात्' सभल . ॥४॥ સૂવા–કોઈ કોઈ વખત સિઓ ઉપગને ચોગ્ય શા અને શાસનને સ્વીકાર કરવાને માટે સાધુને આગ્રહ કરે છે, પરંતુ તે શ૩ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૮ . .. सूत्रकृताङ्गसूत्र परन्तु 'से' स साधुः (एयाणि) एतानि-शयनासनादीनि (विस्वरूवाणि) विरू. परूपाननेकपकारकान् (पासाणि) पाशान् (जाणे) जानीयात् इति ||४|| . टीका-'एगया' एकदा एकस्मिन् काले देशे च एकान्तदेशकालादौ । 'सयणासणेहि' शयनाऽऽसनैः, शयनं शय्या पर्यकादिकम् । आसनं रूपरिच्छदसोपधानस वितानमासनम् । तै:-पुनः पुनः, 'जोरगेहि योग्यैः तत्कालोचितोपभोगयोग्येः 'दुग्यफेनसमा शय्या' इत्युक्तेः । 'इत्थीओ' त्रिय-कामिन्यः 'णिमंतति' निमंत्रयन्ति-प्रार्थयन्ति साधुम् । 'से' स साधुः परमार्थदर्शी 'एयाणि' एतानि-शयनाऽऽसननिमंत्रणादीनि 'विख्वरूपाणि-निरूपरूपान्-अनेकाकारकान 'पासाणि' पाशान् स्त्रीसंबंधकारिणः । 'जाणे' जानीयादिति। -- । ___ अयं भावः-स्त्रियो हि मायः भासन्नवस्तुग्राहिण्यो भवन्ति, लवादिवत् । टीकार्थ--किसी समय और किसी जगह या एकान्त देशकाल में स्त्रियां साधु को उपभोग के योग्य शय्या (विछौना) एवं आसन के लिये पार्थना करती हैं। पर्यडा पलंग आदि शय्या कहलाते हैं और आसन वह है जिस पर विस्तर विछा हो, तकिया लगा हो और ऊपर से चंदोवा लगा हो कहा जाता है कि शय्या दुग्धफेन के सदृश होती है । किन्तु साधु को समझ लेना चाहिए कि शयन आसन आदि के लिये जोनिमंत्रण है सो साधु को फंसाने के लिए नानाप्रकार के जाल हैं। तात्पर्य यह है स्त्रियां प्रायः समीपवर्ती वस्तु को ही लता के समान ग्रहण करती हैं। जैसे लता आदि समीपवर्ती को ही परिवेष्टित करती તથા આસનોને વિવિધ પ્રકારના કર્મોના બન્થનરૂપ સમજીને સાધુએ તેમને અસ્વીકાર કરવું જોઈએ, ૫૪ . . ટીકાર્થ-ક્યારેક કેઈ એકાન્ત સ્થાનમાં સ્ત્રિઓ કેઈ સુંદર શમ્યા બિછાવીને અથવા આસન ગઠવીને તેનો ઉપભોગ કરવાને માટે સાધુને વિનવે છે. શયન કરવાને માટે પલંગ અથવા ખાટલા પર બિછાવેલ બિછાનાને શસ્ત્ર કહે છે. બેસવાને માટે પાથરણું, ગાદી આદિ પાથરીને, પાછળ તકિયે ગોઠવીને તથા ઉપર ચંદરે તાણુને જે બેસવા માટેની વ્યવસ્થા કરાય છે તેને આસન કહે છે તે શય્યા દૂધના ફીણ જેવી હોય છે. પરંતુ સાધુએ સમજી લેવું જોઈએ કે શય્યા, આસન આદિના ઉપગ માટેની સ્ત્રિઓની તે પ્રાર્થનાઓ તે તેમને સંયમના માર્ગેથી ભ્રષ્ટ કરવાની કપટ જાળ જ છે. • ' જેમલતા સમીપવર્તી વસ્તુને જ વીંટળાઈ જાય છે, એ જ પ્રમાણે Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थचोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् यथा लतादयः स्वसमीपवर्तिनमेव भजन्ते न दूरवर्तितः तथैव स्त्रियोपि । तदुक्तम् 'सम्भमेव युवतिर्भजते मनुष्यं विद्याविहीनमकुलीनमसंस्कृतं वा । प्रायेण भूमिपतयः प्रमदा लताश्च या पार्श्वतो वसति तं परिवेष्टयन्ति ॥१॥' अपि च--अवे वा निबं वा अन्भासगुणेण आरुहइ वल्ली । एवं इस्थिभो वि य जं आसन्नं तमिच्छेति ॥१॥' छाया--भानं वा निम्वं वा अभ्यासगुणेन आरोहति वल्ली । एवं स्त्रियोपि च य आसन्नस्तमिच्छन्ति ॥१॥ 'नता रूपं परीक्षन्ते नासां वरसि संस्थितिः । ' सुरूपं वा विरूपं वा पुमानित्येव भुज्यते ॥१॥ हैं, दरवर्ती को नहीं, उसी प्रकार स्त्रियां भी। कहा भी है-- ___'तरुणी स्त्री समीपवर्ती पुरुष को ही लेवन करती है, चाहे वह विद्याविहीन हो, कुलहीन हो या संस्कारहीन हो । यह ठीक ही है क्योंकि राजा, रमणी और लता उसी को घेरते हैं जो उनके पास में रहता है। और कहा भी है___ 'चाहे आम हो, चाहे नीम, वेल उसी का आश्रय लेती है जो उसके निकट हो । यही बात स्त्रियों के विषय में भी है । वे भी उसी की इच्छा करती हैं जो उनके समीप रहता हो। 'थेत्रियां न तो रूप को देखती हैं और न वय (अवस्था) काही विचार करती हैं। पुरुष चाहे सुन्दर हो या असुन्दर, वे पुरुष होने के कारण ही उसका परिभोग करती हैं ॥' સ્ત્રિઓ પણ પિતાની કામવાસના સંતોષવા માટે સમીપવર્તી પુરૂષનું જ સેવન કરે છે. કહ્યું પણ છે કે- તરુણ સ્ત્રિ સમીપવતી પુરૂષનું જ સેવન કરે છે. તે વિદ્યાવિહીન, કુળહીન અથવા સંસ્કારહીન હોય તે પણ તેની પરવા કર્યા વિના તેની સાથે કામગ સેવે છે. કહ્યું પણ છે કે “રાજા રમણ અને લતા તેમને જ ઘેરી લે છે કે જેઓ તેમની પાસે જ રહેતા હોય છે.” જેમ લતા પિતાની સમીપમાં રહેતા વૃક્ષને આધાર લેતી વખતે તેની જાતિ આદિનો વિચાર કર્યા વિના આંબે, લીમડા વગેરે કોઈપણ સમીપવર્તા વૃક્ષને આશ્રય લે છે, એ જ પ્રમાણે સ્ત્રિઓ પણ પિતાની સમીપમાં રહેલા પુરુષની જ ઈચ્છા કરે છે. તેઓ તેના રૂપ, વય આદિને વિચાર કરતી નથી. ભલે તે સુંદર હોય કે અસુંદર હોય, પરંતુ પુરુષ હેવાને કારણે જ તેઓ તેને પરિગ કરે છે.' ९० २७ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे - गावस्तृणामिवारण्ये मार्थयन्ति नवं नवम् इत्यादि। तदेवंभूताः स्त्रियः इति सम्यग् ज्ञात्वा साधुः तामिः सह संबन्धं नैव कुर्यात् । 'यतः स्त्रीणां संवन्धः सर्वथा दुष्परिहार्यों भवति । तदुक्तस् 'जं इच्छसि घेत्तुं जइ पुचि तं आमिसेण गिण्हाहि । आमिसपासनिबद्धो काहिइ कज्ज अशजं वा ॥१॥' छाया--पमिच्छसि ग्रहीतुं यदि पूर्व मामिषेण गृहाण । . आमिपपाशनिवद्धः करिष्यति कार्यसकार्य वा ॥ यथा वधिका सामिषरडिशेन मत्स्यादिकं परिगृतं व्यापादयति तथेमाः वामनयनाः वल्गुहाससेवादिभिः पुरुषं पारित्या रक्तं नरं निष्पीडयन्ति । अतः स्वहितमिच्छता दूरत एव त्याज्याः वामनयनाः इति ॥४॥ .. 'जैसे गाए नये लथे घास की अभिलाषा करती हैं, उसी प्रकार स्त्रियां भी नये नये पुरुष की कामना करती हैं।' : स्त्रियों की ऐसी प्रकृति को सम्पन्न प्रकार से समझकर साधु उनके साथ सम्बन्ध स्थापित न करे, क्योंकि स्त्रियों के संसर्ग से बचना बहुत • कठिन होता है। कहा भी है'. यदि तुम त्रिपों से कोई वस्तु अहण करना चाहते हो तो उसे भासिष समझो अर्थात् लुभाने वाली बस्तु समझो उसके पाश में फंसा हुआ पुरुष कार्य और अकार्य लक्षी कुछ कर बैठता है। जैले वधिक (मच्छीमार) माहमुक्त बडिश से मत्स्य आदि को पकडकर उसे मार डालता है, उसी प्रकार ये स्त्रियां दिलास, हास सेवा आदि के द्वारा पुरुप को अपने पाश में फंसा कर अनुरक्त बने हुए उस જેવી રીતે ગાય નવાં નવાં ઘાસની અભિલાષા કરે છે, એ જ પ્રમાણે એિ પણ નવા નવા પુરુષની કામના કરે છે. સ્ત્રિઓને આ પ્રકારને સ્વભાવ હોય છે. એ વાતને સમજી લઈને સાધુએ તેમને સંપર્ક રાખ જોઈએ નહીં, કારણ કે તેમના સંસર્મથી સંયમનું પાલન કરવું કઠણ થઈ लय छे. यु ५५ है જો તમે સ્ત્રિઓની પાસેથી કોઈ વસ્તુને ગ્રહણ કરવા ઇચ્છતા હે, તે તેને આમિષ (માંસના જેવી ત્યાગ કરવા લાયક). લલચાવનારી સમજે. તેના પાશમાં ફસાયેલો માણસ કાર્ય અને અકાર્ય સમજવાનો વિવેક ગુમાવી બેસે છે, જેવી રીતે માછીમાર માંરસયુક્ત જાળ આદિ વડે મસ્ટ આદિને પકડીને તેમને મારી નાખે છે, એ જ પ્રમાણે સ્ત્રિઓ વિલાસ, હાસ, સેવા આદિ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 मार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २११३ मूत्रम् - नो तासु चंक्खु संधेजी नौवि य साहसं समभिजाणे । णो सहियवि विहरेजा एक्सेप्पा सुरक्ओि होई ॥५॥ छाया--न तालु चक्षुः संदध्यात् नापि च साहसं समभिजानीयात् । न सहितोपि विहरेत् एवमात्मा सुरक्षितो भवति ॥५॥ अन्वयार्थः -- (तासु ) तासु aty (era) चक्षुत्र (नो) न ( संघेज्जा ) संदध्यातून संयोजयेद (नोवि य) नापि च (साहसं समभिजाणे ) साहसं समभिः जानीयात् - साहसन कार्यकरणं उत्पार्थनया प्रतिपद्येत नैव (सहियं वि) सहितोपि - तया ( णो विहरेज्जा) नो विरेन्= ग्रामाद्ग्रामान्तरम् ( एवं ) एवमुपरोक्तप्रकारेण (अप्पा) आत्मा - स्वकीयः (सुरक्खियों होइ) सुरक्षितो भवति - असंयमेभ्य इति ॥५॥ पुरुष को चूस लेती हैं । अतएव जो अपना हित चाहता है उसे दूर से ही स्त्रियों का त्याग कर देना उचित है || ४ || शब्दार्थ - 'तासु-तासु' उन स्त्रियों पर 'चक्खू - चक्षुः' आंख 'नोसंधेजा - न संद्ध्यात्' न लगावे 'नो विय- नापि च' तथा उनके साथ 'साहसं समभिजाणे - साहसं समभिजानीयात् कुकर्म करने के लिये भी संमति न देवें' 'सहियं वि-सहितोऽपि उनके साथ 'णो विहरेज्जा-नो विहरेत्' ग्राम आदि जाने के लिये विहार न करे 'एवं - एवम्' इस प्रकार 'अप्पा - आत्मा' साधु का आत्मा 'सुरक्खियो होइ - सुरक्षितो भवति' असंयम से सुरक्षित रहता है | ५॥ अन्वयार्थ - साधु स्त्रियों पर दृष्टि न डाले या उनके नेत्र से अपने नेत्र न मिलावें न उसके कहने पर कोई अकार्य करे न उसके साथ.. विहार करे । इसी प्रकार से आत्मा सुरक्षित होता है ||५|| દ્વારા પુરૂષને પેાતાના પાશમાં ક્સ્રાવીને અનુરક્ત બનેલા તે પુરૂષને ચૂસી લે છે—તેના શીલનું સ્ખલન કરાવે છે. તેથી જે કાષ્ઠ પુરૂષ પાતાનુ હિત ચાહતા હોય તેણે સ્ત્રીએથી દૂર જ રહેવું જોઈએ. ૫૪) शब्दार्थ –'तासु-तासु' मे स्त्रिये ५२ 'चक्खू - चक्षुः' या 'नो संघेज्जा -न संदध्यात्' सगावे नहीं 'नो वि य-ना पिच' तथा तेलीनी साथै 'साहसं सम भिजाणे - बाइस समभिजानीयात् ' ' ४२वानी संभती पन याये 'सहिय वि-सहितोऽवि' तेलीनी साथै 'णो विहरेज्जा - तो विहरेत्' गाभ विगेरे नवा भाटे विहार न ४२वे. 'एव एवम् ' आ रीते 'अप्पा - आत्मा' साधुना आत्मा 'सुरकियो होई - सुरक्षितो भवति' असंयमथी सुरक्षित रहे छे. या } Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्यकतानसूत्रे टीका--'तासु' तामु-स्त्रीषु 'नो' नैव कथमपि 'चक्खु' चक्षुः नेत्रम् 'संधेज्जा' संदध्यात्-संयोजयेत् कदाचिदपि स्त्रीचक्षुपि सानुराग स्वचक्षुन निवेशयेत् न पश्येदित्यर्थः । यदि कंदाचित्प्रयोजनं भवेत् तदापि अवज्ञावदेव सा निरीक्षपीया । तंदुक्तम्-- ___कार्येऽपीषन्मतिमान् निरीक्षते योपिदंगमस्थिरयो । अस्निग्धयाशावज्ञया छकुपितोऽपि कुपित इवा॥१॥' 'नोवि य' नापि च 'साहसं समभिजाणे' साहसं कुकृत्यकरणम् तदीयप्रार्थनया समनुजानीयात् , स्वीकुर्यात् । यथा संग्रामावतरणमनीव दुखदायि, तथा स्त्रीसको नरकादि दुःखानां कारणं भवति । 'यो सहियं विहरेज्जा' नो सहितो विहरेत् टीकार्थ--साधु को चाहिये कि वह किसी भी स्त्री की दृष्टि के साथ अपनी दृष्टि न मिलावे । कदाचित् कोई प्रयोजन हो और देखना ही पडे तो अवज्ञा की दृष्टि से ही देखे । कहा भी है-'कार्य' इत्यादि। _ 'धुद्धिमान् पुरुष प्रयोजन होने पर स्त्री के शरीर को देखता भी है तो थोडी सी देर तक ही देखना है और वह भी अस्थिर तथा अनुरागहीन दृष्टि से । वह ऐसी अवज्ञापूर्ण दृष्टि से देखता है कि कुपित न होने पर भी कुपित सा प्रतीत होता है। साधु स्त्री की प्रार्थना पर कोई कुकृत्य करना स्वीकार न करे। जैसे संग्राम में उतरना अत्यन्त दुःखप्रद होता है, उसी प्रकार स्त्री का सूत्राथ-साधुसे रिमे। त२६ न०१२ ५५ ३७वी नये नही. ते -રીની દષ્ટિ સાથે પિતાની દષ્ટિ મેળવવી જોઈએ નહીં. તેણે તેના કહેવાથી 'કે અકાર્ય કરવું નહીં અને તેની સાથે વિચરવું જોઈએ નહીં. આ પ્રમાણે કરવાથી જ તેને આત્મા સુરક્ષિત રહે છે. પાન - ટીકર્થ–સાધુએ કદી પણ કેઈ સ્ત્રીની દૃષ્ટિ સાથે પિતાની દૃષ્ટિ મેળવવી જોઈએ નહીં. કદાચ કઈ પ્રજનને કારણે સ્ત્રી સામે નજર કરવી પડે, તે उपेक्षानी दुष्टये तेनी सामे ऽन्ये ४युं पर छे है-'कार्य' या વિવેકવાન પુરુષ કે પ્રજનને કારણે સ્ત્રીના શરીર પર નજર નાખે છે, ત્યારે પણ તેની સામે અસ્થિર અને અનુરાગહીન દષ્ટિથી જ દેખે છે. તે તેની સામે એવી અવજ્ઞાપૂર્ણ દષ્ટિએ દેખે છે કે કુપિત ન હોવા છતાં પણ કપિત જે લાગે છે.” , સી ગમે તેટલી વિનંતી કરે, તે પણ સાધુએ કેઈ કુકૃત્ય કરવાનું કવીકારવું જોઈએ નહીં. જેવી રીતે સંગ્રામમાં ઉતરનારને અત્યન્ત દુખને Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीपहनिरूपणम् . २१३ तथा नैव कदाचिदपि स्त्रीभिः साकं ग्रामादौ विहरेत् । अपि शब्दात् एकासनस्थोऽपि तया सह न भवेत् । यतो महापापं साधूनां स्त्रीभिः सह संबन्ध इति। तदुक्तम् 'मात्रा स्वस्त्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रोमो विद्वांसमपि कर्पति ॥१॥ तप्ताङ्गारसमा नारी घृतकुम्भसमः पुमान् । तस्मात् घृतं च वहिं च नैकत्र स्थापयेवुधः ॥१॥ इति । संग नरक आदि दुःखों का कारण होता है । इसके अतिरिक्त साधु स्त्री के साथ ग्राम आदि में विहार न करें। 'अपि शब्द से यह सूचित होता है कि कभी स्त्री के साथ एक आसन पर भी न बैठे। साधुओं का स्त्रियों के साथ सम्बन्ध होना महापाप का कारण है। कहा भी है-'भाषा स्वता' इत्यादि । ___'माता यहिन और पुत्री के साथ भी एकान्त में नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि इन्द्रियाँ बलवान होती हैं और वे विद्वान पुरुष को भी आकर्षित कर लेती हैं। फिर भी 'तप्ताङ्गार समा' इत्यादि। - "नारी तपे हुए अंगार के समान है और पुरुष घी के घडे के समान है। अतएव बुद्धिमान् पुरुष अग्नि और घी को एक ही स्थान पर स्थापित न करे । “અનુભવ કેર પડે છે, એજ પ્રમાણે સ્ત્રીના સંગમાં અનુરક્ત થનાર પુરુષને નરકાદિના દુખે વેઠવા પડે છે. વળી સાધુએ સ્ત્રીની સાથે સાથે ગામ આદિમાં વિચરવું પણું જોઈએ નહીં તેણે સ્ત્રીની સાથે એક આસન પર બેસવું જોઈએ નહીં. સાધુઓને સ્ત્રીઓની સાથે સંબંધ મહાપાપમાં કારણભૂત બને છે. કહ્યું પણ છે કે' 'मात्रा स्वना' त्याह “સાધુએ માતા, પુત્રી કે બેનની સાથે પણ એકાન્તમાં બેસવું જોઈએ નહીં, કારણ કે કામવાસના એવી બળવાન્ વસ્તુ છે કે તે વિદ્વાન પુરુષોને પણ આવી શકે છે. વળી એવું પણ કહ્યું છે કે 'तप्ताङ्गार समा' इत्याहि “નારી પ્રજ્વલિત અંગારા સમાન છે અને પુરુષ ઘીના ઘડા સંમોન છે. તેથી અગ્નિ અને ધી સમાન નારી અને પુરુષને સમાગમ ભારે અનર્થકારી સમજવો જોઈએ. બુદ્ધિમાન પુરુષે આ કારણે સ્ત્રીને સમાગમ સેવા જોઈએ નહીં Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूवंकृताङ्गसूत्रे 'एवमप्पा सुरक्खियो होइ' एवमात्मा सुरक्षितो भवति-एवम्-अनेन स्त्रीसम्बन्धेन विरहित आत्मा सर्वेभ्योऽपायस्थानेभ्यः सुरक्षितो भवति । यतः सर्वेपां पापानां स्थानम् वनिता । अतः स्वहितविच्छता नरेण आसां संवन्धो दूरादेव त्याज्यो विष. संबन्धवत् इति ५॥ मूलम्-आमंतिय उत्सविया भिश्चु आयसा निमंतंति । एयाणि चेन से जीणे हाणि विरूंवरूत्राणि ॥६॥ छाया--आमच्य उच्छ्राय्य भिक्षुमात्मना निमन्त्रयन्ति । एतांश्चैव स जानीयात् शब्दान् विरूपरूपान् ।।६।। इस प्रकार जो आत्मा स्त्री के लम्पर्क से बचा रहता है, वही सब बुराइयों से बचा रहता है क्योंकि स्त्री समस्त पापों का स्थान है। अतएव अपना हित चाहने वाले पुरुष को इनका सम्बन्ध, विष सम्बन्ध की भांति दूर से ही त्याग देना चाहिए ॥५॥ ____ शब्दार्थ-'आमंतिय-आम' स्त्रियां साधुको संकेत देकर अर्थात् मैं आपके पास अभुक लमय आउंगी इत्यादि प्रकार से आमंत्रण देकर 'उस्सविधा-उच्छ्रार' और अनेक प्रकार के वार्तालाप से विश्वास देकर ' भिदु-भिक्षुम्' साधुको 'आयसा-आत्मना' अपने साथ लोग भोगने के लिये निमंतति-निलंत्रयन्ति प्रार्थना करते हैं अतः 'ले-स' वह साधु 'एयाणि सदाणि-एतान् शब्दान्' स्त्री संबन्धी इन शब्दों को 'विरूवरूवाणि-विल्परूपान्' अनेक प्रकार के पाशबन्धन के सामान 'जाणे-जानीयात् ' समजे ॥६॥ આ પ્રકારે જે આભા સ્ત્રીના સંપર્કથી બચી શકે છે, એજ આત્મા બધા દેથી મુક્ત રહી શકે છે, કારણ કે સ્ત્રી સમસ્ત પાપનું સ્થાન છે. તેથી આત્મકલ્યાણ ચાહતા પુરુષોએ સ્ત્રીના સમાગમને વિષ સમાન ગણીને તેનાથી દૂર જ રહેવું જોઈએ. પાપા शहाथ - 'आमंतिय-आमन्त्र्य' लियो साधुने सहैत शने पति આપની પાસે અમુક સમયે આવીશ વિગેરે પ્રકારથી આમંત્રણ આપીને पिया-उछाय्य' मा भने प्रश्न पाता विश्वास नवीन भिक्खु -भिक्षुम्' साधुन 'आयसा-आत्मना' चातानी साथे से लासपा भाटे 'निमंतति-निमन्त्रयन्ति' प्रार्थना ४२ छे. 'से-सः' ते साधु 'एयाणि सदाणिएतान् शब्दान्' श्री समधी । शण्होने 'विरूवरूवाणि-विरूपरूपान्' भने प्रा२ना पा२१ मधमनी रेभ 'जाणे-जानीयात्' समरे ॥६॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीपहनिरूपाम् २१५ . . अन्वयार्थः--(आमंतिय) आमंत्र्य (उस्सविया) उच्छ्राय्य-विश्वाससुःपाध (आयसा) आत्मना-स्वकया भोगं कत्तुं (भिक्खु) भिक्षु साधु (निमंतंति) निम त्रयन्ति-प्रार्थयन्ति स्त्रियः । (से) सा-साधुः (एयाणि सदाणि) एतान् शब्दान (विलवरूवाणि) विरूपरूपान्-अनेकमकारान् पाशवन्धानिव (जाणे) जानीयादिति ॥६॥ टीका-'आमंतिय आमन्य,-स्त्री साधु संकेतं दत्वा अर्थगत्याऽहमिदानीममुक. स्थानं गमिष्यामि, भवताऽपि तदानीन्तत्रैव आगन्तव्यमिति स्वाभिमायेणाऽऽमन्नणं दत्वा । 'उस्तरिय उच्छ्राय्य-विश्वासमुत्पाद्य विविधवाक्यरचनादिना। 'आयसा' आत्मना-स्वकया सहोपभोगाय । 'निमंति' निमन्त्रयन्ति, निमन्त्रणं ददाति प्रार्थयंतीति यावत् । 'एयाणि सद्दागि' एतान् शहान्-स्त्री संबन्धिनः शब्दान् शब्दादीन् विषयान् । 'विल्वरूपाणि' विरू५रूपान्--दिविधप्रकारान् 'से' सः साधुः यथा इमे स्त्री संवद्धाः सर्वेऽपि शब्दादयो विषयाः नरकादिहेतुत्वादनर्थ___ अन्वयार्थ--स्त्रियां साधु को आमंत्रित करके विश्वास उत्पन्न करके अपने साथ लोग करने के लिए निमंत्रित करती हैं। साधु इस प्रकार के शब्दों को पाशबन्ध (जाल) सलझे ॥६॥ _____टीकार्थ-स्त्री लाधु को संकेत करके आमंत्रण देती है कि मैं अष अमुक स्थान पर जाऊंगी। आप भी वहीं पर आ जाना। इस प्रकार अपने अभिप्राय के अनुसार आमंत्रण देकर विविध प्रकार की वाक्य रचना द्वारा विश्वाश उत्पन्न करती है और फिर अपने साथ उपभोग करने के लिये प्रार्थना करती है। स्त्री संबंधी इन शब्दों को या शब्द आदि विषयों को साधु नाना प्रकार के पाराबन्धन समझे । साधु को समझना चाहिये कि स्त्री संबंधी सभी शब्दादि विषय नरकादि के સુત્રાર્થ–સ્ત્રીઓ સાધુને આમંત્રિત કરીને, વિશ્વાસ ઉત્પન્ન કરીને, પિતાની સાથે ભેગ ભેગવવાની વિનંતી કરે છે. સ્ત્રિનાં આ પ્રકારનાં વચનોને સાધુઓએ પાશબધ (જાળ)રૂપ સમજવા. દા 1 ટીકાર્થ–સ્ત્રી સાધુને સંકેત દ્વારા એવું રામજાવે છે કે હું અમુક સ્થળે જઉં છું તમે પણ ત્યાં આવી પહોંચજો આ પ્રકારે આમંત્રણ દઈને તે વિવિધ પ્રકારની વાક્ય રચના દ્વારા સાધુને પોતાના પ્રત્યે વિશ્વાસ ઉત્પન્ન કરે છે. અને પોતાની સાથે ઉપભોગ કરવાને વિનવે છે સ્ત્રીના આ શબ્દોને અથવા શબ્દ આદિ વિષયને સાધુ એ વિવિધ પ્રકારના પાશવશ્વરૂપ સમજવા જોઈએ. તેણે એ વાત બરાબર સમજી લેવી જોઈએ કે સ્ત્રીસંબંધી સઘળા શબ્દાદિ વિષયે નરકાદિ દુર્ગતિના કારણભૂત હોવાથી અનર્થના મૂળ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मूलमिति शपरिज्ञया विजानीयात् । विज्ञाय तान्द शब्दादीन् स्त्री संबद्धान् परिहरेत् । विषसं मिश्रितमिष्टान्नवत् इति । एते एव ललना संबद्धाः शब्दादयो नरकपाशरूपाः । यथा वधिकपाशविद्धो वन्यः पशुः क्लेशमनु भवति, तथा स्त्रीपाश यंत्रितः पुमान् दुःखमनुभवति इति ॥ ६ ॥ मूलम् - मण बंधणेहिं गेगेहिं कलैणविणीयसुवगसित्ता णं । अ मंजुलाई भाति आर्णवयंति भिन्नकहाहिं ॥७॥ छाया - मनो बन्धनैरनेकैः करुणविनीतमुपकस्य खल्ल | अथ मंजुळानि भाषन्ते आज्ञापयन्ति भिन्नकथाभिः ॥७॥ कारण होने से अनर्थ के मूल हैं, ऐसा ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से विषमिठे मोठे अन्न के समान उनका त्याग करे | यह स्त्री संबंधी शब्दादिविषय नरक पाशरूप हैं | जैसे वधिक के पाश में बद्ध- पशु क्लेश का अनुभव करता है, उसी प्रकार स्त्री के फंदे में पडा हुआ पुरुष दुःख का अनुभव करता है ॥६॥ शब्दार्थ -- 'गेहिं - अनेकैः' अनेक प्रकार के 'मणर्षणेहिं मनोब Faनेः' मनको आकर्षीत करनेवाले उपायों के द्वारा तथा 'फलुणविणीयमुवगसित्ताणं- करुणविनीतमुपकस्य खलु' करुणोत्पादक वाक्य से एवं विनीत भाव से साधु के पास आकर 'अटु मंजुलाई भारति-अथ मंजुलानि -भाषन्ते' मधुर भाषण करती है 'भिन्न कहाहिं - भिन्न कथाभिः और कामसंबन्धी कथाओं के द्वारा 'आणवयंति - आज्ञापयन्ति' सांधुको विलास करने के लिये आज्ञा देती है ॥७॥ છે. આ વાત પરિક્ષાથી જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞા વડે; વિષમિશ્રિત અન્ન સમાન તેમને ત્યાગ કરવે જોઈએ આ સ્રીસ બધી શખ્વાદ્રિ વિષયે નરકપાશ રૂપ છે. જેવી રીતે પારધીની જાળમાં મ"ધાયેલ પશુ- કલેશ અનુભવે એ; એજ પ્રમાણે સ્ત્રીના ફંદામાં ફસાયેલે પુરુષ પણુ દુઃખને અનુભવ કરે છે. ૬ शब्दार्थ–‘णेगेहि-अनेकैः' भने अझरना 'मणवंधणेहिं - मनोवन्धनैः' भनने स्मार्षीतऽश्वावाणा उपायों द्वारा तथा 'कलुगविणीयमुवगसित्ता णं करुणविनीतमुपकस्य खलु' ३३या०४२४ वार्डयोथी तथा विनीतभावथी साधुनी पासे भावीने 'अदु मंजुळाई भाति - अथ मंजुलानि भाषन्वे' भधुर भाषण उरे छे. 'भिन्नकहाहिंमिनकथाभिः तेभ अभ संधी प्रथाओ द्वारा ' आणवयंति - आज्ञापयन्ति' સાધુને વિલાસ કરવાની આજ્ઞા આપે છે. utt Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थ वोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रोपरीपहनिरूपणम् २१७ अन्वयार्थ:--(रोगेहि) अनेस (मणबंधणेहि) मनोबन्धन मनोहारकैरुपायैः(कल्लणविणीयसुवगसित्ता णं) करुणविनीत एकरूय-करुणोत्पादकवाक्येन विनम्रभावेन साधुसमीपमागत्य खलु (अदु मजुलाई भासंति) अथ मंजुलानि भाषन्ते (भिन्नकहादि) भिन्नकथाभिः-कामर्सनन्धिवचनप्रकारेण (आणवयंति) आज्ञापयन्ति -विलसितुमिति ॥७॥ टीका--'णेगेहि अनेकै 'मणवंधणेहि मनोवन्धनैः, मनो वध्यते यैः प्रकारैः तानि भलोवन्धनानि, पंजुलवचनाऽपांगदर्शनांऽअमत्यङ्गदर्शनादीनि। तदुक्तम् ‘णाह ! पिय ! कंत! साथिय ! दाय ! जियागो तुम यह ! पिओसि । जीए जीयामि अहं पहुरसि तं मे सरीरस्त ॥१॥ छाया--नाथ कान्त मिय स्वामिन् दयित जीवात् त्वं मम पियोऽसि । जीवति जीवामि अहं प्रथुरसि त्व से शरीरस्य ॥१॥ हे नाथ ! मम शरीररक्षक ! हे प्रिय ! म नेत्राभिराम ! हे कान्त ! ममाभिलपितवस्तुदायक! हे स्वामिन् रक्षक ! हे दयित ! ममोपरि सर्वथा दयाकारक! अन्वयार्थ--स्त्रियों मन को बद्ध करने वाले अनेक उपायों ले करुण एवं विनीत वचन बोलकर सभीष आती हैं और मधुर भाषण करनी हैं। कामोत्पादक नाना प्रकार के वचनों ले विलास करने के लिए कहती हैं॥७॥ सार्थ--जिलके द्वारा इन बद्ध हो जाय ऐसे मधुर वचन, कटाक्ष, अंगोपांगों का दर्शन आदि मनोवन्धन कहलाते हैं । कहा भी है'नाह' इत्यादि। हे नाथ ! अर्थात मेरे शरीर के रक्षक! हे हे निशकान्त ! अर्थात् मुझे ललचाही वस्तु प्रदान करने वाले ! हे स्वामिन् ! हे दयित। સૂત્રાર્થ–સ્ત્રીઓ મનને મોહિત કરનારા અનેક ઉપાયને તથા કરૂણ અને વિનીત વચનનો પ્રયોગ કરીને મીઠી મીઠી વાત કરીને સાધુને ભરમાવે છે. વિવિધ પ્રકારના કામોત્પાદક વચને વડે તે સાધુને કામ ભેગો પ્રત્યે ખેંચવાનો પ્રયત્ન કરે છે. શાળા ટીકાર્થ-જેના દ્વારા મન બદ્ધ-મોહિત થઈ જાય એવાં મધુર વચન, કટાક્ષ અને અંગોપાંગોના પ્રદર્શનને સનબન્ધન કહે છે. કહ્યું પણ છે કે 'नाह' त्यादि તેઓ કહે છે– હે નાથ! (એટલે કે મારા શરીરના રક્ષક) હે પ્રિય! आन्त ! (भने मनशमती परतु महान ४२।२१), स्वामिन् ! 8 हयित/(મારા પર દયા રાખનાર) તમે જ મારા જીવનનો આધાર છે. તમારા सू० २८ । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे त्वं मम जीवात्-जोवितादपि मियाऽसि, त्वपि जीवत्येवाह जीवामि त्वमेव मम शरीरस्य प्रभुरसि ॥१॥ इत्यादि । अनेकपकारकमधुरालापादिपञ्चः सकरुणम् । 'उवगसित्ताणं' उपकस्य उपसंश्लिष्प, 'सम्म गतौ इति धातोः 'उप' उपसर्गे क्याप्रत्ययस्य ल्यपि उपकस्येति रूपम् साधोः समीपमागत्येत्यर्थः 'अदु' अथ 'मंजुलाई' मंजुलानि मनोज्ञ नानाविधवचनानि । 'मासंति' भाषन्ते । तदुक्तम् 'मितमहुररिभिय जंपिल्लएहि ईसी कडक्खहलिएहि । सविगारेहि वराग हिययं पिहियं मयच्छोए ।।२।। छाया--मितमधुररिषितजल्पितरी परस्टाक्षहमितः । सविकारैर्दशकं हृदयं पिहितं मृगाक्ष्या ॥२॥ इति । तथा-'भिन्न कहाहि भिन्न कथामिः रहस्यकथनः मैथुनसंबद्धवयनैः यतीनां चित्तमाकृष्य तं मैथुनकरणाय 'आणत्यंति' आज्ञापयन्ति-कुलार्गे प्रवर्त पन्ति । यथा स्ववशवर्तीदासः स्वस्याज्ञामात्रेण कार्य शुभमशुभं वा करोति तथा स्वाज्ञावशवर्तिनमवगत्य यतिमपि पवर्तयति कुकृत्य करणायेति मानः ॥७॥ अर्थात् मेरे ऊपर पूर्ण दया रखने वाले ! तुम्हारे जीवित रहने पर ही मैं जीवित हूं। तुम्हीं मेरे शरीर के स्वामी हो।' इस प्रकार के अनेक लधुर वचन काहकर और खत्रीपर्तिनी होकर मीठी मीठी बातें करती हैं। कहा ली है। 'मित लधुर' इत्यादि। - 'मृगाक्षी ने परिमित एवं मधुर आलापों ले तथा कटाक्ष और मन्द हॅसी आदि विकारों ले पुरुष के तुच्छ हृदय को हांक दिया है। स्त्रियां मैथुन संबन्धी वचनों साधु के दित्त को अपनी ओर आकर्षित करती हैं और मैथुन करने की आज्ञा देती हैं, उसे कुमार्ग में मवृत्त करती हैं। तात्पर्य यह है कि 'जै अपने अधीन में रहा हुआ दास अपनी વિના હું જીવી શકું તેમ નથી. તમે જ મારા શરીરના સ્વામી છે.” આ પ્રકારના અનેક વચને કહીને તથા મીઠી મીઠી વાતો કરીને તે तेने सयभथी भ्रष्ट रे . युं ५५ छे -'मितमधुर' त्याह મૃગાક્ષીએ પરિમિત અને મધુર આલાપ વડે તથા કટાક્ષો અને મન્દ હાસ્ય આદિ વિકારે વડે પુરુષના તુછ હૃદયને ઢાંકી દીધું છે. સ્ત્રિઓ મૈિથુન વિષયક વાતે વડે સાધુના ચિત્તને પોતાની તરફ આકર્ષે છે, અને સૈથુન સેવવાની પ્રેરણા આપીને તેને કુમાર્ગમાં પ્રવૃત્ત કરે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જેવી રીતે ગુલામની પાસે તેને Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 afaltant प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषह निरूपणम् अपि च मूलम् -सीहं जहा व कुणिमेणं निव्भयमेगं चरंति पासणं । एविरिथेाड बंधति संवुडं एगतियमणगारं ॥ ८॥ छाया - सिंहं यथा मांसेन निर्भयमेकचरं पाशेन । एवं स्त्रियो बध्नन्ति संवृत मेकतयमनगरम् ॥८॥ अन्वयार्थ:-- (जहा) यथा (नियं) निर्भयं गतमयं (एमचरंति) एकचरम् (सी) सिंहम् (कुणिमेणं) मांसेन - मासं दत्वा ( पासेणं) पाशेन गलत्रादिना (धति) araa aधिकाः ( एवं ) एवं तथैव (इत्थियाउ) स्त्रियः (संबुर्ड) संहृतं == आज्ञा के अनुसार अच्छा या बुरा कार्य करता है, उसी प्रकार स्त्रियां साधु को अपने अधीन हुआ जानकर उसे कुकर्म करने में प्रवृत्त करती हैं ॥७॥ शब्दार्थ –'जहा - यथा' जैसे निष्भयं निर्भयम्' भयरहित 'एगच रंति - एकचरम्' अकेला ही विचरनेवाले 'सीहं - सिंहम्' सिंहको 'कुणिमेणं - मांसेन' मांस देकर ' पाले-पाशेन' पाशके द्वारा ' बंधंति वघ्नन्ति' वधकजन पकड लेते है-' एवं - एवम्' उसी प्रकार 'इस्थियाउस्त्रिय:' स्त्रियां 'संबुर्ड - 'संवृत्तम् ' मन वचन और कायसे गुप्त ऐसें और 'एगलयं - एकतिकं' एकाकी 'अणगारं - अनगारम्' साधुको 'बंधंतिघनन्ति' अपने हावभावरूपी पाशसे बांध लेती हैं ||८|| अन्वयार्थ - जैसे निर्भय और एकाकी विचरण करने वाले सिंह को मांस से लुभाकर शिकारी पाश में बांध लेते हैं उसी प्रकार स्त्रियों संवरयुक्त अर्थात् मन वचन एवं काय से गुप्त, एकाकी अनगार को फँसा लेती हैं ॥ ८ ॥ 1 - २१६ માલિક સારુ અથવા નરસુ` કામ કરાવી શકે છે, એજ પ્રમાણે સ્ત્રી સાધુને પેાતાને આધીન થયેલા જાશુીને તેને કુકમ કરવામાં પ્રવૃત્ત કરે 111911 शब्दार्थ –'जहा-यथा' प्रेम 'निव्भयं निर्भयम्' लयथी रहित भने 'एग चरति - एकचरम्' मेसो न वियरवावाणा 'सीहं - सिंहम्' सिंहने 'कुणि मेणमांसेन' भांस साथीने 'पात्रेण-पाशेन' पाश द्वारा 'वैधति - बध्नन्ति' शिठारीये। थडी से छे 'एवं - एवम् रीते 'इत्थियाउ - त्रिपः' खियेो 'संवुडं - संवृतम्' भन वयन भने अयथी गुप्त सेवा भने ' एगतयं एगतिकं' मेउसा सेवा 'अणगारं - अनगारम्' साधुने 'बंधति - बध्नन्ति' पोताना डावभाव ३यी पाशथी ખાંધી લે છે. ૫૮માં સૂત્રા—જેવી રીતે નિર્ભય અને એકલા વિચરતા સિહુને માંસ વડે લલચાવીને શિકારી પાશમાં ખાધી લે છે, એજ પ્રમાણે અિએ પણ સાઁવરયુક્ત-મન, વચન અને કાયગુપ્તિથી યુક્ત એકાકી સાધુને ફસાવી લે છે. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० सूत्रकृनागसूत्रे मनोवाक कायगुप्तमपि साधुम् (एगतयं) एकतिय सेकाशिनम् (अणगारं) अनगारं साधु बध्नन्ति विचित्रहावभावेन त्रिय इति ||८|| टीका--'जहा' यथा 'निमय' निर्भयम्-स्वभावतो भयरहितमपि 'सीह' सिंह वनराजस् 'कुणिमेणं' मांसेन-मासं दत्वा 'पासेणं' पाशेन 'बंधति' बध्नाति वधिकः, वद्ध्वा चाऽनेकप्रकारेण पीडां ददाति । एवं' एवयेवं प्रकारेण 'इस्थियाउ' स्त्रियः बध्नन्ति स्ववशं कुर्वन्ति, संजुडं' संवृतम्-प्रशममनोवाक्काययोगयुक्तं 'एकतयं' एकाकिनं मुनिराज 'अणगाई' अनगारं साधुम् यदा संहत्तोऽपि मनोवाक्कायैः गुप्तोपि साधुः स्त्रीणां वशमुपयाति, तदा का कथा असंवृतानामितरेषाम् । एतावता स्त्रीणामतिसामर्थ्य प्रदर्शितम् । अन्ये च परीपहाः यथा कथंचित् जेतुं शक्या अपि किन्तु स्त्री पीपहः दुःखेन जेतुं शक्यते इति ध्वनितम् इति ॥८॥ टीकार्थ--जैले स्वभाव से ही निर्भय और इस कारण एकाकी विचरण करने वाले वनराज सिंह को माल देशर शिक्षारी बन्धन में बांध लेते हैं और बांधकर अनेक पीडाएँ देते हैं, हली प्रकार स्त्रियाँ मन वचन काय को गोपन कर रखने वाले एकाकीमुनि को अपने बन्धन में फंसा लेती हैं। ____जब अपने मन वचन और काय को वशीकृत कर लेने वाला साधु भी स्त्रियों के बशीयून हो जाता है लो अन्ध असंवृत (गृहस्थजनों) का - तो कहना ही क्या है ? इस कथन के द्वारा स्त्रियों के सामर्थ्य का अति"शय प्रदर्शित किया गया है और यह भी सूचित किया गया है कि अन्य परीषह तो किसी प्रकार लहन भी किये जा सकते हैं मगर स्त्री परीषह को जीतना अत्यन्त कठिन है ॥८॥ ટીકા–સિંહ નિર્ભય હોવાને કારણે વનમાં એકલે વિચરણ કર્યા કરતે હેય છે. એવા વનરાજ સિંહને માંસ વડે લલચાવીને શિકારી જાળમાં ફસાવે છે, અને તેમાં ફસાયેલા સિંહને અનેક પ્રકારે પીડા પહોંચાડે છે, એજ પ્રમાણે મન, વચન અને કાયમુતિથી યુક્ત, એકાકી મુનિને સ્ત્રી હાસ્ય, કટાક્ષ આદિ પૂર્વોક્ત ઉપાયો દ્વારા પિતાના ફંદામાં ફસાવે છે. જે પોતાના મન, વચન અને કાયાને વશ રાખનારા સાધુ પણ સ્ત્રીઓના મેહપાશમાં ફસાઈ જાય છે, તે અન્ય અસંવૃત (વ્રતરહિત) પુરુષોની તો વાત જ શી કરવી ! આ કથન દ્વારા સૂત્રકારે સ્ત્રીઓના સામર્થ્યની અતિશયતા પ્રગટ કરી છે, અને એ વાત સુચિત કરી છે કે અન્ય પરીષહોને તે કઈ પણ રીતે સહન પણ કરી શકાય છે, પણ સ્ત્રી પરીષહેને જીતવાનું કાર્ય ઘણું જ મુશ્કેલ છે. ૮ : - Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ खीपरीपहनिरूपणम् २१ मूलम् अहं तत्थे घुगो णमयंति रहकारोव गोमि आणुपुबीए । बद्धे मिए व पालेणं पंदंते विण मुखए ताहे ॥९॥ छाया--अथ तत्र पुनर्नमयन्ति रथकार इव नेमि मानुपूया। बद्धो मृग इस पाशेन रूपन्दयानोऽपि न सुच्यते तस्मात् ॥९॥ अन्दयार्थ:--(रहकारो) रथकारः (आणुपुनीए) आनुपू- क्रमश: (णेमिं व) नेलिभिव चक्रवाह्यभ्रमिरूपम् (अह) अथ (तस्थ) सत्र स्वाभिप्रेतकार्यकरणे (गमयंति) नमयन्ति (पासेणं) पाशेन (बढे) बद्धः (मिए व) मृग इन (फंदते वि) स्पन्दषानोपि मोक्षार्थम् (साहे) तस्मान (ण घुच्चइ) न मुच्यते-भुक्तो न भवतीति ।।९॥ शब्दार्थ--'रहकारी--मयकार:' रम बनाने वाला 'आणुपुछीएआनन्या' क्रमपूर्वक 'मि-नेमिमिवजह वेषि-चक कोनभाता है इसी प्रकार स्त्रियां साधुको 'अह-मथ' अपने वश में करने के पश्चात् 'तत्थ-तत्र' अपने इच्छित्त कार्य कराने में णमोच-दमयन' झुझा लेती है 'पासेणं-पाशेन' पाशले बद्धे-'पद्धः' कंधा हुआ साधु-लिए व-मृगाव' मृगके समान फंदते वि-स्पन्दमालोपि' पाशले छुटने के लिये प्रयत्न करता हुआ भी 'ताहे-तस्मात्' उल्लले 'जमुच्चए-न लुच्चले' नहीं छूटता है।९। ___अन्वयार्थ-जैले रथकार (सुधार) क्रमशः नेमि को नमाता है, उसी प्रकार नारियां साधु को अपने अधीन कर लेती हैं। तत्पश्चात् वह साधु पाराषद्ध स्वैग जैसा छुटकारा पाने के लिये फड़फड़ाला हुआ भी छुटकारा नहीं पाता ॥२॥ शहाथ-रहकारो-स्थकारः' २५ मनापावाणी आणुपुवीए-आनुपूा' म ४ णेमिक-मिमिव' म नेभी () यने नभावे छे, मेक शत मियो साधु 'अह-अथ' पाताने १२ र्या ५छी 'तत्थ -तत्र' पोतानी ४२छ। प्रभा ना ४ाय ४२११वामा ‘णमयंति-नमयन्ति' नभावी छे. 'पास्त्रेणं-पाशेन' पाशथी 'बद्धे-बद्ध.' पाये। साधु 'मिए व-मृग इव' भृगसानीभ फईते वि -स्पन्दमानोऽपि' पाशथी छूट। माटे प्रयत्न ४२ डापा छतi ५ 'ताहेतस्मात्' ते पाश मयतथी 'ण मुच्चइ-ल मुच्यते' छूटता नथी । સૂત્રાર્થ–જેવી રીતે રથકાર (સુથાર) ધીમે ધીમે નેમિને પૈડાની વાટને) નમાવીને પિડા પર ચડાવી દે છે, એ જ પ્રમાણે જિઓ પણ ધીરે ધીરે સાધુને પિતાને અધીન કરી લે છે. જેવી રીતે જાળમાં બંધાયેલું મૃગ તેમાથી છૂટવા માટે ગમે તેટલા તરફડિયાં મારવા છતાં છૂટી શકતું નથી એ જ પ્રમાણે સાધુ પણ તેના ફંદામાંથી છૂટી શકતું નથી. લા Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ सूत्रकृताङ्गो भुक्त्वा-यथा विपमिश्रितपायसभोजी पश्चाताप करोति तद्वत् (एवं) एवमेव (विवेगमादाय) विवेकमादाय (इपिए) द्रव्यो मुक्तिगमनयोग्यः तस्मिन् (संवास) संबासा स्त्री संबन्धः (नवि कपए) नापि कल्पते समीचीनो न भवतीति भावः ॥१०॥ टीका-अह' अथ 'से' असौ साधुः स्त्रीपाशनियंत्रितः सन् प्रतिदिनं क्लेशमनुभवन् ' एच्छा' पश्चात् 'अणुतुरई' अनुतप्यते पश्चात्तापं करोति। यथा कुटुम्बे नियन्त्रितालाम्, एतादृशं दुसमनश्यमेव भवति। परिवारकृते पापमिश्रितं कर्म कुर्वन् पापलिप्टो दुःखमनति । उक्तंच 'मया परिजनस्या कृतं कर्म सुदारुणम् । एकाशी तेल दहोऽहं हारते फल पाणिनः ॥१॥ एवं स साधुरी परितप्यते। टीकार्थ--स्त्री के जाल में पड़ा हुआ वह साधु प्रतिदिन क्लेश का अनुभव करता हुआ पश्चाताप करता है। जो जो लोग कुटुम्ब रूपी जाल में पडे हैं उन्हें नाना प्रकार के दुखों को अवश्य ही भुगतना पडता है। परिवार के लिए पापमय कर्म करने वाला स्वयं पाप ले लिप्त होता है और भविष्य में भी उसे दुःखों क्षा भानी होना पडता है। कहा भी है- मया' इत्यादि। __'मैंने परिजनों के लिये नूर से क्रूर करें शिये, मगर आज मैं अकेला ही संतप्त हो रहा हूं। जिन्होंने मेरे उन पाप कार्यों से संगृहीत वस्तु का फल भोगा था वे सब चले गये !' इस प्रकार वह साधु भी पश्चात्ताप करता है। તથ્યને હદયમાં ઉતારીને મોક્ષગમનની અભિલાષા રાખતા સાધુએ સ્ત્રીઓની સાથે નિવાસ કર જોઈએ નહીં ૧. ટીકાર્થ–સ્ત્રીની જાળમાં ફસાયેલો તે સાધુ પરિવારને નિમિત્તે પ્રતિદિન કલેશને અનુભવ કરતે રહે છે, તે કારણે સંયમથી ભ્રષ્ટ થવા માટે તેને પશ્ચાત્તાપ થાય છે. જે લેકે કુટુંબની સાથે રહે છે તેમને વિવિધ રખાન અનુભવ કરે પડે છે. પરિવારને નિમિત્તે પાપકર્મ સેવનારો પુરુષ પોતે જ પાપથી લિપ્ત થાય છે. અને ભવિષ્યમાં પણ તેને દુઃખના ભાગીદાર બનવું ५. छ. ४ह्यु ५४ छे 3-'मया' त्या મેં પરિજનોને માટે રમાં કૂર કર્મોનું સેવન કર્યું, પરંતુ આજે હું એકલે જ સંતાપનો અનુભવ કરી રહ્યો છું. જેમણે માાં તે પાપકર્મો દ્વારા ઉપાર્જિત વસ્તુઓનું ફળ ભેગવ્યું હતું તેઓ બધાં ચાલ્યા ગયા આ રીતે સાધુ પણ પશ્ચાત્તાપ કરે છે. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीपहनिरूपम् २२५ यथा 'विसमिस' विपमिश्रितम् । 'पायसं भोच्चा व पायसं क्षीरपाचितमन्नं खीर इति लोकमसिद्धं भुक्त्वेव । यथा कधिद्विषमिलितं पायसं भुक्त्वा विषवेगाऽऽकुलितः अनुतप्यते यथा मया पापेन सांप्रतैषिणा सुखरसिकतया भविष्पदविषाकिकमवभूतं भोजनमास्वादितं तथैव त्वमपि पुत्रपौत्रदुहितजामातृकलत्रन भ्रातृश्वशुरश्वभू भागिनेयादीनां भोजनपरिणयनालंकारजातकर्ममृतककर्मव्याधिचिकित्साचिन्ताकुलोऽपगतस्वशरीरकर्तव्यः प्रनष्टैहिकामुधिमकानुष्ठानोऽहर्निशं तद्वयापाराकुलितमतिः परितप्यसे पश्चात्तप्यसे तदनुम्रियसे। तथा-स्त्रीपरिवारादिचिन्तया चिन्तितो जैले कोई विवेकश्किल मनुष्य विषमिश्रित खीर खाकर और बाद में विष के वेग से आकुस व्याकुल होकर सन्ताप करता है कि हाय ! मैं कैसा मूढ हूँ। मैंने वर्तमानकालीन सुख का विचार किया और भविष्य में होने वाले उसके दुष्परिणाम की उपेक्षा की । इली प्रकार तुम भी पुत्र पौत्र पुत्री जामाता पस्नी नाती भाई श्वशुर सासू एवं भागिनेथ (आणजा) आदि के भोजनाधिवाह, अलंकार, जातकर्म, मृतककर्म धीमारी की चिकित्सा आदि ले व्याकुलचित्त हो रहे हो, अपने शरीर संबंधी कार्यों को भी भूल बैठे हो, इस लोक और परलोक संबंधी फर्तव्यों को रातदिन-भुला पेठे हो। तुम्हारी घुद्धि उन्हीं के व्यापारों से જેવી રીતે કોઈ વિવેકવિહીન મનુષ્ય આવેશમાં આવી જઈને વિષમિશ્રિત ખીર આદિ ખાઈ જાય છે, પરંતુ જેમ જેમ શરીરમાં વિષ વ્યાપતું જાય છે તેમ તેમ આકુળ વ્યાકુળ થઈને પસ્તા કરે છે કે “હાય, હું કે મૂર્ખ છું ! મેં વર્તમાનકાલીન સુખને જ વિચાર કર્યો અને તેના દુષ્પરિ ણામની ઉપેક્ષા કરી. એ જ પ્રમાણે તમે પણ પુત્રો, પુત્રી, પૌત્ર, જમા. छा, पत्नी, मायेने, मीमा सासु, ससस, मा, मन माहिना જન વિવાહ અલંકાર જાતકર્મમૃતષ્કર્મ બીમારીની ચિકિત્સા આદિ વહે વારમાં એવા તે પ્રવૃત્ત રહે છે કે તેમની ચિંતા આડે તમારા શરીર આદિની ચિંતા પણ ભૂલી ગયા છે. કયારેક કે પુત્ર, પુત્રી આદિના લગ્નની ચિંતા, ક્યારેક પત્ની આદિને માટે અલંકારો ઘડાવવાની ચિંતા, કયારેક કેઈની બીમારીની ચિકિત્સાની ચિન્તા ભાણી ભાણીયાના મામેરાની ચિન્તા, કેઈ સગાના મરણ પાછળની વિધિઓની ચિન્તા આદિમાં જ તમારું ચિત્ત પવાયેલું રહે છે. આ બધી પરિજનવિષયક ચિંતાઓથી તમારૂં ચિત્ત વ્યાકુળ કહે છે. તેને કારણે તમે તમારા અિહિક અને પારલૌકિક કર્તવ્યને ० २९ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ सूत्रताङ्गसूत्रे टीका-रहकारो' रथकारः रथं करोवि इति रथकारो वर्धकिः । 'आणुपुबीए' आनुपूा -अनुक्रमशः इति यावत् । 'लेमिं ब' नेमिमिय ‘णमयंति' नमयन्ति यथा रथकारो नेमि क्रमशः स्वेच्छा नमयति 'अह' अथ, तथा स्वक्शकरणानन्तरम् 'तत्थ' तत्र रवेष्टवस्तुनि यति नमपन्ति स्त्रियः । 'मिए व मृग इव 'पासेणं' पाशेन 'वढे' बद्धः ‘फंदते पि' स्पन्दमानोऽपि मोक्तुमिच्छया प्रयत्न कुर्वाणोऽपि 'ताहे' तस्मात् पाशवधनाद ‘ण मुचए' न तुच्यते। ___ यथा रथकारो नेमि स्वेच्छया नमयति, तथा स्वशं यतिमपि ललना स्वे छया नगयति, यथा यथाऽभिलपति, तथा तथा तं कारयति । करोति 'च साधुः यथा वा मृगो वधिकेन पाशद्वारा बडो गोक्षेच्छया प्रयतमानोऽपि बन्धनान्न टोकार्थ-जैले पढई (सुधार) अनुकान से नेमि को अपनी इच्छा के अनुसार नमालेता है, उसी प्रकार अपने वशीतून करले के पश्चात् स्त्रियां साधुको अपने इष्ट प्रयोजन की पूर्ति के लिए झुका लेनी हैं। फिर जैसे धन्धन में बद्ध मृग छूटने के लिए प्रयत्न करने पर भी छुटकारा नहीं पाता, उसी प्रकार साधु भी उस बन्धन से नहीं छुपाता। आशय यह है कि जैसे स्थशार (वढई) नेमि को इच्छानुसार बनाता है, उसी प्रकार अपने अधीन हुए खुनि को स्त्री नमाती है, अर्थात् वह जो जो चाहती है वहीं वही उससे करवाती है । और साधु को वह सा करना पड़ता है । जैले शिकारी के द्वारा पाशबद्ध किया हुआ ऋग छुटकारा पाने की इच्छा से फड़फड़ाता है, फिर भी छुटकारा ટીકા–જેવી રીતે સુથાર નેમિને (પડાની વાટને) પિતાની ઇરછાનુસાર ક્રમશઃ નમાવીને પૈડા પર ચડાવી દે છે, એ જ પ્રમાણે “સ્ત્રિઓ પણ ધીરે ધીરે સાધુને પિતાને અધીન કરી લઈને પિતાના ઈષ્ટ પ્રોજનની સિદ્ધિ સાટે તેમને પ્રવૃત્ત કરે છે. જેવી રીતે શિકારીની જાળમાં બંધાયેલું મૃગ ગમે તેટલા પ્રયત્ન કરવા છતાં પણ પધનમાંથી મુક્ત થઈ શકતું નથી, એજ પ્રમાણે સાધુ પણ તે બધામાંથી છૂટી શકતો નથી. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જેવી રીતે સુથાર રથની નેમિને પૈડાની) વાટને ક્રમશઃ ઈચ્છ નુસાર નમાવે છે, એ જ પ્રમાણે પોતાને અધીન થયેલા સાધુને કામિની પણ પિતાની ઇરછાનુસાર નમાવે છે, એટલે કે તે તેમની પાસે પિતાની ઈરછાનુસાર કાર્ય કરાવે છે, અને સાધુને તે સઘળું કાર્ય ઈચ્છા હોય - नाय, त ५९४ ४२ ५९ छ. २वी रीत शिहारीमा मचाये મૃગ મુક્ત થવાને માટે ગમે તેટલા ધમપછાડા કરે, તે પણ તેમાંથી મુક્ત Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २२३ मुच्यते, तथा साघुरपि वशमुपगतः पुनर्न तदधिकारान्निवर्त्तते । ततो न विमुच्यते इति भावः ॥ ९ ॥ मूलम् - अहे से तपई पच्छा भोच्या पायसं व विलमिस्। एवं विवेगमादाय वोसो ने दि कप्पए देविष ॥१०॥ छाया - अथ सोऽनुतप्यते पचात् क्त्वा पायसमिव दिषमिश्रम् । एवं विवेकमादाय संवासो नापि कल्पते द्रव्ये ॥१०॥ अन्वयार्थ:-(अह) अय (से) सः - साधुः (पच्छा) पश्चात् (अणुतप्पई ) अनुतप्यते - पावापं करोति (विसमिस्स) निषभिश्रम् (पायसं ) पायसमिव (भोच्चा) नहीं पाता, उसी प्रकार स्त्री के वश में पडा हुआ साधु भी फिर उसके पंजे से नहीं छुट पाता है ॥९॥ , शब्दार्थ-- 'अह - अध' स्त्रीके बरावर्त्ती होने के अनंतर 'से- सः वह साधु 'पच्छा-पश्चात् ' पीछे से 'अणुत पई- अनुतप्यते' पश्चात्ताप करता है 'विसमिस्स - विषमिश्रम्' जैसे विषसे मिला हुआ 'पायलं - पायसम् ' पायस - दूधपाक 'सच्चा सुक्त्वा' खाकर मनुष्य पश्चात्ताप करता है 'एवं - एवम्' इस प्रकार 'विवेगमादाय - विवेकशदाय' विवेक को ग्रहण करके 'दfer - द्रव्यः' मुक्तिगमन के योग्य साधुको उनके साथका संवासो-संवासः' संवास-अर्थात् एकस्थान में रहना 'नवि कप्पए-नापकल्पते' योग्य नहीं है ॥१०॥ अन्वयार्थ -- तदनन्तर वह लाघु पश्चाताप करता है जैसे विषमिfear खाने वाला पश्चात्ताप करता है । इस तथ्य को जानकर मुक्ति के योग्य साधु स्त्रियों के साथ निवास न करे ॥१०॥ થઈ શકતુ નથી, એજ પ્રમાણે ના મેહપાશમાં જકડાયેલેા સાધુ પણ તેના ફદામાંથી છૂટી શકતા નથી, પ્રા शब्दार्थ –'अह-अथ' स्त्रीने वशथया पछी से-सः' ते साधु 'पच्छा - पश्चात् ' पाछणथी 'अणुतप्पइ-अनुतप्यते' पश्चात्ताय रे छे. 'विस मिस्स - विषमिश्रम् ' म विषथी भणेस 'पायसं - पायसम्' इषा 'सोच्चा-भुक्त्या' थाने मनुष्य पश्चात्ताय १रे छे. ' एवं- एवम् रीते विवेगमादाय - विवेकमादाय' विवेने अनुसरीने 'दविए-द्रव्यः भुति असन खाने योग्य साधुने तेलीनी साधना 'संवासो-संवास.' स'वास अर्थात् ४ स्थानमा रहेवु 'नवि कप्पइ - नापि कल्पते' ચેગ્ય નથી, ૧૦૫ સૂત્રા—જેવી રીતે વિષયુક્ત અન્ન ખાનારને પશ્ચાત્તાપ થાય છે, એજ પ્રમાણે સ્ત્રીના મેહપાશમાં ધાયેલા સાધુને પશ્ચાત્તાપ કરવા પડે છે. આ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे भवसि । एवं एवं पूर्वोक्तरूपेण । 'विवेगं विवेक स्वानुष्ठानस्य 'आदाय' आदायप्राप्य । 'दविए द्रव्यो मुक्तिगमनयोग्यः साधुः तस्मिन् द्रव्ये 'संबासः स्त्रीभिः सह एक स्थाने स्थितिः। 'नधि कप्पए' नैव कलाते एकनरयाने नैव विष्ठेदिति ॥१०॥ . स्त्री संबन्धजनितदोषानुपदर्य उपसंहारमाह शुत्रकार- 'तम्मा उ बजए इत्थी' इत्यादि । मूलम्-सन्हा उ बनेन इत्थी बिललितं व कंटा नचा। .. ओ कुलाणि वसती आपाते ण से विणिगंथे॥११॥ . छाया-तस्मात्तु वर्जयेत्स्त्रीः विपलिशामिव कण्टकं ज्ञात्वा । ___ ओजः झुलानि वशवर्ती आख्याति न सोऽपि निग्रन्थः ।।११।। शाङ्गुल रहती है। परिताप करना पड़ता है। लया स्त्री परिवार आदि की चिन्ता से चिन्तित रहना पडता है । इस प्रकार विचार करके और अपने कर्तव्ध में तत्पर रहकर मोक्षगमन ‘प्त अभिलाषी साधु स्त्रियों के साथ एक स्थान में निवास करे ॥१०॥ अध्द स्म्रकार स्त्री सम्पर्क से उत्पन्न होने वाले दोषों को दिखलाकर उपसंहार करते हैं-'तम्मा बजए इस्थी' इत्यादि । __ शब्दार्थ-तरूहा-लस्मात्' इसलिये 'विलितंशि-कंटगंविलिप्तमिव कंटक' जीको विषसे लिप्त कंटक के तुल्य बच्चा-ज्ञाया' जानकर 'इत्थी वजए-स्त्रीः वर्जयेत्' ही संसाको लाधु वर्जित करे 'बलवती-शપણ ભૂલી ગયા છે. તે પરિવારવિષ્યક પ્રવૃત્તિઓમાં જ તમે લીન રહે છે અને પરિવારવિષયક ચિંતાએ જ તમને વ્યાકુલકરતી રહે છે. તેથી તમારે પરિતાપ સહન કરે પડે છે અને સ્ત્રી આદિ પરિવારની ચિન્તાથી જ તમારું ચિત્ત ઘેરાયેલું રહે છે આ પ્રકારને વિચાર કરીને કર્તવ્યપરાયણે સાધુએ મોક્ષપ્રાપ્તિને એ અનુષ્ઠાનામાં જ પ્રવૃત્ત રહેવું જોઈએ. તેણે સ્ત્રીઓની સાથે એક જ સ્થાનમાં निवास ४२व न नडी-बीना : सेव नही ॥१०॥ . . . હવે સૂત્રકાર સ્ત્રીસંપર્ક દ્વારા ઉત્પન્ન થતા દે પ્રકટે કરે છે ? 'तम्हा उ वज्जए इत्थी' त्या. Avt.--'तन्हा-तस्मात्' मे २jथी 'विसलित्तं विकटगं-विषलिप्तमिव कंटकम मिया विषयी ४२४१ये टानीभ 'नचा-ज्ञात्वा' oneta 'इत्यी धज्जए-त्रीः वर्जयेत्' श्रियाना AAPAL साधु या ४२२। 'वसवत्ती Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीपहनिरूपणम् २२७. , अन्वयार्थ:-(तम्हा)-तसमतु. यस्मात् -स्त्रीमंपोंनेष्टः तस्मात् (विसलि ब. कंटगं) विषलिप्तमिव कंटक (नच्चा) ज्ञात्वा (इत्थी बज्मए) स्त्रीवर्जयेत् स्त्रिणां त्यागः कर्तव्यः (वसवत्ती) वशवर्ती स्त्रीणाम् (ओए कुलानि) ओजः-एका खुलानि एकः स्त्रीगृहं गत्वा धर्मम् 'आघाते' आख्याति उपदिशति (से वि) सोपि (ण) न (णिग्गथे) निर्ग्रन्थः साधुन भवतीति ॥११॥ ___टीका-यस्मात् स्त्रीणां संबन्धी विषमफलदायी तम्हा' तस्मात् कारणात् 'इत्थी' स्त्रीः 'वज्जए' वर्जयेत् तया संथासं शब्दाद्यालापमपि वर्जयेत् । 'विसलिबि' विपलिलमपि 'कंटकं वा कच्चा' कण्टकर ज्ञात्वा यथा विपलिप्तः कण्टकः कार्य मविष्टः सन् अनर्थ करोति तद्वत् । तत्रापि विषाक्तकण्टकस्य शरीरसंबन्धात् , स्त्रीणान्तु स्मरणादेव दुःखं भवतीत्यनयोरेको निर्विशेषो विशेपश्च । वली" स्त्रियों के वशमें रहनेवाला पुरुष 'ओए कुलाजि-ओजः कुलानि अकेला गृहस्थ के घर में जाकरधर्म का कथन करता है 'से वि-खोऽपि' वह भी 'ण णिमये-न निन्धः ' निर्ग्रन्थ नहीं है ॥११॥ अन्वयार्थ-इस कारण साधु स्त्री को विष से लिप्त कण्टक समझकर उनका त्याग कर दे। जो स्त्री का वशवी होकर अक्षता अकेली स्त्री के घर में जाकर धर्म का उपदेश करता है छह भी निन्ध नहीं है॥१२॥ टीकाथ---योकि स्त्रियों का संसर्ग विषम फल उत्पन्न करता है, इस कारण स्त्रियों से दूर ही रहे। उनके साथ निवास एवं वार्तालाप आदि से भी बचता रहे । साधु स्त्री को विधा लियत कांटा समझे। विषलिप्त झांटा शरीर प्रविष्ट होकर अनर्थ उत्पन्न करता है। इसी प्रकार स्त्रियां भी अनर्थजनक हैं । विषलिप्त कण्टक तो तभी अनर्थपशवी' नियाने १२ २३वाणी- ३३५ 'ओए कुलाणि-एक. कुलानि' 78स्थन ३२ ४४ सी मनुं थन ३२ छे. 'सेशि-सोविएते ५५ 'ण जिग्गथे -न निम्रन्थः' नियन्य नथी. ॥११॥ સૂત્રાર્થ–આ કારણે સાધુએ વિષથી લિસ કાંટાની જેમ સ્ત્રીને ત્યાગ કરે જોઈ એ. જે સાધુ સ્ત્રીને અધીન થઈને એકલે કે ઘરમાં પ્રવેશ કરીને તે ઘરમાં એકલી રહેતી સ્ત્રી પાસે જઈને ધર્મને ઉપદેશ આપે છે, તે સાધુને નિન્ય કહી શકાય નહીં. ૧૧ ટીકાથ–-સ્ત્રિઓને સંસર્ગ અનર્થનું મૂળ ગણાય છે, તે કારણે સાધુએ ઝિઓથી દૂર જ રહેવું જોઈએ. તેણે તેમની સાથે નિવાસ પણ કરે નહીં - અને વાર્તાલાપ પણ કરવો નહીં. સાધુએ સ્ત્રીને વિશ્વલિત કાંટા સમાન ગણવી જોઈએ. જેવી રીતે વિશ્વલિત કાંટે શરીરમાં ભોંકાય, તે અનર્થ ઉત્પન્ન કરે Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रता विपविषययोरेतावदन्तरं यत् विषं तु शरीरसंबद्धं सत् हन्ति विषयास्तु स्मर णादेव नाशयन्ति । उक्तं च- २२८ 'विषस्य विषयाणां च दूरमत्यन्तमन्तरम् । उपयुक्तं विषं हन्ति विषयाः स्मरणादपि ॥१॥ तथा 'ओए' ओजः - एकः असहायः 'वसवत्ती' स्त्रीणां वशवर्त्ती 'कुलाणि' कुलानि गृहकुलानि वा धर्मस्योपदेशं करोति यः सोऽपि न 'निग्गंधे' निर्ग्रन्थः फर होता है जब शरीर के साथ उसका सम्पर्क हो, मगर स्त्रियां तो स्मरण मात्र से ही दुःख उत्पन्न करने वाली हैं । अतएव इन दोनों में किंचित् समानता होने पर भी इस दृष्टि से बहुत अन्तर भी है । विष और विषय में यह अन्तर है कि विष शरीर के साथ सम्पर्क होने पर विनाश करता है जब कि विषय स्मरण मात्र से ही विनाश का कारण बन जाता है । कहा भी है- 'विषस्य' इत्यादि । 'विष और विषयों में बहुत अधिक अन्नर है । विष तब ही प्राणघात करता है जब उसका भक्षण किया जाय किन्तु विषयों की विशेषता यह है कि वे स्मरण से ही विनाश करते हैं ।' जो अकेला ही स्त्रियों के अधीन होकर गृहस्थ के घरों में जाकर धर्म का उपदेश करता है, वह निर्ग्रन्थ साधु नहीं है । साधु को ऐसा છે, એજ પ્રમાણે સ્રિએ પશુ અન་જનક છે. વિષલિસ કટક તા ત્યારે જ અનજનક બને છે કે જ્યારે તે શરીરના સપર્કમાં આવે છે, પરન્તુ સ્ત્રિઓના સ'પર્ક તે શું, સ્મરણ પણુ દુ:ખજનક છે! આ પ્રકારે નિષ અને વિષયમાં દેખીતી સમાનતા હેાવા છતાં વિષ કરતાં વિષય વધારે અનથ કારી છે. વિષના શરીરની સાથે સપર્ક થાય ત્યારે જ તે વિનાશનું કારણુ અને છે, વિષય તા સ્મરણમાત્રથી જ વિનાશનું કારણુ ખને છે. કહ્યુ' પણ છે કે— 'विषस्य ' इत्याहि વિષ અને વિષા વચ્ચે ઘણા માટે તફાવત છે. વિષ તે ત્યારે જ પ્રાણેાના વિનાશ કરે છે કે જ્યારે તેનુ લક્ષણુ કરવામાં આવે છે, પરન્તુ વિષયની તા એ વિશેષતા છે કે તેમનુ સ્મરણુ જ કરવામાં આવે તે પણ સ્મરણકર્તા પેાતાના વિનાશ વહારી લે છે,’ તેથી સાધુએ સ્ત્રિઓના સ ́પર્કથી દૂર રહેવુ જોઇએ. જે સાધુ સ્ત્રિઓમાં આસક્ત થઈને, કાઇ ઘરમાં એકલા દાખલ થઈ ને કાઈ ને એકાન્તમાં ધ્રુપદેશ આપે છે, તેને નિગ્રન્થ કહી શકાય નહીં. સાધુએ કદી પણ સ્ત્રીને Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीपहनिरूपणम् २२९ सम्यग्प्रवजितः तत्र अवायसंभवात् एकाकी च्यादिसंकलितगृहस्थगृहं गत्वा धर्म नोपदिशेत् । यदि कदाचिदुपदिशेत्तदा तद्गृहमगत्वैव उपाश्रये एव पुरुषसाक्षिकं वैराग्यमधानकं धर्ममुपदिशेत् इति ॥११॥ विषमोऽप्यर्थ:-अन्वयव्यतिरेकाभ्यां पुनः प्रतिपादितो वोधाय सुलभो भवतीति-अभिप्रायवान् सूत्रकार आह-'जे एवं उछ' इत्यादि । मूलम्-जे एयं उछ अणुगिद्धा अनियरा से हंति कुसीलाणं। सुतंवस्सिएवि से भिक्खू 'नो विहरे संह नमित्थीसु॥१२॥ छाया--य एतदुन्छमनुगृद्धा अन्यतरे ते भवन्ति कुशीलानाम् । सुतपस्विकोऽपि समिक्षुः न विहरेत् सार्थ खलु स्त्रीभिः ॥१२॥ नहीं करना चाहिए । कदाचित् उपदेश दे तो उसके घर न जाकर ही अन्य पुरुष की विद्यमानता में उपाश्रय में ही वैराग्य प्रधान धर्म का उपदेश करे ॥११॥ कोई विषय दुर्गम हो तो भी अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा अर्थात् विधि रूप से और निषेध रूप से प्रतिपादन करन्द ले सुगम हो जाता है। इस अभिप्राय से सूत्रकार कहते हैं--'जे एवं उर्छ' इत्यादि । शब्दार्थ--'जे-थे जो पुरुष एवं-एतत्' इसी स्त्री संसर्गरूपी 'उछउछम्' त्याज्य-नींदनीय कर्म में 'अणुगिद्धा-अनुशृद्धा!' आसक्त है 'सेते' वे पुरुष 'कुसीलाणं-कुशीलानाम्' पार्श्वस्यादिकों में से 'अन्नयर-अन्यतरे कोई एक हैं अतः 'ले-स' वह साधु 'सुतवस्सिए वि-सुतपः એકાન્તમાં ઉપદેશ આપ જોઈએ નહીં. તેણે ઉપાશ્રયમાં અન્ય પુરુષની સમક્ષ જ સ્ત્રિઓને વૈરાગ્યપ્રધાન ધર્મને ઉપદેશ આપ જોઈએ ૧૧ કેઈ વિષયનું પ્રતિપાદન કરવાનું કાર્ય દુષ્કર હોય, તે અન્વય અને વ્યતિરેક દ્વારા એટલે કે વિધિ રૂપે અને નિષેધ રૂપે તેનું પ્રતિપાદન કરવાથી તે વિષય સગમ થઈ જાય છે તેથી જ સૂત્રકાર હવે આ પદ્ધતિનો આશ્રય , सपन ४ छ है- 'जे एयं उंछे' त्याह-- Aval -'जे-ये' रे ५३५ 'एयं-एतत्' ! श्री सा३पी छंउम्छम्' नीहनीय भाभा अणुगिद्धा-अणुगृद्धाः' यासरत . 'से-ते से ५३षो 'कुसीलाण-शीलानाम्' पावस्थ विगेरेमाथी 'धन्नयरा-अन्यतराः' हो से छे. तेथी 'से-स.' ते साधु 'सुतवस्सिए वि-सुतस्विकोऽपपि' उत्तम तपस्वी Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___अन्वयार्थ:-(जे) ये-पुरुषाः (एयं) एतत्-स्त्रीसम्पर्कम् (उछ) उग्छं-त्याज्यंनिन्दनीयकर्म 'अणुगिद्धा' अनुगृहा-मृच्छिता: (से) ते (कुसीलाणं) कुशीळानाम् पार्षधादीनाम् (अन्त्यरा) अन्यतरे-तमध्यवर्तिन एव ते भवंति अतः (से) सं (सिक्खू) भिक्षुः (मृतवस्सिए वि) तपस्विकोऽपि (इत्यासु सह) स्त्रीभिः सह (ण) खलु (नो विहरे) नो विहरे दिति ।मु०१२।। टीका--'जे एवं' ये एतत्, ये मन्दप्रकृतिकाः स्त्रीजिताः सदनुष्ठान परित्यज्य तात्कालिकमुलान्वेषिणः । एतदनन्तरोक्तम्-'उछ' उन्छ-जुगु. प्सितं निन्दनीयं स्त्रोसेमनरूपं धर्म । एकाकिनः स्त्रीगां धर्मोपदेशादिकं कुर्वन्ति, नियं प्रति ये आसक्ताः 'कुसीला कुमीलानाम्-अवसन्नकुशीलपार्श्व स्वसंसक्तश्याछंदपानां मध्ये 'अन्नघरा हुति' अवतरे भवन्ति, अतः स्थिकोऽपि' उत्तम हपस्थी हो तो भी 'इस्थी सह-त्रिभिः सह लियों के साथ 'णो विहरे-नोविहरेत् विहार न करें ॥१२॥ अन्वयार्थ--जो पुरुष लिन्दनीय स्त्री लम्पर्क में मूर्थित है वे कुशीलों वें वे ही हैं अर्थात् कुशील ही हैं, अतएव उन तपस्वी हो तो भी साधु स्त्रियों के साथ विहार न करे ॥१२॥ टीकाथ--जो पुरुष प्रकृति से मन्द हैं, स्त्रियों से पराजित हैं और लत् अनुष्ठान को त्यागकर तारशालिक सुख की खोज में रहते हैं तथा निन्दनीय स्त्री समरूप शर्म करते हैं-अकेले जाकर धर्मोपदेश करते 'हैं और जो स्त्री लें आसक्त होते हैं, वे अवलन, कुशील, पाश्वस्थ संत और यथाछन्दरूप शिथिलाचारियों में से कोई एक हैं। वे सच्चे डाय तो ५ 'इत्थीसु सह-निभिः सह श्रियानी साथे जो विहरे-नो विहરે વિહાર ન કરે ૧૨ સૂત્રાર્થ-જે પુરુષે નિન્દનીય સ્ત્રીસંપર્કમાં મૂચ્છિત છે, તેમની ગણતરી કુશીમાં જ થાય છે, એટલે કે તેઓ કુશલ (ચારિત્રહીન) જ ગણાય છે. તેથી ઉગ્ર તપસ્યા કરનારા સાધુઓએ પણ સ્ત્રિઓના સંપર્કથી દૂર જ રહેવું જોઈએ. ૧૨ ટીકાથે--જે પુરુષો મન્દ પ્રકૃતિવાળા છે, જેઓ સ્ત્રિઓ દ્વારા પરાજિત છે, જેઓ સત્ અનુષ્ઠાનોનો ત્યાગ કરીને વર્તમાનકાલીન સુખની જ શોધમાં "લીન રહે છે, જે સ્ત્રીસંપક રૂપ નિન્દનીય કર્મમાં પ્રવૃત્ત રહે છે, જેઓ સિઓની પાસે જઈને તેમને એકાન્તમાં ઉપદેશ આપે છે, અને જેઓ સ્ત્રીમાં આસક્ત છે, તેમને અવસાન, કુશીલ, પાર્શ્વ, સંસક્ત અને યથાશ્મન્દ રૂપ શિથિલાચારીએ રૂપે ઓળખવામાં આવે છે, એવા સાધુઓને સદાચાર Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.४ उ.१ स्त्रीपरीपहनिरूपणम् २३१ 'सुतवस्सिएदि' सुतपस्विकोऽपि तपला संतप्ततरपि 'भिवख' भिक्षुः-आत्मार्थी 'इत्थी' स्त्रीभिः 'सह' सार्धं 'ण' खलु 'गो' नो 'विहरे विहरेत्-समाधि. विरोधिनीभिर्वनिताभिः सह कदाचिदपि विहार न कुर्यात् । ताभिः सह कुत्रापि कदाचिदपि न गच्छेत् । अपितु तृणाच्छादितकूपवत् तां दूरादेव त्यजेत् । एता: स्त्रियः स्नकार्यकरणायालेकपकारकवचनमुबार्य पुरुष स्ववशे कुर्वन्तिकृत्वाऽनेकाकारकरलेशं ददति । तदुक्तम् 'एता हसन्ति च रुदन्ति च कार्यहेतो, विश्वासयन्ति च परं न च विश्वसन्ति । एताः प्रविश्य सरल हृदयं नराणां, किं किं न वामनयना हि समाचरन्ति ॥१॥मा १२॥ सदाचारसम्पन्न साधु नहीं हैं। अतएव जो साधु उग्रतपस्वी है-जिसका शरीर तप ले तप्त अर्थात तपोभय हो या है, यह भी स्त्रियों के साथ कदापि विहार न करे, क्योंकि वे समाधि को रोकनेवाली हैं। उनके लाथ कहीं भी और कभी भी गलन न करे वल्कि घास दे आच्छादित कूप के समान उन्हें दूर से ही त्याग दे। __ "ये त्रियां अपना कार्य करने के लिए अनेक प्रकार के वचनों का प्रयोग करके पुरुष को अपने अधीन करती हैं और उसे नाना प्रकार से कष्ट पहुंचाती हैं। कहा भी है-'एता हसन्ति" इत्यादि । ये स्त्रिया अपने स्वार्थ के लिए सभी हँसती है और सभी रोती हैं। दूसरों को अपना विश्वास दिलाती है पर किसी पर स्वयं विश्वास સંપાન સાધુ કહી શકાય નહીં તેથી જે સાધુ ઉગ્ર તપસ્વી હોય–જેનું શરીર તૈપ વડે તસ એટલે કે તમય થઈ ગયું છે, તેણે પણ સ્ત્રિઓના સંપર્કને ત્યાગ કરવો જોઈએ. તેણે સ્ત્રિઓની સાથે કદી પણ કઈ પણ સ્થળે ગમન આદિ કરવું જોઈએ નહીં. સ્ત્રિઓ સમાધિભાવને ભંગ કરનારી છે, તે કારણે ઘાસથી આચ્છાદિત કૂપની સમાન દૂરથી જ તેમને ત્યાગ કર જોઈએ. છે તેઓ પિતાનું પ્રયોજન સિદ્ધ કરવા માટે અનેક પ્રકારનાં વચનને પ્રયોગ કરીને પુરુષને પિતાને આધીન કરી લે છે અને તેને અનેક પ્રકારનાં टोला मनुस ४२०वे छे. यु पार छ -'एता हसन्ति' इत्याहि-- . તે સ્ત્રિએ પિતાને સ્વાર્થ સાધવાને માટે કદી હસે છે અને કદી રડે છે તેઓ પિતાની પ્રત્યે અન્યમાં વિશ્વાસ ઉત્પન્ન કરે છે, પરંતુ પિતે કઈ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ सूत्रकृतासूत्रे किंबहुना सम्बन्धिनीभिरपि स्त्रीजातिभिः सह संपर्को न विधातव्य इत्याह सूत्रकारः - अविधूवरा' इत्यादि । मूलम् - अविधूयराहिं सुहाहिं धोईहिं अदुवं दासीहिं । महंतीहिं वा कुमारीहिं संर्थवं से न कुंजी अणगारे ॥ १३ ॥ छाया - अपि दुद्दिदभिः स्तुपाभिः धात्रीभिरथवा दासीभिः । महतीभिर्वा कुमारीभिः संस्तवं स न कुर्यादनगारः ॥ १३॥ अन्वयार्थ :- (अणगारे) अनगारः (अविधूयराहि) अपि दुहितुभिः (सुहाहि ) स्नुषाभिः - पुत्रवधूभिः (घाईहिं) धात्रीभिः (अदुव) अथवा ( दासीहि ) दासीभिः 1 नहीं करतीं । ये पुरुष के तरल हृदय में प्रवेश करके क्या क्या अनर्थ नहीं करतीं' ॥१२॥ अधिक क्या कहा जाय सुनि को अपनी संबंधी भी स्त्री जाति के साथ संपर्क नहीं करना चाहिये, यह सूत्रकार कहते हैं- 'अविधूयराहिं' इत्यादि । शब्दार्थ - 'अणगारे - अनगार' साधु 'अविधूय राहि-अपि दुहि तृभिः' अपनी कन्याओं के साथ 'सुहाहिं - स्नुषाभिः पुत्रवधुओं के साथ 'घाइहि - धातृभिः' दूध पीलाने वाली धाइयों के साथ 'अदुव-अथवा ' अगर 'दासीहिं- दासीभिः' दासियों के साथ 'महतीहि महतीभिः' अपने से अधिक उपरवाली स्त्रियोंके साथ 'ना कुमारीहिं- वा कुमारीभिः' अथवा कुमारी के साथ 'से- सः अनगारा ' वह साधु 'संयंत्र - संस्तवम्' परिचय 'न कुज्जा - न कुर्यात् न करे ॥१३॥ પશુ પુરુષ પર વિશ્વાસ રાખતી નથી. તે પુરુષના સરળ હૃદયમાં પ્રવેશ કરીને કયા ક્યા અનર્થા કરતી નથી? ’!!ક્રા અધિક શું કહું? મુનિએ પેાતાની સસારી સધી એવી સ્ત્રીજાતિ સાથે પણ સપર્ક રાખવા જોઇએ નહી. એજ વાત સૂત્રકાર હવે પ્રકટ કરે छे -- 'अविधूयराहि' धत्याहि शब्दार्थ' - 'अणगारे - अनगार.' साधु 'अविधूयराहिं अपि दुहितृभिः' पोतानी ४न्या साथै 'सुहाहिं - स्नुषाभिः ' पुत्रवधूनी साथै ' धाइईि - धातृभिः ' दूध पिवराबनारी धार्धनी साथै 'अदुव- अथवा' अगर 'दासीहि - दाखीभिः ' हासीनी साथै 'महतीहि - महतिभिः' पोतानाथी भोटी ('अरनी खीनी साथै 'वा कुमारीहि-वा - कुमारीभिः' अथवा कुमारीनी साथै 'से अणगारे - सः अनगार.' ते साधु 'संथ - सस्त्रवम्' पश्यिय 'न कुजा - न कुर्यात् ' ८ ४३. ॥१३॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीपहनिरूपणम् २३३ (महतीहि) महतीभिः स्ववयः प्रमाणादधिकवयस्काभिः (वा कुमारी हिं) वा कुमारीमिः (से) सः (संथवं न कुजा) संस्तवं परिचयं संपकै न कुर्यादिति ॥१३॥ टोका-'अणगारे' अनगार: साधुः 'अवि' अपि, अस्याऽपिशव्दस्य सर्वत्र संवन्धः । तथा च 'धूयराहि' दुहितृभिः संप्लारिस्वपुत्रीभिरपि सह कदाचिदपि विहार न कुर्यात् । 'सुहाहि' स्नुषामिा स्नुषा:-पुत्रवधूः ताभिः सह नैव विहारं कुर्यात् । तथा 'धाईहि' धात्रीमिधानीभिरपि सह नैकवासनादौ उपविशेत् । 'अदुव दासीहिं' अथवा दासोभिः किंबहुना याः गृहदास्यस्ताभिरपि सह संपर्क कथमपि न कुर्यात । तथा 'महतीहि महतीभिः स्ववयः परिमाणादधिकरयस्काभिः 'कुमारीहि' कुमारिकाभिः वाशब्दात् कनिष्ठाभिर्वयसा प्रमाणेन, आभिरपि सह ___अन्वयार्थ--अनगार अपनी पुत्रियों पुत्रवधुओं, धायों, दालियों अपने से बडी-बूढी तथा कुँवारी स्त्रियों के साथ भी परिचय या सम्पर्क न करे ॥ १३॥ यहां गाथा के प्रारंभ में आये हुए 'अवि' (भी) का संबंध सभी जगह जोड़ लेना चाहिए । तदनुसार अर्थ यह होता है कि मुनि अपनी सांसारिक पुत्रियों के साथ भी कभी विहार न करे । पुत्रवधूभों के साथ भी विहार न करे । धायों के साथ भी कभी एक आखल पर न बैठे । गृहदासियों के साथ भी किसी प्रकार का सम्पर्क न रक्खे। इसी प्रकार जो वय में बड़ी हो अथवा कुमारिका हो, उनके साथ भी परिचय सूत्रा---गारे पातानी पुत्रीमा, पुत्रवधुमे।, पाइयो (धात्री.), દાસીએ પિતાને કુટુંબની કુમારિકાઓ અને વૃદ્ધાઓ સાથે પણ પરિચય અથવા સંપર્ક રાખવું જોઈએ નહીં. ૧૩ ____ --- यानी ५३मातमा मासु 'अदि' ५६ पुत्री हि દરેક પદ સાથે જોડવું જોઈએ અન્ય સ્ત્રીઓના સંપર્કને તો નિષેધ કરવામાં આવ્યું છે, પરંતુ પિતાની સાથે સાંસારિક સંબંધ ધરાવતી સ્ત્રીની સાથે પણ સંપર્ક રાખવાને નિષેધ ફરમા છે. સૂત્રકાર કહે છે કે સાધુએ પિતાની સાંસારિક પુત્રીઓ સાથે પણ સંપર્ક રાખવો જોઈએ નહીં. તેણે પિતાની પુત્રવધૂઓ સાથેના સમાગમને (ઉઠવા, બેસવા, હરવા ફરવા રૂપ સમાગમ) પણ ત્યાગ કરવો જોઈએ. તેણે પિતાની ધાત્રીએ (ધાવમાતાઓ) ની સાથે પણ કદી એક આસને બેસવું જોઈએ નહીં. તેણે પિતાના કુટુંબની દાસીઓ સાથે પણ કઈ પણ પ્રકારનો સંપર્ક રાખવું નહીં. તેણે પોતાના કુટુંબની વૃદ્ધ સ્ત્રીઓ અને કુમારિકાઓ સાથે પણ પરિચય કે સંપર્ક રાખવે Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ૨૩૪ सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'संथव' संस्तवं परिचयम् । अनागर आमिः संपर्क परिचयं प्रत्यासत्तिरूपं नैव कदाचिदपि कुर्यात् । तदुक्त-निशीयपधमोद्देशके 'गवि भइणीई जुज्जइ, रति विरहम्मि 'संवासो' (गाथा ५५६) नापि भगिन्या युज्यते रात्रौ विरहे (एकान्ते) संशसा' तथा लौकिकेऽप्युक्तम् 'मात्रा वसा दुहिना ना न विविक्तासनो भवेत् । वलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ॥१॥ तस्मात् सर्वाभिरेव स्त्रोत्वजातिविशिष्टाभिः शिष्टाऽशिष्टाभिरिष्टाऽनिष्टाभिः सह परिचयं सहवासं वा कस्मिन्नपि काले देशे वा स्वल्पं महान्तं वा कार्यविशेषन रक्खे । माथा में आए हुए 'वा' शब्द ले यह विदित होता है कि उन्न में छोटी स्त्रियों के साथ भी सम्पर्क व रक्खे । निशीथ सूत्र के पहले उद्देशे में कहा है-'पवि भइणीई इत्यादि एवं लौकिक में भी कहा है 'मात्रा स्वना' इत्यादि । ___माता, बहिन और पुत्री के साथ भी एकान्त में नहीं बैठना चाहिए । इन्द्रियां घडी बलवान होती हैं। वे विद्वान पुरुष को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेती है" ॥१॥ ___ अतएव श्रीमः जाति से युक्त जो भी हैं, चाहे वे शिष्ट हो या अशिष्ट हो, इष्ट हों या अनिष्ट हों, उनके साथ परिचय अथवा सहवास कहीं भी कमी थोडा अथवा बहुत किसी भी प्रयोजन से नहीं करना स, नही. गाथामा प्रयुक्त थयेा 'वा' ५६ द्वारा से सूचित थाय छ કે તેણે નાની ઉમરની સ્ત્રીઓ-બાલિકાઓ-સાથે પણ સંપર્ક રાખવો જોઈએ नहीं. निशीथ सूत्रना ५3३अध्ययनमा घुछ है-'ण वि भइणीई' त्याह -- સાધુએ પિતાની બહેનની સાથે પણ રાત્રે અને એકાંતવાસ કરે ન न दौभि५१ ४ छे 3.--'माना स्वस्रा' त्याह-- માતા, બહેન, પુત્રી આદિની સાથે પણ સાધુએ એકાન્તમાં બેસવું જોઈએ નહીં, કારણ ઇન્દ્રિયે એવી બળવાન્ હાય ના છે કે બુદ્ધિમાન પને પણ પિતાના પ્રત્યે આકર્ષવાને સમર્થ હોય છે તેથી સ્ત્રીત્વથી યુક્ત જે કઈ હોય તેને સંપર્ક સાધુએ રાખવો જોઈએ નહીં. પછી ભલે તે શિષ્ય હોય કે અશિષ્ટ હોય, ઈષ્ટ હોય કે અનિષ્ટ હોય, પરંતુ તેની Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् રક मासाद्य न कुर्यात् । स्त्रीणां सहवासो न कर्त्तव्यो नरकपातपापभयाद्विभ्यता मोक्षाभिलाषेणा पुरुषेणेति महौषधरूपोऽयमुपदेशः ॥ १३ ॥ पुनरप्याह सूत्रकारः -- ' अतु पाइणं च' इत्यादि । मूलम् - अर्दु पाईणं च सुहीणं वा अप्वियं देहु एया होइँ । गिद्धी सर्वा कोमेहिं रक्खणपोसणे मस्सोऽसि ॥१४॥ छाया -- अथ ज्ञातीनां सुहृदां वा अभियं दृष्ट्वा एकदा भवति । गृद्धाः सक्ताः कामेषु रक्षण-पोषणे मनुष्योऽसि ॥१४॥ चाहिए । जो पुरुष नरक में गिरने से डरता है और मुक्तिका अभिलाषी है, उसके लिए यह उपदेश महान औषध के समान है ||१३|| सूत्रकार पुनः कहते हैं- 'अदु वा नाइणं च' इत्यादि । शब्दार्थ - - ' एकया - एकदा ' किसी समय 'दहु-दृष्ट्वा ' एकान्त स्थानमें स्त्रीकेसाथ बैठे हुए साधुको देखकर 'नाईणं सुहीणं वा ज्ञातीनां सुहृदां वा' उस स्त्रीके ज्ञातिको तथा उसके सुहृदों को 'अनियं होइ -अप्रियं भवति' दुःख लगता है और वे कहते हैं कि 'सत्ता कामेहिं गिद्धा - सत्त्वाः कामेषु वृद्धा:' जैसे अन्य जन काममें आसक्त हैं इसी प्रकार यह साधु भी आसक्त है 'रक्खणपोसणे - रक्षणपोपणे' और भी कहते हैं कि तुम इस स्त्री का भरणपोषण भी करो क्योंकि 'मनुस्सोसिमनुष्योऽसि तूं इसका मनुष्य है ॥ १४॥ સાથે કદી પણુ અને કયાંય પણ ચેડા કે અધિક પરિચય અથવા સર્હવાસ, કાઇપણ કારણે કરવા જોઇએ નહી', જે પુરુષ નરકગતિમાં જવાથી ડરે છે અને મેાક્ષની અભિલાષા રાખે છે, તેને માટે તે આ ઉપદેશ મહાન ઔષધિ समान छे. ॥१३॥ भागण यासतां सूत्रभर मेवात अटरे छे छे - 'अदु नार्हण' त्याहि शब्दार्थ—'एकया-एकदा ' अर्थ समये 'दठु-दृष्ट्वा' अंतस्थानभां स्त्रिनी साथै मेठेला साधुने लेने 'नाईणं सुहीणं वा हातीनां सुहृदां वा' ते खीना ज्ञातीनाने अथवा स्नेहिनोने 'अमिय होइ - अप्रियं भवति' हाम लागे छे भने तेथेोवा भाडे छे - 'सत्ता कामेहि गिद्धा ' -सत्वाः कामेषु વૃદ્ધા:' જે પ્રમાણે અન્યજનો કામમાં આસક્ત છે, તેજ પ્રમાણે આ સાધુ પણુ अभभां आसक्त छे. 'रक्खणपोसणे-रक्षणपोपणे' तेभन भी पशु तमे मा स्त्रीनु' लधुषभ - 'मणुस्सोसि - मनुष्यो सि' तु मा खीनो पु३ष हो. ॥१४॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ - सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___ अन्धयार्थः--(एकया) एकदा कस्मिंश्चित्समये (द) दृष्ट्वा एकान्ते स्त्रीभिः सह उपविष्टं दृष्ट्वा (णाईणं सुहीणं वा) ज्ञातीनां मुहृदां वा (अप्पिय होइ) अभियं भवति (सत्ता कामेहिं गिद्धा) सत्त्वाः कामेषु गृद्धाः-गृद्धि भावमुपगताः, (रक्षणपोसणे) रक्षणपोषणे (मणुस्त्रोऽसि) मनुष्योऽसि ॥१४॥ ____टीका-'एगया' एकदा कस्मिन्नपि काले 'दट्टु' दृष्ट्वा-एकान्तस्थले स्वीमिः सहोपविशन्तं साधुम् । 'गाईणं सुहीणं च' ज्ञातीनां सुहृदां वा यया सहोपविशति साधुः नस्याः ज्ञातीनां सुहृदां वा संसारिणां मनसि 'अप्पियं होई अप्रियं भवति दुःखं भवति तथा ते वदन्ति 'सत्ता कामेहिं गिद्धा सत्त्वाः कामेषु गृद्धाः-गृद्धिभावं पाताः, यद्यपि साधुरयं तथापि प्राकृतपुरुपवर स्त्रीवदनाऽवलोकनव्यग्रचित्तः परित्यक्तसंयमव्यापारोऽनया निर्लज्जया निर्लज्जस्तिष्ठति । ____ अन्वयार्थ--किती समय एकान्त में स्त्री के साथ बैठे हुए साधुको देख कर उसके ज्ञातिजनों एवं सुहृदों को बुरा लगता है। ये ऐसा समझते हैं कि ये साधु भी कामभोगों में आसक्त हैं, गृद्ध हैं। तब ये उससे कहते हैं-तुम इसके मनुष्य हो तो इसका रक्षण और पोषण करो ॥ १४ ॥ टीकार्थ--किसी लषय एकान्त स्थान में स्त्रियों के साथ बैठे हुए साधु को देखकर उस स्त्री के ज्ञातिजनों को तथा सुखदों (मित्रों) को अप्रिय लगता है-दुख होता है । वे कहते हैं-यह कामभोगों में आसक्त है । यद्यपि यह साधु है तथापि सामान्य पुरुष के समान स्त्रियों का मुख देखने में इसका मन लगा है। इसने संयमानुष्ठान का परित्याग कर સૂત્રાર્થ–કેઈ પણ સમયે સ્ત્રી સાથે એકાન્તમાં બેઠેલા સાધુને જોઈને તેના જ્ઞાતિજને અને મિત્રોને તેના ચારિત્રના વિષયમાં શંકા થવાથી દુઃખ થાય છે. તેઓ એવું ધારી લે છે કે દીક્ષા અંગીકાર કરવા છતાં પણ આ સાધુ કામગોમાં આસક્ત છે- પૃદ્ધ છે. ત્યારે તેઓ તેને કહે છે કે તમે આ સ્ત્રીના ધણી છે, તે તેનું રક્ષણ અને પિષણ કરે. ૧૪ ટીકાર્ય–કયારેક સાધુને કોઈ સ્ત્રી સાથે એકાન્તમાં બેઠેલા જોઈને તે સ્ત્રીના જ્ઞાતિજને અને સુદ (ભાઈબંધુઓ)ને દુઃખ થાય છે. તેઓ તેમના પ્રત્યે શંકાશીલ બને છે. તેઓ એવી કલ્પના કરે છે કે સાધુ હોવા છતાં આ પુરુષ કામમાં આસક્ત છે. સામાન્ય લોકોની જેમ આ સાધુનું મન પણ સ્ત્રીઓમાં આસક્ત છે. તેણે સંયમાનુષ્ઠાનનો ત્યાગ કર્યો છે તે સંયમથી ભ્રષ્ટ થઈ ચૂક્યો છે. તે એટલે બધે નિર્લજજ બની ગયે છે કે આ નિર્લજજ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. स. ४ उ. १ स्त्रीपरीपहनिरूपणम् २३७ यद्यपि अस्य शरीरं दुर्गन्धं मलिनं सर्वथा गृहत्यागोपि कृतः किन्तु कामवान्छा भवत्येवेति । तदुक्तम् 'मुण्डं शिरोवदनमेतदनिष्ट गन्धं, भिक्षाशनेन भरणं च हतोदरस्य । गात्रं मछेन मलिनं गतसर्वशोभ, चित्रं तथापि मनसो मदनस्ति धान्छ ।।।१।। तथाऽतिक्रोधधिया वदन्ति च-भोः ? 'रक्खणपोसणे मणुस्तोऽसि' रक्षणपोषणे मनुष्योऽसि-अस्याः संरक्षणं पोषणं च कः करिष्यति, त्वमेव रक्षणं पोषणं च कुरु । सह त्वयेयं गृहकार्याणि त्यक्त्वा विष्ठति। अतोऽस्यै को दास्यत्यशनं करिष्यति च संरक्षणमिति, त्वमेव रक्षणं पोपणं कुरु इति ॥१४॥ दिया है। यह निर्लज्ज इस निर्लज्जा स्त्री के साथ बैठा है । यद्यपि इसका शरीर दुर्गन्धित है, मलीन है और इसने घर का स्थान कर दिया है। किन्तु काम की अभिलाषा अब भी नहीं मिटी है। कहा है'मुण्डं शिरो' इत्यादि। "यद्यपि इसका मस्तक मुण्डित है, शरीर से अभियगंध निकल रही है, भीख मांगकर पेट पालता है, शरीर मल से मलीन है और समस्त प्रकार की शोभा से हीन है, फिर भी आश्चर्य है कि इसके मन में काम की अभिलाषा विद्यमान है।" तथा वे क्रोध से युक्त होकर कहले लगते हैं-अरे, इसका रक्षण और पोषण कौन करेगा ? तुम्ही इसके मनुष्य (पत्ति) हो, तुम्ही इसका रक्षण पोषण करो । घरमा कामकाज छोड़कर यह तुम्हारे साथ ही સ્ત્રી સાથે બેસતાં પણ શરમાતું નથી. જો કે તેનું શરીર મલીન છે, દુર્ગવ થત છે અને તેણે ઘરને ત્યાગ કર્યો છે, છતાં પણ તેની કામવાસના નષ્ટ थ नथी. यु. ५ छ ?--"मुण्डं शिरो' त्याह-- જો કે તેને માથે મુડે છે, તેના શરીરમાંથી અપ્રિય ગંધ નીકળી રહી છે. ભીખ માગીને પેટ ભરે છે, શરીર મેલને લીધે મલીન છે અને શોભાથી બિલકુલ રહિત છે, છતાં પણ તેના મનમાંથી કામની અભિલાષા નષ્ટ થઈ નથી, એ કેવું આશ્ચર્યજનક છે! તેઓ કોધાયમાન થઈને તે સાધુને આવા કઠોર વચને કહે છે આ સ્ત્રીની સાથે કામગ સેવનારા હે સાધુ! જે આ સ્ત્રી ઘરનું કામ કાજ છેડીને તારી સાથે બેસીને પ્રેમગોષ્ઠી કર્યા કરશે, તો તેનું રક્ષણ અને પષણ કોણ કરશે? તમે જ તેના સ્વામી છે, તે તમે જ તેનું રક્ષણ અને Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ सूत्रेताङ्गसूत्रे मूलम्-लमणपि देणुदालीणं तत्थ वि ताव एगे कुप्पंति । अदुवा भोयणेहिं गत्थेहि इथीदोलतंकिणो होति ॥१५॥ छाया-श्रमणमपि दृष्ट्वोदासीनं तत्रापि तावदेके कुप्यन्ति । ___ अथवा भोजनैन्यस्तैः स्त्रीदोपङ्किनो भवन्ति ॥१५॥ अन्वयार्थ:-(उदासीणं पि समर्ण) उदासीनमपि श्रमणं-रागद्वेपरदित्तमपि साधुम् (दण) दृष्ट्वा-एकान्ते स्त्रिया सह (तत्य वि) तत्रापि (एगे ताव कुपति) एके तावत् कुप्यंति केचित् क्रुझा भवन्ति (इत्थीदोससंकिणो होति) स्त्रीदोपशडिनो जनाः बैठनी है ! कौन इसे खाने को देगा? कौन इसकी रक्षा करेगा ? तुम्हीं सब करो ।। १४ ॥ सूत्रकार पुनः कहते है-'सानणं वि' इत्यादि। शब्दार्थ-'उदालीसिनण-उदासीनमपि श्रमणम्' रागद्वे पवर्जित तपस्वी साधुको भी 'दाग-दृष्ट्वा एसान्त स्थान में स्त्रीके साथ वार्तालाप करते हए देखकर 'तत्य वि-तत्रापि उसमें भी 'एगे तार कुप्पत्तिएके तावत् कुवंति' कोई कोई क्रोध युक्त हो जाते हैं 'इत्थीदोस संकिणो होति-स्त्रीदोषशक्षिनो भवन्ति' और वे धीमे दोषझी शडा करते हैं 'अदुवा-अथवा' अथवा 'जत्थेहिं भोयणेहि-न्यस्तै भोजलै' वे लोग मानते है कि यह स्त्री साधुकी प्रेमिका है, इसीलिये नानाविध आहार तैयार करके साधुको देनी है ॥१५॥ अन्वयार्थ---उदासीन अर्थात् रागद्वेष ले रहित साधु को भी स्त्री के साथ बैठा देखकर कोई कोई क्रुद्ध हो जाते हैं, क्योंकि मनुष्य स्त्रीलंबंधी પિષણ કરો. આ પ્રકારે સંયમને માર્ગ છોડને તે સ્ત્રી સાથે ઘર માંડવાની તે સાધુને તેઓ સલાહ આપે છે. ૧૪ वजी सूत्रा२ ४ छ-'समणं पि' त्याह-- शहा–'उदासीण पि समणं-उदासीनम पिश्रमणम्' रागद्वेषी २डित ती साधुन ५२५ दश्ण-दृष्ट्वा' सान्त स्थानमा स्त्रीनी साथे पातासाय २i नन 'तत्थवि-तत्रापि' मा ५९] 'एगे ताव कुप्पंति-एके तावत् कुप्यन्ति' श्रीधयुत नी तय छे. 'इत्थीदोससंकिणो हति-स्त्रीदोषशेकिनो भवन्ति' तमस तसा सीना होषनी श ३ छे. 'अदुवा-अथवा' अस२ ‘णत्यहि भोयणेहि-न्यस्तैः जनः' से । भान छ ?-21 श्री साधुनी પ્રેમિકા છે, તેથી અનેક પ્રકારને આહાર તૈયાર કરીને સાધુને આપે છે. ૧૫ સૂત્રાર્થ–રાગદ્વેષથી રહિત સાધુને પણ સ્ત્રીની સાથે એકાન્તમાં બેઠેલા જોઈને, તેની સાથેના આડા વહેવારની કલ્પના કરીને કેઈ કઈ પુરુષો કપાય Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरी पहनिरूपणम् • २३९ भवन्ति (अदुवा ) अथवा ( जत्थेहि भोयणेर्हि) न्यस्तैर्भोजनैः इयं स्त्री साधोः मेमिका येनानेकविधभोजनादिकं निर्माय साधवे प्रयच्छतीति एवमेके जानन्तीति ॥ १५ ॥ टीका -- 'उदासीणं' उदासीनं रागद्वेषरहिततथा माध्यस्थप्रभावेन युक्तमपि 'समणं' श्रमणम्, तपसा क्षीणशरीरमाथि 'दहूण' दृष्ट्वा एकान्ते स्त्रिया सह वार्ता - लापादि कुर्वन्तं दृष्ट्वा तत्यवि' तत्रापि तादृशव्यापारे स्थिते 'एगे' एके पुरुषाः तावत् 'कुप्पंति' कुप्यन्ति कोपमधिगच्छन्ति । माध्यस्थ्यभावं भजमानमपि दृष्ट्वा स्त्रिया सह वार्तालापादिकं कुर्वन्तम् तदा का कथा ततः परं ह्री संगं कुर्वन्तं दृष्ट्वा । अथ ' इत्थोदोपसंकियो होति' खोदोपशङ्किनो : भवन्ति - स्त्रियं प्रत्यपि शंकाशीला भवन्ति । पुनरपि 'भोषणेहिं जत्थेहिं' भोजने - न्यैस्तैः - नानाविधाहारैः साध्यर्थमुपकल्पितैः भयवा भोजनैः श्वशुरादीनां न्यस्तैः अर्धदत्तैः सद्भिः सा वधूः साध्यागमनेन समाकुलीभूता सती अन्यस्मिन्द्र दातव्येदोष की आशंका करते हैं । अथवा कोई ऐसा समझते हैं कि इस स्त्री कालाधु पर अनुराग है, क्योंकि यह विविध प्रकार का भोजन बनाकर साधुको देती है || १५ ॥ ! टीकार्थ-राग और द्वेष से रहित होने के कारण मध्यस्थ भाव से युक्त तथा तपश्चरण के कारण कृशकाय भी खाधु को एकान्त में स्त्रीके साथ वार्त्तालाप करते देखकर कोई कोई पुरुष कुपित हो जाते हैं । वे उस स्त्री के प्रति भी शंकाशील हो उठते हैं । तथा साधु के लिए नाना प्रकार के भोजन बनाने से अथवा श्वशुर आदि के लिए भोजन रक्खा हो और उसमें से आधा उन्हें दिया हो और साधु के आने पर वह घघराहट में आकर एक चीज के बदले दूसरी चीज परोस दे तो उन्हें માન થાય છે; અથવા સાધુને સારી સારી વસ્તુએ બનાવીને વહેારાવતી સ્ત્રીને જોઈને લેાકા એવા સંદેહ કરવા લાગે છે કે આ સ્ત્રીના આ સાધુ પર અનુરાગ છે, તેથી જ તેમને સારાં સારાં ભેજના પ્રદાન કરે છે. ૫૧ાા ટીકા”—સાધુ ભલે રાગદ્વેષથી રહિત હવાને કારણે મધ્યસ્થ ભાવયુક્ત હાય, ભલે તપસ્યાને કારણે તેની કાયા કૃશ થઈ ગઇ હાય, પરન્તુ એવા રાગ દ્વેષ રહિત કૃશકાય સાધુને પણુ કાઈ સ્ત્રી સાથે એકાન્તમાં વાર્તાલાપ કરતાં જોઇને કાઈ કાઇ પુરૂષો કપાયમાન થઈ જાય છે તેએ તે સાધુ અને તે સ્ત્રીના ચારિત્ર વિષે સદેહ કરવા લાગે છે સાધુને માટે સારાં સારાં ભેજન મનાવે, અથવા પતિ, સસરા સ્માદિને માટે વિવિધ વાનગીઓ બનાવી હાય, તેમાંથી અર્ધો આહાર સાધુને વહેારાવી દે, અને પછી ગભરાટને કારણે પતિ, સસરા આદિને Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ सूत्रकृताइसूत्रे ऽन्यवाद ततस्ते स्त्रीदोपशंकिनो भवन्ति, अर्थगत्या इयं स्त्री अवश्यमेव साधुसंगं करोति, यतः साधये विशिष्ट भोजनादिकं दत्त्या तेन साधुना सह पुरुषान्तरयजिते विविक्तस्थाने उपविशति इत्यादि। अवश्यमेवेयं चरित्रभ्रष्टा । कथमन्यथा पुरुपान्तरेण सहेत्थंभूतमाचरति समुदाधार मिति । दृष्टान्तोपि-कयाचिद् स्त्रिया मालमध्ये पारधन्टरेक्षणैकचित्ततया पतिश्वशुरयो जनार्थमुपविटयोस्तण्डुला इति कृल्या राइताः दत्ताः ततोऽसौ श्वशुरेणोपलक्षिवा पत्या च क्रुद्धन ताडिता गृहानिष्कासिता इति ॥१५॥ मूलम्-कुवंति संथनं ताहि पहा लमाहिजोगेहिं। तम्हा लमणाण सति आयहिया सपिणलेजाओ॥१६॥ उसके प्रति शंका उत्पन्न हो जाती है। वे यह सोचने लगते हैं कि यह स्त्री अवश्य साधु का संग करती है इसी कारण साधु को विशिष्ट भोजन देकर उसके साथ अन्य पुरुषों से रहित एकान्त स्थान में बैठती है । अवश्य ही यह चरित्र ले भ्रष्ट हो गई है। नहीं तो परपुरुष के साथ ऐसा व्यवहार क्यों करती है ? इस विषय में एक दृष्टान्त है किती ग्राम में नट का खेल हो रहा था। एक स्त्री का मन उस खेल में लगा था। ऐसी स्थिति में उसका पति और श्वशुर भोजन करने बैठे । अन्यमनस्क होने के कारण उसने चाबलों के स्थान पर राइता परोक दिया। श्वशुर उसे समझ गया। पति ने क्रुद्ध होकर ताडना की और उसे घर से निकाल दिया ।१५। એક વસ્તુને બદલે બીજી વસ્તુ પીરસી દે, તે તેમના હૃદયમાં તે સ્ત્રી પ્રત્યે સંદેહ જાગૃત થાય છે તેઓ એવું ધારી લે છે કે આ સ્ત્રી અવશ્ય આ સાધુમાં આસક્ત બની છે, તે કારણે જ તે આ સાધુને વિશિષ્ટ જન પ્રદાન કરે છે, અને તેની સાથે એકાન્તમાં વાર્તાલાપ કરે છે. આ સ્ત્રી ચોક્કસ ચારિત્ર ભ્રષ્ટ થઈ ગઈ છે, નહીં તો પરપુરૂષની સાથે આવું વર્તન શા માટે કરે ? આ પ્રકારને સંદેહ પ્રકટ કરતું એક દષ્ટાન્ત હવે આપવામાં આવે છેકેઈ એક ગામમાં નટકોને ખેલ ચાલી રહ્યો હતો કેઈ એક સ્ત્રીનું મન તે ખેલ જોવામાં લીન થઈ ગયું હતું. એવામાં તેના પતિ અને સસરા ઘેર આવ્યા. અન્યમનસક હોવાને કારણે તેણે ભાતને બદલે રાઈતુ પીરસ્યું તેનું કારણ સસરા જાણી ગયા. તે સ્ત્રીને નટમાં આસક્ત થયેલી માનીને પતિએ ખૂબ જ માર માર્યો અને તેને ઘરમાંથી બહાર કાઢી મૂકી, ૧૫ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.४ उ.१ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २४१ छाया--कुर्वन्ति संस्तवं ताभिः प्रभ्रष्टाः समाधियोगेभ्यः । तस्मात् श्रमणा न संयन्ति आत्महिताय संनिषद्याः॥१६॥ अन्वयार्थ:--(समाहिजोगेहि) समाधियोगैः-धर्मध्यानात् (पन्भट्टा) मनष्टाः एच (ताहिं) तामिः-स्त्रीभिः सह (संथवं) संस्तर-परिचयं (कुव्वंति) कुर्वन्ति (तम्हा) तस्मात् कारणात् (समणा) श्रमणाः (आयहियाए) आत्महिताय (सणिसेज्जाओ) संनिषद्याः स्त्रीनिवासस्थानानि (ण समेति) न संयन्ति-न गच्छन्तीति ॥१६॥ टीका--'समाहिजोगेहि' समाधियोगेभ्यः-तत्र समाधिः धर्मध्यानं तदर्थ योगाः मनोवाक्कायव्यापारास्तेभ्यः 'पभट्टा' प्रभ्रष्टाः पुरुषाः शिथिलविहारिणः शब्दार्थ--'समाहिजोगेहि-समाधियोगैः' सम्माधियोग अर्थात् धर्मध्यानसे 'पभट्ठा-प्रभ्रष्टा' भ्रष्ट पुरुष ही 'साहि-ताभिः' स्त्रियों के साथ 'संथवं-संस्तरम्' परिचय 'कुव्वंति-कुर्वन्ति' करते हैं 'तम्हा-- तस्मात्' इसलिये 'सम्भणा-श्रमणाः' लाधु 'आयहिथाए-आत्महिताय' अपने हितके लिये 'सण्णिसेन्जाओ-संनिषद्याः' स्त्रियों के स्थान पर 'ण समेति-न संपन्ति' नहीं जाते हैं ॥१६॥ ___ अन्वयार्थ-जो समाधियोग से भ्रष्ट हैं वे ही स्त्रियों के साथ परिचय करते हैं। अतएव अपनी आत्मा के हित के लिए श्रमण को स्त्री के स्थान पर नहीं जाना चाहिए ॥१६॥ __टीकार्थ-समाधि का अर्थ है धर्मध्यान । समाधि के लिए मन बच्चन और काय का जो व्यापार किया जाता है उसे समाधियोग कहते है। जो समाधियोगों से भ्रष्ट हैं अर्थात् शिथिलाचारी हैं, वे ही स्त्रियों . हाथ-'समाहिजोगेहि-समाधियोगैः' समाधिया। मात धमध्यानयी 'पन्भट्टा-प्रभ्रष्टाः' भ्रष्ट ५३१ । 'ताहि-ताभिः' अियानी साथ 'संथन-संस्तवम्' पश्यिय 'फुव्वंति-कुर्वन्ति' ४२ छ, 'तम्हा-तस्मात्' ते १२वो 'समणा-धमणा" साधु 'आयहियाए-आत्महिताय' पोताना हित मोटे 'सण्णिसेजाओ-संनिषधाः' श्रियाना स्थानमा ‘ण समेति-न संयन्ति' तानथा. ॥१॥ સૂત્રાર્થ-જેઓ સમાધિગથી ભ્રષ્ટ છે-શિથિલાચારી છે, તેઓ જ સ્ત્રીઓની સાથે પરિચય કરે છે. આ વાતને બરાબર સમજી લઈને આત્મહિત સાધવાની અભિલાષા રાખનાર પ્રમાણે સ્ત્રીના નિવાસસ્થાનમાં જવું જોઈએ નહી ૧દા ટીકાર્થ–સમાધિ એટલે ધર્મધ્યાન. સમાધિને માટે મન, વચન અને કાયાની જે પ્રવૃત્તિ કરવામાં આવે છે, તેને સમાધિયોગ કહે છે. એ સમાધિગથી ભ્રષ્ટ છે, એટલે કે જેઓ શિથિલાચારી છે, તેઓ જ स० ३१ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे . 'साहि' तामिः स्वीभिः सह, 'संथ' संस्तर-परिचयं कुर्वन्ति । यस्मात् कारणात् स्त्रीपरिचयात् पथभ्रष्टाः भवन्ति 'तम्हा' तस्माद कारणात् 'समणा' श्रमणाः साधवः 'आपहियाए' आत्महिताय स्त्रीणां संबन्धाऽसावे स्वसीय हितमेव भवियतीति मन्यमानाः 'सणि सेन्नाभो' संनिपया:-सं-सम्यक्ष निपीदन्ति-उपविशन्ति स्त्रियो यत्र सा सन्निपद्या-ताः सनिएद्याः क्षीणामासस्थानानि । 'न समेंति' न संयन्ति-तपच्छन्ति नीभिः सह संपर्क नन कुर्वन्ति । स्वासह संग वार्तालापं तत्स्थानादौ गमनादिकं सर्वत्र परित्यजन्ति मोक्षामिकापिणः श्रमणाः ॥१६॥ : साधूनामपि स्त्रीपरिचात् पतनं भवतीति प्रतिपादितम् । तत्र पृच्छयतेकिं प्रव्रज्यां स्वीकृत्यापि कश्चित् स्त्रीसम्पर्क करोति कृतवान् करिष्यति पेति के साथ संस्तर-परिचय करते हैं, क्योंकि स्त्रीपरिचय से पथभ्रष्ट होना .. पडता है । श्रमण आत्महित के लिए अर्थात् यह मानकर कि स्त्रियों के साथ सम्बन्ध न रखने से आरमा का श्रेय ही होगा, कमी स्त्रियों के निवासस्थान पर न जाए, उनके साथ सम्पर्क न करे मोक्षाभिलाषी .संन्त पुरुष स्त्रियों के संसर्ग का, उनके साथ वार्तालाप करने का और उनके निवासस्थान में जाने का सभी प्रकार ऐले के संलगों का त्याग करते हैं ॥ १६ ॥ : स्त्रियों के साथ परिचय करने से साधुओं का भी पतन हो जाता है, यह प्रतिपादन किया जा चुका है। अब प्रश्न यह है कि क्या दीक्षा સ્ત્રીઓને સમાગમ સેવે છે. એવા પુરૂષ સમાધિયોગ (ધર્મધ્યાન) માં ચિત્ત पशवी ता नथी, ते २0 तेमने पथभ्रष्ट (माक्षभायी हरयेसा) કહી શકાય છે. શ્રમણે કદી પણ સ્ત્રિઓના નિવાસસ્થાનમાં જવું જોઈએ નહીં ' અને તેમનો સંપર્ક સેવ જોઈએ નહીં. તેણે એ વાતને મનમાં વિશ્વાસપૂર્વક અવધારણ કરવી જોઈએ કે સિઓનો સમાગમ નહીં કરવાથી જ પિતાના આત્માનું કલ્યાણ સાધી શકાશે. આ વાતને અંતઃકરણમાં કેતરી લઈને મોક્ષાભિલાષી સંત પુરૂષો સ્ત્રીઓના સંસર્ગનો ત્યાગ કરે છે, તેમની સાથે વાર્તાલાપ પણ કરતા નથી અને તેમના નિવાસસ્થાનમાં પ્રવેશ પણ કરતા નથી. આ अरे तेया खाना सपना सपूत त्याग २ -छ, ।।१६। સ્ત્રિઓની સાથે પરિચય કરવાથી સાધુઓનું પણ પતન થઈ જાય છે, એ વાતનું પ્રતિપાદન થઈ ચૂકયું. હવે એ પ્રશ્ન ઉદ્ભવે છે કે “શું દીક્ષા Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. स. ४ उ. १ स्त्रीपरीपहनिरूपणम् शङ्कायां सूत्रकार आह--'यहवे गिहाई इत्यादि। । मूलम्-बहवे गिहाई अहह मिलीशानं पत्थुया य एंगे। " धुबसग्गमेव पर्वयंति वाया बीरिय कुसीलाणं ॥१७॥ छाया--बहवो गृहाणि अवहत्य मिश्रीभावं प्रस्तुताश्च एके। ... ध्रुवमार्गमेव प्रवदन्ति बाबा वीर्य कुशीलानाम् ॥१७॥ - अन्वयार्थ:-(वहवे एगे) वहन एके (गिहाई अवहह) गृहाणि अवहत्य परित्यज्य (मिस्सीभावं पत्थुया) मिश्रीभावं प्रस्तुता:-गृहल्यासंचितमाधुमार्ग स्वीकृत्य अंगीकार करके भी कोई स्त्री सम्पर्क करता है ? पिसीने किया है ? कोई करेगा? इसका उत्तर देते हुए सूत्रकार कहते हैं 'बह गिहाई' इत्यादि। शब्दार्थ--'यहवे एरो-महय एके' बहुतले लोग 'मिहाई अवहट्टगृहाणि अपहत्य घरसे निकल कर अर्थात् प्रवजित होकर भी 'मिस्सी. भावं पत्थुया-मिश्रीभावं प्रस्तुताः' मिश्रमार्ग अर्थात् कुछ गृहस्थ और कुछ साधुके आचारको स्वीकार कर लेते हैं 'धुवागमेव पश्यंति-- ध्रुवमार्गलेध प्रवदन्ति' और वे कहते हैं कि हमने जो मार्गको अनु. ष्ठान किया है वह मार्ग ही मोक्ष का मार्ग है 'बायावीरियं कुसीलाणंवाचा वीर्य कुशीलानाम्' कुशीलों के वचन में ही शूरवीरता है अनु. ष्ठान में नहीं ॥१७॥ अन्वयार्थ--बहुत से लोग गृहों (घरों) का त्याग करके मिश्रभाव को प्राप्त होते हैं। अर्थात् वे गृहस्थ झा और साधु का मिश्रित અંગીકાર કર્યા બાદ પણ કઈ સાધુ સ્ત્રીસંપર્ક કરે છે ખરો? શું કેઈએ કર્યો છે ખરે? શું કઈ કરશે ખરાં ? આ પ્રશ્નનો ઉત્તર આપતા સૂત્રકાર કહે છે કે___'वहवे गिहाइ' त्या: -'बहदे एगे-बहर एके' था सो 'गिहाई अवहट्ट-गृहाणि अपंहत्य' ३२थी नीजान अर्थात प्रत्रत ५४२ ५ ‘मिस्सीभावं पत्थुया-मिश्रीभावं प्रस्तुता.' मिश्रा अर्थात् ५ १९२५ मने ४४ साधुना सायानी २४२ शो छ, 'धुवमगामेव पवयंति-ध्रुवमार्गमेव प्रवदन्ति' म२ तेन्मे।४ છે કે–અમે જે માર્ગનું અનુષ્ઠાન કર્યું છે, તે માર્ગ જ મોક્ષના માર્ગ છે. 'वायावीरियं कुसीलाणं-वाचावीर्य कुशीलानाम्' शासन क्यामir શુરવીરપણું છે. અનુછાનમાં નહીં. આવા સૂત્રાર્થ—–ઘણા લેક ગૃહનો ત્યાગ કરીને મિશ્ર વ્યવહારરૂપ મિશ્રીભાવથી યુક્ત થતા હોય છે એટલે કે દીક્ષા ગ્રહણ કર્યા બાદ સાધુ અને ગૃહરથને Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे (Yaaron पवति) ध्रुवमार्गमेव प्रवदन्ति - मदनुष्ठितमार्ग एव मोक्षमापक इति कथयन्ति (वाया वीरियं कुसीलाणं) वाचा वीर्य कुशीलानाम्-कुशीला बचने एव सामर्थ्यवन्तो भवन्ति न तु कर्मानुष्ठाने इति ॥ १७॥ टीका–‘वहवे’बहवः पुरुषाः ‘एगे' केचन 'गिहाई' अहड्ड' गृहाणि परित्यज्य, प्रव्रज्यां गृहीत्वा पुनः 'मिस्सीभावं पत्थुया' मिश्रीमाचं प्रस्तुता : =माप्ताः = देशतः साधवः देशतश्च गृहस्थाः । न वा सर्वथा साधवः न वा सर्वथा गृहस्थाः किन्तु मध्यममार्गमाश्रिताः, एवंभूतास्ते 'धुवमग्गमेव पवयंति' ध्रुवमार्गमेव प्रवदन्ति भुत्रो मोक्षः संयमो वा तं प्रवदन्ति, अस्मदनुष्ठितमार्ग एव मोक्षमार्ग इति कथयन्ति (वाया वीरियं कुसीलाणं) वाचा वीर्य कुशीलानाम् कुशीळव्यवहार करते हैं । वे दावा करते हैं कि हमारे द्वारा आचीर्ण मार्ग ही मोक्षप्रापक है किन्तु कुशीलजन वचन के ही वीर होते हैं कर्म (क्रिया) में वीर नहीं होते ||१७|| टीकार्थ - बहुतेरे जन घर त्याग कर अर्थात् प्रव्रज्या स्वीकार करके साधु और गृहस्थ का मिला-जुला आचरण करते हैं । कुछ क्रियाएँ साधुकी और कुछ गृहस्थ की करते हैं । वे न पूर्णरूप से साधु हैं, न पूरे 'गृहस्थ ही । दोनों के मध्य के मार्ग को अपनाते हैं । उनका यह कहना होता है कि हम जो कहते या करते हैं, वही मोक्ष का मार्ग है । किन्तु कुशीलों का वीर्य (पराक्रम) वचन में ही होता है अर्थात् अवसन, पार्श्वस्थ, संसक्त, यथाछन्द तथा कुशील, यह पांच प्रकार के शिथिलाचारी वचन व्यवहार में ही चतुर होते हैं, धर्मानुष्ठान में नहीं । अपने आचीर्ण मार्ग को ही वे संगम और मोक्ष का मार्ग कहते हैं । वे મિશ્રિત વ્યવહાર આચરતા હાય છે. તેઓ એવા દાવેા કરે છે કે અમે જે માને અનુસરી રહ્યા છીએ, તે માર્ગનું અનુસરણ કરવાથી મેાક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે. પરંતુ કુશીલ માણુસા વાણીશૂરા જ હાય છે-તેએ કમ માં (ક્રિયામાં— આચરણમાં) શૂર હાતા નથી. ૫૧૭ાા ટીકા ઘણા લેાકેા ઘરના ત્યાગ કરીને એટલે કે દીક્ષા અ’ગીકાર કરીને સાધુ અને ગૃહસ્થેાતા જેવું મન્નેના મિશ્રિત વ્યવહાર જેવું આચરણ કરે છે-તે કેટલીક સાધુની ક્રિયાઓનું પાલન કરે છે અને તેમની કેટલીક ક્રિયાએ ગૃહસ્થના જેવી જ હાય છે. તેથી તેએ પૂરા સાધુ પણ નથી અને પૂરા ગૃહસ્થ પશુ નથી, પરન્તુ મનેની મધ્યના માને અપનાવે છે. તેએ એવું પ્રતિપાદન કરે છે કે અમે જે કહીએ છીએ અથવા કરીએ છીએ, Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोधिनी टीका. ध्रु. अ. ४ उं. १ स्त्रीपरीषंह निरूपणम् २४५ पदम् अवसन्नपार्श्व स्थसंसक्तयथाछंदानां ग्राहकम् पञ्चप्रकारा अपि कुशीलादयो वचने एव चतुरा भवन्ति न तु धर्मानुष्ठाने, स्वानुष्ठितमेव मार्ग मोक्षसंयमयोनिंaft प्रवदन्ति । ते वाणीमात्रेणैव वयं साधव इति ब्रुवते, न तु तेषां कुशीलानाम् ऋद्धिरससातगौरवजालग्रस्तानाम् शिथिलविहारिणां, सदनुष्ठानजनितं वीर्य ते वाचा सामर्थ्यं स्वान्तर्धारयन्ति । ते द्रव्यलिङ्गधारिणो वाणीमात्रेणैव साधवः, न तु संयमाचरणमयुक्ताः इति ॥ १७ ॥ मूलम् -सुंद्धं खइ परिसाए अह रहस्संमि दुकेडं करे | जाणंति य णं तहीविदा माइले महासढेऽयति ॥१८॥ छाया - शुद्धं रौति परिषदि अथ रहसि दुष्कृतं करोति । जानन्ति च तथाविदो मायावी महाशठोऽयमिति ॥ १८ ॥ वचन मात्र के ही शूरवीर हैं कर्त्तव्य के नहीं 'ऋद्धि गौरव, रसगौरव और सात गौरव के जाल में फँसे हुए, शिथिलाचारी कुशीलों के अन्तर में सदनुष्ठान द्वारा जनित वीर्य - सामर्थ्य नहीं होता । वे द्रव्यलिंगधारी वाणी मात्र से ही साधु हैं । संयम का आचरण न करने के कारण उन्हें साधु नहीं कहा जा सकता ||१७|| शब्दार्थ - - ' परिसाए- परिषदि' वह कुशील पुरुष सभामें 'सुद्धं रवह - शुद्धं रौति' अपने को शुद्ध कहता है 'अह - अथ' परंतु 'रहस्संमिએજ મેાક્ષના માગ છે. પરન્તુ કુશીલ પુરુષો વાણીશૂરા જ હાય છે તે ધર્માનુષ્ઠાનમાં શા હૈ।તા નથી. यांय अारना शिथिताथारी थे। उद्या छे. - (१) अवसन्न, (२) पार्श्वस्थ (3) संसक्त, (४) यथाछन् भने (4) शी. ते शिथिलायारीओ मोसवामां જ શૂરા હોય છે, ધાર્મિક અનુષ્ઠાને આચરવાના સામર્થ્યથી તેએ રહિત હાય છે. તેઓ જે માને અનુસરતા હાય છે તે માને પેાતાના આચીણુ સાગને જ સયમ અને મેાક્ષના માગ કહે છે. તેઓ માત્ર મેાલવામાં જ શૂરા હાય છે, કન્યમાં શૂરા હાતા નથી.ઋદ્ધિગૌરવ, રસગૌરવ અને માતાગૌરવની જાળમાં ફસાયેલા તે શિથિલાચારી કુશીલાના અન્તરમાં સદअनुष्ठानद्वारा नित वीर्य (सामर्थ्य) तो सहभाव होतो नथी. ते द्रव्यલિંગધારી સાધુએ નામના જ સાધુ છે, સંયમનુ... આચરણ ન કરવાને કારણે ખરી રીતે તેા તેમને સાધુ કહી શકાય જ નહી. ૫૧૭ણા शब्दार्थ- परिखाए- परिषदि ' घोताने शुद्ध कुडे छे. 'अह - अथ' सुशील पु३ष सलाभां 'सुद्धं रखति - शुद्धं रौति' २'तु 'रहस्संमि - रहसि ' येान्तमां 'दुक्कड Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “सूत्रकृतासूत्रे अन्ययार्थः -- ( परिसाए परिषदि सभायां (सद्धं वइ) शुद्धं रौति=आत्मानं विशुद्ध साप (अ) अथ (रस्समि) रहसि एकान्ते (दुक्क) करे ) दुष्कृतम् असंयमानुष्ठानं करोति |- ( तहाविदा) तथाविदः - अङ्गचेष्टाज्ञानवन्तः पुरुषाः 'जाति' जानन्ति (अयं ) अयम् ( माइल्ले महासढे ) मायावी महाराठ इति, निपुणपुरुषाः महाशठोयमिति जानन्ति ॥ १८ ॥ , टीका -- स कुशीलः वाङ्मात्रेण प्रकाशितस्त्रवीर्यः । 'परिसाए' परिषदि - सभायां 'शुद्ध' शुद्ध - अपगतदोपं स्वात्मानं स्वकीयानुष्ठानं च निर्मलम् । 'वह' aौति मापते ' अ ' अथ च 'रहस्ift' रहसि एकान्ते, 'दुक्कड'' दुष्कृतंदर्पितं स्त्रीसंपर्कादिकुक्कुत्यम् 'करेइ करोति' कुरीति यतः सत्यम् - प्रकाशे सदनुष्ठानं रहसि' एकान्त में 'दुक्कर्ड करेह - दुष्कृतं करोति' पापाचरण करता है 'तहाविदा - तथाविदः' ऐसे को अङ्ग बेष्ट का ज्ञान रखनेवाले पुरुष 'जाणंति - जानन्ति' जान लेते हैं कि 'माइल्लो महासदेयंति - प्रायावी महाशठोऽपनिति' यह माघावी और महाशय है || १८ || अन्वयार्थ -- वे परिषद में अर्थात् जनसमूह में अपने को विशुद्ध कहते हैं किन्तु एकान्त में दुष्कर्म करते हैं । परन्तु विशिष्ट प्रकार के लोग, जो अंग चेष्टा आदि से दूसरे के अन्तरंग को जान लेते हैं, वे जानते हैं कि ये मायावी और महाशठ है ॥ १८ ॥ રમ टीकार्थ- -चचन मात्र से अपने सामर्थ्य को प्रकाशित करनेवाला वह कुशील साधु अपने आपको और अपने अनुष्ठान को विशुद्ध घोषित करता है, परन्तु एकान्त में कुकर्म करता है - स्त्रीसम्पर्क आदि करेइ - दुष्कृतं करोति' यापायर हरे छे. 'तहाविदा - तथाविदः' मेवासाने अजयेष्टाने लघुवावागो युष 'जाणंति - जानन्ति' लगी से छे - 'माइल्लो महासढेयंति - मायावी महाशठोऽयमिति' ते मायावी भने महाशर छे. ॥१८॥ સૂત્રા”—તે શિથિલ ચારીએ પરિષદમાં (લેાકેાના સમૂહમાં) એવુ' કહે છે કે અમે વિશુદ્ધ છીએ, પરન્તુ તેએ એકાન્તમાં દુષ્કર્મનું સેવન કરતા હાય છે. પરન્તુ અંગચેષ્ટા આદિ દ્વારા અન્યના અન્તર્ગને જાણવામાં નિપુણ હાય એવા ચતુર પુરુષો તે એ વાતને બરાબર જાણી જાય છે કે આ લેાકેા भायावी (यी) भने महाश छे. ॥१८॥ ટીકા—વાણીશૂરા તે કુશીલ સાધુએ પેાતાના ચારિત્રને અને અનુ છાનાને વિશુદ્ધ જાહેર કરે છે-તેએ વિશુદ્ધ હેવાના દભ કરે છે, પરન્તુ તે એકાન્તમાં કુકર્માનું સેવન કરે છે, એટલે કે જાહેરમાં Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ४ उ.१ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् परानुपदिशति, प्रच्छन्ने च स्वयं असंयमजनकं कर्य समाचरति । तादृशं स्वकीयमसदनुष्ठानं गोपायतोऽपि खस्य कुशीलस्य । 'तहाविदा' तथाविदा:इङ्गिताऽऽकारज्ञानकुशला: संयवाचारे निपुणाश्च साधयो गृहस्थाश्च तस्य ताहशाऽसदनुष्ठानम् 'जाणंति' जानन्त्येव । अथवा-सर्वज्ञास्तीर्थकरादयस्तु जानन्त्येव । तेषां परचिचस्याऽपि प्रत्यक्षसंभवात् । “आकारैरिहितगत्या, चेष्टया भाषणेन च। नेत्रवाधिकारैश्च, ज्ञायतेऽन्तर्गतं मनः ॥१॥" , यदा हि आकारप्रकारचिह्न लौकिका अपि परकीयचेतोवृत्तिं जानन्ति । तदा का कथा हस्तामलकर सकलपदार्थदर्शनशीलानां तादृशां महापुरुषाणां सर्वकरता है । अर्थात् प्रकट में तो वह दूसरों को उत्कृष्ट आधार की शिक्षा देता है और एकान्त में स्वयं असंयममय कार्य करता है । इस प्रकार अपने इष्कृत्यों को छिपाने पर भी जो साधु या गृहस्थ मानवीय चेष्टाओं को समझने में कुशल और संयतों के ओचार के ज्ञाता हैं, वे उसके उन दुष्कृत्यों को जान ही लेते हैं । अथवा सर्वज्ञ तीर्थ कर तो जानते ही हैं, क्योंकि परकीय चित्त भी उनके लिये प्रत्यक्ष होता है। कहा है-'आकारै रिङ्गितर्गत्या' इत्यादि। .. 'आकार ले, संकेत से, चाल ले, चेष्टा से, बोली से और नेत्रों तथा मुख के विकार ले मन की बात भी जान ली जाती है । ' -, जब आकार प्रकार आदि चिह्नों से लौकिक जन भी दूसरे की चित्तवृत्ति को जान लेते हैं तो समस्त पदार्थों को हस्तामलक के समान તો તેઓ લોકોને ઉત્કૃષ્ટ આચાની શિક્ષા આપે છે. પરંતુ તેઓ પિતે જ એકાન્તમાં અસંયમમય આચરણ કરે છે. ભલે, તેઓ આ પ્રકાર તેમનાં દુષ્કૃત્યને છુપાવતા હોય, પરંતુ ચતુર પુરુષોથી તેમના દુષ્કૃત્યે અજ્ઞાત રહેતાં નથી. જે માણસને તેની ચેષ્ટાઓ દ્વારા પારખી શકવાને - સમર્થ હોય છે. તથા જેઓ સંય તેના આચારના જાણકાર હોય છે, તેઓ તેમને સાચા સ્વરૂપમાં ઓળખી જાય છે. અથવા સર્વજ્ઞ તીર્થ કરે તો તેમનાં તે કન્યાને જાણે જ છે, કારણ કે અન્યના મનોભાને પણ તેઓ જાણી शवान समय छे ४ ५ छ -'आकारैरिशितैर्गत्या' याहि २थी, सहैतथी, यासथी, यष्टाथी, मालीथी, तथा भुमना विथा અંતકરણની વાતને પણ જાણી શકાય છે, જે આકાર, ચેષ્ટા આદિ દ્વારા આ લોકના ચતુર મનુષ્ય અન્યની ચિત્તવૃત્તિને જાણી લે છે, તે સમસ્ત પદાને હસ્તામંલક (હાથમાં રહેલા આમળાની જેમ) જોઈ શકનારા મહા Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० सूत्रकृताङ्गसूत्रे वेदानुवीचि, वेदोदितमपि मैथुनं मा कुरु' इत्येवं गुरुणा ' चोइज्जं तो' नोद्यमानः 'स भुज्जो' स भूयः 'गिलाइ' ग्लायति, ग्लानिमधिगच्छति । द्रव्यलिंगो साधुरज्ञानी स्वयं स्वपापं न वदति । परेण पृष्टः स्वकीयामात्मश्लाघामेवाविष्करोति । मैथुनं न कर्त्तव्यमिति भूयो भूयो नोद्यमानो विदूयमानेन मनसा दूयमान इवाभाति इति भावः ॥ १९॥ मूलम् - ओसिया वि इत्थिपोसेस पुरिसा इथीवेयखेदन्ना । पण्णासमन्नितायेगें नारीणं वलं उवेकसंति ॥१०॥ छाया - उषिता अपि स्त्रीपोषेषु पुरुषाः स्त्रीवेदखेदजाः । प्रज्ञासमन्विता अप्येके नारीणां वशमुपपन्ति ॥ २० तात्पर्य यह है कि द्रव्यलिंगी अज्ञानी साधु स्वयं अपने पाप को प्रकट नहीं करता है । दूसरा कोई पूछता है तो अपनी प्रशंसा ही करता है | जब उसे मैथुन न करने की प्रेरणा की जाती है तो अनमना जैसा होकर रह जाता है ||१९|| शब्दार्थ - - ' इत्थिपोसेसु-स्त्रीपशेषेपु' स्त्रियों के पालन करने में 'ओसिया वि-उषिता अपि व्यवस्थित होने पर भी 'पुरिसा-पुरुषाः ' जो पुरुष 'इथिवेयखेदन्ना- स्त्री वेदखेदज्ञाः' स्त्रियों के द्वारा होनेवाले खेदों के ज्ञाता होने पर भी 'पण्णासमन्निता वेगे - प्रज्ञासमन्विता अप्येके ' प्रज्ञा- किननेक तो बुद्धि से युक्त होने पर भी 'नारीणं बसं उबकसंतिनारीर्णा वशमुपकर्षन्ति' स्त्रियों के वशीभूत हो जाते हैं ॥२०॥ ત્યારે તે વારે વારે ગ્લાનિને અનુભવ કરે છે. આ કથનનેા ભાવાથ એ છે કે દ્રવ્યલિંગી (માત્ર સાધુને વેષ ધારણુ કરનાર પણ સાધુતા આચારાનું પાલન ન કરનાર) સાધુ જાને પેાતાના પાપને પ્રકટ કરી નથી. જો કેાઈ તેના દુષ્કૃત્ય વિષે પ્રશ્ન પૂછે છે, તે તે આત્મશ્લાઘા જ કરે છે. જ્યારે આચાય આદિ દ્વારા તેને બ્રહ્મચર્યનું પાલન કરવાની પ્રેરણા આપવામાં આવે છે, ત્યારે તે ઉદાસ થઈ જાય છે, તેને એવી શિખામણ પશુ ગમતી નથી. ૫૧૯મા शब्दार्थ --' इत्थोपो से सु- स्त्रीपोपेषु' स्त्रियांना यासन ४२वासां 'ओसिया वि-उपिता अपि' व्यवस्थित होवा छतां पशु 'पुरिया - पुरुषा' ने पुष 'इत्थि वेयखेन्ना-स्त्रीवेदखेदज्ञा.' स्त्रियो द्वारा थवावाणा वेहने लगुवावाजा होवा छतां 'पन्नासमन्निवावे - प्रज्ञासमन्त्रिता अप्येके' - अध अ तो युद्धियुक्त होवा छतां पशु- 'नारीणं वसं उबकसंति-नारीणां वशमुपकपन्ति' स्त्रीयाने अधीन धुंध लय हे ॥२०॥ 1 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीपहनिरूपम् ___ अन्वयार्थः--(इस्थिपोसेसु) स्त्रीपोषेषु-स्त्रीपालने (ओसिया वि) उपिता अपि स्त्रोपोषणादौ व्यवस्थिता अपि (पुरिमा) पुरुषाः (इत्थीवेयखेदन्ना) स्त्रीवेदखेदज्ञाः-स्त्री संपर्क ननितदुःखं जानन्तोऽपि (पण्णासमनिता) प्रज्ञासमन्विता:औत्पत्तिक्यादिबुद्धियुक्ता अपि (एगे) एके (नारीणं वसं उवकसति) नारीणां वशमुपकषन्ति-स्त्रीजिता भवन्ति-स्त्रीचशं गच्छन्तीति ॥२०॥ _____टीका-'इस्थिपोसे नु' स्त्रीपोषेषु स्त्रिय पोषयन्ति ये ते स्त्रीयोपाः व्यापारविशेषाः तेषु 'ओसिया वि' उपिता अपि 'पुरिसा' पुरुषाः स्त्रीणां रक्षणादौ कृतप्रयत्ना अपि 'इत्थीवेयखेदना' स्त्रीवेदखेदज्ञा स्त्रीणां वेदो मायामधा. नकः, तस्मिन्निपुणाः 'पण्णासमन्निता' प्रज्ञा औत्पत्तिकी बुद्धिः तादृशबुद्धया युक्ता अपि पुरुषाः 'वेगे' एके महामोहान्धमनसः । 'नारीण' नारीणाम 'वसं वशम्-अधिकारम् 'उवासंति' उपकपन्ति व्रजन्ति-इत्यर्थः । यथा यथा स्त्री ___ अन्यधार्थ--जो पुरुष स्त्री का पालन पोषण कर चुके हैं और इस कारण जो स्त्री वेदके खेद को जानते हैं अर्थात् भुक्तभोगी होने के कारण जो स्त्री सम्पर्क जनित दुखों को जानते हैं और जो प्रज्ञा से सम्पन्न हैं, उनमें से भी कोई कोई स्त्रियों के वश में हो जाते हैं।२०॥ टीकार्थ--जो स्त्री का पोषण करनेवाले व्यापारों को कर चुके हैं, .. जो स्त्रियों के कपट प्रधान वेद में निपुण हैं तथा जो औत्पत्तिकी बुद्धि : से युक्त हैं ऐसे भी कोई कोई मोहान्य मानसवाले पुरुष मारियों के वश हो जाते हैं । स्त्रीके अधीन हुआ पुरुष वही वही करता है, स्त्री . સૂત્રાર્થ–જે પુરૂષ સ્ત્રીનુ પાલન-પોષણ કરી ચુક્યા છે, અને તે કારણે જે સ્ત્રીવેદના દિને જાણું ચુક્યા છે એટલે કે ભેગોને ભેગવી ચુકવાને કારણે જે સ્ત્રીસં૫ર્કજન્ય દુઓને અનુભવ કરી ચુક્યા છે, અને જેઓ પ્રજ્ઞાથી સંપન્ન છે, એવા પુરૂષોમાથી પણ કોઈ કઈ પુરૂષ સ્ત્રીઓને અધીન થઈ જાય છે. મારો ટીકા–જેઓ સ્ત્રીનુ પિષણ કરવાને માટે વિવિધ પ્રવૃત્તિઓ કરી ચુક્યા છે, જેમાં સ્ત્રીસંપર્કના કટુ ફળો ભેગવી ચુક્યા છે, જેમાં સ્ત્રીઓના વેદમાં નિપુણ છે–સ્ત્રીઓમાં આસક્ત થવાથી કેવાં કેવાં દુઃખ અનુભવવા પડે છે તેને જેમણે અનુભવ કરી લીધું છે, તથા જેઓ ઓત્પત્તિકી બુદ્ધિથી યુક્ત હોય છે, એવા કેઈ કે પુરૂષ પણ મેહાન્ય થઈને સ્ત્રીઓમાં આસક્ત થતા હોય છે. આ રીતે સ્ત્રીના મેહમાં ફસાયેલા તે પુરૂષે તેના Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे घानां परचित्तस्य । इत्थं ते जानन्ति 'अयंति' यदऽयम् ‘माइल्ले महासढे' मायावी महाशठश्चेति । यद्यपि स शठः स्वमनसि एवं विचारयति यन्मदीयं कृत्यं न कोऽपि जानाति, किन्तु महापुरुषास्तु तस्य मायावित्वं शठत्वं च जानन्त्येव ॥१८॥ मूलम्-सयं दुक्कडं च न वदइ आईटो वि पत्थइ बाले। वेयाणुवीइ मा काली चोइजंतो गिलाइ से भुजो॥१९॥ छाया-स्वयं दुष्कृतं च न वदति आदिष्टोऽपि प्रकस्थते बालः । वेदानुबीचि मा कार्षीः नोधमानो ग्लायति स भूयः ॥१९॥ देखनेवाले महापुरुष सर्वज्ञ केवलज्ञानियों के लिए दूसरे की चित्तवृत्ति को जान लेना क्या बड़ी बात है ? वे जानते हैं कि यह मायाचारी है, कपटशील है । यद्यपि वह मायावी समझता है कि मेरे कुकर्म को कोई नहीं जानता किन्तु ज्ञानी पुरुष तो उसकी मायाचिता और शठता को जानते ही हैं ॥१८॥ शब्दार्थ--'बाले-बाल' अज्ञानी जीव 'सयं दुक्कडं-स्वयं दुष्कृतम्' अपने दुष्कृत्य-पापको 'न बदइ-न वदति' नहीं कहता है 'आइटोविआदिष्टः अपि' जब दूसरा कोई उसे उसका पापकृत्य कहने के लिये प्रेरणा करता है तष 'पकस्थइ-प्रकत्थते' वह अपनी प्रशंसा करने लगता है 'वेयाणुवीइ मा कासी-वेदानुवीचि मा कार्षी' तुम मैथुन की इच्छा मत करो इस प्रकार आचार्य आदि के द्वारा 'भुज्जो चोइ. પરષો-સર્વજ્ઞ કેવલીઓને માટે તો અન્યના મનભાવને જાણી લેવામાં શી મુશ્કેલી હોઈ શકે? તેઓ તે એ વાતને અવશ્ય જાણું શકે છે કે આ પુરુષ સદાચારી છે કે માયાચારી (કપટશીલ) છે. ભલે તે માયાચારી પુરૂષ એમ માનતે હોય કે મારાં કુકર્મોને કઈ જાણતું નથી, પરંતુ જ્ઞાની પુરૂષ અથવા સર્વજ્ઞા કેવલી ભગવાને તે તેમની માયાવિતા અને શઠતાને જાણતા જ હોય છે.૧૮વા शहार्थ-वाले-बालः' ज्ञानी 4'सयं दुक्कडे-स्वयं दुप्कृतम्' पोताना दुष्कृत्य-पा५२ 'न वदइ-न वदति' प्रगट ४२ नथी. 'आइट्ठोवि-आदिष्टः अपि' न्यारे भाले । ते तेनु पापकृत्य मतावानी प्रेरणा ४२ छे. त्यारे 'पकथइ -प्रकस्थते' त पाताना quity १ ४२वा all जय छे. 'वेयाणुवीई मा कासीवेदानुवीघि मा कार्षी' तु भैथुननी छा न ४२ मे प्रमाणे भायाय मालि द्वारा 'भुज्जो चोइज्जंतो-भूयो नोद्यमान.' पावार ४ामा भावया 'से-स Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ.१ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् . . .२४९ अन्वयार्थः--(वाले) बालोऽज्ञानी (सयं दुक्कडं) स्त्रयं दुष्कृतं (न वदई) न वदति आत्मना कृतं पापं आचार्यादिना पृष्टो न कथयति (आइट्ठो वि) आदिष्टोऽपि परेण (पकत्थड) प्रकत्थते स्वकीयां प्रशंसां वदति (वेयाणुवीइ माकासी) वेदानुवीचि माकापी मैथुनाभिलापं मा कुरु इति आचार्ये कथिते (भुजो चोइज्जती) भूयो नोधमानः (से) सः - कुशीलः (गिलाइ) ग्लायति-ग्लानि प्रामोतीति ॥१९॥ ____टीका-'वाले' वालोऽज्ञानी 'सयं दुक्कडं न वदई' स्वयमात्मना छतं दुष्कर्म न वदति, स्वकीयदुर्मकथनाय परेण 'आइटो वि' आदिष्टोऽपि आचायेणाऽन्येन वा केनचित् 'पकत्थई' प्रत्यते, स्वकीयां प्रशंसामेव वदति आत्मानं निहातुम् अएल नि, असन्तं सन्तं व्रते इति भावः । तथा-वेयाणुवीइ' ज्जंतो-भूयोनोद्यमान.' बार बार कहा जाने पर 'खे-सः' वह अशील 'गिलाइ-ग्लायति' ग्लानिको प्राप्त होते हैं ॥१९॥ ___ अन्वयार्थ--अज्ञानी जीव स्वयं अपने पापको प्रकाशित नहीं करता है, दूसरे के कहने पर भी मुकरता है और अपनी प्रशंसा करता है, मैथुनलेवन मत करो, इस प्रकार आचार्य के कहने पर और पुनः पुनः प्रेरणा करने पर ग्लानि का अनुभव करता है ॥१९॥ . टीकार्थ--अज्ञानी जीव अपने दुष्कृत्य को प्रकाशित नहीं करता है, अपना दुष्कृत (पाप) कहने के लिए दूसरे के कहने पर नटता है, झुठी सच्ची पातें कहता है । जब गुरु कहते हैं कि मैथुन सेवन मत करो तो वह वारंवार ग्लानि को प्राप्त होता है। तशील शिष्य 'गिलाइ-ग्लायति' खान मनी लय छे. अर्थात भी બની જાય છે. ૧ સૂત્રાર્થ–-અજ્ઞાની જ જાતે જ પિતાના પાપને પ્રકટ કરતા નથી, બીજા લોકે તેમને સમજાવવા પ્રયત્ન કરે તો પણ તેઓ પિતાના દોષોને સ્વીકાર જ કરતા નથી, પરંતુ પોતાની પ્રશંસા જ કર્યા કરે છે. આચાર્ય દ્વારા મૈથુન સેવન ન કરવાને ઉપદેશ આપવામાં આવે અને સ્ત્રીના સંપર્કને પરિત્યાગ કરવાની પ્રેરણા ફરી ફરીને આપવામાં આવે, ત્યારે તેઓ ગ્લાનિ (વિષાદ) અનુભવે છે ના • ટીકા—-અજ્ઞાની છો પિતાનાં દુષ્કૃત્યને પિતાની જાતે પ્રકટ કરતાં જ નથી, પરંતુ જ્યારે તેઓને કે દુષ્કૃત્યે પ્રકટ કરવાને માટે સમજાવે છે, ત્યારે પણ તેઓ તેને સ્વીકાર જ કરતા નથી, ઊલટી એર ટી વાત કહીને પિતાના દુષ્ક (પાપ)ને છુપાવવાને જ પ્રયત્ન કરે છે. જ્યારે ગુરૂ દ્વારા તેને મૈથુન સેવન ન કરવાનું કહેવામાં આવે છે, सू० ३२ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ सूत्रकृताङ्गसूत्रे आज्ञापयति, तथा तथा करोति खीवशमुपगतः पुरुषः, न तु किंचिदपि युक्तायुक्तं विचारयति, स्त्रीसंबन्धेन तादृशबुद्धेविनाशितत्वात् । विषस्य भक्षणेन लोको मूर्च्छितो भवति किन्तु स्त्रीणां संसर्गेणैव मुग्धा भवन्ति । तदुक्तम् - MAD 'बुद्धिभ्रंश विषं भुक्त्वा गृहीत्वा कांचनं बहु | स्त्रीणां संसर्गमात्रेण तदीयवशवर्त्तिता ॥ १ ॥ - 'एता हसन्ति च रुदन्ति च कार्यहेतोः, विश्वासयन्ति च परं न च विश्वसन्ति । तस्मान्नरेण कुलशीलसमन्वितेन, शमशानघटिका व वर्जनीयाः ॥ १॥ ' अपि च--' जिसकी आज्ञा देती है । वह स्वयं उचित अनुचित का विचार नहीं करता । स्त्री के सम्पर्क से उनकी बुद्धि विनष्ट हो जाती है । लोग विष का तो भक्षण करने पर ही मरते हैं परन्तु स्त्री के दर्शनमात्र से ही सूढ बन जाते हैं। कहा भी है--' बुद्धि शो' इत्यादि । 'विष के भक्षण करने से और धन के लाभ से बुद्धि भ्रष्ट होती है अर्थात् मनुष्य बुद्धि हीन होता है परन्तु स्त्रीके साथ अनुराग संभा'पण करने मात्र से ही उसके अधीन बन जाता है ।' और कहा भी 'एता हसन्ति च' इत्यादि । 1. 'ये स्त्रियां अपने स्वार्थ के लिए कभी हँसती हैं, कभी रोती हैं। दूसरे को अपना विश्वास दिलाती हैं मगर स्वयं को ई का विश्वास नहीं करतीं । 4 ગુલામ ખની જઈને તેની એકેએક આજ્ઞાનુ પાલન કરે છે. તેએ સારાં નરસાંના વિવેક ગુમાવી બેસે છે. સ્ત્રીના સપર્કને કારણે તેની બુદ્ધિ જ નષ્ટ થઈ જાય છે. વિષનું ભક્ષણુ કરનાર માણસ તે મૃત્યુ પ્રાપ્ત કરે છે, પરન્તુ સ્ત્રીમાં આસક્ત થનાર માણુસ તેના દર્શનમાત્રથી જ મૂઢ ખની જાય છેકહ્યું છે કે— 'बुद्धिभ्रंशो' त्याहि વિષનું’ ભક્ષગુ કરવાથી અને ધનની પ્રાપ્તિ થવાથી માણસની મતિ ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે, એટલે કે માણસ વિવેકબુદ્ધિ ગુમાવી બેસે છે, પરન્તુ સ્ત્રીની સાથે અનુરાગયુક્ત વાર્તાલાપ કરવા માત્રથી જ તે તેને અધીન થઈ જાય છે. वजी मेवु ह्युं छे है- ' एता इसन्ति' त्याहि ગ્નિએ પેાતાના સ્વાર્થ સાધવાને માટે કદી હસે છે અને કદી રડે છે. તે, અન્યને પાતાના પ્રત્યે વિશ્વાસ રાખવાને પ્રેરે છે, પણ પાતે કાઈના વિશ્વાસ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैमयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरोपहनिरूपणम् स्त्रीणां स्वभावो लौकिकशास्त्रेभ्य एवावगन्तव्यः। स्त्रीणां चरितमतीव दुर्विज्ञेयम् । तथोक्तम्'हृयन्यद् वाच्यन्यत् कर्मण्यन्यत् पुरोऽथ पृष्ठेऽन्यत् । अन्यत् तव मम चान्यत् स्त्रीणां सौ किमप्यन्यत् ॥१॥' इति ॥२०॥ स्त्रीसंवन्धस्य फलं कीदृशं भवति, तत्तु शास्त्रवेयमेव किन्तु लोकेऽपि तस्य फलमतीव दुःखदायि, इति दर्शयितुमूत्रकार आह-'अविहत्थे' त्यादि । मूलम्-अवि हत्थपादछेदाय अदुवा बद्धमलँउक्कते। ____ अवि तेयाभितावणाणि तच्छिय खारसिंचणाई च॥२१॥ अतएव कुल और शील से सम्पन्न पुरुष को चाहिए कि वह नारियों को श्मशान की घटिका के सम्मान स्याग दे।' स्त्रियों का स्वभाव लौकिकशास्त्रों से ही जानना चाहिए । उनका चरित अतीवदुर्गम होता है। कहा भी है-'हृद्यायदाच्यन्यत्' इत्यादि । _ 'स्त्रियों का सभी कुछ निराला ही होता है। उनके हृदय में कुछ और होता है, वचन में कुछ और होता है, कर्म (क्रिया करने में कुछ और ही होता है। आगे कुछ और तो पीछे कुछ और होता है। उनका तुम्हारा हमारा भी अन्य होना है ॥२०॥ રાખતી નથી. તેથી કુળવાનું અને શીલવાન્ પુરૂષોએ તેને મશાનઘટિકા સમાન ગણીને તેને ત્યાગ કરે ઈ બે (શ્મશાનમાં પડેલા માટીના જળપત્રને જેમ ત્યાગ કરવામાં આવે છે, તેમ જિઓને પણ ત્યાગ કરવો જોઈએ) સિઓને સ્વભાવ કેવો હોય છે, તે લૌકિક શાસ્ત્રોમાંથી જાણું લેવું જોઈએ. સ્ત્રીચરિતને સમજવું ઘણું જ મુશ્કેલ હોય છે. કહ્યું પણ છે કે, 'हद्यन्यद् वाच्यन्यत्' इत्यादि સ્ત્રિઓનું સઘળું નિરાળું જ હોય છે. તેમનાં મનમાં કંઈક હોય છે. અને તેમની વાણીમાં બીજુ જ હોય છે, અને તેમની ક્રિયામાં વળી ત્રીજું જ કંઈ હોય છે. એટલે કે તેમનાં મનના વિચારો, વાણી અને કાર્યમાં એકરૂપતા હેતી નથી. તેમની આગળ કંઈક હોય છે, તે પાછળ બીજુ કંઈક જ હોય છે. તે અમક વસ્તુને કે માણસને પિતાને ગણાવે છે પણ મનમાં તો અન્યને જે પિતાનો ગણતી હોય છે તે કારણે સ્ત્રીચરિતને તાગ મેળવે ઘણે જ દુર્ગમ ગણાય છે. પરમા Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे छाया -- अपि हस्तपादच्छेदाय अथवा वर्द्ध सांसोत्कर्त्तनम् | अपि तेजसाभितापनानि तक्षयित्वा क्षारसेचनानि च ॥ २१ ॥ अन्वयार्थ ~~(अत्रि हत्यपादछेदाए) अपि हस्तपादच्छेदाय - इहलोके परस्त्री संपर्कोऽपि हस्तपादच्छेदाय भवति (अदुवा ) अथवा (वद्धमते) वर्द्धमांसोत्कतननं चर्ममांसकर्तनाय भवति (अधि तेयसामितावणाणि) अपि तेजसाभितापनानि स्त्री सम्बन्ध का फल कैसा होता है, यह तो शास्त्र से ही जाना जा सकता है, किन्तु लोक में भी उसका फल अतीव दुःखजनक होता है, इस तथ्य को दिखलाने के लिए सूत्रकार कहते हैं- 'अवि हत्य' इत्यादि । शब्दार्थ –'अब हत्थपादछेदाए-अपि हस्तपादछेदाय' इस लोक में स्त्री का संबंध हाथ और पैर का छेदन के लिए होता है 'अदुवा - अथवा ' अगर 'वद्धमंसउक्कते - वर्द्धमांसोत्कर्त्तनम्' चमडा और मांस को कतरने रूप दण्डजनक होता है 'अवि तेयासितावणाणि अपि तेजसाभितापनानि' अथवा अग्नि से जलाने रूप दण्ड के योग्य होता है 'च-च' और 'तच्छिय खारसिंचनाएं - तक्षयित्वा क्षारसिंचनानि' उनके अङ्गका छेदन करके उसके ऊपर क्षार सिंचनरूप दण्ड के योग्य होता है ॥२१॥ अन्वयार्थ -- इस लोक में स्त्रियों का सम्पर्क हाथ पग के छेदन के लिए होता है, अथवा चर्म और मॉस को काटने के लिए होता है परस्त्री સ્ક્રીમ'પર્ક નું કેવું ફળ ભાગવવુ' પડે છે, તે તે શાસ્ત્રામાંથી જ જાણી શકાય છે, પરન્તુ લેાકમાં પશુ તેનું ફલ અતિ દુ ખજનક જ હાય છે, તે વાતનું हुये सूत्रार नियु रे छे. 'अनि हत्थ' इत्यादि शर्थ - 'अवि इत्यपादछेदाए-अपि हस्तपादछेदाय' या भजतभी સ્ત્રીની સાથેને સબંધ તે હાથ અને પગને કપાવી નાખવા માટે હાય 'छे. 'अडुवा - प्रथवा ' अगर 'बद्धमं उक्ते - बद्धमांसोत्कर्तनम्' याभडा भने भांने अनत्रा साया उने योग्य मने छे. 'अवि तेयसाभितावणाणि-अपि तेजसाभितापनानि' अथवा अतिथी जत्राने योग्य भने छे. 'च-च' भने 'तच्छित्र खारसिंचणाइ-तला क्षारसिंचनानि' तेना मग हेहन उरीने तेना ઉપર મીઠું' ભભરાવારૂપ દડને ચેગ્ય મને છે. તારા સૂત્રા—ખા લેાકમાં સ્ત્રીસંગમ કરનાર લેાકેારા હાથ, પગ આદિ અ ગે કાપી નાખવામાં આવે છે અથવા ચામડી અને માંસ કાપવામાં આવે છે. પરસ્ત્રી Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीपहनिरूपणम् २५५ -परस्त्रीसंपर्ककार ज्वलयति गजपुरुषः, (च) च-अथवा (तच्छिय खारसिंचणाई) तक्षयित्वा क्षारसिंचनानि, शरीरं तक्षयित्वा लवणं तत्र प्रक्षिपतीति ॥२१॥ _____टीका-- इह लोके परस्त्रीणां संगमकारिणो ये तेषाम् , हस्तपादच्छेदाय= हस्तपादयोछेदनमपि भवति । नथाकारिणां हस्तौ पादौ छियेते 'अदुवा' अथवा 'वद्धमंसउक्कते' वर्धमांसोत्कर्त्तनमपि भवति । 'अवि' अपि च 'तेजसा अभितावणाणि तेजसा वह्निना अभिताप्यते राजभटैः। तच्छिय खारसिंचणाईच' तक्षयित्वा क्षारसेचनानि-नक्षयित्वा तदुपरि क्षारेण लवणेन गात्रं सिंचति । परस्त्रियं भुंजमानानां हस्ताद्यश्यावखण्डन , मांसोत्कर्तनम् , तेजसाऽभितापनम् , क्षारसेचनादिकं च क्रियते उद्वेजितैः स्त्रीसंवन्धिभिः राजदूवी । इमे लौकिका दण्डा सम्पर्क करनेवाले पुरुष को लोग जला देते हैं और उसकी चमडी पर लक्षण छिडकते हैं ॥२१॥ टीकार्य-परस्त्री संगम करने वाले पुरुष के इली लोक में हाथ और पंग काट लिये जाते हैं अथवा चमड़ी और मांस काट लिया जाता हैं । राजकीय कर्मचारी उन्हें आग में तपाते जलाते हैं । उनका चमड़ा छीलकर उस पर लवण छिड़कते हैं। - अभिप्राय यह है कि परस्त्री का उपभोग करने वाले पुरुषों के हाथ पग का छेदन किया जाता है मांस काटा जाता है, आग में जला दिया जाता है और चमडा उतार कर उस पर लवण छिडका जाता है । उत्तेजित छुए स्त्री के संबंधी जनों द्वारा अथवा राजपुरुषों द्वारा ये दण्ड સાથે કામગ સેવનારને ક્યારેક જીવતા બાળી નાખે છે, અથવા તેમની ચામડી કાપીને તેના પર મીઠું છાંટવામાં આવે છે. ૨૧ ટીકાર્થ–પરસ્ત્રીની સાથે સંભોગ કરનાર પુરુષના હાથ, પગ આદિ અંગે છેકી નાખવાની સજા કે દ્વારા કરાય છે. એવા પુરુષની ચામડી ઉતારી નાખવામાં આવે છે અને તેના શરીરને છેદીને માંસને બહાર કાઢવામાં આવે છે. રાજ્યના અમલદારો તેને જીવતો બાળી દેવાની સજા પણ કરે છે, અથવા તેની ચામડી ઉતરાડીને તેના ઉપર લવણ ભભરાવીને તેને ખૂબ જ પીડા પહોંચાડવામાં આવે છે. આ લેકમાં એવું તે અનેકવાર જોવામાં આવે છે કે પરસ્ત્રીને ઉપભોગ કરનાર પુરુષને લોકો જ કડક શિક્ષા કરતા હોય છે તે સ્ત્રીનાં સગાસંબંધીઓ તે કામાંધ પુરુષને પકડીને સારી રીતે મારપીટ કરે છે ઉશ્કેરાટને કારણે તેના હાથ, પગ કાપી નાખે છે અથવા તેની ચામડી ઉતરડી નાખીને શરીર પર મીઠ ભભરાવે છે. રાજપુરુષો પણ તે કામાંધ પુરુષને કડકમાં કડક સજા કરે છે. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ सूत्रकृताङ्गसूत्र भवन्ति । पारलौकिकयातनायां तु नरकादिकं भवतीति सच्छास्त्रमेव प्रमाणम् । तस्मादात्महितार्थिना स्त्रीसंबन्धो नितरां हेय इति ॥२१॥ मूलम्-अदु कैण्णणालच्छेदं कंठच्छेदणं तितिक्खंति। इति तत्थ पावसंतता न य बिति पुगो न कोहिति॥२२॥ छाया--अथ कर्णनासिकाच्छेदं कण्ठच्छेइन तितिक्षन्ते । __ इति तत्र पाप-सन्तप्ताः न च ब्रुवते न पुनः करिष्यामः ॥२२॥ अन्वयार्थ:--- (पाइसंवत्ता) पायसन्तताः (इति) इति-इहलोके (अण्णनासच्छेद) कर्णनासिकाछेद तथा (कंठच्छेदणं तितिक खंति) कण्ठच्छेदनमपि तितिक्षन्ते सहन्ते (न य विति) न च ब्रुरते (न पुणो काहिति) न पुनः करिष्याम इति ।।२२।। इसी लोक में दिए जाते हैं । परलोक में उनको नरक आदि में जाना पडता है। वहां कैसी कैलो धाननाएं भुगतनी पड़ती हैं, इस विषय में तो शास्त्र ही प्रमाण है । अतएव आत्महित के अभिलाषी पुरुष को स्त्री का सम्पक सर्वथा ही त्याग देना चाहिए ॥२१॥ __ शब्दार्थ--'पापसंत्तत्ता-पापसंतता' पापी पुरुष 'इति-इति' इस लोक में 'इगनालच्छेई-कर्णनासिकाछेदं' कान और नाक का छेदन तथा 'कंठच्छे इणं तितिक्खंति-कण्ठच्छेदनं तितिक्षन्ते' कंठ-गले का छेदन सह लेते हैं 'न य बिति-न च ब्रुवते' परन्तु वे ऐसा नहीं कहते कि 'न पुणो काहिति-न पुनः करिष्याम इति' अब हम फिर से पाप नहीं करेगे ।.२२॥ ___ अन्वयार्थ-पाप से संतप्त पुरुष इस लोक में कान और नाक का કઈ કઈવાર તે તે પરસ્ત્રીગામીને જીવતા બાળી દે છે. આ બધા દંડ આલેકના છે. પરલોકમાં પણ તેને દુઃખ જ ભેગવવું પડે છે. નરકગતિ પામીને તેને કેવી કેવી યાતનાઓ વેઠવી પડે છે, તે બાબત તે શામાંથી જાણું લેવી જોઈએ. તેથી આત્મહિતની અભિલાષા રાખનાર પુરુષે સ્ત્રીના સંપર્કને તે સર્વથા પરિત્યાગ જ કરે જોઈએ ૨૧ , शहाथ-पावसंतत्ता-पापसंतप्ता.' पापी पुरुष 'इति-इति' मा तभी 'कण्णनामच्छेद-कर्णनासिकाच्छेद' छान अने नानु हन तथा 'कंठच्छेदण तितिक्खंति-कण्ठच्छेदन तितिक्षन्ते' ४४ ४ता सानु छेड्न सहन ४Na छे. 'न य विति-न च ब्रुवते' ५२'तु तेया मेवु नयी ४ता 'न पुणो काहिति-ज पुनः करिष्याम इति' थी 1 पा५ नही ४३. ॥२२॥ સૂવાથ–મૈથુનસેવન કરનારા પાપી લેકો આ લેકમાં કાન, નાક અને Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २५७ टीका- 'पावसंवत्ता' पापसन्तप्ताः - पापेन कर्मणा संतप्ताः 'इति' इति - इह लोके इहैव जन्मनि 'कण्णनासच्छेद' कर्णनासिकाच्छेद- कर्णनासिकयोश्छेदनं कंठ च्छेदणं तिविवखंति' कण्ठच्छेदनं विक्षिन्से - कण्ठच्छेदनं च तितिक्षन्ते सहन्ते । 'न य विवि' ल च वने 'न पुणो कार्हिति' न पुनः करिष्याम इति - एवंभूतं पापानुष्ठानं न पुनः करिष्याम इति नैव वदन्ति । ऐहिकपारलौकिकयातनामनुभवन्योऽपि वाहशदुष्कृतं कर्मभ्यो निवृद्धि नै लभन्ते । पापिपुरुषः पापकरणे अनेकधा विविधविकर्णनासि होच्छेनादिकं सन्दोऽपि न ततो निवर्तन्ते । अहो महदाश्रयं विचित्रं च महामोह ज्यमिति ॥ २शा छेदन तथा कंठ का छेदन सह लेते हैं किन्तु यह नहीं कहते कि 'अब हम पुनः ऐसा नहीं करेंगे ' ॥ २२ ॥ टीकार्थ--पी पुरुष इसी लोक में कान और नाक का छेदन सहन कर लेते हैं, कंठ का काटा जाना भी सह लेते हैं परन्तु ऐसा नही कहते कि - ' ऐसा पापकार्य फिर नहीं करूंगा' । Terrors et यातनाओं (दुःखों) का अनुभव करते हुए भी वे उन दुष्कृत्यों से विरत नहीं होते हैं । पापी पुरुष पात्र करके कान-नाक कटने आदि की विविध प्रकार को वेदना को सहन करते हुए भी उससे निवृत्त नहीं होते । आए ! कितने आश्चर्य का विषय है । महामोह का कैसा साम्राज्य है ||२२|| ગળાનું છેદન સહન કરી લે છે, પરન્તુ ‘ફરી એવાં પાપકાં હું નહી કરુ',' એવું કહેતા નથી. રા ટીકા—પાપી લેાકેા કામાગ્નિથી તમ કામાન્ય પુરુષો) આ લેાકમાં ગમે તેવાં ો સહન કરી લે છે—તેમના કાન, નાક આદિ દવામાં આવે અથવા તેમનુ ગળુ' કાપી નાખવામાં આવે, તે પણુ સહન કરી લે છે, પરન્તુ ‘હુ હવે કદી પણ આવુ. પાપકમ નહીં કરુ',' એવુ' વચન ઉચ્ચારતા નથી આ લેાક અને પરલેાક સંધી યાતનાઓના અનુભવ કરવા છતાં પણ કામાન્ય માણુસા અબ્રહ્મના સેવનરૂપ દુષ્કૃત્યથી નિવૃત્ત થતા નથી. પાપી પુરુષો કાન, નાક આદિ અંગેાના ઇંદનથી સહવી પડતી વેદનાએ સહુન કરવાનું પસન્ન કરે છે, પણ પાપકર્મોથી નિવૃત્ત થવાનું પસન્દ કરતા નથી. આ વાત કેવી આશ્ચર્યજનક છે! મહામહનું' કેવુ' સામ્રાજ્ય વ્યાપેલું છે! ઘરરા सू० ३३ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे - मूलम्-सुतमेयमेवमेगोलिं इत्थीचेदेइ हुनुस्खायं । एंबपि ता वदिता वि अदुश कस्मुंगा अजकरेंति ॥२३॥ छाया--श्रुतसेवदेवमेके पां स्त्रीवेद इति हु वाख्यातम् । एमपिता उक्त्वाऽपि अथवा कर्मणा अपर्छन्ति । २३॥ अन्वयार्थ:-(एयं) एतद् (एवं) एनम् (मुस) श्रुतं यत् स्त्रीवासी महादोपायेति - तथा (प्रगेसिं) एकेपां वैशिकादिकानां सुमक्खाय) नास्पातम्-मुटु कथन (इत्थीवेदेइ) स्त्रीवेद इति एके पां स्त्री वेदविदा स्वाख्यातमिति (ता) तात्रियः (एवं बदिचा वि) एवमुक्त्वापि (अनुवा) अश्या तयापि (क्राणा अबकरे दि) कर्मणा अपकुवन्तीति-विपरीलमाचरन्तीति ॥२६॥ शब्दार्थ--एवं-एम्' इस प्रकार 'सुतं-अतम्' स्त्री संपर्क महादोषजनक है ऐसा मैंने सुना है तथा 'एगेसि-एफेषां कोई कोई का 'सुयक्खायं-स्वारुपातम्' सम्यक् कथन है 'हल्यादेइ-स्त्रीवेद इति' कामशास्त्र का यह कथन है कि 'ता-त स्त्रियः एवं वदित्ता विएवमुक्त्वापि' अब मैं ऐसा नहीं करूंगी ऐसा कहती है 'अदुवा-अध्या' तो भी 'कम्नुणा अवकडेति-कर्मणा अपकुर्वन्ति' उसले विपरीत आचरण करती हैं ॥२३। अन्वयार्थ-हमने ऐसा सुन्दर है कि स्त्रियों का सम्पर्क महान् दोष का कारण होता है। किन्हीं येशिक आदि का ऐसा कहना है कि 'अव मैं इस प्रकार का पाप नहीं करूंगी' ऐसा कह कर भी पुनः विपरीत आचरण करती है ॥२३॥ शा -एवं-एवम्' 241 ते 'सुतं-श्रुतम्' सiiuयु छे. अर्थात् . लियोनी स५ मडाहोषाप छ, तभ में सामन्यु छ. तथ! 'एरोसिं-एकेषां' धनु 'सुयक्खायं-स्वाख्यातम्' सभ्य५ ४थन छे. है 'ता-ता.'' सीमा ‘एवं वदित्ता वि-एवमुक्त्वा पि' वे पछी माम, ४२रीश नी. मे ४३ छे. 'अदुवाअथवा' त 'कम्मुणा अवझरे नि-कर्मणा अपकुर्वन्ति' को नयी दुही। રીતનું આચરણ કરે છે. મારા सूत्राथ - स सivयु छ है यानी स५४ महान होना કારણ રૂપ બને છે કઈ કઈ સ્ત્રિઓ એવું કહે છે કે “હવેથી હું ' એવું દુષ્કૃત્ય નહીં કરું, પરંતુ એવું વચન આપ્યા બાદ પણ તેઓ વિપરીત सायरल १ ४२ती २७. छे. '1॥२३॥ . . . Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी - टीका प्र. श्रं. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २५६ टीका -- एयं एवं सुतं = एतत् स्त्रीचरित एवम् ऐहिक पारलौकिक दुःखप्रद मिति शास्त्रेभ्यः गुरुप्रभृतिमहापुरुषाणां मुखाद श्रुतमिति । 'एस' एकेषां यक्खायं' स्वाख्यातम् सुप्लुकथनम् । 'इत्थीवेदेऽ हु' स्त्रीवेदइति हु-स्त्रीवेदः काम शास्त्रम् | तस्यापि - उचमेव कथनम्, यत् त्रिपः स्वभावतया दुःखदायिन्यः कपटकारिण्यचेति । ' ' ता=स्त्रियः 'एवंदि वदिचावि' एवमपि ता उक्त्वा = अतः परं दुष्कृतं कर्म न करिष्यामः इत्युक्ादि 'कम्मुणा' कर्मणा - क्रियया 'अवकरें 'ति' अपकुन्ति विरूपमाचरन्ति । अथवा पतिशिक्षण स्वीकृत्य तस्य पत्युरेवापकारं कुर्वन्ति । , स्त्रीणां हृदयं दर्पणात मुखमिव दुर्गाम् भावः पर्वतमा इव विषमः, चित्त पुष्करपलाश स्थितजलविन्दुखि तरलं नैकत्र संविठते, किं बहुना विपलतेव भवति टीकार्थ - - स्त्रियों का सम्बन्ध इस लोक और परलोक संबंधी दुःख देने वाला है, यह हमने शास्त्रो से गुरु आदि महापुरुषों के मुख से सुना है । कोई कोई ऐसा कहते हैं और कामशास्त्र का भी यही कथन है कि स्त्रियां स्वभाव से ही चपल होती हैं, दुःखदायिनी होती हैं और पटकारिणी होती हैं । वे स्त्रियाँ 'इसके पश्चात् दुष्कर्म नहीं करूंगी' इस प्रकार वह कह के भी विपरीत ही आवरण करती हैं. अथवा पनि की शिक्षा को स्वीकार करके पति का ही अपकार कर बैठती हैं । स्त्रियों का हृदय दर्पण में झलकने वाले मुख के समान दुर्ग्राह्य है। पकड में आने वाला नहीं है । उनका भाव पर्वतीय मार्ग के समान विषम होता है । उनका चित्त कमल के पत्र पर स्थित जल के बिन्दु के ટીકા —સિખાના સમ્પર્ક આ લેાક અને પલૈકમાં દુઃખજનક થઈ પડે છે, એવુ અમે શાસ્ત્રમથી ગુરુ આદિ મહાપુરુષોને સુખે'શ્રવણુ કર્યું'' છે. કઈકાઈ લેાકેા પણ એવુ' જ કહે છે, અને કામશાસ્ત્રમા પણ એવુ' જ કહ્યુ છે કે ગ્નિએ સ્વભાવે ચ ચળ, દુઃખદાયિની અને કપટકારિણી હાય છે ‘હવેથી કરી કદી પણ દુષ્કૃત્ય નહી કરૂં.' એવુ’વચન આપીને તુરત જ વચન ભ'ગ કરતાં તે સ'કેાચ અનુભવની નથી-ફરીથી એજ દુષ્કૃત્ય આચરવા લાગી જાય છે અથવા એવી દુરાચારી સ્ત્રી પતિ દ્વારા જે શિક્ષા કરવામાં આવે તે સ્વીકારી લઈને, પતિના દ્રોહ કરવાનુ ચાલુ જ રાખે છે, જેવી રીતે દ ણુની અદર દેખાતાં મુખના પ્રતિષિ’ખને પકડી શકાતુ नथी, में प्रमाये सीना हृहयने (ननोलावेोने) लगी शमता नथी. सिमोना મનેાલાને ગિરિમાના સમાન વિષમ હાય છે, તેનું ચિત્ત કમલપત્ર પર્ 17 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० सूप्रकृताचे स्त्री । तदुक्तं कामशास्त्रे 'दुर्गाचं हृदयं यथैव पदनं यदर्पणान्तर्गतं, भावः पर्वतमार्गदुर्गविषमः स्त्रीणां न विज्ञायते । चित्तं पुष्करपत्रतोयतरलं नैकन संतिष्ठते नार्यों नाम विषांकुरैरिव लता दोपैः समं वर्धिताः॥१॥' इत्यादि ॥२३॥ मूलम्--अन्नं भणेण चितति वार्यों अन्नं च कम्युणा अन्न। तंव्हा ण सदेह मिक्खू बहुमायाओ इथिओ गच॥२४॥ छाया--अन्यन्मनसा चिन्तयन्ति वाचाऽन्यच्च कर्मणाऽन्यत् । तस्मान श्रद्दधीत भिक्षुः बहुमायाः स्त्रियो ज्ञात्वा ॥२४॥ समान चंचल होता है । वह एक जगह पर स्थिर नहीं रहता। अधिक क्या कहा जाय स्त्री दोषयुक्त विषलता के समान होती है। कामशास्त्र में कहा है-'दुझिं हृदयं यथैव वदनं यदर्पणान्तर्गतं' 'स्त्रियों का सृदय उसी प्रकार दुर्भाह्य होता है जैसे दर्पण में प्रतिविस्थित मुख । उनका मात्र पर्व संबंधी मार्ग के समान विषम होता है, उसका पता लगाना कठिन है । उनका चित्त काल के पत्र पर स्थित जल के समान तरल (चंचल) होना है। वह एक स्थान पर स्थिर नहीं रहा। इस प्रकार नारी संपनियों के लिये दोषों से युक्त विष की लता के समान है ॥२३॥ शब्दार्थ--'मणेज-मनमा' स्त्रिी मनसे 'आनं-अन्यत्' दूसरा 'चिंतति-चिन्तयन्ति' सोचती वाया-वचस्मा' वाणी से 'अन्नं-अन्य રહેલા જળબિન્દુના સમાન ચચળ હોય છે. તે કદી એક જ વસ્તુમાં સ્થિર २हेतु नथी. मवि शु ! સ્ત્રી વિષલતા સમાન દેષયુક્ત હોય છે. કામશાસ્ત્રમાં પણ સ્ત્રિઓ વિષે मे युछे-'दुर्ग्राह्य हृदयं यथैव बदनं यदर्पणान्तर्गतं' इत्यादि જેવી રીતે દર્પણમાં પ્રતિબિંબિત મુખ દુગૌ હેય છે, એ જ પ્રમાણે સ્ત્રિઓનું હૃદય પણ દુર્વાહ્ય હોય છે, તેમના મોભા પર્વતીય માર્ગના સમાન વિષમ હોય છે, તેથી તે ભાવોને સમજવાનું દુષ્કર બની જાય છે. તેનું ચિત્ત કમલપત્ર પર સ્થિત જલના સમાન તરલ (ચંચળ) હોય છે, તેથી તે એક જ સ્થાન પર સ્થિર રહેતું નથી. તેથી જ નારીઓને સમાગમ સંયમી પુરુષોને માટે દેવોથી યુક્ત વિષલતા સમાન સમજ. ૨૩ शपथ-'मणेण-मनसा' खियो भनथी अन्न-अन्यत्' भी चितेति -चिन्तयन्ति' पियारे छे. 'वाया-वचसा क्यनी 'अन्नं-अन्यत्' भी ४ ४ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयावधिनी टीका प्र. शु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषह निरूपणम् ૨૬૨ अन्वयार्थः -- (मणेग) मनसा (अन्नं) अन्य ( चिंते ति) चिन्तयन्ति (वाया ) वसा ( अन्नं) अन्यद् वदन्ति (कम्पुणा अन्नं) कर्मणा अन्यत् कुर्वन्ति (तम्हा) तस्मात् कारणात् (वहुमाया इत्थिओ पच्चा) बहुमायाः स्त्रिय इति ज्ञाता (भिक्खू) भिक्षु: मुनिः (ण सह ) न श्रदधीत स्त्रीषु श्रद्धां नैव कुर्यादिति ||२४|| टीका- 'मणेण अन्नं चितेति' पातालोदरगंभीरेण मनसा अन्यत् चिन्तयन्ति । 'वाया अन्नं' श्रवणमात्रमधुरया विपाकदारुणया वा वाचा ततोऽन्यद् वदन्ति । 'कम्मुणा अन्नं' कर्मणा चाऽन्यमेत्र भजन्ते । अतिगंभीरमनसा किमप्यन्यदेव चिन्तयन्ति, अर्थात् श्रवणमनोज्ञवचनेन किमप्यन्यदेव वदन्ति । कर्मणानुष्ठानेन और ही कहती है 'कम्मुणा अन्नं- कर्मणा अन्यत्' और कर्म से और ही करती है 'तम्हा - तस्मात्' इस कारण से 'बहुमानाओ इस्थिभ णच्चा - पमायाः स्त्रियः ज्ञात्वा बहुत मायावाकी स्त्रियों को जानकर भिक्खू - भिक्षु : ' मुनि 'ण सदह-न श्रद्धधील ' उनमें श्रद्धा न करें ||२४|| अन्यधार्थ -- स्त्री मन से अन्य सोचती है वचन से अन्य बोलती है कर्म (कार्य) से कुछ अन्य ही करती है । अतएव स्त्रियां बहुत मायाचारिणी होती है, ऐसा जानकर मुनि उन पर श्रद्धा न करे ||२४| टीकार्थ-स्त्री अपने पाताल के लयान गंभीर मन से कुछ और ही सोचती हैं, केवल सुनने में मधुर किन्तु विपाक में भयानक वाणी से कुछ और ही कहती है तथा कर्म (कार्य) से कुछ और ही करती है । छे 'कम्मुणा अन्नं कर्मणा अन्यत्' तय थी जी रे छे. 'तम्हातस्मात्' ते ४२] 'बहुमायाओ इत्थिओ नच्चा बहुमाया स्त्रियः ज्ञात्वा' स्त्रियाने भाषिक साय.वी समझने 'भिक्खू भिक्षुः' सुनियो 'ण सदह-न श्रद्दधीत ' तेषां विश्वास न १२. ८.२४. સૂત્રાસ્ત્રી મનમાં કાઈ એક પ્રકારને વિચાર કરતી હૈ ય છે, વચન દ્વારા જુદું જ ખેલતી હુંય છે અને કયા દ્વારા વળી અન્ય જ ફાઇ કાર્ય કરતી હોય છે! આ પ્રકારે સ્ત્રીએ મયચારિણી હાવાથી મુનિએ તેમના વિશ્વાસ રાખવા જોઇએ નહી. ર૪ ०४ ટીકા--સ્ત્રી તેના પાતાલ જેવા ગ'ભીર મનમાં 'ઈ જુદું (વાણીથી વિપરીત) વિચારતી હાય છે, માત્ર સાંભળવામા મધુર લાગે પશુ જેના વિપાક ભય‘કર હાય એવું જુદું જ (વિચારાથી વિપરીત) તે ખેલતી હાય છે, અને વાણી અને વિચારાથી જુદું પડે એવું કંઈક કરતી હાય છે, આ રીતે તેના વિચાર, વાણી અને કાર્યોમાં એકરૂપતા હૈતી નથી. તે Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૨ सूत्रकृतागसूत्रे किमपि अन्यदेव कार्य कुर्वन्ति । यन्मनसा चिन्तितं तन्न ब्रुते । यद्वते तन्न कुर्वन्ति किन्तु सर्व विपरीतमेव समाचरन्तीति भावः- 'म्हा' तस्मात् 'वहुमायाओ इथिओ' बहुमायाः स्त्रियः इति 'गच्ची' ज्ञात्वा 'भिक्खू' भिक्षुकः 'ण सद्दह' न श्रधीत वासु श्रद्धां न कुर्यात् ॥ २४ ॥ मूलम् - जुबइ सणं ब्रूया विचिंत्तलंकारवत्थगाणि परिहिता । विरतो चरिहं रुखं धम्माइख णे भयंतारो ॥२५॥ छायाः युवतिः श्रमणं यात् विचित्रालंकारवस्त्राणि परिधाय । : विरता चरिष्याम्यहं क्षं धर्ममाचक्षत्र नः सत्रातः ॥ २५ ॥ अपने अत्यन्त गभीर मन से कुछ और ही सोचती है। श्रुतिसुखद, वजनों से कुछ और ही कहती है और कर्म से कुछ और ही करती है । जो मन से सोचती है सो कहती नहीं और जो कहती है सो करती नहीं | यह सब विपरीत ही आचरण करती हैं । अतएव स्त्रियां बहुत मायाचारिणी होती हैं ऐसा जानकर साधु उन पर श्रद्धा ने करे । यहां लौकिक वचन भी कह देने चाहिए ||२४|| शब्दार्थ - - ' जुत्र - युवतिः' कोई युवावस्था संपन्न स्त्री 'विचित्तालंकारवत्यगाणि परिहिता - विचित्रालंकारवस्त्राणि परिधाय' चित्रवि चित्र अलङ्कार और वस्त्र पहनकर श्रमण के समीप में आकर 'लमणं बूवा-श्रमणं ब्रूयात्' साधु से कहे कि 'जयंता - हे भगवातः ' हे अघ से रक्षण करने वाले सावो ! 'अहं चित्ता - अहं विरता' में अब સનમા જેવુ વિચારે છે તેવુ' કહેવ ને બદલે જુદું' જ કઇક કહે છે, વળી તે મતમાં જેવું વિચારે છે અથવા વાણીથી જેવું કહે છે, તેના કરતાં જુદા જ પ્રકારનુ` આચરણ કરે છે. આ પ્રકારનું સ્ત્રિઓનુ વર્તન હૈયા છે. તે કારણે શ્રિયાને માચાચારિણી કહી છે. તેથી મુનિએ સિએને માયાચારિણી સમજીને તેમના પર બિલકુલ શ્રદ્ધા રાખવી જોઇએ નહી. ૨૪ शब्दार्थ - 'जुवइ - युवति.' युवावस्थावजी अ स्त्री 'विधित्तालंकारवत्थ:-' गाणि परिहित्ता - विचित्रालकारवस्त्राणि परिघाच' भित्र विचित्र असर भने वस्त्रो पडेरीने श्रभधुनी पासे भावीने 'समणं बूबा - श्रमण ब्रूयात्' साधुने -भयंतारो - हे मचत्रात' हे लयची रक्षा १२मार साधो । 'अहं विरता Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीपहनिरूपणम् .. २६३ ' अन्वयार्थः-(जुत्रइ) युवतिरमिनवयौवना (विचित्तालंकारवत्थगाणि परिहिता) विचित्रालंकारवस्त्राणि परिधाय श्रमणसमीपमागत्य (समर्ण बूया) श्रमणं पतिब्रूयात् (भयंतारो) हे भयत्रातः (विरता) विरता संसारात् (रुख) रूक्षं संयममई चरिष्ये अतः (जे) अपस्यम् (धम्ममाइक्ख) धर्ममाचक्ष धर्मोपदेशं कुरु इति ॥२५॥ टीका--'जुबई युवतिः-अभिनवयौवना मनोरमा 'विचित्तालंकारवत्थगाणि परिहिता' विचित्रालंकार वस्त्र कानि परिचाय-विलक्षणाऽऽभूपणवस्त्राणि परिधाय । कपटपूर्वकाम्-'सम' श्रमणसमीपमागत्य 'बूया' ब्रूयात् 'अहं गृह संबन्धेन्योविरता । मम पतिः परिवारश्च नानुकूछोऽपि तु प्रतिकूल माचरति । सर्वतो विरक्ता संयम मेच पालयिष्यामि इति मम निश्चयो जातः । अतो 'भयंतारों' हे भयगृहबन्धन से विरक्त होकर 'रुस्खं-रुक्ष संयम का चरिस्त-आचरिष्ये पालन करूंगी 'णे-अस्मयम् मुझको आप 'धम्मामाइक्व-धर्ममाचक्ष्व' धर्म का उपदेश करे ॥२५॥ अन्वयार्थ-नवयौवना स्त्री विचित्र अलंकारों और वस्त्रों को धारण करके श्रमण के समीप आकर उससे कहे हे भयंसे रक्षा करने वाले, मैं संसार से विरत हो चुकी हूँ। संघम का आचरण फरूंगी। मुझे धर्म का उपदेश कीजिए ॥२५॥ - टीकार्थ--कोई स्त्री नवयुवत्ति हो और वह विलक्षण प्रकार के घस्त्रों एवं आभूषण ले सजकर, श्रमणों के पास आवे और कपटप्रर्वक कहे कि-मैं संसार से विरक्त हो चुकी हूं । मेश पति अनुक्रल नहीं वरन्न प्रतिकूल आचरण करता है । अतएव मैंने निश्चय कर लिया "अह विरता'22 नयी वि२त ५४२ रुक्ख-रुक्षम्' सयभनु 'चरिस्सं-आचरिप्ये' मायर रीश. 'णे-अस्मभ्यम्' भने १५ 'धम्ममाइक्ख ' -धर्ममाचक्ष्व' भनी पहेश ४. ॥२५॥ સૂત્રાર્થ –કદાચ કેઈ નવયૌવના સ્ત્રી વિવિધ વસ્ત્ર અલંકારે ધારણ કરીને સાઇની પાસે આવીને એવી વિનંતી કરે કે “હે સંસારમયથી રક્ષણ કરનારા મુનિ ! હું સંસારથી વિરક્ત થઈ ગઈ છું. હું સંયમની આરાધના કરીશ. આપ મને ધર્મોપદેશ કરો” તે પણ સાધુએ તેના વચનમાં • श्रद्धा भूवी को नही. ટીકા-કોઈ નવવના સ્ત્રી વિવિધ આભૂષણે તથા સુંદર વસ્ત્રો વડે બનીઠનીને સાધુની સમીપે આવે અને કપટપૂર્વક આ પ્રકારનાં વચને બોલે કે “મને આ સંસાર પર વૈરાગ્ય આવી ગયેલ છે. મારે પતિ મારી સાથે પ્રતિકૂળ આચરણ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे त्रातः ? संसारभयात् रक्षा सुने ? मलं 'धम्म' धर्म-चारित्रधर्मम् 'आइक्ख' आचक्ष्व-कथय, उपदेशं देहि । भयानकोऽयं संसार, अस्मान्ने त्राणं झुरु इत्यादि वचनं कथयति । एतत्रूवानमपि एतासां व्यामोहायैव साधूनाम् न तु तत्वतः प्रतिपादनम् इति ॥२५॥ मूलम् - अदु सानिमायापणं अहमतिमाहमिलगी चमगाणं। जतुकुंथे जहा उबो लंकाले बिदूं विसीयजा ॥२६॥ छाया---अथ श्राविकायनादेव अहमसिल सावमिणी च श्रमणानाम् । जतुकुम्मो यथा उएज्योति' संवासे बिहानिपीइन् ॥२६॥ है कि सबसे विरत होकर अब संप का पालन करूं । हे ललार भय से रक्षण करने वाले हुने ! मुझे चादित्रधर्म का उपदेश कीजिये । यह संसार भयानक है। इससे तुझे बचाइए । इत्यादि वचन कहती है तो उसका यह बयन साधु को बहलाने के लिए ही समझना चाहिए। उसमें वास्तविकता नहीं होती ॥२५॥ शब्दार्थ-'अदु-अथ' उपर्युक्त कथन के अनन्तर सविधापवाएणं-श्राविकाप्रवाह' श्राविका होने के बहाने से स्त्री साधु के निकट में आती है 'लमणणं-श्रमणानां श्रमणों की 'अहसंलि साहम्मिणीअहमस्मि लाधर्मिणी' लामिणी हूं ऐसा कहकर भी साधु के पास आती है 'जहा उदज्जे,ह-यथा उज्योतिः' जैले अग्नि के निकट 'जतुकुंभे-जतुकुंभ' लाख का घड़ा पिघल जाता है इसी प्रकार 'विदू-विधान' કરે છે. તેથી આ સંસારના મોહમાયાનો ત્યાગ કરીને સંયમ ગ્રહણ કરવાનો એ નિશ્ચય કર્યો છે, તે સંસારભયથી રક્ષણ કરનારા મુનિ ! મને ચારિત્ર ધર્મને ઉપદેશ દે. આ સંસાર થયાનક છે, તેમાંથી મને બચા, આ પ્રકારના વચને ભલે તે બોલતી હોય, પરંતુ તે વચનેને તેથી માયાજાળરૂપે સમજીને સાધુએ તેને વિશ્વાસ કરવું જોઈએ નહીં. આ પ્રકારનાં વચનો તે માત્ર કહેવાનાં જ હોય છે-તેમાં વાસ્તવિકતા દેતી નથી પરપા शहाथ-'अदु-अथवा', उपयुत यन ५छी 'सावियापवाणं-श्राविकाप्रवादेन' श्राविधा डावाना नाथी स्त्री साधुना सभीभा मा छे. 'समणाण-श्रमणानां' श्रमाने 'अमंसि साहम्मिणी-अहमस्मि साधर्मिणी' हु साधमिली छु. मे ४ान ५ त साधुनी पासे यावे छे. 'जहा उज्जोइयथा उपज्योतिः' म गनिनी पासे 'जतुकुंभे-जनुकुभः' सामना पानी Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम्... .. .३६५ अन्वयार्थ:-(अदु) अथ पश्चात् अथवा इति वा (सावियापवारण) श्राविका पवादेन-श्राविकान्याजेन (समणाणं) श्रमणानां युष्माकं (अहमंसि साहम्मिणी) अहमस्मि साधर्मिणी-इति कथयित्वा' साधुममीपमागच्छति (जहा उज्जोई) यथा उपज्योति:-अग्नेः-समीपे (जतुकुंभे) जतुकुंभ इ (वि) विद्वान् (संवासे) संवासे-स्त्रीसंपर्के (विसीएन्जा) विषीदेत शीतलबिहारी भवेत् , यथाऽग्निसमीपे लाक्षाघटी दिलीयते तथा स्त्रीसंपर्क साधुरपि भ्रष्टो भवतीति ॥२६॥ टीका-'अहु' अथ समीपागमनानन्तरम् अथवा इति वा अथ='सारिया'पवारणं' श्राविका मादेन--अहं श्राविकासिम इति कपटेन साधुसमीपमामत्य । 'समणाण' श्रमणानां लायूनाम् 'अहं साहम्भिणी' साक्षिणी अस्मि, साधूनां विद्वान् पुरुष संवा संचाले' स्त्री के सम्पर्क में 'विसीएज्जा-विषीदेत' शीतल विहारी हो जाते हैं अर्थात् जैशा अग्नि के संसर्ग से घी पिघल जाता है वैसा ही स्त्री के संपर्क से साधु भी भ्रष्ट हो जाता है ॥२६॥ ___ अन्वयार्थ--अथवा कोई स्त्री आविक्षा होने का बहाना करके साधु के पास आती है । वह 'मैं आप की साधर्मिणी हूं, ऐसा कहती है । किन्तु जैसे अग्नि के समीप स्थित लाख का घडा पिघल जाता है। उसी प्रकार स्त्री के सम्पर्क से साधु विषाद को प्राप्त होता है-शिथि. लाचारी हो जाता है ॥२६॥ टीकार्थ--अथवा कोई स्त्री 'मैं श्राधिका' इस प्रकार का बहाना करके कपटपूर्वक साधु के सन्निकट आती है । वह साधु की साधर्मिणी लय छे. मे प्रमाणे 'विदू-विद्वान्' विद्वान् ५३५ 'संवासे-संवासे शियाना ५४ मा 'विसीएज्जा-विपीदेत' शीdaविलारी 25 तय छे. अर्थात म અગ્નિના સંપર્કથી લાખ ઓગળી જાય છે. એ જ પ્રમાણે સ્ત્રી સંપર્કથી સીધુ પણ ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે. જે ૨૬ છે સૂત્રાર્થ—અથવા કેઈ સ્ત્રી શ્રાવિકા હોવાનું બહાનું કાઢીને સાધુની પાસે આવે છે. તે સાધુને કહે છે કે હું આપની સાધર્મિણી છું.’ આ તે તેની કપટજાળ જ હોય છે. જેવી રીતે અનિની પાસે પડેલે લાખ ઘટે ‘ઓગળી જાય છે, એજ પ્રપાણે સ્ત્રીના સંપર્કથી સાધુ શિથિલાચારી બની જાય છે અને આલોક અને પરલોકમાં દુઓને અનુભવ કરે છે. સાદા ___ -2424-'हुँ श्रावित छु' मे मनु दीन । सी ४५८પૂર્વક સાધુની પાસે આવે છે. તે સાધુની સાધર્મિણી (સમાન ધમવાળી) खु० ३४ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे साधर्मिणी अहमस्मीति कपटेन साधुपमीपमागत्य साधु धर्मात् प्रस्खलयति । अयं भाषा-स्त्रीणां संबन्धो महतेऽनर्थाय भवति साधूनाम् । साधोर्ज्ञानं तसंयमादिकं सर्वमपि स्त्र संपत्सिहसैव विनश्यति । तदुक्तम् 'तज्ज्ञानं तच्च विज्ञानं तत्तः स च संयमः। सर्वमेकपदे भ्रष्टं सर्वश किमपि स्त्रियाः ॥१॥ स्त्रीपान्निध्यात पुरुषाणां अनर्थे पतनं भवतीत्या दृष्टान्तं दर्शयति । 'जतुकुंभे इत्यादि। 'जहा' यथा-उपज्योतिः, अग्निाश्रीपे लाक्षाघटः धृतवटो वा विलीयते। एवं स्त्रीणां 'संबासे संबासे 'विउ' विद्वान्-शास्त्रज्ञोऽपि 'विसीएजा'.विपी देत । संयमानुष्ठान प्रति शिथिलो भवेत् । तदुक्तम्(समान धर्म वाली) बनकर कपट से साधु को भ्रष्ट करती है । तात्पर्य यह है कि स्त्री का सम्पर्क साधुओं के लिये घोर अनर्थ का कारण घनना है । स्त्री के सम्पर्क से साधु का तप संयम आदि सब कुछ सहसा ही नष्ट हो जाता है। का भी है-'तज्ज्ञानं' इत्यादि ' 'साधु का वह ज्ञान, वह विज्ञान, यह ता और वह संयम जो उसने अत्यन्त श्रम से दीर्घकालीन साधनों के द्वारा प्राप्त किये हैं, स्त्री के संसर्ग से वे सभी एकदम ही नष्ट हो जाते हैं।' स्त्री के सान्निध्य से पुरुषों का किस प्रकार अनर्थ में पतन होता है, 'यह बात दृष्टान्त द्वारा दिखलाते हैं-जैसे अग्नि के समीप स्थित लाख का घट पिघल कर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार शास्त्रज्ञ मुनि भी स्त्री के सम्पर्क से शिथिलाबारी हो जाता है। कहा है-'तप्ताङ्गारसमा' इत्यादि બનીને કપટથી સાધુને ભ્રષ્ટ કરે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે સ્ત્રિઓને સંપર્ક સાધુને માટે ઘ ર અનર્થનું કારણ બને છે સ્ત્રીના સંપર્કને લીધે સાધુના તપ, સંયમ આદિ એકાએક ન જ થઈ જાય છે. કહ્યું પણ છે કે'तज्ज्ञान' या 'ज्ञान, विज्ञान, त५, सयमा १३तु २ तेथे (સાધુએ) અત્યન્ત શ્રમ અને દીર્ઘકાલીન સાધના દ્વારા પ્રાપ્ત કરેલ હોય છે, તે બધું સ્ત્રીના સંસર્ગમાં આવતાં જ એકદમ નષ્ટ થઈ જાય છે.' સ્ત્રીના સમાગમમાં આવવાથી સાધુનું કેવી રીતે પતન થાય છે. સ્ત્રીસમાગમ સાધુને માટે અનર્થનું, કારણ કેવી રીતે બને છે તે સૂત્રકાર છાત્ત દ્વારા સમજાવે છે-જેવી રીતે અગ્નિની સમીપમાં મૂકેલે લાખને ઘડે પીગળીને નષ્ટ થઈ જાય છે, એ જ પ્રમ ણે શાસ્ત્ર મુનિ પણ સ્ત્રીના સંપર્કને सीधे शिथितयारी थई छ. यु ५५ छ -'तप्ताङ्गारस्मा' त्यादि Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. य. ४ उ १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम् २६७ 'तप्ताङ्गारसमा नारी घृनकुम्भसमः पुमान् । तपाद् धृतं च दहिं च नैकत्र स्थापये दुधः ॥१॥ इति ॥२६॥ स्त्रीसान्निध्ये दोपान भदर्य तत्सबन्धजनितं दोषं दर्शयितुमाह- " 'जतुकुंभे' इत्यादि। मूलम्-जंतुकुंभे जोइडवगूढे औसुऽभितत्ते जालमुक्याइ। एवित्थियाहिं अर्णगारा संवारण णासमुवयंति ॥२७॥ छाया--जतुकुम्मा ज्योतिरुपगूढ आश्वभितप्तो नाशमुपयाति । एवं स्त्रीभिरनगाराः संवासेन नाशमुपयान्ति ॥२७॥ स्त्री प्रज्वलित अंगारेके समान है और पुरुष घृत के घडे के समान है । अतएव बुद्धिमान् पुरुष कृत और अग्नि को एक स्थान पर स्थापित न करे ॥२६॥ स्त्री की समीपता से होने वाले दोयों को दिखलाकर उसके संबन्ध से होने वाले दोष दिखाने के लिये कहते हैं-'जतुकुंभे' इत्यादि । शब्दार्थ--'जोइ उवढे जतुकुंभे-ज्योतिरुपगूढो जतुकुंभ:' जैसे अग्नि से स्पर्श किया हुआ लाख का घडा 'आसुभिनत्ते णासमुक्याइआश्वभितप्तो नाशमुपयाति' शीघ्र तप्त होकर नष्ट हो जाता है 'एवंएवं' इसी प्रकार 'इस्थियाहिं-स्त्रीभिः' स्त्रियों के 'संबासेण-संवासेन' सहवास से 'अपगारा-अनगारा:' अनगार-साधु 'णासमुक्यंति-नाशा मुपयान्ति' नष्ट हो जाते हैं अर्थात् चारित्र से पतित हो जाते हैं ॥२७॥ “સ્ત્રી પ્રજવલિત અંગારા સમાન છે અને પુરુષ ઘીના ઘડા સમાન છે. તેથી બુદ્ધિમાન પુરુષે ઘી અને અગ્નિને એક જ જગ્યાએ એકઠાં થવા દેવા જોઈએ નહીં.” પર દા સ્ત્રીની સમીપતાને કારણે ઉદ્ભવતા દેને પ્રકટ કરીને હવે સૂત્રડાર तना हु.म. परिणामी प्र४२ ४३ छ-'जतुकुंभे' याह शा- 'जोइउवगूढे जतुकुंभे-ज्योतिरुपगूढो जतुकुझ.” म निथी १५शयिa aavat घडा 'आसुभिचत्ते णासमुक्याइ-आश्वभितप्तो नाशमुपयाति' लिया तपाने नाश पामे छ एवं- एवम्' से रीते 'इस्थियाहि-स्त्रीभि.' सियाना 'संवासेण-सवासेन' सहवासथी 'अणगारा-अनगारा.' मनसार-साधु 'णासमुवयंति-नाशमुपयान्ति' नाश ५. छ. अर्थात् यात्रियी पतित यई तय छे. ॥ २७ ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___ अन्वयार्थः-(जोइउवगूढे जतुकुंभे) ज्योतिरुपमूहो जतुकुंभः (भामुभितत्ते. णासमुपयाइ) आश्वभितप्तो नाशमुपयाति (एवं) एवं (इत्थियादि) स्त्रीभिः (संवा. सेण) संवासेन-सहवासेन (गगारा) अनगाराः साधयः (णासमुवयंति) नाशमुपयान्ति-चारित्रभ्रष्टा भवन्तीनि ॥२७॥ ___टोका-'जोइउवगूढे' ज्योतिरुपमूहः-ज्योतिपा-अग्न्यादिना उपगूढः संस्पृष्टः 'जतुकुंभे जतुकुम्भः लाक्षाघटः 'आसुमितत्त' आश्वभितप्तः-आशुशीघ्रम् , अभितप्तः, तेजसा तापितो घटः । 'णासावयाइ' नाशापगच्छति द्रवी. भूय विनष्टो भवति । 'एवं' एवमेव 'अणगारा' अनगारा:-साधना, नास्ति अगारः गृह येषां तेऽनगाराः। 'इत्थियाहि' स्त्रीभिः सह संबासेण संवासेन 'णासं' नाशं 'उज्यंति' उपयान्ति। कठिनसंयमपालनं परित्यज्य शिधिलविहारिणों भवन्ति । अथश संयमादतिशयेन भ्रष्टा एव भवन्ति । जतुकुम्भानामग्निस्पर्शवत् साधूनां स्त्रीसंपर्को नाशायैव भवति। तस्माद स्वहितार्थिना स्त्रीसंपर्क: सर्वथैव त्याज्य इति भावः ॥२७॥ अन्वधार्थ--अग्नि से स्पृष्ट हुआ लाख का घड़ा शीघ्र ही तप्त होकर विनाश को प्राप्त होता है। इसी प्रकार स्त्रियों के सहवास से साधुओं का विनाश हो जाता है-थे चरित्रभ्रष्ट हो जाते हैं ॥२७॥ - टीकार्थ--लाख के घट को अग्नि से अडाकर के रख दिया जाय तो वह एकदम तपकर विनष्ट हो जाता है, इसी प्रकार अनगार स्त्रियों के संवास से अर्थात् साथ रहने से नाश को प्राप्त होते हैं अर्थात्, कठिन संयम का त्याग करके शिथिलाचारी बन जाते हैं या संयम से: सर्वथा ही भ्रष्ट हो जाते हैं। तात्पर्य यह है-जैसे अग्नि का स्पर्श लाखके घडे के विनाश का कारण होता है, उसी प्रकार स्त्रीसम्पर्क - સૂવાર્થ–અગ્નિને સ્પર્શ પામતો લાખને ઘડો તપીને થોડી જ વારમાં વિનષ્ટ થઈ જાય છે, એ જ પ્રમાણે સ્ત્રિઓના સહવાસથી સાધુઓનો પણ વિનાશ જ થઈ જાય છે-તે ચારિત્રભ્રષ્ટ થઈ જાય છે પરછા ટીકાર્યું–લાખના ઘડાને અગ્નિને સ્પર્શ થાય એવી રીતે રાખવામાં આવે, તે તે એકદમ તપી જઈને-પીગળી- જઈને વિનષ્ટ થઈ જાય છે. એજ, પ્રમાણે જે અણગાર સ્ત્રીઓને સંપર્ક રાખે છે, અથવા તેમનો સહવાસ કરે છે, તે પણ વિનષ્ટ જ થઈ જાય છે. એટલે કે તે અણગાર કઠણ એવા સંયમને, ત્યાગ કરીને શિથિલાચારી બની જાય છે, અથવા સંયમના માર્ગેથી સર્વથા ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે જેવી રીતે અગ્નિનો સ્પર્શ લાખના ઘડાના. Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ लीपरीपहनिरूपणम् मूलम्-कुवंति पावंगं कम्मं पुंटा वेगेवमाहिंसु । 'नोहं करोमि पावंति अंकेसाइणी भैमेसति ॥२८॥ छाया--कुर्वन्ति पावकं कर्म पृष्टा एके एक्माहुः । नाहं करोमि पापमिति अंकेशायिनी ममैषेति ॥२८॥ अन्वयार्थ:-(पगे) एके-साधयः (पावर्ग) पापकं सावधं (कम्म) कर्म (कुवंति) कुर्वति (पुट्ठा) पृष्टा परेण (एवमाहिंस) एमाहुः (अहं) अहं (पाचं न करेमित्ति) अहं पापं न करोमीति (एसा) एषा स्त्री (मम) मम (अंकेसाइणीति) अंकेशायिनी इति वाल्यावस्थायां ममांकशायिनीति ॥२८॥ साधुओं के विनाश का कारण होता है । अतएव आत्महित के अभिः लाषी को स्त्री का सम्पर्क सर्वथा त्याग देना चाहिए ॥२७॥ शब्दार्थ--'एगे-एके' कोई साधु ‘पावगं-पापक' पापजनक 'कम्मकर्म' कर्म 'कुव्वंति-कुर्वन्ति' करते हैं 'पुट्ठा-पृष्टाः' अन्य द्वारा पूछने पर 'एषमाहितु-एवमाहु।' ऐसा कहते हैं 'अहं-अहम्' मैं 'पावं न करेमित्ति-पापं न करोनीति' पापकर्म नहीं करता हैं 'एसा-एषा यह स्त्री 'मम-मम' मेरे 'अंकेसाइणीति-अंशाधिनी' बाल्यकाल से ही मेरे उत्संग में सोती है अर्थात् मेरी कन्यका जैसी है ॥२८॥ ___अन्वयार्थ-कोई कोई साधु पापकर्म करते हैं किन्तु दूसरे के पूछने पर कहते हैं 'मैं पापकर्म नहीं करता हूँ।' यह स्त्री तो बाल्यावस्था से ही मेरी अंकेशाधिनी गोद में सोने वाली थी ॥२८॥ વિનાશનું કારણ બને, એજ પ્રમાણે સ્ત્રીસ પ સ ધુના વિનાશનું કારણ બને છેતેથી આ મહિત ચાહતા સાધુએ સ્ત્રીના સંપર્કને સર્વથા ત્યાગ કરે જઈએ. રહા शहा – 'एगे-एके' ६ ५५ साधु ‘प वर्ग-पापक म्' ५५न 'फम्मकर्म' में 'कुव्वति-कुर्वन्ति' ५२ छे. 'पुट्ठा-पृष्टाः' मी द्वारा पूछवामा भावे त्यारे 'एवमाहिसु-एवमाहुः' मे ४९ छे. 'अहं-अहम्' हु 'पाव' न करे. मित्ति-पाप न करोमीति' पा५ ४ ४२ता नथी. 'एसा-एषा' मा श्री 'मममम' भा२'केसाइणीति-अकेशायिनीति' माल्याराथी १ भागाभा સુવે છે. અર્થાત્ મારી દીકરી જેવી છે. ૨૮ સૂત્રાર્થ –કઈ કઈ સાધુ પાપકર્મોનુ સેવન કરે છે અને જ્યારે કોઈ તેના ચારિત્ર વિશે સદેહ કરે ત્યારે તે એવો જવાબ આપે છે કે હું પાપકર્મનું સેવન કરતું નથી. આ સ્ત્રી તો બાલ્યાવસ્થામાં મારી અંકેશાયિની (ાળામાં शयन ४२नारी) स्त. ॥२८॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० सूत्रकृतास्त्रे ___टीका--'एगे एके-साधः संसाराऽभिषक्ता ऐहिक.पारलौकिककर्मभयात् स्यक्तमानसाः 'पावर्ग' पापम् 'कस्म कर्म 'कुवंति' पुर्वन्ति । 'पुटा' पृष्टा - गुरुभिः पृष्टाः सन्त एवमाहुः 'अहं पावग' अहं पाप कर्म न करोमि, नाऽहमेवं कुलसमुत्पन्नो यदेवविधं कर्म करिष्ये । 'एसा एषा 'अंकेसाइणी' अंकेशायिनी कन्यासदृशी पूर्वमासीत् । तदेषा मयि एवं करोति, किन्तु अ विदितसंसारासारस्वमायः प्राणाऽतिपातेऽपि एतादृशं कुत्सितकृत्यं नै करिष्यामि एवं मिथ्या वचनं प्ररूपयति, इति ॥२८॥ मूलम्-बालस्स संदेयं बीयं जं च कडं अजाणइ सुनो। दुर्गुणं करई से पावं पूर्यणकामो विसन्नेसी॥२९॥ छाया-बालस्य मान्द्यं द्वितीयं यत् च कृतमपजातीते श्रूयः । द्विगुणं करोनि स पापं पूजनकामो विषण्णपी ॥२९॥ . ___टीक्षार्थ--कोई साधु, जो संसार में आसक्त हैं और इहलोक तथा परलोक संबंधी फर्म भय से रहित हैं, पापर्म करते हैं, किन्तु जब उनके गुरू आदि उनसे पूछते हैं तो ऐसा करते हैं कि मैं पापकर्म नहीं करता। मैं ऊंचे कुल में जन्मा हूँ ऐसा पाप कैसे कर सकता हूँ। यह स्त्री अंकेशायिनी है अर्थात् कन्या के समान है। इसी कारण यह मेरे साथ ऐसा व्यवहार करती है । मैंने संसार के अलार स्वरूप को समझा है। में प्राण जाने पर भी ऐसा कुकृत्य नहीं करूंगा। इस प्रकार मिथ्या वचनों का प्रयोग करते हैं ॥२८॥ ટીક – ઈ સાધુ કે જે સંસારમાં આસક્ત હોય છે અને એ લોક અને પરલેક સ બંધી કર્મભયથી જે રહિત છે, તેના દ્વારા પાપકર્મનું સેવન કરવામાં આવે છે, પરંતુ જ્યારે તેના ગુરુ આદિ તે વિષે તેને પૂછે છે ત્યારે તે એવો જવાબ આપે છે કે – હું પાપકર્મ આચરતો નથી, ઊંચા કુળમાં જ છું. મારાથી એવું પાપકર્મ કેવી રીતે કરી શકાય? તમે જે સ્ત્રી સાથેના મારા સંબધના વિષયમાં સંદેહ સે છે, તે સ્ત્રી તે અંકેશાયિની છે. એટલે કે બાલ્યાવસ્થામાં તે મારા ખોળામાં ખેલી હતી અને શયન કરતી હતી. તે તે મારી પુત્રી સમાન છે. તે કારણે તે મારી સાથે એવો વ્યવહાર રાખે છે. મેં સંસારની અસારતાને જાણી લીધી છે. મારાં પ્રાણનો નાશ થાય તે પણ હું એવું દુષ્ક્રય ન કરુ આ પ્રકારનાં અસત્ય વચને તે પ્રગ रे छे. १२८॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ समयार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ४ उ. १ स्त्रोपपहनिरूपणम् अन्वयार्थ - (बालस्स) बालस्य अज्ञानिनः (वीर्य) द्वितीयं मंदय) मान्छेमूर्खत्वं (जं च कडं भुज्जो अजाण ) यच कृतं दुष्कर्म तस्य भूयः पुनः अपजानीते - अपलापं करोति, एकं तु पाप मैथुनं द्वितीयं मृपावादित्वम् अः (से) सः (दुगु पात्र करे) द्विगुणं पापं करोनि (पूयणकामो) लोके पूजाकामः (विसंनेसी) विषण्णैपी - असंयमेच्छावानिति ॥ २९ ॥ शब्दार्थ--'बालस्स- बालस्य' अज्ञानी पुरुष की 'बीयं - द्वितीय' दूसरी 'संयं-मान्यं' सूर्खता यह है की 'जं च कडं भुजो अवज्ञाण - यच्च कृतं भूयः अपजानीते' यह किये हुए पापकर्म को नहीं किया हुआ कहता है 'से-तः' वह पुरुष 'दुगुणं पार्व करेह - द्विगुणं पापं कति' प्रथम पाप करना और उसके छिपाने के लिये झूठ बोलना इस प्रकार दुगना पाप करता है 'पूयणकालो- पूजाकामः' वह जगत में अपनी पूजा चाहता है और 'बिन्सी- विषण्णैपी' असंयम की इच्छा करता है । २९ । अन्वयार्थ - ऐसा कहना अज्ञानी जीव की दूसरी मूर्खता है कि वह किये हुए पापकर्म का अपलाप करता है । उसने एक पाप मैथुन सेवन का किया दूसरा मृषावाद का । इस प्रकार उसने दुगुना पाप किया। वह लोक में पूजा का कामी और असंयम की इच्छा वाला होता है || २९ ॥ शब्दार्थ - बालास- बालस्य' अज्ञानी पु३षनी त्रीय- द्वितीयम्' बील 'मंदयमान्द्यम्' भूर्खताये छे ! 'जं च कड भुज्जो अवजाणइ - यच्च कृतं भूयः अपजानीते' ते पुरेसा पायम्भुने नथी यु' तेम ४ छे तेथी ' से - ख. ' ते ५३ष दुगुणंपाव करेइ - द्विगुण पाप करोति' थे तो पाय १२ याने तेने छुपाववा लुहु खोलवु मे रीते माशु याप रे छे 'पूयणका मो - पूजाकाम. ' ते भगतभां पोतानी पूल थाडे हे खुले 'विश्वन्नेसी - विषण्णैषी' अस यमनी ઈચ્છા કરે છે. ૫ ૨૯ ! સૂત્ર --પાપકૃત્યનું સેવન કરીને આ પ્રમાણે અસત્યના આશ્રય લેવે તે અજ્ઞાની જીવની મીજી મૂ`તા છે, મૈથુનસેવન રૂપ એક પાપ તે તેણે કર્યું" જ છે, હવે તે પાપના ઇન્કાર કરીને તે મૃષાવાદ રૂપ બીજા પાપનુ પણ સેવન કરે છે. આ પ્રકારે તે બમણું પાપ કરે છે. આ પ્રકારે સયમની વિરાધના કરવા છતાં પશુ લેાકેામાં પેાતાની પૂજા-સત્કાર–થાય એવી અભિલાષા તે રાખતા હાય છે. ારા Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ सूत्रकृताङ्गधने टीकार्थ- 'बालस्स' वालस्य मन्दमतेः रागद्वे रश्कलुषितान्तःकरणस्य । 'बीयं' द्वितीयमिदम् 'मंदर्य' मान्यम्-अज्ञत्तम् । हिदि द्वितीयम्-'जं च कडं' यच पापकर्म कृतम् , शरीरवालनोलिः संपादितम् । तादृशं मैथुनरूपं कर्म तत् प्रथमम् , 'भुजो' भूयः गुर्वादिभिः पृष्टः सन् पुनरपि 'अवजाणइ' अपजानीते अश्लापं करोतिप्रच्छादयति नाहमेवं कृतवानिति द्वितीयम् एवम् । 'से' स पुरुषः 'दुगुणं पावं करे' द्विगुणं पापं करोति । किमर्थमेवं करोति तत्र ह- 'पूयणसामो' पूजनकामः, लोकेऽस्माकं पूजा भवतु इत्यभिलापां वित्तिं करोति च संयमविराधरम् । एकस्तु तावत् माथमिको दोषः, यत् पापाम तेन कृतम् । द्वितीयस्तु दोषः तादृशं कुत्सितं कर्म कृत्वाऽपि परेण पृष्टोऽपलपति । एतादृशः पुरुषः संसारे स्वकीयपूजादिकमिच्छन् (विसन्ने सी) विपश्येपी-विष्ण!-असंयत्रः, तस्यैपी-अभिलापीअस्ति असंयममिच्छतीत्यर्थः। पापकर्माऽनुष्ठानं मृषावादिता च, इति उभय. मपि दोपायैवेति भावः ॥२९॥ टीकार्थ--रागद्वेष से कलुषिन अन्तःकरणवाले मतिमन्द उस साधु की यह दूसरी मूढता है । वह दूसरी मूढता कौन सी हैं ? एक तो उसने मन बचन काय से पापकर्म किया, दूसरे गुरु आदि के पूछने पर वह नटता है। उसे छिपाने के लिए कहता है कि मैंने ऐसा "नहीं किया है । ऐसा मनुष्य दुगुना पाप करता है । वह चाहता है कि लोक में मेरी पूजा प्रतिष्ठा हो किन्तु करता है संयमविराधना। ... तात्पर्य यह है कि पहला दोष तो उसने यह किया कि पापकर्म किया, दूसरा दोष यह है कि दूसरे के पूछने पर दोष का सेवन करके भी अपलाप किया। ऐसा पुरुष चाहता तो यह है कि लोक में मेरी 1 ટીકા-રાગદ્વેષથી કલુષિત અંત:કરણવાળા, મન્દતિ તે સાધુની આ બીજી 'મૂઢતા છે, આ બીજી મૂઢતા કઈ છે, તે સૂત્રકાર સમજાવે છે–પહેલી મૂઢતા તો એ છે કે તેણે પાપકર્મ કર્યું. ગુરુ આદિએ તેને પૂછયું ત્યારે તેણે કહ્યું કે હું પાપકર્મ કરતું નથી' આ પ્રકારે અમાત્ય વચનનો જે આધાર લીધે, તે તેની બીજી મૂઢતા ગ શકાય તે બમણું પાપ કરે છે -મૈથુનસેવન જન્ય પાપ અને મૃષાવાદજન્ય પાપ તે એવું ઈચ્છે છે કે લેકમાં મારી પૂજાપ્રતિષ્ઠા થાય, પરંતુ તેને આ પ્રકારના વર્તન દ્વારા તે સંયમની વિરાધના કરતો હોય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે તેણે પાપકર્મનું સેવન કયું આ તેને પહેલો દેવ “પોતે પાપકર્મ રસ્તો નથી. આ પ્રકારના અસત્ય કથનને કારણે ત મૃષાવાદના દોષને પણ પાત્ર છે પાપકર્મનું આચરણ અને અસત્ય ભાષણ, આ બન્ને દેશે કરવાને કારણે તે બમણ પાપને પાત્ર થશે. એ સાધુ એવું Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरोपहनिरूपणम् . २७३, किं च-'संलोक' इत्यादि। मूलम् संलोकणिजसणणारं आयगेयं निमंतणे हिंसु । वत्थं च ताइ पायं वा अन्नं पाणगं पडिग्गाहे ॥३०॥ छाया-संलोकनीयानमारमात्मगतं निसंत्रणेनाहः । वस्त्रं च नायिन ! पात्रं वा अन्नं पानकं प्रतिगृहाण । ३०॥ अन्वयार्थः-(संलोकणिज्य) स छोकनीय दर्शनीयं सुन्दरम् (आयगयं) आत्मगतमात्मज्ञानिनम् (अगगारं) अमगारं साधु स्त्रियः (निमंतणेण) निमंत्रणेन (आहेसु) प्रतिष्ठा हो, मुझे लोग संपनी सन झे, किन्तु आचरण करता है संयम के प्रतिकूल ! पापकर्म का अनुष्ठान करना और मिथ्या भाषण फरना, यह दोनों ही दोषजनक हैं ।।२९।। और भी कहते हैं-'सलोकणिज' इत्यादि। शब्दार्थ-संलोकणिज्जे-संलोकनीयम्' देखने में. सुन्दर 'आय. गयं-आत्मगतम्' आत्मज्ञानी 'अणगारं-अलगारस्' साधु को 'निमंतणेण-निमंत्रणेन' निमंत्रण देकर 'आहंसु-आहुः स्त्री कहती हैं कि 'ताइहे वाथिन् ! भवसागर से रक्षा करने वाले हे साधो! 'वत्थं च-बस्त्रं च' वस्त्र ‘पायं वा-पानं वा' अथवा पात्र 'अन्न-अन्नम्' अशनादि 'पानगंपानकम्' और पानी-अचित्त जल 'पडिग्गाहे-प्रतिगृहाण' मेरी पाल से इन चीजों का आप स्वीकार करें ॥३०॥ अन्वयार्थ--बोई कोई स्त्रियां सुन्दर आत्मज्ञानी साधु को आमंत्रण ચાતો હોય છે કે લેકમાં મારી પ્રતિષ્ઠા વધે-લોકે મારે સત્કાર-કરે–લાકે મને સંયમી માનીને મારી પૂજાપ્રતિષ્ઠા કરે, પરંતુ તેનું આચરણ તે સંયમથી પ્રતિકૂળ જ હોય છે. મારા 4जी सूत्र २ ४ छ है-'संलोकणिज्ज' त्याह Avail-'संलोकणिज्ज-सलोकनीयम्' नेपामा सु२ 'आयगयं-आत्मगतम्' मात्मज्ञानी 'अणगारं-अनगारम्' से धुने 'निमतणेण-निमंत्रणेन' निमत्रय माधान आहेसु-पाहु.' श्री ४७ छ ४-'ताइ-हे त्रायिन् ' सारथी २६ ४२१वा साधे ! 'वत्थ च-वस्त्रं च वर पाय वा-पात्र वा' अथवा पात्र 'अन्नं-'अन्नम्' मा२ वगेरे 'पानगं-पानकम्' मने पान अर्थात् मथित्त are 'पहिगाहे-प्रतिगृहाण' भारी पासेथी २मा पस्तुमान। २५ स्वी४२ ४३ ॥३०॥ સૂત્રાર્થ–કઈ કઈ સ્ત્રિઓ સુંદર, આત્મજ્ઞાની સાધુને એવી વિનંતી सु० ३५ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E २७४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे थाहुः कथयन्ति (ताइ) हे नायिन् ! संसारकांताररक्षक ! (दत्थं च) वस्त्रं च (पायं वा) पात्रं वा 'अन्नं' अन्नम् अशनादिकं (पाणगं) पानकम्-अचित्तं जलम् (पडिग्गाहे) प्रतिगृहाण-अस्मद्धस्तादीयमानमेतत्सर्व स्वीकुल इति ॥३०॥ टीका-'संलोकणिज्ज' संलोजनीयं दर्शनेऽतिमुन्दरं संथताचारपरिपालक साधुम् 'मायगयं' आत्मगतं आत्मज्ञानिनन् 'अणगारं' अनगारं अगारपरिवर्जितं साधुन् विपः 'निमंतणेणा हंसु' निमन्त्रणेनाः-निमय कथयन्ति-'ताई' त्राधिन्-हे संभारसागराद रक्षक ! महापुरुष ! 'वत्थं स्त्रम् पाय' पात्रम् 'अन्नं पाणा' आनं पानीयम् , अस्मद्भयः पदीयमानं 'पडिग्गई' प्रतिगृहाण-स्वीकुरु । इत्येतत्सर्वम् दयं तुभ्यं दास्यामः, अस्मद्गृहमागत्य स्वीकुरु इति ॥३०॥ ___ ततः संयतेन किं कर्तव्यं तत्राह-णीवारे' त्यादि । मूलम्-शीवारमेवं बुज्झेजा जो इच्छे अगारसागंतुं। बोदिसयपालहि मोह मावेजइ पुंगो मंदे ॥३१॥त्तिबेमि॥ करके कहती हैं-हे संसार कान्तार से रक्षा करने वाले ! वस्त्र लीजिए, पात्र लीजिए, अन्न ग्रहण कीजिए, पान ग्रहण कीजिए मेरे हाथ से दिये जाने वाले इन पदार्थों को स्वीकार कीजिए ॥३०॥ टोकार्थ-जो देखने में अत्यन्त सुन्दर है, संयमी के आचार का पालक है, और आत्मज्ञानी है, ऐसे गृहत्यागी साधु को निमंत्रित करके स्त्रियां कहती हैं-हे संसारसागर से रक्षा करने वाले महापुरुष ! मेरे हाथ से वस्त्र, पात्र, अन्न, पानी ग्रहण कीजिए। यह सब पदार्थ मैं आप को प्रदान करूंगी, मेरे घर पधारकर आप स्वीकार करें ॥३०॥ કરે છે કે “હે સંસારકાન્તારમાંથી રક્ષા કરનારા મુનિ ! આપ મારી પાસેથી વસ્ત્રના દાનનો સ્વીકાર કરે. મારા હાથથી અપાતા અન્ન દાનનો તથા પિય સામગ્રીને સ્વીકાર કરે, હે મુનિ ! મારા હાથથી પ્રદત્ત થતી આ બધી વસ્તુઓને આ૫ સ્વીકાર કરો ૩૦૧ ટીકાર્ય–-જેઓ અત્યન્ત સુંદર હોય છે, સાધુના આચારનું પાલન કરનારા હોય છે અને આત્મજ્ઞાની હોય છે, એવા અણગાને સ્ત્રિઓ પિતાને ઘેર પધારવાનું નિમંત્રણ આપીને એવું કહે છે કે “હે સંસારસાગરને પાર કરાવનારા મહાપુરુષ! આપ મારે ઘેર પધારીને મારા હાથથી વસ્ત્ર, પાત્ર, આહાર, પાણી આદિનો સ્વીકાર કરે. તે સઘળા પદાર્થો હું આપને પ્રદાન કરીશ. તે આપ મારે ઘેર પધારીને તેને સ્વીકાર કરો. ૩ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. Q. अं. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपम् २७५ छाया-नोवारमेवं बुद्धयेत नेच्छेदगारमागन्तुम् । बद्धो विषयपाशेन मोहमापद्यते पुनर्मन्दः ॥३१॥इति ब्रवीमि।। अन्वयार्थः-(एवं) एवमुक्तपकारकं प्रलोभनं साधुः (नीवार बुझेना) नीवारं बुध्येत-वन्यपशुबंधने तंडुलकण मित्र जानीयात् (अंगारं) आगारं-गृहम् (आगंतुं) आगन्तुम् (गो इच्छे) नो इच्छेत् (विसयपासेहि) विपरपाशैर्बद्धः (मंदे) तब साधु को क्या करना चाहिए ? लो कहते हैं 'णीवार०' इत्यादि । शब्दार्थ-एवं-एवम्' उक्त प्रकार के प्रलोभन को साधु 'नीवारं वुज्झेज्जा-नीवारं बुध्धेत' जंगल के पशु को वश करने में चावल के दाने के जैसा समझे 'अमारं-आगारम्' घर 'मागंतुं-आगन्तुम्' आने की 'णो इच्छे-नो इच्छेत्' इच्छा न करें 'विसयपासेहि-विषयपाशैः' विषयरूपी पाश से बँधा हुआ 'मंदे-मन्दः' अज्ञानी पुरुष 'मोहमावज्जइ मोहमापद्यते' मोह को प्राप्त होता है 'त्तिवेमि-हति प्रवीमि' ऐसा मैं कहता हूँ ॥३१॥ ___अन्वयार्थ--इस प्रकार के प्रलोभन को साधु नीवार समझे वन्य पश को बांधने के लिये बिखेरे हुए तन्दुलों के समान समझे। वह उनके घर जाने की इच्छा भी न करे। विषय के बन्धन में बद्ध अज्ञानी આ પ્રકારનાં પ્રલોભને બતાવવામાં આવે, ત્યારે સાધુએ શું કરવું न त सूत्रा२ मताव छ -'णीवार०' त्यादि शहाथ---‘एवं-एवम्' 61 Naat मनाने साधु 'नीवार बुज्ञज्जानीवारम बध्येत' ही प्राणुियात १श ४२वामा यामाना हायानी भा४ सभर 'अगार-अनारम्' ३२ 'आगंतु-आगन्तुम् ' आमानी 'णो इच्छे-नो इच्छेत्' ५२७४न ४२ 'विसयराहि-विषय' विषय३५ी पाशी मचाये। मंद-मन्दः' अज्ञानी ५३५ 'मोहमावाइ-मोहमापद्यते' मोड पामे छे. 'त्तिवेमिइति ब्रवीमि' सेम छु. 311 સત્રાર્થ-આ પ્રકારનાં પ્રલો મનેને સાધુએ નીવાર (પશુઓને જાળવવા ફસાવવા માટે વેરેલા તન્દુલ) સમાન સમજવા જોઈએ. તેણે તે સ્ત્રીના ઘેર જવાની ઇરછા પણ ન કરવી જોઈએ. તેણે એ વાતને બરાબર સમજી લેવી જોઈએ કે વિષયના બન્ધનમાં બંધાયેલે પુરુષ ફરી તેમાં જકડાઈ જાય છે કે તેને તેઢ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२७६ सूत्रकृताङ्गसूत्र मन्दोऽज्ञानी (पुणो) पुनः (मोहमानजइ) मोहमापद्यते चित्तव्याकुलत्वमागच्छतीति । (त्तिवेमि) इति ब्रवीमि ॥३१॥ टीका-'एवं एवं स्त्रीनिमंत्रितवस्त्रपात्रादिकम् 'णीवार' नीवारं बन्यशूकराय प्रदीयमानं तण्डुल रुणमिव 'वुज्झेज्जा' बुद्धयेत जानीयात्, एवं ज्ञात्वा 'अंगारं' गृहम् 'आगंतुं' आगन्तुं 'गो इच्छे' नो इच्छेत् यतः 'विसयपासे हि' विषयपाशैः विषयाः शब्दादयः तैः पाशसदृशैः 'बद्धे' बद्धः-पाशितः मंदे' मन्दोऽज्ञानी परचशीकृतः स्नेहपाशत्रोटने पुरुष पुनः मोह को प्राप्त होता है अर्थात् व्याकुलचित्त होता है। 'त्ति बेमि'-ऐला मैं कहता हूं ॥३१॥ टीकार्थ-इस प्रकार स्त्री के नारा दिये जाने वाले बन पान आदि को नीवार अर्थात् शूकर आदि पशुओं को फंसाने के लिये डाले जाने वाले तन्दुल आदि के दाने के समान समझे । साधु इस प्रलोभन में पडकर उसके घर जाने की अभिलाषा तक न करे । पाश के समान विषयों के प्रलोभन में पड़ा हुआ अज्ञानी राम के बन्धन को तोड़ने में असमर्थ हो जाता है । उनके चित्त में व्याकुलता उत्पन्न हो जाती है । अतएव अपना हित चाहने वाले साधु को स्त्री के द्वारा निमंत्रित वस्त्र - पात्र आदि का त्याग ही करना चाहिये। ને તે અસમર્થ બની જાય છે. એટલે કે તેનું ચિત્ત વ્યાકૂળ થઈ જાય છે, - 'त्ति वेमि' मेईई छु'. ટીકર્થ–આ પ્રકારે વસ્ત્ર, પાત્ર આદિ પ્રદાન કરવા રૂપ પ્રલેભનેથી સાધુએ લલચાવું જોઈએ નહી. પરંતુ તેમને નીવાર સમાન સમજવાં પશુઓને જાળમાં ફસાવવા માટે તન્દુલ આદિના જે દાણા નાખવામાં આવે છે તેને નીવાર કહે છે. આ પ્રલેભનોથી લલચાઈને સાધુએ તે સ્ત્રીના ઘેર જવાને વિચાર પણ કરવું જોઈએ નહીં. જે આ પ્રલેશનેમાં લલચાઈને તે તેને ઘેર જાય છે, તે તેની મોહજાળમાં એ તે ફસાઈ જાય છે કે તેમાંથી છુટકારો મેળવવાને અસમર્થ બની જાય છે. પાશના જેવાં વિષચેનાં પ્રલોભનોમાં સપકાલે અજ્ઞાની સાધુ રાગના બનને તોડવાને અસમર્થ થઈ જાય છે. તેના ચિત્તમાં વ્યાકુળતા ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. તેથી જ સૂત્રકાર એ ઉપદેશ આપે છે કે આત્મહિતની અભિલાષા રાખનાર સાધુએ સ્ત્રિઓ દ્વારા આ પ્રકારના જે પ્રભને થાય, તે પ્રલોભનેથી લલચાઈને તે સ્ત્રીના તે આમંત્રણને સ્વીકાર કરવો જોઈએ નહીં. Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीपहनिरूपणम् २७७ असमर्थः 'पुणो मोहमावज्ज' पुनर्मोहमापद्यते-वित्तं व्याकुलत्वमागच्छति । तस्मात् साधुना हितमिच्छता सर्वथैव स्त्रीनिमंत्रितवस्त्रपात्रादिकं त्याज्यम् । 'त्ति' इति-इतिशब्दः समाप्त्यर्थकः । 'वेमि' ब्रवीमि-एकमहं ब्रवीमि तीर्थकरोदित वचनम् । न तु स्वमनीषया प्रकल्प्य कथयामि । अतो मदुक्तवचने विश्वस्य संयमानुष्ठाने मनोयोगो देयः इति सुधर्मस्वाभिवचनम् ॥३१॥ इति श्री--विश्वविख्यात नगद्यल्लभादिषदभूपितवालब्रह्मचारि--'जैनाचार्य ! पूज्यश्री-घाप्तीलालवतिविरचितायां श्री मूत्रकृताङ्गस्य "समयार्थबोधिन्या ख्यायां" व्याख्यायां चतुर्थाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥४-१॥ 'त्ति' शब्द समाप्ति का मूचक हैं। 'वेमि' का अर्थ यह है कि मैं तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित वचन ही कहता हूँ। अपनी बुद्धि से कल्पित करके नहीं कह रहा हूँ। अतएब मेरे कथन पर विश्वास करके संघमा. नुष्ठान में मनोयोग लगाना चाहिए यह जम्बूस्वामी के प्रति सुधर्मा स्वामी का कथन है ।३१॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत 'खूत्रकृताङ्गमूत्र' की समयार्थबोधिनी व्याख्शा के चौथा अध्ययन का ॥पहला उद्देशक समाप्त ४-१॥ 'त्ति' मा ५६ देशानी सभाति सूय छे. 'वेमि' मा १२२ કથન મેં કર્યું છે, તે મારી કલ્પનાશક્તિથી ઉપજાવી કાઢેલી વાત નથી. પણ ખુદ તીર્થકરોએ આ પ્રકારની પ્રરૂપણ કરેલી છે. તીર્થ કર મહાવીર સ્વામીએ મારી સમક્ષ જે પ્રરૂપણ કરી હતી, તેનું આ અનુકથન જ છે. તે મારા આ કથન પર સંપૂર્ણ શ્રદ્ધા રાખીને સંયમની આરાધનામાં જ મનને સ્થિર રાખવું જોઈએ. આ કથન જબૂસ્વામીને સુધર્મા સ્વામીએ કહેલ છે. ૩૧ નાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત “સૂત્રકૃતાંગસૂત્રની સયાર્થબધિની વ્યાખ્યાતા ચેથા અધ્યયનને પહેલે ઉદ્દેશક સમાપ્ત ૪-૧૫ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ सूत अद्वितीयोदेशकः मारभ्यते चतुर्थाध्ययनीयप्रथमोदेशको व्याख्यातः । तदनुद्वितीयोदेशको व्याख्यायते । प्रथमे च स्त्रीपरिचयात् चारित्रस्य ध्वंसो भवति इति प्रतिपादितम् स्खलितचारित्रस्य साघोर्याऽवस्था, अस्मिन्नेव भवे प्रादुर्भवति, तस्यामपि कीदृशस्तत्कृतकर्मबन्धो भवतीति, तयोः स्वरूपनिरूपणं द्वितीये कथयिष्यते । अनेन संबन्धेनाऽऽगतस्य द्वितीयोदेशकस्येदमादिमं सूत्रम् -'ओए' इत्यादि । सूलम् - ओए सया णं रेंजेजा भोगेकामी पुणो विरंजेजा । भोगे समणाणं सुणेह जह 'भुजति भिक्खुणो एंगे ॥१॥ छाया - मोजः सदा न रज्येत भोगकामी पुनर्विरज्येत । सोगान् श्रमणानां शृणुत यथा भुञ्जन्ति भित्र एके ॥१॥ - ॥ चौथे अध्ययन का दूसरा उद्देशक ॥ चतुर्थ अध्ययन के प्रथम उद्देश की समाप्ति के अनन्तर दुसरा उद्देश प्रारंभ किया जा रहा है । प्रथम उद्देश में कहा गया है कि स्त्रियों के साथ परिचय करने से चारित्र का ध्वंस होता है । दूसरे उद्देश में यह कहा जाएगा कि चारित्र से च्युत हुए माधु की क्या गति होती है ? इसी भव में उसकी क्या अवस्था होती है । उसे चारित्र से भ्रष्ट होने के कारण कर्मबन्ध भी होता है । इस सम्बन्ध से प्राप्त दूसरे उद्देशे का यह प्रथम सूत्र है- 'ओए सया ण' इत्यादि । ચેાથા અધ્યયનના ખી જે ઉદ્દેશક ચેાથા અધ્યયનના પહેલા ઉદ્દેશક પૂરા થયા. હવે બીજા ઉદ્દેશકની શરૂ આત થાય છે. પહેલા ઉદ્દેશકમાં એવું પ્રતિાદન કરવામાં આવ્યુ છે કે સિઆને સપર્ક કરવાથી ચારિત્રનુ' પતન થાય છે. હવે આ ખી! ઉદ્દેશકમાં એ વાત પ્રકટ કરવામાં અ વશે કે સ્રીમાં આસક્ત થઈને ચારિત્ર ભ્રષ્ટ થનાર સાધુની કેવી હાલત થાય છે આ ભવમાં તેણે કેવાં કૈવાં દુઃખેા સેગવવા પડે છે તે વાત આ ઉદ્દેશકમાં સૂત્રકારે સ્પષ્ટ રૂપે પ્રકટ કરી છે, ચારિત્રથી ભ્રષ્ટ થવાને કારણે તે કર્માંન્ધ પણ કરે છે. પહેલા ઉદ્દેશક સાથે આ પ્રકારના સાઁબધ ધરાવતા ખીન્ન ઉદ્દેશકનુ પહેલું સૂત્ર આ પ્રમાણે છે- 'ओए सया ण' इत्याह- Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ४ उ.२ स्खलितचारित्रस्य कर्मवन्धनि० २७२ ___ अन्वयार्थ:-हे शिष्याः ! (ओए) ओजः-एक:-रागद्वेपरहितः (सया) सदा (ण रज्जेज्जा) न रज्येत भोगेषु, यदि (भोगकामी) भोगकामी-भोगेच्छुर्भवेत्, तदा पुणो विरज्जेज्जा) पुनर्विरज्येत ततो वैराग्यं कुर्याद (भोगे समणाणं सुणेह) भोगान् श्रमणानां शृगुत (जह) यथा (एगे) एके (भिक्खुणो) भिक्षवः-साधवः (भुति) भुजन्ति-भोगं कुर्वन्तीति ॥१॥ टीका-'ओए' ओजः-एकः रागद्वेषरहितः साधुः 'सया' सदा-सदा 'ण' नै ‘रज्जेना' रज्येत-भोगादौ कदापि रागरंजितं चित्तं न शब्दार्थ-'ओए-ओजः' अकेला अर्थात् रागद्वेष रहित साधु 'लया-सदा हमेशा'ण रज्जेजा-न रज्येत' भोगों में कभी भी चित्त न लगावें 'भोग कामी-भोगकानी' यदि भोग, इच्छा हो जाय लो 'पुणो विरजेन्जा-पुनविरज्येत उनको ज्ञान के द्वारा त्याग करे 'भोगे समणासुणेह-भोगात्' श्रमणानां शृणुन' साधुको लोगभोगने में जो हानि होती हैं उसे सुनो 'जह-यथा' जैसे 'एगे-एके' कोई 'भिक्खुणो-भिक्षवः' साधु 'भुजतिभुञ्जन्ति' भोग भोगते हैं ॥१॥ ____ अन्वयार्थ- हे शिष्यो ! रागद्वेष से रहित साधु भोगों में सदा अनुरक्त नहीं होता । कदाचित् भोग की कामना का उद्य हो जाय तो पुनः शीघ्र ही विरक्त हो जाय। कोई कोई श्रमण भोगों को भोगते हैं उन्हें सुनो ॥१॥ टीकार्थ-रागद्वेष से रहित साधु स्त्रियों पर अनुराग धारण न करे। Avail-'ओए-ओज.' गे मर्थात सधु रागद्वेष हित साधु 'सया-सदा' सुमेशा 'ण रज्जेज्जा-न रज्येत' ७५ मते मागीमा यित्तने न23. 'भोगकामी-भोगकामी' ले सोगमा मन राय ता 'पुणो विरजेजा-पुनर्विरज्येत' ज्ञान द्वारा तना त्या ४२ 'भोगे समणाणं सुणेह-भोगान् श्रमणानां शृणुत' सागसोमवामा साधुन रे नि थाय छे ते सांस 'जह-यथा' म 'एगे-एके' 'भिक्खुणो-भिक्षवः' साधु 'भुंजंति-भुञ्जन्ति' मोगमागवले. १॥ સૂત્રાર્થ––હે શિષ્ય ! રાગદ્વેષથી રહિત સાધુ ભેગમાં સદા અનુરક્ત રહેતા નથી. કદાચ ભેગની કામનાને ઉદય થઈ જાય, તે પણ તેણે તેનાથી તુરત જ વિરક્ત થઈ જવું જોઈએ. કોઈ. કઈ શ્રમણ (શિથિલાચારી સાધુઓ) ભેગો ભેગવે છે. તેઓ કેવી રીતે ભોગે ભાવે છે–ભેગમાં આસક્ત થઈને i.। वह छे, ते ४३ साली , १॥ ટીકાર્યસાધુએ તે સદા રાગદ્વેષથી રહિત રહેવું જોઈએ. તેણે Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० सूत्रकृतसू कुर्यात् स्त्र्यादावासक्तस्य परलोके महादुःखसंभवस्य दर्शनात् । यदि कदाचिन्मोहोदयाद्भोगकामी- भोगाभिलाषी भवेत् । तदाऽपि भोगे- ऐहिकामुष्मिकदोपविचार्य भोगेभ्यः 'पुणो' पुनरपि 'बिरज्जेज्जा' विरज्येत मोहनीय कर्मणा 1 वशात् यदि भोगे वित्तपवृत्तिर्भवेत्सदा दोषपर्यालोचनया ज्ञानांकुशेन चित्तं ततो निवर्त्तयेत् । 'समगाणं' श्रमणानामपि 'सोगे' भोगान् 'सुणेह' शृणुत । यद्यपि भोगा दुःखजनकाः सर्वेपाम्, तत्रापि तपस्तप्तानामपि साधूनां यथा भोगा भवन्ति तथा यूयं शृशुव । 'ए' एके शिथिचाचारिणः 'भिक्खुणो' भिक्षवः 'जह भुजति' यथा भोगान् जन्ति, तथा गुणुत, इति पूर्वेण सह संबन्धः । विद्य मानानामपि कामो दुर्निवार इत्यन्यदीयपक्षैरपि श्वानमधिकृस्योक्तम् वह स्त्रियों में कभी भी अनुरक्कन हो-भोगों में चित्त को अनुरक्त न करे। जो स्त्री आदि में आसक्त होते हैं, उन्हें परलोक में घोर दुःख भोगने पडते हैं । कदाचित् मोह का उद्रेक होने से भोगों की अभिलाषा जागृत हो जाय तो भोगों से उत्पन्न होने वाले ऐहिक एवं पारलौकिक दोषों का विचार करके पुनः शीघ्र ही उनसे विरक्त हो जाय । ज्ञान के अंकुश से चित्त को भोगों से निवृत्त कर ले । यद्यपि भोग सभी के लिये दुःखजनक होते हैं, फिर भी कोई कोई शिथिलाचारी साधु भोग भोगते हैं । वे जिस प्रकार भोग भोगते हैं सो सुनो। अन्यत्र कुत्ते को उद्देश करके कहा भी है- 'कृशः काण:' इत्यादि । दुबला, काना लंगडा नूना (कानों से रहित) पूंछ से रहित पुंछकटा, भूख से पीडित, बूढा हंडी का ठीकरा जिसके गले में है तथा दर दस्सी સિએમાં અનુરક્ત થવું જોઈએ નહી−ચિત્તને મામલેાગેામાં અનુરક્ત કરવું लेऽये नहीं थे थे। स्त्री महिमां म सहत थाय छे, तेभने पराभल ४२ દુઃખે, લેગવવા પડે છે. કદાચ મેહના ઉદ્રેક થવાથી ભેગૈાની અભિલાષા જાગૃત થઈ જાય, તે ભેગેાને કારણે ઉત્પન્ન થનારાં અહિક અને પારલૌકિક हुन विचारते, तेथे तर ४ तेमनाथी विरक्त थर्ध-वु कोध थे. તેણે જ્ઞાનના અંકુશ વડે ચિત્તને ભેગેામાંથી નિવૃત્ત કરી લેવું જોઈએ જો કે લેાગા સૌને માટે દુખજનક જ છે, છતાં પણુ કાઇ કાઈ શિથિલ ચારી સાધુઓ ભેગામાં અનુરક્ત જ રહે છે તે કેવી રીતે ભેગે! ભગવે છે તે ભાગે પ્રત્યેની આસક્તિને કારણે તેમની કેવી દશા થાય છે, તેનું વર્ણન હવે સાંભળેઃ अन्यत्र या तराने सहने घुंडे - 'दुर्जन, आयो, सौंगडे, ખૂચા (કાનરહિત), કપાઈ ગયેલી પૂછડીવાળા, ભૂખથી દુખળા, જેના ગળામાં હાંડીના કાંઠલેા વીંટળાયેલે છે, જેના શરીર પરના જમામાંથી રક્ત અને Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्र. अ. ४ उ.२ स्खलितचारित्रस्य कर्मवन्धनि० -Ret कृशः काण: खंजः श्रवणरहितः पुच्छविकल:, , , . : . क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठरककपालार्दिनगल । व्रणैः पूयक्लिन्न। कृमिकुलशतैराविलतनुः शुनीमन्वति वा हवमपि च हन्त्येव सदनः ॥१॥इतिगा. १॥ भोगासक्तमनसां यादृशी विडंबना लिमति, तां दर्शयितुं मूत्रकारउपक्रमते- 'अह' इत्यादि। मूलम्-भाई तं तु भदसावन्नं मुच्छि, सिंच कॉमसतिवटै । एलिभिंदिया णं तो पच्छा पांदुहु सुद्धि पहणंति॥२॥ - छाया-अध तं तु मान्ने मूउिन भिलु काममतिवर्तम् । । परिभिध खलु ततः पथात् पादावुद्धृत्य मूर्ति मनन्ति ॥२॥ (पीप) से भरे हुए घावों एव विलमिलाते हुए सभडों कीडों से व्यास शरीर बाला कुत्ता भी कुलिया के पीछे पीछे फिरता है । यह काम, मरे हए को भी मारने में कोई कसर नहीं रखता ॥१॥ जिनका मन भोगों में आलत है उन्हें जेली विडम्बना होती है, उसे दिखलाने का सूत्रकार उपक्रम करते है-'अहतं' इत्यादि। . . . शब्दार्थ--'अह-अर्थ' इसके अनन्तर 'भेदमाचन्नं-भेदमापन्नम् चारित्रसे भ्रष्ट 'शुच्छियं-पूच्छित्तम्, श्री में आसक्तः 'कासमतिक्षकाममतिपत्तम्' विषययोगों की इच्छाधाले 'तं तु-तंतु उस भिवाभिक्षुम्' साधुको ये स्त्री 'पलिभिदिया परिभिद्य' अपने वशवर्ती जानकर 'तो पच्छा-ततः पश्चात् पीछे 'पादुटु-पादावुद्धृत्य' अपना पैर उठाकर 'मुद्धि-मून्धि' उसने शिर पर 'पहणति-प्रघ्नन्ति' प्रहार करती हैं ॥२॥ પરુ નીકળી રહ્યું છે, અને જેના ઘાવમાં કીડાઓ ખદબદી રહ્યા છે એ બૂઢે કૂતરો પણ કામાસક્ત થઈને કૂતરીની પાછળ પાછળ ફર્યા કરે છે. આ કામવાસના મરેલાને પણે મારવામાં કોઈ કચાશ રાખતી નથી.” છે ૧ છે જેમનું મન માં આસક્ત હોય છે, તેમને કેવી કેવી વિટંબણાઓ सहन ४२वी ५ छ, ते सूत्रा२ ४८ ४रे छे-'अह तं' त्याहि शहाथ-अह-अथ' लागलाया ५७ 'भेदमावन्ने-भेदमापन्नम्' यात्रियी अष्ट 'मुच्छियं-मूछि म्' सीमा भासत 'काममतिवर्ल्ड-काममतिवर्तम्' विषय लगानी २छा 'तंतु-ततु' से 'भिक्खु-भिक्षुम्' साधुन ते श्री 'पलिभिदिया-परिभिद्य पाताने १२ थय तीन 'तो पच्छा' तत-पश्चात् ते पछी 'पादुद्धटु-पादावुधृत्य' पोताना यानी 'मुद्धि-मूनि' तेना भरत। ५२ 'पहणंति-प्रनिन्ति' प्रहार ४२ छे. ॥२॥ . . सू० ३६ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮૨ ___ सूत्रकृतागसूत्रे ___ अन्वयार्थः--(अह) अथानन्तरम् (भेदमावन्न) भेदमापन्नम् चारित्रभ्रष्टम् (सुच्छिय) मृतिं स्त्रीषु गृद्धिभावमुपगतम् (काममतिवटुं) कापयतिवर्तम् कामामिलापुरुस् (तं तु) तं तु (भिक्खु) भिक्षु साधु सा स्त्री (पतिमिदिया) परिभिद्य स्ववशीभूतं ज्ञात्वा (खो पच्छा ) ततः पश्चात् खल्ल (पादुटु) रक्ष्क्रीयपादौ उद्धृत्य (मुद्धि) तृनि-लायोः शिरसि (पति) मनन्ति पद्भ्यां शिरसि ताडयन्ति साधोरिति ।।२।। टीका--'अह' अथ -अनन्तरम् , स्त्रीससके पश्चात् 'भेदमावन्ने' भेदमापन्नम् -भेदं चारित्रस्खलनम् आप माप्त सन्तम् । 'सुच्छियं' मूञ्छितं-स्त्रीषु आसक्तम् 'भिक्खु' भिक्षु साधुम् 'काममविवढे' काममतिवत्तम् , कामेषु यतेवू द्धवर्तनं प्रवृत्तिर्यस्य इत्थभूतम् कामाऽभिल पुकम् । 'पलिमिंदिया' परिभिद्य, 'मामुपेत्य अस्माकं कथनानुसारेण सर्व करिष्यति' इत्येवं ज्ञात्वा सा खी तो पच्छा' ततः पश्चात् (पादुद्धठ्ठ) (पादावुद्धृत्य-स्वकीयपादावुद्धृत्य 'मुद्धि' पहणंति' मूधि ___ अन्वयार्थ--इसके पश्चात् भेद को प्राप्त अर्थात चारित्र से भ्रष्ट स्त्रियों में गृद्ध और काम के अभिलाषी उस भिक्षु को वह स्त्री अपने वश में हुआ जानकर अपने पांव ऊँचे उठाकर साधु के मस्तक में प्रहार करती है ॥२॥ टीकार्थ--स्त्री के प्रति आसक्ति हो जाने के पश्चात् चारित्र से भ्रष्ट स्त्रियों में आसक्त तथा कान के इच्छुक साधु को अपने अधीन हुआ जानकर अर्थात् 'यह अब मेरे कथनानुसार ही सय करेगा ऐसा: समझकर वह स्त्री उस साधु के सिर में लातों का प्रहार करती है और वह साधु विषयासक्त होकर इतना पतित हो जाता है कि कुपित हुई उस स्त्री के मार को भी खाता है। अधिक क्या कहा जाय स्त्री के सूत्राथ-त्यार माह-यास्तिथी भ्रष्ट थया, सीमामा छ (मासत), અને કામોની અભિલાષાવાળા તે ભિક્ષુને તે સ્ત્રી પિતાને વશ થઈ ગયેલો જાણીને, પગ ઊંચે કરીને તેના મસ્તક પર લાત પણ લગાવે છે. કેરા ટીકાર્થ–સ્ત્રીમાં આસક્ત થયા બાદ, ચારિત્રથી ભ્રષ્ટ થયેલા, સ્ત્રીલેલુપ અને કામવાસનાથી યુક્ત એવા તે સંયમભ્રષ્ટ સાધુને પૂરે પૂરો પિતાને અધીન થયેલે જાણીને-એટલે કે તે હવે પોતાના કહ્યા અનુસાર જ કરશે से सम-तेश्वी ते साधुना भरत ५२ साताना प्रा२ ४२ छ, भने તે સાધુ વિષયાસક્ત થવાને લીધે એટલે પતિત થઈ ગયો હોય છે કે કુપિત થયેત્રી તે સ્ત્રીને માર પણ સહન કરી લે છે. મોટા મોટા પ્રાણી પણ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ.२ स्खलितचारित्रस्य कर्मवन्धनि० २८३ प्रघ्नन्ति-साधोः शिरसि स्वकीयपादयोः महारं कुर्वन्ति । प्रकुपितायास्तस्याः पादौ स्वशिरसि धारयति, सर्वथा विषयासक्तत्वादसिंहादयो महान्तोऽपि प्राणिनः स्त्रीसंनिधौ कातरा भवन्ति, उक्तश्च 'व्याभिन्न केसरवृहच्छिरसश्च सिंहाः, नागाश्च दानमदरानिकृशैः कपोलैः । मेधाविनश्च पुरुषाः समरेषु शूराः, स्त्रीसन्निधौ परमकापुरुषा भवन्ति ॥१॥ तदेवं विषयासक्तमनाः हि पाघातविडंबनामपि मानोति मूढस्तस्मात् साधुः तस्यामासक्ति परित्यजेद् इति भावः ॥२॥ मूलम्-जइ केसिया ण मए भिखू गो विहरे सह णमित्थीए। केसाण वि हं लुचिस्तं नन्नत्थे मएँ चरिजाति ॥३॥ छाया--यदि केशिकया खलु मया भिक्षो ! नो विहरेः सह स्त्रिया । . . केशानप्यहं लंचिष्यामि नान्यत्र मया चरेः ॥३॥ पास सिंहादि घडे वडे प्राणी भी कायर हो जाता है, कहा भी है-- 'व्याभिन्न केसर' इत्यादि __ 'फैली हुई केप्तर (अयाल) के कारण विस्तृत सिर वाले सिंह, झरते हुए मद से युक्त गण्डस्थलों वाले अर्थात् मदोन्मत्त हाथी, तथा बुद्धिमान और समरशर मर भी स्त्री के समीप कायर हो जाते हैं।' __इस प्रकार जिनका चित्त कामासक्त हैं, वे लातों के घात की विड. म्बना को भी प्राप्त होते हैं। इसलिये साधु स्त्री में आसक्तिको छोड दे॥२॥ श्रीनी समीपमा ४५२ मनीय छे. यु. ५४ छे-व्याभिन्न केसर' त्याह વિખરાયેલી કેશવાળીને કારણે ભરાવદાર મસ્તકવાળ, સિહ, જેના ગંડસ્થળમાંથી મદ ઝરી રહ્યો છે એ મદમસ્ત ગજરાજ અને બુદ્ધિમાન અને સંગ્રામશૂર નર પણ સ્ત્રીની પાસે કાયર (નરમ ઘેંસ જે) બની જાય છે.” આ પ્રકારે જેનું ચિત્ત કામાસક્ત હોય છે, એવા પુરુષોને સિઓની લાતના પ્રહારે પણ સહન કરવાનો પ્રસંગ આવે છે. તેથી સાધુએ સ્ત્રિઓમાં આસક્ત થવું જોઈએ નહીં. પરા Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૪ सूत्रकृताङ्गसू अन्वयार्थ :- (ज) यदि (केसिया) केशिका - केशाः विद्यन्ते यस्याः सा तथा तथा (मए) मया (इत्थीए) स्त्रिया सह (भिक्खु ) हे मिक्षो ! ( णो विहरे) नो fast: यदि विहारं न करिष्यसि तदा ( केसान चिं हं लुंचिस्सं) केशानप्यहं लुंचिष्यामि स्वत्समागकांक्षिणी (मए) मँया रक्षितं (अन्नत्थ) अभ्यंत्र (न चरिज्जासि) न चरे: मां विहाय नान्यत्र गच्छ इति || ३ || टीका - - 'भिवखो' हे भिक्षो । 'जड़' यदि 'केसिया' केशिकचा केशाः विद्यन्ते यस्याः सा केशिका स्त्री तथा, केशमियाः स्त्रियो भवन्ति । 'मए' मया ' इत्थीए' स्त्रिया 'णो हिरे' नो विहरेस्त्वम् तदा 'केसाण विहं लुंचिस्स' केशा 5 शब्दार्थ - 'जइ - यदि' जो 'केसिया - के शिक्षया' केशवाली 'मएमया' मुझ-' इत्थीए - स्त्रिया' श्री के साथ 'भिक्खू भिक्षो' हे साधोः तुम 'णो विहरे - नो बिहरे' नहीं रह सकते तो 'हं- अहं' मैं इसी जगह 'केसाण लुचित्तं - केशान्द लुबिध्यामि' केशों को भी लोंच लूंगी 'मए-बया' मेरे बिना 'अन्नत्थ - अन्यन्त्र किसी दूसरे स्थान पर 'न' चरिज्जाखिव-न चरे' न जाओ ॥ ३ ॥ अन्वयार्थ - यदि मुझ केशवाली के साथ हे भिक्षो | नहीं रहोगे तो मैं अपने केशों को भी नोंच डालूंगी। मुझे छोड़कर अन्यत्र कहीं मत जाना ||३|| टीकार्थ - - स्त्रियों को केया प्रिय होते हैं अतएव कोई केशवाली स्त्री साधु से कहती हैं - हे नि ! यदि बुझ केशोंवाली के साथ तुम नहीं रहोगे तो मैं इसी स्थान पर और इसी समय अपने केशों को - शब्दार्थ' – 'ज३ - यदि' ? केसिया - देशिकया' डेशवाणी 'इत्थीए - स्त्रिया ' स्त्री मेवी 'सए-मया' भारी साथे 'भिक्खू-मिनो' हे साधी ! 'णो विहरे - नो बिहरेन रही रास्ता होय तो 'ह-अहम्' हुँ' ! स्थणे 'केसाण विलु चि स्सं - केशानपि लुचिष्यासि' हु' देशनो पर बाय उरीश. 'मए-मया' सारा विना 'अन्नत्य - अन्यत्र' अर्ध जल स्थान पर 'न चरिजासि न चरे:' लभे। नहि 131 સૂત્રા—હૈ ભિક્ષા ! સુદર કેશવાળી મારી સાથે તમે વિચરી, જો તમે મારી સાથે વિચરણ નહીં કરા, તેા હું' મારા સુંદર વાળીને મારે હાથે જે ખેંચી કાઢીશ. માટે મારે ત્યાગ કરીને બીજે વિચરવાના ખ્યાલ છેાડી તેને ॥ ૩ ॥ ટીકા”—ગ્નિએ તેમના સુંદર વાળને કારણે વધારે સુંદર લાગતી હોય છે. તેથી સાધુમાં આસક્ત થયેલી કેઈ સકેશી (કેશયુક્ત) સ્ત્રી સાધુને એવી ધમકી પણ આપે છે કે—હે મુને ! જો તમે કેશવાળી એવી મારી સાથે નહીં Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' afrat टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मवन्धनि० २८६ नय-लु चिष्यामि । यदि केशयुक्तया मंचासह वस्तुं कदाचित्तत्र लज्जा भवेच्चेत्, तदाऽहं लज्जाकारणकान् केशानपि अधुनैव परित्यजामि । किं पुनरन्यालंकारादिकानित्यपिशब्दार्थ त्वं पुनः 'नन्नत्थ' नाऽन्यत्र । 'मए' मयारहितः 'चरि जासि' चरे: मां विहाय क्षणमपि नान्यत्र त्वया गन्तव्यम्, इत्येव मे प्रार्थना | अहमपि भवतामादेशं यथायथमनुष्ठास्यामि । यदि केशरहिताय तुभ्यं में केशा न सेवन्ते तामपि केशलुंबनं करिष्ये परन्तु मां विहाय नाऽन्यत्र त्वयास्थातव्यमिति भावः ॥ ३॥ इत्थमापाततो मनोज्ञैः कूटवचननाः साधुं विश्वास्य यत् करोति, तद्दर्श यंति सूत्रकारः - 'ही' इत्यादि । 1 मूलम् अहं णं से' होई उक्लद्धो तो पेसति तहाभूएहिं । अलाउच्छेद पेहेहि गुंफलाई हराहि चि ॥४॥ छाया--अग खेलुं स मंत्रत्युपस्ततः प्रेषयन्ति तथाभूतैः । अलवू०छेदं मैक्षस्त्र वल्गुरू नान्याहर इति ||४|| नों लूंगी। यदि केशवाली होने के कारण मेरे साथ रहने में तुम्हें लज्जा होती हो तो मैं इसी समय लज्जा के कारण भून इन केशों को स्यांग देती हूँ । तुम मुझे छोड़ कर एक क्षण के लिये भी अन्यत्र मंत जाना, बस, यही मेरी प्रार्थना है । मैं भी आप के आदेश को ज्यों का त्यों पालन करूंगी। I आशय यह है कि केशों से रहित तुम्हें मेरे केश तथा अलंकार यदि न रुचलें हों तो मैं भी केशलुंचन कर लूंगी मगर मुझे स्थागर तुम अन्यत्र न रहना ॥३॥ રહા, તો હુ અત્યારે ને અત્યારે જ મારા કેશે ને મારા હાથ વડે ४, તમારી સર્પા જ ખેં'ચી કાઢીશ જે કેશવાળી હાવાને કારણે મારી સાથે રહેવામાં આપને સ'કેચ થતે હાય, તેા હુ અત્યારે જ તે સ’કાચના કારણભૂત કેશેાનાં ત્યાગ કરવાને તૈયાર છું. તમે મને છેડીને એક ક્ષણને માટે પશુ ખીજે નં જશે. એવી મારી નમ્ર પ્રાના છે. હુ પણ આપના આદેશનું ખરાખર पासून हरीश.' } આ કથનને ભાવાથ એ છે કે કેશાથી રર્હુિત એવા આપને જો મારા કૅશ, અલ`કાર આદિ ગમતાં ન હોય, તે હુ પથ્રુ તમારી જેમ કેશલુ'ચન કરીશ, પરન્તુ આપ મને છેડીને અન્યત્ર કહેવાના વિચાર પણ ન કરશેા. Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ सूत्रकृताङ्गो अन्वयार्थ:-(अह) अथानन्तरं खलु (से उबलद्धो होइ) स साधुः उपलब्धो भवति मम वशवतीति स्त्री ज्ञात्वा (तो) ततः (तहाभूएहिं) तथाभूतैः-प्रयोजन दासवत् साधु कार्ये प्रेरयति (अलाउच्छेदं) अलावु छेदं-पिप्पलकादिशरत्रं (पेहेहि) प्रेक्षस्त्र अनिवष्य आनय (वगुफलाइ) क्लाफलानि नारिकेलादीनि (आइराहिचि) आहर इति आनयेत्यर्थः ॥४॥ । इस प्रकार ऊपर ऊपर से मन.ज्ञ प्रतीत होने वाले कूट वचनजाल से साधु को विश्वास में लेकर वह स्त्री जो करती है, उसे सूत्रकार दिखलाते हैं-'अह णं' इत्यादि शब्दार्थ - 'अह-अथ इसके पश्चात् 'से उवलद्धो होइ-स उपलब्बो भवति' यह साधु मेरे वायत्ती हो गया है ऐसा जानकर 'तो-ततः' फिर वह साधुको 'लहाभूएहि-तथाभूतैः' दासके समान अपने कार्य में प्रेरित करती है 'अलोउच्छेदं' अलावुच्छेद'तुम्दा काटने के लिये 'पेहेहिप्रेक्षस्व' छुरी लाबो तथा 'वगुफलाई-वलाफलाणि' अच्छे फल 'आहराहित्ति-माहर इति' ले आवो ऐसा कार्य कहती है ॥४॥ . अन्वयार्थ--तत्पश्चात् जब साधु उपलब्ध हो जाता है अर्थात् उस स्त्री के अधीन हो जाता है तब वह विविध प्रकार के आदेश देकर साधु को दाल की तरह कार्यों में प्रेरित करती है। जैसे तूवें को काटने का शन पिप्पलक देखो, लाओ नारियल आकरु आदि फल ले आओ इत्यादि ॥४॥ આ પ્રકારે ઉપર ઉપરથી મને લાગતાં ફૂટ વચનોની જાળ બિછાવીને તે સ્ત્રી સાધુને પિતાને વશ કરી લે છે. ત્યાર બાદ સંયમથી ભ્રષ્ટ थये। साधुनी दी ६शा याय छे, तेनु वे सूत्रा२ ४थन ४२ छ-'अहण' त्यात. vt-'अह-अथ' ते ५छी ‘से उबरद्धो होइ-सः उपलब्धो भवति' मा साधु भारे १श २ गया छ तभ सभने 'तो ततः' ५छी त साधुन 'तहाभूपहि तथाभतेः' हासनी भात पाताना भां रे छ 'अलाउच्छेद-लाअच्छेदम्' तुमाना सम २भट 'पेहेहि-प्रेक्षस्व' छरी सा तथा 'वगुफलाई-बल्गुफलानि' साराको 'आहराहित्ति-आहर इति' ६ मा मापा કા બતાવે છે કે ૪ u સૂત્રાર્થ-આ પ્રકારે સાધુ જ્યારે તે સ્ત્રીને અધીન થઈ જાય છે, ત્યારે તે સ્ત્રી તેને વિવિધ પ્રકારની આજ્ઞાઓ આપે છે. તે સાધુ તેને, દાસ હોય તેમ તેને જુદા જુદા આદેશ આપવામાં આવે છે. જેમ કે “તૂ બડીને કાપવાની છરી તે શોધી લાવે જરા બજારમાં જઈને નાળિયેર આકરૂટ વિગેરે ફળ લઈ આ ઈત્યાદિ-૪ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ.२ स्खलितबारित्रस्य कर्मवन्धनि० २८७ टीका-'अहणं' अथ खल स्त्रीवशवर्ती साधुः ‘से उलद्धो होइ' स उपलब्धो भवति आकारादिभिर्वशमुपगतः, इति ताभिः स्त्रीभिः परिज्ञातो भवति 'लो पेसंति तहा भूएहिं ततः प्रेषयन्ति तथाभूतैः तदनन्तरम् तथाभूततदभिप्रायज्ञानात् शब्दादिप्रयोगैर्दासरत् प्रेषयन्ति, कार्ये प्रयोजयन्ति, असौ स्त्रीवशवर्ती तादृशं कार्य करोति। कीदृशीमाज्ञां करोति दर्शयति-'अलाउच्छेद पेहे हि' अलावुच्छेदं प्रेक्षस्व अलावुः तुम्बं छियतेऽनेन शस्त्रविशेषेण इति अलावुच्छेदं, तर प्रेक्षस्व तादृशपस्त्रविशेषयन्विप्याऽऽनय येन पात्रादीनां मुखादिनिर्माण भवेत् । तथा-'वन्गुफलाई आहहिनि' ल्गुफान्याहर इति, दल्ननि शोभनानि फलानि नारिकेलादीनि आह-आनय । अथश-वाक्फलानि, वाच: धर्मकथारूनायाः व्याकरणादिरूपायाः वा यानि फलानि, वस्त्रद्रव्यादिरूपाणि तान्यानयेति । तं साधु दासवत् कर्मणि नियोजयति से। स्त्रीति भावः ॥४॥ . टोकार्थ-तत्पश्चात् स्त्रियां जब यह समझ लेती है कि साधु मेरे अधीन हो चुका है, तर वे उसे दास की भांति कामों में लगाती हैं और स्त्री के वशीभूत हुआ वह साधु उसके कथनानुसार ही सब काम करता है। स्त्री किस प्रकार की आज्ञा करती हैं सो दिखलाते हैं-तूंबा काटने का शस्त्र देखो उसे अन्वेषण कर ले आओ जिससे पात्र आदि के मुख आदि का निर्माण हो । नारियल आदि मनोज्ञ फल लाभो । अथवा मूल में प्रयुक्त 'वग्गुफलाइ” का अर्थ है वाकूफलानि, जिसका आशय है धर्मोपदेश या व्याकरण आदि रूपवाणी के जो फल वस्त्र या द्रव्य आदि हैं, उन्हें लाओ। आशय यह है ટીકાઈ—-જ્યારે તે સ્ત્રીને એવી ખાતરી થઈ જાય છે કે આ સાધુ હવે બરાબર મારે અધીન થઈ ગયે છે, ત્યારે તે તેની પાસે વિવિધ દેશોનું પાલન કરાવવા લાગી જાય છે, તે સાધુને પિતાના દાસ જે ગણીને તે તેને આજ્ઞા કર્યા કરે છે અને સાધુ પિને દાસ હોય તેમ તેની આજ્ઞાન પાલન કરે છે. તે કેવી કેવી આજ્ઞાઓ કરે છે તે હવે પ્રકટ કરવામાં આવે છે– “છરી ગોતી લાવો કે જેની મદદથી તુંબડીને કાપીને તેમાંથી પાત્ર આદિનાં भुभनु निर्माण ४१ २४य. 'नारियa as मा। सूत्रमा २ 'वगुफलाई, શબ્દ વપરાય છે, તેને અર્થ આ પ્રમાણે પણ થઈ શકે છે—ધર્મોપદેશ. વ્યાકરણ આદિના આપ જાણકાર છે તે તેના ફળસ્વરૂપ વસ્ત્ર, દ્રવ્ય, આદિ લઈ આવ–આપના જ્ઞાનને ઉપગ ધન કમાવામાં કરેઆ કથનનો સાવાર્થ એ છે કે જે સ્ત્રી પહેલા સાધુને વિનંતી અને કાલાવાલાં કરતી Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८. . . . . . . . " सूत्रकृतामसूत्रे मूलम्-दोरुणि सांगपागाय पंजोओ का भविस्तइ रांओ। पार्याणि य में रयानेहि एहि ता में पिट्ठओ प्रदे॥५॥" छाया-दारूणि शाकपाकाय प्रयोतो वा भविष्यति रात्रौ । पादौ च ये रञ्जय एहि तावन्गे पृष्ठं मर्दय ॥५॥ अन्वयार्थः- (सागपागाए) शाकणकाय (क्षारुणि) दारूणि-झाष्ठानि आनय (ड्राओ) रामौ (पन्जोओ वा भविस्स) प्रद्योतः प्रज्ञाशो वा भविष्यतीत्यतस्तैलादिक मानय (मे पायाणि रयावेटि) मे मम पादौ वा रंजय लेपय तथा परित्यज्यापरं __ शब्दार्थ-सागपानाए-शाशपाकाय' शाक पकाने के लिये 'दारुणि -दारूणि' लकडी लाव 'रामो-रानो' रात “एजोओ वा भविस्सइप्रद्योतो या भविष्यति' प्रसाश के लिये तेल आदि लावो 'मे पायाणि रयावेहि-मे पात्राणि रंजय' मेरे पात्रों को अश्या पैर को रंग दो 'ता तावत्' पहले तो 'एहि-एहि' यहां आयो 'मे पिट्ठो मद्दे-मे पृष्ठं मर्दय' मेरी पीठ मल दो ॥५॥ - अन्वयार्थ--शाक पकाने के लिये लकडियाँ ले आओ । रात्रि में प्रकाश करने के लिये तैलादि की व्यवस्था करो। मेरे पात्रोंको या पैरों को रंग दो । अन्य कोर्थ छोडकर पहले यहां आओ । मेरी पीठ का मर्दन कर दो । भोजन पकाने के लिए देर तक बैठी रहने से मेरे शरीर में पीड़ा उत्पन्न हो गई है । जरा मालिश तो कर दो ॥५॥ હતી, એ જ સ્ત્રી હવે તેને પિતાને અધીન થઈ ગયેલે સમજીને તેને દાસની જેમ આદેશ અપાતી થઈ જાય છે કે કો ____शा-'सागपागाए-शाकपाकाय' AI मना भाट 'दारुणि-दारूणि' at ana'राओ-रात्रौ शत्रे 'प्रज्जो भो वा भविस्सा-प्रद्योतो वा भविष्यति' ॥श ४२६ माटे तेल वगेरे दावे 'मे पायाणि रयावेहि मे पात्राणि रंजन' भा। पात्रो अथवा पाने २गी धो 'ता-तावत् ' पडसां एहि-एहि' मडियां आयो मे पिढओ महे-मे पृष्ठं मईय' भारी पी3 मसजी घो. ॥५॥ સૂત્રાર્થ શાક આદિ રાંધવાને માટે લાકડાં લઈ આવે, રાત્રે દી કરવા માટે તેલને પ્રબંધ કરે, મારાં પાત્રને રંગી દે, મારા હાથ-પગ લાલ રંગથી રંગી દો, બીજા કાને છોડીને મારી પાસે આવે. કયારની રસોઈ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि० कार्य (ता) तावत् (एहि) एहि - अत्रागच्छ (मे. पिट्ठओ मद्दे) मे पृष्ठं मर्दय - पाककरणाय चिरकालम् उपविष्टाया मे अङ्ग बाघवेऽतः संवाइयेति ||५|| टीका - 'सागपागाए' शाकपाकाय - शाकं वास्तूकादिकपत्रशाकं वा अस्य पाकाय वा, दारुणि= काष्ठानि आहर, शाकसूपादीनां पाचनाय वनादिन्धनमानय एवं नानाकर्माणि पश्चात् साधुं नियोजयति सा । 'पज्जोओ' प्रद्योतः मकाशो वा 'राम भविस्स' रात्री भविष्यति निविडान्धकारत्वात् रात्रौ किमपि कर्तुं न शक्यते तस्तैलादिकमानय, तथा - 'मे पायाणि' मम पात्राणि भिक्षासाधनभूतं पात्रं 'श्यावेहि' रंजय येन सुखेन भिक्षाटनं स्यात्, यद्वा अलक्तका - दिना अरंजितो मे चरणौ रंजय । तथा कार्यान्तरं परित्यज्य झटिति एहि = आगच्छ 'मे पिटुमो मद्दे' मे पृष्ठं मर्दय यावद् व्यर्थमुपविष्टोऽसि ममांगानि सुखमुपविष्टायाः मर्दय | 24 भोः ! परित्यज्य तावत्कार्यान्तरमिहागत्य ममांगसंवाहनं कृत्वा ततः कार्यान्तरं करिष्यसि । एवं दासवत् कार्यं कारयति ॥ ५ ॥ टीकार्थ-शाक या बथुवा आदि भाजी पकाने के लिये लकडियाँ लाओ। इस प्रकार के नाना कार्यों में साधु को लगाती है। घोर अन्धकार होने से रात्रि में कुछ करते नहीं बनता, अतएव तेल आदि ले आओ जिससे प्रकाश होगा। मेरे पात्रों को अथवा पैरों को रंग दो। दूसरे समस्त कार्य छोडकर झट इधर आओ और मेरी पीठ मसल दो । जब तक freed बैठे हो तब तक मेरे अंगों को ही मल दो । स्त्रियाँ इस प्रकार उस साधु से दास के समान कार्य करवाती हैं ॥५॥ 1 તૈયાર કરવા બેઠી છું, તેથી મારું શરીર અકડાઇ ગયું છે, તે જરા માલીશ તેા કરી દે! કામ કરી કરીને મારી કમર દુઃખવા આવી છે, તેા જા એમાં श्रेठां उभर तो दृथावेो.' ટીકા”—તે સ્ત્રી પાતાને અધીન થયેલા તે સ`યમભ્રષ્ટ સાધુને આ પ્રકારની આજ્ઞા કમાવે છે-ઘરમાં મળતશુ ખૂટી ગયુ છે, તે શાક, દાળ આદિ અનાવવાને માટે બળતણુ લઈ આવે-જંગલમાં જઈને લાકડાં કાપી લાવે. તેલ તેા થઈ રહ્યુ છે. રાત્રે દીવેા કેવી રીતે પેટાવશુ? જરા ખજારમાં જઇને તેલ તેા લઈ આવે! મારાં પાત્રોને રંગી દો. લાલુ રંગથી મારા હાથ પગ તે રંગી દો! ખધાં કામ છેાડીને મારી પાસે આવેા. માજ તેા કામ કરી કરીને મારી પીઠમાં દુખાવા ઉપડો છે. તે જરા પીઠ પર તેલનું માલીશ તે કરી દો ! નવરા શું એસી રહ્યા છે!, અહી આવા અને મારા હાથ પગ અને માથું દખાવે આ પ્રકારની ની આજ્ઞાઓનુ` તેને પાલન કરવુ પડે છે. પા ० ३७ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतागसूत्रे मूलम्-वस्थाणि य में पंडिलेहेहि अन्नं पानं च आहराहित्ति। गंधं च रओहरणं च कासवगं च मे समाजाणाहि॥६॥ छाया--वस्त्राणि च मे प्रत्युपेक्षस्व अन्नं पानं च आहर इति। । गन्धं च रजोहरणं च बाश्यपं च समनुजानीहि ॥६॥ अन्वयार्थः-(वस्थाणि ये पडिलेदेहि) वस्त्राणि मे प्रत्युपेक्षस्थ-नवीन वस्त्र मानय (अन्नं पानं च आहराहित्ति) अन्नं पानं चाहर-आनय (गंधं च रजोहरणं च) गन्धं कर्पूरादिकं रजोहरणं चानय (मे कासगं च) मे-गदथै काश्यप-नापितं (समणु नाणाहि) समनुजानीहि सम्पगजानीहि अत्रागमनार्थमाज्ञां कुरु आन: येत्यर्थः ॥६॥ . शब्दार्थ-वस्थाणि मे पडिलेहेहि-वस्त्राणि मे प्रत्युपेक्षस्व' हे साधो! मेरे लिये नये वस्त्रों लायो। 'अन्नं पान च आहराहित्ति-अन्नं पानं चाहर' मेरे लिये अन्न और पानी का प्रबन्ध करो 'गंधं च रजोहरणं चगन्धं च रजाहरणं च' मेरे लिये कपूर आदि सुगन्ध पदार्थ और रजोहरण लावो 'मे कासवगं च-मे काश्यपंच' मेरे केश निकालने के लिये नायी को 'समणुजाणाहि-समनुजानीहि' यहां आने की आज्ञा दो ॥६॥". ... अन्षयार्थ-मेरे वस्त्रों की देखभाल करो, नवीन वस्त्र लाओ। मेरे लिये अन्न पानी लाओ। कपूर आदि सुगंध लाओ, रजोहरण-धूल झाड़ने का साधन लाओ।नाई वुलालाओ, इत्यादि प्रकार से आदेश करती हैं।६।। शहाथ-'वत्थाणि मे पडिलेहेहि-वन णि में प्रत्युपेक्षस्व साधा। भा। सोनी ममा ४२। भने भा२। माटे नवा पत्रो सावो 'अन्नं पानं च, भादाहित्ति-अन्नं पानं चाहर' भारे भागना पाणीनी सब ४१. 'गंधं च रजोहरणं च-गन्ध' च रजोहरणं च' भारे भाटे ४५२ विगैरे सुगन्धित पहाय भने M] (साप२७) सा. 'मे कासवग च-मे काश्यपकं च' भा। डेरा Girl माटे भने 'समणुजाणाहि-समनुजानीहि' मापानी गाज्ञा माया । सूत्रा--भारा स्रॉनी समाणे सो, भारे भाटे नवा ४५i as आवा. * મારે માટે ખાદ્ય અને પેય સામગ્રીઓ લઈ આવે, કપૂર આદિ સુગંધી દ્રવ્ય લાવો, ઘરની રંજ વાળવા માટે રજેડરણ (સાવરણી) લઈ આ મારા કેશ કાપવા માટે નાઈને બેલાવી લા ઈત્યાદિ આદેશે તે કરે છે. છે ૬ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. व. अ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि०, ३९५ टीका--'वस्थाणी'त्यादि । 'मे' से-मम 'वस्थाणि' वस्त्राणि 'पडिले हे हि' प्रत्युपेक्षस्व । किभितस्ततो वस्त्रं पतितं विधते, तदेशत्रीकस्य गृहे स्थापय । अथवा खण्डितं जीर्णत्वान्मे यस्त्रमिति प्रेक्षत्र एश्य । अर्थात्-शीर्णमिदमितो नूतनं वस्त्रमानय । तथा 'अन्न' अन्न-शाकोदनादिकं भोजनार्थ 'पानं' पान-पानीयकम् आनय । अथवा-पानं मादकं पेयद्रव्यमानय, येन मत्ताऽहं त्वया सह मनोविनोद करिष्ये । 'गंध' गन्धं तैलविशेषम् अंगशोभाजन कद्रव्यं वाआनय। 'रजोहरण च' "रजोहरणं संमार्जनीम् आनय येन गृहे पतितं- रजोऽनीयेत । एतादृशीं ममाज्ञां. लोचकरणे मम दुःखं भवति ततः सम्पादय । 'कासवगं च काश्यपं च नापितं केश. मुण्डनाय 'समणुजाणाहि' समनुनानीहि अत्रागमनाय अनुज्ञां कुरु आनयेत्यर्थः ॥६॥ मळम्--अदु अंजेणिं अलंकारं कुमययं में पर्यच्छाहि। लोद्धं च लोईकुसुमं च वेणुपलालियं च गुलियं च॥७॥ . टीकार्थ--मेरे वस्त्रों की प्रतिलेखना करो । इधर उधर बस्त्र कैसे पडे हैं ? इन्हें इकट्ठा करके घर में रख दो । अथवा देखो, जीर्ण होने के कारण मेरे वस्त्र फट गये हैं, अतएव नए लाओ। भोजन के लि अन्न और पानी ले आओ या पानक अर्थात् मदिरा आदि पेय के आओ जिससे मानवाली होकर मैं तुम्हारे साथ मनोविनोद कर सका। गंध अर्थात तेल या अंग शोभावाईक द्रव्य ले आओ। संमार्जनी (बुहार). लाओ, जिसले घर की धूल झाडी जा सके । मेरी इन आज्ञाओं का पालन करो। लोच करने में मुझे कष्ट होता है अतएव मेरे लिये नापित . को बुला लाओ ॥६॥ ટીકાળું–તે સ્ત્રી તે સંયમભ્રષ્ટ સાધુને આ પ્રકારના આદેશ આપે છે-“મારા કપડાને બરાબર ઝાટકીને તથા સંકેલીને પેટીમાં મૂકી દે. જા, મારાં કપડા ફાટી ગયા છે, આજે જ બજારમાં જઈને મારે માટે નવાં કપડાં ખરીદી લાવે. મારે માટે ખાવા પીવાની સામગ્રી લઈ આવ-ખાદ્ય પદાર્થો તથા મદિરા આદિ પેય પદાર્થો લઈ આવે કે જેથી મદિરાપાન કરીને મતવાલી બનીને હું તમારી સાથે કામોનું સેવન કરીને તમારા મનનું રંજન કરી -શકું. સુગંધિયુક્ત તેલ અને અત્તર લઈ આવે કે જેને લીધે ઘર સુગથી મહેકી ઊઠે, ઘરને વાળી ઝુડીને સાફ કરવા માટે સાવરણી લઈ આવે. વાળ કાપવા માટે ઘાંયજાને બે લાવી લાવે ઈત્યાદિ છે શું છે Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ । सूत्रकृताङ्ग छाया-अथांजनिकामलंकारं खुखुणेक मे प्रयच्छ । लोघच लोध्रकुसुमं च वेणुपलाशिकां च गुलिकां च ॥७॥ अन्वयार्थी—(अदु) अथ (अंजणि) अंजनिकां-कज्जलाधारभूतां नालिका (अलंकारं) अलंकारमाभूपणं (कुक्कययं) वीणां (मे पयच्छाहि) प्रयच्छ-देहि तथा • (लोद्धं लोद्धकुसुमं च) लोध्र च लोध्रकुसुमं च वेशभूषायै आनीय प्रयच्छ । (वेणुपलासियं च) वेणुपलाशिकाम्-वंशी ति प्रसिद्धां देहि वादनाय तथा (गुलियं)गुटिकामौपधगुटिकां देहि येन नित्यनवयौवनैव स्यामित्याज्ञापयति साधु सा स्त्री ॥७॥ ' 'अदु अंजणि' इत्यादि। शब्दार्थ--'अदु-अथ' और 'अंजणि-अंजनिकां' अंजनपात्र 'अलंकार-अलंकारम्' आभूषण 'कुक्कययं-खुखुणकं वीणा 'मे पथच्छाहिमे प्रयच्छ' मुझ को ला दो तया 'लोद्धं लोद्धकुसुमं च-लोनं च लोकुसुमं च लोध्र और लोध्र का पुष्प भी ला दो 'वेणुपलासियं च-वेणुपलाशिकां च एक वासकी बांसुरी और 'गुलियं-गुटिकाम्' औषध की गोली भी लाओ ॥७॥ .:: अन्वयार्थ-वह स्त्री ऐसा भी कहती है-मेरे लिये सुरमादानी लाओ, आभूषण लाओ, वीणा लाकर दो । वेशभूषा के लिये लोध्र और लोध्र के पुष्प लाओ । बजाने के लिये वंशी दो। मेरे लिये औषध की गोली लोकर दो जिससे नित्ये नवयुवती बनी रहूँ । स्त्री साधु को इस प्रकार आज्ञा देती है ॥७॥ “अदु अंजणि" त्याह-- ' शार्थ -'अदु-अथ' भने 'अंजणि-अजनिकी' मनपात्र 'अलंकारअलकारम्' मासूषाणु 'कुक्कुययं-खुंखुणक' वी! 'मे पयच्छाहि-प्ने प्रयच्छ' भने लावी आप तमा 'लोद्धं लोद्धकुसुमं च-लोधं च लोधकुसुमं च' वा भने साधना यो पY सावी माथे 'वेणुपलासिय' च-वेणुपलाशिकां च मे qiसनी __भने 'गुलिय-गुटिकाम्' सासनी गाणी ५ वी आ ॥७॥ ' સૂત્રાઈ–-જી એવી પણ આજ્ઞા કરે છે કે મારે માટે સુરમાદાની, . આમૂપ અને વીણું લઈ આવે. વેશભૂષાને માટે લોધ અને લોધિનાં પુષ્પ લઈ આવો, મારે માટે વાંસળી લાવી દે. મારે માટે એવી ઔષધિના ગોળીઓ લાવી દે છે, જેના સેવનથી માંગું નવયવન કાયમ માટે ટકી રહે. પાછા Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ समार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अं. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मवन्धनि० २९ टीका- 'अ' अथ च 'अंजगि' अंजनिकां कज्जल, धारनलिकां कज्जलस्थापनपात्रं च मे प्रयच्छ । तथा - 'अलंकार' अलङ्कारम्=आभूषणं कटक"केयूरादिकं 'कुक्कुययं' चीणाम् - घुघु रूविशिष्टां वीणाम् ' पयच्छादि' प्रयच्छ 'लोचनेऽञ्जयित्वा आभूषणेन शरीरं विभूष्य वीणां वादयिष्यामि तथा लोध-लोभं - रक्तवर्णक= अलक्तकादि समर्पय नखरञ्जनाय । (कोद्धकुसुमं च ) लोधकुसुमं च . प्रयच्छ केशशृङ्गाराय । ( वेणुपलासियं च ) वेणुपलाशिकां च-वंशनिर्मितवाद्यविशेषरूपाम् वंशीम् आनय, सा मे मनोविनोदाय भविष्यति, 'गुलिकांच'- गुटिकां - सिद्धगुटिकां समानीयाऽर्पय यत्मभावात् मम युत्रवित्वं कदापि न गच्छेत्, सदा मम यौवनं तिष्ठेत् ॥७॥ पुनरप्याह- 'कुटुं' इत्यादि । t - मूलम् - कुटुं तगरं च अगुरुं संपिट्ठे सम्मं उसिरेणं । + こ तेल्लं मुहभिलिंजाए वेणुंफलाई संनिधानाए ॥८॥ टीकार्थ- स्त्री आदेश करती है- मुझे काजल रखने की नलिका (डिबिया ) लाकर दो । कटक केयूर आदि आभूषण तथा घुघरूदार वीणा लाओ। मैं आंखों में काजल आंजकर, आभूषणों से शरीर को आभूषित करके वीणा बजाउंगी । तथा नाखून रंगने के लिये लोध महावर अर्थात् स्त्रियों के पैर रंगने का लाल रंग आदि लाकर दो केशों का शृङ्गार करने के लिए लोध के पुष्प लाओ। मेरे लिये वेणुपलाशिका अर्थात् वांसुरी लामो, जिससे मैं अपना मनोविनोद कर t' | सिद्धगुटिका लाकर दो, जिसके प्रभाव से मेरा यौवन कभी नष्ट न हो, मैं सदा नवयुवती बनी रहूँ ॥७॥ I ટીકા સ્ત્રી આદેશ કરે છે કે મારી આંખમાં આંજવા માટે કાજળની ડખ્ખી અને સુરમાની શીશી લાવી દે. મારે માટે કાનનાં બુટિયા, હાર, 'ગડીએ આદિ આભૂષણેા લાવી દો. મારે માટે ઘુરીઓવાળી વીણા લઈ આવા હું 'ખમાં કાજળ આંજીને તથા આભૂષણા અને સુંદર વસ્ત્રો ધારણ કરીને વીણા વગાડીને તમારા દિલને વીણાના મધુર સૂરો વડે ડોલાવવા માગુ' છું પગ રગવા માટે અળને લઇ આવેા. મારાં કેશોની સજાવટ માટે લેાધનાં ફૂલે- લઇ આવે. મને એક વાંસળી લાવી દે, તે વાંસળીના વાદન દ્વારા હું --भाश भनने महेलावा भागु छु भने सिद्धगुटि साथी हो, तेतु सेवन 'કરીને હું મારું યૌવન સદા ટકાવી રાખવા માગુ છુ” નાણા Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છું छाया -- कुष्ठं तगरं चाऽगुरु संविष्टं सम्यगुउशीरेण । 4 'तैलं सुखाऽभ्यगाय वेणुफलानि सन्निधानाय ॥ ८ ॥ सूत्रकृतसूत्रे 1. C 1 अन्वयार्थः -- (उसिरेण सम्मं संपिडं) उशीरेण वीरणमूलेन सह सम्यक् संपिष्टं मिश्रितं (कुङ्कं तगरं च अगुरु) कुष्ठं तगरमगुरुम् आनीय महां, देहि (मुहभिfort) मुखाङ्ग (तेरलं) तैलं - मृगन्धिनम्, तथा ( वेणुफलाई) वेणुफलानि फलानि वस्त्रादिस्थापनाय थानीय देहि इति ॥८॥ टीका कुकुमित्यादि । हे प्राणप्रिय | संत ! 'उसिरेणं' उशीरेण -त्रीरणमूलेन 'संपिट्टे' संपिष्ट-संमिश्रितम् 'कुटुं- तगरं च अनुरु' कुछ वर्गरम् अगुरुं तत्र - कुष्ठं'कुटुं तगरं च' इत्यादि शब्दार्थ- 'उसिरेण सम्मं संपिट्ठ- उशीरेण सम्पक संविष्ट' खस के साथ अच्छी तरह पीसे हुवे 'कुडं तगरं च अगुरु-कुष्टं तगरं चागुरु' कुष्ठ-कमल के गन्धयुक्त सुगन्धद्रव्य तगर और अंगर लाकर मुझे दो 'मुहमिलिए-मुखाङ्गख में लगाने के लिये 'तेस्ले - तेल' सुगन्धि तैल और 'सन्निधानाए - सन्निधानाय' वस्त्रादि रखने के लिये 'वेणु कलाई - वेणुफलानि' वांसकी बनी हुई एक पेटी ला कर दो ||८|| अन्वयार्थ - - वह कहती है- उशीर (खस) को जड के साथ अच्छी तरह, पीले हुये कुष्ठ, तगर और अगर लाकर मुझको दो । मुख में मलने के लिये तेल तथा वस्त्रादि रखने के लिये पेटी भी ला दो ॥८॥ • टीकार्थ- स्त्री कहती है- हे प्राणनाथ ! खसखस के साथ खूब पीसे हुए कुण्ड, तगर और अगर लाकर दो। यहां कुष्ट का अर्थ है कमल की " कुटुं तगरं च " इत्याह- शब्दार्थ - "उसिरेणं सम्म संपिट्ठ- उशीरेण सम्यक् संपिष्टस्' असनी साथै सारी, रीते वाटेसा 'कुट्टु तगरं च अगुरुं कुष्ट तगर व अगुरुं' अष्ट-भजनी गन्धश्री युक्त सुगंधद्रव्य तगर ने अगर भने साथी आओ. 'मुइभिलिंजाए -मुखाभ्यङ्गाय' भुणभां लगाना भाटे 'तेल' - तैलम्' सुगंधवाणु तेल भने 'सनिधानाए - संन्निधानाय वस्त्रो वगेरे राजा भाटे 'वेणुफलाई - वेणुफलानि ' વાંસની બનેલી એક પેટી મને લાવી આપે, ૫૮ાા सूत्रार्थ --ते उडे छे है- उशीर (अस) नां भूजनी साथै ससेोटेसां કુછ્યું; તગર અને અગર મને લાવી દે. મુખ પર લગાવવાને માટે મને સુગધિ દાર તેલ લાવી દે. `મારાં કપડાં રાખવાને માટે એક પેઢી પણ લેતા આવશે ઢા " Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. थु. अ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि० २९५ कोष्ठपुटादिकं कमलगंधम्, सुगन्धद्रव्यं, तगरं गन्धद्रव्यविशेषम् अगुरुं धूपगन्धद्रव्यमानीय मे प्रयच्छ याता सर्वदैव शरीरं सुगन्धितं भवेत् । तथा 'मुहमिलिजाए' मुखाभ्यंगाय ‘तेल्लं’तैलं सुगन्धितं तैलं चाऽऽदाय प्रयच्छ । 'वेणुफलाई ''. वेणुफलकानि-वत्त्रादीनां संस्थापनाय वेणुविनिर्मितपेटिका अपि यतः कुतश्चिदानाय्य दीयताम् यत्र निहितं वस्त्रादिकं सुरक्षितं भविष्यति । शय्यायाः शोभायै तगरादिकमपेक्षितम्, सुखशोभाऽभिवर्द्धनाय तैयादिकमपेक्षितम्, तथा वस्त्रादीनां रक्षायै पेटिकादीनां संग्रहोऽप्यावश्यकः प्रतीयते । इति भावः ||८|| मूलम् - नंदीचूपणगाई पाहराहि छत्तोवाणहं च जाणाहि । सत्थं च सूच्छेजाए आगीलं च वत्थ्यं रयांचेहि ॥९॥ छाया -- नन्दी चूर्ण माहर छत्रोपानहौ च जानीहि । शस्त्रं च सूपच्छेदाय आनीलं च वस्त्रं रंजय ॥ ९ ॥ गन्ध से युक्त, गन्धद्रव्य तगर एक सुगंधित द्रव्य है और अगुरु अगर के नाम से प्रसिद्ध धूपद्रव्य है । स्त्री आदेश करती है कि यह लंब वस्तुएं मुझे लाकर दो जिससे मेरा शरीर सुगंधित रहे और मुख पर मालिश करने के लिये सुगंधित तेल लाकर दो | वस्त्र आदि रखने के लिये बांस की बनी हुई पेटी भी कहीं से लाकर दो जिससे वस्त्र सुरक्षित रहें आशय यह है कि शय्या की शोभा के लिये तगर आदि की अपेक्षा की गई है, मुख का सौन्दर्य बढाने के लिये तैलादि की अपेक्षा की गई है और वस्त्रादि की रक्षा के लिए पेटी आदि की आवश्यकता प्रतीत की गई है ॥ ८॥ टीमर्थ -- स्त्री तेने हे छे - आयुनाथ ! मा४ तो भारे भाटे ખસનાં મૂળની સાથે વાટેલાં કુષ્ઠ, તગર અને અગર લેતા આવજો, કુષ્ઠ મા પદ્મના અથ, અહી. ‘કમલની ગન્ધથી યુક્ત સુગંધદ્રવ્ય' સમજવેા, ‘તગર' એક સુગધિત દ્રવ્ય છે અને ‘અગર' એટલે અગરુ નામનુ ધૂપદ્રવ્ય, આ બધા સુગધિત દ્રવ્યાનુ શરીર માલીશ કરવાથી શરીર સુગંધિત રહે છે. વળી મુખ ૫૨ માલીશ કરવા માટે સુગંધિદાર તેલ બનાવી દે, મારાં કપડાં મૂકવા માટે વાંસની અનાવેલી સુંદર પેટી લઇ આવે! કે જેથી મારાં કપડાં સુરક્ષિત રહે. આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે શય્યાની શાભાને માટે સ્ત્રી તગર આદિની અપેક્ષા રાખે છે, મુખતા સૌની વૃદ્ધિ માટે તે તેલ આદિની અપેક્ષા રાખે છે અને કપડાં આદિની રક્ષા માટે પેટીની અપેક્ષા શખે છે. દ્વા Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रहवालयले - अन्वयार्थः---(सागपागाए सुफोग) शाकपाकाय मुफणि च सपेळीति कोकमंसिद्धम् आनीय देहि तथा 'मामलगाई दगाहरणं च' आमलकान्युदकाहरणं च (तिलक करणिमंजणसलागं) तिलक करणीमंजनशलाकां च तथा (घिस) ग्रीष्मे मे= मम (विहूणय) विधनकं च व्यजनं (विजाणेहि) विजानीहि एतत्सर्वं देहीति ॥१०॥ : टीका-'सागपागाए' शाकपाकाप-शाकानां मुफ्तण्डुलादीनां च पाकाम रंधनायेत्यर्थः 'सुफणिं च' छुफणि च अनायासेन फण्यते पाश्यते शाकं तण्डुलादिकं यत्र तत् सुफणि स्थालीपीठरादिकम् (थाली-तपेली) आनय। तथा 'आमलगाई' आमलकानि धात्रीफलानि, पात्रसंमार्जनायन्युकाहरणं चे' आंवला तथा जल रखने का पात्र लाओ तथा तिलगकरणिमंजणसलागं-तिलककरणीजनशलाका तिलक और अञ्जन लगाने के लिये रुलाई लामो तथा घिसुमे विहूणयं विजाणेहिग्रीष्मे मे विधूनकमपि जानीहि' श्रीप्मकालमें हवा करने के लिये पंखा लाकर मुझे दो॥१०॥ .. अन्वयार्थ-शाक पकाने के लिए सुफणि (तपेली) लाकर दी। आंवला ला दो, पानी का पात्र ला दो, तिलक करने के लिये तथा अंजन आंजने के लिए सलाई ला दो। ग्रीष्मकाल में हवा करने के लिए पंखा ला दो ॥१०॥ टीकार्थ--शाक, दाल और चावल पकाने के लिए सुफणि अर्थात् तपेली ला दो । जिसमें शाक आदि सरलता से पकाए जा सके वह सुफणि कहलाती हैं । घरतनों को साफ करने के लिये, शरीर का Rimji अन ख मा माटे पात्र माती आयो तथा तिलगकरणिमंत्रणसलांग-तिलककरणीमञ्जनशलाकां' तिस २१। भाटे तिसजी -मन मrig Rign भाटे मनसणी मावी माप तथा "पिंसु मे विहूणयं विजाणेहि-प्रीष्मे मे मिधूनकं विजानीहि' श्री०५४ मावा माटे ५ । भने सावी माये ॥१॥ સૂત્રાર્થ–શાક આદિ બનાવવા માટે તપેલી લાવી દો. ઘરમાં આંબળાં થઈ રહ્યા છે, તે અત્યારે જ બજારમાં જઈને આંબળાં લઈ આવો. પાણી ભરવા માટે જળપાત્ર લાવી દે. ચાંલ્લો કરવાની તથા આંજણ આંજવાની ‘સળી લાવી દે. પ્રીમ તુ શરું થઈ છે, તેથી બફારો ઘણે જ થાય છે, ‘માટે હવા ખાવા માટે પંખે લાવી દે, '૧૦ સૂત્રાર્થ-શાક, દાળ, ભાત આદિ રાંધવાને માટે તપેલીઓ લાવી દે. (સૂત્રમાં 'मुफणि' ५६ ४ मा ५४वाना साधन भाट १५रायु छ, तथा तना अथ' તપેલી થાય છે) વાસણ માંજવા માટે નાન અદિ શરીરસંસ્કાર માટે તથા Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवार्थबोधिनी टीका प्र. ध्रु. अ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मवन्धनि० २२६ शरीरसंस्काराय भोजनाय च आनय । तथा- 'दगाहरणं च'- उदकाहरणं चं, उदकं जलम् आहियते आनीयते येन पाविशेषेग तदपि आनय-घटमानय, उपलक्षणमेतत्-ततैलादिकं सर्वमेव गृहोपकरणं मामर्पय । -तथा 'तिलक करणिमंजणसलागं' तिलककरणीमंजनशलाकां-तिलकारणाय शलाका स्वर्णमयीं राजतों वा । अथवा-अंजनकरणाय अंजनशलाकामपि, किं बहुना ग्रीष्मकाले कायोद्भुवस्वेदनिवारणाय 'विहूगर्य' विधूनकं व्यजन मे' मा विनाणेहि विजा. नीहि-उक्तमनुक्तं वा सुखसाधनमानीय समर्पय सर्व मामिति ॥१०॥ मूलम्-संडासगं च फर्णिहं च सीहलिपासगं च आणाहि। .. आदंसगं च पयच्छाहि दंतपक्खालणं पंवेसाहि॥१२॥ ___ छाया--संदंशकं च फणिहं च शिखापाशकं चानय । - .. आदर्शकं च प्रयच्छ दन्तप्रक्षालनकं प्रवेशय ॥११॥ संस्कार करने के लिये और भोजन के लिये आंवले ला दो । जल लाने के लिये पात्र ला दो। यह कथन उपलक्षग मात्र है। इससे हत, तैल उनके लिये पात्र आदि घर संबंधी सभी उपकरण-समझ लेना चाहिए। वह सब लाकर मुझे दो। तिलक करने के लिए सोने.या-चांदी.की सलाई अथवा अंजन लगाने के लिये अंजनशलाका भी ला कर दो। गर्मी में उत्पन्न होने वाले पसीने का निवारण करने के लिये मुझे पंखा भी ला दो। इस प्रकार कहे या अनकहे सभी सुखसाधन लाकर मुझे सौंपो ॥१०॥ ' शब्दार्थ-'संडासगं च-संदंशकं च' नासिका के अन्तर्गत केश को उपाडने लिये चिपीया लाओ 'फणिहं च-फणिहं च तथा केशसंवा. ભજનમાં વાપરવા માટે આંબળાં પણ લાવી દે. પાણી ભરવા માટે ઘડા, માટલી, ડેલ આદિ વાસણ લાવી દે આ કથન દ્વારા ઘી, તેલ આદિ પદાર્થો ભરવા માટે પાત્રો લાવી આપવાની વાત પણ સૂચિત થાય છે. ચાંલ્લો કરવા માટે સોના અથવા ચાંદીની સળી લાવી દો. આંજણ માટે અંજનશલાકા ‘પણ લાવી દે. હમણાં બફારો ખૂબ થાય છે, તે હવા ખાવા માટે એકાદ પંખે પણ લાવી દે આ પ્રકારના દરેક જાતનાં સુખસાધને લાવી આપવાનું ફરમાન તે છોડડ્યા જ કરે છે, અને સંયમભ્રષ્ટ તે સાધુને ગુલામની જેમ તેની તે આજ્ઞાનું પાલન કરવું પડે છે. ૧૦ साथ-सडासग च-संदंशकं च नानी २' २ ' प भाट योपियो- सापीमापा “फणि च फेणिहं' तथा मेयर भाट Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः -- ( नंदीचुण्णगाई पाहराहि) नन्दी चूर्णमोठरंजकं प्राहर. (छत्तोवाहं च जागाहि) छत्रोपान्हौ च जानीहि (मच्छेज्जाए ) सूपच्छेदाय पत्रशाकच्छेदनाय (सत्थं च ) शस्त्रं च (आणीलं) आनीलं च (त्थं) वस्त्र (यावेहि) रंजय, एतत्सर्वं मदर्थं कुरु इति ॥ ९ ॥ 1 टीका -- स्त्रीवशवर्तिनम् अतएव दाससमं साधुम् आज्ञापयति- हे कान्त ! 'नंदीचूoगगाहिं' नन्दी चूर्ण- द्रव्यसंयोगनिष्पादितोष्ठरख तथा दन्तशोधकं शब्दार्थ - - ' नंदीचुष्णगाई पाहराहि-नन्दी चूर्ण प्राहर ओठ रंगने के लिये चूर्ण लाओ 'छत्तोपानहं च जाणाहि छत्रोपानहौ च जानीहि ' छाता और जूना लाओ 'सुवच्छेजाए-सूपच्छेदाए' शाकपात्रादि के छेदन के लिये 'सत्थं च-शस्त्रं च' शस्त्र अर्थात् छुरी लाओ 'आणील' -आनील' च' नीलरंग का 'थं वस्त्र' व 'रयावेहि-रञ्जय' मेरे लिये रंगवा दो ॥ ९॥ अन्वयार्थ - - स्त्री पुनः कहती है- होठ रंगने के लिये नन्दी चूर्ण ले आओ । छाता लाओ, जूना लाभो । शाक काटने के लिए छुरी लाओ । मेरे लिए नीले रंग से वस्त्र रंगवा दो । मेरे लिये यह सभी वस्तुएं प्रस्तुत करो ||९|| टीकार्थ - - स्त्री के अधीन होने से दास के समान बने उस भूतपूर्व साधु को वह आज्ञा देती है - हे प्राणनाथ ! नन्दीचुर्ण अर्थात् अनेक द्रव्यों के संयोग से निर्मित ओष्ठ रंगने का चूर्ण या दन्तशोधक मंजन लाओ, शब्दार्थ' - 'नंदीचुणगाई पाहराहि-नन्दीचूर्ण प्राहर' डे रंगवा भाटे नाहीसावी यापो. 'छत्तोपानहं च जाणा हि छत्रोपानहौ च जानीहि ' छत्री अने જેડા લાવી આપેા. 'सूवच्छेज्जाए - सूपच्छेदाय' शोभाक सभारखा भाटे ८ 'सत्यं च - शस्त्र ं च ' शस्त्र - अर्थात् छरी सावी आये. 'आणील - भानील' व ' नीड़ २गनु' 'वत्थं-वस्त्र' १२त्र 'रयावेहि-रञ्जय' भने सावी आये। ॥u સૂત્રા-- તે સાધુને કહે છે કે મારા હોઠ રંગવા માટે નન્દીચ્ લાવી દે, દાંત સાફ કરવા માટે ઇન્તમ જન લઈ આવે. છત્રી, ચપલ આર્ટિ લઈ આવે. શાક સમારવા માટે છરી લઇ આવે. મારાં વસ્ત્રોને નીલા ગ વધુ ર'ગીદા’આ પ્રકારની આજ્ઞાએ તે કરતી જ રહે છે ॥ ૯॥ પેાતાને આધીન અનેલે તે સાધુ જાણે પેાતાના દાસ હાય તેમ તે સ્ત્રી તેને નિત્ય નવા નવા આદેશે! આપે છે—હૈ પ્રાણનાથ ! અનેક દ્રવ્યેાના મિશ્ર સુથી બનાવેલું' નન્દીચૂર્ણ (હાઠ લાલ કરવાના પાઉડર) લઈ આવે! કે જેનાથી Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ.२ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि० :२९७ मंजनम् 'पाहराई' माहर, पानय, येन रजिवी ओष्ठौ शोभेयाता तथा-शोधिता दन्ता अतिनिर्मला भवेयुः । तस्माद् येन केनापि प्रकारेण यतस्ततो मिलेन अन्विज्याऽऽनीयाऽपय । तथा 'छत्तीवाणहं च जाणाहि' छत्रोपांनही जानीहि आनेतव्यतयां, विना ताभ्यां वर्षाऽऽतपाभ्यां मदीयशरीरसंरक्षण कथं स्यात् । अतस्तयो रानयनमावश्यमेव । तथा 'सुपच्छे जाए'-सपन्छेहाय पत्रशाकादिकर्तनाय शस्त्रं छुरिकामप्यादाय मामर्षय । तथा-'वत्यय' वस्त्रम् “भाणीलं' आ ईपन्नीलम् , सर्वतो नीलं, रक्तं, पीतं च रञ्जप । नीलपीतरतादिवर्णेन रंजकद्वारा वस्त्रं रञ्जयित्वा प्रियायै मह्यमर्पयेति ॥९॥ मूलम्-सुफणिं च सागशगाए औमलगाई दगाहरणं च । -- तिलगकरणिमंजणखलागं घिसु मे विणयं विजाणेहि॥१॥ छाया-सुफणि चं शाकपाकाय आमलकान्युदकाहरणं च । * ... ... , । तिळककरणीमंजनशलाका ग्रीष्मे मे विधूनकमपि जानीहि ॥१०॥ जिससे रंगे हुए ओष्ठ सुन्दर दिखाई दे, तथा स्वच्छ किये दांत एकदम निर्मल हो जाएं । अतएव ये वस्तुएँ किसी भी प्रकार से, जहां कहीं भी मिले वहीं से खोजकर लाओ और दो। तथा छाता और जूता भी ले आओ। उनके विन वर्षा और धूप से कैसे सेरे शरीर की रक्षा होगा ? अतएव उनका 'लाना आवश्यक ही है. और शाक आदि. छेदन करने के लिए छुरी भी लाकर दो। तथा मेरे वस्त्र, नीले पीले या लाल रंग से रंगकर मुझे दो ॥९॥ , - शब्दार्थ-'सागपागाए सुफणि-शाकपाकाय सुफणि । हे प्रियतम। शाक पकाने के लिये तपेली लायो 'आमगाई द्गाहरणं च-आमलका. - રંગેલાં મારા હેઠ સુદર દેખાય. દાંત સફેદ કરવા માટે એવું દામજન લઈ આવે કે દાંત ઘસવાથી દાંત સફેદ થઈ જાય ગમે ત્યાંથી આ બને વસ્તુ મને લાવી આપે, છત્રી વિના તાપ અને વરસાદ વખતે બહાર કેવી રીતે જવાય? માટે આજે જ એક છત્રી લઈ આવો. મારા પગરખાં *(સપાટ, ચંપલ, મોજડી આદિ) ફાટી ગયાં છે, તો આજે જ નવાં પગરખાં લાવી આપે. શાક સમારવા માટે આપણે ત્યાં છરી પણ નથી, તે બજાર માંથી સારી છરી લઈ આવે. મારાં કપડાંને રંગ ઝાંખો પડી ગયો છે, તો મને આજે જ કપડાં પર લાલ, લીલ, પીળા આદિ રંગ ચડાવી દે.' ' , शहाथ-'सागपागाए मुफणि-शाकपाकाय सुफणि' प्रिय ! I मना44 भोट तपेली सानी भाये। 'आमलगाइ दगाहरण-आमलकनि, उदकाहरणं च' सू० ३८ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ----. . ... . . . -- . माने ---- अन्वयार्थः--(संडासगं च) संदंशकं 'च-नासिकाकेशोत्पाटनोपकरणम् स्फणिह) कंकतिका (सीहलिपासगं च) शिखापाशकं वेणीसंययनार्थ मूमयं कंकणं च (आणाहि) आनय (आदमगं च पयच्छाहि) आदर्शकं-दर्पणं च प्रयच्छ तथा (देवपक्खालणं पवेसाहि) दन्तप्रक्षालनकं भवेशय आनयेत्यर्थः ॥११॥ 5.7 टीका--'संडासगं' संदंशक-नासिकान्तर्गत केशोत्पाटनायाऽस्त्रविशेषम् 'फणिहं' फणिहं च कंकेतक केशसंयमनाय तथा (सीहलपासगं) शिखापशिक रने के लिये कंघी लाओ. सीहलीपासगं च-शिखापाशकं च वेणी बांधने के लिये ऊनकी बनी हुई जाली 'ओणाहि-आनय' लाकर दो 'आदं सगं च पपच्छाहि-आदर्शक च प्रयच्छ' मुख देखने के लिये दर्पण लाकर दो 'दंतपक्खालणं पताहि-दन्त प्रक्षालन प्रवेशय' दांत साफ करने के लिये दंतमंजन लाओ ॥११॥ - - - -- ..... : अन्ध्यार्थ--पुनः स्त्री की आज्ञा घेतलाते हैं-मेरे लिए नाक के लि उखाडने के वास्ते चिमटी ला दो, कंधा ला दो, वेणी बाँधने के लिए ऊन को कंकण ला-दो, दर्पण दो, दांत साफ करने के लिये मंजन यो 'दातौन लाओ ॥११- - , टीका-नाक के भीतर के बाल उखाडने के उपकरण को 'संदशफ' कहते हैं जिसे हिन्दी भाषा में 'चिमटी' कहा जाता है। वह स्त्री कहती है-मेरे लिये वह चिमटी ला दो। केश संवारने के लिये कंघी ला +ins सावी. भा. 'सीहलीपावगं च-शिखापाशकं च'-ao wiqा. भाटGनी मनाशी जी 'आणाहि-आनय' हावी भाषी. 'आदसगं च पयच्छाहिआदर्शकं च प्रयच्छ' भुमले। भाटे पर हावी भापी. 'दंतपक्स्वालणं प्रवेसाहि-दन्तप्रक्षालनकं प्रवेशय' did सा ४२वा भाटे तमnanवी माये।।११। - सूत्राथ-श्रीनी माज्ञासानु सूत्रा२ मामण वन ४२.छे-नाना બાલ ખેંચી કાઢવા માટે મને ચીપિયો લાવી દે. કેશ ઓળવા માટે દાંતિ લાવી દે. મારી વેણ બાંધવા માટે ઊનને દોરો લાવી દે. મોઢું જોવા માટે દર્પણ લાવી દે અને દાંત સાફ કરવા માટે દાતણ અથવા દત્તમંજન લાવી हो. मेम. माज्ञा ४३ छ.. . ટીકાથ-નાકમાં ઉગેલા બાલ ખેંચી કાઢવાના ઉપકરણને ચીપિ કહે છે. , તે સ્ત્રી પોતાને માટે ચીપિ લાવી આપવાની તેને આજ્ઞા કરે છે. વળી કેશ वा माटे (iतिय) पण गावे 'छ, १५ : भाव छ, वा मांधा Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका प्र.श्रु. सं. ४ उ. २ खलितचारित्रस्य कर्मवन्धनि० ३०१९ वेगीसंयमनाय-ऊभियं - कंकणं चंऽऽनीय समर्पय । ''आईसग आदर्शकम तदपि दर्पणं मुखविलोकनाय मामपंप देहि, तथा 'दनपक्वालण' दन्तप्रक्षालनक दन्ताः पक्षालयन्ते येन तदन्तमक्षाकनकम्, दन्तकाष्ठं प्रवेशय आनयेति ॥११॥ मूलम्-पूर्यफलं तंबोलयं सूईसुत्तगं.च जाणाहि। कोसं च मोयमेहाए सुप्युक्खलगं च खारगोलणं च॥१२॥", छाया--पूगीफलं च ताम्बूलकं मचीसूत्रक च जानीहि । . . . . . .. कोशं च मोयमेहाय शूर्पोखलं च क्षारगालनकम् ॥१२॥ - - १५. - अन्वयार्थः-(पूर्यफलं तंबोलय) पूगीफलं तांबूलं नागवल्लीदलं (सुईमुत्तर्गच जाणादि) सूची मूत्रं च सूच्यर्थं वा सूत्र, जानीहि-आनय (मोयमेहाए) मोक्मेहाय प्रस्रवणाय (कोस) कोशं च पात्रमनिय (सुप्पुक्खलग च) शूर्पोखलं च (खारगालणे च) क्षारगालनं च-पात्रमानयेति ॥१२॥' .. . दो। वेणी बांधने के लिये ऊन का कंकण (जाली)-ला. दो । मुख देखने के लिये दर्पण ला दो। दांत साफ करने के लिए दातौन या मंजन लाकरदो-१११॥ शब्दार्थ-'पूयफलं तंबोलयं-पूगीफलं ताम्बूलं, सुपारी और पान सुईसुत्तगं च जाणाहि-सूचिसूत्र च जानीहि तथा सूई और दोरा लावो 'मोयमे हाय-मोकमेहाय' पेसाय करने के लिये 'कोसं-कोशेपात्र लाओ 'सुप्पुक्खलगं च-शूर्पोखलनं च सूपडा और उखल लाओ एवं 'खारगालणं च-क्षारगालनं च सानी आदि खार गालने के लिये पर्तन शीघ्र लाकर दो ॥१२॥ अन्वयार्थ-मेरे लिये सुपारी, पान, सुई धागा, लघुशंका निवारण करने का पात्र, सूपडा, ऊखल तथा खार गलाने का पत्र भी लाओ॥१२॥ માટે ઊનની ગુંથણીવાળી જાળી મંગાવે છે વળી પિતાના દાંતની સફાઈ માટે Finey मन हन्तम - ५ दावी भावानु ३९ छे. ॥ ११॥. :, शहाथ-पूयफल तपोलय-पूगीफल तांबूल' सौपारी भने पान 'सुई सत्ता च.जाणाहि-सूचीसूत्र च जानीहि' तथा सो भने हो। तापी माया. 'मोयमे'हाय-मोकमेहाय' पेश ४२वा भाट 'कोसं-कोशम्' पात्र 'सावी या पी. 'सप्पुक्खलग च-शूर्पोस्खलनं च सूपडं मन मणियाापी आपा, ते खारगोलणंचक्षारगालनं च सा माहाराणानु: पासधा भने वीमाया' 1. सी. मी०४ ४ १स्तुमा म छे, ते सूत्र४२ वे रे छ-भारे भाट पान, सपा, सोय, २१, माdिast at..,पेशवा n Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ , टीका-'पूयफलं' पूगीफलम् (सुपारी) 'बोलय' ताम्बूलम्-नागवल्लीम्, 'सुई सुत्तंग सूची सूत्रकम् , मूत्रम्-डोरकम् मूच्यर्थ सूत्र वा जाणाहि जानीहि आप श्यकतया एभिविना गृहकार्यस्य सम्पादनोऽसं पवात् । 'मोयमेहाए मोकाप भंस्त्रवणाय 'कोसं' को मूत्रपात्रम् , मूत्र त्सर्गाय आवश्यकम् । यतो हि: रात्री भयारी बहिर्गन्तुं न शक्नोमि । तथा 'मुप्प' शुर्पम्-तण्डुलादिशोधनाय उपकरणविशेषं 'सूडा' इति भाषा प्रसिद्धम् 'उक्खउगं च उलू'वलं च-धान्यानां तुषानयनाय कण्डनायेत्यर्थः तथा 'खारगालणं च' क्षारगालनकम् । सर्जिका दिक्षारपदार्थगॉलनोपकरण विशेपम् इत्येतत् सर्व गृहोपकरणं शीघ्र यस्नादानीय मझ प्रदेयम् इति ।।१२॥ मूलम् -चंदालगं च करगं च वच्चघरं च औउसो खणाहि। । सरपाययं च जााएं गोरहगं च . सामणेराए ॥१३॥.. ... छाया-चंदालकं च करकं च वर्षोंगृहं च आयुष्मन् ! खानया--- शरपातं च जाताय गौरथकं श्रामणेयाय ॥१३॥ टीकार्थ--तुपारी लामो, पान लाभो, सुई लाभो, डोरा लाओ, यह आवश्यक है । इनके विना घर का काम नहीं चल सकती । लघु. शंका निवारण करने के लिये पात्र भी. चाहिये या उसके लिये घर के भीतर ही स्थान चाहिये। क्योंकि रात्रि के समय भय के कारण याहर नहीं जाया जा सकता। धान्य साफ करने के लिये सपडा भी चाहिए। धान्य को कूटने के लिए ऊखल उसके छिलके - हटाने के लिए सूपड़ा चाहिए. साजी आदि खार गलाने के लिए भी पात्र चाहिए। यह सब घर संबंधी उपकरण शीघ्र ही प्रयत्न करके लाओ और मुझे सौ पो ॥१२॥ भारे पात्र (तस्तर)-सावी ... सूप सामोमाइलिया तथा साविगरे ખાર ગાળવાનું પાત્ર પણ લાવી દો. ૧૨ ટીકાઈ–મારે માટે પાન, સોપારી આદિ મુખવાસના પદાર્થો. લાવી દે કપડાં, સાંધવા માટે યશ પણ લાવી આપે. -ઘરમાં. પિશાબ કરવા માટે ચાકડીની વ્યવસ્થા કરો. અથવા પેશાબ કરવા માટે તસ્તરું લાવી દો. (રાત્રે ભયને કારણે પેશાબ કરવા બહાર જઈ શકાય નહીં તેથી પેશાબ કરવા માટે પાત્ર મંગાવે છે) ઘરમાં અનાજ સાફ કરવા માટે-સવા ઝાટકવા માટે સૂપડું પણ હોવું જોઈએ ધાન્યને ખાદ્ધને તેના ફેતરાં આદિ દુર કરવા માટે ખાંડણિયાની પણ જરૂર પડે છે. સાજી વિગેરે ખાર ગાળવા માટે પાની જર પડે છે. તેથી આ બધી સામીઓ લાવી આપવાનો છે તેને આદેશ કરે છે, 'मन त यमष्ट साधुन तेमामाज्ञायामुपालन ३२५ छे. Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिटीका प्र. थु. अ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि० २०३ - अन्वयार्थ:-- (आउसो ) हे आयुष्मन् ! (चंदाल गं) चन्दालकं च देवपूजनाव (कर) करके च- जलपात्रं मधुपात्र वा (चच्चघरं ) चर्चो गृहं शौचस्थानं गाह) खानय ( जाया) जाताय - पुत्राय (सरपाययं च शरपातं धनुध (सामए) श्रामणेयाय - श्रमणपुत्राय (गोरहं च) गोरथं चानयेति ||१३|| I टीका - 'चंदालगं' चन्दालकम् - देवपूजनार्थं ताम्रमयं पात्रम् | 'कर' - करकः घटः येन पात्रविशेषेण शृंगाकारेणाऽभिषेकः क्रियते । 'वच्चरं' क्वगृहम् शब्दार्थ -- 'आउसो हे आयुष्मन्' हे दीर्घजीवित् 'चंदालi - चन्द्रालकं' देवता का पूजन करने के लिये ताम्र पात्र और 'करगं च - करकं च' जलपात्र अथवा मधुपात्र 'वच्चघरं - वर्चोगृहं' शौचगृह 'खणाहि - खानय' बनवा दो ये सब मेरी अनुकूलता के लिये तैयार करवा दो 'जायाएजाता' अपने जन्मे हुए 'समणेराए - श्रामणेयाय' श्रमण पुत्रको खेलने के लिये 'सरपाययं च शरपातं च' एक धनुष तथा 'गोरहगं च-गोग्धंच' एक यलद और रथ लाओ ॥१३॥ - अन्वयार्थ -- हे आयुष्मत् ! चन्दालक अर्थात् देवपूजा के लिये ताम्र का पात्र ला दो, करक अर्थात् जलपात्र या मंदिरा रखने का पात्र ओ, बडी शंका निवारण करने के लिए गर्त खोदो अर्थात् खाड़ा खोदो। अपने आत्मज श्रमण पुत्र के लिए धनुष ला दो, तथा एक बद और रथ भी ला कर दो ॥ १३ ॥ टीकार्थ-- देवपूजन के लिए तांबे के पात्र ला दो । करक ( करवा) अर्थात् जलपात्र, मदिरापात्र अथवा शृङ्ग के आकार का वह पात्र जिससे - शब्दार्थ'--'आउसो - हे आयुष्यन्' हे दीर्घ छवि 'चंदाल - चंदालकम्' हेवतानु' पुन्न इश्वा भाटे ताम्रपत्र भने 'करंग च--करके च' यात्र BAYAI HYYAAW 'ĦEaai-aafye' Muys ‘Amfe¬(79' Weigl patŢU सभामधी वस्तुओो भारी अनुजता भाटे तैयार म्रादी भाषा तथा 'ज्ञायाए चामपि जाताय श्रामणेयाय' आपला श्रपुत्र रमवा भाटे 'सरप्रायय' चारपात च' ये धनुष भने 'गोरहं च-गोरथं च ' -मजह अने २६ दावे ॥१॥ સૂત્રથ—વળી તે સ્ત્રી તેને એવી આજ્ઞા ફરમાવે છે કે હૈ આયુષ્ય अन्- 'देवनने भाटे अन्हा (ताम्रपत्र) सावी हो ४२४ : (यात्र अथवा મદિરા ભરવાનું પાત્ર) લાવી દે, અરે જવા ખાડા બાદી દે. આપણા શ્રમણ પુત્રને માટે ધનુષ તથા બળદ અને રથ પશુ લાવી દે, ૫૧૩ ટીકા—3 પ્રાણનાથ ! હૈ આયુષ્મન્! દેવપૂજાને માટે તામ્રપાત્ર લાવી ફો. ધરક' જળપાત્ર અથવા દિશપાત્ર અભિષેક કરવા માટે 1 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - --- , .. . . . समताइस पुरीपोत्सर्गस्थानम् खणाहि' बनिय-गृहमदेश एवं गतं कारय । "सरपायं शरपातं-शराः क्षिप्यन्ते येन तत् शरपतिं धनुः । 'जागर' जाताय-आत्मजाय-- स्वकीयाय 'सामणेराए गोरहगं च' श्रामणेयाय श्रमणपुत्राय गोरथकं विवार्षिक वलीवर्दै रथं च एतत्सर्वमानीय गृहे स्थापनीयम् ॥१२॥ मूलम्-घडियं च सडिडिश च बेलगोलं कुमार याए। . वासं समभिआण्णं आवजहं च जाण भत्तं च ॥१४॥ छाया-घटिकां च सेडिण्डिमकं च चेलगोलकं च कुमारभूताय । वर्ष च समभ्यापनमारमथं च जानीहि भक्तं च ॥१४॥ अन्वयार्थः- (घडियं च) घटकां च मन्मयाडिकां (सर्डिडिमयं च) अभिषेक किया जाता है, ला दो। घर में शौचगृह बना दो। अपने आत्मज श्रमण पुन के मनोरजन के लिये धनुष लो दो और एक तीन सालका घलद और रथ ला दो। यह सब वस्तुएं घर में रहनी चाहिए ॥१३॥ . शब्दार्थ--'घडियं च-घटिकां च' भीट्टी की गुडिया और 'सडिडिमयं च-सडिण्डिमं च' बाजा तथा 'कुमारभूयाए-कुमारभूनाय' राजपुत्रके समान अपने पुत्रको खेलने के लिये 'चेलगोलं च-चेलगोलक चे कपडे की बनी हुई गेंद लाभो 'वासं च समभिभाषणं-वर्षच समभ्यापन्न' घर्षाऋतु समीप में आगई है अतः 'आवसह-आवसथं उनसे बचने के लिये घर का प्रबन्ध करो एवं 'मत्तं च-भक्तम्' अन्न 'जाण जीनीहि लाकर दो ॥१४॥ अन्वयार्थ--मिट्टी की गुड़िया और बाजा डुगडुगी) ले आओ શગને આકાર જેવા પાત્રને “કર' કહે છે. ઘરમાં જ જાજરૂ જવા માટેની વ્યવસ્થા કરી દે-જાજરું બનાવી દે અથવા ખાડે ખેદી દે. આપણે આ લાડકા બેટને રમવા માટે ધનુષ લાવી દે તથા એક બળદ અને રંથ પણ લઈ છે કે જેની સાથે તે રમીને આખો દિવસ આનંદમાં વ્યતીત કરે. ૧૩ .: शार्थ -'घडिय' च-घटिका च' भाटिनी पुतणी मन 'मडि डिमय च -सडिण्डिमं च' “quit तथा 'कुमारभूयाए-कुमारभूताय २२ पुत्रः सरीमा पण पुत्रन २भवा भाट'चेलगोल च-चेलगोलकं च' ४५ाना मनासा सावी मापे 'वासं च संमभिआवण्ण-वच समभ्या पन्न' वर्षाऋतुन मावत छ. रथी 'आवसह-आवसर्थ' व हथी 'मयका माटे घरनी सा री माप तेमा - भत्तं च-भक्त 'च' मना०४ पशु 'जाण-जानीहि' anो मापा ॥१४॥ . . सूत्रा-मादीनी दिली मन बाई (मी) ६४ भाव भाप Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थबोधिनी टोका प्र. श्रु. अ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि०३०५ सडिण्डिमकं च-वाद्यविशेषं चं ( कुमार भूपए) कुमारभूताय - राजपुत्राय पुत्राय (चेलगोलं च.) चेलगोलकं च चत्रात्मकं कन्दुकं ( वासं च सममिवणं) वर्ष च समभ्यापन्नं=वर्षाकालः समागतः अतः (रस) आवसथं गृहं (भत्तं च) भक्तम् अन्नं च 'जाण' जानीहि - आनयेत्यर्थः | १४ || टीका- 'घडियं च ' घटिकां मृत्तिकानिर्मिताम् 'सडिंडिमयं च' सडिण्डिमकं च = पटका दिया दिन विशेषसहिताम् 'डुगडुगीति भाषा पसिद्धाम् तथा 'चेजगी ' गोलकं वनिर्मितं कन्दुकं च 'कुमारभूयाए' कुमारभूताय = राजकुमारसं दृशाय पुत्राय आनय कीडार्थम् । तथा 'वास' वर्ष = कालः 'सममिभाव” समभ्यापन्न - समीपमाः अतो वर्षाकालयोग्यम् 'सह' आवसथं गृह 'मत्तं' भक्तं- तण्डुरादिकं चतुर्मासपर्यन्तमाहारक्षमं च 'जाणे''. जानीहि - एतत्सर्व 'निष्पादय, इदानीमेव पयत्नः करणीयः, यावेता' वर्षाकाल:- सुखेन तिवाहित अवयवेत् ॥१४॥ t ✓ अपने राजकुमारसरीखे पुत्र के लिये कपडे की गेदु लाओ। अप वर्षाऋतु आ गई है अतएव घर एवं अन्न का प्रबंध करो ॥१४॥ " 'टीकार्थ मिट्टी की गुडिया, बजाने के लिये डुगडुगी, बस्त्रो की बनी गेंद यह सब राजकुमार जैसे - अपने बेटे को खेलने के लिये 'लाओ। हां, वर्षाकाल समीप आ गया है, अतएव वर्षाकाल के योग्य घर का निर्माण करवाओ, चार मास तक पर्याप्त अन्नादि हो कर लो | इसी समय इनके लिये प्रयत्न कर लेना चाहिये । जिससे अपना वर्षाकाल सुखपूर्वकंतीत हो सके | १४ || રાજકુમાર જેવા પુત્રને રમવા માટે કપડાના દડા લઇ આવે હવે વર્ષાઋતુ શરૂ થવાની તૈયારી છે, તે વર્ષાકાળ દરમિયાન ચાલી રહે એટલાં અન્નના ઘરમાં પ્રમન્ય કા ઘર સ’ચાળવાનું આદિ કામ પતાવી દે -વર્ષાઋતુમાં તર્કલીફ ન પડે તે માટે ઘરંતુ સમારકામ કરાવી લો. ૫૧૪ા 1 ટીકા”—તે સ્ત્રી તે સચમભ્રષ્ટ સાધુને કહે છે કે મારા રાજકુમાર જેવા પુત્રને રમવા માટે માટીની ઢિંગલી લાવી દો. તેને માટે ડુગડુગી (એક જાતનું વાજિંત્ર) લાવી દે તેને રમવા માટે કપડાના બનાવેલા ડા લાવી આપો. હવે ચે.માસુ શરૂ થાય છે, તે ઘરમાં ચાર માસ ચાલે એટલ અનાજ લઈ આવેા. ઘરનું, સમારકામ કરાવી લે કે જેથી ચેામાસામ) વસ વાટને માટે કાઈ મુશ્કેલી ન રહે. આ ખધુ... હમણાં જ પતાવી નાખા જેથી વર્ષાકાળ સુખપૂર્વક વ્યતીત થાય ॥૧૪॥ सृ० ३९ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܝܕܝܐ सूत्रकृताङ्गसूत्रे सूळस्-आसंदियं च नेवसुतं पाउलाई संकमाए | अद्वै पुर्त्तदोहलट्टाए अणप्पा हेवति दांसा वा ॥१५॥ छाया - आसन्दिकां च नवसूत्रां पादुकाः संक्रमणार्थाय । अथ पुत्रोदार्थाय आज्ञा भवन्ति दासा इव ॥ १५ ॥ अन्वयार्थः -- (नवसु च आसंदियं) नवसूत्रामादिकां च-नवसूत्रनिर्मितां चिक (मट्ठा) संक्रमणार्थाय (पाउल्लाइ ) पादुकाः- काष्ठपादुकाः (अदु) अथ (gatear) पुत्रदार्था (दासा वा) दासा इव (आप्पा) आइताः (हवंति ) भवन्ति - स्त्री वशीकृताः साधवः स्त्रियाः दासा इव भवन्तीति ॥ १५ ॥ शब्दार्थ- 'नवसुत्त' 'च आसंदियं नवसूत्राम् आसंदिकाम्' नये सूतों से बनी हुई सोने बैठने के लिये एक मंचिया लाओ 'संक्रमट्टाए- संक मणार्थाय' घूमने के लिये 'पाउलाई पादुका:' काष्ठ की पादुकाएं लाओ 'अनु- अर्थ' और 'पुत्तदो हलट्ठाए- पुत्रदोदार्थाय ' मेरे गर्भस्थित पुत्र के दोहद की पूर्ति के लिये अमुक अमुक वस्तु लाओ इस प्रकार साधु 'दासा वा दासा इवे'' दासके जैसे 'आणप्पा - आज्ञता" आज्ञाकारी 'हवेति भवन्ति' होते हैं ||१५|| अन्वयार्थ -- नवीन सूत से बनी मंचिया लाओ, चलने फिरने के : लिये खडाउँ लाओ। पुत्रदोहद गर्भस्थित पुत्र की इच्छा को पूर्ण करने के लिये अमुक अमुक वस्तुएं लाओ । इस प्रकार स्त्रियां अपने वश में हुए उन साधुओं को दास के समान आज्ञा देती है ॥ १५ ॥ * शब्दार्थ' - 'नवसुत्तं च- आसंदिय' - नवसूत्राम् आसंदिकाम्' सुवा मेसवाने भाटे नवा होराथी (पाटीथी) मनावे मे! पण सावा तथा 'संक्रमट्टाए - संक्रमणार्थाय ३२वा भाटे 'पाउल्लाई' - पादुका ः ' साउडानी पावडीओ ( याभडी ) सावी खाये। 'अदु-अथ' मने 'पुतोहलट्ठाए- पुत्र दोहदार्थाय गर्भावस्थाना डोहनीपूर्ति भाटे सभु अभु वस्तु तावी भाये। खेभ ते साधु थे। 'दासा वा दाख इव' हास अर्थात् सेउनी भाइ 'आणप्पा - आज्ञप्ताः' आज्ञांति 'हवंति - भवन्ति' थाय छे ॥ १५ ॥ સૂત્રા—આપથે શયન કરવા માટે નવી પાટી ભરેલી ઢાયણી (નાના ઢલિયે) લાવી દો. મારે માટે લાકડાની પાવડીએ લ વી આપે. ગસ્થ પુત્રદોહદ પૂર્ણ કરવાને માટે વિવિધ વસ્તુએની પણ તે માગણી કરે છે. આ પ્રકારે પાતાને વશ થયેલા તે સંયમભ્રષ્ટ સાધુને દાસ જેવા ગણીને સ્ત્રીઓ વિવિધ આજ્ઞાએ કરે છે. પ્ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयों धिनो टीका प्र. Q. अं. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कमबन्धनि० ३०७ - टीका-'नवमुत्त' नवसूत्रेणं निर्मिताम् 'आतंदियं' आसन्दिकाम्-मंचिका शयनार्थम् 'संकमट्टाए' संक्रमार्थाय-इतस्ततः चंक्रमगाय, वर्षाकालेऽपि गेहादगेहान्तरगमनकर्मणि साहाय्यकरणाय 'पाउल्लाइ' पादुका:-काष्ठपादुकाः आनय 'अदु' अथ, इतः पूर्व तु यत् यत् कार्य समादिष्टं कदाचित् परिसंख्यातु संपादायितुं च शक्यमपि । अथाऽनन्तरम्-पुत्तदोहलहाए' पुत्रदोहदार्थाय-पुत्रस्य दोहदा गर्भस्थितिकाला तदर्थाय तस्मै हिताय । समुचितौषधानपानादीनां व्यवस्थाकरणे, यथोदरस्थो बालो विकलांगो न भवेत्-तथा, तथा 'माणप्पा' आज्ञप्ता:-सगीयाः भार्यायाः मनोवाञ्छितवस्तूनां तत्तदिच्छितकाले समाहरणे एतत्सर्वकार्यकरणे टीकार्थ--शयन करने के लिए नवीन सूत्र से पनी हुई मंचिया लाओ, इधर उधर घूमने फिरने के लिए अर्थात् एक घर से दूसरे घर में जाने के लिए लकडी की खडा लाओ। इससे पहले जिन कार्यों के लिये आदेश दिया था, उनकी किसी प्रकार गणना की जा सकती थी और पूर्ति करना भी शक्य था, पर उनके अतिरिक्त भी वह अनेक प्रकार के आदेश देनी है। पुत्र जब गर्भ में होता है तथ गर्भवती को जो इच्छा होती है.उसे दोहद कहते है। उसकी पूत्ति के लिए अनेक प्रकार की वस्तुएं लाने को कहती है ટીકાર્ય—આપણે શયન કરવાને નવી પાટી ભરેલી હેયણી લાવી દે કે જેથી સુખપૂર્વક શયન કરી શકાય મારે હરતાં ફરતાં કાંટા, કાંકરા ન વાગે તે માટે લાકડાની ચાખડીઓ લાવી દે. આ સિવાય તે કેવી કેવી આજ્ઞાઓ આપે છે, તે ગણાવી શકાય તેમ નથી. ઉપર વર્ણવ્યા સિવાયની અન્ય આજ્ઞાઓ પણ આ કથન દ્વારા ગ્રહણ કરવી જોઈએ. બાળક જ્યારે ગર્ભમાં હોય છે, ત્યારે ગર્ભવતી સ્ત્રીને જે ઈચ્છા થાય છે તેને દેહદ કહે છે. આ દેહદની પૂર્તિ માટે તે અનેક વસ્તુઓ પિતાના પતિ પાસે મંગાવે છે. એવી માન્યતા પ્રચલિત છે કે સ્ત્રીના દેહદ પૂરા ન થાય તે બાળક Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ सूत 'दासा वा' दासा इव - दासा यथा तथा 'हवंति' भवन्ति । श्रीवशीकृताः पुरुषा आज्ञता दासा इव स्त्रीणां कार्याणि कुर्वन्ति ॥१५॥ मूलम् - जांए फले समुपपन्ने गेहसु वा पणं अहेचा जहीहि । अहं पुत्त्रपोसिणो एगे भाविहा हेवंति उही वा ॥१६॥ छाया - जाते फले समुत्पन्ने गृहाण वा तं अथवा जहाहि । अथ पुत्रपोषिण एके भारवहा भवन्ति उष्ट्रा इव ॥१६॥ ---- अन्वयार्थः -- (जाए फले समुत्पन्ने) जाते फले समुत्पन्ने- पुत्रोत्पतिरेव गृहस्थतायाः फलं, तस्मिन् पुत्रे जाते सति यद्भवति तद्दर्शयति 'गेहसणं चा' गृहाण तं 'जहाहि वा' अथवा जहाहि त्यज 'अ' अथ 'एंगे' एके 'पुत्तपोसिणों' पुत्रपो"पिण: "उट्टा वा उष्ट्रा इव 'भारवहा' मारवा 'हवंति' भवन्तिति स्त्रीपुत्रयोः ॥ १६ ॥ जिससे बालक विकलांग न हो। इन सब मांगो की पूर्ति वे साधु दास की तरह करते हैं ।। १५ ।। शब्दार्थ - 'जाए फले समुपपन्ने-जाते फठे सपने' पुत्र उत्पन्न होता गृहस्थावस्था का फल है, उसके होने पर स्त्री क्रुद्ध होकर कहती है'वहणं चा जहाहि गृहाणतं वा जहाहि' इस पुत्रको गो हो अथवा छोड़ दो 'अह-अर्थ' तत्पश्चात् 'पगे एके' कोई कोई 'पुत्तपोसिणो-पुत्रपोषिणः' पुन का पोषण करने वाले 'उद्याचा-उष्ट्रा इव' - ऊंट के जैसा 'भारवहा - भारवहा' भरको उठाने वाले 'हवंति भवन्ति' होते हैं | १६ | વિકલાંગ (અંગાની ખેડવાળુ) થાય છે. તેથી તે સધુએ દાસની જેમ તેની મધી ઈચ્છાઓને સતાષવી પડે છે ૫૧૫ ૨ शब्दार्थ' - ' जाए फुले समुप्पन्ने-जाते फले समुत्पन्ने' पुत्र अत्पन्न थवा તે ગૃહસ્થાવસ્થાનું ફળ છે. તે થયા પછી સ્રી ક્રોધિત થઈને કહે છે કે-~~ 'गेहसुणं वा जहाहि - गृहणितं वा जहाहि' मा पुग्ने भोणास हो अथवा तेना त्याग । 'अह - अथ' खीना सेभ ह्या पछी 'एगे - एके' अर्थ अ 'पुत्तपोसिणो- पुत्रपशेषिणः' पुत्रना पौषशु श्रवावाजाओ। 'उद्याव - उष्ट्रा इव' अटनी 'भारवहा- भारवहाः' मोलने उठाववान जा 'हवंति - भवन्ति' थाय छे ॥१६॥ સૂત્રા-પુત્રના જન્મ થયા માદ તે સ્ત્રી પુરુષને કેવી કેવી આજ્ઞા આપે છે તે હવે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે--‘લે આને ચેડી વાર તેડીને ફેરવે. છાડા, છેડા તમે શુ તેને સભાળવાના છે !' કેટલાક માશુસે તે પુત્રને ખુશ કરવા માટે ઊંટની જેમ તેના ભારનું વહન કરે છે. ૧૬ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीको प्र. Q. अ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मवन्धनि० ३०ऐं टीका-'जाए फले समुप्पन्ने जाते फले समुत्पन्ने, जायते इति जातः पुत्रः स एव फलं दारंपरिग्रहस्य गृहस्थानाम् । दारपरिग्रहस्य यदुच्यते फलं कामोपभोगा, स तु गौणः ।' मुख्य फलं तु पुत्र एव। ., अव्यक्तभाषिणो वाला यह सुख नराणां माति तादृशमुग्वाग्रेऽन्यत् “सर्वमकिचित्करं भवति । तदुक्तम् । . . . . . , .' . ' 'यत्तच्छपनिकेत्युक्तं, बालेनाऽव्यक्तभाषिणा । .. - - हित्वा सांख्यं च योगं च, तन्मे मनसि वर्तते ॥१॥ पुत्रसुखं दरिद्रधनिनोः सम व भवति इदं सुखं वाह्य सामपनपेक्षमेव भवतीति । तथा___ अन्वयार्थ-पुत्र होने के पश्चात् जो होता है उसे दिखलाते हैं-वह स्त्री कभी कहती है इले लो-संभालो, कभी कहती है इसे छोडो। कोई कोई पुत्रपोषी लोग तो ऊंट की तरह भार वहन करते हैं ॥१६॥ - टीकार्थ--पुत्र का दूसरा नाम 'जान' है। गृहस्थों के लिए विवाह का फल पुत्रप्राप्ति है । विवाह का फल कामभोग जो कहा जाता है, वह फल गौण है, प्रधान कर पुत्रप्राप्ति ही है। तुतलाते हुए बालक की बोली सुनकर मनुष्यों को जिस सुख की प्राप्ति होती है, उसके सामने सभी कुछ तुच्छ है। किसी पुत्रपोषीने कहा है-'यत्तच्छपनिकेत्युक्तं' इत्यादि। - तुतलाते हुए बालक ने 'शपलिका' ऐसा कहा। यह सुनकर सांख्य और योगदर्शन की गंभीर शब्दावली भूलकर एकमात्र वही शब्द मेरे मन में रह गया है ॥१॥ पुत्र सुख ऐसा सुख है जो दरिद्र और धनवान् दोनों को ही समान रूप से प्राप्त होता है। इसे प्राप्त करने के लिए किसी अन्य पाह्य सामग्री * ટીકાથ–પુત્રને “જાત” પણ કહે છે ગુડ પુત્રપ્રાપ્તિને લગ્નના ફળરૂપ માને છે. લગ્નનું ફળ જે કામગ માનવામાં આવે છે. તે તે ગૌણફળ છે, પ્રધાન ફળ તે પુત્ર પ્રાપ્તિ જ છે બાળકની તતડી વાણું સાંભળતા મનુષ્યોને જે સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે, તે સુખ આગળ જગતનાં સઘળાં સુખે ફીકા લાગે छ. ४ह्यु ५५ छ है-'यत्तच्छपनिकेत्युक्तं' याति-- 1, - माण तातडीमालीमा 'शपनि।' २५४नु स्या२३ यु. साल. નીખે રદર્શન અને સાંપ્રદર્શનની ગંભીર શબ્દાવલીને હું ભૂલી ગયે. માત્ર “શનિકા” શબ્દ જે મારા મનમાં ગુંજી રહ્યો. ના . - : पुसुम रम सुम छ नी रिद्र म पनि मानने समान રૂપે પ્રાપ્તિ થાય છે. તેને પ્રાપ્ત કરવાને માટે કેઈ અન્ય બાહ્ય સામગ્રીની Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० सूत्रकृतानं सूत्रे इदं ते स्नेहसर्वस्वं सममाढयदरिद्रयोः । अचन्दनमनौशीरं हृदयस्यानुलेपनम् ॥१॥ इति । धाराप्रधानफले समुत्पन्ने पुत्रे सति यादृशी लोकानां स्थितिर्भवति तां स्थिति दर्शयति- गेण्दसु चाणं गृहाण तम् कार्याकुलतया मदीयं चेतोव्यं विद्यते, नास्त्यासरः पुत्ररक्षणस्य तं पुत्रं गृहाण त्वम्, 'अहवा' अथवा-पुत्रं 'जहाहि ' जहाहित्यन मार्गोपरि, संपति नास्ति मम समयः पुत्ररक्षणस्य अतस्तं स्वीकुरु त्यज वा । एवं प्रकुपिता यदाऽऽदिशति तदा तदीयसंपादनमेच तां सन्तोपयति तदुक्तम्'यदेव रोचते मह्यं तदेव कुरुते प्रिया । इति वेत्ति न जानाति तस्मियं यत्करोत्यसौ ॥१॥ ' की अपेक्षा नहीं रहती । कहा है--' इदं ते स्नेहसर्वस्व' इत्यादि । यह स्नेहसर्वस्व धनवान् और निर्धन के लिए समान है । यह स्नेह विना ही चन्दन और बिना खस के हृदय को शीतल करने बाला सर्वोत्तम लेप है ॥१॥ J ऐसे प्रधान फल की अर्थात् पुत्र की उत्पत्ति होने पर लोगों की - जो स्थिति होती है, उसे दिखलाते हैं मैं काम काज में उलझी हूँ । मेरा चित्त व्याकुल है । पुत्र को संभालने का मुझे समय नहीं है । इसे तुम ले लो | अथवा इसे कहीं रास्ते में छोड़ दो, अभी मुझे समय नहीं है । इस प्रकार कुपित होकर जब स्त्री आदेश देती है, तब उसके आदेश का पालन करना ही पडता है । तभी उसको सन्तोष होता । कहा भी है--' पदेव रोचते मह्यं' इत्यादि । आवश्यकता रहेती नथी पाछे --' इदं ते स्नेहसर्वस्वं' त्याहिધનવાન અને નિધન બન્નેને માટે આ સ્નેહ (પુ સ્નેહ) સમાનરૂપે સુખદાયી છે. આ સ્નેહ તેા ચન્તન અને ખસની જેમ હૃદયને ઠંડક આપનાર સર્વોત્તમ લેપની ગરજ સારે છે ॥૧॥ જયારે લગ્ન જીવનના પ્રધાનફળ સ્વરૂપ પુત્રની પ્રાપ્તિ થાય છે, ત્યારે લેાકેાની કેવી દશા થાય છે તેનું હવે વર્ણન કરવામાં આવે છે—કચારેક સ્ત્રી પતિને કહે છે-‘હુ કામમાં ગુથાયેલી છું. મારું ચિત્ત બ્યાકુળ છે પુત્રની ક્ષ‘ભાળ લેવાની મને ફુરસદ નથી. તે તમે તેની સંભાળ લે. જો તમે તેની સંભાળ લેવા તૈયાર ન હેા, તે જાવ તેને અહીથી રસ્તા પર લઈ જઈ ને મૂકી દે' શ્રી જ્યારે કોપાયમાન થઇને' આ પ્રકારનેા આદેશ આપે છે, ત્યારે પતિએ તેના આદેશનુ' પાલન કરવું' જ પડે છે અને ત્યારે જ તે સ્ત્રીને संतोष थाय छे धुं पशु छे " यदेव रोचते मह्यं " त्याहिक Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मयन्धनि० ३११ ददाति शौचपानीयं, पादौ पक्षालयत्यपि। श्लेष्माणमपि गृह्णाति, स्त्रीणां वशगतो नरः ॥१॥' 'अह' अथ 'पुत्तपोसिणो एगे' पुत्रपोषिण एके, पुत्रपोषणशीलाः एके केचन मामोहोदये स्त्रीवशवर्तिनः साधवः । 'उहावा' उष्टा इव भारवहाः भवन्ति। व वशवर्तिनः स्त्रियाः आज्ञावहाः, भारवहा उष्ट्रा इव भवन्तीति ॥इति॥१६॥' मूलम् - ओ वि उट्रिया संता दारगं च संठेवंति धाई वा। सुहिरामणा वि ते संता वथधोवा हवंति हंसा वा॥१७॥ छाया-रात्रावप्युत्थिता: सन्तो दारकं संस्थापयन्ति धात्रीव । मुहीमनसोऽपि ते सन्तो वस्त्रधारका भवन्ति हसा इव ॥ ७॥ जो पुरुष पूरी तरह स्त्री के अधीन होकर मूढ बन जाता है वह सोचता है मेरी प्रिया वही सब करती है जो मुझे रुचिकर है। वह मूढ यह नहीं समझता कि उसे वही प्रिय है जो वह करती है ॥१॥ स्त्रीवशवी पुरुष शौच के लिए जल देता है, कभी कभी उसके - पैर भी धो देता है । उसके श्लेष्मा को भी ग्रहण करता है ॥२॥ कोई कोई दीक्षात्यागी (पच्छाकड) साधु महामोह के उदय से स्त्री के वशीभूत होकर पुत्र का पालन पोषण करते हैं और ऊंट की तरह भार होते हैं। तात्पर्य यह है कि स्त्री के वशीभूत पुरुष आज्ञा का पालन कर ऊंट की तरह भार को भी वहन करते हैं ॥१६॥ જે પુરુષ પૂરે પૂરે સ્ત્રીને અધીન થઈ જાય છે તે એમ માને છે કે મારી પત્ની એવું જ બધું કરે છે જે મને રુચિકર હોય છે, પરંતુ તે મૂઢ એટલું પણ સમજાતું નથી કે તે એવું જ બધું કરે છે કે જે તેને पातान (श्री यातान) गम हाय .' - સ્ત્રીને અધીન થયેલે પુરુષ શૌચને માટે તેને પાણી પણ આપે છે, કદી કદી તેની પગચંપી પણ કરે છે અને શ્લેષ્માને (કફ, ગડફ) ઘરની બહાર ફેંકવાનું કામ કરે છે. કેઈ કઈ સંયમભ્રષ્ટ સાધુ મહામહના ઉદયને કારણે સ્ત્રીને વશવતી થઈને પુત્રનું પાલનપોષણ કરે છે અને ઊંટની જેમ ભારનું વહન કરે છે. તાત્પર્ય એ છે કે સ્ત્રીને અધીન થયેલે પુરુષ સ્ત્રીની આજ્ઞાનું પણ વહન કરે છે અને ભારનું પણ વહન કરે છે. ૧૬ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .। . सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ:-(राओ वि) रात्रावपि (उहिया संता) उत्थताः सन्तः (धाई वा) धात्री इव धात्रीवत् (दारगं), दारकं-पुत्र रुदन्तं (संउति) संस्थापयन्ति, ते स्त्रीवशीभूताः (सुहिरामणा विते संपा) सुहीमन सोऽपि सन्तः लज्जालबीपि ते छज्जों विहाय (हंसा वा) हंसा रनका इत्र (वत्थधोबा) वस्नधारकाः-स्त्रीपुत्रयोः (हवंति) भवन्तीति ॥१७॥ . . . . . . टीका-'राओ वि' रात्रावपि 'उहिया' उत्थिताः सन्तः 'धाई वा धात्रीवत् , रुदन्तम् 'दारगं' दारकं-पुत्रं 'संठवंति' संस्थापयन्ति मधुरालाः क्रीडयन्ति । 'मुहीरामणा वि ते संता' ते सुहीमनमोऽपि सन्तः लज्जासंपन्ना वा अपि शब्दार्थ-- राओदि-शामावधि' रात में भी 'उहिया सना-उत्थिना: सन्तः उठकर 'धाई वा-धात्री इच' धाई के जैसे 'दारगं-दारक' पालक को संठवंति-संस्थापयन्ति' गोद में लेते हैं 'सुहिरामणा दिते संता सुहीमनसोऽपि ते सन्तः' वे अत्यन्त, मनमें लज्जाशील होते हुए भी हंसा वा-हंसा इच' धोबी के समान वत्थधोवा-वस्त्रधारकाः' स्त्री और अपने संतान का वस्त्र धोने वाला 'हवंति-भवन्ति हो जाते हैं ॥१७॥ ' अन्वयार्थ--कोई कोई रात्रि में भी उठकर धाय के समान पुत्र को रखते हैं । वे लजाल होते हुए भी धोषियों के समान स्त्री और पुत्र के वस्त्रों को धोते हैं ॥१७॥' , , , , , , ... .: टीकार्थ--जो स्त्रीवशंगत होते हैं वे रात्रि में भी उठकर रोते हुए पुत्र को धाय के समान रखते हैं अर्थात् मीठी मीठी बातें कहकर उसे रमाते हैं । वे लज्जाशील होते हुए भी लज्जाहीन होकर स्त्री के अधीन . शार्थ - 'रामो वि-रात्रावति' ३ प 'उढिया संता-उत्थिताः सन्तः ही 'धाई वा-धात्री इत्र' पानी में 'दारंग-दारकम्' माने 'संठवंतिमापयन्ति मे.जाभा में छे. 'सुहिरामणा वि ते संता-सुहीमनसोऽपि ते संन्तः' मत्यात शरभाई ने पाय 'हंसा वा-हंसा इ' धेभीनी भा 'वत्थंधोदावस्त्रधावताः' श्री मने बाताना सतानना पर धेवावाणी हवंति-भवन्ति थाय छे. ॥ १७॥ : : . . . ... ... . .. संता--भीम अधीन, मने पुरुषाने रात्र ५६५. धात्री (ધાવમાતા) ની જેમ પુત્રની સંભાળ લેવી પડે છે. તેઓ લજજાશીલ દેવા છતાં પણ બેબીની જેમ સ્ત્રી અને પુત્રના કપડાં ધોવે છે. ૧છા ' ! - ટીકાઈ—જે પુરુષ સ્ત્રીને પૂરેપૂરા કાબુમાં આવી ગયા હોય છે, તેમણે રાત્રે રડતાં બાળકની સંભાળ રાખવી પડે છે–તેમને તેડીને, હીંચળીને અથવા . Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि० ३१३ पुरुषाः स्त्रीवशवर्तित्वात् 'स्त्रीणामाज्ञां संपादयितुं लज्जां विहाय निन्दितकार्य कुर्वन्ति । तत्र दृष्टान्तं दर्शयति-'वस्थधोवा' इति 'वत्थधोवा' वस्त्रधावका 'हंसा वा" हंसा इव-रज का इव, वस्त्राणि धानि प्रक्षालयन्ति ये ते धावकाः, तद्वत् 'हवंति' भवन्ति । यथा-रजकाः हीनादपि हीनस्य पुरुषस्य अशुचिमलपटलपट लितं वस्त्रमादाय, तन्मालिन्य पक्षारपाऽयन्ति तथा स्त्रीवशवर्तिनोऽपि स्वीणामधमाधममपि कार्य कुर्वन्तीति ॥१७॥ एतादृशासितकर्मकराः भवंति किं तबाह-‘एवं बहुहि' इत्यादि । म्लम्-एवं बहहिं कयपुर भोगत्थाए जेऽभियावन्ना। । दासे मिइ व पेले वा पसुसूते व से ण वा केई ॥१८॥ छापा–एवं बहुभिः कृतपूर्व भोगार्थाय येऽभ्यापन्नाः। दालोमृग इव प्रेष्य इत्र पशुभूत इत्र स न वा कश्चित् ॥१८॥ होने से, उसकी आज्ञा को सम्पादित करने के लिए निन्दित कार्य भी करते हैं । इसके लिए दृष्टान्त दिखलाते हैं-जैले धोयी वस्त्र धोना है उसी प्रकार वे भी स्त्री और पुत्र के वस्त्र धोते हैं । अर्थात् जैसे धोयी हीनों में भी हीन पुरुष के गंदगी से भरे वस्त्र को लेकर उसकी गंदगी साफ करके वापिस उसे सौंपते हैं, उसी प्रकार स्वैग पुरुष भी स्त्रियों के अधम से अधम कार्य भी करते हैं ॥१७॥ इस प्रकार के कार्य करने से क्या हुआ ? यह बात सूत्रकार રમાડીને રડતાં બંધ કરે છે. સ્ત્રી તો શય્યામાં શાંતિથી નિદ્રાસુખ ભોગવે છે અને પુરુષને નર્સની માફક બાળકની સંભાળ લેવી પડે છે. સ્ત્રીને ખુશ કરવા માટે તેને કેટલીક વાર લાજ મર્યાદાને ત્યાગ કરીને લેકમાં નિંદા થાય એવા કાર્યો પણ કરવા પડે છે. પતિ પત્નીનાં અથવા બાળકનાં કપડા ધોતાં સંકેચ અનુભવે છે, પરંતુ સ્ત્રીમાં આસક્ત થયેલો પુરુષ એવું કામ કરતાં પણ સંકોચ અનુભવતું નથી. તે ધોબીની માફક સ્ત્રી અને પુત્રનાં મેલાં કપડાં પણ ધોઈ નાખે છે. એટલે કે જેમ બી ગમે તેવા અધમ પુરુષનાં ગંદા કપડાં ધોઈ આપે છે, એ જ પ્રમાણે સ્ત્રીને અધીન થયેલે પુરુષ તેને ખુશ કરવાને માટે તેને તથા તેના પુત્રનાં ગંદા કપડાં પણ ધોઈ આપતાં લજજા અનુભવતા નથી. સ્ત્રીને વશ થયેલે પુરુષ સ્ત્રીએ પેલું અધમમાં અધમ કાર્ય પણ કરતા शरभात नथी. ॥१७॥ . . . . मा २i आर्या ४२नारने व शय, ते सूत्रा२ ५४८' रे स० ४० Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ६ अन्वयार्थ:- (एवं) एवम् (बहुहि) बहुमिः (फयपुव्वं) कृतपूर्वम्-पूर्व कृतम् , (ज) ये पुरुषाः (भोगस्थाए) भोगार्थाय (अभियावन्ना) अभ्यापन्ना:-सावकार्ये परायणाः (रो) सः (दासे मिइ ब) दासो मृग इव (पेसे या) प्रेग्न इव (पशुभूते व) पशुसूत इत्र-पशुममा : (ण वा केइ) न वा कश्चिद् सधिमः स इत्यर्थः॥१८॥ टीका-- एचरित्यादि । एवं' एवए-पुत्रोपगलालनपालनादिकार्य 'बहुहि' बहुभिरनेकैः पुरुपैः संसारासक्तान्तःकरणः 'करपु३' कृ पूर्वर-पूस्मिन् काले दिखलाते है-'एवं बहुहि' शब्दार्थ--एवं-एवम्' इसी प्रकार 'सहूहि-बहुभिः' बहुत लोगों ने 'कपपुव्वं-कृतपूर्वस्' पहले किया है 'जे-ई' जो पुरुष 'भोगस्थाए-भोगा. य' भोग के लिये 'अभियावन्ना-अभ्यापन्नाः' सावध कार्यों में आसक्त थे जो रागांध होते हैं। 'से-स' वे 'दाले मिह व-दास दासो सृग इव' दास मृग और 'पेसे दो-प्रेष्य इव' प्रेष्य के जैसा 'पसुभूतेष-पशुभृत इव' और पशु के तुल्य है अथवा 'ण वा केह-दमा कश्चित्' वे कुछ भी नहीं हैं अर्शत् सर्वाधम हैं ॥१८॥ 5. अन्वयार्थ---ऐसा पंछुतों ने पहले किया है। जो पुरुष भोगों के लिए सर्विद्य कर्मों में तत्पर हैं, वे दास और मृग के समान हैं, नौकर के समान हैं। पशु के समान हैं। उनसे अधिक अधम अन्य कोई नहीं है ॥१८॥ टीकार्थ-जिनका चित्त संसार में आसक्त है ऐसे अनेक पुरुषों ने पूर्वोक्त पुत्र को लालन पालन आदि कार्य पहले भी किये हैं। कई वर्तमान काल छ-"एवं बहुहि त्याह---- शहाथ-एवं-एवम् मे प्रमाणे 'महुहि-बहुभिः' घg सीमे 'कयपुत्र-कृतपूर्वम्' ५3स यु छे. 'जे-ये' २ पुष 'भोगत्थाए-भोगार्थाय' सानो भाटे 'अभियावन्ना-अभ्यापन्नाः' सावध मां सासरत डाय छ, तेसारी सेम ४यु छ २ २i डाय छ, .'से-सः' ती 'दासे मिइवदासमृगाविव' हास भृग भने 'पेसे वा-प्रेष्य इव' प्रेष्यनी म 'पसभतेव-पशभूत इव' ५शुनी समान छे. अथवा 'ण वा केई-नवा कश्चित् तसा व પણ નથી અર્થાત્ સર્વથી અધમ જ છે. ૧૮ - સ્વાર્થ_એવા અધમમાં અધમ કૃત્ય સ્ત્રીને વશવર્તી બનેલા અનેક પરુષોએ પહેલાં કર્યો છે. જે લેકો ભેગોની અભિલાષાથી પ્રેરાઈને સાવ માં પ્રવૃત્ત હોય છે, જે રાગાધ હોય છે, તેઓ દાસ અને મૃગના સમાન છેતેમને નોકરી અને પશુસમાન કહી શકાય છે. તેમના કરતાં અધિક એમ બીજે કઈ હોઈ શકે જ નહીં. ૧૮ - - - - ટીકાઈ–જેમનું ચિત્ત સંસારમાં આસક્ત હોય છે એવા પુરુષોએ પુત્રનું લાલનપાલન આદિ પૂર્વોક્ત કાર્યો ક્ય છે, વર્તમાનમાં કરે છે અને ભવિષ્યમાં Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्र. अ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कमबन्धनि० ३९५ १ एतादृशं कर्म कृतम् क्रियते करिष्यते चाऽधुना पश्वाद्वा कथम्भूतास्ते ? तत्राह - 'भोगत्थाए' भोगाय - भोगकृते - कामभोगार्थिनामैहिकामुष्मिकापायम पर्यालो 4 'जे भयावन्न' येऽभ्यापन्नाः, अभि- आभिमुख्येन - भोगानुकूल्येन आपन्ना, व्यवस्थिताः सावग्रकर्मानुष्ठाने प्रतिपन्ना गृद्धिमावमुपगतास्ते पूर्व कृन्ति इति तथा सम्प्रति कालेऽपि ये रागान्धाः पुरुषास्ते 'दासे मिइ व पैसे वा' दासो मृग इव प्रेष्य इव वा सावध कर्मानुष्ठानेऽपि स्त्री वशीकृताः पुरुषाः गमनागमनरूपनियोज्यकर्मणि नियोजिता दासरद्भवंति । तथा पाशबद्धा मृगा इव परवेशा भवन्ति - स्त्रीवशा भवन्ति । भोजनादिक्रियाकलापमपि कर्त्तुं न लभन्ते । कदाचिश्व क्रयक्रीतदासवत् प्रेष्याः सन्तः वर्चःशोधनादिक्रियायमपि नियोजिता भवति । स्त्री वशीभूतः पुरुषः 'पसुभूतेव' पशुभूत इव, विवेकाऽभावेन द्विवाहितकर्मणि पशु माय इव भवति । अथवा 'से न वा केई' स न वा कश्चित् - स्त्री परवशः पुरुषो दासमृग - पशु-प्रेष्येभ्योऽपि जघन्यत्वात् न कश्चित् । सर्वामत्वात् तस्य सदृशाः में कर रहे हैं और करेंगे भी। जो कामभोग के अभिलाषी हैं जो इस लोक संबंधी और परलोक संबंधी दुःखों का विचार न करके कामभोगी के अनुकूल ही प्रवृत्ति करते हैं, वे सावध कर्मों का अनुष्ठान करते हैं। उन्हों ने ऐसा किया है, संप्रति कालमें भी जो रागान्ध हैं वे दास एवं मृग के समान होते हैं वे स्त्री रा- गान्ध पुरुष गमन आगमन आदि कार्यों में दास के समान नियुक्त किये जाते हैं। वे पाशबद्ध मृगों के समान पराधीन हो जाते हैं । शान्ति के साथ भोजन आदि क्रिया भी नहीं कर पाते। कभी कभी तो खरीदे हुए दास के समान वे मल शुद्धि के काम में भी नियोजित किये जाते हैं। उनका हिताहित का विवेक नष्ट हो जाता है, अतएव पशु के साथ उनकी तुलना की जा सकती है । अथवा स्त्री के अधीन પણુ કરશે, કે જે એ કામભાગે માં આસક્ત છે, હમણાં પણ જેએ આલેક અને પરલેાકનાં દુઃખાને વિચાર કર્યા વિના કામલેગામા લીન રહું છે તેએ સાવદ્ય કાં’જ સેવન કર્યા કરે છે. એટલુ જ નહી પશુ તેમે દસ અને શ્રૃઝના જેવાં ડાય છે. સ્ત્રીમા આસક્ત થયેલા તે પુરુષા સ્ત્રીની ગમે તે પ્રકારની આજ્ઞાનુ પાલન કરતા હોય છે, તેથી તેમને દાસસમાન કહ્યા છે. તેમની દશા જાળમાં સાયેલા મૃગ જેવી હોય છે તેમે એટલા બધા પરાધીન ખની ગયા ડાય છે કે તેમને શાન્તિથી ખૉવાનું કે શયન કરવાનું પણ મળતુ નથી કેાઈ ફાઈ વાર તેા ખરીદેલા દાસની જેમ કપડાં ધાવા આદિ મળશુદ્ધિનું કામ પણ તેમની પાસે કરાવવામાં આ વે છે. તેમની વિવેકબુદ્ધિ નષ્ટ થઈ ગઈ હાય છે, તેથી તેમને પશુસમાન કહેવામાં અ ન્યા છે, અથવા સ્ત્રીને અધીન થયેલા પુરુષા F Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताइसूत्रे केऽपि न संति यैः सह तेषामौपम्यं भवेत् । यद्वा-वे न केचित् , उभयपरिभ्रष्टस्वात् । सावधकर्माऽनुष्ठानात् न साधवः, ताम्बूलादिपरिभोगरहितत्वात् न गृह- स्थाः। अथवा-नेमे ऐहिककर्माऽनुष्ठायिनः न वा-पारलौकिककर्मणां संपादयितार। इतस्ततो द्विधातोऽपि भ्रष्टा एव ते इति भावः ॥१८॥ ' सम्मति उपसंहारद्वारेण स्त्रीसंवन्धर परिहाराय आह सूत्रकार: 'ए' मित्यादि। : मूलम्-एवं खु तासु विन्नप्पं संथवं संवासं च वजेजा। __. तजातिया इमें कामा वजकरा य एवमक्खाए॥१९॥ पुरुष दाल, मृग और पशु से भी गया वीता होने के कारण अपदार्थ बन जाता है। - सबसे अधम होने के कारण किसी को भी उसके समान नहीं कहा जा सकता। अतएव उसकी उपमा ही नहीं है। या वास्तव में वे कुछ भी नहीं हैं, क्योंकि दोनों तरफ से भ्रष्ट हैं। साय व्यापार करने से साधु नहीं हैं और ताम्बूल आदि का उपभोग न करने के कारण गृहस्थ भी नहीं है, 'अथवा न वे इस लोकसंबंधी कर्म करने वाले हैं और न परलौकिक अनुष्ठान ही करने वाले हैं। इस प्रकार वे कुछ भी नहीं है अर्थात् उनकी इतो नष्टः ततो भ्रष्ट जैसी गति • होती है ॥१८॥ .. " દાસ, મૃગ અને પશુ કરતાં પણ અધમ દશાને અનુભવ કરતા હોય છે * તેઓ એવાં સત્વહીન બની ગયા હોય છે કે તેમનું પિતાનું સ્વતંત્ર અસ્તિત્વ જાણે ગુમાવી બેઠા હોય છે. તેઓ સઘળી વસ્તુઓ કરતાં અધમ હેવાને કારણે કોઈ પણ વસ્તુને તેમના સમાન કહી શકાય નહીં. તેથી તેમને કઈ પણ વસ્તુની ઉપમા આપી શકાય નહીં. ખરી રીતે તે તેઓ અપદાર્થ રૂપે જ-વતંત્ર અસ્તિત્વ રહિત જ–લાગે છે, તેઓ સાવધ કર્મોમાં પ્રવૃત્ત રહેવાને કારણે સાધુ પણ નથી અને તાંબૂલ આદિને ઉપગ ન કરવાથી તેઓ ગ્રહથ પણ નથી. આ રીતે “નહીં ઘરના કે નહીં ઘટના જેવી તેમની દશા છે. અથવા તેઓ આ લોક સંબંધી કર્મ કરનારા પણ નથી અને પરલેક સંબંધી અનુષ્ઠાન કરનારા પશુ નથી. આ પ્રકારે તેઓ સંસારી પણ નથી અને સાધુ પણ નથી. અર્થાત્ એવા પુરૂષે અભ્રષ્ટ તતભ્રષ્ટ-ગૃહસ્થ અને साधुपयानी अभा.. म छे. ॥१८॥ . . . . Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. म. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि० ३१७ - छाया -- एवं खलु तासु विज्ञप्तं संस्तवं संवासं च वर्जयेत् ॥ तज्जातिका इमे कामाः अवधकरा चैवमाख्याताः ॥ १९ ॥ 7 अन्वयार्थ : - (वासु) तासु स्त्रीषु ( एवं खु-विन्नप्पं ) एवं खलु उक्तप्रकारेण विज्ञ कथितम् (संथ संत्रासं च वज्जेज्जा) संस्तवं संवासं च वर्जयेत्, संस्थबं स्त्रीणां परिचयं स्त्रीभिः सवास वा परिहरेत् एवं कथितमिति, किमर्थं परि'चयं-सहवासं त्यजेतत्राह - ( तज्जातिया इमे कामा) तज्जातिका इमे कामाः - इमे ? कामाः शब्दादयः तज्जातीयाः स्त्रीभ्यः समुत्पन्नाः ( वज्जकरा य एवमक्खाए) अत्रयकराः नरकनिगोदादिकारण भूतपापोश्पादका एव उक्तरूपेण आख्याताः कथिताः तीर्थकरैरिति ॥१९॥ ! ! अब सूत्रकार उपसंहार द्वारा स्त्री सम्बन्ध का परिहार करने के - लिए कहते हैं-' एवं ' इत्यादि । शब्दार्थ - - ' तासु तासु' स्त्रियों के विषय में 'एवं खुविन एवं : खलु विज्ञत' इसी प्रकार का कथन किया है 'संथवं संवासं च वज्जेज्जासंस्तवं संवासं च वर्जयेत् । इस कारण साधु स्त्रियों के साथ परिचय 'और सहवास वर्जित करे 'तज्जानिया इमे कामा-तजातिका: इमे कामाः ' स्त्री के संसर्ग से उत्पन्न होने वाला शब्दादि काम भोग 'वज्जकराय एवमक्खाए-अवधकरा एवमाख्याताः पाप को उत्पन्न करता है ऐसा तीर्थंकरो ने कहा है ॥ १९ ॥ 1 अन्वयार्थ — इस प्रकार स्त्रियों के विषय में पूर्वकथित परिचय का त्याग करना चाहिए। उनके साथ निवास भी नहीं करना चाहिये । क्योंकि ये काम स्त्री जातीय हैं अर्थात् स्त्रियों से ही उत्पन्न होते हैं, હવે સૂત્રકાર આ ઉદ્દેશકના ઉપસ'હાર કરતા સ્ત્રીસ પક'ના પરિત્યાગ रवाना उपदेश आये छे- 'एवं' इत्याह- शब्दार्थ——'तासु-तासु' स्त्रियोना समधमां- 'एवं खु विन्नप्पं एवं खलु विज्ञातं ' प्रमाणे अथन उरेस छे. 'संथवं संत्रासं च वज्जेज्जा - संस्तव संवासं 1 'च वर्जयत्' मा 'धारणुथी साधु मे स्त्रियोनी सानो परिय अने सहवासना त्याग _१२वा. ४२ है तज्जातिया इमे कामात जातिका' ईमे कामाः खींना संसर्गथी उत्पन्न थवावाजा शब्दाहि अमलोग 'वज्जरां य एवमक्खाए - अवधकरा एवमा ख्याताः ' थापने उत्पन्न उरे से प्रभा तीर्थ मे उधु छे, १९ સૂત્રા~~આ પ્રકારે સ્રીસ''ના પૂર્વોક્ત પરિણામેાને વિચાર કરીને સાધુએ સ્ત્રીઓના પરિચય રાખવા જોઈ એ નહીં, તેમની સાથે નિવાસ પણ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . सूत्रकृतागसूत्र टीका-(तासु) तासु-स्त्री एवं' एवमुक्तपकारेण 'विन्नप्पं विज्ञप्तं कथितम् । हे प्रिय ! केशिकया मया सह कामक्रीडां न कुरूपे ततो लोचं करिष्यामीत्यादिकम् । तथा 'संथवं संवास य बज्जेज्जा' सस्तवं संवासं च वर्जयेन-संस्तवं परिचयम् , संवासं --त्रिभिः सह वसतिम् , स्वात्महितार्थी वर्जयेत् । आत्महितार्थिका पापभीरुणा स्त्रीणां परिचयः, तामिः सहकत्र निवासश्च सर्वथैव त्याज्यः, यतः 'तज्जातिया' तज्जातिका:खतः स्त्रीसंपर्कात् जायमानाः स्त्रीमिः जातिः उत्पत्तिः येषां ते तज्जातिकाः । काम्यन्ते इति कामाः-शब्दादिकामभोगाः 'वज्जकरा' अवध करा-अवयं-पापं तत् कुर्वन्ति इति अत्रयकराः नरकनिगोददुर्गतिनिपातहेतुभूतपापोत्पादका इति । नरक निगोद आदि के जनक पाप को उत्पन्न करते हैं। ऐसा तीर्थ रोने कहा है ॥१९॥ टीकार्थ--पूर्वोक्त प्रकार से कहे हुए स्त्रीपरिचय का तथा संबास का त्याग करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि-'हे प्रिय ! मुझ सकेशी के साथ यदि रमण न करोगे तो मैं लोच कर लूगी' यहां से प्रारंभ करके जो कथन किया गया है, इसे समझ कर आत्महितैषी साधु को स्त्री के साथ किसी प्रकार का परिचय या सहवास नहीं करना चाहिये, इसका कारण यह है कि कामभोग तज्जातीय हैं अर्थात् स्त्री के सम्पर्क से उत्पन्न होते हैं और वे नरक निगोद आदि दुर्गतियों में गिराने वाले કર જોઈએ નહીં, કારણ કે આ કામગોનું મૂળ સ્ત્રીઓ જ છે. આ કામગો નરક, નિગોદ આદિ દુર્ગતિઓમાં લઈ જનારાં પાપકર્મોના જનક છે, એવું તીર્થકરેએ કહ્યું છે ૧૯ *. આગલાં સૂત્રોમાં સ્ત્રીપરિચય અને સ્ત્રી સંવાસના પરિણામોનું નિરૂપણ તે કરવામાં આવ્યું છે. આ લેક અને પરલેકમાં જીવતું અનેક રીતે અકલ્યાણ કરનારા તે સ્ત્રીસંપર્ક સાધુએ પરિત્યાગ કરવો જોઈએ. આ ઉદ્દેશકમાં ने--तमे भारी साथै २भय नही ४२, ते दु. ५५] भा२। 40 सुंदर शानु લંચન-કરી નાખીશ” આ સૂત્રથી શરૂ કરીને ૧૮માં સૂત્રપર્યન્તના સૂત્રોમાં સહવાસના જે દુખદ પરિણામે બતાવવામાં આવ્યાં છે, તે પરિણામોનો વિચાર કરીને આત્મહિત સાધવાની અભિલાષાવાળા સાધુએ સ્ત્રીઓના પરિચનથી અથવા સ્ત્રી સહવાસને સંપૂર્ણપણે ત્યાગ કર જોઈએ. શા માટે સ્ત્રી પરિ મને ત્યાગ કરવાનું કહ્યું છે? સ્ત્રીના સંપર્કથી માણસ કામગોમાં , આસક્ત થાય છે. કામમાં આસક્ત થયેલો પુરુષ એવાં પાપકર્મોનું સેવન તે કરે છે કે તે પાપકર્મોને કારણે તેને નરક, નિગદ આદિ દુતિમાં જ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मवन्धनि. ३१९ 'एवमक्खाए' एवं-एवं हेयतया स्त्रीसंस्तवादयः आख्याताः कथिताः तीर्थकरादिभिः, स्त्रीसमुद्भवकामाः पापजनका एव तीर्थकरादिभिरुपदिष्टाः । ततः पापो; स्पादकस्त्रीसंस्तवादिकं न कुर्यात् , किन्तु ततः सर्वथैवोपरतो भवेदिति भावः॥१९॥. सर्वसंहरन्नाह--'एवं भयं' इत्यादि। मूलम्-एवं भयं ण सेयाय इई से अप्पैगं निरुभित्ता। णो इथि णो पसुंभिक्खू णो सयपाणिणाणिलिजेज्जा॥२०॥ छाया-एवं भयं न श्रेयसे इवि स आत्मानं निरुध्य। नो स्त्रीं नो वा पशुं भिक्षुनों स्वकपागिना निलीयेत ॥२०॥'. पापों के जनक होते हैं । इस प्रकार ये स्त्रीसंस्तव आदि तीर्थंकरों आदि ने हेयरूप में कहे हैं । आशय यह है कि पापजनक स्त्री परिचय न करे परन्तु उससे सर्वथा ही विरत रहे ॥१९॥ __ सघ का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं-'एवं भयं' इत्यादि। शब्दार्थ--'भिक्खू-भिक्षुः साधु 'एवं भयं ण से याय-एवं भयं न श्रेयसे' स्त्री के साथ संसर्ग करने से पूर्वोक्त भय होता है तथा वह कल्याणप्रद नहीं होता है 'इइ से अप्पगं निलंभित्ता-इति सः आत्मानं निरुध्य' इस कारण साधु अपने को स्त्रीसंसर्ग से रोककर 'णो इस्थिनो स्त्रियम्' न स्त्री को 'णो पसुं-नो पशुम्' न स्त्रीजातीय पशु को 'सय पाणिणा णिलिज्जेज्जा-स्वकपाणिना निलीयेत' अपने हाथ से स्पर्श न करे अर्थात स्त्री एवं पशु को हाथ से न छूए ॥२०॥. : . . પડે છે. આ રીતે “નારી જ નરકની ખાણ છે. તેથી જ સ્ત્રીસહવાસને હય ગણીને તેને ત્યાગ કરવાને તીર્થંકરાદિએ ઉપદેશ આપ્યો છે તેથી આત્મહિત ચાહતા સાધુએ પાપજનક સ્ત્રી પરિચયને સર્વથા ત્યાગ કરે જોઈએ ૧૯ આ સમસ્ત કથનને ઉપસંહાર કરતા સૂત્રકાર કહે છે કે – "एवं भयं त्याहि शहाथ-'भिक्खू-भिक्षुः' साधु ‘एवं भयं ण सेयाय-एवं भयं न श्रेयसे' સ્ત્રિઓની સાથે સંસર્ગ રાખવાથી પૂર્વોક્ત ભય થાય છે, તથા તે કલ્યાણપ્રદ हात नथी. 'इइ से अप्पग निरुभित्ता-इति सः आत्मानं निरुध्य' तथा साधु पाताने श्री साथी शीर णो इत्थि-नो त्रियम्' न श्रीन ‘णो पसु-नो पशुम्' नीति न पशुने 'सयं पाणिणा णिलिज्जेज्जा-स्वकपाणिना निलीयेत' પિતાના હાથથી સ્પર્શ કરે અર્થાત્ સ્ત્રી અને પશુને હાથથી સપર્શ ન કરે ૨ના Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' संकृताङ्गमत्र ___ अन्वयार्थ:-(भिक्खू) भिक्षुः (एवं अयं न से याय) एवं भयं न श्रेसे-स्त्री. संपर्केण पूर्वोक्तभयं भवति अतः स्त्री संपको न श्रेयसे, (इइ से अयं निमित्ता) इति सः साधुरात्मानं निरुध्ध (जो उत्थि) नो नियम् (नो पहुँ) नो पशुम् (वयंपाणिना णिलिज्जेज्जा) रखकीयपाणिना न निलीयेख न स्पर्श कुर्यादिति ॥२०॥ टीका-एवं मयं' एवं भयम्-एवं पूर्वोक्तम् स्त्रीपरिचयादिकं भयम् , भयस्य नरकादिपातस्य कारणम् । इति चिरा सह संबन्धो न 'सेयाय' श्रेयसे कल्याणाय भवति, असदनुष्ठानकारणत्वात् । 'इइ से' इति ,सः एवं स भिक्षुः मनसा पर्यालोच्य 'अप्पग' आत्मानम् 'निरुपित्ता' निरुध्य स्त्रीसंपनिरुद्धय, सन्मार्गे सम्यक स्थापयित्वा, ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिजया ‘णो इत्थि' न स्त्रियम् ‘णो पसुं न वा पशुं स्त्रीजातीयं चतुष्पदादिकम् 'सयपाणिणा' स्व___ अन्वयार्थ--स्त्रो के लम्पर्क से उत्पन्न होनेवाला पूर्वोक्त भय आत्मा के लिए श्रेयस्कर नहीं है । अतएव साधु अपनी आत्मा का संगोपन करके अपने हाथसे न स्त्री का स्पर्श करे और न स्त्रीजातीय पशुका स्पर्श करे ॥२०॥ ___टीकार्थ-पूर्वोक्त स्त्रीपरिचय आदि रूप भय नरकनिपात आदिका कारण होता है। अतएव स्त्री के साथ सम्बन्ध रखना श्रेय के लिए नहीं होता। वह असत् अनुष्ठान का कारण है। इस प्रकार साधु विचार करके और अपनी आत्मा का निरोध करके-आत्मसंयमन करके और आत्मा को सन्मार्ग में स्थापिल करके, ज्ञपरिज्ञा से जानकर और प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग कर, न स्त्रीका स्पर्श करे और न पशुका। * સૂત્રાર્થ –ીના સંપર્કથી જનિત પૂર્વોક્ત પરિણામે આત્માને માટે હિતાવહ નથી, પરંતુ ભયાવહ જ છે. તેથી સાધુએ પિતાના આત્માનું સંગોપન નિષેધ કરવું જોઈએ. તેણે પિતાના હાથથી સ્ત્રીને સ્પર્શ પણ કરે નહીં અને સ્ત્રી જાતિ પશુને સ્પર્શ પણ કરે નહીં. મારો ટીકાઈ–-પૂર્વોક્ત સ્ત્રી પરિચય આદિ નરક દુર્ગતિએનું કારણ બને છે, તેથી તેને આત્માને માટે ભયપ્રદ કહ્યા છે. સ્ત્રીઓની સાથેનો સંબંધ પાપકર્મોમાં કારણભૂત બને છે અને આત્મહિતને ઘાતક થઈ પડે છે આ પ્રકારને વિચાર કરીને આત્માને નિધિ કરીને આત્માને સંયમમાં રાખવો જોઈએ, શ્રીસંપર્ક આત્માનું અહિત કરનારો છે, એવું પરિજ્ઞાથી જાને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી તેને ત્યાગ કરીને આત્માને સ-માર્ગે વાળ જોઈએ. આમહિત ચાહતા સાધુએ સ્ત્રીને સ્પશને પરિત્યાગ કરવું જોઈએ . '' Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ar समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. म. ४ उ.२ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि० ३२१ कपाणिना स्वकीयहस्तेन ‘णो णि लेज्जेज्ना' न निलीयेत, भिक्षुः स्वहस्तेन । स्त्रियं पशुं वा न कदाचिदपि स्पृशेदिति धातू नामनेकार्थत्वात् इति ॥२०॥ ___ इदानीं साधुभिर्यकर्त्तव्यं तदुपदिशति-'सुविसद्ध' इत्यादि। मलम्-सुविसुद्धलेसे सेहावी परकिरियं च वजए नाणी। मणला बचसा कायेणं सव्वासलहे अणगारे ॥२१॥ छाया--मुविशुद्रलेश्यो मेधावी परविशं च वर्जयेद् ज्ञानी।। ____मनसा वचसा कायेन सर्वस्पर्शसहोऽनगारः ॥२१॥ अन्ध्यार्थ:--(नाणी) ज्ञानी (मुविसुद्धलेसे) मुदिशुद्धलेश्यः (मेहावी) मेधावी (परकिरियं वज्जए) परक्रियां-परिचर्यादिकं वर्जयेत् (मणसा वचसा कायेणं) तात्पर्य यह है कि मनुष्य स्त्री के साथ अथवा पशु स्त्रीके साथ मुनि सर्वथा ही संधान का त्याग कर दे। अपने हाथ से स्त्री को अथवा पशुको कदापि स्पर्श न करे। ॥२०॥ । शब्दार्थ-'नाणी-ज्ञानी' ज्ञानीजन 'सुविसुद्धलेसे-सुविशुद्धलेश्या' सुविशुद्धलेश्या वाला और 'मेहावी-मेधावी' मर्यादा में स्थित होकर 'परकिरिथं बज्जए-परक्रियां वर्जयेत्' अन्ध की क्रिया स्त्री, पुत्र पशु के परिचोदि का त्याग करे 'मणसा वचसा कायेणं-मनसा वचसा 'कायेन' मन वचन और काय से ये सवफाससहे अणगारे-सर्वस्पर्शसहोऽनगारः' शीत, उष्ण आदि सप स्पर्शो को सहन करता है वही अनगार-साधु है ॥२१॥ ___अन्वयार्थ--ज्ञानवान् अत्यन्त विशुद्ध लेश्यावाला और मेधावी साधु परक्रिया अर्थात दूसरे के लिये की जानेवाली परिचर्या आदिका તાત્પર્ય એ છે કે મુનિએ મનુષ્ય સ્ત્રી અથવા પશુ સ્ત્રીના સહવાસ આદિને સર્વથાત્યાગ કર જોઈએ. તેણે પિતાના હાથ વડે સ્ત્રી અથવા પશુને કદી સ્પર્શ કરવો જોઈએ નહીં. મારા शहाथ:--'नाणी-ज्ञानी' ज्ञानी पु३५ 'सुविसुद्धलेसे-सुविशुद्धलेश्यः' सुवि. शुद्ध वेश्यावा। सन 'मेहावी-मेधावी' माहामा २हीन 'परकिरियं वज्जएपरक्रियां वर्जयेत्' अन्यनी या-सी, पुत्रनी सेवाहन त्याn ४२ 'मणमा वयसा कायेणं-मनसा वचसा कायेन' भन, क्यन भने यथा 'सव्वफाससहे अणगारे-सर्व स्पर्शसहोऽनगारः' शीत BY को३ मा ४ २५नि सहन रे છે, એજ અનગાર સાધુ છે પાર સૂત્રાર્થ-જ્ઞાનવાન, અત્યંત વિશુદ્ધ વેશ્યાવાળા અને મેધાવી સાધુએ પરક્રિયાને (અન્યની કરાતી પરિચય આદિને) મનવચનકાયથી ત્યાગ કરે स०४१ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કર स्वास् मनसा वचसा कायेन ( यन्त्रफासस हे अणगारे ) सर्वस्पर्शतोऽनगारो भवतीति स्त्रीपरिषद विजेता सर्व परिपहजेतानगारी भवतीति ॥२१॥ टीका- 'सुविसृद्धले से' सुविशुद्रलेग्यः सुविशेषेण विशुद्रास्त्र्यादि संपर्कराहित्येन निलेका म्याकरणवृत्तिर्यम्य स मुनिः, 'सेहावी' मेधावी मर्यादा साधुः 'पतिनिये' परक्षियां परस्मैपदिभ्यः क्रिया इति परक्रिया, ता पक्रिया 'नामी' दावी-सारादिकरणात् विदितवेद्यः 'वज्जम्' वर्जयेत्-रक्रेि । कदाचिदपि पक्रिन | - 1 मनवचन काय से त्याग करे | सर्व स्पर्शो' को सहन करनेवाला ही अनगार कहलाता है । जो अनगार परिषह स्त्री का विजेता होता है, यह नमस्त परीषों का विजेता होता है ॥२१॥ टीकार्थ-साधुओं का जो कर्तव्य असा उपदेश करते हैंजिसकी लेइया अर्थात् अन्तःकरण की वृत्ति स्त्रीसम्पर्क आदि से रहित होने के कारण अत्यन्त विशुद्ध निर्मल है, जो मेवावी अर्थात् शास्त्रीय मर्यादा में स्थित है और जो ज्ञानी है अर्थात् जिसने शास्त्र एवं गुरु के सेवन आदि द्वारा जानने योग्य तत्त्व को जान लिया है, ऐसा साधु परक्रिया न करे । विषयोपभोग या आरम्भ आदि करके दूसरे के उपकार के लिये की जानेवाली अथवा दूसरे के द्वारा अपने लिए कराई जानेवाली मर्दन आदि किया परक्रिया कहलाती है साधु ऐसी परक्रिया कदापि न करे । જોઈ એ. ગમે તે પ્રકારના સ્પર્ધાને (પરીષહાને) સહન કરનારને જ અણુગાર કહેવાય છે. જે અણુગાર પરીષહુને જીતી શકે છે, તે સમસ્ત પરીષહેને પણ જીતી શકે છે. ારાં ટીકા--સૂત્રકાર સાધુએનુ' જે કર્તવ્ય છે, તે પ્રકટ કરે—સ્રીસ'પક આદિથી રહિત હાવાને કારણે જેની લેફ્સા (અન્તઃકરણની વૃત્તિ ) અત્યન્ત विशुद्ध (निर्माण) थे, ? भेधावी - शास्त्रीय मर्यादामां स्थित छे भने ज्ञांनी છે, એટલે કે જેણે શસ્ત્રાના અધ્યયન દ્વારા અને ગુરુસેવા આદિ દ્વારા જાણવા ચેાગ્ય તત્ત્વને જાણી લીધું છે, એવા સાધુએ પરિક્રયા કરવી જોઇએ નહી'. વિષયેાપભાગ અથવા સ્મારભ આદિ કરીને ખીજાના પર ઉપકાર કરવાને માટે જે ક્રિયા કરવામાં આવે છે તેને પરક્રિયા કહે છે. અથવા ખીજા લેાકેા દ્વારા જે ચરણચંપી, મન આદિ પરિચર્યાં કરાવવામાં આવે છે. તેને પરક્રિયા उड़े छे. साधुये शेवी प२डिया उद्दाथि १२वी लेई से नहीं, Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. भ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि ३२३ ___ अयं भावः-विषयोपभोगादिना नाऽन्येपाम् उपकार कुन्नि वाऽन्येन स्वस्योपकारं कारयेत् । एतादशी परक्रियां मनसा वचसा कायेन परिहरेन् । औदारिकादिकामभोगार्थ मनसा न गच्छति, गमयति नान्यस् । न वा गच्छन्तं कलप्यनु जानीते, सर्वथैव ब्रह्मचर्यधारणं कुर्यात् । 'सबफास सहे अण मारे' यथा स्त्री स्पर्शपरीषदः सोढव्यस्तथाऽन्यान् । सर्वानपि शीतोष्णदंशमशकतृणादिस्पर्शान् अधिसहेता एवं च सर्वस्पर्शसहनकर्ता अनगारः साधुर्भवतीति ॥२१॥ केनत्यमुच्यते यत् सर्वस्पर्श सहोऽनगारः साधु भवतीति तत्रोच्यते सूत्रकारेणवेचमाहु' इत्यादि। मूलम्-इच्छेवमाह से वीरे- धूयरंए धूयमोहे से भिक्खू। तम्हा अज्झत्थविसुद्धे सुविमुक्के आमोक्खाए परिवएजासि ... तिबेमि।।२२।। अभिप्राय यह है-विषयोपभोग आदिके द्वारा न तो दूसरे को उपर कार करे और न दूसरे से अपना उपकार करवाए। इस परक्रियों को मन वचन और काय से त्याग करे । औदारिक आदि शरीर संबंधी कामभोगों के लिए मन से गलन न करे, दूसरे को गमन में करवाए और न गमन करनेवाले किसी का अनुमोदन करें। पूर्णरूप से ब्रह्मचर्य को धारण करे। ___ सच्चानि वही होता है जो अनुकूल, प्रतिकूल, दैविक, मानवीय और तैरश्चिक आदि सभी उपलगों को सहन करता हैं एवं शीतोष्ण दंशमशक और तृणपर्श आदि को सहन करता है ॥२१॥ , આ કથનનો ભાવાર્થ એ છે કે સાધુએ વિષપભેગ અાદિ દ્વારા અન્યને ઉપકાર કરવો જોઈએ નહીં અને બીજા લેકે દ્વારા એ રીતે સાધુની જે પરિચર્યા કરાવી હોય, તે એવી પરિચય થવા દેવી જોઈ એ નહી. આ પ્રકરની પરકિયા (પરિચય)ને તેણે મન, વચન અને કાયાથી ત્યાગ કરે જોઈ એ. હારિક આદિ શરીર કામગોમાં મનને પ્રવૃત્ત થવા દેવું નહીં, બીજાના મનને તેમાં પ્રવૃત્ત કરાવવું નહીં અને જામભેગમાં પ્રવૃત્ત થનારની અનમેદના પણ કરવી નહીં. તેણે પૂર્ણ રૂપે બ્રહ્મચર્ય પાળવું જોઈએ. સાચે અણગાર તો તેને જ કહી શકાય કે જે દેવકૃત, મનુષ્યકૃત અને તિચકૃત, અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ, સમસ્ત ઉપસર્ગોને સહન કરે છે. તેમજ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे छाया--इत्येवमाहुः स वीरः धूतरजाः धूतमोहः स भिक्षुः। तस्मादध्यात्मविशुद्धः सुविषमुक्तः आमोक्षाय परिव्रजेदिति बचीमि।२२। अन्वयार्थ :--(धूयरए) धूतरजाः (धूयमोहे) धूतमोहः-परित्यक्तस्त्रीमोहः (से भिक्खू) स भिक्षुः (से वीरे) स वीरो वर्द्ध पानस्वामी (इच्चेत्रमाहु) इत्येवमाहकथितवान् 'तम्हा' तस्मात्कारणात् (अज्झत्थविमुद्ध) अध्यात्मविशुद्धः (सुविमुक्के) ___ लभी स्पर्शो को सहन करने वाला मुनि होता है, यह कौन कहता है ? इस पर सूत्रकार कहते हैं--'इच्चेवमाहु' इत्यादि। शब्दार्थ-'धूयर ए-धूतराजाः' जिसने स्त्रीसंपर्क जनित रज अर्थात् कर्मों को दूर किया है और 'धूयमोहे-धूनमोहः' स्त्रीसंसर्गजनित अथवा रागद्वेषजनित्तमोह को जिसने दूर किया है 'से भिक्खू-सभिक्षुः' वह साधु है 'से वीरे-सः वीरः' उस वीर प्रभु ने 'इच्चेवमाहु-इत्येवमाहुः' इसी प्रकार कहा है 'तम्हा-तस्मात्' इसलिए 'अज्झत्थविसुद्धेअध्यात्मविशुद्धः निर्मलचित्तवाला एवं 'सुविमुक्के-सुविमुक्तः' स्वीसंसर्ग वर्जित वह साधु 'आमोक्खाए-आमोक्षाय' मोक्षप्राप्तिपर्यन्त 'परिव्यएज्जासि-परिव्रजेत्' संयम के अनुष्ठान में प्रवृत्त रहे 'त्ति वेमि-इति ब्रवीमि' ऐसा मैं कहता हूँ ॥२२॥ ___अन्वयार्थ--जिसने रज को दूर कर दिया है, मोह को त्याग दिया है, ऐसे श्री वर्द्धमान स्वामी ने इस प्रकार कहा है । अतएव विशुद्ध શીતોષ્ણુ, દંશમશક અને તૃગુસંપર્શ આદિ સ્પર્શીને પણ તે સમભાવપૂર્વક સહન કરે છે. ૨૧ ' - સઘળા સ્પર્શોને સહન કરનારને જ મુનિ કહેવાય છે, આ પ્રકારનું ४यन आणे ४यु छे, ते सूत्रधार ७३ ५४८ ४२ छ-'इच्चेबमाइ' त्याहि शहाथ-'धूयरए-घूतरजा.' ये भी स५ नित २२६ अर्थात् भने १२ या छ तभ०४ 'धूयमोहे-धूतमोहः' स्त्री सनित अथवा रागद्वेष नित भाडा २) त्या या छ ‘से भिक्खु-स भिक्षु.' ते साधु छे. 'से वीरे-सः वीरः' वीर प्रमुझे 'इच्वेवमाहु-इत्येवमाहुः' मा प्रमाणे युं छे. 'तम्हातस्मात् ते २थी 'अज्झत्थविसुद्धे-अध्यात्मविशुद्धः' नि चित्तवाणा भने सविमुक्के -सुविमुक्तः' सी ससमयी २त सात साधु 'आमोक्खाए-आमोमाय मोक्षप्रान्ति पर्यन्त 'परित्रएज्जासि-परिव्रजेत्' सयभना अनुष्ठानमा प्रवृ. त्तिशीत २४ त्तिवेमि-इति ब्रवीमि से प्रभारी हुई छुः ॥२२॥ . रो भने ६२ ४ नाभी छे, भाये मोडना त्या या એવા વીતરાગ શ્રી વર્ધમાન સ્વામીએ આ પ્રમાણે કહ્યું છે. તેથી વિશુદ્ધ छ, Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. २ स्खलितचारित्रस्य कर्मबन्धनि० ३२५ सुविमुक्तः- रागद्वेषात्मक स्त्री संपर्केण रहितः (आमोक्खाए) आमोक्षाय - मोक्षपर्यन्तम्. ( परिवज्जासि) परित्रजेन - संयमानुष्ठानं कुर्यात्, (तिवेमि) इत्यहं ब्रवीमि - कथयामीति ||२२|| टीका- 'धूयरए' धूतरजाः - धूतमपनीतं रजः स्त्रीपश्वादिसंपर्कजनितं मलं येन स धूनरजाः । 'धूयमोहे' धूतमोह:- धूनः अपनीतः मोडो रागद्वेषरूपो येन स धूतमोहः । 'से वीरे' स वीरः प्रभुः 'इच्चेवमाहु' इत्येवमाहु 'तम्हा' अज्झत्थ विरुद्धे' यस्मात्. स्त्रीसंपर्करहितो रागद्वेपविमुक्तव । तस्मात् अध्यात्मविशुद्धः स भिक्षुः । विशुद्ध रागद्वेषाभ्यां रहितम् अध्यात्मं अन्तःकरणं यस्य सः अध्यात्मविशुद्ध भिक्षुः । 'सुविमुक्के' सुविमुक्तः स्त्र्यादिसंपर्करहितः | 'आमोक्खाए' आमोक्षाय- अशेषकर्मक्षयपर्यन्तम् 'परिव्वर' परिव्रजेत्, संयमाऽनुष्ठानेन परिव्रजेत्, संयमायोद्योगवान् M " आत्मा वाला और रागद्वेषजनक स्त्रीसम्पर्क से रहित भिक्षु मोक्षप्राप्ति पर्यन्त संगम का अनुष्ठान करे । त्ति वेमि- ऐसा मैं कहता हूँ ॥ २२ ॥ टीकार्थ - जिसने स्त्री पशु आदि के सम्पर्क से उत्पन्न होने वाले मल (पाप) को हटा दिया है, तथा रागद्वेष रूप मोह को नष्ट कर दिया है, उस वीर प्रभु ने इस प्रकार कहा है । इस कारण राग और द्वेष से रहित अन्तःकरण वाला तथा स्त्रीसम्पर्क से रहित भिक्षु साधु तब तक संयमानुष्ठान करता रहे जब तक उसे मोक्ष प्राप्त न हो जाय । આત્માવાળા, રાગદ્વેષ જનક સ્રીસ પકથી રહિત સાધુએ મેક્ષપ્રાપ્તિ થાય ત્યાં सुधी संयमनी व्याराधना श्वी लेये. 'त्ति वेमि' मेवु हु हु छु |२२| टीअर्थ--?] खी, पशु महिना साथी उत्पन्न थनाश २०४ (चाय) ને દૂર કરી નાખ્યુ છે, જેણે રાગદ્વેષ નિત મેાહના નાશ કરી નાખ્યા છે, એવા મહાવીર પ્રભુએ આ પ્રમાણે પ્રરૂપણા કરી છે. તેથી રાગ અને દ્વેષથી જેનુ' અન્તઃકરણ રહિત છે અને જેણે સ્રીસ પકના સર્વથા પરિત્યાગ કર્યું છે, એવા સાધુએ સંયમની આરાધના કર્યાં કરવી જોઇએ તેણે કયાં સુધી સ‘યમની આરાધના કર્યાં કરવી ? આ પ્રશ્નને જવાબ એ છે કે-મેાક્ષપ્રાપ્ત થાય ત્યાં સુધી તેણે સંયમની આરાધના કરવી જોઈ એ, Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतानस भवेद । इति' अध्ययनसमाप्तिबोधकः । इत्यहं ब्रवीमि, तुभ्यं वन्मि, नाई कथयामि किन्तु भगवान महावीरः प्रतिपादयति, तंदनु तदीयवचनमेवाहं ब्रवीमि ॥२२॥ इति श्री--विश्वविख्यात नगद्वल्लभादिपदभूपितवालब्रह्मचारि--'जैनाचार्य' . पूज्यश्री-घाप्तीलालचतिविरचितायां श्री मूत्रकृताङ्गस्य "समयार्थबोधिन्या.. पायां" व्याख्यायां चतुर्थाध्ययनस्य द्वितीयोद्देशकः समाप्तः ॥४-२॥ . .. ॥ चतुर्थाध्ययनम् समाप्तं ॥ ... यहां 'इति' शब्द अध्ययन की समाप्ति का सूचक है। ऐसा मैं कहता है। इसका आशय यह है कि भगवान महावीर ने जो प्रतिपा. दने किया है, उसी का मैं अनुकथन कर रहा हूँ ॥२२॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत 'सूत्रंकृताङ्गाबूत्र' की समयार्थयोधिनी व्याख्या के चौथा अध्ययन का ।। दूसरा उद्देशक समाप्त ४-२ ॥ ॥चतुर्थ अध्ययन समाता • महा 'इति' ५६ देशना समातिनुसूयछ. 'मेहु हु छु' આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે ભગવાન મહાવીરે જે પ્રતિપાદન કર્યું છે, તેનું હું અનુકથન કરી રહ્યો છું, એવું સુધર્માસ્વામી જંબૂ સ્વામીને કહે છે. રિરા જૈનાચાર્ય જૈન ધર્મદિવાકર પૂજયશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત “સૂત્રકૃતાંગસૂત્રની - સમયાઈ ધિની વ્યાખ્યાના ચેથા અધ્યયનને બીજો ઉદ્દેશક સમાપ્ત ૪-રા || ચતુર્થ અધ્યયન સમાપ્ત - . . . Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदना निरूपणम् ३२७ ॥ अथ नरकविभक्तिनामकं पञ्चमाऽध्ययनम् ।। 7 'चतुर्थ स्त्री परिज्ञाध्ययनं परिसमाप्य पञ्चमाऽध्ययनमारभते । अस्य च पूर्वैरध्ययनेः सहाऽयं सम्बन्धः प्रथमेऽध्ययने स्वसिद्धान्त पर सिद्धान्त्यो निरूपणं कृतम् । द्वितीयाऽध्ययने स्वसिद्धान्तस्य बोधः संपादनीय इत्युक्तम् । प्रतिबुद्धेन जीवेनाऽनुकूलपतिकूलोपसर्गाः सोढव्याः इति तृतीयाऽध्ययने प्रतिपादितम् । तथा - संबुद्धेन पुरुषेण स्त्रीपरिषदः सम्यक् सोढव्यः इति चतुर्थोऽध्ययने प्रतिपादितम् । अधुना तु-उपसर्गमीरोः स्त्रीवशस्याऽवश्यमेव नरकरातो भवति, तत्र नरके नरकविभक्तिनामक पंचम अध्ययन 4 स्त्रीपरिज्ञा नामक चतुर्थ अध्ययन को समाप्त करके पांचवां अध्ययन आरम्भ किया जाता है । इसका पहले अध्ययनों के साथ यह सम्बन्ध है । प्रथम अध्ययन में स्वसिद्धान्त और पर सिद्धान्त का निरूपण किया गया । दूसरे में स्वसिद्धान्त का बोध प्राप्त करने की प्रेरणा की गई । बोध प्राप्त किये हुए जीव को अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग सहन करना चाहिए, यह तथ्य तीसरे अध्ययन में प्रतिपादन किया गया । बोधप्राप्त पुरुष को स्त्रीपरीषह सहन करना चाहिए, यह चौथे अध्ययन में निरूपण किया गया । किन्तु जो उपसर्ग से अय खाता है और स्त्री के वश में हो जाता है, उसका अवश्य ही नरक में નરકવિભક્તિ નામનું પાંચમું અધ્યયન सूत्र ‘પરિજ્ઞા’નામના ચેાથા અધ્યયનનું વિવેચન પૂરૂ' કરીને હવે કાર પાંચમાં અધ્યયનનું વિવેચન શરૂ કરે છે. આગલા અધ્યયના સાથે સાથે આ અધ્યયનના સબંધ આ પ્રકારના છે—પહેલા અધ્યયનમાં સ્વસિદ્ધાન્ત અને પરસિદ્ધાન્તનું નિરૂપણુ કરવામાં આવ્યુ બીજા અધ્યયનમાં સ્થસિદ્ધાન્તના આધ પ્રાપ્ત કરવાની પ્રેરણા આપવામાં આવી. ત્રીજા અધ્યયનમાં એ વાતનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું કે જ્ઞાની પુરુષાએ (સાધુઓએ) જેમણે આધ પ્રાપ્ત કર્યાં છે એવા જીવાએ અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપ સગેને સહન કરવા જોઈ એ ચેાથા અધ્યયનમાં એવુ‘ નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે કે સ્રીપરીષહને જીતવા ઘશે મુશ્કેલ છે. જેમણે ધમ તત્ત્વને જાણ્યુ છે એવાં જીવાએ સ્ત્રીપરીષહુ સહન કરવા જોઇએ, વળી ચાથા અધ્યયનમા એવુ પ્રતિપાદન પણ કરવામાં આવ્યુ છે કે ઉપાથી ડરી જનારા અને સ્ત્રીને ८. P Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ... सूत्रकृताङ्गसूत्रे यादृश्यो वेदनाः समुत्पद्यन्ते, ताः पञ्चमाध्यएने प्रतिपाद्यन्ते । तदनेन सबन्धेनाऽऽ. यातस्य पञ्चमाऽपयनस्य इदमादिम सूत्रम्-‘पुच्छिस्सई' इत्यादि। मूलम् -पुच्छिस्संह कंवलियं महसि कहभिताशा गरगा पुरस्था। अंजाणओ मेणि बहिजाणं, केहंनु बालानरयं उरिति। छाया- पृथ्वानहं के वलिकं महर्षि कथमभितापा नरकाः पुरस्तात् । अजानतो मे सुने। बूहि जानन् कथं नु वाला नरकमुपशान्ति ॥ १॥ लिपात होता है अतएव नरक में होनेवाली वेदनाओं को इस पांचवें अध्ययन में कहते हैं । इस सम्बन्ध से प्राप्त पांचवें अध्ययन का यह प्रथम सूत्र है-'पुच्छिरसह इत्यादि । शब्दार्थ-- 'अहं-अहम्' मैंने (सुवर्मा स्वामीने) 'पुरत्या-पुरस्तात्' पहले 'केवलियं-केवलिनम्' केवलज्ञान वाले 'महेसि-महर्षिन' महर्षि ऐसे वर्द्धमान महावीर स्वामी को 'पुच्छिस्त-पृष्टवान्' पूछा था कि 'णरगा-नरका' रत्नप्रभादि नरक 'महभितावा-कथमभितापाः' कैसे पीडा करने वाले हैं 'मुणी-हे मुने' हे भगवन् 'जाणं-जानन्' आप इसे जानते हैं अतः 'अजाणओ मे हि-भजानतो मे बहि' नहीं जानने वाले मुझको आप कहें 'वाला-घाला:' अज्ञानी 'कहि न-कथं न किस प्रकार 'नरयं-नरकम्' नरक को 'उविति-उपयान्ति' प्राप्त करते हैं ॥१॥ વશ થનારા પુરુષે અવશ્ય નરકમાં જ જાય છે. નરકમાં જનાર જીવને કેવી કેવી વેદના સહન કરવી પડે છે તેનું નિરૂપણ આ પાંચમા અધ્યયનમાં કરવામાં આવ્યું છે, આગલા અધ્યયને સાથે આ પ્રકારને સંબંધ ધરાવતા पांयमा अध्ययनर्नु पडे सूत्र मी प्रमाणे छे–'पुच्छिस्सई' त्याह शहाथ-'अह-अहम्' में (सुर्मा स्वाभीमे) 'पुरत्था-पुरस्तात्' पडसi केवलियं-केवलिकम्' ठेवणशान 'महेसि-महर्षिम्' महर्षि वा पक्ष भान महावीर स्वामीन 'पुच्छिस्स-पृष्टवान्' ५ यु तु ४-'णरगा-नरकाः' २त. प्रमा विगेरे न२३। 'कहंभितावा-कथमभितापाः' की पीडा ४२वावाणा हाय ॐ १ 'मुणी-हे मुने!' हे भगवन् 'जाणं-जानन्' मा५ । पातने onो। छ। तथा 'अजाणओ मे चूहि-अजानतो मे बहि' न MAqाणा मेवा भने भा५ 331 'बाला-बालाः' मज्ञानी 'कहिं नु-कथंनु' वी श२ 'नरयं-नरकम्' न२४ने 'इविति-उपयान्ति' प्राप्त ४२ छ ? ॥१॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका प्र.व. अ. ५ उ.१ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३२९ ____ अन्वयार्थ:-(अहं) अहं सुधर्मस्वामी (पुरत्था) पुरस्तात्-पूर्वकाले (केवलिय) केवलिक-केवलज्ञानयन्तं (महेसिं) महर्षिम्-वर्द्धमानस्वामिनं (पुच्छिहस) पृष्टवान् (गरगा) नरका रत्नममायाः (कहभितावा) कथमभितापा-कीमितापयुक्ताः (मुणी) हे सुने! हे भगान् ! (जाणं) जानन-त्वमे द्विपयकज्ञानवानसि, अतः (अजाणभो मे बूहि) अजानतो मे चूहि-स्थय (बाला) वाला:-अज्ञाः (कहं नु) कथं नु-केन प्रकारेण कीशानुष्ठायिनः (नरयं) नरकं (उविति) उपयान्तिगच्छन्ति इति ॥१॥ ____टीका-पुरा हि किल जंबूस्वाम्यादिशिष्यवगैरकस्वरूपस्य तत्र स्थित जीवानां वेदनादिविषयमवलम्ब्य सुधर्मस्वामी पृष्टः-हे भगवन् ! किं भूताः नरकाः, कियन्तश्च ते संख्यया, तवत्या यातना च कथंविधा. जीवानाम् । कैवी कर्मभिः ते नरकाः समुपार्जिताः भवन्ति जीवै रित्यादिस्वरूपविभागकार्यकारणपूर्वकपश्ने जाते सति-श्री सुधर्मस्वामी जंबूस्वामिप्रभृति शिष्यवर्गान् कथयति___ अन्वयार्थ-मैंने (लुधर्मा स्वामीने) पूर्वकाल में केवलज्ञानी महाऋषि वर्द्धमान स्वामी से पूछा-नरक किस प्रकार के संताप (वेदना) वाले. हैं ? हे मुने ! आप इस तथ्य को भली भांति जानते हैं अतएव मुझ अनजान को कहिए कि किस प्रकार कृत्य करनेवाले अज्ञ जीव नरक प्राप्त करते हैं ? ॥१॥ टीकार्थ--पूर्वकाल में जम्बू स्वामी आदि शिष्योने नरक का स्वरूप, उसमें स्थित जीवों की वेदना आदि विषयों को आधार बना कर सुधर्मा स्वामी से पूछा-भगवन् ! नरक किस प्रकार के हैं ? संख्या में कितने हैं? जीवों को यहाँ किस प्रकार की यातना सहन करनी पड़ती है ? किन कर्मों को करने से नरकों की प्राप्ति होती है ? इस प्रकार स्वरूप, भेद, | સૂત્રાર્થ–મેં (સુધર્માસ્વામીએ) પૂર્વકાળમાં કેવળજ્ઞાની, મહર્ષિ વર્ધમાન સ્વામીને પૂછયું-નરકે કેવી વેદનાઓવાળા છે ? હે મુને ! આપ એ વાતને સારી રીતે જાણે છે. હું એ વાત જાણતા નથી, તે હે પ્રભો! નરકેની વેદના વિષયક જ્ઞાન ન ધરાવનાર આપ મને એ વાત સમજાવવાની કૃપા કરો. હે પ્રભે! કેવાં કૃત્ય કરનારા અજ્ઞ (અજ્ઞાન) જે નરકગતિ પ્રાપ્ત કરે છે ? ૧ * ટીકાર્થ–પૂર્વકાળમાં જબૂસ્વામી આદિ શિષ્યએ નરકનું સ્વરૂપ, નરકમાં ગયેલા જીવોની રિથતિ આદિ જાણવાની જિજ્ઞાસા થવાથી સુધર્મા સ્વામીને આ પ્રમાણે પૂછયું- હે ભગવન! નરકે કેવા હોય છે? કેટલા હોય છે ? ત્યાં છોને કેવી કેવી યાતનાઓ વેઠવી પડે છે? કેવા કર્મોનું સેવન કરવાથી જીવને નરક ગતિની પ્રાપ્તિ થાય છે? આ પ્રકારે સ્વરૂપ, ભેદ, કાર્ય અને કારણ - le Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० सूत्रकृता , 1 हे जस्त्रः ! 'अहं' अह सुधर्मस्वामी 'पुरत्या' पुरस्तात् - पूर्वस्मिन् काले यदा भगair महावीरो विद्यमान आसीत्तदा 'केवलियं' के लिक - समुत्पन्न केवलज्ञानवन्तम् 'महेसि' महर्षिम् अत्युग्रतपश्चरणमनुकूल प्रतिकृत्रोपसर्गसहिष्णुम् । श्रीमन्महावीरवर्द्धमानसादिनम् 'पुच्छित' पृष्टवान् किं पृष्टवान् तदहं कथयामि 'कहूं' कथं-कीदृशाः 'नरगा' नका:- की शान तत्र नरके 'अभितापाः यातना भवन्ति । इति 'अजाणओ ये' अजानतो मे 'जाणे' जान्नू - केवलज्ञानालो केन 'सुणे' सुने ! हे भगवन् ! 'बूहि' ब्रूहि कथय, अहमजानन् तद्विषयं पृच्छामि, तथा 'कह' कथं केन प्रकारेण किमनुष्ठायिनो जीवाः 'वाला' वाला:- अज्ञानिनः 'नर' नरकम् 'उर्विति' उपयान्ति हे जम्बूः । एतत्सर्वमहं पृष्टवानिति ॥ १ ॥ कार्य और कारण विषयक प्रश्न उपस्थित होने पर श्री सुधर्मास्वामीने जम्बूस्वामी आदि अपने शिष्यवर्ग से कहा $7 जम्बू ! मैं पुरातन काल में, जब भगवान् महावीर विद्यमान . तब उन केवलज्ञानी और महाऋषि अर्थात् अतीव उग्र तपश्चरण करनेवाले तथा प्रतिकूल और अनुकूल उपसर्गों को सहन करनेवाले श्री वर्द्धमान स्वामी से प्रश्न किया था -नरक कैसे हैं? नरक में किस प्रकार के अभिताप है ? यह विषय जाननेवाले आप मुझ अनजान को, हे प्रभो ! कहिए | मैं इस विषय को नहीं जानता, इस कारण प्रश्न करता हूँ । यह भी जानना चाहता हूँ कि किस प्रकार के कार्य करनेवाले अज्ञानी जीव. नरक में जाते हैं ? हे जम्बू मैंने यह सब भगनान् से पूछा था ॥१॥ વિષયક પ્રશ્ન ઉપસ્થિત થવાથી સુધર્મા સ્વામીએ જ ખૂસ્વામી આદિ શિષ્યાને આ પ્રમાણે જવાખ આપ્યા હું જ ભૂ! પુરાતન કાળમાં જ્યારે ભગવાન મહાવીર વિદ્યમાન હતા, ત્યારે મેં તે કેવળજ્ઞાની અને મહાઋષિ એટલે કે ઘણી જ ઉગ્ર તપસ્યાએ કરનાર તથા અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપસĒને સહન કરનાર શ્રી મહાવીર પ્રભુને- આ પ્રમાણે પ્રશ્ન પૂછ્યા હતા હૈ પ્રભુા ! નરકનુ સ્વરૂપ કેવું છે ? તેમાં ઉત્પન્ન થનાર નારકાને કેવી કેવી પીડા સહન કરવી પડે છે ? કેવા કૃત્યા કરનારા અજ્ઞાની જીવે નરકમાં જાય છે? આ વિષયના આપ જાણુકાર છે. તે તે વાત સમજાવવાની કૃપા કરશે.? હે જમ્મૂ! તમે જે પ્રશ્ન મને પૂદે છે!, એજ પ્રશ્ન મેં મડાવીર પ્રભુને પૂછીશ હવે,' આ પ્રમાણે सुधर्मास्वामी ने डे छे, ॥१॥ .. Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थ शेधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् -३३१ ___पृष्टो भगवान्मा प्रत्येवाह-एवं मए' इत्यादि। -: ! मूलम्-एवं मए पट्टे माणुभावे इणमोऽब्बवी कासवे आलुपन्ने। पवेर्दैइस्सं दुहमँट्टदुग्गं आदीणियं ९झडियं पुरस्था॥२॥ छाया-एवं मया पृष्टो महानुभाव इदमब्रवीत्काश्यप आशुप्रज्ञः। प्रवेदयिष्यामि दुःखमर्थदुर्गमादीनिकं दुष्टकृतिकं पुरस्तात् ॥२॥ अन्वयार्थः-(एवं) एवमनेन प्रकारेण (मए) मया (पुढे) पृष्टः सन् (महानुभावे) महानुभावः-विस्तृतमाहात्म्यवान् (कासवे) काश्यपः-काश्यपगोत्रोत्पन्नोमहावीर प्रश्न करने पर भगवान ने मुझे इस प्रकार कहा-'एवं मए' इत्यादि । शब्दार्थ-एवं-एवम्' इस प्रकार 'मए-मया' मेरे द्वारा 'पुढे-पृष्टः' पूछे हुए 'महाणुभावे-महानुभाव' विस्तृत महात्म्य वाले 'कासवेकाश्यपः' काश्यपगोत्र में उत्पन्न हुए 'आसुपन्ने-आशुपज्ञा' सब वस्तु में सदा उपयोग रखने वाले भगवान् बर्द्धमान महावीर स्वामी ने 'इण मोऽव्यवी-इमब्रवीत्' इस प्रकार कहा है कि 'दुहमदुग्गं-दुःखमर्थ- दुर्गम्' नरक दुःखदायी है एवं असर्वज्ञ जनों से अज्ञेय है 'आदीणियं आदीनिकम्' वह अत्यन्त दीन जीवों का निवास स्थान है 'दुक्कडियदुष्कृतिक' उसमें पापीजीव निवास करते हैं 'पुरत्था-पुरस्तात् यह आगे 'पवेदहस्सं-प्रवेदयिष्यामि' हम कहें गये हैं ॥२॥. . अन्धयार्थ-इल प्रकार मेरे प्रश्न करने पर महानुभाष अर्थात् विशाल महिमा से मण्डित काश्यप गोत्र में उत्पन्न सदा सब में उपयोगवान् भात प्रश्नता प्रभु में 241 प्रमाण वाम मा-या स्त. 'एवं मए' त्यात शहाथ-एवं-एवम्' २१ शते 'मए-मया' भाराथी ‘पुढे-पृष्टः' पूछाये। 'महाणुभावे-महानुभावः' मोटा महात्म्यवाणा 'कासवे-काश्यपः' ४१२५५ गोत्रमा उत्पन्न येता 'आसुपन्ने-आशुपज्ञः' मधी ४ ५२di Hal E५या। २।मापासवान १५ भान महावीर वाभीमे 'इणमोऽध्नवी-इदमनवीन्' मापी शत घुछ ३-'दुहमदृदुग्ग-दुःखमर्थदुर्गम्' न२४ हु.यि छ तभ मसपरता दान anet Nय ते छे. 'आदीणियं-आदीनिकम्' त सत्यत हीन aid निवासस्थान छे, 'दुफडियं-दुष्कृतिझम्' तमा पापी व निवास ४२ छे. 'पुरत्था-पुरस्तात्' से पात हवे पछी मागण 'पवेदइस्त-प्रवेदयिष्यामि' हु४ीश ॥२॥ सूत्रार्थ-महानुभाव (विश भलिभास ५-न), अश्यपगोत्रीय, 1 સઘળા પદાર્થોમાં ઉગવાન, મહાવીર પ્રભુએ મારા પ્રશ્નના જવાબ રૂપે આ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફુર . . . .- भूत्रकृतागसूत्रे (आसुपन्ने) आशुपज्ञः-सर्वत्र सदोपयोगवान् (इणमोऽव्यवी) इदं वक्ष्यमाणमब्रवीत् (दुइमदुग्गं) दुःखमर्थदुर्गम्-दुःवस्वरूपं दुःखेन लंघयितुं योग्यम् असर्वज्ञैरज्ञेयं (आदीणियं) आदीनिकम् अत्यन्तदीनजीवनिवासस्थानं (दुकडिय) दुष्कृतिकदुष्कृतं विद्यते येषां तत्सन्धि (पुरत्था) पुरस्तात्-पूर्वजन्मनि नरकगतियोग्यं यत् कृतं कर्म तत् (पवेदइस्सं) मवेदयिष्यामि कथयिष्यामि इति ॥२॥ टीका-'एवं' एवम् अनन्तरोक्तम् , हे जम्बूः! विनयपूर्वकं मया पृष्टः 'महाणुभावे' महानुभावः महान् चतुस्त्रिंशदतिशयरूपः, पञ्चत्रिंशद्वाणीरूपः अनुभावो माहात्म्य यस्य स महानुभावः 'कासवे' काश्यपः-काश्यपगोत्रोत्पन्नो महावीरः + 'आसुपन्ने' आशुपज्ञः-आशु शीघ्रारा सर्वोपयोगात्मज्ञा विद्यते यस्यासौ आशुप्रज्ञः सर्वत्र सदोपयोगशन 'इणमो' इदं वक्ष्यमाणम् 'अव्यवी' अब्रवीत् , किमब्रवीत् तत्राह-'दुहमट्ठदुग्ग' दु खम्-दुःखस्वरूपम् तीवाऽसमाधियुक्त वात् तथा-अर्थदुर्गम्अर्थेन-वर्णनाशक्यरूपेण दुर्गम्-विषमम्-उज्ज्वलाये कादशविधवेदनाकुलत्वात् , तत्र-उज्ज्वला-तीबाजुभावात्मकर्षत्वात् १, बलां-बलवती-अनिवार्यत्वात् २, भगवान् ने इस प्रकार प्रतिपादन किया था-नरक दुःखस्वरूप है और -असर्वज्ञ (छद्मस्थ) जीव उसे पूरी तरह जान नहीं सकते। वह अत्यन्त दीन तथा पापी जीवों का निवासस्थान है। पूर्व में उपार्जित नरकगति के 'योग्य जो कर्म है, यह सब मैं कहूंगा ॥२॥ टीकार्थ-हे जम्बू! विनय पूर्वक मेरे पूछने पर सहानुभाव अर्थात् चौतीन अतिशयों और पैंतीस वाणी के गुणोंवाले भगवान् काश्यप गोत्र में उत्पन्न तथा सदा सर्वत्र उपयोगवाली प्रज्ञा से युक्त भगवान ने यह कहा था-नरक तीव्र असमाधि ले हैं तथा अर्थ दुर्ग हैं। अर्थ दुर्ग का अर्थ यह है कि वे नरक वर्णन नहीं करने योग्य उज्ज्वला आदि ग्यारह प्रकार પ્રકારનું પ્રતિપાદન કર્યું હતું-નરક દુઃખસ્વરૂપ છે. અર્વસ (છદ્મસ્થ) જીવ તેના સ્વરૂપનું પૂરેપૂરું જ્ઞાન ધરાવતું નથી તે અત્યન્ત દીન અને પાપી જીવનું નિવાસસ્થાન છે. તે જીએ નરકગતિને યોગ્ય જે કર્મોનું પૂ ઉપા• २ छ, a वे ४८ ४३ छु' ॥२॥ ટીકાર્થ–હે જ બૂ! વિનયપૂર્વક પૂછવામાં આવેલા તે પ્રશ્નને મહાનુભાવ (એટલે કે ચેત્રીશ અતિશથી અને વાણુંના પાંત્રીશ ગુણેથી યુક્ત,) 1 કાશ્યપ ગોત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલા, સમત પદાર્થોમાં સદ ઉપયોગયુક્ત પ્રજ્ઞાથી સંપન્ન મહાવીર પ્રભુએ આ પ્રમાણે ઉત્તર આપે હતો--તે નરકે તીવ્ર અસમાધિવાળા છે, તથા અર્થદુર્ગ છે “અર્થ દુર્ગ' પદને અર્થે આ प्रभारी सभावा-अवार्डनीय Serpeता "माल मण्यार अरनी वहनामा Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३३३ . विपुला-विशाला परिमाणरहितत्वात३, कर्कशा-कठोरा प्रत्यङ्गदुःखजनकत्वात्४, खरा-तीक्ष्णा-अन्तःकरणभेदकत्वात् ५, परुषा निष्ठुरा सुखलेशरहितत्वात् ६, • प्रगाढा-प्रतिक्षणमसमाधिजनकत्वात् ७, प्रचण्डा भयानका आत्मनः प्रतिप्रदेश व्यापित्वात् ८, घोरा विकटा श्रवणेऽपि दुःखननकत्वात् ९, भीपणा-भयोत्पादिका, प्रतिमाणिभयजनकत्वात् १०, दारुणा-हृदयमंक्षोभकारिणी, प्रतिकाररहित. स्वात् ११, एतादृशैकादशविधवेदना संकुलत्वेन दुःखरूपम् सर्वज्ञेनापि वाचा वर्णयितुमशक्यमतोऽयंदुर्गमिति । 'आदीणियं' आदीनकम् , तादृशं नरकस्थानं दीना. शरणत्राणजीवानां निवासस्थानम् । 'दुक्कडियं' दुष्कृतिकम् तत्र दुष्कृतिनां पापिना की वेदना से व्याप्त हैं वहां अत्यन्त तीव्र एवं प्रकर्ष प्राप्त वेदना है । वह वेदना अनिवार्य है उसके निवारण का कोई उपाय नहीं है। वह विशाल - है, क्योंकि उसका कोई परिणाम नहीं है । अंग अंग में दुःखप्रद होने के कारण कर्कश-कठोर है । अन्तःकरण को भेदन करनेवाली होने से खर-तीक्ष्ण है । उसमें स्तुखका लेशमात्र भी न होने से.परुष है । प्रति. क्षण असमाधि उत्पन्न करनेवाली होने से प्रगाढ है। वह प्रचण्ड है. क्योंकि आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में व्याप्त रहती है। सुनने मात्र से दुःखजनक होने के कारण घोर विकट है। प्रत्येक प्राणी को भयजनक होने से भयंकर है। प्रतीक्षाररहित होने से हृदय को क्षुब्ध करनेवाली -दारुण है । सर्वज्ञ भी वाणी द्वारा उसका वर्णन नहीं कर सकते। इस कारण नरक को दुर्ग कहा है। वह नरक दोन, शरणहीन एवं प्राण. ત્યાં અત્યન્ત તીવ્ર અને પ્રકષપણાથી ભોગવવી પડે છે. તે વેદના - અનિવાર્ય છે-તેના નિવારણનો કેઈ ઉપાય જ હેત નથી વળી તે દિના વિશાળ હોય છે એટલે કે તેનું કઈ પ્રમાણ જ કલ્પી શકાય તેમ નથી, - તે વેદના પ્રત્યેક અંગમાં દુ ખ ઉત્પન કરનારી હોવાથી કર્કશ-કઠોર છે. તે વેદના અન્તઃકરણને ભેદનારી હોવાને કારણે તેને “ખરતીક્ષણ (અત્યન્ત તીક્ષણ) 'કહી છે તેમાં સુખને સહેજ પણ સદ્દભવ ન હોવાને કારણે તે પરુષ છે. પ્રતિક્ષણ અસમાધિ ઉત્પન્ન કરનારી હોવાને કારણે તે પ્રગાઢ છે આત્માના પ્રત્યેક પ્રદેશમાં વ્યાપ્ત હોવાને કારણે તે પ્રચંડ છે. તે વેદના એવા પ્રકારની હોય છે, તેને શ્રવણ કરવાથી પણ દુઃખ થાય છે, તે કારણે તેને ઘોર-વિકટ કહી છે. પ્રત્યેક જીવમાં ભય ઉત્પન્ન કરનારી' હોવાને કારણે તેને ભયંકર 'કહી છે. પ્રતીકાર રહિત હોવાને કારણે હૃશ્યને ક્ષુબ્ધ કરનારી હોવાથી તેને દારુણ કહી શકાય છે. સર્વજ્ઞ પણ વાણુ દ્વારા તેનું વર્ણન કરી શકતા નથી, છે. તેના કારણે નરકને “દુગ કહેલ છે. તે નરક દીન, શરણહીન અને ત્રાણુવિહીન Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . :३३४ . . संतादसूत्रे निवासस्थानम् इत्ये तुन्सर्वम्-'पुरत्या' पुरस्ताद-पूर्वजन्मनि नरकगमनयोग्य यत्कृतं पापं तत् 'पवेदहस्स' प्रवेदयिष्यामि,-स्वकृतकर्मवशात् जीवास्तादृशनरकस्थानं गच्छंते। बादशकर्मणः नरकस्य तत्यवेदनायाः, तादृशजीवस्य सर्वस्याऽपि · स्वरूपादिकं प्रविभज्य अहं कथयामि । सावधानेन चित्तेन श्रोतव्यं सर्वमपि भवद्धिरिति ॥२॥ किं कथयापि तदाह-'जे केइ' इत्यादि। मूलम्-जे केइ बाला इंह जीवियट्टी, पावाई कम्माई करति रुदा । ते घोररूबे तमिसंधयारे, तिवांभितावे नरए पंडंति ॥३॥ छाया-ये केऽपि वाला इह जीवितार्थिनः पापानि कर्माणि कुर्वन्ति रौद्राः। ... ते घोररूपे तमिस्रान्धकारे तीव्राभितापे नरके पतन्ति ॥३॥ - वर्जित जीवों का निवासस्थान है । वहां पापी जीव निवास करते हैं। - जिन जीवों ने नरक गमन के योग्य कर्म उपार्जन किया है, वे अपने कर्म • के अनुसार नरक में जाते हैं । उस कर्म का, नरक का, वहाँ होनेवाली घेदनाका और वहां के जीवों का स्वरूप आदि मैं कहूँगा। तुम सावधान चित्त से सुनो ॥२॥ भगवान् ने जो कहा उसी अर्थ को ही कहते हैं-'जे केई' इत्यादि । ... शब्दार्थ--'इह-इह' इस लोक में 'रुद्दा-ौद्राः' प्राणियों को भय उत्पन्न करने वाले 'जे केइ बाला-2 केचन वाला: जो अज्ञानी जीव 'जीवियट्ठी-जीवितार्थिनः' अपने जीवन के लिये 'पावाई कम्नाई करेंति જન નિવાસસ્થાન છે. ત્યાં પાપી છ નિવાસ કરે છે. જે જીએ નરક| ગમનને ચગ્ય કર્મોનું ઉપાર્જન કર્યું હોય છે, તેઓ પિતપોતાનાં કર્મો અનુસાર નરકમાં જાય છે. તેમનાં પાપકર્મોનું, તે નરકેનું, નારકોને ત્યાં સહન કરવી પડતી વેદનાઓનું અને ત્યાંના જીના સ્વરૂપનું હવે હું વર્ણન કરશ. આપ સૌ ધ્યાનપૂર્વક તે સાંભળે છે ર છે - - કેવા કેવા પાપકૃત્યો કરનારા જીવો નરકમાં જાય છે, તે હવે પ્રકટ वामां मावे ठे-'जे केई' त्या: शहाय---'इह-इह' मा भो 'रुदा-रौद्राः' प्रालियाने मय १२ वाणा जे केइ वाला ये केचन वालाः' रे मनानी ७५ 'जीवियट्री-- जीवितार्थिनी' पोताना न भाटे 'पावाइ कमाई करे ति-पापानि आणि Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिकपणम् ३३५" '. अन्वयार्थः-(इह) इहलोके (रुद्दा) रौद्राः प्राणिनां घातकाः (जे केइ वाला)ये केवन वाला अज्ञानिनः (जीवियटी) जीवितार्थिन:-असंयमजीवितार्थिनः । (पावाई कम्माई करति) पापानि प्राणातिपात दीनि कर्माणि कुर्वन्ति (ते) ते बालाः (घोररूवे) घोररूपेऽत्यन्तभयानके (तमिसंधयारे) तमिस्रान्धकारे-बहुलतमोन्धकारे (तिव्वाभितावे) तीव्राभितापे-अत्यन्ततापयुक्ते (नरए) नरके-एता. दृशविशेषणयुक्ते नरके (पडंति) पतन्ति-गच्छन्तीति ॥३॥ टीका-'इह इहास्मिन् संसारे 'रुदा' रौद्रा:-प्राणिनां घातकाः 'जे केई'. ये केचन जीवाः, महारथमहापरिग्रहपञ्चेन्द्रियवधमांसभक्षणादिकसावधकर्माऽनुष्ठाने परारणास्ते 'वाला' वालाः-सदसद्विवेकविकलाः 'जीवियट्टी' जीवित पापानि कर्माणि कुर्वन्ति' हिंसादि पापकर्म करते हैं 'ते-ते' दे 'घोररूवे-घोररूपे अत्यन्त भयजनक तमिसंक्यारे-तमिस्रांधकारे ' महान् अन्धकार से युक्त 'तिब्वामितावे-तीनाभितापे' अत्यन्त तापयुक्त 'नरए-नरके' नरक में एडति-पतन्ति' पड़ते हैं ॥३॥ ... अन्वयार्थ--इस लोक में जो अज्ञानी प्राणियों के घातक हैं, असं.. यममय जीवन के अभिलाषी हैं और जो प्राणातिपात आदि पापकर्मकरते हैं, वे अज्ञानी जीव अत्यन्त घोर, सघन अन्धकार- से व्याप्त, अत्यन्त सन्ताप से युक्त नरक में पड़ते हैं ॥३॥ टीकार्थ--इस संसार में जो अज्ञानी जीव प्राणियों का घात करने खाले अर्थात् महारम्भ, महापरिग्रह, पञ्चेन्द्रिय का वध करने में एवं मांस भक्षण आदि घोर पापों में परायण होते हैं, सत् असत् के विवेक कुर्वन्ति' हिंसा विगरे ५५' ४२ छ. 'ते-ते' तो 'घोररूवे-घोररूपे भयत मय 'तमिसंधयारे-तमिस्रांधकारे' महान् मेवा भन्नाथी युद्धत 'तिव्वाभिवाने-तीवाभिवापे' मत्यत तापी व्याप्त वा 'नरए-नरके' १२. भां 'पडंति-पतन्ति' ५९ छे. ॥3॥ १. सूत्रथ-- २ अज्ञानी । प्राणायाना धात: मन छ,' અસંયમમય જીવનની અભિલાષાવાળા છે. પ્રાણાતિપાત આદિ પાપકર્મો કરે. નારા છે, તે અજ્ઞાની છે અત્યન્ત ઘેર, સઘન અંધકારથી વ્યાસ, અત્યંત સંતાપથી યુક્ત નષ્કમાં પડે છે. એવા : ટીકાર્થ-આ સંસારના જે અજ્ઞાની છે પ્રાણીઓને વધ કરનારા હેય છે, એટલે કે મહારશ્ન, મહાપરિગ્રહ, પંચેન્દ્રિયને વધ અને માંસાહાર આદિ ઘેર પાપકર્મોમાં આસક્ત હોય છે, જેઓ સત્ અને અસત્ના વિવે. Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __- सूअक तास तार्थिन:-अयंयमजीवितार्थिनः पापेनोदरपूरकाः-स्वकीयजीनाय 'पाबाई' पापानिमाणातिपातादीनि 'कम्माई' कर्माणि 'करंनि' कुर्वन्ति, ते इत्थंभूताः जीवाः तीव्रपापोदयवर्तिनः 'घोररूवे' घोररूपे-अत्यन्तभपजन के 'तभिसंधयारे', मिसान्धकारे-बहुलतमोन्धकारे 'तिव्याभितावे' तीव्राभितापे, तीन; अतिसु. दुःसहः खदिरागारमहाराशितापादनंतशुणो अभितापः संतापो यस्मिन् तथाभुते, 'नरए' नरके 'पडंति' पतन्ति, प्राणिनां श्रयदातारोऽज्ञा जीवाः स्वात्महितायः पशुवधादौ प्रवर्त्तमानाः पापकर्म समाचरन्ति, त एव पुरुषाः रस्कृतदुष्कृतकला न्महान्धकारे महादुः खमये नरके पतन्तीति भावः ॥३॥ मूलम्-तिनं तसे पाणिणो थावरे य जे हिलई आयसुहं पंडच्च। जेलूलए होई उदत्तहारीण सिखई लेयवियस्त लिचि ।। - छाया-तीनं सान माणान् स्थावरान् च यो हिंसत्यात्ममुखं प्रतीत्य । यो लूपको भवत्यदत्तहारी न शिक्षते सेवनीयस्य किंचित् ॥४॥ से शुन्य होते हैं, पाप से पेट भरते हैं और अपने जीवन के लिए पापमय कृत्य करते हैं, ऐसे तीव्र पाप के उदयवाले जीव अत्यन्त भयजनक घोर अन्धकारमय तथा तीव्र संतापयाले अर्थात् खदिर (खैर) के अंगारों के बडे ढेर से भी अनन्तगुणित ताप से युक्त नरक में जाते हैं। ___ तात्पर्य यह है कि अन्य प्राणियों को भय उत्पन्न करनेवाले, अज्ञानी अपने हित के लिए पशुवध आदि क्रूर कर्मों में प्रवृत्ति करने वाले जो जीव पापकर्म का आचरण करते हैं वही अपने पाए के प्रभाव से महादुःखमय नरक में उत्पन्न होते हैं ॥३॥ . . કથી રહિત હોય છે, જેઓ પાપકર્મો દ્વારા પિતાને ગુજારો ચલાવતા હોય છે, અને જેઓ પોતાના જીવનને માટે પાપમય કૃત્યે સેવતા હોય છે. એવા તીવ્ર પાપના ઉદયવાળા જી અત્યંત ભયજનક, ઘોર અંધકારમય, તથા તીવ્ર સંતાપયુક્ત-ખેરના અંગારાના મેટા ઢગલા કરતાં પણ અનંતગણ તાપयुत-२मा नय छे. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જે જ પિતાના સુખને માટે પશુવધ આદિ પામકમે કરનારા હોય છે, જેઓ અન્ય જીવોમાં ભય ઉત્પન્ન કરનાર કૂર કર્મો કરે છે, એવા અજ્ઞાની છે તેમના પાપના પ્રભાવથી મહાદુખમય न२३मा पन्त थाय छे. ॥३॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् - अन्वयार्थः---(जे आयसुहपड्डुच्च) य आत्मसुखं प्रतीत्य स्वमुखाय (तसे यावरे य पाणिणो) सान् स्थावरान् प्राणिनः 'तिब्छ' तीव्रम्-अतिनिरनुकम्पम् 'हिंसई हिंसति-व्यापादयति 'जे लूपए' यो लूपका-पट्कायजीवमाणलुण्ठकः 'होई' भवति तथा 'अदत्तहारी' अदत्तहारी-परद्रव्यापहारका 'सेपवियस्स' सेवनीयस्स संयमस्य 'किंविण सिक्खई' न किञ्चिदपि शिक्षते, अल्पमपि सेवन न करोतीति ॥४॥ __शब्दार्थ-'जे आयनुहं पडुच-य आरमसुखं प्रतीत्य' जो जीव अपने सुख के निमित्त तसे वावरे य प्राणिणो-त्रमाद, स्थावरान् प्राणिन.' असे और स्थावर प्राणी को तिन्वं-तोत्रम्' अत्यन्त दयाहीन होकर सिईहिंसति' मारता है जे लूपए-यो लूषकः' जो प्राणियों का-मारने वाला होई-भवति' होता है तथा 'अदत्तहारी-अदत्तहारी' विना दिये अन्य की चीज लेने वाला है वह 'सेयविपस्ल-खेवनीयस्थ सेवन करने योग्य संयम का किंचि ण "सिक्खई-निश्चिदपि न शिक्षते' थोड़ा भी सेवन नहीं करता है ॥४॥ ___अन्वयार्थ-जो जीव अपने सुख के लिए बस और स्थावर जीवोंका अत्यन्त निर्दय भाव से घात करते हैं, जो षटकाय के जीवों के प्राणों को लूटते हैं, परद्रव्य का अपहरण करते हैं और जो सेवन करने योग्य का सेवन नहीं करते अति. स्वल्प संयम का भी पालन नहीं करते (ऐसे जीव नरक में जाते है)॥४॥ -शहा -'जे आयसुहं पडुच्च-य आत्मसुखं प्रतीत्य' २ पाताना सुम भाट 'तसे थावरे य पाणिणो-सान् स्थावरान् प्राणिनः' त्रस सने स्या१२ प्राणान. 'तिव्व-तीव्रम्' अत्यत यालित ४२ 'हिंसइ-हिंसति' भार छ 'जे लसए-यो लूपक' प्राणियोन भारपाना स्वभावामी होई-भवति' याय छ, तथा 'अदत्तहारी-अदत्तहारी' माया विना भीमानी १२ वा. पण यछे, ते 'सेयवियस्स-सेवनीयस्य' सेवन ४२१॥ योग्य सयमनु विधि ण सिक्खई-किश्चिदपि न शिक्षते' थोड पार सेवन ४२ता नथी. ॥४॥ * સૂત્રાર્થ–જે પિતાના સુખને ખાતર ત્રસ અને સ્થાવર જવાની અત્યંત નિર્દયતા પૂર્વક હત્યા કરે છે, જેઓ છકાયના જીના પ્રાણને લૂટે છે. જેઓ પારકા દ્રવ્યનું અપહરણ કરે છે, અને જે સેવન કરવા યોગ્ય વસતુનું સેવન કરતા નથી, એટલે કે જેઓ સંયમનું સહેજ પણ પાલન કરતા નથી, એવો છે નરકમાં જાય છે. એ છે सु० ४३ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताइसने टीका-'जे' यः पुरुषः 'आयमुहं' आत्मसुखम् 'पडुच्च' प्रतीत्य 'तसे' प्रसाद-वस्त्यातीति त्रमाः द्वीन्द्रियादयस्तान 'थावरे' स्थावरान्-पृथिवीकायादीन् । 'पाणिणो' प्राणिना, तान् 'निव्वं' तीव्रम्-दयारहितबुन्दया हिंसई' हिंसति, प्राणिन उपमर्दयति तथा 'जे' यः पुरुषः 'लूस' लूपन:-पटू काय नीवप्राणलुण्ठको भवति, तथा-'अदत्तहारी' अदत्तहारी-अदत्तं वस्तु अपहत्तु शीलं यस्य स अदत्त. हारी-परद्रव्या' हारशः 'सेयवियरस' से दनीयस्याऽऽत्महितैपिणा सर्वदा अनुष्ठातुं योग्यस्य संयमस्य 'ण किंचि सिक्खइ' किश्चिदपि न शिक्षते । अयं भावः-पापोदयात् विरविषरिणायं काफमांसादेरपि मनागपि न विधत्ते। यद्वा-सेवनीयस्य सकलनराऽमरपूजितस्य भगवतो यहादीरस्य किंचिदपि उपदेशरचनादिकं न शिक्षते, न शृगोति स नरके पततीति परेण संबंधः ॥४॥ टीकार्थ--जो पुरुष अपने सुख के लिए द्वीन्द्रिय आदि उस जीवों फा तथा पृथिवीकाय आदि स्थावर जीवों का द्यारहित भाव से हनन करते हैं, जो छह काय के जीवों के प्राणों के लुटेरे होते हैं, जो अदत्त वस्तुओं को लेते हैं अदत्तादान सेवन करनेवाले और जो आत्महिते. षियों द्वारा सेवनीय संयम की कुछ भी शिक्षा नहीं लेते हैं, ऐसे जीवों को नरक में उत्पन्न होना पड़ता है।। आशय यह है जो जीव पाप के उदय से लेश मात्र भी विरति का पालन नहीं करते, यहां तक कि काक के मांस का भक्षण भी नहीं त्यागते और जो समस्त मनुष्यों एवं देवों द्वारा वन्दित भगवान महावीर के ટીકાથે--જે પુરુષે પિતાના સુખને માટે શ્રીન્દ્રિય આદિ ત્રસ જીવેને તથા પૃથ્વીકાય આદિ સ્થાવર અને દયારહિત ભાવે વધ કરે છે, જેઓ છકાયના જીના પ્રાણેને નાશ કરનારા હોય છે, જેઓ અત્ત વસ્તુઓ લે છે-જેઓ અદત્તાદાન સેવન કરે છે, અને આત્મકલ્યાણ ચાહનારા લેકે દ્વારા સેવનીય સંયમનું જેઓ સહેજ પણ સેવન કરતા નથી, એવા જેને નરકગતિમાં ઉત્પન્ન થવું પડે છે આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે પાપના ઉદયને લીધે જેઓ લેશ માત્ર વિરતિનું પાલન કરતા નથી, જેઓ કાગડાનું માંસ ખાતાં પણ સંકોચ અનુભવતા નથી (કાગડાનું માંસ ખાવાની હદે જનાર માણસ ગાય આદિ પ્રાણએનું માંસ તો ખાતા જ હોય છે) જેઓ સમસ્ત દેવે અને મનુષ્યો દ્વારા વન્દિતે ભગવાન મહાવીરના ઉપદેશ વચનેમાથી બિલકુલ શિક્ષા (બે) ગ્રહણ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ.१ नारकीयवेदनानिरूपणम् . ३३५ मूलम्-पागनिम पाणे बेहुणतिवाति अनिवते घातसुवेति वाले। णिहो णिलं पच्छंई अंतकाले, अहो तिरंक उबेइ देगी। छाया-पागलली माणानां बहूनामतिपाती अनि तो घातमुपैति वालः । न्यग् निशां गच्छत्यन्तकाले अधः शिरः कृत्वोपैति दुर्गम् ।।५।। अन्वयार्थ:-(भागनि) मागल्भी पापकर्मणि धृष्टः (बहूगं पाणे तियाति) बहूनां प्राणानामतिपाती अनेकजीवपिराधकः (अनिवते) अनिवृतः सदैव क्रोधा. ग्निना दह्यमानः एतादृशः (बाले) वालोऽज्ञानी (अंतकाले) अन्तकाले मरणसमये उपदेश घचनों की किंचित् भी शिक्षा नहीं लेते उन्हे नहीं सुनते, वे नरक में पड़ते हैं ॥४॥ शब्दार्थ-'पागभि-प्रागल्भी' जो पुरुष पाप करने में धृष्ट है 'घहूणं पाणेतिवाति-बहूनां प्राणानामतिपाती' बहुत प्राणियों का घात करता है 'अनिव्वते-अनिर्वृतः' और जो सदैव क्रोधाग्नि से जलता रहता है 'घाले-बाल' ऐसा अज्ञानी 'अंतकाले-अन्तकाले' मरणकाल में 'णिहो-न्यक' नीचे 'णिसं-निशाम्' अन्धकार में 'गच्छह-गच्छति' जाता है 'अहो सिरं कहुँ-अधः शिरः कृत्वा' वह नीचे मस्तक करके 'दुग्गं-दुर्गम्' कठिन यातनास्थान को 'उवेह-उपैति' प्राप्त करता है।। अन्वयार्थ--जो जीव पापकर्म में धृष्ट है, बहुत प्राणियों का घातक है, सदैव क्रोधाग्नि से जलता रहता है, ऐसा अज्ञानी जीव मृत्यु के કરતા નથી, તેને સાંભળવાનું પણ જેમને ગમતું નથી, એવાં છે નરકમાં. ગમન કરે છે. કે ૪ शा-'पागभी-प्रागल्भी' २ पु३५। ५५५ ४२वामा धृष्टतापामा डाय छ, 'बहूणं पाणेतिवाति-बहूनां प्राणानासतिपाती' घट प्राणियोनी धात ४२ छे. 'अनिव्वते-अनिवृत.' भने २ ५३पी ममिया हमेशा मते २९ छ. 'घाले-बालः' मेरो मज्ञानी १ 'अंतकाळे-अन्तकाले' भ२४ समये 'णिहो-न्यक्' नाय "णिसं-निशाम्' धारामा 'गच्छइ-गच्छति' लय छे. 'अहो सिर कटु-अव शिरः कृत्वा' ते नीयु भए। शव 'दुग्गं-दुर्गम्' ४५ सा स्थानने 'उवेइ-उपैति' मा ४३ छे. ॥५॥ સૂત્રાર્થ–-જે પાપકર્મોમાં ધૃષ્ટ છે-પાપકર્મો કરતા જેઓ લજવાતા નથી, જેઓ અનેક જીવને ઘાત કર્યા કરે છે, જેમનું હૃદય કોધાગ્નિથી સદા બન્યા કરતું હોય છે, એવા અજ્ઞાની મનુષ્યો આ મનુષ્ય ભવનું આયુષ્ય Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० सूत्रकृताङ्गसूत्रे (णिहो) न्यक्-नीचैः (णिसं) निशामन्धकारं (गच्छ) गच्छति प्राप्नोति तथा स्वकृतकर्मणा (अहो सिरं कटु) अधः शिरः कृत्वा (दुग्गं) दुर्ग विषमं यातनास्थान (उवेइ) उपैति गच्छतीति ॥५॥ ___टीका-'पागन्भि' पागल्भी-मागल्भ्यं धाष्टयम् , तद्विद्यते यस्य स मागल्मी, तथा 'बहूर्ण पाणे तिवाति' वहूनामतिपाती-बहूनामेने केषां प्राणिनास् अतिपाती, अतिपातयितुं घातयितुं शीलं विद्यते' यस्य सः। अनेके पां प्राणिनां दिनाशं कुर्वन्नपि धाटर्याद विनाशे नास्ति कश्चिदोषः यथा वैधी हिंसा हिंसैव न भवति, राज्ञासयमुदारो धर्मः यत् आखेटकादिकरणम् । 'न मांसभक्षणे दोपो न मद्ये न च मैथुने।' इत्यादि। 'अनियते' अनिर्वृतः कदाचिदप्यननुपशान्तः क्रोधाग्निनाऽनुक्षणं दंदा मानो बाल:-अज्ञो रागद्वेषोदयवर्ती 'अंतकाले' अन्तकाले-मरणपश्चात् नीचे अन्धकार में गमन करता है तथा अपने किये कर्म के उद्य से सिर नीचा करके विषम यातनास्थान को प्राप्त होता है ॥५॥ , टीकार्थ--जो प्राणी धृष्ट है, घहुन जीवों का हनन करनेवाला है और अनेक प्राणियों का घात करता हुआ भी धृष्टतापूर्वक कहता है कि हिंसा में कोई दोष नहीं है। जैसे-वेद में विधान की गई हिंसा तो हिंसा ही नहीं ? शिकार खेलना तो राजाओं का उदार धर्म है ! 'न मांस भक्षणे दोषो" इत्यादि। . न मांस भक्षण में दोष है, न सयपान में दोष है और न मैथुन सेवन में दोष है इस प्रकार की पृष्टता करके पापों का सेवन करते हैं और जो कभी शान्त नहीं होता, सदैव मोधरूपी अग्नि से जलता रहता है, जो अज्ञ अर्थात् राग द्वेष के उदय से युक्त रहता है, वह जीव પૂરું કરીને નીચે અંધકારમાં ગમન કરે છે, તથા તેમણે કરેલાં કર્મોના ઉદયને કારણે ત્યાં તેમને નીચી મુંડીએ વિષમ યાતનાઓ સહન કરવી પડે છે. પાપ ટીકાથે--અનેક જીની હત્યા કરનાર કેટલાક મનુષે એવાં ધૃષ્ટ થઈ ગયા હોય છે કે તેઓ એવું કહેતા પણ લજવાતા નથી કે પ્રાણીઓની હિંસા કરવામાં કેઈ દેષ નથી તેઓ એવી દલીલ કરે છે કે વેદમાં યજ્ઞ, હેમ, હવન આદિ જે જે કરવાનું કહ્યું છે, તે બધું કરવાથી તે હિંસા જ થતી નથી શિકાર ખેલ, એ તે રાજાઓનો પવિત્ર ધર્મ છે. કહ્યું પણ છે -'न मांसभक्षणे दोषो' ऽत्याहि-- “માંસનું ભક્ષણ કરવામાં કે દેષ “ નથી; મદિરાપાન કરવામાં પણ કોઈ દેષ નથી અને મૈથુન સેવન કરવામાં પણ કોઈ દોષ નથી. આ પ્રકારની ઇષ્ટતા કરીને તેઓ પાપનું સેવન કર્યા કરે છે. એવા છે મરીને નરકમાં Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका प्र. Q. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३४१ काले 'घातमुवेति' घातमुपैति-हन्यन्ते प्राणिनः स्वकृतकर्मविपाकेन यस्मिन् स घातो नरका, तथाविधं नरकमुपैति प्राप्नोति इत्यर्थः । 'णिहो णिसं गच्छइ' न्यक्-अध. स्सात् 'णिसं' निशाम् अन्धकारं गच्छति, तथा-स्वकीयपापकर्मणा, 'अहोसिरं कटु' अधः शरः कृत्वा 'दुग्गे' दुर्गम्-विषमं यातनास्थानम्-'उवेई' उपैति अधिगच्छति । अध शिरा नरके पतति, क्रूरभावेन माणिनां वधकारी पुरुष इति॥५॥ मूलम्-हेण छिदह भिंदह णं दहेति सँदे सुर्णिता परहम्मियाणं। . ते नारंगाओ भयभिन्नसन्ना कखति कन्नौम दिसंक्यामोद। . छाया-- हत छिन्त भिन्न दहन इति शब्दान् श्रुत्वा परमाऽधार्मिकाणाम् । ते नारका भयभिन्नसंज्ञाः काक्षन्ति का नाम दिशं , बजामः॥६॥ अन्त काल में घात अर्थात् नरक को प्राप्त होता है। जहां अपने किये कर्म के फलस्वरूप जीव मारे जाते हैं वह स्थान नरक भी घात कह. लाता है । वह क्रूर भाव से जीववध करनेवाला पुष अधो दिशामें अन्धकार को प्राप्त होता है, नीचा मस्तक करके विषम यानना के "स्थान नरक में उत्पन्न होता है ।५।। शब्दार्थ-'परहम्मियाण-परमाधार्मिकाणाम्' परमाधार्मिकों का 'हण-हत्त' मारो छिंदह-छिन्त' छेदन करो भिदह-भिन्त' भेदन करो 'दह-दहत' जलाओ 'इनि-इति' इस प्रकार का 'सद्दे-शब्दान्' शब्दों को 'सुणित्ता-श्रुत्वा' सुनकर 'भयभिन्नसन्ना-भयभिन्नसंज्ञाः' भय से संज्ञा જ જાય છે. જેમના અંતઃકરણમાં કદાપિ શાન્તિ તે હતી જ નથી, જેમનાં અંતઃકરણમાં સદા ક્રોધાગ્નિ ભભૂકતો જ રહે છે, જેઓ રાગદ્વેષથી સદા યુક્ત રહે છે, એવા જ મનુષ્યભવનું આયુષ્ય પૂરું કરીને નરકમાં જ જાય છે. નિર્દયતા પૂર્વક જીવહિંસા કરનારા પુરૂષને અધે દિશામાં રહેલા અધિકારમય નરકમાં ઉત્પન્ન થવું પડે છે-તેમને નીચી મુંડીઓ વિષમ યાતનાસ્થાન રૂપ નરકમાં ઉત્પન્ન થવું પડે છે. એવી કઈ પણ તાકાત નથી કે જે તેમને ત્યાં ઉત્પન્ન થતાં અટકાવી શકે પા નારમાં નારકી જીવોને કેવાં દુઃખો વેઠવા પડે છે, તે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે– शहाथ-परहम्मियाण-परमाधार्मिकाणाम्' ५२माधामिन 'हण-हत्त' भारे। 'छिंदह-छिन्त' छेदन ४२। 'भिंदह-भिन्त' लेन ४३। 'दह-दहत' मानी इति-इति' मा प्राणुना 'सदे-शब्दान्' शण्होने 'सुणित्ता-श्रुत्वा' समजान भयभिन्नसन्ना-भयभिन्नसंज्ञाः' लयथा न्यानी सज्ञा ना यामी छ. *१ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृता अन्वयार्थः – 'परह म्प्रयाणं' परसाधार्मिकाणाम् 'हण' इन - मारय 'छिंदह' छिन्a 'fice' भिन्त 'दह' दह - इति' इति इत्याकारकान् 'स' शब्दान् संयंकरशब्दान् 'सुणिता' श्रुत्वा 'भयभिन्नसन्ना' भयभिन्नसंज्ञाः - नष्टान्तःकरणवृत्तयः 'ते नारगाओ' ते नारकाः 'कंति' कांक्षति - इच्छन्ति (कं नाम दिसं व्यामो) कां नाम दिशं व्रजामः येनैतादृशमहाघोरास्वदारुणस्य दुःखस्य त्राणं स्यादिति ॥ ६ ॥ टीका - संपति नरकवर्तिनो जीवा वां दशामनुभवति, तामेव पुनरपि दर्शयति - 'परहम्मियाणं' परमधार्मिकाणां, मनुष्यादिमत्रं परित्यज्य नरके समुत्पन्नाः जीवाः तत्र विद्यमानानां परमाऽधार्मिकाणास 'ण' हत - महारं महापरिग्रहादि क्रूरकर्माणि कृत्वा ऽत्रागतस्य मुद्रादिना शिरस्ताडयतं 'छिंदह' छिन्त खड्गादिना 'fice' fees भकादिना विदारयत 'दह' दद्दत - अग्न्यादिना ज्वालयत, इत्यादिजिनकी नष्ट हो गई है ऐसे वे 'ते नारगाओ-ते नारकाः' वे नारक जीव 'कंति - फांक्षन्ति' चाहते हैं कि 'कं नाम दिसं वयामो-कां नाम दिशं व्रजाम:' हम किस दिशा में भाग जाय ॥ ६ ॥ अन्वयार्थ -- परमधार्मिक देवों के मारो, काटो, भेदन करो, जला दो, इस प्रकार के शब्दों को सुनकर भय के कारण संज्ञाहीन हुए नारक जीव सोचते हैं कि हम किस दिशा में भाग जाएँ ॥ ६॥ રૂપર टीकार्थ- नरक में रहनेवाले जीव जिस दशा का अनुभव करते हैं, उसे दिखलाते है - मनुष्य या तिर्थ च भव का त्याग करके नरक में उत्पन्न हुए जीव वहां के परमाधार्मिक देवों की वाणी सुनता है; जैसेयह महारंभ और महापरिग्रह आदि क्रूर कर्म करके आया है, मुद्गर से इसका सिर फोड़ दो, खहन से काट डालो, भाला आदि से विदा'ते नारगाओ - वे, नारकाः' मे नार छ। 'कति कांक्षन्ति' छे छे - 'कं नाम दिस वयामो-को नाम दिशं वज्रामः' असे ४५ दिशामा लागी अर्धये ॥६॥ सूत्रार्थ -- ' भारी, भयो, लेडी नाथे, भावी हो,' त्यिादि परमधार्मि ૉંધાના શબ્દોને સાંભળીને ભયને કારણે સન્નાહીન (ભાન ભૂલેલા ખેખાકળા) મેલા નારકા એવેા વિચાર કરે છે કે ‘કઈ દિશામાં ભાગવાથી પરમાધામિક हैवाना त्रासमांथी भाषये मयी शम्भु !' ॥६॥ ટીકા –નરકમાં ગયેલાં જીવે કેવાં દુઃખે! સહન કરે છે, તેનુ' હવે ન કરે છે-નરકમાં પરમાધામિઁક દેવાના આ પ્રકારના ભયજનક શબ્દો વારવાર સ`ભળાતા હાય છે—આ જીવ મહારંભ અને મહાપરિગ્રહ આદિ કર કર્માં કરીને અહી આવ્યે છે, મુગદર વડે તેનું માથુ ફાડી નાખેા, ખડક વડે તેનું ગળું કાપી નાખેા, ભાલા વડે તેનું શરીર વીધી નાખે, તમે Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् । ३४३ भयजनकान् श्रोतुमयोग्यान 'सद्दे' शब्दान् दूरादेव 'हणिता' श्रुत्वा 'भयभिन्नसन्ना' भयभिन्नसंज्ञाः-भयेन भिन्ना नष्टा संज्ञा पलायनज्ञानं येषां ते तथा भयापहतज्ञाना इत्यर्थ', भयत्रस्तुमानसाः नष्टसंज्ञाश्च ‘क नाम दिसं श्यामों' का नाम दिशं वजामः । कुत्र गमनेनाऽस्माकमेतादृशघोगरवदारुणदुःखमहोदधेः सका. शाद त्रागं भविष्यतीत्येवत् 'कखंति' काक्षंति इति ।।६।। मूलम्-इंगालरासिं जलियं सजोतिं तत्तोवन भूमिमणुकमंता। तेडज्झमाणा कलगंथति अरहस्सरा स्थचिरैट्रितीया। छाया-अङ्गारराशि ज्वलित सज्योतिः तदुपमा भूमिमनुक्रामन्तः । ते दद्यमानाः करुणं स्तनन्ति अरहःस्वरास्तत्र चिरस्थितिकाः ॥७॥ अन्वयार्थः-(जलियं) ज्वलितं-ज्यालाकुलं (इगालासिं) अङ्गारराशि खदिराङ्गार'नं (सनोति) सज्योतिः-ज्योतिपा ज्वालया युक्त (नत्तोम) तदुपमा तप्ताङ्गारराशिसशी (भूमि) भूमि-पृथिवी (अणुकमंता) अनुक्रामन्तश्वलन्तः रण कर दो, इसे आग में जला दो। इस प्रकार के भयोत्पादक शब्दों को सुनकर उनकी संज्ञा (ज्ञान) नष्ट हो जाती है। वे अतीव भयावर एवं किंकर्त्तव्यमूढ हो जाते हैं और सोचते हैं कि अब हम किस ओर भागे। कहां जाने से इस प्रकार के घोर एवं दारुण दुःख के सागर से हमारी रक्षा हो सकती है ? वे इस प्रकार इच्छा करते हैं ॥६॥ शब्दार्थ-'जलियं-ज्वलितम्' जलती हुई 'इंगालरासिं-अनार राशि' अङ्गार की राशि तथा 'सजोति-सज्योतिः' ज्योतिसहित तत्तोवर्म-तदुपमा भूमि के सदृश 'भूमि-भूमिम्' पृथ्वी पर 'अणुक्कमंताअनुक्रामन्तः' चलते हुए अतएव 'डज्झमाणा-दह्यमाना जलते हुए અગ્નિમાં બાળી દે મનુષ્ય અથવા તિર્યંચ ભવનો ત્યાગ કરીને ત્યાં ઉત્પન્ન થયેલાં છે તેમના આ શબ્દો સાંભળીને ખૂબ જ ભયભીત થઈ જાય છે, તેમની સંજ્ઞા (જ્ઞાન) જ નષ્ટ થઈ જાય છે તેઓ અત્યંત ભયભીત અને કિર્તવ્યમૂઢ થઈ જઈને એવી વિમાસણને અનુભવ કરે છે કે કયાં ભાગી જવાથી આ પ્રકારના દારુણું દુઃખમાંથી અમારી રક્ષા થઈ શકે, પરંતુ તેઓ કિંઈ પણ પ્રકારે તે દુઃખથી બચી શકતા નથી. દા शहाथ-'जलियं-ज्वलितम्' ती म्मेवी "इंगालरासिं-अङ्गारराशिम्' मारान दस तथा 'सजोति-ज्योतिः' ज्योतिवाणी 'तत्चोवमं-तदुपमाम्' भूभाना वी भूमि-भूमिम्' पृथ्वी ५२ 'अणुकमंता-अणुक्रामन्तः' यासत मेवा मतमेव 'ज्झमाणा-दह्यमानाः' मणता मे 'वे-ते मे ना२४२ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ सूप्रतासूत्रे (डज्झमाणा) दह्यमानाः (ते) ते नारका जीयाः (कलुणं यति) करुणं दीनं स्त. नन्ति उच्चैः रुदन्ति (रहस्सरा) अम्हाश्वगः प्रकटस्वराः सन्तः (तत्थ) तत्र नरकायासे (चिरद्वितीया) चिरस्थितिकाः प्रभूतकालस्थितिका भवन्तीति ।७॥. टीका--भयसंत्रस्ता जीवाः दिक्षु विनष्टाः याशीम् अवस्थामनुभवन्ति, तदर्शयति-'जलिय' मित्यादिना- 'जलिय' ज्वलिता-जाज्वल्यमानं 'इंमालरासि' अङ्गारराशिम्-खदिराङ्गार पुनम् , 'सजोति' राज्योतिः ज्योतिषा तीव्रज्यालया सह वर्तते इति सज्योतिः । 'तत्तोवर्म' सदुम्माम् । तेन सासमुपमा सादृश्य विद्यते 'से-ते' वे नारक जीव लुणं थणति-शरुणं स्तनंति' दीन शब्द करते हैं 'अरहरामरा-अरहास्दशः' उनका शब्द प्रस्ट होता है 'तत्य-तत्र' नरकावास में 'चिरहिनीश-चिरस्थिनिका' चिरकाल तक नरक में निवास करते हैं । ७॥ ___ अन्वयार्थ--ज्वालाओं से युक्त अगारों की राशि तथा अग्नि से तपी हुई भूमि के समान नरकभूमि पर चलते हुए वे नारक जीव करुणरुदन करते हैं । उनकी रुदनध्वनि प्रकट में सुनाई देती है। नारक घहां चिरकाल तक इसी दशामें रहते हैं ॥७॥ टीकार्य--वे नारक जीव भय से त्रस्त होकर और नाना दिशाओं में भाग कर जैली अवस्था का अनुभव करते हैं, उसे सूत्रकार दिख लाते हैं-खदिर (खैर) के जाज्वल्यमान अंगारों के समान तथा तीव्र ज्वालाओंवाली अग्नि के समान तप्त वहां की भूमि होती है, उसी भूमि कलुणं थणंति-करुणं स्तनन्ति' हीनतामा शहोना ४१२ ४२ छ 'अरहस्सराअरहःस्वराः' प्राट यता शापातमा 'तत्थ-तत्र' ते म२४पासमा “चिरट्रितीया-चिरस्थितिकाः' aim समय पर्यन्त ते न२४पासमा निवास ४२ छ. ॥७॥ સૂત્રાર્થ–-જવાલાએથી યુક્ત અંગારાના ઢગલાં તથા અગ્નિ વડે તપેલી ભૂમિના જેવી નરકભૂમિ પર ચાલતાં નારકે આર્તનાદ કરુણ વિલાપ આદિ કરે છે. તેમના રુદનને કરુણ સૂરે ત્યાં સ્પષ્ટ રૂપે સંભળાયા કરે છે. નારકને દીર્ઘ કાળ સુધી ત્યાં જ રહેવું પડે છે. ૧૭ ટીકાર્થ–ભયથી ત્રાસી ગયેલા તે નારકે જુદી જુદી દિશાઓમાં નાસભાગ કરતાં કરતાં કેવી યાતનાઓને અનુભવ કરે છે, તે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે–ખેરના પ્રજવલિત અંગારાઓ જેવી તથા તીવ્ર વાળાઓવાળી અગ્નિના જેવી તપ્ત ત્યાંની ભૂમિ હોય છે. એ ભૂમિ પર નારકને ચાલવું પડે Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. १. ५ उ. १. नारकीयवेदनानिरूपणम् .. ३४५ यस्याः सा ता तादृशीं 'भूमि' भूमि-पृथिवीम् 'अणुक्कमंता' अनुक्रामन्त', गच्छ. न्तस्ते नारका जीवाः, 'डज्झमाणा'- तेन ज्वलितांगारेण दन्दह्यमानाः 'कल्लुणं' करुण-दीनं करुणोत्पादकं नादम् 'थणति' स्तनन्ति-अतीव दीनोग्रं शब्दं कुर्वन्ति, 'अरहस्सरा' अरद स्वरा:-महास्वरान् प्रकटयन्तः 'तत्थ' तत्र-तरिमभरकावासे 'चिरद्वितीया' चिरस्थितिकाः, विरं प्रभूतं कालं स्थितिश्वस्थानं येषां ते चिरस्थितिकाः भवन्ति । उत्कृष्ट वस्त्रयस्त्रिंशत्सागशेषधाणि, जघन्यतो दशवर्षसहस्राणि तिष्ठन्ति नारका नरके । यद्यपि नरके यादृशास्तापाः संजायन्ते, तेषा. मत्रस्यतापोपमा संमबति । सर्पपाऽऽकाशवत् तयोर्महावैषस्यात् , तथापि इषुरिब सविता धावतीसि (यथा कथंचित्र दृष्टानदर्शन मिति ॥७॥ पर नारक जीयों को चलना पड़ता है । जब वे उस भूमि पर चलते हैं तो जलते हैं और अरुणाजनक दीनबर में चिल्लाते-रोते हैं। उनकी रोने की ध्वनि जोर की होती है । नारक जीवों की स्थिति अर्थात् आयु दीर्घकालीन होती है । वे वहाँ अधिक से अधिक तेलिल सागरोपम तक और कम से कम दस हजार वर्ष तक रहते हैं। ... यद्यपि नरक में जैले सन्ताप होते हैं उनकी यहां के किसी भी -सन्ताप से तुलना नहीं की जा सकती, सरसों और आकाश के परि. माण की तरह दोनों में महान् अन्तर है फिर भी यहाँ जो दृष्टान्त दिये गए हैं वे सामान्य मात्र हैं। जैसे सूर्य, पाण की तरह भागता है, इस છે. એવી તપ્ત ભૂમિ પર ચાલતી વખતે તેમના પગ દાઝી જવાથી તેઓ કરુણાજનક (દીન) સ્વરે ચિત્કાર અને આકંદ કરે છે. તેમના રુદનનો અવાજ ઘણે ઊ એ હોય છે. નારકેનું આયુષ્ય ઘણું જે લાંબુ હોય છે. તેમનું ઉત્કૃષ્ટ આયુષ્ય ૩૩ સાગરોપમનું અને જગન્ય આયુષ્ય દસ હજાર વર્ષનું કહ્યું છે. ગમે તેટલી યાતનાઓ સહન કર્યા છતાં આયુસ્થિતિને કાળ પર કર્યા વિના તેઓ ત્યાંથી છુટકારો મેળવી શકતા નથી. નરકમાં જે યાતનાઓ સહન કરવી પડે છે, તેની સરખામણી આ પૃથ્વી પરના કોઈ પણ દુઃખ સાથે થઈ શકતી નથી. તે બન્નેના પ્રમાણ વચ્ચે સરસવ અને આકાશના પ્રમાણ જેટલે મહાન તફાવત છે, છતાં પણ અહી જે દત્તે આપવામાં આવ્યાં છે, તે સામાન્ય ખ્યાલ માટે જ આપ્યાં છેજેમકે સૂર્ય બાણની જેમ ભાગે છે–ગતિ કરે છે, આ દષ્ટાન્તમાં સૂર્યને બાણની ઉપમાં આપવામાં આવી છે, પરંતુ તે બનેની ગતિમાં ઘણો જ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - • घशताङ्गसने मूलम्-जइ ते सुशा वेयरणीभिदुग्गा, पिसिओ जहा बुर इव तिक्खसोया। तति ते वेयरणिभिदुग्गा उसुचौड़या स्तत्तिनुहम्ममाणाद! छाया--यदि त्या श्रुता चैतरणमामिदुर्गा निशितो यथा शुर इव तीक्ष्णस्रोताः। तरन्ति ते वैतरणीभिडीमिपुरोदिताः शकित हन्पमानाः ॥८॥ अन्वयार्थ:--(पिपिओ बुर इस तिव वनोया) निमितः क्षुर इव तीक्ष्णताः (जइ ते) यदि ते (अभिदुग्गा) अभिदुर्गा- दुःण्डोत्पादिका (वेयरणी) कथन में सूर्य को वाण की उपमादी गई है तथापि दोनों में महान अन्तर है, लसी प्रकार यहां के ताप और नरक के ताप में भी भारी अन्तर है॥७॥ शब्दार्थ-णिसिओ खुर इच निक्खसोया-निशितः क्षुर व तीक्ष्णस्रोता' तीक्ष्ण उस्तरे की धार के समान तेज धार वाली 'जइ ते'-यदि स्वया' जो तुमने 'अभिदुग्गा-अभिदुर्गा अति दुर्गम 'वेगरणी-वैतरणी' वैतरणी नदी को 'सुया-श्रुता' सुना होगा 'ते-ते' के नारक जीव 'अभिदुग्गां वेयरणि-अभिदुर्गा वैतरणीम्' अतिदुर्गमवैतरणी की 'उसुचोइया-इषुनोदिताः' घाण से प्रेरित किये हुए 'सत्तिसु हम्ममाणा-शक्तिसु हन्यमानाः तथा भाला से भेदकर चलाये हुए 'तरंतितरन्ति तैरते हैं ॥८॥ अन्वयार्थ-छुरा के समान तीक्ष्ण धार वाली वैतरणी नदी तुमने सुनी होगी। यह अत्यन्त दुर्गम है और क्षार, उष्ण एवं रुधिर जैसे માટે તફાવત છે, એ જ પ્રમાણે આ પૃથ્વી પરના તાપ (ગરમી) અને નરકના તાપ વચ્ચે ઘણું જ મેટે તફાવત છે. शहा- "णिसिओ खुर इव निखसोया-निशितः क्षुर इव तीक्ष्णास्रोताः' ती भरताना धार स२पी ते धारवाणी 'जइ वे-यदि त्वया' ले तमे 'अभिदुग्गा-अभिदुर्गा' सत्यत हुभ वेयरणी-वैतरणी' वैतरणी नामना नहीन 'सुया-श्रुता' सieणी शे- 'ते-ते' ते ना२8 । 'अभिदुगगां वेयरणिअभिदुर्गा' वैतरणीम्' मत्यात हुभ दी वैतरणी नही . 'उसुचाइया, इषु नोदिता.' माथी- प्रेरणा ४२८ वा 'सत्तिम, हम्ममाणा-शकिसु हन्यमानाः' माथी नहीन यावा मावेसा ना२४ । 'तरंति-तरन्ति' तरे छ. ॥८॥ સૂત્રાર્થ—અસ્ત્રાના જેવી તીક્ષણ ધારવાળી વૈતરણી નદીનું નામ તો તમે સાંભળ્યું હશે. તે નદી ઘણી જ દુર્ગમ છે. તે ક્ષાર, ઉષ્ણુ અને રુધિર Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रृं. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् .. ३४ वैतरिणी-क्षारोष्णरुधिराकारजलनदी (ते सुया) त्वया श्रुता (ते) ते नारका जीवाः (उसुचोईया) इषुनोदिता शरेण प्रेरिताः (संत्तिसु हम्प्रमाणा) शक्तिसु इन्यपाला:शक्तिभिहेन्यमानाः ( अभिदुग्गां वेयरणि), अभिदुर्गा वैतरणी (तरंति), तरन्ति नद्यो पतन्तीति ॥८॥ ___टीका--मुधर्मस्शमी जंबुस्वामिन प्रति कथयति हे जंबूः भगवता तीर्थकरेण प्रतिपादिता या वैतरणी, तस्या नाम प्रायो भवद्भिः श्रुतमेव । मिसिनो खुर इच' निशितः क्षुर इच-तीक्ष्णो या क्षुरधारः तद्वत् । तिक्खोया' तीक्ष्णस्त्रोता:तीक्ष्णानि शरीरविदारकानि स्रोतांसि यस्याः सा तीक्ष्णस्रोता: स्पर्शमात्रेण शीरविदारक स्रोतोयुक्ता 'जइ ते सुया' यदि त्वया श्रुता 'भिदुगा' अभिदुर्गा-अतिशयेन' दुःखेन तत्तु योग्या 'वेयरणी' वैतरणी-क्षारोष्णरुधिरपूयजलवाहिनीनदी 'ते' ते नारकाः जीवाः अतिशयिततधागारसदृशी भूमि विहाय पिपासाकुक्तिीः पिपासामपनेतुम् 'अभिदुग्गां वैयरिंगि' अभिदुर्गा वैतरिणीम्-अतिमीमां तां जल वाली है। नारक जीवों को वाणों से प्रेरित होकर तथा शक्तियों.. (भाला वगैरह शस्त्रों) से आहत होकर उस दुर्गम वैतरणी नदी को पार करना पड़ता है, उसमें गिरना पड़ता है ॥८॥ _____टीकार्थ--सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामों से कहते हैं-हें जम्बू ! तीर्थ: कर भगवान के द्वारा प्रतिपादित वैतरणी नदी का नाम शायद तुमने, सुना होगा । जैसे छुरा की धार तीखी होती है, उसी प्रकार उसकी धारा भी तीखी है-उसके स्रोत स्पर्श होते ही शरीर को विदारण कर देने वाले हैं। वह क्षार, उष्ण, रुधिर एवं पीच रूप जल से युक्त है और-अतिशय दुर्गम-है। उसे पार करना बहुत कठिन है। वे नारक जीवं अंतितप्त अंगार संदेश भूमि को छोडकर, प्यांस ले व्याकुल होकर જેવા જંળથી યુક્ત છે, નારક જીને બાણ, ત્રિશુળ અને ભાલાં આદિથી પ્રેરાઈને દુર્ગમ નદી પાર કરવી પડે છે તો ટીકાઈ -સુધર્યા સ્વામી જ બૂ સ્વામીને કહે છે-હે જબૂ! તીર્થક ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદિત વૈતરણી નદીનું નામ તે તે કદ ચ સાભળ્યું હશે અસંતરાની ધાર જેવી તીખી (તીણ) હેય છે, એવી જ વૈતરણીની ધારા તીખી છે તેને પાર કરવાનો પ્રયત્ન કરનાર વ્યક્તિના શરીરનું તેના તીક્ષણ પ્રવાહ દ્વારા વિદ્યારે કરાય છે. કાતરની જેમ તે નદીને પ્રવાહ શરીરને વેતરી नांजे छ तथा तनु नाम वत' ५यु'छे. तनही क्षार, रुधिर पायपर मीडिया ज याजी छ भने तने पार ४२६iनु भ' पी. Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફેકટ सूत्रकृताङ्गसूत्रे . वैतरिणीम् 'उसुचोइया' इषुनोदिता-बाणेन प्रेरिताः 'सत्तिसु हम्ममाणा' शक्तिभिश्च हन्यमानाः सन्तः, तामेव वैतरणी 'तरंति' तरन्ति, पतन्तीति भावः ॥८॥ मूलम्-कीलेहिं विज्झंति असाहुकम्मा नावं उविते लईविप्पहणा। . अन्नेतु सूलाहिं तिसूलियाहिं दीहाहिं विvण अहे करंति।९। छाया-कीलेषु विध्यन्ति असाधुकर्माणः नावमुपेताः स्मृतिविहीणाः। अन्ये तु शूलैत्रिशूलैीधैं विद्ध्वाऽधः कुर्वन्ति ॥९॥ अन्वयार्थ:-(नावं उर्विते) नावमुपयाता:-नावारूढाः (असाहुकम्मा) असाधु... कर्माणः-परमाधार्मिकाः तान् नारकान् (कीलेहि विमंति) कीलेषु विध्यन्ति,उसे शान्त करने के लिए उल दुर्गम और भयंकर वैतरणी नदी में बाणों. से.प्रेरित होकर तथा शक्ति नामक शो से आहत होकर गिरते हैं ॥८॥ शब्दार्थ-'नावं उविते-भावमुपेताः नाव - पर बैठकर आते हुए 'असाहुकम्मा-असाधु कर्माणः परमाधार्षिक 'कीलेहि विज्झति-कीलेषु विध्यन्ति' कीलों से कण्ठ में वींधते हैं। विधमान वे नारक 'सइचिप्पहणा-स्मृतिविग्रहोणाः' - स्मृतिरहित होकर . किंकर्तव्यमूढ हो जाते हैं तथा-'अन्ने तु-अन्ये तु' दूसरे नरक्षपाल 'दीहाहि-दीर्धे:' दीर्घ 'मूलाहि-शूलै' शूलों से एवं तिलियाहिं-त्रिशूलैश्च' त्रिशूलों के द्वारा 'चिंधूण अहे करंति-विद्ध्वाधा अर्चन्ति' नारक जीवों को वेधकर नीचे फेंक देते हैं ॥१॥ अन्वयार्थ-जीका पर आरूढ होकर असाधुकर्मी परमाधार्मिक उन नारकों के कंठ को कीलेले वेधते हैं। विधे गये वे नारक स्मृतिજ દુષ્કર ગણાય છે. પરમાધાર્મિક દેના તીરોથી પ્રેરાએલાં અને ભાલાથી ઘવાએલાંને વૈતરણું નદી પાર કરવી પડે છે. ૫૮ शहा---'नावं उनिते-नावमुपेताः' नाप मर्थात् डी ५२ मेसीन माता सेवा नावाने 'असाहुकम्मा-असाधुकर्माण.' ५२भाधामि 'कीलेहि विज्झति-कोलेषु विध्यन्ति' मामा सवीधे ठेवींवायेहा शेवाते ना२४ 'सइविप्पहूणा-स्मृतिविहीणाः' स्मृति विनाना ७२ तव्यभूद थ नय छ. तथा 'अन्ने तु-अन्ये तु' मीन न२४५ia 'दीहाहि-दोधै: मेवा 'सूलाहि-शूले:' शूतथी तमा 'तिसूलियाहि-त्रिशूलैश्च' त्रिशूसी द्वारा विधूण अहे करें'ति-विद्ध्वाऽध. कुर्वन्ति' ना२ विधीन नाय ३३ है छेद। સૂત્રાર્થ-કૌકાઓમાં બેસીને તે અસાધુકમાં પરમધાર્મિક , દે તે નારકેને પીછે પકડે છે. તેઓ નારકના કંઠમાં ખીલાઓ ભેંકી દે છે. ' Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी. टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणमें विध्यमानास्ते नारकाः, (सइविप्पहूणा) स्मृतिविपहीणाः-अपगतकर्तव्यविवेका भवंति तथा (अन्ने तु) अन्ये तु नरकपालाः (दीहाहि) दीर्धे (सूलादि) शूलैः (तिमलि याहि) त्रिशूलैश्च (विधुण अहे करंति) विवाऽधः कुर्वन्ति पातयन्ति भूमौ इति॥९॥ ____टीका-'ना उविते' नावमुपेताः, नावमारूढाः, 'असाहुकम्मा असाधु: कर्माणः परमाधामिकाः 'कोलेहिं विझति' कीलेषु विध्यन्ति । विध्यमानास्ते 'सइविपहणा' स्मृतिविपहीणाः वैतरणीप्रवाहे गच्छन्तः पू मेत्र स्मृतिभ्रष्टाः । अधुना तु कीलेषु विद्धाः सातिशयं स्मृति विभ्रष्टा भवन्ति । 'अन्ने तु' अन्ये तुपरमाधामिकाः नारकपाला 'दोहाहि' दीर्धेः आयतैः 'मूलाहिं' शूल: 'तिम्रलियाहि' त्रिशूलैः 'विळूण' विद्ध्वा । नारकान्-'अहे करंति' अधाकुर्वन्ति-वैतरण्यां पातहीन अचेन हो जाते हैं, उनका कर्तव्य विवेक नष्ट हो जाता है। दूसरे परमाधार्मिक शुलों से और त्रिशूलों से वेधकर नीचे गिरा देते हैं ।।९। टीकार्थ-नौका पर आरूढ हुए परमाधार्मिक उन्हें गले में कीलों से वेधते हैं। उस समय वे स्मृतिहीन हो जाते हैं। वैतरणी के प्रवाह में जाने से प्रर्व ही उनकी-स्मृति समाप्त हो जाती है परन्तु कंठ में कीलों से वेधने पर तो वे और भी अधिक स्मृतिभ्रष्ट बन जाते हैं। दूसरे नर कपाल उन्हें लम्वे लम्बे शूलों से और त्रिशूलों से वेधकर उन्हें नीचे गिरा देते हैं अर्थात् वैतरणी में पुनः पटक देते हैं। __ कोई कोई नरकपाल स्मृतिभ्रष्ट उन नारकों को त्रिशूल आदि से भेदन करके वेग के साथ भूमि पर गिरा देते हैं । वैतरणी नदी के આ પ્રકારે તેમને કંઠ વીંધાઈ જવાથી તેઓ ઋહિન-અચેત થઈ જાય છે–તેમની કર્તવ્યબુદ્ધિ નષ્ટ થઈ જાય છે. અન્ય પરમધામિકે તે નારકોને ત્રિશૂળ, ભાલા, તીર આદિ વડે વીંધીને નીચે પછાડે છે. પલા ટીકાઈ–વેતરણી નદીમાં પડેલાં નારકે તેની તીક્ષણ ધારા આદિ વડે એટલા બધા દુઃખી થાય છે કે ત્યાંથી બહાર નીકળવાને માટે વલખાં મારે છે. પરમધામિકેની નૌકાઓને જોઈને તેઓ તે નૌકાઓ પર ચડી જવાને છે ત્યારે પરમાધાર્મિક તેમના ગળામાં ખીલા ભેંકી દે છે. ત્યારે તેઓ સ્મૃતિહીન થઈ જાય છે વૈતરણીના પ્રવાહમાં પડતાં પહેલાં જ તેમની મૃતિ નષ્ટ થઈ ગઈ હોય છે. પરતુ જ્યારે તેમના ગળામાં ખીલાઓ ભેંકી દેવામાં આવે છે ત્યારે તેઓ અધિક સ્મૃતિભ્રષ્ટ બની જાય છે બીજા નરક. પાલે લાંબા લાંબા ભાલાં, ત્રિશુળ આદિ વડે ઘવાએલા તેમને બાળથી પ્રેરીને વૈતરણી નદીના પાણીમાં ફરી પાછાં પછાડી દે છે | કઈ કઈ નરકપાલ તે સ્મૃતિભ્રષ્ટ નારકેને ત્રિશૂળ આદિ વડે વીધીને ઘણું જ વેગથી જમીન પર પછાડે છે. વિતરણું નદીના પ્રવાહમાં વહેતા Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० सू 1 यन्ति । केचन नरकपालाः स्मृतिविप्रनष्टानं त्रिशूलादिना आविध्यं पृथिव्यां वेगेन पातयन्ति । नदीस्रोतोऽभिरुह्यमानाः तद्वेगेनैव तस्मृतः इदानी पुन शूलादिभिर्विद्धाः पृथिव्यां लुठन्तः वां दशमधिगच्छन्तीति त एवं जानन्ति केवनिवेति ॥९॥ मूलम्-केसिं च बंधिन्तु गेले सिलाओ उद्गसि वौलति महालयसि । कैलंबुया वालुय सुम्सुरे य लोलंति पञ्चति अतत्थ अन्ने ॥१०॥ छाया - केषां च बद्ध्वा गले शिलाः उदके व्रोडयन्ति महालये । कलंबुका वालुकायां मुर्मुरे च लोलयन्ति पचन्ति च तत्र अन्ये ॥ १० ॥ wpr fry स्रोत में बहते बहते ही उसके वेग के कारण वे स्मृति से रहित हो जाते हैं, अयं जब उन्हें त्रिशूल आदि से भेदन किया गया और पृथ्वी पर गिरा दिया गया तो उनकी क्या दशा होती होगी ? इस बात को या तो वही जाने अथवा केवली जाने ||९|| शब्दार्थ केसि च गलें - केषां चित् गले' किन्हीं नारक जीवों के गले में 'सिलाओ बंधिन्तु-शिलाः बद्ध्वा' शिलायें बाँधकर 'महालयंसि उदगंसि-महालये उदकें' अगाध जल में 'बोलंति- ब्रोडयन्ति' हुंवाते हैं. तथा 'तत्थ अन्ने - तत्राऽस्ये' दूसरे परमाधार्मिक वहाँ से उनको खींचकर 'कलंबुयावालुमुम्मरे य लोलंति - कलंकीवालुकायां सुम्सुरे च लोलयन्ति' अत्यंत तपी हुई चालु और मुर्मुराग्नि में इधर उधर फिरातें है और 'पचति पचन्ति' पकाते हैं |१०|| - વહેતા જ તેના વેગને કારણે તેઓ સ્મૃતિરહિત થઈ ગયા હોય છે. તે ત્રિશૂળ આદિ ભેાંકી દઇને નીચે પછાડવામાં આવેલા તે નારકીની કેવી દશા થતી ક્રુશે, એ વાત તે તે નારણે જ જાણુના હશે અથવા કેવળી ભગવાને लघुता इथे. ॥॥ शब्दार्थ-'देसि च गले - केषांचित् गले' टेवा नार5 ते गांभां 'सिलाओ धित्तु - शिलाः बदुवा' शिक्षाओ गांधीने 'महालयंसि उदसि - 'महालये उसके' अगाव पालीमा 'बोलंति - ब्रोडयन्ति' डुमाउ छे तथा 'तत्थ अन्ने - तत्रान्ये' गीत परमधार्मि है। तेमने त्यांथी येथीने 'कलंबु प्रावालुयसुम्मुरे य ठोलंति-कलंबु कावालुकायां मुर्मुरे च लोलयन्ति' अत्यंत तथैसी इंतीभां તેમજ મુમુ રાગ્નિમાં અર્થાત્ ધુમાડા વિનાના અગાગ્નિમાં આમતેમ ફેરવે ..242 75fa-7afa' i. 1129011 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "समयादोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् .. - ३५१ , अन्वयार्थः--(केसिं च गले) केषांचित् गले कण्ठे (सिलाओ बंधित्तु) शिला प्रस्तरखण्डान् वद्ध्वा (महालयसि उदगंसि) महालये उदकेऽतिगंभीरजले (वोलंति) ब्रोडयन्ति निमजयन्ति तथा (तत्य अन्ने) तत्रान्ये नरकपालाः ततः समा. कृष्य (कलंबु यावालुयमुम्मुरे य लोलंति) कलबुवालुकायां मुमुरे च लोलयन्ति-अति तप्तवालुकायां चमझानिव भर्जयन्ति तथा (पच्चंति) पचन्ति-मांसपेशीवत् ॥१०॥ टीमा--'केसिं च' केषां च नारकीणाम् 'गले' गले-कण्ठे 'सिलामो' । शिलाः महाभारयुक्ताः 'वधित्तु' बद्ध्वा 'महालयंसि' महालये अगाधे । 'उद्गति' उद के-वैतरिणीजले 'बोलंचि' ब्रोड यन्ति मज्जयन्ति । तथा-'तस्थ' तत्र 'अन्ने' अन्ये पुरुषाः परमापार्मिकाः। 'कलंबु के त्यादि । 'कलंगवाल्यमुम्हरे २ कलंबु. कावालुकमुमुरे च-अतिसंवतवालुकायां यथा चणकानि लोलयन्ति कोटयन्ति तथा पच्चंति' पच्यन्ते मांशपेशीरत् अर्जयन्ति, परमाधार्मिक स्वस्त्र कर्मणा केचन जले पात्यन्ते, केचन भ्राष्टे भनिता भवन्ति, अपरे पुन: 'पाचिंता भव. न्तीति भावार्थः । १०॥ अन्वयार्थ--किन्हीं-किन्ही नारकों के गले में शिलाएँ बाँधकर अत्यन्त गहरे जल में डुया देते हैं। दूसरे नरकपाल उसमें से खींचकर कदंबयालुका में चनों की तरह भूनते हैं तथा मांशपेशी के समान पकाते हैं ॥१०॥ . ____टीकार्थ--कोई कोई नरकपाल किन्हीं किन्हीं नारकों के गले में भारी बोझ से युक्त शिलाएं बांधकर वैतरणी के अगाध जल में डया देते हैं। दूसरे नरकपाल कलंयुकायालुका-तपी हुइ रेत मे चनों की तरह भूनते हैं और मांशपेशी के समान पकाते हैं । आशय यह है कि સૂત્રાર્થ–કઈ કઈ નારકના ગળામાં શિલાઓ બાંધીને તેમને અત્યંત - ઊંડા પાણીમાં ડુબાવી દેવામાં આવે છે. અન્ય નરકપાલે તેમને પાણીમાંથી બહાર ખેંચી કાઢીને ચણા અને પૌંવાની જેમ આગ પર શેકે છે તથા તેમના શરીરને માંસની જેમ દેવતા પર પકાવે છે. શાળા ટીકાઈ-કઈ કઈ પરમાધાર્મિક દે નારકેના ગળામાં ભારે શિલાઓ બાંધીને તેમને વૈતરણી નદીના અગાધ પાણીમાં ડુબાવી દે છે. ત્યારે બીજા પરમાધાર્મિકે તેમને દેવતા પર ચણા, પૌંવાની જેમ શકે છે, અને કઈ કઈ પરમધામિકે માંસપેશીઓની જેમ તેમને અગ્નિ પર પકાવે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે પરમધાર્મિક દે નારકેને, તેમના Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मूलम्-असूरियं नाम सहामितावं अंधं तमं दुप्पत महतं । उडूं अहेअंतिरियं दिलासु सलाहिओ जत्थगणी झियाई।११॥ छाया-अमूर्य नाम महाभिनाय मन्धन्तमो दुरुपतरं महान्तम् । ___अर्ध्वमस्तिर्यग् दिशा स्पादितो यत्रानिः ध्मायते ।।१।। अन्वयार्थः-(अमूरियं नाम) अमूर्य नाम-यत्र स्यों नास्ति (महाभिना) महाभिताप-महातापयुक्तं (अं तमं दुप्पत महत) अधं तमो दुष्पतरं महान्तम् परमातानिक देव नारकों के कर्मों के अनुत्तार ही किसी को जल में गिराते हैं, किसी को भाड में भूनते हैं और किसी को आग में पकाते हैं ।।१०।। शब्दार्थ- 'अभूरियं बाल-अस्र्य नाम' जिम में सूर्य नहीं है महाभितावं-महालितापं और जो महात् ताप से युक्त है 'अंधं तमं दुप्पतरं महंत-अन्धं तमो दुष्पतरं महान्त' तथा जो भयंकर अंधकार से युक्त एवं दुःख से पार करने योग्य और महान है 'जत्थ-यत्र' जहाँ जिस नरकावास में 'उड्डू-ऊर्ध्वम्' पर 'अहे-अध' नीचे तिरियंतिर्यक् तथा तिरछी 'दिसासु-दिशास्लु' दिशाओं में समाहिया-समाहितः सम्यक् प्रकार से व्यवस्थापित अगणी-अग्नि:' अग्नि 'जियाईध्मायते' जलती रहती है ॥११॥ ___ अन्वयार्थ--जहां सूर्य नहीं है, जो घोर संताप से युक्त है, अन्ध. कारमय है, दुस्तर है और महान है तथा जहां ऊपर, नीचे और तिर्ण કમ અનુસાર જ શિક્ષા કરે છે. તે શિક્ષા રૂપે કેઈને પાણીમાં ડુબાવવામાં આવે છે, તે કેઈને ભઠ્ઠીમાં ચણાની જેમ શેવામાં આવે છે, તો કોઈને આગ પર માંસની જેમ પકાવવામાં આવે છે જેના शाय-'मसूरिय' नाम-असूर्य नम' मा सूर्य न जाय तभ०४ २ 'महाभिताव-महाभिनापम्' महान् त हाय छ, तथा 'अंधं तमं दुप्पतरं महंत-अंध तमो दुष्प्रतरं महान्तम्' तयारे मय ४२ मेवा मधाराथा युत तेमन मधी पार पाभवा योग्य भने महान् छे, ''जत्थ -यत्र'रे २४पासमा 'उडूढं-ऊर्ध्वम्' १५२ 'अहे-अध' नीये 'तिरिय-तिर्यक' तथा तिरछी दिलासु-विशासु' हिशासमा 'समाहिया- समाहितः' सारी शते २५ वाभा मावस 'अगणी-अग्निः' मनि 'झियाई -मायते' माती २ छ ॥११॥ સૂવાર્થ-જ્યાં સૂર્યનાં દર્શન પણ થતા નથી. જે ઘર સંતાપથી યુક્ત છે, જે અંધકારમય છે, જે દુસ્તર અને મહાન છે, તથા જેની ઉપર, નીચે Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र श्र, अ. ५ उ.१ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३५३ (जत्थ) यत्र नरकावासे (उड़) कचे (अहे) अधः (तिरियं) तिर्यक् (दिसासु) दिशासु (समाहिओ) समाहितः-सम्यग् व्यवस्थापितः (अगणी) अमिः (झियाई) ध्मायते, एतादृशे नरके नारका व्रजन्तीति ॥११॥ टीका-'अमूरियं नाम' अमूर्य नाम, न विद्यते सूर्यो यस्मिन् सः - अस्यों नरको निविडान्धकारयुक्तः । कुमिमकाकृतिरिति निष्कर्षः । यद्यपि सर्व एव नरकाः सूर्यप्रकाशविरहिता एव भवन्ति तथापि 'महाभिता' महाभितापं-महता तापेन युतम् , सूर्याभावेपि क्षेत्रस्वभावात् 'अंधं तमं अन्धतमसमतिशयान्धकारयुक्त 'दुप्पतरं महंत' दुष्पतरं महान्तम् दुःखेन तत्तुं योग्यम् , तथा एर्वभूतं नरकं क्रूर कर्माणः स्वपापोदयाद् गच्छति । 'जत्थ- यत्र' 'उडूं अहेअं तिरियं दिसामु ऊर्व मधस्तिर्यदिशासु-उपरि नीचैः तिर्यगिति तिसृषु दिक्षु 'समाहिओ' समाहितः सम्यग व्यवस्थापितः 'गणी' अग्निः 'झियाई' ध्मायते अर्धाधस्तियक्ष दिक्षु यत्र जाज्वल्यमानो ज्वलिताग्निः प्रज्वलति तत्र पापिजनाः वजन्तीति भावः ॥११॥ दिशाओं में अग्नि प्रज्वलित रहती है, ऐसे नरक में पापी पाणी उत्पन्न होते हैं ॥११॥ टीकार्थ--जहां सूर्य का अभाव है ऐसा असूर्य नामक एक नरक है जो कुंभिका की आकृति का है । यद्यपि सभी नरक सूर्य के प्रकाश से रहित ही है तथापि वे घोर ताप से युक्त हैं क्यों कि सूर्य के अभाव में भी ताप होना उस क्षेत्र का स्वभाव है । वह नरक निविड़ (भयंकर) अन्धकार से युक्त है, दुस्तर है और महात् है । वहां ऊपर, नीचे तथा तिर्यक दिशाओं में सम्यक प्रकार से व्यवस्थापित अग्नि जलती रहती है। ऐसे नरक में पापीजन पडते हैं ॥११॥ અને તિરકસ દિશાઓમાં અગ્નિ પ્રજવલિત રહે છે, એવી નરકમાં પાપી જે ઉત્પન્ન થાય છે. ૧૧ ટીકાઈ–અસૂર્ય નામના એક નરકને આકાર કુંભિકા જેવો છે. તેમાં સૂર્યને અભાવ છે. જે કે બધા નરકે સૂર્યના પ્રકાશથી રહિત છે, છતાં પણ તે નરકો ઘેર તાપથી યુક્ત છે, કારણ કે સૂર્યના અભાવમાં પણ તે ક્ષેત્રમાં તાપને સદૂભાવ રહે છે. તે ક્ષેત્રનો એવો સ્વભાવ (લક્ષણ) જ છે. તે નરક ઘેર અંધકારથી યુક્ત છે. વળી તે દસ્તર અને મહાન છે. તેમાં ઊંચે, નીચે અને તિર્યમ્ દિશાઓમાં વ્યવસ્થિત- (ગેહવાયેલો) અગ્નિ સતત બળતો જ રહે છે. પાપી લેકે એવા નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે. ૧૧ सु० ४५ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूत्रकृतागसूत्र मूकम्-जली गुहाए जलणे तिउट्टे अविजाणो डडझाइ लुत्पपणो। सया य कलणं पुणं धम्मठाणं माढोवणीयं अतिदुक्खधम्म।१२। छाया-यस्मिन् गुहायां ज्वलनेऽतिवृत्तोऽविजानन् दखते लुप्तप्रज्ञः । सदा च करुणं पुनधर्मस्थान गाढोपनीतमतिदुःखधर्मम् ॥१२॥ अन्वयार्थः-(जसि) यस्मिन् (गुहाए) गुहायां-गुफाकारे (जलणे) ज्वलने वहौ(अतिउद्दे) अतिवृत्तः-अतिगतः स्वकृतदुष्कृतम् (अविजाणओ) अविजानन् (लुत्तपण्णो) लुप्तप्रज्ञा-अपगतावधिविवेको नारकः (डज्य) दह्यते (सया य) सदा सर्व __ शब्दार्थ-'सि-यस्मिन्' जिल नरक में 'गुहाए-गुहायाम्' गुफा के आकार के समान 'जलणे-ज्वलने' अग्नि में 'अतिउद्दे-अतिवृत्तः संता. पित वह स्वकृत दुष्कृत्य को 'अचिजाणओ-अविजानन्' न जानता हुआ 'लुत्तपण्णो-लुप्तप्रज्ञा' संज्ञारहित होकर 'डज्ज्ञा-दह्यते' जलता रहता है और 'सया य-सदा च' सर्वकाल 'कलुण-करुणम्' दीन 'पुणधम्मठाणंपुनर्घर्मस्थानम्' तथा संपूर्ण ताप का स्थान 'गाढोवणीयं-गाढोपनीतम्' जो पापीजीव को बलात्कार से प्राप्त होता है 'अतिदुक्खधम्म-अतिदुःखधर्मम्' एवं अत्यन्त दुःख देना ही जिसका स्वभाव है ऐसे स्थान में नारकजीव जाते हैं ॥१२॥ अन्वयार्थ--नरक में गया हुआ कोई कोई नारक गुफा अर्थात् उष्टिका के आकार वाले नरक में डाल दिया जाता है। वहां अग्नि में पड़कर वह अपने पाप को न जानता हुआ एवं नष्टप्रज्ञ होकर जलता शहा-'जसि-यस्मिन्' २ न२४मा 'गुहाए-गुहायाम्' शुशना मा२ २वा 'जलणे-ज्वलने' निभा 'अतिउट्टे-अतिवृत्तः' सता५ पामेला ते पाते ४२॥ त्याने 'अविजाण ओ-प्रविजानन्' तया विना भने 'लुत्तपण्णे-लुप्तप्रज्ञः' शाविनानी ने 'डज्झइ-दह्यते' मणते २९ छे. 'सया य-सदा च' सब 'कलुण-करुणम्' हीनतान: 'पुणघम्मट्ठाणं-पुनर्घमस्थानम्' तथा स शत तापर्नु स्थान 'गाढोवणीयं-गाढोपनीतम्' २ ना२४ २ माथी प्राप्त याय छे, तेभर 'अतिदुक्खधम्म-अतिदुःखधर्मम्' सत्यत:५ ५मा मेर જેને રવભાવ છે એવા સ્થાનમાં નારક જી જાય છે. ૧૨ા સૂત્રાર્થ–નરકમાં ગયેલાં કઈ કઈ નારકને ગુફા–એટલે કે ઉષ્ટ્રિકાના આકારના નરકમાં હડસેલી દેવામાં આવે છે. ત્યાં તે અગ્નિમાં પડો પડયો દારુણ પીડાને અનુભવ કર્યા કરે છે. તેને એ વાતનું ભાન પણ હોતું નથી Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अं. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३५५ काले च (कलुणं) करुणं-दीनं (पुण घमठाणं) पुनर्धर्मस्थानं तापस्थानम् (माढो. वणीय) गाढोपनीतं गाढमत्यर्थमुपनीत हौकितम् (अतिदुक्खधम्म) अतिदुःखधर्मम् अतिदुःखरूपो धर्मः स्वभावो यस्मिन् ताशं स्थानं नारका वजन्तीति ॥१२॥ ___टीका-जंसि' यस्मिन्नरके 'गुहाए' गुहायाम् , उष्ट्रिकाकारायाम् , 'जलने' ज्वलने-प्रदीप्ताग्नौ 'अतिउट्टे' अतिवृत्तः वलात् संताप्यमानः, संज्ञाविरहितत्वात स्वकीयं दुष्कर्म 'अविनाणओ' अविजानन् , तथा 'लुत्तपणो'लुप्तप्रज्ञः अपगतावधिविवेकः 'डज्झई दह्यते-दंदह्यते 'सया य' सदा च यत् 'कलुणं' करुणम् , करुणाजनकं 'धम्मठाणं' धर्मस्थान-उष्णतातितप्तं स्थानम् । 'गाढोवणीयं' गाढोपनीतम् , गाढमतिशयेन प्राणातिपातादिघोरकर्मणा उपनीतं प्राप्तम् , दुष्कृतकर्मकारिणां यत्स्थानम् । 'अतिदुक्खधम्म' अतिदुःखधर्मम् , अतिशयेन दुःखस्वरूपो धर्मः स्वभावो यस्मिन् एतादृशं नरकस्थानम् अतिक्रूरकर्मकारिणस्ते गच्छन्ति। है। नरक की भूमि कारुणिक है, ताप का स्थान हैं और अत्यन्त ही दुःखप्रद है । नारक जीव ऐसे स्थान को प्राप्त होते हैं ॥१२॥ टीकार्थ--नरक में गया नारकजीव उष्ट्रिका के आकार की गुफा में, प्रदीप्त आग में, जबर्दस्ती जलाया जाता है । संज्ञाहीन हो जाने के कारण वह अपने पापकर्म को नहीं जानता। उसका अवधिविवेक भी लुप्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में वह जलता है । नरकस्थान सदैव दुःख का स्थान है, अतीव उष्णता से तस बना रहता है और प्राणातिपात आदि घोर दुष्कृत्य से प्राप्त होता है। वह अतिशय दुःखरूप કે પિતે કયા પાપનું ફળ ભોગવી રહ્યો છે. તેની પ્રજ્ઞા લગભગ નષ્ટ થઈ ચુકી હોય છે. નરકની ભૂમિ કારુણિક છે, તાપનું સ્થાન છે અને અપાર દુખપ્રદ છે. પાપી છ–નરકગતિને ચગ્ય છે-એવા નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે પાવર ટીકાર્થનરકમાં ઉત્પન્ન થયેલા નારક જીવને ઉષ્ટ્રિકાના આકારની ગુફામાં, પ્રદીપ્ત આગમાં બળજબરીથી બાળવામાં આવે છે. સંજ્ઞાહીન થઈ જવાને કારણે તે પિતાના પાપકર્મને જાણતા નથી. તેને અવધિવિવેક પણ લુપ્ત થઈ જાય છે આ પ્રકારની સ્થિતિમાં તે અગ્નિજનિત દાહનો અનુભવ કર્યા કરે છે. આ રીતે નરકસ્થાન સદા દુઃખનું જ સ્થાન છે. તે રસ્થાન અપાર ઉષ્ણતાથી સંતપ્ત જ રહેતું હોય છે, પ્રાણાતિપાત આદિ ઘેર દુષ્કૃત્ય કરનારા છ જ ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે. તે સ્થાનમાં ઉત્પન્ન થનારા એક ક્ષણ ५ ममाया भुति भी शत नथी. ४ ५५ छ -'अच्छिणिमीलण मेत्त' Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ तत्र न क्षणिकोऽपि कालो दुःखात् विश्रामस्य । उक्तं च'अच्छिणिमीण पत्थि सुहं दुक्खमेव पडिवद्धं । णिरये णेरइयाणं अहोणिसं पचमाणाणं ॥ १ ॥ ' छाया - अक्षिनिमीलनमात्रं नास्ति सुखं दुःखमेत्र प्रतिवद्धम् । निरये नैरयिकाणामहर्निश पच्यमानानाम् ॥ १॥ १२॥ मूलम् - चत्तारि अगणीओ समारभित्ता सुत्रकृतागसूत्रे जहिं कूरकम्माऽभिंतर्विति बॉलं । ते तत्थ चितेऽतिंष्यमाणा मच्छीव जीव तुवजोडपत्ता ॥ १३ ॥ छाया - चतुरोऽग्नीन् समारभ्य यस्मिन् क्रूरकर्माणोऽभितापयन्ति वालम् । ते तत्र तिष्ठन्त्यभितप्यमाना मत्स्या इव जीवन्त उपज्योतिः प्राप्ताः ॥ १३॥ स्थान है और क्रूर कर्म करने वाले वहाँ उत्पन्न होते हैं। वहाँ एक क्षण भी दुःख से विश्राम नहीं मिलता। कहा भी है- 'अच्छिणि मोलणमेत्तं' इत्यादि । रातदिन पचने वाले पीडा का भोग करने वाले नारकियों को नरक में पल भर भी सुख प्राप्त नहीं होता। वे निरन्तर दुःख ही दुःख भोगते रहते हैं ॥१२॥ शब्दार्थ- 'जहि यत्र' जिस नरक भूमि में 'क्रूरकम्मा - क्रूरकर्माणः क्रूर कर्म करनेवाले परमाधार्मिक 'बत्तारि अगणीओ समारभत्ता - चतुरः अग्नीन् समारभ्य' चारों दिशाओं में चार अग्नियां प्रज्वलित करके 'बाल - बालम्' अज्ञानी नारकी जीव को 'अभितविधि-अभितापयन्ति' तपाते हैं 'ते-ते' वे नारकी जीव 'जीरं तुवजो इपत्ता - जीवन्त उपज्योतिः રાતદિન જેમને અગ્નિ પર પકાવવામાં આવે છે એવા નારક જીવાને સતત પીડાને જ અનુભવ કરવે પડે છે. તેમને ક્ષણનું સુખ પણ મળતું નથી. તે તે ત્યાં નિરન્તર દુઃખના જ અનુભવ કર્યાં કરે છે.’ ૫૧૨૫ शब्दार्थ –'जहिं-यत्र' ? नारउलूभिभां 'कूरकम्मा - क्रूरकर्माणः' २ शुभ उरवावाणा परभाधार्मिष्ठा 'चत्तारि अगणीओ समारभित्ता - चतुरः- अग्नीन् समारभ्य यारे दिशाओ मां यार अग्निशो अगर वरीने 'घालं' - बालम्' याज्ञानी नारी छत्रने 'अभितविति - अभितापयन्ति' तथावे छे. 'ते-वे' मेवा नारी छ। 'जीवंतुबजोइपत्ता - जीवन्त उपज्योतिः प्राप्ताः' अग्निनी सभीय न्यारेस Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्थवोधिनी टीका प्र. थु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदना निरूपणम् ३५७ अन्वयार्थः - ( जहिं ) यत्र नरके (कूरकरमा) क्रूरकर्माणः परमधार्मिकाः (चत्तारि अगणीओ समारभित्ता) चतसृपु दिशासु चतुरोऽग्नीन् समारभ्य प्रज्वाल्य (बाल) बालमज्ञानिनारकजीवम् (अभितविति) अभितापर्यंत - ज्वालयन्ति (ते) ते नारकाः ( जीवंतुवजोइपत्ता मच्छा व ) जीवन्त उपज्योतिः अग्निसमीपं प्राप्ताः मत्स्या इव (अभितप्पमाणा) अभितप्यमानाः तापं सहमानाः (तत्थ चिद्वंत) तत्रैव तिष्ठन्तीति ॥१३॥ टीका- 'जहिं' यस्मिन् नरकावासे 'क्रूरकम्मा' क्रूरकर्माणः परमधार्मिकाः 'चत्तारि ' चतसृपु दिशासु- पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणरूपासु चतुरः 'अगणीओ' अग्नीन 'समारभित्ता' समारभ्य - प्रज्वालय 'वाल' वाले दुष्कृतकारिणम् = महारंभ महापरिग्रहादिकारिणं पञ्चेन्द्रियघातकं मांसभक्षकं च ' अमितविति' अभितापयन्तिप्राप्ताः' अग्नि के पास प्राप्त जीती हुई मछली के समान 'अभितप्पमाणा - अभितप्यमानाः' ताप से तप्स होते हुए 'तत्थ चिड़ंत - तत्र तिष्ठन्ति' वहां उसी नरक स्थान में रहते हैं ॥ १३ ॥ अन्वयार्थ - नरक मैं क्रूर कर्मा परमधार्मिक चारों दिशाओं में चार अग्नियाँ जलाकर उस वाल जीव (नारक) को जलाते हैं । अग्नि के सम्पर्क से वे जीवित रहते हुए उसी प्रकार उस ताप को सहन करते रहते हैं जैसे जीवित मछली ॥१३॥ टीकार्थ -- जिस नरकावास में क्रूरकर्म करने वाले परमधार्मिक देवता पूर्व पश्चिम उत्तर और दक्षिण रूप चोरों दिशाओं में चार अग्नियॉ जलाते हैं और उस महारंभ महापरिग्रह पंचेन्द्रिय घात मीस भक्षण आदि महादुष्कृत करने वाले अज्ञानी नारक को तपाते हैं । वे शक्ती भाछीनी प्रेम ' अभितप्यमाणा - अभितप्यमाना' तायथी तपता થકા 'तत्थ चिद्वैत -तत्र तिष्ठन्ति' त्यां मे४ नरस्थानमा रहे छे. ॥१॥ સુત્રા-નરકમાં ક્રૂર પરમાધાર્મિક દેવે ચારે દિશાઓમાં ચાર અગ્નિએ પ્રગટાવીને તેમાં તે ખાલવેને (અજ્ઞાન જીવાને-નારકેાને) ખાળે છે, અગ્નિમાં મળવા છતાં તેએ મૃત્યુ પામતા નથી, પણ જીવિત રહીને જીવતી માછલીની જેમ તરફડતાં તરફડનાં તે તાપને સહન કરે છે. ૧૩ ટીકા”—તે નકાવાસમાં ક્રૂર કર્યાં કરનારા પરમાધાર્મિક દેવતાએ પૂર્વ, પશ્ચિમ, ઉત્તર અને દક્ષિણુ રૂપ ચારે દિશાઓમાં ચાર અગ્નિએ પ્રજવલિત કરે છે, અને બહાર ભ, મહાપરિગ્રહ, પંચેન્દ્રિયઘાત,માંસભક્ષણ આદિ મહાદુષ્કૃત્ય કરનારા અજ્ઞાની નારકાને તેમાં ખાળે છે, તે નારકે સાં Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ सूचकतामसूत्र पीडयन्ति ते परमाधार्मिकाः दशविधक्षेत्रवेदनाभिः 'तत्थ तत्र-नरकावासे परमाधार्मिकः 'अभितप्पमाणा' अभि सर्वतः तप्यमानाः 'जीवंतुवजोइपत्ता' जीवन्त एव उपयोतिः अग्निसमीपं प्राप्ताः 'मच्छा व मत्स्या इव 'चिटुंत' तत्रैव तिष्ठन्ति । यथा-जीवन्त एव मत्स्याः , अग्निसमीपं प्राप्ताः, तादृशतापेन संतप्यमानाः परवशत्वात् नाऽन्यत्र गच्छन्ति किन्तु तत्रैव तिष्ठन्ति, तथा इमे जीवा अपि नरकावासं प्राप्ताः, तत्र तत्रत्यपरमाधार्मिकः वहिना तातप्यमाना अपि तत्रैव परमदुःखेन लुठन्ति । न तत्स्थान हित्वाऽन्यत्रोपगन्तुं शक्यन्ते, इति ॥१३॥ मूलम्-संतच्छणं नाम महाहितावं ते नारया जत्थ असाहकम्मा। हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं फैलगं व तच्छंति कुहाडहत्था॥१४॥ छाया-संतक्षणं नाम महाभिताप तान् नारकान् यत्र असाधुकर्माणः । हस्तैश्च पादैश्च बद्ध्वा फलकमिव तक्ष्णुवन्ति कुठारहस्ताः ॥१४॥ नारक वहां दस प्रकार की क्षेत्रवेदना से बुरी तरह संतप्त होते रहते हैं। वे जीवित रहते हुए अग्नि के समीप मछलियों की भांति संताप का अनुभव करते हुए वहीं स्थित रहते हैं। जैसे जीती हुई मछलियां अग्नि का सान्निध्य पाकर दुस्सह ताप से तप्त होती हुई भी पराधीन होने से अन्यत्र नहीं जाती-वहीं रहती हैं, उसी प्रकार ये जीव नरकावास को प्राप्त होकर, परमाधार्मिको द्वारा तपाये जाते हुए भी घोर दुःखपूर्वक वहीं तडफडते रहते हैं। वे उस स्थान को त्यागकर अन्यत्र नहीं जा सकते ॥१३॥ દસ પ્રકારની ક્ષેત્રવેદનાને ખરાબમાં ખરાબ રીતે અનુભવ કર્યા કરે છે. તેઓ જીવિત રહેવા છતાં પણ અગ્નિની સમીપમાં રહેલી જીવતી માછલીની જેમ ત્યાં જ રહીને તે સંતાપને અનુભવ કર્યા કરે છે. જેવી રીતે પરાધીન દશામાં રહેલી માછલીઓ અગ્નિની સમીપમાં રહીને દસહ તાપને અનુભવ કરવા છતાં પણ ત્યાંથી દૂર જઈ શકતી નથીમાછલીને જ્યારે જીવતી પકાવવામાં આવે છે, ત્યારે તે પરાધીન હોવાને કારણે અગ્નિથી દૂર નાસી શકતી નથી. એ જ પ્રમાણે પરમધામિક દે દ્વારા આગમાં બાળવામાં આવવા છતાં પણ તે નારકે ત્યાંથી ભાગી શકતા નથી. તેમને પરાધીનતાને કારણે દારુણ દુઃખ સહન કરવું જ પડે છે. ૧૩ - Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ.१ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३५९ अन्वयार्थः-(महाहितावं) महाभितापं (सतंच्छणं नाम) संतक्षणं नाम नरको विद्यते (जत्थ) यत्र यस्मिन् नरके (असाहुकम्मा) असाधुकर्माणः' (कुहाडहत्था) कुठारहस्ताः कुठारं हस्ते कृत्वा (ते नारया) तान् नारकान् (हत्थेहिं पाएहिं य बंधिऊणं) हस्तः पादैश्च बद्ध्वा (फलगंव) फलकं काष्ठमिव (तच्छंति) तक्ष्णुवन्ति-कर्तयन्तीति ॥१४॥ टीका-'महाहितावं' महाभितापम् , महादुखोत्पादकं 'संतच्छणं नाम' संतक्षणं नाम नरकस्थानं संभाव्यते । 'जत्थ' यत्र नरके 'असाहुकम्मा' असाधुकर्माणो निरनुकम्पाः परमाधामिकाः 'कुहाडहत्था' कुठारहस्ताः सन्तः ते नारया शब्दार्थ--'महाहिता-महाभितापम्' महान् संताप देने वाला 'संतच्छणं नाम-संतक्षणं नाम' संतक्षण नामक नरक है 'जत्थ-यत्र' जिस नरक में 'असाहुकम्मा-असाधुकर्माणः' पापकर्म करने वाला 'कुहाडहत्या-कुठारहस्ताः' हाथ में कुहाडा लिये हुए 'ते नारया-तान् नारकान्' उन नारकों को 'हत्थेहिं पाएहि य बंधिऊणं-हस्तैः पादैश्च बद्ध्या ' नारकी जीवों के हाथ और पैर बांधकर 'फलगं व-फलकमिव' काष्ठ की तरह तच्छंति-तक्ष्णुवन्ति' काटते हैं ॥१४॥ अन्वयार्थ अत्यन्त संताप देने वाला संतक्षण नामक नरक है। उसमें परमाधार्मिक हाथ में कुठार लेकर नारकों के हाथ और पैर बांधकर उन्हें काष्ठ की तरह काटते हैं ॥१४॥ टीकार्थ--वहां संतक्षण नामक नरक है जो महान् दुःखजनक है। उस नरक में असाधुकर्मा परमाधार्मिक दयाहीन होकर नारकों के हाथ Avat:--'महाहिताव-महाभितापम्' महान संता५ हेवावाणा 'संतच्छणं नाम-नक्षणं नाम' तक्षय नामनु न२४ छे. 'जत्थ-यत्र'२ न२४मा 'असाहकम्मा-असाधुकर्माण.' ५५४ ४२वावाणा 'कुहाडहत्था-कुठारहस्ताः' डायमां ही ते नारया-तान् नारकान्' ते ना२३ने 'हत्थेहिं पाएहिं य बंधिऊणंइस्तैः पादै च बवा' ना२ ७वाना ७५ भने ५ मांधार 'फलगवफल कमिव' alनी म 'तच्छंति-तक्ष्णुवन्ति' ये छे. ॥१४॥ સૂત્રાર્થ–સંતક્ષણ નામનું એક અતિશય દુખપ્રદ નરકસ્થાન છે. તે નરકમાં ઉત્પન્ન થયેલા નારકોના હાથપગ બાંધીને, પરમાધામિકે તેમને કુહાડી વડે કાષ્ઠની જેમ કાપે છે. ૧૪ ટીકાઈ–હવે સૂત્રકાર સંતક્ષણ નામના નરક સ્થાનની વાત કરે છે. તે સંતક્ષણ નરકમાં જે નારકે ઉત્પન્ન થાય છે, તેમને અંગછેદનની પીડા Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० - -सूत्रकृतासूत्रे तान् नारकजीवान् हत्थेहिं पाएहि व बंधिणं हस्तैश्च पादैश्च बन्धयित्वा 'फलग व' फलकभिव, काष्ठपट्टखण्डमिन 'तच्छंति' तक्ष्णुवन्ति छिन्दन्ति-छोलंतीति भाषायामित्यर्थः ॥१४॥ मूलम्--हिरे पुणोञ्चलमुस्लिरंगे भिन्नुत्तरंगे परिवत्तपता। पयंतिण गैरइए फुरले सजीवसच्छा अयोकबहे॥१५॥ छाया-रुधिरे पुनर्वच समुच्छ्रिनांगान् विनोत्तमांगान् परिवर्तयन्तः । पवन्ति खलु नैरयिकान् स्फुरल सजीवमत्स्यानिशाऽयकवल्यामा।१५।। अन्वयार्थ:-(पुगो) पुनः (रुहिरे) नारकिजीवरुन रुधिरे पचन्ति । (बच्चसमुस्मिअंगे' वर्चःसमुच्छ्रिनांगान-मलपूरितशरीरान् (भिन्नुत्तमंगे) मिलोत्तमांगान् पैर बांध देते हैं और हाथ में कुठार लेकर काठ की तरह उन्हें काटते हैं या छीलते हैं ॥१४॥ शब्दार्थ---'पुणो-पुनः' तदन्तर लरक्षपाल 'सहिरे-रुधिरे' नारक जीव के रूधिर में 'बच्चसमुस्लिअंगे-बर्चसमुच्छितांगान्' बल के धारा जिनका शरीर फूल गया है तथा भिन्नुत्तमंगे-भिन्मोत्तमांगात् । जिनका मस्तक गित कर दिशश है 'फुरते-फुरन्त:' पीड़ा के मारे जो इधर उधर छटपटा रहे हैं 'णे.इए-नारकान्' ऐले नारकि जीवों को 'परिवसयंता-परिचर्स यन्तः नीचे ऊपर उलट पलट करते हुए 'लजीघमच्छेव-लजीवमत्स्यानिक' जीचित मछली के जैले 'अयोगवल्लेअयाकवल्या' लोह की कढ़ाही में 'पयंति-पचन्ति' पकाते हैं ॥१५॥ अन्वयार्थ.-पुनः परमाधार्मिक, नारक जीवों को उन्हीके रुधिर में पकाते हैं। उनका शरीर मल से परिपूर्ण हो कर फूल जाता है, मस्तक चूरा चूरा ડિપી પડે છે. ત્યાં જે કૂર પરમધાર્મિક દેવે હોય છે, તેઓ તેમને હાથપગ બાંધીને કુહાડી વડે તેમનાં અંગેનું કાષ્ઠની જેમ છેદન કરે છે. ૧૪ शा-'पुणो-जुन' तहत२ न२३५७ 'रुहिरे-रुधिरे' ना२४ 04 सोडीमा 'वच्चसमुस्सिअंगे-वर्ष समुच्छिनांगान्' भणथी भनु शरी२ यूसी आयु छे त 'भिन्नुत्तमंगे-भिन्नोत्तमांगान्' भनु भाथु यूणित ४श धस छ 'फुरते-स्फुरन्तः' हुन भने पीना भाटेरे भीतही त२५३॥ २७ छ, 'णेरइए-नारकान्' सेवा नावाने 'परिवत्तयंतापरिवर्तयन्तः' नाय 6५२ Saट ५८ ४२i 'सजीवमच्छेव-सजीवमत्स्यानिव' ती भाछवीनी रेभ 'अयोकवल्ले-अयाकवल्या' सोमनी ' 'पयंति-पचन्ति' ५४ावे छे. ॥१५॥ . . . . Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदना निरुपणम् ३६१ - चूर्णितशिरस्कान (फुरंते) स्फुरतः - इतस्ततश्चलतः- (नेरइए), नैरविकान् (परिवत्तयंता) परिवर्तयन्तः (सजीवमच्छेत्र ) सजीवमत्स्यानिव ( अयोकवल्ले), अय:कवल्यां - लोहाडे (पति) पचन्तीति ॥ १५ ॥ टीका - 'पुणे' पुनस्ते परमाधार्मिकाः 'रुहिरे' रुधिरे, नारकीय जीवानां शस्त्रघातेन निरुधिरान् 'वच्चसमुसिअंगे' वर्चःसमुच्छ्रितांगान्-वर्चःमधानानिसमुच्छ्रितानि अंत्राणि अंगानि वा येषां तान् भल्लाघातेन निस्सृतांत्रान् भिन्नुत्तमंगे' भिन्नोत्तमाङ्गान्, भिन्नानि प्रस्फुटितानि उत्तमांगानि शिरांसि येषां ते तथाविधान् दण्डमहारेण प्रस्फुटितमस्तकान् 'फुरंते' स्फुरतः, इतस्ततश्चलतः 'णेरइए 'नैरयिकान्' नारकिजीवान् 'परिचयंता' परिवर्तयन्तः इतस्ततो लोठयन्तः 'अयो कल्चें' अयःकवल्याम्, लौहनिर्मित कटाहे । 'संजीवमच्छेत्र' सजीवमत्स्यानिव 'पयंति' पचन्ति । लोहकटाहे क्षिप्त्वा इतस्ततः तान् नारकजीवान् परिभ्रामयन् ते परमधार्मिकाः पचन्तीति ॥१५॥ र हो जाता हैं, वे फडफडते तरफरते रहते हैं। नरकपाल उन्हें इधर उधर पलटते हुए सजीव मत्स्यों की तरह लोहे की कढाई में पकाते हैं ॥ १५ ॥ टीकार्थ - - परमधार्मिक शस्त्रों का आघात करके नारक जीवों के शरीर में से रुधिर निकालते हैं। उनके अंग अथवा आंते मल के द्वारा सूज जाती हैं । डण्डों के प्रहार से उनके मस्तक फूट जाते हैं । वे फडफड़ाते रहते हैं । उनको इधर उधर पलटते हुए लोहे की कढाई में सजीव मयों की भांति पकाते हैं । उन नारकों को लोहे की कढाई में डालकर इधर उधर उलट पलट केरके परमाधार्मिक देव उन्हीं के रुधिर में उन्हें पकाते हैं ||१५|| સૂત્રાવળી પરમાધામિ કા નારક જીવાને પોતાના રુધિરમાં પકાવે છે. તેમનુ શરીર મળથી પિરપૂણુ થઇ ફૂલી જાય છે અને મસ્તકના ચૂરે ચૂરા થઇ જાય છે. જેવી રીતે જીવતી માછલીઓને લે ઢાના તાવડામાં તાવેથા વડે આમતેમ ફેરવી ફેરવીને પકાવવામાં આવે છે, એજ પ્રમાણે નારકેાને પણ પકાવવામાં આવે છે. ત્યારે તે પરાધીન નારા તરફડિયાં માર્યા કરે છે. પા પરમાધાર્મિ ક દેવતાઓ નારકેાના શરીરમાં શસ્ત્રા ભાકી દઇને, તેમાંથી લેાહી વહેવરાવે છે. તેમનાં અંગે અને આંતરડાં મૂળ દ્વારા સૂી જાય છે. લાકડીઓના પ્રહારથી તેમનાં મસ્તક ફૂટી જાય છે. તે નારકો દુઃખ અને ભયથી સદા તરફડતા રહે છે. પરમાધામિકા તેમને સજીવ માછલી એની જેમ લેાઢાના તાવડામાં . આમતેમ ઉલટાવી સુલટાવીને તેમના જે લેાહીમાં પકાવે છે. ૧૫૫ા ટીકા सु० ४६ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . . . २६२ .... सूत्रकृताङ्गसूत्रे - ननु यदा इत्थं परमाधार्मिकद्वारा नरकवासिनः पीडां प्राप्नुवन्ति, यथाघृक्षात् पातनं, छेदनं, भेदनं, कटाहे पाचनं च, तदा-तत् शरीरं विहायाऽन्यत्रगच्छन्तस्तादृशयातनाभ्यो विमुक्ता भविष्यन्तीति कथं पुनस्तेपामनुक्षणं तादृशी पीडा स्यादित्याशंक्य समाधत्ते । न हि ताशयातनाभ्यः शिरस छेदेऽपि पां मुक्तिभवति । अपि तु वारं वारं तामेवाऽनुभवन्तीत्यत आ६-- मूलम्-नो चेव ते तत्थ मसीभवंति, ण जिंजती तिबभिवेयणाए। . तमाणुभागं अणुवेदयंता दुखंति दुक्खी इह दुक्कडेणं॥१६॥ छाया-नो चैव ते तत्र मपीभवन्ति नो म्रियन्ते तीवाऽमिवेदनया। _____तमनुभागमनुवेदयन्तो दुख्यन्ति दुःखिन इह दुष्कृतेन ॥१६॥ - जब नारक जीवों को परमाधार्मिकों द्वारा इस प्रकार की पीडा पहुंचाई जाती है -वृक्ष से गिराया जाता है, छेदन भेदन किया जाता है, पकाया जाता है, तब वे उस शरीर को छोडकर अन्यत्र जाकर उन यातनाओं से छुटकारा पा लेते होंगे, ऐसी स्थिति में उन्हें लगातार पीडा कैसे हो सकती है ? इस शंका का समाधान करते हैं। इस प्रकार की यातनाओं से, यहां तक कि मस्तक छेदन होने पर भी उनका बचाव नहीं होता, किन्तु बार बार वे उसी प्रकार की यातनाएँ ओगते ही रहते हैं। सूत्रकार यही कहते हैं शब्दार्थ--ते-ते वे नारक 'तत्थ-तत्र' उस नरक में 'नो चेव मसीभवंति-नैव मषीभवन्ति' जलकर भस्म नहीं हो जाते हैं तथा પરમાધામિક દેવતાઓ દ્વારા આ પ્રકારની પીડાઓ (વૃક્ષ પરથી નીચે પટકવાની, અંગેનું છેદન કરવાની, અગ્નિ પર પકાવવાની આદિ) જ્યારે પહોંચાડવામાં આવતી હશે, ત્યારે તે નારકે મરણ પામીને તે યાતનાઓમાંથી મુક્ત થઈ જતા હશે અને અન્ય ગતિમાં ઉત્પન્ન થઈને તે યાતનાઓમાંથી છૂટકારો મેળવતા હશે, આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં તેમને નિરંતરે પીડા અનુભવવાની વાત કેવી રીતે સંભવી શકે ? આ પ્રકારની શંકાનું સમાધાન કરતાં સૂત્રકાર કહે છે કે આ પ્રકારની યાતનાઓ સહન કરવા છતાં પણ તેમનું આયુષ્ય સમાપ્ત થતું નથી. અરે ! તેમનું મસ્તક છેદવામાં આવે, તે પણ તેઓ જીવતાં જ રહે છે અને વાર વાર આ પ્રકારની યાતનાઓ સહન કર્યા જ કરે છે. એજ વાત સૂત્રકાર वे ट छे. ॥१५॥ शहाय-ते-ते' ते ना२३ 'तत्थ-तत्र' ते नारमा 'नो चेव मसि भवंवि-नैव मपीभवन्ति' ममीन सभ २७ rai नथी तथा 'तिव्वभिवेयणाए Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. . अ. ५ उ. १ नारकीयवेदना निरूपणम् ३६३... अन्वयार्थः -- (ते) ते नारकाः (तत्थ ) तत्र नरके पच्यमाना अपि (नो चैत्र) नैव (मसीभवंति ) मषीभवन्ति भस्मसात् नेत्र भवन्ति, तथा (तिभिवेपणा) तीव्राभिवेदनया-- (नमिज्जती) न म्रियन्ते किन्तु (तमाणुभागं अणुवेदयंता) तमनुभागं कर्मफलमनुवेदयन्तोऽनुभवन्तः ( इह ) हास्मिन् लोके (दुकडेण) दुष्कृतेन - प्राणातिपाताद्यष्टादश पापस्थानरूपेण ( दुक्खी ) दुःखिनो दुःखभाजः (दुक्खति) दुरुपन्ति पीडयन्ते इति ॥ १६ ॥ - टीका- 'तत्थ' तत्र नरके ते नारकाः नारकजीवा एवमनेकवारं विपच्य माना अपि 'नो नैत्र 'मसीभवति' मषीभवन्ति - अग्निभिर्न भस्मसात् भवन्ति 'तिव्वभिवेघणाए - तीव्राभिवेदनया' नरक की तीव्र पीडा से 'नो मिज्जतीन त्रियन्ते' मरते नहीं हैं किन्तु 'तमाणुभागं अणुवेदयंता-तमनुभागं अनुवेदयन्तः' नरक की उस पीडा को भोगते हुए पाप के कारण वे 'दुक्खी - दुःखिनः' दुःखी होकर 'दुक्खंति - दुःख्यन्ति पीड़ा का अनुभव करते हैं ॥१६॥ अन्वयार्थ - नारकजीव नरक में पचने पर भी भस्म नहीं होते हैं, न तीव्र वेदना से मरते हैं किन्तु अपने कर्मफल को भोगते रहते हैं । वे प्राणातिपात आदि अठारह पापस्थानों का सेवन करने से दुःख के भागी होते हैं ॥१६॥ टीकार्थ - - बेचारे नारक जीव नरक में अनेक बार पकाये जाने पर भी आग से भस्म नहीं होते । तीव्र से तीव्र वेदना के कारण भी मरते तित्राभिवेदनया' नरउनी तीव्र पीडाथी 'नो मिज्जती - न म्रियन्ते' भरतां नथी. परंतु 'तमाणुभा अणुवेदयंता - तमनुभाग अनुवेदयन्तः' नरसुनी ते पीडामे लोगवतां पापना शरये ते 'दुक्खी - दुःखिनः' हुःमी थहने- 'दुक्खंति - दुख्यन्ति' પીડાના અનુભવ કરે છે. ૧૫ સૂત્રા—નરકમાં ગયેલા નારકાને અગ્નિ ઉપર પકાવવામાં આવે છે, છતાં પણુ તેએ ભસ્મ થતા નથી, તીવ્ર વેદનાથી તેમનુ મરણ થતું નથી, પરન્તુ દીર્ઘકાળ સુધી તે તેમનાં કર્માનું ફળ ભાગવ્યા કરે છે, પ્રાણાતિ પાત આદિ ૧૮ પ્રકારનાં પાપેાનું સેવન કરવાને લીધે તેમને આ પ્રકારનાં દુઃખા ભાગવવા પડે છે. ૧૬૫ ટીકા નરકમાં ઉત્પન્ન થયેલા 'નારકેાને અનેકવાર અગ્નિ ઉપર માંસ આદિની જેમ રાંધવામાં આવે છે. આ પ્રકારની તીવ્ર વેદના ભાગવવા છતાં પણુ તેમના શરીર અગ્નિમાં બળીને ભસ્મ થઈ જતાં,નથી–એટલે કે Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्ग 'तस्थ' तत्र 'विनभिवेयणाए' तीवाऽभिवेदनया, 'ण मिजती' न म्रियन्ते, स्वकृतकर्मणां यत् फलं तस्याऽननुभूतत्वात् । न हि एकदैवाऽनुभवात् तानि फर्माणि परिसमाप्तानि, येन दाहपाकादिना शरीराऽपगमो भवेत् । किन्तु बहुकालं यावत् तादृशं शीतोष्णवेदनाजनितं-छेदन-भेदन-त्रिशूलारोपण-कुम्भीपकि, तक्षणादिकं निर्दयपरमाधार्मिकेभ्य उत्पादितं, तथा-परस्परमपि संपादितम् , अनुभागं कर्मणां फलम् अनुवेदयन्तः सम्यगनुभवं कुर्वन्तः तत्रैव तिष्ठन्ति, कथमपि तादृशनरकस्थानादन्यत्र न गच्छन्ति फलोपभोगं विना । तथा'दुकडेणे' स्वकृतदुष्कृतेन, माणातिपातादिनाऽष्टादशपापस्थानेन, सततं जाय. सानदुःखेन 'दुक्खी' दुःखिना 'दुक्खंति' दुख्यन्ति-पीडयन्ते, यावत्कालस्थितिकं कर्म वद्धं तावत्पर्यन्तं तत्रावस्थिता दुःखमनुभवन्तीति ॥१६॥ नहीं, क्योंकि अपने कार्यों का पूरा फल नहीं भोग चुके हैं। एक बार भोगने से ही उनके वे कर्म समास नहीं हुए हैं, जिलले जलाने और पकाने ने शरीर छूट जाघ । वे दीर्घकालपर्यन्त सर्दी गर्मी, छेदन, भेदन त्रिशलारोपण, कुम्भीपाक, छीलना आदि निर्दय परमाधार्मिकों द्वारा दिए जाने वाले तथा परस्पर में एक दूसरे को उत्पन्न किये हुए दुःखरूप अनुभाग को वेदन करते हुए वहीं रहते हैं । वे फल भोगे विना नरक से निकलकर किसी भी प्रकार दूसरी जगह नहीं जा सकते हैं। अपने किए प्राणातिपात आदि अठारह पापों के फलस्वरूप निरन्तर दुःख का તેઓ મરતા નથી, કારણ કે પિતાનાં કર્મોનું પૂરેપૂરું ફળ તેઓ ભેગવી ચુક્યા હોતા નથી, એક જ વાર ભેગવવાથી તેમનાં કર્મો નષ્ટ થઈ જતાં નથી. તેથી એક જ વાર મળવાથી કે દાવાથી તેમનું આયુષ્ય સમાપ્ત થતુ नथी. तभने lim सुधी 31, १२भी, छेन, लहन, त्रिशूलाय, माह દારુણ યાતનાઓ સહન કરવી પડે છે, નિર્દય પરમાધામિક દેવતાઓ દ્વારા પૂર્વોક્ત જે જે યાતનાઓ પહોંચાડવામાં આવે છે તે યાતનાઓ તથા નારકે દ્વારા એક બીજાને જે જે પીડા પહોંચાડવામાં આવે છે તે પીડાઓ સહન કરવા રૂ૫ દુઃખરૂપ અનુભાગનું છેદન કરતાં કરતાં દીર્ઘકાળ પર્યન્ત ત્યાં २ . ५ छे. . • તે ફળ ભેગવ્યા સિવાય તેઓ નરકમાંથી નીકળીને બીજે કઈ પણ :સ્થળે જઈ શકતા નથી, તેમણે પ્રાણાતિપાત આદિ ૧૮ પ્રકારનાં જે પાપ દેર્યા હોય છે, તેના ફલ સ્વરૂપે તેઓ નિરંતર દુઃખને જ અનુભવ કરતા Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. ध्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् अपि च मूलम् - तहिं च ते लोलणसंपगाढे गाढं सुतन्तं अगणिं वयंति । ने तत्थ सायं लहंती भिंदुग्गे औरहियाभि तावा तैहवी तैविंति । १७ । - छाया - तस्मि ते लोलनसंप्रगाढे गाठ सुतप्तमग्नि व्रजन्ति । न तत्र सातं लभन्तेऽभिदुर्गेऽहिताऽभितापान् तथापि तापयन्ति ॥ १७॥ अन्वयार्थः – (लोलण संपगाढे) लोलन संप्रगाढे - नारकजीवानां चलनेन व्याप्ते (हि) तत्र नरके (गाढं गाढं अत्यर्थम् (सुतत्तं) सुततम् (अगणि वयंति) ही अनुभव करते हैं । उन्होंने जिलने काल की स्थिति वाला कर्म बांधा है, उतने काल तक वहीं रहकर दुःखों का अनुभव करते हैं । १६ ।। और भी कहते हैं- शब्दार्थ -- 'लोलण संपगाढे-लोलन संप्रगाढे' नारक जीवों के चलन से व्याप्त 'तहिं तत्र' उस नरक में गाढं गाढम्' अत्यन्त 'सुतत्तं - सुतप्तम् ' तपी हुई 'अगणि षयंति-अग्नि व्रजन्ति' वे नारक जीव अग्नि के पास जाते हैं 'अभिदुग्गे तत्थ - अभिदुर्गे तब उस अतिदुर्गम अग्नि में जलते हुए वे 'सातं न लहती - सातं न लभन्ते' सुख नहीं पाते हैं और "अरहियाभितावा- अरहिताऽभितापान्' यद्यपि वे महाताप से तप्त ही हैं 'तहवि - तथापि' तो भी 'तविति - तापयन्ति' उन्हें तप्त तैल और अग्नि में तपाते हैं ॥ १७ ॥ अन्वयार्थ - - नारक जीवों के चलने से व्याप्त उस नरक में, शीत से पीड़ित होकर वे नारक अत्यन्त तस अग्नि के समीप जाते हैं । રહે છે તેમણે જેટલા કાળની સ્થિતિવાળુ કમ ખાંધ્યુ' હાય છે, એટલા કાળ સુધી ત્યાં જ (નરકમાં જ) રહીને તેએા દુઃખાનુ' વેદન કરે છે. ૧૫ વળી સૂત્રકાર તેમનાં દુખાનુ વર્ણન કરતા કહે છે કુળ 1 शब्दार्थ - 'लोलण संपगाढे-लोलन संप्रगाढे' નાક જીવાના ચલનથી व्याप्त 'तहिं तन्त्र' ते नरम्भ 'गाढ- गाढम् ' अत्यन्त 'सुतत्तं सुतप्तम्' तापथी तयेसी 'अगणि वयंवि-अग्नि व्रजन्ति' ते नार व अग्जिनी पासे लय हे 'अभिदुग्गे तत्थ-अभिदुर्गे तन्त्र' ते अति दुस्सह अग्निमां भजतां ते 'सात लहती - सातं न लभन्ते' सुप याभतां नथी भने 'अरहियाभितावा- अरहिताभिपन्' ले ते महातायथा तथेसा होय हे 'तहवि - तथापि' तो य 'तविंति - तापयन्ति' तेमने तप्त ते सने अग्निमां तपावे ॥१७॥ સૂત્રા—નારક જીવાના હલન ચલનથી યુક્ત તે નરકમાં, જ્યારે નારકાને અત્યન્ત શીતનેા અનુભવ થાય છે, ત્યારે તે તેનાથી બચવા Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतासूत्रे अग्नि व्रजन्ति अग्नेः समीपं प्राप्नुवन्ति (अभिदुग्गे तत्थ) अभिदुर्गे तत्र दह्यमानाः (सायं न लहती) सातं न लभन्ते-सुखं न प्राप्नुवन्ति (अरहियाभितावा) अरहिताभितापान यधपि ते महातापयुक्ता एव (तह वि) तथापि ते नरकपालास्तान (तविति) तापयन्ति-तप्ततेलाग्निना दहन्तीति ॥१७॥ ___टीका-'तहि तस्मिन्नरके 'लोलणसंपगाढे' लोलनसंपगाढे-लोलनेन इतस्ततः संचालनेन संप्रगाढे व्याप्ते नरकगत्ते, शीता" नारकिजीवाः शीताऽपनयनाय 'गाढं सुतत्तं अगणि वयंति' गाई सुतप्तमग्नि व्रजन्ति-गा सातिशयं सुतसं अतिशयेन प्रज्वलितं अग्नि प्रति गच्छन्ति । ते पूर्वोक्ता नारकजीवाः 'तत्थ' तत्रापि अग्नेः स्थाने 'अभिदुग्गे' अभिदुर्गे-अतिभयानके तस्मिन् ददद्यमानाः सन्तः 'सायं न लहती' सातं न लभन्ते सात-सुखं न लभन्ते क्षणमपि प्रत्युत्त तत्र 'अरहियामितावा' अरहितो नैरन्तर्येण अभितापो महादाहो येषां ते अरहिनाभितापाः । अतिशयेन अग्निना तापिता अपि पुनरपि तत्रत्यपरमाधार्मिकः 'वहवी तर्विति' तयापि तापयन्ति-तप्ताऽग्निना तालाग्निना गाढं यथा स्यात्तथा तान् तापयन्ति । ॥१७॥ अत्यन्त दुस्सह उस अग्नि से जलते हुए ये साना नहीं पाते, वरन् उस अग्नि में जलने लगते हैं। जलते हुए नारकों को परमाधार्मिक और अधिक जलाते हैं ॥१७॥ टीकार्थ--इधर उधर चलने से व्याप्त नरकरूपी उस गत खड्डे में शीत से पीड़ित होकर नारक जीव शीत (ठंडी) को हटाने के लिये अत्यन्त तप्त एवं जलती हुई अग्नि की ओर जाते हैं। अग्नि के उस अत्यन्त भयानक स्थान में भी उन्हें क्षण भर के लिए भी सुख प्राप्त नहीं होता। वहाँ प्रतिक्षण होने वाले घोर संताप से युक्त होने पर માટે અગ્નિની પાસે જાય છે, પરંતુ તે દારુણ અગ્નિની હુંફ પ્રાપ્ત થવાને બદલે, તેમનાં અંગ દઝવા માંડે છે. અગ્નિ વડે દાઝતા નારકને પરમાધા કે અધિક દઝાડે છે. જેના ટીકાઈ=આમતેમ ફરતાં નારકથી વ્યાપ્ત તે નરક રૂપી ગર્તામાં (ખાડામાં અત્યંત ઠંડી લાગતી હોય છે, તે ઠંડીને દૂર કરવા માટે નારક અત્યન્ત તસ અને પ્રજવલિત અગ્નિ તરફ જાય છે અનિયુક્ત તે ભયાનક સ્થાનમાં પણ તેમને એક ક્ષણભર પણ સુખ મળતું નથી. ત્યાં તેમને ઉષ્ણુતા જન્ય દારુણ પીડાને અનુભવ કરે પડે છે. ઠંડીથી બચવાને Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीय वेदना निरूपणम् मूलम् - से' सुच्चई नगरवहेव सद्दे होवणीयाणि पयाणि तत्थ । उदिष्णकम्माण उदिष्णकम्मा पुणो पुणो तें सरहं देहेंति । १८ । छाया - अथ श्रूयते नगरवधइन शब्दो दुःखेनोपनीतानि पदानि तत्र । उदीर्णकर्मण उदीर्णकर्माणः पुनः पुनस्ते सरभसं दुःखयन्ति । १८ ॥ अन्वयार्थ :- (से) अथानन्तरं (तत्थ ) तत्र - रत्नप्रभादौ नरके (नगरवहेब सद्दे) नगरवध इव शब्दः - भयानक आक्रन्दनशब्दः (सुचई) श्रूयते तेषां नारभी परमधार्मिक उन्हें और अधिक तपाते हैं - तप्त अग्नि तथा तस तैल से बहुत अधिक तपाते हैं ॥१७॥ शब्दार्थ--' से - अथ' इसके पश्चात् 'तत्थ तत्र' उस रत्नप्रभादि नरक में 'नगरवहेव सदे - नगरवध इव शब्द ' भयंकर आक्रन्दन शब्द 'सुच्चई - श्रूयते' सुना जाता है 'दुहोवणीयाणि पाणि-दुःखोपनीतानि पदानि ' दुःख से करुणामय पद सुनने में आते हैं 'उदिष्णकम्माणउदीर्णकर्मणः' जिन के नरकगति विषयक कर्म उदय में आये हैं, ऐसे नारकी जीवों को उदण्णकम्मा - उदीर्णकर्माणः उदित कर्म चाले 'ते-ते' वे परमाधार्मिक 'पुणो पुणो- पुनः पुनः' बारंबार 'सरहं - सरभलं' वेगसहितं 'दुर्हति - दुःखयन्ति ' पीडित करते हैं ॥ १८ 1 अन्वयार्थ -- रत्नप्रभा आदि नरकों में नगरवध के समान भयानक आकन्दन सुनाई देता है । वह आक्रन्दन दुःखों के कारण उत्पन्न होता માટે અગ્નિની સમીપે આવેલા તે નારકેાને પરમાધામિ દેવતાએ અગ્નિ તથા ગરમ તેલ વડે અધિક દહનનેા અનુભવ કરાવે છે વધારે દઝાડે છે. ૫૧ળા - शब्दार्थ –' से - अथ' माना पछी 'तत्थ - तत्र' ते रत्नप्रलाहि नरम्भ 'नगवहेव सहे-नगरवध इव शब्दः' नगरवधनी प्रेम भय ४२ साउन्टन शब्द 'सुच्चईश्रूयते'. स ंभजाय छे. 'दुहोवणीयाणि पयाणि - दुःखोपनीतानि पदानि' हु·५थी ४३||भय शब्द सांभणवामां आवे छे. 'उदिष्णकम्माण - उदीर्णकर्मणः प्रेम २४गति समधी उभ उध्यमां आवे छे मेवा नारी भवने 'उदिष्णकम्मा - उदीर्णकर्माणः' हीत उभवा 'ते - ते' मे परभाधाभि है। 'पुणो पुणो- पुनः पुनः वार ंवार ‘ख़रए’–सरभस' वेगपूर्व ': 'दुद्दे 'ति - दु.खयन्ति ' पीडित ४२ ४. ॥१८॥ સ ́ભળાય છે, સંભળાય છે. સૂત્રા-નગરના વધસ્થાનામાં જીવાનુ` જેવું આક્રંદ એવુ' જ નારફેનું ભયાનક આક઼દ રત્નપ્રભા આદિ નાફેમાં Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे काणाम् (सुहोदणीयाणि पयाणि) दुःखोपनीतानि-दुःखोच्चारितानि 'हा' मातः! हा ताते'त्यादिपदानि च श्रूयन्ते (उदिण्णकम्माण) उदीर्णकर्मणः नारकजीवान् (उदिण्ण कम्मा) उदीर्णकर्माणः (ते) ते-परमाधार्मिकाः (पुणो पुणो) पुनः पुनः (सरह) सरभसं-सवेगं (दुहेति) दुःखयन्ति-पीडयन्ति-नारशानिति ॥१८॥ टीका-'से' अथ-अनन्तरम् तेषां नारकजीवानां परमाधार्मिकः रोट्रैः कदर्थ्यमानानाम् 'नगरबहेव' नगरवध इव अतिभयानको हा, हा, रक्ष, रक्ष, त्रीयस्त्र प्रायस्थ, एवं महाशब्दः श्रूयते । यथा नगरवधे संमाप्ते सति नागरिकाः, वालयुववृद्धस्त्री पुरुषाः अतिकरुणमाक्रन्दनशब्दमुच्चैरतिभयानकं कुर्वन्ति तथैव नरके नारकिजीवाः नरकपालैः पीडिताः सन्तः महाभयानकंशब्दं कुर्वन्ति । ताशः-अतिभयानकः शब्दः नरकोपान्ते श्रूयते । 'तस्थ' तत्र नरके 'दुहोव. णीयाणि' दुःखोपनीतानि, दुःखेन पीडया उपनीतानि समुत्पन्नानि 'पयाणि' पदानि-यानि पदानि 'हा मातः ! हा तात ! क यामः किं कुर्मः परमाधार्मिकः है, जैसे हाय मां, हा तात इत्यादि । जिनके कर्म इसी प्रकार उदय में आये हैं ऐसे वे परमाधार्मिक बार बार वेग के साथ उदीर्णकर्माले नारकियों को पीड़ा पहुँचाते हैं ॥१८॥ टीकार्थ-क्रूर परमाधामों द्वारा पीड़ित करने पर नारक जीव भयानक शब्द करते हैं। जैसे नगर के विनाश के समय चिल्लाहट मचती है. बाल, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, सभी नागरिक (नगरनिवासी) अत्यन्त करुणापूर्ण आक्रन्दन करते हैं, उसी प्रकार नरकपालों द्वारा पीडित नारक सदैव अत्यन्त दिल दहला देने वाली चिल्लाहट मचाये रहते हैं। नरक में ऐसे भयानक शब्द सदैव सुनाई देते हैं। वे शब्द दुःख से उत्पन्न होते हैं, जैसे-हार्य मां, हा तात ! कहां जाऊँ क्या करूँ ! नरक ખે અસહ્ય બનવાને કારણે તેઓ હાય મા, હાય બાપ !” ઈત્યાદિ કરુણાજનક શબ્દ બોલે છે. જેમનાં કર્મ આ પ્રકારે ઉદયમાં આવ્યાં છે એવાં નારકેને તે ઉદીર્ણકર્મવાળા પરમાધાર્મિક અસુરકુમાર દે વારંવાર ઉત્સાહપૂર્વક પીડા પહોંચાડે છે. ૧૮ ટીકાર્થ-જેવી રીતે નગરને વિનાશ થાય ત્યારે બાળકે, યુવાને, વૃદ્ધો, ઓિ અને પુરુષના આકંદ સંભળાય છે, એ જ પ્રમાણે પરમધાર્દિકે દ્વારા જ્યારે નારકે પર અત્યાચાર ગુજારવામાં આવે છે, ત્યારે નારકે પણ કરુણાજનક આક્રંદ કરવા મંડી જાય છે નરકમાં આ પ્રકારના હદયને હંચમચાવી નાખનારો શબ્દો સંભળાય છે.–હાય મા ! હાય બાપા ! બચાવે, બચાવે ! કેઈ અમને આ નરકપાલને ત્રાસમાંથી બચાવે ! ક્યાં નાસી Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ५ उ. १ नारकीय वेदना निरूपणम् ३६९ पीड्यमानानां न कोपयस्माकं रक्षकः, त्रायस्त्र' इत्यादिपदानि श्रूयन्ते । 'उदिष्णकम्माण' उदीर्णकर्मणः उदीर्णं मासममुदयं विषमविपाकं कर्म येषां ते उदीर्णकर्माणः तान् उदीर्णकर्मणो नारकिजीवान् । 'उदिष्णकम्मा' उदीर्णकर्माणो परमधार्मिका: मिथ्यात्व हास्य रत्यादीनामुदये वर्त्तमानाः 'पुगो पुणो ते' पुनः पुनः अनेकवारम् ते परमधार्मिकाः । 'सर' सरभसम् सवेगं यथा स्यात्तथा 'दुहेति' दुःखयन्ति, परिपीडयन्ति । अत्यन्वमसहनीयं नानानकारैरुपायैर्नारि किजीवानां दुःखमसात वेदनीयमुत्पादयतीति भावः ||१८|| मूलम् - प्राणेहिणं पात्र विभोजयंति ले में पकखामि जहातहेणं । दंडेहिं तत्था सैरयति वाला लंघेहिं दंडेहिं" पुंराक एहिं ॥ १९ ॥ छाया - प्राणैः पापाः वियोजयन्ति तद्युष्मभ्यं वक्ष्यामि याथातथ्येन । दण्डैस्तन्त्र स्मारयन्ति बालाः सर्वैर्दण्डैः पुराकृतैः । १९॥ पाल हमें पीडा पहुंचा रहे हैं। कोई हमारा रक्षक नहीं है। अरे बचाओ ! इत्यादि । उदीर्ण (जिनके कर्म उदय को प्राप्त हैं) ऐले नारक जीवों को उदीर्णकर्म अर्थात् मिध्याश्व, हास्य, रति आदि कर्मों के उदय में वर्तमान परमधार्मिक बार बार बडे उत्साह के साथ पीडाएं पहुंचाते हैं। तात्पर्य यह है कि परमधार्मिक नारक जीवों को नाना उपायों से अतीय असहनीय दुःख उत्पन्न करते रहते हैं ॥ १८ ॥ शब्दार्थ - - ' पाव - पापा:' पापी नरकपाल 'पाणेहि विभोजयंति - प्राणैः वियोजयन्ति' नारकी जीवों के अङ्गों को काटकर अलग अलग कर देते हैं 'तं तत्' इसका कारण 'भे - युष्मभ्यं' आप को 'जहाल हेणंयाथातथ्येन' वधार्यरूप से 'पवक्खामि - प्रवक्ष्यामि' मैं कहूँगा 'वाला જવાથી અમે આ ત્રાસમાથી ખેંચી શકશુ’ ઈત્યાદિ જેમનાં મ” ઉદયમાં આવ્યાં છે એવાં નાકાને ઉદ્દીણુ કમ એટલે કે મિથ્યાત્વ, હાસ્ય, રતિ દિ કર્મીના ઉયવાળા પરમાધાર્મિક દેવતાઓ વારવાર ખૂબ જ ઉત્સાહમાં આવી જઈને દારુણ પીડા પમાડે છે, આ કથનના ભાષા એ છે કે પરમાધામિક અસુરા નારક જીવાને વિવિધ પ્રકારે અસહ્ય યાતનાઓના અનુભવ કરાવ્યા કરે છે ૫૧૮ના शार्थ' पाव-पापा' पापी नरपास 'पाणेहिं विओोजयति- प्राणैः वियोजयन्ति' नारही लवाना भगोने अपने अलग अलग उरी छे छे 'तं - तत्'- भानु' र 'भे- युष्मभ्यम्' आपने 'जहा तहेणं - याथातथ्येन' यथार्थ ३५थी 'पवक्खामि - प्रवक्ष्यामि' हुँ अडीश 'बाला - बालाः' अज्ञानी न२४यास सु० ४७ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० सूत्रकृताङ्गसूत्रे ____ अन्वयार्थ:-(पाच) पापा:-नरकपालाः नारकान् (पाणेहिं विओजयंति) माणैवियोजयन्ति-शारीरावयवान् खंडयन्ति (तं) तत् (भे) युप्मभ्यम् (जहातहेणं) याथातथ्येन (पवक्खामि) प्रवक्ष्यामि-कथयिष्यामि (बाला) वाला अज्ञानिनो नरकपालाः (दंडेहि) दण्डैः-दण्डदानेन (सव्वेहिं) सर्वैः (पुराकडेहि) पुराकृतैः-पूर्वजन्मनि संपादितः (दंडेहि) दण्डैः-दुःखविशेषैः (परयंति) स्मारयन्ति तदानी दीयमानदण्डेन पूर्वजन्मकृतषापं स्मारयन्तीति ॥१९॥ टीफा-णमिति वाक्यालंकारे। 'पाव' पापा:-असाधुक्रर्माणः परमाधार्मिकाः नारकान् 'पाणेहि' पाणैः सेन्द्रियैः सशरीरश्च 'विश्रीजयंति वियोजयन्ति', शरीराऽज्यवानां हस्तपादादीनां कर्तनादिभिः वियोग कुर्वन्ति । अश्यविनोऽवयवान् पृथक् पृथक कुर्वन्ति । कथं ते नरकपालाः शरणरहितानां नारकिजीवानाचाला:' अज्ञानी नरकपाल ‘दंडेहि-दण्डै!' नारकी जीदों को दंड देवर 'सव्वेहि सर्व सभी 'पुर र डेहि-पुराकृतः पूर्वजन्म में उपार्जित किये हुए दंडेहि-दण्डै दुःखविशेषों से 'सत्यंति-स्मारयन्तित' स्मरण कराते हैं।१९। अन्वयार्थ-पापी नरकपाल नारकों को प्राणों से विद्युक्त करते है अर्थात् उनके शरीर के अवघयों को खण्डित करते हैं। यह तथ्य मैं आप को यथातथ्य कहूँगा । अज्ञान नरकपाल दंड देकर पूर्वजन्म में दूसरों के प्रति किये गये दण्डों-पापों का स्मरण कराते हैं ॥१९॥ ___टीकार्थ-of' शब्द वाक्यालंकार के लिए है। पापी परमाधार्मिक उन नारक जीवों को प्राणों से पृथक करते हैं अर्थात् हाथ पैर आदि शरीर के अवयवों को काटकर अलग कर देते हैं। वे नरकपाल उन शरणहीन नारकी जीवों के प्रति ऐसा क्यों करते हैं ? इसका उत्तर 'डेहि-दण्डै.' ना२, वान धन 'सव्वेहि-सर्वैः' मा 'पुराकडेहिपुराकृत.' पूभिमा त ४३८ 'दडेहि-दण्डै.' म विशवाथी 'सरयति-स्मारयन्ति' भ२ शवे छे. ॥१८॥ સૂવાર્થ–પાપી નરકપાલે નારકોને પ્રાણાથી નિયુક્ત કરે છે, એટલે કે તેમના શરીરના અવયનું ખંડન કરે છે. આ બધું તેઓ કેવી રીતે કરે છે, તે હું તમારી સમક્ષ રજૂ કરીશ. અજ્ઞાન નરપાલે નારકેને મારતાં મારતાં તેમણે પૂર્વજન્મમાં સેવેલાં પાપકર્મોનું તેમને સ્મરણ કરાવે છે. ૧ ટીકાર્થ–સૂત્રમાં “” પદ વાક્યાલંકાર રૂપે વપરાયું છે પાપી પરમાધામિકે નારકના હાથ, પગ આદિ અને કુહાડી આદિ વડે કાપીને શરીરથી અલગ કરે છે. તેઓ તે શરણહીન નારકે પ્રત્યે એવું ફૂર વર્તન કેમ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३७५ एवं कुर्वन्ति ? तबाह-तं भे' इत्यादि । 'त' तत् तादृश दुख कारणम् । 'भे' युष्यभ्यपहम् । 'जहातहेणं' याथातथ्येन-यथार्थरूपेण, न तु अर्थवादादिरूपेण 'पचक्खामि' प्रवक्ष्यानि-जिनोदितमनुस्मृत्य कथयिष्यामि । तदेवाह-'ते बाला' ते परमाधार्मिकाः बालाः निििवकाः 'दंडेहि' दण्डै:-निशितासिकुन्तादिभिः समुत्पादितदुःखविशेपैः नारकाणां दुःखोत्पादनपूर्वकमित्यर्थः तेषां 'पुराकएहि' पुराकृतः पूर्वभवोपार्जितैः परदुःखोत्पादनरूपैः 'सव्वेहि' स-समस्तैः 'दंडेहि' दण्डै दुःखविशेवैः पूर्व नवपम्पादित परदुः खोत्पादनरूपाणि सर्वाणि कर्माणीत्यर्थः 'सरयंति' स्मारयन्ति, तथाहि-'भो नारका पूर्व प्राणिनां मांसेन मांसलं,-रक्तमद्यादिरसपानेन पीवरः, परदारदर्शनस्पर्शनालिङ्गनादिमिरालादपूर्णश्च जातः, अधुना स त्वं स्वहस्तारोपित पल्लवित पुष्पितफलितवृक्षस्य फलमुपभुनानः किमिति विषो. दसि, कथमुत्प्लुत्यो अन्य सकरुगं रोदिपि' इत्थं तत्तद्रूपेण स्मारयित्वा स्मारयित्वा देते हैं-इस दुःख का कारण मैं आप को यथार्थरूप से कहूंगा-अर्थवाद रूप से नहीं । वे विवेकविहीन परमाधार्मिक तीक्ष्ग तलवार, बर्ची दंड एवं भाला आदि शस्त्रों से दंड देकर उन नारक जीवों को पूर्वकृत समस्त पापो का स्मरण कराते हैं। स्वथा अरे नारकों ! पूर्वजन्म में तुम प्राणियो का मांसभक्षण करके पुष्ट बने थे, रसों-रक्त अथवा धादिलो का पान करके स्थूल हुए थे, परस्त्री को देखकर और स्पर्श करके अत्यन्त आलादित हुए थे, अब अपने किये का फल भोगो । अपने हाथों पाप का जो वृक्ष तुमने रोपा और पल्लवित किया है, उसके फलो को चखते समय अब क्यों विषाद करते हो ? उछल उछल कर करूणाजनक रुदन क्यों करते हो? इस प्रकार कहकर वे नारकों को उनके पूर्वकृत सय पापों का स्मरण कराते हैं। वे दंड-दुःख બતાવતા હશે, તેનું કારણ હું તમને યથાર્થ રૂપે કહીશ-અર્થવાદ રૂપે નહીં તે વિવેકવિહીન પરમાધાર્મિક તીણ તલવાર, પછી, ભાલા, દડા આદિ શો વડે મારતાં મારતાં તે નારકોને તેમના પૂર્વજન્મમાં કરેલા પાપોનું સ્મરણ કરાવે છે. જેમકે- હે નારક ! પૂર્વજન્મમાં પ્રાણીઓના માંસનું લક્ષણ કરીને તમે પુષ્ટ બન્યા હતા, લેહી મધ આદિ રસનું પાન કરીને જાડા (સ્થૂલ) થયા હતા, પરસ્ત્રીને જોઈને તથા તેમની સાથે કામગ ભેગવીને તમારા હૃદયમાં આનદ માન્યા હતા. હવે તમે પૂર્વકૃત તે પાપકર્મોનું ફળ ભગવે તમે તમારે હાથે જ પાપનું જે વૃક્ષ વાવ્યું હતું અને ઉછેર્યું હતું, તેના ફળને ચાખવાને હવે સમય પાકી ગયો છે, તે વિષાદ શા માટે અનુભવે છે? ઉછળી ઉછળીને કરુણાજનક આકંદ શા માટે કરો છો ?' આ પ્રકારનાં વચન દ્વારા તેઓ નારકોને તેમના પૂર્વ જન્મમાં કરેલાં પાપોન Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ सूत्रकृतांगसूत्रे दुःखविशेषान् उम्पादयन्ते । नाकपालास्तान् नारकजीवान् पीडयन्ति, यतः कृतकर्मणां । कदाचिदपि फलोपभोगमन्तम न ततो विमुक्ता भवन्तीति भावः॥१९॥ मूलमू-ते हम्नमाणाणरगे पंडंति पुन्ने दुरुत्रस्त महाभितावे। ते तत्थ चिंट्रति दुरूवभक्ती तुटूंति कम्मोरगया किमीहि।२०। छाया-ते हन्यमाना नर के पतन्ति पूर्ण दूरूपस्य महाभितापे । ते तत्र तिष्ठति दूरूपमक्षिणः त्रुटय ते कर्मोपगताः कृमिमिः ॥२०॥ देकर उसी प्रकार के उनके द्वारा अन्य प्राणियों को दिये गये दंड की याद दिलाते हैं। क्योंकि अपने किये कर्मों का फल भोगे बिना उनसे छुटकारा नहीं पाते हैं ॥१९॥ शब्दार्थ--'हम्ममाणा ले-हन्यमानास्ते' पनमाधार्मिकों के द्वारा मारे जाते दे नारकि जीव 'महाभिनावे-लहाभिता महाल कष्ट देने वाले 'दुवस्व पुष्णे-दूरूपेण पूर्ण विष्टा और सूत्र से पूर्ण 'नरएनरके' दूसरे नरक में पति-पतन्ति' गिरते हैं 'ते तत्थ-ते तत्र' वे वहां 'दुस्वभावी-दूरूपमक्षिणा' विष्टा, सून आदि का पक्षण करते हुए 'चिति-तिष्ठन्ति' चिरकाल तक निवास करते हैं 'मम्मोवगयाकोपगता:' स्वकृत कर्म के वशीभूत होकर 'किमीहि-कृमिभिः' कीड़ों के द्वारा 'तुति-चुड्यन्ते पीड़ित होते हैं ॥२०॥ સ્મરણ કરાવે છે તે તેમને જે પ્રકારનો દંડ દે છે, એજ પ્રકારનો દંડ તેમણે (નારકેએ) પૂર્વ જન્મમાં અન્ય જીવોને દીધું હતું, એ વાતનું તેઓ તેમને સમરણ કરાવે છે, કેમકે નાક જ તેમણે પૂર્વભવમાં કરેલા કર્મોનું ફળ ભેગવ્યા વિના નરકનાં દુઃખેમાથી છુટકારો પામી શકતા નથી. ૧૯લા शा---'हम्ममाणा ते-हन्यमानास्ते' ५२भाधामियाना द्वारा भारकामा माता त ना२४ी 'महाभिनादे-महाभितापे' महान् ४ देशवाणा 'दुस्वस्त पुण्णे-दूसपेण पूर्ण' 421 मने भूत्रथा पूर्ण 'नर-नरके' भीत न२मा 'पति-पतन्ति' ५ छे 'ते तस्य-वे तत्र' ते त्यां 'दुरूवभक्खी-दरूपभभिगः' विष्टा, भूत्र विगेरेनु साक्षय ४२ता 'चिटुंति-तिष्ठन्तिः' aint tण सुधी निवास ४२ छ. 'कम्मोवगया-क्रमागता' २१४न ४मना वशीभूत धने 'किमिहि-कृमिभिः' । दास 'तुटुंति-त्रुटयन्ते' पीडित थाय छे. ॥२०॥ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदना निरूपणम् ૨૭૩ अन्त्रर्थः - ( हम्ममाणा ते) परमाधार्मिकैः हन्यमानास्ते नारकाः (महाभि तावे) महाभितापे - महादुःखरूपे ( दुरूस्त पुन्ने) दूरूपश्य पूर्णे - विष्टादिभिः पूरिते ( नए) नरके - नरकान्तरे नरकैकदेशे वा (पति) पतन्ति (ते तत्थ) ते तत्र (दुरूवभक् वी ) दुरून भक्षणः - अशुच्यादिभक्षकाः सन्तः (चिद्वेति तिष्ठन्ति (कम्मोचनया) कर्मोपगताः-स्त्रकृतकर्मवशाः (किमी) कृमिभिः - नरकपाळापादितैः (तुति) त्रुटयन्ते - खाद्यन्ते इति ॥२०॥ टीका - नरकपालैः 'हम्ममाणा ते' हन्यमानाः ते नारकजीवाः 'महानितावे' महाभितापे - महान्तोऽभितापः संतापाः विद्यन्ते यस्मिन् तस्मिन् महाभितापे । पुनः कथंभूते । 'दुरुवस्स पुत्रे' दूरूपेग पूर्णे, 'दुरुत्रस्स' इत्यत्र तृतीयार्थे पछी आर्प वाद तत्रो दुरूपेण विष्ठादिना पूर्णे' पूरिते 'नरगे ' नरके पूर्व नरकापेक्षा नरकान्तरे 'पति' पवन्दि ' ते तत्य' ते नारका जीवाः तत्र चित्र परिपूरितनरके 'दुमक्खी' दुरूपम क्षणः, विष्ठादि भक्षयन्तः अन्वयार्थ -- परनाधार्मिकों द्वारा आहत होते हुए नारक घोर दुःखमय और विद्या आदि अशुचि से परिपूर्ण नरक में (नरकान्तर में या नरक के एक भाग से दूसरे भाग में जा पढ़ते हैं । वहां अशुचि का भक्षण करते रहते हैं और कृत कर्मों के अधीन होकर कीडों के द्वारा खाये जाते हैं- पीडित किये जाते हैं ||२०|| टीकार्थ- -- जब नरकपाल परमाधार्मिक देव नारक जीवों को पीडा पहुंचाते हैं तब वे एक नरक से दूसरे नरक में जा पडते हैं । किन्तु वहां भी सुख शान्ति कहाँ ? वह नरक भी उन्हें अत्यन्त घोर सन्तापदाथी होता है और मलसूत्र आदि ले भरपूर होता है। वहां चिरकाल तक સૂત્ર પરમાધામિકા દ્વારા નારકાને જ્યારે ખૂબ જ માર મારવામાં આવે છે, ત્યારે નારકે ઘેાર દુઃખમય અને વિષ્ઠા આદિ ગદા પદ્મા થી પરિપૂર્ણ નરકમાં (નરકાન્તરમાં અથવા નરકના એક ભાગમાંથી ખીજા ભાગમાં) જઈ પડે છે. ત્યાં તેએ અશુચિનુ' (વિષ્ઠા આદિનું) ભક્ષણ કર્યા કરે છે, અને કીડાએ દ્વારા તેમનાં શરીરને ખૂબ જ પીડા પહેાંચાડવામાં આવે છે, આ બધું તેમના પૂધૃત પાપકર્માંના ફલસ્વરૂપે તેમને ભાગવવુ પડે છે. ારકા 'टीअर्थ–ज्यारे परसाधामि । ( नरपते) नार लवाने थोडे છે, ત્યારે તેઓ નરકના એક ભાગમાથી ખીજા ભાગમાં જઇ પડે છે. ત્યાં પણ તેને સુખશાન્તિ મળતી નથી તે નરકમાં પણ તેને દારુણ દુ.ખાના અનુભવ કરવા પડે છે. તે નરકસ્થાન મળ, મૂત્ર આદિ અશુચિમેથી પરિપૂર્ણ હાય Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूझतासूत्रे मूत्रादि पिबन्तश्च नारकारी चिमालपर्यन्तम् 'चिटुंति' तिष्ठन्ति । तथा-'मनोवगया' की रणनाः स्वकीय मवशाः 'किपीमि' कृमिभिः-परमा धार्मिकाऽऽादितः परस्परोत्पादितै कौटविशेषैः 'तुम॒ति' त्रुटयन्ते कृमिद्वारा व्यथ्यन्ते । तथा च-आगमवचनम् - 'छटीपनमामु णं पुढवीसु नेरइया पहू महंनाई लोहिकुंथलबाई विउव्यित्ता अन्ननन्नरूप काय सप्तुरंगेमाणा २ अणुघायमाणा २ चिति ।' छाया-पष्ठसप्तम्योः पृथिव्यानरयिकाः अतिमहान्ति रक्तकुन्थुरूपाणि । विकुव्य अन्योऽन्यस्य कार्य समतुम्झायमाणाः २ (आश्लिष्यमाणाः) अनुदन्यमानाः २ तिष्ठन्ति ॥इति॥२०॥ __मूलम्-तया कलिणं पुण धम्माणं गाढोवणी अतिदुक्खधम्म। अंदसु पकिखप्पा विहंतु देह वह सीसं सेऽभिंतीवयंति।२१॥ छाया-सदा कृत्स्नं पुनधर्मस्थानं गाढोपनीतं अतिदुक्रवधर्मम् । ____ अन्खुबु मक्षिप्य विहस्य देहं वेधेन शीर्प तस्याऽभितास्यन्ति ॥२१॥ के विष्ठा का भक्षा और स्त्र का पान करते रहते हैं। परलाधार्मिकों द्वारा या परस्पर में उत्पादित कीडे वहां उन्हें काटते हैं और इससे घोर वश्या होती है। आगम में कहा है-छठी और सातवीं नरकभमि में नारकजीव यात बडे बडे 'इक्तकु-थु' के रूपों की चिक्रिया करते वे एक दूसरे के शरीर का उपहनन करते हैं ॥२०॥ शब्दार्थ-सया-सदा सर्वकाल 'सिणं पुण धम्मट्ठाण-कृत्स्नं सस्थान' नारकी जीवों के रहने का सपूर्ण स्थान उष्ण होता है रणीयं-गाढोपनीतं' और वह स्थान निधत्त निकाचित कर्म द्वारा बारकी जीवों को प्राप्त हुआ है 'अतिदुखदम-अतिदुःख धर्मम्' છે. ત્યાં નારકે ચિરકાળ સુધી વિઠાનું ભક્ષણ અને મૂત્રનું પાન કર્યા કરે છે. પરમધામિક દ્વારા અથવા પરસ્પરના દ્વારા ઉત્પન્ન કરવામાં આવેલા છે ત્યાં તેમને કરડયા કરે છે. આગમમાં પણ એવું કહ્યું છે કે- છઠ્ઠી સાતમી નરકભૂમિમાં નારક જી ઘા જ મેટા મોટા “૨કતકર્થના = 0 લિકિયા કરે છે. તેઓ એક બીજાના શરીરનું ઉપહનન (ભક્ષણ) भने રૂપે કરતા રહે છે. કેરા मया-सदा सर्वस 'कसिणं पुण धम्मट्ठाणं- कृत्स्नं पुनर्घर्मस्थानम' का २९वानु सपूर्ण स्थान 8 डाय छे 'गाढोवणीय-गाढोपनीतं આ નિધત નિકાચિત કર્મ દ્વારા નારકી ઓને પ્રાપ્ત થયેલ છે. બારકી ને રહેવાની સ અને તે સ્થાન નિધત્ત નિકાચિત , Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३७५ ' अन्वयार्थः-(सया) सदा-सर्वकालं (कसिणं पुग घम्पहाणं) कृत्स्नं संपूर्णमपि धर्मप्रधान स्थान स्थितिनीरकाणां भवति (गाढोवणीय) गाढोपनीतं निध. तनिकाचितकर्मद्वारा प्राप्त (अतिदुक्खधम्म) अतिदुःखधर्ममतिदुःखदस्वभावं वर्तते पुनश्च तान (अंदसु) अन्दपु-कुम्भी विशेषेषु (पवितप) मक्षिप्य तेषां (देह विहत्तु) देहं विहाय-विदार्य (से) तस्य (सीसं) शीर्ष मस्तकं (वेहेण) वेधेन रन्ध्रोत्सादनेन (अभिनावयंति) अभितापयन्ति कीलयन्ति इति ॥२१॥ ____टीका-सया' सदा 'कसिणं' कृ-रनं समस्त भेव 'घम्मट्टणं' धर्मस्थानम् , अतितापपधानं स्थितिर्भवति नारकजीवानाम् , 'गाहोत्रणीय' गाहोपनीतं निधत्तनिकाचितावस्यैः कर्मभिनरिकजीवानां माप्तं भवति । पुनः कीदृशं तत्थानम् ? तबाह अति दुःख देना ही जिनका धर्म-स्वभाव है 'अंजुम्लु-अन्दूषु' कुंभी में 'पक्खिप्प-प्रक्षिप्य' डालकर 'देहं विस्तु-देहं चिहत्य' उनके शरीर का भेदन करके 'से-तस्य' उसका 'लीसं-शीर्ष' मस्तक में 'वेहेण-वेधेन' छिद्र करके 'अभिनवयंति-अभितापयन्ति' पीडा पहुँचाते हैं ॥२१॥ ___अन्वयार्थ-नारकजीवों का रहने का सम्पूर्ण स्थान सदैव उष्णता प्रधान होना है और वह स्थान निधत्त एवं निशायित् कर्मों के द्वारा उन्हें प्राप्त होता है । वह स्वभाव से ही अत्यन्त दुःखप्रद है। परमाधार्मिक देव नारकों को कुंभी में डालकर लया मस्तक में छेद करके पीडा पहुँचाते हैं । २१॥ ____टीकार्थ--नारकजीवों के रहने का स्थान सदा एवं सम्पूर्ण उष्णता वाला होता है । उन्हें निधत्त एवं निकाचित्त अवस्था को प्राप्त कर्मों 'अतिदुक्खधम्म-अतिदुखधर्मम्' मति पधारे हे मना -२वभाव छ 'अंदूसु-अन्दूपु' माविशेषमा पक्खिप्प-प्रक्षिप्य' नामान 'देहं विहन-देहं विहत्य' तमना शरीर लेटीन 'से-तस्य' मनु 'सीसं-शी' माथामा 'हेण वेधेन' ॥ ४शन ‘अभितावयंति-अभितापयन्ति' पी। पांया छ. ॥ २१॥ સૂવાર્થ-નારકોને જ્યાં રહેવાનું હોય છે તે સંપૂર્ણ સ્થાન સદા ઉષ્ણુતાવાળું હોય છે, તેમને નિધત્ત અને નિકાચિત કર્મો દ્વારા તે સ્થાનની પ્રાપ્તિ થાય છે તે સ્થાન સ્વાભ વિક રીતે જ અત્યન્ત દુખપ્રદ છે ત્યાં ઉત્પન્ન થયેલા નારકેના શરીરને કંદ નામની કુંભીમાં નાખી દઈને તથા તેમના મસ્તકને વી ધી પરમાધાર્મિક અસુરે તેમને ખૂબ જ યાતનાઓ આપે છે. ૨૧ ટીકાર્થ–નારને રહેવાનું સંપૂર્ણ સ્થાન સદા ઉષ્ણ હોય છે, નિત્તા અને નિકાચિત અવસ્થાના સદૂભાવવાળાં કર્મોને કારણે તેમને આ સ્થાન Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे 1 'अतिदुःखधम्मं' अतिदुःखधर्मम् अतीव दुःखमसावेदनीयं धर्मः स्वभावो यस्य तथाभूतं वर्त्तते । तादृशस्थाने स्थितं नारकजीवं 'अंनु' अन्दूषु कुम्भीविशेषेषु 'fear' far देह वितु' देह विविदार्य 'सी' शीर्ष - मस्तकम् । 'से' तस्य नारऋजीवस्य 'हेग' वेथेन छिद्रोत्पादनेन । 'अभितापयंति' अभि तापयन्ति, सर्वतः संवारयन् । नारकजीवानां स्थानं सर्वदेवात्युष्णं भवति, तस्थानं तीव्रतीतीव्रतम परिणाम कम चिकणकर्मणा जीवन प्राप्तं भवति । तत्स्थानमती दुःखदनि, यत्र स्थाने नारकिजीवानां सर्वाण्यंगानि प्रमिध, तत्र stai निक्षिप संतापयन्ति परमधार्मिका नारकीरान् इति भावः ॥२१॥ के कारण उस स्थान की प्राप्ति होती है । वह स्थान पुनः किस प्रकार का है, सो कहते हैं, यह अत्यन्त दुःखमय स्वभाव वाला है अर्थात् स्वभावतः उस स्थान को प्राप्त करने से असह्य दुःख उत्पन्न होता है । ऐसे स्थान में नारकों को रहना पडना है । परमधार्मिक असुर वारकियों के शरीर को वेडियों में डालकर तथा मस्तक में छिद्र करके घोर संताप पहुंचाते हैं । ३७६ आशय यह है - जारकजीवों का स्थान सदैव अत्यन्त उष्ण रहता है । तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम परिणाओं के द्वारा उपार्जित किये हुए चिकने कर्मों से उस स्थान की प्राप्ति होती है । वही अत्यन्त दुःखदायी है । उस स्थान में नारकियों के सब अंगों को भेदन करके तथा कील Dinar परमधार्मिक देव नारक जीवों को घोर सन्ताप देते हैं ॥ २१ ॥ પ્રાપ્ત થયુ હાય છે તે સ્થાનનુ વિશેષ વર્ણન કરતા સૂત્રકાર કહે છે કે~~ તે અત્યંત દુ:ખપ્ર- સ્વભાવવાળું છે, એટલે કે આ સ્થાનમાં ઉત્પન્ન થનારા જીવાને સ્વાભાવિક રીતે જ અસહ્ય દુઃખાને અનુભવ કરવા પડે છે. ત્યાં પરમાધામિઁક દેવતાએ નાકા પર ખૂબ જ અત્યાચાર ગુજારે છે. તેઓ તેમના શરીરને કુભીમાં નાખીને તથા તેમના મસ્તકમાં છિદ્ર પાડીને તેમને દારુણ દુખના અનુભવ કરાવે છે. આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે નારકેટનાં નિવાસ્થાન સદા અત્યન્ત ઉષ્ણ રહે છે. તીવ્ર તીવ્રતર અને તીવ્રતમ પરિણામે દ્વારા ઉપાર્જિત કરાચેલાં ચીકણાં કર્મોને લીધે આ સ્થાનમાં તેમની ઉત્પત્તિ થતી હાય છે આ સ્થાન અતિશય દુ:ખદાયી છે. તે સ્થાનમાં ઉત્પન્ન થયેલા નારકેાને કુ'ભીમાં નાખીને તેમના મસ્તક આદિ અગેામાં ખીલા ઠેકીને પરમાધાર્મિક અસુરા તેમને ઘાર સતાપના અનુભવ કરાવે છે. તારા Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. शु. अ. ५ उ. १ नारकीय बेदना निरूपणम् ३७७ मूलम् - छिंदति बालस्स खुरेण नक्क, उट्ठे वि छिंदेति दुबेवि कण्णे । जिंभं विणिक्कंस्त विहत्थिमित्तं तिक्खाहिं सूलाहिऽभितावयति ॥ २२॥ छाया - छिन्दन्ति चालस्य शुरेण नासिकामोष्ठौं अपि छिन्दन्ति द्वावपि कर्णौ । जिहां विनिष्कास्यतिमात्र तीक्ष्णाभिः शूलाभिरभितापयन्ति ॥ २२ ॥ अन्वयार्थः -- (बालस्त) वालस्य निर्विवेकिनो नारकस्य (नक्कं) नासिकां (उट्टे वि) ओष्ठ अपि (खुरेण) क्षरेण (छिंदांत) छिन्दन्ति - कर्तयन्ति तथा ( दुवे वि कण्णे) द्वापि कण (दिति) छिन्दन्ति (वित्थिमित्तं) वितस्तिमितां वितस्तिमात्रां (जि) जिह्वां (विणकर) विनिष्कास्य (तिवखाहिं सुलाहिं) तीक्ष्णाभिः शुक्राभिः (अभिवावयंति) अभितापयन्ति वेवति इति ||२२|| शब्दार्थ -- 'बालस्स - बालस्य' विवेकरहित नारकिजीव की 'नक्क नासिक' नासिका को 'उद्वेषि-औष्ठो अपि' और ओष्ठ को भी 'खुरेणक्षुरेण' अस्तुरे से 'द्विदति - छिन्दन्ति' काटते हैं तथा 'दुवे वि कण्णेaraft कर्णी दोनों कान भी 'छिंति-छिन्दन्ति' काट लेते हैं' 'विहस्थि'मित्तं वितस्तिमितां' वितरित मात्र 'जिस-जिहां' जीभ को 'विणिकस्स - विनिष्कास्य' बाहर खींचकर 'तिक्खाहिं सुलाहि तीक्ष्णाभिः शूलाभिः' तीक्ष्ण धार वाले शूल से 'अभितावयंति-अभितापयन्ति' पीड़ित करते हैं ॥ २२ ॥ अन्वयार्थ- नरकपाल अज्ञान नारक की नाक काट लेते हैं, होठों को काट लेते हैं और दोनों कानों को भी काट लेते हैं। एक बेंत लम्बी जीभ बाहर निकालकर तीक्ष्ण शूलों से उसे बींध कर पीडा देते हैं ||२२|| शब्दार्थ –'बालस्स- बालस्य' विवे रहित नारी वोनी 'नक्कं नासिकां ' नासिष्ठाने (नाउने) 'उट्ठेवि - ओष्ठौ अपि' ने हिने या 'खुरेण क्षुरेण' मस्तराथी 'छिदंति - छिन्दन्ति' हाये हे तथा 'दुवेवि कण्णे - द्वावपि कर्णौ ' म'ने डान पा 'छिदति - छिन्दन्ति' भयो से छे 'विहत्थिमित्तं वितस्तिमात्रां' वितस्ति मात्र अर्थात् भेङ वे'त भेटसी 'जिन्भं-जिह्वां' ने 'विणिकस्स - विनिष्कास्य' महार थे'थाने 'तिक्खाहि सूाहिं - तीक्ष्णाभिः शूलाभिः' तीक्ष्क्षु धारवाजी शूजथी 'अभितावयंति - अभितापयन्ति ' पीडित रे हे ॥ २२ ॥ સૂત્રા—નરકપાલા અજ્ઞાન નારકાનાં નાક કાપી લે છે, હાઠ કાપી લે છે, મને કાન પણ કાપી લે છે અને એક વેત લાંખી તેમની જીભને મહાર ખેંચી કાઢીને તીક્ષ્ણ શૂલે (ધારદાર કાંટા જેવાં શસ્ત્રો) વડે વીંધી નાખે છે. ારા २०४८ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ . . सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___टीका--'वालस्स' वालाय निर्विवेकिनः प्राणातिपातादिघोरकर्मकारिणो जीवस्य ते परमाधार्मिकाः तेषां पूर्वदुष्कृतानि स्मारयित्वा 'नक' नाप्तिकाम् 'खुरेण' तीक्ष्णारेण छिन्दन्ति-कर्त्तयन्ति । तथा 'उडेवि' ओष्ठौ अपि छिन्दन्ति । 'तथा-'दुवे वि' द्वावपि । 'कण्णे' कौँ छिन्दन्ति । तथा-'विहत्थिमित्तं' वितस्तिमात्रां-वितस्तिप्रमाणाम् 'जिम' जिह्वाम् ‘विणिक्कस्स' विनिष्कास्य हस्तेन वहिरानीय 'तिक्खाहि' तीक्ष्णामिः 'मुलाहि शूलाभिः तदाख्याऽस्त्र विशेषः आविध्य । , 'अभितावयंति' अभितापयन्ति-जिह्वां शूलादिभिर्वे धयित्वा अतिशयेन पीडामुस्पादयन्ति, इति भावः ॥२२॥ मूलम् ते तिप्पमाणा तैलसंपुडंव, राइंदियं तथ थणंति बाला। गैलंति ते सोणियपूयमंसं, पंजोइया खार पइद्धियंगा ॥२३॥ छाया--ते तिप्यमानास्तालसंपुटा इव रात्रिदिवं तत्र स्तनन्ति वालाः । गलन्ति ते शोणितपूयमांसं प्रयोतिताः क्षारमदिग्धाङ्गाः ॥२३॥ टीकार्थ--प्राणातिपात आदि घोर कर्म करने वाले उस अज्ञान - नारक को, परमाधार्मिक उसके पूर्वपापों का स्मरण दिलाकर तीखे छुरे से नाक काट लेते हैं, दोनों ओष्ठ काट डालते हैं और दोनों कान भी काट डालते हैं । तथा एक वालिस्त (वेत भर) जीभ मुख से बाहर निकाल कर तीक्ष्ण शूलों से वेध करके अतिशय पीडा देते हैं ॥२२॥ शब्दार्थ--'तिप्पमाणा-तिप्यमानाः' जिनके अंगों से रुधिर टपक रहा है ऐसे 'ते-ते' वे नारक 'चाला-बालाः' अज्ञानी 'तलसंपुडंव-तालसंपुटा इच' सूखे ताल के पत्ते के समान 'राइंदियं-रात्रिंदिवम्' रात ટીકાર્થ–પ્રાણાતિપાત આદિ ઘર કમ કરનાર છે ત્યાં ઉત્પન્ન થાય છે. ત્યાં તેમની કેવી દશા થાય છે તેનું સૂત્રકાર વર્ણન કરે છે પરમાધાર્મિકે તેમનાં પૂર્વકૃત પાપનું તેમને સમરણ કરાવીને તીક્ષણ છરી વડે તેમનાં નાક કાપી નાખે છે, બન્ને હોઠ અને બને કાન પણ કાપી નાખે છે, તથા તેમની એક વેંત જીભને મોઢામાંથી બહાર ખેંચી કાઢીને તેમાં તીણ શુળ અથવા ખીલાઓ ભે કી દે છે. આ પ્રકારની અસહ્ય પીડાએ તેમને त्यां सहन ४२वी ५३ है. ॥२२॥ शा-'तिप्पमागा-तिप्यमाना.' रेमना भगाथी वही 2५४ी रघुछ मेवा 'ते-ते' ते ना२४ 'वाला-वालाः' मज्ञानी 'तलसंपुडंत्र-त लसंपुटा इव' वायुथी . सू तासना पाना समान 'राइंदियं-रात्रिन्दिवम्' रात, हिन-तत्थ-तत्र' Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३७९ अन्वयार्थः- तिप्पमाणा) तिप्यमानाः शोणितं क्षरन्तः (ते) ते नारकाः, (बाला) वाला:-अज्ञानिनः (तलसंपुडं व) तालसंपुटा इस परनेरितशुष्कतालपत्रसंचया इव (राइंदिय) रात्रिंदिवम् (तत्थ) तत्र नरके (थणंति) स्तनन्ति दीर्घविस्वरमाक्रन्दन्ति (पज्जोइया) प्रद्योतिताः वहिना ज्वलिताः (खारपयद्धियंगा) क्षारप्रदिग्धांग:-क्षार• लिप्ताङ्गाः (सोणियपूयमसं) शोणितपूतिमांसं (गलंति) गलन्ति स्रावयन्तीति ॥२३॥ टीका-तिप्पमाणा' तिप्यमानाः-स्वागभ्यः शोणितमुद्विरन्तः बहिनिःसारयन्तः 'ते' ते नारकाः 'बाला' वाला:-अज्ञानिनश्छिन्ननासिकौष्ठजिह्वाकर्णाः । 'तलव दिन 'तत्थ-तत्र' उस नरक में 'थणंति-स्तनंति' रोते रहते हैं 'पज्जोइया-प्रद्योतिताः' आग में जलाये जाते हुए 'खारपयद्वियंगा-क्षारप्रदिग्धांगाः' तथा अंगो में खार लगाये हुए 'सोणियपूधमंसं-शोणित पूयमांसं' रक्त, पीव, और मांस 'गलंति-गलन्ति' अपने अंगों से गिराते रहते हैं ॥२३॥ अन्वयार्थ---रुधिर (लोई) बहाते हुए अज्ञान नारक जीव पबन के चलने से सूखे हुए ताड के पत्तों की राशि के समान रात दिन नरक में उच्च स्वर से आक्रन्दन करते रहते हैं। वे अग्नि से जला दिये जाते हैं और फिर उनके अंग अंग पर क्षार छिडक दिया जाता है। उनके शरीर से रुधिर (लोई) और सडा मांस झरता रहता है।।२३। टीकार्थ--अपने अंगों से रुधिर बाहर निकालते हुए वे अज्ञानी नारकी जिनकी नाक, ओष्ठ जीभ कटी हुई है, सुखे हुए ताल के पत्तों तन२४मा 'थति-स्तनंति' शत। २ छे. 'पज्जोइया-प्रद्योतिताः' मामा मndi ordi 'खारपयद्धियंगा-क्षारप्रदिग्धांगाः' तथा मनोमा भार साये 'सोणिय पूयमसं-शोणितपूयमांस' २४त, ५३, मने मांस 'गलंति-गलन्ति' पाताना અંગથી વહેવડાવતાં રહે છે. જે ૨૩ સૂત્રાર્થ–જેવી રીતે પવનની લહેરથી તાડનાં સૂકા પાનની રાશિમાંથી ખડ, ખડ” અવાજ થતો રહે છે, એજ પ્રમાણે પરમધાર્મિક અસુરો દ્વારા અંગેનું છેદન થવાને કારણે જેમનાં અગમાથી લેહી વહેતુ હોય છે એવાં અજ્ઞાન નારકે અહર્નિશ ઊંચે સ્વરે આકંદ કર્યા કરે છે. તેમને અગ્નિમાં બાળવામાં આવે છે, અને તેમના અંગે પર ત્યાર બાદ મીઠું ભભરાવવામા આવે છે. તેમનાં શરીરમાંથી સદા લેહી પરૂ અને માસ ટપકડ્યા કરે છે. આવા टी -५२माधाम ४ हेक्ता द्वारा मना नls, आन, 318, म આદિ અંગેને છેદી નાખવામાં આવ્યાં છે, અને તે કારણે જેમનાં અગ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे संपुटं व तालसंपुटा इव शुष्कतालपत्राणीव, 'राईदियं रात्रिदिवम् , अहर्निशमिति यावत् । 'तत्य' तत्र नरकाऽऽवासे 'थणंति' स्तनन्ति तारतरेण विस्वरं रुदन्त. स्तिष्ठन्ति । तथा-'पज्जोइया' प्रयोतिताः-बहिना प्रधोतिताः ज्वलन्तः । तथा'खारपइद्धियंगा' क्षारप्रदिग्धाङ्गाः क्षारै लणैः प्रदिग्धानि अतिशयेन पूरितानि अङ्गानि येषां तथाविधास्ते । 'सोगियपूय मांसं शोणितपूयमांसम् , स्वकीयशरीरावरवेभ्यो 'गलंति' गलन्ति-निष्कासयन्ति । तदेहात शोगितादीनि पतन्ति इति ॥२३॥ मूलम्-जइते सुंयालोहितपूयपाइ बालागणी तेअगुणा परेणं। . कुंभीमहंताहिये पोरसिया समुस्लिता लोहियपूयपुण्णा॥२४॥ छाया--यदि त्वया श्रुता लोहितपूयपाचिनी वालाग्नितेजोगुणा परेण । कुंभी महत्यधिकपौरुपीया समुच्छ्रिता लोहितपूयपूर्णा ॥२४॥ के समान, रातदिन उस लरकावास में ऊंचे ऊंचे स्वर से रुदन करते रहते हैं । इसके अतिरिक्त वे अग्नि से जलाये जाते हैं और उनके अंगों पर लक्षण लगा दिया जाता है। इस कारण उनके शरीर के अवयवों से रक्त पीप एवं मांस निकलता रहता है ॥२३॥ शब्दार्थ--'लोहितपूधपाई--लोहितपूयपाचिनी' रुधिर एवं पीच को पकाने वाली बालागणीतेयगुणा परेणं-बालाग्नितेजोगुणा परेण' नूतन अग्नि के ताप के समान जिसका गुण है अर्थात् जो अत्यन्त 'तापयुक्त है 'महंता-महती' बहुत बडी 'अहियपोरसिया-अधिकपौरुबीया' तथा पुरुष प्रमाण ले अधिक प्रमाण वाली 'लोहियपूय पुण्णालोहितपूयपूर्णा' रक्त और पी से भरी हुई 'समुस्सिया-समुच्छ्रिना" માંથી રુધિર ટપકતું હોય છે એવાં તે નારકે તાડનાં સૂકાં પાંદડાની જેમ, રાતદિન ઊંચે સવારે રુદન ર્યા કરે છે, તેમનાં અંગોનું છેદન કરવા ઉપરાંત તેઓ તેમને અગ્નિમાં બળે છે અને તેમનાં દગ્ધ અંગે પર મીઠું ભભરાવીને તેમની પીડાને અધિક દારુણ કરે છે. તે કારણે તેમના શરીરના અવયમાંથી લેહી, પરુ અને માંસ ટપકતું રહે છે. રિયા शहा-'लोहियपूयपाई-लोहितपूर्यपाचिनी' सोही अव५ ५३ने ५४।44वजी 'बालागणीतेयगुणा परेणं-बालग्निवेजोगुणा परेण' नूतन मशिना तापना समान रेन गुण छ अर्थात् रे सत्यत ता५ युक्त छ 'महंता-महती' ना भाटी 'अहियपोरसिया-अधिकपौरुपीया' तथा पुरुष प्रभाथी अधि:, प्रभावी 'लोहियपूयपुण्णा-लोहितपूयपूर्णा' २४॥ भने ५३थी सारेका 'समु. Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रे. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३८१ अन्वयार्थ --(लोहितपूयपाई) लोहितपूरपाचिनी रक्तप्यपाचिका कुंभी (वालागगीतेगुणा परेणं) बालाग्नितेजोगुणा परेण-जाज्वल्यमानाग्नितप्ता प्रकर्षण (महंता) महती (अहियपोरसिया) अधिपौरुशीया-पुरुषपमाणादधिका (लोहियपूयपुग्णा) लोहितप्पपूर्णा (समुस्सिया) साछूिना-उन्ट्रिाकृतिः अव्यवस्थिता (कुंभी) कुंभी (जइ ते सुया) यदि ते श्रुता ।।२४॥ . टीका-पुनरपि सुधर्मस्वामी जंबूस्वामिन प्रति भगवतस्तीर्थकरस्य वचनं प्रकाशयति-'जइ तं' इत्यादि । 'लोहितपूयपाई' लोहितपूयपाचिनी रक्तपूया. चिनी, लोहितम् अपक्वं रुधिरं पूयम् पाचितं रक्तम् , तदुभयं पाचयति या सा लोहितपूयपाचिनी । तथा-'बालागणीतेयगुगा परेणं' बालाग्मितेजोगुणा परेण वालाग्निना, बालो नूतनोऽग्निः तेन बालाग्निना योऽभितापः स एव गुणो यस्याः ऊंची 'कुंभी-कुंभी' कुम्भी नामक नरकभूमि 'जह ते सुया-यदि त्वया श्रुता' कदाचित् तुमने सुनी होगी ॥२४।। अन्वयार्थ--रुधिर और पीप को पकाने वाली, नूतन अग्नि के समान गुण वाली अर्थात् तीव्र ताप से युक्त, महती पुरुष प्रमाण से भी अधिक प्रमाणवाली, रक्त तथा पीत से परिपूर्ण और ऊंट की आकृति की ऊंची रही हुई कुंभी संभव है तुमने सुनी हो ॥२४॥ टीकार्थ--सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी के प्रति पुनः भगवान् तीर्थ कर के वचन को प्रकाशित करते हैं-'जह ते' इत्यादि । अपक्व रक्त लोहित तथा पका हुआ रक्त पूर (मवाद) कहलाता है। इन दोनों को जो पकाती है उसे 'लोहितपूयपाचिनी' कहते हैं । बाल अर्थात् नूतन अग्नि के समान गुण वाली जो हो उसे 'घालाग्नितेजोगुणा' कहते हैं। इस सिधया-समुच्छूिताः' यी 'कुभी-कुंभी' हुनी नाभवाजी न२६खूभी 'जइ ते सुयायदि त्वया श्रुता' ४ायित् तमे सामजी शे ॥ २४ ॥ સૂત્રાર્થ–રુધિર અને પરુને પકાવનારી, નૂતન અગ્નિના જેવા તેજસ્વી ગુણવાળી એટલે કે તીવ્ર તાપથી યુકત, ઘણી મોટી-પુરુષ પ્રમાણ કરતાં પણ અધિક પ્રમાણવાળી, રક્ત અને પરુથી પરિપૂર્ણ અને ઊંટના જેવા આકારવાળી, ઊંચા એવા કુભી નામના નરકની વાત તે કાચ તમે સાંભળી હશે પારકા ટીકાર્થ–સુધર્મા સ્વામી જબૂસ્વામીની સમક્ષ મહાવીર પ્રભુનાં વચન ५४८ ४२ता मा प्रमाणे ४९ छ-'जइ ।' त्याह-५५४१ ने सोडित' કહે છે તથા પકવ રક્તને “પણ કહે છે. આ બન્નેને જે પકાવે છે તેને લેહિતપૂર્યપાચિની' કહે છે. બાલ અગ્નિ (નૂતન અગ્નિના) જેવા તેજસ્વી शुष्पाजी रे डाय छ, तेने 'बालाग्नितेजोगुणा' हे छ मेवी मासाभिनावा Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ___ सूत्रकृताङ्गसूत्र सा बालाग्नितेजोगुणा । 'परेग' परेण-प्रकर्षेण अतिशयेन तप्तेत्यर्थः । पुनः कथं. भूता कुंभी ? तत्राह-'महंता' महती अतिशयेन वृहत्तरा । 'अहियपोरसिया' अधिकपौरुषीया-पुरुष पमाणतोऽधिका । 'समुस्सिया' समुच्छ्रिता, उष्ट्रि काकृतिः ऊर्चव्यवस्थिता । 'लोहियपूयपुण्णा' लोहितपूयपूर्णा-रक्तपूयाभ्यां पूर्णा व्याप्ता । एवंभूता कुंभी । 'जई' यदि 'ते' त्वया 'मुया' श्रुता-आकर्णिता भवेत् । एतादृशः कुम्भीनाम नरकः युष्माभिः श्रुतः तत्रेमे पापकारिणो गच्छन्तीति संवन्धः ॥२४॥ मूलम्-पक्खिप्प तासु पययंति बोले, अदृस्सरे ते कलुणं रसंते। तहाइया ते तउ तंब तत्तं, पजिजमाणाऽहस्सरं रसंति ॥२५॥ छाया-पक्षिप्य तासु प्रपचंति बालान आर्तस्वरान् तान् करुणं रसतः। वृष्णारितास्ते त्रपुताम्रतप्त पाय्यमाना आर्तस्वरं रसन्ति ॥२५॥ पालाग्नि के समान अत्यन्त तीव्र संताप से युक्त, बहुत बडी, पुरुष प्रमाण से भी अधिक प्रमाण वाली, उष्ट्रिका जैसी आकृति वाली ऊंची स्थित तथा रक्त और पीव से व्याप्त कुंभी यदि तुमने सुनी हो। उस कुंभी में वे पापकारी नारक जाकर उत्पन्न होते हैं ॥२४॥ 'पक्खिप्प' इत्यादि । शब्दार्थ--'ताप्लु-तालु' रक्त और पीव से भरी हुई उस कुम्भी मैं 'बाले-बालान्' अज्ञानी 'अस्सरे-आर्त्तवरात्' आर्तनाद करते हुए 'करुणं रसंने-करुणं रसतः' एवं करुण-दीन स्वर से रुदन करते हए नारकी जीवों को 'पक्खिप्प-प्रक्षिप्य' उसमें डालकर 'पययंतिप्रपचन्ति 'नरकपाल पकाते हैं 'तण्हाया-तृष्णार्दिता' प्यास से व्याગુણવાળી અત્યન્ત તીવ્ર સંતાપથી યુક્ત, ઘણી જ મે ટી–પુરુષપ્રમાણ કરતાં પણ અધિક પ્રમાણવાળી, ઉદ્રિકા (ઊંટ) ના જેવા આકારવાળી, ઊંચી સ્થિત લેહી અને પરુથી વ્યાસ કુંભીની વાત તે તમે કદાચ સાંભળી હશે. તે પાપકારી નારકે તે કુંભમાં જઈને ઉત્પન્ન થાય છે. ૨૪ 'पक्खि' त्यादि शहाथ-'तासु-तासु' २४त गने ५३थी मसी ते भीमा 'बालेबाल न' अज्ञानी 'अस्सरे-आत्तस्वरान्' मातना ४२di करुणं रसंते-करुणं रसता' शवम ४३-11 स्वस्थी २७i ना याने 'पक्खिप्प-प्रक्षिप्य' मा Hinने, 'पययंति-प्रचन्ति' न२३५।। ५३ छे 'तण्हाइया-तृष्णार्दिता।' तरसथा Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 समयार्थचोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३८३ __ अन्वयार्थः--(तासु) तासु-कुम्भीषु (वाले) चालान् (अट्टस्सरे) आर्तस्वरान् (कलुणं रसंते) करुणं-दीनं रसतः रोदनं कुर्वन: (पक्विप्प) पक्षिप्य (पययंति) मपचंति परमाथामिकाः (तण्डाइया) कृष्णार्दिताः-पिपासाकुलिनाः (ते) ते नारकाः (नउतंवतत्तं) त्रपुताम्रतप्तं (ज्जिजमाणा) पाय्यमानाः (भट्टस्सरं) आतस्वरं यथा स्यात् तथा (रसंति) रसन्ति-आक्रन्दनं कुर्वन्तीति । २५।। टीका-'तामु' तासु कुम्भीषु रक्तपूगपूरितासु 'बाले' वालान् पापकारिणः। 'अट्टसरे' आस्वरान् अतिदीनं नादं कुर्वतः । तथा-'वलुणे' वरुणम् । 'रसंते' रसतः करुणस्वरं कुर्वतोऽतिदीनान् जीवान् 'पक्खिप्प' क्षिप्य, तासु कुम्भीषु कुल' 'ते-ते' वे नारकी जीव नरकपालों के द्वारा 'तउतंवतत्तं-पु. ताम्रप्त' गरम सीसा और तांया 'पजिज्जमाणा-पाय्यमानाः' पिलाये जाते हुये 'अदृस्सरं-आर्तस्वरं' आर्त स्वर से 'रसंति-रसन्ति' रुदन करते हैं ॥२५॥ ___ अन्वयार्थ-उन कुंभियों में उन अज्ञानी, आर्त स्वर वाले तथा करुण क्रन्दन करने वाले नारक जीवों को पटककर नरकपाल पकाते हैं । तथा प्यास से पीडित उन नारकों को त पाया हुआ रांगा और ताया पिलाया जाता है तो वे आर्त स्वर से आक्रन्दन करते हैं-धुरी तरह चीखते हैं ॥२५॥ टीकार्थ-रक्त और पीव से परिपूर्ण उन कुभियों में उन पापी, अत्यन्त आर्तस्वर से चिल्लाने वाले तथा करुण आवाज करने वाले अतीव दीन नारकों को पटककर परमाधार्मिक पकाते हैं। जैसे उबलते व्या '-ते' ते ना२४ ७१ २४पासाना द्वारा 'तउतंबतत्तं-त्रपुताम्रतप्तं' १२५ सीसुमने तis 'पजिमज्जमाणा-पाय्यमानाः' पावापामा भारत 'अदृस्सरं-आर्तस्वरं' मात्त५५२थी 'रसंति-रसन्ति' २४ छे ॥२५॥ સૂત્રાર્થ–નરકપાલો તે કુશીઓમાં તે અજ્ઞાન નારકને બળજબરીથી પછાડીને પકાવે છે. ત્યારે તેઓ આર્તસ્વરે કરુણ આક્રંદ કરે છે. તથા તરસથી પીડાતા તે નારકોને ગરમા ગરમ સીસા તથા તાંબાનો રસ પીવરાવવામાં આવે છે. આ દુ:ખ સહન ન થઈ શકવાને કારણે તે નારકે આર્ત સ્વરે આકંદ કરે છે.-ભયંકર ચીસો પાડે છે પાપા ટીકાઈ—રુધિર અને પરુથી પરિપૂર્ણ તે કુશીઓમાં તે પાપી, અત્યન્ત આર્તા સ્વરે ચીસો પાડતા, કરુણાજનક અવાજે રુદન કરતાં, તે અતિશય દીન નારકેને પરમાધાર્મિકે પટકીને પકાવે છે. જેવી રીતે ઉકળતા તેલની Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अभिनववक्षिपदीप्ताऽतिमहनासु पापकर्मकारिणः पातयित्वा ‘पययंति' प्रपचन्ति यथा-तप्ततैलपू रतकटाहे शाकं पक्षिप्पेतस्ततश्चालन कुर्वन् पाचयति तद्वत् कटाहकलपकुमां बालान् इतस्ततः चालनेन ते परमाधार्मिकाः पाचयन्ति । तत्र पाकदुःखमनुभवन्तस्ते बालाः किं कुर्वन्ति तत्राह-तण्हाइया' तृप्णार्दिताः वृष्णया जलानेच्छया पीडितास्ते बालाः परमाधार्मिकः 'तउतंत्रतत्त' त्रपुताम्रतप्तम् , तृष्णयाऽऽकुलितास्ते यदा जलं प्रार्थयन्ति, तदा ते नरकपालास्तान् भो ? मद्यन्तेऽतीव पियमासीत् पिच इदानी मिदमिति स्मारयित्वा-वरं पुताम्रम् । 'पज्जिज्जमाणा' पाश्यमानास्ते नारकाः। 'अट्टनर आर्तस्वरं रसन्ति, दिलक्षणदुःश्वाऽनुभवनेन दुःखिताः आसन् एक, इदानीं तप्तत्रताम्रपानेन सुतरां साऽतिशयेन दु:खिताः सन्तः आर्तनाद कुन्तीति ॥२५॥ हुए तैल से पूरित कढाई में शाक डालकर और इधर से उधर तथा उधर से इधर हिला डुलाकर पकाया जाता है, उसी प्रकार कढाई के समान कुंभी में उन पापी जीवों को इधर उधर हिलाकर परमाधानिक पकाते हैं। पकाने के दु.ग्व का अनुभव करते हुए वे अज्ञानी क्या करते हैं, सो कहते हैं-घास से पीडित होकर जब वे जल की प्रार्थना करते हैं, तब नरकपाल उन्हें कहते हैं-'अरे तुझे मदिरा बहुत प्रिय थी, ले अब यह पी, इस प्रकार स्मरण दिलाकर उबलता हुआ रांगा और ताषा पिलाते है। तब वे अतीव आर्तस्वर से चिल्लाते हैं । विल. क्षण प्रकार के दु.ख का अनुभव करके वे बेचारे पहले ही दुःखी थे, अब तपा हुआ रांगा और शीशा पिलाने से वे स्वभावतः और अधिक दुःखी होते हैं और आर्तनाद करते हैं ॥२५॥ કડાઈમાં શાકને નાખીને તાવેથા વડે હલાવવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે તે કુંભીઓમાં તે નારકેને નાખીને તથા તેમને આમ તેમ ફેરવી ફેરવીનેશાકની જેમ હલાવીને-પકાવવામાં આવે છે. આ પ્રકારે જ્યારે તેમને પકાવવામાં આવે છે ત્યારે તેમને અસહ્ય પીડા થાય છે અને તરસને કારણે તેમનાં કઠ સુકાઈ જાય છે, તેઓ પાણીને માટે કાલાવાલા કરે છે ત્યારે નરકપાલે તેમને કહે છે –“અરે, તમને મદિરાપાન ઘણું જ પ્રિય હતું, તે હવે આ રસનું પાન કરે !” આ પ્રમાણે તેમના પૂર્વજન્મના દુકૃત્યેનું તેમને સ્મરણ કરાવીને તેઓ તેમને તાંબા અને સીસાને ઉકળતે રસ પિવરાવે છે, ત્યારે તેઓ આસ્વરે ચીસ પાડવા લાગે છે. કુંભમાં પકાવાયા હોવાને કારણે તેઓ અસહ્ય પીડાને અનુભવ કરી રહ્યા હતા, તેમાં વળી ગરમા ગરમ સીસા અને તાંબાના રસનું પરાણે પાન કરવું પડે છે, તે કારણે તેમના દુઃખની માત્રા સવાભાવિક રીતે જ ખૂબ વધી જાય છે, તેથી આત્તનાદ કરે છે. પ૨પ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ.१ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३८५' मूलम्--अप्पेण अप्पं इह वचइत्ता भवाहमे पुवसते सहस्से। चिट्ठति तथा बहुकूरकम्मा, जैहा कडं कम्म तेहासिभा।२६। __छाया--आत्मनात्मानमिइ वंचयित्वा भवाधमान् पूर्व शतसहस्रशः । - तिष्ठन्ति तत्र बहुक्रूरकर्माणो यथाकृतं कर्म तथाऽस्य भारः ॥२६॥ अन्वयार्थः--(इह) इहलोके (अप्पेण) आत्मना स्वेनैव (अप्पं) आत्मानं स्वं (वंचइत्ता) यंचयित्वा (पुवसते सहस्से) पूर्व शतसहस्रशः (भवाइमे) भवाधमात् मत्स्यवन्धलुब्धकमवान् प्राप्य । (बहुकूरकम्मा) वहुक्रूरकर्माणः (दस्य) तत्र नरके . 'अप्पेण' इत्यादि। . शब्दार्थ-'इन-इह हम मनुष्य भव में 'अप्पेण-आत्मना' अपने आप ही 'अपं-आन्मानम्' अपने को 'वंचइत्ता-पंचयित्वा' वंचित करके 'पुबलते सहस्से-पूर्व शतसहस्रशः' पूर्वजन्म में सैकडो और: हजारों बार 'भवाहमे-मवाधमान्' लुब्धक आदि अधम भवों को प्राप्त करके 'यहुकूरकम्मा-बहुकरकर्माण' पहुकरकर्मी जीव 'तत्थ-तन्त्र' उस नरक में "चिटुंति-तिष्ठन्ति' रहते हैं 'जहाकडं कम्म- यथाकृतं कर्म पूर्व जन्म में जैसा कर्म जिलने किया है 'तहासि भारे-तथाऽस्य भारः' उसके अनुसार ही उसे दुःख प्राप्त होता है ।२६॥ अन्वयार्थ-इस मनुष्यभव में अथवा मनुष्य लोक में जो अपने आप की वंचना (ठगना) करते हैं, वे पहले सैकड़ों और हजारों बार लुब्धक (शिकारी) आदि के अधम भवों को प्राप्त करते हैं, फिर वे 'अप्पेणं' त्याह'शहाथ-'इह-इह' मा भनुष्यममा 'अप्पेण-आत्मना' यात 'अपंआत्मानम्' घोताने 'वचइत्ता-वचयित्वा' छेतरीन 'पुव्वसते सहरसे-पूर्व शतमहबशः' पूर्वममा से। भने नरे। पा२ 'भवाहमे-भवाधमात्' दुग्ध वगैरे अधमलने प्राप्त श२ 'बहुकूरकम्मा-बहुक्रूरकर्माणः' म४२ ४भी:७१ 'तत्थ-तत्र' से न२४मा 'चिटुंति-तिष्ठति' हे छे. 'जही कडे कम्मयथाकृत कर्म' पूर्वमा २म या छ. 'तहासि भारे-तथाऽस्य भारः तेना अनुसार ४ ते ५ प्राप्त थाय छे. ॥२६ ... સૂત્રાર્થ–આ મનુષ્યભવમાં અથવા આ લેકમાં જેઓ આત્મવંચના પિતાના આત્માને છેતરવાની પ્રવૃત્તિ) કરે છે તેઓ પહેલાં તે સેંકટે અથવા હજારે વાર શિકારી આદિ અધમ જી રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. ત્યાર सू०४९ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '३८६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे (चिति) तिष्ठन्ति - पूर्वजन्मनि ( जहा कडं कम्म ) यथाकृतं कर्म ( तहांसि भारे) तथाऽस्य भारः पूर्वजन्मनि यथा कर्म कृतं तदनुरूपेणैवात्र फलमनुभवन्तीति ॥२६॥ 'टीका- 'इह' इह-अस्मिन्नेव मनुष्यभवे यः 'अप्पेण' आत्मना स्वेनैव प्रवचनादिव्यापारमवृत्तेन स्वत एव स्वस्य । 'अप्प' आत्मानम् परमार्थतो 'वंचइत्ता' वचयित्वा मताय्र्य, अल्पसुखाय परानषहत्य तज्जिनितसुखेन आत्मानं प्रतार्य । 'मेवा' भवाधमे भवानां बहुजन्मनां मध्ये येऽधमाः भवाः इति भवाधमाः मत्स्य कलुन्कादीनां भवाः व्यतीतजन्मसु । 'पुण्यंसते सहस्से' पूर्वस्मिन् शतसंहस्स्रशः- सम्यगनुभूय, सहस्रशो लुग्बकाद्यधमभवान् प्राप्य । 'वहुकूरकम्मा' बहुक्रूरंकर्माण: अनेकप्रकारकहिंसादि स्वरूपाऽतिकठिनकर्मकारिणः । 'वत्थ' तत्र दारुणे दुःखहुले नरकावासे 'चिति' तिष्ठन्ति, प्रभूतकालं यावत् । तादृश नरकवासे क्रूरकर्मी नरक में उत्पन्न होते हैं । जिसने पूर्वजन्म में जैसा कर्म किया है, उसे तदनुरूप ही फल भोगना पडता है ||२६|| टीकार्थ - - इस मनुष्यभव में जो दूसरों को वंचित करते- ठगते हैं, वस्तुतः वे अपने आपको ही वंचित करते हैं । अपने थोडे से सुख के लिये जो दूसरों का घात करता है, वह हिंसाजनित सुख से अपने को ही ठगता है । ऐसे प्राणी बहुत जन्मों में जो मच्छीमार व्याध आदि के अधम भव हैं, उनमें सैकड़ों-हजारों बार जन्म लेकर और अनेक प्रकार के हिंसा आदि क्रूर कर्म करके उस दुःखप्रचुर दारुण नरक में उत्पन्न होते हैं । वे वहां लम्बे काल तक निवास करते हैं । इस प्रकार के नरकावास में दीर्घकाल पर्यन्त स्थित रहने का क्या कारण है, सो प्रकट करते हैं - पूर्व जन्मों में जिसने जैसे अध्यवसाय से अधम ખાદ તે ક્રૂર કર્મ કરનારા જીવા નરકગતિમાં ઉત્પન્ન થાય છે. જેમણે પૂર્વજન્મમાં જેવાં કમ કર્યાં હાય, તેમણે તેને અનુરૂપ ફળ ભેગવવું જ પડે છે.રા ટીકા”—આ મનુષ્યભવમાં જે માણસ બીજાને ઠગે છે, તે ખરી રીતે તે પેાતાના આત્માની જ વચના કરે છે, એટલે કે પેાતાની જાતને છેતરતા હાય છે. પેાતાને ઘેાડા સુખની પ્રાપ્તિ થાય તે માટે એ બીજા જીવાના ૐ ઘાત કરે છે, તેઓ હિ'સાંનિત સુખ દ્વારા પેાતાના આત્માને જ છેતરે છે. કારણુ કે ક્ષણિક સુખને માટે. તેમના દ્વારા જે પ્રાણાતિપાત આદિ પાપકમાં સેવાય છે, તેને પરિણામે તેમને નરકગતિનાં દુઃ ખેા દીર્ઘકાળ સુધી સહન કરવા પડે છે. એવા જીવે! માછીમાર, પારધી, શિકારી આદિ અધમ ભવોમાં સેકા અથવા હજારો વાર જન્મ લઈને હિંસા આદિ ક્રૂર કર્માનું સેવન Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३८ दीर्घकालपर्यन्तं स्थितौ कारणमाइ-'जहा कडं कम्मतहासि भारे' इति । पूर्वजन्मम 'जहा' यथा येन अँध्यवसायेन' अधमम् अधमात्यधमादिना 'कडं कम्म' कृतं कर्मकृतानि संपादितानि जीवहिमादीनि । 'कम्म' कर्माणि 'तहा' तेन तेनैव रूपेण 'सि' तस्य नारकीयजन्तोः 'भारे' भाराः वेदनाः प्रादुर्भवन्ति स्वतः, परता, उभयतो वा । तथाहि-पूर्वजन्मनि परकीयमांसमसका नरकस्थितौ स्वमांसान्येवाऽग्निना प्रताप्य भक्षयन्ति । मांसरसपायिनो निजपू रुधिराणि तप्त्रपूणि पायन्ते । तथा मत्स्यघातकलुब्धकादयस्तथैव छिन्यन्ते, मिद्यन्ते नरकावासे । तथाऽनृतभाषिणामनृतभाषणं स्मारयित्वा जिह्वा छिद्यन्ते । परद्रव्यापहारिणामंगानि अति-अधम भाव से जीवहिंसा आदि कर्म किये हैं उसके लिये उसी रूप में भार बनते हैं अर्थात् वेदना उत्पन्न करते हैं । वे, वेदना कोई स्वतः अर्थात् अपने आप से, कोई पर के निमित्त से और कोई दोनों के निमित्त से होती हैं । जैसे जिन्होंने पूर्वजन्म में मांसभक्षण किया है, उन्हें नरक में अपना निजका अग्नि में पकाया हुआ मांस खिलाया जाता है। जो मांस के रस को पीने वाले थे उन्हें अपनापी और रुधिर तथा उघलता हुआ शीशा पिलाया जाता है । नरक में गये हुए मच्छीमार और व्याध आदि उसी प्रकार छेदे भेदे जाते हैं जिसप्रकार उन्होंने पूर्वजन्म में छेदन-भेदन किया होता है। जो पूर्वजन्म में मिथ्या. भाषी होते हैं, मिथ्याभाषण का स्मरण करवाकर उनकी जिहा का छेदन કરીને દુખપ્રચુર દારુણ નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તેઓ ત્યાં ઘણું લાંબા કાળ સુધી નિવાસ કરે છે. હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે તેમને શા કારણે તે નરકમાં દીર્ઘકાળ સુધી રહેવું પડે છે. પૂર્વજન્મમાં જેણે જેવા અધ્યવસાયથી–અધમ અથવા અતિ અંધમ ભાવથી જીવહિંસા આદિ કર્મ કર્યા હોય છે, તેમને તે કમેને ભાર એજ રૂપે વહન કરવો પડે છે એટલે કે તે કર્મો જ તેમની વેદનાને અનુભવે કરાવવામાં કારણભૂત બને છે. તે વેદનાઓમાંની કોઈ સ્વતઃ (પિતાના નિમિ. તને લીધે), કેઈ પરના નિમિત્તને લીધે અને કઈ બન્નેના (સ્વ અને પરના) નિમિત્તને લીધે ભોગવવી પડે છે. જેમકે જેમણે પૂર્વજન્મમાં માંસનું ભક્ષણ કર્યું હોય છે, તેને પિતાનું જ અગ્નિમાં પકાવેલું માંસ ખવરાવવામાં આવે છે. જેઓ માંસના રસનું પાન કરતા હતા, તેમને તેમનું પિતાનું ધિર, પરુ તથા ઉકળતા સીસા અને તાંબાને રસ પિવરાવવામાં આવે છે. માછીમાર અને વ્યાધના ભવમાં છએ જે પ્રકારે જીવનું છેદન-ભેદન કર્યું હોય છે Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्र प्रियन्ते । परदारिकाणां वृषणोच्छेदः क्रियन्ते । तथा महापरिग्रहारंभवतां क्रोधमायामानलोभिनां च क्रोधादि कार्य स्मारयित्वा तादृशमेव दुःखमुत्पाद्यते। तस्मात् सम्यगुक्तम्-यथावृत्तं कर्म तादृग् एव तत्कर्मविपाकाऽऽपादितो भारः इति ॥२६॥ मूलम्-समन्जिणित्ता केलसं अणज्जा ईठेहिं कंतेहि य विप्पहणा। ते दुन्भिगंधे कलिणेय फासे कम्मोवगा कुणिमे आवसंति त्तिबेमि ॥२७॥ छाया-समज्य कलपमनार्या इष्टैः कान्तैश्च विपहीनाः। ते दुरभिगन्धे कृत्स्ने च स्पर्श कर्मोपगाः कुणिमे आवसन्ति । इति ब्रवीमि ॥२७॥ भेदन किया जाता है । परकीय द्रव्य का अपहरण करने वालों के अंग काटे जाते हैं । परस्त्रीगामियों के अण्डकोष उखाड लिये जाते हैं। महारंभ और महापरिग्रह वालों को तथा क्रोध, मान, माया और लोभ करने वालों को उनके दोषों का स्मरण करवाकर उन्हों के अनु रूप दुःख उत्पन्न किये जाते हैं । अतएव ठीक ही कहा है कि जैसा कर्म किया गया है, तदनुरूप ही उस कर्म के विपाक से उत्पन्न भार (कष्ट) सहन करना पडता है ॥२६॥ 'समज्जिणित्ता' इत्यादि । - शब्दार्थ-'अणजा-अनार्या.' प्राणातिपात आदि क्रूर कम करने वाले अनार्य पुरुष 'कलुसं-कलुषम्' पाप को 'सनन्जिणित्ता-समय उपा. એજ પ્રકારે નારકના ભવમાં તેમનાં શરીરનું છેદન–ભેદન કરવામાં આવે છે. જે એ પૂર્વભવમાં મૃષાવાદનું સેવન કર્યું હોય છે, તેમને પરમધાર્મિક અસુરે તે મૃષાવાદનું સ્મરણ કરાવીને તેમની જીભ કાપી નાખે છે. પારકા દ્રવ્યનું અપહરણ કરનારા જીવન અંગે કાપી નાખવામાં આવે છે. પરસ્ત્રી સાથે કામભેગેનુ સેવન કરનાર છેના અંડકોષ ખેંચી કાઢવામાં આવૅ છે. મહારંભ, મહાપરિગ્રહ, ક્રોધ, માન, માયા અને સેક્સ કરનારા જીવોને તેમના દેનું સ્મરણ કરાવીને તે દેને અનુરૂપ યાતનાઓ આપવામાં આવે છે, તેથી જ સૂત્રકારે આ પ્રકારનું જે કથન કર્યું છે, તે યથાર્થ જ છે-“જે જીવે જેવા કર્મ કર્યા હોય, તેને અનુરૂપ-તે કર્મને વિપાક જનિત-ભાર (કચ્છ) તેને સહન કરવું જ પડે છે. એટલે કે કરેલાં કર્મોનાં ફળ દરેક જીવે અવશ્ય જોગવવા જ પડે છે. મારા - 'समन्जिणिचा' त्या vert-'अणज्जा-अनार्याः' प्रातिपात पोरे १२ ४ ४२९१वाणा नार्य पु२५ 'कलुसं-कलुयम्' पापने 'समन्जिणिता-समय पान शन Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३४६ - अन्वयार्थ:--(अणज्जा) अनार्याः , माणातिपातादिकर्मकारिणः (कलुस) कलुषं पापं (समज्जिणित्ता) समाशुभकर्मोपचयं कृत्वा (इट्ठोहि कंतेहि य विप्पहूणा) इष्टैः कान्तश्च विपहीना:-कमनीयशब्दादिविषयैर्विप्रमुकाः (दुन्भिगंधे) दुरभिगन्धे 'कसिणे य फासे' कृत्स्ने च स्पर्श अत्यन्ताशुभस्पर्शयुक्ते (कुणिमे) कुणिमे-मांसरुधिरादिपूर्णे नरके 'कम्मोवगा' कर्मोपगा:-कर्माधीनाः (आरसंति) आवसन्ति-यावदायुस्तावत्तिष्ठन्तीति ॥२७॥ . टीका--'अणज्जा' अनार्याः प्राणातिपाताघशुभकर्मकारित्वात्ते अनार्याः क्रूरकर्म कारिणः . पुरुषाः। हिंसाऽनृतभाषणस्तेयादिभिराश्रबद्वारीः 'कलुस' जन करके 'इटेहि कंतेहि य विप्पहूणा-इष्टैः कान्तैश्च विप्रहीनाः' इष्ट एवं प्रिय से रहित होकर 'दुन्भिगंधे-दुरभिगंधे' दुर्गन्ध से भरे 'कसिणे य फासे-कृत्स्ने च स्पर्शे' अत्यन्त अशुभ स्पर्शवाले 'कुणिमे-कुणिमे' मांस और मधिर आदि से भरे हुए नरक में 'कम्मोवगा-कार्मोपगा: कर्म के बशवर्ती होकर 'आवसति-आवसन्ति' निवास करते हैं ॥२७॥ ; अन्वयार्थ--जो अनार्य अर्थात् प्राणातिपात आदि हेयकम करने वाले हैं, वे पाप को उपार्जन करके, इष्ट एवं कान्त शब्दादि विषयों से रहित होकर दुर्गन्धयुक्त अत्यन्त अशुभ स्पर्श वाले तथा मांस रुधिर आदि से परिपूर्ण नरक में, कर्मों के वशीभूत होकर आयुपर्यन्त रहते हैं ॥२७॥ - टीकार्थ-'अनार्य अर्थात् प्राणातिपात आदि क्रूर कर्म करने वाले जीवहिंसा, मृषावाद, चोरो आदि आश्रव छारों से पाप उपार्जन करके इष्ट और कान्त अर्थात् मनोज्ञ शब्दादि विषयों से रहित होकर अत्यन्त 'इट्रेहिं कहि य विप्पहूणा-इष्टः कान्तैश्च विप्रहीनाः' । वम प्रियथा हित थन 'दुभिगंधे-दुरमिगंधे' या मरे 'कसिणे य फासे-कृत्स्ने च स्पर्श सत्यत पधारे मशुम ९५शवाणा 'कुणिमे-कुणिमे' मांस मन साड़ी मेथी भरे न२४i. 'कम्मोगा-कर्मोपगाः' मना शक्ती नि आपसंतिआवसन्ति' निवास ४२ छे. ॥२७॥ * સૂત્રાર્થ—-અનાર્ય છે એટલે કે પ્રાણાતિપાત આદિ હેય કર્મ કર નારા જીવો પાપનું ઉપાર્જન કરીને, ઈષ્ટ અને કત શબ્દદિ વિષયોથી રહિત, દુર્ગધયુક્ત અત્યન્ત અશુભ સ્પર્શયુક્ત, અને માંસ, રુધિર આદિથી પરિપૂર્ણ નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે અને કૃત કર્મોનો દુઃખજનક વિપાક ત્યાંના તેમના આયુષ્યને અન્તકાળ પર્યન્ત ભેગવે છે. ટીકાર્ય-અનાર્ય , એટલે કે પ્રાણાતિપાત આદિ ફૂર કર્મ કર નારા લોકો, જીવહિંસા, મૃષાવાદ. ચેરી આદિ આશ્રવદ્વારા મારફત પાપનું ઉપાર્જન કરીને નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે. ત્યાં ઈષ્ટ અને કાન્ત (મન) Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९6 सूत्रता कलुषं पापम् । 'समन्जिणित्ता' समय॑-सम्यग्रूपेणार्जयित्वा 'इट्रेहि इप्टै शब्दादिविपयैः 'कतेहि' कान्तश्च-मनोभिलपितः 'विदहणा' विप्रहीनाः परि. एक्ताः सन्तः 'दुभिगवे दुरभिगन्धे-अतिशयिताऽशुभग धैः परिपूरिते नरके,। 'कसिणे' कृत्स्ने संपूर्णे 'फासे' अशुभस्पर्श एकान्ततः उद्वेजनीये 'कुणिमे कम्मो वगा' कुणिमे कर्मोपगाः स्वकर्मगा प्राप्ताः तादृशनारकजीवास्तथोपरिवर्णितबीमत्से क्रन्दनशब्दाकुले सर्वाऽमेध्ये अधमे नरके 'आवसति' आवसन्ति आसमन्तात् उत्कृष्ट वस्त्र पस्त्रिंशतसागरोपमाणि यावत् यस्यां वा नरकपृथिव्यां यावदायुः तावद् वसन्ति तिष्ठन्ति । तिमि इति ब्रवीमि कथयामीति । इति शब्दः समाप्तियोतकः । ब्रवीमि तीर्थकरोदितवचनानि ॥२७॥ इति श्री--विश्वविख्यात जगवलंभादिपदभूपितवालब्रह्मचारि--'जैनाचार्य' पूज्यश्री-घाप्तीलालबेतिविरचितायां श्री सूत्रकृताङ्गस्य "समयार्थबोधिन्या. ख्यायां" व्याख्यायां पंचमध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥५-१॥ अशुभ गंध से परिपूर्ण तथा पूर्णरूप से अशुभं स्पर्शवाले सर्वथा उद्विग्न कर देने वाले तथा रक्त पीव आदि से परिपूर्ण नरक में अपने कमों के अधीन होकर उत्पन्न होते हैं। जैसा कि पूर्व में वर्णन किया जा चुका है, अतीव बीभत्स चीख चिल्लाने की ध्वनि से व्याप्त, संघ प्रकार की अशुचि से अधम ऐले नरक में उत्कृष्ट तेतीत सांगरो. पम कालपर्यन्त रहते हैं, अथवा जिस नरकभूमि में जितनी आयु है उतने समय तक वहां रहते हैं। 'इति' शब्द उद्देशक की समाप्ति का स्तूंचक है। 'वीमि' को अर्थ है तीर्थंकर के द्वारा कथित वचनों को ही मैं कहता हूँ ॥२७॥ ॥ पांचवे अध्ययन का पहला उद्देशक समान ॥५-१॥ શાદિ વિષયે ભેગવવા મળતા નથી, પરતું, રક્ત, માંસ, પરું આદિથી પરિપૂર્ણ તે નરકમાં અશુભ ગંધ અને અશુભ સ્પર્શ આદિ દુખદાયક વરતુઓને અનુભવ કરે પડે છે, તેનું વર્ણન આગળ કરવામાં આવ્યું છે. પિતાના પૂર્વ જન્મનાં પાપકર્મોના ઉદયથી તેમને નરકમાં ઉત્પન્ન થવું પડે છે. તે નરકે બધા પ્રકારની અશુચિથી યુક્ત હોય છે અને ત્યાં નારકોની અતિ બીસસ (ભયંકર) અ ન્તનાદ અને આક્ર દે સંભળાય છે. આ પ્રકારના નરેકેમાં નારકેને વધારેમાં વધારે ૩૩ સાગરોપમ કાળ પર્યન્ત રહેવું પડે છે. અથવા જે નરકભૂમિમાં નારકેને જેટલે આયુકળ હોય છે, એલા કાળ સુધી તેમને ત્યાં રહેવું પડે છે. 'इति' ५४ ९देश नी संभासिनुसूय: छ. . 'ब्रवीमि सुधा स्वामी ४ છે કે તીર્થકર દ્વારા કથિત વંચનનું જ હું અનુકથન કરી રહ્યો છું. ૨૭ છે પાંચમાં અદયયનને પહેલે ઉદ્દેશક સમાપ્ત ૫-૧ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३९१ अध द्वितीयोद्देशकः प्रारभ्यते समाप्तः प्रथमोद्देशकः पचमाऽध्ययनस्य । अतः परं पंचमोऽध्ययनीयो द्वितीयोद्देशक आरभ्यते । तस्य चाऽयं संवन्धः, प्रथमे यैः कर्मभिर्मीवा नेरकेइत्पधन्ते, यादृशीं चाऽवस्थां वेदनां चानुभवन्ति तानि सर्वाणि प्रतिपादितानि । इहाऽपि विशिष्टतरं तदेव स्वरूपं प्रतिपादयिष्यते, इत्यनेन संवन्धेन समायातस्य द्वितीयोदेशकस्येदमादिमं सूत्रम् सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं कथयति-'अहावरं' इत्यादि । मूलम्-अहावरं सासयदुक्खधम्म, तंभे पर्वस्खामि जहातहेणं। वाला जहा दुकंडकम्मकारी, वेदंति कैम्माइं पुरेकडाइं ॥१॥ छाया--अथापरं शाश्वतदुःखधर्म तं भवद्भयः प्रवक्ष्यामि याथातथ्येन । वाला यथा दुष्कृतकर्मकारिणो वेदयन्ति कर्माणि पुराकृतानि ॥१॥ दुसरे उद्देशे का प्रारम्भ पंचम अध्ययन का प्रथम उद्देश समाप्त हुआ। अब दूसरा उद्देश प्रारंभ किया जाता है । उसका सम्बन्ध इस प्रकार है-जिन कर्मों से जीव नरकों में उत्पन्न होते हैं, वहां जिस प्रकार की अवस्था और वेदना का अनुभव करते हैं, यह सब प्रथम उद्देशे में प्रतिपादन किया • गया है । यहां भी कुछ विशेषता के साथ वही स्वरूप प्रतिपादित किया जायगा । इस सम्बन्ध से प्राप्त द्वितीय उद्देशक का यह प्रथम सत्र है- अहावरं' इत्यादि । शब्दार्थ--'अह-अथ' तत्पश्चात् - 'सासयदुक्खधम्म-शाश्वतदुःखधर्म निरन्तर दुःख देना ही जिनका धर्म है ऐसे 'अवरं-अपरं' दुसरे બીજ ઉદેશાને પ્રારંભપાંચમાં અધ્યયનને પહેલો ઉદ્દેશક પૂરો થયો. હવે બીજા ઉદ્દેશકની શરૂઆત થાય છે આ ઉદ્દેશકને પહેલા ઉદ્દેશક સાથે આ પ્રકારને સંબંધ છે. પહેલા ઉદેશકમાં એ વાતનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું કે જીવે કયા " કમેને કારણે નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે અને નરકમાં ઉત્પન્ન થયેલા છે કેવી અવસ્થા અને વેદનાને અનુભવ કરે છે. આ ઉદ્દેશકમાં પણ એજ ” વિષયનું વધુ વિવેચન કરવામાં આવશે. પહેલા ઉદ્દેશા સાથે આ પ્રકારને समय घराता भी देशनु पडे सूत्र २मा प्रभाय छ-'अहावर'-त्यादि ., शहाथ-'अह-अथ'. त्यार पछी 'साम्रयदुक्खधम्म-शाश्वतदुःखधम्म' - नि२२.६.५ हेषु ना धर्म छ, मेवा 'अवरं-अपर' माan तं,तम्'. Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतसूत्रे अन्वयार्थः--(अह) अथानन्तरम् (नासयदुक्खधम्मं ) शाश्ववदुःखधमं नित्यदुःखस्वभाव ( अ ) अपरमन्यत् (तं) तं नरकं (भे) भवते ( जहात हे) याथाaa (खाम) पक्ष्यामि - कथयिष्यामि (जहा) पथा (दुक्कड कम्मकारी) दुष्ककर्मकारिण. - क्रूरपापकर्माणः (बाला) वाला - परमार्थम जानानाः ( पुरेकडाइ ) पुराकृतानि पूर्वजन्मोपार्जितानि (कम्माई ) कर्माणि - ज्ञानावरणीयाद्यष्टकर्माणि (वेदति) वेदयंति - अनुभवन्तीति ॥ १ ॥ टीका - अह' अथ - अनन्तरम्, यदेव पूर्वस्मिन् मकरणे निर्दिष्टं वच्छेषथूतं द्वितीये कथयिष्यामि | 'अवर' अपरम् 'सासयदुक्ख शाश्वतदुःखधर्मम्, 'ले-हम्' उस नरक के विषय में 'भे भक्ते' आप को 'जहातहेणं याथातथ्येन' यथार्थ रूप से 'वक्खामि - प्रवक्ष्यामि' मैं कहूंगा 'जहा - याधा' जिस प्रकार 'दुकडकनकारी - दुष्कृतकर्मकारिणः पापकर्म करनेवाले 'वाला - बालाः' अज्ञानी जीव 'पुरेकडाई - पुराकृतानि' पूर्वजन्म में किये हुए 'कम्माई - कर्माणि' अपने कर्मों का 'वेदति - वेदयन्ति' वेदन करते हैं अर्थात् भोगते हैं ॥ १ ॥ ३९२ अन्वयार्थ -- इसके अनन्तर निरन्तर दुःखमय दूसरे नरक के विषय में यथार्थरूप से आप को कहूंगा । पापकर्म करने वाले और परमार्थ को नहीं जानने वाले अज्ञानी जीव पूर्वकृत कर्मों को जिस प्रकार भोगते हैं सो कहूँगा ॥१॥ टीकार्थ- फिर सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं - इसके पश्चात् पूर्व प्रकरण में कहने से जो शेष रह गया है, उसे दूसरे में कहूंगा । ते नरना विषयमा 'भे भवते' आपने 'जहात देणं - याथातथ्येन' यथार्थ ३५थी 'पवक्खामि - प्रवक्ष्यामि' हु' डीश 'जहा - यथा' ? अरे 'दुक्कड कम्मकारीदुष्कृतकर्मकारिणः ' पाय' ४२वावाजा 'बाला - बालाः' अज्ञानी व 'पुरेकड़ाईपुराकृतानि' पूर्वममां उरेल 'कम्माई - कर्माणि' पोताना भेनु' 'वेदंतिवेदयन्ति' वेन रे छे. अर्थात् लोगंवे छे. ॥१॥ · સૂત્રા”—હવે ખીજા કેટલાક નરકામાં ઉત્પન્ન થયેલા જવાને કેવી કેવી યાતનાઓ વેઠવી પડે છે, તે કહેવામાં આવશે. તથા પાપકર્મોનું સેવન કરનારા, પરમાને નહીં' જાણુનારા અજ્ઞાની જીવા પૂČકૃત કર્યાંનું ફળ કેવી रीते लोगवे छे, ते हवे हुं तमने उडी ॥१॥ 7 ટીકા આગલા ઉદ્દેશકમાં કુંભીપાક નરક આદિનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે. હવે આ ખીજા ઉદ્દેશકમાં અન્ય નર્કના સ્વરૂપનુ પ્રતિપાદ્દન કરવા માટે Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीय वेदना निरूपणम् ३९३ 1 १. शाश्वत् भवति इति शाश्वतं नित्यं तादृशं च तद् दुःखमिति शाश्वतदुखं, तदेव धर्मः aurat are restra शाश्वतदुःखधर्मः तं नरकम् नित्यदुःखस्वभावम् क्षणमपि सुखलेशरहितम् 'तं' तं नरकम् । 'भे' भवद्द्भ्यः, भवन्तमुद्दिश्य- अशेषप्राणिनिवदेभ्यः 'नाव हेणं' याथातथ्येन यद्यथा भगवता कथितं मया श्रुनं तत् तत्स्वरूपेणैर, नत्वर्थवादादिरूपेण 'पत्रक्लामि' प्रवक्ष्यामि कथयिष्यामि, 'जहा' यथा येन प्रकारेण 'टुकडकन्नकारी' दुष्कृतकर्मकारिण:- दुष्टं कृतमिति दुष्कुतम् - प्राणातिपातादिरूपघोरकर्म तादृशकर्मकत्तुं शीलं येषां ते दुष्कृतकर्मकारिणः । एवंभूता (बाला) बाला: परमार्थमानानाः विषयसुखाभिलाषिणो विवेकविकलाः (पुराकडा) पुराकृखानि पूर्वभवोपार्जितानि' (कम्माई ) कर्माणि ज्ञानावरणीया पशुमानि 'वेदवि' (जहा ) यथा (येदंति) वेदयन्ति नरके, तथा तेऽहं कथयामि, इति ॥ १॥ जिस नरक में निरन्तर दुःख भोगना पडता है, कभी क्षण भर के लिये भी सुख का अनुभव नहीं होता, ऐसे नरके का स्वरूप हे जम्बू ! तुम को लक्ष्य करके, समस्त प्राणियों के समूह के लिये, जैसा भगवान् ने कहा है और मैंने सुना है, उसी प्रकार से, उसमें अतिशयोक्ति न करके, कहूँगा । प्राणातिपात आदि घोरकर्म करने के स्वभाव वाले परमार्थ को न जानने वाले अज्ञान नराधम पुरुषों में अधम सुख के अभिलाषी और विवेक से रहित होकर ज्ञानावरणीय आदि अशुभ कर्मों को नरक में वेदन करते है अर्थात् भोगते हैं यह सब मैं तुम्हें कहूँगा ॥ १ ॥ સુધર્માંસ્વામી જ ખૂસ્વામીને કહે છે કે-હૈ જમ્મૂ ! જે નરકમાં નિરન્તર દુઃખ જ ભેાગવવુ પડે છે, જયાં એક ક્ષભર પણ સુખને અનુભવ થતા નથી, એવા નરકાના સ્વરૂપનું હુ· તમારી પાસે નિરૂપણું કરીશ. તમને સમેધીને જે આ વાત કહુ છુ, તે સમસ્ત જીવેને પણ સમજવા જેવી છે. શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરે મારી સમક્ષ નરકા વિષે જેવુ' કથન કર્યું હતું એવુ· જ કર્યંન હું તમારી સમક્ષ કરીશ આ કથન અનુકથન રૂપ જ દેવાથી તેમાં બિલકુલ અતિશાક્તિ નથી. પ્રાણાતિપાત આદિ ઘેર કર્યાં કરવાના સ્વભાવવાળા, પરમાર્થ ને नहीं लशुनारा, अज्ञान, नराधम पुरषो, अधम सुभनी अलिसाषावाणा थंधने, સારાં નરમાંના વિવેક ભૂલી જઈને જ્ઞાનાવરણીય આદિ અશુભ કર્મોનું નરકમાં વેદન કરે છે. તેઓ કેવી રીતે કર્માંના અશુભ વિપાક ભેળવે છે, તે તમારી સમક્ષ હું પ્રકટ કરીશ. ॥ ૧ ॥ स० ५० Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ 1 सूत्रकृताङ्गसूत्रे .लम्-हत्यहि पाएहि य बंधिऊणं, उदरं दिकत्तति खुरासिएहिं। - निहित बालस्स विहतं देई, बैद्धं थिर पिट्टओ उद्धरंति॥२॥ ____ छाया--हस्तेषु पादेषु च बन्धयित्वा उदरं विकर्तपन्ति क्षुरासिभिः । गृहीत्वा बालय विहतं देहं वधं स्थिरं पृष्ठतः उद्धरन्ति ॥२॥ अवधार्थः- (हत्थेहि) हस्तेषु (य) च-पुनः (पाए हिं) पादेषु (बंधिऊणं) धयित्वा-परमाधार्मिकाः (खुरासिएहि) क्षुगसिभि:-क्षुरखङ्गैः (उदरं) उदरं (विकतंति) विकर्तयन्ति खण्डयन्ति (बालम्स) बालस्याज्ञा निनो (विहतं देह) विहतं देहं दण्डादिमहारै-जज रितं शरीरं (गिहित्तु) गृहीत्वा (पिट्टो) पृष्ठतः-पृष्ठदेशात् (वद्धं)वधं चर्म (थिरं) स्थिरं बलपूर्वकम् (उद्धरंति) उद्धरन्ति-विदारयन्तीति ।।२।। 'हत्थेहि इत्यादि। शब्दार्थ---'हत्थेहिं-हस्तेषु' परमधार्मिक नारकी जीवों का हाथ 'य-च' और 'पाएहि-पादेषु' पैर 'वधिजगं-बंधयित्वा' बांधकर 'खुरासिएहि-क्षुरप्रासुभिः' अस्तुरा और तलवार के द्वारा 'उदरं-उदरम्' उनका पेट 'विकतंति-विकतयन्ति' चीर देते हैं 'बालस्स-घालस्य' अज्ञानी ऐसे नारक जीव की 'विहतं देह-विहतं देहं दण्डप्रहार आदि से अनेक प्रकार ताडन की हुई देह को 'गिपिछत्तु-गृहीत्वा ग्रहण करके 'पिट्टओ-पृष्टत:' पृष्ठ माग से 'वर्द्ध-वध्रम्' चमडे को घिरं-स्थिरम्' बलात्कारपूर्वक 'उद्धरंति-उद्धरन्ति' खींचते हैं ॥२॥ अन्वयार्थ--नरकपाल नारक जीवों के हाथ और पैर थाँधकर छुरा और खड्ग से उदर को फाडते हैं । अज्ञानी जीवों के विहत अर्थात् "हत्थेहि त्याहि शाय-'हत्थेहि-हस्तेपु' ५२भाधामि ना२४ वोना हाथ 'य-च' भने 'पाएहि-पादेपु' ५॥ बंधिऊणं-बधयित्वा' मांधीन 'खुरासिएहि-क्षुरप्रासुभिः' मस्त। मन तान द्वारा 'उदरं-उदरम्' तमनु 'विकत्तंति-विकतयन्ति' धीरे छे 'वालस्स-घालस्य' अज्ञानी वा न॥२४ नी 'विहतं देहवित देह' ६ प्रहार पोथी भने अरे भार माघेल शरीरने 'गिण्ठित्तुगृहीत्वा' अ५ ४N२ 'पिटुओ-पृष्ठतः पाना मागथी 'बद्धं बध्रम्' यामडीन. 'थिरं-स्थिरम्' मणाला२ .पू 'उद्धरंति-उद्धरन्ति' या ले छे. ॥२॥ - સૂત્રાર્થ–નરકપાલ નારક છેના હાથ અને પગ બાંધીને છરી અને ખડગ વડે તેમનું પેટ ચીરી નાંખે છે. તેઓ અજ્ઞાની જીવેના વિહત (શસ્ત્રોના Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीय वेदना निरूपणम् ३५६० " टीका - ते परमधार्मिकाः क्रीडां कुर्वन्त इव नारकजीवानाम् । 'हत्येहि' हस्तेषु 'च' च - पुन: 'पाएहिं पादेषु 'बंधिकणं' वैधयित्वा 'खुरासिएहि' क्षुरासिभिः - निशितधाराभिः क्षुरिकाभिः तीक्ष्णखथ 'उदरं ' उदरं ' विकत्तंति' विकर्त्तयन्ति विदारयन्ति । तथा 'बालस्स' वालस्य दुष्कृतकर्मकारिणः । 'वित्तु देहं ' विहतं देहं दण्डप्रहारादिना जर्जरीकृतं शरीरम् | 'गिव्हित्तु ' गृहीत्वा 'वज्रं' व चर्म । 'धिरे' स्थिरतया, बलात्कारेण 'पिटुओ' पृष्ठतः 'उद्धरंति' बलात् शरीरतः चर्माणि आकर्षयन्तीत्यर्थः । परमाधार्मिकाः नारकिजीवानां हस्तौ पादौ वन्धयित्वा क्षुरासिधारया तेषामुदरं छिन्दन्ति । तथानार किजीवानां देहं दण्डादिना वाडयित्वा चूर्णीकृत्य पुनः पृष्ठं परिगृह्य तत्र स्थितं चर्म आकर्षयन्तीति भावः ॥ २॥ - अनेक प्रहारों से तात देह को ग्रहण करके उसके पृष्ठभाग से बल पूर्वक चमड़ी उधेड़ते हैं ॥२॥ टीकार्थ- परमाधार्मिक असुर नारक जीवों के साथ मानों खिलवाड़ करते हैं । उनके हाथ बांध देते हैं, पैर बाँध देते हैं और फिर. तीखी धारवाली छुरियों से और तीखे खड्ग से पेट फाड़ते हैं । अज्ञानी जीव के दण्डप्रहार आदि से जर्जरित किये हुए शरीर को ग्रहण करके बलात्कार से उसके चमड़े को पीठ से निकालते हैं । L तात्पर्य यह है कि परमाधार्मिक नारक जीवों के हाथ पैर बांध करके छुरे की धार से पेट चीरते हैं। इसके अतिरिक्त पहले उनके शरीर को दण्डप्रहार आदि से जर्जरित कर देते हैं और फिर उसकी पीठ से चमड़ी उधेडते हैं ||२|| ઘા વડે વીધાયેલા) શરીરને ગ્રહણુ કરીને તેમની પીઠમાંથી બળપૂર્વક ચામડીઉતારી લે છે. રા ટીકા-પરમાધામિક અસુરા નારક જીવાની સાથે જાણે કે ક્રૂર ખેલ ખેલે છે. તેએ તેમના હાથ અને પગને દેરડા વડે ખાંધીને, ઘણી જ તેજદાર છરીઓ અને ખડૂગે! વડે તેમનુ પેઢ ફાડે છે. ઇંડ પ્રહાર આદિ વડે જર્જરિત કરેલા તે અજ્ઞાની થવાના શરીરને ગ્રહણુ કરીને તેએ બળાત્કારે તેમની પીઠ પરની ચામડી ઉતરડી નાખે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે - પરમાધામિક અસુરા નારકોને ખૂબ જ દુઃખ દે છે. તે તેના હાથપગ માધીને તીક્ષ્ણ છરી વડે તેમનાં પેટ ચીરા નાંખે છે. આ કાય કરતા પહેલાં : તેઓ તેમનાં શરીર પર દડાદિના પ્રહાર કરીને તેમને ખાખરા કરે છે અને છેવટે તેમની પીડની ચામડી પશુ ઉતરડી નાખે છે. રા Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E सूत्रकृतात्रे 99 - बाहू पॅकति य मूलतो से', थूलं वियासं मुहे आडहंति । रहसि जुत्तं सरयंति बाल आरुस्स विज्झति तुद्रेण पिडे " ॥ ३ ॥ छाया - वाहून्प्रकर्तयन्ति संमूलतस्तस्य स्थूल विकाश मुखे आदहन्ति । रहसि युक्तं स्मारयन्तिं बालमारुष्य विध्यन्ति तुदेन पृष्ठे ||३|| अन्वयार्थः - परमधार्मिकाः (से) तस्य नैरयिकस्य ( बाहू) वाहून (मूळतो) मूलतः (कर्त्तति) कर्त्तयन्ति - खण्डयन्ति (मुद्दे) मुखं (विया) विकाश्य - वलान्मुखं स्फीरयित्वा (थूलं) स्थूलं - जलइलोहखण्डं प्रवेश्य (आडति) आदहंति - ज्वालयन्ति (रहंसि रहसि एकान्ते (जुत्तं) युक्तं जन्मान्तरीयदुष्कृतं (बाल) बाळम् अज्ञानीनं 'बाहू पकति' इत्यादि । शब्दार्थ - 'से-तस्य' परमाधार्मिक नारकिजीव की 'चाह-वाहन' भुजाओं को 'पकसंति प्रकर्त्तयन्ति' काटते हैं 'मुहे मुखे' मुख को 'विया - विकाश्य' बलपूर्वक फाडकर 'थूलं स्थूलम्' जलते हुए लोह के बडे बडे गोले डालकर 'आडति - आदहन्ति' जलाते है 'रहंसिरहसि ' तथा एकान्त में 'जुत्तं युक्तं ' उनके जन्मान्तर के कर्म 'बाल-बालं ' उस अज्ञानी जीव को 'सारयति - स्मारयन्ति' स्मरण कराते हैं 'आरुस्सं-आरुष्य' तथा विना कारण क्रोध करके 'तुदेण-तुदेव' चाबुक से 'पिट्टे - पृष्ठे' पृष्ठ भाग में 'विजयंति - विध्यन्ति' ताडन करते हैं ||३|| अन्वयार्थी - परमाधार्मिक नारकजीव की सुजाओं को मूलं से काट देते हैं तथा जमस्ती सुख को फाडकर उसमें जलते हुए लोह'वाहू पकतति' इत्यादि * शब्दार्थ–'से-तस्च' परमधार्मि} नाही लवनी 'बाहू - बाहून्' लुलभने 'पकत्तंति--प्रकर्त्तयन्ति' अये छे 'मुद्दे - मुखे' भुमने 'वियासं विकाश्य' मयूर्व' झडीने 'थूलं स्थूलम्' जनता सोमउना मोटा मोटा गोजा नाभीने 'आहंति - आदहन्ति' माणे छे. 'रहंसि रहसि तथा अन्तभां 'जुत्तं - युक्तं ' तेभना ४न्मान्तरना उनु' 'बालं - दालम्' अज्ञानी ने 'सारयंति - स्मारयन्ति' *भर उरावे छे. 'आरुस्स - आरुण्य' तथा अशु वगर डोध' रीने 'तुद्रेण - तुदेनं ' यामुञ्ज्थी 'पिट्ठे-पृष्ठे' पाछना लागमां 'विज्झति - विध्यन्ति' भारे छे. ॥3॥ સૂત્રા –પરમાધામિ કા નારક જીવાની ભુજાઓને મૂળમાંથી કાપી નાખે છે, અને તેમનાં મુખ ખળાત્કાર ખાલાવીને તેમાં ખૂબ જ તપાવીને લાલચેાળ કરેલા લોઢાના ગેાળા અથવા દડા દાખલ કરે છે. આ રીતે તે તેને ખૂબજ हजाडे छे. तेथे। तेने शेान्तमांस न्हाने तेना पूर्वन्मनां पातु' - Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदना निरूपणम् ३९७ ( सरयंति) स्मारयन्ति ( आरुस्स) आरुष्य - अकारणक्रोधं कृत्वा (तुदेण) तुदेनप्रतोदेन चाबुक इति लोकमसिद्धेन ( पिट्टे) पृष्ठे - पृष्ठदेशे (विज्झंति) विध्यन्ति - ताडयन्तीति ॥३॥ टीका - 'से' तस्य नारकिजीवस्य, 'वाहू' भुजौ 'मूल' मूलतः - आमूलं । 'पत्तंति' प्रकर्तयन्ति - प्रकर्षेण कर्त्तयन्ति छेदयन्ति । तदनन्तरम् -'मुंहे - विद्यासं' मुखं विकाश्य= बलात्कारेण नैरयिकस्य मुखं स्फारयित्वा तस्मिन् 'धूल' स्थूलं- अतिशयेन स्थूलम्, जाजल्यमान लोहदण्डम् अथवा लोहगोलकं मुखे निक्षिप्य 'आडहंति' आदहन्ति मज्जालयन्तीत्यर्थः । तथा - 'रहंसि' रहसि एकान्तस्थाने नारकिजीवं नीत्वा 'जुतं' युक्त-जन्मान्तरकृतं दुष्कृतं 'सरयंति' स्मारयन्ति 'वाल' कर्त्तव्या कर्त्तव्यविवेक विरहितम् । तथा ललना लामललितं गीतमाकर्णितमतः श्रोत्रे छेदयामः, पापबुद्धद्या परस्त्रीनिरीक्षणं कृतमतश्चक्षुषी विस्फोटयामः, खंड-को प्रवेशकर जलाते हैं । उन्हें एकान्त में पूर्व जन्मों में किये हुए पाप का स्मरण कराते हैं । निष्कारण क्रोध कर के पीठ में चाबुक मारते हैं | ३ | टीकार्थ-वे नरकपाल नारकी जीव की दोनों भुजाओं को मूल से ही काट डालते हैं । तत्पश्चात् जबर्दस्ती उसके मुख को फाड़कर खूब बडा और जलता हुआ लोहे का डंडा या लोहे का गोला मुख में प्रवेश कर उसे जलाते हैं। अज्ञान नारक जीव को एकान्त में ले जाकर उसको पूर्व जन्मों में किये हुए पापों का स्मरण कराते हैं । वे कहते हैं- तूने ललनाओं के ललित गीतों को सुना, इस कारण हम तेरे कानों की कांटते हैं । पद्धि से परस्त्री का अवलोकन किया था, अतएव तेरे સ્મરણ કરાવે છે. તેઓ કોઈ પણ કારણ વિના ક્રોધ કરીને તેની પીઠ પર ચામુક ટકારે છે. ગા ટીકા તે નરકપાલે નારક જીવની અને ભુજાઓને મૂળમાંથી દેશી નાખે છે ત્યાર છંદ અગ્નિમાં ખૂબ જ તપાવીને લાલચેળ કરેલા લોઢાના દડાને અથવા ગેાળાને, તે ખળજખરીથી તેનુ મુખ ખેાલાવીને મુખમાં ઘુસાડી દે છે. ત્યારે તે નારકના મુખમાં અસહ્ય ખળતરા થાય છે. તે અજ્ઞાન નારકોને એકાન્તમા લઇ જઈને તેના પૂર્વજન્મનાં પાનું સ્મરણુ કરાવે છે. તેએ તેને કહે છે કે-તને લલનાએનાં લલિત ગીતા સાંભળવા ખૂબ જ ગમતાં હતાં, તે કારણે અમે તારા કાન કાપી નાખીએ છીએ, તે પીનું પાપમુદ્ધિથી અવલેાકન યું હતુ, તેથી અમે તારી આંખા ફાડી Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतास्त्र इस्ताभ्यां परद्रव्यं गृहीतं प्राणिघातश्चकृतोऽ हस्तौ खण्डयिष्यामः, त्वमासीमध. पायी अतः सप्तत्रपुताम्रादिक पाययामि । मांसभक्षणमकरोः, अतस्त्वां त्वदीयस्यैव मांसस्य भक्षणं कारयामीत्युक्त्वा 'आरुस्स' आरुष्य-अकारणक्रोधं कृत्वा 'तुदेण' तुदेन कशया 'पिटे' पृष्ठे 'विज्झंति' विध्यन्ति । कशया पृष्ठे ताडयंति ॥३॥ मूलम्-अयंव तत्तं जलियं सजोइ तउवमं भूमिणुकमंता। ते डझमाणा कलुणे यंगति, उसुचोइया तत्तजुगेसु जुत्ता॥४॥ छाया-अय इव तप्तज्वलित सज्योतिस्तदुपमा भूमिमनकामन्तः। ते दह्यमानाः करुगं स्तनन्ति इपुनोदिता स्तप्तयुगेपु युक्ताः ॥४॥ लोचन उखाड़ते हैं। इन हाथों से पराया द्रव्य ग्रहण किया था, और प्राणियों का घात किया था अतएव तेरे हाथ काटते है। मद्य पिया करता था, अतएव तुझे तपा हुआ शीशा और तांचा पिलाते हैं। तूने मांस भक्षण किया था, और प्राणियों का घात किया था अतएव तुझे तेरा ही मांस खिलाते हैं । इस प्रकार उसके पापों को स्मरण कराते हैं। फिर अकारण ही क्रोध करके पीठ पर चावुक के प्रहार करते हैं, अन्य अंगो पर भी प्रहार करते हैं ॥३॥ 'अयंच तत्तं' इत्यादि। शब्दार्थ-'तत्तं अयं च-तप्तमय इव' तप्त लोह के गोला के समान 'सजोह-सज्योतिः' ज्योतिसहित 'जलियं-ज्वलितां' जलती हुई अग्नि 'तउवन-तनुपमा' की उपमा योग्य 'भूमि-भूमिम्' भूमि में 'अक्षमत्ता-अनुक्रामन्तः' चलते हुए 'ते-ते' वे नारकि जीव 'डज. माणा-दह्यमानाः' जलते हुए 'उसु चोया-इषुनोदिताः' तीक्ष्ण तपे हुए નાખીએ છીએ તે આ હાથ વડે પારકું ધન ગ્રહણ કર્યું હતું, અને પ્રાણિને ઘાત કર્યો હતો તેથી અમે તારા અને હાથ કાપી નાખીએ છીએ. તને મદિરા" પાન કરવું ખૂબ જ ગમતું હતું, તેથી અમે તને ગરમા ગરમ તાંબાં અને સીયાને રસ પિવરાવીએ છીએ તે પૂર્વભવમાં માસ ખાધું હતું, તેથી અત્યારે અમે તને તારું પિતાનું જ માંસ ખવરાવીએ છીએ. આ પ્રકારે તેઓ તેનેતેના પૂર્વજન્મનાં પાપોનું સ્મરણ કરાવે છે. ત્યાર બાદ કેઈ પણ પ્રકારના કારણ વિના તેઓ તેની પીઠ આદિ અંગો પર ચાબુક ફટકારે છે. પુરા 'अयंव तत्तं' त्यहि ____शहाथ-'तत्तं अयव-तप्तमयइव' तपेसा होमना गाना समान 'सजई-सज्योति.' न्यानि सति जलियं-ज्वलितां' ती 'तउपम-तदुपमा' अभीनी १५॥ ये 4 'भूमि-भूमिम्' भूभीमा 'अणुक्कमंता-अनुक्रामन्तः' यातi 'a-3' त ना२१५७५ डन भागा-दह्य मानाः' मni 'उसुचोइया-इपुनोदिता।' Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३९९ अन्वयार्थ:-(नत्तं अयं व) तप्तमय इत्र (सजोइ) सज्योतिः सज्योतिष (जलियं) ज्वलितम्-अग्निर्यथा भवति (तउदम) तदुपमा तत्सदृशां (भूमि) भूमि -पृथिवी (अणुक्कमंता) अनुक्रामन्तो-गच्छन्तः (ते) ते नारकजीवाः (डज्झमाणा) दह्यमानाः (उच्चोइया) इपुनोदिता बाणप्रेरिताः (तत्तजुगेमुजुत्ता) तप्तयुगेषु युक्ता-योजिताः (कलुणं थणति) करू दीनं स्तनन्ति आक्रोशशब्दं कुर्वन्ति ॥४॥ टीका-'तत्त अयं व तप्तायःपिण्ड इव, 'सनोई सज्योति:-ज्योतिः सहितं 'जलियं' ज्वलितम् अग्निर्यथा भाति 'तउम' तदुपमाम्-ज्वलद्यःपिंडाघुपमाम् तथाविधामेव का भूमिम् 'अणुकमंत्ता' अनुक्रामन्तः-परमाधार्मिकैर्गम्यमानाः नारकजीवाः 'डज्झमाणा' दह्य मानाः । तथा-'उमुचोइया' इषुनोदिताः तीक्ष्णतप्तबाणापाग के अग्रभाग से मारकर प्रेरित किये हुए 'तत्तजुगेसु जुत्ता-तप्तयुगेषु युक्ताः' तथा तस जुए में जोडे हुए वे नारकी 'कलुणं धणेति-करुण स्तनन्ति' दीन करुण रुदन करते हैं ॥४॥ ___अन्वयार्थ-तपे हुए लोहे के समान, ज्योतियुक्त एवं जलती हुई भूमि पर गमन करते हुए नारक जीव जब जलते हैं तो करुणापूर्ण आक्रोश करते हैं तथा तपे हुवे जुए में जोतकर आर से प्रेरित किये जाते हैं तब भी करुण ध्वनि करके चीखते हैं ॥४॥ टीकार्थ--सपे हुए लोहपिण्ड के सदृश, ज्योति सहित और जलनी हुई अर्थात् जलते हुए लोहपिण्ड की उपमा वाली भूमि पर परमाधाती तपेट पाना माजना माथी भारीने प्रेरित रेख 'तत्त जुगेसु जुत्ता-तप्तयुगेषु युक्ताः' तथा तपेा धांसराम उपाथी 'कलुणं थणंति-करुणं स्तनन्ति' यापात्र ३६न ४२ छे. ॥४॥ સુત્રાર્થ–તપાવેલા લેઢાના જેવી, જ્યોતિયુક્ત અને બળબળતી ભૂમિ પર જયારે ગમન કરવું પડે છે, ત્યારે પગે ખૂબ જ દાઝવાને લીધે નારકે કરુણપૂર્ણ આક્રંદ કરે છે, વળી જ્યારે તેમને ગરમ કરેલા ઘાંસરામાં જોડીને પરેશાની આર મારી મારીને ચલાવવામાં આવે છે, ત્યારે તેઓ દયાજનક આર્તનાદ કરી ઉઠે છે. ૫ ૪ ટીકાર્ય–તપાવેલા લોઢાના ગેળા જેવી, તિમય અને બળી રહી હોય એવી–એટલે કે ખુબ જ તપાવીને લાલચેળ અને પ્રકાશિત બનાવેલા લેહપિંડની ઉપમાવાળી ભૂમિ પર પરમાધાર્મિક અસુરે નારકેને ચલાવે છે. તે અતિ ઉષ્ણ ભૂમિ પર ચાલતાં ચાલતાં તેઓ ખૂબ જ દાઝી જવાથી એવી Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतात्रे ग्रभागमेरिताः तत्तजुगेसु' तप्तयृगेषु तापितरांगेषु 'जुत्ता' युक्ताः तत्र - बलीवर्द इव नियुक्ता नैरविकाः । 'कर्ण' करुणं सकरुणं यथा स्यात्तथा 'थति' स्वनन्ति शब्दं कुर्वन्ति । अतिदीनवचनानि मुखात् उच्चैः निष्काशयन्डीत्यर्थ । यथा वलीव रथे नियोजयति तथा वे परमधार्मिका तान् नारकान् दप्तरथयुगेषु संयोज्य सप्ततीक्ष्णवाणाग्रभागेन प्रेरयन्ति तनुस्ते महता शब्देन रानीति भावः ||४|| मूलम् - बाला बैला भूमिमणुकमंता पैविजलं लोहपहं व तन्तं । जसिऽभिदुग्गीस पर्वजमाणा पेसेवें दंडेहिं" पुरा कैरंति ॥५॥ ४०० - -- छाया - चालाः बलाद्भूमिमनुकाम्यमाणाः प्रदीप्तजलां लोहपथमिव तपदाम् । यस्मिन्नभिदुर्गे प्रपद्यमानाः प्रेष्यानिव दण्डैः पुरः कुर्वन्ति ॥ ५ ॥ निक असुर नारक जीवों को चलाते हैं। उस पर चलने से वे बुरी तरह जलते हैं तो ऐसे चिल्लाते हैं कि करुणा उपजती है । फिर उन्हें खूब लपे हुवे रथ के जुए (जूड़े) में जोन दिया जाता है और तीखी नोक वाली आर चुभोई जाती है । वे नारकी उसमें बैलो के जैसे जोते जाते हैं । उस समय भी वे अत्यन्त दीनतापूर्ण ध्वनि करते हैं। अर्थात् तात्पर्य यह है कि जैसे रथ में बैल को जोता जाता है, उसी प्रकार परमधार्मिक उन नारकों को तपे हुए रथ के जुए में जोतकर ऊपर से तपे हुए तीक्ष्ण आर की नोंक से प्रेरित करते हैं । उस समय वे जोर से चीखते-चिल्लाते हैं ! ४ ॥ ~ તેા ચીસેા પાડે છે કે ભલ ભલાના હૃદયમાં કરુણુા ઉત્પન્ન થાય છે વળી તેએ તેમને રથના ખૂબ જ તપાવેલા ધેાંસરામાં સાથે જોડીને તીક્ષ્ણ અણી વાળી આર લેકીને ખળદની જેમ તેમની પાસે રથ ખેંચાવે છે. આ અસહ્ય વેદનાને કારણે તેઓ કરુણાજનક ચીસે પાડે છે. આ કથનનેા ભાવાર્થ એ છે કે જેવી રીતે રથના પાંસરા સાથે પળદાને જોડવામાં આવે છે, એજ રીતે પરમાધામિ કા નારકાને ધાંસરામાં જોડે છે, તે ધેાસરાને તપ.વીને ખૂબ જ ગરમ કરેલાં હોય છે. જેમ બળદને પાણાની આર લેકીને ચલાવવામાં આવે છે, તેમ નારકેાને પરાણાની તીક્ષ્ણ અને ગરમ ચ્યાર ભેાંકીને ચલાવવામાં આવે છે. આ દુઃખ અસહ્ય થઈ પડવાથી તેઓ 'કરુØાજનક ચીસેા પાડે છે. જા Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् ०१ - अन्वयार्थः-(बाला) बालाः-अज्ञानिनो नारकाः (लोहपह व तत्त) लोहपथमिव तप्ताम् (पविज्जलं) पदीक्षजा (भूमि) भूमि-पृथिवीम् (बला अणुक्कमंता) बलात् अनुनाम्यमाणाः बलात्कारेण परमाधार्मिकैश्वाल्यमानाः (जसिं) यस्मिन् (अभिदुग्गंसि) अभिदुर्गे अतिकठोरे (पवज्जमाणा) प्रपद्यमानाः-परमाधार्मिकद्वारा चलनाय प्रेरिताः यदि न चलंति तदा (पेसेव) प्रेष्यान् वृषभानिन (दंडेहिं) दण्डैः (पुरा करंति) पुरः कुर्वन्ति अग्रे तान् चाळयन्तीति ॥५॥ - 'बाला बला भूमि' इत्यादि । शब्दार्थ-'बाला-धाला:' अज्ञानी नारसी जीव 'लोहपहब लतलोहपथलिक तप्ताम्' जलता हुआ लोहमय मार्ग के समान लपी हुई 'पविज्जलं-प्रदीप्तजला' तथा रक्त और पीवरूप कर्दम ले युक्त 'भूमिभूमिम्' भूमि पर 'बला-बलात्' बलपूर्वक परमावार्मिकों द्वारा 'अणुः कमंता-अलकाम्यमाणाः' चलाये जाले वे बुरी तरह चिल्लाते हैं 'जंलियस्मिन् जो भी 'अभिदुग्गंसि-अभिदुर्गे' अति कठोर स्थान पर 'पबजमाणा-प्रपद्यमानाः परमाधार्मिकों के द्वारा चलने के लिये प्रेरित किये हुए जब ठीक नहीं चलते हैं तय 'पे सेव-प्रेष्यान्' बैल के समान 'दंडेहि-दण्डैः' दंडों से 'पुरा करंति-पुरः कुर्वन्ति' आगे चलाते हैं ॥६॥ 'अन्वयार्थ--परमाधार्मिक उन अज्ञान नारक जीवों को तपे हुए लोहपथ के समान तपी हुई तथा रुधिर पीव आदि से पंकिल भूमि पर - 'बाला बलाभूमि' या - शहा -'बाला-वाला' अज्ञानी ना२४ ७१ 'लोहपहं च तत्त-लोहपथमिव तप्ताम्' मणेस मनी भाशनी म तपेसी 'पविज्जले-प्रदीप्तजला' तथा २४त भने ५३ ३५ ४६qथी युत 'भूमि-भूमिम्' भूमि ५२ 'बला-बलात्' मणपूर्व४ ५२माधामि द्वारा 'अणुकमंता-अनुक्राम्यमाणा.' यावामा भावतi तमा ५२।शत भूभ। पाई छ. "जसि-यस्मिन्' मा 'अभिदुग्गंसि-अभिदुर्गे' मति २ स्थान ५२ 'पवज्जमाणा-प्रपद्यमानाः' ५२माधान ! ચાલવા માટે પ્રેરિત કરવા છતાં પણ જ્યારે ઠીક નથી ચાલતાં 'त्यारे सेव-प्रेश्यान्' भनी म 'दंडेहि-दण्डैः' माथी ‘पुरा करंति पुरः कुर्वन्ति' मा यावे छे. ॥ * સુવાર્થ–પરમધામિકે તે અજ્ઞાન નારકને તપાવેલા સેઢાના માર્ગના જેવી અતિશય ગરમ અને લેહી, પશે આથિી યુક્ત ભૂમિ પર ચલાવે છે. જે सं० ५१ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ V०२ सूत्रकृतासूत्र टीका-'वाला' वाला:-विवेकरहिताः नारकिजीवाः 'लोहपहं च तत्त' लोहपथमिव सप्ताम् , तप्तलोहपथमिवातिशयेन जाज्वल्यमानाम् 'पविज्जलं' प्रदीप्तजलां मधिरपूयरूपकर्दमपिच्छिलां 'भूमि' भूमि-पृथिवीतलमार्गम्। 'वला अणुकमंता' बलात् अनुक्राम्यमाणाः, यद्यपि तादृशभूमौ चलितुं नेच्छन्ति, तथापि-बलात्कारेण चाल्यमानाः 'जसि अभिदुगंसि' यस्मिन् अभिदुर्गेऽतिकठिने स्थाने कुंमीनरकादौ । 'पवज्जमाणा' प्रपद्यमानाः प्रचाल्यमाना अपि यदा न सम्यक् प्रचलन्ति तदा 'पेसेव' प्रेष्यानिव, क्रीतदासानिव वृपभानिव वा 'दंडेहि' दण्डः-दण्डपहरणैः ते परमाऽधार्मिकास्तान् 'पुरा करंति' पुरः कुर्वन्ति पुरोऽग्रतचालयन्ति । ते तु नारकाः स्वेच्छया स्थातुं गन्तुं कथमपि नैव सक्ताः । स्थितौ गमनेऽपि वा पराधीनतैव नारकजीवानाम् । न क्वचित् ते स्थिरा भवंति, न वा कुत्रचित् चलाते हैं । चलाये जाते हुए वे यदि अति दुर्गम मार्ग पर नहीं चलतेरुक जाते हैं तो परमाधार्मिड डंडे मार-मार कर आगे चलाते हैं ॥५॥ टीकार्थ--विवेशरहित नारकजीव, लोहपथ के समान अतिशय जाज्वल्यमान तथा रुधिर एवं पीव के कीचड़ से व्याप्त भूमि पर परमाधार्मिकों द्वारा चलाये जाते हैं । यद्यपि वे उस भूमि पर चलना नहीं चाहते, तथापि बलात्कार से चलाये जाते हुए जो नरक अत्यन्त दुर्गम तपाये हुए स्थान पर ठीक तरह नहीं चलते हैं, तब खरीदे हुए नौकरों की तरह अथवा बैलों की तरह डंडों का प्रहार करके परमाधार्मिक उन्हें आगे चलाते हैं । वे अपनी इच्छा के अनु. सार न कहीं ठहरने में समर्थ हैं और न चलने में समर्थ है । नारक जीव ठहरने में भी पराधीन हैं और चलने में भी पराधीन हैं। न वे તેઓ દુર્ગમ માર્ગ પર ચાલતાં ચાલતાં અટકી જાય છે, તે પરમધામિક તેમને દંડા મારી મારીને આગળ ચલાવે છે. આપા ટીકાર્થ–પરમાધાર્મિક અસુરે નારકેને તપાવેલા લેઢાના જેવા ગરમ અને જાજવલ્યમાન માર્ગ પર ચલાવે છે. તે માગ રુધિર અને પરુ રૂપ કીચડથી છવાયેલો હોય છે. જે તએ તે માંગ પર ચાલવાની ના પાડે છે, તો તેમને બલાત્કારે ચલાવવામાં આવે છે. નરક અત્યંત દુર્ગમ માર્ગ પર જે તેઓ સરખી રીતે ચાલતા નથી, તે બળદ અથવા ગુલામેની માફક આર લેકીને અથવા દંડા મારીને તેમને ચલાવવામાં આવે છે. આગળ ચાલવું કે ભવું તે પણ તેમની ઈચ્છાનુસાર થતું નથી એટલે કે આ બને બાબતમાં તેઓ પરાધીન છે. તેઓ તેમની ઈચ્છા પ્રમાણે વિશ્રામ પણ લઈ શકતા નથી અને ચાલી પણ શકતા નથી. ત્યાં તે તેમને બિલકુલ પરાધીન Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् स्वेच्छया गच्छन्ति किन्तु तत्रत्यः सर्वोऽपि व्यवसायव्यवहारः पराधीन एव; यातनाभूमित्वान्नरकस्येति भावः ॥५॥ मूळम्-ते संपैगाढंसि पर्वजमाणा सिलाहि हम्मंति निपातिणीहिं। संतावणी नाम चिरद्वितीया संतप्पती जत्थ असाहुकम्मा॥६॥ छाया-ते संपगाढं प्रपद्यमानाः शिलाभिर्हन्यन्ते निपातिनीभिः । - संतापिनी नाम चिरस्थितिका संताप्यन्ते यत्र असाधुकर्माणः ॥६॥ __ अन्वयार्थः-(ते) ते नारकजीवाः (संयगादसि) संप्रगाढम्-असह्यवेदनायुक्ते नरके (पवन्जमाणा) प्रपद्यमानाः गन्तारः (निपातिणीहिं) निपातनीमि:-अधः पातयितुं योग्यामिः (सिलाहिं) शिलाभिः पापाणवण्डैः (हम्मंति) हन्यन्ते वाड्यन्ते (संतावणी नाम) संतापनी नाम कुमी (चिरद्वितीया) चिरस्थितिका बहुकालअपनी इच्छा से कहीं विश्राम लेते हैं और न कहीं चलते हैं । वहां का सम्पूर्ण व्यवसाय व्यवहार पराधीन ही है। क्योंकि नरक तो केवल यातनाभूमि ही है ॥५॥ 'ते संपगालि' इत्यादि । शब्दार्थ-ते-ते' वे नारकजीव 'संगासि-संप्रगाढे अधिक वेदनायुक्त असत्य नरक में 'पज्जमाणा-प्रपद्यमानाः गए हुए निपा. तिणीहिं-निपातिनीभिः' सन्मुख गिरने वाली 'सिलाहि-शिलाभि:' पाषाण के खण्डों से 'हम्मंति-हन्यन्ते' मारे जाते हैं 'संतावणी नामसंतापिनी नाम संतापनी अर्थात् कुम्त्री दाम का नरक 'चिरहितीयाचिरस्थितिका' पल्योपम सागरोपम कालपर्यन्त स्थितिवाला है દશા ભેગવવી પડે છે. પરમાધાર્મિકે તેમને જે જે યાતનાઓ આપે, તે તેમને સહન કરવી જ પડે છે. આ રીતે આ નરકસ્થાને યાતનાભૂમિ જેવાં જ છે. આપા 'ते संपगासि' त्याह साथ-'-वे' त ना२४ ७१ 'संपगाढ सि-संप्रगाढे' मधिर वना युक्त असा न२४मा 'पवज्जमाणा-प्रपद्यमाना.' गये 'निपातिणीहि-निपातिनीभिः' सामे मावान ५४वापाणी 'सिलाहि-शिलाभिः' ५.५२ना माथी 'हम्मंतिइन्यन्ते' भाकामा मावे छे. 'संतावणीनाम-संतापनीनाम-अर्थात् हुनी नामनु न२४ 'चिरद्वितीया-चिरस्थितिकाः' पक्ष्या५म. सागरा५म तयन्त स्थिति , पाणु छ, 'जत्थ-यन्त्र' रेभा 'असाहुकम्मा-अमाधुकर्माण', पा५४. ४२वापा Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ exerted पर्यन्तस्थायिनी (जस्थ ) यत्र - यस्याम् (असा हुकम्मा) असाधुकर्माणः प्राणातिपातीदिकुत्सितकर्मकर्त्तारः (संतप्पती) संताप्यन्ते - संतापिताः क्रियन्ते ||६|| 1 टीका- 'ते' ते नारकजीवा' 'संपगाढंसि' संप्रगाढे, अतिवेदनायुक्ते नरके 'पवज्जमाणा' प्रपद्यमानाः- तादृशवेदनायुक्तं नरकं गच्छन्तः । 'निपातिणीहि' निषातनीभिः अभिमुखं पातयन्तीभिः । 'सिलाहिं' शिलाभिः - वृहत्पाषाणखण्ड रूपाभिः, 'हम्मेति' इन्यन्ते 'संतावणी नाम' संतापिनी नाम- अतिशयिततापयुक्ता 'चिर'द्वितीया' चिरस्थितिका पल्पोपमसागरोपमकालपर्यन्तस्थायिनी संतापनी कुम्मीति मंसिद्धा विद्यते। ' जत्थ' यत्र संतापयुक्तायां कुम्भ्याम् । 'असा हुकम्मा' असाधुकर्माणः ' जत्थ-पत्र ' जिसमें ' असा हुकम्मा - असाधुकर्माणः पापकर्म करनेवाले -जीव 'संतप्पती - संताप्यन्ते' तीव्र वेदना से संतप्त किये जाते हैं ॥६॥ - अन्वयार्थ - असह्य वेदना से युक्त नरक में गये हुए नारक जीव नीचे गिरने वाली शिलाओं से ताडन किये जाते हैं । कुंभीपाक में पचाये जाते हैं वहां नारक बहुत काल तक रहते हैं और संताप को प्राप्त होते हैं ॥ ६ ॥ टीकार्थ - - अत्यन्त वेदना वाले नरक में गये हुए नारकी जीव " सामने से गिरने वाली शिलाओं से आहत - ताडित किये जाते हैं । वहां जो संतापनी अर्थात् तीव्र वेदना से तपाने वाली कुंभी है वह बहुत ही "सन्तापजनक है। यह चिरस्थितिक है अर्थात् वहां जीव पत्योपनों और साग तक निवास करते हैं । उस सन्तापवाली कुम्भी में वे लव 'संतप्पती - संताप्यन्वे' तीव्र बेहनाथी सतापयुक्त श्वासां आवे छे. ॥ ॥ સૂત્રા અસહ્ય વેદનાથી યુક્ત નરકમાં ઉત્પન્ન થયેલા નારક જીવાની ઉપર મેાટી મેટી શિલાએ ફૂંકવામાં આવે છે. આ શિલાઓના પ્રહાર “તેમને સહન કરવા પડે છે. તેમને કુશીઓમાં પકાવવામાં આવે છે. નારકને ત્યાં દીર્ઘ કાળ સુધી રહેવુ પડે છે, અને અસહ્ય વેદનાઓ વેöવી પડે છે. ૬ા ટીકા-નરકમાં ઉપન્ન થયેલા નારકાને તીવ્ર વેદના વેઠવી પડે છે, તેથી નરકને વેદનાસ્થાન કહેલ છે. નરકમાં ઉત્પન્ન થયેલા જીવને કેવી કેવી યાતનાઓ વેઠવી પડે છે, તેનુ' સૂત્રકાર વર્ણન કરે છે.-ઉપરથી નીચે પડતી ! શિલાઓના પ્રહાર તેમને વેઢવા પડે છે. ત્યાં તેમને કુલીએમાં પકાવવામાં "मायें छे, ते भीमा, तीव्र वेहनाथी तपावनारी डावाने अर] तेभने 'स'ता"घनी' '(स'तायन नई) 'डेडी छे, नारीने त्यां थिरक्षण पर्यन्त पयायम अने Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका.प्र. श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् .. ४४६ दुष्कृतकर्माणः येन परभवे, संपादिताऽशुभाऽनुष्ठानाः । 'संतप्पती' संताप्यन्तेंतीनवेदनया सत्तप्ताः क्रियन्ते । अभिमुखामागच्छन्तीभिः शिलाभिहता भवन्ति । तथा कुम्भीपाकनामपाकपात्रगतजीवानां स्थितिर्दीर्घा, दुष्कृतकर्मकारिणः तत्र चिरकालपर्यन्तं स्वकृनाऽशुभाऽनुष्ठानस्य फलमुप नानाः अवस्थिता भवन्तीति ॥६॥ मूलम्-कसु पविखप्प पयंति वालं तओवि दड्डा पुंण उप्पयति । . ते उड्डकोएहिं पखजमाणा अवरोहिं खेजति सणांफएहि॥७॥ . छाया-कन्दूषु प्रक्षिप्य पचन्ति बालं, ततोऽपि दग्धाः पुनरुत्पतन्ति । ... ते अर्ध्वकाकै प्रखाधमाना, अपरैः खाद्यन्ते सनखपदैः ॥७॥ .: जीव अत्यन्त दुःख का अनुभव करते हैं जिन्होंने पूर्वभवों में 'अशुभ कृत्य किये हैं। ... आशय यह है कि तीव्र वेदनावाले नरक में सामने से आकर गिरने वाली शिलाओं से नारक जीव आहत (मारे जाते) होता है। तथा कुंभीपाक नामक पाकपात्र में गए हुए जीवों की स्थिति बहुत लम्बी होती है। दुष्कृत्य करने वाला जीव उस नरक में चिरकालपर्यन्त अपने किये पाप का फल भोगता हुआ रहता है ॥६॥ - 'कंदूसु' इत्यादि। . शब्दार्थ- 'बाल-बालम्' विवेकरहित नारकिजीव को 'कंदकन्दुषु' गेंद के समान आकृति वाले नरक में 'पक्खिप-प्रक्षिप्य डालकर ‘पयंति-पचन्ति' पकाते हैं 'दड्डा-दग्धाः' जलते हुए वे नारकजीव સાગરોપમ પ્રમાણુ કાળ સુધી–રહેવું પડે છે. જે જીએ પૂર્વભવમાં અશુભ કર્યો કર્યા હોય છે, તે ને તે સંતાપની નામની કુંભમાં ઉત્પન્ન ઇને અસહ્ય દુખને અનુભવ કરે પડે છે. - આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે તીવ્ર વેદનાવાળા નરકેટમાં સામેથી નીચે આવી પડતી શિલાઓના પ્રહાર નારને સહન કરવા પડે છે. તથા , કુંભીપાક નામના પાપાત્રમાં (પકવવાના પાત્રમાં) ઉત્પન્ન થયેલા નારકેનું આયુષ્ય ઘણું લાંબુ હોય છે. પાપકૃત સેવનાર છે તે નરકમાં ઉત્પન્ન થઈને તેમનાં પાપકર્મોને અશુભ વિપાક દી કાળ પર્યન્ત ભેગવ્યા કરે છે, દા 'कंदूसु' त्या शा- 'बाल-बालम्' विवे४२हित नापने कंसु-कन्दुपु हाना समान माइतिका न२४मा पक्खिप्प-प्रक्षिप्य' नाभीर ‘पयंति-पचन्ति' ५४ावे छ. 'दड्ढा-दग्धाः' त सेवा ते ना२४ ७५ 'तओपि-ततोपि' त्यांचा परा Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ . सूत्रकृताङ्गसूत्रे __ अन्वयार्थः-(वालं) वालं-नारकं (कंदुसु) कन्दुषु-कन्दुकाकृतिनरकेषु (पक्खिप्प) प्रक्षिप्य-पातयित्वा-परमाधार्मिकाः (पयंति) पचन्ति (दड्रा) दग्धास्ते नारकाः (तोवि) ततोपि-तस्मादपि स्थानात (पुणो उप्पयंति) पुनरपि उत्पतन्तिउच्छलन्ति तत्रापि (ते) ते नारकजीवाः (उडकाएहि) ऊर्ध्वकाकैद्रोगकाकैः (पखज्जमाणा) पखाधमाना-भक्षिताः सन्तः (अबरेहि) अपरैरन्यैः (सण'फएहिं) सनखपदैः-सिंहादिभिः (खजति) खाद्यन्ते भक्षिता भवन्तीति ॥७॥ . ___टीका-'वालं' बाल-विवेकरहितं नारकिजीवम् 'कंदुसु कन्दुकाकृति कुंभीषु 'पक्खिप्प' मक्षिप्य-पातयित्वा ते परमाधार्मिकाः 'पयंति' पचन्ति 'तोवि' ततोऽपि तदनन्तरम् 'दड्डा' दग्धाः 'पुण' पुनः 'उप्पयंति' उत्पतन्ति, ऊर्ध्वम् उत्क्षिप्ताः 'तओ वि-ततोपि' वहां से भी 'पुणो उपयंति-पुनरपि उत्पतन्ति' फिर ऊपर उछलते हैं 'ते-ते' वे नारकि जीव 'उडकाएहि-अर्चकाकः' द्रोण नाम के काक के द्वारा 'पखज्जमाणा-प्रखायमानाः' खाए जाते हैं 'अवरेहि-अपरैः' तथा दूसरे 'लणप्फएहि-सनखपदैः'. सिंह व्याघ्र आदि के द्वारा भी 'खज्जति-खाद्यन्ते' खाए जाते हैं ॥णा - अन्वयार्थ-परमाधार्मिक अस्तुर अज्ञानी नारक को कन्दुक (गेंद) के समान आकृति वाले नरक में गिराकर पकाते हैं । दग्ध हुए (अग्नि से जलते हुए) नारक जब उससे ऊपर उछलते हैं तो द्रोण काओं के द्वारा खाये जाते हैं । (नीचे आते हैं तो सिंह आदि के द्वारा भक्षण किये जाते हैं ॥७॥ टीका-विवेकविकल नारक जीव को कन्दुक जैसी आकृतिवाली कुंभी में गिराकर परमाधार्मिक पकाते हैं। जब वे उसमें जलने के 'पुणो उप्पयंति-पुनरपि उत्पतन्ति' पाछ। ७५२ छणे छ 'ते-' ते ना२894 'उडूढकारहि-ऊर्ध्वकाकैः' होय नामना । पक्षिना द्वारा 'पखज्जमाणा-प्रखाद्यमानाः' माता सेवा ते 'अवरेहि-अपरैः' भी 'सणप्फएहि-सनखपदैः सिड, पाप पोरेन। २ ५४ 'खज्जति-खाद्यन्ते' मावामा भावे छे. ॥७॥ પરમધામિકે અજ્ઞાની નારકને કન્ધક (દડા)ના જેવા આકારના નરકમાં નાખીને પકાવે છે. અગ્નિને લીધે દાઝતા નારકે જ્યારે તે જગ્યાએથી ઊંચે "ઉછળે છે, ત્યારે દ્રોણ નામના કાગડાએ તેમને ખાવા માંડે છે, જે તેઓ નીચે આવી પડે છે, તે સિંહ આદિ હિંસક જાનવરો તેમનું ભક્ષણ કરે છે. છા '-५२भाषाभि असु। a अज्ञान (वि३४२हित) नावाने દડાના આકારની કુંજીમાં પટકીને પકાવે છે. તે કુંભમાં જ્યારે Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ५ उ.२ नारकीयवेदनानिरूपणम् ४०७ भवन्ति भय॑मानचणकरत् उच्छलन्तीत्यर्थः । ते नारकजीवाः ऊर्ध्वमुत्पतिता अपि 'उड़काएहि ऊर्यकाकैः द्रोण नाम काकनातिषु परमाधार्मिकः । पखज्जमाणा' पखाद्यमानाः-भक्ष्यमाणाः, अत्यन्तनष्टाः सन्तः पुन: 'अपरेहिं. अपरैः 'सणफएहि सनखपदैः-सिंहव्याघ्रसनखपशुभिः । 'खज्जति' खाधन्ते, भक्षिता भवन्तीति । परमाधार्मिकाः कश्चिद् नारकजीवं कन्दुकाकृतिनरके पचन्ति । तत्र भय॑मानास्ते ततः उत्पतन्ति, उत्पततस्तानाकाशे समासाद्य द्रोणनामकाका भक्षयन्ति । ततः पतिताः सिंहादिरूपधारिभिः परमाधार्मिकैक्षिताः भवन्ति । यत्र कुत्र यान्ति सर्वत्रैवापद्भाजो तत्र भवन्तीति भावः ॥७॥ कारण ऊपर उछलते हैं तो द्रोणकाक उन्हें खाते हैं । (नरक में पक्षियों की कोई पृथक जाति नहीं है । परमाधार्मिक अस्तुर ही चिक्रिया करके द्रोणकाक का रूप धारण कर लेते हैं। इसी प्रकार सिंह आदि के विषय में भी समझना चाहिए। और फिर सिंह व्याघ्र आदि नाखूनों वाले जानवर उन्हें खाते हैं। अभिप्राय यह है कि परमाधार्मिक असुर नारकजीव को किसी 'कन्दुक की आकृति वाले नरक में डालकर पकाते हैं। जब उन्हें पकाया जाता है तो वे घबराकर ऊपर उछलते हैं । ऊपर उछले हुए उन नारकों को आकाश में पाकर द्रोण नामक काक खाते हैं। जब वे नीचे गिरते है तो सिंह आदि का रूप धारण किये हुए परमाधार्मिकों द्वारा भक्षण તેમના શરીર શેકાય છે, ત્યારે દાઝી જવાને કારણે તેઓ ઊંચે ' ઉછળે છે. ઉપર ઉછળેલા તે નારકને દ્રોણકાક ખાવા માંડે છે. (નરર્કમાં પક્ષીઓની કઈ અલગ જાતિ નથી. પરમાધામિક અસુરે જ પિતાની પૈક્રિય શક્તિથી દ્રોણકાનું રૂપ ધારણ કરે છે. એ જ પ્રમાણે તેઓ સિંહ આદિના રૂપની પણ વિમુર્વણું કરે છેજે તેઓ ઉછળીને નીચે પડે છે, તે સિંહ, વાઘ આદિ નહોરવાળા જાનવરે તેમનું ભક્ષણ કરી જાય છે. આ - આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે નરકપાલે નારકોને દડાના આકા. રની નરકમાં પછાડીને પકાવે છે. આ પ્રકારે જ્યારે તેમનાં અંગો અંગ્નિથી દાઝવા માંડે છે, ત્યારે તેઓ ગભરાઈ જઈને ઊંચે ઉછળે છે. ઊંચે ઉછળતા તે નારકે દ્રોણકાક નામના પક્ષીને શિકાર બને છે. જે તેઓ નીચે પડે છે, તે સિંહ, વાઘ આદિ દ્વારા તેમનું ભક્ષણ કરવામાં આવે છે. તે સિંહ, વાઘના રૂપની વિકુવરણ પણે પરમાધાર્મિક અસુરે જ કરતા હોય છે. સૂત્રકાર આ કથન દ્વારા એ વાત પ્રકટ કરે છે, કે નારકે ગમે ત્યાં જાય, Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૃથ્વ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मूलम् - समूसियं नाम विधूसठाणं, जं सोर्थतत्ता कलेणं थांति । अहोसिरं कह विचिऊणं, अर्थव सत्थेहि समोसवेति ॥८॥ छाया - समुच्छ्रितं नाम विधूमस्थानं यत् शोकतताः करुणं स्वनन्ति । अधः शिरः कृत्वा विकत्यय इव शस्त्रैः समवसरन्ति ॥ ८॥ अन्वयार्थः - (समूसियं) समुच्छ्रितं (नाम) नाम - उच्च चितावद् ( विधूमठाणं) विधूमस्थानं - धूमरहिताग्निस्थानं विद्यते 'जं' यत् स्थानम् माध्य 'सोयदत्ता' शोककिये जाते हैं । अर्थात् वे जहाँ कहीं भी जाते हैं, वहीं उन पर विपत्तियों के पहाड़ गिरते हैं ||७|| & 'समूमिर्य' इत्यादि । शब्दार्थ –'सलूमिय-समुच्छ्रितम्' ऊँची चिता के समान (विधूमठाणे - विधूमस्थानम् ' धूमरहित अग्नि का एक स्थान है 'जं यत्' जिस स्थान को प्राप्त करके 'सोयतत्ता - शोरुतताः' शोक से दुःखित नारकि जीव 'कलुणं - करुणम्' करुणाजनक 'धणंति-स्तनन्ति' रुदन करते हैं 'अहोसिरं कट्टु - अधः शिरः कृत्वा नरकपाल नारकि जीव के शिर को नीचा करके 'विगत्तिणं - विकर्त्य' तथा उसकी देह को काटकर 'अयं सत्येहि-अयोवत् शस्त्रः' लोह के शस्त्र से 'समोसवेंति-लमयसरन्ति' खण्ड खण्ड करके काटते हैं ॥८॥ - अन्वयार्थ -- ऊंची चिता के सदृश धूमरहित अग्नि को एक स्थान है, जिसे प्राप्त करके शोक से तप्त नारक जीव करुण आक्रोश करते हैं । તા.પણ દુઃખ તેમનેા કેા છેાડતુ નથી. તેમના ઉપર જાણે કે દુ:ખના પહાડ જ તૂટી પડે છે રાણા 'समूसिय' धत्यांहि शब्दार्थ - 'समूसियं - समुच्छ्रितम्' अशी थितना समान ' विधूमठाणंविधूमस्थानम्' धूभाडा वगरना अग्निनु मे स्थान के 'जं यत्' ने स्थानने प्राप्त हरीने 'खोयतचा शोक्तप्ताः' शोथी हु.मित नारी व 'कलुणं'करुणम्' ४३ष्यात 'थति - स्तनन्ति' ३४२ रे हे 'अहोसिर कट्टु-अधः “शिरः कृत्वा' नरपास नारविना भाथाने नीयाउने 'विगत्तिकविकर्त्य' तथा तेना हेडने अथीने 'अयं वसत्थेहि' - अयोवत् शस्त्रैः' सोमंडना शस्त्रथी ‘समोसवे 'ति-समवसरन्ति' टुकडे टुकड़ा उरीने आये छे. સૂત્રા—એક ઊંચી-ચિતાના આકારનું, ધુમાડા વિનાની અગ્નિથી યુક્ત એક સ્થાન હાય છે., જ્યારે પરમાધાર્મિક નારકને તે ચિતામાં ફૂંકે Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका प्र. शु. अ. ५ उ. २ नारकीय वेदना निरूपणम् तृप्ता नारकाः (कडणं) करुणं - दीनं (थति) स्वनंति - आक्रोशशब्दं कुर्वन्ति (अहो सिरं कट्टु) अथः शिरो मस्तकं कृत्वा (दिगत्तिर्ण) विकर्त्य खण्डयित्वा (अयं व सत्थेदिं) अय इव शस्त्रैः (समोसवेंति) समवस रन्ति खण्डशः खण्डयन्ति कर्तयन्तीति ॥ ८ ॥ ४०९ ~ टीका--' समूसिय' समुच्छ्रितं सम्यक् उच्छ्रितं समुन्नतं चिताकृतिनामकम् । "विधूमठाण' विधूमस्थानम् दिगंतो धूमो यस्मात् स्थानात् द्विधूमस्थानम् 'धूमरहितवहिस्यानमिति यावत् । 'जं' यंत् स्थानम् माप्य ' सोयतता' शोकतप्ताः नारकाः । 'कल' करुगम् 'थति' स्वनन्ति - करुणा पूर्वकं शब्दं कुर्वन्ति रुदन्तीति यावत् । तथा 'अहो सिरं कट्टु' अपः शिरः कृत्वा 'विगत्तिऊ' विकर्त्य विदार्य । 'अयं च सत्येहिं' अय इव शस्त्रे' 'समोसवेति' समवसरन्ति, खण्डशः खण्डयन्ति 1 अत्युच्चचितासदृशं निर्धूमवहिस्थानमेकमस्ति । तत्र गताः नारकजीशः महता 'शोकेन संतप्ता भवन्ति सकरुणं रुदन्ति च । तथा तत्र परमधार्मिका नरकपालाः वहां परमाधार्मिक उनका मस्तक नीचा करके काटते हैं और लोहे के शस्त्रों से देह को खण्ड खण्ड कर देते हैं ||८|| टीका - ऊंचा उठा हुआ चिता के आकार का एक धूम से रहित अग्नि का स्थान है । उस अग्नि स्थान में डालते हैं तब असह्य वेदना से संतप्त नारक जीव करुणाजनक विलाप करते हैं । परमाधार्मिक उनका सिर नीचा करके लोहमय शस्त्रों से देह के अवयवों को खण्ड खण्ड कर देते हैं । तात्पर्य यह है कि एक अत्यन्त ऊंचा चिता जैसा धूमरहित अग्नि का स्थान है। वहीं परमाधार्मिक नारक जीव को ले जाते हैं, तब नारक जीव છે, ત્યારે તે અગ્નિના તાપથી આકુળવ્યાકુળ થયેલા નારકા જિનક ચિત્કારા કરે છે. ત્યાં પરમાધામિકા તેમનાં મસ્તક નીચા કરાવીને શત્રુ વડે છેદી નાખે છે, અને લેાઢના હથિયારાથી તેમનાં શરીરના ટુકડે ટુકડા કરી नाये थे. ॥८॥ ટીકા”—કેાઈ ઊંચી ચિતા ખડકી હોય એવુ એક સ્થાન ત્યાં હાય છે. તે સ્થાનમાં નિમ અગ્નિ ખળતે હોય છે. જયારે નરકપાલે તે અગ્નિસ્થાનમાં નારકીને પટકે છે, ત્યારે અસહ્ય વેદનાથી સતપ્તનારકા કરૂણાતક આદ કરે છે. પરમાધામિકા તેમનાં મસ્તકને નીચા કરાવીને શસ્ત્રો વર્યું તેમનુ એન્નુન કરે છે તથા તેમના પ્રત્યેક અગેને લાઢાના શસ્ત્રા વડે છેદીને તેમના ટુકડે ટુટડા કરી નાખે છે. આ કથન દ્વારા સૂત્રકાર નારકાની યાતનાઓનુ વજ્રન કરે છે તેમને નિધૂ મ અગ્નિમાં ફૂંકવામાં આવે છે .આગથી દાઝ્યાને કારણે અસહ્ય પીડાને सु० ५२ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • सूत्रकृताङ्गसूत्रे है तान्नारकजीवान् यातनया संत्रासितान् शिरोऽधः कृत्वा कर्त्तयन्ति । तथालोशस्त्रेण तदीयदेहावयवं खण्डशः खण्डयन्तीति भावः ||८|| मूलम् - समूसिया तत्थ विसूणियंगा, पंक्खीहिं खनंति अओमुहेहिं । संजीवणी नाम चिरिट्टितीया, जंसी पयो हम्मइ पांवचेया ॥ ९ ॥ छाया - समुच्छ्रितास्तत्र विशुणितांगाः पक्षिभिः खायन्तेऽयोमुखः । संजीवनी नाम चिरस्थितिका यस्यां प्रजा इन्यन्ते पापचेतसः ||९|| तीव्र शोक से संतप्त हो जाते हैं और करुणाजनक रुदन करते हैं। वहां पर परमधार्मिक यातनाओं से त्रस्न उन नारक जीवों का मस्तक नीचा करके काट डालते हैं और लोहे के शस्त्रों से उनके शरीर के अवयवों को खण्ड खण्ड कर देते हैं ||८|| 'सिया' इत्यादि । शब्दार्थ - ' तत्थ - तत्र' उस नरक में 'समृसिया - लमूच्छ्रिताः' नीचे मुख करके लटकाए हुए 'विसूणियंगा - विशूणिताङ्गाः ' तथा शरीर से चमडा उखाड लिए हुए वे नारकिजीव 'अओमुहेहिं-अयोमुखैः' 'लोह की चंचुवाले 'पक्खिहि - पक्षिभिः' पक्षियों के द्वारा 'खज्जंतिखाद्यन्ते' खाये जाते हैं 'संजीवणी नाम-संजीवनी नाम' नरक की भूमि संजीवनी है क्यों कि मरणतुल्य कष्ट पाकर भी प्राणी उसमें मरते नहीं है 'चिरद्वितीया - चिरस्थितिकाः' तथा उसकी आयु अधिक होती કારણે તે ખૂબ જ ચિકારા કરે છે. તેમના તે ચિકારાની પરમધામિક અસુરા પર બિલકુલ અસર થતી નથી તે તેને વધારે યાતનાઓ આપે છે. તેમનાં મસ્તકને તેઓ છેદી નાખે છે અને લેાઢાના તીક્ષ્ણ શસ્રો વડે તેમનાં અવયવેાના ટુકડે ટુકડા કરી નાખે છે. ૫૮ 'स्वमूखिया' त्याहि शडार्थ-‘तत्थ-तत्र' ते नर मां 'संमूखिया - समुच्छ्रिताः' नाथे भोटु अरीने सटावेस 'विसूणियंगा-विशूणिताङ्गाः ' तथा शरीरथी याभडु उमाडी सीधेस ते नार व ‘अओमुद्देहि-अयोमुखैः' सेोम'उना नेवी उठोर यांयवाजा 'पक्खिहिपक्षिभिः' पक्षियोना द्वारा 'खज्जेति - खाद्यन्वे' अवाय छे. 'संजीवणी नामसंजीवनी नाम' नरउनी लूभी सलवनी हेवाय छे. भिडे भरा तुझ्या उष्ट भाभीने पशु प्राथी तेमां भरतां नथी. 'चिरद्वितीया - चिरस्थितिकाः तेनी Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिनी टीका पं. धुं. म. ५ उं. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् ४११ अन्वयार्थ : - (तत्थ ) तत्र नरके (समूसिया ) समुच्छ्रिता - अधोमुखीकृत्य लंबमानाः, (विवणियंगा) विशुणिवांगा अपगतत्वचो नारकाः 'अयोमुंहे हिं' अपोमुखैः लोहवत् कठिनमुखयुक्तेः 'पक्खिहि' पक्षिभिः 'खज्जंति' खाद्यन्ते (संजीवणी - नाम) संजीवनी नाम-यत्र मृता अपि न म्रियन्ते (चिरद्वितीया) चिरस्थितिका बहुकालस्यायिनी (जंसि) यस्यां (पावचेया) पापचेतसः पापकलुषिताः (पया) प्रजाः नैरयिकाः (हम्मद) इन्यन्ते - मार्थन्ते इति ॥ १९ ॥ { टीका- 'तस्थ' तत्र नरके 'समृतिया' समुच्छ्रिताः स्वंमे ऊर्ध्ववाहवोऽधः 'शिरसः कृत्वा चाण्डालादिना चर्मवत् लंबिताः । 'विसूणियंगा' विशुणितांगा:उस्कृताङ्गकाः निःसारिखत्वचः 'अयोमुहेदि' अओमुः वज्रवंचुभिः काकादिहै. 'जंसि - यस्मिन्' जिस नरक में 'पावचेता- पापचेतसः' पाप से कल्लु'षित 'पया - प्रजा: ' नैरयिक 'हम्मद- हन्यन्ते' मारे जाते हैं ॥९॥ F अन्वयार्थ - नरक में नीचा मुख करके लटकते हुए और त्वचा से रहित नारकजीवों को लोहे के समान कठोर चोंच वाले पक्षी खातेचींधते हैं । नरकभूमि संजीवनी है जहाँ प्राणान्तिक कष्ट पाते हुए भी नारक अकाल में मरते नहीं हैं और वहां बहुत काल तक रहते हैं । पाप से कलुषित नारक यहां मारे जाते हैं ||९॥ } टीकार्थ -- जैसे चाण्डाल चमडे को लटका देते हैं, उसी प्रकार परमाधार्मिक नारक जीवों को खंभे में बांधकर लटका देते हैं । उनकी " भुजाएँ ऊंची और मस्तक नीचे कर दिया जाता है । शरीर की चमड़ी आयु भोटी होय छे. 'जंसि - यस्मिन् ' ने नरम्भां 'पावचेता - पापचेतसः' पायथी दुषित 'पया - प्रजा' नैरथि 'हम्मइ - हन्यन्ते' भारवामां आवे छे. ॥८॥ સુત્રા -નરકપાàા નારકોની ચામડી ઉતારી લઈને તેમને ઉધે માથે લટકાવે છે, ત્યારે લેાઢાના જેવી કઠાર ચાંચવાળાં પક્ષીએ તેના શરીરમાંથી માંસ ખેંચી કાઢીને ખાવા માંડે છે. તેએ તેમનાં શરીરને ચાંચ, નહેર આદિ વડે પી'ખે છે. નરકભૂમિ સજીવની છે, જ્યાં પ્રાણાન્ત કષ્ટ સહેન કરવા છતાં પણ નારકા અકાળે મરતાં નથી, તેઓ ઘણા દીર્ઘકાળ સુધી ત્યાં જીવિત રહીને પૂર્વભવેાના પાપકૃત્યેનું ફળ ભાગવ્યા કરે છે. પાપથી કલુષિત નારકાને નરકમાં પરમાધામિકો ખૂબ જ માર મારતા રહે છે પા ટીકા”જેવી રીતે ચાંડાળા મરેલાં જાનવશના ચામડાંને લટકાવે છે, એજ પ્રમાણે પરમાધાર્મિકો નારક જીવાને થાંભલાઓ પર ઉંધે માથે લટકાવી દે છે. તેમની ચામડીને ઉતરડી લીધી હોય છે. તેથી તેમનુ માંસ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूत्रतासूत्रे सिर्श । 'पक्खी हिं' पक्षिभिः-कङ्कगृध्रादिभिः, 'खज्जति' खाधन्ते नरकजीवास्ते । तथा 'संजीवणी नाम चिरहितीया' संजीवनीनास जीवनदात्री नरकभूमिः चिरस्थितिका 'जंसी' यस्यां संजीवन्याम् 'पारचेया' पापचेतसः पापकलपिताः 'पया' प्रजाः नरयिकाः 'हम्मई' हन्यन्ते-नार्यन्ते असाधुकर्मभिः परमाधार्मिकः । तत्र नरकेऽधोमुखं कृत्वा रिताः नैरयिक : तथा तदंगेभ्यश्चर्माण्युत्कृत्य लौहमुखपक्ष्यादिना भक्ष्यन्ते । नरकभूमिः संजीवनीनाम्नी भवति, यतो यत्र मरण'सदृशं. दुःखमवाप्याऽपि सत्यायुश्शेषे न नियन्ते । तत्रायुरपि अत्यधिकं भवति । पापात्मानो जीवाः पापफलोपभोगाय चिरं तिष्ठन्ति तस्मिन्नरके हताः भवन्ति । उधेड ली जाती है । ऐसे नारकों को वज्र के समान अतिशय कठोर चाँच वाले काक, कंक या गिद्ध आदि पक्षी खाते हैं-उनका मांस नोंचते हैं। नरक की भूमि संजीवनी है अर्थात् प्रागान्तिक वेदना भोगने पर 'भी जीव जीवित ही रहते हैं-मरते नहीं हैं। वे चिरस्थितिवाले हैं अर्थात् वहाँ नारकी जीभ लम्बे समय तक रहते हैं । असाधुकर्मों परमाधार्मिक वहां नारकों को हनन करते-मारते हैं। - आशय यह है-नरक में नारकिजीव अधोमुख करके लटकाये जाते हैं । उनके शरीर की चमडी उतार ली जाती है। फिर लोहमुख पक्षी उन्हें भक्षण करते है । नरक की भूमि,संजीवनी कहलाती है, क्यों कि वहां मरण के समान दुःख भोगते हुए भी आयु शेष रहने पर नारक जीव भरते नहीं हैं । आयु भी वहां बहुत लम्बी होती है। 'ખવા માટે કાગડા, ગીધ, સમડી આદિ પક્ષીઓ ત્યાં આવે છે. લોખંડ જેવી કઠોર ચાંચ વડે તેઓ તેમનાં શરીરનું માંસ ખેંચી કાઢીને ખાઈ જાય છે. નરકની ભૂમિ સંજીવની છે. એટલે કે અસહ્ય વેદના ભોગવવા છતાં પણ નારકે જીવતા જ રહે છે. નારકેને આયુકાળ ઘણે લાંબો (૧૦ હજાર ૬ વર્ષથી લઈને ૩૩ સાગરોપમ કાળને) હોય છે. ક્રૂર પરમાધાર્મિક નારકે "ત્યાં નારકેને મારપીટ કરતા જ રહે છે. • આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે નરકમાં નારકની ચામડી ઉતરડી લઈને તેમને ઊંધે મસ્તકે લટકાવવામાં આવે છે. લોખંડના જેવી કઠણ ચાંચવાળા પક્ષીઓ તેમનું માંસ ખાવા માટે આવે છે–ચ મારી મારીને માંસના લેચા કાપીને તેઓ તેનું ભક્ષણ કરે છે. નરકમૂમિને સંજીવની કહેવામાં આવે છે, કારણ કે ત્યાં મરણના સમાન દુઃખ ભોગવવા છતાં પણ ‘ તેમને આયુકાળ બાકી હોય ત્યાં સુધી નારકે મરતા નથી. વળી ત્યાં Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् तदेवं परमधार्मिकः परस्परकृतैर्वा छिन्ना मित्राः क्वथिता सूच्छिताः सन्तो वेदनासमुद्घातगता अपि ते न म्रियन्ते अतः कथ्यते संजीवनीवत् संजीविनी जीवनदात्री नरकभूमिः न तत्र गतः खण्डशन्नोपि स्त्रियते स्वायुषि सति । सा च चिरस्थितिका उत्कृष्टता चयस्त्रित्सागरोपमाणि यावत् यस्यां च प्राप्ताः प्रजायन्ते इति प्रजाः प्राणिनः पापचेतसः हन्यन्ते मुद्गरादिभिः नरकानुभावाच्च वो अत्यन्तपिष्टा अपि न म्रियन्ते, अपि छ पारदवत् मिलन्ति ||९|| पापी जीव अपने पापों का फल भोगने के लिए नरक में चिरकालं तक रहते हैं । इस प्रकार वहां परम्याधार्मिकों द्वारा कष्ट दिये जाते हैं, तथा परस्पर -मैं भी एक नारक दूसरे को कष्ट पहुँचाता है । उन कष्टों से वे छिन्न भिन्न होते हैं, पचते हैं, सूच्छित हो जाते हैं परन्तु वेदना से अभिभूत हो जाने पर भी मरते नहीं हैं । इस कारण नरकभूमि संजीवनी या जीवनदात्री कहलाती है। वहां गया हुआ जीव खण्ड खण्ड कर देने पर भी आयु शेष होने से मरता नहीं है। वहां आयु भी बहुत लम्बी - उत्कृष्ट तेगीस सागरोपम की होती है। वहां पापी प्राणी मुग- रादि से आहत किये जाते हैं किन्तु नरक का स्वभाव ही ऐसा है આયુષ્ય પણુ ઘણુ જ લાંબુ' હાય છે. પાપી જીવેાને પેાતાનાં પાપકમાંનું મૂળ ભાગવવાને માટે લાંખા સમય સુધી ત્યાં રહેવું પડે છે. પરમાધાર્મિક અસુરા દ્વારા તેમને આ પ્રકારનાં કષ્ટો તેા અપાય છે, પરન્તુ નારકા પાતે જ એકબીજને પણ પીડા પહેાંચાડયા કરતા હાય છે.,તે કષ્ટાને લીધે તેઓ છિન્નભિન્ન થઈ જાય છે. આ પ્રકારે છિન્નભિન્ન થવા છતાં, અગ્નિ પર શેકાવા છતાં, અંગેના ટુકડે ટુકડા થવા છતાં તે મરતાં નથી. હા, સૂતિ અવશ્ય થાય છે. આ કારણે નરકભૂમિને સજીવની અથવા જીવનદાત્રી હેવામાં આવે છે. ત્યાં ગયેલા જીવતા ભલે ટુકડે ટુકડા કરી નાખવામાં આવે. પણ જ્યાં સુધી તેમનું આયુષ્ય ખાકી હાય છે; ત્યાં સુધી તે મરતા નથી. નારકેતું આયુષ્ય ઘણું જ લાંખુંજઘન્ય દસ હાર વ'તુ' અને અધિકમાં અધિક તેત્રીસ સાગરાપમનું–હાય છે. ત્યાં પાપી જીવાને મગદળ, દંડા આદિ વડે મારવામાં આવે છે. તેમના શરીરના સૂરે. ચૂરા કરી નાખવામાં આવે છે, છતાં પણ તેએ મરતા નથી નારકાના સ્વ લા જ એવા હાય છે કે પ્રાણ જાય એવી વેદના સહન કરવા છતાં તે Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ सूचकृतास्त्रे मूलम्- तिर्खाहिं सूलाहिं निवाययंति, बसोग सावययं व लहे। • ते सूलविदा केलणं थैलि, एगते दुक्खाबुहंओ गिलाणा॥१०॥ छाया-वीक्ष्णामिः शूलामिनिपातयन्ति बशंग श्वापदमिक लब्धम् । ते शूलविद्धाः करुण स्तनन्ति एकान्तदुःखं विधातो ग्लानाः ॥१०॥ अन्वयार्थ:---(वसोगय) वसंगत-स्वायत्तीकृतं (साक्यवं च) श्वापदमिव वन्यपशुमिव (लई) लब्धं प्राप्तं नारकजीयम् परमाधारिकाः (तिक्वाहि मूलाहि) कि मरणासन्न होकर भी और अत्यन्त पीस देने पर भी वे भरते नहीं हैं, बल्कि पारे के समान फिर मिल जाते हैं ॥१॥ - 'तिक्खाह' इत्यादि। शब्दार्थ--'वक्षोभयं-वशं गतं वश में आए हुए 'सावययं वश्वापद मिक' जगली जानवर के समान लाटू-लब्धम्' प्राप्त हुये नारक 'जीव को नरकपाल तित्राहि लूलाहि-तीक्ष्णाभिः शूलाभिः' तीक्ष्ण धारवाले शूओं से निभाययंति-लिपातयन्ति' मारते हैं 'मूलविद्धाशूलविद्धाः शूल से वेधे हुए 'दुहओ-विधा' भीतर और बाहर दोनों ओर से 'गिलाणा-रलानाः' ग्लान अर्थात् आनन्द हित और 'एगंत 'दुक्खा-एकान्तदुख: अत्यन्त दुःखबाले नारकि जीव 'कलुणं णंतिकरुण स्तनन्ति' दीन और करुणाजनक रुइन करते हैं ॥१०॥ ___ अन्वयार्थ--अपने वश में पड़े हुए जंगली पशु के समान प्राप्त हुए नारक जीव को परमायार्मिक असुर तीखे शूलों से भूमि पर गिरा મરતા નથી તેમનાં અંગેને ચગદીને તેમને ચૂરે કરવામાં આવે, તે પણ પારાની જેમ તે અંગે ફરી મળી જાય છે. પલા - va-'वसोगयं-वशं गतं' पशम मा 'सावययं व-श्वापदमिव' onal anनवना समान 'लद्धं-लब्धम्' प्राप्त थमे ना२३ पने न२४ास , 'तिक्वाहि सूलाहि-तिक्ष्णाभिः शूलामि' तिक्ष्ण थारपारा शूगोथी 'निवाचयतिनिपातयन्ति' मारे थे. 'सूलविद्धा-शूलविद्धाः' शुकथा वेधेट 'दुइओ-द्विधा'- २५४२ * भने महा२ मन माथी 'गिलाणा-ग्लानाः' खान अर्थात् मान २डित मन ‘एगंतदुरखा-एकान्तदुःखा.' सत्यतम ना२894 'कलुणं थणंति-- करुणं स्तनन्ति' हीन भने ध्यान ३४न ४२ छ. ॥१०॥ સૂત્રાર્થ–જેવી રીતે શિકારી પિતે પકડેલા પશુને શસ્ત્રો વડે વીધી નાંખે છે, એ જ પ્રમાણે પિતાના હાથમાં આવેલા નારકેને પરમધામિકે જમીન Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् ४१५ तीक्ष्णाभिः शूामिः (निवाययंति) निपातयन्ति-भूमौ पातयित्ता मारयन्ति (मूलविद्धा) शूलविद्धास्ते नारकाः (दुहओ) द्विधातो वाह्याभ्यन्तराभ्याम् (गिलाणा) ग्लाना:-अपगतमसोदाः (गंतदुखा) एकान्तदुक्खा:-अतिशयेन दुःखिता: केवलं (कळणं थणंति) करुणं दीनतापूर्वकं स्तनन्ति आक्रोशशब्दं कुर्वन्तीति ॥१०॥ . टीका-'वसोगर्य' रशंगतम्-स्वाधिकारे समागतम् । 'सावययं व श्वापदमिव । मृगमूकरादिकमिव स्वातन्त्र्येण 'लद्धं लब्धम्-पाप्तम् ते परमाधार्मिकाः 'तिक्खाहिं सलाहि तीक्ष्णाभिः शूलाभिः निवाययंति' निपातयन्ति, वेधयन्ति 'सूलविद्धा' शूलविद्धास्ते 'दुहओ' द्विधातः-बाह्याभ्यन्तरोभयमकारेण । 'गिलाणा' ग्लाना:-दुःखसंतप्ताः, 'एगंतदुक्खा' एकान्तदुखाः, एकान्ततो दुःखमेव माप्तवन्तस्ते नारकजीवाः । 'कलुणं' करुणासहितं यथा स्याद तथा 'थणति' स्तनन्ति कर वेधते हैं । उस समय वे नारक भीतर और बाहर से ग्लान होते हैं। उन्हें एकान्त दुःख काही अनुभव होता है । वे करुण स्वर से विलाप करते हैं। टीकार्थ--अपने अधिकार में आए हुए नारक को मृग अथवा शूकर के जैसा पाकर परसाधार्मिक तीक्ष्ण शूलों से वेधते हैं। वे नारक दोनों प्रकार से अर्थात् भीतरी और बाहरी कारणों से ग्लान होते हैं-दुख से संतप्त हो जाते हैं। उन्हें एकान्त रूप से दुख ही देख का अनुभव होता है । वे करु गोत्पादक रुदन करते हैं। પર પછાડીને તીક્ષણ લેથી વીંધી નાખે છે. ત્યારે તે નાકે બન્ને કારણોને - લીધે (આન્તરિક અને બાહ્ય કારણોને લીધે) ગ્લાનિને અનુભવ કરે છે. તેમને ત્યાં એકાન્ત રૂપે (સંપૂર્ણત) દુઃખને જ અનુભવ થાય છે. તેથી તેઓ કરુણ સ્વરે વિલાપ કરે છે. ૧૦ ટીકાર્થ–પોતાના હાથમાં પકડાયેલા મૃગ, સૂવર આદિ પશુઓની સાથે શિકારી જે વર્તાવ કરે છે, એ જ વર્તાવ પરમધામિ કે તેમના પંજામાં પકડાયેલા નારકે સાથે કરે છે. તેઓ નારકનાં શરીરમાં તીણ શૂલે ભોંકી हे . ते ना ! मन्न ।रना रणेथी-मा भने अतिरि: २ थीલાનિને અનુભવ કરે છે એટલે કે તેઓ માનસિક અને શારીરિક સંતાપને અનુભવ કરે છે. તેમને એકલા દુઃખને જ અનુભવ થાય છે, તેમના નસીબમાં સુખ તો લખ્યું જ હતું નથી તેઓ દુઃખને લીધે કરુણાજનક ચિત્કાર અને આકંદ કર્યા કરે છે, Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ सुकृताङ्गसूत्रे कुर्वन्ति । वशगतो वन्यजीवसृगादिरिव स्वातन्त्र्येण लब्धं नारकजीवं नरकपाळा वीक्ष्णादिभिर्विदारयन्ति । बाह्याभ्यन्तरोभयरूपेण एकांन्यतो दुःखिता ed नारकजीवाः सकरुणं तत्र नरकावासे रुवन्ति इति ॥ १० ॥ मूलम् - सेया जलंनाम सिंह महंत, जंशी जलंतो अंगणी अकंटो। चिति" बद्धों बहुकूरकम्मा रहेसरा केइ चिरेद्वितीया ॥ ११ ॥ छाया - सदा ज्वलन् नाम निहं महच्च यस्मिन् ज्वलन्नग्निरकाष्ठः । तिष्ठन्ति वृद्धा बहुक्रूरकर्माणः अरहः स्वराः केऽपि चिरस्थितिकाः ॥ ११॥ आशय यह है कि वश में पडे हुए जंगली पशु आदि के समान पाए हुए नारक को परमाधार्मिक तीक्ष्ण शूलों से विदारण करते हैं । वे बाह्य और आभ्यन्तर- दोनों प्रकार से एकान्तरूप से 'दुःखी होते हैं और करुण आक्रन्दन करते हैं ॥१०॥ 'सया जल' इत्यादि । शब्दार्थ - 'सया - सदा सर्वकाल 'जलंगाम - ज्वलनाम' अत्यन्त उष्णस्थान है वह स्थान 'निहं निहस्' प्राणियों का घातस्थान है 'जंसि( यस्मिन्' जिसमें 'अकट्टो - अकाष्ठः काष्ठ के बिना ही 'जलंनी अगणीज्वलन् अग्निः' अग्नि जलती रहती है 'बहुकुर कम्मा - बहुकर कर्माणः ' जिन्होंने पूर्वजन्म में बहुतक्रूर कर्म किये हैं 'चिरद्वितीया-चिरस्थितिकाः' तथा जो उस नरक में चिरकाल तक निवास करने वाले हैं 'कहा- बद्धाः ' આ કથનને ભાવાથ એ છે કે પરમાધામિકા નારકાની સાથે ઘણું જ ક્રૂર વર્તાવ કરે છે, તેમ તેમનાં અગેામાં શૂલે લેાંકી દઇને તેમને ઝૂમ જ વ્યથા પહાંચાડે છે. નારકે ત્યાં છાહ્ય અને આન્તકિ સ ́તાપના અનુભવ કરે છે. ત્યાં તેમને સતત દુઃખ જ અનુભવવુ' પડે છે. અસહ્ય દુઃખને લીધે તે કરુછુઆક્રંદ કરે છે. ૧૦ના 'सयाज' त्याहि शब्दार्थ –'खया-सदा' सर्व 'जलनाम- ज्वलन्नाम' अत्यंत उष्णुतावा स्थान छे ते स्थान 'निहं - निइम्' प्रथियोनु घातस्थान हे 'जति यस्मिन् ' 'जलतो अगणी - ज्वलन् अग्निः' अग्नि नेसले पूर्व४न्सां अडु २ भ ते नरम्भां सांगा क्षण सुधी मां 'अकट्टो - अकाष्टः ' भगतशु विना श्रगती रहे छे 'बहुकूरकम्मा - बहुकूरकर्माणः' यो 'चिरद्वितिया - चिरस्थितिकाः' तथा Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. अ. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदना निरूपणम् ४१७ अन्वयार्थः - (सया) सदा सर्वकाल (जलं नाम) ज्वलन्नाम स्थानमस्ति 'मह' महत् 'निर्द' निहं - पाणिघातस्थानं (जसि ) यस्मिन् निहे (अकट्टो ) अकाष्ठः काष्ठमन्तरेणैव (जळतो) ज्वलन् - देदीप्यमानः (अगणी) अग्नि स्तिष्ठति (केई) asu (हु कूरकम्मा) बहु क्रूरकर्माणः (चिरद्वितीया) चिरस्थितिकाः - प्रभूतकालं तत्र वासं कुर्वाणाः तत्र नरके (वद्धा) बद्धा: (अरहस्वरा) अरहःस्वरा उच्चस्वरेण अव्यक्तदीनस्वरमुच्चारयन्तः (चिति) तिष्ठन्तीति ॥ ११ ॥ - म 'टीका- 'सया' सदा-सर्वदा 'जलं नाम' ज्जल अतिशयेन दीप्यमानम् अत्युष्णस्थानमस्ति तत्स्थानम्, न अल्पम् अपि तु 'मह' मइत् - अतिशयेनोन्नतमस्ति तत् स्थानम् | 'निहं' निहं निहन्यन्ते प्राणिनः कर्मवशाद यस्मिन् तन्निहम आघातस्थानं नारकजीवानां प्राणिनाम् नरकस्थानमित्यर्थः, 'जंसी' यस्मिन् स्थाने 'अगणी अaar' अग्निरकाष्ठः- काष्ठादीन्धनमन्तरेणैवाऽग्निः 'जलतो' ज्वलन - देदीप्यमानः उष्णरूपश्वाद, विनैव काष्ठं यत्राऽग्निः प्रज्वलति, तत्राऽग्नौ । उस नरक में बांधे हुए वे 'अरहस्तरा - अरहस्वराः' दीन चिल्लाते हुए 'थिति - तिष्ठन्ति' रहते हैं ॥ ११ ॥ अन्वयार्थ - सदैव जलता हुआ एक बडा प्राणियों के घात का स्थान है । उस स्थान में काष्ठों के विना ही अग्नि जलती रहती हैं । क्रूरकर्मा और दीर्घकालीन स्थिति वाले नारक बहुत समय तक वहां दिये जाते हैं और वे ऊंचे स्वर से आक्रन्दन करते हैं ॥ ११ ॥ टीकार्थ- सदा देदीप्यमान एक अत्यन्त उष्ण स्थान है । वह स्थान छोटा नहीं, बहुत बडा है । वह कर्म के वशीभूत प्राणियों के घात का स्थान हैं । उस स्थान में काष्ठ आदि ईंधन के बिना ही सदा निवास हरवावाजा छे 'बद्धा - बद्धाः ' ते नरम्भां मांधता तेथे 'अरहसरा - अरह'स्वरा.' दीन-ध्यायात्र-शुभे पाडतां 'चिटुंति - तिष्ठन्ति' रहे छे. ॥११॥ સુત્રા —તરકે માં નારાના ઘાત કરવા માટે એક ઘણુ જ વિશાળ સ્થાન છે, તે સદા પ્રજવલિત રહે છે. તે સ્થાનમાં કાષ્ટ નાખ્યાં વિના જ અગ્નિ પ્રજ્વલિત રહે છે. સૂરકમાં અને દીર્ઘકાલીન આયુસ્થિતિવાળા નારકોને તે સ્થાનમાં લાંબા સમય સુધી બાંધી રાખવામાં આવે છે. ખૂખ જ ઉષ્ણતાથી અકળાવાને કારણે તેઓ કરુણ આક્રંદ કર્યા કરે છે. ૫૧૧૫ ટીકા ...ત્યાં સદા આગથી દેદીપ્યમાન એક ઉષ્ણુ સ્થાન છે. તે સ્થાન ઘણુ જ મેટું છે. તે સ્થાનમાં કાષ્ઠ આદિ ધન વિના જ અગ્નિ સદા પ્રજ્વલિત રહે છે. પ્રાણાતિપાત આદિ પાપકમ કરનારા જીવાનુ તે ઘાત सु० ५३ 2 Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूत्रकृतामसूत्र 'बहु कूरकम्मा' बहु क्रूरकर्माणो नारकाः, ये पूर्वजन्मनि अनेकमाणातिपातादिरूपकुत्सितं कर्म कृतवन्तः ते इत्थंभूताः । तथा 'चिरद्वितीया' चिरस्थितिका चिरकालपर्यन्तस्थायिनः 'बद्धा' वद्धाः सन्तः 'अरहस्सरा' अरह स्वरा:-अव्यक्त महाक्रन्दनस्वरवन्तः 'चिटुंति' तिष्ठन्ति-ताशाकाष्ठपज्वलिताऽग्निनरकस्थाने वसन्ति । एकं तथाविधं प्राणिनां घातस्थानमस्ति, यत् सर्वदैव निरिन्धनेनाऽपि बहिना ज्वलितं भवति । तथाविधनरकादासे ते पापिजीवा बद्धा भवन्ति पापकर्मणां फलोपभोगाय । तत्र बद्धास्ते जीवाः पापकर्माणः तत्र चिरं निवसन्ति, तथा वेदनया निरन्तरं दुःखिताः सन्तः सकरुणं रुदन्त आसते ।।११॥ अग्नि जलती रहती है । उस स्थान में उन नारक जीवों को बांध दिया जाता है जो अत्यन्त क्रूर कर्म करनेवाले हैं अर्थात् जिन्होंने पूर्वजन्म में प्राणातिपात आदि कुत्सित कृत्य किये हैं और जो चिरकाल तक नरक में रहने वाले हैं । जब उन नारकों को उस स्थान में यांध दिये जाते हैं तो वे बद्रुत जोर से रुदन करते रहते हैं। अभिप्राय यह है कि नरक में प्राणियों के घाल का एक स्थान है।' वह स्थान विना ईधन की अग्नि से सदैव जलता रहता है। उस नरकावास रूप स्थान में उन पापी जीवों को बांध दिये जाते हैं जिससे वे अपने पापकर्मों का पूरा फल भोग सके । वे पापी वहां लम्बे समय तक बांधे रहते हैं तथा वेदना के कारण निरन्तर दुःखी होकर दीनता पूर्ण रुदन करते रहते हैं ॥११॥ સ્થાન છે. જેમણે પ્રાણાતિપાત આદિ અત્યન્ત કુકર્મોનું પૂર્વભવમાં સેવન - કર્યું હોય છે એવાં નારકેને ત્યાં બાંધી દેવામાં આવે છે. ત્યાં તેમને આયુકાળ ઘણું જ લાંબા હોય છે. જ્યારે તેમને તે ઉણ સ્થાનમાં બાંધવામાં આવે છે, ત્યારે તેઓ કરુણાજનક ચિત્કાર અને રુદન કરે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે નરકમાં પ્રાણીઓને વધ કરવાનું એક સ્થાન છે. તે સ્થાન કાષ્ઠાદિ વિનાના અગ્નિથી સદા પ્રજવલિત રહે છે. તે નરકાવાસ રૂપ સ્થાનમાં તે પાપી જીવેને બાંધી દેવામાં આવે છે. તેઓ તેમના પૂર્વભવનાં પાપકર્મોનું ફળ ત્યાં ભેગવ્યા કરે છે. જ્યાં સુધી તેઓ તેમનાં પાપકર્મોનું ફળ પૂરેપૂરું ભેગવી લેતા નથી, ત્યાં સુધી તેમને ત્યાં જ બાંધી રાખવામાં આવે છે. ઘણા લાંબા સમય સુધી તે ઉoણ સ્થાનમાં બંધાયેલા રહેવાને કારણે તેમને એટલી બધી વેદના થાય છે કે તેઓ નિરન્તર દીનતાપૂર્ણ રુદન ર્યા કરે છે. ૧૧ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. ३ नारकीयवेदनानिरूपणम् ४९ मूलम्-चिया महंतीउ समारभित्ता, छभंति ते तं कलणं संतं। आवट्टती तत्थ असाहुकम्मा, सप्पी जहा पंडियंजोई मज्झे॥१२॥ छाया-चिता महतीः समारभ्य क्षिपन्ति ते तं करुणं रसन्तम् । आवर्तते तत्र असाधुकर्मा सपिर्यथा पतितं ज्योतिर्मध्ये ॥१२॥ अन्वयार्थः-(ते) ते-परमाधार्मिकाः (महंतीउ) महतीः (चिया) चिताः (समारभित्ता) समारभ्य-संपाद्य (कलुणं रसंत) करुणं सकरुणं यथा स्यात् तथा रसन्तं क्रन्दनं कुर्वन्तं (छुम्भंति) क्षिपन्ति प्रक्षिपन्तीत्यर्थः (तत्थ) तत्र-तस्यां चितायां (असाहुकम्मा) असाधुकर्मा पापीजीवः (आवदृती) आवर्तते द्रवीभवति (जहा) यथा (जोइमज्जे) ज्योतिमध्ये वह्नौ (पडियं) पतितं (सप्पी) सपि तम् द्रवीभवति तद्वदिति ॥१२॥ 'चिया' इत्यादि। शब्दार्थ-ते-ते' वे परमाधार्मिक 'महंती उ-महती घडी 'चियाचिता' चिता को 'समारभित्ता-समारभ्य' बनाकर 'कलुणं-करुणम्' करुण 'रसंत-रसन्तम' रुदन करते हुए नारकिजीव को 'छुम्भंतिक्षिपन्ति' फेंक देते हैं 'तत्थ-तत्र' उसमें 'असाहुकम्मा-असाधुकर्मा' पापी जीव 'आवदृती-आवर्तते' द्रवीभूत हो जाते हैं जहा-यथा' जैसे 'जोइमझे-ज्योतिर्मध्ये अग्नि में 'पडियं-पतितं' पडा हुआ 'सप्पी-सर्पि:' घी पिघल जाता है ॥१२॥ ___अन्वधार्थ-परमाधार्मिक बडी घडी चिताएँ बनाकर करुण क्रन्दन करते हए नारकों को उनमें झोंक देते हैं। उस चिता में पड़ा हुआ 'चिया' त्या: शहाथ-'-' ५२मायामिरे 'महंतीउ-महतीः' भाटी 'चिया-चिताः' थितामान 'समारभित्ता-समारभ्य' नावीन 'कलुण-करुणम्' ४३ 'रसंतं-रसन्तम्' २४न ४२॥ ना२६ २ 'छुम्भंति-क्षिपन्ति' ३ छ. 'तत्थ-तत्र' भां 'असाहुकम्मा-असाधुकर्मा' पायी ७ 'आवडती-आवर्त' द्रवीभूत थ६ नय छ 'जहा-यथा' वी शत 'जोइमज्झे-ज्योतिर्मध्ये' मनिमा 'पडियं-पतितं' ५७ 'सप्पी-सर्पि:' घी सागजी लय छे. ॥१२॥ સત્રાર્થ–પરમધામિકે મોટી મોટી ચિતાઓ પ્રજવલિત કરે છે. અને કરુણ આકંદ કરતાં નારકોને તેમાં ફેંકી દે છે જેવી રીતે અગ્નિમાં પડેલું Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ४२० सूत्रकृताङ्गो ___टीका-'ते' ते परमाधामिकाः 'महंतीउ' महतीः 'चिया' चिताः। 'समारभित्ता' समारभ्य सम्यक् संपाद्य 'कलण' करुणम् 'रसंत' शब्दायमानम् , तं पापिजीवम् । 'छुम्भंति' क्षिषन्ति, ताहावितायां तं नारकिजीवं समाक्षिपन्ति। स च-'असाहुकम्मा' असाधुकर्मा पापिनीयः 'माधवी' आवत्त ते, चितायां परमाधार्मिकैर्यदा प्रक्षिप्यते तदा तन्मध्यपतितः सन् द्रवीभवति 'जहा' यथा 'जोइमज्झे' ज्योतिर्मध्ये 'पडियं' पतितम् । 'सप्पी' सर्पिः घृतादिकम् , द्रवीभवति, तथैव ताशचितामध्ये पतितः पापी द्रवीभूतो भवति। " परमाऽधार्मिकाः चितां महतीं निर्माय तन्मध्ये रुदन्तमपि नारकिजीवं क्षिपन्ति । क्षेपणानन्तरं ते अग्नौ पतितं घृतमिव द्रवीभवन्तिः। द्रवीभूता अपि वह पापी जीव उसी प्रकार पिघल जाता है, जिस प्रकार अग्नि में पडा हुआ घृत पिघल जाता है-॥१२॥ टीकार्थ-वे परमाधार्मिक महती चिताएँ बनाकर फरुणोत्पादक रुदन करते हुए पापी जीव को उस चिता में फेंक देते हैं। जय पर., माधार्मिक नारक को चिता में फेंकते हैं तो उसमें पडकर वह पिघल जाता है, जैसे आग में डाला हुआ घी पिघल जाता है , आशय यह है-परमाधार्मिक बडी सी चिता का निर्माण करके रुदन करते हुए नारक को उसमें झोंक देते हैं । अग्नि में पडकरः वह घत की भांति पिघल जाता है । सगर-पिघल जाने पर भी उमरते नहीं, वरन् पूर्वकृत कर्म का फल भोगने के लिये जीवित ही रहते हैं। . पी.पीजी 14 छ. मे प्रमाणे त,यिनासोमा ३४ामां आवेद, ना२. કેના શરીર પીગળી જાય છે. ૧ર " ટકાથ–પરમાધાર્મિક અસુરે મોટી મોટી ચિતાઓ, પ્રકટાવીને, કરૂણા જનક રુદન કરતાં તે નારીને તેમાં ફેંકી દે છે. તે ચિતામાં ફેકાયેલા નારકોની દશા અગ્નિમાં હામેલા ઘી જેવી થાય છે. તેઓ તે અગ્નિમાં ઘીની रम पागणी तय है-मजीन लभ, जय छे.. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે પરમાધમિકે મોટી મોટી ચિતાઓનું નિર્માણ કરીને તે પાપી જીવોને તે ચિતાઓમાં ફેંકી દે છે. પ્રજ્વલિત આગમાં ફેંકાયેલા તે નારકોનાં શરીર બળી જવાથી તેમને અસહ્ય પીડા થાય છે, તે કારણે તેઓ કરૂણાજનક ચિત્કાર કરે છે. જેમ અગ્નિમાં હેમાચેલ ઘી પીગળી જાય છે, એ જ પ્રમાણે તેમનાં શરીરે પણ તે અગ્નિમાં પીગળી જાય છે, છતાં પણ તેઓ મરતાં નથી. પૂર્વકૃત કર્મોનું ફળ પૂરેપૂરું Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. ध्रु. अ. ५ उ. २ नारकीय वेदना निरूपणम् દર્શ न म्रियन्ते, अपि तु जीवन्स्थेक पूर्वोपार्जितकर्मफलोपभोगाय । यथा- पारदं पतितमपि विकीर्णित भगदपि पुनरेकत्रीभूय स्थूतां विभर्ति तथा तदीयं शरीरं द्रुतमपि पुनः फलोपभोगाय संघात भावमापद्यते । पूर्ववत् संभात देहः पापफलं भुङ्क्ते इति ॥१२॥ 'मूलम् -लया केसिणं पुण घस्सद्वाणं, गाढोवणीयं अई दुक्खधम्मं । हत्थे हि पाएहिं य बंधिऊणं, सतुव्व डंडेहिं" समारभंति॥१-३ ॥ छाया - सदा कृत्स्नं पुनर्धर्मस्थानं गाढोपनीतमतिदुःखधर्मम् । इस्तेषु पादेषु च बद्ध्या रात्रुमिव दण्डैः समारभन्ते ॥ १.३ ॥ अन्ययार्थः - (सया) सदा सर्वकालं (कसिणं) कृत्स्नं संपूर्णम् (घम्मर्ण) धर्मस्थानमुष्णस्थान पस्ति तद् (गाढव गीयं) गाढोपनीतं निधत्तनिका चितकर्मभिः जैसे पारा विखर जाने पर भी फिर मिल जाता हैं और स्थूल रूप बन जाता है, उसी प्रकार नारक का शरीर पिंवल जाने पर भी अपने कर्मों को भोगने के लिये पुनः समुदित हो जाता है । नारक जीव पहले के समान होकर पुनः पाप के फल को भोगता है ॥ १२ ॥ 'सा' इत्यादि । शब्दार्थ- 'सघा -सदा' सर्वकाल' 'कसिणं कृत्स्नं' सम्पूर्ण 'धम्मद्वाणं घर्मस्थानम्' उष्ण स्थान होता है वह स्थान 'गाढोवणीयं- गांढोपनीतम्' निक्स, निकाचित्र आदि कर्मों से प्राप्त होता है 'अइदुक्खधम्मं-अनिदुःखधर्मम्' अत्यन्त दुःख देगा जिनका स्वभाव है 'तत्थ-तत्र ' उस स्थान में 'हत्थेहिं पाएहिं बंधिकणं-हस्तेषु पादेषु बद्ध्वा' करचरण ભેાગવવાને માટે તેઓ જીવિત રહે છે જેવી રીતે નીચે વિખરાયેલા પારા ફરી ભેગા થઈને સ્થૂલ અની જાય છે, એજ પ્રમાણે અગ્નિમાં પીગળી ગયેલાં નારકેાનાં શરીર પણુ, તેમના પૂર્વભવેાનાં પાપાનુ વેદન કરવા માટે ફરી સમુદ્રિત થઈ જાય છે, અને નારકે પહેલાંના જેવાં જ શરીરેથી યુક્ત થઈને પૂર્વીકૃત પાપકર્મોનાં ફળ ભેગળ્યા કરે છે. ૫૧૨ા 'खया' इत्याहि शब्दार्थ –'सया - खा' शर्मा 'फसिणं कृत्स्नं' संपूर्ण 'धम्मद्वाणंघर्मस्थानम्' गरस स्थान होय हे ते स्थान 'गाढोवणीयं- गाढोपनीतम्' निधत्त, निशयित वगेरे उभेथी आप्त थाय छे 'अइदुखधम्मं - अतिदुः खधर्मम्' अत्यत दुःख हेवुन स्वभाव हे 'तत्य - तत्र' ते स्थानमा 'हत्थेहि पाएहिं Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ सूत्रकृताङ्गसूत्र प्राप्तं भवति (अइदुक्ख यसम) अतिदुःखधर्मम्-अतिदुःखस्वभावम् (तत्थ) तंत्रतस्मिन् स्थाने (हत्थेहि पाएहिं वंधिजण) हस्तेषु पादेषु च बन्धपित्वा (सत्तुव्य) शत्रुमिव (दंडेहि) दण्डैदण्डद्वारा परपाधार्मिका तान् नारकलीवान् (समारभति) समारभन्ते-ताडयन्तीति ॥१३॥ टीका-सया' सदा-सर्वकालम् ‘कसिणं कृत्स्न-संपूर्णम् 'घमाणं' धर्मस्थानम् सदोष्णस्वभावम् । 'गाढोषणीयं गाढोपनीतम् , यत्स्थानं निधत्तनिका'चितकर्मभिरुपनीतं भवति नारकाणाम् 'अइदुक्खबरम' अतिदुःखधर्मम् , अत्यन्तं दुःखस्वरूपः धर्मः स्वभावो यस्य तव तादृशं सर्वदैन दुःखजनकस्वभावम् । तादृशनरके परमाधार्मिकैः तं 'हत्थेहिं पाएहि य वैधिऊण इस्तेषु षादेषु च बद्ध्वा 'सत्तुन्य' को बांधकर 'सत्तुन-शत्रुभिव' शत्रु के जैसा 'दंडेहि-दण्डै.' दण्डों के द्वारा परमाधार्मिक 'समारभति-समारमन्ते ताडन करते हैं ॥१३॥ ___ अन्वयार्थ-नरकभूमि में एक धर्मस्थान अर्थात् उष्णस्थान है जो सदैव और सम्पूर्ण उष्ण ही बना रहता है । माढे पापकर्म करने वाले वहां जाते हैं । वह अत्यन्त दुःख देने का स्वभाव वाला है। वहां परमाधार्मिक नारकों के हाथ पैर बांधकर उन्हें शत्रु के समान ताडना करते हैं ॥१३॥ टीकार्थ-सदा और लस्पूर्णरूप से उष्ण रहने वाला एक उष्ण स्थान नरक में है। वशं निधत-निकाचिन पापकर्म करनेवाले नारक ही जाते हैं । यह स्थान अत्यन्त ही दुःख देने शला है। उस नरक में परमाधार्मिक नारों के हाथ और पा बांध देते हैं और डण्डों से ऐसी ताडना करते हैं जैसे वे उनके शत्रु हों। पंधिऊणं-हस्तेपु पादेषु च बद्ध्या' १२यरने मांधात 'सत्तुव्व-शत्रुमिव' शत्रुनी म 'देडेहि-दण्डैः' ६ द्वारा ५२भाषाभि 'समारभति-समारभन्।' भारे छ.1१31 સૂત્રાર્થ–નરકભૂમિમાં એક ઘર્મસ્થાન એટલે કે ઉસ્થાન છે, જે સદા સંપૂર્ણ ઉણુ જ રહે છે. નિધત્ત નિકાચિત પાપકર્મો કરનારા છે ત્યાં જાય છે. તે સ્થાન અત્યન્ત દુઃખદાયક છે. ત્યાં પરમધામિકે નારકેના હાથ, પગ બાંધીને તેમને શત્રુની જેમ માર મારે છે ૧૩ ટીકાથતે નરકભૂમિમાં સદા સંપૂર્ણ રૂપે ઉષ્ણ રહેતું એક ઉણ રઘાન છે. નિત્ત-નિકાચિત પાપકર્મ કરનારા છ જ ત્યાં નારક રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. તે સ્થાનમાં ઉત્પન્ન થયેલા નારકોને અત્યન્ત દુઃખ સહન કરવું પડે છે. ત્યાં પરમધામિકે નારકના હાથપગ બાંધીને તેમને દંડા આદિ વડે એવા તે મારે છે કે જાણે તેઓ તેમના દુશ્મને હોય, Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीय वेदना निरूपणम् ४२३ शत्रुमिव यथाऽस्य नारकाः शत्रवो भवेयुस्तथां कृत्वा ते 'दंडेर्हि' दण्डैः । 'समारभंति' समारभन्ते - वाडयन्ति । सर्वदैव देदीप्यमानमेकं स्थानम्, निधत्तनिका - चितकर्मभिरुपनीतं भवति तेषां नारकजीवानाम्, तथा स्वभावत एवं तस्स्थानमतीव दुःखजनकम् । तस्मिन् हस्तौ पादौ च बन्धयित्वा शत्रुमिव नरकपालाः नारकिणं प्रक्षिपन्तीति ॥१३॥ ९ मूलम् - भजंति बालस्स बहेण पुत्री सीपि दिति अओघणेहिं । ते भिन्नदेहा फैल व तच्छा तताहिं औराहिं नियोजयंति ॥१४॥ छाया---सञ्जन्ति वालदय व्यथेन दृष्टिं शीर्षमपि भिन्दन्त्ययोवनैः । freader asfer तष्टास्वप्ताभिरारागिनियोज्यन्ते ॥ १४ ॥ आशय यह है कि सर्वदा देदीप्यमान एक स्थान है । निषस और निकाचित पापकर्म करने वालों को वह स्थान प्राप्त होता है । स्वभाव' से ही वह स्थान नारकियों को घोर पीडा पहुँचाने वाला है । वहाँ उनके हाथ और पग बांध दिये जाते हैं और ऐसी ताडना की जाती है मानो वे नारक परमधार्मिकों के वैरी हों ॥ १३ ॥ 'भंजलि' इत्यादि । शब्दार्थ- 'बालस्स- बालस्य' विवेकरहित नारक जीव की 'पुडी-: पृष्टिम्' पृष्ठभाग 'बहेण-व्यथेन दंडों के प्रहार से 'अंजंति-भञ्जन्ति' तोड' देते हैं तथा 'अयोधजेहि अघोघनैः' लोह के घनों से 'सीसपि - शीर्षअपि उनका मस्तक भी 'सिंदंति - भिन्दन्ति' तोड देते हैं 'भिन्नदेहाभिन्नदेहाः' जिनके अन चूर्ण कर दिये गये हैं ऐसे 'ते-ले' वे नारकि તાત્પર્ય એ છે કે નરકભૂમિમાં સદા દેદીપ્યમાન એક સ્થાન છે. તે સ્થાન ખૂમ જ ઉષ્ણુ હાય છે. નિધત્ત અને નિકાચિત પાપકર્મી કરનારને તે સ્થાનમાં નારક રૂપે ઉત્પન્ન થવુ પડે છે. નારકને ઘાર પીડા પહોંચાડવાના તે સ્થાનના સ્વભાવ છે. ત્યાં નારકાની સાથે પરમાધાર્મિ કાના વર્તાવ શત્રુના જેવા હાય છે. તેઓ તેમના હાથપગ બાંધીને તેમના પર દ'ડા આદિના प्रहारो रे ॥13॥ isifa' Seul शब्दार्थ –'बालस्ल - बालस्य' विवे: रडित ना२४ लवना 'पुट्ठी - पृष्टिम्' पाछजना भागभां 'दहेण - व्यथेन' 'डाथी भारीने 'भजंति-भञ्जन्ति' तोडी हे छे तथा 'अयोघणेहिं - अयोघनैः' सोम उना धोथी 'सीसंवि-शीर्षमपि' तेभनु' भक्त 'भिर्वृति- भिन्दन्ति' तोड़ी हे छे, 'भिन्नदेहा - भिन्नदेहाः' मना अंग [ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ :- (बालस्स) वालस्य - अज्ञानिनः (पट्टी) पृष्टि (वहेण) व्यथेन लकुटादिप्रहारेण (भजंति) भञ्जन्ति त्रोटयन्ति (अयोधणेहिं) अयोधनैः - लोहघनैः (सीसंपि) शीर्ष मवि - मस्तकमपि (विदेसि ) भिन्दन्ति चूर्णयन्ति ( भिन्नदेहा) भिन्नदेहाश्चूर्णिताः (ते) ते नारकाः ( तचाहिं आराहि) तप्ताभिराराभिः (फळ व तच्छा) फलकमित्र तष्टाः काष्ठखण्डमित्र तत्कृताः (नियोजयंति ) नियोज्यन्ते तप्तत्रपुपानादिकर्मणि व्यापर्यन्ते इति ॥ १४ ॥ टीका- 'वालस्स' बालस्य - अविवेकिनः 'पुट्ठो' पृष्टिस् शरीरपृष्ठभागम् 'वहेण' व्यथेन, दण्डादिप्रहारेण 'भंनंति' भञ्जन्ति- प्रोटयन्ति परमधार्मिकाः । जीवों को 'तत्ताहि आराहि-तप्ताभिराराभिः' तपे हुए आरों के द्वारा 'फल व तच्छा - फलकमिच तष्टा' काष्ठ के टुकडे के जैसे छीलकर पतले किये हुए नारकों को 'पियोजयंति - नियोज्यन्ते' उष्ण सीसे के पीने के लिये प्रवृत्त किये जाते हैं ||१४|| अन्वयार्थ - लकडी आदि के प्रहार से अज्ञानी नारकों की पीठ तोड दी जाती है । लोहमय घनों से मस्तक चूर्ण कर दिया जाता है । छिन्न भिन्न देहवाले उन नारकों को आरों से काट के पटिये के समान छीलकर पतले किये जाते हैं और तपे हुए शीसे को पीने के लिये विवश किये जाते हैं || १४ || टीकार्थ- परमधार्मिक उन अविवेकी नारकों के पृष्ठभाग को दण्डप्रहार से भग्न कर देते हैं, लोहे के मुद्गरों का प्रहार करके उनके यूर्शित ४री दीर्घ छे, सेवा 'वे तान्' ते नार वने 'तत्ताहि आराहितप्ताभिराराभि' तस मारोना द्वारा 'फलगंव तच्छा-फलकमिव तष्टाः' साडाना टुकुंडानी प्रेम छोसीने पाता उरेस नारजेने 'नियोजयंति - नियोज्यन्ते' गरभ સીસુ પીવા માટે પ્રવૃત્ત કરવામાં આવે છે !૧૪ સૂત્રા પરમાધાર્મિ કૈા લાકડી આદિના પ્રહાર વડે અજ્ઞાન નારકેાની પીઠ તેાડી નાખે છે અને લેઢાનાં મગદળા વડે તેમનાં મસ્તકના ચૂરે ચૂરા કરી નાખે છે, છિન્નભિન્ન શરીરવાળા નારફનાં શરીરને તેએક લાકડાના પાતિયાની જેમ ખેલીને પાતળા કરે છે અને પીગાળેલા સીસાના ઉષ્ણુ રસ તેમને મુળજમરીથી પિવરાવવામાં આવે છે. ૧૪૫ ટીકા—તે નારકોની પીઠ પર ઈંડા મારી મારીને તેને તેડી નાખવામાં આવે છે તથા લાહાનાં મગળ, ગઢા આદિના પ્રહાર - કરી કરીને તેમનાં Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् ४२५ 'अओघणेहि अयोधनः-लोहनिर्मितमुद्गरैः 'सीसंपि' शीर्षमपि 'मिदति' भिन्दन्ति चूर्णयन्ति, पृष्ठशिरसोभनात् 'भिन्नदेहा' भिन्नदेहाः विदारितदेहाः -सन्तस्ते नारकाः 'तत्ताहि' तप्ताभिः अग्नौ पज्यालिताभिः 'आराहि' आराभिः 'फलग व फलकयित्र 'तच्छा' तष्टाः विदारिताः नैरयिकाः ‘णियोजयंति' नियोज्यन्ते लप्तत्रपुपानाय व्यापार्यन्ते। परमाधार्मिकाः नारकस्य पृष्ठ दण्डादिना संताडय तथा लौहदण्डेन शिरो भञ्जयित्वा तत्तं नारनिणं तप्तारकेण लोकपसिद्धेन विदारयन्ति पुनः विदार्य क्रकचैः कर्तपन्ति । तदनन्तरं तप्तत्रपुनीश कादि पानाय नियोजयन्ति इति ।१४। मूलम्-अभिजंजिरं रुद अप्लाहुकरमा उसुबोया हस्थिवह वहति। एवं दुरुहितु दुशे तोबा आरुस्ल विझंति केकाणी से"।१५। छाया---अभियोज्य रौद्रमसाधुरुर्माणः इपुलोदितान् हस्तिवह वाहयन्ति । एक समारोप द्वौ त्रीन् वा आरुष्य विध्यन्ति धर्माणि तेषाम् ॥१५॥ मस्तक का चूराचग कर देते हैं। इस प्रकार विदारिल देह चाले उन नारकों को आग में तपाए हुए आराओं से लकडी के पटिये की भांति छील छील कर पतले किये जाते हैं और फिर उबलता हुआ शीशा पीने को बाधित किये जाते हैं। तात्पर्य यह है कि परमाधार्मिक असुर नारक की पीठ डंडों से तोडते हैं, मस्तक मुद्गरों से चूर्णिन करते हैं आरों से छीलते हैं और सपा शीशा पिलाते हैं ॥१४॥ 'अभिचुंजिय' इत्यादि। शब्दार्थ--'असाहुकम्मा-असाधुकर्माणः' पापकर्म करने वाले મસ્તકના ચૂરે શૂરા કરી નાખવામાં આવે છે. આ પ્રકારે વિદ્યારિત કરવામાં આવેલાં તેમનાં શરીરને અગ્નિ ઉપર ખૂબ જ તપાવેલ આરાથી લાકડાના પાટિયાની જેમ, છેલીને પાતળા કરવામાં આવે છે. એટલું જ દુઃખ સહન કરવાથી તેમને છુટકારો થતો નથી, પરંતુ તેમને ગરમા ગરમ સીસાને રસ પણ પિવરાવવામાં આવે છે તાત્પર્ય એ છે કે પરમધામિક ઇંડાના પ્રહાર કરીને નારકેની પીઠ તેડી નાખે છે, મગદળો મારી મારીને માથાના ચૂરે ચૂરા કરી નાખે છે. આર વડે તેમના શરીરને ચીરે છે અને સીસાને गरम २स तमन पिरावे छ. ॥१४। - 'अभिजु जिय' त्या: शा-'असाहुकम्मा-असाधुकर्माणः' ५५४५ ४२वा नRE सू० ५४ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છુરદ્ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः -- ( असा हुकम्मा) असाधुकर्मणः पापकर्मकारिणो नैरयिकान् (रुद्द ) 'रौद्रे-कुरे कर्मणि अपरनार कहननादिके (अभिर्जुजिय) अभियोज्य जन्मान्तरकृत सच्चोपघातकार्य स्मारयित्वा ( उसुचोइया ) धुनोदितान् शराभिघातप्रेरितान् ( एगं दुवे तओ वा दुरुहितु) एकं द्वौ श्रीन् वा समारोह (हस्थिवहं) हस्तिव (वति) वाहयन्ति (आरुस्स) आरुण्य क्रोधं कृत्वा (से) तेषां - नैरयिकाणां (कका'ओ) मर्माणि (विज्झति) विध्यन्ति - वेधितानि कुर्वन्तीति ॥१५॥ नारकि जीवों को 'रुद्द रोद्रे' कर कर्म में 'अभिर्जुजिय- अभियोज्य' योजित करके अर्थात् जन्मान्तर में किया हुआ प्राणिवरूप कार्य को स्मरण कराकर 'उचोहया-हघुमोदितान्' तथा बाण के प्रहार से प्रेरित करके 'हत्थिवहं - हस्तियह' हाथि के जैसे 'बहंति - वाहयन्ति' भार वहन कराते हैं अथवा 'एवं दुवे तओ वा दुरुहितु एकं द्वौ त्रीन् वा समारोह्य' एक, दो, अथवा तीन जीवों को उनकी पीठ पर चढाकर 'हत्थिवहंहस्तिवहं' हाथि के जैसे 'वर्हति - वाहयन्ति' उनको चलाते हैं' 'आरुस्सआरुष्य' क्रोध करके 'से- तेषाम्' उन नैरयिकों के 'ककाणओ-मर्माणि' 1. मर्मस्थान को 'विज्झति-विध्यन्ति' वेधित करते हैं ||१५|| अन्वयार्थ - - पापकर्म करने वाले नारकों को उनके पूर्वकृत रौद्र (भयं. कर) कृत्यों का स्मरण करवाकर बाण के प्रहार से प्रेरित करते हैं और हाथी के समान उनसे भार वहन करवाते हैं । अथवा एक, दो तीन जीवों को उस पर चढा देते हैं और क्रोध करके उसके मर्मस्थलों को वेधते हैं ॥ १५ ॥ लवाने 'रुद्द-रोंद्रे' २ ४ 'अभिजु जिया-अभियोज्य' यात उरीने अर्थात् ४न्मान्तरभां रेव प्रविध ३५ अर्थाने स्भर उशवीने 'उसुचोइया-इपुनोदितान्' तथा माथुना प्रहारथी प्रेरित हरीने 'हत्थिवाह - हस्तिवह" हाथिना स ''वहंति - वाहयन्ति' भार वहन उरावे हे अथवा 'गं दुवे तओ वा दुरुहित्तु - एक द्वौ त्रीन् वा समारोहा' तथा भेड़, मे, अथवा त्रषु भवने तेमनी पीठ थर यढावीने 'हत्यिवह' - हस्तिवह' हाथीनी प्रेम 'वहंति - वाहयन्ति' तेभने यसावे छे 'आरुहस- आरुध्य' डोरीने 'से-वेषाम्' ते नैरयिोना 'ककाणओ-मर्माणि ' भर्भस्थानाने 'विज्झति विध्यन्ति' पींधे थे. ॥१॥ સૂત્રા—નરકપાલા નારકાને તેમનાં પૂર્વીકૃત રૌદ્ર' (લાયકર) કૃત્યાનુ સ્મરણ કરાવે છે અને તીક્ષ્ણ અંકુશ, ભાલા આદિના પ્રહાર કરીને તેમની પાસે હાથીની જેમ ભાર વડુન કરાવવામાં આવે છે. અથવા એક, બે ત્રણ જીવાને તેમના પર ચઢાવીને તેમના મસ્થળો પર પ્રહાર કરીને તેમને ચાલવાની ફરજ પાડે છે. ૧ા ܘ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरुपणम् टीका- ' असा हुकम्मा' असाधुकर्मणः - अशोभनानि जन्मान्तरोपार्जितानि कर्माणि अनुष्ठानानि प्राणातिपातमृपावादादीनि येषां ते तथाविधान पाणातिपातादिकर्मकारकान् 'रुदं' रौद्रे - अतिभयानके तत्वधादिके 'अभिर्जुजिय' अभियोज्य 'एकं दुवे तओ वा' एकं द्वौ त्रीन् वा नैरविकान् परमधार्मिकाः 'दुरुहित्तु' दुरोध समारोह 'उचोया' इनोदितांन्- वज्रमयांकुशाभिघातेन संमेरितान् 'इत्थिव हस्तिमवाहम् इस्तिवाहनरीत्या 'वहंति' वाहयन्ति । यथा - हस्तिपृष्ठे आरोहकान् समारोह हस्तिपकाः हस्तिनं चालयन्ति, तथा परसाधार्मिकाः नारकान् चालयन्ति । यद्वा-यथा ( उपलक्षणात् ) रथादौ संयोज्य वेत्रादिप्रहारैः प्रहृत्य, अनभ्यस्त - मपि बलाद्वाहयन्ति तद्वत् नारकान् चालयन्ति । अथवा यथा हस्ती महान्तं मारं वहति, तथा तान् नारकान् बलाद् भारं वाहयन्ति परमाधार्मिकाः । यदा 'नैरयिकाः स्वपृष्ठारूढातिभारं वोढुं न शक्नुवन्ति तदा 'आरुस्स' आरुष्य सर्वथा -- ४२७ टीका -- जिन नारकियों ने जन्मान्तर में अशोभन कर्मों का आचरण किया है अर्थात् हिंसा असत्य आदि पापों का सेवन किया है, उनको नरकपाल रौद्र अर्थात् अत्यन्त भवानक प्राणियध आदि कार्मो में जोडकर वे वज्रमय अंकुश आदि से आघात करके और एक, दो, तीन नारकियों को उन पर चढा कर उनसे हाथी के समान भार वहन करवाते हैं । जैसे महावत हाथी की पीठ पर सवार को चढ़ाकर उसे चलाता है, उसी प्रकार परमाधार्मिक नारकों को उन सवारों द्वारा चलाते हैं । अथवा जैसे रथ आदि में जोतकर और बेतका प्रहार करके अनभ्यस्त ऊंट आदि से भी जबर्दस्ती भार वहन करवाया जाता है उसी प्रकार नारकों से बलात्कारपूर्वक परव्याधार्मिक भार वहन करवाते हैं। जब वे नारक अपनी पीठ पर सवार हुओंका भारी भार नहीं ટીકા જે નારકાએ પૂભવેામાં હિંસા, અસત્ય આદિ પાપકર્માનું સેવન કર્યુ હોય છે તેમને પરમાધામિકા દ્વારા તેમનાં તે રૌદ્ર (ભય‘કર) કૃહ્યાનું સ્મરણ કરાવવામાં આવે છે. જેવી રીતે હાથીના મ`સ્થળમાં અ’શના પ્રહાર કરીને તેની પાસે ભાર વહન કરાવવામાં આવે છે, એજ પ્રમાણે વજ્રમય અંકુશ આદિના પ્રહાર કરીને તેએ નારકા પાસે ભારવહન કરાવે છે. અથવા એક, એ ત્રળુ જીવેાને તેમની પીઠ પર રેહણુ કરાવીને, અ‘કુશ આદિના પ્રહાર કરીને તેને ચલાવે છે. અથવા જેવી રીતે થની 'સરી સાથે જોડેલા બળદોને આર લેાકીને ચલાવવામાં આવે છે. એજ પ્રમાણે નારકીને પણ 'ડા, ભાલાં, આદિ શસ્ત્રો વડે મારી મારીને તેમની પાંસે મળજખરીથી ભાર વહુન કરાવવામાં આવે છે. જ્યારે તે નારકા તેમની Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮ सूत्रकृताङ्गसूत्रे क्रोधं कृस्वा 'से' तेषां नारकजीवानाम् 'ककाणओ' मर्माणि मर्मस्थानानि अपरपरमधार्मिकान् आज्ञाप्य 'विज्झति' विद्ध्यन्ति-छेदयन्ति ॥१५॥ मूलम् -- बाला बेला भूमिमणुकमंता पविजलं कंटाइल महतं । विबद्धत पेहि विष्णचित्ते समीरिया कोहवलिं केरिति ॥ १६ ॥ छाया - वाला वलाद् भूमिमनुकाम्यमाणा प्रदीप्तजलां कण्टाविलां महतीम् । विवध्यत: विषण्णचित्तान् समीरिताः कोट्टवलिं कुर्वन्ति ।। १६ ।। सहन कर पाते तब परमाधार्मिक क्रुद्ध होकर उनके मर्मस्थानों को वेधते है या दूसरे परमाधार्मिकों को आदेश देकर उनसे बिंधवाते हैं ॥१५॥ 'बाला' इत्यादि । f 1 शब्दार्थ - 'बाला - चाला:' बालक के समान पराधीन नैरयिक जीव नरकपालों के द्वारा 'बला-बलात्' बलात्कार से 'पविज्जलं प्रदीप्तजला' रुधिर के कीचड से भरी हुई 'कंटलं - कण्टाविलाम्' तथा फांटों से युक्त 'महंत - महती' विशाल 'भूमि-भूमिम्' पृथिवी पर 'अणुकर्मता-अनुक्राम्यमाणाः परमधार्मिकों के द्वारा चलाये जाते एवं 'समीरिया - समीरिताः' पापकर्म से प्रेरित किये हुए नारकों को 'विबद्धतप्पेहि विवध्यतः' अनेक प्रकार के बन्धनों से बांध कर 'विसण्णचिन्ते विषण्णचित्तात्' मूर्च्छित ऐसे दूसरे नारक जीवों को 'कोहबलिं पारित - कोहवलिं कुर्वन्ति' काटकाट कर खण्ड खण्ड करके इधर उधर फेंक देते हैं ॥१६॥ પીઠ પર ચડી બેઠેલા જીવાના ભાર વહેત કરવાને અસમર્થ હોવાને કારણે ચાલતાં ચલી જાય છે, ત્યારે પરમાધામિ કે ગુસ્સે થઈ ને તેમના સમસ્થાનાને વીધી નાખે છે, અથવા અન્ય પરમાધ્યામિકાને આદેશ દઇને તેમના દ્વારા તે નારકેાના મસ્થાન પર પ્રહાર કરાવે છે. ૧પા 'माला' इत्यादि 5 शब्दार्थ' - 'बाला - बालाः' जना समान पराधीन भीलने आधीन तैरयि लष नरंञ्ज्यायाना द्वारा 'बला-बलात्' मसात्ारथी 'पविज्जलं प्रदीप्तजलाम् ' बोडिना प्रियउथी सरेस 'कंटइलं- कण्टाविलाम्' तथा अंटमोथी युक्त 'महंत' - महतीं ' विशाल 'भूमि-भूमिम्' पृथ्वी पर 'अणुकमंता-अनुक्राम्यमाणाः' परसाधासि अना द्वारा यद्वाववामां आवेला भने 'समीहिया-समीहिता. ' पापभ्रंथी प्रेरित रेखा ‘विबद्धतप्पेहिं-विवध्यतपैः' भने अझरना अधनोथी मांधीने 'विषण्णचित्तेविषण्णचित्तान्' भूर्च्छित सेवा मील नारः लुवीने 'कोट्टवलि करिति - कोट्टवलिं कुर्वन्ति' अभी अपने टुक्डा टुडा अरीने अहिं तहि बैंडी हे ॥१६॥ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्रे. श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् ४२९ । अन्वयार्थ:-(वाला) बाला बालवत् पराधीनाः नैरयिका (बला) बलात्-बलात्कारेण (पविज्जल) पदीप्तनला रुधिरकईभेन पिच्छिलां (कंटइल) कण्टाविलां-कण्टकयुक्ताम् (महंत) महती-विशाला (भूमि) भूमि-पृथिवीम् (अणुकर्मता) अनुक्राम्यमाणाः परमाधार्मिकैथाल्यमानाः (समीरिया) समोरिताः-पापकर्मणा नोदिताः (विवद्धतप्पेदि) दिवध्यतः (विसणणचित्ते) विषण्णचित्तान् (कोहवलिं करिति) कोवलिं खण्डशः कृत्वा नगरवलिं कुर्वन्ति, नगरवलिवदितस्ततः क्षिपंतीत्यर्थः ॥१६॥ टीका-'वाला' बाला:-बालका इव परतंत्रास्ते नैरायका जीवाः परमाधार्मिकद्वारा, 'वला' वलात्-वलात्कारेण 'पविजले' प्रदीप्तनलां अतिपिच्छिलाम् , पंकादिभिराविलाम् । 'कंटइल' कण्टाविलाम् , वज्रकण्टकैराकुलाम् , 'महंत' महतीमतिशयेन विस्तृताम् । 'भूमि' भूमि-भूमितलम् । 'अणुक्कमंता' अनुक्राम्यमाणाः प्रेरणया चाल्यमानाः। यद्यपि तादृशभूमौ गन्तुमिच्छा नास्ति, तथापि परमाधार्मिकैवलाच्चाल्यमानाः । 'सपीरिया' समीरिताः-पापकर्मणा परमाधार्मिकमेरिताः । 'विवद्ध___अन्वयार्थ-पालक के समान पराधीन नारक जीवों को परमाधामिक जबर्दस्ती दरके रुधिर की कीचड़ ले व्याप्त, कंटकाकीर्ण और विस्तृत भूमि पर चलाये जाते हैं। पापकर्न से प्रेरित परमाधार्मिक अनेक प्रकार से बांधकर विषण्णचित्त उन नारकों को खण्ड खण्ड करके नगरबलि के समान इधर उधर फेंक देते हैं ॥१६॥ ___टीकार्थ-जैसे बालक प्रत्येक बात में पराधीन होता है, उसी प्रकार नारक भी पराधीन होते हैं । अतएव उन्हें यहां 'बाला' अर्थात् बालक कहा गया है। उन बाल नारकों को परमाधार्मिक असुर जबर्दस्ती से पंक ले परिपूर्ण और वज़मय काटों से युक्त, अत्यन्त विस्तृत भूमि ' સૂત્રાર્થ–બાલકના સમાન પરાધીન નારક અને પરમધાર્મિક બળ જબરીથી લોહીના કીચડથી વ્યાપ્ત, કાંટાઓથી છવાયેલા વિસ્તૃત માર્ગ પર ચલાવે છે. નારકનાં પાપકર્મોને બદલે આપવાને તૈયાર થયેલા તે પરમધામિકે, અનેક પ્રકારનાં બંધનોથી બાંધીને વિષાદયુકત ચિત્તવાળા તે નાના ટુકડે ટુકડા કરી નાખીને, નગરબલિની જેમ તે ટુકડાઓને ચારે દિશામાં ફેંકી દે છે. ૧દા ટકાઈ જેવી રીતે બાલક પ્રત્યેક બાબતમાં પરાધીન હોય છે, એ જ પ્રમાણે નારકો પણ પરાધીન હોય છે. તે કારણે તેમને અહી “બાલ (અજ્ઞાન) કહેવામાં આવેલ છે. તે બાલનારકેને પરમધામિકે બળજબરીથી કીડ અને વજીમય કાંટાથી આચ્છાદિત વિસ્તૃત ભૂમિ પર ચલાવે છે. જો કે એવી Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० सूत्रकृताङ्गसूत्रे I तप्पेहिं' विवध्यतर्वैः वहुविधवन्धनैर्वद्धा । तथा-' वित्रष्णचित्ते' विषण्णचित्तान्, मूच्छिवान् अपरान् नारकजीवान् । 'कोट्टवलिं करिति' खण्डशः कर्त्तयित्वा नगरवलिं कुर्वन्ति इतस्ततः निःक्षिपन्ति । पापकर्मप्रेरिताः परमाधार्मिकाः पराधीनं तं नारकि ata पंदिग्ध कण्टकिलां भूमिं विस्तृतां चालयन्ति । तथा-अभ्यं नारकिजीवमनेकप्रकारेण वद्ध्वा सूच्छित नारकिजीवं कुहयित्वा खण्डशः कृत्वा नगरवलिवत् इतस्ततः क्षिपन्तीति ॥ १६॥ मूलम् - चेतालिए नाम महाभितावे गायते वयमं लिक्खे | मंति तत्था बहूकूरकम्मा, परं सहस्लाण मुहुत्तगाणं ॥ १७॥ छाया - वैक्रियो नाम महाभितापः एकायतः पर्वतोऽन्तरिक्षे । हन्यन्ते तत्स्था बहुक्रूरकर्माणः परं सहस्राणां मुहूर्त्तकाणाम् ॥१७॥ पर चलाते हैं । यद्यपि ऐसी भूमि पर चलने की उनकी इच्छा नहीं होती फिर भी परमधार्मिक उन्हें बलात्कार करके चलाते हैं । पापकर्मों से प्रेरित परमधार्मिक विविध प्रकार के बन्धनों से बांधकर, विषण्णचित्त तथा मूच्छित दूसरे नारक जीवों को खण्ड खण्ड करके इधर उधर फेंक देते हैं । भावार्थ यह है कि पराधीन नारक जीव को कीचड़ से भरी हुई, कंटकों से व्याप्त विस्तृत भूमि पर चलाते हैं तथा दूसरे नारकियों को अनेक प्रकार से बांधकर, मूच्छित हुए को कूटपीट कर, खण्ड खण्ड करके नगरबलि के समान इधर उधर फेंक देते हैं ॥ १६ ॥ ભૂમિ પર ચાલવાનું તેમને ગમતું નથી, પરન્તુ પરમાધામિક અસુરે તેમને બળાત્કારે તે ભૂમિ પર ચલાવે છે. વિવિધ પ્રકારનાં અન્ય વડે આંધીને ઉદ્વિગ્ન ચિત્તવાળાં તથા સૂચ્છિત નારકાના ટુકડે ટુકડા કરીને પરમાધામિકા તેમને નગરલિની જેમ આમ તેમ ફેંકી દે છે. તેમનાં પૂર્વભવાનાં પાપક્રર્માના આ પ્રમાણે તેમને બદલે! ચુકવવામાં આવે છે અન્ય શ્મા કથનનેા ભાવાર્થ એ છે પરમાધામિકા પરાધીન નારકેાને કીચડ અને કાંટાઓથી છવાયેલા માર્ગ પર પરાણે ચલાવે છે. વળી તેઓ નારકાને અનેક પ્રકારના અન્યનામાં ખાધે છે, અને સૂચ્છિત થયેલા નારકના શરીરના ટુકડે ટુકડા કરીને નગરલિની જેમ ગમે ત્યાં ફેંકી દે છે. ૧૯૫ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. ७. ५ उ.२ नारकीयवेदनानिरूपणम् .. ४३१ ___अन्वयार्थ:-(महाभिहतावे) हाभिताप-महादुःखरूपे। (अंतरिक्खे) अंतरिक्ष आकाशे (वेतालिए नाम) वैक्रियनामा (एगायते) एकायतः एकशिलादिघटितो दीर्घः (पन्चए) एर्वतः (तत्था) तत्स्थाः तत्र पर्वते वसन्तः (बहुकूरकम्मा) बहुक्रूरकर्माणो नैरयिकाः (सहस्साणं मुहुत्तगाण) सहस्राणां मुहूर्त काणां (परं) परमधिकं कालं यावद (हम्मंति) हन्यन्ते-पीडयन्ते इति ॥१७॥ . 'वेतालिए' इत्यादि। शब्दार्थ-'महाभितावे-महाभितापे' महान् दुःख से युक्त 'अंतलिक्खे-अंतरिक्षे' आकाश में 'वेतालिए नाम-चैकियो नाम' वैक्रिय नामका एगारते-एकायतः' एकशिला के द्वारा बनाया हुआ लम्बा 'पव्वए-पर्वता' पर्वत है 'तत्था-तत्स्थाः ' उस पर्वत पर निवास करने वाले 'बहुकूर करमा-बहुकरकर्माणः' बहुत क्रूरकर्म किए हुए नारकि जीव 'सहस्लाण मुहुत्तगाणं-सहस्राणां मुहूर्तानाम्' हजारों मुहूत्तों से 'परं-परम्' अधिक काल तक 'हम्मंति-हन्यन्ते' मारे जाते हैं ॥१७॥ ____ अन्वयार्थ-अत्यन्त सन्ताप उत्पन्न करने वाला वैक्रिय नामक एक पर्वत है । वह आकाश में है और एक शिला आदि का बना हुआ है। उस पर रहे हुए क्रूर कम करनेवाले नारक सहस्रों (हजारों) मुहत्तों से भी अधिक काल तक पीड़ित किये जाते हैं ॥१७॥ - 'वेतालिए' त्या .." . शहाथ-'महाभितावे-महाभितापे' महान् मथा युद्धत 'अंतलिक्खे अन्तरिक्षे' माशमा 'वेतालिए नाम-वैक्रियो नाम' यि नामनी ‘एगायतेएकायत' मे शिक्षा द्वारा मनावa aiमो 'पव्वए-पर्वतः' पर्वत छे. 'तत्थातत्स्थाः ' ते ५ 8५२ निवास ४२वावाणा 'बहुकूरकम्मा-बहुक्रूरकर्माणः' महु४ 'दू२४ ४२वावाजा ना२894 'सहस्साणं मुहत्तगाणं-सहस्राणं मुहूर्तानाम्' नरे। भुत्तो थी 'पर'-परम्' मधिर ७ सुधी 'हम्मंति-हन्यन्ते' भारपामा આવે છે. ૧૭ સત્ર -નારકોને ખૂબ જ સંતપ્ત કરનારા વકિય નામનો એક પર્વત નરકભૂમિમાં આવેલ છે. તે આકાશમાં આવેલ છે અને એક જ શિલાને બને છે. તે વૈક્રિય પર્વત પર ઉત્પન્ન થયેલા, કૂરક નારકેને હજાર મુહૂર્ત કરતાં પણ અધિક કાળપર્યત પરમાધાર્મિક અસુરે દ્વારા ખૂબ જ માર, પ્રહાર આદિ વ્યથા સહન કરવી પડે છે. ૧૭ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . सूत्रकृताङ्गसने टोका-'महाभितावे' महाभितापे, महादुःखै ककार्ये 'अंतलिक्खे' अन्तरिक्ष आकाशे 'येतालिए नाम' वैक्रियो नाम परमाधार्मिकैः संपादितं स्थान विद्यते इति संभावयामि । 'एगायते' एकायतः एकशिलायां निर्मितोऽति लंबायमानः । 'पवयं' पर्वतोऽस्ति 'तत्था' तत्स्थाः तस्मिन् पर्वते तिष्ठन्तः । 'बहुकूरकरमा' बहुक्रूरकर्माणो नारकिजीयाः 'सहस्साण सहुत्तगाणं' परं-सहस्रकाणी मुहूर्तकानां परम् , मुहूर्तसहरू दप्यधिकम् 'हम्मंति' हन्यन्ते । महत्तापदो नरकपालनिर्मितैकशिल घटितो दीर्घतरः पर्वतो विद्यते । तत्र पर्वते विद्यमाना नारकिजीवाः सहसमुहूदप्यधिकं प्रभूतकालपर्यन्तं नरकपालैईन्यन्ते इति ॥१७॥ मूलम्-लंबाहिया दुकडिणो थणंति, अहो य राओ परितप्पमाणा। ऐगंतकूडे नरए महंते कूडेणं तत्था विसमे हता उ ॥१८॥ छाया-संवाधिता दुष्कृतिनः स्तनन्ति अनि च रात्रौ परितप्यमानाः । एकान्तकूटे नरके महतिकूटेन तत्स्था विषसे हतास्तु ॥१८॥ , ___टीकार्थ-घोर दुःख उत्पन्न करने वाला वैक्रिय नामक पर्वत आकाश में स्थित है । अत्यन्त पाप करने वालों को वह स्थान प्राप्त होता है। वह एक शिला का बना हुआ और लरशा है। उस पर्वत पर स्थित घोर कर कर्म करने वाले नारकी जीव चिरकाल तक हजारों मुहतों से भी अधिक समय तक मारे जाते हैं। . ____आशय यह है कि महान् सन्तापकारी परमाधार्मिकों द्वारा निर्मित और एकशिला का बना हुआ लम्या पर्वत है। उस पर्वत पर विद्यमान नारक जीव हजारों मुहूर्तों से भी अधिक कालपर्यन्त परमाधामिकों द्वारा आहत किये जाते हैं ॥१७॥ ટીકાર્યું–આકાશમાં વૈક્રિય નામને એક પહાડ આવેલ છે તે એક જ શીલાને બનેલ છે. ઘોર પાપકર્મો કરનારા છે તે પર્વત પર નારકે રૂપે ઉત્પન્ન થઈને ઘેર દુઃખે સહન કરે છે. તે વૈક્રિય પર્વતની લબાઈ પણ ઘણું જ છે તે પર્વત પર ઉત્પન્ન થયેલા નારકેને પરમાધાર્મિક અસુરે હજારે મુહૂ કરતાં પણ અધિક સમય સુધી માર માર્યા કરે છે. તાત્પર્ય એ છે કે પરમાધાર્મિકે દ્વારા નિર્મિત, એક જ શિલાને ક્રિય નામનો પહાડ નરકભૂમિમાં આવેલ છે. તે પર્વત ઘણો લા છે તે પહાડ પર રહેલા ઘોર પાપકર્મો કરનારા નારકોને ચિરકાળ સુધી પરમાર ધાર્મિકના હાથનો માર ખાવો પડે છે. ૧ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीय वेदना निरूपणम् ४३३ अन्वयार्थ : - (संवाहिया) संवाधिताः पीडिताः (दुक्कडिणो ) दुष्कृतिनः पापकर्माणः, (अहो य रात्री व परितप्यसागा) अह्नि च रात्रौ च परितप्यमाना अह - " निशं पीडामनुभवन्तः (धणंति) स्वनन्ति - रुदन्ति ( एगंतकडे ) एकान्तकुटेएकान्ततो दुःखस्थाने (महंते ) महति - विस्तृते (सिमे) विषमेऽतिकठिने (नरए): नरके ( कूडे ) कूटेन - गलयंत्रपाशेन (हता उ ) हतास्तु निहताः सन्तः (तत्था ) तत्स्थाः तत्र - तस्मिन् दिपमे स्थिताः-स्वर्नत्येव केवलमिति ॥ १८ ॥ 'संवाहिया' इत्यादि । शब्दार्थ - 'संवाहिया-संवाधिताः' निरन्तर पीडित किये जाते हुए 'कडो- दुष्कृतिनः' पानी जीव 'अहो प रा य परितप्यमानअह्नि च रात्रौ च परितप्यमानाः दिन ताप को भोगते हुए 'थणंतिस्तनन्ति' रुहन करते रहते हैं 'एकूडे - एकान्तकुटे' केवल दुखि का स्थान 'महंते- मदत्ति' विस्तृत 'विसमे पिले' अत्यन्त कठिन 'नरमनरके' नरक में पडे हुए प्राणी 'कूडेग - कूटेन' गले में फांसी डालकर 'हता व हतास्तु' मारे जाते हुए 'तत्था-तत्स्था' उसमें रहने वाले नारकी केवल रुदन ही करते हैं ||१८|| -7 अन्वयार्थ – नरक में. पीड़ा पाते हुए पापकर्मी जीव दिनरात अत्यन्त परिताप का अनुभव करते हुए रुदन करते रहते हैं । वे एकान्त दुःख का अनुभव करते हैं । उस विषम एवं विस्तृत नरक में गलपाश ( फांसी) से पीडित होकर रोते ही रहते हैं ॥ १८ ॥ 'संवाहिया' इत्यादि - शब्दार्थ' - 'संवाहिया - संबाधिता ' નિરન્તર પીડિત કરવામાં આવતાં 'दुक्कडिणो - दुष्कृतिनः ' पायीवं 'अहो य राओ य परितप्यमाणा-अह्नि च रात्रौ च परितप्यमानाः ' हिवस रात तापने लोगवतां 'थणंति - स्तनति' ३हन ४२ रहे छे' ‘एगंतकूडे -एकान्तकूटे' देवस हुनु स्थान 'महंते - महति' विस्तृत 'विसमे-विपमे' अत्यन्त उहित 'नरए - नरके' नरम्भां पडेला आणी 'कूडेन - कूटेन' गणाभां शंसी नाभीने 'हता उ- हतास्तु' भारवामां आवता 'तत्था - तत्स्थाः' तेमां : રહેવાવાળા પ્રાણી કેવળ રૂદન જ કરે છે. ૧૮૫ સૂત્રાં —નરકમાં યાતનાઓનુ વેદન કરતાં પાપકમી જીવે નિરાત અત્યન્ત પરિતાપના અનુભવ કરવા થકી રુદન કર્યાં કરે છે. તેઓ એકાન્તતઃ (સપૂર્ણ રૂપે) દુઃખના જ અનુભવ કરે છે. તે વિષમ અને વિસ્તૃત 'નરકમાં નારકાનાં ગળામા ફ્રાંસા નાખવામાં આવે છે, અને તેની પીડા અસહ્ય થઇપડવાથી તેઓ કરુણાજનક આક્રંદ કર્યાં કરે છે. ૧૮૫ सू० ५५ t '' Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • सूत्रकृताङ्गसूत्रे. ____टीका-'संवाहिया' संवाधिताः-समेकीमावेन बाधिताः अतिपीडिताः । 'दुकडिणो' दुष्कृतिना-पापिजीवाः नरकगताः 'अहो य' अति दिवसे च 'राओ य' . रानी च 'परितप्पमाणा' परितप्यमाना:-अतिशयिततया पीडां दशविधक्षेत्रवेदना मनुभवन्तः 'थणंति' स्तनन्ति-आक्रन्दनं कुर्वन्ति । 'एगंतकूडे' एकान्तकूटेएकान्ततो दुःखस्थाने 'महंते महति-अतिदीर्घ 'विसमे' विषमे-कठिने नानाविधदुःखसंकुले (नरए) नरके पतिता:-चारकजीवाः 'कूडेन' कूटेन-गलयंत्रणादिपाशेन 'हता उ' इतास्तु-हता भवन्ति । निरस्तरं पीडिताः 'तत्था' उत्स्थाः तत्र स्थिताः पापिपुरुषाः अहोरात्रं रुदन्ति । यत्रैकान्त तो दुःखमेव वर्तते; अतिविस्तृतम् अतिकठिनं च । एतादृशनरके पतिताः पापिजीवाः गलं पाशादिना माशयित्वा मार्यन्ते इति भावः ॥१८॥ ___टीकार्थ-अत्यन्त व्यथित हुए वे पापाचारी नारक जीव दिनरात संतप्त अर्थात् दस प्रकार की क्षेत्रजनित बेदना का अनुभव करते हुए आक्रन्दन करते हैं। एकान्त दु:खमय, अतिदीघ, विषम, लानाप्रकार के दुःखों से व्याप्त नरक में पड़े हुए नारक जीवों के गले में फांसी लगा दी जाती है तो हत निहत्त होते हैं। __ भाव यह है कि निरन्तर पीडित पापी पुरुष दिनरात आँसू बहाते रहते हैं । वहां एथान्ततः दुःख ही दुःख होता है । वह अति कठिन और अति विस्तृत है । ऐसे नरक में पापी जीवों के गले में फंदा डाल कर मारे जाते हैं ॥१८॥ ટીકાર્થ–પૂર્વમાં પાપકૃત્યેનું સેવન કરીને નરકમાં ઉત્પન્ન થયેલા તે છે દિન રાત અત્યન્ત વેદનાને અનુભવ કરતા રહે છે, એટલે કે તેઓ દસ પ્રકારની ક્ષેત્રજનિત વેદનાનું વેદન કરે છે. આ અસહ્ય વેદનાને લીધે તેઓ કરુણાજનક રુદન કર્યા કરે છે. સંપૂર્ણતઃ દુઃખમય, અતિદીર્ઘ, વિષમ અને અનેક પ્રકારનાં દુખેથી વ્યાપ્ત નરકમાં પડેલા નારક જીવોના ગળામાં ફસે નાખીને તેમને માર મારવામાં આવે છે. ભાવાર્થ એ છે કે નરકમાં નિરન્તર પીડાને અનુભવ કરતા પાપી જીવો આંસુ સાર્યા કરે છે ત્યાં તેમને સદા દુઃખ જ સહન કરવું પડે છે. એક પળ પણ તેમને સુખ મળતું નથી, તે સ્થાન ખૂબ જ વિષમ, વિરતૃત અને દુઃખદ છે. એવા નરકમાં પાપી જીવોના ગળામાં ફાંસે નાખીને પરમધામિકે તેમને ખૂબ જ માર માર્યા કરે છે. ૧૮ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a , समयायोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् ४३५ : मूलम्-भंजंति णं पुवमरी सरोसं. समुन्गारे ते मुसले गैहेतुं । ते भिन्नदेहा 'हिरं वमंता ओमुंद्धगा धेरणितले पैडति ॥१९॥ , छाया-भजन्ति खलु पूर्वारयः सरोपं समुद्राणि ते मुसलानि गृहीत्वा । ते भिन्नदेहा रुधिरं वमन्तोऽस्मुर्दानः धरणीतले पतन्ति ॥१९॥ , अन्वयार्थ:-(ते) ते परमाधार्मिकाः (समुग्गरे त्रुसले गहेतुं) समुद्राणि मुसलानि गृहीत्वा (पुधमरी) पूर्वारय इत्र जन्मान्तरीयशत्रय इव (सरोसं) सरों , क्रोधसहितं यथा स्यात्तथा (भजति) भञ्जन्ति-गाढपहारैरामदयन्ति (भिन्नदेहा) मिन्नदेहाः-चूर्णिताङ्गाः (ते) ते नैरयिकाः, (रुधिरं वमंता) रुधिरं वमन्तः (ओमु. द्धगा) अवमानः (धरणीतले) धरणीतले पृथिव्यां (पडंति) पतंतीति ॥१९॥ 'भंजति' इत्यादि। शब्दार्थ-'ते-ते वे परमाधार्मिक 'समुग्गरे मुसले गहेतु-समुद्गराणि मुखलानि गृहीत्वा' मुद्गर और मुसल हाथ में लेकर 'पुव्वमरीपूर्वारयः' पहले के शत्रु के समान 'मोसं-सरोषम् क्रोधयुक्त भजतिभञ्जन्ति' नारकी जीवों के अडों को तोड देते हैं 'मिनदेहां-भिन्नदेहा" जिनकी देह टूट गई है ऐसे 'ते-ते' के नारकी जीव 'रुहिरं वर्मतारुधिर वमन्तः' रक्त वमन करते हुए 'ओमुद्धगा-अवमूर्धान अधोशिर होकर 'धरणीतले-घरणीतले' पृथिवीतल में पति-पतन्ति' पड़ते हैं।१९। ___ अन्वयार्थ-वे परमाधार्मिक पूर्व के शत्रु के समान मुद्गरसहित मूसल लेकर क्रोध के साथ गाढ प्रहार करके नारकों के शरीर को चूर 'भंति' त्याल शाय-'ते-ते' ते ५२माथामि ‘समुगगरे मुसले गहेतु समुद्राणि मुखलानि गृहीत्वा' भगण मन भुस डायम ने 'पुव्वमरी-पूर्वारयः' पहनाना शत्रुना समान 'सरोसं-सरोपम्' या युत 'भंति-भञ्जन्ति' ना२ वाना मगान ताडि छे. 'भिन्नदेहा-भिन्नदेहाः' भनु शरीर टूटी गयछे सवा 'वे-वे' ते ना२७ रुहिर वर्मता-रुधिर वमन्त:' २ मन ४२di 'ओमुद्धगा-अवमूर्द्धानः' धोभरत थने 'धरणीतले-धरणीतले' पृथ्वी तमा 'पडति-पतन्ति' ५४ छे. ॥१८॥ સૂત્રાર્થ–પરમધામિકે તેમની સાથે પૂર્વભવના શત્રુના જેવો વ્યવહાર કરે છે. તેઓ હાથમાં મગદળ અને મૂસળ (સાબેલ) ધારણ કરીને, ખૂબ જ ક્રોધ પૂર્વક નારકોનાં શરીર પર તેના ગાઢ પ્રહારો કરીને તેમનાં શરીરના Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ सूत्रकृतागसूत्रे - टीका - 'समुग्गरे' समुद्रराणि मृद्ररेण सहितानि 'मुसले' मुसकानि, ते नरकपालाः समुद्गराणि मुसलानि 'गहेतुं' गृहीत्वा 'पुत्रमरी' पूर्वभवसंजाता शत्रव इव 'सरोस' सरोषं - रोषयुक्तं यथा भवेत्तथा । णमिति वाक्यालंकारे । 'भंजंति' भञ्जन्ति चूर्णीकुर्वन्ति नारकिजीवानामंगानि त्रुदयन्ति । 'भिन्नदेहा' भिन्नदेहाः - विदारितदेहाः 'ते' ते नारकिजीवाः 'रुद्दिर' रुधिरं रक्तम् 'वमंता' वमन्तः- सावयवेभ्यो रुधिराणि उद्भिरन्तः 'ओमुद्धगा' अवमूर्द्धानः सन्तः 'धरणितले' पृथिव्याम् ''डंति' पतन्ति - परसाधार्मिकाः शत्रत्र इव समुद्गरमुसलान्यादाय तत्प्रहारेण नारकिजीयशरीरं चूर्णयन्ति । गाढं महतदेहास्ते नारकिजीवा अधोमुखा रुधिरं स्वमुखाद्वमन्तो धरणीतले पतन्ति इति ॥१९॥ + चूर करते हैं । चूर चूर हुई देहवाले नारक रुधिर को वमन करते हुए अधोशिर होकर पृथ्वीतल पर जा गिरते हैं ॥ १९ ॥ टीकार्थ- परमाधार्मिक मुद्गरसहित मूसल ग्रहण करके पूर्वभव "के बेरी के जैसे अथवा पूर्वभव के शत्रु नारक आपस में एक एक - दूसरे को रोष के साथ चूर चूर कर देते हैं अर्थात् उनके अंगों को तोड देते हैं। टूटे हुए देहवाले वे नारकजीव रुधिर को वमन करते हैं उनके अंग अंग से रक्त बहता है । वे अपोशिर होकर धरती पर गिरते हैं । आशय यह है कि परनाधार्मिक शत्रु के समान मुदूगर के साथ मूल लेकर उसके प्रहार से नारकियों के शरीर को चूर्णित कर देते हैं । સૂરે સૂરા કરી નાંખે છે. આ પ્રકારે જેમનું શરીર છિન્નભિન્ન કરી નાખવામાં આવ્યુ' છે એવા નારકે લેાહીની ઉલટી કરતાં કરતાં ઊંધે માથે જમીન પર डी लय है. ॥१८॥ ટીકા-જાણે કે પૂર્વભવના દુશ્મન હોય એવી રીતે પરમાધાર્મિ કા નારકાનાં શરીર પર મગદળ અને મૂસળના પ્રહારો કરે છે. અથવા નારા પૂર્વ ભવતુ વેર વાળવાને માટે એકબીજાના ઉપર આક્રમણ કરીને એક ખીજાનાં અંગેા તેાઢી નાખે છે. આ પ્રકારના પ્રહારાને લીધે તેમના પ્રત્યેક અ'ગમાંથી લેાહીની ધારા નીકળે છે અને તેમને લેહીની ઉલટીએ પણ થાય છે આખરે શરીરની તાકાત ખૂટી જવાને કારણે તેઓ ઊંધે માથે ભૂતિનૢ પર પડી જાય છે. શ્મા કથનને ભાષા એ છે કે પરમાધાર્મિક દુશ્મનાની જેમ . સૂસળ, મગદળ આદિ વડે મારી મારીને તેમનાં શરીરના ચૂરે ચ્શ કરી 1 તેમને Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . समयायोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् ४३७ . मूलम्-अणासिया नाम लहालियाला पागभिणो तत्थ संया सकोवा । खेजति तत्था बहुकूरकम्मा, अदूरगर संकलियाहि बद्धा॥२०॥ ___ छाया-अनशिता नाम महागालाः, प्रगरिभणस्तत्र सदा सकोपाः । खाधन्ते तत्स्थाः बहुकारकर्माणः, अदुरणाः शृदलिकाभि बद्धाः॥२०॥ अन्वयार्थ:-(तत्थ) तत्र नरके (सया सकोचा) सदा सर्वकालं सकोपाः • क्रोधयुक्ताः (अगासिया नाम) अनशिताः बुभुक्षिता (पागभिणो) प्रगल्मिनः धृष्टाः जथ उनके शरीर पर गाढ प्रहार किया जाता है तब वे अधोशिर होकर मुख से रुधिर वमन करते हुए भूमि पर जा पडते हैं ॥१९॥ _ 'अणालिया' इत्यादि। शब्दार्थ-'तत्थ-तन' उस नरक में 'लया सकोवा-सक्षा सकोपा' सदा झोधित 'अणासिया लाम-अनशिता नाम' क्षुधातुर ऐले तथा 'पागविमणो-प्रगल्मिनः' धीर-भयरहित ऐसे 'महालियाला-महाशृगाला घडे पडे शृगाल रहते हैं वे गीदड बहुरहमा-बक्रूर फर्माण!' जन्मान्तर में पाएकर्म किये हुए 'संकलियाहि-शृङ्खलिकाभि: जंजीर में 'पद्धा-बद्धाः' बंधे हुए 'अदूरगा-अदूरगाः' निकट में रहे हुए 'तत्थातत्स्था' उस नरक में स्थित जीवो को 'खज्जेति-खाद्यन्ते खण्ड खण्ड करके खा जाते हैं ॥२०॥ अन्वयार्थ-नरक में सदैव बुद्ध रहने वाले, सदैव भूखे एवं धीट निर्भय નાંખે છે. જ્યારે તેમના શરીર પર કઠોર પ્રહારો પડે છે, ત્યારે તેઓ અધે સુખ હાલતમાં જમીન પર ફસડાઈ પડીને લેહીની ઉલ્ટીઓ કરે છે. છેલ્લા 'अणालिया' त्याह शहाथ-'हत्थ-तत्र' ते १२भा 'खया खकोवा-सदा सकोपाः' सहा जोषित 'अणासिया नाम-अनशिता नाम' क्षुधातु२ तथा 'पगन्मिणो-प्रगल्भिनः' नयडित अदा (धीर) 'महासियाला-महाशृगाला.' भाटा मोटर शिया २७ छ, त शिया 'बहुकूरकम्मा-बहुक्रूरकर्माणः' ४ामान्तरमा ५.५४ रेक्षा संकलियाहि-शंसलिकाभिः' ४'मा 'बद्धा-बद्धा.' मधेन। 'अदूरगा-अदूरगाः' नोटमा २७सा 'तत्था-तत्स्थाः' ते १२४मा स्थित ७वाने 'खज्जति-खाद्यन्वे' ટુકડા ટુકડા કરીને ખાઈ જાય છે. ૨૦ સૂત્રાર્થ–નરકમાં મહા ધીટ (શિયાળ) હોય છે. તેઓ ઘણું જ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ટ सूत्रकृतसूत्रे निर्भयाः (महासियाला) महाशाला परमाधार्मिकविकुर्विता भवन्ति एभिः शगालः (बहुकुर कस्मा) वहुक रकमणि: ( संकलियाहि) शृङ्खलिकाभिः (बड़ा ) बद्धा: - (तथा) तत्स्थाः (खजेति) खाद्यन्ते - खण्डशः कृत्वा भक्ष्यन्ते इति ॥२०॥ टीका - 'तस्थ' तत्र नरकावासे 'सया सकोवा' सदा सकोपा - सदैव सकोपाः क्रोधशीलाः 'पाणी' प्रगल्मिनोऽतिघृष्टाः निर्भयाः परमधार्मिकैर्विकुर्विताः 'अणासिया' अनशिताः क्षुधातुराः, नामशब्दः संभावनायाम् 'महासियाळा' महाशृगाला :- अतिदीर्घ हायाः जंबूकाः एभिः शृगालः परमाधार्मिकैः 'बहुकूरकम्मा' बहुक्रूरकर्माणः, पूर्वजन्मनि अतिकठोरं प्राणिहिंसादिकं ये कुर्वन्तिहम ते 'संग लियाहिं' वज्रशृंखलाभिः 'बद्धा' बद्धा: 'अदूरगा' अदूरगाः समीपे विद्यमानाः 'तत्था' तत्स्थाः - नरके स्थितास्ते नारकिजीयाः 'खज्जति' खाद्यन्ते शृगालैस्तादृशविशेषणोपेतैर्नारकिजीवास्तत्र नरकावासे भक्ष्यन्ते इति ॥२०॥ महाशृगाल होते हैं | परनाधार्मिक विक्रिया से उन्हें उत्पन्न करते हैं। उन शृगालों के द्वारा अतीव क्रूरकर्मी एवं लांकलों से बँधे हुए नारक जीव भक्षण किये जाते हैं ॥२०॥ टीकार्थ - - नरकावाल में सदैव क्रुद्ध रहने वाले, अत्यन्त पृष्ठ निर्भय और भूखे शृगाल होते हैं । वे दीर्घकाय होते हैं और परमाधार्मिक बिक्रिया के द्वारा उनको उत्पन्न करते हैं । पूर्वजन्म में हिंसा आदि क्रूर कर्म करने वाले तथा श्रृंखलाओं से बद्व एवं समीपवर्ती नारक जीवों को वे खाते हैं । अर्थात् वहाँ भूखे शृगाल लोकलों से बँधे हुए नारकों को खाते हैं ॥२०॥ ભૂખ્યાં, ક્રોધી અને નિર્ભય હાય છે. પરમાધામિકા પેાતાની વૈક્રિય શક્તિ વડે તે શિયાળાની ઉત્પત્તિ કરે છે. પૂર્વભવેામાં ઘાર પાપકર્યું કરનારા, સાંકળા વડે ખાધેલા તે નારકનું આ મહાશિયાળેા દ્વારા ભક્ષણ કરાય છે. ૦૫ ટીકા ——તરકાવાસમાં સદા ક્રોધથી યુક્ત રહેવાના સ્વભાવવાળાં, અત્યન્ત ધૃષ્ટ, નિલય અને ભૂખ્યા શિયાળા હોય છે તેમનુ' શરીર ઘણું જ વિશાળ હાય છે. પેાતાની વૈક્રિય શક્તિ વડે પરમાધામિકા તેમનું નિર્માણુ કરે છે. પૂર્વભવેામાં હિંસા ાદિ ક્રૂર કમેર્યાં કરવાથી નરકમાં ઉત્પન્ન થયેલાં, સાંકળેા વડે બધાયેલાં નારકાની પાસે આ શિયાળે પહેાંથી જાય છે અને તેમનાં શરીરમાંથી માંસનું ભક્ષણુ કરે છે, ર૦ા Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ. १ नारकीयवेदनानिरूपणम् ४३९ मूलम्-सयाजला नास नदी भिदुग्गा, पविजलं लोहविलीणतत्ता। जंसी भिदुरगंलि पैवज्जमाणा, एंगायऽतीणुकमणं करोति ॥२१॥ छाया-सदाजला नाम नदी अभिदुर्गा प्रदीप्तजलां लोहविलीनतप्ता । ____ यस्यामभिदुर्गायां प्रपद्यमाना एके अत्राणा उत्क्रमणं कुर्वन्ति ॥२१॥ अन्वयार्थः-(सयाजला नाम) सदाजला नाम- सर्व कालं जलपूरिता (भिदुग्गा) अभिदुर्गाऽतिविपमा (नदी) नदी एका तिष्ठति (पबिज्जलं) प्रदीप्नजलां पिच्छिलारुधिराविलत्वात् (लोहविलीणतत्ता) लोहविलीनतप्ता-अतितापद्रवितलोहसदृश 'सयाजला' इत्यादि। शब्दार्थ-लघाजला नाम-सदाजला नाम' सदाजला नामकी 'भिदरगा-अभिवर्गा' अत्यंत विवम 'नदी-नदी एक नदी है 'पविज्जलं प्रदीप्तजलां' उसका जल पीव (रस्सी) एवं रक्त मिश्रित होता है अथवा वह घडी पिच्छिल अर्थात् कर्दमयुक्त है 'लोहविलीणतत्ता-लोहविलीन तप्ता' तथा वह अग्नि से पिघले हुए लोह के द्रव के समान अति उष्ण जलचाली है 'अभिदुग्गसि-अभिदुर्गायाम्' अतिविषम जसि-यस्यां' जिस नदी में 'पवज्जमाणा-प्रपद्यमानाः' पडे हुए नारकी जीव 'एगा. यत्ताण-एके अन्नाणा:' अकेला रक्षकरहित होकर 'उकमणं करेंतिउत्क्रमणं कुर्वनिन' वहां सर्वकाल उछलते रहते हैं ॥२१॥ अन्वयार्थ--नरक में एक सदाजला नदी है। वह सदैव जल से परिपूर्ण रहती है और अत्यन्त विषम है । वह रूधिर से व्याप्त है और 'सयाजला' त्या शहा-'सयाजला नाम-सदाजला नाम' सीrel नाम 'भिदुग्गा-अभिदुर्गा' अत्यंत विषम 'नदी-नदी' में नही छे 'पविज्जलं-प्रदीप्तजलां' तेनु પાણી પરુ એવં લેહી મિશ્રિત હોય છે અથવા તે મોટી પિછિલ અર્થાત भयुक्त छ 'लोह विलीणतत्ता-लोहविलीनतप्ताः' तथा ते मनिथी पीधणे बोमन द्रवशुना समान मात गरम पाणीवाणी छ 'अभिदुग्गंसि-अभिदुर्गायाम्' गतिविषम 'जसि-यस्यां' २ नहीमा 'पवज्जमाणा-प्रपद्यमानाः' पडे ना२१ 'एगायत्ताण-एके अत्राणाः' मेसर २६४ वरना थधन 'उक्कमणं करें'ति-उत्क्रमणं कुर्वन्ति' त्यो साता २ छ. ॥२१॥ * સૂત્રાર્થ–નરકમાં એક એવી નદી છે કે જે સદા પાણીથી ભરપૂર રહે છે તે નદી ઘણી જ વિષમ છે. તે નદી પરુ અને લેહીથી ભરેલી છે, તેનું પાણી Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० सुत्रकृतात्रे जला (अभिसि ) अभिदुर्गायामतिविषायां (जैमि) यम्यां नद्यां (वनमाणा ) प्रपद्यमाना नैराि (एमायताण) एके अत्राणाः रक्षकरहिताः (उकम करें ठि) उत्क्रमणं कुर्वन्ति- उत्क्रमणं गमनं छानं कुर्वन्ति परमधार्मिकमेरणयेति ॥२१॥ टीका --- 'सयाजला' सदाजला सदा-सर्वदा जले नियते यस्यां सा सदाजला, सर्वदा जलयुक्ता सदाजलाभिधाना वा 'अभिदुरगा' श्रभिदुर्गा - अतिदुर्गा, अतिविषमा तर्तुमशक्या 'पविज्जल' प्रदीप्तां पिच्छिलां तज्जलं क्षाम्पूरुधिरमिश्रित विद्यते । अथवा रुधिरावित्वादतिपिच्छिला 'लोहविलीनता' लोहविलीनता अग्निना तापितद्रहित अतिशयेन तं जलं विद्यते यस्यां सा लौहविचीन नप्ता | अतिवत् अत्युष्णलपपूरिता 'जंसी' यस्यां 'अमिदुगांस' अभिदुर्गायामतिविपनायाम् नद्याम् ' पवज्जमाना' प्रपद्यमाना:प्राप्तवन्तो नारकजीवाः तादृशनदीम् । 'एयायताण' एके अत्राणाः एकाकिन उसका जल इतना उष्ण है जैसे तीव्र ताप से द्रवीभूत हुआ लोहा हो । उस अत्यन्त दुर्गम नदी में पडे नारक अन्नाग होकर उछलते हुए दुःख पाते हैं । २१॥ टीकार्य -- जिसमें सदैव जल बना रहता है वह नदी सदाजला कहलाती हैं । अथवा 'सदाजला' उसका नाम है । जिसको तैरना बहुत कठिन है । उसका जल क्षार, पीव और रुधिर से मिश्रित है या रुधिर से व्याप्त होने के कारण अत्यन्त पंकिल है । अग्नि में तपाये हुये और पिघले हुए लोहे के समान अतीव उष्ण जलवाली है । इस प्रकार, अतिशय उष्ण जल से परिपूर्ण तथा अति विषम नदी में वे नारक जीव असहाय एवं अशरण होकर उछलते रहते हैं । परमाधार्मिक उन्हें तिरने के लिये विवश करते हैं। ગરમા ગરમ લેઢાના રસ જેવું અતિઉષ્ણ છે. તે અત્યન્ત દુર્ગમ નદીમાં પડેલાં નારકી ભુખ જ અસહાય દશાને અનુભવ કરે છે. પરમાધામિ કે તેમને મળાત્કારે તે નદીમાં નાખે છે. ર૧ टीडार्थ- मां पाएगी अयम टडी रहे हे, सेवी नहीने 'सहानसा'छे. अथवा ते नहीतुं नाम 'सहारा' हे, ते नहीमां तवानुं अर्थ હ્મણુ' જ કહ્યુ છે. તેનું પાણી ક્ષાર, રુધિર અને પરુથી મિશ્રિત હાવાને કારણે, અથવા રૂધિરથી વ્યાપ્ત હાવાને કારણે ખજ ગટ્ટુ છે તે પાણી ભઠ્ઠીમાં તપાવેલા લેઢાના રસ જેવું અતિ ઉષ્ણ છે તે નદીમાં પરમધામિક નારકાને મળજખરીથી નાખે છે. ખિચારા નિરાધાર અને અસહાય નારકોને લાચારીથી તેમાં પડવું પડે છે. Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. उ. ५ सू. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् ....४४२. स्त्राणविवर्जिताः 'उक्कमणं करेंति' उत्क्रमणं उत्प्लवनं कुर्वन्ति सदा तत्र तरन्त एवं सतिष्ठन्ते । सदाजळपती नाम्नी नरकस्यैका नदी विद्यते । सा चाऽतिदुःखदायिनी, तज्जलं क्षारपूयरुधिराविलं सर्वदा भवति । तथा तापितविलीन लौहवा अयुष्णज यती । तादृशनयां गता नारकाः परमदु ख मनिका क्षेत्रवेदनामनुभवन्तः सईदैछ प्लवन्तीति भावः ॥२१॥ मूलम्-एयाई फासाई फुसंति बालं, निरंतरं तत्थ चिट्रितीयं । ण हम्ममाणला होइ ताणं, एंगो लथं पञ्चहोइ दुवं ॥२२॥ छाया- एते स्पर्शाः स्पृशन्ति बाल निरन्तरं तत्र चिरस्थितिका । -: न हन्यमानस्य तु भवति त्राणयेक स्वयं प्रत्यनुभवति दुःखम् ॥२२॥ आशय यह है-नरक में सदाजला नाम की एक नदी है। वह घोर दाख देने वाली है। उसका जल सदैव क्षार पीज एवं रक्त से व्याप्तरहता है। तपाए और पिघले लोहे के समान अतीव उषा जलवाली है । उस नदी में गिराए हुए नारक अतिशय विषय क्षेमवेदना को. अनुभव करते हुए उछलते रहते हैं ॥२१॥ उद्देशक के अर्थ हा उपसंहार करते हुए सूत्रकार पुनः नरक के. स्वरूप को ही दिखलाने के लिए कहते हैं--'एयाई' इत्यादि। ___ शब्दार्थ-'तत्थ-तत्र' उस नरक में 'चिहिनीयं-चिरस्थितिकम् दीर्घकालपर्यन्त निवास करने वाले अर्थात् पल्योपम सागरोपम काल तक निवास करनेवाले 'बालं-बालम्' अज्ञानी नारकी जीव को 'एयाई एते' पूर्वोक्त ये उपर्युक्त 'फासाई-स्पर्शाः' स्पर्श अर्थात् दुःख निरंतरं આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે નરકમાં સદાકલા નામની એક નદી છે તે નદી નારકેને ખૂબ જ દુઃખદાયક થઈ પડે છે. તેનું પાણી સદા ક્ષાર, લેહી અને પથી વ્યાપ્ત રહે છે તપાવીને ઓગાળેલા લેઢા જેવાં તે ઉમણે પાણીવાળી નદીમાં નારકેને ધકેલી દેવામાં આવે છે. બિચારા નારકને અતિશય વિષમક્ષેત્રવેદનાને અનુભવ કરવા થકી તે નદીમાં ઉછળતા રહેવું પડે છે. પારના આ ઉદેશકના વિષયને ઉપસંહાર કરતા સૂત્રકાર કહે છે'एयाई'' त्यादि शंvat:-'तत्थ-तत्र' ते २४मा 'चिरद्वितीयं-चिरस्थितिकम्' Rioustom પર્યન્ત નિવાસ કરવાવાળા અર્થાત્ પલ્યોપમ સાગરોપમ કાળ સુધી નિવાસે ४२पा 'बाल-बालम्' अज्ञानी नावाने 'एयाई-एते' मा पथुप्रत 'फासाई-स्पर्शाः' ५५ मर्थात् : 'निरंतरं-निरन्तरम्' सहा सु० ५६ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२. - - - - - - - - - सुनेकृताङ्गसूत्रेअन्वयार्थः-(तत्थ) तत्र नरके (चिरद्वितीय, चिरस्थितिक-पल्योपपतागरोपमकालनिवासिनं (बालं) बालमज्ञानिनम् (एयाई) एते-उपर्युक्ताः (फासाई)., . स्पर्शाः दुःखानि (निरंतर) निरन्तरं-सततं (फुसंति) स्पृशन्ति-दुःखयन्ति (हम्ममाणस्स उ) हन्यमानस्य नैरयिकस्य तु (ताणं ण होइ) त्राणं शरणं रक्षको न. भवति, (एगो) एक एव कर्मवशगो नापरमातापित्रादिकः (सयं) स्वयं (दुक्खं). दुःखं (पञ्चणु होइ) प्रत्यनुभवतीति ॥२२॥ ____टीका-संपति-उद्देशकार्थमुपसंहरन् पुनस्तदेव नरकस्वरूपं दर्शयितुमाह'एयाई' इत्यादि । 'तत्य' तत्र-तादृशनरके 'चिरद्वितीय चिरस्थितिकम् , नैरन्तर्येण 'वालं' वालम्-हिंसादिक्रूरकर्भकारकं नैरयिकस् 'एयाई एते पूर्वोपदर्शितनिरन्तरम्' सदा 'फुसंति-स्पृशन्ति' पीडित करते रहते हैं 'हम्ममाणस्स उ-हन्यमानस्य तु' पूर्वोक्त दुःखों ले मारे जाते हुए नारकी जीव का 'ताणं ण होइ-त्राणं न भवति' रक्षण करने वाला कोई नहीं होता है 'एगो-एक:' वह अकेला ही 'लयं-स्वयम्' आप ही 'दुक्खं-दुक्खम्' दुःखों को 'पच्चणुहोइ-प्रत्यनुभवति' भोगता रहता है ॥२२॥ ___ अन्वयार्थ-नरक में दीर्घकालीन स्थितिवाले अज्ञानी जीवों को उल्लिखित दुःख निरन्तर भुगतने पड़ते हैं। आहत किये जाने वाले नारक जीवों का वहां कोई रक्षा नहीं होता। वे एकाकी स्वयं ही दुःखो का अनुभव करते हैं ॥२२॥ टीकार्थ--नरक में चिरकालीन अर्थात् पल्योपम और सागरोपम की आयुवाले तथा हिंसादि क्रूर कर्म करनेवाले नारक को यह पूर्ववर्णित 'फतंति-स्पृशन्ति' पारित ४२ छ 'हम्ममाणस्स उ-हन्यमानस्य तु पूतिमाथी भारपामा मापता ना तु 'ताणं ण होइ-त्राणं न भवति' २क्षय ४२वापाणु डात नथा 'एगो-एक.' ते से 'सयं-स्वयम्' पोते 'दुक्ख-दुखम्' हुमार पच्चणुहोइ-प्रत्यनुभवति' सागपत। २हे छे. ॥१२॥ - સૂત્રાર્થ–નરકમાં દીર્ઘકાલીન સ્થિતિવાળા અજ્ઞાની અને આગળ વર્ણવ્યા પ્રમાણે દુખે નિરન્તર સહન કરવા પડે છે પરમધામિકે દ્વારા જેમનું તાડન, છેદન, ભેટન આદિ કરવામાં આવે છે, એવાં નારકને શરણ આપનાર ત્યાં કઈ પણ હેતું નથી. તેમને નિરાધાર દશામાં મૂકાઈ જવાને કારણે જાતે જ તે દુ ખ વેઠવું પડે છે. તેમના તે દુઃખમાં કઈપણ વ્યક્તિ ભાગ પડાવતી નથી. તેમણે કરેલાં પાપકર્મોનું ફળ ત્યાં તેમને જ ભેગવવું પડે છે. પરર , , ટીકાર્થ–પૂર્વભવમાં હિંસાદિ ફૂર કર્મોનું સેવન કરનારા પાપી જીને નરકમાં નારક રૂપે ઉત્પન્ન થવું પડે છે. નારનું આયુષ્ય ઘણું જ લાંબુ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अं. उ. ५ सू.२ नारकीयवेदनानिरूपणम् ....४४३ प्रकारकाः 'फासाई' स्पर्शाः-स्पृश्यन्ते इति स्पर्शाः दशविधक्षेत्रवेदनाजनिताः दुःखविशेषाः 'निरंतर' निरन्तरं-सवलम् 'संति' स्पृशन्ति, एते दुःखविशेषाः दुःखयन्ति वालम् । रत्नपभायाम्-उत्कृष्टा स्थितिः सायरोपमम् , तथा-द्वितीयायां शर्करामभायां त्रीणि सागरोपमाणि, वालुकायां सप्त, पङ्कमभायां दश, धृममभायां सप्तदश तमामभायां द्वाविंशतिः, तमस्तमःमभायां सप्तमपृथिव्यां त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि उत्कृष्टा स्थिति भवति । 'हम्ममाणस 3' इन्यमानस्य तु पूर्वोक्त दुःखेन पीडितस्य 'ताणं ण होई त्राणं न भवति-न कोपि तस्य रक्षको भवतीत्यर्थः अपितु , 'एगे सयं' एकाकी स्वयमेव 'दुक्खं पच्चणुहोई' दुःखं प्रत्यनुभवति, एक एव दुःखस्य भोक्ता भवति न भवति कश्चिदपि सहायकः । तदुक्तम्--- मया परिजनस्यार्थे, कृतं कर्म सुदारुणम् । एकाकी तेन दोऽहं गतास्ते फळभोगिनः ॥१॥' इति ॥२२॥ दस प्रकार की क्षेत्रवेदना से उत्पन्न होने वाले दुःख निरन्तर ही भोगने पड़ते हैं । प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की, दूसरी शर्कराप्रभा में तीन सागरोपम की, चालुकाप्रभा में सात सागरोपम की, पंकप्रभा में दस सागरोपम की, धूमप्रभा में सतरह सागरोपम की, तमोप्रभा में बाईस सागरोपम की और सातवीं तमस्तमा प्रभा में तेंतील सागरोपम की है । जब नारकजीव मारा पीटा जाता है तो कोई उसका रक्षक नहीं होना । वह अकेला ही दुःख का अनुभव करता है । उस समय जीव ऐसा विचार करता है कहा भी है-'मया "परिजनस्यार्थे' इत्यादि। , હોય છે, તે કારણે તેમને પૂર્વવર્ણિત દસ પ્રકારની ક્ષેત્રવેદનાઓને ઘણા લાંબા સમય સુધી અનુભવ કરવો પડે છે. પહેલી રત્નપ્રભા પ્રવીમાં નારકની પર્યાયે ઉત્પન્ન થયેલા જીવોની ઉત્કૃષ્ટસ્થિતિ એક સાગરોપમની છે. બીજી શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીમાં ત્રણ સાગરોપમની, ત્રીજી વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીમાં સાત સાગરોપમની, ચોથી પંકપ્રભા પૃથ્વીમાં દસ સાગરેપમની, પાંચમી ધૂમપ્રભામાં સત્તર સાગરોપમની, છકી તમ પ્રભામાં બાવીસ સાગરોપમની અને સાતમી - સમસ્તમપ્રભામાં તેત્રીસ સાગરોપમની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ કહી છે. નરકમાં પરમાધામિક દ્વારા નારકને જ્યારે મારવામાં આવે છે, ત્યારે તેમને રક્ષણ કરનાર ત્યાં કઈ પણ હોતું નથી. તે એકલે જ દુખનું વેદન કરે છે. નરકમાં અસહ્ય યાતનાઓ અનુભવતે જીવ ત્યારે આ પ્રમાણે વિચાર કરે છે'मया परिजनस्यार्थे' त्याहि-- Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गमत्र मूलम्-जं जारिसं पुवसकोसी कम्म, तमेव आगच्छइ संपराए। एंगतदुक्खं भवमज्जणित्ता वेदेति दुखी तमैणंतदुक्खं ।२३। ' छाया-यद् यादृशं पूर्व मकापीत्कर्म तदेवागच्छति संपराये । -.. एकान्तदुःखं भवमर्जयित्वा वेदयन्ति दुःखिनस्तमनन्तदुःखम् ॥२३॥ हाय मैंने कुटुम्बी जनों के लिए अत्यन्त क्रूर कार्य किये, पर उनसे लाभ उठाने वाले वे सब तो चले गए । मैं अकेला ही अपने कर्मों का फल भोग रहा हूँ। आज संताप की ज्वालाओं में दग्ध हो रहा हूँ।।२२।। जं जारिसं' इत्यादि। ..शब्दार्थ-ज-यत्' जो 'जारिसं-पादृशं जैसा 'पुव्वं पूर्वम्' पूर्व जन्म में 'कम्म-कर्म' कर्म को 'अकाली-अकार्षीत्' किया है 'तमेवतदेव' दही कर्म 'संपराए-संपरा संहार में 'आगच्छह-आगच्छति' उदय में आता है 'एगंतदुक्ख-एकान्तदुःखाम्' जिलसें लुखलेश रहित केवल दुःखमात्र होता है ऐले 'भवं-भवम्' भन को 'अगणिता-अर्ज'यित्वा-प्राप्त करके 'दुखी-दुःखिनः केवल दुःखी जीव 'अणतं दुस्ख तं-अनन्तदुःखम् तत्' अनन्त दुःख स्वरूप उसको 'वेति-वेदयन्ति' भोगते रहते हैं ॥२३॥ हाय, भीमाने भाटे में अत्यन्त दूर र्भानु सेवन ज्यु, - परन्तु તેનાથી જેમણે લાભ ઉઠાવ્યે તેઓ તે ચાલ્યા ગયા-તે પાપકર્મોનું ફળભેગવવામાં કઈ ભાગીદાર ન થયું ! હું એશ્લે જ મારા પાપકર્મોનું ફળ ભેગવી રહ્યો છું. આજ હું એક જ સંતાપની જ્વાળાઓ વડે બળી રહ્યો છું. રેરા - 1. जं जारिसं' त्याह शार्थ-'ज-यत्' र 'जारिस-याश" २ 'पुव्वं-पूर्वम्' पूर्वममा ' कम्म-कर्म भने 'अकाली-अकार्षीत्' ४२ छ, 'तमेव-तदेव' ते४ -म । 'संपराए-संपराये' संसारमा 'आगच्छइ-आगच्छति' मध्यमां आवे छे. 'एगंत। दुक्ख-एकान्तदुःखम्' मा सुमोश २हित उपद म मात्र डाय छे; सेवा । भिवं-भवम्' सपने 'अज्जणित्ता अर्जयित्वा'- प्रास ४ीने 'दुक्खी-दुःखितः' उपत मी 4 'अणं तं दुक्खेतं-अनन्त दुःखम् तत्' अनन्त स २०३५ तन । वेदेति-वेदयन्ति' लापता से छे. ॥२॥ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____समयार्थवोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. उ. ५ सू. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् . ४४५ - अन्वयार्थः-(ज) यत् (जारिस) यादृशं (पुर्व) पूर्व-पूर्वजन्मनि (कम्म) कर्म (अकासी) अकापीत् कृतवान् (तमेव) तदेव कम (संपराए) संपराये संसारे (आगच्छइ) आगच्छति उदये । तेन (एगंतदुक्ख) एकान्त दुःखं सुखलेशवर्जितम् ' (भव) भवं (अन्जणित्ता) अनयित्वा--प्राप्य (दुक्खी) दु:खिनः सन्तो, जीवाः (अणंत दुक्खं तं) अनन्तदुःखं तत् (वेदेति) वेदयन्ति अनुभवन्ति इति ॥२३॥ टीका--(ज) यत् 'जारिसं' यादृशम्-यदनुभावक म्' यादृशस्थितिकम् वा "पुवं' पूर्वम्-पूर्वजन्मनि 'कम्म' कर्म 'अकासी' अकात् िकृतवान् 'तमेव' तदेव कर्म 'संपराए' परभवे 'आगच्छई' आगच्छति-तदेव कर्म विपाकोदये फलभोगाय प्राप्तं भाति । तीत्रमन्दादिभेदेन यादृशं कर्म संपादितम् , विपाकोदये 'तादृशमेव आगच्छति फलाय । तथा 'एगंतदुक्खं एकान्तदु खम् भवम् 'अज्जणित्ता' , अर्जयित्वा 'दुक्खी' दुःखिनः 'अणंतदुक्खं' अनन्त दुःखम् 'वेदें 'ते' वेदयन्ति । उक्तं च -अन्वयार्थ--पूर्वकाल में जैसा कर्म किया है, वहीं आगे उदय में आता है, एकान्त दुःखमय मन को प्राप्त करके सर्वथा दुःखी जीव अनन्त दुःख का वेदन करते हैं ॥२३॥ टीकार्थ--जिस प्रकार के अनुभाग (रस) वाला तथा जितनी स्थिति वाला कर्म पूर्वकाल में वांधा है, वहीं और वैसा ही उत्तरकाल में विपाकोदय में आता है अर्थात् फल भोगना पड़ता है। तीव्र या मन्द-जिस प्रकार के अध्यवसाय से जैसा तीत्र था मन्द रसवाला कर्म बांधा है, फलभोग के लमय वही सामने आता है। नारकजीव एकान्त दुःखपूर्ण, भव को उपार्जन करके एशान्त दुःखी होते हैं और अनन्त दुःख '' સૂત્રાર્થપૂર્વકાળમાં જેવા કર્મો કર્યા હોય છે, એજ ભવિષ્યમાં ઉદયમાં ' આવે છે. એકાન્ત દુઃખમય (સંપૂર્ણ રૂપે દુઃખમય) ભવને પ્રાપ્ત કરીને - સર્વથા દુખી જીવ અનન્ત દુઃખનું વેદન કરે છે પરવા ટીકાર્થ-જે પ્રકારના અનુભાગ (રસ) વાળું તથા જેટલી સ્થિતિવાળું કર્મ પૂર્વકાળમાં બાંધ્યું હોય, એજ અને એવું જ કામ ઉત્તરકાળમાં વિપા કેદયમાં આવે છે–એટલે કે એવું જ ફળ ભોગવવું પડે છે, તીવ્ર અથવા મદ-જે પ્રકારના અધ્યવસાયથી, જેવાં તીવ્ર અથવા મન્દ રસવાળું કેમ 'બાંધ્યું હોય છે. ફલ ભેગને સંમયે એજ (કર્મ) સામે આવે છે. નારક જીવ એકાન્ત (સંપૂર્ણ દુખપૂર્ણ સવનું ઉપાર્જન કરીને એકાન્ત (સંપૂર્ણ રૂપે ખી पाय छ भने अनन्त लागवे छे. यु ५५ छ है-'यथा धेनुरु हस्रपुयाहि Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ सूत्रकृताङ्गो नहिंस्याम्-न विराधयेत् । यस्य कस्यापि प्राणिनः यस्यां कस्यामप्यवस्थायाम् कमपि कारणविशेषमासाघ विराधनं न कुर्यात् , पूर्वोक्तांस्तांस्तान नरकानबधार्य । यस्मात् माणिवधकरणेन पहती यमयातनाऽनुभूयते माणिवधिकैनरके । उक्तञ्च 'तस्मान्न कस्यचिद्धिसामाचरेन्मतिमान्नरः। हिंसको नरकं घोरं गन्ता यायति याति हि ॥१॥ इह हि हिंसेत्युपलक्षणम् तेन मृपावादाऽत्तादानमैथुनपरिग्रहाणामपि संग्रहः । एतेऽपि नरकपापका शास्त्र विरुद्धमाचरतां । सत्स्वपि नरकपातकारिणीभूने पु बहुषु हिंसामाधान्यं लेभे अतस्तस्या एवोल्ले का पूर्व कृतः। प्राणी की किली भी अवस्था में, किसी भी कारण विशेष से हिंसा न करे। क्योंकि जो जीय प्राणिों का वध करते हैं, उन्हें नरक में महान् यातना भुगतनी पडनी है। कहा भी है-'तस्मान्न कस्यचिद्धिमा' इत्यादि। ___ इल कारण प्रतिमान् साधु किसी भी प्राणी का प्राणपरोपण न करे। हिंसक जीव घोर नरक में गये हैं, जाएँगे और जा रहे हैं ॥१॥ । यहाँ 'हिंला' उपलक्षण मात्र है । उसले मृषाबाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह पाप का भी ग्रहण करना चाहिए। ये सभी पाप शास्त्र से विपरीत आचरण करने वालों को नरक में ले जाने वाले हैं। यद्यपि नरक निपात के अनेक निमित्त हैं तथापि हिंसा उनमें प्रधान है। अतएच शास्त्रकार ने यहां उसी का उल्लेख किया है। સેંકમાં કે ઈ પણ ત્રસ, સ્થાવર, સૂફમ. બાદર પર્યાપ્ત કે અપર્યાપ્ત જીવોની વિરાધના કરવી જોઈએ નહીં એટલે કે તેણે કોઈ પણ પ્રાણીની, કેઈ પણ પરિસ્થિતિમાં, કંઈ પણ કારણે હિંસા કરવી જોઈએ નહીં. તેણે એ વાત “વી ન જોઈએ કે પ્રાણીઓને વધ કરનાર જીવને નરક ગતિમાં નારક રૂપે ઉત્પન્ન થઈને ઘર યાતનાઓ ભેગવવી પડે છે. કહ્યું પણ છે કે'तस्मान्न कस्यचिद्धिसा' त्याहि- . આ કારણે બુદ્ધિમાન સાધુએ ઠેઈ પણ પ્રાણીનાં પ્રાણેનું વ્યાપવિગ) કરવું નહીં હિંસક છ ઘેર નરકમાં ગયા છે, જાય છે અને જશેરા '' ५ना प्रयोग द्वारा भृषावाह, भत्ताहीन, भैथुन भने પિરિશંહના ત્યાંગનું પણ સૂચન કરાયું છે, એમ સમજવું.' બધા પાપન રાધ કરનાર ને પણ નરકગતિની પ્રાપ્તિ થાય છે. જો કે નરંકગતિમાં વાતો અનેક નિમિત્તો છે, છતાં પણ હિંસી તેમાં મુખ્ય નિમિત્તે રૂપ હોવાને કારણે સૂત્રકારે અહીં તેને જ ઉલ્લેખ કર્યો છે. જીવન અને આદિ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् ५४९ 'एगंतदिट्ठी' एकान्तदृष्टिः एकान्तेन निश्चला जीवादितत्त्वेषु दृष्टिः सम्पन्न दर्शनं यस्य स एकान्तदृष्टिः निष्कम्पसम्यग्दृष्टिमान् इति । तथा 'अपरिग्गहे' अपरिग्रहः- बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितः। तु शब्दादाधन्तयोः सम्यग्दृष्ट्यपरिग्रहयोरुन पादानाद्वा मृषावादाऽदत्तादानमैथुनवर्जनमपि संगृहीतं भवतीति द्रष्टव्यम् अशुभकर्म, तत्फलं च 'लोयरस' लोकस्य अशुभकर्मचारिणस्त द्विपाकफलसुनो वा संसारिणः । यद्वा-कपायादिलक्षणलोकं तत् स्वरूपतः लक्षगतश्च । तेन सम्यग्दृष्टयादियुक्तः सन् 'ज्झिज्ज' वुध्येत जानीयात् ज्ञपरिया, ज्ञात्वा च 'वसं न गच्छे कस्यापि कपायादिलोकस्य वशमधीनं न मच्छेत् । कषायादिभ्यो मुक्तो मेधावी पुरु: एतान् ____जीव अजीव आदि तत्वों पर जिलकी निश्चल श्रद्धा है अर्थात् जिसका सम्यग्दर्शन अचल है, वह यहां एक्षान्तदृष्टि विवक्षित है। जो पाय और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित है वह अपरिग्रह सहलाता है। यहां प्रारम्भ के सम्यग्दर्शन और अन्त के अपरिग्रह को ग्रहण करने से 'तु' शब्द के द्वारा मृषावाद, अदत्तादान और मैथुन का त्याग भी सूक्ष्म दृष्टि देने वालो के लिये संगृहीत हो जाता है। आशय यह हैं। कि सम्यग्दृष्टि तथा हिला आदि पापों का त्यागी मुनि अशुभ कर्म करने वाले और उसके फल को भोगने वाले संसारी जीवों को समझे अथवा कषायादि रूप लोक को स्वरूप एवं लक्षण से जाने । जानकर किसी भी कषायादि लोक के वशीभून न हो। आशय यह है कि कषाय आदि से मुक्त मेधावी पुरुष नरकों के स्वरूप को, उनके विभिन्न कारणों को शास्त्र के अनुसार जानकर लोक ત પર જેને અચલ શ્રદ્ધા છે, એટલે કે જેનું સમ્યગ્દર્શન અચલ છે, તેને અહી એકાંતદષ્ટિ કહેવામાં આવેલ છે. જે મુનિ બાહ્ય અને આભ્યન્તર પરિગ્રહથી રહિત છે, તેને અપરિગ્રહી કહે છે. અહીં પ્રારંભના સમ્યગ્દર્શન અને અન્તના અપરિગ્રહને ગ્રહણ કરવાથી “તું પદ દ્વારા મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, અને મિથુનનો ત્યાગ પણ ગ્રહણ થઈ જાય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે સમ્યગ્દષ્ટિ તથા હિંસાદિ પાપોનો ત્યાગ કરનાર મુનિએ અશુભ કર્મ કરનારા અને તેનું ફળ ભેગવનારા સંસારી જીવોની દશાનો વિચાર કરવો જોઈએ. અથવા તેણે કષાયાદિ રૂપ લેકને વરૂપ અને લક્ષણની અપેક્ષાએ સમજી લેવું જોઈએ. આ વાતને સમજી લઈને તેણે કઈ પણ કષાય આદિ સંસાર વધારનારા દેને વશ થવું જોઈએ નહીં. , આ સમસ્ત કથનને ભાવાર્થ એ છે કે કષાય આદિથી મુક્ત મેધાવી Anto Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... सूत्रकृतासूत्रे 'यथा धेलुसहस्रेषु वत्सो धावति मातरम् । एबमात्मकृतं कर्म,करिमनुधावति ॥१॥ येन जीवेन यादृशं कर्म वर्तमानभवे, कृतं तत् कर्म परभवे तमेव पुरुष प्राप्नोति स्वकृतकर्मणः फलं स्वयमेव भुङ्क्ते इति भावः ॥२३॥ .. मूलम्-एयाणि सोचा लरगाणि धीरे न हिंसए किंचण सवलोए। __. गंतदिट्ठी अपरिग्गहे उ बुझिंज लोयस्स वसं न गच्छ।२४। __ छाया-- एतान् श्रुत्वा नरकान् धीरो न हिंस्याकंचन सर्वलोके। एकान्तदृष्टिरपरिग्रहस्तु बुद्ध्येत लोकस्य वशं न गच्छेत् ।।२४॥ - को भोगते हैं, कहा भी है-'यथा धेनुसहस्रेषु' इत्यादि । जैसे हजारों गायों में से बछड़ा अपनी माता को पहचान कर उसी के पास जाता है, उसी प्रकार अपने किये कर्म अपने को ही फल देता है। तात्पर्य यह है कि जिस जीव ने जैसा कर्म किया है वह वर्तमान 'भव में अथवा पर लव में वैसा ही फल भोगता है ॥२३॥ 'एयाणि लोच्चा' इत्यादि। शब्दार्थ-धीरे-धीरः' धीर पुरुष 'एयाणि नरगाणि-एतान् नर"कान्' इन नरकों को 'सोच्चा-श्रुत्या' सुनकर 'सव्वलोए-सर्वलोके' मस लोक में 'चिण-कंचन' किसी प्राणी की 'न हिंलए-न हिंस्पात' हिसा न करे किन्तु 'एगंतदिट्ठी-एकान्तदृष्टिः' सर्व जीवादितत्वों में विश्वास रखता हुआ 'अपरिग्गहे उ-अपरिग्रहस्तु' परिग्रह से रहित જેવી રીતે હજારો ગાના સમૂડમાંથી પણ વાછડું પોતાની માતાને એ ળખી લઈને તેની જ પાસે જાય છે, એ જ પ્રમાણે પિતે કરેલું કર્મ પિતાને જ ફળ દે છે. એટલે કે કરેલા કર્મનું ફળ જીવને અવશ્ય ભેગવવું જ પડે છે.? તાત્પર્ય એ છે કે જેવું જીવે જે કામ કર્યું હોય એવું જ ફળ તેને વર્તમાન ભવમાં અથવા પરભવમાં ભેગવવું જ પડે છે. ૨૩ ___'एयाणि सोच्चा' इत्यादि शा-'धीरे-धीरः' धीरपुरुष 'एयाणि नरगाणि-एतान् नरकान्' मा न२. हीने मोच्चा-श्रुत्वा' सामजी 'सव्वलोए-सर्वलोके' मा मा 'किंचणकंचन ५ प्राधीनी 'न हिंसए-न हिंस्यान्' हिंसा ना ४३ ५२न्तु 'एगंतदिली-एकान्तहष्टि.' ५५ विगरे chi AALA रामने 'अपरिग्गहे उ-- Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. उ. ५ . २ नारकीय वेदना निरूपणम् ४४७.. अन्वयार्थः -- (धीरे धीरो- विद्वान - मेधावी मुनिः (एयाणि नरगाणि) एतान् नरकान् ( सोच्चा) श्रुत्वा (सन्नलोए) सर्वलोके (किंचण ) कंचनापि प्राणिनं त्रस स्थावरं वा (न हिंसए) न हिंस्यान सारयेत् किन्तु (एवदिट्ठी) एकान्तदृष्टिः सर्व-जीवादितत्वेषु विश्वासं कुर्वन् (अपरिग्गहे उ) अपरिग्रहस्तु - परिग्रहरहितः (बुज्झिज्ज) बुद्धचेत अशुभकर्म तत्फलं च जानीयात् ज्ञात्वा च (लोयरस) लोकस्य -अशुभकर्मकारिणो जनस्य कपायलोकस्य वा ( बसं न गच्छे) वशं न गच्छेत् ॥२४॥ 73 टीका- 'धीरे' धीरो विद्वान् - परिषदजयनशीलो मेधावी सुनिः 'एयाणि', एतान् 'णरगाणि' नरकान् 'सोच्चा' श्रुत्वा 'सव्वलोए' सर्वलोके, प्राणिनिवहे 'किंचन' कमपि, संस्थावरं सूक्ष्मवादरमपर्याप्तपर्याप्त वा प्राणिनम् 'न हिंसए' - होकर वुज्झिज्ज - बुद्धयेत' अशुभ कर्म और उसका फल समझे अथवा बाघों को जाने और जानकर 'लोय्स्स' लोकस्य लोकके अथवा कषाय लोकके 'चसं न गच्छे-वशं न गच्छेत्' वशवर्ती न बने ॥ २४ ॥ अन्वयार्थ --इन नरकों के स्वरूप को सुनकर मेवानी मुनि सम्पूर्ण लोक में (स्थित) किसी भी नस या स्थावर प्राणी की हिंसा न करे । जीवादि तत्वों पर निश्चल श्रद्धा रखता हुआ, परिग्रह से रहित होकर अशुभ कर्म और उसके करने वाले लोक और उसके फल को जाने और इन्द्रिय कषाय आदि के वशीभूत न हो ||२४|| टीकार्थ-- धीर अर्थात् परीषहों का विजेता विद्वान् मुनि नरकौं के स्वरूप को सुनकर सर्वलोक में किसी भी त्रस स्थावर सूक्ष्म यादर या पर्याप्त अपर्याप्त प्राणी की विराधना न करे अर्थात् किसी भी f अपरिग्रहस्तु' परिश्रड्थी वडित थ ने 'बुज्झिज्ज-बुद्धचेत' अशुल भु' अने तेभनु, ३ज समने अथवा उषायाने भो भने लगीने 'लोयस्स - लोकस्य' सोना अथवा उषाय सोना 'वसं न गच्छे-वशं न गच्छेत्' वशवर्ती ना मने ॥२४॥ C સૂત્રા—નરકાના આ સ્વરૂપનું શ્રવણુ કરીને મેધાવી મુનિએ સમસ્ત લાકમાં રહેલા કાઈ પણ ત્રસ કે સ્થાવર પ્રાણીની હિંસા કરવી જેઈએ નહી તેણે જીવાદિ તત્ત્વાના વિષયમાં અડગ શ્રદ્ધા રાખીને પરિગ્રહના પરિત્યાગ કરવે જોઈએ, અશુભ કર્મ કરનાર જીવાને કેવુ' ફળ મળે છે, તે જાણી લઈને તેણે કષાયાને જીતવા જોઇએ અને ઇન્દ્રિયાને વશ રાખવી જોઇએ. રજા ટીકા”—નરકાના સ્વરૂપનું તથા નામ્કાની કરુણ દશાનું. આ વર્ણન સાંભળીને . ધીર-પરીષહા પર વિજય મેળવનાર વિદ્વાન મુનિએ સમસ્ત Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઘઉંટ सूत्रता सूत्रे न हिंस्याम् न निराधयेत् । यस्य कस्यापि पाणिन: यस्य कस्यामव्यवस्थायाम् कमपि कारण विशेषमासाद्य विराधनं न कुर्यात् पूर्वोक्तरितांस्तान नरकानवधार्य । यस्मात् पाणिधकरणेन महती यमयातनाऽनुभूयते प्राणिधिकैनर के । उक्तञ्च'तस्मान्न कस्यचिद्धिसामाचरेन्मतिमान्नरः । fruit नरकं घोरं गन्ता यास्यति याति हि ॥ १ ॥ ' इह हि हिंसेत्युपलक्षणम् तेन मृषावादाऽदत्तादानमैथुन परिग्रहाणामपि संग्रहः । एतेऽपि नरकमापका शास्त्र विरुद्धमाचरतां । सत्स्वपि नरकपातकारिणीभूतेषु बहुषु हिंसामाधान्यं लेभे अवस्तस्या एव वः पूर्व कृतः । 1 प्राणी की किसी भी अवस्था में, किसी भी कारण विशेष से हिंसा न करे | क्योंकि जो जीव प्राणियों का वध करते हैं, उन्हें नरक में महान् यातना भुगतनी पडी है । कहा भी है- 'तस्मान्न कस्यचिद्दिमा' इत्यादि । इस कारण मतिमान् साधु किसी भी प्राणी का प्राणपरोपण न करे । हिंसक जीव घोर नरक में गये हैं, जाएंगे और जा रहे हैं ||१|| यहाँ 'हिंसा' उपलक्षण मात्र है । उससे मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह पाप का भी ग्रहण करना चाहिए। ये सभी पाप शास्त्र से विपरीत आचरण करने वालों को नरक में ले जाने वाले हैं । यद्यपि नरक विपाल के अनेक निमित्त हैं तथापि हिंसा उनमें प्रधान है । अतएव शास्त्रकार ने यहां उसी का उल्लेख किया है । લાકમાં કાઈ પણ ત્રસ, સ્થાવર, સૂક્ષ્મ. ખાદર પર્યાપ્ત કે અપર્યાપ્ત જીવેાની “ વિરાધના કરવી જોઇએ નહી' એટલે કે તેણે કાઈ પણ પ્રાણીની, કોઈ પણું પરિસ્થિતિમાં, કૈાઈ પશુ કારણે હિંસા કરવી જોઇએ નહીં. તેણે એ વાત ભૂલવી ન જોઇએ કે પ્રાણીઓના વધ કરનાર જીવને નરક ગતિમાં નારક રૂપે ઉત્પન્ન થઈને ઘેર યાતનાએ ભાગવવી પડે છે કહ્યુ પણ છે કે— ‘तस्मान्न कस्यचिद्धियां' छत्याहि 1 1 だい આ કારણે બુદ્ધિમાન સાધુએ કાઈ પણ પ્રાણીના પ્રાથે તુ' ગૃપરે પણ(वियोग) ४२बु' नहीं' डि' वो धार नरम्भां गया छे, लय छे भने ?शेषा॥, અટ્ઠી' હિ'સા' પદના પ્રચેાગ દ્વારા મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, મૈથુન- અને પરિÁઢના ત્યાગનું પણ સૂચન કરાયું છે, એમ સમજવું.- આ બધા પાપોનુ સેવન કરનાર જીવેાને પણ નરકગતિની પ્રાપ્તિ થાય છે. જો કે નરકગતિમાં જવાનાં અનેક નિમિત્તો છે, છતાં પણ હિંસા તેમાં મુખ્ય નિમિત્ત રૂપ હોવાને કારણે સૂત્રકારે અહીં તેના જ ઉલ્લેખ કર્યા છે. 'જીવ અજીવ આદિ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ५ उ. २ नारकीयवेदनानिरूपणम् ४९ 'एगंतदिट्ठी' एकान्तदृष्टिः एकान्तेन निश्चला जीवादितत्त्वेषु दृष्टिः सम्यगर दर्शनं यस्य स एकान्तदृष्टिः निष्कम्पसम्यग्दृष्टिमान् इति । तथा 'अपरिग्गहे': अपरिग्रहः- बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितः। तु शब्दादाधन्तयोः सम्यग्दृष्टयपरिग्रहयोरुन पादानाद्वा सृषावानाऽदत्तादानमैथुनवर्जनमपि संगृहीतं भवतीति द्रष्टव्यम् अशुभकर्म तत्फलं च 'लोयस्स' लोकस्य अशुभकर्मचारिणस्त द्विपाकफलभुजो वा संसारिणः । यद्वा-कमायादिलक्षणलोकं तत् स्वरूपतः लक्षातश्च । तेन सम्यग्दृष्टयादियुक्तः सन् 'बुज्झिज्ज' वुध्येत जानीयात् ज्ञपरिज्ञया, ज्ञात्वा च 'वसं न गच्छे' कस्यापि कपायादिलोकस्य वशमधीनं न गच्छेत् । कषायादिभ्यो मुक्तो मेधावी पुरु: एतान् ___जीव अजीब आदि तत्वों पर जिलशी निश्चल श्रद्धा है अर्थात् जिसका सम्यग्दर्शन अचल है, वह यहां एकान्तदृष्टि विवक्षित है। जो बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह ले रहित है वह अपरिग्रह कहलाता है। यहां प्रारम्भ के सम्यग्दर्शन और अन्त के अपरिग्रह को ग्रहण करने से 'तु' शब्द के द्वारा मृषावाद, अदत्तादान और मैथुन का त्याग भी सूक्ष्म दृष्टि देने वालो के लिये संगृहीत हो जाता है। आशय यह हैं' कि सम्यग्दृष्टि तथा हिंसा आदि पापों का त्यागी मुनि अशुभ कर्म करने वाले और उसके फल को भोगने वाले संसारी जीवों को समझे अथवा कषायादि रूप लोक को स्वरूप एवं लक्षण से जाने । जानकर किसी भी कषायादि लोक के वशीभून न हो । आशय यह है कि कषाय आदि से मुक्त मेधावी पुरुष नरकों के स्वरूप को, उनके विभिन्न कारणों को शास्त्र के अनुसार जानकर लोक ત પર જેને અચલ શ્રદ્ધા છે, એટલે કે જેનું સમ્યગ્દર્શન અચલ છે, તેને અહીં એકાંતદષ્ટિ કહેવામાં આવેલ છે. જે મુનિ બાહ્ય અને આભ્યન્તર પરિગ્રહથી રહિત છે, તેને અપરિગ્રહી કહે છે. અહીં પ્રારંભના સમ્યગ્દર્શન અને અન્તના અપરિગ્રહને ગ્રહણ કરવાથી “તું” પદ દ્વારા મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, અને મિથુનને ત્યાગ પણ ગ્રહણ થઈ જાય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે સમ્યગ્દષ્ટિ તથા હિંસાદિ પાપને ત્યાગ કરનાર મુનિએ અશુભ કર્મ કરનારા અને તેનું ફળ ભેગવનારા સંસારી જીવોની દશાને વિચાર કરે જોઈએ. અથવા તેણે કષાયાદિ રૂપ લેકને સ્વરૂપ અને લક્ષણની અપેક્ષાએ સમજી લેવું જોઈએ. આ વાતને સમજી લઈને તેણે કઈ પણ કષાય આદિ સંસાર વધારનારા દેને વશ થવું જોઈએ નહીં. , આ સમરત કથનને ભાવાર્થ એ છે કે કષાય આદિથી મુક્ત મેધાવી to ho Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० सूत्रकृताङ्गसूत्रे नरकस्वरूपान् तत्तत्कारणानि च शास्त्रतो ज्ञात्वा, इह लोके करयापि त्रसस्यापरादिपाणिविशेषस्य हिंसां न कुर्यात् । किन्तु तीर्थकरोदितजीवादितस्वजाते श्रद्धां कृत्वां संयम पालयेदिति ॥२४॥ मूलम्-एवं तिरिक्खे मणुयामरसु चतुरंतऽणतं तयणुविवागं। से सहमेयं इति वेदेइत्ता कखेज कॉलं धुयमायरेज ॥२५॥ त्तिबेमि॥ ॥ इति नरयविभत्ती नाम पंचसज्झयणं समन्तं ॥ छाया-एवं तिर्यक्षु मनुनामरेपु चातुरन्तमनन्तं तदनु विपाकम् । स सर्वमेतदिति विदित्वा कांक्षत कालं ध्रुश्माचरेदिति ब्रवीमि ॥२५॥ ॥ इति नरकविभक्तिनामकं पञ्चममध्ययनं समाप्तम् ।। में स्थित किसी भी त्रस अथवा स्थावर प्राणी की हिंसा न करे, किन्तु तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित जीवादि तत्वों पर श्रद्धा रखता हुआ संयम को-पालन करे ॥२४॥ 'एवं तिरिक्खे' इत्यादि। शब्दार्थ-एवं-एचम्' इसी प्रकार नारक के जैसे 'तिरिक्खे-तिर्यक्षु' तिर्यञ्च 'मणुशामरेलु-मनुजाऽमरेपु' मनुष्य और देवताओं में भी 'चतुरंतऽणं तं-चातुरन्तमनन्तम्' चार गनिवाले और अनन्त ऐसे संसार को तथा 'तयणुविधाग-तदनु विपाकम्' उनके अनुरूप विपाक को जाने 'स-स' वह बुद्धिशाली पुरुष 'एयं-एतत्' इल 'सव्वं-सर्वम्' स्प बातों સુનિએ નરકના સ્વરૂપને જાણીને તથા નરકમાં ઉત્પત્તિ કરાવનારા ભિન્ન ભિન્ન કારને શાસ્ત્રોના આધારે જાણી લઈને, લેકમાં રહેલા કોઈ પણ ત્રસ અથવા સ્થાવર પ્રાણીની હિંસા કરવી જોઈએ નહીં, પરંતુ તેણે તીર્થકર દ્વારા પ્રરૂપિત જીવાદિ ત પર શ્રદ્ધા રાખીને સંયમનું પાલન કરવું જોઈએ. મારા ‘एवं तिरिक्खे' ध्या शहाथ-एवं-एवम्' 2411 घरे ना२४नी म 'तिरिक्खे-तिर्यक्षु' तिय" 'मणुयामरेसु-मनुजाऽमरेपु' मनुष्य भने हेक्तासामा ५ चतुरंतऽणतंचातुरन्तमनन्तम्' यातिवाा मने मन त मेवा ससारने तथा 'तयणुध्वियागंतदनु विपाकम्' तमना मनु३५ विपाने वाले, 'स-सः' ते भुद्धिशाली ५३५ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ५ उ. २ नारकीय वेदनानिरूपणम् પ્રવર अन्वयार्थः - ( एवं ) एवमनेन नरकप्रकारेण (तिरिकखे) तिर्यक्षु (मणुयाम रेस) मनुजाऽमरेषु (चतुरंतऽर्णतं ) चातुरन्तमनन्तं चातुरी विक्रमनन्तं संसार (तयबिवागं ) तदनुविपाकं तदनुरूपं कर्मफलं (स) सः - संयतः (एयं ) एतत् (स) सर्व - (इति वेदत्ता) इति वेदयित्वा ज्ञात्वा (कालं कंखेज्ज) कालं पण्डितमरण कांक्षेत प्रतीक्षेत तथा (धुवमाचरेज्ज) ध्रुवं संयमम् आचरेत् पालयेदिति ॥ २५॥ ܕ ܐ - टीका- ' एवं ' नरकवत् अशुभकर्मकारिणाम् 'तिरिक्खे' तिर्यक्षु 'मणुयाम रेसु' मनुजाऽमरेपु 'चतुरंवं' चातुर्गतिकम् - नरकनरामर तिर्यग्ररूपम् (अनंतं) अनन्तम्अन्तरदितम् ' वयणुव्विवागं तदनुरूपं विपाकम् - वत्तद्गतिजनितं फलं 'स' स विद्वान् 'एयं' एतद् 'सच' सर्वम् पूर्वोक्तरीत्या 'इति' इति तीर्थकर निरूपितप्रकारेण 'वेदत्ता' विदित्वा - ज्ञात्वा 'कालं कंखेज्न' कालं कांक्षेत - पंडितमरणरूपकालस्य _adai कुर्यात् । तथा 'धु' ध्रुवम् संयमम् 'आचरेज्ज' आचरेत् । अयं भावःको 'इति वेदहप्ता - इति वेदयित्वा' तीर्थकर निरूपित प्रकार से जानकर 'कालं कंखेज्ज - कालं कांक्षेत' अपने पण्डितमरण की प्रतीक्षा करे और 'धुवमाचरेज्ज-ध्रुवमाचरेत् संयम का पालन करे ||२५|| अन्वयार्थ -- इसी प्रकार अर्थात् नरक के जैसे तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति एवं चारनि वाले संसार को एवं उसके अनन्त विपाक को जाने । वुद्धिमान् संयमवान् पुरुष यह सच जानकर पण्डितमरण की इच्छा करता हुआ संयम का पालन करे ॥२५॥ टीकार्थ--अशुभ कर्म करने वालों को नरक के जैसे तिर्यच, मनुष्य तथा देवगति में जो चातुर्गतिक एवं अन्तहीन विपाक होता है, उसको पूर्वोक्त प्रकार से, तीर्थकर द्वारा की गई प्ररूपणा के अनुसार जानकर पण्डित मरणरूप काल की प्रतीक्षा करे और संयम का आचरण करे । ‘एयं-एतत्' मा ‘सव्वं सर्वम्' मधी वाताने 'इति वेदइत्ता - इति वेदयित्वा' तीर्थ ४२ नि३चित प्रहारथी लगीने 'कालं कंखेज्ज - कालं कांक्षेत' पोताना पंडितभरयुनी प्रतीक्षा ४३ भने 'धुवमाचरेज्ज - धुनमाचरेत्' सत्यमनु' पालन ४२ ॥२५॥ સૂત્રા—નરકગતિની જેમ તિર્યંચ, મનુષ્ય અને દેવગતિના અનન્ત ચાર ગતિવાળા સસારના વિપાકને પણ મુનિએ સમજવા જોઇએ. આ સ્વરૂપને ખરાખર જાણી લઈને, બુદ્ધિમાન મુનિએ મરણુ (પ'ડિત મરણ) સુધી સંયમનુ પાલન કરવું જોઇએ. ઘરપા ટીકા”અશુભ કર્મ કરનાર જીવને નરક તિચ, મનુષ્ય અને ઢેલું. ગતિ રૂપ ચતુતિ'ક સંસારમાં, અશુભ કમના અશુભ ફળ રૂપ અનન્ત વિપાક ભેગવવા પડે છે. તીર્થંકરા દ્વારા પૂર્વોક્ત પ્રકારે આ વિપાકની જે Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्र चातुर्गतिकसंसारमध्यपतितमाणिनां केवलं दुःखमेव यस्मात् , तस्मात् मोक्षस्य तत्कारणसंयमस्य एव अनुष्ठाने यावज्जीवं रतः सन् पंडितमरणमपेक्षमाणः 'यथा -- पापपुरुषाणां नरकगतिरुक्ता, एवमेव तियगुमनुजदेवगतिज्ञेया । एष चातुर्गतिक- संसारः-अनन्तं तत्तत्कर्माऽनुरूपं फलं प्रयच्छति' । इति विचार्य बुद्धिमान ज्ञात्वैतत्स वम् पंडितमरणमिच्छन् निरतिचारं संयम पालयेदिति ॥२५॥ .. इति श्री-विश्वविख्यात जगद्वल्लभादिपदभूषितवालब्रह्मचारि--'जैनाचार्य' - पूज्यश्री-घासीलालचतिविरचितायां श्री सूत्रकृताङ्गस्य "समयार्थवाधिन्या. ख्यायां" व्याख्यायां पंचमाध्ययनस्य द्वितीयोद्देशकः समाप्तः ॥५-२॥ : इति नरकविभक्तिनासकं पञ्चममध्यप्रनं समाप्तम्। ... भाव यह है-यहां नरकगति का विपाक विस्तारपूर्वक दिखलाया हैं। इससे यह नहीं समझना चाहिये कि चार गतियों में से केवल नरकगति में ही दुःखों का अनुभव करना पड़ता है, शेष तीन गतियों में नहीं । वास्तव में चारों गतियां दुःख से परिपूर्ण हैं। चारों गतियों के प्राणियों को दुःख है, अतएव मोक्ष या संयम के ही अनुष्टान में -जीवनपर्यन्त निरत रहे । पण्डिनमरण की प्रतीक्षा करे। यह चातुर्गतिक .. संसार अनन्त है और इसमें कर्मानुसार फल की प्राप्ति होती है । बुद्धिमान् इन सब तथ्यों को जानकर निरतिचार संयम का पालन करे॥२५॥ ॥ द्वितीय उद्देश समाप्त ॥ । पाँच अध्ययन समाप्त ॥ , પ્રરૂપણ કરવામાં આવી છે, તેનાથી માહિતગાર થઈને પંડિતમરણ રૂપ - કાળની પ્રતીક્ષા કરતા થકા સંયમની આરાધના કરવી જોઈએ. આ કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે–અહીં નરકગતિના વિપાકનું * વિસ્તારપૂર્વક વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે. તેથી એવું સમજવું જોઈએ નહીં કે ચાર ગતિઓમાંની માત્ર નરકગતિમાં જ દુઓનુ વેદન કરવું પડે છે. બાકીની ત્રણે ગતિઓમાં દુઃખ અનુભવવું પડતું નથી. ખરી રીતે તે ચારે ગતિએ દુઃખથી પરિપૂર્ણ છે. ચારે ગતિના છ દુખી છે, એ વિચારે કરીને સંસારના બંધનમાંથી મુક્ત થઈને મોક્ષની પ્રાપ્તિ કરવા માટે, સાધુએ સંયમનાં અનુષ્ઠાનમાં જ પ્રવૃત્ત રહેવું જોઈએ. તેણે પંડિતમરણની પ્રતીક્ષા કરવી જોઈએ આ ચતુર્ગતિક સંસાર અનંત છે, અને તેમાં કર્માનુસાર ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે. બુદ્ધિમાન પુરુષે આ સઘળાં તને સમજી લઈને નિરતિચાર સંયમનું પાલન કરવું જોઈએ. રપા બીજો ઉદ્દેશક સમાપ્ત છે છે પાંચમું અધ્યયન સમાપ્ત છે Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अं. ६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४५३ अथ श्रीमहावीरमस्तु तिनामकं पष्ठमध्ययनं प्रारभ्यते गतं पञ्चममध्ययनम्, साम्प्रतं षष्ठमारभ्यते । तस्य षष्टस्याध्ययनस्य पञ्चमाध्ययनाऽनन्तरं क्रमप्राप्तरूपाऽयमभिसम्बन्धः । अत्रानन्तरपूर्वाध्ययने नरक'स्वरूपं प्रतिपादितम् । तत्खलु भगवता तीर्थकरेण श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामिना - भिहितमिति तस्यैव भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनमकारेण चरितं प्रतिपाद्यते, उपदेष्टुर्गुणगुरुत्त्रात् शास्त्रस्यापि गुरुत्वं सिद्धं स्यादित्यनेन सम्बन्धेनायावस्थास्य षष्ठस्याध्ययनस्येदमादिमं सूत्रम् । 1 J 7 छठे अध्ययन का प्रारंभ (वीरस्तव) पंचम अध्ययन समाप्त हुआ। अब छठा अध्ययन प्रारंभ किया जाता है। पंचम के पश्चात् क्रम प्राप्त षष्ठ अध्ययन का सम्बन्ध इस प्रकार है- पाँचवें अध्ययन में नरक का स्वरूप वर्णित किया गया है । वह स्वरूप तीर्थंकर भगवान् श्री महावीर वर्द्धमानने कहा है । अतएव उन्हीं भगवान् महावीर के गुणों को वर्णन करने के लिए छठा अध्ययन कहते हैं क्योंकि उपदेष्टा गुणों से महान होता है और उससे शास्त्र की 'महत्ता सिद्ध होती है । इस सम्बन्ध से प्राप्त छठे अध्ययन का यह प्रथम सूत्र है - 'पुच्छिस्तु णं इत्यादि । છઠ્ઠા અયયનના પ્રાર‘ભ (वीरस्तव) પાંચમુ' અધ્યયન પૂરૂ થયુ, હવે છઠ્ઠા અધ્યયનની શરૂઆત થાય છે. પાંચમાં અધ્યયન સાથે આ અધ્યયનના આ પ્રકારના સબધ છે-પાંચમાં અધ્યયનમાં નરકના સ્વરૂપનું' વર્ણન કરવામાં આવ્યુ છે. તે સ્વરૂપનુ' તીર્થંકર ભગવાન શ્રી મહાવીર વ માને પ્રતિપાદન કર્યુ છે. તેથી તે ભગવાન મહા વીરના ગુણ્ણાનુ વર્ણન કરવા માટે આ છઠ્ઠું. અધ્યયન કહેવામાં આવે છે. ઉપદેશકે મહાન્ ણુાથી સપન્ન હાય છે, તેમના શુષ્ણેા ગાવાથી શાસ્ત્રની મહત્તા સિદ્ધ થાય છે. તેથી જ આ અધ્યયનમાં મહાવીર પ્રભુના ગુણુંાનુ વણુંન કરવામાં આવ્યુ છે. આ અધ્યયનતુ' સૌથી પહેલુ' સૂત્ર આ પ્રમાણે છે, पुच्छिंस्तु णं त्याहि, Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ सूत्रताका मूलम्-'पुच्छिस्सु णं समणां माहणां च, अगारिणो यो परतिस्थिया य । से के गंतहियं धम्मैमाहूँ, अणेलिसं साहु समिक्खयाए' ॥१॥ छाया-अमाक्षुः खलु श्रमणा ब्रह्मगाश्च, अगारिणो ये परतीर्यिकाश्च । __ स क एकान्तहितं धर्ममाह, अनीदृशं साधुसमीक्षया ॥१॥ अन्वयार्थ (समणा) श्रमणा यतयः (य) च पुनः (माहणा) ब्राह्मणाः (य) च पुनः (अगारिणों) अगारिणः क्षत्रियादयः, ये (परतित्थिया य) परतीथिकाच शाक्यादयः (पुच्छिस्ठ) अप्राक्षुः पृष्टवन्तः (से के इ) सः कः (णेगंतहिय) एकान्त. शब्दार्थ-लमणा-श्रमणाः। श्रमण 'य माहणा-च ब्राहमणाः 'य-च' और 'अगारिणो-अगारिणः । क्षत्रिय आदि 'परतिधिया घ-परतीर्थिकाश्च' और परतीथिक शाश्यादिने 'पुच्छिस्सु-अप्राक्षुः। पूछा कि 'से केह-सा का वह कौन है ? जिसने 'णेगंतहियं-एकान्तहितम् केवल हित. रूप 'अणेलिसं-अनीदृशम्' अनुपम 'धम्म-धर्म' धर्म 'लालुसभिक्खयाए -साधुसमीक्षया' सम्यक् प्रकार से विचार कर 'आहु-आह' कहा है ॥१॥ ____ अन्वयार्थ-श्रमणों, ब्राह्मणों, गृहस्थों और शाक्य आदि परती. -र्थिकों ने पूछा कि वह कौन है जिसने एकान्त हितकर और अनुपम धर्म को जो दुर्गति में गिरते हुए जीवों को धारण करता है-घचाता है और शुभ स्थान में धारण कराता अर्थात् पहुँचाता है-सम्पन्न प्रकार से जान श -समणः-श्रमणाः' श्रर 'य माहणा-च ब्रह्मणाः' मने ब्राह्मण 'य-च' भने, 'अगारिणो-अगारिणः' क्षत्रिय कोरे ‘परतित्थिया य-परतीथिकाच' अने. ५२तशय विषये 'पुच्छिस्तु-अप्राक्षुः पूछ्यु 'से केइ-सः क' ते आष्य छ १ २ ‘णेतहिय-एकान्तहितम्' 30 हित३५ 'अणेलिसं-अनीशम्' अनुपम 'धम्म-धर्मम्' धर्म 'साहु समीक्खयाए-साधु समीक्षया' अभ्यः प्रथा वियाशन 'आहु-आहे' डर छे. ॥१॥ અન્વયાર્થ_શ્રમ, બ્રાહ્મણ, ગૃહસ્થ અને શાકય આદિ પરતીર્થિકોએ સુધમાં સ્વામીને આ પ્રકારને પ્રશ્ન પૂછયે-દુર્ગતિમાં પડતાં જેને બચાવીને શુભસ્થાનમાં પહોંચાડનાર, એકાન્ત હિતકર અને અનુપમ ધર્મને સમ્યક મકારે જાણીને તેની પ્રરૂપણ કરનાર તીર્થંકર મહાવીર પ્રભુ કેવાં હતા?” Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४५५ हितम् (अक्सिं) अनीदृशम् - अनन्यसदृशम् (धम्मं ) धर्म - दुर्गतिःसृतजन्तुधारकशुमस्थानस्थापकरूपम् (साहुसमिवखयाए) साधुसमीक्षया समता ( भहु) आह-कथितवानिति ॥ सू०१ ॥ " टीका - पञ्चमाध्ययनपष्टाध्ययनयोः सम्बन्धः प्रतिपादितः, अनन्तरसूत्रेण चाऽयं सम्बन्धः तीर्थकरप्रतिपादितमार्गेण ध्रुवमाचरन् पण्डितमरणमपेक्षते, इति बालमरणेन नरकप्राप्तिरिति अनन्तरसूत्रे कथितम् । तत्र भवति जिज्ञासा, यद् एतादृशधर्मस्य प्रतिपादकस्तीर्यकरः कथंभूतो येनोपदिष्टोऽयं मार्गः - इत्येतत् पृष्टवन्तः - तदेवाह - (पुच्छिस्सु) इत्यादि । अनन्तरोदितमेवंप्रकार कनरकस्वरूप श्रुम्वा संञ्जातवैराग्याः श्रमणब्राह्मगादयः केन प्रतिनादितमित्येतदिति सुधर्मस्वामिनम् -. करके कहा है ? 'आहु' यहाँ गाथा में जो बहुवचन का प्रयोग किया गया है सो आर्ष होने के कारण है ॥१॥ टीकार्थ- पाँचवें और छठे अध्ययन का सम्बन्ध कहा जा चुका है ! प्रस्तुत सूत्र का अनन्तर सूत्र के साथ यह सम्बन्ध है । इससे पहले सूत्र में कहा गया है कि साधु तीर्थकर द्वारा प्रतिपादित मार्ग पर चलता हुआ मोक्ष एवं संयम का आचरण करे और पण्डित मरण की अपेक्षा करे । बालमरण से नरक की प्राप्ति होती है । यहाँ ऐसी जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि इस प्रकार के धर्म के प्रतिपादक तीर्थकर कैसे थे जिन्होंने इस मार्ग का उपदेश दिया है ? इस जिज्ञासा से प्रेरित होकर जो प्रश्न किया गया, उसका प्रस्तुत सूत्र में दिग्दर्शन कराया गया है । ગાથામાં આવેલ ‘આદુ’ પદમાં જે મહુવચનના પ્રયાગ કરવામાં આવ્યે છે, તે આષ હોવાને કારણે કરાયા છે. ટીકા પાંચમાં અધ્યયન સાથે છઠ્ઠા અધ્યયનના કેવા સમધ છે, તે પ્રકટ કરીને હવે સૂત્રકાર પાંચમાં અધ્યયનના છેલ્લા સૂત્ર સાથે છઠ્ઠા અધ્ય યનના પહેલા સૂત્રને સબધ પ્રકટ કરે છે. છેલ્લા સૂત્રમાં એવુ· પ્રતિપાદ્યન કરવામાં આવ્યુ` કે સાધુએ તીથ કર દ્વારા પ્રતિપાતિ માર્ગે ચાલીને સયુમનુ' પાલન કરવુ જોઈએ. તેણે પતિ મરણની જ પ્રતીક્ષા કરવી જોઈએ. ખાલમરણુ દ્વારા નરક આદિ ગતિની પ્રાપ્તિ થાય છે-મેાક્ષની પ્રાપ્તિ થતી નથી. આ પ્રકારના ધર્માંનું પ્રતિપાદન કરનાર તીર્થંકર કેવાં હશે, એ જાણવાની જિજ્ઞાસા થાય તે સ્વાભાવિક છે. આ પ્રકારની જિજ્ઞાસાથી પ્રેરાઈને જે પ્રશ્ન પૂછવામાં આવ્યું છે, તેનું આ સૂત્રમાં દિગ્દર્શન કરાવવામાં આવ્યું છે. Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ सूत्रकृतागसूत्रे अमाक्षुः - पृष्टवन्तः । ( ं) इति वाक्यालङ्कारे । यद्वा-जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिनं प्रत्याह-गुरो ! केनेत्थंभूतो धर्मः संसारसागराद् उत्तारणसमर्थः प्रतिपादितः, इत्येतद् वध्वो मां पृष्टवन्तः, इति जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिनं कथयति - (समणा) श्रमणा निग्रन्थादयः (माहणा) ब्राह्मगाः - प्रसिद्धा, तथा - ( अगारिणो) भगारिणः- क्षत्रियादयो गृहस्थाः, अगारं - गृहं विद्यते येषां तेऽगारिणः । तथा - ( परवित्थिया य) परतीर्थि काथ, परंतीर्थिकाः - शाक्यादयः खलु (पुच्छिहसु) अपक्ष - मां पृष्टवन्त इत्यर्थः, किमिति पृष्टवन्त इत्यत आह - ( से के) इत्यादि । (से केs) स कः (i) वाक्यालङ्कारे ( पहिये) एकान्तहितम्, दुर्गतिप्रसृतजीवधारकम् तथा शुभस्थाने मापकं च (अणेलिस) अनीदृशम्, अनु तमम्-अनुपमम्, (धम्मं ) - श्रुतचारित्रलक्षणम्, ( साहु सक्खियाए ) साधुसमीक्षा, साध्वीवासौ समीक्षेति साधुसमीक्षा यथा वस्थित वस्तुपरिच्छित्तिः तया साधुसमीक्षया अथवा साधुसमीक्षया समभाव पूर्वोक्त नरक के स्वरूप को श्रवण करके संसार से विरक्त होकर श्रमण ब्राह्मणादिक सुधर्मा से पूछने लगे यह किसने कहा है ? अथवा जंबू स्वामी सुधर्मा से कहते हैं - हे गुरुवर्य इस संसारसागर से पार पहुँचाने में समर्थ इस प्रकार का धर्म किसने प्रतिपादन किया है ? यह प्रश्न अनेकों ने मुझसे पूछा है कि निर्ग्रन्थ आदि श्रमण, ब्राह्मण, अगारी अर्थात् क्षत्रिय आदि गृहस्थ और परतीर्थिक अर्थात् शाक्य आदि इन लोगोंने पूर्वोक्तरूप प्रश्न किया है, इसका उत्तर देते हैं वह कौन था जिसने दुर्गति की ओर जाते जीवों को सहारा देनेवाले, शुभ स्थान में पहुँचानेवाले तथा अनुपम श्रुत चरित्र रूप धर्म को यथार्थ रूप से जानकर अथवा समभावपूर्वक कहा है ? નરકના પૂર્વોક્ત સ્વરૂપનું શ્રવણ કરીને, સ’સારથી વિરક્ત થઈને શ્રમા, બ્રાહ્મણ્ણા આદિ સુધર્માં સ્વામીને પૂછત્રા લાગ્યા આ પ્રકારનું કથન કાણે કર્યુ” છે? અથવા જ પ્રૂસ્વામી સુધર્માં સ્વામીને પૂછે છે-હે ગુરૂવ`1 સૌંસારસાગરને તરાવનાર એવા આ પ્રકારના અનુપમ ધર્મનું પ્રતિપાદન કર્ણે કર્યુ છે ? આ પ્રકારના પ્રશ્ન અનેક લેકે દ્વારા મને પૂછવામાં આવે છે.’ S. ' હવે એ વાત પ્રકટ કરવામાં આવે છે કે નિથ આદિ શ્રમણ, બ્રાહ્મણુ, અગારી (ક્ષત્રિય આદિ ગૃહસ્થે), અને શાકય આદિ પરતીથિકા તેમને (स्वामीने) या प्रश्न पूछे है એમાં તે ઉપદેશક કાણુ હતા કે જેમણે દુર્ગતિમાં જનારા જીવેાને ખચાવીને શુભસ્થાનમાં (મેાક્ષમાં) લઈ જનાર અનુપમ શ્રુતચારિત્ર ધર્મને થા રૂપે જાણીને તે ધર્મની પ્રરૂપણા કરી છે ?’ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ६७ तया (आहु) आह, इति । श्रमणब्राह्मणक्षत्रियपरतीथिकाः पृष्टवन्तः य एकान्तरूपेण कल्याणकरं सर्वतः श्रेष्ठ धर्म विज्ञाय कथितवान् स कः ? इति सुधर्मस्वामिन निवेदयति जम्बृस्वामी, एवम् उपदेष्ट्रविषयिणी जिज्ञासा प्रादुरभूत् प्रष्ट्वणामिति भावः ।। सू०१॥ मूलम् -'कहं च णाणं कहें दंसणं ले', लीलं कहं गार्यसुयात आली। जाणासिणं भिक्खु ! जहातहेणं, ___ अहाँसुमं हि जहा णिसं' ॥२॥ छाया-कथं च ज्ञानं कथं दर्शनं तस्य, शीलं कथं ज्ञातसुतस्य आसीत् । ___जालासि खलु भिक्षो ! याथातथ्येन, यथाश्रुतं ब्रूहि यथा निशान्तम् ॥२॥ अन्वयार्थ हे गुरुवर्थ । इति जम्बूस्वामी पृच्छति-(ले जायसुयरस) तस्य ज्ञातसुंतस्य-क्षत्रियकुमारस्य वर्द्धमानस्वामिनः (गाणं) ज्ञानम्-विशेषावबोधकं ज्ञानम् (कह) तात्पर्य यह है कि श्रमणों, ब्राह्मणों, गृहस्थों और अन्पत्तीधिकोंने ऐसा पूछा कि-एकान्त रूप से कल्याणकारी और सर्वोत्सल धर्म को जानकर जिसने प्रतिपादन किया, वह कौन था ? ऐसा जम्बू स्वामीने सुधर्मास्वामी से निवेदन किया । अर्थात प्रश्नकर्ताओं को उपदेशक के विषय में जिज्ञासा उत्पन्न हुई ॥१॥ 'कहं च णाणं' इत्यादि। शब्दार्थ-'से नायपुत्तस्स-तस्थ ज्ञातपुत्रस्य' उस ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर स्वामीका 'णाणं-ज्ञानम्' ज्ञान 'कह-कथम्' कैसा था 'कह दंसणं-कथं दर्शनम् तथा उनका दर्शन कैसा था? 'सीलं कहं आसी આ પ્રશ્ન દ્વારા સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે જીવેનું એકાન્તરૂપે કલ્યાણ કરનારા, સર્વોત્તમ ધર્મનું પ્રતિપાદન કરનારા તે ઉપદેશક કોણ હતા અને કેવાં હતા, તે જાણવાની શ્રમણ, બ્રાહ્મણ, ગૃહસ્થ આદિ સૌને જિજ્ઞાસા થાય છે. ૧૧ 'कहं च णाणं'' त्याल शहाथ-'से नायपुत्तस्त्र-तस्य ज्ञातपुत्रस्य' ते ज्ञातपूत्र सगवान महावीर स्वाभी नु ‘णाणं-ज्ञानम्' ज्ञान 'कह-कथम्' तु 'कह देसणं'-कथं दर्शनम्' तथा तमनु शन- तु ? 'सीलं कह आसी-शील कथं असीत्' तथा मनु शla अर्थात यमनियम ३५ माय२ . संतुः? 'भिक्खु-भिक्षी' 8 साधु 'जहातहेणं जाणासि-याथातथ्येन जानसि' तसा यथार्थ माया ng! सु० ५८ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ - - - - - - सूत्रकृताङ्गसूत्रे कथं-कीदृशमासीत् (कहं दसण) कथं दर्शनम्-कीदृशं सामान्यार्थपरिच्छेदकं दर्शनम् (सीलं कहं आसी) शीलं-यमनियमरूपं कोशमासीत् (भिखु) मिक्षो ! हे भदन्त ! (जहातहेणं जाणासि) याथातथ्येन जानीषे-सम्मावाच्छसि (अहा सुर्य) भगवन्मुखाद् यथाश्रुतं (जहा णिसंत) यथा निशान्तं येन प्रकारेण गुरुकुलनिवासिनाऽधारितं तत् (बूहि) ब्रूहि-कथय इति ॥ २ ॥ शीलं कथं आसीत् तथा उनका शील अर्थात् यमनियम रूप आचरण कैसा था' भिक्खु-भिक्षी' हे साधो 'जहा तहेणं जाणालि-याथातथ्येन जानासि' तुम यथार्थ प्रकार से यह जानते हो इसलिये 'अहा-सुयं-यथाश्रुतं' जैसा तुमने सुना है 'जहा णिसंतं-यथा निशान्तम्' और जैसा निश्चय किया है वह 'बहि-जूहि' हले कह सुनाइये ॥२॥ । अन्वयार्थ-जम्बू स्वामी प्रश्न करते हैं-हे गुरुवर्य ! उन ज्ञातपुत्र अर्थात् क्षत्रियकुल के आभूषण रूप बर्द्धमान स्वामी का ज्ञान अर्थात् वस्तु के विशेष धर्मों को जाननेवाला बोध कैसा था ? उनका दर्शन अर्थात् वस्तु के सामान्य धर्म को जाननेवाला उपयोग केला था? उनका यम नियम रुप शील किस प्रकार का था ? हे भदन्त ! यह आए यथार्थ रूप से जानते हो, अतएव जैसा आपने सुना है या गुरुकुल में निवास करते हुए आपने जैसा देखा है, वह अनुग्रह करके मुझे कहिए ॥२॥ छ १, भेटमा भाट 'अहा सुयं-यथा श्रुतं' र तमे सासन्युछे 'जहा णिसंतयथा' निशान्तम्' मने वो निश्चय य छ । 'बूहि-ब्रूहि' समन કહી સંભળાવો. | ૨ | - સૂત્રાર્થ–જ બૂસ્તી સુધર્મા સ્વામીને પૂછે છે કે હે ગુરૂવર્ય! તે જ્ઞાતાપુત્ર એટલે કે ક્ષત્રિયકુળના આભૂષણ સમાન વર્ધમાન સ્વામીનું જ્ઞાન (વતના વિશેષ ધર્મોને જણનાર બોધ) કેવું હતું? તેમનું દર્શન-(વસ્તુના સામાન્ય ધમને જાણનારો ઉપયોગ, કેવું હતુ ? તેમનું યમનિયમરૂપ શીલ કેવા પ્રકારનું હતું? હે ગુરૂ મહારાજ! આપ તે યથાર્થ રૂપે જાણે છે, આપ તેમના અંતેવાસી હતા, તેથી આપે તેમની સમીપમાં રહીને તેમનાં વચનામૃતનું પાન કરેલું છે, આપને તેમના જીવનને અભ્યાસ કરવાની તક મળેલી છે, તો કૃપા કરીને તે મહાપુરૂષના જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર આદિના વિષયમાં અમને બધુ કહે મારા : ' , Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४५२ टीका-(से) तस्य (णायसुयस्स) ज्ञातसुतस्य-क्षत्रियकुमारस्य भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः (गाणं) ज्ञानम्-विशेषावबोधकं केवलज्ञानलक्षणम् , (कह) कथम् कीदृशमासीत् , (कहं दसणं) कथं दर्शनम्-समान्यार्थपरिच्छेदकं कीदृशं केवलदर्शनम् , (सीलं कह) शीलं-यमनियमादि कथम् कीदृशम् (आसी) आसीद (भिक्खु) भिक्षो!-निरवघमिक्षणशीलगुरुवर्य ! (जहालहेणं जाणासि) याथा तथ्येन यद् यादृशं वस्तु अनेकान्तात्मरम्, तत् तादृशमेव त्वं जानासि । (ण) वाक्यालङ्कारे (अहासुयं) यथाश्रुतं यथा-येन प्रकारेण भगवता श्रीमतीर्थकरमुखात् श्रुतम् । श्रुत्वा च (जहा णिसंत) यथा निशान्तं-येन रूपेणाऽवधारितमात्मनि, संयमपालनापतिवन्धविहारधर्मदेशनादिकं च कीदृशं भगवत असीदिति यथाश्रुतं यथा___ टीकार्थ-प्रत्येक वस्तु सामान्य विशेषात्मक है । सामान्य और विशेष धर्मों का समूह ही वस्तु कहलाता है। उसमें से सामान्य अंश का ग्राहक जो है उसका उपयोग दर्शन कहलाता है और विशेष अंश का चोधक उपयोग, ज्ञान कहलाता है। सर्वप्रथम इन्हीं के विषय में प्रश्न किया गया है कि-ज्ञातपुत्र भगवान महावीर का ज्ञान किस प्रकार का था? उनका दर्शन किस प्रकार का था ? तदनन्तर भगवान् के आचार के विषय में प्रश्न किया गया है कि भगवान का शील अर्थात् यम नियम आदि आधार किस प्रकार का था ? भगवान् ! आप याथातथ्य जानते हैं, अतएव भगवान् के मुख से जैसा सुना है और सुनकर आपने जैसा अवधारण किया है अथवा गुरुकुल में निवास करते हुए संयमपालन ટકાથ–પ્રત્યેક વસ્તુ સામાન્ય વિશેષાત્મક હોય છે. સામાન્ય અને વિશેષ ધર્મોના સમૂહને જ વસ્તુ કહેવાય છે. તેમાંથી સામાન્ય અંશનું જે ગ્રહણ કરવાવાળું છે તેને ઉપગ-દર્શન કહે છે અને વિશેષ અંશના બોધકને ઉપગ-જ્ઞાન કહેવાય છે સૌથી પહેલ પ્રશ્ન મહાવીર પ્રભુના જ્ઞાનદર્શનના વિષયમાં પૂછવામાં આવેલ છે તે પ્રશ્ન આ પ્રમાણે છે-મહાવીર પ્રભુનું જ્ઞાન ક્યા પ્રકારનું હતું તેમનું દર્શન કયા પ્રકારનું હતું ત્યારબાદ ભગવાનના આચારના વિષયમાં એ પ્રશ્ન પૂછવામાં આવ્યું છે કે મહાવીર પ્રભુનું શીલ એટલે યમનિયમ આદિ આચાર કેવાં હતાં ? આપે મહાવીર પ્રભુના મુખારવિન્દમાંથી ધર્મતત્વની પ્રરૂપણ સાભળેલી છે અને તેમના અનેવાસી તરીકે તેમની જ સમીપમાં રહીને તેમના આચાર વિચારો ને પ્રત્યક્ષ અનુભવ મેળવે છે. વળી આપ શ્રુતપારગામી છે. તે આપ વીર પ્રભુની સમીપે સાંભળે અને સાંભળીને હૃદયમાં ઉતારેલે ઉપદેશ તથા મહાવીર પ્રભુના જ્ઞાન, Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० सूत्रकृताङ्गसूत्र धारितं यथा च दृष्टं तत्सर्वं मह्यं (वृहि) बहि कथय । भगवतां तीर्थकराणां मुखारन्दिाद् विनिःसृतसर्वार्थागमस्य भवताश्रुतत्वात् , समाहिताय विनीताय विनेयाय श्रद्धावते गुरूपदिष्टमुपदेष्टव्यमितिस्थितिः शास्त्रीयेति ।। सु०२॥ '. एवं जम्बूस्वामिना पृष्टो भगवान् सुधर्मस्वामी माह-(खेयन्त्रए) इत्यादि, भूलम्-खेयन्नए से' कुसले महेसी, अणंत नाणी य अणंतदनी' । जसंसिणो चक्खुपहे ठियस्स, जाणाहि धम्मं च धिइं" च पेहि ॥३॥ . . छाया-खेदज्ञः स कुशलो महापिः , अनन्तज्ञानी च अनन्तदर्शी।। - यशस्विनश्चक्षुःपथे स्थितस्य जानीहि धर्म च धृतिं च प्रेक्षस्व ॥३॥ अप्रतिवन्ध विहार एवं धर्मदेशना आदि जो कुछ देखा है सो यथार्थरूप से कहिए । यह सब भगवान् का कैसा था ? " आशय यह है कि भगवान् तीर्थंकर के मुखारविन्द से उपदिष्ट सभी कुछ कहिए। आप श्रुतपारगामी है, अतएव आपने जो अवधारण किया या देखा है, वह भी कहिए । ___शाल की मर्यादा ऐसी है कि एकाग्रचित्तवाले, विनीत और श्रद्धावान् शिष्य को ही गुरु बारह उपदिष्ट तत्त्व का उपदेश देना चाहिए ।।२।। 'वेधन्दए' इत्यादि। शब्दार्थ-'-ला। वह भगवान महावीर जमात स्वामी 'खेयनए- खेदज्ञः' संसार के प्राणियों का दुःख जानते थे 'कुसले सहेलीદર્શન અને શીલના વિષયમાં આપે જે દેખ્યું છે, તે સાંભળવાની અમને ઘણી જ જિજ્ઞાસા થઈ છે. તો કૃપા કરીને આપ અમને તે બધું યથાર્થપણાથી ४ही समजावा." - શાસ્ત્ર પ્રણાલી એવી છે કે એકાગ્રચિત્ત વિનીત, અને શ્રદ્ધાવાન શિષ્યને જ ગુરુ દ્વારા ઉપદિષ્ટ તત્વને ઉપદેશ દેવો જોઈએ. જબૂસ્વામીમાં આ પ્રકારની ચોગ્યતા રહેલી હોવાથી સુધમાં સ્વામી તેમના પ્રશ્નનો ઉત્તર આપે છે. જે ૨ - 'खेयन्नए' छत्याहि शहाथ-'से-स' ते लगवान महावीर मान स्वामी 'खेयन्नए-खेदज्ञः' संसारमा प्राथियाना मे नयता उता 'कुसले - महेसी-कुशलः महर्षिः' ते Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुगवर्णनम् ४६१ -- अन्वयार्थ:-(से) स वर्द्धमानस्वामी (खेयन्नए) खेदज्ञः-संसारिणी कर्मविपाकजदुःखज्ञायकः (कुमचे महेसी) कुंशल:-कर्मोच्छेदने निपुणः, महा ऋषि:सर्वत्र सदोपयोगवान (अनंतनाणी) अनन्तज्ञानी- केवलज्ञानवान् (य) च-पुन: (अणंदंसी) अनन्तदर्शी-केवलदर्शनवान् आसीत्। एतादशस्य (जसंसिणो) यशस्विनः (चक्खुाहे ठियस्प) चक्षुःपथे स्थितस्य-लोचनमार्गे भवस्थकेवल्यवस्थायां विद्यमानस्य (धम्म) धर्म श्रुतचारित्ररूपं (जागाहि) जानीहि (धियं च पेहि) धृति च तस्य भगवतो धैर्य प्रेक्षस्व-सम्यक् कुशाग्रबुद्धया पर्यालोचय इति ॥ सू०३ ॥ कुशलः महर्षिः वह आठ प्रकार के कर्मों का छेदन करनेवाले और महान् ऋषि थे 'अनंतनाणी-अनन्त ज्ञानी वे अनन्त ज्ञानवाले 'य-च' और 'अणंतदंसी-अनन्तदर्शी' केवल दर्शन वाले थे 'जसंसिणोयशस्विनः कीर्तिवाले तथा 'चक्खुपहे ठियस्स-चक्षुःपथे स्थितस्थ' जगत् के लोचनमार्गमें स्थित भगवान के 'धम्म-धर्म' अतचरित्ररूपधर्म को 'जाणाहि-जानीहि तुम जानो 'धियं च पेहि-धृति च प्रेक्षस्व एवं उनकी धीरता को विचारो॥३॥ ___अन्वयार्थ-बद्धपान स्वामी खेदज्ञ थे अर्थात् संसारी जीवों कों कर्म के परिपाक से होनेवाले दुःख का ज्ञाता थे। वह कुशल अर्थात् कर्मों का उच्छेदन करने में निपुण थे। महाऋषि थे अर्थात् उनका उपयोग सर्वत्र और सर्वदा लगा ही रहता था। वह अनन्त ज्ञानी और अनन्त दर्शनी अर्थात् सर्वज्ञ और सर्वदर्शी थे ! उन यशस्वी तथा मा २ना भानु छेतुन ४२वावाणी मने महान ऋषि त 'अनतनाणी' अनन्तज्ञानी' ते मत ज्ञानवा 'य-छ' भने 'अणतदेखी-अनन्तंदी' पल शनवाण ता. 'जसिणो-यशस्विन.' हीती वा तथा 'चक्खुपहे ठियस्ल-चक्षु पथे स्थितस्य' सतना सायन भागमा स्थित सगवाननी 'धम्म -धर्म' श्रुत यारित्र ३५ धम 'जणाहि-जानीहि' त तये। 'धियं च पेहिधृत्तिं च प्रेक्षस्व' अवम तेमनी धीरताने वियारे।'. ॥3॥ સૂત્રાઈ–વર્ધમાન સ્વામી ખેદજ્ઞ હતા એટલે કે કર્મના પરિપાક રૂપે સંસારી જીવને જે દુખે સહન કરવા પડે છે. તેના જાણકાર હતા. તેઓ કુશલ હતા, એટલે કે કર્મોને નાશ કરવામાં નિપુણ હતા. તેઓ મહર્ષિ હતા એટલે કે તેમને ઉપગ સર્વત્ર અને સર્વદા પ્રવૃત્ત જ રહેતે હતો. તેઓ અનન્ત જ્ઞાન અને અનન્ત દર્શનથી સંપન્ન એટલેકે સર્વજ્ઞ અને સર્વદર્શી હતા. તે યશસ્વી તથા ભવસ્થકેવલી અવસ્થામાં આપની (શિષ્યસમૂહની), Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सूत्रकृतीगसूत्रे, ____टीका-(से) स:-असौ भगवान् महावीरः चतुस्त्रिंशदतिशययुक्तः, पञ्चत्रिशद्वाणीगुणसम्पन्नः (खेयन्नए) खेदज्ञः खेदं-संसारोदरविवरवर्तिजीवानां कर्मविपाकजनितं चतुर्गतिभ्रमणलक्षणं दुःखं जानातीति खेदज्ञः, दुःखनिराकरणसमर्थोपदेशदानात् । अथवा-(खेयन्नए) क्षेत्रज्ञः क्षेत्रं सकलकर्मणामुत्पादनस्थान जनातीति क्षेत्रज्ञः यद्वा क्षेत्रमाकाशं तदुजानातीति क्षेत्रज्ञा, लोकालोकस्वरूपपरिज्ञानवान् तथा-(कुसले) कुशल:-प्राणिनां दुःखकारणकर्मणोऽपनरने उपदेशदाना.. दिना दक्षः। यद्वा-कौ-आत्मरूपपृथिव्यां शेते तिष्ठति प्रादुर्भवतीति कुश:भवस्थकेवली अवस्था में चक्षु के पथ में स्थित भगवान् के श्रुतचारित्र धर्म को समझो और भगवान के धैर्य को सम्यक् प्रकार से कुशाग्र बुद्धि से विचारो ॥३॥ - टीकार्थ-चौतीस अतिशयों से सम्पन्न एवं वाणी के पैंतीस गुणों से विभूषित वह भगवान महावीर खेदज्ञ थे, अर्थात् संसार में भ्रमण करने बाले जीवों को कर्मविपाक से उत्पन्न होनेवाले एवं चार गतियो में भ्रमण रूप दुःख को जाननेवाले थे । उत्त दुःख को दूर करने में समर्थ उपदेश दिया है, अतएव वे उसके ज्ञाता थे। अथवा 'खेयन्नए' का अर्थ है क्षेत्रज्ञ अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों के उत्पाद स्थान को जाननेवाले थे। अथवा क्षेत्र आकाश को जाननेवाले थे अर्थात् उन्होंने लोक और आलोक के स्वरूप को जाना था। भगवान् कुशल थे अर्थात् प्राणियों को दुःख पहुँचानेचाले कर्मों का निवारण करनेवाला उपदेश देने में दक्ष थे अथवा भग દષ્ટિ સમક્ષ પ્રત્યક્ષ વિદ્યમાન મહાવીર પ્રભુના શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્મને બરાબર સમજી લે અને તેમના ધર્યગુણના સારી રીતે કુશાગ્રબુદ્ધિથી વિચાર કરે. એવા ટીકાર્યું–ત્રીશ અતિશયથી અને વાણને પાંત્રીશ ગુણેથી સંપન્ન એવા તે મહાવીર પ્રભુ ખેરા હતા એટલે કે સંસારમાં ભ્રમણ કરનારા જીને કમવિપાકને લીધે ભેગવવા પડતાં દુખના તથા ચાર ગતિઓમાં ભ્રમણ કરતાં કરતાં સહન કરવા પડતાં દુખના જાણકાર હતા. તેમણે તે દુખને દૂર કરવાને માર્ગ બતાવ્યું છે. સંસારના દુઃખનું કારણ તથા તે દુઃખને દૂર કરવાને ઉપાય તેઓ જાણતા હતા, તેથી જ તેમને ખેદજ્ઞ કહ્યા છે, अथवा 'खेयन्नए' । अर्थ क्षेत्र ५ थाय छे. तसे! Ai, ना पाह સ્થાનને જાણનારા હતા. અથવા તેઓ ક્ષેત્રને જાણનારા હતા એટલે કે લેક અને અલેકના સ્વરૂપના જાણકાર હતા. તેઓ કુશલ હતા, એટલે કે પ્રાણીઓને સુખ દેનારા કર્મોનું નિવારણ કરનારો ઉપદેશ દેવામાં દક્ષ (નિપુણ) હતા. Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४६३ अष्टविधं कर्म, तादृशान् कुशान् लुनाति-छिनत्ति इति कुशलः । प्राणिनां स्वस्य च कर्मणां विनाशनेन पटुरित्यर्थः, दृश्यते हि इहापि सर्वसमर्थं कुशलप्रयोगः, यथाऽयं व्याकरणे कुशलः कुगलोऽयं न्यायशाने इत्यादि। तथा-भगवानपि भावकुशाष्टविधक्रमविनाशनेऽतिशयेन कुशलः । (महेसी) महा ऋषिः, महांश्वासौ ऋषिश्व महर्षिः-अत्यन्तोग्रतपश्चणानुष्ठायित्वाद् अतुलपरीपहोपसर्गसहनाञ्चेति । भगवान् तपोचलेन घातिकर्मचतुष्टयं विनाश्य संमाप्त केवलज्ञानः । अतः सर्वत्र सर्वदा तस्योपयोगस्तिष्ठत्येव न तु छद्मस्थ इव विचिन्त्य जानाति। किन्तु सर्वानेव पदार्थान् वान् 'कु' अर्थात् आत्मा रूपी भूमि में 'श' अर्थात् शयन करनेवाले रहने या उत्पन्न होनेवाले 'कुश' अर्थात् आठ प्रकार के कर्मों को लुनने वाले अर्थात् छेदन करनेवाले होने से 'कुशल' थे। आशय यह है कि भगवान् प्राणियों के तथा अपने कर्मों का विनाश करने में अतिशय पटु थे । लोक में भी सर्वसमर्थ अर्थ में कुशल शब्द का प्रयोग होता है, जैसे यह व्याकरण में कुशल है, यह न्याय या सर्वशास्त्रों में कुशल है इत्यादि । इसी प्रकार भगवान् भी अष्ट विध कर्म रूप भाव 'कुश' का विनाश करने में अतिशय कुशल थे । भगवान महानषि थे उप्रतपश्चरण करने से और घोर परीषहोपसर्ग सहन करने से महाऋषि थे। कर्मों की निर्जरा करके उन्होंने चार घातिक कों का क्षय कर दिया था, अतएव उनका उपयोग सर्व पदार्थों में सदैव व्यास ही रहता था। वे छद्मस्थ की भाँति सोच विचार नहीं जानते थे, समस्त पदार्थो को हस्ता અથવા ભગવાન “' એટલે કે આત્મા રૂપી ભૂમિમાં, “જ્ઞ' એટલે શયન ४२नारा-२ना। अथवा उत्पन्न थनार, 'कुश' मे मा ४२नर्भानु છેદન કરનારા હતા, તે કારણે તેમને કુશલ કહ્યા છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે મહાવીર પ્રભુ પિતાનાં કર્મોને તથા પ્રાણીઓનાં કર્મોને વિનાશ ४२वामा निपुण तत. भां ५५ 'सौथी समर्थ' ना अर्थमा 'शव' शहने। પ્રયોગ થાય છે. જેમકે “તે વ્યાકરણમાં કુશલ છે, તે ન્યાયમાં કુશલ છે, તે સર્વશાસ્ત્રોમાં કુશલ છે” એજ પ્રમાણે મહાવીર પ્રભુ પણ આઠ પ્રકારના કર્મ રૂપ કુશને વિનાશ કરવામાં અતિશય કુશલ હતા. તેઓ ઉગ્રતપસ્યા કરનારા હતા અને ઘેર પરીષહ અને ઉપસર્ગો સહન કરવાવાળા હતા તેથી તેમને મહર્ષિ કહ્યા છે. કર્મોની નિર્જરા કરીને તેમણે ચાર પ્રકારનાં ઘાતિયા કમેને ક્ષય કરી નાખ્યું હતું, તેથી તેમનું જ્ઞાન-ઉપગ સર્વ પદાર્થમાં સદા વ્યાપ્ત ન રહેતું હતું. તેઓનું જ્ઞાન છોના જેવું અપૂર્ણ કે મર્યાદિત ન હતું Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દુષ્ટ सूत्रकृताङ्गसूत्रे इस्ताऽऽमलकसिन सर्वदैव पश्यति, आविर्भूतसांप्रतिकात् केवलज्ञानात् ज्ञानमतिबन्धकज्ञानावरणीयस्य कर्मगो विनष्टत्वात्। यथा - आशुमज्ञस्तथाऽतिविषमतपञ्चरणशीलोऽपि न तु परतीर्थिकवत् परिग्रहपरिवृतः (अनंतनाणी) अनन्तज्ञानी - अविनाशज्ञानदान् अन्त शब्दस्य नाशार्थे प्रसिद्धेः, न विद्यते अन्तो विनाशो यस्य तत् अनन्तम् अनन्तं च तज्ज्ञानमिति अनन्वज्ञानं वद्विद्यते यस्य सोऽनन्तज्ञानी । अथवा - अनन्तपदार्थपरिच्छेदकं विशेषग्राहकं ज्ञानं यस्य सोऽनन्तज्ञानी, (य) च (अणंतदसी) अनन्तदर्शी, अनन्तं समान्यार्थ परिच्छेदकं दर्शनं विद्यते यस्य सोऽनन्तदर्शी केवलदर्शनीत्यर्थः । यद्यपि ज्ञानदर्शने समानार्थके, इति एकेनापि निर्वाहे 'मलक के सम्मान सदैव जानते थे, क्योंकि ज्ञान में रुकावट उत्पन्न करने वाला उनका ज्ञानावरणीय कर्म क्षीण हो चुका था । भगवान् जैसे महाऋषि थे, उसी प्रकार अत्यन्त घोर तपश्चरण करने वाले भी थे । परतीर्थिको के समान वे परीग्रह से युक्त नहीं थे । भगवान् अनन्तज्ञानी थे । अन्त शब्द का एक अर्थ 'विनाश' भी प्रसिद्ध है, अतएव अनन्त का अर्थ है अविनाशी । जिसका अन्त अर्थात् विनाश न हो वह अनन्त । ऐसे ज्ञानवाले को अनन्तज्ञानी कहते हैं । अथवा अनन्त पदार्थो को जाननेवाला विशेष ग्राहक ज्ञानवाला अनन्तज्ञानी कहलाता है । और भगवान् अनन्तदर्शी थे । सामान्य अर्थ को जानने वाला दर्शन जिनका अनन्त हो, उन्हें अनंतदर्शी कहते हैं । यद्यपि ज्ञान और दर्शनक તેથી છદ્મસ્થાની જેમ વિચાર કરી કરીને કે- કલ્પના કરીને કૈાઈ પદાથ ને જાણવાના પ્રયત્ન કરતા નથી. તેએ સમસ્ત પદાર્થોના સ્વરૂપને હાથમા રહેલા આમળાની જેમ જાણુવાને સમથ હતા, કારણુ કે જ્ઞાનના અવરોધક જ્ઞાનાવરણીય કાઁના તેમણે ક્ષય કરી નાખ્યા હતા. મહાવીર પ્રભુ જેવાં મહાઋષિ હતા, એવાં જ મહાન તપસ્વી પશુ હતા. જેએ પરતીથિકાની જેમ પરિગ્રહથી યુક્ત ન હતા. ભગવાન અનન્ત જ્ઞાની હતા. . ‘અન્ત' પદ્મ વિનાશના અમાં વપરાય છે. જેના અન્તુ હાતા નથી એવા પદાને અનત કહે છે મહાવીર પ્રભુને અનન્ત જ્ઞાનની ધારક કહ્યા છે કારણ કે તેમનુ” જ્ઞાન કદી નાશ ન પામે એવું–અવિનાશી હતુ. અથવા અનંત પદાર્થાને જાણનાર વિશેષ ગ્રાહક જ્ઞાનવાળાને અનન્તજ્ઞાની કહેવાય છે. મહાવીર પ્રભુ અનન્તદર્શી હતા. સામાન્ય અને જાણનારૂ અનન્ત દર્શન જેઓ ધરાવતા હોય છે, તેમને અનન્તદશી કહે છે. જો કે, જ્ઞાન અને Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४६५ पदान्तरोपादानं पुनरुक्तितां विभर्ति तथापि विशेषार्थावगहिज्ञानं सामान्यार्थपरिच्छेदकं दर्शनमित्युभयो विवेकः। अत एव यथास्थानमुभयो निवेश इति । 'जसं सिणो) यशस्विनः-साऽतिशायि यशः शालिनः, अगवतो यशः, नरसुरासुरातिशायि वर्तते तादृशयशस्वतो भगवतः (चक्खुपहे ठियस्स) चक्षुष्पथे स्थितस्य-लोकस्य चक्षुःपथे-लोचनमार्गे स्थितस्य-शत्रस्थ केवल्यवस्थायां वर्तमानस्य, यद्वा-लोकानां सूक्ष्मव्यवहितपदार्थाविभावेनाऽऽलोकवत सहकारित्या चक्षुर्भूतस्य भगवती महावीरतीर्थकरस्य, भगवदुए देशेनैव जीवादिपदार्थज्ञानसंभवात् । (धम्म धर्मम् -संसारोद्धरणस्वभावस् । भगवता प्रणीतं प्रतिपादितं वा धर्म-श्रुतचारित्रलक्षणम् अर्थ समान है, अतएव किसी भी एक शब्द से काम चल सकता है तो दूसरे शब्द का प्रयोग करने से पुनरुक्ति दोष होता है, तथापि दोनों में भेद है। ज्ञान वस्तु के विशेष धनों का ग्राहक होता है और दर्शन सामान्य अर्थ का अर्थात् वस्तु के लामान्य अंश का परिच्छेदक है। अतएव दोनों को यथास्थान प्रयुक्त किया गया है। भगवान् सर्वाधिक यश से सुशोभित अर्थात् समस्त मनुष्यों देवों और असुरों से बढकर यशवाले तथा भवस्थ केवली अवस्था में लोक के चक्षु पथ में स्थित थे । अथवा भगवान लोगों को आलोक के समान सूक्ष्म और व्यवहित पदार्थों को प्रकाशित करने वाले होने से चक्षु के समान थे, क्योंकि भगवान् के उपदेश से ही जीवादि पदार्थों દર્શનનો અર્થ સમાન છે. તેથી કઈ પણ એક શબ્દને પ્રવેશ કરવાથી કામ ચાલી શક્ત, છતાં અહીં બને પદને પ્રવેગ કરવાથી પુનરુક્તિ દોષ લાગતો નથી? આ શંઠનું નિવારણ કરતા સૂત્રકાર કહે છે કે જ્ઞાન અને દર્શનના અર્થમાં આ પ્રકારનો તફાવત છે-જ્ઞાન વસ્તુના વિશેષ ધર્મોનું ગ્રાહકોય છે. પરંત દર્શન સામાન્ય અર્થનું એટલે વસ્તુના સામાન્ય અંશનું પરિચછેદક (ગ્રાહક-બોધક) છે, તેથી આ બંનેને પ્રવેશ કરવાથી પુનરુક્તિ દોષને અવકાશ રહેતું નથી. મહાવીર પ્રભુ સર્વાધિક યશથી વિભૂષિત હતા એટલે કે સમસ્ત મનુષ્યો. દે અને અસુરે કરતાં અધિક યશસંપન્ન હતા તથા ભવસ્થ કેવલી અવસ્થામાં લેકના દષ્ટિપથમાં વિદ્યમાન હતા, અથવા તેઓ સૂક્ષમ અને વ્યવહિત (વ્યવધાનવાળા-સ્થળ) પદાર્થોને પ્રકાશિત કરનારા હવાથી ચક્ષુના સમાન હતા, કારણ કે તેમના ઉપદેશ વડે જ જીવાદિતાનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત થઈ શકે Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ अकृतांगमने (जाणाहि) जानीहि-हे जम्बः ! त्वमवगच्छ ! तथा-(धिई च पेहि) धृति च प्रेक्षस्व-तस्य-भगवतः, कर्णकीलन चरणे च क्षीरस्न्धनाद्युपसर्गा जाताः तथापि निश्चला चारित्राचलनस्वभावां धृति-धैर्यम् प्रेक्षस्व-कुशाग्रबुद्धया पर्यालोचय । अथवा-तैः श्रमणादिभिः सुधर्मस्वामी अभिहितः यथा भवान् तस्य तीर्थंकरस्य भगवतो महावीरस्य यशस्विनश्चक्षुष्पथे व्यवस्थितस्य धर्म धृतिं च जानाति, ततोऽस्मान् (पेहि) कथय । श्रीसुधर्मस्वामिशिष्यवर्गेभ्यः कथयति-भगवान् महावीरः सांसारिकजीवानां दुःखं जानाति, अष्टविधकर्मणां विनाशकः सदा सर्वत्रोपयोगाद (अनन्तज्ञानी तथा को ज्ञान होता है ! ऐसे भगवान् के अत और चारित्र रूप धर्म को जानो तथा उनके धैर्य को देखो। उनके कानों में कील ठोंके गए, पावों पर खीर पकाई गई, इत्यादि अनेक उपसर्ग होने पर भी वे चारित्र से चलायमान नहीं हुए उनके इल धैर्य का विचार करो। • अथवा उन श्रमणों ब्राह्मणों आदि ने सुधर्मा से कहा तुम विहार आदि में तीर्थकर भगवान् प्रभु के साथ ही विचरते थे अतः यशस्वी और चक्षुगोचर महावीर प्रभु के धर्म और धैर्य को जानते हो, अतएव हमें कहो। . भाव यह है श्री मुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी आदि शिष्यवर्ग से कहते हैं-भगवान महावीर सांसारी जीवों के दुःखों को जानते थे, अष्टविध कर्मों के विनाशक थे, सदा सर्वत्र उपयोगवान् थे, अनन्तછે. એવા મહાવીર પ્રભુના શ્રત અને ચારિત્ર રૂમ ધર્મને જાણે અને તેમના - ધૈર્યનો વિચાર કરે. તેમના કાનમાં ખીલા ઠેકવામાં આવ્યા, તથા તેમના પગ પર ખીર પકવવામાં આવી, છતાં પણ તેમણે એ બધાં ઉપસર્ગોને સમભાવ પૂર્વક સહન કર્યા. ઘરમાં ઘર ઉપસર્ગોને દૈયપૂર્વક સહન કરીને તેઓ સંયમના માર્ગમાં અવિચલિત રહ્યા. તેમના આ ધર્યને વિચાર કરે. અથવા તે શ્રમણ, બ્રાહા વગેરેએ સુધમાં સ્વામીને કહ્યું તમે વિહાર આદિમાં મહાવીર પ્રભુની સાથે જ વિચરતા હતા. યશસ્વી અને ચક્ષુગોચર મહાવીર પ્રભુના ધર્મ અને ધર્મને તમે જાણે છે, તે વિષે અમને ४पानी पा ४३।" તાત્પર્ય એ છે કે-સુધર્મા સ્વામી જબૂસ્વામી આદિ શિષ્યસમુદાયને કહે છે કે મહાવીર પ્રભુ સંસારી જીવના દુઃખને જાણતા હતા. અષ્ટવિધ કર્મનો વિનાશર્કર હતા, સદા સર્વત્ર ઉપગવાન હતા, અનંતજ્ઞાન અને Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रृं. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् the -अनन्तदर्शनवान् आसीत् । (एतादृशो यशस्वी भगवान् सर्वलोकानां लोचनपथे वर्तमानस्तस्य धर्म धृति च त्वं जानीहि-तधैर्य विचारय इति ॥३॥ साम्प्रतं सुधर्मस्वामी तद्गुणान् वर्णयितुमाह-उड्डू" इत्यादि। मूलम्-'उड़े अहेयं तिरिय दिसासु, तसा य जै थावरा जे य पाणां ।। से णिचं णिच्चेहिं समिक्खपन्ने, दीवे धम्म लमियं उदाह' ॥४॥ छाया-अर्चमधस्तियग् दिशाम, जसाश्च ये स्थवरा ये च प्राणाः। स नित्यानित्याभ्यां समीक्ष्य प्रज्ञो, दीपइव धर्म समितमुदाह ॥४॥ ज्ञानवान् और अनन्तदर्शनवान् थे। ऐसे यशस्वी भगवान् सबके लोचनपथ में वर्तमान थे। उनके धर्म को तुम जानो और धैर्य पर विचार करो ॥३॥ सब सुधर्मा भगवान् के गुणों का वर्णन के लिए कहते हैं'उडूढं' इत्यादि। शब्दार्थ-'उडूं-ऊर्च' अपर 'अहेयं-अधः' नीचे 'तिरियं-तिर्यग् ! तिरछे 'दिसासु-दिक्षु' दिशाओं में 'तसा य जे-त्रसाश्च ये, जो त्रस और 'थावरा जे य पाणा-स्थावराः ये च प्राणाः' स्थावर प्राणी रहते हैं उन्हें जिचाणिच्चेहि-नित्यानित्याचा' नित्य और अनित्य दोनों प्रकार का 'समिक्ख-समीक्ष्य' जानकर 'से पन्ने-स प्रज्ञः। उन केवलज्ञानी भगवानने 'दीवेव-दीप श्व' दीप के समान 'समियं-समितम्' समता અનન્ત દર્શનથી યુક્ત હતા. એવા યશસ્વી ભગવાન સૌના ચહ્યુપથમાં વિદ્યમાન હતા. તેમના ધર્મને તમે જાણે અને તેમના ધૈર્યને વિચાર કરો. ૩ हवे सुधा स्वामी महावीर प्रभुना गुणानुवर्णन ४२ छ–'उड्ढे ४त्यादि शहाय-- 'उड्ढ-ऊध्र्व' ७५२ 'अहेयं-अध' नाय 'तिरिय-तिर्यगू' तिरछी 'दिसासु-दिक्षु शियोमा 'तसा य जे-साच ये' २ स मन थावरा जे य-पाणा-स्थावराः ये च प्राणाः' स्था१२ पापी २९ छे. भने 'णिच्चाणिच्चेहि-नित्यानित्याभ्यां नित्य भने मनित्य ' अहाना 'समिक्ख-समीक्ष्य' gीन से पन्ने-स. प्रज्ञः' ते पज्ञानी नवीन 'दीव Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ट: : - - . . . . . . . सूत्रकृताङ्गसूत्रे .............................. - . अन्वयार्थः-'उड़' ऊर्ध्वम् (अहेय) अधः (तिरिय) तिर्यक् (दिसामु) दिक्षु (तसाय जे) त्रसाश्च ये (थावरा जे य पाणा) स्थावराश्च ये प्राणाः-माणिनः सन्ति तान् (णिचाणिच्चेहिँ) नित्यानित्याभ्याम् (समिक्ख) समीक्ष्य-केवलज्ञानेनाs. र्थान् परिज्ञाय (से पन्ने) स प्रज्ञः स एव प्राज्ञः (दीवेव) दीप इव वस्तुबोधकतेजोराशिरिव (सभियं) समितं समतया युक्तम् (धम्म) धर्म श्रुतचरित्ररूपम् (उदाहु) उदाह-वंदति ॥ ४ ॥ टीका-(उड़) ऊर्ध्वम् (अहेय) अधः (तिरियं) तिर्यक् (दिसासु) दिक्षु चतुर्दश रज्ज्वात्मकलोके । (जे) ये (तसा य) प्रसाश्च-त्रस्यन्तीति त्रसाः तेजोवायुरूप विकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियमेदात् त्रिधा । तथा च (जे थावरा) ये स्थावराः पृथिव्यबूवनस्पतिभेदात् त्रिधा। (जे य पाणा) ये च प्राणा:-ये च उच्छ्वासादिरूप प्राणवन्तः से युक्त 'धम्म-धर्मम्' श्रुतचारित्ररूप धर्म का 'उदाहु-उदाह' कथन किया है ॥४॥ • अन्वयार्थ-ऊर्य, अधः एवं तिर्यक् दिशाओं में जो भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उन्हें नित्य और अनित्य दोनों प्रकार से केवलज्ञान द्वारा जानकर दीप के समान वस्तुतत्त्व को प्रकाशित करनेवाले धर्म का स्वभाव से विशिष्ट कथन किया है ॥ ४ ॥ . . टीकार्थ-ऊध्र्व दिशा में, अधोदिशा में तथा तिर्थी दिशाओं में अर्थात चौदह राजू परिमित लोक में जो स अर्थात् त्रास को अनभव करनेवाले तेजस्काघ, वायुशाय, विकलेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय के भेद से तीन प्रकार के जीव हैं उनको और जो पृथ्वोसाय, अप्काय वनस्पतिकाध के मेद से तीन प्रकार स्थावर जीव है, जो उच्छवास आदि प्राणों से युक्त हैं, उनको प्रकृष्ट प्रज्ञा से केवल ज्ञान से भगवान् '-दीप इव हिवाना समान् 'समिय-समितम्' समताथा युत 'धम्म-धर्मम्' श्रुतयारि३३५ भनु 'उदाहु-उदाह थन ४२ छे. ॥ ४ ॥ * સત્રાર્થ –ઊર્વ દિશા, અદિશા અને તિર્ય દિશામાં જે ત્રસ અને થાવર જીવો રહેલા છે, તેમને કેવળજ્ઞાન દ્વારા નિત્ય અને અનિત્ય એમ અને પ્રકારે જાણીને, દીપકની જેમ વસ્તુતત્વને પ્રકાશિત કરનારા ધર્મનું, મહાવીર પ્રભુએ સમભાવ પૂર્વક પ્રતિપાદન કર્યું છે. જો ટીકાઈ–ઉર્વ દિશામાં, અદિશામાં અને તિછી દિશામાં-એટલે કે ચૌદ રાજ પ્રમાણ લોકમાં જે ત્રસ અને સ્થાવર જીવો રહેલા છે તેમને મહાવીર પ્રભુએ પિતાની પ્રકૃઇ પ્રજ્ઞા વડે-કેવળજ્ઞાન વડે નિત્ય અને અનિત્ય 3 જાય. એટલે કે દ્રવ્યાર્થિક નયની અપેક્ષાએ તેમણે તેમને નિત્ય જાણ્યા અને પર્યાયાંર્થિક નયની અપેક્ષાએ તેમણે અનિત્ય જાણ્યા. Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समयार्थवोधिनी टीका प्र.शु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४६२ तान् जीवादिपदार्थान् (से) स भगवान् (पन्ने) प्राज्ञः, प्रकणं जानाति. इति प्रज्ञः प्रज्ञ एव माज्ञः (णिचाणिच्चेदि) नित्यानित्याभ्यां द्रव्यार्थपर्यायार्थाश्रयणात् द्रव्येण नित्यत्वं पर्यायेणाऽनित्यत्वम् (समिक्ख) समीक्ष्य-विमल केवलालोकेन सर्वानेव द्रव्यपर्यायात्मकान् पदार्थान् परिज्ञाय, भगवान् (दीवे.) दीप इव सकलप्राणवां जीवानां पदार्थस्य प्रकाशेन दीप इव दीपः, यथा दीपः पदार्थजातान प्रकाश्य दर्शयति, तथा भगवानपि सकलपदार्थप्ररूपणात् पदार्थान प्रकाशयतीति भवति दीपसमता, अथवा-संसारसागरे निमज्जतामशेषजन्तूनां द्वीप इवं रक्षकः । ने नित्य और अनित्य रूप से जाना । अर्थात् द्रव्याथिकनय से नित्य और पर्यायार्थिक नघ से अनित्य जाना। उन्होंने अपने निर्मल केवलज्ञान रूपी आलोक के प्रकाश से समस्तद्रव्य-पर्यायात्मक पदार्थों को जाना। भगवान् पदार्थों के वास्तविक स्वरूप को प्रकाशित करने के कारण समस्त प्राणियों के लिए प्रदीप के समान थे। जैसे दीप पदार्थपुंज को प्रकाशित करके दिखला देता है उसी प्रकार भगवान् भी सकल पदार्थों की प्ररूपणा करके उन्हें प्रदर्शित करते हैं। अतएव वह दीप के समान हैं। अथवा मूल में आये हुए 'दीवेव' का अर्थ है-द्वीप के समान संसार में डूबते हुए समस्त प्राणियों के लिए भगवान् दीपक के समान रक्षक हैं। इस प्रकार के गुणगणों से विराजमान भगवान् ने असार संसार-सागर से उद्धार करने वाले જે પ્રાણીઓ ત્રાસને અનુભવ કરે છે તેમને ત્રસ કહે છે. તેજસકાય, વાયુકાય અને દ્વીન્દ્રિયોથી લઈને ૫ ચેન્દ્રિય પર્યન્તના જીવને ત્રસ કહે છે. પૃથ્વીકાય, અપકાય અને વનસ્પતિકાયના ભેદથી ત્રણ પ્રકારના સ્થાવર જીવો કહ્યા છે. આ જ ઉચ્છવાસ આદિ પ્રાણેથી યુક્ત છે. આ સમસ્ત જીને કેવળજ્ઞાનના પ્રભાવથી ભગવાને નિત્ય અને અનિત્ય રૂપે જાણીને તેમને વિષે પ્રરૂપણા કરી. દ્રવ્યની અપેક્ષાએ તેમણે સમસ્ત જીવોને નિત્ય જાણ્યા અને પર્યાયની અપેક્ષાએ તેમને અનિત્ય જાણ્યા. કેવળજ્ઞાન રૂપી પ્રકાશ દ્વારા સમસ્ત દ્રશ્ય અને પર્યાયાત્મક પદર્થોને જાણીને, ભગવાને પદાર્થોના વાસ્તવિક સ્વરૂપને પ્રકાશિત કર્યું, તે કારણે તેમને પ્રદીપ (દીપક) ના સમાન કહેવામાં આવ્યા છે. જેવી રીતે દીપક પિતાના પ્રકાશ વડે પદાર્થ પુંજને પ્રકાશિત કરીને તેમનું સ્વરૂપ બતાવે છે, એ જ પ્રમાણે ભગવાને પણ સમસ્ત પદાર્થોની પ્રરૂપણ शत. तमना २१३५ने शित यु छे. मथq! 'दीवेव' ! पहना अर्थ દ્વીપસમાન પણ થાય છે. સંસાર સાગરમાં ડૂબતાં પ્રાણીઓને માટે ભગવાન Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे एवंभूतगुणगणगुम्फितो भगवान् असारसंसारसागराद् उद्धारकम् (धम्म) धर्मम्श्रुतचारित्राख्यम् , (समिय) समितम्-समभावयुक्तम् , तथोक्तम् (जहा पुण्णस्स कत्थई तहा तुच्छस्स कत्थइ) यथा पुण्यस्य-पूर्णस्य चक्रवादेः कथ्यते तथा तुच्छस्य-रङ्कस्य कथ्यते इति । (उदाहु) उदाह-प्रतिपादति-त्रसस्थावरात्मकलोकस्यानुग्रहाय, न तु मानपूजार्थम् । केवलज्ञानी तीर्थकरो लोकस्य सकलसंसाराऽन्तर्गत बसस्थावरादिसकल जीवान् नित्यानित्यत्वाभ्यां ज्ञात्वा लोकानामनुग्रहबुद्ध्या श्रुतचारित्राख्यं धर्ममुदाह-अत्रापि मूले आपत्वादेव बहुवचनमिति ॥४॥ श्रुतचारित्र धर्म का समभाव से प्ररूपण किया, अर्थात् रागद्वेष से रहित होकर कथन किया । आगम में कहा है-'जहा पुण्णस्त' इत्यादि । जिसे पूर्ण अर्थात् ऋद्धि संपत्ति से सम्पन्न चक्रवर्ती आदि जनों को उपदेश देते हैं उसी प्रकार तुच्छ अर्थात् धनादि से रहित जनों को भी उपदेश देते हैं । वे सम्पन्न और विपन्न जनों के प्रति समभाव धारण करके सशको समान रूप से धर्मदेशता करते हैं।' ___ भगवान् ने सन्मान या पूजा के लिए धर्मप्ररूपणा नहीं की परन्तु लोक के अनुग्रह के लिए की है। तार्य यह है कि केवलज्ञानी तीर्थकर भगवान महावीरने लोक के समस्त त्रस और स्थादर जीवों को नित्य अनित्य रूप से जान कर, अनुग्रह करने के लिए श्रुनचारित्र धर्म का निरूपण किया। 'उदाहु' पद में भी आर्षपयोग होने से ही बहुवचन का प्रयोग किया गया है ॥४॥ દ્વીપના સમાન આધર રૂપ હતા. આ પ્રકારના ગુણેથી વિભૂષિત મહાવીર પ્રભુએ અસાર સંસાર સાગરમાંથી ઉદ્ધાર કરનાર શ્રત ચારિત્ર રૂપ ધર્મની સમભાવ પૂર્વક પ્રરૂપણા કરી–એટલે કે રાગદ્વેષથી રહિત થઈને તેમણે તેનું प्रतिपा6 यु. भागममा युछे है-'जहा पुण्णस्स' तसा ऋद्धि-पत्तिथी સંપન ચક્રવર્તી આદિ મહાપુરુષને જે પ્રમાણે ઉપદેશ દે છે, એ જ પ્રમાણે તુચ્છ કેને-દરિદ્રોને પણ ઉપદેશ દે છે. તેઓ સંપન્ન અને વિપત્તન (સમૃદ્ધ અને દરિદ્ર) પ્રત્યે સમભાવ ધારણ કરીને, સૌને સમાનરૂપે ધર્મદેશના કરતા હતા ભગવાને સત્કાર, સન્માન અને પૂજાને માટે ધર્મપ્રરૂપણા કરી નથી, પરંતુ લોકોનું કલ્યાણ કરવાની ભાવનાથી કરી છે. આ સૂત્રને ભાવાર્થ એ છે કે કેવળજ્ઞાની તીર્થકર ભગવાને (મહાવીરે) લેકના સમસ્ત ત્રસ અને સ્થાવર જીને નિત્ય અનિત્ય રૂપે જાણીને, જી : પર અનુગ્રહ કરવાને માટે શ્રુતચારિત્રરૂપ ધર્મનું નિરૂપણ કર્યું છે. ૪ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४७१ मूलम्-से संबदंसी अभिभूयनाणी, णिरामगंधे धिइमंठियप्पा। अणुत्तरेसठवजगंलि विनं, गंा अतीते अभये अगाऊ॥५॥ छायास सर्वदर्शी अभिभूयज्ञानी, निरामगन्धो धृतिमान् स्थितात्मा । अनुत्तरः सर्वजगति विद्वान् , ग्रन्थादतीतोऽभयोऽनायुः ॥५॥ अन्वयार्थ (से) स महावीरः (सव्वदंसी) सर्वदर्शी-सामान्यतः सर्वपदार्थविषयकदर्शनशीलः (अभिथूयनाणी) अभिभूयज्ञानी-केवलज्ञानी (णिरामगंधे) ' शब्दार्थ-से-सः' वह महावीरस्वामी 'सचदंसी-सर्वदर्शी' समस्त पदार्थों को देखनेवाले 'अभिभूयनाणी-अभिभूयज्ञानी' केवलज्ञानी 'णिरामगंधे-निरामगंधः' मूलगुण और उत्तरगुण विशुद्ध चारित्र का पालन करने वाले 'धिहम-धृतिमान्' धृति युक्त और 'ठियप्पा-स्थितात्मा' आत्मस्वरूप में स्थित थे 'सव्वजगंखि-सर्वजगत्लु' संपूर्ण जगत् में वह 'अणुत्तरे विज्ज-अनुत्तरो विद्वान् । सबसे उत्तम विहान थे 'गंथाअतीते-ग्रन्थातीतः' बाह्य और आभ्यंतर दोनों प्रकार की अन्थियों से रहित 'अभए-अभयः' निर्भय और 'अणाउ-अनायुः' चारों प्रकार की आयु से रहित थे ॥५॥ 'से सव्वदंसी' इत्यादि। अन्वयार्थ-भगवान् महावीर सर्वदर्शी अर्थात् सामान्य रूप से समस्त पदार्थों के दर्शन से युक्त थे। केवलज्ञानी थे। मूलगुणों और _ 'से सव्वदंसी' Avalथ-से-स' ते महावीर स्वामी 'सव्वदंसी-सर्वदर्शी' मा २४ पहा ना 'अभिभूयनाणी-अभिभूयज्ञानी' ज्ञानी णिरामगधेनिरामगधः' भुसगुण भने उत्तगुथी विशुद्ध यात्रिनु पालन ४२वावा 'धिइम-धृतिमान्' धृति युति भने 'ठियप्पा-स्थितात्मा' मात्म २१३५मा स्थित हता, 'सव्वजगसि-सर्वजगत्सु' स पूर्ण तम त 'अणुत्तरे विज्ज-अनुत्तरों विद्वान्' माथी उत्तम विद्वान सता, 'गंथा अतीते-ग्रन्थातीतः माह मने मायत२ मा १२नी अथियाथी २खित 'अभए-अभयः' निया भने 'अणाउ-अनायुः' यारे प्रा२ना मायुथी २हित तi. ॥५॥ સૂત્રાર્થ–મહાવીર પ્રભુ સર્વદશી હતા એટલે કે તેઓ સામાન્યરૂપે સમસ્ત પદાર્થોનાં દર્શનથી યુક્ત હતા. તેઓ કેવળજ્ઞાની હતા, તેઓ મૂળ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गो निरामगन्थ:-मूलोत्तरगुणाभ्यां विशुद्ध वारित्रपालक (धिइमं) धृतिमान्-धैर्यशील (ठियप्पा) स्थितात्मा-आत्मस्वरूपे स्थितः (सव्वजगंसि) सर्वजगति (अणुत्तरे विज्ज) अनुत्तरो विलक्षणो विद्वान् (गंधा अतीते) ग्रन्थादतीत:-स वालाभ्यन्तरमन्यादतीतो निर्ग्रन्थः (अमए) अमयो -भयरहितः (अणाउ) अनायु:-चतु. विधायुवर्जित इति ॥ ५॥ . टीका-(से) स भगवान महावीरस्त्रिलोकप्रसिद्धः, प्रसिद्धार्थकोऽत्रतच्छन्दः । इहापि तथैव योऽयं भगवान् महावीर त्रिलोकप्रसिद्धः। (सब्ददंसो) सर्वदर्शी सर्व त्रसस्थावरात्मकं जगद्रष्टुं नीलं यस्य सः, (अभिभूयनाणी) अभिभूयमत्यादीनि ज्ञानानि पराजित्य यद् ज्ञानं केवलपदवाच्यं वर्तते, तादृशं केवलज्ञानं विद्यते यस्य सोऽमिभूयज्ञानी । ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षो भवतीति मोक्षसाधन ज्ञान पदय मोक्षाश्यवक्रियां दर्शयति-(णिराम) इत्यादि, (णिरामगंधे) निरामगन्धः उत्तरगुणों से विशुद्ध चारित्र के पालक थे। धैर्यवान् , आत्मस्वरूप में स्थित, सम्पूर्ण जगत् में सर्वोत्तमज्ञानी बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित, निर्भय तथा चारों प्रकार की आयु से रहित थे ॥५॥ ___टीकार्थ-यहां 'तस्' शब्द का प्रयोग 'प्रिसिद्ध' इस अर्थ में किया गया है, अतएव 'से' का अर्थ है-तीनों लोकों में प्रसिद्ध । भगवान् महावीर तीनों लोकों में प्रसिद्ध थे। सर्वदर्शी अर्थात त्रस एवं स्थावर रूप जगत् को देखने वाले थे । छनस्थों को होने वाले मति आदि चारों अपूर्ण ज्ञानों को हटाकर उन्होंने सम्पूर्ण केवलज्ञान प्राप्त किया था। ज्ञान और क्रिया से मोक्ष प्राप्त होता है, अतएव मोक्ष के साधन ज्ञान का कथन करने के पश्चात् अब क्रिया का उल्लेख करते हैं ગુણે અને ઉત્તરગુણની અપેક્ષાએ વિશુદ્ધ ચારિત્રના પાલક હતા, તેઓ વૈર્યવાન, આત્મસ્વરૂપમાં સ્થિત, સંપૂર્ણ જગતમાં સર્વોત્તમ જ્ઞાની, બાહા અને આભ્યન્તર પરિગ્રહથી રહિત, નિર્ભય તથા ચારે પ્રકારના આયુથી રહિત હતા.પ साथ-मही 'तत्' शv४ प्रसिद्धन अभा १५रायो छे, तेथी 'से' પદને અર્થ “ત્રણે લેકમાં પ્રસિદ્ધિ સમજવાનું છે. ભગવાન મહાવીર ત્રણે લેકમાં પ્રસિદ્ધ હતા. તેઓ સર્વદર્શી ત્રસ અને સ્થાવર રૂપ જગતને દેખનારા હતા. મતિજ્ઞાન આદિ ચારે અપૂર્ણજ્ઞાન કે જેમને છઘમાં સભાવ હોય છે, એવાં અપૂર્ણ જ્ઞાનને બદલે તેમણે સંપૂર્ણ જ્ઞાનરૂપ સર્વશ્રેષ્ઠ કેવળ જ્ઞાન પ્રાપ્ત કર્યું હતું. જ્ઞાન અને ક્રિયા દ્વારા મોક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે. મોક્ષના સાધનરૂ૫ જ્ઞાનની વાત કરીને હવે ફિયાની વાત કરવામાં આવે છે.-ભગવાન મહાવીર Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीक्षा प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४७३ : निर्गतोऽपगतः आन:-अविशोधिकोटयाख्यो दोपः तस्य गन्धः सम्बधो यस्माद् यस्य का स निरामगन्धः-निरविचारमूलोत्तरगुणयुक्तचारित्रक्रिीयानित्यर्थः, , (धिइस) धृतिमात्-अनेकप्रक्षारोपगैरुपद्रुतोऽपि मेरुबह अविनम्पतया संयम धृतिशीलः, 'ठियप्पा स्थितारमा, रिथनो व्यवस्थितः सकलकर्माऽपगमनेन स्वरूपे आत्मा यस्य स स्थिवाला, 'अणुत्तरे' अनुत्तरः नास्ति उत्तर प्रधानो यस्य सोऽनुत्तर:सर्वेभ्योऽपि प्रधाना, (सव्वजगलि विज्ज) सर्वजगति विद्वान्-लालपदार्थानां कराऽमलकवद् वेत्ता-जाता, (गंधा अतीते) अन्धाइतीत:-वाधान्याविण्यस्वर्णादिरूपा , पाभ्यन्तरग्रन्थात् कर्मरूपान् अनीता-अतिक्रान्तो नयादीन:-निन्थः, 'अमये अभलास्ति समप्रकारकर्माप भयं वरच सोऽनयः, सपस्नुभयरहित -भगवाय नियंध थे अर्थात् अविशुद्धि मोटि लामक दोष इनसे हाया था। हारपूर्ण यह है कि दे विचार रक्षित गुलजुगों और उसर गुणों हे सुप्ता चारित्रपाल थे। लेक प्रकार के उपाय मानेपर भी मेम जस्ले नकरूप होले ले संघम धैर्यवान् थे। समस्त शो के हट जाने से उनकी आत्मा अपने स्वरूप स्थित हो गई थी। वह अनुत्तर थे अर्थात् अखिल विश्व में उनसे श्रेष्ठ कोई नहीं था-चही सर्वश्रेष्ठ थे । समस्त जगत् में, सकल पदार्थो को हथेली पर रहे हुए आंवले के समान प्रत्यक्ष देखने के कारण ज्ञानी थे । वह हिरण्य सवर्ण आदि बाह्य परिग्रह से तथा कर्मरूप आभ्यन्तर परिग्रह से अतीत-रहित अर्थात् अन्यातीत-निग्रन्थ थे। लात प्रकार के लयों से નિરામગંધ હતા, એટલે કે અવિશુદ્ધિ કોટિ નામના દોષથી રહિત હતા. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે તેઓ અતિચાર રહિત મૂળગુ અને ઉત્તર ગુણથી યુક્ત હોવાને કારણે ચારિત્રવાન હતા. અનેક ઉપસર્ગો આવી પડવા છતાં તેમણે દૈયપૂર્વક તેમને સામને કર્યો હતો. આ પ્રકારે મેરુ સમાન અડગ રહેવાને કારણે તેમને વૈર્યવાન કહ્યા છે. સમસ્ત કમેને ક્ષય થઈ જવાને કારણે તેમને આત્મા કર્મ રજથી રહિત થઈને મૂળ સ્વરૂપમાં ચમતો હતે. તેઓ અનુત્તર (સર્વશ્રેષ્ઠ) હતા એટલે કે આખા વિશ્વમાં તેમના કરતાં શ્રેષ્ઠ અન્ય કેઈ ન હતું. સમસ્ત પદાર્થોને હાથમાં રહેલા આમળાની જેમ પ્રત્યક્ષ જોઈ શકવાને તેઓ સમર્થ હતા, તે કારણે તેમને જ્ઞાની કહ્યા છે. તેઓ સુવર્ણ, ચાંદિ આદિ બાહ્ય પરિગ્રહથી અને કર્મરૂપ આયન્તર, પરિગ્રહથી રહિત હતા, તેથી તેમને થાતીત-નિગ્રંથ કહ્યા છે. સાત પ્રકારના सु० ६० from Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - use - सूचकृताङ्गसूत्रे इत्यर्थः। (अणाऊ) अनायुः न विद्यते चतुर्विधमपि नरामरनारकतिर्यंचायुर्यस्य सोऽनायुः, कर्मबीजानां विनाशेन पुनरुत्पत्तरभावात् । भगवान् महावीरः सकलपदार्थानां ईटा केवली च । खूलोत्तरगुणास्यां विशुद्धचारित्रपालकोऽतिधीर' स्तथा स्थितात्मा । सभ्योऽपि उत्तमो विद्वान् बाह्याभ्यन्तरग्रन्थिरहिलो निर्भया आयुरहित श्वासीदित्यर्थः ॥५॥ मूलम्-'से भूइपण्णे अणिएं अचारी ओहंतरे धीरे अणंतचक्खू । अणुत्तरे तप्पा सूरिए व, वेइरोयणिदेव तमं पगासे ॥६॥ छाया-सभूति प्रज्ञोऽनिकेतचारी औषन्तरो धीरोऽनन्तचक्षुः। ____ अनुत्तरं तपति पूर्य इव वैरोचनेन्द्र इब तम प्रकाशयति ॥६॥ रहित होने के कारण समस्त भयों से रहित थे। चारों प्रकार की आयु से मुक्त थे, क्योंकि कर्म बीज का उन्मूलन कर चुके थे, अंतएव उनका पुनः जन्म होना संचित नहीं था। आशय यह है कि भगवान महावीर सकल पदार्थो के द्रष्टा केवली थे। मूल और उत्तर गुणों से विशुद्ध चारिन के पालक थे, अत्यन्त धीर तथा स्थितात्मा थे । लब ले उत्तम ज्ञानी, बाह्याभ्यन्तर परिग्रह से रहित, निर्भय थे। और आयु से बर्जित थे ॥५॥ _ 'से भूइपण्णे' इत्यादि। . शब्दार्थ-से-ल' वह भगवान् वर्द्धमान महावीर स्वामी 'भूइपण्णेभूतिप्रज्ञः अनन्तज्ञानवाले और 'अणिए अचारी-अनियताचारी' अनियताचारी अर्थात् इच्छानुसार विचरने वाले 'ओतरे-ओघन्तरः संसार ભયથી રહિત હેવાને કારણે તેમને નિર્ભય કહ્યા છે. તેઓ ચારે પ્રકારના આયુથી રહિત હતા, કારણ કે તેમણે કર્મબીજને ઉંચછેદ કરી નાખ્યું હતું, તે કારણે સંસારમાં તેમને ફરી જન્મ લેવાનો ન હતો. તાત્પર્ય એ છે કે મહાવીર ભગવાન સમસ્ત પદાર્થોના દ્રષ્ટા-કેવળીહતા, તેઓ મૂળ અને ઉત્તરગુણેથી યુક્ત વિશુદ્ધ ચારિત્રનું પાલન કરનારા હતા. અત્યત ધીર તથા સ્થિતામાં હતા. તેઓ સર્વોત્તમ જ્ઞાની, બાહા અને આભ્યન્તર પરિગ્રહથી રહિત, ભયરહિત અને આયુથી રહિત હતા. ૫ __'से भूइपण्णे प्रत्याहि Awar-से-सः' ते समवान् भान महावीर स्वामी 'भूइपण्णेभूतिप्रज्ञः' अनन्तमान पण अने 'अगिए अचारी-अनियताचारी' भनियतायारी अर्थात छातुसा२ १२३वा 'ओघंतरे-ओचन्तरः संसार सागरने पार Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्थवोधिनी का प्र. शु. अं. ६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४७५ अन्वयार्थ - (से) सः - वर्द्धमानस्वामी (भूहपण्णे) भूतिप्रज्ञोऽस्तज्ञानवान् - (अणि अचारी) अनिकेतचारी - गृहरहितः, (ओघंतरे) ओघन्तरः - संसारसमुद्रवरणशीलः (धीरे धीरः- मेघवी (अनंतचक्खू) अनन्तचक्षुः - केवलज्ञानी (रिएय) सूर्यइव प्रकाशकः (अणुसरे) अनुत्तरः- सर्वाविशायी (तप्प) तपति सर्वेभ्योऽधिकज्ञानीत्यर्थः, (त्रइरोयणिदेव) वैरोचनेन्द्र इव (तमं पगासे) तमः प्रकाशयति अग्निरिव अन्धकारं विनाइय पदार्थप्रकाशकइति ॥ ६ ॥ टीका - (से). स भगवान् महावीरस्वामी, (भूइपन्ने) भूतिमज्ञः तत्र भूविशन्द:- वृद्धमङ्गलरक्षास्पर्शेषु वर्त्तते । तथाच भूतिमज्ञः भूतिः - प्रवृद्धा महती - प्रज्ञा यस्य सागर को पार करनेवाले 'धीरे - धीरः' बुद्धिशाली' 'अनंतचक्खू - अनंत चक्षुः' केवलज्ञानी 'सुरिए व सूर्य इव' जैसे सूर्य 'अणुत्तरे - अनुत्तरः' सबसे ज्यादा 'तह-तपति' तपता है इसी प्रकार भगवान् सबसे अधक ज्ञानवाले थे 'वैरोयणिदेव- वैरोचनेद्र इव' अग्नि के समान 'तमं पगासे' 'तमः प्रकाशयति' अन्धकार से वस्तु का प्रकाश करनेवाले है अर्थात् भगवान् अज्ञानरूपी अन्धकार को दूर करके पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करते हैं ॥६॥ अन्वयार्थ —भगवान् महावीरस्वामी अनन्तज्ञानी, अनिकेत रूप से विचरण करनेवाले अर्थात् गृहरहित, संसार सागर से तिरने वाले, धीर, अनन्तदर्शनवान्, सूर्य के समान प्रकाशशील सर्वोत्तम, सब से अधिक ज्ञानवान्, वैरोचन इन्द्र के समान तथा अग्नि के समान - अज्ञानान्धकार का विनाश करके पदार्थों के प्रकाशक थे । ६ । કરવાવાળા 'धीरे - धीरः' शुद्धिशाणी 'अनंतचक्खू' - अनंतचक्षु' ठेवणज्ञानी 'सूरिए व सूर्य इव' नेवी रीते सूर्य' 'अणुत्तरे - अनुत्तरः' मधाथी वधारे 'सप्पइतपति' तमेवी ने लगवान मधाथी अधिक ज्ञानवाणा हुता वैरोयणि'देव- पैरोचनेन्द्र इव' अग्निना समान 'तम पगासे - तमः प्रकाशयति' २६५.२थी વસ્તુને પ્રકાશ કરવાવાળા છે અર્થાત્ ભગવાન્ અજ્ઞાનરૂપી અંધકારને દૂરકરીને પદાર્થોને યથાર્થ સ્વરૂપથી પ્રકાશિત કરે છે ॥ ૬ ॥ સૂત્રા་-ભગવન્ વમાન સ્વામી અનન્તજ્ઞાની, અનિયતરૂપે 'વિચરણુ पुरनारा, भेटले } गृहरडित, सौंसारसागरने तरनारा, धीर, अनन्तदृर्शनवान्, સૂર્યના સમાન પ્રકાશશીલ, સર્વોત્તમ, સૌથી અધિક જ્ઞાનવાન, વૈરેચન-ઇન્દ્રના સમાન તથા અગ્નિના સમાન અજ્ઞાનાન્ધકારને વિનાશ કરીને પદાર્થોના शहता ॥ १ ॥ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतास्त्र - स भूतिप्रज्ञः-अनन्तज्ञानवान् , सर्वार्थविषयकज्ञानवान्न इत्यर्थः । अथवा सर्वमङ्गल भूतप्रज्ञावान् , यद्वा-जगद्राथूतप्रज्ञावान् । तथा-(अणिएअचारी) अनिकेतचारी, निकेत-गृहं तद्रहितमनिकेतं यथारणतथा अतिवद्धमित्यर्थः तचरितुं शीलं यस्य सोऽनिकेतचारी-अप्रतिवद्धविहारीत्यर्थः तथा-(ओहंतरे) ओघन्तरः, भोघ-संसारं टीकार्थ- भगवान महावीर स्वामी 'भूतिप्रज्ञ' थे । भूति शब्द के अनेक अर्थ हैं, यथा-वृद्ध, मंगल, रक्षा और स्पर्श। यहां इलका ___ 'वृद्ध' अर्थ है । जिनकी प्रज्ञा अधिक वृद्धि को प्राप्त हुई हो ऐले अर्थात् . जो अनन्तज्ञानी हैं उन्हें भूलिप्रज्ञ कहते हैं। - तात्पर्य यह है कि भगवान् लमस्त पदार्थों को विषय करने वाले • ज्ञान ले सम्पन्न थे। अथवा वे सब के लिए कल्याणकारी था । अथवा उनकी प्रज्ञा जगत् की रक्षा करनेवाली थी। अथवा उनकी प्रज्ञा लोक में स्थित समस्त पदार्थों का स्पर्श करने वाली-उन्हें विषय ....करने वाली थी। सामान्न अनिकेत रूप से विचरण करने वाले थे। परिग्रह से , रहित होने के कारण प्रतिबंध विहारी थे। अतएच 'अभिए अचारी' . इस पद का अर्थ है-'अनिशेतचारी' । स्यवान् गृहहित होकर विचरण ટીકાઈ–ભગવાન મહાવીર સ્વામી “ભૂતિપ્રજ્ઞ હતા. “ભૂતિ પદના નીચે પ્રમાણે અનેક અર્થ થાય છે જેમ કે “વૃદ્ધ, સંગળ, રક્ષા અને સ્પર્શી અહીં તેનો અર્થ વૃદ્ધ સમજવું જોઈએ. જેમની વિશાળ પ્રજ્ઞા વૃદ્ધિ પામેલી છે, એટલે કે જેઓ અનંત જ્ઞાનથી સંપન્ન છે, તેમને “ભૂતિપ્રજ્ઞ કહે છે. તાત્પર્ય એ છે કે મહાવીર પ્રભુ સમસ્ત પદાર્થોને બંધ કરાવનારા જ્ઞાનથી સંપન્ન હતા. અહિયાં “ભૂતિ પદને મંગળ અર્થ ગ્રહણ કરવામાં =ાવે, તે તેમનું જ્ઞાન સૌને માટે કલ્યાણકારી હતું. એ ભૂતિપ્રજ્ઞનો અર્થ થાય જે “ભૂતિ પદને ચર્થ “રક્ષા ગ્રહણ કરવામાં આવે, તે “ભૂતિ પ્રજ્ઞ પદનો અર્થ આ પ્રમાણે થાય–તેમની પ્રજ્ઞા જગતની રક્ષા કરનારી હતી. “ભૂતિ પદને “સ્પર્શ' અર્થ ગણ કરવામાં આવે, તો ભૂતિને અર્થ આ પ્રમાણે થાય–તેમની પ્રજ્ઞા સમસ્ત પદાર્થોને સ્પર્શ કરનારી–પદાર્થોના વિષયમાં માહિતી પૂરી પાડનારી હતી. લાગવાન મહાવીર અનિકેત રૂપે વિચરણ કરનારા હતા. પરિગ્રહથી रहित पाने पारणे ती अप्रतिमा विहारी ता. अथवा 'अणिए अचारी' Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४७७ - तरितुं तारयितुं वा शीलं विद्यते यस्य स ओघन्तरः । (धीरे) धीरः, धीवुद्धिस्तया सह राजते इति धीरः परीवहादिभ्योऽक्षुब्धः। तथा-(अणंतचवखू) अनन्तचक्षुः, अनन्त ज्ञेयाऽनन्तस्या नित्यत्वेन का चक्षुरिव चक्षु:-केवलज्ञानं यस्य सोऽनन्तचक्षुः। अपना-लोकरय प्रकाशकरणाद् बक्षुरिव चक्षुः स्वरूपो यस्य भवति सोऽनन्तचक्षुःकेवलालोकवान् । (सुरिएच) सूर्य इव (अणुत्तरं तपति) अनुत्तरं-सर्वतोऽधिकं यथा सूर्यस्तपति न तदधिकस्तापेन कश्चित् । तथा भगवान् तीर्थ करोऽपि ज्ञानप्रकाशेन सर्वोत्तमः। नास्तिकश्चित् ज्ञानेन तो महान् । (बइरोयर्णिदेव) वैरोचनेन्द्र इच, करते थे-गृह या आश्रम बना कर नहीं एक स्थान पर नहीं रहते थे। ऐसा कहा है भगवान् संसार से स्वयं तिरनेवाले और दूसरों को भी तारने वाले तथा धीर अर्थात् ज्ञान से विभूषित एवं परीपहों तथा उपसर्गों से क्षुब्ध न होने वाले थे। यह अनन्त चक्षु थे अर्थात् ऐसे ज्ञान से सम्पन्न थे जिलके ज्ञेय अनन्त हैं और जिसका कभी बिनाश होना संभव नहीं। अथवा भगवान लोक के लिए चक्षु के समान अनन्तप्रकाश करने वाले थे। जैसे सूर्य सबसे अधिक देदीप्यमान होता है, उसी प्रकार भगवान सर्वोत्कृष्ट रूप से देदीप्यमान भास्पर थे । स्वयं सबसे अधिक प्रकाशदेता है, उसकी समता-घराबरी अन्यकोई नहीं कर એ પદને અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે-અનિકેતચારી–ભગવાન મહાવીર ગૃહ અથવા આશ્રમ બનાવીને કોઈ એક જ સ્થાનમાં રહેતા ન હતા. તેઓ પિતે સંસારને તારનારા અને અન્યને પણ તારનારા હતા. તેઓ ધીર હતા, એટલે કે જ્ઞાનથી વિભૂષિત અને પરીષહ તથા ઉપસર્ગોથી મુખ્ય વિચલિત) નહીં થનારા હતા. તેઓ અનઃચક્ષુ હતા, એટલે કે એવાં જ્ઞાનથી સંપન્ન હતા કે જેને કદી પણ વિનાશ થવાનો સંભવ નથી અને જેના રેય અનન્ત છે –અથવા ભગવાન લોકો માટે ચક્ષુસમાન–અનઃ પ્રકાશ કરનારા હતા. જેવી રીતે સૂર્ય સૌથી અધિક દેદીપ્યમાન છે, એજ પ્રમાણે મહાવીર પ્રભુ પણ સંસ્કૃષ્ટ જ્ઞાનના પ્રકાશથી અથવા શરીરની કાન્તિથી દેદીપ્યમાન સૂર્ય સમાન હતા. સૂર્ય સૌથી અધિક પ્રકાશ આપે છે, તેથી પ્રકા શાની બાબતમાં કોઈપણ પદાર્થ તેની સરખામણીમાં ઊભે રહી શકતો નથી, Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ 8st सूत्रकृताङ्गसूत्रे विशेषेण रोचते-प्रकाशते इति वैरोचनोऽग्निः स एव अतिशयप्रज्वलनाद् इन्द्र:प्रद्धस्तद्वत् (तमे) तमः (पगासे) प्रकाशयति, यथा-मदीप्तो ज्वालाजटिलो वह्निः सर्वतः प्रमृतमपि सर्वोच्छादकं तमोऽपनीय पदार्थान् प्रकाशयति चक्षुः सहकारितया, तथा-भगवानपि अज्ञानान्धकारं सर्वतो व्याप्तं सहसापनीय लोकानां कृते सकलपदार्थान् प्रकाशयतीति भवति भगवान् अग्निसदृशः। सर्वप्राणिनाम् ___ अज्ञानं निवार्य पदार्थप्रकाशक इति ॥१०॥ • मूलम्-'अणुत्तरं धम्म मिणं जिंणाणं, णेयाँ मुणी कासव आसुपन्ने। इंदेव देवाण महाँणुभावे, सहस्सणेता दिविणं विसिडे॥७॥ छाया-अनुत्तरं धर्ममिमं जिनानां, नेता मुनिः काश्यप आशुप्रज्ञः। इन्द्र इव देवानां महानुभावः, सहस्रनेता दिवि खल्लु विशिष्टः ॥७॥ सकता, इसी प्रकार तीर्थकर सर्वोत्कृष्ट ज्ञानी होते हैं। उनसे अधिक ज्ञानी अन्य कोई नहीं हो सकता। वैरोचन का अर्थ है-अग्नि अतिशय जाज्वल्यमान होने से घह इन्द्र कहलाती है। जैसे जलनी हुई ज्वालाओं से युक्त अग्नि सब ओर फैले हुए सघन अंधकारको लिवारण करके पदार्थों को प्रकाशित करती है, चक्षु के सहायक होती. है, उसी प्रकार भगवान् भी सर्वत्र व्याप्त अज्ञान अन्धकार को सहसा दूर करके लोगों के लिए समस्त पदार्थों को प्रकाशित करते हैं। अतएव भगवान् अग्नि के समान हैं अर्थात् प्राणियों के अज्ञान का निवारण करके वस्तुस्वरूप के प्रकाशक हैं, ॥६॥ એજ પ્રમાણે તીર્થકર સર્વોત્કૃષ્ટ જ્ઞાની હોય છે–તેમના કરતાં અધિક જ્ઞાની । ५ समपी २४तु नथी. રોચન એટલે. અગ્નિ અતિશય જાજવલ્યમાન હોવાને કારણે અગ્નિને ઈન્દ્ર કહે છે. જેવી રીતે પ્રજવલિત જવાળાઓથી યુક્ત અગ્નિ સઘળી દિશાએમાં વ્યાપેલા ગાઢ અંધકારને નાશ કરીને પદાર્થોને પ્રકાશિત કરે છે, અને ચક્ષુને તે વસ્તુનું દર્શન કરાવવામાં સહાયક બને છે, એ જ પ્રમાણે ભગવન પણ સર્વત્ર વ્યાપેલા અજ્ઞાનરૂપી અંધકારને એકાએક દૂર કરીને સેકેને સમસ્ત પદાર્થોનું દર્શન કરાવે છે. સમરત પદાર્થોના યથાર્થ સ્વરૂપનું લોકોને ભાન કરાવે છે. તેથી ભગવાનને અગ્નિના સમાન કહ્યા છે, એટલે કે તેઓ પ્રાણીઓના અજ્ઞાનનું નિવારણ કરીને વસ્તુસ્વરૂપને પ્રકાશિત કરે છે. દા. .. Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४७९ , अन्वयार्थ:-(आसुपन्ने) अशुप्रज्ञः-उत्पन्नदिव्यज्ञान:, (कासवे) काश्यपःकाश्यपगोत्रोत्पन्नः (मुणी) मुनिः (जिणाणं) जिनानाम् ऋषमादीनाम् (इणं) इमम् (अणुत्तरं) अनुत्तरं-सर्वतः श्रेष्ठम् (धम्म) धर्म-श्रुतचारित्ररूपम् (णेया) नेता तस्य प्रणेता (दिवि) दिवि-स्वर्गे (सहस्सदेवाण) सहस्र देवानाम् (ईदेव) इन्द्र इव (महाणुभावे विसिट्टे) महानुभावः-महाप्रभाववान् विशिष्टः प्रधान इति ॥७॥ 'अणुत्तरं धम्ममिणं' इत्यादि । शब्दार्थ-'आसुपन्ने-आशुप्रज्ञा' शीघ्र बुद्धियाले 'कासवे-काश्यपः' काश्यपगोत्री 'मुणी-मुनिः' मुनि श्री बर्द्धमान स्वामी 'जिणाणं-जिनानाम्' ऋषभ आदि जिनवरों के इणं-इम' इस 'अणुसरं-अनुत्तरम्' सबसे श्रेष्ठ 'धम्म-धर्मम्' धर्म के 'नेया-नेता' प्रणेता है जैसे 'दिदिदिवि' स्वर्गलोक में 'सहस्सदेवाण-सहस्रदेवानाम्' हजारों देवताओं का 'इंदेव-इन्द्रइछ' इन्द्र नेता है एवं 'महाणुभावे विलिटे-महानुभाव: विशिष्ट अधिक प्रभावशाली है इसी प्रकार भगवान् सब जगत में सर्वोत्तम है ॥७॥ ____अन्वयार्थ-आशुप्रज्ञ अर्थात अनन्तज्ञानी, काश्यप गोत्र में उत्पन्न, मुनि वर्द्धमान स्वामी, ऋषम आदि जिनेश्वरों के इस धर्म के आद्य प्रणेता हैं । जैसे स्वर्ग में इन्द्र सभी देलताओं में महान् प्रभावशाली हैं-सर्वश्रेष्ठ हैं ॥७॥ 'अणुत्तर धम्ममिण' या शा-'आसुपन्ने-आशुपमा' शीघ्र भुद्धिवाणा 'कासवे काश्यपः' श्य५. मात्री 'मुणी-मुनिः' मुनि श्री १मान स्वामी 'जिणाणं-जिनानाम्' अपम वगैरे जिनपरांना 'इणं-इमं' 24. 'अणुत्तरं-अनुत्तरम्' माथी श्रेष्ठ 'धम्मधर्मम्' यमन 'नेया-नेता' प्रणेता छे. 'दिवि-दिवि' भा 'सहस्सदेवाण -सहस्रदेवानाम्' । वातासाना 'इंदेव-इन्द्र इव' न्द्र नेता छ. अपम 'महाणुभावे विसिट्टे-महानुभावः विशिष्टः' मधि: असापानी छ मेला પ્રકારે ભગવાન્ બધાજ જગતમાં સર્વોત્તમ છે | ૭ | સૂત્રાર્થ—આશુપ્રજ્ઞ (શીધ્ર પ્રજ્ઞાવાળા) એટલે કે અનન્તજ્ઞાની, કાશ્યપ ગોત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલા મુનિ વર્ધમાન સ્વામી, રાષભ આદિ જિનેશ્વરોના ધર્મના આદ્ય પ્રણેતા છે. જેમાં સ્વર્ગમાં ઈન્દ્ર બધાં દેવે કરતાં પ્રભાવશાળી હોય છે, એજ પ્રમાણે સકળ સંસારમાં તીર્થકર ભગવાન સૌથી વધારે प्रभावशाली- सह-छ. ॥७॥ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० . . स्मशताइसूत्रे ___टीला---(आनुपाने) आशुपन:-आशु-शीनं प्रज्ञा यस्य स आगुपक्षः (कासवे) काश्यपः-काश्यपगोत्रे सान्पन्नः (शुणी) शुभिः, सन्यते आगमार्थहेतुद्वारा ही. क्रियते इति युनिः सायकाय मौलवान् श्री नईमानस्लामी (जिणाण) जिनानाम्, जयन्ति रामादिकमिति जिनाः, आदिनाथादयत्रयोचिंगतिः तीर्थंकारतेषाम् । (इणं) हमम्-प्रत्यक्षपरिम् । (अणुनर) अनुचरम , नास्ति उत्तरो यस्य सोऽनुतरः -सर्वतः प्रधानस्तम् । (धम्म) धर्मस् धर्मश्वेत्यर्थः (जेया, नेता प्रणेता-ऋपमाघतीलजिनानां धर्म सञ्चालक अप्रेमरो निक्षले उतिभाषः, यथा-(विविः स्वर्ग (सहस्सदेवाण) सहस्त्र देवानाम् (इंदे) इन्द्र इय (महाणुभावे) महानुभावः, महान् अनुभावः पराक्रो यस्य स महानुभावः । (विसिटे) विशिष्टः-सतिशायी, यथा-स्वर्गे शनैश्वर प्रभावियो देवालामिन्द्रो नेता महानुमाः, तथा सामादि टीक्षार्थ-शीघ्र प्रज्ञा वाले शार्थात् अनन्त ज्ञानवान् काश्यपगोत्र. में उत्पन्न, आननार्थ को हेतु द्वारा दृढ करने वाले या सारच कार्य में मौन रखने वाले होने ले मुनि श्री बद्धमानस्वामी, आदिनाथ आदि पर्वघी तेईस तीर्थकारों के हल प्रत्यक्षगोचर सर्वोत्तम धर्म के नेता संचालक या अग्रेसर हैं। जैसे स्वर्ग में इन्द्र सहस्रों देवों का नेता और महानुभाव होता है, इसी प्रकार लगवान् सर्वातिशायी अर्थात् लबले अधिक माहारूप से विभूषित हैं। ___ आशय यह है कि जैसे स्वर्ग में इन्द्र धन, ऐश्वर्य तथा प्रभा आदि में सबसे उत्तम देशों का नेता महाप्रलाबचान् है। उसी प्रकार ऋणम आदि तीर्थंकरों द्वारा प्रवर्तित एवं समस्त धर्मों से उत्तम धर्म के नेता ટીકાર્થ–શીવ્ર પ્રજ્ઞાવાળા એટલે કે અનન્ત જ્ઞાનસંપન્ન, કાશ્યપગોત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલા, આગમાર્થને હેતુ દ્વારા દઢ કરનારા અથવા સાવદ્ય કાર્યોમાં મૌન રાખનારા રહેવાને કારણે સુનિ વિશેષણથી યુક્ત, શ્રી વર્ધમાનસ્વામી, આદિનાથ આદિ પૂર્વવત્તી ૨૩ તીર્થકરોના આ પ્રત્યક્ષગોચર સર્વોત્તમ ધર્મના નેતા-સંચાલક-અગ્રેસર છે. જેવી રીતે સ્વર્ગમાં ઈન્દ્ર સૌથી અધિક પ્રભાવશાળી હવાને કારણે દેશના નેતા રૂપે શેભે છે, એજ પ્રમાણે આ સંસારમાં સૌથી અધિક માહાસ્યથી સંપન્ન હોવાને કારણે મહાવીર પ્રભુને સર્વશ્રેષ્ઠ માનવામાં આવે છે તાત્પર્ય એ છે કે જેમ સ્વર્ગમાં ઈન્દ્ર ધન, અશ્વર્ય તથા પ્રભા આદિમાં સઘળા દેવે કરતાં શ્રેષ્ઠ હોવાને કારણે સઘળા દેવને નેતા ગણાય છે તથા સઘળા દેવે કરતાં વધારે પ્રભાવશાળી ગણાય છે, એ જ પ્રમાણે રાષભદેવ આદિ તીર્થકરો દ્વારા પ્રવર્તિત અને સમસ્ત ધર્મો કરતાં શ્રેષ્ઠ એવાં શતચારિત્ર રૂપ ધર્મના નેતા હોવાને કારણે, Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४८९ प्रवर्तित सर्वधर्मातिशायिनो धर्मस्य काश्यपगोत्रो भगवान् महावीरस्वामी नेतेव नेता सर्वजीवानां तादृशाऽनुत्तमधर्मे प्रवर्तनाद् भवतीति भावः ॥७॥ मूलम्-'लें पन्नयाँ अक्खयसागरे वा महोदही वावि अणंतपारे। अणाइले वा अकलाई भिक्खू संकेव देवाहिवई जुइमं ॥८॥ छाया-स प्रज्ञयाऽक्षयसागर इव महोदधिरिवापि अनन्तपारः। ____ अनादिलो वा अपायी भिक्षुर, शक इव देवाधिपति युतिमान् ॥८॥ काश्यपगोत्रीय भगान् महावीर स्वामी हैं, क्योंकि वे समस्त जीवों, को उल अनुत्तम धर्म में प्रवृत्त करते हैं ॥७॥ 'ले पन्नया' इत्यादि। शब्दार्थ-से-स' वह भगवान महावीर स्वामी 'सागरे वा-सागर इव' समुद्र के समान 'पन्नया-प्रज्ञया' बुद्धिले 'अक्खए-अक्षया' अक्षय है 'महोदही यावि-महोदधिरिव' स्वयंभूरमण समुद्र के समान 'अणंत. पारे-अनन्तपारः' अपार प्रज्ञा वाले हैं 'अणाइले वा-अनाविलोचा' जैसे समुद्र का जल निर्मल है उसी प्रकार भगवान् निर्मल प्रज्ञावाले है 'अकसाई-अकषायी' भगवान् कषायों से रहित हैं और 'मुक्के-मुक्तः' ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्मों से रहित हैं 'सक्केष-शकइव' भगवान् इन्द्र के समान' देवाहिवई-देवाधिपतिः' देवताओं के अधिपति हैं 'जुहम-शुतिमान्' तथा अत्यन्त तेजवाले हैं ॥८॥ કાશ્યપ ત્રિીય મહાવીર સ્વામીને સર્વશ્રેષ્ઠ ગણવામાં આવે છે, કારણ કે તેઓ સમસ્ત જેને તે અનુપમ ધર્મમાં પ્રવૃત્ત કરે છે. જે ૭ 'से पन्नया' त्याह शहाथ-'से-स' मगवान महावीर स्वामी 'सागरे वा--सागर इव' समुद्र समान ‘पन्नया-प्रज्ञया' भुद्धिथी 'अक्खए-अक्षयः' अक्षय छे 'महोदहीवावि-महोदधिरिव' स्वयंभूरभाष्य समुद्रना समान 'अणंतपारे-अनन्तपारः' अपार प्रज्ञा पाछे 'अणाइले वा-अनाविलो वा' म समुद्रतुं पा निमः छ तर प्ररे सवान् नि प्रज्ञाशा छ 'अकमाई-अकषायी' भगवान् ४षाये थी २हित छ भने 'मुके-मुक्त' ज्ञानापक्षीय वगेरे भाई अरना था २हित छ 'सक्केव-शक इव' लगवान् छन्द्रना समान 'देवाहिवई-देवाधिपतिः' तामांना अधिपती छे 'जुईमं-द्युतिमान्' तथा अत्यत वाणा छे. ॥८॥ सु० ६१ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूचकृताङ्गसूत्रे . अन्वयार्थ (से) स वर्द्धमानस्वामी (सागरे बा) सागर इव-स्वयम्भूरमणसमुद्रवत् (पन्नया) प्रज्ञया-बुद्धया (अक्खयः) अक्षयः-स्वयस्थूरमणवत् , अथवा (महोदही वावि) महोदधिः-साया सूरमणालपुद्र इवापि (अणंतपारे) अनन्तपार:-अ. पारप्रज्ञावानित्यर्थः (अपाइले वा) अनाविलो वा-निर्मला, (अकसाई) अकपायी -कपायरहितः (मुक्के) मुक्तः-ज्ञानावरणीयाद्यष्टकसरहितः (सक्केत्र) शक्र इव-इन्द्रवत् (देवाहिवई) देवानामधिपतिः (जुहम) छुपियाज-अविवेजस्वी बर्द्धमानोऽस्तीति ॥८॥ टीका--(से) स भगवान् महावीरः (सागरे३) लागर इव-समुद्रवत् (पन्नया) प्रज्ञया, प्रकर्षण ज्ञायते समस्तोऽपि पदार्थोऽनया इति प्रज्ञा तया प्रज्ञया ज्ञानेन (अक्खय) अक्षय:-क्षयरहितः, ज्ञातव्येऽर्थे जीवाजीवादिरूपे भगवतः प्रज्ञा नक्षीयते, तथा नैव प्रतिहन्यते । ला हि-वदीवुद्धिः केवलज्ञानात्मिका, सा च कालतः साद्य__ अन्वयार्थ-भगवान् बर्द्धमानस्वामी प्रज्ञा से समुद्र के समान अक्षय हैं अर्थात् स्वयंभूरमग समुद्र के समान अप्रतिहत ज्ञान से सम्पन्न हैं अधवा महालागर के जैसे अनन्सपार-अनन्तप्रज्ञाधान हैं। वह निर्मल, निष्कषाय, ज्ञानाचरणीय आदि कर्मों से रहित तथा इन्द्र के समाग देवों के अधिपत्ति और अत्यन्त तेजस्वी हैं ॥८॥ - टीकार्थ- 'से' इत्यादि, वह अभावान् वर्द्धमानस्वानी 'सागरेव' सागर-लालुद्र के समान ‘पन्नया अखए' प्रजाखे अक्षय हैं, प्रकर्षपने से समस्त पदार्थ जिन के द्वारा जाना जाय उले प्रज्ञा कहते हैं-उल प्रज्ञासे क्षयरहित हैं, अर्थात् ज्ञाता-जानने योग्य जीवाजीनादिरूप अर्थ में भगवान का ज्ञान प्रतिहत होता है और न क्षीण होता है यथा. चस्थितस्वरूप में नित्य रहता है। वह भगवान की प्रज्ञा केवलज्ञानरूप है સૂત્રાર્થ–ભગવાન મહાવીર સ્વામી પ્રજ્ઞામાં સમુદ્રના સમાન અક્ષમ્ય હતા, એટલે કે સ્વયંભૂરણ સમુદ્રના સમાન અપ્રતિહત જ્ઞાનથી સંપન્ન હતા. અથવા જેમ મહાસાગર અપાર જલથી યુકત હોય છે, એ જ પ્રમાણે તેઓ અનત જ્ઞાનથી યુક્ત હતા. તેઓ નિર્મળ, નિષ્કષાય, જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોથી રહિત, તથા ઈન્દ્રની જેમ દેવોના અધિપતિ તથા અત્યન્ત सशस्वी ता. ॥ ८॥ ...टा -'ले' त्या सापान वानवासी 'सागरेव' समुद्रनाम 'पन्नया अक्रनए' प्रशाथी अक्षय छ, १५ पाथी संघका महाना - द्वारी જાણી શકાય તેને પ્રજ્ઞા કહેવાય છે. તે પ્રજ્ઞાથી અક્ષય છે. અર્થાત્ જાણવા જેવા જીવાજીવારિરૂપ અધૂમાં ભગવાનનું જ્ઞાન પ્રતિહત થતું નથી તેમ ઓછું થતું નથી. યથાવસ્થિતપણાથી નિત્ય રહે છે. ભગવાનની પ્રજ્ઞા-કેવળ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टोका प्र. ध्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४८३ 'पर्यवसाना द्रव्यक्षेत्रमावैरपि अनन्ता। (महोदही वा वि) महोदधिरिवापि महोदधिःस्वयम्भूरमणसमुद्रस्तद्वत् (अणंतपारे) अनन्तपार:-पारान्तरहिवा, यथा स्वयम्भूरमंगो जलेनाऽनन्तपारः, तथा भगवानपि प्रज्ञयाऽनन्तपारः। (अगाइले) अनाविलं:निर्मला, यथा-स्वयम्भूरमणस्य जलम् अनाविलं-सर्वदोषविनिर्मुक्तम् , तथाभगवतो ज्ञानमपि तथाविधकर्मले शाशावादकलुपं सर्वदोपरहितमतिनिर्मल विद्यते । (अकसाई) अपायी, पायाः क्रोधनानमायालोमलक्षणाः ते विद्यन्ते यस्य स , कषायी, अपायी पायरहितः। (भिक्खू) भिक्षुः सत्यपि निश्शेशान्तरायक्षये सालोकपूज्यत्वेऽपि च निस्वद्यागिक्षपशीलत्वाद् भिक्षुः, (गकक्षेत्र) शक्र इन । . वह काल ले शादि-आदिसहित और अपर्थसित-अन्तरहित हैं अर्थात् , द्रव्यक्षेत्र काल भाव से अनन्त हैं 'महोदही चाचि' स्वयंभूरमण समुद्र के समान 'अणलपारे' अनन्तपार है अर्थात् जिस प्रकार स्वयंभूरमण समुद्र जलले अनन्तरार है। उसके पार का अन्त भी है किन्तु भगवान की प्रज्ञा का अन्त ही नही है सभवान् अनन्तपार वाले हैं। तथा 'अनाबिले' निर्मल है जिसप्रकार स्वयंभूरमणका जल अतिनिर्मल सर्वदोषरहिल होता है उसी प्रकार भगवान का ज्ञान भी उस प्रकारके फर्मलेशके अभावले अकलुज-अर्थात् सर्व दोषरहित अतिनिर्मल है। तथा भगवान 'अकसाई क्रोधादिचारों कषायों ले रहित हैं। ऐसे वे भगवान् 'भिक्खू सधप्रकार के अन्तरायकर्म के क्षयहोनेपर और समस्तलोक के पूज्य होनेपर भी निरवचभिक्षण स्वभावबाळे अर्थात् જ્ઞાનરૂપ છે. તે કાળથી સાદિ કહેતાં આદિયુક્ત છે. અને અપર્યવસિત-અંત२हित छ. अर्थात द्रव्यक्षेत्र आण मन लाथी मनन्त छे. 'महोदही वा वि' स्य भूरभ ससुद्रनी २५ 'अणंत पारे' मन+14।२ छे. अर्थात् म स्वय. ભૂરમણ સમુદ્ર જળથી અનન્તયાર-પાર ન પામી શકાય તે હવા છતાં તેને અંત પણ છે. પરંતુ ભગવાનની પ્રજ્ઞાને અંત નથી એટલે ભગવાન मन तयार छे. तथा अनाविले' निर्माण छ म २३य भूरभर समुद्र જળ અત્યંત નિર્મળ અને સર્વ દેથી રહિત હોય છે, એ જ પ્રમાણે ભગવાનનું જ્ઞાન પણ એવા પ્રકારના કર્મલેશના અભાવથી અકલુષ અર્થત સર્વદોષ રહિત હોવાથી અત્યંત નિર્મળ છે. તથા ભગવાન 'अकसाई पाद या प्र४१२ पायोथी २क्षित छ. मेवा लगवान् 'भिक्खू' સર્વ પ્રકારના અન્તરાય કર્મને ક્ષય થવા છતાં અને સમસ્ત લેકમાં પંથે હોવા છતાં પણ નિરવ ભિક્ષાચરના સ્વભાવવાળા અર્થાત્ નિરવદ્ય લિંક્ષા Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्रकृतासूत्रे (देवाहिवई) देवाधिपतिः। (जुइम) द्यतिमान् , यथा शक्रो युतिमान्-देवानामधिपतिः, तथा-भगवानपि द्युतिमान् देवाधिपतिरस्ति ॥मू०८॥ मूलम्-'ले वीरिएणं पडिपुन्नबीरिए, सुदंसणे वा णगसब सेटे। सुरालए वालि मुदागरे से विरायए गगुणोववेए॥९॥ छाया-स वीर्येण प्रतिपूर्णवीर्यः सुदर्शन इव नगसर्वश्रेष्ठः । मुरालयो वासिमुदाकरः स विराजतेऽनेकगुणोपपेतः ॥९॥ अन्वयार्थ-(से) स भगवान् वर्द्धमानस्वामी (वीरिएणं) वीर्येण-आत्मवलेन (पडिपुन्नवीरिए) प्रतिपूर्णीयः-वीर्यान्तरायस्य क्षयात् (सुदंसणे वा) सुदर्शन इव निरवद्य भिक्षामात्र से जीवन निर्वाह करनेवाले होने से भिक्षु कहलाते हैं, 'सक्केव देवाहिवई जुहमं' जिसप्रकार देवों का अधिपति शक्रेन्द्र धुतिमान है उसी प्रकार भगवान् भी द्युतिमान और देवाधिदेव हैं ।।८॥ 'से वीरिएण' इत्यादि। शब्दार्थ-'से-सः वह भगवान महावीर स्वामी 'पीरिएणं-वीर्यण' आत्मबल से 'पडिपुण्णवीरिए-प्रतिपूर्णवीया, पूर्ण वीर्यवाले हैं 'सुदंसणेवा-सुदर्शन इच' जिस प्रकार पर्वतों में सुमेरु 'णगलव्वसेढे-नगसर्वश्रेष्ठः' सब पर्वतों में श्रेष्ठ है 'सुरालए-खरालये' देवलोक में 'वाशिमुदागरेवासिनुदाकरः लिवास करनेवालों को हर्ष उत्पन्न करनेवाले णेगगुणोववेए-अनेकगुणोपपेतः' अनेक गुणों से युक्त होकर 'विरायए-विरा. जते' विराजमान होते हैं अर्थात् प्रकाशित होते हैं ॥९॥ साथी वन निवड ४२वा वाथी लिनु उपाय छे. 'सक्लेव देवाहिपई जुइम' २भ हेवान। अधिपति शन्द्र धुतिमान् छ. मेरा प्रमाणे सा. વાનું પણ ધુતિમાન અને દેવાધિદેવ છે. . ૮ _ 'से वीरिएणं' त्या साथ-से-स' त लगवान् महावी२२३॥भी 'वीरिएणं-वीर्येण' सामयी 'पडिपुण्णवीरिए-प्रतिपूर्णवीर्य:' पूर्ण वीया छे. 'सुदसणे वाप्रदर्शन इव' तसा पतामा सुभे३ ‘णगसबसेढे-नगसर्वश्रेष्ठः' मा ५ तामा श्रे 'सुरालए-सुरालये' हेपसभा 'वासिमुदागरे-वासिमुदाकर' निवास ४२वावामान वर्ष Guru ४२वावाणा ‘णेगगुणोत्रवेए-अनेकगुगोपपे तः' भने थी युत थन 'विरायए-विराजते' विमान थाय छे. अर्थात .., प्रशित थाय छे. ॥६॥ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४८५ (णगसबसेढें) नगसर्वश्रेष्ठः-सर्वपर्वतेषु प्रधानः (सुरालए) सुरालयो देवलोकी (वासिमुदागरे) वासिमुदाकरः-देवलोकवासिनां हर्षजनकः (णेगगुणोववेए) अनेक गुणोपपेतः-प्रशस्तवर्गादिगुणैर्युतः (विरायए) विराजते-शोभते इति ॥९॥ : ____टीका-(से) स (वीरिएण) वीर्येण-वीर्यान्तरायकर्मणोऽशेषतः क्षयाद् आत्मबलेन (पडिपुनपीरिए) प्रतिपूर्ण वीर्यः (णगसबसे?) नगसर्वश्रेष्ठः (सुदंसणेवा) सुदर्शन इव-यथा-सुदर्शनो मेरुः जम्बूद्वीपस्य नामिभूतः सर्वेषां पर्वतानां मध्ये श्रेष्ठः प्रधानः, तया-भगवानपि सर्वेभ्योऽपि श्रेष्ठः। यथा-'सुरालए) सुरालय:देवलोकः (वासिमुदागरे) वासिमुदाकरः-वासिनां स्वस्मिन्निवसतां देवदेवीनां मुदाकरः-हर्षजनकः तथा-(णेगगुणोववेए) अनेकगुणोपपेनः-प्रशस्तवर्णरसगन्ध ____ अन्वयार्थ- भगवान् वर्द्धमानस्वामी वीर्य अर्थात् आत्मपल से प्रतिपूर्ण वीर्य वाले हैं, क्योंकि उनका वीर्यान्तराय कर्म समूल क्षीण हो चुका है । वे समस्त पर्वतों में सुदर्शन पर्वत के समान प्रधान हैं। वे देलगों को प्रमोद देने वाले और प्रशस्त वर्ण आदि गुणों से युक्त होकर विराजमान हैं ॥९॥ टीकार्थ-बीर्यान्तराय कर्म का क्षय हो जाने से अगवान् सम्पूर्ण वीर्यवान् अर्थात् आत्मबल से सम्पन्न हैं । जले जम्बूद्वीप की नाभि के समान सुदर्शन मेरु, समस्त पर्वतों में प्रधान है, उसी प्रकार भगवान् भी बल वीर्य आदि गुणों से सब में श्रेष्ठ हैं। जैसे देवलोक अपने में निवास करने वाले देवों और देवियों के लिए मुदाकर-हर्षजनक है, क्योंकि प्रशस्त वर्ण, रस गंध,स्पर्श और प्रभाव आदि गुणों से युक्त સૂત્રાર્થ–ભગવાન વર્ધમાન સ્વામી અનન્ત વીર્યથી સંપન્ન હતા, એટલે કે આત્મબળથી પ્રતિપૂર્ણ વીર્યવાળા હતા, કારણ કે તેમણે વીર્યન્તરાય કમને સદંતર વિનાશ કરી નાખ્યો હતો. જેમ સઘળા પર્વતેમાં સુદર્શન (સુમેરુ) શ્રેષ્ઠ છે, એ જ પ્રમાણે તેઓ સઘળા લેકે માં સર્વોત્તમ હતા તેઓ દેવગણને પ્રમાદ (આનંદ) દેનારા અને પ્રશસ્ત વર્ણ આદિ ગુણોથી વિભૂષિત હતા. ૯ ટીકાર્થ–મહાવીર પ્રભુના વીર્યન્તરાય કર્મને ક્ષય થઈ ગયા હતા, તેથી તેઓ સંપૂર્ણ વીર્યવાન્ એટલે કે આત્મબળથી સંપન્ન હતા. જેવી રીતે જબૂઢીપની નાભિના જે સુદર્શન (મેરુ પર્વત સઘળા પર્વતેમાં શ્રેષ્ઠ છે, એજ પ્રમાણે મહાવીર પ્રભુ પણ બળ, વીર્ય આદિ ગુણેમાં સૌથી શ્રેષ્ઠ છે રસ દેવલોકમાં નિવાસ કરનારા દેવતાઓને માટે દેવલોક આનંદજનક છે, કારણ કે તે (દેવક) પ્રશસ્ત વર્ણ, રસ, ગધ, સ્પર્શ અને પ્રભાવ આદિ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ सूत्रकृतात्रे स्पर्शमभादिगुणैरुपेतः, (विरायए) विराजते, यथा सुरालयोऽनेकगुणैरुपेतो 'विराजते, स च स्ववासिनां सर्वदेव आनन्दकरः तथा भगवानपि सर्वगुणसम्पन्नः जीवानामानन्दकरः ॥ १९२॥ दृष्टान्त भूतमेरुवर्णनाय प्राह - ( स ) इत्यादि मूलम् - 'सयं सहस्साण उ जोयणाणं, तिकडेंगे पंडवेजयंते । जोय ववइहस्से, उद्धस्सिओ हेड सहस्समेगं | १०| छाया - शतं सहस्राणां तु योजनानां विकण्डकः पण्डकवैजयन्तः । :. स योजनानि नवनवतिसहस्राणि ऊर्ध्वमुच्छ्रितोऽधः सहस्रमेकम् ॥ १० ॥ होता है उसी प्रकार भगवान् सब को प्रमोद देनेवाले तथा अनेक गुणों से विभूषित होकर विराजमान हैं। लापर्य यह है कि जैसे सुरालय अनेक गुणों से युक्त होकर विराजमान होता है और देवलोकवासियों को सदैव आनन्द देता है, उसी प्रकार भगवान् भी समस्त गुणों से सम्पन्न तथा सर्व जीवों को प्रमोद प्रदान करने वाले हैं ॥९॥ दृष्टान्त रु का वर्णन करने के लिए सूत्रकार कहते हैं 'सर्व' इत्यादि । शब्दार्थ- 'सहस्सान जोधाणं सर्व-सहस्राणां योजनानां तु शतम्' वह सुमेरु पर्वत सौहजार योजन की ऊँचाईबाला है 'तिकंडगे - त्रिकंडक : ' उसके तीन विभाग हैं' 'पडंनवेजयंते - पण्डकवैजयन्तः' उस सुमेरु पर्वत के सबसे ऊपर रहा हुआ पण्डक वन पताका के जैसा शोभायमान हो ગુોથી યુક્ત હેય છે, એજ પ્રમાથે મહાવીર પ્રભુ પણ સૌને પ્રમેાદ દેનારા પ્રશસ્ત વર્ણાદિ ગુણેાથી સ’પન્ન હતા, તાપ એ છે કે સુરાલય (દેવલાક રૂપ દેવતાઓનુ નિવાસસ્થાન) અનેક ગુણૈાથી વિભૂષિત હોવાને કારણે તેમાં નિવાસ કરનારા દેવ દેવીએને આનંદ પ્રદાન કરે છે, એજ પ્રમાણે મહાવીર પ્રભુ પણ સમસ્ત ગુ@ાથી સ’પન્ન હાવાને કારણે સમસ્ત જીવેને પ્રમેાદ પ્રદાન કરનારા હતા. !! ૯ ! આગલા સૂત્રમાં મેરુ પર્યંતનુ' દૃષ્ટાન્ત આપવામાં આવ્યું છે, તેથી હવે सूत्रद्वार भेरु पर्वत वर्णन रे -'संय' ' धत्याहि शार्थ' - 'महस्लाण उ जोगणाणं सच सहस्राणां योजनानां तु शतम्' ते सुभे३ पर्वत सेोडर योजननी जयाई वाणो 'छे. 'तिकंडगे - त्रिकंडकः' लेना शु विभाग छे. 'पडंगवेजयंते- पण्डक वैजयन्तः' 'ते सुभेई पर्यंतना अधा ભાગથી Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3A समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४८७ . ____ अन्वयार्थः- (सहस्साण उ जोयणाणं सयं) सहस्त्राणां योजनानां तु शतम्-लक्षयोजनशतमुच्चैः (तिकंडगे) विकण्डः भौमजाम्बूनदचेडूयति विभागत्रयवान (पंडगवे. जयते) पताकारूपेण पण्डकपनं तत्र व्यवस्थितम् (से) सः-मेरुः (जोयणे णवणवइ सहस्से) योजनानि नवनवतिसहस्राणि (ऊद्धस्सिओ) ऊमुच्छ्रितः (सहस्समेगं हेव) सहस्रमेकमयो व्यवस्थित इति ॥१०॥ ___टीका-(महस्साण उ। सहस्राणां तु (जोयणाणं) योजनानाम् (मयं) शतम् , पर्व तो मेहासहस्रयोजनानां शतम् योजनानामेकं लक्षमित्यर्थः उन्नतः तथा(तिकंडगे) विकण्डकः, तत्र त्रीणि काण्डानि भौमजाम्बूनदवैडूर्यमयानि सन्ति (पंडग वेजयंते) पण्डकवैजयन्त:--पण्डऋत्रनं शिरसि व्यवस्थितं वैजयन्तीरूपं पताकोपमं रहा है 'ले-सः' वह मेरु पर्वत 'जोयणे क्षणवतिलहस्से-घोजनानि नवनवतिसहस्राणि' लिन्नानेये हजार योजन 'उडुस्लिओ-ऊर्ध्व मुच्छ्निः ' ऊपर की ओर ऊँचा है 'सहस्समेगं हेह-लहस्त्रमेकं अधा' तथा एक हजार योजन भूमि के अंदर के भाग में गढा है ॥१०॥ __ अन्धयार्थ-मेरु पर्वत एक लाख योजन ऊँचा तथा भौल, जम्बूनद और वैडूर्य इन तीन विभागों वाला है। वहाँ पताका रूप से पण्डक बन रहा हुआ है। वह सुमेरु निन्यानवे (९९) निन्यानवे हजार योजन ऊपर है और एक हजार योजन पृथ्वी के नीचे है ॥१०॥ टीकार्थ-सुमेरु पर्वत सौ हजार अर्थात् एक लाख योजन ऊंचा है। उसमें तीन काण्ड हैं-भीमकाण्ड, जाम्बूनदकाण्ड और दैड्यकाण्ड, पण्डकवन उसकी पताका के समान स्थित है। वह सुमेरु ९५२ २२८ ५४वन नी म मायमान २४ २२स छे. 'से-सः' त भे३५ 'जोयणे णवणवतिसहस्से-योजनानि. नवनवतिसहस्राणि' न०पा ९०१२ या 'उद्धस्सिओ-ऊर्ध्वमुचि तः' ५२नी, माया छ 'सहस्स मेगं हेतु-सहस्रमेकं अध.' तथा 3 &१२ योन -भूभिनी भरना भाभी टायता छ ॥ १० ॥... સૂત્રાર્થ–મેરુ પર્વત એક લાખ યોજન ઊંચો છે. તેના નીચે પ્રમાણે ત્રણ વિભાગે છે–ભૌમ, જાનૂનદ અને વૈડૂર્ય ત્યાં પંડકવન તેની પતાકાના જેવું શેભે છે. તે મેરુ પર્વત જમીનની ઉપર ૯૯૦૦૦ નવાણું હજાર જનની ઊંચાઈ સુધી અને પૃથ્વીની નીચે ૧૦૦૦ એક હજાર જન સુધી વ્યાપ્ત છે. ૧૦ ટીકાર્ય–સુમેરુ પર્વત એક લાખ જન ઊંચો છે, તેના ત્રણ કાંડ ((Gun) छे. (१) लौ भzis, (२) मून , मने (3) वैडूर्य ४is ५३३पन Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર सूत्रकृतागसूत्रे यस्य स पण्डक वैजयन्तः । (से) स मेरुः लक्षयोजनमध्यात् (जोयणे ) योजनानि (raणव सदस्से) नवनरविसहस्राणि ( उधुस्सिओ) ऊर्ध्वमुच्छ्रितः उन्नतः, तथा - (सहरूसमेगं सहस्रयोजनमेकम् (a) अयो व्यवस्थितः, नवनवतिसहस्रयोजनमृदुर्ध्वमुन्नतः, एकं सहस्रयोजनमधो भूमौ निविष्टः, भौमजाम्बूनदविभागत्रयवान्, यस्य पण्डकवनमेव पताकारूपम्, एतादृशो सेरू पर्वतः सर्वतः श्रेष्ठ इति ॥ १०॥ मूलम् -'पुट्ठे णभे चिंटूइ भूमिंवडिए, जें सूरिया अणुपरिर्वद्ययंति । से हेमेवन्ने हुनंदणेय, 'जैसी रेई वेदयति महिंदी ॥ ११ ॥ छाया - स्पृष्टो नभसि तिष्ठति भूम्यवस्थितो ये सूर्या अनुपरिवर्तयन्ति । स हेमवर्णो वहुनन्दन यस्मिन् रवि वेदयन्ति महेन्द्राः ॥ ११ ॥ निम्यानचे सहस्र योजन ऊपर अर्थात् पृथ्वी के ऊपर है और एक हजार योजन पृथ्वी के अधोभाग में है । तात्पर्य यह है - सुमेरु पर्वत की कुल ऊंचाई एकलाख योजन की है । उसमें से निन्यानवे हजार योजन पृथ्वी के ऊपर और एक हजार योजन पृथ्वी के नीचे है । उसमें तीन काण्ड हैं- भौम, जाम्बूनद और बैडूर्य' । पण्डक व उसकी पताका के समान है । ऐसा मेरु पर्वत सभी पर्वतों में प्रधान है ॥ १० ॥ 'पुढे ' इत्यादि । शब्दार्थ - 'से- सः' यह मेरु पर्वत 'णभे पुढे - नभः स्पृष्टः ' आकाशको स्पर्श किया हुआ 'भूमिवडिए - भूम्यवस्थितः' पृथ्वी पर 'चिट्ठा तिष्ठति' તેની પતાકાના જેવુ છે. સુમેરુ પર્વત પૃથ્વીની સપાટી પર ૯૯૦૦૦ નવાણુ હજાર ચાજન ઊંચાઈ સુધી વ્યાપેલા છે. અને એક હજાર યેાજન સુધી તે પૃથ્વીની નીચે વ્યાપેલે છે ‘ તાત્પય એ છે કે સુમેરુ પર્યંતની કુલ ઊંચાઈ એક લાખ ચેાજન પ્રમાણુ છે. તેમાંથી ૯ નવાણુ હજાર ચેાજન પૃથ્વીની ઉપર અને એક હજાર ચેાજન પૃથ્વીની નીચે છે, તેમાં ભૌમકાંડ, જામ્બૂનઃકાંડ અને વૈસૂર્યકાંડ નામના ત્રણ કાંડ છે, પડકવન તેની પતાકાના જેવું શેલે છે એવે સુમેરુ પર્વત સઘળા ' પવ તેમાં શ્રેષ્ઠ છે, ॥ ૧૦ | C "पुढे 'मे' त्याहि शब्दार्थ-‘से-सः' ते-भेत 'भे पुट्ठे नभः स्पृष्टः' आाशने स्पर्शझरीने ‘भूमिवट्ठिए-भूम्यत्रस्थितः पृथ्वी ५२ 'चिट्ठइ - तिष्ठति' स्थिर रहे छे. 'ज- यत्' Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समार्थयोधिनी टीका प्र. थु. अ. ६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४८६ अन्वयार्थ:- (से) स मेरुः (भे पुट्टे) नमसि स्पृष्टः - नभसि - आकाशे लग्नों व्याप्तः (भूमिवट्टिए) भूम्यवस्थितः - भूमिमध्ये स्थितः (चिह्न) तिष्ठति स्थितो' विद्यते, (जं) यं - मेरुम् (मूरिया) सूर्याः- आदित्या ज्योतिष्काः (अणु परिवहति) अनुपरिवर्त्तयन्ति - परिभ्रमन्ति, स मेरुः (हेमवन्ने) हेमवर्ण: - वर्णेन सुवर्णसदृशः, ( बहुनंदणे य) बहुनन्दनश्च - अनेकानन्दवनयुक्तः (जंसि) यस्मिन् मेरौ (महिंदा ) महेन्द्रा देश: (र वेदयंति) रतिमानन्दं वेदयन्ति - अनुभवन्तीति ॥११॥ シリー " टीका - (से) स मेरुर्वतः (णभे) नमसि - आकाशे (पुढे) स्पृष्टः - नभःस्पर्शी औन्नत्यात नमो गच्छतीतिवत् नभो व्याप्य तिष्ठति । तथा - ( यूसिव हिप) भूम्यवस्थितः- भूर्ति चाऽवगाद्य स्थितः ऊर्ध्वऽवस्तिर्यगलोकसंस्पर्शी सुमेरुः । (जं) स्थित रहता है 'जं- चं' जो मेरु को 'सूरिया- सूर्या' आदित्य 'अणुपरिष्ट्टयंति - अनुपरिवर्त्तयन्ति' परिक्रमा करते रहते हैं 'हेमवन्ने हेम् वर्णः' वह सुवर्ण के समान वर्णवाला ' बहुलंदने - बहुनन्दनश्च' अनेक नन्दन वनों से युक्त है 'जंसि घस्मिन्' जिस मेरु पर 'महिंदा - महेन्द्रा !" महेन्द्रलोक 'रति-वेदयंति रतिं वेदयन्ति' आनन्द का अनुभव करते हैं ॥११॥ t - अन्वयार्थ - चह मेरु पर्वत आकाश को स्पर्श करता है और भूमि के भीतर रहा हुआ है। सूर्य आदि ज्योतिष्क उसकी परिक्रमा करते रहते हैं। वह स्वर्णवर्णवाला है, अनेक उद्यानों से युक्त है और महेन्द्र, देव वहाँ रतिका अनुभव करते हैं ॥११॥ 7 टीकार्थ- सुमेरु पर्वत आकाशस्पर्शी है - ऊँचाई होने के करण आकाश को व्याप्त करके स्थित है और पृथ्वी की अवगाहना करके भी भे३ने 'सूरिया- सूर्याः' सूर्ये 'अणुपरिवट्टति - अनुपरिवर्तयन्ति' अहक्षिणा पुरता २ छे 'हेमवण्णे- हेमवर्ण:' ते सोना सरीभाव वाणी 'बहुन 'दने य-बहुनन्दन मनेननवनाथयुक्त छे. 'जसि यस्मिन्' ? भे३ ५२' 'महिंदा - महेन्द्राः महेन्द्र 'रति ं वेदयंति' - रति वेदयन्ति' मन धानुभव उरता रहे छे ।११ સૂત્રા—તે મેરુ પર્યંત આકાશને સ્પશીને રહેલ છે. અને ભૂમિના અંદરના ભાગમાં પશુ ફેલાયેલે છે. સૂર્ય આદિ જયાતિષિક દેવે તેની પ્રદક્ષિણા કરે છે તે સુવના જેવા વવાળા, અનેક ઉદ્યાનાથી યુક્ત અને મહેન્દ્રાદિ દેવાની રતિક્રીડાનુ સ્થાન છે। ૧૧ । ટીકા—મેરુ પર્વત આકાશસ્પર્શી ઘણા ઊંચા હોવાને કારણે તે આકાશ સુધી વ્યાપેàા છે અને તેના ૧૦૦૦ એક હજાર ચેાજન પ્રમાણ ભાગ ४० ६२ 1 Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतास्त्रे यं मेरुम् (बरिया) सूर्याः-आदित्याः ज्योतिष्काः सूर्यचन्द्रग्रहनक्षत्रतारारूपाः ते सर्वे (अणुपरिवष्टयंति) अनुपरिवर्तयन्ति, यस्य मेरोः पार्श्वतः सकलज्योतिष्कगणाः परिभ्रमन्ति, (हेमचन्ने) हेमवर्णः, हेम्ना-सुवर्णस्य वर्णः-रूपं यस्य स हेमवर्णः अवतप्तसुवर्णसदृशः । (बहुर्णदणे) वहुनन्दनः, बहूनि-चत्वारि नन्दनवनानि यत्र स बहुनन्दनः, यथा-भूमौ भद्रशालबनम्-ततः पञ्चशतयोजनान्यासच मेखलायां नन्दनवनम् । ततो द्विपष्टियोजनसहस्राणि पञ्चशताधिकानि अतिक्रम्य सौमनसम्। ततः षट्त्रिंशत् सहस्राणि आरुह्य शिखरे पण्डकवनम् । इति चत्वारि नन्दनवनानि, तैरुपेतः मुमेरुः (जंसि) यस्मिन्-यस्योपरि (महिंदा) महेन्द्राः-देवलोकादागत्य रमणीयगुणेन इन्द्रादि देवाः (रई वेदयंति) रति वेदयन्ति-रमणक्रीडामनुभवन्ति यत्र मेरौ इन्द्रादयो विहरन्ति, स मेरुः यशसा विभातीति भावः ॥११॥ स्थित है। वस्तुतः वह ऊद्रलोक मध्यलोक और अधोलोक, इस प्रकार तीनों लोकों को स्पर्श करता है। सूर्य, चन्द्र, ग्रह, और तारा ये पाँचों प्रकार के ज्योतिष्कदेव उसकी चारों ओर परिक्रमा करते रहते हैं। वह तपे स्वर्ण के समान वर्ण वाला है। उसमें बहुनन्दन वन अर्थात् अनेक वन संयुक्त हैं भूमि पर भद्रशाल नामक वन है, उससे पाँचसो योजन की ऊंचाई पर मेखला की जगह नन्दनवन है. उससे साढ़े यासठ हजार योजन की ऊंचाई पर सौमनस वन है और उससे छत्तीस हजार योजन ऊपर शिखर पर पण्डक नामक वन है। उस सुमेरु पर्वत की रमणीयता से आकृष्ट होकर उस पर इन्द्र आदि देवगण देवलोक से आकर रमण क्रीड़ा करते हैं। ऐसा सुमेरु अपने यश के साथ सुशोभित है ॥११॥ પૃથ્વીની અંદર ફેલાયેલું હોવાથી તે અલેક સુધી વ્યાપેલે છે. ખરી રીતે તે તે ઊર્વલક, મધ્યક અને અલેક રૂપ ત્રણે લેકને સ્પર્શ કરે છે. - સૂર્ય, ચન્દ્ર, ગ્રહ, નક્ષત્રો અને તારા, આ પાંચ પ્રકારના જતિષ્ક દે તેની ચારે તરફ પ્રદક્ષિણા કરતા રહે છે. તેને વર્ણ તપાવેલા સુવર્ણના જે, છે. તેમાં અનેક નન્દનવને આવેલાં છે. ભૂમિપર ભદ્રશાલ નામનું વન છે. ત્યાંથી પાંચસે લેજનની ઉંચાઈ પર, મેખલાની જગ્યાએ નન્દનવન છે, ત્યાંથી દર હજાર જનની ઉંચાઈ પર સૌમનસ વન છે. ત્યાંથી ૩૬ હજાર જનની ઊંચાઈ પર-શિખર પર પંડકવન આવેલું છે. તે સુમેરુ પર્વતની રમણીયતાથી આકર્ષાઈને ત્યાં ઈન્દ્ર આદિ દેવગણ દેવકમાંથી આવીને રમણફડા કરે છે, એ સુમેરુ પર્વત ખૂબ જ યશ સંપન્ન અને સુશોભિત છે. ૧૧ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र.शु. अ. ६ उ.१-भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ११ मूलम्-से पव्वए समहप्पगासे विरायती कंचणमहवन्ने। अणुत्तरे गिरिसु य पवदुग्गे गिरिवरे से जेलिए व भीमे॥१२॥ .. छाया--स पर्वतः शब्दमहाप्रकाशो विराजते काञ्चनमृष्टवर्णः । अनुत्तरो गिरिषु च पर्वदुर्गों गिरिवरः स ज्वलित इव भौमः ॥१२॥ अन्वयार्थः-(से पचए) स पर्वतो मेरुः (सदमहयगासे) शब्दमहाप्रकाश:शब्दै महान् प्रकाश:-प्रसिद्धि यस्य सः (कंचणमट्ठन्ने) काश्चनमृष्टवर्ण:-घर्षित सुवर्णवद्वणवान् (अणुत्तरे) अनुत्तरः-सर्वप्रधानः (विरायती) विराजते-शोभते, (गिरिमु य पव्वदुग्गे) गिरिषु च पर्वदुर्गः- पर्वभि मेखलादिभिः दुरारोहा 'से पधएइत्यादि। शब्दार्थ- से पच्चए-स पर्वतः' यह पर्वत 'सहमहप्पगासे-शब्द महाप्रकाश' अनेक नामों से अति प्रसिद्ध है 'कंचणमट्ठवण्णे-काश्चनमृष्टवर्णः' घर्षितसुवर्ण के जैसा शुद्ध वर्णवाला 'अनुत्तरे-अनुत्तर' सव पर्वतों में श्रेष्ट 'विरायती-विराजते' और सुशोभित है 'गिरिसु य पन्चदुग्गेगिरिषु च पर्वदुर्गः' वह सभी पर्वतों में उपपर्वतों के द्वारा दुर्गम है 'से गिरिवरे-असौ गिरिवर वह पर्वत श्रेष्ट भोमेव जलिए-भौमइव ज्वलितः मणि और औषधियों से प्रकाशित भूप्रदेश के जैसा प्रकाशित रहता है।॥१२॥ अन्वयार्थ -सुमेरु पर्वत शब्दों से महान् प्रकाश वाला अर्थात प्रसिद्ध है। सुवर्ण के समान वर्णवाला है । सर्वश्रेष्ठ होकर शोभायमान 'से पव्वए' छत्यादि शपथ --'से पव्वए-स पर्वतः' ते 'त 'सदमहापगासे-शब्दमहाप्रकाशः' मन नामाथी सत्यत प्रसिद्ध थे 'कंचणमढवण्णे-काञ्चनमृष्ट वर्णः' पषित सोना स२५॥ शुद्ध पाणी 'अणुत्तरे-अनु चरः' मा ४ ५ i Sत्तम 'विरायतीविराजते' मने सुशामित छ. 'गिरिसु य पव्वदुमो-गिरिपु च पर्वदुर्ग' मधास यतामा ५५ता द्वारा गम छे. 'से गिरिवरे-असौ गिरिवरः' ते पर्वत श्रेष्ठ 'भोमेव जलिर-भौंम इव ज्वलिः' मणि भने भोषाधियोथी प्रोशित ભૂપ્રદેશ સર પ્રકાશિત રહે છે. ૫ ૧૨ છે સૂત્રાર્થ–તે સુમેરુ પર્વત અનેક શબ્દ (નામે) વડે સુપ્રકાશિત (પ્રખ્યાત છે. સુવર્ણના જેવાં વર્ણવાળે છે અને સર્વશ્રેષ્ઠ પર્વત રૂપે વિ. Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतागपत्र से गिरवरे) स गिरिवरः-पर्वतमधानः (भोमेव जलिए) भौम इव ज्वलित:मण्योपधिभिर्भूप्रदेश इच प्रकाशित इति ॥१२॥ टीका-(से) स पर्वतो मेरुः (सहमहप्पगासे) शब्दमहाप्रकाशः, शब्दः 'पर्वतराजो मन्दरो मेरुः सुदर्शनः सुरगिरिः सुरपर्वतः' इत्यादि नामधेयः महन् :: प्रकाश:-प्रसिद्धि यस्य स शब्दमहाप्रकाश', 'विरायती' विराजते-शोभते, -.- अस्य पोडश नामानि-मेरु:-मेरुदेवयोगाद १, मन्दरः-मन्दरदेवयोगात् .. २, नन्वेवं मेरो स्वामिद्वयमापचेत इति चेत् उच्यते-एकस्यापि देवम्य नामद्वय सम्भवान्न दोपः, मनोरमः-रमयतीति रमः, मनसा देवमनसां रम इति मनोरमः, : है। मेखला आदि के कारण दुर्गम है । यह पर्वतराज अनेक प्रकार २६-की: मणियों और औषधियों से प्रकाशित है ॥१२॥ टीकार्थ--वह सुमेरु पर्वत शब्दों से महान् प्रकाशवाला है अर्थात् अनेक नामों से प्रख्यात है। पर्वतराज, मन्दर, मेरु सुदर्शन, सुरगिरि, सुरपर्वत आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध है । उसके सोलह नाम इस प्रकार हैं 15 (१) मेरु-मेरु नामक देव के सम्बन्ध से। - (२) मन्दर-मन्दर नामक देव के सम्बन्ध से। 7 . प्रश्न-इल प्रकार ले तो लेरु के दो स्वामी हो जाएंगे ? - उत्तर-एकही देव के दो नाम संभव हैं, अतएव यह कोई दोष नहीं है। (३) मनोरम-अपने अतिशय सौन्दर्य से देवों के मनको रमण कराने वाला होने से। કે ખ્યાત છે. મેખલા આદિને કારણે તે ઘણે દુર્ગમ છે. તે ગિરિરાજ વિવિધ પ્રકારની વનસ્પતિ અને મણિઓથી વિભૂષિત છે. જે ૧ર ! ટીકાર્થ–તે સુમેરુ પર્વત શબ્દોથી મહાન પ્રકાશવાળે છે, એટલે કે અનેક ...नामाथी अन्यात छे भ3-तरा, भन्४२, भेरु, सुदृशन, सुमार, , સુરપર્વત, આદિ અનેક નામથી પ્રખ્યાત છે. તેનાં નીચે પ્રમાણે ૧૬ નામ છે... (१) भर-तना अधिपति भेरु नामना व हावाथी तेनु नाम मे छे. - (૨) - મન્દર-મન્દર નામનો દેવ તેને અધિપતિ હોવાથી તેનું નામ મન્દર છે. પ્રશ્ન-આ પ્રકારે તે મેરુના બે સ્વામી હોવાને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે. ઉત્તર-મેરુ અને મન્દર એક જ દેવના બે નામ સંભવી શકે છે, તેથી * બે સ્વામી હોવાની શંકા અસ્થાને છે. (૩) મોરમ–પિતાના અનુપમ સૌંદર્યને કારણે દેવોનાં ચિત્તનું આકર્ષણ કરનારા હોવાને કારણે તેનું નામ મને રમ છે. Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ही समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ. १ भगवंतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४९३ स्वस्याऽतिशय स्वरूपत्वात्र, सुदर्शनः - सुष्ठु शोभनं जम्बूनदमयतया रत्नबहुलतया च मनो निर्वृत्तिकरं दर्शनं यस्य स सुदर्शनः४, स्वयंप्रभः = रत्नबहुलतया स्वयम् आदित्यादेखि प्रभा - प्रकाशो यस्य स स्वयंप्रभः ५, गिरिराजः - सर्वेषु गिरिषु उच्चत्वेन तीर्थंकरजन्माभिषेकाश्रयतया च राजा- गिरिराजः६, रत्नो, चय. - रत्नानां पुञ्जत्वाद७, शिलोच्चयः ८, मध्यः - लोकस्य मध्यवर्त्तित्वात्९, नाम: - लोकस्य नाभिभूतत्वात् १०, आकस्मिकः = अकस्माद् दृष्टौ पतितायां सत्यां - हर्षातिशयजनकत्वात्११, सूर्याssवी सूर्यावर्तनकस्यात् १२, सूर्यावरण:(४) सुदर्शन जाम्बूनदमय होने से तथा रत्नबहुल होने से उसका दर्शन मन को आनन्दप्रद होता है । (५) स्वयं प्रभ-रत्नों की बहुलता होने के कारण वह स्वयं सूर्य आदि की भाँति प्रकाशयुक्त है । (६) गिरिराज - समस्त पर्वतों में सर्वाधिक ऊंचा होने से और तीर्थकरों के जन्माभिषेक का स्थल होने से पर्वतों में राजा के समान है । (७) रत्नोच्चय-रत्नों का पुंज है । (८) शिलोच्चय - शिलाओं का समूह होने से । (९) लोक का मध्य होने से मध्य है - + 1 (१०) नाभि - लोककी नाभि के समान । (११) आकस्मिक - अकस्मात् दृष्टि पड़ते ही अतिशय हर्षजनक । (१२) सूर्यावर्त - सूर्य उसकी प्रदक्षिणा करने से (૪) સુદૅશન-જામ્બુનઃમય હાવાથી તથા અનેક રત્નાથી સપન્ન હાવાથી તેનાં દર્શન મનને મન દદાયક થઇ પડે છે, તેથી સુર્દેશન નામ પડ્યુ છે, (૫) સ્વયં’પ્રભ–તેમાં રત્નાની વિપુલતા હેાવાને કારણે, તે સૂર્યાદિની જેમ પ્રકાશયુક્ત હેાવાથી તેનુ' નામ સ્વયંપ્રલ છે, (૬) ગિરિરાજ-બધા પર્વ તેમાં વધારેમાં વધારે ઊંચા હેાવાથી તથા તી”કરાના જન્માભિષેકનું સ્થાન હાવાથી પતાના રાજા જેવા છે. (७) रत्नोय्यय - रत्नाना युग है. (८) शियोग्यय - शिक्षा मोनो समूह छे, (૯) લેાકનેા મધ્ય હાવાથી તે મધ્ય એ પ્રમાણે કહેવાય છે. (१०) नालि सोनी नालि सभान छे, (૧૧) આકસ્મિક-અકસ્માત્ દૃષ્ટિ પડતાં જ અતિશય હજનક છે, (१२) सूर्यावर्त्त - सूर्य तेनी अक्षिष्या उरे छे तेथी आा, नाभ पड्यु' है, Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ सूत्रकृताङ्गो सूर्याच्छादकत्वात् १३, उत्तमः-सर्वपर्वतेषु श्रेष्ठत्वात् १४, दिगादिः-सकलदिशां विदिशां च मर्यादाकारित्वात् १५, अवतंसका-सकलपर्वतशोभाजनकस्वादिति १६, (कंचणमहवन्ने) काञ्चनमृष्टवर्ण:-काञ्चनं-सुवर्णस्तस्येव मृष्टः लक्ष्णः शुद्धो वा वर्णों रूपं यस्य स काञ्चनमृष्टवर्ण:-शुद्धसुवर्णः । एवम् (अणुत्तरे) अनुत्तर:-न विद्यते उत्तरः-प्रधानो यस्य सोऽनुत्तरः, यदपेक्षया नास्ति कश्चिदन्यः प्रधानः प्रवृद्धः, सर्वेभ्योऽपि श्रेष्ठ इति यावत् । (गिरिस य पन्चदुग्गे) गिरिषु च पर्व दुर्गः-गिरिषु मध्ये पर्वभिः-मेखलाभिर्वा दुर्गः साधारणजीवानां दुरवगाहः-सामान्यजीवैरारोहुमशक्यः। तथा-(गिरिवरे) गिरिवर:पर्वतप्रधानः, तथाऽसौ गिरिवरो मणिभिरोषधिभिश्च देदीप्यमानतया (भोमे) (१३) सूर्यावरण-सूर्य को छिपा देने वाला। (१४) उत्तम-सप पर्वतों में श्रेष्ठ । (१५) दिगादि-समस्नदिशाओं और विदिशाओं का उद्भवस्थान होने से उनकी मर्यादा करता है। (१६) अवतंसक- सकल पर्वतों की शोभा का जनक । उस पर्वत का वर्ण शुद्ध स्वर्ण के समान है। वह सभी पर्वतों में श्रेष्ठ है। न उससे अधिक श्रेष्ठ कोई पर्वत है और न उसके समान ही है। वह पर्वतों के मध्य में मेखला आदि के कारण दुर्गम हैं। साधारण जीवों के लिए दुःखावगाह है। वे उस पर चढ नहीं सकते। वह पर्वतों में प्रधान है तथा मणियों और औषधियों से देदीप्यमान (१३) सूर्यावरण-सूर्य ढीछे. तेथी मा नाम ५ युछे. ' (१४) उत्तम-सभर ताम श्रे० डावाथी मा नाम,५३युछे. (૧૫) સમસ્ત દિશાઓ અને વિદિશાઓનું ઉદ્ભવસ્થાન હોવાથી તેમની મર્યાદા બાધે છે. '(૧૬) અવતંસક-સઘળા પર્વતે કરતાં વધારે સુંદર હોવાને કારણે તેનું આ નામ પડયું છે. તે પર્વતને વર્ણ શુદ્ધ સુવર્ણના જેવો છે. તે સઘળા પર્વતેમાં શ્રેષ્ઠ છે. કેઈ પણ પર્વત સુમેરુ કરતાં શ્રેષ્ઠ નથી એટલું જ નહી પણ કોઈપણ પર્વત તેના જેવું નથી. સઘળા પર્વતે કરતાં તે વધારે દુર્ગમ છે. મેખલા આદિ કારણે તે દુર્ગમ છે, સાધારણ જેને માટે તે તેના ઉપર આરોહણ કરવાનું કાર્ય ઘણું જ દુખપ્રદ છે તે સઘળા પર્વતમાં સર્વોત્તમ છે. મણિઓ તથા પધિઓથી દેદીપ્યમાન છેવાને કારણે તે ભૌમ (ભૂભાગ)ની જેમ જાવ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४९५ भौम इव ज्वलितो विराजते, मणिमिरोपध्यादिमि यथा भूभागो विराजते तथारत्नादीनां प्रभया अतिशयेन प्रदीप्तो भातीति ॥१२॥ मूलम्-महीइ ममि ठिए णगिंदे, पन्नायते सूरिये सुद्धलेसे। एवं सिरीए उस भूरिवन्ने, मणोरमे जोएँइ अचिमाली॥१३॥ छाया-मह्यां मध्ये स्थितो नगेन्द्रः, प्रज्ञायते सूर्यशुद्धलेश्यः । __ एवं श्रिया तु स भूरिव) मनोरमो द्योतयर्चिमालिः ॥१३॥ अन्वयार्थः- (णगिंदे) नगेन्द्रः-नगाना-पर्वतानामिन्द्रः (महीइमझ मि) मह्यां पृथिव्यां मध्ये (ठिए) स्थितः (मरियसुद्धलेसे) सूर्यशुद्धलेश्य:-आदित्य होने से भौम की भाति जाज्वल्धमान है। अर्थात् जैसे कोई भूभाग मणियों एवं औषधियां से विराजमान होता है उसी प्रकार रत्नों आदि की प्रभा से वह अत्यन्त प्रदीप्त रहता है ॥१२॥ - 'महीइ मज्झंमि' इत्यादि। शब्दार्थ-'नगिंदे-नगेन्द्रः' वह नगेन्द्र पर्वतराज 'महिह मज्झमिमह्या मध्ये' पृथ्वी के मध्य में 'ठिए-स्थितः स्थित है 'सुरियसुद्धलेसेसूर्यशुद्धलेश्यः' वह सूर्य के समान शुद्र कान्तिवाला पन्नायते-प्रज्ञायते' प्रतीत होता है एवं-एवम्' इसी प्रकार 'सिरिए उ-श्रिया तु' वह अपनी शोभासे 'भूरिवन्ने-भूरिवर्ण:' अनेक वर्णवाला और 'मणोरमे-मनोरममनोहर है 'अच्चिमाली-अर्चिमालिः' वह मूर्य के जैसा 'जोयइद्योतयति' सब दिशाओं को प्रकाशित करता हैं ॥१३॥ ; अन्वयार्थ-वह पर्वतराज पृथ्वी के मध्य में स्थित है, सूर्य के ત્યમાન છે. એટલે કે જેવી રીતે કઈ ભૂભાગ મણિએ અને ઔષધિઓથી યુક્ત રહેવાને કારણે ખૂબ જ દેદીપ્યમાન લાગે છે, એજ પ્રમાણે રન આદિની પ્રભાથી યુક્ત હેવાને કારણે સુમેરુ પણ અત્યન્ત દેદીપ્યમાન રહે છે. ૧૨ . 'महीइ मन्झमि' त्या शा-'नगिंदे-नगेन्द्रः' त तरा०८ 'महिइमज्झमि-मह्यां मध्ये पृथ्वीनीभाभमा 'ठिए-स्थितः' २ छे. 'सुरियसुद्धलेसे-सूर्यशुद्धलेश्यः' ते सूर्य सीमी शुद्ध:तिवाणो 'पनायते-प्रज्ञायते' प्रतीत थाय छे. 'एवं-एवम्' मे रीते 'सिरिए उ-श्रिया तु चातानी माथी 'भूरिवन्ने-भूरिवर्णः' भने पाणी भने 'मणोरमे-मनोरमः' भने। २ छे. 'अच्चिमाली-अर्षिमालिः' ते सूर्य नारेम. 'जोया-द्योतयति' मधी हशमान प्राशित ४२ छे. ॥१३॥ - સૂત્રાર્થ–તે ગિરિરાજ પૃથ્વીની મધ્યમાં આવેલ છે, તે સૂર્યના સમાન, Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .....-..-- . - सूत्रकता हो समानतेजाः (पन्नायते) प्रज्ञायते-प्रतीतो भवति-ज्ञायते (एवं) एवम् (सिरीए उ) श्रिया तु-स्वकीयशोभया (भूरिवन्ने) भूरिवर्ण:-अनेकवर्णवान् (मणोरमे) मनोरमः (मनोहरः (अच्चिपाली) अधिमालि:-सूर्य इव (जोएइ) द्योतयति-दशापि दिश: प्रकाशयतीति ॥१३॥ टीका-(गर्गिदे) नगेन्द्रः-पर्वतमयानो मेरुनामो नगेन्द्रः (महीइमज्झामि) मह्यां-पृथिव्यां मध्यदेशे-रत्नपभापृथिव्यां मध्यदेशे जम्बूद्वीपः । जम्बूद्वीपस्यापि वहमध्यदेशे सौमनस-विद्युत्प्रभगन्धमादन-माल्यवन्त-दंष्ट्रा-पर्वतचतुष्टयोपेतः पृथ्वीमध्यगामू छन अारभ्य उपरिभागपर्यन्तं लक्षयोजनोच्छायवान् (१०००००) वर्तते, तत्र योजनसहसं (१०००) पृथिवीमध्ये, नवनवतिसहस्रयोजनानि (९९०००) पृथिव्या उपरि वर्तते । स समभूमिभागे दशसहस्रयोजनविस्तीर्णः, समान शुद्ध लेश्या-वर्ण वाला प्रतीत होता है । इस प्रकार वह अपनी शोभा से अनेक वर्णों वाला एवं मनोरम है। वह सूर्य के समान दशों दिशाओं को उद्योतित-प्रकाशित करता है ॥१३॥ टीकार्थ-पर्वतों में प्रधान वह मेरु पर्वतेन्द्र रत्नप्रभा पृथिवी के मध्य भाग जम्बूदीप में और जम्बूद्वीप के भी बिल्कुल मध्य भाग में है। वह सौमनत, विद्युत्प्रभ, गंधमादन और माल्यवन्त नामक चार दंष्ट्रा पर्वतों से युक्त, तथा वह पृथिवी मध्य गत मूल भाग से लेकर. चोटी पर्यन्त लाख योजन की ऊँचाईवाला है, उसमें से एक हजार योजन की ऊंचाई पृथिवी में है और नवाणु हजार ऊंचा पृथिवी पर है। वह समभूमि भागपर दस हजार योजन विस्तार वाला है, वह अनुक्रम से શદ્ધ લેશ્યા અને વર્ણવાળે લાગે છે. આ પ્રકારે તે ખૂબ જ સુંદર અને અનેક વાળે હેવાને લીધે ખૂબ જ મને રમ છે. તે સૂર્યના સમાન દસે દિશાઓને धोतित प्रशित ४२ छे. ।। १31 - ટીકાઈ–પર્વતેમાં શ્રેષ્ઠ એ તે મેરુ પર્વતેન્દ્ર રત્નપ્રભા પૃથ્વીના મધ્યભાગે જંબુદ્વીપની બરાબર મધ્યમાં આવેલ છે. તે સૌમનસ, વિધ્યભ, ગંધમાદન અને માંયવન્ત નામના ચાર ઇંટ્રા પર્વતેથી યુક્ત છે. તથા પૃથ્વીની અંદર વ્યાપેલા મૂળભાગથી શરૂ કરીને ટોચ સુવીની તેની ઊંચાઈ એક લાખ ચોજનની છે. એક લાખ જનની તેની કુલ ઊંચાઇમાંથી એક હજાર એજન જેટલી તેની ઊંચાઈ પૃથ્વીની સપાટીની નીચે છે અને બાકીના ૯૯ નવાણુ હજાર એજનની ઊંચાઈ પૃથ્વીની સપાટીના ઉપરના ભાગમાં છે. સમભૂમિ ભાગ પર તેને વિસ્તાર દસ હજાર એજનને છે, આ વિસ્તાર ધીમે ધીમે Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुम्णवर्णन ४९७ सोऽनुक्रमेण न्युनो न्युनो भवन् शिरसि-एकसहस्रयोजनविस्तीर्णोऽवशिष्यते। भूमिमध्ये सहस्रयोजनोच्छ्रायवान् स दशैकादशभागोत्तरनवत्यधिकानि दशसहस्रयोजनानि (१००९०११) विस्तीर्णः स च क्राशो न्यूनी भवन् पृथिव्या उपरि दशसहस्रयोजनविस्तीणों भवति । तथा चत्वारिंशद्योजनोच्छ्रितचूडोपशोभित पर्वतराजः 'ठिए' स्थितः स च पर्वतराजः 'सरियसुद्धलेसे' सूर्यवच्छुद्धलेश्यः-सूर्य सदृशतेजोवान पन्नायते' प्रज्ञायते-लोकैः ज्ञायते 'एवं' एवम् 'सिरीए उ' श्रिया तु पूर्वोक्तश्रिया-शोभया तु 'भूरिवन्ने' भूरिवर्ण:-अनेकविधशोभया युक्तः, तथा'मणोरमे' मनोरम:-मनोऽन्तःकरणं, रमयतीति रमः, मनसो रम इति मनोरमः, मनोज्ञ इत्यर्थः, 'अचिमाली' अर्चिमालिः-सूर्य इव 'जोएइ' घोतयति, यथा सूर्यः स्वप्रकाशेन सर्वा अपि दिशः प्रद्योतयति, तथा-पर्वतराजोऽपि स्वस्य रत्नप्रभाभिः घटता घटता चोटी पर एक हजार योजन विस्तारवाला रह जाता है और भूमि के मध्य में जो एक हजार योजन ऊंचाई है उसका विस्तार चौडाई दश हजार नव्वे योजन और योजन के ग्यारह भागों में से दश भाग (१००९०११) अधिक है । यह घटता घटता पृथिवी पर आकर उसका दस हजार योजन विस्तार रह जाता है। उसकी चोटी चालीस योजन ऊंची है। वह पर्वतराज सूर्य के समान तेजोवान है, ऐसा लोगों को प्रतीत होता है। श्री से वह अनेक प्रकार की शोभा वाला है। अतिशय मनोरम है। सूर्य के समान समस्त दिशाओं को अपने प्रकाश से प्रकाशित करता है । स्वयं वह भी रत्नों आदि की प्रभा से प्रकाशित रहता है। आशय यह है कि वह पर्वतराज मेरु इस पृथ्वी के मध्य भाग में अवस्थित है, सूर्य के समान तेजवान् है, विविध वर्णा से विशिष्ट होने ઘટતું જાય છે અને ટેચ પર માત્ર એક હજાર જનો જ રહે છે જમીનની નીચે ૧૦૦૦ જન જેટલી ઉંડાઈ સુધી તેને જે ભાગ વિસ્તરે છે, તેને વિસ્તાર છેક નીચે ૧૦૦૯૦ જનને છે. આ વિસ્તાર ઘટત ઘટતો પૃથ્વીની સપાટી પર દસ હજાર જન થઈ જાય છે. તેનું શિખર ૪૦ જન ઊંચું છે. આ પર્વત લોકોને સૂર્યના સમાન તેજસ્વી લાગે છે. મણિ વનસ્પતિ આદિની શોભાથી સંપન્ન હોવાને કારણે તે ઘણે જ મનરમ લાગે છે. તે સૂર્યની જેમ સમરત દિશાઓને પિતાના પ્રકાશથી પ્રકાશિત કરે છે. તે પોતે પણ રને આધિની પ્રભાથી પ્રકાશિત રહે છે. તાત્પર્ય એ છે ગિરિરાજ મેરુ આ પૃથ્વીના (જબૂદ્વીપના) મધ્યભાગમાં આવેલ છે. તે સૂર્યના જે તેજવાન છે. વિવિધ વર્ષોથી યુક્ત હોવાને Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ -- . . . . . . . . . कृताङ्गने सर्वा दिशा प्रकाशयन् अवतिष्ठते । स हि पर्वतरानो भूमध्ये विद्यमानः सूर्यसमतेजाः अनेक वर्णविशिष्टत्वामनोरमः सर्वा दिशः प्रकाशयन्नवतिष्ठते इति ॥१३॥ बहुविधं बहुधा पर्वतराजस्थ मेरोणनं कृतं गणधरेण, किन्तु एवंविधवर्णनस्य प्रयोजनं प्रकृते किमिति शङ्का पालोच्य, प्रयोजनमुपदर्शयितुं तमेव मेरुं दृष्टान्तीकृत्य, दाष्टान्ति के भगवन्महावीरे योजयितुं सूत्रकार आह-'सुदंसण' इत्यादि। मूलम् -सुदंसणस्लेव जलो गिरिरल पवुच्चई महतो पव्वयस्त । एत्तोवमे समणे नायपुत्ते, जाती जलो दलणनाण लीले॥१४॥ छाया-सुदर्शनस्येव यशो गिरेः मोच्यते महतः पर्वतस्य । एतदुपमः श्रमणो ज्ञातपुत्रो जातियशोदर्शनज्ञानशीलः ॥१४॥ से मनोरम है और समस्त दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ सुशोभित है ॥१३॥ गणधर ने पर्वतराज का प्रकारान्तर से अनेक प्रकार का वर्णन किया, किन्तु इस प्रकार के वर्णन का वीरस्तव के इस प्रकरण में क्या उद्देश्य है ? शंकाकार के इस अभिप्राय को ध्यान में रखकर उस प्रयोजन को दिखलाने के लिए, मेरु कोही दृष्टान्त बनाकर दार्टान्तिक भगवान् महावीर में उसकी योजना करने के लिए कहते हैं'सुदंसण' इत्यादि। ' शब्दार्थ-महतो पव्वयस्स-महलः पर्वतस्य' महान् सुमेरु पर्वत का 'सुदंसणस्त गिरिस्स-सुदर्शनस्य गिरेः' सुदर्शन गिरि का 'जसो-यशः' यश 'पवुच्चइ-प्रोच्यते' कहा जाता है 'समणे नायपुत्ते एवोवमे-श्रमणो કારણે તે ઘણે મનહર લાગે છે તે સમસ્ત દિશાઓને પ્રકાશિત કરતે -હેવાથી ઘણે જ સુશોભિત લાગે છે. [ ૧૩ સુધર્મા ગણધરે પર્વતરાજ સુમેરુનું અહીં વિવિધ પ્રકારે વિરત વર્ણન કર્યું છે. હવે પ્રશ્ન એ ઉદ્ભવે છે કે વીરસ્તવના આ પ્રકરણમાં આ પ્રકારનું વર્ણન કરવાને ઉદ્દેશ શું છે ? આ શંકાનું નિવારણ કરવા માટે મેરુને જ દષ્ટાન્ત બનાવીને દાન્તિક મહાવીર પ્રભુમાં એવી ચેજના કરવાને भाटे सूत्रा२ ४३ छे 3-'सुदंसण' त्या शहाथ-'महतो पव्वयस्स-महतः पर्वतस्य' महान् सू३ पतन। 'सुदसणस्स गिरिस्स-सुदर्शनस्य गिरेः' सुशन गरिन 'जसो-यशः' यश 'पवुचड्-प्रोच्यते' ४ामा मावे छे.. 'समणे नायपत्ते एवोवमे-श्रमणो ज्ञातपुत्रः Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. थु. अं. ६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४९९ अन्वयार्थ :- (महतो पञ्च यस्स) महतः पर्वतस्य सुमेरोः (सुदंसणस गिरिम्स) सुदर्शनस्य गिरे:- मेरोः (जसो) यशः - कीर्त्तिः ख्वाविरितियावत् (पव्युच्चर) पूर्वोपदर्शितप्रकारेण प्रोच्यते । (समणे) श्रमणः (नायपुत्ते) ज्ञातपुत्रः - क्षत्रियवंशजः । ( एतोमे) एतदुपम :- सुमेरुसदृशः ( जाती जसोदंसणनाणसीले) जातियशोदर्शनज्ञानशीलः भगवान महावीरो जात्यादौ सर्वश्रेष्ठः ॥१४॥ टीका - 'महतो पव्वयस्स' महतः पर्वतस्य सुमेरो: 'सुदंसणस्स गिरिस्त' सुदर्शनस्य गिरे मेरो: 'जसो' यशः कीर्तिः ख्यातिरिति यावद पिच्च' पूर्वोपदशितप्रकारेण प्रोच्यते । 'समणे' श्रमण' 'नावपुत्ते ' ज्ञातपुत्रः - क्षत्रियवंशजः । 'एतोवमे' एतदुषमः एतस्यानन्वरोदीरितस्य सुमेरोरुपमा विद्यते यस्य सः एतदुपमः भगवान् महावीरः, 'जावीजसोदंसणनाणसीले' जातियशोदर्शनज्ञानशीलः, ज्ञातपुत्रः एतदुपम:' श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की उपमा इसी पर्वत से दी जाती है 'जातीजसोदंसणनाणसी के जाति यशो दर्शन ज्ञानशील:' भगवान् जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील से सबसे श्रेष्ठ हैं ॥ १४ ॥ अन्वयार्थ - उस महान पर्यंत सुदर्शन गिरि (मेरु) का यश पूर्वोक्त प्रकार से कहा जाता है । अमण ज्ञानपुत्र उसीके समान हैं । अर्थात् जैसे सुमेरु (मेरु पर्वत) सब पर्वतों में श्रेष्ट है, उसी प्रकार भगवान् महावीर जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील में सर्वश्रेष्ठ हैं ॥१४॥ टीकार्थ - महान् सुमेरु पर्वत की ख्याति पूर्वोक्त प्रकार से कही जाती है, क्षत्रिय वंशज - ज्ञातपुत्र महावीरस्वामी इसी पर्वतराज के समान हैं । महान जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील में भगवान् एतदुपमः' श्रभ्यु भगवान् भडावीर स्वाभी ने या पर्यंत नी उभा आपवामां भावे छे. 'ज. ती जसोदसण गण सीले जातियशोदर्शनज्ञानशील : ' लगवान् नति, यश, दर्शन, ज्ञान, भने शीतथी सौथी उत्तम है, ॥ १४ ॥ સૂત્રા—તે મહાન્ પર્વત સુદર્શન (મેરુ)ના યશનું પૂર્વોક્ત પ્રકારે થન કરવામાં આન્યું છે. શ્રમણ જ્ઞાતપુત્ર (મહાવીર) તેના સમાન છે. એટલે કે જેમ સુમેરુ પર્યંત સઘળા પતેમાં શ્રેષ્ઠ છે, એજ પ્રમાણે ભગવાન્ મહાવીર પણ જાતિ, યશ, દન જ્ઞાન અને શીલમાં સશ્રેષ્ઠ છે. ૫ ૧૪૫ ટીકા”—મહાન્ સુમેરુ પર્વતની ખ્યાતિનું પ્રતિપાદન પૂર્વોક્ત કથન અનુસાર કરવામાં આવે છે, ક્ષત્રિયવ'શ જ–જ્ઞાતપુત્ર મહાવીરસ્વામી આ પુતરાજના જેવાં જ છે. જાતિ, ય, દર્શન, જ્ઞાન અને શીલમાં મહાવીર Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० जात्या स्वभावेन यद्वा-जास्था जातिमद्भयः, यशसा की दर्शनज्ञानाभ्यांः, सकलदर्शनज्ञानिभ्यः, शीलेन चारित्रेण सकलचारित्रऋद्भचः प्रधानः, यथा - सुमेरुः स्वगुणैः सर्वेभ्य. - पर्वतेभ्यः श्रेष्ठः एवं भगवान महावीर स्तीर्थकरोऽपि जातिदर्शनज्ञानयशश्शीलैः सर्वेभ्योऽपि प्रधानः । तथाच सर्वप्रधानतयैव तदीयपरिचय इति ॥१४॥ पुनरपि दृष्टान्तद्वारेणैव भगवतः स्वरूपं दर्शयति सूत्रकारः - 'गिरिवरे वा' इत्यादि । 9 मूलम् -- गिरिवरे वा निसहाऽऽयेयाणं, रुपए व सेंट्टे वलयायताणं । ओ से जगभूइपने मुणी मंझे तमुदाहु पन्ते ॥ १५॥ छाया - गिरिवर : इव निपध आयातानां रुचक इव श्रेष्ठो वलयायितानाम् । तदुपमः स जगद्भूतिमज्ञो मुनीनां मध्ये तमुदाहुः प्रज्ञाः ||१५|| 3 सूत्रकृतात्रे अशेपयशस्त्रिभ्यः, सर्वोत्तम हैं । अभिप्राय यह है कि जैसे सुमेरु समस्त पर्वतों में प्रधान है, उसी प्रकार भगवान् महावीर तीर्थकर भी जाति आदि में सर्वप्रधान - हैं । इस प्रकार सर्वप्रधानपत्र प्रदर्शित करने के कारण ही यहाँ सुमेरु - का परिचय दिया गया है || १४ || "" सूत्रकार पुनः दृष्टान्त द्वारा ही भगवान के स्वरूप को दिखलाते -'गरिवरे वा' इत्यादि । शब्दार्थ- 'आवयाणं- आघतानी' लम्बे पर्वतों में 'गिरिवरे - गिरिवरः ' पर्वतों में श्रेष्ठ 'निसह व विषध हव' विषव प्रधान श्रेष्ठ है, तथा 'चल 'यायताणं - वलयायिताना' वर्तुल पर्वतों में 'रुपए व रुचक हव' जैसे પ્રભુ સર્વોત્તમ છે. તા એ છે કે જેમ સુમેરુ સમસ્ત પામાં શ્રેષ્ઠ છે, એજ પ્રમાંણે ભગવાન મહાવીર તીર્થંકર પરૢ જાતિ સ્માદિની અપેક્ષાએ 7 સ શ્રેષ્ઠ છે. મહાવીર પ્રભુના જેવેા જ સુમેરુ પણ સપ્રધાન ગિરિરાજ છે, આ રીતે સ`થી પ્રધાનપણું ખતાવવા માટે અહી સુમેરુનું વર્ણન કરવામાં - आयु है ॥ १४ ॥ સૂત્રકાર વળી દૃષ્ટાન્તદ્વારા મહાવીર પ્રભુના સ્વરૂપનુ' જ નિરૂપણુ કરે - 'गिरिवरे वा' इत्यादि - शहार्थ - 'आययाण - अयतानां' सांगा पर्वतामा पर्वताभां उत्तम 'निस्रह व निषेध इव' निषेध, उत्तम मलयायितानां' वर्तुस पर्वताभां 'रुयएव - रुचक इव' छे 'गिरिवरे - गिरिवरः ' तथा 'वलयायताणं पर्वत 'सेट्टे भइ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.६ उ. १ भगवती महावीरस्य गुणवर्णनम् ५०१ , अन्वयार्थ:--(आययाण) आयतानां-लम्बायमानानां पर्वतानां मध्ये (गिरिवरे) गिरिवर:-पर्वतश्रेष्ठः (निसह व) निषध इव प्रधानः (वलयायताण) वलयायितानां वर्तुलानां पर्वतानाम् (रुयए व) रुचकपर्वत इव (से?) श्रेष्ठः भगवानपि (तभोयमे) र दुपमः-तत्सदृशः (जगभूइपन्ने) जगभूतिप्रज्ञः-जगति सर्वातिशयबुद्धिवान् (मुणीण मज्झे) मुनीनां मध्ये वर्त्तते, एवं (पन्ने) प्रज्ञा:-तत्स्व. रूपज्ञाः (तमुदाहु) तं-भगवन्तमुदाहुः कथयन्तीति ॥१५॥ . ' . टीका-यथा-'आययाणं' आयतानां लम्वायमानानां पर्वतानां मध्ये 'गिरिवरे' गिरिवरः-पर्वतश्रेष्ठः 'निसह' निषयः-प्रधानः, यथा वा 'वलयायताणं' वलयावितानां-चतुलानां वलयसदृश वर्तुलानांपर्वतानां मध्ये 'रुयए' रुचका-दनामका पर्वत इत्र 'से?' श्रेष्ठ:-प्रधानः 'तभोक्मे तदुपमः, तस्य-पर्वतस्योपमा विद्यते यस्य रुचक पर्वत 'सेट्टे-श्रेष्ठः' श्रेष्ठ है 'जगभूपन्ने-जगत् भूतिप्रज्ञः' जगत् में अधिक बुद्धिमान् भगवान महावीर स्वामी की 'तमओयमेतदुपमः' 'वही उपमा है 'पन्ने-प्राज्ञः' बुद्धिमान पुरुप 'मुणीण मज्झे-मुनीनां मध्ये' मुनियों के मध्य में 'तमुदाहु-तमुदाहु. भगवान् को श्रेष्ठ कहते हैं ॥१५॥ . अन्वयार्थ-जैसे दीर्घाकर (लम्बे आकारवाले) पर्वतों में निषध पर्वत प्रधान है और वर्तुलाकार पर्वतों में रुचक पर्वत प्रधान है, उसी प्रकार समस्त मनियों में सर्वोत्तम प्रज्ञावान भगवान महावीरस्वामी सर्वोत्तम हैं, ऐसा वुद्धिमान् पुरुषों ने कहा है ॥१५॥ ____टीकार्थः-जैसे आयात अर्थात् लम्बे पर्वतों में गिरिवर निषध प्रधान है, या जैसे वलयाकार (गोल) पर्वतों में रुचक पर्वत श्रेष्ठ है, उसी प्रकार जगत में समस्त ज्ञानवानों में भगवान महावीर सर्वश्रेष्ठ -श्रेष्ठ श्रेष्ठ छ .'जगभूइ, पन्ने-जगत् भूतिप्रज्ञ.' गत्मा धारे मुद्धिमान् मग. वान् महावीर स्वाभीनी 'तओनमे-तदुपमः' मे १५॥ . 'पन्ने-प्राज्ञः' भुद्धिमान् ५३५ 'मुणीण मज्झे-मुनीनां मध्ये' भुनियानी मध्यभा 'तमुदाहुतमुदाहुः' लगवान श्रेष्ठ ४ छ. ॥ १५ ॥ સૂત્રાર્થ –જેવી રીતે દીઘકાર પર્વતમાં નિષધ પર્વત શ્રેષ્ઠ છે અને વર્તુળાકાર પર્વતેમાં જેમ રુચક પર્વત શ્રેષ્ઠ છે, એજ પ્રમાણે સમસ્ત મુનિએમાં સર્વોત્તમ પ્રજ્ઞાવાન મહાવીર ભગવાન શ્રેષ્ઠ છે, એવું બુદ્ધિમાનું પુરૂએ કહ્યું છે. જે ૧૫ -२म A° (aint) तामा गिरिवर नि१५ सवात्तम छ, અથવા જેમ વલયાકાર (વર્તુળાકાર) પર્વતેમાં સુચક પર્વત શ્રેષ્ઠ છે, એ જ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ कृतात्रे 'स' तदुपम: 'जगभूइपन्ने' जगद् भूतिमज्ञा, जगति - संसारे भूविमक्ष - प्रभूतज्ञानवान् ज्ञानेन सर्वश्रेष्ठः 'मुणीण मज्झे' मुनीनां - ज्ञानदर्शनचारित्रवतां मध्ये वर्त्तते, एवम् ' पन्ने' प्रज्ञा :- बुद्धिमन्तः पुरुषाः 'तमुदाहु' तं भगन्तं तीर्थकरमेव सर्वोत्तममुदाहु:- कथयन्ति । यथा - निषधपर्वत आयतानां पर्वतानां मध्ये श्रेष्टः, यथा वारुचकपर्वत: - वर्चुलानां पर्वतानां मध्ये संसारे श्रेष्ठवया प्रसिद्धः, तथा भगवान् तीर्थ दर्शनचारित्रयतां मध्ये श्रेष्टः सर्वाऽतिशायी, इत्येवं सर्वे एवं सदसद्विवे कशीलाः प्राज्ञाः वदन्तीत्यर्थः || १५ || मूलम् - अणुत्तरं धम्ममुईरइत्ता, अणुत्तरं झाणवरं झियाइ । सुसुक्क सुक्कं अपगंड सुकं, संखिंदुए गंतवदात सुक्कं ॥ १६ ॥ छाया - अनुत्तरं धर्ममुदी, अनुत्तरं ध्यानवरं ध्यायति । सुशुक्ल शुक्लमपगण्डवलं, शंखे-देकान्तावदातशुक्लम् ||१६|| ज्ञानवान् हैं तथा समस्त मुनियों में अर्थात् ज्ञानदर्शनचारित्र वाले महापुरुषों में भगवान् महावीर सर्व श्रेष्ठ हैं, ऐसा बुद्धिमान् पुरुष कहते हैं। आशय यह है-लम्बे पर्वतों में निषेध पर्वत सर्वश्रेष्ठ है) तुलाकार (गोलाकार) पर्वतों में रुचक पर्वत संसार में सर्वप्रधान है, उसी प्रकार तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी भी ज्ञान दर्शन चारित्रवालों में श्रेष्ठ है। भगवान सर्वोत्तम हैं, ऐसा सत् असत् के विवेक से युक्त सभी 'प्राज्ञ पुरुष कहते हैं ऐसा सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं ||१५| પ્રમાણે જગતના સમસ્ત જ્ઞાનીઓમાં ભગવાન્ મહાવીર સશ્રેષ્ઠ જ્ઞાની છે, તથા સમસ્ત મુનિએમાં~એટલે કે જ્ઞાનદર્શન અને ચારિત્ર સપન્ન મહાપુરૂધામાં ભગવાન્ મહાવીર સર્વશ્રેષ્ઠ છે, એવું મુદ્ધિશાળી પુરૂષા કહે છે. આ કથનના ભાવાર્થ એ છે લાંમા પ તામાં નિષધપવ ત સ શ્રેષ્ઠ છે, વર્તુળાકાર પત્ર તામાં રુયક પર્યંત સ શ્રેષ્ઠ છે, એજ પ્રમાણે જ્ઞાન, દર્શોન અને ચારિત્રસ'પન્ન પુરૂષામાં ભગવાન મહાવીર શ્રેષ્ઠ છે. ભગવાન્ મહાવીર શ્રેષ્ઠ છે, એવું સત્ અસા વિવેકથી યુક્ત ડાય એવાં સઘળા જ્ઞાની પુરૂષા, કાઈ પણ પ્રકારના પક્ષપાત વિના પ્રમા૨ે સુધર્મા સ્વામી જણૢ સ્વામીને કહે છે. ૧૫ ॥ કહે છે, આ ६ · Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श०५ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५०३ , अन्वयार्थः-(अणुत्तरं धम्ममुदीरहत्ता) अनुत्तरं-सर्वत उत्तरं श्रेष्ठं धर्म-श्रु. चारित्ररूपम् उदीर्य-कथयित्वा (अणुत्तरं झाणवरं झियाइ) अनुत्तरं-सर्वश्रेष्टं ध्यानवरं ध्यायति (सुसुक्कसुका) सुशुक्लशुक्लम् -अत्यन्त शुक्लवच्छुक्लम् (अपगंडमुक्क) अपगण्डशुक्लं निर्दोषशुक्लम् (संखिकुएगंतवदातसुक्क) शंखेन्दुवदेशान्ताऽवदातशुक्लम्, शंखचन्द्रवत् सर्वथा विशुद्धमिति ॥१६॥ 'अणुत्तरं' इत्यादि। शब्दार्थ-अनुत्तरं धम्ममुदीरत्ता-अनुत्तरं धर्ममुदीरयित्वा' भग. वान् महावीर स्वामी सर्वोत्तम श्रुतचारित्र रूप धर्म को कहकर 'अणु त्तरं झाणवरं झियाइ-अनुत्तरं ध्यानवरं ध्यायति' सर्वोत्तम ध्यान ध्यातेथे 'सुसुकसुक्कं-सुशुक्ल शुक्लं' भगवान् का ध्यान अत्यन्त शुक्ल वस्तु के समान शुक्ल था 'अपगंडसुक्कं-अपगण्डशुक्लं' तथा वह दोषरहित शुक्ल था 'संखिदुएगतवदातसुक्कं-शखेन्दुवदेकान्तावदातशुक्लम्' वह शंख तथा चन्द्रमा के समान सर्व प्रकार से शुक्ल था ॥१६॥ ___ अन्वयार्थ-ज्ञातपुत्र महावीर अनुत्तर श्रुत चारित्र धर्म का कथन करके अनुत्तरध्यान करते थे। उनका ध्यान अत्यन्त शुक्ल वस्तु के समान शुक्ल, दोषवर्जित तथा शंख या चन्द्रमा के समान सर्वथा स्वच्छ और शुद्ध था ॥१६॥ 'अणुतर' यह 'साथ'-'अणुत्तरं धम्ममुदीरइचा-अनुत्तरं धर्ममुदिरयित्वा' मावान् महावीर स्वामी सत्तिम सेवा श्रुतयारित्र३५ यम ४ीन 'अनुत्तरं झाणवरं झियाइ-अनुत्तरं ध्यानवरं ध्यायति' सत्तिमध्यान ५२ ता. 'सुसुक्कसुकसुशुक्लशुक्क' भगवाननुं ध्यान सत्यात शुस १२तु सरभु शुस खत 'अपगण्डप्लुक्लं-अपगण्डसुक्लम्' तथा ते निषि शुस तु.. 'संखिदु एगंतव. दातसुकं-शंखेन्दुवदेकांतशुक्लम्' शम तथा यमा भरभु साथी शुsa तु ॥१६॥ સ્વાર્થ-જ્ઞ તપુત્ર મહાવીર અનુત્તર (સર્વોત્તમ) શ્રતચારિત્રરૂપ ધર્મની પ્રરૂપણ કરતા હતા અને અનુત્તર ધ્યાન ધરતા હતા. તેમનું ધ્યાન અત્યંત શુકલ વરતુના સમાન શુકલ, દોષરહિત, તથા શંખ અથવા ચન્દ્રમાના समान सथा २१२७ भने शुद्ध तु ॥ १६॥ . . . . . . . . .. Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ____टीका-'अणुत्तर अनुत्तरम्, नास्ति उत्तर:-प्रधानोऽन्यो धर्मो विद्यते यस्मात् स तमनुत्तरं धर्मम् ‘उदीरइत्ता' उदीय, उत्-मावल्येन ईयित्वा-कथयित्वा प्रकाश्य सतप्रधान धर्मम् । 'अणुत्तरं' अनुत्तरम्-सर्वाऽतिशायि 'झाणवरं' ध्यानवरम्-श्रेष्ठध्यानम् 'झिपाइ' ध्यायति । तथाहि-उत्पन्न केवलज्ञानो भगवान् योगकाले- अन्तःकरणनिरोधकाले सूक्ष्म काययोगं निरुन्धन् शुक्लध्यानस्य तृतीयभेदं सूक्ष्मक्रियम् अप्रतिपाताल गम् , तथा-समुच्छिन्नक्रियाऽपतिपातिरूपं निरुद्धयोगं चतुर्थ शुक्लध्यानभेदम्, व्युषरतक्रियमनिवृत्ताख्यं ध्यायति । तदेव दर्शयति-'मुसुक्कामुक्कं' सुशुक्लशुक्लम्, सुष्ठु शुक्लवत् शुक्लं ध्यानम् । तथा-'अपगंडसुक्कं अपगण्डशुक्ल-अपगतं गण्डग्-अपनत्यं दोषो यस्य तत् अपगण्डशुक्लम, निर्दोवरजतवत् शुभ्रम्-विपलम् , अथवा-अपगण्डम्-उदकफेनम् तत्तल्यम्। तथा-'संविदुएगंतवदातमुक्कं' शंखेन्दुश्द् एकान्तावदातशुक्लम् , ध्यानं ध्यायति । शंखश्चेन्दुश्चेति शंखेन्दू तद्वद् अवदातं स्वच्छम् , तादृशं शुक्लं टीकार्थ-जिलसे कोई श्रेष्ट न हो ऐले सर्वश्रेष्ठ को अनुसर कहते हैं। भावान अनुत्तर धर्म का प्ररूपण करके अनुत्तर प्रशस्त ध्यान करते थे। यद्यपि सयोगकेलियों में ध्यान स्वीकार नहीं किया गया है. तथापि जब वे योग का निरोध करना प्रारंभ करते हैं तब सूक्षमकाय योग का निरोध करते समय सूक्ष्म क्रियाऽप्रतिपाति नामक शुक्ल ध्यान का तीसरा भेद ध्याते हैं और योग का निरोध होजाने पर उनमें समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाति नामक शुक्ल ध्यान का चौथा भेद होता है। भगवान् का ध्यान शुद्ध रजत के समान शुभ्र, विमल एवं निर्दोष था। अथवा 'अपगण्ड' का अर्थ निर्दोष ऐसा होता है। उनका ध्यान जल के फेन के समान दोषरहित अर्थात् स्वच्छ था। वह शंख एवं चन्द्र के सदृश एकान्त शुक्ल था। ટીકાર્થ–જેના કરતાં શ્રેષ્ઠ બીજે કઈ પણ પદાર્થ ન હોય એવા પદાર્થને અનુત્તર કહે છે. અહીં શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્મને અનુત્તર કહેવામાં આવ્યા છે. મહાવીર પ્રભુ આ અનુત્તર ધર્મની પ્રરૂપણા કરીને અનત્તર પ્રશસ્ત ધ્યાન ધરતા હતા. જો કે સગ કેવલીઓમાં ધ્યાનને સ્વીકાર કર. વામાં આવ્યો નથી, છતાં પણ જ્યારે તેઓ ચગને નિરોધ કરવાનો પ્રારંભ કરે છે, ત્યારે સૂકમ કાયયોગને નિરોધ કરતી વખતે “સૂમક્રિયા અપ્રતિપાતિ નામના થકલ દેથાનના ત્રીજા ભેદના દેયાનમાં લીન થાય છે અને ગનો નિરાધ થઈ જાય ત્યારે સમુરિચ્છન્ન ક્રિયા અપ્રતિપાતિ નામના શુકલ ધ્યાનના ચોથા ભેદને તેમનામાં સદભાવ રહે છે ભગવાન મહાવીરનું ધ્યાન શુદ્ધ यांना समान शुध, विभत मन निषि हेतु अथवा-'अपगण्ड'ना भय Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका ग शु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५०५ शुक्लध्यानं तद्वद् एकान्ततोऽत्रदातं सर्वथा विशुदं शुक्लं शुरलध्यानोत्तरं भेदद्वयकं ध्यानं ध्यायति । भगवान् महावीरस्वामी सतमं धर्म लोकेभ्यः प्रकाश्य सर्वोत्तम ध्शनं ध्यायति । तदीयं ध्यान शंख चन्द्रादिवद् अतिशयेन शुद्वमिति ॥१६॥ द्विविधशुश्नध्यान सम्पाद्य किं कृतमित्यत आह-'अणुत्तरगं' इत्यादि ।' मूलम्-अणुत्तरंग पर महेली, अलेसकाल विसहिइत्ता। सिद्धिं गई साई मतपले नाणेण लीलेण य दसण।१७। छाया--अनुत्तरारपां परमां महर्पिशेषकर्माणि स विशोध्य खलु । .. सिद्धि गति सादिमनन्तां प्रातः ज्ञानेन शीलेन च दर्शनेन ।।१७॥ लात्पर्य यह है कि भावान महावीरस्मानी जगत् के भव्य जीवों को धर्म ही देशना कर के सर्वोत्तम ध्यान करते थे। उनका ध्यान शंख और चन्द्रमा के समान अतिशय शुद्ध था ॥१६|| दो प्रकार का शुक्लध्यान प्राप्त करके पुन: क्या किया, तो कहते हैं-'अणुत्तरं' इत्यादि। शब्दार्थ-महेली-महर्षिः' महर्षि ऐसे भगवान महावीर स्वामी 'नाणेण लीलेण यदसणेण-ज्ञानेन शीलेन च दर्शनेन' ज्ञान, चारित्र और दर्शन के छारा 'असेस कम्म-अशेषकर्माणि' समस्त कमों को 'विलोहयित्ता-विशोधयित्वा' शोधन करके 'अणुत्तरगं-अलुत्तरार' सर्वोत्तम 'परमं-परमा प्रधान ऐसी सिद्धिं भर्ति-सिद्धि गतिः सिद्धि को प्राप्त નિર્દોષ એ પ્રમાણે થાય છે. તેમનું ધ્યાન પાણીનાં ફીણ જેવું દેષરહિત અર્થાત્ સ્વચ્છ હતું. તે ચન્દ્ર અને શંખના સમાન સંપૂર્ણતઃ શુકલ હતું. કથનને ભાવાર્થ એ છે કે ભગવાન મહાવીર સ્વામી જગતના ભવ્ય જીને ધર્મની દેશના દેતા હતા, તથા સર્વોત્તમ ધ્યાન ધરતા હતા. તેમનું ધ્યાન શખ અને ચન્દ્રમાના સમાન અતિશય શુદ્ધ હતું. ૧૬ બે પ્રકારનું શુકલધ્યાન પ્રાપ્ત કરીને તેમણે શું કર્યું, તે હવે સૂત્રકાર ५४८ ४२ छ-'अणुत्तर' त्या Awar-'महेसी-महर्षिः' महर्षि वा मगवान महावीर स्वामी 'नाणेण सीलेग य दंसणेण-ज्ञानेन शीलेन च दर्शनेन' ज्ञान, यास्त्रि भर. शनास 'असेसकम्भ-अशेषकर्माणि' मा आयने 'विसोहयित्ता-विशोधयित्वा' शोधन शन 'अणुत्तरगं-अनुत्तरापथा' 'परम-परमां' श्रेप मेवा 'सिद्धिगति-सिद्धिं गतिः' सिद्धिन Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ सूयकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः- (महेसी) महर्षिभगवान् (भाणेण सीलेण य दसणेण) ज्ञानेन शीलेन च दर्शनेन (असेसकरम) अशेषकर्माणि (विसोहइत्ता) विशोध्य-शोधयित्वा (अणुत्तरग) अनुत्तराश-सर्वोत्तमाम् (परम) परमां प्रधानाम् (सिद्धि गई सिद्धिगति-मोक्षगतिम् (साइमणतपत्ते) सादिमनन्तां प्राप्त इति ॥१७॥ टीका--तथा-असौ शैलेश्ापादित शुक्लध्यानचतुर्थ भेदानन्तरं तीर्थसंपादको महावीरः (महेसी) महर्षिः आत्यन्तिकतपश्चरणेन विशुद्धात्मा, (नाणेण) ज्ञानेन केवलारूपेन 'सीलेण' शीलेन क्षायिकेन चारित्रेण च 'दसणेण' दर्शनेन, घटत्वादिविशिष्टबोधावगाहितज्ज्ञानम् ! सामान्यावबोधावगाहिदर्शनं शीलं च यथाख्यातचारित्रम् । स महर्षिः-'असेसकम्म' अशेषकर्माणि-ज्ञानावरणीयाद्यष्ट हुए अर्थात् मोक्षगति को गये 'लाहमणंतपत्ते-सादिमनन्ततां प्राप्तः' जिस सिद्धि की आदि है परन्तु अन्त नहीं है ।।१७।। ____ अन्वयार्थ-महर्षि महावीर ने ज्ञाल, शील (चादित्र) और दर्शन के द्वारा समस्त कर्मों का विशोधन क्षय करके सर्वोत्तम एवं प्रधान सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त की। वह सिद्धि सादि और अनन्त है ॥१७॥ टीकार्थ-शैलेशी अवस्था में शुक्लध्यान के समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाति नामक चतुर्थ पाये का अवलम्बन करने के पश्चात्, तीव्र तपश्चरण से सर्वथा विशुद्ध आत्मा वाले महर्षि महावीर ने केवलज्ञान नामक ज्ञान के द्वारा, शील अर्थात् क्षाधिक चारित्र के द्वारा तथा केवलदर्शन के द्वारा शेष रहे हुए चार भवोपनाही नाम गोत्र वेदप्रास उरी. अर्थात् मायाति प्राप्त उरी 'साइमणतपत्ते-सादिमननयां प्राप्तः' २ સિદ્ધિની આદિ છે પણ અંત નથી તેવી સિદ્ધિ ગતિને પ્રાપ્ત કરી. છે ૧૭ સૂત્રાર્થ – ભગવાન મહાર્વરે જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્ર દ્વારા સમત કર્મોનો ક્ષય કરીને સર્વોત્તમ (અનુત્તર) સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી. તે સિદ્ધિ (દિ युत) मते मनात (मतरिनानी) छे. ॥१७॥ ટીકાર્થ-શેલેશી અવસ્થામાં શુકલધ્યાનના “સમુચ્છિન્ન કિયા અપ્રતિપાતિ નામના ચેથા પાયાનું (ભેદનું) અવલંબન કરીને તે પછી તીવ્ર તપસ્યાઓ દ્વારા જેમને આત્મા તદ્દન વિશુદ્ધ હતે એવા મહર્ષિ મહાવીરે કેવળજ્ઞાન નામના જ્ઞાન દ્વારા તથા શીલ દ્વારા-ક્ષાયિક ચારિત્રનાં દ્વારા, તથા કેવળદર્શન દ્વારા, બાકીના ચાર પગાહી કર્મોને (નામ, ગોત્ર, વેદનીય અને આયુકર્મોનો ક્ષય કરીને સર્વશ્રેષ્ઠ અને પ્રધાન એવી સિદ્ધિની પ્રાપ્તિ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अं. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५०७ कर्माणि 'विसोहइत्ता' विशोध्य विनाश्य, यथा वह्निस्पर्शात् तृणराशिः प्रज्वलितो भवति, तथा - ज्ञान दर्शनचारित्रैः सर्वाण्येव तानि विनाश्य, 'अणुतरग्गं' अनुत्तराय, नास्ति उत्तरः- प्रधानो यस्याः सा अनुत्तरा, अनुत्तरा चासौ अग्य्या सर्वोचमत्वात्, अग्रे - सर्वत उपरि भवति या सा-अय्या लोकानामग्रे व्यवस्थिता इत्यनुत्तराय्या तां तथाविधाम् । तथा-'परमं' परमां सर्वतः प्रधानाम् एतत् पर्यन्तमेव सर्वधर्मानुष्ठानम् । प्राप्तमोक्षस्य कृतकृत्यस्यात् । 'सिद्धिं गई' सिद्धि गर्ति - मोक्षगतिम् । पुनरपि कथं भूत सिद्धिमिति तामेव विशिनष्टि - 'साइमणं तपते ' सादिमनन्ताम्, सादिम् - आदिसहिताम् अनन्वाम् अन्वो विनाशो न विद्यते यस्याः तां ताशमुक्ति प्राप्तो भवति महर्पिः ॥ १७ ॥ नीय और आयु कर्मों का क्षय करके-जैसे अग्नि के स्पर्श से घांस का ढेर भस्म हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञान दर्शन और चारित्र के द्वारा समस्त कर्मों को नष्ट करके सर्व श्रेष्ठ और प्रधान सिद्धि प्राप्त की । जिससे श्रेष्ठ अन्य कोई न हो उसे अनुत्तर कहते हैं। वह सिद्धि सर्वोत्तम है । यह परम भी है, क्योंकि समस्त धर्मानुष्ठान मुक्तिपर्यन्त ही किया जाता है । मोक्ष प्राप्त होने पर आत्मा कृतकृत्य हो जाती है । वह मुक्ति सादि और अनम है, अर्थात् उसकी आदितो है क्योंकि वह कारण जनित है, परन्तु अन्त उसका कभी नहीं होता। ऐसी मुक्ति महर्षि महावीर ने प्राप्त की है ॥ १७ ॥ કરી. જેમ અગ્નિના સ્પથી ઘાસને ઢગલા ખળીને ભસ્મ થઈ જાય છે, એજ પ્રમાણે જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્ર દ્વારા મહાવીર પ્રભુએ સમસ્ત કર્મના સથા ક્ષય કરી નાખીને અનુત્તર સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી. જેના કરતાં શ્રેષ્ઠ અન્ય કાઈ પણ વસ્તુ હાતી નથી, તેને અનુત્તર કહે છે. સિદ્ધિ એવી સર્વોત્તમ વસ્તુ હાવાને કારણે તેને અનુત્તર (સવેત્તમ) કડી છે. વળી તે સિદ્ધિને પરમ વિશેષણ લગાડવાનું કારણ એ છે કે સમસ્ત ધર્માનુષ્ઠાને મુક્તિપન્ત જ કરવામાં આવે છે. મે ક્ષ પ્રાપ્ત થયા પછી તે આત્મા કૃતકૃત્ય થઈ જાય છે-તેને કઇ પણ કરવાનું જ ખાકી રહેતું નથી. તે મુક્તિ સાર્દિ અને અનત છે. તેને સાદિ વિશેષણુ લગાડવાનું કારણ એ છે કે તેનેા આદિ તા છે એટલે કે તે કારણજનિત છે, પરન્તુ મુક્તિના કદી અન્ત નથી, તેથી જ તેને અનંત વિશેષણ લગાડવામાં આવ્યુ' છે, એવી મુક્તિ મહર્ષિ મહાવીરે પ્રાપ્તિ કરી. ૧૭ાા Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ ५८. सूत्रकृताङ्गसूत्रे अथ वृक्षादिदृष्टान्तेन पुनरपि भगवत स्तीर्थ करस्य स्तुतिमेवाह-- , _ 'रुक्खेमु' इत्यादि। मूलम्-रुकखेसु णाए जह सामली वा, जस्ति रति वेययंति सुवन्ना। .. वणेसु वा गंदण माह से?', नाणेण सीलेण य सुइपन्ले ॥१८॥ छाया-वृक्षेषु ज्ञातो यथा शाल्मली वा यस्मिन् रति दयन्ति सुपर्णाः। वनेषु दा नन्दनमाहुः श्रेष्ठ ज्ञानेन शीलेन च भूतिप्रज्ञः ॥१८॥ दृष्टान्त के द्वारा पुनः भगवान महावीर की स्तुति कहते हैं'रुखेनु' इत्यादि। शब्दार्थ-'जह-यथा' जैसे 'सक्खेतु-वृक्षेषु' वृक्षों में 'णाए-ज्ञात' जगत्प्रसिद्ध 'लाभलीवा-शाल्मली' लेबल वृक्ष है 'जस्हि-यस्मिन्' जिस वृक्ष पर 'लुबला-सुपर्णाः पर्ण लोग अर्थात् भवनपति विशेष 'रईरति आनन्द का 'वेश्या -वेदधान्ति अनुभव करते हैं 'वणेलु वा गंदणं सेटमाहु-बनेषु वा नन्दनं श्रेष्ठम् भाहुः तथा जैसे वनों में सबसे श्रेष्ठ नन्दन बन्न को कहते हैं 'नाणेण लीलेश य पन्ने-ज्ञानेल शीलेन च भूतिप्रज्ञः' इली प्रकार ज्ञान और चारित्र के द्वारा उत्तम ज्ञानी भगवान् महावीर स्वामी को श्रेष्ठ कहते हैं ॥१८। - “સૂત્રકાર બીજા દેશો દ્વારા મહાવીર પ્રભુની સ્તુતિ કરે છે'खेमु' त्याहि. . Aण्टा-'जह-यथा' २ प्रमाणे 'रुखेपु-वृक्षेपु' वृक्षामा ‘णाए-ज्ञात्तः' प्रसिद्ध 'सामली वा-शामली वा' से।स२ नास वृक्ष छे. 'जस्ति-यस्मिन्' २.वृक्ष.५२ 'सुवन्ना-सुपर्णाः' सु मारे अर्थात् सपनपति विशेष 'रइं-रति' मान हनी 'वेययइ-वेदयन्ति' अनुल ४२ छे. 'वणेसु वा गंदणं सेट माहु-वनेषु वा नन्दन श्रेष्ठम् आहुः' तया रेस पनामा नन्नवनने सौथी उत्तम ४ छे. से प्रभारी 'नाणेण सीलेण य भूइपन्ने-जानेन शीलेन च भूतिप्रनः' ज्ञान मन ચારિત્રદ્વારા ઉત્તમ જ્ઞાનવાળા એવા ભગવાન મહાવીર સ્વામીને સર્વથી શ્રેષ્ઠ કહેવામાં આવે છે. ૧૮ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्यं गुणवर्णनम् ५०९ ' अन्वयार्थ:-(जह) यथा-(रुक्खेसु) वृक्षेषु (गाए) ज्ञातः-प्रसिद्धः (सामली वा) शाल्मली-वृक्षः (नस्सि) यस्मिन् वृक्षे (सुन्ना) सुपर्णाः-भवनपतिविशेपाः (रई) रतिमानन्दम् (वेययंति) वेदयन्ति-अनुभवन्ति (वसु वा गंदणं सेहपाहु) वनेषु वा नन्दनं-तुम्न मकवनं श्रेष्ठं प्रधानमाहु:-कथयन्ति, तथैव (नाणेण सीलेण य भूइपन्ने) ज्ञानेन-केवलज्ञानेन शीलेन यथाख्यातचारित्रेण भगवान् महावीरो भूतिप्रज्ञा-श्रेष्ठ इति ।।१८॥ ___टीका-(मह) यथा (रूकखेसु) क्षेषु मध्ये (गाय) ज्ञात. प्रसिद्धो लोके देवकुरुषु स्थितः (सामली) शाल्मली नामा वृक्षः प्रतिष्ठिना श्रेष्ठ इति यावत् । तस्य-शाल्मलीवृक्षस्य सर्वश्रेष्ठताकारणं दर्शयति-(अस्ति) यस्मिन् शाल्मलीनाम के वृक्षे (सुबन्ना) सुपर्णाः-भवनातिविशेषाः (ति) रतिमानन्दम् (वेययंति) वेदयन्ति अनुभवन्ति । यथा वा-(वणेसु) भद्रशाल नौमनपण्ड करनेषु मध्ये (णंदणं) नन्दनं तन्नामक वनम् (सेटुं) श्रेष्ठम्-देवानां क्रीडास्थानम् (आहु) आहुः कथयन्ति, तथैव-(भृइपन्ने) भूतिप्रज्ञः प्रवृद्धज्ञानः भगवान् तीर्थकरः ___ अन्वयार्थ जैले वृक्षों में शाल्मली वृक्ष प्रसिद्ध है, जिसके ऊपर सुसुपर्णकुमार जाति के भवनपति रति की अनुभूति करते हैं। जैसे वनों में नन्दनवन प्रधान कहा जाता है, उसी प्रकार ज्ञान और शील में भगवान महावीर श्रेष्ठ हैं ।।१८॥ टीका-जैसे वृक्षों में देवकुरु क्षेत्र में स्थित शाल्मली नामक वृक्ष सर्वश्रेष्ठ है, प्रसिद्ध है, क्योंकि उस वृक्ष पर सुपर्णकुमार नामक भवनपति देव आनन्द का अनुभव करते हैं । अथवा जैले भद्रशाल सौमनस पण्डक आदि समस्त बनों में नन्दनवन सर्वोत्तम है-देवों का क्रीडास्थान है, ऐसा कहा जाता है, उसी प्रकार भूतिप्रज्ञ (जीवरक्षा की સૂત્રાર્થ-જેવી રીતે વૃક્ષમાં શ.૯મલી વૃક્ષ પ્રખ્યાત છે, અને વનમાં નન્દનવન સર્વોત્તમ છે, એ જ પ્રમાણે જ્ઞાન અને શીલમાં મહાવીર પ્રભુ શ્રેષ્ઠ છે. ૧૮ ટીકાર્થ–દેવકુરુ ક્ષેત્રમાં શામલી નામનું જે વૃક્ષ થાય છે, તેને સર્વશ્રેષ્ઠ વૃક્ષ ગણવામાં આવે છે, કારણ કે તે વૃક્ષ પર સુપર્ણકુમાર નામના ભવનપતિ દેવ આનંદ અનુભવે છે. અથવા જેમ ભદ્રશાલ. સૌમનસ. પંડક આદિ સમસ્ત વનમાં નન્દનવન સર્વોત્તમ છે, કારણ કે તે દેનું કીડાસ્થાન ગણાય છે, એ જ પ્રમાણે ભૂતિપ્રજ્ઞ (જીવ રક્ષાની બુદ્ધિવાળા) ભગવાન્ મહાવીર Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे. ( णाणेण ) ज्ञानेन - केवलेन च (सीलेण) शीलेन - यथाख्यातचारित्रेण श्रेष्ठःप्रधानः । यथा सर्व वृक्षेषु मध्ये देवकुरु व्यवस्थित देवताक्रीडास्थानत्वेन शाल्भठी वृक्षः श्रेष्ठः, श्रेष्ठ ं च नन्दन बनानाम् । तथा सर्वेभ्यो ज्ञानशीलाभ्यां भगवान महावीरः श्रेष्ठ इति भावः ॥ १८ ॥ ५१० 1 मूलम् - थणियं व लोण अणुत्तरे उ, चंदोवे ताराण महाणुभावे । गंधेसुं वा चंदर्ण माह सेडें, एवं मुंणीणं पडिन्न माहु। १९ । छाया - स्तनितमिव शब्दानामनुत्तरं तु चन्द्र इव ताराणां महानुभावः । गन्धेषु वा चन्दनमाहुः श्रेष्ठ मेवं मुनीनामप्रतिज्ञमाहुः ॥ १९ ॥ बुद्धि वाले) भगवान् महावीर ज्ञान, शील और दर्शन में सर्वश्रेष्ठ हैं, क्योंकि वे केवलज्ञानी, यथाख्यात चारित्रवान् और केवलदर्शवान् हैं । तात्पर्य - जैसे देवकुरु क्षेत्र में स्थित शाल्मली वृक्ष देवकीड़ा का स्थान होने से सब वृक्षों में उत्तम कहा जाता है और समस्त वनों में नन्दनवन प्रधान कहा जाता है, उसी प्रकार ज्ञान, शील और दर्शन में भगवान् महावीर सब से उत्तम हैं ॥१८॥ 'थणियं' इत्यादि । शब्दार्थ- 'सहाण - शब्दानां' शब्दों में 'थणियं स्तनितम्' मेघगर्जन 'अणुत्तरे - अनुत्तरं, प्रधान है और 'ताराणं- ताराणां ताराओं में 'महाणुभावे चंदो - महानुभावः- चन्द्रः' जैसे महानुभाव चन्द्रमा श्रेष्ठ है तथा 'गधे चंदणं सेट्टमाहु-गन्धेषु चन्दनं श्रेष्ठमाहुः' गन्धो मे जैसे 9 તેએ કેવળજ્ઞાની, યથાખ્યાત જ્ઞાન, દર્શીન અને શીલમાં સર્વશ્રેષ્ઠ છે, કારણુ કે ચારિત્રવાન્ અને ડૅવળ દનવાન્ છે. તાત્પર્ય એ છે કે દેત્રકુરુ ક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થતુ ક્રીડાસ્થાન હાવાને કારણે જેમ સમસ્ત ક્ષેમાં શ્રેષ્ઠ કારણે જેમ નન્દનવનને સઘળાં વનેમાં શ્રેષ્ઠ ગણવામાં જ્ઞાન, દર્શીત અને શીલમાં ભગવાન મહાવીરને સર શ્રેષ્ઠ માનવામાં આવે છે ! ૧૮૫ શામલી વૃક્ષ દવેનુ ગણુ ય છે અને એજ આવે છે, એજ પ્રમાણે "forei' Selle शब्दार्थ - 'सहाण - शब्दानां' शब्होभां 'थणियं - स्तनितम्' भेध ना 'अणुत्तरे - अनुत्तरम्' प्रेम सर्वश्रेष्ठ छे. तथा 'ताराणं - ताराणां ' ताराभेोमां 'महाणुभावे चंदो - महानुभावः चन्द्रः' प्रेम महानुभाव मंद्रभा श्रेष्ठ हे तथा चंदणं सेट्टमाहु-गन्वेषु चन्दनम् श्रेष्ठमाद्दुः' गंधामां प्रेम यहननेो Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ artarai टीका प्र. शु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५११ - आन्वयार्थ :- (सहाण) शब्दानां मध्ये (व) यथा ( यणियं) स्तनितं - मेघगर्जनम् (अणुत्तरे) अनुत्तरं - प्रधानं भवति (व) इत्र यथात्रा (ताराणं) ताराणां - नक्षत्राणां मध्ये (चदो महाणुभावे) चन्द्रो सहानुमात्रः - महातेजस्वी अस्ति, तथा (गंधे चदणं सेट्टमाहु) गन्धेषु गन्धवत्सु द्रव्येषु चन्दनं - गोशीर्षकाख्यं मलयजं वा श्रेष्ठं प्रधानमाहुः कथयन्ति ( एवं ) एवं तथैव (सुगीणं) मुनीनां महर्षीणां मध्ये (अपडिनमाहु) अरतिज्ञ - प्रतिज्ञारहितं महावीर श्रेष्ठ माहुः - कपनयन्तीति ॥ १९ ॥ टीका - सदाण' शब्दानाम् - बीणामृदङ्गशत्र्यादिजनितानां मध्ये 'थणियं व' स्तनितमित्र - यथा मेघगर्जनम् 'अणुतरे' अनुत्तरं श्रेष्ट नास्ति उत्तरः- प्रधानो यस्मात् तदनुत्तरम् 'उ' तु पुनः 'इव' - यथा- 'वाराण' वाराणां मध्ये चन्दन का गन्ध श्रेष्ठ है 'एवं - एवम्' इसी प्रकार 'मुणीणं मुनीनां' मुनियों में 'अपडिन्नमाहु-अप्रतिज्ञमाहु' कामना से रहित ऐले भगवान् महावीरस्वामी को श्रेष्ठ कहते हैं ॥१९॥ f अन्वयार्थ - जैसे समस्त शब्दों में मेघगर्जन प्रधान है, जैसे नक्षत्रों में महान् अनुभाव - प्रकाशवाला चन्द्रमा प्रधान है, जैसे समस्त गंधवाले पदार्थों में चन्दन - गोशीर्ष या मलयज प्रधान है, ऐसा सभी कहते हैं, उसी प्रकार मुनियों में अप्रतिज्ञ महावीर को बुद्धिमान् लोक सर्वश्रेष्ठ कहते हैं अथात् महावीरस्वामी कभी प्रतिज्ञा नहीं करते थे ' साधुको प्रतिज्ञा करने का आचारांग में मना की है || १९|| टीकार्थ-वीणा, मृदंग, शंख, तुरही आदि वायों के शब्दों में मेघों की गर्जना का शब्द अनुत्तर कहलाता है, जैसे समस्त ताराओं गन्ध श्रेष्ठ छे 'एव ं - एवम्' ४ प्रमाणे 'मुणीणं - मुनीन' भुनियामां 'अपवि न्नमाहु-अप्रतिज्ञामाहुः' अमना रहित सेवा भगवान् महावीर स्वामी ने શ્રેષ્ઠકહેવામાં આવે છે. ! ૧૯૫ - - સૂત્રા—જેમ સમસ્ત શબ્દોમાં મેઘગર્જનાને ઉત્તમ માનવામા આવે છે, જેમ નક્ષત્રોમાં મહાનુભાવ પ્રકાશવાળા ચન્દ્રમાને સર્વોત્તમ માનવામાં આવે છે, જેમ સમસ્ત સુગન્ધયુક્ત દ્રબ્યામાં ચન્તન (ગેાશીષ) અથવા મલયજ (મલય પવ તમાં ઉત્પન્ન થતા ચન્તન) ને શ્રેષ્ઠ ગણવામાં આવે છે, એજ પ્રમાણે સમસ્ત મુનિએમાં અપ્રતિજ્ઞ મહાવીરને સર્વશ્રેષ્ઠ ગણવામાં આવે છે, એટલે કે મહાવીર પ્રભુ કદી પ્રતિજ્ઞા કરતા નહીં, આચારાંગમાં સાધુને પ્રતિજ્ઞા કરવાને નિષેધ કરવામાં આવેલ છે. ૫૧૯ા टीडअर्थ — प्रेम बीया, गृहग, शाम, माहि वाधोना अवान उरतां મેઘાની ગર્જનાના અવાજને શ્રેષ્ઠ ગણવામાં આવે છે, જેમ સમસ્ત તારાઓ, Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'चंदो' चन्द्रः 'नाणुभावे' महानुभावः - समलजनमऽह्लादकः परमतेजस्वितया सकलतिमिरनाशकः, ताराणां मध्ये महानुभावश्चन्द्रो यथा श्रेष्ठः । 'वा' यथा वा 'गंधेसु' गन्धवत्सु कोप्ठपुटादि सकलपदार्थेषु मध्ये 'चंदणं' चन्दनम् उक्तञ्च- . 'मलये जायमाना ये सर्वे चन्दनतां गताः।। गोशीर्ष चन्दनं जात्या सर्वचैव निगद्यते ॥१॥ 'सेटु' श्रेष्ठम् 'आहु' आहुः कथयन्ति, 'एवं' एवमेव 'झुणीणं' मुनीनाम् , समाप्तज्ञानदर्शनचारित्ररत्नत्रयवतां मध्ये 'अपडिन्नमाहु' अप्रतिज्ञस्-इहलोकपरलोकविषयकातिज्ञारहित-महातीरं-श्रेष्ठमाहुः-कथयन्ति ॥१९॥ मूलम्-जहा लयंलू उदहीण सेढे, नासु वा धणिर्दसाह सेटे। खोओदए वा रेलवेजयंते, तबोवहाणे मुणि वेजयंते ॥२०॥ छाया-यथा स्वयम्भू रुदधीनां श्रेष्ठो नागेषु वा धरणेन्द्रमाहुः श्रेष्ठम् । क्षोदोदको वा रसवैजयन्तः तप उपधाने मुनि वैजयन्तः ॥२०॥ में चन्द्रमा लमस्त जनों के मन को आह्लाद देने तथा परम उद्योतमय होने से महानुभाव कहा जाता है या कोष्ठ पुट आदि समस्त सुगंधवात् पदार्थों में चन्दन प्रधान कहा जाता है, कहा भी है'मलये जायमाना ये' इत्यादि। मलय पर्वत पर जो भी उत्पन्न हो जाता है, वही चन्दन बन जाता है। गोशीर्ष चन्दन अपनी उत्तम जाति के कारण सर्वत्र प्रशंशित होता है ॥१॥ इसी प्रकार लमस्त मुनियों में इह लोक परलोक संबंधी प्रतिज्ञा से रहित महावीर भगवान् सर्वश्रेष्ठ कहे जाते हैं ॥१९॥ નક્ષત્રો અને ગ્રહમાં ચન્દ્રમાને સૌથી વધારે મહાનુભાવ કહેવામાં આવે છે (કારણ કે ચન્દ્રમાં સમસ્ત જનોના ચિત્તને આહૂલાદ દાયક લાગે છે તથા સૌથી વધારે ઉદ્યોતમય છે), તથા જેમ કેષ્ઠ, પુટ આદિ સુગન્ધયુક્ત દ્રમાં ચન્દનને પ્રધાન (ઉત્તમ) કહેવામાં આવે છે, કહ્યું પણ છે કે'मलये जायमाना थे' त्याह મલય પર્વત પર જે કંઈ પણ ઉત્પન્ન થાય છે, એ જ ચદન બની જાય છે. ગશીર્ષ ચન્દન તેની ઉત્તમ જાતિને કારણે સર્વત્ર વખણાય છે, ૧૫ એજ પ્રમાણે સમરત મુનિઓમાં, આ લેક અને પરલોક સંબંધી પ્રતિજ્ઞા (આકાંક્ષા) થી રહિત મહાવીર પ્રભુને સર્વશ્રેષ્ઠ કહેવાયાં આવે છે. ૧૯ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थचोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् : ५१३ ___ अन्वयार्थ:- (जहा) यथा (उदहीणं) उदधीनां-समुद्राणाम् मध्ये (सयंभू से8) स्वयंभूरमणः-समुद्रः श्रेष्ठः प्रधानः (नागेमु) नागेषु नागकुमारेषु (धरणिदं सेट्ठमाहु) धरणेन्द्रं तन्नामकमिन्द्रं श्रेष्ठ माहुः (खोओदए वा रसवेनयंते) क्षोदोदक:-इक्षु. रसोदकः समुद्रो वा रसवैजयन्तो रसवत्सु प्रधानः, तथा-(तबोवहाणे) तप उपधाने विशिष्टतपोविशेषे (मुणि वेजयने) मुनिर्वैजयन्त:-मुनिर्भगवान् महावीरो वैजयन्त:प्रधान इति ॥२०॥ 'जहा सयंभू' इत्यादि। शब्दार्थ-'जहा-यथा' जैसे 'उदहीणं-उधीनाम्' समुद्रों में 'सयंभू सेटे-स्वयंभू श्रेष्ठः' स्वयंभूरमण समुद्र श्रेष्ठ है 'नागेसु-नगेषु' तथा नागकुमारों में 'धरणिंदे सेटे आहु-धरणेन्द्र श्रेष्ठम् आहुः' धरणेन्द्र को श्रेष्ठ कहते हैं 'खोओदए वा रसवेजयंते-इक्षुदको वा रसवैजयन्तः' इक्षुरसोदकसमुद्र सय रस वालों में उत्तम है तथा 'तवोक्हाणे-तप उपधाने' इसी प्रकार विशिष्ट तप के द्वारा 'मुणिवेजयंते-मुनिर्वैजयन्ता' मुनि श्री भगवान महावीरस्वामी सबसे प्रधान है ॥२०॥ __अन्वयार्थ-जैसे समुद्रो में स्वयंभूरमण समुद्र सबसे प्रधान है, नागकुमारों में धरणेन्द्र नामक इन्द्र प्रधान है, इक्षुरसोदक नामक समुद्र (शेलडी के रस युक्त समुद्र) समस्त रसवानों में श्रेष्ठ है, उसी प्रकार समस्त तपस्त्रियों में मुनि भगवान महावीर सर्वश्रेष्ठ हैं ॥२०॥ 'जहा सयंभू' त्याह शहाथ-'जहा-यथा' ले प्रमाणे 'उदहीणं-उदधीनाम्' समुद्रीमा 'सयंभूसेटे-स्वयंभूश्रेष्ठ.' २१ भूरभर समुद्र श्रेष्ठ छे. 'नागेसु-नागेपु' तथा नाममा 'धिरणिंदे सेटे आहु-धरणेन्द्र श्रेष्ठम् आहुः' घरगुन्द्र श्रेष्ठ ४३ छ. 'खोओदए वा रसवेजयंते-इक्षदको वा रस वैजयन्तः क्षु सहसमुद्र सपा ११ २सवाणाममा श्रेष्ठ छ. तथा 'तवोवहाणे-तपउपधाने' मे प्रमाणे विशेष अन त५ वा 'मुणिवेजयते-मुनिर्वैजयन्तः' भुनि श्री महावीर स्वामी સૌથી પ્રધાન છે કે ૨૦ છે સૂત્રાર્થ-જેમ સમુદ્રોમાં સ્વયંભૂમણું સમુદ્ર સર્વોત્તમ છે, તથા નાગકુમારેમાં જેમ ધરણેન્દ્ર નામને ઈન્દ્ર શ્રેષ્ઠ છે, અને સમરત રસયુક્ત પદાર્થોમાં ઈષુરાદક નામને સમુદ્ર શ્રેષ્ઠ છે, એજ પ્રમાણે સમસ્ત તપસ્વીઓમાં મુનિ ભગવાન મહાવીર સર્વશ્રેષ્ઠ છે. ૨ सू० ६५ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ . . सूत्रकृताङ्गसूत्रे टीका-'जहा' यथा 'उदहीण' उदधीनाम्-इर्दधि, क्षीरोदधि, घृतोदध्यादि समुद्राणां मध्ये 'सयंभू' स्वयम्यूरमणः, स्वयमेव भवन्तीति स्वयम्भुवो देवा स्तेषामानन्दस्थानं स्वयम्भूरमणः। स समुद्रः समुद्राणां मध्ये यथा श्रेष्ठः । यथा वा-नागेसु नागकुमारदेवेषु 'धरणिद' धरणेन्द्रम् तन्नामकमिन्द्रम् 'सेट्टे आहु' श्रेष्ठमाहुः-कथयन्ति 'खोओदए वा रसवे जयंते' क्षोदोदको वा रसबैजयन्तः, क्षोदः-इक्षुरस इव उदकं जलं यस्य स क्षोदोदका, स यथा-रसमाश्रित्य स्वकीय रसगतगुणविशेषैः इतरेषां समुद्राणां मुजि पताकेव व्यवस्थितः। तथा-'तबोव हाणे' तप उपधाने-इहलोकपरलोकसंसारहिततीव्रतपसि 'मुणिवेजयंते' मुनिवैजयन्तः, मनुते-सस्थावरात्मकलोकस्य त्रैकालिकीमवस्थां जानातीति मुनिः___टीकार्थ-जैले इर्दधि, क्षीरोदधि, घृतोदधि, आदि समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र प्रधान श्रेष्ठ है । जो स्वयं ही उत्पन्न होते हैं, वे स्वयंभू कहलाते हैं, अर्थात् देव, वे जिस समुद्र में रमण (क्रीडा) करते हैं, वह स्वयंभूरमण कहलता है । अथवा जैसे नागकुमार देवों में धरण नामक इन्द्र (धरेणेन्द्र) श्रेष्ठ कहा गया है, और जैसे इक्षुरसोद नामक समुद्र रसवाले पदार्थों में प्रधान है, क्योंकि उसका जल इक्षु के रस के समान है, अर्थात् अपने रसगुण की विशिष्टता के कारण सप समुद्रों में वह सर्वोत्तम मानाजाता है, उसी प्रकार ऐहिक और पारलौकिक आकांक्षा से रहित घोर तपस्या के कारण भगवान महावीर पताका के समान मुनियों में प्रशन है। जो उस स्थावर रूप लोक की त्रैकालिक ટીકાઈ–ઈલૂદધિ, ક્ષીરે દધિ, વૃદધિ, આદિ સમુદ્રોમાં સ્વયંભૂરમણ સમુદ્ર પ્રધાન (શ્રેષ્ઠ) ગણાય છે. જેઓ સ્વયં-એટલે કે પિતાની મેળેજ-પેદા થાય છે, તેમને સ્વયંભૂ કહે છે, એટલે કે દેવેને અહીં સ્વયંભૂ કહ્યા છે.' તેઓ જે સમુદ્રમાં અણુ (ક્રીડા) કરે છે, તે સમુદ્રને સ્વયંભૂરમણ કહે છે. મહાવીર પ્રભુને અહી સ્વયંભૂરમણ સમુદ્ર જેવાં સર્વશ્રેષ્ઠ મુનિ કહેવામાં આવેલ છે. અથવા-જેમ નાગકુમાર દેવેમાં ધરણ નામના ઈન્દ્રને શ્રેષ્ઠ ગણવામાં આવે છે, અને જેમ ઈક્ષુરશેદ નામના સમુદ્રને સમસ્ત રસવાળા પદાર્થોમાં શ્રેષ્ઠ માનવામાં આવે છે (કારણ કે તેનું પણ શેરડીના રસ જેવું મીઠું છે.) એટલે કે પિતાના રસગુણની વિશિષ્ટતાને કારણે ઈશ્નરસદ સમુદ્રને સઘળ સમુદ્રોમાં શ્રેષ્ઠ માનવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે એહિક અને પારલૌકિક આકાણાઓથી રહિત, ઘેર તપસ્યાને કારણે ભગવાન મહાવીરને પતાકાના સમાન મુનિમાં પ્રધાન માનવામાં આવે છે. જેઓ ત્રસ, સ્થાવર રૂપ લેકની Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५१५ , सामान्यकेवली तस्य बहुवचने मुनय स्तेषां मध्ये भगवान् महावीरः वैजयन्तःपताकेव प्रधानः, सम्पूर्णस्य लोकस्य वैजयन्ती इव उपरि व्यवस्थितः केवलज्ञाना: दिगुणै स्तपोभिरिति भावः ॥२०॥ . मूलम् हत्थीसु ऐरावण माहुणाए,सीही मिगाण सलिलाणगंगा। पक्खीसुवागरुले वेणुदेवो, निवाणवादीणिह णायपुत्ते॥२१॥ छाया-हस्तिष्पैरावतमाहुः ज्ञातं सिंहो मृगाणां सलिलानां गङ्गा । पक्षिषु दा गण्डो वेणुदेवो निर्वाणवादिना मिह ज्ञातपुत्रः ॥२१॥ अवस्थाओं को मनन करता है अर्थात् जानता है वह सामान्य केवली.' कहा जाता है, यहाँ सामान्य केवली शब्द ले सुनि विवक्षित है। उनमें तीर्थकर होने से भगवान महावीर प्रभु प्रधान हैं। आशय यह है कि भगवान् अपनी अद्भुन तपस्या के कारण सम्पूर्ण लोक के ऊपर पत्ताका के समान हैं ॥२०॥ 'हत्थी' इत्यादि। शब्दार्थ-'हत्यीतु हस्तिपु हाथियों में 'णाए ज्ञातं जगत्प्रसिद्ध ऐसे _ 'एरावणमाहु-ऐरावत्तम् आहुः' ऐरावत हाथी को प्रधान कहते हैं 'मिगाणं: सीहो-मृगाणां सिंह' मृगो में सिंह प्रधान है 'सलिलाणं गंगा-सलि. लानां गंगा' एवं जलों में गंगा प्रधान है अथवा 'पक्खीसु वा गरुले वेणुदेवो-पक्षिषु मध्ये गरुडो वेणु देवः' पक्षियों में वेणु देव गरुड प्रधान કાલિક અવસ્થાઓનું મનન કરે છે, એટલે કે જાણે છે, એવા સામાન્ય કેવલીને અહીં મુનિ કહેવામાં આવેલ છે. એવાં મુનિઓમાં તીર્થ કર હેવાને કારણે, મહાવીર પ્રભુ શ્રેષ્ઠ છે. તાત્પર્ય એ છે કે ભગવાન્ મહાવીર પિતાની ઘર તપસ્યાને કારણે સંપૂર્ણ લેકની ઉપર પતાકાના સમાન સર્વોચ્ચ સ્થાન ધરાવે છે–તેમની ઘેર તપસ્યાને કારણે સૌથી વધારે યશકીતિ ધરાવે છે. રબા 'हत्थी' त्याहि Aval-हत्थी सु-हस्तिपु' थियोमा 'णाए-ज्ञात' प्रसिद्ध मेवा एरावण माहु-ऐरावतम् आहु.' #रापत थाने प्रधान अपामा मावे छे. 'मिगाण' सीहो-मृगाणां सिंहः' भूगोमा सिड प्रधान छे. 'सलिलाणं गगा-सलिलानां गंगा' मक प्रभारी प्रधान छ अथवा 'पंक्खिसु वा गरले वेणुदेवो-पक्षिपु पा मध्ये गरुडो वेणु देवः' पक्षियेभा वा द्वेष-१३७ अधान छे. 'निव्वाणवादीणिह- . Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ -- (हत्थीसु) हस्तिषु (णार ) ज्ञातं जगत्मसिद्धम् (एरावणमाहु) ऐरावतं शक्रवाहनं प्रधानमाहुः - कथयन्ति यथा वा (मिगाणं सीहो) मृगाण मध्ये सिंहः प्रधानः, तथा भरतक्षेत्रापेक्षया (सलिलाण गंगा) सलिलानां - जलानां मध्ये गङ्गा श्रेष्ठा, यथा वा (पक्खीसु वा गरुळे वेणुदेनो) पक्षिषु मध्ये गरुडो वेणुदेवा परनामकः प्रसिद्धः तथा - ( हद्द) इद्द संसारे (निव्वाणवादीणिह) निर्वाण बादिनामिह मोक्षवादिनां मध्ये (णायपुत्ते) ज्ञातपुत्रो महावीरः प्रधान इति ||२१|| टीका- ' इत्थीसु' हस्तिषु 'णाए' ज्ञातं जगत्पसिद्धम्, 'रावण' ऐरावतम् इन्द्रस्य हस्तिनं श्रेष्ठमाहुः, यथा वा 'मिगाणं' मध्ये 'सीहो' सिंहः - केशरादिमान् मृगराजः श्रेष्ठः प्रसिद्धो लोके । यथा वा- 'सलिलाणगंगा' सलिलानां - जलानां है 'निव्वाणवादीणिह निर्वाणवादिना मिह' इस संसार में मोक्षवादियों में 'पुते - ज्ञातपुत्रः ' भगवान् महावीर स्वामी प्रधान है ||२१|| अन्वयार्थ - हाथियों में जगत्प्रसिद्ध शक्र का वाहन ऐरावत हाथी प्रधान कहा जाता है, अथवा जैसे भरतक्षेत्र की अपेक्षा से मृग-पशुओं में सिंह प्रधान है अथवा जलों में गंगा महानदी का जल प्रधान है, अथवा पक्षियों में वेणुदेव अर्थात् गरुड़ प्रसिद्ध है, उसी प्रकार इस लोक में समस्त निर्वाणवादियों में ज्ञातपुत्र महावीर स्वामी प्रधान हैं ॥२१॥ ५१६ टीकार्थ - ऐरावत हाथी जो इन्द्र के वाहन रूप में प्रसिद्ध है, वह समस्त हाथियों में श्रेष्ठ कहलाता है, अथवा जैसे लोक के सब पशुओं में सिंह श्रेष्ठ है, अथवा जैसे जलों में गंगा का जल प्रधान है, अथवा निर्वाणवादीनामिह ' निर्वायुवाहियो मां-भेटते! भोक्ष वाहियोभां 'णायपुत्ते- ज्ञातપુત્ર.' ભગવાન્ મહાવીર સ્વામી આજગમાં પ્રધાન છે. ॥ ૨૧૫ સૂત્રાર્થ જેમ સઘળા હાથીચામાં ઈન્દ્રના વાહન રૂપ અરાવત હાથી શ્રેષ્ઠ ગણાય છે, અથવા જેમ ભરતક્ષેત્રમાં સઘળાં પશુઓમાં સિંહ પ્રધાન (શ્રેષ્ઠ) ગણાય છે, અથવા જેમ બધી નદીઓનાં પાણી કરતાં ગંગાનદીનુ પાણી શ્રેષ્ઠ ગણાય છે, અથવા જેમ પક્ષીઓમાં વેણુદેવ અર્થાત્ ગરુડ સૌથી પ્રસિદ્ધ છે, એજ પ્રમાણે આ લેકના સઘળા નિર્વાણુ વાદીએમાં જ્ઞાતપુત્ર (भडावीर ) सर्वोत्तम . ॥२१॥ ટીકા”—શકેન્દ્રનું વાહન ઐરાવત નામના હાથી છે. તે અરાવત સઘળા હાથીઓમાં શ્રેષ્ઠ કહેવાય છે-જેમ આ લેકના સઘળાં પશુએમાં સિંહ શ્રેષ્ઠ કહેવાય છે જગતની મધી નદીએનાં જળ કરતાં ગગા મહાનદીનું 1 t Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयावधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५१७ मध्ये यथा - गङ्गासलिलं प्रधानम् । 'एक्खीसु' पक्षिषु मध्ये, यथा- 'वेणुदेवे गरुले ' वेणुदेव द्वितीयं नाम विद्यते यस्य इत्थंभूतो गरुडो विशिष्ट:- प्राधान्यमुपगतः, एवम् - 'निव्वाणवाण मिह' इह-अस्मिन् क्षेत्रे निर्माणवादिनाम्, तत्र निर्वाणं मोक्षः, सिद्धिक्षेत्रम्, कर्मापनयनरूपं वा स्वरूपतः तदुपायभूतज्ञानदर्शनचारित्रंतपः माप्ति हेतुतो वा वदितुं - प्रकाशयितुं शीलं विद्यते येषां ते निर्वाणादिनः तेषां निर्वाणवादिनां मध्ये 'णायपुत्तें' ज्ञातपुत्रः, ज्ञातः - क्षत्रियस्तस्य पुत्रः - श्री महावीरस्वामी तीर्थकरः प्रधानः । यथावस्थित निर्वाणार्थमख्यापकत्वात् । यथा हस्तिषु श्रेष्ठ ऐरावतः, यथा वा वन्येषु केशरी, जलेषु गङ्गाजलम्, पक्षिषु गरुडः, तथामोक्षवादिषु आस्तिक समुदायेषु भगवान महावीर एव श्रेष्ठो नान्यः कश्चनेति ॥ २१ ॥ जैसे पक्षियों में वेणुदेव अपर नामवाला गरुड प्रधान है उसी प्रकार निर्वाणवादियों में ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर श्रेष्ठ हैं । यहाँ निर्वाण का अर्थ है मोक्ष या सिद्धिक्षेत्र या समस्त कर्मो का क्षय अथवा निर्वाण के उपाय सम्यग्दर्शन आदि । ज्ञातवंशीय क्षत्रीय होने से भगवान् 'ज्ञातपुत्र या 'नायपुत्त' कहलाते हैं । ज्ञातपुत्र भगवान महा वीर ने मोक्ष के स्वरूप और साधनों का यथातथ्य प्ररूपण किया है, अतएव वे मोक्षवादियों में प्रधान कहे जाते हैं । अभिप्राय यह है कि जैसे हाथियों में ऐरावत, पशुओं में सिंह, नदियों में गंगा और पक्षियों में गरुड़ प्रधान है, उसी प्रकार निर्वाणवादी आस्तिकों में भगवान महावीर ही श्रेष्ठ हैं, ॥२१॥ જળ શ્રેષ્ઠ ગણાય છે. પક્ષીઓમાં ગરુડ નામનુ પક્ષી, કે જેનુ' ખીજું નામ વેદેવ છે, તે શ્રેષ્ઠ ગણુય છે. એજ પ્રમાણે જગતના સમસ્ત નિર્વાણુવાદીએમાં જ્ઞાતપુત્ર ભગવાન મહાવીર શ્રેષ્ઠ છે. અહીં નિર્વાણુ એટલે મેાક્ષ અથવા સિદ્ધિક્ષેત્ર અથવા સમસ્ત કર્મના ક્ષય અથવા નિર્વાણુના ઉપાય રૂપ સમ્યગ્દન આઢિ અથ ગ્રહણ થવા જોઈએ. ભગવાન મહાવીર જ્ઞાતવશમાં ઉત્પન્ન થયેલા હાવાથી તેમને ‘જ્ઞાતપુત્ર' અથવા ‘નાયપુત્ત' કહેવાય છે. જ્ઞાતપુત્ર ભગવાન મહાવીરે મેક્ષના સ્વરૂપનું તથા મેક્ષપ્રાપ્તિનાં સાધનાનુ યથાર્થ રૂપે પ્રતિપાદન કર્યું છે, તેથી જ તેમને શ્રેષ્ઠ મેાક્ષવાદી કહેવામાં આવ્યા છે. ત પર્યાં એ છે કે જેમ હાથીએમાં અરાવત, પશુએમાં સિંહ, નદીએનાં જળમાં ગંગાનુ જળ અને પક્ષીઓમાં ગરુડ પ્રસિદ્ધ છે, એજ પ્રમાણે નિર્વાણુવાદી આસ્તિકામાં ભગવાન્ મહાવીર જ શ્રેષ્ઠ છે રા Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ सूत्रकृताले सूत्र मूलम्-जोहेसु णाए जह वीससेणे, पुप्फेसु वा जह अरविंद माहु । खेतीण सेटे जैह देतवक्के, इसीण लेटे" तह वैद्धमाणे ॥२२॥ छाया--योधेषु ज्ञातो यथा विश्वसेन , पुष्पेषु वा यथाऽरविन्दमाहुः। क्षत्रियाणां श्रेष्ठो यथा दान्तवाक्यः, ऋषीणां श्रेष्ठ स्तथा वर्षमानः ।२२। आन्वयार्थः-(जहा) यथा-(णाए) ज्ञातो जगत्प्रसिद्धः (दीससेणे) विश्वसेनः (जोहेसु) योधेषु श्रेष्ठः (जहा) यथा वा (पुप्फे पु) पुष्पेषु (अरविंदमाहु) अरविन्दम् 'जोहेतु णाए' इत्यादि। शब्दार्थ-'जहा-यथा जैसे 'णाए-ज्ञातः' जगत् प्रसिद्ध 'वीससेणेविश्वसेनः, विश्वसेन 'जोहेसु-योद्धेषु' योद्धाओं में 'सेतु-श्रेष्ठ' श्रेष्ठ , है 'जहा-यथा' जैसे 'पुप्फेस्लु-पुष्पेषु' पुष्पों में 'अरविंझाहु-अर. विंदम् आहुः कमलको प्रधान कहते हैं 'जहा-यथा' जैसे खत्तीणंक्षत्रियाणां' क्षत्रियों के मध्य में 'दंतवक्के सेठे-दान्तवक्यः श्रेष्ठ' दान्तवाक्य-चक्रवर्ती श्रेष्ठ है 'तह-तथा' इसीप्रकार 'इसीण-ऋषीणां' ऋषियों में 'वद्धमाणे सेटे-बर्द्धमानो श्रेष्ठः' वर्द्धमान महावीर स्वामी ही श्रेष्ठ है ॥२२॥ ___ अन्वयार्थ--जैले योद्धाओं में जगप्रसिद्ध विश्वलेन चक्रवर्ती श्रेष्ठ है जैले पुप्पों में कमलपुष्प प्रधान है अथवा जैसे क्षत्रियों में दान्तवाक्य चक्रवर्ती श्रेष्ठ है, उसी प्रकार ऋषियों में वर्द्धमान महावीर श्रेष्ठ हैं॥२२॥ 'जोहेसु णाए' शाय-'जहा-यथा' प्रभा 'णाए-जातः' प्रसिद्ध 'वीससेणे-विश्वसेनः' विश्वसेन यती'जोहेसु-योद्धेपु' 'योध्या मामा 'सेटे-श्रेष्ठ.' श्रेष्ठ छे भने । 'जहा-यथा' २ प्रमाणे 'पुप्फेपु-पुष्पेषु' पुण्यामा ‘अरवि दमाई-अरविन्दम् आहुः' मान प्रधान ४ामा सावे छे. 'जहा-यथारे प्रमाणे 'खतीण-क्षत्रियाणां' क्षत्रियामा ‘दंतवक्के सेटे-दान्तवाक्यः श्रेष्ठ' होता४५ यता श्रेष्ठ छ. 'तह-तथा' मे प्रभारी 'इसीण-ऋषीणां'ऋषियमा 'वद्धमोणे सेतु-वर्धमानो श्रेष्ठः' बईमान महावीर स्वामी श्रेष्ठ छे. ॥ २२ ॥ . . સૂત્રાર્થ–જેમ ચોદ્ધાઓમાં જગવિખ્યાત વિકસેનને શ્રેષ્ઠ ગણવામાં - આવે છે, જેમ પુમાં કમળને શ્રેષ્ઠ ગણવામાં આવે છે, જેમ ક્ષત્રિમાં , Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ afai टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ६१९ - - कमलं प्रधानमाहुः - कथयन्ति ( जहा ) यथा वा (खनीणं) क्षत्रियाणां मध्ये ( Earth सेट्टे) दान्तवाक्यः चक्रवर्ती श्रेष्ठः (तद) तथा (इसीण) ऋषीणां मध्ये (वद्धमाणे) वर्द्धमानो महावीर : (सेडे) श्रेष्ठः प्रधान इति ॥ २२ ॥ टीका- 'जहा ' यथा 'णार' ज्ञातो - जगति प्रसिद्धः 'जोहेसु' योधेषु 'वीस सेणे' विश्वसेनः - चक्रवर्ती, यथा योधेषु प्रधानतया लोके प्रसिद्धः । 'जह' यथा वा 'पुप्फे ' पुष्पेषु - वकुलमन्दारचम्पकादिषु बहुषु अरविन्दं - नीलोत्पलं श्रेष्ठमाहुः, पुष्षाणां गुणाऽवगुणज्ञातारः, 'जह' यथा- 'खतीण' क्षत्रियाणां मध्ये 'तक्के' दान्तवाक्यः क्षतान्नाशात् त्रायन्ते - रक्षन्ति ये ते क्षत्रियाः तेवां क्षत्रियाणां मध्ये दान्तवाक्यः क्षत्रिय इव दान्ताः उपशान्ताः वाक्यादेव शत्रवो यस्य स दान्तवाक्यः - चक्रार्त्ती । यद्यपि विश्वसेनदान्तवाक्यावुभावपि चक्रवर्त्तिनौ तयोरेकस्यैव कथनेन निर्वाहात् उपशेः कथनेन पुनरुक्तिरूपा शङ्का 3 टीकार्थ - जिस प्रकार समस्त योद्धाओं में, जगत् में प्रख्यात विश्वसेन नामक चक्रवर्ती प्रधान कहा जाता है, अथवा जैसे बकुल मन्दार चम्पक आणि बहुत प्रकार के पुष्पों में पुष्पों के गुणावगुणों के ज्ञाता अरविन्द अर्थात् नील कमल के पुष्प को श्रेष्ठ कहते हैं, अथवा जैसे समस्त क्षत्रियों में 'क्षत अर्थात् नाश से त्राण अर्थात् रक्षण करने वाला क्षत्रिय कहलाता है' दान्तवाक्य प्रधान कहा जाता है, क्योंकि जिसके वचन मात्र से शत्रु दान्त अर्थात् उपशान्त होजाएँ उसे 'दान्त वाक्य' कहते हैं । 'यद्यपि विश्वसेन और दान्तवाक्य दोनों चक्रवर्ती हैं, इनमें से किसी एक का ही ग्रहण करने से काम चल सकता है, अतः दोनों का ही ग्रहण करना पुनरुक्ति है, ऐसी अशंका की जा દાન્તવાકય ચક્રવર્તી ને શ્રેષ્ઠ ગણવામાં આવે છે, એજ પ્રમાણે સમસ્ત ઋષિએમાં વમાન મહાવીર સ્વામી શ્રેષ્ઠ છે. રા ટીકાથ—જેવી રીતે સમરત ચેદ્ધાઓમાં વિશ્વસેન ચક્રવત્તા પ્રસિદ્ધ થઈ ગયેા છે, અથવા જેમ બકુલ ચ ।, ગુલામ આદિ સઘળાં इेसमां, सोना गुणावगुणाना लघुअरी, अरविंह-नी भजने श्रेष्ठ हे छे, અથવા જેમ સમસ્ત ક્ષત્રિયામાં (ક્ષત એટલે નાશ. નાશમાંથી ત્રાણુ-રક્ષણ કરનારને ક્ષત્રિય કહે છે (દાન્તવાક્ય સશ્રેષ્ઠ ગણુાય છે) કારણ તેના અવાજ માત્ર સાંભળતાં જ શત્રુએ દાન્ત એટલે કે ઉપશાન્ત થઈ જતા, જેના અવાજ સાંભળતાં જ શત્રુએ દાન્ત થઈ જાય છે, તેને દાન્તવાકય કહે છે એજ પ્રમાણે ઋષિયામા શ્રી વર્ધમાન મહાવીર સ્વામી શ્રેષ્ઠ છે. શ’કાવિશ્વસેન અને દાન્તવાકય. આ બન્ને ચક્રવતીએ છે. તેથી અહી. પુનરુક્તિ દેખ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० सूत्रकृताङ्गसूत्रे जायते तत्राह-योत्रेषु प्रधानत्वान् वाक्यमभावशालित्वात्, अर्थभेदेनोभयोः पार्थक्येन ग्रहणात् न पुनरुक्तिः । 'वह' तथा 'इसीण' ऋषीणां तपस्विनां मध्ये 'वद्धमाणे' श्री वर्द्धमानः 'सेट्टे' श्रेष्ठ, इतः पुरा प्रशस्यप्रशस्यतरप्रशस्यतमादिना दृष्टान्तेन भगदतः स्वरूपमुवर्णितवान् । तदधुना तानेव दृष्टान्तान् प्रद दार्शन्तिकं भगवन्तं नामग्रहणेन निर्दिष्टवान् । यथा यधेषु विश्वसेनः, यथा वा पुष्पेषु नीलमुत्पलम्, क्षत्रियेषु चक्रवर्ती, तथा तपञ्चरतां मध्ये भगवान् वर्द्धमानस्वामी श्रेष्ठ इति ॥ २२ ॥ मूलम् - दाणाण सेंटू अभयप्पयाणं, सच्चेसुं वा अणवज्जं वयंति । तत्रेसु वा उत्तम भचेरं लोगुत्तमे समणे नायपुत्ते ॥ २३ ॥ सकती है, किन्तु इनमें से एक योद्धाओं में प्रधान है और दुमरा प्रभावशाली वाक्य वाला है । इस प्रकार दोनों के अर्थ में भेद होने से पुनरुक्ति नहीं समझनी चाहिए । उसी प्रकार ऋषियों में श्रीवर्द्धमान श्रेष्ठ हैं। इससे पूर्व प्रशस्य, प्रशस्तर और प्रशस्यतम आदि दृष्टान्तों द्वारा भगवान् के स्वरूप का वर्णन किया था, अब उन्हीं दृष्टान्तों को दिखलाकर दान्तिक भगवान् का नामोल्लेख करके निर्देश किया है । जैसे योद्धाओं में विश्वसेन, पुष्पों में नीलकमल का पुष्प, क्षत्रियों में दान्तवाक्य चक्रवर्ती प्रधान है, उसी प्रकार तपस्वियों में वर्द्धमान् स्वामी श्रेष्ठ हैं ||२२|| થતા લાગે છે. બન્નેમાંથી કાઈ પણુ એકની ઉપમા આપી હાત તા ક્રામ ચ વી શકત. સમાધાન–વિશ્વસેન ચેાદ્ધાઓમાં પ્રધાન હતા, અને દાન્તવાકય પ્રભાવ. શાળી વાકયવાળા હતા. આ કારણે તે અને ચક્રવતી એમાં ખાસ વિશિષ્ટતા હેવાથી અને તેના અર્થમાં ભેદ આવતા હૈાવાથી ઉપમામાં પુનરુક્તિ દોષના સભવ રહેતા નથી આગળ પ્રશસ્ય પ્રશસ્યનર, અને પ્રશસ્યતમ આદિ દૃષ્ટ ન્તા દ્વારા મહાવીર પ્રભુના સ્વરૂપનું વર્ચુન કરવામાં આવ્યુ' છે, હવે એન્ડ્રુ દૃષ્ટાન્તાને આધારે દાર્જીન્તિક ભગવાનના નામના ઉલ્લેખ સાથે નિર્દેશ કરવામાં આવે છે જેમ ચેદ્ધાઓમાં વિશ્વસેન, પુપેામાં નીલકમલ, અને ક્ષત્રિયામાં દાન્તવાË શ્રેષ્ઠ ગØાય છે, એ જ પ્રમાણે તપસ્વીઓમાં વધમાન સ્વામી શ્રેષ્ઠ છે. ા૨ા Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयाथबााधना टाक का प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५२३ छाया-दानान"" दमनो नामा । स च कदाचित् चतुहिपी समुपेतः मासाद ऽत्मानं विनोदयस्तिष्ठति स्म । तेन राज्ञा कदाचिव चौरो मुण्डमालो रक्ताऽम्बरपरिधानो पाणदानं (से8) श्रेष्ठ रक्तचन्दनोपलिप्ताङ्गः रुपैः- राजमार्गेण नीयमानः सपत्नीकेन दृष्टः । संहताभि वधं-परपीडाऽनुत्पादकं वाय तपस्स मध्ये (बंभचेर उत्तम) * कृतमनेन, यदर्थं यस्येदृशी अवस्था लोकैश्च कापि ' गपितम् यदयं परद्रव्याऽपहरणमकरोत् । नीतिप्रधानं तथैव (समणे) श्रमणः (नायपुर त्तमः-त्रिलोकेयूत्तमः ॥२३॥ को निर्णीतः । अतो मारणाय नीयते वध्य'दाणाण सेटुं' इत्यादि। मन नामका राजा था। एक चार शब्दार्थ-दाणाण-दानानां सब रहल के झरोखे में क्रीडा करता -अभयप्रदानम्' अभयदान 'से,-श्रेष्ठसया के साथ राजा की दृष्टि एक सत्यवचनों में प्रणय-अनव' के पुष्पा का माला पड़ी थी. ऐसा सस्य श्रेष्ठ है ऐसा 'वयंति-वदन्तिचन्दन से उसका शरीर लिप्त तपों में 'यंभचेरं उत्तम-ब्रह्मचर्यम् उत्तमम्' न काडुगडुगा बजाई जा रही है इसी प्रकार 'समणो-श्रमणः' इस लोकल जा रहे थे। . पुत्ते-ज्ञातपुत्रः' ज्ञात पुत्र वर्द्धमान स्वामी 'लो इसने क्या दुष्कर्म किया उत्तम नाम श्रेष्ठ है ॥२३॥ "' और राजपुरुष इसे कहाँ -अन्वयार्थ-जैले ममस्त दानों में अ वाक्यों में अनवद्य अर्थात् जो परपीडाजनक नद्रव्य का अपहरण किया श्रेष्ठ है और तपों में नववाड़ युक्त ब्रह्मचयथा सूत्रा२ मे २६५ श्रमण ज्ञातपुत्र वद्धमान महावीर स्वामी तीना तयार नामा , 'दाणाणं से, હતો એક દિવસ તે પિતાની शहाथ-'दाणाणं-दानानां' या ना नामोटो मेठी पातविना श नम्' समयहान 'सेटुं-श्रेष्ठम्' उत्तम छ 'सच्चेसु-मे मन्विान योर ५२ 'अणवज्ज-अनवद्यम्' नाथी छन ५६ पाउन थाय भाका हती. तो खान प्रभा 'वयंति-वदन्ति' छे. 'तवेसु-तपस्सु' तपामा १२ पास यहनना बेप उत्तमम्' नपटियुत आयु ब्रह्म यय श्रेष्ठ छे. मे । आभा श्र वान् 'नायपुत्ते-ज्ञातपुत्रः' ज्ञात ज्ञातपुत्र सात ता. 'लोगुत्तमे-लोकोत्तमः' माथी उत्तम मात् श्रे४ छ । સૂત્રાર્થ-જેમ સમસ્ત દાનમાં અભયદાન શ્રેષ્ઠ છે, वीन पूछयुઅનવદ્ય, એટલે કે કેઈ ને માટે પીડાજનક ન. હોય છે તેના આ પ્રકારની શ્રેષ્ઠ છે, એ જ પ્રમાણે શ્રમણ જ્ઞાતપુત્ર વર્ધમાન ત્રણે લોકમાં सु० ६६ 1નું અપહરણ કર્યું છે, Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ .. सूत्रकृताङ्गंसूत्रे भूमौ । तच्छु-या ताभिरुक्तम्-राजन् ! योऽस्माकं भवता पूर्व वरो दत्तः, दीयतां सोऽस्मभ्ययेकदिनाय येनैनर किश्चिदुपहरिष्यामहे । प्रहस्य राज्ञाऽपि स्वीकृतम् , ततः प्रथमया महिष्या कयाऽपि स्नानादिपुदस्सरम-अलङ्काराऽऽलड्कृतो दीनारसहस्रव्ययेन शब्दावीन विषशन मापय्यैकमहो यावद् यापितः। द्वितीयदिवसे त्वरमाणयाऽपरया तथैव पश्वमहनदीनारव्ययेन लालितःततीययाऽपि तृतीयदिने दशसहसवीनारव्ययेन लालित पालितः पोपितचौरः । चतुर्थदिने चतुर्थी पट्टमहिपी है। लीतिशास्त्र में प्रदर्शित मार्ग से यह चोर साबित हो चुका है। अतएव इसे मारने के लिए बगभूमि की ओर ले जा रहे हैं। यह सुनकर दानियों ने कहा-महाराज! आपने पहले हमें जो ६एदान दिया था, वह इस समय दीजिए, जिससे हम इसका कुछ उपकार कर सकें। राजा ने मुस्करा कर स्वीकृति प्रदान की।नम पहली रानी ने स्नान आदि करवाकर, अलंकारों से अलंकन करके, एक हजार दीनार (मोहरे) व्यय कर के उस चोर को मनोज्ञ शब्द आदि विषयों का उपभोग करवाया। इस प्रकार एक दिन व्यतीत हो गया। दूसरी रानी ने पांच हजार दीनार व्यय करके उली प्रकार उसे रक्खा । तीसरे दिन तीसरी रानी ने दस हजार व्यय करके चोर का लालन पालन पोषण નીતિશાસ્ત્રમાં પારકા દ્રવ્યનું અપહરણ કરવાનો નિષેધ છે. તે ચેર સાબિત થઈ ચુક્યો છે, તેથી તેને મોતની સજા ફરમાવવામાં આવી છે આ સજાને અમલ કરવા માટે અમે તેને વધસ્યાને લઈ જઈએ છીએ આ પ્રકારને જવાબ સાંભળીને રાણીઓએ રાજાને વિનંતિ કરી– મહારાજ! આપની પાસે અમારૂં એક વરદાનનું લેણું છે, અમે તે વરદાન દ્વારા આ માણસ ઉપર બની શકે તેટલે ઉપકાર કરવા માગીએ છીએ, તે અત્યારે અમને તે વરદાન માગી લેવા દે”. રાજાએ મંદ મંદ હાસ્ય સહિત તેમની તે વાત મંજૂર કરી. ત્યારે પહેલી રાણીએ તે ચેરને સ્નાન આદિ કરાવીને અલંકારાથી વિભૂષિત કરીને, એક હજાર દીનાર (સેના મહેરે) ખર્ચને તે ચોરને મનેણ શબ્દાદિ વિષ. જેનો ઉપભેગ કરાવ્યો. આ પ્રકારે એક દીન વ્યતીત થઈ ગયે. બીજે દિવસે બીજી રાણીએ પાંચ હજાર સોનામહે ખચીને તેને એજ પ્રમાણે શબ્દાદિ વિષને ઉપભેગ કરાવ્યો. ત્રીજે દિવસે ત્રીજી રાણીએ દસ હજાર સેનામહેર ખચીને તે ચોરનું લાલન પાલન કરીને તેને સુખ આપવાનો પ્રયત્ન Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ०९ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५२५ राज्ञो मतिमादायाभयदानेन मरणादक्षितवती । ता एकदा चतुर्थी मद्दिपी अन्याभि हिपीरुपहसिता राज्ञो महिणा मन्यतमया त्वया किमपि किमिति नोपकृतऔर इति। चौरोपकाराऽ वर्व गर्व गर्भित गर्जितानां तासां समक्षमणाऽऽहूयचीरं पृष्टवान् राजा, अहो कथय सत्यम्, कया बहू कृतोऽसि । चौरेणाऽनादि. तुरीययाऽनया राजन् | अमयमदायि दक्षिणा | अमप्रमाने दानश्रवणेन पुनीतमिवा ssमानमवगच्छामि । त एतावतैव सिद्धम् यत् सर्वदानेषु श्रेष्ठ मयदानमेव । 'सच्चे' सत्येषु मध्ये यत् 'अणवज्जे' अनवधम् परपीडाऽनुत्पादकं तत् सत्य किया । चौथे दिन अपमानिया चौथी रानी ने, जो पट रानी थी, की सलाह लेकर उस चोर की अभयदान देकर रक्षा की । राजा एक दिन शेष रानियाँ चौथी रानी का उपहास करती हुई कहने लगी-तुम बहुत कृपण हो । तुमने उस चोर के लिए कुछ भी व्यय नहीं किया । उन रानियों को चोर का उपकार करने का बड़ा घमण्ड था । इस कारण वे अपने उपकार का खूब बखान कर रही थीं। तब राजा ने उस चोर को उनके सामने बुलवाया और पूछा-सच-सच बना, किस रानी ने तेरा बहुत उपकार किया है ? चोर ने उत्तर दिया इन चौथी महारानी ने मुझे अभय की दक्षिणा दी। अभयदान पाकर मुझे ऐसा लगा मानों मेरा पुनर्जन्म हुआ है ! इस कथानक से सिद्ध है कि सर्वदानों में अभयदान ही श्रेष्ठ है । કર્યાં. ચેાથે દિવસે ચેથી રાણીએ (પટરાણીએ) રાજાની પાસે વચન માગ્યું કે આ ચારને અભયદાન દા. રાજાએ તેને અભયદાન દીધુ.. આ રીતે ચેાથી રાણીએ તેને જીવતદાન અપાવ્યું હવે બીજી ત્રણે રાણીઓએ ચેાથી રાણીનેા આ પ્રમાણે ઉપહાસ કરવા માંડચે-“તમે ખૂમ જ કજૂસ છે! તમે તે ચોરની પાછળ એક પાઇ પણ ખચી નહી... !' તે રાણીએના મનમાં એવા અહુ'ફાર થયેા કે અમે ચીર ઉપર ઘણે! માટે અનુગ્રહ કર્યાં છે, તે કારણે તેએ પેાત પેાતાના ઉપકારના વખાણુ કર્યો કરતી હતી. ત્યારે રાજાએ તે ચોરને પેાતાની પાસે ખેલાવીને આ પ્રમાણે પૂછ્યું; “તું કાઇ પણ પ્રકારને સંકોચ રાખ્યા વિના સાચે સાચુ' કહી દે કે કઈ રાણીએ તારા પર વધારેમાં વવારે ઉપકાર કર્યાં છે ?” ત્યારે તેણે જવાબ આપ્યા-” આ ચોથી મહારાણીએ મને અભયદાન અપાવીને મારી રક્ષા કરી છે અભયદાન મળવાથી મને તે જાણે નવુ જીવન - भजी गयुं छे. " · આ ઉદાહરણ દ્વારા એ સિદ્ધ થાય છે કે સમસ્તદાનેામાં અભયદાન श्रेष्ठ छे. Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ सूत्रकृतागसूत्र वचनमेव श्रेष्ठमिति 'वयंति' वदन्ति शास्त्रात्तवेत्ता, न तु परिपीडोत्पदकं सत्य सद्योहितमिति कृत्वा-तथा चोक्तम् 'लोकेऽपि श्रूयते वादो यथा सत्येन कौशिकः। पतितो वधयुक्तेन नरके तीनवेदने । अन्यदपि तदेव काणं काणत्ति पंडगं पंडगत्ति वा । पाहियं वा वि शेगिति तेणं चोरोत्ति नो वदे॥' .. नीतिशास्त्रेऽप्युक्तम्-सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यममियम् । सत्यं च नाऽनृतं ब्रूया देष धर्मः सनातनः' ।।१॥ इति, शास्त्र के तत्व के वेत्ता सत्यों में उसी सत्य को श्रेष्ठ कहते हैं जो निश्वद्य हो अर्थात् जिस पर को पीड़ा उत्पन्न न होती हो। जो वचन परपीडाजनक हो वह श्रेष्ठ नहीं है, क्यों कि सत्पुरुषों के लिए जो हितकर हो, वही सत्य कहलाता है। कहा भी है-'लोकेऽपि श्रूयते वादो' इत्यादि। ___कौशिक हिंसाकारी सत्य से तीव्र वेदना वाले नरक में पड़ा ऐसा बाद लोक में भी सुना जाता है ॥१॥ और भी कहा है-'तहेव काणं काणत्ति' इत्यादि। काणे को काणा न कहें, पंडक (नपुंसक) को पंडक न कहे, बीमार को बीमार न कहे और चौर को चोर न कहे, क्योंकि ऐसा कहने से उन्हें पीड़ा पहुँचती है ॥१॥ नीतिशास्त्र में भी कहा है-'सत्यं ब्रूपात् प्रियं ब्रूयात्' इत्यादि । શાસોએ એજ સત્યને શ્રેષ્ઠ કહ્યું છે કે જે નિર દ્ય એટલે કે પરને ' પીડાકારી ન હોય. જે વચન પરપીડાજનક હોય તેને કદી પણ શ્રેષ્ઠ કહી શકાય નહીં, કારણ કે પુરુષને માટે જે હિતકર હોય, તેને જ સત્ય अडवाय छ- यु ५ छे -"लोकेऽपि श्रूयते वादा” या “शिडिंसाકારી સત્યને કારણે તીવ્ર વેદનાવાળા નરકમાં પડે, એવી માન્યતા લેકેમાં प्रयलित छ मेट मे " ॥१॥ ____quी मे ४धु छ है " तहेव काण काणत्ति " rule : .. "jान थे। ४३वाय नही, नभने न पाय नाही, भीमाઅને બીમાર ન કહેવાય અને ચોરને ચોર ન કહેવાય કારણ કે તેમ કહેવાથી तेन भय छ, नीतिशास्त्रमा पशु मे घुछे - “ सत्य ब्रूयात् प्रियं Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५२७ 'त वेसु' तपःसु मध्ये 'वमचेरं' ब्रह्मचर्यम् नवविधवाटिकोपेतम् उत्तमंप्रधानं भवति । तथा-'समणे' श्रमणः श्रमणः 'नायपुत्ते' ज्ञातपुत्र: 'लोगुत्तमे लोकोत्तमः-सर्वलोकोत्तमरूपसंपदा सर्वातिशायिन्या शक्त्या क्षायिकज्ञानदर्शनाभ्यां शीलेन च ज्ञातपुत्रो भगवान् श्रमणो महावीरः सर्वोत्तमः। 'दानानामभयं दानं श्रेष्ठ मित्यभिधीयते । परपीडाऽनुत्पादकं सत्यं सत्येषु शस्यते ॥१॥ द्वादशविधतपस्म ब्रह्मचर्यमुत्तमं तथैव ज्ञातपुत्रो महावीरो लोकोत्तमः लोके पूत्तम इत्यर्थः ॥२३॥ मूलम्-ठिईणं सेंटा लवसत्तमा वा सभा सुहम्मा व सभाण सेट्रो। सत्य भाषण करे, प्रिय भाषण करे किन्तु अपिय सत्य न कहे। सत्य असत्य का मिश्रण करके भी न कहे। यही धर्म है॥१॥ जैसे शास्त्रों में समस्त तपो में नववाड़ से युक्त ब्रह्मचर्य को प्रधान कहा है, उसी प्रकार श्रमण ज्ञातपुत्र समस्त लोक में उत्तम हैं। सर्वोत्तम शक्ति, क्षायिकज्ञान-दर्शन और शील में श्रमण भगवान् महावीर सब से श्रेष्ठ हैं।। आशय यह-सय दानों में अभयदान श्रेष्ठ कहा जाता है, समस्त सत्यवचनों में परपीड़ा न उत्पन्न करने वाला निरवद्य वचन उत्तम कहा जाता है और धारह प्रकार के तप में ब्रह्मचर्य तपश्रेष्ठ कहा जाता है, इमी प्रकार जातपुत्र महावीर सघ लोक में उत्तम हैं ॥२३॥ यात्" त्याहि-सत्य मास', ५५ ते प्रीति:२ मास नये, ५ मप्रिय લાગે એવું સત્ય બે લવું નહીં. સત્ય અને અસત્યના મિશ્રણવાળાં વાક્યો પણું બોલવા જોઈએ નહીં. એજ ધર્મ છે. ૧ એજ પ્રકારે શાળામાં બાર પ્રકારનાં તપમાં નવવાડયુક્ત બ્રહ્મચર્યને શ્રેષ્ઠ 5 તપ કહ્યું છે. અભયદાન નિરાઘ સત્ય વચન અને નવવાયુક્ત બ્રહ્મચર્યની જેમ જ્ઞાતપુત્ર મહાવીર સ્વામી સમસ્ત લેકમાં સર્વોત્તમ છે. સર્વોત્તમ શક્તિ, ક્ષાયિક જ્ઞાનદર્શન અને શીલમાં શ્રમણ ભગવાન્ મહાવીર જ શ્રેષ્ઠ છે તાત્પર્ય એ છે કે જેમ દાનમાં અભયદાન, સત્યવચનમાં પરપીડા ન ઉત્પન્ન કરનાર નિરવ વચન, અને બાર પ્રકારનાં તપમાં બ્રહ્મચર્ય તપ શ્રેષ્ઠ ગણાય છે, એ જ પ્રમાણે જ્ઞાતપુત્ર મહાવીર સમસ્ત લેયમાં શ્રેષ્ઠ છે. ૨૩ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ सूत्रकृताङ्गसूत्र निव्वाण सेठ्ठा जह सवधम्मा, __णे णायपुत्ता परमत्थि णाणी ॥२४॥ छाया-स्थितीनां श्रेष्ठा लसप्तमा वा समा सुधर्मा इव सभानां श्रेष्ठा। निर्वाणश्रेष्ठा यथा सर्वधर्मा न ज्ञातपुत्रात् परोऽस्ति ज्ञानी ॥२४॥ अन्वयार्थः -'ठिईण' स्थितीनां-स्थितिमताम् 'लवसत्तमा' लवसप्तमा-पश्चानुत्तरविमानवासिन देवा इत्र 'सेट' श्रेष्ठा:-प्रधानाः 'समाण' समानां परिषदर्दा मध्ये 'सुहम्मा सभा सेट्ठा' सुधर्मा सभा सर्वतः श्रेष्ठा-प्रधाना यथा वा 'जहा' यथा 'ठिईण सेठ्ठा' इत्यादि । शब्दार्थ-ठिईग-स्थितीनां' जैसे स्थितिवालों में 'लवसत्तमालवसप्तमा:' पांच अनुत्तर विमानवाली देव 'सेट्ठा-श्रेष्ठाः' श्रेष्ठ है तथा 'सभाण-सभाना सब सभाओं में 'सुहम्मा सभा सेट्टा-सुधर्मा सभा श्रेष्ठा' सुधर्मा सभा सबसे श्रेष्ठ है एवं 'जहा-यथा' जैसे सव्व धम्मा-सर्वधर्म.' सब धर्मों में 'निवाण सेट्ठा-निर्वाण श्रेष्ठा.' जैसे मोक्ष श्रेष्ठ है इसी प्रकार ‘ण नायपुत्ता परमत्थि नाणी-न ज्ञातपुत्रात् परः अस्ति ज्ञानी' ज्ञातपुत्र भगवान महावीर स्वामी से कोई श्रेष्ठ ज्ञानवाला नहीं है ॥२४।। अन्वयार्थ--जैसे स्थिति में अर्थात् स्थितिवालों में, लवसप्तम अर्थात् पाँच अनुत्तर विमानवाली देव श्रेष्ठ हैं, सब सभाओं में सुधर्मा .. — “ ठिईण सेढा " त्याह ठिई-स्थितना' म , स्थितिवाणीमा 'सत्तमा-लबम प्रमाः' पाय अतुत्तर विमानवासी है। सेटा- श्रेष्ठः' श्रेष्ठ छ. तथा 'सभाणसभानां' 'धी सभासमा 'सुहम्मा सभ सेट्टा-सुधर्मासभा श्रेष्ठा' सुघमासमा सोथी श्रे४ छे. तेभर 'जहा-यथा' यथाभ 'सन्न धम्मा-सर्वधर्माः' मधा १ धीमा 'निव्वाणसेवा-निर्वाणयेष्ठाः' म मोक्ष श्रेष्ठ छ. मे प्रमाणे 'ण णायपुत्ता परमस्थि नाणी-न ज्ञातपुत्रात् परः अस्ति ज्ञानी' ज्ञातपुत्र भगवान् મહાવીર સ્વામીથી કેઈ પણ શ્રેષ્ઠ જ્ઞાનવાળુ નથી. એ ર૪ છે સૂવા–જેમ સ્થિતિવાળા જીમાં લવ તમને—પાંચ અનુત્તર વિમાન વાસી દેને-બે ઠ માનવામાં આવે છે, જેમ સવળી સભાઓમાં સુધર્મા સભાને Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५२९ सव्वधम्मा' सर्वधर्माः 'निवाण सेवा' निर्वाणश्रेष्ठाः-निर्वाणप्रधानाः सन्ति, तथा'ण णायपुत्ता परमत्थि नाणी' ज्ञातपुत्रमहावीरात् परोऽधिको ज्ञानी नास्तीति ।।२४॥ टीका-- "ठिईण' स्थितीनां-स्थितिमतां मध्ये 'लवमत्तमा' लवसप्तमा:पञ्चाऽजुत्तरविमानवासिनो देवाः सर्वोत्कृष्टस्थितिवर्तिनः 'सेट्टा' श्रेष्टा:-प्रधानाः, तथाहि-लवाः शाल्पादिकवलिकाः लक्नक्रिया (छेदल क्रिया) ममिताः कालविभागा: सप्त सप्तसंख्या मान-प्रमाणं यस्य कालस्यासौ लबसप्तम स्तं लबसप्तमं कालं यावदायुष्य प्रभवति सति ये शुभाध्यवमायप्रवृनयः सन्तो मोक्षं न गताः किन्तु देवेपूत्पन्ना स्ते लवसप्तमा स्ते च सर्वार्थसिद्धार्थाभिधानानुत्तरविमानवासिनो देशः, अतस्ते लवसप्तमाः कथ्यन्ते । 'समाण' समानां परिषदां मध्ये 'सट्टा' श्रेष्ठा सभा श्रेष्ठ है जो सभी धर्म निर्वाणप्रधान हैं. उसी प्रकार ज्ञातपुत्र महावीर से अधिक कोई ज्ञानी नहीं है ॥२४॥ टीकार्थ--जितने भी स्थिति वाले हैं, उनमें पाँच अनुत्तर विमानों में वसने वाले देव सर्वोत्कृष्ट स्थिति वाले हैं। शालि आदि की लवनक्रिया (एक मुट्ठि काटने) में जितना समय लगता है, वह लय कहलाता है। सात लचों का मान जितना काल लवसप्तन कहलाता है। अनुत्तर विमानवासी देवों की यह संज्ञा है। इसका कारण यह है कि सात लव की आयु यदि उन्हें अधिक मिल गई होती तो वे अपले गद्ध परिणामों से मोक्ष प्राप्त कर लेते । किन्तु आयु की इतनी न्यूनता होने से वे मोक्ष प्राप्त न कर सके और अनुत्तर विमानों में देव रूप से उत्पन्न हुए। શ્રેષ્ઠ માનવામાં આવે છે, જેમ સઘળા ધર્મો નિર્વાણપ્રધાન ગણાય છે, એજ પ્રમાણે જ્ઞાત પુત્ર મહાવીર કરતાં અધિક જ્ઞાની અન્ય કેઈ નથી ૨૪ ટકાથ–સ્થિતિવાળા જેટલાં જીવે છે, તેમાં પાંચ અનુત્તર વિમાનોમાં નિવાસ કરનારા દેને સંસ્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા માનવામાં આવે છે. શાલિ (એક પ્રકારની ડાંગર) આદિની લવનક્રિયામા–એક મુઠ્ઠી શાલિ આદિની કાપણી કરવામાં–જેટલે સમય લાગે છે, એટલા સમયને ‘લવ' કહે છે. સાત લવપ્રમાણે કાળને “લવસપ્તમ' કહે છે. અનુત્તર વિમાનવાસી દેને માટે આ સંજ્ઞા પ્રચલિત છે. તેનું કારણ એ છે કે જે તેમને સાત લાપ્રમાણુ અધિક આયુષ્ય મળ્યું હોત, તે તેઓ પોતાના શુદ્ધ પરિણામોને લીધે મોક્ષ પ્રાપ્ત કરી શકળ્યા હતા. પરંતુ આયુની એટલી ન્યૂનતાને લીધે તેઓ મોક્ષ પ્રાપ્ત કરી શક્યા નહી, અને તેમને અનુત્તર વિમાનમાં દેવ રૂપે ઉત્પન્ન થવું પડ્યું. તેમની સ્થિતિ (આયુ કાળ) સૌથી વધારે હોય છે. - २०६७ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'सुम्मा सभा व' सुधर्मा सभा इव वहुक्रीडास्थानैर्युक्तत्वात् । 'जह' यथा -सन् धम्मा' सर्वेऽपि धर्माः 'निव्वाणसेड।' निर्वाणश्रेष्ठा मोक्षप्रधाना भवन्ति, कुप्राचनिका अपि निगफलकमेव स्वदर्शनं ब्रुवते' तथा 'णायपुत्ता' ज्ञातपुत्रात् 'परं' परमधिकम् 'नाणी' ज्ञानी नास्ति सर्वथैव हि भगवान् अपरज्ञानिषोऽधिकज्ञानवान् अस्afa ||२४|| मूलम् - पुढोवमे धुणइ विगयगेही न सेणिहिं कुंवइ आसुँपन्ने । तैरिडं समुदं व महामत्रोघं अभयंकरे वीर अनंतचक्खू | २५ | छाया - पृथिव्युमो धुनोति विगतगृद्धिः, न सन्निधिं करोत्याशुप्रज्ञः । तरित्वा समुद्रमिव महाभवधम्, अभयङ्करो वीरोऽनन्तचक्षुः ||२५|| जैसे सभाओं में सुधर्मा सभा श्रेष्ठ है, क्योंकि वह अनेक क्रीडास्थानों से युक्त है । अथवा जैसे सभी धर्म मोक्ष प्रधान हैं, क्योंकि कुप्राचचनिक भी अपने दर्शन को निर्वाण रूप फल देने वाला ही कहते हैं, इसी प्रकार ज्ञातपुत्र से अधिक ज्ञानी कोई नहीं है अर्थात् अन्य ज्ञानियों से वही उत्कृष्ट ज्ञानी हैं ||२४|| 'पूढोवमे' इत्यादि । शब्दार्थ - 'पुढो मे - पृथिव्युपम:' भगवान् महावीरस्वामी पृथ्वीके समान सब प्राणियों के आधार भूत है 'धु गइ - धुनोति' तथा वे आठ प्रकार के कर्ममलों को दूर करने वाले हैं 'विगयगेही - विगतगृद्धिः, भगवान् चाह्य और आभ्यन्तर वस्तुओं में वृद्धि - आमक्तिरहित है ' आसुवन्ने - आशुप्रज्ञ. ' वे शीघ्रवृद्धि वाले हैं 'ण संनिहिं कुव्वइ-न જેમ સલ એમાં સુધર્માં સભા શ્રેષ્ઠ છે, કારણુ કે તે અનેક ક્રીડાસ્થાનાથી યુક્ત છે, અથવા જેમ સઘળા મેાં મેાક્ષપ્રધાન છે, કારણ કે કુંપ્રાવનિકે પણ પેાતાનાં દર્શનને નિર્વાણુરૂપ ફલ પ્રદાન કરનાર જ કહે છે, એજ પ્રમાણે જ્ઞાતપુત્ર કરતાં અધિક જ્ઞાની કાઈ નથી. તેએ જ સર્વોત્કૃષ્ટ જ્ઞાની છે ૫૨૪ા देव मे " धत्याहि <1 शण्डार्ध--' पुढो मे - पृथिव्युपमः ' लगवान् महावीरस्वामी पृथ्वीसरीया बघा प्रालियोना आधारभूत हता 'धुगइ - धुनोति' तथा तेथे आहे प्रारना उभनि हरवावागा छे 'विगयगेही- विगतगृद्धि " लगवान् मा. अने माल्यन्तर वस्तुयोभां वृद्धि - आसक्ति रहित हता 'ओसुपन्ने - आशुप्रज्ञः ' तेथे। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयाथैबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५३१ ____ अन्वयार्थः --'पुढोवमे पृथिव्युपमः-पृथिवीपत्तनगिनामाधारी महावीरस्वामी 'धुणइ' धुनाति-अपनयत्यष्टमकारकं कर्म 'विगयगेही' विगतमृद्धिः-बाबाभ्यन्तरवस्तुविषयकगृद्धिमारहितः, 'आसुपन्ने' आशुप्रज्ञा-सर्वत्र सदोपयोगात् 'ण संनिहं कुबई' न सन्निधिं करोति-घृतगुडादिकम् 'समुदं व समुदवत् (महाभवोघ) महभवौघम् चातुर्गतिकसंसारसागरम् (तरिडे) तरित्वा-पारं कृत्वा मोक्ष माप्तः (अभयं करे) प्राणिनामभयङ्करः (बोरे) वीरो भगवान (अणतचक्खू) अनन्तचक्षुः-अनन्तज्ञानीत्यर्थः ॥२५॥ . संनिधि करोति' वे धन धान्य तथा क्रोधादिका संपर्क नहीं करते हैं 'समुद्देव-समुद्रवत्' समुद्र के समान 'महाभवो-महाभवोघम्' महान संसारको 'तरिउ-तरित्या पार करके मोक्षको प्राप्त हुए हैं 'अभयंकरे-- अभयङ्करः' भगवान् माणियों को अभयकरनेवाले 'चीरे-वीरः' ऐसे भगवान् बर्द्धमान महावीर स्वामी 'अणंत चक्खू-अनंत चक्षुः' अनन्त ज्ञानवाले हैं ॥२५॥ ___ अन्वयार्थ--भगवान महावीर पृथिवी के समान समस्तप्राणियों के आधार हैं, आठ प्रकार के कर्मों को नष्ट करने वाले हैं, बाह्य एवं आभ्यन्तर वस्तुभों की गृद्धि से रहीत हैं, आशु प्रज्ञ अर्थात् सर्वत्र सर्वदा उपयोगवान् हैं, किसी भी वस्तु की सन्निधि न करने वाले हैं, समुद्र के समान महान् संसार को पार करके मोक्ष को प्राप्त हुए हैं, अभयंकर हैं और अनन्तज्ञानी हैं ॥२५॥ शी भुद्धि ता 'ण संन्निहिं कुबइ-न संनिधिं करोति' ते। धनधान्य तथा पाहिना स५४ ४२ता न ता 'समुद्देव-समुद्रवत्' समुद्रनी म 'महाभवो-महाभवोधम्' महान् स'सारने 'तरिउ-तरित्वा' पा२ ४शत भाक्षगमन ४यु तु. 'अभयंकरे-अभयङ्करः' लगवान प्रायुयाना मसय ४२वावा 'वीरे-वीरः' मेवा मवान् पद्धमान् महावीरस्वामी 'अणंतचक्खू-अनंतचक्षुः' अनतज्ञानवा छे. ॥२५॥ . . . સૂત્રાર્થ–ભગવાન મહાવીર પૃથ્વીના સમાન સમસ્ત પ્રાણીઓના આધાર છે, આઠ કર્મોને ક્ષય કરનારા છે, બાહ્ય અને આભ્યન્તર વસ્તુઓની વૃદ્ધિ (લાલસા) થી રહિત છે, આશુપ્રજ્ઞ છે એટલે કે સર્વત્ર સદા ઉપગવાન છે, કેઈપણ વસ્તુની સન્નિધિ (સંચય) કરનારા નથી, સમુદ્રના સમાન મહાન સંસાર પાર કરીને મોક્ષને પ્રાપ્ત કરનારા છે, અભયંકર અને અનન્ત જ્ઞાની છે. પાપા Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વર્ सूत्रकृताङ्गसूत्रे टीका - 'पुढोवमे' पृथ्व्युपम:- पृथ्व्या उपमा विद्यते यस्य स पृथ्युपमोभगवान् महावीरः, यथा खलु पृथिवी सकलपाणिनामाधाररूपा आधारकत्वात् तथा भगवान् सर्वप्राणिनामभयदानात् सदुपदेशदानाद्वा आधारः, अतः पृथिव्याः सादृश्यं भगवतो भवति । अथवा यथा- पृथिवी सर्वसहा भवति, 'सर्वसहा वसुसती वसुधोर्वी वसुन्धरा' इत्यमरात्, तथा भगवानपि सर्वोपसर्गात् सम्यकूं सहते, अतोऽपि पृथिव्याः सादृश्यं भवति भगवन्महावीरे । 'घुणई' धुनोति - अपनयति अष्टप्रकारकं कर्म इति । तथा-दिगयगेडी' विगतगृद्धिः - विगता विनष्टा वाह्याभ्यन्तरपदार्थेषु वृद्धि: - गृद्धिभावो यस्य स विगतगृद्धिः । 'सणिर्हि ण कुब्बई' सन्निधिं न करोति, सन्निधानं सन्निधिः, स च द्विविधः, द्रव्यभावात् । टीकार्य - भगवान् महावीर पृथ्वी के समान है । जैसे पृथ्वी समस्त प्राणियों को आश्रय देने के कारण आधार है, उसी प्रकार भग बार सब प्राणियों को अभय देने तथा सदुपदेश देने के कारण आवार हैं । अतएव भगवान् पृथ्वी के सदृश हैं । अथवा जैसे पृथ्वी 'सर्वसहा' अर्थात् सभी कुछ सहन करने वाली है, अमरकोष में भी कहा हैसर्वसहा, वसुमती, वसुधा, उर्बी और वसुन्धरा, यह सब पृथ्वी के नाम हैं। भगवान् समस्त उपसर्गो को सहन करने वाले हैं, इस कारण भी भगवान् में पृथ्वी की लहराना है । भगवान् महावीर आठ कर्मों के विनाशक है । वे बाह्य और आभ्यन्तर सभी प्रकार के पदार्थों में वृद्धि (आमक्ति) से मुक्त है । वे किसी प्रकार की सन्निधि-संचय नहीं करते । सन्निधि दो प्रकार की है - द्रव्य सन्निधि और भावसन्निषि । घृत, ८ ટીકા—મહાવીર પ્રભુ પૃથ્વીના સમાન છે. જેમ સમસ્ત પ્રાણીઓને આશ્રય દેનારી હેવાને કારણે પૃથ્વી તેમને આધાર કહેવાય છે, એજ પ્રમાથે ભગવાન મહાવીર સમસ્ત જીવેાને અભય દેનારા તથા તેમને સત્તુપદેશ દેનારા ડાવાને કારણે સમસ્ત જીવાતા આધાર છે, તે કારણે તેમને પૃથ્વીના સમાન उद्या है, अथवा स पृथ्वी " सर्वसहा" सघणु सडेन पुरनारी छे, न પ્રમાણે ભગવ.ન્ મડાવીર પણ ઘાર પરીષડો અને ઉપસગે સહન કરનારા છે. भरदेोषभां पशु छे - " सर्वेसहा, वसुमती, वसुधा, " અને વસુન્ધરા, આ બધા નામેા પૃથ્વીના જ છે. ભગવન્ સમસ્ત ઉપસર્ગાને સહન કરનારા હૈાવાથી તેએામાં પૃથ્વીની સમાનતા છે. તેથી ભગવાન્ મહાવીર આઠે કર્માને ક્ષય કરનારા છે. તેએ માહ્ય અને આભ્યન્તર ાધા પ્રકારના પદાર્થોમાં ગૃદ્ધિભાવ (આસક્તિ)થી રહિત હતા. તેઓ કોઈ પ્રકારની સન્નિધિ वसुधा, व Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेंमयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५३३ तत्र द्रव्यसनिधिः- घृताडादिरूप। भावसन्निधिन्तु-क्रोधमानमायालोभाः । एतदुभयमपि सन्निधि भगवान्नकरोति । तथा-'आसु पन्ने' आशुप्रज्ञः, आशु-शीघ्र प्रज्ञा यस्य सः । सर्वत्र सदोपयोगात् , न तु छअस्थवद् मनसा पर्यालोच्य पदार्थविषयकं निर्णयं करोति । एतादृशविशेषणोपपन्नो भगवान् ‘समुद्देव' समुद्रवद् अपारम् 'महाभत्रौघ' महामगौघं चातुर्गतिकं संसार सागरं बहुदुःखाकुलम् । 'तरि' तरित्या, मर्वोत्तमं निर्वाणमासादितवान् । पुनः कथंभूतो भगान्-तत्राह-'अभयंकरे' अभयङ्करः-अभयं माणिनां माणरक्षास्वरूपं स्वरुः परतः सदुपदेशदानाद करोतीति अभयङ्करः । विशेषेण इरयति-दुरीकरोति रम इति वीरः, 'अणंतचक्खू' अनन्तचक्षुः-अनन्त-विनाशरहितं चक्षुरित चक्षु:-केवलज्ञानं यस्य सोऽनन्तचक्षुः, एताइग्भ गवानिति ॥२५॥ गुड़ आदि के संक्य को द्रव्य सन्निधि करते हैं और क्रोध, मान, माया तथा लोम को भार सन्निधि करते हैं। भगवान दोनों प्रकार की सन्निधि नहीं करते। भगवाल आशज्ञ हैं, क्योंकि उनका उपयोग सभी पदार्थों में सदैव लगारहता है। वे छद्मस्थ के जैसे मन से सोच विचार कर किली पदार्थ का निर्णय नहीं पारते । इस प्रकार के विशेषणों से युक्न भगवान् समुद्र के समान अपार भवप्रवाह को अर्थान् संसार सागर को पार करके सर्वोत्तम निर्वाण को प्राप्त कर चुके हैं। इसके अतिरिक्त भगवान् अभयंकर हैं अर्थात् वे स्वतः सदुपदेश देकर परतः प्राणरक्षा रूप अभय देते हैं । भगवान् वीर (સંચય) કરત નહી. સન્નિધિ બે પ્રકારની કહી છે. (૧) દ્રવ્ય સનિધિ અને (૨) ભાવ સનિધિ, ઘી, ગોળ આદિના સ ચયને દ્રવ્યસન્નિધિ કહે છે ક્રોધ, માન, માયા અને લેભને ભાવ સન્નિધિ કહે છે. મહાવીર પ્રભુ આ બને પ્રિકારનો સચય કરતા નહી–તેઓ કોઈ પણ પ્રકારનો પરિગ્રહ રાખતા ન હતા. મહાવીર પ્રભુ આશુપ્રજ્ઞ હતા, કારણ કે તેઓ સર્વત્ર સદા ઉપયોગવાન્ હતા. એટલે કે સમસ્ત પદાર્થોના વિષયમાં શીધ્ર નિર્ણય કરનારા હતા છદાની જેમ ખૂબ જ વિચાર કરી કરીને તેઓ કઈ પદાર્થને નિર્ણય કરતા નહીં. આ પ્રકારના ગુણોથી યુક્ત મહાવીર સ્વામી સમુદ્રના જેવા અપાર ભવપ્રવાહને એટલે કે સંસાર સાગરને પાર કરીને સર્વોત્તમ નિર્વાણધામને પ્રાપ્ત કરી ચૂક્યા છે. વળી ભગવાન્ અભયંકર છે, કારણ કે તેઓ પોતે સમસ્ત જેનાં પ્રાણની રક્ષા કરતા હતા અને લોકોને પણ જીવરક્ષાને ઉપદેશ આપીને અભય પ્રાન કરતા હતા. ભગવાન વીર છે અને અનન્ત ચક્ષુ છે, Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HD ५३४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मूलम्-कोहं च माणं च तहेव मायं, लोभं चउत्थं अझत्थ दोला। एयाणि वंती अरहा महेली, न कुंवई पावं णे कारवेइ ॥२६॥ छाया-क्रोधं च मानं च तथैव मायां, लोभं चतुर्थ चाध्यात्मदोषान् । एतानि वान्त्वाऽहंन् महर्षि, नकरोति पापं न कारयति ॥२६॥ अन्वयार्थ:--(अहा महेसी) अहन्महर्षि भगवान् महावीरः (कोहं च माणं च तहेव मायं) क्रोधं च मानं च तथैव मायाम् (चउत्यं लोभ) चतुर्थ लोभम्-कपायमात्रम् (एयाणि) एवान् क्रोधादीन (अज्झस्थदोसा) अध्यात्मदोषान्-मान्तरदोषान् हैं और अनन्तचक्षु हैं अर्थात् उनका केवलज्ञान अनन्त -अविनाशी है। भगवान् इन सब विशेषगों से सम्पन्न हैं ॥२५॥ 'कोहं च माणं च' इत्यादि। शब्दार्थ-'अरहा महेली अरहन्महविः' अरिहंत महर्षि ऐसे श्री महावीर स्वामी 'कोहं च माणं च तहेव माय-बोधं च मानं च तथैव मानम् ' क्रोध मान और माया 'चउत्थं लोनं-चतुर्थ लोभम् ' तश चौथा लोभ 'एयाणि--एतानि' इन क्रोधादिरूप 'अज्झत्थ दोसाअध्यात्मदोषान्' अध्यात्म-अपने अंदर के दोषों को 'वंता-वान्त्या' त्यागकर के 'ण पावं कुबइ-न पापं करोनि' पार करते नहीं है 'ण कारवेह-न कास्यति' और पापको करवाले नहीं हैं ॥२६|| એટલે કે તેમનું કેવળજ્ઞાન અનન્ત (અવિનાશી) છે ભગવાન મહાવીર આ સઘળાં વિશેષણથી સંપન્ન છે. રિપા , . - "काहं च माण च” त्य.8। Avate='अरहा महेसी-अरहन्महर्षिः' भरित महर्षि वा श्री महावीर स्वामी कोह'च माणं च तहेव मायं-क्रोध च मान च तथैव मायाम्' अध, मान, 'सले माया 'चउत्थं लोय-चतुर्थ लोभम्' तथा ये थे। सोम 'एयाणि-एनानि' मा धा३ि५ 'अज्झत्थ दोसा-अध्यात्मदोषान्' : मध्यात्म-मर्थात् पातानी . मन होषात 'वता-बान्त्वा' त्यारीत ‘ण पाव कुबई-न पाप करोति' पा५४२तानथी 'ण कारवेइ-न कारयति' भने ५.५ ४२वतानथी ॥ २६ ॥ । Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५३५ (वंता) वान्त्वा-परित्यज्य (ण पावं कुबइ) न पापं करोति (ण कारवेइ) न कारयति परैः, सावधमनुष्ठानं न करोति स्वयं न वा कारयतीति भावः ॥२६॥ टीकाकारणाऽभावेन कार्यस्याऽप्यभावो भवति' इति नियमात् , संसार कार्यम्-कारणं च चत्वारोऽध्यात्मदोषाः क्रोधादय:-तत्र-कोधा दिकपायाणां, कारणानामभावेऽवश्यं तत्कार्यस्य संसारस्याऽप्यभाव इति कृत्वा कारणस्य समुच्छेदे कार्यस्य संप्तारस्यापि उच्छित्ति दर्शयति-'कोहंच' इत्यादि । 'अरहा महेसी' अर्हन्महपिः-श्रीनर्द्धमानस्वामी, 'कोहं च' क्रोधं च, तथा-'माणं च' मानं च, तथा-'तहेव' तथैव 'माय' मायाम् 'चउत्यं लोभ चतुर्थे लोभम् 'एयाणि' एतान् 'अज्झत्थदोसा' अशत्मदोपान 'वंता' वान्त्वा-परित्यज्य 'ण' नैव 'पा' पापम्-माणातिपातादिकं स्वयं करोति मनोव कायैः । 'ग' न वा परेभ्यः 'कारवे,' कारयति, - अन्वयार्थ-अर्हन मही महावीर क्रोध, मान, माया और चौथे लोभ कषाय इन आन्तरिक दोषों का परित्याग करते थे एवं न स्वयं पाप करते हैं, और न दूसरों से करवाते हैं । २६॥ टीकार्थ- कारण के अभाव में कार्य का भी अभाव होता है, इस नियम के अनुसार कषायों के अभाव में संसार अर्थात् भवभ्रमण का भी अभाव हो जाता है, क्यों कि काय रूप अध्यात्मदोष कारण हैं और संसार उनका कार्य है। कारण के अभाव में कार्य का अभाव सूत्रकार दिखलाते हैं-अरिहन्न महर्षि वर्द्धमान स्वामी क्रोध, मान, माया तथा चौथा लोभ, इन अध्यात्म दोषों को त्याग करके न प्राणातिपात आदि पाप स्वयं करते हैं, न दूसरों से करवाते हैं और न पाप. સૂત્રાર્થ–અર્વન મહર્ષિ ભગવાન મહાવીર ક્રોધ, માન, માયા અને લભ રૂપ ચારે કષાયે રૂપ આન્તરિક દેને પરિત્યાગ કરવાવાળા હતા તથા પિતે પાપ કરતા નહીં અને અન્યની પાસે ૫૫ કરાવતા નહીં શારદા ટીકાઈ–કારણને અભાવ હોય, તે કાર્યને પણ અભાવ જ હોય છે, આ નિયમાનુસાર કષાને જીવમાં જે અભાવ હોય, તે તેના ભવભ્રમણને પણ અભાવ જ રહે છે, કારણ કે કષાયરૂપ અધ્યાત્મદોષ કારણ છે, અને સ સાર તેમના કાર્ય રૂપ છે. કારણનો અભાવ હોય તે કાર્યને અભાવ હોય છે, એ વાતનું સૂત્રકાર પ્રતિપાદન કરે છે. અરિહન્ત, મહર્ષિ વર્ધમાન સ્વામીએ ક્રોધ, માન, માયા અને લેમ રૂપ કષાયોને-અધ્યાત્મ દેવોને-પરિત્યાગ કર્યો હતે. તેઓ પોતે પ્રાણાતિ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गस्त्रे नवा कुर्वन्तमनुमोदते त्रिकरणत्रियोगैः, सावधकर्मानुष्ठाने स्वयं न व्याप्रियते, नवाऽन्यं प्रेरयति ताशकार्यकरणे' न वा कुर्वन्तमनुमोदते एव । कुतः-सावद्यकर्माऽनुष्ठानस्य कारणानां क्रोधमानमायालोमानां समूल हापं कपितत्वात् । नहि भवति वनयभावे धूमस्य सत्त्वम्, तथैव साधकर्मानुष्ठानकारणमायादीनाममावे, कथमित्र सावधर्म संभवेत् । कारणानाप्रभावे हेतुर्भपति-अईवम्, महर्षिन्वमेवेति ॥२६॥ कर्म करने वाले का अनुमोदन करते हैं, न मन से, न वचन से और नकाय से । इस प्रकार भगवान् तीन कारण और तीन योग से न स्वयं सावधानुष्ठान में प्रवृत्त होते हैं, न दूसरों को प्रवृत्त करते हैं और न प्रवृत्ति करनेवाले की अनुमोदना करते हैं । इसका कारण यही है कि सावद्य अनुष्ठान के कारण क्रोत्र, मान, माया और लोभ का भगवान् ने समूल उन्मूलन (उखेरना-नाशकरना) कर दिया है। अग्नि ही न हो तो धूम कहाँ से होगा? और क्रोध आदि कारणों के अभाव में उनका अरिहन्तत्व और महर्षित्य कारण है। तात्पर्य यह है कि अरिहन्त एवं महर्षि होने के कारण भगवान् निष्पाय हैं और निकषाय होने ले सावध अनुष्ठान से दूर रहते हैं॥२६॥ પાત આદિ પાપકર્મો કરતા નહીં, બીજા પાસે એવાં ૫ પક કરાવતા નહી, અને પાપકર્મો કરનારની અનુમોદના પણ કરતા નહી. મન, વચન અને કાયાથી તેઓ પાપકર્મો કરતા નહીં, કરાવતા નહીં અને કરનારની અનમેદના કરતા નહીં. આ પ્રકારે ભગવાન ત્રણ કરણ અને ત્રણ ચોગ વડે પિતે પણ સાવધ અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્ત થતા નહીં અને અન્યને પ્રવૃત્ત કરતા નહી અને સાવદ્ય અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્ત થનારની અનુદન પણ કરતા નહીં. તેનું કારણ એ હતું કે સાવધ અનુષ્ઠાનના કારણભૂત કોષ માન, માયા અને લેભને તેમણે સંપૂર્ણ રૂપે ઉછેદ કરી નાખ્યો હતો. જેમ અગ્નિનો જ અભાવ હોય, તે ધુમાડાને રદ્દભાવ સંભવી શકે નથી, એજ પ્રમાણે ક્રોધ આદિ કાર ના અભાવમાં સાવદ્ય અનુoડાનો રૂપ કાર્યને પણ અભાવ જ રહે છે. ક્રોધ આદિ કારના અભાવમાં તેમનું અરિહન્તત્વ અને મહર્ષિત કારણભૂત मन्यु तु. તાત્પર્ય એ છે કે અરિહન્ત અને મહર્ષિ હોવાને કારણે મહાવીર પ્રભુ નિષ્કષાય હતા. અને નિષ્કષાય હોવાને કારણે તેઓ સાવદ્ય અનુષ્ઠનોથી દૂર रहेता ता. ॥२६॥ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५६७ मूलम् - किरियांकिरियं वेणइयाणुवायं, अण्णाणियाणं पडियच्च ठाणं । से सव्वायं इति वेयेइत्ता, उवट्टिए संमदीहरायं ॥२७॥ छाया - क्रियाक्रिये चैनयिकाSनुवाद, मज्ञानिकानां प्रतीत्य स्थानम् । स सर्ववादमिति वेदविश्वा, उपस्थितः संयमदीर्घरात्रम् ॥२७ अन्वयार्थः -- (करियाकिरियं) क्रिवाऽक्रिये - क्रियावाचक्रियावादिमतम् (वेणइयाणुवा) वैनयिकानुवाद - मतम् (श्रणाणियाणं) अज्ञानिकानाम् ( ठाणं) स्थानं 'किरिया करियं' इत्यादि । शब्दार्थ - 'किरिया किरियं-क्रियाऽक्रिये' क्रियावादी क्रियावादी अक्रियावादी मतको तथा 'वेणयाणुत्रायं वैनयिकानुवाद' विनयवादी के कथनको तथा 'अण्णाणियाण-अज्ञानिकानाम्' अज्ञानवादियों के 'ठाणं - स्थानम्' मतको 'पडियच्च प्रतीत्य' जानकर 'से इति - स इति ' वे वीर भगवान् इसप्रकार 'सन्ववायं सर्ववादस्' सब वादियों के मतको 'वेत्ता - वेदयित्वा' जानकर के 'संजमदीहरायं - संपमदीर्घरात्रम्' जीवन भरके लिये 'उचट्टिए उपस्थितः' स्थित हुए हैं ||२७|| अन्वयार्थ - क्रियावादियों के, अक्रियावादियों के, वैनयिकों के तथा अज्ञानवादियों के छत को जान कर इस प्रकार से सभी वादों को जान कर भगवान् महावीर जीवनपर्यन्त संवन में स्थित रहे ||२७|| " किरिया किरियां " त्याहि शब्दार्थ' - 'किरिया किरिया - क्रियाऽक्रिये' प्रिया नाही अने अडियावादीना भतने तथा ‘वेणइयाणुत्राय - वैनयिकानुवादस्' विनयवाहिना स्थनने तथा 'अण्णाणि याणं-अज्ञानिकानाम्' अज्ञानवाहियांना 'ठ'णं - स्थानम् ' भतने 'पडियच्च - प्रतीत्य' लगीने 'से इति - स इति ' ते वीर भगवान् मा प्रभा 'सव्ववायं - सर्ववादम्' धान वाहियाना भतने 'वेदइत्ता - वेदयित्वा' लखीने 'सजमदीहराय - संयमदी. घेरात्रम्' सौंपूर्भु' लवनपर्यन्त 'उवट्टिए उपस्थितः ' स्थित २डया हे ॥ २७ ॥ સૂત્રા—ક્રિયાવાદીઓના, અક્રિયાવાદીઓના, જૈનિયકાના અને અજ્ઞાનવાદીઓના મતને જાણીને, આ પ્રારે સઘળાવ દેશના સ્વરૂપને જાણી લઈને, ભગવાન્ મહાવીર જીવનપર્યન્ત સયમની આરાધનામાં અવિચલ રહ્યા હતા માર્ણા सु० ६५ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे पक्षं मतम् (पडियन्च) पतीत्य-ज्ञात्वा (से इति) स वीरः इति एवं प्रकारेण ( सच्चवायं ) सर्ववाई - सर्वतं 'वेगइत्ता' वेदवित्वा - ज्ञात्रा (संजमडीहरायं ) संयम दीर्घरात्रम् ( उबढिए) उपस्थितः यावज्जीवं संपमोत्थानेनोत्थित इति ॥ २७॥ टीका- 'किरियाकिरिय' क्रिपाऽक्रिये 'वेणइयाणुनायं' वैनयिकानुवादम् । 'अगणियाण' अज्ञानिक नाम 'ठाणं' स्थानम् - पक्षम्, अथवा - स्थीयतेऽस्मिन्निति स्थानम् - दुर्गतिगमनादिकं सर्वम् 'पडियच्च' प्रतीत्य- परिज्ञाय सम्यगवबुध्येत्यर्थः । क्रियावादिनस्तु - क्रियात एव मुक्ति भवतीति क्रियामात्रमाचरणीयम् । अक्रियावादिनः पुनः ज्ञानवादिनो ज्ञानादेव मोक्ष इति क्रियामुज्यांचक्रुः । तथा-विनयादेव मोक्षमाचक्षाणा विनयेन चरन्तीति वैनयिका व्यवस्थिताः । तथा अज्ञानमेत्र टोकार्थ - भगवान् ने क्रियावादियों के मत को जाना, अक्रियावादियों के मत को जाना, वैनयिकों के बाद को जाना और अज्ञानवादियों के स्थान अर्थात् पक्ष को जाना । अथवा जिसमें स्थिति हो उसे स्थान कहते हैं, इस व्याख्या के अनुसार उनकी दुर्गति में होने वाली स्थिति को जाना अर्थात् अज्ञानवाद से दुर्गति की प्राप्ति होती हैं, इस तथ्य को जाना । क्रियावादियों का मत है कि अकेली क्रिया से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, अतएव क्रिया का ही आचरण करना चाहिए । अक्रिया खादी ज्ञानवादी हैं, वे ज्ञान से ही मुक्ति मानते हैं, क्रिया को निरर्थक समझते हैं । विनय से हो सोक्ष कहने वाले और विनय का ही आचरण 1 ટીકા ભગવાન મહાવી ક્રિયાત્રદીએના સતને જાણ્યા, અક્રિયાવાદીઆાના મતને જાણ્યા, વૈયિકાના મતને જાણ્યા અને અજ્ઞાનવાદીએના स्थानने ( पक्षने) पशु लगी सीधु अथवा मां स्थिति (उत्पत्ति) थाय छे તેને સ્થન કર્યુ છે. આ વ્યાખ્યા પ્રમાણે જુદા જુદા મતવાદીએની દુગાઁતિમાં કેવી સ્થિતિ (દશા) થાય છે, તે જાણ્યું. એટલે કે અજ્ઞ નવાદીએના માર્ગને અનુસરવાથી દુર્ગંતિની પ્રાપ્તિ થાય છે, અ, તથ્યને તેમણે જાણ્યું હતું. ક્રિયાવાદીઓની માન્યતા એવી છે કે એકલી ક્રિયા દ્વારા જ મેક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે, તેથી ક્રિયાએ!માં જ પ્રવૃત્ત રહેવુ જોઇએ. અક્રિયાવાદીઓ જ્ઞાનવાદી છે. તેએ ક્રિયાને નિરક માને છે અને જ્ઞાન દ્વારા જ મુક્તિ પ્રાપ્તિ થાય છે એમ માને છે. વિનયથી જ મેાક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે એવું માનીને વિનયનું Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. थ्रु. अ. ६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५६९, ऐहिकामुककानां कारणमिति कुवा, अज्ञानिनो व्यवस्थिताः । इत्येवं बहुविधवादिनां मतमत्रगत्य - ज्ञात्रा, तथा 'से' स भगवान् वर्द्धमानस्वामी 'सव्ववायें' सर्ववाद - सर्वमतम् 'वेयता' वेदयित्त्रा - सम्यग् ज्ञात्वा 'उडिए' उपस्थितः - सम्यगुस्थानेन संयमे व्यस्थितोऽभवत् । यथाऽन्ये परवादिनो दोषयुक्ताः शास्त्राणि कृत्वाऽपि स्वशिष्याणां मलिनोपचाराल्लघुतां प्राप्ताः हे भगवन् । ते दोषा स्त्वयि न सन्ति, लयि तद्दोषाणामभावादिति । तदुक्तम्- 'यथा परेषां कथका विदग्धाः शास्त्राणि कृत्वा लघुतमुपेताः । शिष्यै रनुज्ञामविनोपचारैं वक्तृत्वदोषास्त्वयि ते न सन्तिः | १ | इति । करने वाले वैनयिक कहलाते हैं । जो लोग अज्ञान को ही इस लोक तथा परलोक में कल्याणकारी मानते हैं, वे अज्ञानवादी कहलाते हैं । इस प्रकार विविधवादियों के वादों को विदित करके भगवान् महवीरस्वामी सभी मतों को सम्यक् प्रकार से जानकर जीवनपर्यन्त के लिए संयम में स्थित हुए। जैसे दोषयुक्त परवादी शास्त्रों की रचना करके भी अपने शिष्यों के मलीन उपचार से लघुना को प्राप्त हुए हे प्रभो ? वे दोष आप में नहीं हैं। आप पाप के कारणभूत दोषों से सर्वथा रहित हैं । कहा है'यथा परेषां कथका विदग्धाः' इत्यादि । 'जैसे दूसरे मतों के कुशल वादी शास्त्र रचकर लघुता को प्राप्त આચરણ કરનારાને વૈનિયક કહે છે. જે લેાકેા અજ્ઞાનને જ આ લેાક અને - પરલેાકમાં કલ્યાણકારી માને છે, તેમને અજ્ઞાનવાદી કહે છે. આ પ્રકારના વિવિધ મતવાદીઓના વદા વિષે મહાવીર પ્રભુએ ખૂબ જ ઊડા અભ્યાસ કર્યો તે વાદાના ગુણુદોષાને ખરાખર સમજી લીધા તેમને જ્ઞાન અને ક્રિયા પ્રધાન શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્માંને જ શ્રેષ્ઠ ગણીને જીવનપર્યન્ત સચમની આરાધના કરી. જેવી રીતે અન્ય મતવાદીએ દોષયુક્ત શાસ્ત્રોની રચના કરીને પેાતાના શિષ્યાના મલીન આચરજ્જુને લીધે વામણા બન્યા-પેાતાની મહત્તા ગુમાવી બેઠા, એવું હું પ્રભા ! આપની ખાખતમાં મળ્યું નથી. આપ તે પાપના કારણભૂત દેષાથી સથા રહિત જ છે. ક્ષુ' પણુ છે यथा परेषां कथका विदग्धाः " त्याहि 66 જેવી રીતે અન્ય તીથિ`કાએ, કુશલ શાસ્ત્ર રચના કરવા છતાં પશુ, Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषनाश दीनां तानि 'संगम' संगम् - जीवन संगमनेनोस्थितः । क्रियावादिनाम क्रियायादिनां चैनयिकानामानिनां सम्यक् परिज्ञाप, भगवान तीर्थको महास्वामी नयमानुष्ठान ए युक्तोऽभवत् । परित्यज्य सर्ववाद व ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष इति विदित्वा ज्ञानकिनतु एक पार मूलम् - से वारियाँ इत्थी सराइभत्तं, ugu उहाण खट्टयाए । लोगं विदित्ता आरं परं सर्व परिवार॥२८॥ छाया-सवायला वयं गनिसक्ता सुवाननानाय | परंच समनि सर्वनाम् ॥२ लोके हुए, क्यों कि उनके शिष्यों ने दोपयुक्त आचरण किया | ये दोष आप में नहीं है || १॥ क्रियावादियों, अक्रियावादियों, वैनयिकों, अज्ञानिकों एवं बौद्ध आदि के मतों को सम्यक् प्रकार से जान कर भगवान् महावीर स्वामी जीवन पर्यन्त संयमानुष्ठान में ही उद्यत रहे । ज्ञान और किया से मुक्ति होती है, ऐसा जान कर ज्ञान और किया की साधना के लिए यत्नशील रहे, किसी भी एकान्त पक्ष को उन्हों ने स्त्री कार नहीं किया | २७/ લઘુતા પ્રાપ્ત કરી છે, કારણ કે તેમના શિષ્યેનું આચરણ યુક્ત હતું, હું પ્રભુ! ! તે દેષ આપનામાં નથી ’ અચેાગ્ય ગણીને રહ્યા, જ્ઞાન અને ક્રિયાવાદિ, અક્રિયાવાદિએ, વૈયિક, અજ્ઞાનિક અને ખૌદ્ધ આદિના મતેને સારી રીતે જાણી લઇને-મેક્ષપ્રાપ્તિ માટે તે મતાને મહાવીર સ્વામી જીવનપર્યન્ત સોંયમાનુષ્ઠાનમાં જ પ્રવૃત્ત ક્રિયા. દ્વારા જ મુક્તિ મળે છે, એવુ' જાણીને તે જ્ઞાન અને ક્રિયાની સાધનાને માટે જ પ્રયત્નશીલ રહ્યા હતા. કાઈ પણ એકાન્ત પક્ષના તેમણે સ્વીકાર કર્યાં નહી. વારા Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु.अ. ६ उ.१ भंगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५७१ __ अन्ध्यार्थः-(से पथू) स प्रभुीरः (सराइमत्तं इत्थि वारिया) सरात्रिभक्तां स्त्रियं वारयित्वा-रात्रिभोजनं स्त्रीसेवनं च परित्यज्य (दुक्खखयट्ठयाए) दुःखक्षयार्थ-कर्मनाशाय (उपहाणवं उपधानवान-तीवननिष्ठप्रदेशः (आरं परं च लोग विदित्ता) आरं च परं च लोकं विदित्वा इह लोकं परलोकं तत्कारणं च नात्या (सव्वचारं सव्वं वारिय) सर्ववारं सर्व वारितवान्-सर्वमेतत् बहुशो निवारितवान् पुन: पुनः प्राणातिपातादिनिषेधं स्वतोऽनुष्ठाय परांश्च स्थापितवान् इति ॥२८॥ - __टीका-'से पधू' स पभुभगवान तीर्थकरः 'सराइभत्तं इत्थी वारिया' सरात्रिभक्तां स्त्रियं वारयित्वा, रात्रौ भक्तं भोजन मितिरात्रिभक्तम् , रात्रिभोजन 'से वारिया' इत्यादि। शनार्थ-'से पभू-ल प्रभु' वह प्रभु महावीर स्वामी 'सराइभत्तं इत्थी वारिया-सरात्रिभक्तां स्त्रियं वारयित्वा' रात्रि भोजन और स्त्रीको छोड करके 'दुक्खखयशाए-दुःखक्ष शार्थम्' दुःख के क्ष के लिये 'उथहाणवं-उपधानवान्' तपस्या में प्रवृत्त थे 'आरं परं च लोगं विदित्ताआरं परं च लोकं ज्ञात्वा' इमलोक तथा परलोक को जानकर 'सवारं सव्वं वारिय-सर्ववारं सर्व बारितवान्' भगवानने सब प्रकार के पापको छोड दिया था ॥२८॥ ___ अन्वयार्थ-प्रभु महावीर ने रात्रिभोजन के साथ स्त्री सेवन को भी त्याग कर दुःखो का क्षय करने के लिए, तपश्चर्या से युक्त होकर इहलोक परलोक और उनके कारणों को विदित करके सब पापों को पूर्ण रूप से त्याग दिया था ॥२८॥ " से वारिया " त्या साथ-'से पभू स प्रभुः' प्रभु मडावीर स्वामी 'सराइभत्तं इत्थी वारिया-सरात्रिभक्ता खियं वारयित्वा' शनिवा- मने खीर छोडीन 'दुक्खखयट्टयाए-दुःखक्ष यार्थम्' मना क्षमाट ‘उवहाणवं-उपधानवान्' त५. स्यामा प्रवृत्त 'भारं पर च लोग विदित्ता-गार पर च लोकं ज्ञात्वा' मा खोर मन ५२४ नपान 'सव्ववारं सव्वं वारिय-सर्ववार सर्व वारितवान्' भावाने ५५ प्रा२ना ५२ छ। दीया ॥ ॥ १८ ॥ સૂવાર્થ–મહાવીર પ્રભુએ રાત્રિભેજનની સાથે સેવનને પણ સર્વથા परित्याग ४ ता. माना ( ना) "क्षय ४२वाने भाट, तभरी धार તપસ્યા કરી હતી. તેમણે આ લેક, પરલેક અને તેમનાં કારણેને જાણ લઈને સમસ્ત પાપને સર્વથા ત્યાગ કર્યો હતે. ૨૮ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मित्यर्थः, रात्रिमलेन रात्रिभोजनेन सहि तामिति सरात्रिभान स्त्रियं चारयित्वापरित्यज्य 'उबहाग' उपधानवान-उपधान-घोरं तरः तहि बने यस्याऽपौ उधानवान् संवृत्तः। किमर्थमुपधानवान् अभवत् तत्राह-'दुश्यावयट्टयाए' दुःख क्षयार्थाय-दुःखाना-मानसिककायिकानां क्षयार्थम् । एते हि रात्रिभोजनादयः माणिहिंसामूलका स्तदाचरणेन प्राणिहिंसा जायते। हिंसया दु:खमवश्यं भावि, इति पयर्यालोच्य रात्रिभोजनादिकं परित्यक्तवान् । तथा दपसि मनो निवेशितवान् । अथवा-दुःख पति-सन्तापयतीति दुःखं दुःख कारणं कर्म, तस्य क्षयो विनाशस्तस्मै । तथा-'लोगं विदित्ता आरं परंच' किंच लोक-संसारं विदित्वा -आरं-इह लोकम्, च-पुनः परं-परलोकम् । यद्वा-आरं-मनुष्यलोकम , परं नार___टीकाथ- भगवान् महावीर गत्रि भोजन के साथ स्त्री सेबन को स्थाग कर के घोर तपस्वी बने थे। उनके घोर तपस्वी होने का प्रयोजन क्या था? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है शारीरिक मानसिक वाचिक दुःखों का क्षय करने के लिए उन्होंने तपोमय जीवन अंगीकार किया था। रात्रिभोजनादि प्राणियों की हिंसा के मृल हैं। इनके सेवन से प्राणियों की हिंसा अनिवार्य है। हिंसा दुःखों की जननी है। ऐसा सोच कर रात्रिभोजनादि समस्त सावद्यव्यापारों का त्याग कर दिया था और तपस्था में मन लगाया था। अथवा जो दुःख देता हैं, संताप पहुंचाता है, उसे दुःख कहते हैं, इस व्याख्या के अनुसार कर्म दुःख के कारण हैं, अतएव कर्मों का क्षप करने के लिए भगवान् ने तप अंगीकार किया था। ટીકાઈ–ભગવાન મહાવીર રાત્રિ ભેજનને અને સ્ત્રસેવનને ત્યાગ કરીને ઘોર તપસ્યા કરવા લાગ્યા હતા તેઓ શા માટે ઘેર તપાસ્યાઓ કરતા હતા ? આ પ્રશ્નને ઉત્તર આપતા સૂત્રકાર કહે છે કે-માનસિક, વાચિક અને કાયિક દુઃખને ક્ષય કરવાને માટે તેમણે તાપમય જીવન અંગીકાર કર્યું હતું. રાત્રિભોજન, અબ્રાનું સેવન, આદિ કાર્યો દ્વારા હિંસા થાય છે. તેમનું સેવન કરનાર કે પ્રાણીઓની હિંસા અવશ્ય કરે છે. હિંસા જ દુઃખની જનની છે, એવું સમજીને તેમણે રાત્રિભેજન આદિ સમસ્ત સાવદ્ય ચાપા નો પરિત્યાગ કરીને તપસ્યામાં મનને લીન કર્યું હતું. અથવા જે દુઃખ દે છે. સંતાપ ઉત્પન્ન કરે છે, તેને દુઃખ કહે છે. આ વ્યાખ્યા પ્રમાણે કર્મ જ દુઃખનું કારણ છે. એવું સમજીને કમને ક્ષય કરવાને માટે ભગવાન મહાવીરે તપ અંગીકાર કર્યું હતું. Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् । ५७३ कादिलोकं दुःखनिदानं ज्ञात्वा, स्वरूपतः कारणतश्च ज्ञात्वा, 'सव्ववार' सर्ववारम् 'स' सर्वम् 'चारिय' वारितवान्-बहुशो निवारणं कृतवान् । नहि स्वयमनवस्थित स्तस्मिन् परान् व्यवस्थापयितुं समर्थों भवतीति । यावत्पर्यन्तं स्वयमिन्द्रियनिग्रहं न करोति तावदुपदिश्य परानपि इन्द्रियदमनादौ न व्यवस्थापयतीति स्वमनसि निश्चित्य स्वयमेव भगवता इन्द्रियाणि निगृत परस्मै उपदिष्टमिति । तदुक्तम्--- 'ब्रुवाणोऽपि न्याय्यं स्ववचनविरुद्धं व्यवहरन परान्नाऽलं कश्चिदमयितुमदान्तः स्यमिति । भवान्निश्चित्यैवं मनसि जगदाधाय सकलं, समात्मानं तावदरयितु मदान्तं व्यवसितः ॥१॥ इति ॥ आर अर्थात् इहलोक और पार अर्थात् परलोक अथवा आर अर्थात् मनुष्यलोक और पार अर्थात् नरकादि लोग को दुःख का कारण जान कर, उन्हें स्वरूप एवं कारणों से पहचान कर त्याग दिया था। भगवान् ने प्राणातिपात आदि पापों का स्वयं त्याग करके दूसरों को भी उस त्याग में स्थापित किया था, क्योंकि जो स्वयं उनमें स्थित न हो वह दूसरों को स्थिर करने में समर्थ नहीं हो सकता। जब तक कोई .स्वयं इन्द्रिय निग्रह नहीं करता तय एक उपदेश देकर दूसरों को इन्द्रिय निग्रह आदि में नियोजित नहीं कर सकता, ____ मा मेरो है भासाने भने '२' मेरो ५२४ने, अथवा આર એટલે મનુષ્પકને અને “પાર” એટલે નરકાદિ લોકને દુઃખનું કારણ જાણીને, તેમના સ્વરૂપને અને તેમની પ્રાપ્તિના કારણેનો પૂરે પૂરે ખ્યાલ આવી જવાથી, તેમાં પુનરાગમન ન કરવું પડે એવી પ્રવૃત્તિ કરીને આઠ પ્રકારનાં કર્મોને ક્ષય કરીને–તેઓ નિર્વાણ પામ્યા છે મહાવીર પ્રભુએ પ્રાણાતિપાત આદિ પાપોનો પિતે ત્યાગ કર્યો હતો અને અન્ય જીને પણ તેનો ત્યાગ કરવાને ઉપદેશ આપ્યો હતો. એ નિયમ છે કે ઉપદેશક જે વસ્તુના ત્યાગને ઉપદેશ આપતો હોય તેને, ત્યાગ પહેલાં તે તેણે જ કરવો જોઈએ. તો જ તેના ઉપદેશની અન્ય લેકે પર સારી અસર પડે છે. * ત્યાં સુધી કઈ ઉપદેશક પિતે જ ઇન્દ્રિયને નિગ્રહ કરે નહીં, ત્યાં સુધી અન્યને ઇન્દ્રિયનિગ્રહ આદિ કરવાનું કહેવામાં સફળ થઈ શકે નહીં. આ વાતને Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे तथा--'तित्थयरो चउनाणी सुरमहिओ मिमिया वधूयमि । अणिगृहियवलविरिभो सम्बन्यामेमु उज्जमइ' ॥२॥ छाया-तीर्थकरश्चनुर्ज्ञानी सुरमहिता सेधयितव्येऽवधूते (मोक्षे) __ अनिगहनवलपीय. सर्व स्थामस उद्यमति ।।१।। आस्यार्थः--चतुर्ज्ञानवान् देवपूजपस्तीर्थ झरो मोक्षमाप्त्यै स्वकीयबलवीर्यादिकमुपयुञ्जन् सर्वयलेन मह प्रयत्नं कृतवानिति ॥ अपने भत में इस प्रकार निश्चय करके स्वयं भावान् ने अपनी इन्द्रियों का निग्रह किया, तत्पश्चात् दूसरों को उसके लिए उपदेश दिया। कहा भी है-त्रुबागोऽति' इत्यादि। ___'आपने यह निश्चय किया कि कोई न्याययुक्त वचन कहता हुआ भी यदि स्वयं अपने कथन के विरुद्ध आचरण करता है तो दूसरों को इन्द्रियनिग्रह में प्रवृत्ति कराने में समर्थ नहीं हो सकता। इस प्रकार निश्चय करके तथा समस्त जगत् के स्वरूप को ज्ञान करके आप इन्द्रिय निग्रह में-तपमें प्रवृत्त रहे ॥१॥ और भी कहा है-'तित्थयरो चउनागी' इत्यादि। चार ज्ञानों से सम्पन्न तथा देवों के भी पूज् तीर्थंकर मोक्ष प्राप्त करने के लिए अपने बल वीर्य का उपशेग करते हुए सम्पूर्ण शक्ति के साथ प्रयत्नशील हुए' ।।१। । હદયમાં અવધારણ કરીને મહાવીર પ્રભુએ પોતે જ પહેલાં તો ઈન્દ્રિયોને નિગ્રહ કર્યો અને ત્યાર બાદ લેકેને ઈન્દ્રિયે નો નિગ્રહ કરવાને ઉપદેશ દીધે. यु. ५४ छे 8-" वाणोऽपि" त्यात કઈ ન્યાયયુક્ત વચન કહેવા છતાં પણ જે કહેનાર પિતે જ પિતાના કથન વિરૂદ્ધનું આચરણ કરે છે, તે કહેનાર (ઉપદેશક) અન્ય લોકોને ઈન્દ્રિયનિગ્રડમાં પ્રવૃત્ત કરાવવાને શક્તિમન થતું નથી. આ પ્રકારને નિશ્ચય કરીને તથા સમસ્ત જગતના સ્વરૂપને જાણી લઈને મહાવીર સ્વામી પિતે જ ઇન્દ્રિयोना नियमां-त५मा प्रवृत्त च्या" जी मे छ -“ तित्थयरो च उनाणी" त्या “ચાર જ્ઞાનેથી સંપન્ન તથા દેવેને પણ પૂજ્ય એવા તીર્થકર મોક્ષ પ્રાપ્ત કરવાને માટે પિતાના બલવીયને ઉગ કરીને પિતાની સંપૂર્ણ શક્તિ સાથે પ્રયત્નશીલ થયા હતા? Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ,५४५ भगवान् महावीर स्वामी स्वकीयाऽष्टविधकर्माऽपनेतुं स्त्रिया रात्रिभोजनं च- परित्यक्तनान् । तथा तदैव स्वयं तपसि प्रवर्त्तमानः इहलोकपरलोको. स्वरूपतोहेतुतश्च परिज्ञाय, सर्वाण्यपि सावधकर्याऽनुष्ठानानि परित्यक्तवानिति ॥२८॥., __ अथेदानीं सुधर्मस्वामी तीर्थकृतां गुणान् सम्यक् कथयित्वा, शिष्यानुपदि. शति-'सोचा य धम्म' इत्यादि । मूलम्-लोडेचा य धम्मं अरहतालियं, समाहियं अटपओवसुद्धं ।। तं लदहाणा र जणा अणाऊं, इंदा व देवाहिव आगमिस्लंति॥२९॥ त्तिबेमि॥ छाया-श्रु-वा च धर्ममहद्भाषितं, समाहितमर्थपदोषशुद्धम्। : तं श्रधानाश्च जना अनायुम, इन्द्रा इव देवाधिपा अगमिष्यन्ति ॥२९॥ ___इति ब्रवीमि। तात्पर्य यह है कि भगवान महावीर स्वामी ने अपने आठ प्रकार के कर्मों को दूर करने के लिए स्त्री सेवन का तथा रात्रिभोजन का त्याग किया। निरन्तर तप में उद्यत रहे । इहलोक और परलोक.को स्वरूप और कारणों से जान कर समस्त सावद्यव्यापारों का परित्याग कर दिया ॥२८॥ सुधर्मा स्वामी तीर्थकर भगवान के गुणों का सम्यक कथन करके अघ शिष्यों को उपदेश देते हैं-'सोच्चा य धम्म' इत्यादि... शब्दार्थ-'अरहंतभासियं-अर्हद्भाषितम्' श्री अरिहंत देव के द्वारा कथित 'समाहितं-समाहितम्' युक्तियुक्त 'अपओवसुद्धं-अर्थ તાત્પર્ય એ છે કે ભગવાન્ મહાવીર સ્વામીએ પિતાનાં આઠ પ્રકારના કર્મો ક્ષય કરવા માટે રાત્રિભોજન, સ્ત્રીસેવન આદિ સાવદ્ય કાચને ત્યાગ કર્યો તથા નિરન્તર તપસ્યા કર્યા કરી. તેમણે આ લોક અને પરાકના સ્વરૂપને તથા કારણેને જાણ લઈને સમસ્ત સાવદ્ય વ્યાપારને પરિત્યાગ કરી નાખ્યા હતા. ૨૮ મહાવીર પ્રભુના ગુણનું સમ્યક્ પ્રકારે કથન કરીને. સુધમાં સ્વામી પોતાના શિષ્યને આ પ્રમાણે ઉપદેશ આપે છે. “सोच्चा य धम्म" त्याहि__vat:-'अरहंतभासिय-अर्हदु । भाषितम्' श्री मति ३१ - वामां मात 'समाहित-समाहितम्' युति युटत 'अपओवसुद्ध-अर्भपदोपर Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतानसूत्रे - अन्वयार्थ:--(अरहंतभासिय) अर्हद्रापितं-तीर्थकरप्रतिपादितम् (समाहिय) " समाहित-युक्तियुक्तम् (अठ्ठपोवसुद्धं) अर्थपदोपशुद्धम्-अर्थैः पर्दैश्च निर्दोषम् (धम्मं सोचा) धर्म-श्रुतचारित्रलक्षणं श्रुत्वा (तं सदहाणा) तं-धरमईदापितं श्रद्दधाना:-तत्र श्रद्धां कुर्वन्तः (जगा) जनाः-लोकाः (अणाऊ) अनायुषः-अपगतायुःकर्मागः सन्तः मोक्ष प्राप्नुवन्ति,-अथवा-(इंदा च) इन्द्रा इव (देवाहिव) देवाधिपाः-देवस्वामिनः (आगमिस्संति) आगमिष्यन्ति-सविष्यन्तीति ॥२९॥ ___टीका--'अरहतमासियं' अर्हद्भापितम् 'समाहिय' समाहितम् युक्तियुक्तम् 'अट्ठपओवसुद्ध' अर्थपदोपशुद्धस्, अर्थ:-प्रतिपाद्याभिधेयैः पदेस्तवाचकशब्दैः उपपदोपशुद्धं'- अर्थ और पदों से युक्त 'धरम लोच्चा-धर्म श्रुत्वा धर्म को सुनकर 'तं लहाणा-तं श्रद्दधानाः उसमें श्रद्धा रखने वाले 'जणाजनाः' मनुष्य 'अणाउ-अनायुषः' मोक्षको प्राप्त करते हैं अथवा 'इंदाय इन्द्र इव' वे इन्द्र के जैले 'देवाहिव-देवाधिपाः' देवताओं के अधिपति आगमिस्संति-आगमिष्यन्ति' होते हैं ॥२९॥ ... अन्वयार्थ-अरिहन्त के द्वारा प्ररूपित, युक्तियुक्त, अर्थ और शब्द दोनों दृष्टियों से निर्दोष धर्म को श्रवण करके, उस पर जो श्रद्धा करते हैं, वे अन्य जन आयुकर्म से रहित हो कर मुक्तिकाभ कर लेते हैं अथवा इन्द्र के समान देवों के अधिपति होते हैं ॥२९॥ ____टोकार्थ--सर्वज्ञ सर्वदर्शी अरिहन्त भगवन्त द्वारा भाषित युक्ति संगत तथा भाव और भाषा अर्थात् वाच्य और वाचक या अर्थ एवं शब्द दोनों ही दृष्टियों से सर्वथा निर्दोष श्रुतचारित्र रूप धर्म को सन ग म भने पोथी युटत 'धम्म सोच्चा-धर्म श्रुत्वा' धमन सiesta. - सहहाणा-तं अंदाधानाः' मा श्रद्धा रामपापा 'जणा-जनाः मनुष्य अगोन-अनायपः' मोक्ष प्राप्त ४२ छे अथवा 'इंदाव-इन्द्र इव' तेस। छन्द्र नरेभ देवाहिव-देवाधिप:' हेवताना मधिपति 'आगमिस्संति-आगमियन्ति' थाय छ. ॥ २८ ॥ * સૂત્રાર્થ—અરિહન્ત ભગવાન દ્વારા પ્રરૂપિત, યુક્તિયુક્ત, અર્થ અને શબ્દ અને દષ્ટિએ નિર્દોષ ધર્મનું શ્રવણ કરીને, તેના ઉપર જે શ્રદ્ધા રાખે છે, તે ભવ્ય-જી આયુકમથી રહિત થઈને મુક્તિ પ્રાપ્ત કરી શકે છે, અથવા ના અધિપતિ ઈન્દ્રની પદવી તો અવશ્ય પ્રાપ્ત કરે છે. પર - ટીકાર્થ-સર્વજ્ઞ, સર્વદશી અરિહન્ત ભગવન્ત દ્વારા ભાષિત, ચુક્તિસંગતિસંથા ભાવ અને ભાષા–એટલે કે વાચ્ય અને વાચક અથવા અર્થ અને Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. संपार्थ पोधिनो टोका प्र. श्रृं. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ५५७, सामीप्येन शुद्ध-निर्दोषम् , तदेवंभूतम्, 'धम्म' धर्मम् दुर्गतिधारणाद् धर्म-श्रुत्तचरित्राख्यम् 'सोचा' श्रुत्वा, तथा 'तं' तम्-तादृशं धर्मम् 'सदहाणा श्रधाना: तत्र श्रद्धामाधायाऽनुतिष्ठन्तः, 'जणा' जनाः-पुरुषाः 'अणाऊ' अनायुषा-अप: गतायुःकर्माण श्चेत्तदा सिद्धा भवन्ति, सायुपश्चेतदा 'इंदा व' इन्द्रा इव 'देवाः हिव' देवाधिपाः 'आगमिस्संति' आगमिष्यन्ति, इन्द्रा इव देवाधिपतित्वमश्नुवते, सर्वज्ञतीर्थकरोदितधर्मान् श्रुत्वा श्रद्धया च तदाराधनं कुर्वाणा लोकाः आयुकिमणोऽपगमे मुक्ता भवन्ति, अथवा-साभिलाषाश्वेत्तदा इन्द्रा इव देवानामधिपतयों भवन्तीति भावः ॥२९॥ ...इत्यहं कथयामि सर्वज्ञभाषित धर्म भवद्भयः, इत्येवं सुधर्मस्वामी विज्ञापयक्ति शिष्येभ्य इति इति श्री-विश्वविख्यातजगद्वल्लभादिपदभूषितवालब्रह्मचारि - जैनाचार्य' ... पूज्यश्री-घासीलालबतिविरचितायां श्री सुत्रकृताङ्गस्य "समयार्थबोधिन्याः ___ ख्यायां" व्याख्यायां वीरस्तवाख्यं षष्ठमध्ययनं समाप्तम् ॥६-१॥.... कर उस पर श्रद्धा करने वाले भव्य पुरुष आयुकर्म से रहित हो जाते हैं तो सिद्धि प्राप्त करलेते हैं। यदि आयुकर्म विद्यमान, हो अर्थात कर्म शेष रहगए हों तो इन्द्र के समान देवाधिपति होते हैं। . .. आशय यह है कि तीर्थकर प्ररूपित धर्म को श्रमण करके उस पर श्रद्धा करने वाले तथा उसकी आराधना करने वाले जन आयु तथा कर्मों से रहित होकर मुक्त हो जाते हैं । कदाचित् वे साभिलाष हों। कर्मक्षय न कर पाये हों तो देवेन्द्र की पदवी प्राप्त करते हैं ॥२॥ . इस प्रकार में सर्वज्ञोक्त धर्म कथन करता हूँ। छठा अध्ययन समाप्त શબ્દ બને દષ્ટિએ સર્વથા નિર્દોષ મુતચારિત્ર રૂપ ધર્મનું શ્રવણ કરીને, તેના ઉપર દઢ શ્રદ્ધા રાખનાર ભવ્યપુરુષે જે આયુકર્મથી રહિત થઈ જાય તે સિદ્ધિ (મેક્ષ) પ્રાપ્ત કરે છે. પરંતુ જે તેના આયુકર્મને સર્વથા ક્ષય ન થઈ જાય એટલે કે કમ બાકી રહી જાય તે ઈન્દ્રના સમાન દેવાધિપતિ તે અવશ્ય થાય છે તાત્પર્ય એ છે કે તીર્થંકર પ્રરૂપિત ધર્મનું શ્રવણ કરીને તેના પર શ્રદ્ધા રાખનાર તથા તેની આરાધના કરનાર પુરુષે આયુ તથા કર્મોથી રહિત થઈને મુક્ત થઈ જાય છે. કદાચ તેઓ સાલિયાષ હાય-કર્મને પૂરે પૂરે ક્ષય ન કરી શક્યા હોય, તે દેવેન્દ્રની પદવી તે અવશ્ય પ્રાપ્ત કરે છે. ર૯ "भा २ हु सात मनु ४थन छु,” मेसुध સ્વામી જંબુસ્વામી આદિ શિવ્યાને કહે છે. છે છતું અધ્યયન સમાસ છે - Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतागसूत्रे ___ अथ सप्तमाध्ययनं प्रारभ्यतेभतं पष्ठमध्ययनम्, संप्रति सप्तममध्ययनमारभते। पष्ठानन्तरमागमिष्यतः संप्तमाध्ययनस्य षष्ठेन सहायं संवन्धः, 'नाऽसंगतं विदध्यात्' इति नियमाद संगति प्रदर्शनमावश्यकं भवति, अतः संवन्धोऽवश्यमेव दर्शनीयः । तथाहि-इह ध्यतीतानन्तरेऽध्ययने भगवतस्तीर्थकरस्य श्री वर्धमानस्वामिनो गुणाः कथिताः, सादृशगुणवन्तः सुशीलाः। एतदनन्तरं तद्विपरीताः कुशीलाः ते कथ्यन्ते, तदनेन संबन्धेनाऽऽयातस्य सप्तमाऽध्ययनस्य प्रथमम् - आधगाथाद्वयमाह'पुढवी य इत्यादि। सातवाँ अध्ययन'छठा अध्ययन समाप्त हुआ। अब सतवां प्रारंभ किया जा रहा है। छठे अध्ययन के पश्चात् आने वाले सातवें अध्ययन का उसके साथ यह सम्बन्ध है। असम्बद्ध कथन या कार्य नहीं करना चाहिए, इस नियम के अनुसार संगति प्रदर्शित करना आवश्यक होता है। अतः सम्बन्ध दिखलाना चाहिए। पिछले छठे अध्ययन में लगवान् वर्द्धमान के गुणों का कथन किया गया है। वैसे गुणों से जो युक्त होते है, वही सुशील कहलाते हैं। उनसे जो विपरीत हैं, वे कुशीलवान होते हैं, उनका कथन इस अध्ययन में लिया जाएगा। इस सम्बन्ध से प्राप्त सातवें अध्ययन की दो गाथाएँ कहते हैं-'पुढवीय आऊ' तथा एयाई कायाई' इत्यादि। -अध्ययन सात1, 2. मध्ययन ५३ यु. वे सातभा अध्ययननी २३मात थाय छे. છઠ્ઠો અધ્યયન સાથે સાતમાં અધ્યયનને સંબંધ હવે બતાવવામાં આવે છે. અસંબદ્ધ કથન કે કાર્ય કરવું જોઈએ નહીં, આ કથન અનુસાર સંગતિ (સંબંધ) પ્રદર્શિત કરવાની આવશ્યકતા રહે છે, તેથી પૂર્વ અધ્યયન સાથે, આ અધ્યયનને સંબંધ પ્રકટ કરવામાં આવે છે. છક્કા અધ્યયનમાં વર્ધમાન મહાવીર પ્રભુના ગુણોનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું. એવાં ગુણોથી જેઓ યુક્ત હોય છે, તેમને જ સુશીલ કહેવામાં આવે છે. પરંતુ તે ગુણ કરતાં વિપરીત ગુણેથી ( દેથી) જે યુક્ત હોય છે, તેમને કુશીલ કહે છે. એવાં કુશીલ લેકેનું કથન સાતમાં અધ્યયનમાં કરવામાં આવશે. આ પ્રકારને પૂર્વ અધ્યયન સાથે સંબંધ ધરાવતા આ સાતમાં અધ્યયનની પહેલી બે ગાથાઓ भा प्रभाने-'पुढवीय भाउ०' तथा एयाई कायाई' त्याह Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ.१ कुशोलवता दोषनिरूपणम् . १४६' मूलम्-पुढवी य आऊ अगणी य वाउ,' तणरुक्ख बीया य तसा य पाणा।। जे अंडया जे य जराउ पाणा, संवेयया जे रसथाभिहाणा ॥१॥ एयाइं कायाइं पवेइयाइं, एएसु जाणे पडिलेह सायं । एएण काएण य आयदंडे, एएसु या विप्परियासुविति॥२॥ छाया-पृथिवी चाऽऽपश्चाऽग्निश्च वायुः तृणवृक्षवीजाश्च त्रसाचपाणाः । येऽण्डजा ये च जरायुजाः प्राणाः संस्वेदजा ये रसजाभिधानाः ॥१॥ एते कायाः प्रवेदिताः एतेषु जानीहि मत्युपेक्षस्त्र सातम् । एतैः काय यें आत्मादण्डा एतेषु च विपर्यासमुपयान्ति ॥२॥ शब्दार्थ-'पुढवी य-पृथिवी च' पृथिवी 'आउ अगणी य वाऊआपः अग्निश्च वायुः जल, अग्नि, और वायु 'तणरुक्खधीया य तसा. य पाणा-तृणवृक्षवीजाश्च साश्च प्राणाः' तृण, वृक्ष, बीज और त्रस. प्राणी 'जे अंडयायेचाण्डजाः' तथा जो अण्डज 'जे य जरा पाणायेच जरायुजाः प्राणा:' और जरायुज प्राणी है 'जे संसेयया ये च संस्वेदजाः, तथा जो संस्वेदज एवं 'जे रसयाभिहाणाये च रसजाभिधाना' जो विक्रिया वाले रससे उत्पन्न होने वाले प्राणी है 'एयाई कायाई पवेड्याई-एते कायाः प्रवेदिताः' इन सबों को सर्वज्ञने जीवका पिण्ड कहा है 'एएसु-एतेषु' इन पृथिवीकाय आदिकों में 'सायं जाण-सातं जानीहि सुख की इच्छा जानो 'पडिलेह-प्रत्युपेक्ष. शहाथ-'पुढवी य-पृथिवी च' पृथ्वी 'आउ अगणी य वाऊ-आपः अमिश्च वायुः' ra, AA अले वायु 'तणरुखबीया य तमा य पाणा-तृण वृक्षबीजाश्च प्रसाश्च प्राणाः' तय, वृक्ष, भी मन उस प्राधा 'जे अंडया-ये चाण्डजा' तथा न्य। ११ मते 'जे य जराउ पाणा-ये च जरायुजाः प्राणाः' २ १२१ युन पाए छ, 'जे संसेवया-ये च संस्वेदजाः' तथा सो सरह तथा जे रसयाभिहाणाः-ये च रसजाभिधानाः' मा २सथी G५न्न वा प्राणियो छ 'एयाई कायाई पवेइयाई-एते कायाः प्रवेदिताः' मामधाने सपने- ना (६४७८ छे. 'एएसु-एतेपु' मा पृथ्वीय विजेरेमी 'साय जाण-मातं जानीहि Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० सूत्रकृताङ्गसूत्रे. अन्वयार्थ :- ( पुढवी य) पृथिवी च (आऊ अगणी य चाऊ) आप: अग्निश्व वायुः (तणरुक्खवीया य तसा य पाणा) तृणानि - कुशकाशादीनि, वृक्षाः - आम्रादयः बीजानि - यवादीनि च त्रसः द्वीन्द्रियादयः च माणाः प्राणिनः, (जे अंडया) ये चाण्डजाः शकुनिप्रभृतयः (जे य जराउपाणा) ये च जरायुजाः - गर्भचर्मजाः प्राणाः (जे संसेयया) ये च संस्वेदजाः - यूका मत्कुणादयः (जे रसयाभिदाणा) ये च रसजाभिधानाः - विकृतस्तुषु जाताः, (एयाई कायाई पवेइयांई) एते पृथिव्यादयः कायाः जीवनिकायाः प्रवेदिताः कथिताः (एएस) एतेषु पृथिवीकायादिषु (सायं जाणे) सातं सुखं जानीहि ( पडिलेह) मृत्युपेक्षस्त्र सूक्ष्मरीत्या विचारय (ऐण कारण य आयदंडे ) एतैः कायै ये आत्मदण्डाः एतान् विनाश्य ये आत्मानं स्व' और उसे सूक्ष्म रीतिले विचारो 'एएण कारण य आयदंडे - एतैः कायैः ये आत्मदण्डाः' जो उक्त प्राणियों का नाश करके अपने आत्मा को दंड देते हैं वे 'एएस य विपरियातुर्विति एतेषु च विपर्यासमुपयान्ति' इन्हि प्राणीयों में जन्म धारण करते हैं ॥ १-२ ॥ अन्वयार्थ - पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, कुश काश आदि तृण, आम्र आदि वृक्ष, यव आदि बीज, द्वीन्द्रिय आदि स प्राणी पक्षी आदि अण्डज, जरायुज, जूं खटमल आदि संस्वेदज और रसज अर्थात् बिगड़ी सड़ी वस्तुओं में उत्पन्न होने वाले जन्तु, यह सब सर्वज्ञों द्वारा जीवनिकाय कहे गए हैं। इन सब पृथ्वीकाय आदि में साता को जानो, सूक्ष्म रीति से विचार करो। इन जीवों का घात करके जो अपनी સુખની ઇચ્છા लग 'पहिलेह - प्रत्युपेक्षस्त्र' અને તેને સૂક્ષ્મ રીતે विथारे। 'ऍपण कारण य आयदंडे - एतैः कायैः ये आत्मदण्डाः' थे। ५२ डेल प्रथियोनी नाशरीने चोताना आत्माने इंडियाचे हे, तेथे 'एएस य विपरिया सुविति - एतेषु च विपर्यामुपयान्ति' सान आडियोभां मन्मधारय रे छे. ॥। १८२ ॥ सूत्रार्थ - पृथ्वी, पाथी, अग्नि, वायु, कुश माहि पृष्ठ; मात्र साहि વૃક્ષ, જવ આદિ બીજ) દ્વીન્દ્રિય આદિ ત્રસ જીવે, પક્ષી આદિ અંડજ જરાયુજ, જૂ, માકડ આદિ સસ્વેદજ, અને રસજ એટલે કે મગડી ગયેલી કે સડી ગયેલી વસ્તુઓમાં ઉત્પન્ન થતાં જન્તુએ, આ અધાને સજ્ઞો દ્વારા જીવનિકાય કઙેવામાં આવેલ છે. પૃથ્વીકાય આદિ સમસ્ત જીવામાં સાતાને જાણેા–એટલે કે તે સઘળા જીવને સુખ ગમે છે, એ વાતને સૂક્ષ્મ રીતે વિચાર કરો જે લાકો આ જવાના ઘાત કરે છે, તે પેાતાના આત્માને Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nirahuat टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ०१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् '६६ दण्डयंति से (एय विपरिया मुर्चिति) एतेषु एव प्राणिनः कायेषु विपर्यासं जन्म उपयान्ति प्रान्नुवन्ति उत्पत्तिं लभन्ते इति ॥१-२॥ टीका - 'पुढवी' पृथिवी = पृथिवीकायिकाः जीवाः, यच्च शब्दोऽवान्तरभेदसूचकः । तथाहि - पृथिवीकायिकाः द्विविधाः सूक्ष्माः वादराश्च, ते च प्रत्येकं पर्याप्ताऽपर्याप्तकादिभेदेन द्विधा भवन्ति तदेवं पृथिवीकायिका चतुर्विधाः । 'आऊ' आपः=अपूकाथिकाः, एवमप्तेजोवायुष्वपि चतुर्विधत्वं ज्ञातव्यम् । 'अगणी य' च अग्निकायिकाः 'वाउ' वायुकायिकाः, सम्पति वनस्पतिकायान भेदेन दर्शयति । 'तण' तृणानि कुशकाशादीनि, 'रुख' वृक्षा: - आम्रवनसादयः 'बीया' बीजानि शाल्यादीति । एवं लतागुल्मादयोऽपि भेदाः संगृहीता भवन्ति । 'दसा' आत्मा को दण्डित करते हैं, वे इन्हीं कार्यों में विपर्यास को प्राप्त होते हैं अर्थात् जन्म ग्रहण करते हैं ॥ १-२ ॥ ww टीकार्य - पृथिवी अर्थात् पृथ्वी को शरीर बनाकर रहने वाले जीव जिनका शरीर पृथिवी ही हैं । यहाँ 'य' शब्द यह सूचित करता है कि पृथिवीकायिकों में सूक्ष्म और बादर । इन दोनों के ही दो दो भेद हैं-पर्यातक और अपर्याप्तक | इस प्रकार पृथिवीकायिक जीव चार प्रकार के होते हैं । इसी प्रकार अप्रकायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों के चार चार भेद भी समझ लेना चाहिए। वनस्पतिकायिक जीवों के कितने भेद होते हैं सो कहते हैं-तृण अर्थात् कुश, काश आदि । वृक्ष अर्थात् જ શિક્ષા કરે છે. તેએ એજ જીવનિકાયેામાં જન્મગ્રળુ કરીને પોતાનાં પાપકમાંનુ ફળ ભાગવે છે. એજ વાત તેઓ એજ જીવનિકાચેમાં વિપર્યાસ भाभे हे, ' मा सूत्रपाठ द्वारा व्यक्त ४२वामां भावी है. ॥१-२॥ !' ટીકા પૃથ્વી' આ પદ પૃથ્વીકાય જીવોનુ વાચક છે. પૃથ્વીને જ શરીર બનાવીને રહેનારા જીવેાને પૃથ્વીકાય’ કહે છે. અહી ‘ય' પદ એ સૂચિત કરે છે કે પૃથ્વીકાયિકાના અનેક ભેદ હેાય છે. પૃથ્વીકાયિકાના મુખ્ય એ लेह छे (१) सूक्ष्म, मने (२) बाहर आ मन्नेना य] पर्याप्त अने अपर्यास નામના બબ્બે ભેદ પડે છે. આ પ્રકારે પૃથ્વીકાયિકાના ચાર પ્રકાર પડે છે. એજ પ્રમાણે અાયિક, તેજસ્કાયિક અને વાયુકાયિક જીવોના ચાર ચાર ભેદ સમજવા. વનસ્પતિકાયિકાના કેટલાક ભેદ આ પ્રમાણે છે... તેણું એટલે ઘાસ, કુશ આદિ, વૃક્ષ એટલે કે આંબા, ફ્સ આદિ; ખીજ પણ. Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D सूत्रकृताङ्गसूत्रे अत्यन्तीति नसाः द्वीन्द्रियादयः । 'पाणा' पाणिनः 'जे' ये च 'अंडया' अण्डनाः भण्डाजाता पक्षिसरीस्टपादयः । 'जे य जराऊ पाणा' ये च जरायुजाः प्राणिना, जरायुजाः जंबालजालपरिवेष्टिता एव जायन्से मनुष्यगोमहिपादयः, तथा'जे संसेयया' ये संस्वेदजाः संस्वेदाज्जाता यूकाः मत्कुणकस्यादयः । 'रसयाभि हाणा' रसनाभिधाना=विकृतवस्तुपु समुत्पनाः इति । अनेकदभिन्नान् पृथिव्यादिषट्कायान् प्रदर्थ तेषां हिंसने दोपं दर्शयितुं सुत्रकार आह-'एयाई' इत्यादि । 'एयाई' एते 'कायाई कायाः एते पड्जीवनिकाया: 'पदेइयाई' भवेदिता-प्तर्वज्ञः आम, पन आदि बीज अर्थात् शालि जौ आदि। इस कथन से लना गुल्म गुच्छ आदि भेदों का भी ग्रहण कर लेना चाहिये। द्वीन्द्रिय आदि जो प्राणी त्राल का अनुभव करके एक स्थान से दूसरे स्थान में जाते हैं, वे बस कहलाते हैं । अण्डज (पक्षी) सरीसृप (स) आदि जरायुज (चमड़े की झिल्ली से लिपटे हुए जन्म लेने वाले) जैसे मनुष्य, गाय, भैल आदि, स्वेदज अर्थात् पसीने से उत्पन्न होने वाले जू, अक्रुण (खटमल) आदि विकृत वस्तुओं में उत्पन्न हो जाने वाले रसज जन्तु, यह सब ब्रल जीव होते हैं ! ___पृथ्वीकाय आदि के भेद कहकर सूत्रकार अब उनकी हिंसा में दोष प्रदर्शित करते हैं-'एयाई इत्यादि । .. सर्वज्ञ तीर्थकर ने जीवों के यह पूर्वोक्त छह निकाय कहे हैं। केवल. એટલે કે શાલિ, યવ આદિ આ કથન દ્વારા લતા, ગુલ્મ, ગુચ્છ આદિ ભેદોને प्रय ४२६ नये. . . , દ્વીન્દ્રિય આદિ જે પ્રાણુઓ ત્રાસને અનુભવ કરીને એક જગ્યાએથી બીજી જગ્યાએ જાય છે, તેમને ત્રસ કહે છે. અંડજ એટલે ઇંડામાંથી ઉત્પન્ન થતાં પક્ષીઓ, અને સપ” આદિ જી, જરાયુજ એટલે ચામડાના પાતળા પારદર્શક પડમાં લપેટાઈને જન્મ લેનાર મનુષ્ય, ગાય, ભેંસ આદિ છો, દજ એટલે પરસેવામાંથી ઉત્પન્ન થનાર , માકડ આદિ જીવો, રસજ એટલે સડેલી અથવા વિકૃત વસ્તુઓમાં ઉત્પન્ન થનાર જંતુઓ. આ બધાં જેને ત્રસ જી કહે છે. પૃથ્વીકાય આદિ ભેદનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર તેમની હિંસામાં २९ प ट रे छे-'एयाई' त्या . સર્વણ તીર્થકરોએ ના પૂર્વોક્ત છ નિકાય કહ્યા છે. કેવળજ્ઞાન Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् - १५३ तीर्थकरैः कथिताः, तेहि केवलालोकलोकनेन पृथिव्यादिष्वपि जीवान् दृष्ट्वा, सर्वे के जीवा एव लोकेभ्यः प्रवेदिताः। एतेषु पुरोपदिष्टेषु पृथिवीप्रभृतिजीवनिकायेषु । 'सायं' सात-सुखम् 'जाणे' जानीहि, सर्वेऽपि पाणिनः मुखैषिणो-दुःखविरोधिनश्च भवन्तीति ज्ञात्वा, 'पडिलेह' प्रत्युपेक्षस्व, हे शिष्य कुशाग्रबुद्धया पालोचय, विचारयेति यावत् । 'एएण कायेण य आयदंडे' एतैः कायैः ये आत्मदण्डाः, एभिः कायैः पीडयमानः आत्मा स्वीय एव दण्ड यते । एतत्समारंभात् आत्मदण्डो भवति । एतेषां विराधने कृते नरकादिगतिषु पातो भवति । ततश्वात्मा दुःखमनुभाति, अन आत्मा दण्डितः । 'एएसु या विपरियासुर्विति' एतेषु च विपर्याप्तमुपयान्ति, ये एत न् प्रन्ति ते एतेष्वेव पुनर्जन्ममरज्ञान रूपी प्रकार से पृथ्वी आदि में जीवों की सत्ता देखकर उन्होंने संसार को दिखलाई है। पृथ्वीकाय आदि सभी जीवनिकायों में साता को समझो अर्थात् कुशाग्रबुद्धि से इसका विचार करो कि सभी प्राणी सुख के अभिलाषी और दुःख के विरोधी हैं अर्थात् छओं जीवनिकायों के जीव सुख चाहते हैं दुःख नहीं चाहते हैं। इन जीवनिकायों को दंडित करना (इनकी विराधना करना) अपनी ही आत्मा को दंडित करना है अर्थात इनकी हिंसा से आत्महिंसा (अपनी हिंसा) होती है और नरकादि गतियों में निपात होता (जाना पड़ता) है । नरकादि दुर्गतियों में आत्मा को जो दुःख भोगना पड़ता है, वही आत्मा का दण्डित होना है। जो प्राणी इन षट्कायों में से किसी काय की विराधना करता है, उसे उसी काय में वारंवार जन्म मरण करना पड़ता है । अथवा विपરૂપી પ્રકાશ વડે તેમણે પૃથ્વીકાય આદિમાં જીવનું અસ્તિત્વ જોયું છે અને સંસારના લેકે સમક્ષ તેમાં જીવ હેવાનું પ્રતિપાદન કર્યું છે. “પૃથ્વી આદિ સમસ્ત જીવનિકામાં સાતાને સમજે” આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે કુશાગ્ર બુદ્ધિથી એ વાતનો વિચાર કરો કે સમસ્ત જી સુખની અભિ सपा रामेछ, ४२ ५ गमतु नथी. ७ मे छ नियन ' सुभ: या छ, तमनम गम नथी. मा पनि योनी विराधना - ४२वीत. પિતાના આત્માને જ દંડિત કરવા બરાબર છે. એટલે કે તેમની હિંસા કરવાથી આત્મહિંસા (પેતાની જ હિંસા) થાય છે અને નરકાદિ ગતિઓમાં જવું પડે છે. નરકાદિ દુર્ગતિઓમાં આત્માને જે દુઃખો ભેગવવા પડે છે. એનું નામ જ આત્માનું દંડિત થવું છે. જે માણસ આ છે કાયના જીમાંથી કંઈ પણ કાયના જીવની વિરાધના કરે છે, તેને એજ જીવનિકાયમી सू०७० Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सूत्रकृतागसूत्रे णादिकं लभन्ते । अथवा-विपर्यासमुपयान्ति, विपर्यासो व्यत्ययः । मुखमिच्छता हि कायसमारंभः क्रियते तावता सुखं न भवति । प्रत्युत दुःखमेव जन्यते । पगा-परतीथिका मोक्षार्थमेतान् षड्जीवनिकायान विराधयन्ति, तावतान मोक्षो लभ्यते, अपितु वद्विपरीते संसारे एवं परिभ्रमन्ति दुःखमनुभवन्ति इति ॥१-२॥ ____प्राणिविराधनं कृत्वा यागादिकमनुचरन्तो मोक्षार्थिनो मोक्षमप्राप्य तद्विपरीतं संसारमेव मानुनन्ति इत्युक्तं किन्तु केन प्रकारेण ते संसारमाविशन्ति तान् प्रकारान् उपदर्शयति सूत्रकार:-'जाईपह' इत्यादि। मूलम्-जाईपहं अणुपरिवहमाणे तसथावरेहि विणिघायमति। स जाइजाइं बहुकूरकम्मे जं कुबइ मिज्जइ तेण बाले॥३॥ छाया-जाति पथमनुवर्तमानस्त्रसस्थावरेषु विनिघातमेति । स जातिजाति बहुक्रूरकर्मा यत्करोति म्रियते तेन वालः ॥३॥ शंस को प्राप्त होने का आशय यह है कि सुख की अभिलाषा से जीवों का आरंभ किया जाता है परन्तु आरंभ से सुख न होकर उल्टा दुःख उत्पन्न होता है । अथवा परतीर्थिक मोक्ष के लिए षटू जीवनिकायों की विराधना करते हैं परन्तु उससे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती संसार में ही परिभ्रमण करना पड़ता है और संसार भ्रमण करते हुए जीवों को विविध प्रकार के दुःखों का अनुभव करना पड़ता है॥१-२॥ यह कहा जा चुका है कि प्राणियों की विराधना करके यज्ञ याग आदि करनेवाले मोक्षार्थी मोक्ष तो प्राप्त करते नहीं, उलटे संसार में ही परिभ्रमण करते हैं, किन्तु किस प्रकार वे संसार भ्रमण करते हैं, વારંવાર જન્મ મરણ કરવા પડે છે. અથવા–“વિપર્યાસ પામ આ પદોને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે–સુખની અભિલાષાથી ને આરબ (હિંસા) કરવામાં આવે છે, પરંતુ તે આરંભ દ્વારા સુખની પ્રાપ્તિ થવાને બદલે ઊલટાં હરખની જ પ્રાપ્તિ થાય છે. અથવા પરતીર્થિકે મેક્ષને માટે છ કાયના જીવોની વિરાધના કરે છે, પરંતુ તેથી તેમને મોક્ષની પ્રાપ્તિ તો થતી નથી, પરતુ સંસારમાં પરિભ્રમણ કરવું પડે છે અને પરિભ્રમણ કરતાં કરતાં. વિવિધ પ્રકારનાં દુઃખેને જ તેમને અનુભવ કરવો પડે છે. ગાથાન-રા : આગલા સૂત્રમાં એવું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું કે પ્રાણીઓની વિરાધના કરીને યજ્ઞ, હોમ, હવન આદિ કરનારા મેક્ષાથી જીવો મોક્ષ તે પ્રાપ્ત કરતા નથી, ઊલટાં સંસારમાં જ પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે, પરંતુ મેક્ષમાં ન Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ U समयार्थवोधिनी टीका प्र. ध्रु. अं. ७ उ.१ कुशीलवतां दोपनिरूपणम् ..... ५५५.. ___ अन्वयार्थः- (जाईपह) जातिपथं-एकेन्द्रियादिजाती 'अणुपरिवद्रमाणे अनुपरिवर्तमानः-जन्ममरणं' कुर्वाणः (स) सः जीवः (तसंथावरेहि) त्रसंस्थावरेषु समुत्पद्य (विणिघायमेति) विनिघातं विनाशमेति प्राप्नोति, (जाइजाई) जाति जातिम् एकेन्द्रियादिषु अनेकशो जन्म गृहीत्वा (बहुकूरकम्मे बाले) वहुक्रूरकर्मा वालोऽज्ञानी (जं कुब्वइ तेण मिज्जइ) यत्- प्राणातिपातं करोति तेन कर्मणा म्रियते-जन्ममरणं करोति ॥३॥ यह सूत्रकार दिखलाते हैं-'जाईपहं' इत्यादि ।। ...' शब्दार्थ-'जाईपह-जातिपथम्' एकेन्द्रिय आदि जातियों में 'अणुपरिवट्टमाणे-अनुपरिवर्तमानः' जन्म मरण को प्राप्त करताहुभा 'से-सः' वह जीव 'तसथावरेहि-त्रसस्थावरे त्रस और स्थावर जीवों में उत्पन्न होकर 'विणिघायमेति-विनिघातस्मेति' नाशको प्राप्त होता है 'जाइजाई-जातिजातिम्' एकेन्द्रियादिकों में बार बार जन्म लेकर 'बहुकूरकम्मे पाले-पहुक्ररकर्मा बालः' घहुत क्रूर कर्म करनेवाला वह बाल-अज्ञानी जीव जं कुव्वा तेण मिज्जइ-यत् करोति तेन म्रियते जो कम करता है उसीकर्म से जन्म मरण प्राप्त करता है।३।। ___ अन्वयार्थ-एकेन्द्रिय आदि जातियों में परिभ्रमण करता हुआ अर्थात् जन्म मरण करता हुआ वह जीव बसस्थावर योनियों में उत्पन्न होकर घात को प्राप्त होता है । एक जाति से दूसरी जाति में જતાં તેઓ કેવી રીતે સંસાર ભ્રમણ કરે છે, તે સૂત્રકાર હવે બતાવે છેजाईपहं' त्याहि हा-'जाईपहं-जातिपथम् । गेन्द्रिय विगेरे गतियोमा 'अणुपरिवद्रमाणे-अनुपरिवर्तमानः' म अने भ२५ प्राय: 'से-मः' तेल 'तसथावरेहि-त्रसस्थावरेपु' उस भने स्था१२ वामi Surd /२ 'विणिघायमेति-विनिधातमेति' नाशने प्रात थाय छे. 'जाइजाई-जातिजातिम्' येन्द्रियविभा पावा२ म. सन 'बहुक्र कम्मे बाले-बहूक्रूरकर्मा बाल' पान १२ ४२वावावाना ते मान-मज्ञानी १ ज कुव्वइ तेण मिज्जइ-यत् करोति वेन म्रियते' २ ४ ४२ छ.२ मे मथी म भर! प्रास ४२ छे ।। . સત્રાર્થ_એકેન્દ્રિય આદિ જાતિમાં પરિભ્રમણ કરતો થકે એટલે કે જન્મ-મરણ કરતો કરતો તે જીવ બસસ્થાવર નીઓમાં ઉત્પન્ન થઈને ઘાત પામતે રહે છે-હણ રહે છે. એક જાતિમાંથી બીજી જાતિમાં Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतागसूत्र टीका -'जाईपहं' जातिपथम् , जातीनामे केन्द्रियादिजीवानां पन्थाः मार्गः इति जातिपथः तम् 'अणुपरिवट्टमाणे' अनुपरिवर्तमानः, एकेन्द्रियादिपु पर्यटन परिभ्रमन् जन्ममरणजरादिकानि वा अनुभवन् 'तसथावरेहि सस्थावरेपु=बसेषु -तेज़ोवायुद्वीन्द्रियादिषु, स्थावरेपु-पृथिव्यपूवनस्पतिषु समुत्पत्यनन्तरम् जीवघातादिक्रूरकर्मजनितकटुकविपाकेन बहुशः 'विणिधायमेति' विनिघातमेति-खड्गादिना विनाशं प्राप्नोति । 'से' समाप्तदण्डो जीवः । 'जाइजाई' जातिजातिम्एकेन्द्रियादिषु उत्पत्तिं प्राप्य, 'वहुकूरकम्मे' बहुक्रूरकर्मा-बहूनि नानाविधानि राणि प्राणातिपातादीनि घोरकर्माणि अनुष्ठानानि यस्य स बहुक्रूरकर्मा भवति । जन्म ग्रहण करके अत्यन्त क्रूरकर्मा वह अज्ञानी अपने ही पापों के कारण मारा जाता है-जन्म मरण करता है॥३॥ टीकार्थ--एकेन्द्रिय आदि जीवों के समूह को जाति कहते हैं, उसका पथ जातिपथ कहलाता है । तात्पर्य यह है कि हिंसाकारी जीव एकेन्द्रिय जाति आदि में पर्यटन करता हुआ कभी तेज, वायु तथा दीन्द्रिय आदि नलों में और कभी पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय रूप स्थावरों में उत्पन्न होता है । यहाँ उत्पन्न होकर जीवहिंसा आदि क्रूर कर्मों के कटुक (कड़वे) विपाक (फल) का उदय होने पर अनेको वार खड्ग आदि के द्वारा घात को प्राप्त होता है। वह जातिजाति में (एकेन्द्रियादिक अनेक जातियों में) भटकता रहता है। अतिજન્મ લઈને, તે અત્યન્ત કૂરકર્મા અજ્ઞાની જીવ પોતાનાં જ પાપને કારણે હાય કરે છે. આ રીતે જન્મમરણના ફેરા કર્યા જ કરે છે મારા ટકાર્થ_એકેન્દ્રિય આદિ જીવોના સમૂહને જાતિ કહે છે, અને તેના પથને જાતિપથ કહે છે. તાત્પર્ય એ છે કે હિંસાકારી જીવ એકેન્દ્રિય જાતિ આદિમાં પર્યટન કરતો રહે છે. આ પ્રમાણે ભાવભ્રમણ કરતા તે જીવ ક્યારેક કાયિકમાં, કયારેક વાયુકાયિકમાં અને ક્યારેક કીન્દ્રિયાદિમાં ઉત્પન્ન થાય છે. (તેજસ્કાય, વાયુકાય અને દ્વીન્દ્રિય આદિને ત્રસ જીવો કહે છે) અને કયારેક તે જીવ પૃથ્વીકાય, અકાય અને વનસ્પતિકાય રૂપ સ્થાવરોમાં ઉત્પન થાય છે ત્યાં ઉત્પન્ન થઈને, જીવહિંસા આદિ ક્રૂર કમેને કડવો વિપાક જ્યારે ઉદયમાં આવે છે, ત્યારે તેઓને તલવાર આદિ શસ્ત્રો દ્વારા (પૂર્વ ભવના તેમના શત્રુઓ દ્વારા) ઘાત કરવામાં આવે છે, અને તે જાતિજાતિમાં-એક જાતિમાંથી બીજીમાં (એકેન્દ્રિય આદિ અનેક જાતિઓમાં ભટ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५७, मयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अं. ७ उं. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् इत्थंभूतो विवेकविकलः वाले = बाल इव बालः यस्यामे केन्द्रियादिषु यत् प्राणिउपमर्दकारिकर्म 'कु' करोति स तेनैव कुत्सितकर्मणा 'मिज्जा' म्रियते -हिंस्यते । यदा तेनैव कर्मणा म्रियते खड्गादिना परिच्छिद्यते । एकेन्द्रियादिकजीवविनाशकारी, तारवेव जातिषु जायते म्रियते च । तदनु सस्थावरादिषु बहुशः उत्पद्यं तत्रैव चनुर्गतिषु जन्ममरणं करोति न संसारपारमेति ॥ ३ ॥ क्रूरकर्मकारिणः स्थितिं वर्णयति- 'अस्सिच लोए' इत्यादि । मुकम् - अस्सिच लोए अदुवा परत्था सयग्गसो वा तह अन्नहा वा । संसारमावन्न परं परं ते बंधति वेदंति य दुन्नियाणि ॥ १४ ॥ छाया - अस्मिन लोके अथवा परस्तात् शताग्रशो वा तथा अन्यथा वा । संसारमापन्नाः परं परंते बध्नन्ति वेदयन्ति च दुर्नी तानि ॥ ४ ॥ - 1 शय क्रूर कर्म करने वाला वह अज्ञानी जीव अपने ही किये कुकृत्यों से (पापों से मारा जाता है । तात्पर्य यह है कि जो जीव जिस एकेन्द्रिय आदि के जीवों का घात करता है वह उसी जाति में उत्पन्न होकर घात को पाता है मारा जाता है | तपश्चात् स और स्थावगे में वारंवार उत्पन्न होकर जन्म मरण करता रहता है। ऐसा हिंसक जीव संसार से पार नहीं हो पाता | ३| क्रूर कर्म करने वाले की स्थिति का वर्णन करते हुए कहते हैं'अस्ति च लोए' इत्यादि । S शब्दार्थ - ' असि च लोए अदुवा परस्था-अस्मि च लोके अथवा परस्तात्' इसलोक में अथवा परलोक में वे कर्म अपना फल देते हैं તેા રહે છે. અતિશય ક્રૂર કર્યું કરનારા અજ્ઞાની જીવો પાતે કરેલા કુકૃત્યોને ४२] डौंडित थाय छे (छेइन, लेहन, भार, ड्रेट आहि वेहनाओ सहन य मेरे छे) अथवा थाया रे छे. તાપ એ છે કે જે જીવ એકેન્દ્રિય આદિ જીવોની હત્યા કરે છે, જીવ એજ જાતિમાં ઉત્પન્ન થઇને પેાતાના ઘાત થતા અથવા પેાતાની હત્યા થવાના અનુભવ કરે છે. ત્યાર બાદ ત્યાંથી મરીને ત્રસ અને સ્થાવરામાં વારવાર ઉત્પન્ન થઈને જમસરણ કરતા રહે છે. એવો હિંસક જીવ સંસારને પાર કરી શકતા નથી. ાગાથા ગા ક્રૂર કર્યાં કરનાર જીવની કેવી હાલત થાય છે, તેનું વધુ ન કરતા,સૂત્ર२ - 'अस्थि' च लाए' इत्याहि शब्दार्थ' - 'असि च लोए अदुवा परत्था - अस्मिं च लोके अथवा परस्तात्' આ ‘લેકમાં અથવા પરલેાકમાં એકમ પેાતાનુ ફળ કરનારને આપે છે.. Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ५५६ सूत्रकृतास्त्र ____अन्वयार्थ-(अस्सि च लोए अदुवा परस्था) अस्मिन् लोके अथवा परस्तात् पर.. लोके कर्म स्वफलं ददाति (सपग्गसो वा तह अन्नहा वा) शताग्रशो वा तथा अन्यथा वा-एकस्मिन् एव जन्मनि अनेकजन्मनि वा (संसारमावन) संसारमापन्नास्ते (परं परं) परं परम्- उत्कृष्टात्युत्कृष्टं (दुनियाणि) दुनी तानि-दुष्कृतानि (बंधंति), य वेदति) वध्नन्ति च वेदयन्ति-ताश कर्मबन्धनं कुर्वन्ति तत्फलं चानु अवंतीति ॥४॥ टीका-'पिस्सि च लोए' अस्मिंश्च लोके-यानि अशुभकारि कर्माणि तानि अस्मिन्नेव भवे फलं ददति । 'अदुवा' अथवा परस्तात्-परस्मिन् जन्मनि नरकादि दुर्गतौ तानि कर्माणि फलं ददति । 'सयग्गसो वा तह अन्नहा वा' शवाग्रशो वा, 'सयग्गसो वा तह अन्नहा वा-शतायशो वा तथा अन्यथा वा वे एक जन्ममें अथवा सेंकडोंजन्मों में फल देते हैं। जिसप्रकार वे कर्म किये गये हैं उसी प्रकार अपना फल देते हैं अथवा दूसरे प्रकार से फल देते हैं 'संसारमावन्न ते-संसारमापन्नास्ते' संसारमें भ्रमण करते हुए वे कुशील जीव 'परं परं-परं परम्' अधिक से अधिक 'दुन्नियाणि-दुर्नी' तानि' दुष्कृत्यों को अर्थात् पापकर्म को 'बंधंति य वेदंति-बध्नन्ति च वेद यन्ति' बांधते हैं और अपने पापकर्मका फल भोगते हैं॥४|| ___ अन्वयार्थ--इल लोक में अथवा परलोक में कर्म अपना फल देता है। एक जन्म अथवा अनेक जन्मों में संसार को प्राप्त हुए वे जीव उत्कृष्ट से अति उत्कृष्ट पापों का बन्ध करते हैं और वेदन करते हैं।४। 'टीकार्थ-इस लोक अर्थात् इस अव में जो अशुभ कर्म उपार्जित" किये गये हैं, वे इसी भव में अपना फल देते हैं अथवा परलोक में 'सयजसो वा तह अण्णहा वा-शताग्रशो वा तथा अन्यथा वा' तो मे જન્મમાં અથવા સેંકડો જન્મમાં ફલ આપે છે. જે રીતે તે કર્મ કરવામાં આવેલ છે. એ જ રીતે ફળ આપે છે. અથવા બીજી રીતે ફળ આપે છે. 'संसारमावन्न-संसारमारन्नास्ते' ससारमा भ्रम रतसवा अशी छ। 'परं परं-पर परम्' वधारेमा धारे दुन्नियाणि-दुनीतोनि' त्याने अर्थात् पा५४मन 'बंधति य वेदंति-बध्नन्ति च वेदयन्ति' मांधे छ भने यातना પાપ કર્મ નું ફળ ભેગવે છે. ૫ ૪ સૂત્રાર્થ-કર્મ પિતાનું ફળ આ લેકમાં કે પરલોકમાં આપે છે. સંસા૨માં ભ્રમણ કરતા જીવો એક જન્મમાં અથવા તો અનેક જન્મોમાં એક, . એકથી ચડિયાતાં પાપને બન્ધ કરે છે અને વેદન કરે છે. પાકા : साथ-सासमा भेटले, भासभा २, मशुम.भानु 64 ર્જન થયું હોય, તેનું ફળ આ ભવમાં જ મળે છે, એવી કઈ વાત નથી. Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थचोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोपनिरूपणम् ५५९ अनेकशत वारं तथा अन्यथा वा प्रकारान्तरेण फलं प्रयच्छन्ति । अयं भावा-कि चित्कर्म तस्मिन्नेव जन्मनि फलं ददाति, किंचिच्च कर्म जन्मान्तरे फलदात् । यथा दुःख विपाकास्य प्रथमश्रुतस्कन्धे कथितं मृगापुत्रस्य विषये, तथा-दीर्घकाल 'स्थितिकं तु कर्म, अपर भवान्तरितं फलं ददति । 'संसारमावान ते' संसारमापन्नाः ते संसारे परिभ्रमन्तस्ते कुशीला जीवाः । 'परं परस्' अधिकादपि अधिकम्, शिर छेदादिकं दुःखमनुभवन्ति । येन प्रकारेण यत् कृतं तेनैव प्रकारेण एकवार मेव, अनेकशी वा, शतकृत्वः सहस्रकृत्वो वा फलमनुभवत्येव । 'बंधंति वेदंति य दुन्नियाणि वध्नन्ति, वेदयन्ति च दुर्मीतानि, आतथ्यानं कृत्वा पुनः कर्म वध्नन्ति फल देते हैं । वे सैकड़ों भयो में फल देते हैं अथवा अन्यथा अर्थात् एक भव में भी फल देते हैं । जैसा दुःख विपाक नामक प्रथम श्रुतस्कंध में मृगापुत्र के विषय में कहा गया है, तदनुसार जो कर्म लम्बी स्थिति वाला होता है, वह अगले किती भव में फल प्रदान करता है। __संसार को प्राप्त दुराचारी जीव अधिक से भी अधिक मस्तकछेदन आदि दुःखों का अनुभव करते हैं । जो कर्म जिस प्रकार से किया गया है, वह उसी प्रकार से एक जन्म में या सैकड़ों हजारों जन्मों में फल देता है। दुराचारी जीव कर्मों को बांधते है और वेदते हैं। वेदन करते समय आर्तध्यान करके पुनः नूतन कर्म का बंध करलेते हैं। जब उसका उद्य आता है तो फिर आर्तध्यान करते हैं और फिर नवीन कर्म का बन्धन करते हैं। इस प्रकार बन्धन और वेदन का કે આ ભવમાં પણ કર્મ પિતાનું ફળ દે છે, અથવા પરભવમાં પણ ફળ દે છે. સેંકડો ભવોમાં પણ ફળ દે છે અથવા એક ભવમાં પણ ફળ દે છે જેવું ખવિપાક નામના પ્રથમ શ્રુતસ્કમાં મૃગાપુત્રના વિષયમાં કહેવામાં આવ્યું છે, તે પ્રમાણે જે કર્મ દીર્ઘ સ્થિતિવાળું હોય છે, તે કર્મ પછીના કોઈ ભવમાં ફળ પ્રદાન કરે છે. સંસારમાં ભ્રમણ કરતે દુરાચારી જીવ મસ્તક છેદન આદિ ભારેમાં ભારે દુઃખનું વેદન કરે છે. જે કર્મ જે પ્રકારે કરવામાં આવ્યું હોય છે, એજ પ્રકારે તે કર્મ એક જન્મમાં કે અન્ય સેંકડો કે હજારે ભવમાં ફળ દે છે. દુરાચારી જ કર્મો બાંધે છે” અને ' તેમને દુખ વિપાક વેદતા રહે છે વેદન કરતી વખતે આર્તધ્યાન કરીને તેઓ પુનઃ નૂતન કર્મને બંધ કરી લે છે. વળી જયારે તે ઉદયમાં આવે છે, ત્યારે ફરી આર્તધ્યાન કરે છે અને ફરી નવા કમને બન્ધ કરે છે આ પ્રકારે કઈ કેઈ જીવને બન્ધન અને વેદનને પ્રવાહ અનન્તકાળ સુધી ચાલુ રહે છે, Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्रकृताङ्गसूत्रे ५६० तथा स्वकृतकर्मणः फलं भुञ्जन्ति भयं भावः - कुशीलास्ते कर्म कृत्वा यथा कथंचित्कर्मणां फलमुपभुञ्जन्त्येव एव देव एकजन्मनि वा, अनेकदाsनेक जन्मनि वा । शतसहस्रजन्मनि वा, एवं कर्म कुर्वन्तः फलमुपभुञ्जन्ति । पुनस्तत्कर्म कुर्वन्तो जन्मान्तरमर्जयित्वा पुनः कर्मफलमनुभवन्तः संसारेच क्रान्तातिक्रान्ता भवन्ति । तदुक्तम् -'मा होहि रे विसनो जीव ! तुमं विमणदुम्प्रणो दीणो । हु चितिएण फिइ तं दुक्खं जं पुरा रइयं ॥१॥ प्रवाह किसी किसी का अनन्त काल तक किसी का लम्बे काल तक और किसी का सदा काल तक चलता रहता है । अनादि काल से यही परम्परा चली आ रही है । उदीर्ण कर्मों को समभाव से सहन किये विना यह प्रवाह अवरुद्ध नहीं होता (नहीं रुकता ) आशय यह है - कुशील (पापी) जीव कर्मों का बंध करके किमी न किसी रूप में उनका फल भोगते हैं। कोई उसी जन्म में, कोई अगले जन्म में, कोई एक जन्म में कोई सैकड़ों हजारों जन्म में । वे फलोपभोग के समय रागद्वेष करके नवीन कर्म उपार्जन करते हैं और फिर. उस का फल भोगते हैं । इस प्रकार भावकर्म ( रागद्वेष परिणति ) से द्रव्यकर्म (ज्ञानावरणीयादि आठकर्म) और द्रव्यकर्म से भावकर्म उत्पन्न होते रहते हैं । दोनों का उभयमुख कार्यकारणभाव वीज वृक्ष की सन्तान के समान अनादि काल से चला आ रहा है । इस अनादि कर्म. કાઈને તે પ્રવાહ લાંબા કાળ સુધી ચાલુ રહે છે અને કાઈને સદાકાળ ચાલુ જ રહે છે. અનાદિ કાળથી એજ પર પરા ચાલી જ રહી છે. ઉદૃીણુ (ઉદયમાં આવેલાં) કર્માંને સમભાવથી સહન કર્યાં વિના આ પ્રવાહ અવરુદ્ધ થતાં नथी (अटङतो नथी) આ કથનનુ તાત્પર્ય એ છે કે કુશીલ (પાપી) જીવા કાના અન્ય કરીને કાઈ ને કાઈ રૂપે તેમનું મૂળ ભાગવ્યા કરે છે. કાઈ એજ જન્મમાં, કેાઈ પછીના જન્મમાં, કાઇ સેંકડા કે હજારા જન્મમાં કર્મોનું ફળ ભાગવે છે. લાપભાગ કરતી વખતે તે રાગદ્વેષ કરીને નવીન કર્યાંનું ઉપાર્જન કરે છે, અને પાછું તેનું ફળ ભાગવે છે. આ પ્રકારે ભાવકમ (રાગદ્વેષ પિર युति) वडे द्रव्यर्भ (ज्ञानावरीय आहि माह उर्भ ) अने द्रव्यर्म, 3 ભાવકમ ઉત્પન્ન થતાં જ રહે છે. ખન્નેનું ઉભયમુખ, કા કારણ ભાવ બીજ વૃક્ષનાં સંતાનની જેમ અનાદ્દિ કાળથી ચાલ્યું જ આવે છે, આ કમ`પ્રવાહને Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . समयार्थयोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ...१६१ जइ पविससि पायालं अडवि व दरिं गुहं समुदं वा ।। पुवकयाउ न चुक्कासि अप्पाणं घायसे जइ वि ॥२॥' ' छाया-मा भब रे विपणो जीव ! स्वं विलना दुर्मना दीनः। .. नैव चिन्तितेन र फेटते वद् दुःखं यत्पुरा रचिवं ॥१॥ यदि पविशलि पातालं अटवीं या दरी गुहां समद्रं वा। प्रर्वतान्नेत्र भ्रश्पसि आत्मानं घातयसि श्यपि ॥२॥ गाथाऽर्थः-कर्मोदये सति आर्तध्यान करोपि, विपना दुर्मना:-कथं भवसि यद् पुरा कर्मरचित कृतं तत् आर्तव्याने न न त्रुटयति, अतः समसामाचर विवेक कुरु पुनरपि दुष्कर्म न इ.रणीयस्, चतुः पातालं गच्छसि, अटी वा गच्छसि प्रवाह को वही जीव नष्ट कर सकते है जो फर्म के फल का उपयोग समय आतध्यान नहीं करके पूर्ण लाभाव में स्थित रहते हैं। अन्यथा जन्म जन्मानार में यह चक्र चलता ही रहता है। कहा है ना होहिरे विलन्नो' इत्यादि। अरे जीव तूं फर्म का फल भोगते समय विषाद मत कर, शिमन, दुर्मन और दीन न बन । तूने पूर्वकाल में अपने लिए जिस दुख का निर्माण किया है अर्थात् दुःख प्रद शर्म का बंच किया है, वह चिन्ता शोक करने से मिट नहीं सकता ॥१॥ 'जह पविससि' इत्यादि। , अगर तूं पाताल में प्रवेश कर जाएगा, विकट अटवी में, खंधक में; गुफा में या समुद्र में भी चला जाएगा तो भी कर्म से छुटकारा नहीं એજ જીવ નષ્ટ કરી શકે છે કે જે ફળને ઉપભોગ કરતી વખતે આ સ્થાન કરતું નથી પણ સમભાવપૂર્વક તેનું વેદન કરે છે. જે સમભાવપૂર્વક કર્મના ફળને ઉપગ કરવાને બદલે આર્તધ્યાનપૂર્વક ઉપભેગ કરવામાં આવે, તે જન્મજન્માન્તરમાં આ ચક્ર (કર્મપ્રવાહ) ચાલુ જ રહે છે. કહ્યું પણ છે કે 'मा होहि रे विसन्नो', त्यादि “અરે જીવ ! તું કમનું ફળ ભેગવતી વખતે વિષાદ ને કર વિમર્ડ દમન અને દીન ન બેન. તે પૂર્વકાળમાં તારે માટે જે દુખનું નિર્માણ કર્યું છે. એટલે કે દુખપ્રદ કમને જે બધ કર્યો છે, તે શેક. અથવા ચિંતા કરવાથી નષ્ટ થઈ શક્તા નથી. આ ૧પ ... 'जइ पविससि' त्याहि તેનાથી બચવા માટે તું, પાતાળમાં પેસી જઈશ, વિકેટો અહીમાં છુપાઈ જઈશ, અંધકમાં (યરામાં) ગુફામાં કે સમુદ્રમાં છુપાઈ જઈશ, તે सू०७१ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६२ .... . : . . . - सूत्रकृताङ्गसूत्रे समुद्रं वा प्रविशसि तथापि कृतकर्मणः भोगमन्तरेण मुक्तिनं भवति अतः कर्मइन्धनसमये एव विवेको विधेयः॥४॥ सामान्यतः कुशीकान् प्रदय, अतः परं शास्त्रकारः पापण्डिकानधिछत्य प्रतिपादयति-'जे मायर' इत्यादि । खूलम्-जे मायरं पियरं च हिच्चा समणवए अगणि समारभिजा। अहाह से लोए कुसीलधल्मं भूयाइंजे हिंसइ आयसाते॥५॥ छाया-यो मातरं वा पितरं च हित्वा श्रमणवतेऽग्नि समारभेते। ___ अथाहुः स लोके कुशीलधर्मा भूतानि यो हिनस्ति आत्मशाते ॥५॥ पा सकेगा? यहाँ तक कि अगर तू आत्मघात कर लेगा तो भी पूर्व कृत कर्म तेरा पीछा नहीं छोड़ेंगे ॥२॥ । तात्पर्य यह है कि कर्म उदय होने पर तू आतध्यान करता है, उदास होता है, अनमना होता है, किन्तु पूर्वोपार्जिन कर्म आर्तध्यान से क्या छूट जाएँगे? कर्म से छुटकारा पाना है तो कर्म के फल भोगने के समय समभाव का अवलम्बन कर । समता भाव के लोकोत्तर है। सायन के सेवन से ही कर्मव्याधि ले मुक्त हो सकता है। अतएव अपने विवेक को जाग्रत् कर और दुष्कृत करना त्याग दे। पाताल, अटवी या किसी भी सुरक्षित समझे जाने वाले स्थान में जाकर छिप जाने पर भी किये कर्म को भोगे धिना मुक्ति नहीं हो सकती। इस कारण कर्म करते समय ही विवेक का अवलम्बन करना उचित है ॥४॥ પણ તે કર્મ તને જીંડવાનું નથી. તે કર્મનું ફળ ભોગવ્યા વિના તારે છટ કારે થવાનો નથી. અરે ! તું આત્મઘાત કરીને તેમાંથી છુટવાનો પ્રયતન કરીશ, તે પણ પૂર્વકૃત કર્મ તારે પીછો છોડવાનું નથી.’ મેરા . તાત્પર્ય એ છે કે કર્મ ઉદયમાં આવે, ત્યારે તું આર્તધ્યાન કરે છે, ઉદાસ થાય છે, ચિન્તા કરે છે, પરંતુ , શું પૂર્વોપાર્જિત કર્મ આર્તધ્યાન કરવાથી છૂટે છે ખરું ? જે કર્મમાંથી છુટકારે મેળવ હોય, તે કર્મનું ફળ ભેગવતી વખતે સમભાવનું અવલંબન લે. સમતાભાવ રૂપ લેકોત્તર રસાયનના સેવનથી જ તું-કર્મવ્યાધિમાંથી મુક્ત થઈ શકીશ. તેથી તું જરા વિવેક બુદ્ધિને જાગ્રત કર, અને દુકૃત્ય કરવાનું છોડી દે. પાતાળ, અટવી આદિ કઈ પણ સુરક્ષિત ગણાતાં સ્થાનમાં જઈને છુપાઈ જવા છતાં પણ કૃતકર્મોનું ફળ ભેગવ્યા વિના છુટકારે થવાનું નથી. આ કારણે કર્મ કરતી વખતે જ વિવેકનું અવલંબન લેવું, એજ ઉચિત છે. ગાથા . . Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रृं. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोपनिरूपणम्... .५६३. - अन्वयार्थः-(जे मायरं पियरं च हिच्चा) यः पुरुषो मातरं जननीं पितरं च हित्वा परित्यज्य (समणबए) श्रमणवते-साधुदीक्षामादाय (अगणि समारमिज्जा) अग्नि समारभेत-अग्निकायस्य समारम्भ कुर्यात् (जे आयसाते) यः आत्मशाते स्वसुखाय (भूयाई हिंसइ) भूतानि दिनस्ति-विराधयति (से लोए) स लोके (कुसीलधम्मा) कुशीधर्माऽस्तीति (अहाहुः) अथाहुः) तीर्थकरायः कथयन्ति ॥५॥ - सामान्य रूप से कुंशीलजनों के विषय में कह कर अब ,सूत्रकार पाखण्डी लोगों के विषय में कहते हैं- 'जे मायरं पियर' इत्यादि। शब्दार्थ-'जे मायरं पियरं च हिच्चा-यो भातर पितरं च हित्वा' जो पुरुष माता और पिताको छोडकर 'समणबए-श्रमगवते' श्रमणवत धारण करके 'अगणिं समारंभिज्जा-भग्नि समारभेत' अग्निकायका आरंभ करते हैं तथा 'जे आयलाते-या आत्मशाते' जो अपने सुख के लिये 'भूयाइं हिंसइ-भूतानि हिनस्ति' प्राणियों की हिंसा करते हैं 'से लोए-स लोके' वे इस लोक में - 'कुसीलधम्मे-कुशीलधर्मा कुशील धर्म वाले है 'अहाहु-अथाहुः' ऐसा सर्वज्ञ पुरुषों ने कहा है ॥६॥ अन्वयार्थ जो पुरुष माता और पिता को त्याग करके श्रमणव्रत में उपस्थित हुआ अर्थात् दीक्षित हुआ है । फिर भी अग्नि का आरंभ समारंभ करता है, जो अपने सुख के लिए भूतों का घात करता है, वह पुरुष 'कुशीलधर्म' वाला कहलाता है ॥५॥ સામાન્ય રૂપે કુશીલ જનેના વિષયમાં કહીને હવે સૂત્રકાર પાખંડી લેકેના વિષયમાં આ પ્રમાણે કહે છે 'जे मायर' पियर' त्याहि शहा -'जे मायर' पियरं च हिच्चा-ये मातरं पितरच हित्वा' २ ३५ भाता भने पितान डी. 'समणव्वए-श्रमणव्रते' श्रमव्रत धारण ४शन 'अगणि' समारभिजा-अग्नि समारभते' मायने। मार'छ, तथा 'ले आयसा-यः आत्मशात.' रेमो तान! सुभ भाट 'भूयाई हिंसइ-भूतानि हिनस्ति' प्राणियोनी डिसा ४२ छे 'से लोए-सः लोके ते मामा किसीलधम्मे-कुशीलधर्मा' शीरा या छे. 'अहाहु-अथाहुः' मेरीत सव पुरवास छ. ॥ ५॥ - સૂત્રાર્થ-જે પુરુષ માતા, પિતા આદિને ત્યાગ કરીને શ્રવણુવ્રત-દીક્ષા અંગીકાર કરવા છતાં પણ અગ્નિને આરંભ સમારંભ કરે છે, જે પિતાના सुभन भाट भूताना (वाना) सहा२ ४३ छे, ते . पुरुषने 'मुशीतभी। કહેવાય છે. પા Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . सूत्रकृताङ्गसूत्रे : टीका-'जे' यः कश्चन धर्मकरणाय उत्थितः 'मायरं' मातरं 'पियरं' पितरम् च 'हिचा' हित्वा-परित्यज्य मातरं भ्रातपुत्रकलत्रादिकम् - सकलपरिवारम् 'समणध्वंए' श्रमणवते 'अगणि' अग्निम् 'समारभिज्जा' समारभेत यः। श्रमणव्रतपूर्तये 'वयं त्यक्तगृहकर्माणः' इत्येवं स्वीकृत्यापि अग्नि प्रज्वलयति पचनपाचनादौ कृतकारितानुमत्या-औदेशिकादि परिभोगाय वाऽग्निकायसमारम्भं करोति एवंभूतो जनः साधुनामधारी 'से लोए' सः लोके 'कुसीलधम्मे' कुशीलधर्माः, कुत्सितः शील: आचारः सः एव धर्मों यस्य सः सकुशीलधर्मा 'भूयाई' भूतानि-पड्. जीवनिकायान् 'आयसाते' आत्मसुखाय-शीताद्यानोदनाय 'जे' यः हिंसई हिनस्ति विराधयति । तथाहि केचित् साधुनामधारिणोन्यतीयिकाः पंचाग्नि तपन्ति, तथाऽग्निहोत्रांदिकर्मणा चाग्नि समारभमाणाः स्वर्गादिकमिच्छन्ति। स टीकार्य-जो लोग धर्म करने के लिए उद्यत हुए हैं, माता पिता को अर्थात् माई, पुत्र, फलन आदि सकल परिवार को त्याग कर अनशवत में दीक्षित हुए हैं, फिर भी अग्नि का आरंभ करते हैं अर्थात् जो श्रमणव्रत की पूर्ति के लिए अग्नि जलाते हैं। अथवा पचन-पाचन आदि.का परिभोग करने के लिए समारंभ करते हैं, ऐले लाधुनाम धारी (वेषधारी) लोग कुशीलधर्मी है अर्थात् उनका आचार कुत्सित है। अपने सुख के लिए षट्जीवनिकाय की विराधना करते हैं। कोई कोई साधुनामधारी पंचाग्नि तप तपते हैं, तथा अग्निहोत्र आदि कर्म करते हुए अग्नि का आरंभ करले स्वर्ग की अभिलाषा करते हैं। ટીકાર્ય–જે લોકે ધર્મ કરવાને માટે તૈયાર થયા છે, માતા, પિતા, ભાઈ, પુત્ર, પુત્રી, પત્ની આદિ સકળ પરિવારને ત્યાગ કરીને જેમણે શ્રવણ દ્વિતની દીક્ષા લીધી છે, છતાં, પણ જેઓ અગ્નિને આરંભ કરે છે. એટલે કે જેઓ શ્રમણવ્રતની પૂર્તિ માટે અગ્નિ સળગાવે છે અથવા અન્નને પકાવવા માટે અગ્નિ સળગાવે છે, એવા વેષધારી સાધુને કુશીલધમી કહે છે. તેઓ કૃત, કારિત અને અનુમતિના દોષથી યુક્ત શિક આદિ આહારને પરિ. ભોગ કરે છે. આ પ્રકારને આહાર તૈયાર કરવામાં જે સમારંભ થાય છે, તેને કારણે તેઓ જીવહિંસામાં કારણભૂત બને છે. આ પ્રકારના કુત્સિત આચારવાળા સાધુને કુશીલપમી કહે છે. તેઓ પિતાના સુખને નિમિત્તે છે કાયના જીવોની વિરાધના કરે છે. કઈ કઈ સાધુ નામ ધારી પુરુષે પંચાગ્નિ 'તપ તપે છે, તથા અગ્નિહોત્ર આદિ કર્મ કરીને–અગ્નિને આરંભ કરીનેવેગની અભિલાષા કરે છે. * Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टोका प्र. Q. अ. ७ उं. १ कुशीलवतां दोपनिरूपणम् ५६५ मातापितरौं परित्यज्य श्रमणव्रतं स्वीकृत्यापि अग्निकार्य प्रज्वालयति, तथा स्वात्ममुखेच्छया- माणिनमु वहन्ति सः कुशीलधर्मा 'अह' अथ, एवम् . 'आहे' आहुः-तीयकरणगधारादयः ॥६॥. . . 1. अग्निकाय समारंभे पाणिनामतिपातः कथं भवतीति सूत्रकारः प्रदर्शयतिउज्जालो पाण' इत्यादि। मूलम्-उज्जालओ पाण निवार एज्जा, - निव्वावओ अगणि निवायवेज्जा। तम्हा उ मेहावि संमिक्खधम्म ण पंडिए अगणि समारभिज्जा ॥६॥ छाया--उज्जालकः प्राणान् निशातयेत् निर्वापकोऽग्नि निपातयेत् । तस्मात्तु मेधावी समीक्ष्य धर्म न पण्डितोनि समारभे ॥६॥ । तात्पर्य यह है कि जो लोग मातापिता आदि परिवार का परित्याग करके और श्रमण का व्रत अंगीकार करके भी अग्नि का आरंभ करते हैं, तथा अपने सुख की इच्छा से प्राणियों का घात करते हैं, वे कुशीलधर्मी कहलाते हैं। तीर्थकरो एवं गणधरोंने उन्हें कुशीलधर्मी कहा है ॥५॥ अग्निकाय के आरंभ में प्राणियों का घात किस प्रकार होता है, यह सूत्रकार दिखलाते है-'उजालो पाण' इत्यादि । शब्दार्थ-'उज्जालओ-उज्ज्वालफः' अग्नि जलाने वाला पुरुष 'पाण निवायएज्जा-प्राणान् निपातयेत्' प्राणियों का घात करता है, तथा 'निधाव मो-निर्वापकः' अग्नि को वुझाने घाला पुरुष भी 'अगणि . તાત્પર્ય એ છે કે જેમાં માતાપિતા આદિ પરિવારને ત્યાગ કરીને શમણુવ્રત અંગીકાર કરવા છતાં પણ અગ્નિને આરંભ કરે છે, તથા પિતાના સુખને માટે પ્રાણુઓને ઘાત કરે છે, તેમને કુશીલધમ કહેવાય છે. ગણધરોએ એવાં પાંખડી સાધુઓને કુશળધર્મ કહ્યા છે ! ગાથા પર અગ્નિકાયના આરંભમાં પ્રાણીઓનો ઘાત કેવી રીતે થાય છે, તે સૂત્ર४.२ ४३ समान छ-'उज्जालमओ पाण' त्याह. शहाथ--'उज्जालओ-उवालक.' AA सापाले ५३५ 'पाण निवाय. एज्जा-प्राणान् निपातयेत्' प्रालियाना घात ४२ छ, तथा नियात्रओ-निर्वापक Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतासूत्र - अन्वयार्थ:-(उज्जालओ) उज्ज्वालका-अग्नि प्रज्वालकः (पाण निवायएजना) मंगान काष्ठादिगतान् जीवान् निभातयेत्-विनाशयेत् । तथा (निनावी) निर्वा पकः)-अग्नेः शान्तयिता अति (अगणि निवायवेज्जा) अग्नि-अग्निकायं निपात येत् उपहत्येव (तम्हा उ) तस्मात्तु-तस्मात् कारणात् (मेहावी) मेधावी (पंडिए) पंडितः सदसद् विवेकवान् 'धम्म समिक्ख' धर्म श्रुतचारिक्षलक्षणं समीक्ष्य दृष्ट्वा (अगणि) अग्निकायं (ण समारभिज्जा) न-नैव समारभेत्-अग्निकायसमारम्भ न कुर्यादिति ॥६॥ टीका---'उज्जालओ' उज्ज्वालकोऽग्निपदीपकः पुमान् 'पाण' प्राणान् प्राणवत इत्यर्थः निवायएज्जा' निपातयेत् यः तपनतापनपचनपरिपाचननिवायवेज्जा-अग्नि निपातयेत्' अग्निकायके जीवोंका घात करता हैं 'तम्हा उ-तस्मात्तु' इस कारण से 'मेहावी-मेधावी बुद्धिमान 'पंडिएपण्डितः' पंडित पुरुष अर्थात् सत् असत् को जाननेवाला पुरुष 'धम्म समिक्ख-धर्म समीक्ष्य' श्रुतचारित्ररूप धर्म को देखकर 'अगणि-अग्नि' अग्निकायका 'ण समारमिज्जा-न समारभेत समारंभ न करे ।।६।। । अन्वयार्थ--अग्नि जलाने वाला काष्ठ आदि में रहे हुए जीवों का घात करता है और उसे' वुझाने वाला अग्निकायिक जीवों को घात करता है। अतएव मेधावी पुरुष धर्म का विचार करके अग्निकाय का आरंभ न करे ॥६॥ टीकार्थे-जो पुरुष अग्नि जलाता है, वह प्राणों अर्थात प्राणियों का घात करता है । तपन, तापन, पचन या पाचन आदि के लिए अमित सोलापाणी पु३५ ५] 'अगणी निवायवेजा-अग्नि निपातयेत्' -- अभिडायना धात ४२ छे. 'तम्हाउ-तस्मात्तु' मा रथी मेहावी-मेधावी' भुद्धिमान पाडिए-पण्डितः' ५५३५ अर्थात् सत् असत् ने नवापाणी ५३५ 'धम्म समिक्ख-धर्म समीक्ष्य' श्रुतयारित्र ३५ २ धन 'अगणि-अग्नि' अमिताय ना 'ण समारभिज्जा-न समारभेत' सभा न ४२ ॥ ६॥ –અગ્નિ સળગાવનાર માણસ કાષ્ઠ આદિમાં રહેલા જીવને ઘાત કરે છે, અને તેને બુઝ વનાર અગ્નિકાય જીવોને ઘાત કરે છે તેથી મેધાવી પુરુએ ધર્મને વિચાર કરીને અગ્નિકાયને આરંભ કર જોઈએ નહી ને ૬ टी--२ पु२५ अभि सजावे छ, ते पाना (TRi) घात रे છે. તાપવા માટે, તપાવવા માટે, ખોરાકને રાંધવા કે રંધાવવા આદિને માટે Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयाथैबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोपनिरूपणम् . ५६७ या ऽग्नि प्रज्ज्वालयति स अपरान् अग्निकायान् तथा पृथिव्याद्याश्रितान् स्थानरान सचि विराधयति मनोवाक्कायैः । निव्वावओ' अग्नि निर्वापकः पुरुषः 'अगणि' अग्निकार्यं जीवम् 'नित्रायवेज्जा' निपातयेत् विनाशयतीत्यर्थः । अग्निकार्य जलादिना निर्वापयन् तदाश्रितान् अन्यांश्च प्राणिनो विराधयेत् । तत्रो उज्ज्वालकनिर्वापको उभावपि पड़जीवनिकायानामपि समारंभकौ भवतः । -उक्तं भगवत- 'दो भंते ! पुरिसा अन्नमन्नेण सद्धिं अगणिकायं समारभंति, तत्थ णं एगे पुरिसे अगणिकार्य उज्जाले एगेणं पुरसे अगणिकार्य निनावेन्जर, तेसि मंते 1 पुरिसाण कयरे पुरिसे महाकम्मतराए कपरे वा पुरिसे अप्पकम्मतअग्नि जलाने वाला दूसरे अग्निकायिक जीवों का तथा पृथ्वी आदि के आश्रय में रहे हुए स्थावरों और त्रस जीवों का भी मन वचन और काय से विराधना करता है। और जो अग्नि को बुझाता है वह अग्नि काय के जीवों का विनाश करता है । जो जलादि से अग्निकाय को बुझाता है, वह उसके आश्रित अन्य प्राणियों की भी विराधना करता है । इस प्रकार अग्नि को जलाने वाला और बुझाने वाला दोनों ही षट्टजीवनिकाय समारंभकर्ता है । भगवती सूत्र में कहा है- 'हे भगवान् ! एक साथ दो पुरुष अग्निकाय का आरंभ करते हैं । उनमें से एक 'अग्नि को प्रज्वलित करता है और एक उसे बुझाता है । हे भगवन् ! इन दोनों पुरुषों में कौन महाकर्म उपार्जन करने वाला है और कौन अल्प कर्म उपार्जन करने वाला है ?' ++ દેવતા સળગાવનાર માશુસ ખીજા' અગ્નિકાય જીવોની તથા પૃથ્વી આદિત આશ્રયે રહેલાં ત્રસ અને સ્થાવર જીવોની પણુ મન, વચન અને કાયા વડે વિરાધના કરે છે. અને જે માણસ સળગતા અગ્નિને બુઝાવે છે, તે અગ્નિકાય જીવોની વિરાધના કરે છે. જે માણસ જલ આદિ વડે અગ્નિને બુઝાવે છે, તે માણુસ જલાદિના આશ્રય કરીને રહેલા જીવોની પણ વિરાધના કરે છે. આ પ્રકારે અગ્નિને સળગાવનાર અને મુઝવનાર, ખન્ને માશુસે છ કાયના જીવોની વિરાધના કંર્તી બને છે. ભગવતી સૂત્રમાં આ વિષયને અનુલક્ષીને गौतम स्वाभीओ भहावीर अलुने मा प्रभाचे प्रश्न पूछो हे- '3 लगवन् ! એક સાથે એ પુરુષા અગ્નિકાયના આરભ કરે છે. તેમાંથી એક અગ્નિને પ્રજવલિત કરે છે અને ખીજે તેને મુઆવે છે. હું ભગવન્! `આ બન્નેમાંથી કયા પુરુષ મહાક ઉપાર્જન કરનારા છે મને કા પુરુષ અલ્પકમનું पान अरना! छे १ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . प्रकृताने ५६८ राए । गोयमा ! तत्प णं जे से पुरिसे अगणिकाणं उज्जालेइ से णं पुरिसे बहुत राग पुढविलायं समारभइ, एवं भाउकाय, वाउकार्य, दणस्सहकार्य तलकायं अप्पत. राग आणि कार्य समारमति इत्यादि । तथा 'भूयाणं एसमाधाओहन्यवाहोणमसओ' इति । यस्मात् अग्निप्रवाल ने शनिपे वा पड्जीवनिकायविराधना भवति, 'तम्हा उ' तस्माद कारणात् 'सेहावी पंडिए' मेधावी पण्डितः 'धम्मं धर्मम्-पडू. जीवनिकायरक्षणे श्रुनुचारित्रधर्म रक्षणं भवतीति 'समिक्ख' समीक्ष्य 'ण' न 'अगणि' अग्निकायम् 'समारभिज्जा' समारत, कथमपि स्वाध पराव वा त्रिक रणत्रियोगैः नाग्नि प्रज्वालयेद । न वा विनिर्वापयेदग्निम् इति ॥६॥ भगवान् उत्तर देते हैं-हे गीत ! जो पुरुष अग्निहाय को प्रज्व लित करता है, वह बहुत से पृथ्वीकाचिस, अपकाथिक, वायुशायिक, वनस्पतिकाधिश और बलकायिक जीशे का आरंभ करता है, इत्यादि। आगम में अन्यत्र भी कहा है कि-'अग्नि, जीवों का घात करने वाली है, इसमें संशश नहीं है। क्योंकि अग्नि के जलाने और वुझाने में षट् जीवनिकाय के जीवों की विराधना होती है, इस कारण मेधावी आर्थात् कुशलपुरुष धर्म का विचार करके-जीवों की हिंसा न करने में धर्म है ऐसा जान र स्वार्थ के लिए, परार्थ के लिए, तीन करण तीन योग से अग्निकाय का आरंभ न करे न अग्नि को प्रज्वलित करे और न वुझावे और न इनका अनुमोदन करे॥६॥... . . . ... - મહાવીર પ્રભુને ઉત્તર- હે ગૌતમ! જે પુરુષ અગ્નિકાયને પ્રજવલિત કરે છે, તે ઘણા પૃથ્વીકાયિક, અપકાયિક, વાયુકાયિક વનસપતિકાયિક અને ત્રસકાર્ષિક જીવોનો આરંભ કરે છે. ઈત્યાદિ. આગમનમાં અન્યત્ર પણ એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે–અગ્નિ જીવોને ઘાત કરનાર છે, તેમાં કઈ સંશય રાખવા જેવું નથી.” અગ્નિને સળગાવવાથી અને ઓલવવાથી ષટુ જીવનિકાયના જીવોની વિરાધના થાય છે, તે કારણે મેધાવી (બુદ્ધિશાળી) પુરુષોએ વિચાર કરીને हिसान ४२वामा "धर्म - छे, मे ana-स्वाथ-२ मा परार्थन भाट, प ४२ भने त्रय..योजयी मशिनी भार ४२वो नही. सेट-है-पानी - विराधना ४२वी न न मे मे भाननार पुरुषे मामि પ્રજવલિત કરવું પણ નહી અને ઓલવષે પણ નહીં. તેણે -બીજાની પાસે અગ્નિ પ્રજવલિત કરાવવો પણ નહીં અને ઓલવાવરાવવો પણું નહી તથા અગ્નિ પ્રજવલિત કરનાર કે ઓલવનારની અનમેદના પણ કરવી નહીં વા Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् १६९ मूलम्-पुडबी वि जीवा आऊ वि जीवा, पाणों य संपाइम संपेयति।। संपर्श कटू समस्लिया य एंए देहे अगणि समारभंते॥७॥ छाया-पृथिव्यपि जीवा आयोपि जीयाः प्राणाश्च संपातिमाः संपतन्ति ।' ____ संस्वेदजाः काष्ठममाश्रिवाच एतान् दहेदग्नि समारभमाणः ।। अन्वयार्थः- (पुढवी वि गीवा) पृथिवी फुलक्षणा साऽपि जीवाः (आऊ वि जी) आपः द्रवलक्षणास्ता अपि जीवाः (संजाप्रपाणा य संपति) संपातिमा शलभादयध प्राणाः सन्ति अग्नी (संसे यया) स्वेदना:-यू कादयः (य कद्र 'पुढची वि जीया' शब्दार्थ-'पुढवी वि जीवा-पृषिव्यपि जीवा' पृथिवी भी जीव है 'आऊ वि जीवा-आपोऽपि जीवाः' जल भी जीव 'संपाइल पाणा य संपयंति-संपातिमाः प्राणा: संपतन्ति तथालपातिम जीव अर्थात पतंग आदि अग्नि में एडकर सरते हैं 'संयया-संस्वेदज्जा' संस्वेदज अर्थात् यूकादि प्राणी 'य कसमसलया-काष्ठसमाश्रिताः' तथा काष्ठ में रहने वाले जीव 'अगणि समारभंते-अग्नि समारभषाण' अग्नि कायको आरम्भ करनेवाला पुरुष 'एए दहे-एतान् दहेत्' इन जीवों को जलाता है ॥७॥ * ' अन्वयार्थ-पृथ्वी भी जीव है अप्काय भी जीव है और पतंग संपातिम भी जीव अग्नि में पड़ जाते हैं। संस्वेदज जीव तथा जो ___ "पुढवी वि जीवा' शहाथ-'पुढवी वि जीवा-पृथिव्यपि जीवाः' पृथ्वी पर प.छे, 'आऊंधि जीवा-आपोऽपि जीवाः' ४१ ५५] १ छे. 'संपाइमपाणा य सपयंति-सपातिमाः प्राणाः सपतन्ति तथा सातिम ७१ अर्थात् ५त विभिभी पडी भरे . छ. , 'संयया-सस्वेदजाः' सस्व०४ अर्थात् विगेरे आणी य कसमस्सिया-च काष्ठसमाश्रिताः' तथा मा २९वावा आणि समारभते-अग्नि समारभमाण.' माया सभार ४२वावाणी ५३५, एए हे -एतान् दहेत्' मा ७वाने माणे छे. ॥७॥ सूत्राय-५वी ५५'७५ छ, म५४ाय ५५ ७१ छ, मन पतगिया આદિ સ પાતિમ (ઉડતાં) જીવ પણ અગ્નિમાં પડી જાય છે અગ્નિની વિધના કરનારા લેકે આ સઘળા અને બાળી નાખીને તેમની હિંસા કરે स०७२ . 46 Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे समलिलया) च काष्ठसमाश्रिताः ये माणाः (अगणि समारंभंते) अग्नि समारभमाणः (एए दहे) एतान् उपर्युक्तान् जीवान दहेत् विराधयेदिति ॥७॥ ___टीका-ननु पृथिव्यामेव जीवा दृश्यन्ते त्रसाः स्थावराश्च ये एते, प्रत्यक्षसिद्धत्वात् , इति तेषां प्राणातिपाते एव दोषः । न तु पृथिवीरूपाः जीवाः समुपलब्धाः, येन ते स्वीकृताः स्युः। तत्कथमुच्यतेऽग्निप्रदीपने पृथिवीकायानां विनाशो भवतीति इत्याशंक्य-प्रतिविधीयते सूत्रकारेण-'पुढवी वि' इत्यादि। में शंकनीयं केवलं पृथिव्याश्रिता एव जीवा:, किन्तु याऽपि पृथिवी मृत्तिकारूपा, साऽपि जीवा एव । 'पुढवी वि' पृथिव्यपि जीश एव 'आऊ वि जीवा' आपोऽपि जीवस्वरूपा एव, न केवलं तथाश्रिता एव प्राणिनः । जलाश्रिता अपि फाष्ट के आश्रित रहे हुए हैं, अग्नि का आरंभ करने वाला इन सय प्राणियों का दाह विराधना करता है ॥७॥ टीकार्थ-प्रश्न-पृथ्वी में जो उस और स्थावर जीव दृष्टिगोचर होते हैं वही जीव हैं, क्योंकि वे प्रत्यक्ष से सिद्ध हैं । अतएव उन्हीं की हिंसा करना दोष है । पृथ्वीकाय रूप जीव तो कभी उपलब्ध नहीं होते जिससे उन्हें स्वीकार किया जाय ? फिर कैसे कहा गया है कि अग्नि जलाने में पृथ्वीकायिक जीवों का विनाश होता है ? इस प्रश्नका उत्तर सूत्रकार देते हैं-पृथ्वी भी जीव है, पृथ्वी के आश्रित जो जीव हैं, वही जीव हैं, ऐसी आशंका मत करो, किन्तु मृत्तिका रूप पृथ्वी भी जीव ही है। इसी प्रकार अकाय भी जीव ही है। ऐसा नहीं कि इनके आश्रित रहे हुए जीव ही जीव हैं। पतंग છે. વળી અનિનો આરંભ કરનારા લોકે સંવેદજ જીવોની તથા કાષ્ઠની मह२ २७ता ७वानी ५९ विराधना ४२ छे. ॥७ * ટકાથ–પ્રશ્ન-પૃથ્વીમાં જે ત્રસ અને સ્થાવર જ દષ્ટિગોચર થાય છે. તેમને જીવ માનવામાં કઈ વાંધો નથી, કારણ કે તેમનું અસ્તિત્વ તે પ્રત્યક્ષ દ્વારા સિદ્ધ થાય છે. તેથી તેમની જ હિંસા કરવી, તેને દેષ માની શકાય. પરંતુ પૃથ્વીકાય રૂપ જીવનું તે અસ્તિત્વ જ કયાં છે ? તે પછી એવું શા માટે કહેવામાં આવ્યું છે કે અગ્નિ સળગાવવાથી પૃથ્વીકાયિક वन विनाश थाय छ ? । આ પ્રશ્નને સૂત્રકાર આ પ્રમાણે ઉત્તર આપે છે–પૃથ્વી પણ જીવરૂપ જ છે. એવી આશંકા કરવી જોઈએ નહીં કે પૃથ્વીને આશ્રયે જે રહેલા છે તેઓ જ જીવ રૂપ છે. મૃત્તિકા (માટી) રૂપ પૃથ્વી પણ જીવ રૂપ જે છે, એ જ પ્રમાણે અપૂકાય પણ જીવ રૂપ જ છે. એવું માનવું જોઈએ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. थं. अं. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ५७ प्राणाः प्राणिनः, 'संपाइम' संपातिमा :- शलभादयस्तत्र संपतन्ति तेऽपि जीवा एव । तथा 'संसेइया' संस्वेदजाः - स्वेदेन देहाश्रित देहविकाररूपजलेन जायमाना 'यूकादयोऽपि जीवा एव । तथा कटुसमस्सिया य' काष्ठसमाश्रिताः घुणकृम्यादयः प्राणिनः, एते सर्वेऽपि जीवा एव । 'अगणि' अग्निम् ' समारभते' समार_भमाणः 'एए' एतान- उप क्तान् पदपि जीवनिकायान् 'दहे' दहेत् - ये हि काष्ठाधाश्रिता जीवास्ते सर्वेऽपि दह्यन्ते वह्निमज्वालने । तथा च ये बह्निमज्वालकास्ते पडपि जीवनिकायजीवान् विराधयन्ति, अतो बह्निकायसमारम्भो महादोषायेति ||७|| एतावता येऽग्निकाय विराधकास्तापसास्तथा - पाकादिव्यापारादनिवृत्ता बौद्ध- भिक्षवः पार्श्व स्थादयः ते निराकृताः । इदानीं ये वनस्पतिकायान् विराधयन्ति, तानधिकृत्याऽऽह सूत्रकारः - 'हरियाणि' इत्यादि । मूमल - हरियाणि भूयाणि विलंबगाणि, आहार देहा य पुढो सियाई । आदि जो संपातिम अर्थात् उडनेवाले हैं, वे भी जीव हैं तथा जूं आदि संस्वेदज, जो पसीने से उत्पन्न होते हैं, वे भी जीव हैं । काष्ठ के सहारे रहनेवाले घुन, कृमि आदि भी जीव हैं । जो अग्नि का आरंभ करता है वह सभी पूर्वोक्त जीवों को जलाता नष्ट करता है, अग्नि जलाने पर काष्ठ के आश्रित सभी जीव जल मरते हैं । अन्य जीवों की विरा'धना भी होती है । अतः अग्नि को जलाना महादोष का कारण है ॥७॥ નહી' કે પાણીમાં રહેલાં જીવેા જ જીવ રૂપ છે. તેઓ તેા જીવરૂપ છે જ પરન્તુ કાય પણ જીવ રૂપ જ છે. પતંગિયા આદિ જે સપાતિમ (ઉડનારા) જીવે છે, તેઓ પશુ જીવરૂપ જ છે એજ પ્રમાણે જુ આદિ સસ્પે હજ (પરસેન્નામાંથી ઉત્પન્ન થનારા) જીવે પણ છત્ર રૂપ જ છે. કાષ્ઠને આશ્રયે રહેનારા કીડા, કૃમિ આદિને પશુ જીવરૂપ જ માનવા જોઈએ, જે માણુસ અગ્નિને પ્રજવલિત કરે છે, તે પૂર્વોક્ત સઘળા જીવેને ખાળીને તેમની હિંસા કરે છે. અગ્નિને સળગાવવાથી કાષ્ઠને આશ્રયે રહેલાં સઘળા જીવા તા મળી જ મરે છે, એટલું નહી પણ અન્ય જીવેાની પણ વિરાધના થાય છે તેથીજ અગ્નિના આરંભને અગ્નિ પ્રજવલિત કરવાના કાને મહાદોષનુ કારણુ કહે. वामां आवे छे. ७ च Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .'५७२ सूप्रकृताङ्गसूत्रे ।। . जे छिंदती आयसुहं पडुच्च, पांगभि पाणे वहणं तिवाई ॥८॥ छाया-हरितानि भूतानि विलंघकानि आहारदेहाच पृथक् श्रितानि । यश्छिनत्त्यात्ममुखं प्रतीत्य प्राणानां बहूनामतिपाती ॥८॥ , '' इस कथन से अग्निकाय के विराधक तापसों का, पाक आदि "क्रियाओं से निवृत्त न होनेवाले पौद्ध भिक्षुओं का तथा पार्श्वस्थ 'आदि का निराकरण किया । अब सूत्रकार वनस्पतिकाय की विराधना करने . घालों के विषय में कहते हैं-'हरियाणि' इत्यादि। . .' शब्दार्थ-'हरियाणि भूयाणि-हरितानि भूतानि' हरित दूर्वांकुर आदि भी जीव हैं 'विलंचमाणि-विलम्ब कानि' जीव के आकार से परिणमतेहुवे वे भी 'पुढोसियाई-पृथक् श्रितानि' मूल स्कंध, शाखा और पत्र आदिके रूप से अलग अलग रहते हैं' 'जे आयस्तुहं पडु च्च-ये--आत्मसुखं प्रतीत्य' जो पुरुष अपने सुखके लिये 'आहार देहा य-आहारदेहा च' आहार करने के लिये और शरीर की पुष्टि के लिये 'छिंदती-छिनत्ति' इनका छेदन करके विनाश करता है 'पाग-भि पाणे बहुणं तिक्षाई-प्राभल्ल्यात् प्राणानां बहनामतिपाली' वह वृष्ट पुरुषबहुत प्राणियों का नाश करता है॥८॥ -. આ કથન દ્વારા અગ્નિકાયની વિરોધના કરનારા તાપસ ના, રસેઈ , , રાંધવા આદિ ક્રિયાઓમાંથી નિવૃત્ત નહીં થનારા બૌદ્ધ ભિક્ષુઓના તથા - પાશ્વ (શિથિલાચારીઓ) આદિના મતનું ખંડન કરવામાં આવ્યું. હવે - ચત્રકાર વનસ્પતિકાયની વિરેના કરનારાઓના વિષયમાં આ પ્રમાણે કહે છે -हरियाणि, 'त्याह" . शहाथ-'हरियाणि भूयाणि-हरितानि भूतानि' हरित -घरे। विगैरे : पर्ण छ. 'विलंबगाणि-विलम्बकानि' ना २२थी परिणामता शेवा तमा पण 'पुढोसियाई-पृयक्शितानि' भूग, २४५, शाम सने ५ विगेरे ३५ que! २७ . 'जे आयमुहं पडुच्च -ये मात्मसुखं प्रतीत्य' रे ५३५ पोताना सुम भाटे 'आहारदेहा य-आहारदेहा च' आहा२ ४२१॥ भाटे तथा शरीरनी "ष्टि भाट 'छिदती-छिनत्ति' मा वनस्पतियानु छैन ४शन तेन विनाश ®. 'पागन्भिपाणे बहूर्ण तिवाइ-प्रागल्भ्यात् प्राणानां बहुनामतिपाती' ते પષ્ટ પુરૂષ ઘણા પ્રાચિને વિનાશ કરે છે. ૮ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समयार्थबोधिनी टीका प्र. Q. अं. ७ उ. १ कुंशीलवतां दोपनिरूपणम् .. ५७३ ।' । अन्वयार्थः - (हरियाणि भूयाणि) हरितानि दुर्वा कुरादीनि भूतानि जीवाः (विलंबगाणि) विलम्बकानि जीवाकारेण परिणम्यमानानि (पुढो सियाई) पृथक मलस्कंधादि स्थानेषु श्रितानि व्यवस्थितानि (जे आयमुहं पडुच्च) यो आत्ममुख प्रतीत्याश्रित्य (आहारदेहाय-आहारार्थ देहापचयार्थम् (छिंदती) छिनत्ति विनाशपति (पागन्भि पायो बहुणं तिवाई) प्रागल्भ्यात् 'घाटयावष्टंभात् बहूनां माणानां जीवानाम् अतिपाती विराधको भवतीति ॥८॥ . - टीका-'हरियाणि' हरितानि-दुर्वा मीनि, एतान्यपि 'भूयाणि भूतानि-कुत चैतेषु जीवत्वमिति ? तत्र वच्मि-यथा जीवन् देहधारी आहारादिकमर्जयति । तथेमे 'हरितजीवा अपि आहारादीनां प्राप्तौ वर्धन्ते, तदभावेहा समुपयान्ति तत आहारादीनाम्-अभ्यरहरणे वृद्धिदर्शनात् हरितादीनि भूतान्येव । तथा-'विलंवगाणि' अन्वयार्थ-दूर्वा अंकुर आदि हरितसाय भी जीव हैं। वे जीव की अवस्थाओं को धारण करते हैं। मूल, स्कंध आदि अवयवों में पृथकू रहते हैं। जो मनुष्य अपने सुख के लिए, आहार के लिए या भारीरपोषण के लिए उनका छेदन करते हैं, वे धृष्टता का अवलम्बन करके बहुत प्राणियों के विरोधक होते हैं ॥८॥ टीकार्थ-हरितकाघ भी जीव हैं । वे जीव कैसे हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देते हैं-जैसे मनुष्ज आदि देहधारी जीव आहार करते हैं, उसी प्रकार वनस्पति जीव भी आहार करते हैं और आहार की प्राप्ति होने पर वृद्धि को प्राप्त होते हैं। जैसे मनुष्य का शरीर आहार के अभाव में क्षीण होता है, उसी प्रकार घनस्पति का शरीर भी आहार के अभाव में क्षीण होता है। इस प्रकार आहार की प्राप्ति और अप्राप्ति में शरीर - સૂત્રા - અંકુર આદિ હરિતકાય પણ જીવે જ છે. તેઓ જીવની - અવસ્થાઓને ધારણ કરે છે. મૂળ, કષ આદિ અવયમાં જુદા જુદા રહે છે. જે મનુષ્ય પિતાના સુખને માટે, આહારને માટે કે શરીરના પોષણને માટે તેમનું છેદન કરે છે, તેઓ પૃષ્ટતાનું અવલંબન લઈને અનેક ના વિરાધક બને છે. ૫૮ બ, ટીકાઈ–હરિતકાય પણ જીવ છે એટલે કે સજીવ છે. તેને સજીવ શા કારણે કહેવાય છે તે હવે સમજાવવામાં આવે છે. જેવી રીતે મનુષ્ય આદિ દેહધારી છે આહાર કરે છે, એ જ પ્રમાણે વનસ્પતિ છે પણ આહાર કરે છે, અને આહારની પ્રાપ્તિ થાય તે જ વૃદ્ધિ પામે છે. જેવી રીતે આહાર ન મળે તે મનુષ્યનું શરીર ક્ષીણ થઈ જાય છે, એ જ પ્રમાણે વનસ્પતિનું શરીર પણ આહારને અભાવે ક્ષીણ થઈ જાય છે. આ પ્રકારે આહારની Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ ...... सूत्रतायः विलंबकानि, विलम्बन्ते धारयन्तीति विलम्बकानि एतानि जीवाकारं धारयन्ति । तथाहि-यथा कलल-बुबुद-मांस पेशी-गर्भ-प्रसव-बाल-कौमार-यौवन-जरावस्थातो मनुष्यो भवति । तथैव वृक्षवनस्पत्यादयोऽपि जाता, अभिनशा, संजातरसा: युवानः कथ्यन्ते । परतश्च त एव पुनः परिपक्वाः शुष्काः मृताश्चेति व्यवहियन्ते । या या अवस्था मनुष्याणां तास्ता एव वृक्षवनस्पतीनामपि भवन्ति। अतोऽपि सर्वे जीवा एव । ततो हरितान्यपि जीवाकारं विलंबन्ते एव । 'पुढोसियाणि' पृथक् श्रितानि, एतानि, मूलशाखास्कन्धपत्रादि भेदेषु संख्येयासंख्येयानन्तभेदभिन्नानि वनस्पकी वृद्धि और हानि देखने से बनस्पतिकाय सजीव सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त ये जीव की विविध अवस्थाओं को धारण करते हैं। यथा-कलल, वुवुद, मांसपेशी गर्भ, प्रसव, बाल, कुमार, यौवन और जरा अवस्थाएँ मनुष्य में होती हैं, अतएव मनुष्य सजीव है, उसी प्रकार बनस्पति में भी जात (उत्पन्न) अभिनव (नूतन) संजातरस, युवा आदि अवस्थाएँ होती हैं। तत्पश्चात् वे शुष्क, परिपक्व और मृत कहलाते हैं। इस प्रकार जो जो अवस्थाएँ मनुष्य में होती हैं, वही सष वनस्पति में होती हैं, इस कारण वे भी जीव हैं। वनस्पतिकायिक जीव बनस्पति के मूल, शाखा, स्कंध, पत्र आदि अवयवों में संख्यात, असंख्यात एवं अनन्त संख्या में आश्रित होकर रहते हैं । ऐसा नहीं है कि सम्पूर्ण वृक्ष में एक ही जीव हो। પ્રાપ્તિ અને અપ્રાપ્તિને લીધે વનસ્પતિના શરીરની વૃદ્ધિ અને હાનિ થતી જોવામાં આવે છે, તેથી સિદ્ધ થાય છે કે વનસ્પતિકાય સજીવ છે વળી વનસ્પતિકાય પણ જીવની વિવિધ અવસ્થાઓ ધારણ કરે છે. કલલ (વીર્ય અને શોણિતને સમુદાય શરીરપિંડ બનાવાની અવસ્થા) માંસપેશી, ગર્ભ, પ્રસવ, બાલ્યકાળ, કુમાર, યૌવન અને જરા, આ બધી અવસ્થાઓને જેમ મનુષ્યમાં - સદ્ભાવ હોય છે, એ જ પ્રમાણે વનસ્પતિમાં પણ જાત ( ઉત્પન્ન) અભિનવ (નૂતન) સંજાતરસ, યુવા આદિ અવસ્થાઓને સદ્ભાવ હોય છે. ત્યાર બાદ પરિપકવ, શુષ્ક અને મૃત આ અવસ્થામાં પણ આવે છે. આ પ્રકારે મનુષ્યમાં જે જે અવસ્થાઓના સદ્ભાવ છે, તે બધી અવસ્થાઓને વનસ્પતિમાં પણ સદ્ભાવ હોય છે. તે કારણે વનસ્પતિની સજીવતા સિદ્ધ થાય છે. વન પતિકાયિક જી વનસ્પતિનાં મૂળ, શાખા, સ્કંધ. પત્ર આદિ અવયમાં સંખ્યાત, અસંખ્યાત અને અનન્ત સુધીની સંખ્યામાં આશ્રય લઈને રહેતા હેય છે. એવું માનવું જોઈએ નહીં કે આખા વૃક્ષમાં એક જ જીવ હોય છે. Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ५७५ तिकायाश्रितानि भवन्ति । न तु संपूर्णवृक्षेषु एक एत्र जीवः । 'जे आयसुखं पडुच्च' यः प्राणी आत्ममुखं प्रतीत्य, आत्मसुखार्थम् । तथा-'आहारदेहाय' भोजनाय देहपुष्टयर्थं वा, आत्मसुख ज्ञात्वा । 'छिदती' छिनत्ति छेदयति-'पागन्मि' प्रागल्भ्यात् विवेकं विहाय धृष्टतामाश्रित्य 'पाणे बहुणं तिवाई प्राणिनां वहूनामतिपाती भवति । एकस्यापि वनस्पतिकायस्य विराधने कृते बहवो जीवा विराधिता भवन्ति, तदतिपातात् निरनुक्रोशतया न धर्मों नवाऽऽश्मसुखं । किन्तु चातुर्गतिकनमगरूपपापमेव केवल मिति ॥८॥ मूलम्-जाइं च बुद्धिं च विणासयंते, बीयाइ अस्संजय आयदंडे । अहाह से लोएँ अणज्जधम्मे. बीयाइ जे हिंसइ आयसाए ॥९॥ छाया--जाति च वृद्धिं च विनाशयन् बीनान्यसंयत आत्मदण्डः । अथाहुः स लोकेऽनार्यवर्मा बीजानि यो हिनस्त्यात्मसाताय ॥९॥ जो लोग अपने सुख के लिए अथवा आहार के लिए या देह का पोषण करने के लिए इन जीवों का छेदन भेदन करते हैं, वे धृष्टता करके बहुत प्राणियों के घातक होते हैं, क्यों कि एक वनस्पति शरीर का छेदन करने से बहुत से जीवों की विराधना होती है । इस विराधना के कारण निर्दयता होने से न धर्म होता है और न आत्मा को सुख की प्राप्ति होती है। केवल चार गतियों में भ्रमण का कारण पाप ही होता है ॥८॥ . * * જે લેકે પિતાના સુખને માટે અથવા આહારને માટે અથવા શરીરનું પિષણ કરવાને માટે આ જીવનું છેદન ભેદન કરે છે, તેઓ પૂછતા કરીને (વનસ્પતિમાં જીવ નથી એવી ખોટી માન્યતાને વળગી રહેવાની મૂર્ખતા કરીને) ઘણાં જ જીવોના ઘાતક બને છે, કારણ કે એક જ વનસ્પતિકાયનું છેદન કરવાથી પણ ઘણું જ જીવેની વિરાધના થતી હોય છે. આ પ્રકારની વિરાધના કરનાર છવ પિતાની નિર્દયતાને લીધે પાપકર્મનું જે ઉપાર્જન કરે છે અને તેના આત્માને સુખની પ્રાપ્તિ થતી નથી. તેને આ પાપકર્મોને ફારણે ચાર ગતિઓમાં ભ્રમણ જ કર્યા કરવું પડે છે. દ્રા , Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . . . . . सूत्रकृताशक्त्रे ___अन्वयार्थः--जे असं नए) यः असंयता-गृहस्थः, (आयसाए) आत्मसाताप आत्मसुखाय (बीयाइ हिंसइ) वीजानि हिनस्ति-विराधयति, त्था (जाईच बुद्धिं च विणासयंते) जातिम् अंकुरादीनानुत्पत्ति तथा तेपामेव वृद्धि विनाशयन् (आय. दंडे) आत्मदण्डः स्वात्मन एव दण्डको भवति, (लोए से अणज्जधम्मे अहाहु) लोके स अनार्यधर्मा अथ इति आहु उक्तवन्तः तीर्थकरा इति ॥९॥ 'जाइं च बुद्धि च' इत्यादि। शब्दार्थ-'जे असंजए-यः असंयत्ताः' जो असंयत्री पुरुष 'आयसाए-आस्मलाताय' अपने सुख के लिये 'वियाइ हिलइ-बीजानि हिनस्ति' बीज का नाश करता है तथा 'जाइं च बुडिंच धिणालयंते-जातिम् च वृद्धिं च विनाशयन्' अंकुर की उत्पत्ति तथा वृद्धि का विनाश करता है 'आयदंडे-आत्मदंडः' वस्तुतः वह पुरुष उस पापके द्वारा अपने आत्मा को ही दण्ड देनेवाला बनता है 'लोए से अणजेधम्मे अहाहुलोके रस अलार्यधर्मा अथाहुः तीर्थकरों ने उसे इस लोक में अनार्य धर्म वाला कहा है।९॥ ____ अन्वयार्थ-जो असंयमी पुरुष अपने सुख के लिए बीजों का हनन करता है, वह बीज की उत्पत्ति और वृद्धि का विनाश करता हुआ अपनी आत्मा को दंडित करता है । तीर्थकर ऐसे पुरुष को अनार्य धर्मी कहते हैं। : 'जाई च वुइढिं ' छत्याहि शा-'जे असंजए-यः असंयतः' २ सयभी ५३५ 'आयसाएआत्मसाताय' पाताना सुभ भाट 'वियाइ हिंसइ-वीजानि हिनस्ति' भी ना नाश ४२. 'जाईच वुदि च विणासयते-जातिम् च वृद्धिं च विनाशयन्' भनी पत्ति तथा वृद्धिना विनाश ४२ छ. 'आयडे-आत्मदहा वास्तवि: शत मेवा ५३५ xत: पान ६२५- पाताना मामाने ०४ हेना।.मन छ: 'लोए से श्रणजधम्मे अहाहु-लोके स अनार्यधर्मा अथाहुः' तीथ । सान सा Avi अनार्य धर्मवाणा ४९ छ.. .. ... . .. - સૂવાર્થ-જે અસંયમી પુરુષ પિતાના સુખને માટે બીજને ઘાત કરે છે, તે બીજની ઉત્પત્તિ અને વૃદ્ધિને પણ વિનાશે કરતે થકો પિતાના આત્માને જ દંડિત કરે છે. તીર્થકરોએ એવા પુરુષને અનાર્થધમી ४ो छ. ॥६॥ " . . . . . . . . : : Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् . -६ टीका--'जे असंजए' योऽसंयतो गृहस्थः प्रबजिती चा 'आयसाएं आत्मसाताय-सात-सुखम्-आत्मनः सुखम् तदर्थम् - यः आत्मसुखमुद्दिश्याऽसयतों न 'बीयाइ हिंसई' वीजानि हिनस्ति विनाशयति । 'जाइं च बुड्रिं च विणासयते' वीजस्य जाति उत्पत्तिम् 'बुट्टि' अंकुरानन्तर जातां वृद्धि विनाशयन् 'आयदंडे' आत्मदण्डः, बीजानामुत्पत्तिवृद्धिविनाशकारी, तेन पापेन आत्मानमेव दण्डयति ___ इति वस्तुलु आत्मदण्डः 'लोए से अणजधम्मे अहाहु' लोके लोनार्यधर्मा -इति आहु स्तीथंकराः । तीर्थकरा हि एवमुक्तान्तो थे लोके हरितादिनीवाना विराधकाः, ते सर्वेऽपि अनार्यधर्माणः । ये आत्मसुखमुद्दिश्य जीवान् विराधयति तथा बीजसंवन्धिफलपुर पर्णस्यजीवानां विनाशका न तेषां बिनाशका वस्तुतः परविराधकाः आत्मानमेव विराधयन्ति तीर्थशास्तान्- अनार्वधर्माणः कथितवन्तः । तेषां विराधनेन नात्मसुखम् किन्तु विराधनाजनितपापेन दु:खमेव केवलमिति भावः ॥९॥ मूलम्-गब्भाइ मिजति बुया कुशाणा जरा परे पंचसिहा कुमारा। जुवाणगा मज्झिम थेरगाय चयति ते आउक्खए पलीणा ॥१०॥ छाया-गर्भे म्रियन्ते ब्रुवन्तोऽब्रुवन्तश्च नराः परे पंचशिखाः कुमारा युवानो मध्यमाः स्थविराश्च त्यजन्ति ते आयुःक्षये मलीनाः ॥१०॥ टीकार्थ-जो पुरुष अपने सुख के लिए बीज का घात करता है, वह पीज संबंधी फल, पुष्प, आदि का भी विनाशक है । ऐसा परविराधक वस्तुतः अपनी ही आत्मा की विराधना करता है । तीर्थकर उसे आनायंधी कहते हैं। उन जीवों की विराधना करने से आत्मा को सुख की प्राप्ति नहीं होती वरन् विराधनाजनित पाप ले दुःख ही होता है ॥९॥ , ટીકાથે—જે પુરુષ પોતાના સુખને માટે બી ને ઘાત કરે છે તે બી સંબંધી ફલ, પુષ્પ પત્ર આદિને પણ વિનાશક બને છે. આ પ્રકારે પાની વિરાધના કરનાર પુરુષ પિતાના આત્માની જ વિરાધના કરે છે. તીર્થકરોએ એવા પુરુષને અનાર્યધર્મી કહ્યો છે. તે જેની વિરાધના કરવાથી આત્માને સુખની પ્રાપ્તિ થતી નથી, ઉલટાં વિરાધનાજનિત પાપકર્મને કારણે દુઃખની જ પ્રાપ્તિ થાય છે. ગાથા લા स०७३ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतामसू , अस्वयार्थः- (भाइ मिज्जति) गर्भ नियन्ते हरितवनस्पतिछेइकाः (बुया वुयाणा) ब्रुवन्तोऽत्रुवन्तश्च-व्यक्तवाचोऽव्यक्तवाचश्च म्रिक्षन्ते (परे णरा) परे नराः 'तयाऽन्ये-पुरुषाः (पंचसिहा कुमारा) पंचशि वाः कुमारा:-कुमारावस्थायामेव 'गभाई मिति' इत्यादि। शब्दार्थ--'भाइ लिजलि-गर्भे नियते' हरी वनस्पतिका छेदन करने वाला जीव गर्भ में ही मर जाता है 'वुयात्रुयाणा-ब्रुवन्तोऽब्रुवन्तश्च' तथा कोई स्पष्ट बोलने की अवस्था में और कोई अस्पष्ट बोलाने की अवस्था में ही परजाते है परे णा-परे नरा' तथा दूसरे पुरुष पंचसिहाँ कुमारा-पंच शिखाः कुमारा' पांच शिखाशले कुमार अवस्था में ही मरजाते हैं 'जुधामणा ज्झिम थेरवाय-युवानः मध्यमाः स्थविरश्च' कोई युवान होकर तथा कोई आधी उमर वाला होकर एवं कोई वृद्ध होकर मरजाते है 'आउक्खए पलीणा ते चयंति-आयुः क्षये प्रलीनाः ते त्यति' इस प्रकार वीज आदि का नाश करने वाले प्राणी सभी अवस्थाओं में आयु क्षीण होने पर अपने शरीर को छोड़ देते हैं ॥१०॥ - अन्वयार्थ जो पुरुष वनस्पतिक्षाय की विराधना करते हैं, उनमें से कोई परभव में गर्भ में ही मर जाते हैं, कोई स्पष्ट बोलने की अवस्था ___ 'गभाई मिजंति' त्याहि शण्डागभाइ भिजति-गर्भ नियन्वे' हीतरी वनस्पतिनु छेहन. ४२वापामा ८१ मा १ भरी नय छे. 'बुया वुयाणा-ब्रुवन्तोऽब्रुवन्तश्च' તથા કેઈ સ્પષ્ટ બેલવાની અવસ્થામાં અને કેઈ અસ્પષ્ટ બોલવાની આવ.स्थामा भरी तय छे. 'परे णरा-परे नराः', तथा मीन १३॥ "पंचसिहा फुमारा-पंचशिखाः सुमारा:' पांय. शिमा-मर्थात माय अवस्थामा भरी तय छे. 'जुवाणगा मज्झिमधेरगा य-युवानः- मध्यमाः स्थविराध' ४ યુવાન થઈને તથા કેઈ અધેિ ઉમરવાળા થઈને અને કઈ વૃદ્ધ બનીને भरी लय छे. 'आउख्ये पलीणा ते चयंति-आयुःक्षये प्रलीनाः ते त्यजन्ति' २॥ રીતે બી વિગેરેને નાશ કરવાવાળા પ્રાણુ બધી જ અવસ્થાઓમાં આયુષ્ય ક્ષીણ થાય ત્યારે પિતાના શરીરને છોડી દે છે. ૧૦ સૂત્રાર્થ–જે પુરુષે વનસ્પતિકાયની વિરાધના કરે છે, તેમાંથી કઈ પરભવમાં ગર્ભમાં જ મરી જાય છે, કેઈ તતડું બોલવાની અવસ્થામાં મરી Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् .. नियन्ते, (जुवाणमा मज्झिमथेरगा य) युगानः मध्यमाः स्थविराश्च (आउखए आउखए पलीणा ते चयंति) आयुक्षिये ते प्रलीनास्त्यति-अनेन ' 'प्रकारेण स्वशरीरं त्यजन्तीति ॥१०॥। ॐ , टीका-वनस्पतिजीवानां ये निराधकास्तेषां कीदृशं फलं भवतीति जिज्ञासा. “मालक्ष्य तत्फलं कथयति सूत्रकारः। मोः ? शिष्याः ? ये खलु वनस्पतिजीवान् - विराधयन्ति ते अनियताऽऽयुषो भवन्ति अकाले मृत्युभाजो भवन्ति । तथाहि इह ये वनस्पतिकायोपमईकाः प्राणिनस्ते बहुजन्मछु 'गम्भाई' गर्ने एवं 'मिजति' “नियन्ते, कळलघु मांसपेशी गर्भावस्थायामेव मृत्युमुखं प्रविशन्तिन गर्भादपि तावद्विनिःसृता. भान्ति । केचन पुनः 'बुयाबुयाणा' ब्रुवन्तोऽब्रुवन्तश्च म्रियन्ते । गर्माद्विनिर्गतानां स्पष्टवाचः प्रयोगात् पूर्वमेव मरणमुपयान्ति, में कोई तुतलाने की अवस्था में कोई कुमार अवस्था में, कोई युवावस्था में, प्रौढ़ अवस्था में था स्थविर अवस्था में भरते हैं । अर्धा किसी भी अवस्था में उन्हें भरना पड़ता है ॥१०॥ - - टीकार्थ-वनस्पतिकाय के विराधक को किस प्रकार का फल भोगना पड़ता है ? इस जिज्ञासा को लक्ष्य में रखकर स्त्रकार फेल कहते हैं-हे शिष्यो ! जो वनस्पतिजीवों की विराधना करता है, वह अनियत्त आयु वाला होता है, अकाल मृत्यु का भागी होता है। वनस्पतिघातक कोई-कोई बहुत जन्मों में गर्भावस्था में ही मर जाते है। अर्थात् कलल, बुबुद, मालपेशी, गर्भ अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। वे गर्भ से बाहर नहीं निकल पाते। कोई गर्भ से बाहर निकलते हैं तो अस्पष्ट उच्चारण करने की अवस्था में या स्पष्ट उच्चारण જાય છે, કોઈ સ્પષ્ટ બેલવાની અવસ્થામાં મરી જાય છે, કેઈ કમારાવસ્થામાં મરી જાય છે, કેઈ યુવાવસ્થામાં, તો કઈ પ્રૌઢાવસ્થામાં અને કેઈ સ્થવિર અવસ્થામાં મરી જાય છે. એટલે કે કઈ પણ અવસ્થામાં તેમને મરવું તે પડે છે. ૧૦ ટીકાઈવનસ્પતિકાયની વિરાધના કરનારને કેવું ફળ ભોગવવું પડે છે ? આ પ્રશ્નનો ઉત્તર આપતા સૂત્રકાર કહે છે કે-હે શિષ્ય ! જે મનુષ્ય • વનસ્પતિ જીની વિરાધના કરે છે, તે અનિયત આયુવાળ હોય છે, અથવા અકાળ મૃત્યુ પણ પામે છે. વનસ્પતિજીવોને ઘાત કરનારા કઈ કઈ જી તો ઘણાં ખરાં જન્મમાં ગર્ભાવસ્થામાં જ મરણ પામે છે. એટલે કે કલલ, બુદ્દે ખુદ માંસપેશી કે ગ અવસ્થામાં જ મરણ પામે છે. એટલે કે તેઓ * ગર્ભમાંથી બહાર તો નીકળી જ શકતા નથી. એવાં કે કઈ છે, જે ગર્ભમાંથી બહાર નીકળે છે, તે અસ્પષ્ટ ઉચ્ચારણું કરવાની (તડી ભાષા Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... . _......... सूत्रछताङ्गसूत्र केचन कचन विशिष्टवाचो भूत्वा म्रियन्ते । तथा-परे णरा' परे नराः 'पंचसिहा कुमारा' पंचशिखा कुमाराः । केचनाऽकृतशिखाकर्माण एवं म्रियन्ते, केचन पुनः कौमारमासाद्य नियन्ते 'जुवाणगा' युवान एव केचन म्रियन्ते। मज्झिम' मध्यमाः-अवयस्का एवं मृत्युशरणमाविशन्ति । 'थेरगा य' स्थविराश्च केचन प्राप्य वृद्धावस्थां विविधरोगेण मरणमुपयान्ति । तस्मादेवं सर्वास्वप्यवस्थासु षड्जीवनिकायविराधकाः 'आउक्खए' आयुषः क्षये 'पलीणा' प्रलीनाः-विविधव्याधिमस्ताः वयंति' त्यजन्ति देहं त्यजन्ति नियन्ते विविधदुःख ज्वालाज्वलिताः भवन्ति। अथवा-प्रलीना; व्याधिग्रस्ताः सन्तः आयुस्त्यजन्ति । ऐवमेव परेपि पडूजीवनिकायविराधका विविधदुःखदावाग्निदग्धा अनियतायुमांजो भवन्तीति ॥१०॥ मूलम्-संबुज्झहा जंतवो माणुसत्तं देटुंभयं बालिसेणं अलंभो। एगत दुक्खे जरिए व लोए सैकम्मुणा विपरिया सुवेइ॥११॥ __ करना प्रारंभ करते ही मर जाते हैं कोई पंचशिखा कुमार अवस्था में "अर्थात् चुडाकर्म संस्कार होने से पहिले मर जाते हैं कोई युवावस्था में -मरते हैं, कोई प्रौढ होकर मरते हैं कोई वृद्धावस्था में विविध व्याधियों के शिकार होकर मरते हैं । इस प्रकार वनस्पतिक्षाय के जीवों की "हिंसा करनेवाले सभी अवस्थाओं में मरते हैं। वे विविध प्रकार के दुःखों "को ज्वालाओं में जलते हैं। इसी प्रकार छहों जीवनिकायों के विराधकों के विषय में जानना चाहिए अर्थात् वे भी अल्पायु एवं अनियतायु होकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं ॥१०॥ - -- '' બલવાની) અવસ્થામાં જ મરણ પામે છે અથવા સ્પષ્ટ બોલવાની અવસ્થાને પ્રારંભ થતાં જ મરણ પામે છે. કોઈ પંચશીખ કુમારાવસ્થામાં જ એટલે કે બાળ મેવાળા લેવરાવ્યા પહેલાં જ મરણ પામે છે. કેઈ યુવાવસ્થામાં જ મરણ ન પામે છે, કેઈપ્રૌઢ અવસ્થામાં મરે છે અને કેાઈ વિવિધ વ્યાધિઓને શિકાર બનીને વૃદ્ધાવસ્થામાં મરણ પામે છે. આ પ્રકારે વનસ્પતિકાયના જીવોની હિંસા ૧ કરનાર સઘળી અવસ્થામાં મરે છે. તેઓ વિવિધ પ્રકારનાં દુઃખોની જ્વાળામાં બન્યા કરે છે આ પ્રકારનું કથન છએ જવનિકાના વિરાધના વિશે પણ સમજવું જોઈએ. એટલે કે તે જીવોની હિંસા કરનારા લેકે પણ અપાયુ હોય છે અને અનિયત ઉમરે કે અકાળે મૃત્યુને ભેટનારા હોય છે. જે ૧૦ છે Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयाथवाधिना टाका प्र. शु. म. ७ ७. ६ कुशालपता दापानपणम् १८९ ... छाया-संबुध्यध्वं जंतवो मनुष्यत्वं दृष्ट्वा भयं वालिशेनालभ्यः। ..: एकान्तदुःखो चरित इव लोकः स्वकर्मणा विपर्यासमुपैति ॥११॥ -, अन्वयार्थः - (जनबो) हे जन्तवः हे पाणिनः (माणुसत्तं) मनुष्यत्व-मनुजभवं दुर्लभ . (संवुझहा) संयुध्यध्वं-जानीत (भयं दटट्ठ) भयं तिर्यगादिभवसंबंधि दुःखं दृष्ट्वा (वालिसेणं अलंभो) वालिशेन विवेकरहितपुरुषेण अलभ्या उत्तमविवेको न लभ्यते इत्यपि जानीत (लोए) अयं लोकः (जरिए व) ज्वरित इव (एगंतदुक्खे) 'संवुज्झहा जंतवो' इत्यादि। शब्दार्थ-'जंतवो-जंतवः' हे जीवों 'माणुसत्तं-अनुष्यत्वं' मनुष्य भव की दुर्लभताको 'संवुज्झहा-संवुध्यध्वं' समझलो 'भयं दट्टु-भयं दृष्ट्वा भय को अर्थात् नरक तथा तिर्यंच आदि योनि के भय को देखकर ''यालिसेणं 'अलंभो-पालिशेनालभ्यः' विवेकहीन पुरुष को उत्तम विवे. कका अलाभ जानकर बोध प्राप्त करो 'लोए-लोकः' यह लोक 'जरिए वज्वरित इव' जबर से पीडित के जैसा 'एगंतदुखे-कान्तदुःखी' सब प्रकार से दुःखी है 'लकम्मुगा विपरिचासुवेइ-स्वकर्मणा विपर्यासमुपैती' यह अपने कर्मसे सुख को चाहता हुआ दुःख को ही प्राप्त करता है ॥११॥ अवधार्थ-हे जीवो! मनुष्यभव दुर्लभ है, इस तथ्य को समझो। यह भी समझलो कि अज्ञानी जनों को विवेक की प्राप्ति नहीं होती। तिर्यच आदि भवों संबंधी भय दुःख को देख कर यह समझो कि यह लोक ज्वरग्रस्त की भाँति एकान्त रूप से दुःखी हो रहा है। वह अपने 'सबुझहा जंतवा' त्याहAvat:-जंतवो-जंतवः' वे 'मणुस्सत्त-मनुष्यत्वं' मनुष्यसपना ताने 'संधुज्ज्ञहा संबुध्यध्वम्' समलो भय -भय दृष्ट्वा ' अयन मर्थात् न२४ तथा तियय विगेरे यानीना सय ४२ 'बालिसेणं अलंभोबालिशेनालभ्य' वि विनाना ५३५२ उत्तम विना माल सभने माघ प्रात ४२। 'लोए-लोक' मा ४ 'जरिएव-ज्वरित इव' ताथी पी पामेमानाम 'एगंतदुक्खे-एकान्तदुःरनी' मधी शत हुमी छे. 'सकम्मुणा विपरियासवेइ-स्त्रकर्मणा विपर्यासमुपैति' मा पाताना माथा सुमने -२छता था દુ:ખને જ પ્રાપ્ત કરે છે. ૧૧ સૂત્રાર્થ –હે જીવો ! મનુષ્યભવ દુર્લભ છે, આ તથ્યને સમજે. વળી એ વાત પણ સમજી લે કે અજ્ઞાની જનેને 'વિવેકની પ્રાપ્તિ થતી નથી. તિર્યંચ આદિ ના ભય તથા દુખેને જોઈને એટલું તો સમજી લો કે આ લોક જવરમાં જકડાયેલાની જેમ એકાન્ત રૂપે દુઃખને અનુભવ કરી રહ્યો Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . ....... सूत्रकृताङ्गसूत्रे एकान्तदुःखी वियते (सकम्मुणा विपरियासुवेइ) स्वर्गणा-स्वसुखमिच्छन्नपि विपर्यास 'दुःखमुपैति प्राप्नोनीति ॥११॥ ", टीका--प्राण्युपमई का गसनियत्ताऽऽयुष्मत्त्व संपधार्य सुधर्मस्वामी जीवानु'द्दिश्य कथयति । हे जन्तवो जीवाः भव्यप्राणिनः 'संवुज्झहा' संयुध्यध्वं बोधं प्राप्नुत यूयम् , नहि कुशीलपापण्डिनो लोकाः स्वपरत्राणाय भवन्ति लोकानाम् । 'माणुस्स खेत जाई कुलस्वारोग्गमाउयं वुद्धी। सवणोवग्गह सद्धा संजमो य लोगंमि दुल्लहाई॥ - छाया--मातुज्यं क्षेत्रं जातिः कुलं रूपमारोग्यमायुः बुद्धिः। - __श्रवणावग्रहः श्रद्धा संयमश्च कोके दुर्लभानि ॥१॥ ही कर्मों से विपर्यास को प्राप्त हो रहा है अर्थात् सुख की इच्छा करता हुआ भी दुःख को प्राप्त हो रहा है ॥११॥ टीकार्थ-जीयों का उपमर्दन करने वालों की आयु की अनिघतता का विचार करके लुधर्मा स्वामी संसारी जीवों को उद्देश्यकरके कहते हैं-हे भव्य जीवो ! समझो, बूझो, बोध प्राप्त करो । कुशील एवं पाखण्ड में प्रवृत्त लोग स्व-पर का त्राण (रक्षा) करने में समर्थ नहीं है, अतएव समीचीन (सत्य) धर्म के स्वरूप को समझो। कहा है-'माणुस्स 'खेत्तजाई' इत्यादि। .. मनुष्यस्व आर्यक्षेन, उत्तम जाति, उत्तम कुल, रूप, आरोग्य, दीर्घ आयु, बुद्धि, धर्म का प्रमण, धर्मग्रहण, श्रद्धा और संयम की प्राप्ति होना इस लोक में अति दुर्लभ है ॥१॥ . છે. તે પિતાનાં જ કર્મોનાં ફળ રૂપે વિપરીત દશાને અનુભવ કરી રહ્યો છે એટલે કે સુખની ઈચ્છા કરવા છતાં પણ દુઃખનો જ અનુભવ કરી રહ્યો છે. પા૧૧ -वानु मन (हिंसा) ४२नारन मायुनी मनियमितવાનો વિચાર કરીને, સુધર્મા સ્વામી સંસારી જીને ઉદ્દેશીને આ પ્રમાણે કહે છે-“હે ભય છે ! સમજે, બૂઝ, બોધ પ્રાપ્ત કરે. કુશલ અને પાખંડી લેકે પોતાનું કે પરનું ત્રાણ (રક્ષણ) કરી શકતા નથી, તેથી ધર્મના साया २१३५ने समो. यु' ५५ छे है-'माणुस्सखेत जाई ध्या 'मनुष्यत्व, आय क्षेत्र, उत्तमनति, उत्तमण, ३५, माशय, ही मायु, બુદ્ધિ, ધર્મશ્રવણ, ધગ્રહણ, શ્રદ્ધા અને સંયમની પ્રાપ્તિ થવી તે આ લોકમાં અતિ દુર્લભ છે” ના Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७७.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ५८३ . . तदेवं यो धर्म नाचरति तस्य मानुष्यमतिदुर्लभम् । अतो-'माणुसत्तं' मनुष्यस्वम्, दुर्लभं जानीहि । तथा-जन्मजरामरणरोगशोकाहि नारकारिषु चाऽतितीव्रम् । 'भयं द?' भयं दृष्ट्वा 'वालिसेगं अलंभो' बालिशेन सदसद्विवेकहीनेन पुरुषेण अलभ्यः लन्धुपयोग्यो धर्म इत्ये दपि दृष्ट्वा विचार्य । तथा निश्चितमवगत्य 'एकांत मूक वो एकान्त दुःखः यत्र मुखलेशोऽपि नास्ति सर्वथा दुःख. मेत्र लोकानाम् 'जरिए व' ज्वरित इत्र, यथा ज्वराकानः एकान्तं दुःखमेशऽनु भवेत्, तथा 'लोए' अयमपि लोको दुग्वभाजनम् इत्यवगम्य। 'संबुज्झहा' संयुध्यध्वम्-सम्यग बोध प्राप्नुत, सर्वथा दुःखसंकुलोऽय संमाििनवहः। सुधितो यथा अनाभावे पोडयने, पिपासिनो जलमन्तरा, वृश्चिकदष्टः प्रतिक्षणं पीडयते तथैवायं लोको ज्वराक्रान्त इव सर्वथा दुःखितो भवतीति । एवं दु ख___ इस प्रकार जो धर्म का आचरण नहीं करता उसे मनुष्य भव की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है। इस कारण मनुष्यत्व को दुर्लभ समझो। तथा नारक आदि भवों में जन्मजरामरण रोग शोक आदि के दुःख को देखकर तथा अधिवेकी जन धर्म को प्राप्त नहीं कर पाते, इस बात का विचार करो। तथा यह भी विचार करो कि यह लोक उसी प्रकार दःखी और संतस हो रहा है जैसे ज्वरग्रस्त प्राणी । यह सब विचार करके सम्यक् बोध को प्राप्त करो। .. जैसे भूखा मनुष्य अन्नके अभाव में पीड़ा का अनुभव करता है। पिपासा से व्याकुल पुरुष जल के विना छटपटाता है, विच्छू का उमा प्रतीक्षण तड़फता रहता है, उसी प्रकार यह लोक ज्वराकान्त की भाँति सर्वथा दुःखों से पीड़ित रहता है, इस प्रकार दुःखों ले आकुल इस लोक - આ પ્રકારની સઘળી અનુકૂળતાએ મળવા છતાં જે માણસ ધમનું આચરણ કરતું નથી, તેને ફરી મનુષ્ય ભવની પ્રાપ્તિ થવી અત્યન્ત દુર્લભ છે. આ કારણે મનુષ્યત્વને દુર્લભ સમ. તથા નારક, તિર્યં ચ આદિ ભવેમાં જન્મ, જરા, મરણ, રેગ, શોક આદિના દુઃખને દેખીને. પણ અવિવેકી માણસે ધર્મને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી, આ વાતને વિચાર કરે. તથા એ વિચાર પણ કરવો જોઈએ કે આ લેક જવરગ્રસ્ત જીવના જેવો જ દુઃખી અને સંતપ્ત છે. આ બધી બાબતેને વિચાર કરીને સમ્યક્ બોધને प्राप्त ४२. .. - જેવી રીતે ભૂખે માણસ અન્નના અભાવને લીધે પીડાને અનુભવ કરે છે, જેમ તૃષાથી વ્યાકુળ થયેલો પુરુષ પાને માટે તરફડિયાં મારે છે, જેમ વીંછીએ ડંખ માર્યો હોય એ પુરુષ ડખની પીડાથી પ્રતિક્ષણ તરફsat. २३ छ, मे, प्रमाणे मा. ( सोना 1).४१२यस्त વ્યક્તિની જેમ નિરન્તર દુખેથી પીડાતા જ રહે છે. આ પ્રકારે દુખેથી Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૪ संकुले लोके 'क्रूरकर्मकारी 'सम्पुणा' स्वकृतमाणादिपातादिकूरकर्मणा विपरिया' विपर्यासमुपैति सुखमिच्छता प्राणातिपातादिकमाचरता दुःखमापद्यते चातुर्गतिकः संपारः परिभ्रम्यते ॥ ११॥ मूलम् - हेहेग मूढा पैवियंति मोक्खं आहारसंपजणवज्जणेणं । ऐगे ये सीओ सेवणं हुएण एंगे पंचयंति मोक्खं ॥१२॥ छाया - इहैके मूढा प्रवेदयन्ति मोक्षमाहारसम्पज्जननवर्जनेन ।' एके च शीवोदकसेवनेन हुतेन एके भवदन्ति सोक्षम् ॥१२॥ T "सूत्रकृताङ्गसूत्रे में क्रूर कर्म करनेवाला जीव अपने ही किये पाप कर्मों के द्वारा वियस को प्राप्त होता है अर्थात् सुख पाने की अभिलाषा से हिंसा आदि पापों का आचरण करता है, किन्तु उन पापों के परिणामस्वरूप उलटा दुःखों का ही भागी होता है - संसार में परिभ्रमण करता है ॥११॥ 'हेगा' इत्यादि । शब्दार्थ - 'इह - इह' इस जगत् में अथवा इस मोक्ष के संबंध में 'एगे - एके' कोई 'मूढा मूढाः' मूर्ख जन 'आहार से पज्जणवज्जणेणंआहार संपज्जननवर्जनेन' नमक खाना छोड देने से 'मोक्खं पवयंति -मोक्षं प्रवदन्ति मोक्ष प्राप्ति होना कहते हैं 'एगे घ एके 'च' और कोई 'सी ओगलेवणेण - शीतोदकसेवनेन' शीतल जल का सेवन करने से मोक्ष होना कहते हैं 'एगे - एके' कोई 'हुएण- हृतेन' होम करने से 'मोक्खं पवति' प्रोक्षं प्रवदन्ति' मोक्ष होना कहते हैं ॥१२॥ પીડાતા આ લેાકમાં ક્રૂર કર્મ કરનારા જીવેા પાતે કરેલાં પાપકર્માને કારણેજ વિપરીત દશાને અનુભવ કરે છે. આ કથનના ભાષા એ છે કે સુખ પ્રાપ્ત કરવાથી અભિલાષાથી હિંસા આદિ પાપાનું આચરણ કરે છે, પરન્તુ તે પાપેાના પરિણામ સ્વરૂપે સુખને બદલે દુઃખાના જ ઉપલેગ કરે છે એટલે કે સ'સારમાં પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે અને જન્મ, જરા, મરણું આદિ દુઃખાને અનુભવ કર્યા કરે છે. ૫૧૧૫ " 'इहेग मूढा त्याहि शब्दार्थ- 'इइ-इह' मा भगत्मा अथवा આમાક્ષના · સબધમાં 'एगे - एके' अर्ध 'मूढा - मूढाः ' भूबो 'आहारसंपजणवज्जणेणं- आहार संपज्जनेन वर्जनेन' भीहु भाषानुं छोडी हेवाथी 'मोक्ख' पवयं'ति- मोक्ष' प्रवदन्ति' मोक्षनी आप्ति थषातु खे छे, 'एगे य-एके च' भने । शीतोदकसेवनेन' 31 पाथी सेवन रवाथी भोक्ष थवानुं' हे 'हुएण-हुवेन' होभ साधी 'मोक्ख' पवयंति - मोक्ष वानुं ॥ १२ ॥ 'सीओदंग सेवणेण - डे हे 'एगे एके' प्रवदन्ति' भोक्षं Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **** ५८५ समर्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् - अन्वयार्थ :- (ह) इडास्मिन् लोके (एगे) एके केचन (मूहा) मूढाः - विवेकत्रिकलाः (आहारसं पज्जणचज्जणेणं) आहार संपज्ञ्जननवर्जनेन - लवणत्यागेन (मोक पत्रयंति) मोक्षं प्रवदन्ति कथयन्ति (एगे य) एके च केचन मूर्वाः सदसद्विवेकfreer: (सीओदगवणेण ) शीतोदक सेवनेन मोक्षं प्रवदन्ति तदा ( एगे) एके केचन ( हुएण) हुतेन - होमकरणेन (मोक्खं पवयंति) मोक्षं प्रवदन्ति इति ॥ १२ ॥ टीका- 'इद' मनुष्यलोके मोक्षगमनाधिकारे 'एगे' एके केचन अज्ञातशास्त्रतत्वज्ञाः 'पूढा' सूर्वा:- सदसद्विवेकविकला: ' आहार संपज्ञ्जणवज्जणेणं' आइरसंज्ञ्जननवर्जनेन, आहियते वृत्यैइति आहारः ओदनादिः अभ्यवहरणीयं वस्तुजातम् तस्याऽऽहाऽस्य संपत्रसहिता पुष्टिं जनयति इति आहार अन्वयार्थ - इस लोक में कोई कोई मूड जन नमक खाना स्थागदेने से मोक्ष की प्राप्ति होना कहते हैं । कोई अज्ञानी शीत सचित्त जल के सेवन से मोक्ष कहते हैं और कोई अविवेकी होम करने से मोक्ष की प्राप्ति होना कहते हैं ॥१२॥ No टीकार्थ - मोक्षगमन के अधिकारी इस मनुष्यलोक में शास्त्र : के तत्व से अनभिज्ञ एवं सत्-असत् के विवेक से हीन कोई कोई लोग नमक का त्याग कर देने से मोक्ष प्राप्ति होना कहते हैं । मूल गाथा में लवण के लिए 'आहारसंपजणण' शब्द का प्रयोग किया है । उसका अर्थ यों है-तृप्ति के लिए जो ओदन आदि का आहरण ग्रहण किया जाता है, वह आहार कहलाता है। उस आहार की संपत् अर्थात् रस पुष्टि को जनन- उत्पन्न करनेवाला 'आहार संपज्जनन' कहलाता है। नमक सूत्रार्थ - - पासोमा अ अ सोई। मेवु छे भीहाने त्या કરવાથી મેાક્ષ મળે છે, તેા કેાઇ અજ્ઞાની જીવ એવું કહે છે કે સચિત્ત શીતળ જળના સેવનથી મેક્ષ મળે છે, તે કાઈ અવિવેકી લેકે એવું કહે છે કે હૈામ કરવાથી મેક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે. ।૧૨। ટીકામાક્ષગમનના અધિકારી એવા આ મનુષ્યàાર્કમાં, ` શાસ્ત્રના તત્ત્વથી અનભિજ્ઞ અને સત્-મસા વિવેકથી વિહીન કાઇ કાઇ પુરુષ એવુ’ કહે છે કે મીઠાના ત્યાગ કરવાથી મેાક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે. મૂળ ગાથામાં 'सवष्णु' ने भाटे 'आहार संपन्चणण' पहने। प्रयोग श्वामां भाव्यो छे तेना અ આ પ્રમાણે થાય છે-તૃપ્તિને માટે જે ભાત આદિ ખાદ્ય પદાર્થોં લેવામાં આવે છે, તેમને આહાર કહે છે. તે આહારની સ'પત એટલે કે તે આહારના स्वाह (रस)नी पुष्टि १२नारा पहार्थने 'आहार - सम्पज्जनन' महार सभ्यत् सू० ७४ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे संपज्जननं लवणं, लक्षणेन हि भोजनस्य रसपुष्टि', संपाद्यते । तस्य लवणस्य वर्जन - त्यागः तेन-आहारसंपज्जनवर्जनेन क्षेत्रललवणपरित्यगेनैव, मोक्खं' मोक्षम् 'पश्यति' भवदन्ति, मोक्षपाप्तिलषणवर्जनेन हि भवति । तदुक्तं 'लक्ष्णविहूणा य रसा, चवखूविहीणा य इंदियग्गामा । धम्मो दयाइ रहिओं लोक्ख संतोसरहियं नो ॥ छाया-लवणविहीनाश्च रसाः चक्षुर्विहीनाथेन्द्रियग्रामाः ! धर्मी दयया रहितः सौख्यं संतोष रहितं नो । तथा 'एगे य' एके च 'सीयोदगसेवणेग' शीतोदकसेवनेन मोक्ष प्रवदन्ति, शीतजलसेवनेन सचित्तापूकायपरिभोगेन । तत्र एवं वदन्ति-यथा जलं वाह्यमलं शरीरादपनयति, तथा आन्तरमल पप्यपनयति । दृश्यते हि भूरजसाऽऽच्छन्नवस्त्रस्य मलापनयनं जलेन भवति । तथाऽन्तराशुद्विरप्युदकादेव सम्पाधते इति । तथाआहार की रसपुष्टि करता है, उसके बिना बहुमूल्य आहार भी नीरस ही रहता है । कहा है-लवणविहणा य रसा इत्यादि। 'लवण रहित रस, नेत्र रहित इन्द्रियां, दया से रहित धर्म और सन्तोष रहित सुख तुच्छ हैं। ' तथा कोई कोई शील (सचित्त) जल के सेवन से मोक्ष कहते हैं। उनका कथन है-जैसे जल शरीर के बाहर मल को दूर करता हैं, उसी 'प्रकार आन्तरिक मल को भी निवारण करता है। रेत या धूल से गेंदले 'वस्त्र का मैल जल से धुलजाना है, यह प्रत्यक्ष देखा जाता है, उसी -प्रकार आन्तरिक शुद्धि भी जल से ही होती है। જનન અથવા “આહાર સંપ’ કહે છે. મીઠું આહારમાં રસપુષ્ટિ કરે છે. મીઠા વિના બહુમૂલ્ય આહાર પણ નીરસ (સ્વાદ વિનાને-ફીકે) લાગે છે. ४ ५५ छ -'लवणविहूणा य रसा' त्याहि- “લવણ રહિત રસ, નેત્ર રહિત ઇન્દ્રિયે, દયારહિત ધર્મ અને સંતોષ રહિત સુખ તુચ્છ છે.” તથા કઈ કઈ માણો એવું કહે છે કે શીત (સંચિત) જળના સેવનથી મેક્ષ મળે છે. તેઓ એવી દલીલ કરે છે કે-જેમ જળ શરીરના બાહ્ય મળનું નિવારણ કરે છે, એ જ પ્રમાણે આન્તરિક મળનું પણ નિવારણ કરે છે, રજ, ધૂળ આદિ વડે ગંદાં થયેલાં કપડાંને મેલ જેમ પાણી વડે ધોવાઈ જાય છે, એ વાત તે પ્રત્યક્ષ દેખી શકાય છે, એ જ પ્રમાણે પાણી વડે અન્તરિક શુદ્ધિ પણ થઈ શકે છે, " Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिन। टीका प्र. श्रु. अं. ७ उ. १ कुशीलवतों दोषनिरूपणम् 'एगे' एके तापसाः 'हुएण' हुतेन-हवनेन 'मोक्खं' मोक्षम् 'पवयंति' मवदन्ति । - यथा हि वह्निः स्वर्णादीनां मलमपनयति, तथा अग्निहोत्रं जुहूयादित्यग्निहोत्रा suraप आत्मनो मलमपनीय गमयति मोक्षमिति ॥ १२॥ लवणाहारादिपरिवर्जनान्मोक्षो भवतीत्यसंवद्धापिनां तनपनेतुं सूत्रकार-आह - ' पाओ सिणाणादिमु' इत्यादि । मूलम् - पाओ सिणाणाइसु नैत्थि मोक्खो खाररूस लोणस्स अणासणेणं । ते मज्जमंसं लसुणं च भोवा अनत्थ वासं परिकप्पयेति ॥१३॥ छाया - प्रातः स्नानादिषु नास्ति मोक्षः क्षारस्य लवणस्यानशनेन । ते मद्यं मांसं लशुनं च शुक्त्वा अन्यत्र वास परिकल्पयन्ति ॥ १ 1. और कोई कोई तापस हवन से मोक्ष प्राप्ति मानते हैं। उनका कहना है कि अग्नि स्वर्ण आदि के मल को हटा देती है, उसी प्रकार अग्निहोत्र की अग्नि भी आत्मा के मैल को दूर करके मोक्ष में पहुँचा देती है ॥ १२॥ लवण का त्याग करने से मोक्ष होता है, इत्यादि असम्बद्ध प्रलाप करने वालों के मत का निराकरण करने के लिए सूत्रकार कहते हैं 'पाओ सिणाणादिसु' इत्यादि । शब्दार्थ - - ' पाओ सिणाणादिल-प्रातः स्नानादिषु' प्रातः कालके स्नान आदि से 'मोक्खो नस्थि-मोक्षो नास्ति' मोक्षप्राप्ति नहीं होती है કેાઈ કાઈ તાપસે એવું માને છે કે હવન કરવાથી મેક્ષ મળે છે. તેએ એવું પ્રતિપાદન કરે છે કે જેમ અગ્નિ સુવણુ આદિના મેલ દૂર કરીને તેની શુદ્ધિ કરે છે, એજ પ્રમાણે અગ્નિાત્રની અગ્નિ પણુ આત્મા પરના મેલને દૂર કરીને મેક્ષપ્રાપ્તિ કરાવે છે. ાગાથા ૧૨ા મીઠાનેા ત્યાગ કરવાથી, સચિત્ત જળનું સેવન કરવાથી અને ડામહુવન કરવાથી મેાક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે, ’ આ પ્રકારની પૂર્વોક્ત માન્યતાઓનું निशम्य (अडेन) १२वाने भाटे सूत्रभर ४ छे - पाओ खिणाणादिसु ' त्याहिशब्दार्थ –'पाओ, सिणाणादिषु प्रातः स्नानादिषु' प्रातः अजना, स्मीन विगेरेथी 'मोक्खो नत्थि - मोक्षो नास्ति' भोक्षनी आप्ति थती नथी तथा "स्वारस्त Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतासूत्रे -अन्वयार्थ :- (पाओ सिणाणादि) प्रातः स्नानादिषु प्रभातस्नानेन (मोक्खो aft) मोक्षो नास्ति (खारस्स लोणस्स अणासणेणं) क्षारस्य लवणस्यानशनेन वर्जने नापि मोक्षो न भवति, (ते) ते अन्यतीर्थिकाः (मज्जमंस लसुण च भोचा) मद्यं मांसं लशुनं च युक्त्वा (अन्नत्थ ) अन्यत्र मोक्षात् भिन्नस्थाने संसारे (वासं परिकपर्यंत) चा स्वकीय निवासं परिकल्पयन्ति चातुर्गतिके संसारे परिभ्रमति | १३ | टीका- ' पाओ सिणाणादिसु' प्रातः स्नानादिषु 'मोक्खो' मोक्षः - अशेषकर्मक्षयरूपः, 'णत्थि' नास्ति न भवति, प्रभातकालिकसलिलावंगाडेन तेषां fararorai craft मोक्षो न संभवति । प्रत्युत शीतोदकपरिभोगेनाऽपां कायानां तथा 'arren लोणस्स अणासणेणं- क्षारस्य लवणस्यानशनेन' नमक न खाने से भी मोक्ष नहीं होता 'ते - ते' वे अन्यतीर्थो 'मज्जमंसं लसुणं च भोच्चा-मद्यं मांसं लशुनं च भुक्त्वा मद्य, मांस, और लशुन खाकर 'अन्नत्थ-अन्यन्त्र' मोक्ष से अन्धस्थान अर्थात् संसार में 'वासं परिकपयंति - वासं परिकल्पयन्ति' चतुर्गतिवाले इस संसार मैं भ्रमण करते रहते हैं ||१३ अन्वयार्थ -- प्रभातकालीन स्नान करने से मोक्ष नहीं मिलता, क्षार लवण न खाने से भी मोक्ष नहीं मिलता। अन्यतीर्थिक मद्य, मांस और लहसुन का उपभोग करके अन्यत्र अर्थात् मोक्ष से भिन्न संसार में परिभ्रमण करते हैं ॥१३॥ टीकार्थ--प्रभातकाल में स्नान करने से किसी भी प्रकार अशेष कर्मों का क्षय अर्थात् मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता । प्रत्युत खचित्त जल लोणच अणासणेणं - क्षारस्य लक्ष्णस्यानशनेन' भीहूं न भावाथी भोक्ष थतो नथी. 'वे-वै' से सन्यतीर्थ' 'मज्जमंसं लतुणं च भोच्चा-मद्यं मांसं लशुनं च भुक्त्वा ' भधु, भांस, अने बस माने 'सन्नत्थ - अन्यत्र' भोक्षथी अन्य स्थान अर्थात् સ'સારમાં જ ભ્રમણુ કરતા રહે છે. ૫૧૩ ॥ સૂત્રા—પ્રાતઃકાળે સ્નાન કરવાથી મેાક્ષ મળતે। નથી, તથા લવણુયુક્ત ભેજનને ત્યાગ કરવાથી પશુ મેક્ષ મળતા નથી અન્ય તીથિકા મદ્ય, માંસ, 'અને લસણના ઉપયેગ કરીને અન્યત્ર જ (મેાક્ષથી ભિન્ન એવા સ'સારમાં) પરિભ્રમણુ કર્યા કરે છે. ૧૩ા टीअर्थ -: —પ્રભાત કાળે સ્નાન કરવાથી કાઈ પણ પ્રકારે કર્મના ક્ષય ચંતા નથી એટલે કે તેના દ્વારા મેક્ષપ્રાપ્તિ થતી નથી, ઊલટાં તેમ કરનાર Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनो टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ.१ कुशोलवतां दोपनिरूपणम् ५८९ जलाश्रितजीवानां चौपमर्दो जायते, न च जीवानां विनाशात् कदाचिदपि मोक्षा वाप्तिः संभवति । न वा जलं मलमपनेतुं सामर्थ्य धारयति । अथ कथंचिद्वाधमलं निराकुर्यादपि किन्तु आन्तरकर्ममलमपनेतुं न कुतोऽपि सामर्थ्यम् । यतो हि भावशुद्वैधवाऽतम प्रत्य विनाशः संभवति । भावशुद्धिरहितस्यापि यद्यन्तर्मलापनयन भवेत्तदाऽनायासेन जलेन मत्स्यादीनां सिद्ध एव मोक्षः स्यात् । तथा'खारस्स लोणस्स अणासणेणं' क्षारलवणस्याऽनशनेन, लवणपरित्यागमात्रेणाऽपि मोक्षो नैव । लवणोपमोगरहितानां मोक्षो भवतीत्ययुक्तमेव । न चाऽयं नियमो लवणके परिभोग से अप्कायिक जीवों का तथा जल के आश्रित रहे हुए अन्य जीवों का उपमर्दन होता है। जीवों की हिंसा करने से कदापि मोक्ष की प्राप्ति का संभव नहीं है। जल में मल को दूर करने का सामर्थ्य भी नहीं है। कदाचित् वह बाहय मल को किसी प्रकार दूर भी करता हो, तथापि आन्तरिक मल को दूर करने की शक्ति तो उसमें हो ही कैसे सकती है ! आन्तरिक मल का विनाश लो भावों की शुद्धि से ही हो सकता है। जो भावों की शुद्धि से रहित है, उसका आन्तरिक मल भी यदि जल से दूर हो जाय तो सदैव जल में रहने वाले मत्स्य आदि को अनापास ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाय। इसी प्रकार खारे लवण को न खाने से अर्थात् लवण का त्याग कर देने मात्र से ही मोक्ष प्राप्ति की आशा नहीं की जा सकती । अतएच लवण नखाने बालों को मोक्ष प्राप्त हो जाता है, यह कथन अयुक्त માણસે કમેનું ઉપાર્જન કરે છે, કારણ કે સચિત્ત જળને ઉપયોગ કરવાથી અપકાયિક જીવનું તથા જળને આશ્રયે રહેલાં અન્ય જીવોનું ઉપમદન થાય છે. જીવોની હિંસા કરવાથી કદી પણ મોક્ષની પ્રાપ્તિ સંભવી શકતી નથી, વળી જળમાં મળને દૂર કરવાનું સામર્થ્ય પણ નથી. કદાચ તે બાહા મળને કઈ પણ પ્રકારે દૂર કરી શકતું હોય, પરંતુ આન્તરિક મળને દૂર કરવાની શક્તિ તેમાં કેવી રીતે હોઈ શકે ? આતરિક મેલને નિકાલ તે ભાવની શુદ્ધિ દ્વારા જ થઈ શકે છે. જે વ્યક્તિ ભાવોની શુદ્ધિથી રહિત હોય, તેમ અન્તરિક મેલ પણ જે પાણીથી દૂર થઈ જતો હોય, તે સદૈવ પાણીમાં જ નિવાસ કરનારાં માછલાં, મગર, કાચબા આદિને તે અનાયાસે જ મોક્ષ મળી જાત ! એજ પ્રમાણે મીઠાને અથવા લવણયુક્ત ભેજનને ત્યાગ કરવા માત્રથી જ મોક્ષ પ્રાપ્તિની આશા રાખી શકાય નહીં. તેથી લવણ ન ખાનારને મોક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે, એવું કથન પણ બરાબર નથી. વળી એ પણ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूत्रतासूत्रे एव रसजनक इति सितशर्करावृतादिपदार्थेषु रसजनकत्वात् । किंच द्रव्यतो लवणवर्जनेन भावतो वा तद्वजनेन मोक्षोपलब्धिः शंक्या । तत्र नाद्यः, यद्येवं तदाऽलवणके देशे सर्वेषामेव मोक्षोऽयत्नसिद्धः स्यात् । न च-इष्टापत्तिः। दृष्टेष्टाभ्यां विरोधात् । द्वितीये तु भावादेव ततो भाव एव प्रधानं किं लश्णवर्जनेन मोक्षः। तथा-ते मूर्खाः-सदसद्विवेकविकलाः 'मज्जमस' मधं मांसं 'लसुणं च' लशुनं च है । इसके अतिरिक्त यह भी नियम नहीं कि लवण ही रसजनक है। मिश्री, शर्करा घृत आदि पदार्थ भी रसोत्पादक होते हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ यह शंका उत्पन्न होती है कि द्रव्य से लगण का त्याग मोक्ष का कारण है या भाव से ? प्रथम पक्ष तो समी. चीन नहीं है, क्यों कि जिस देश में लवण नहीं पाया जाता वहाँ के सभी निवासी द्रव्यता लवणत्यागी होते हैं, अतएव उन सभी को मोक्ष प्राप्त हो जाना चाहिए। यदि कहो कि यह आपत्ति हमें इष्ट है, सो ठीक नहीं, क्यों कि यह मानना प्रत्यक्ष और अनुमान से विरुद्ध है। अगर कहो कि भाव से लवणत्याग करना मोक्ष का कारण है तो फिर भाव ही मोक्ष का कारण ठहरा। ऐसी स्थिति में लवणत्याग का क्या महत्व रहा? ___ कई अज्ञानी मद्य, मांस और लहसुन खाकर संसारवास ही बढाते हैं। નિયમ નથી કે લવણ જ રસજનક છે. સાકર, ખાંડ, ઘી આદિ પદાર્થો પણ રસોત્પાદક હેય છે. વળી અહીં એવી પણ શંકા ઉદ્ભવી શકે છે કે “દ્રવ્યની અપેક્ષાએ લવણને ત્યાગ કરવાથી મોક્ષ મળે છે, કે ભાવની અપેક્ષાએ તેને ત્યાગ કરવાથી મેક્ષ મળે છે ? પ્રથમ પક્ષ (દ્રવ્યની અપેક્ષાએ લવણને ત્યાગ કરવાથી મોક્ષ મળે છે, એવી માન્યતા) બરાબર નથી, કારણ કે જે દેશમાં લવ જ મળતું નથી, તે દેશમાં નિવાસ કરનારા સઘળા લેકે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ લવણ ત્યાગી જ હોય છે, તો તે સઘળા લેકોને મોક્ષ પ્રાપ્તિ થતી હશે, એવું માનવાને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે ! જે આપ એવી દલીલ કરતા હે કે “એ તો ઈષ્ટાપાત્ત છે, તે એ વાત પણ ઉચિત નથી, કારણ કે એવું માનવું તે પ્રત્યક્ષ અને અનુમાનથી વિરૂદ્ધ છે. જો તમે એવું માનતા છે કે ભાવતઃ લવ ત્યાગ કરવાથી મોક્ષ મળે છે, તે ભાવ જ મોક્ષનું કારણ સિદ્ધ થશે ! એવી સ્થિતિમાં લવણત્યાગનું શું મહત્વ રહે છે ? , કેટલાક અજ્ઞાની લેકે માંસ, મદિરા અને લસણ ખાઈને સંસારવાસમાં જ વૃદ્ધિ કરતા હોય છે. Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D 4 समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ५९१ 'भोचा' भुक्त्वा अनस्थ वासं' अन्यत्र वासम्-अन्यत्र मोक्षादन्यत्र संसारे वासम् अवस्थानं परिकल्पयन्ति समन्तानिष्पादयन्ति । ज्ञानदर्शनचारित्ररूपमोक्षमागं निरस्कृत्य, जीववधमधानकमणि प्रवृत्ताः जीववधजनिताऽशुभकामसमलिताः सदैव नरकमागं परिशोधयन्ति । नहीह प्रातः स्नानेन, न वा लवणवर्जनेन मोक्षोपलब्धिः। किन्तुक्त तथाकारी लशुनादिकाशुचि वस्त्वभ्यवहरणासंसारे परिभ्रमन्तीति पर्यवसितोऽर्थः ॥१३॥ सामान्यतस्तेषां कुशीलानां मतं निराकृत्य सांप्रतं विवेपत्तो निराकर्तुमाह'उदगेण' इत्यादि। मूलम्-उदगेण जे सिद्धिं मुदाहरंति सायं च पायं उदगं फुसंता। उदगस्त फासेण सिया य सिद्धी सिज्झेिसु पौणा बहवे दंगंसि ॥१४॥ छाया-उदकेन ये सिद्धि मुदाहरन्ति, सायं च प्रातरुदकं स्पृशन्तः । उदकस्य स्पर्शेन स्याच्च सिद्धिः, सिद्धयेयुः पाणाः बहव उदके ।१४। - आशय यह है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप मोक्षमार्ग को त्याग कर जीववध की प्रधानता वाले कार्य में जो प्रवृत्त हैं, वे अपने अशुभ कर्मों से युक्त होकर सदैव संसार का मार्ग बढाते हैं । वास्तव में न तो प्रातःकाल स्नान करने से मोक्ष मिलता है, न नमक का त्याग करने से ही। परन्तु ऐसा करने वाले तथा मद्य, मांस, लहसुन और अनन्तकाय वनस्पति आदि अशुचि वस्तुओं का भक्षण करने वाले संसार में ही परिभ्रमण करते हैं ॥१३॥ सामान्य रूप से कुशीलों का मत का निराकरण करके अब विशेष- આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્ર રૂપ મોક્ષમાર્ગનો ત્યાગ કરીને, જેઓ જીવહિંસાની પ્રધાનતા વાળા કાર્યમાં પ્રવૃત્ત રહે છે, તેઓ અશુભ કર્મોનું ઉપાર્જન કરીને, સદૈવ સંસારને માર્ગ વધારતા રહે છે. ખરી રીતે તે પ્રાતઃકાળે સનાન કરવાથી પણ મોક્ષ મળતું નથી, લવણને ત્યાગ કરવા માત્રથી પણ મોક્ષ મળતું નથી, પરંતુ એવું કરનારા છે તથા માંસ, મદિરા, લસણ અને અનન્તકાય વનસ્પતિ આદિ અશુચિ પદાર્થોનું ભક્ષણ કરનારા માણસે સંસારમાં જ પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. ગાથા ૧૩ સામાન્ય રૂપે કુશલેના મતનું ખંડન કરીને હવે વિશેષ રૂપે ખંડન १२वान भाटे सूत्रा२ मा प्रमाणे प्रतिपादन १२ थे-'उद्गेण' त्या ture Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ:-(जे) ये केचन (सायं च पायं उदगं फुस्ता) सायंकाले प्रातः प्रभाते उदकं शीखजलं स्पृशन्तः स्नानादिक्रियां जलेन कुन्तिः (उदगेण सिद्धि मुदाहरंति) उदकेन-जलेन सिद्धि मोक्षदाहरन्ति कथयन्ति ते मिथ्यावादिनः (उदगस्स फासेण सिद्धि सिया) उदकस्य स्पर्शन यदि सिद्धिः स्यात् तदा (दगंसि) उदके-जले निवासिनः (बहवे पाणा) वहयोऽनेके सत्स्यमकरादयः प्राणाः जीवाः (सिझं) सिद्धयेयुः सिद्धा भवेयु न तु एवं भवतीति ॥१४॥ रूप ले निराकरण करने के लिए सूत्रकार कहते हैं-'उदगेण' इत्यादि । शब्दार्थ-'सायं च पायं उदगंफुसंता-सायं च प्रातः उदकं स्पृशन्तः' सायंकाल एवं मातः काल में जलका स्पर्श करते हुए 'जे उद्गेण सिद्धि मुदाहरन्ति-ये उदकेन सिद्धि उदाहरति' जो लोग जलस्तान से मोक्षकी प्राप्ति होना कहते हैं वे मिथ्याचादी हैं 'उदगस्त फासेण सिद्धी सियाउदकस्य स्पर्शेन सिद्धिः स्यात्' जलके स्पर्शसे यदि मुक्ति मिले, तो 'दगंसि-उदके' जल में रहने वाले 'बहवे पाणा-बहवे प्राणाः' घहुत से जलचर प्राणी 'लिझंप्लु-सिद्धयेयुः' मोक्षगामी हो जाते अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर लेते ॥१४॥ __अन्वयार्थ- सायंकाल और प्रातः काल सचित्त जल का स्पर्श करते हए जो लोग जल से मोक्ष कहते हैं, वे मिथ्यावादी हैं। यदि जल के स्पर्श से सिद्धि होती है, तो जल में निवास करनेवाले अनेक मकर आदि जलचर प्राणी सिद्धि प्राप्त कर लेते। किन्तु ऐसा होता नहीं है ॥१४॥ शा-'सायं च पायं उद्ग फुसंता-सायं च प्रातः उदकं स्पृशन्तः' सior सवारे पीना २५ ४२ता था 'जे उद्गेण सिद्धिमुदाहरति-ये उदकेन सिद्धिमुदाहर'ति' नानथी मोक्ष प्राप्त थानुरेसा छ, तया मिथ्यावाही ४. 'उदगस फासेण सिद्धी सिया-उदकस्य स्पर्शेन सिद्धिः स्यात्' पाथीन २५शया ने भुति भणे तो 'दगंसि-उदके' पाथीमा २७वावाणा 'बहवे पाणाबहवे प्राणाः' या १२ १९५२ प्राणियो 'सिज्झिसु-सिध्येयुः माक्षाभी थाई ત અર્થાત્ મેક્ષ પ્રાપ્ત કરી લેતા. ૧૪ છે સૂત્રાર્થ–પ્રાત:કાળે અને સાયંકાળે સચિત્ત જળને સ્પર્શ કરનાર જે લેકે એવું કહે છે કે જળનું સેવન કરવાથી મોક્ષ મળે છે, તેઓ મિથ્યાવાદી છે. જે જળને સ્પર્શથી સિદ્ધિ મળતી હેત, તે જળમાં રહેનાર મગર આદિ અનેક જળચર પ્રાણીઓ સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરત! પરતું એવું બનતું નથી. ૧૪ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "समयार्थबोधिनी टीका प्र. ध्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् -५३३ टीका- 'जे' ये केचन मूढाः "सायं'. सायम् -२ - सायंकाले 'पाय' प्रात:प्रातः काले 'उदर्ग' उदकम् 'फुसंता' स्पृशन्तः- जछेन स्नानादि कुर्वन्तः, 'उदकेन जलेन 'सिद्धि' सिद्धि-मोक्षम् 'उदाहरंति' उदाहरन्ति कथयन्ति । ते सम्यक न प्रतिपादयन्ति । यदि, 'उदयस्स' उदकस्य 'फासेण' स्पर्शेन - शीतजलेन । " सिद्धी' सिद्धि मोक्षः 'सिया य' स्यात् च, तदा 'दगंसि' उदके 'वहवे' बहवः 'पाणा' प्राणिनः मत्स्यमकरादयः 'सिज्झिमु' सिद्धयेयुः - सिद्धिं प्राप्नुयु', परन्तु नैवं दृश्यते । यदप्युक्तम्- बाह्यमलापनयनसामर्थ्यं दृष्टम्, तदप्यसम्यक् । यथोदकमेनिष्टमलमपसारयति, एवमभिमनमपि कुंकुमचन्दनादिकं शरीरगतरापनयति । तथाप्रकृतेऽपि यदि पापं नाशयिष्यति तर्हि तावत्यैव युक्त्या पुण्यमप्यपनेष्यतीति टोकार्थ -- जो कोई अज्ञानीजन सन्ध्या के समय और प्रभात के :- समय जल का स्पर्श करते हुए अर्थात् जलस्नान करते हुए जल से ही सिद्धि मोक्ष की प्राप्नि कहते हैं, उनका कथन समीचीन नहीं हैं । अगर जलस्नान करने से मोक्ष प्राप्त होता तो जल में तो बहुत से जलचर प्राणी रहते हैं, जो मत्स्य भक्षण आदि क्रूर कर्म करते हैं, दयाहीन होते हैं, वे भी सोक्ष प्राप्त कर लेते ! जल बाहय मैल को दूर करने में समर्थ होता है, यह आपका कथन भी संगत नहीं । जल-जैसे अनिष्ट मल को दूर करता है उसी प्रकार इष्ट कुंकुम चन्दन आदि को भी शरीर से अलग कर देता है । अतः स्नान करने से जैसे पाप दूर होता है, उसी प्रकार पुण्य भी धुल ટીકાજે અજ્ઞાની જીવા એવુ' કહે છે કે પ્રાતઃકાળે અને સધ્યાકાળે જળસ્નાન કરવાથી મેાક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે, તેમનુ - કથન–સાચુ નથી. આ ' પ્રકારનું પ્રતિપાદન કરનારા લેાકેા મિથ્યાવાદી જ છે. જે જળસ્નાન કરવાથી જ મેાક્ષ મળતા હોત, તેા જળચર પ્રાણીઓને તે મેક્ષ જ મળત. જળમાં મગર આદિ અનેક પ્રાણીઓ રહે છે, જેએ મત્સ્યભક્ષણુ આદિ ક્રૂર કર્યું કરતાં ડાય છે. એવાં નિર્દય પ્રાણીએ શું મેાક્ષ પ્રાપ્ત કરી “ શકે ખરાં ? પાપકર્મોનુ′ સેવન કરનારને મેાક્ષ મળવાનુ સંભવી શકે જ નહી, " 1 बाह्य भेसने दूर-कुरी शहवाने समर्थ छे, मेवु सायमु उथन પશુ સરંગત નથી. જળ જેમ અનિષ્ટ મેલને દૂર કરે છે, એજ પ્રમાણે કુકમ, ચન્દન આદિ ઈષ્ટ પદાર્થોને પણ શરીરથી અલગ કરે છે આ પ્રમાંણે એ વાતને પણ સ્વીકાર કરવાના પ્રસંગ ઉપસ્થિત થશે કે જેમ સ્નાન કરવાંથી पाप दूर था लय छे, ४ प्रभाले पुष्य पशु घोवा नशे ! सू० ७५ ܕ ܪ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतागसूत्रे सह निष्टलापधेत। चिोदास्तानं ब्रह्मचारिणां दोपाधायकमेव। तथाचोक्तम् स्नानं मदर्पकरं कामांगं प्रथमं स्मृतम् । तस्मात्कामं परित्यज्य न ते स्नान्ति दमे रताः ॥१॥ - भपिचोदा मिलन गानो हि स्नात इत्यभिधीयते । स स्नातो यो व्रतस्नातः स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥२॥ स्नानं कामोद्दीपकं प्रथमं कामांगं कथितं तस्मात् दमे रताः जितेन्द्रिया: कामं परित्यज्य जले स्नानं नाचरन्ति ॥१॥ जले स्नातो नरो न स्नात इति कथ्यते किन्तु संयमात्मत्रते स्नानं करोति चारित्रवान् भवति बाह्याभ्यन्तरः स स्नात इति कथ्यते इति भावः ॥१४॥ जाएगा! यह महान् अनिष्ट की प्राप्ति होगी। इसके सिवाय ब्रह्मचारियों के लिए जलस्नान दोष जनक ही है। कहा भी है--स्नानं मददर्पकरम्' इत्यादि। ____ 'स्नान मद एवं दर्द की वृद्धि करने वाला है और काम के अंगों में प्रथम अंग माना गया है। अतएव काम के त्यागी संयमी पुरुष स्नान नहीं करते। : - और भी कहा है-'नोदकक्लिन्नगात्रोहि' इत्यादि। __ 'जल से शरीर को गिला कर लेने वाला स्नात (नहाया हुआ) • नहीं कहलाता । वास्तव में स्नात वह है जो व्रतों से स्नात है अर्थात् : अहिंसा आदि व्रतों का धारक है। व्रतस्नात पुरुष भीतर और बाहर से शुचि होता है अर्थात् शौच के लिए उसे जलस्नान की आवश्यकता नहीं होती ॥१४॥ . વળી બ્રહ્મચારીઓને માટે જલસ્તાન દેષજનક જ છે. કહ્યું પણ છે है-'स्नान मददर्पकरम्' त्याह ___स्नान भई भने ६५ (मा२)नी वृद्धि ४२॥२ छ. मिना भगामा 'स्नानने प्रथम ३५ छे. तेथी . मन (भैथुनन।) त्या :४२नार 'सयभी पुरुष स्नान ४२ता नथी । मेवु ५९५ ४यु छ ४-मादकक्लिन्नगानोहि त्याहि પાણી વડે શરીરને ભીનું કરનાર માણસને નાત (નહાયેલે) કહેવાતે. નથી. વાસ્તવમાં સ્નાત તે તેને જ કહેવાય છે કે જે વ્રતથી નાત હોય, એટલે કે અહિંસા આદિ વ્રતનું પાલન કરનારને જ સ્નાત કહેવાય છે. વ્રતસ્નાત પુરુષ બહારથી અને અંદરથી વિશુદ્ધ હોય છે એટલે વિશદ્ધિને માટે તેને જલસ્તાનની આવશ્યક્તા જ રહેતી નથી કે ૧૪ | - - Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोपनिरूपणम् मूलम्-मच्छाय कुम्मा यसरीसिवाय मग्गू य उट्ठा दग रक्खासा या अट्ठाणमेयं कुंसला वैयंति उदगेणंजे सिद्धि मुदाहरति।१५। छाया-मत्स्याश्च कूर्माश्च सरीसृपाश्च मद्भगवश्चोष्टा उदकराक्षसाश्च। ... अस्थानमेतत्कुशला वदन्ति उदकेन ये सिद्धि मुद्दाहरन्ति ॥१५il. . . अन्वयार्थ:- (मच्छा य कुम्मा य सरी सिवा य) मत्स्याश्च कूर्भाश्च सरीसृपाश्च -जलसाः गोधादयश्च (मग्गू य उठा दगरक्खसा य) मद्गवः जलकाका: 'मच्छा य कुम्मा य' इत्यादि। शब्दार्थ-'मच्छा य कुम्मा य लरीसिवा य-मत्स्था श्च कूर्माश्च. सरीसृपाश्च' मत्स्य, कच्छप और सरीसृप 'समगू य उट्ठा दगरक्खसायमद्गवः उष्ट्रा: उदकराक्षसाश्च' मद्गु नामके काम की आकृतियाला जलचर, ऊंट के आकारका जलचर विशेष एवं जलराक्षस जो जलके स्पर्श से मुक्ति होती हो तो ये सब मुक्ति गामी हो जाते 'जे उद्गेणये उदकेन' अतः जो उदकसे अर्थात् जलके स्पर्श आदि से 'सिद्धिमुदा हरंति-सिद्धिं उदाहरति' मुक्ति की प्राप्ति बताते हैं 'अट्ठाणमेयं-एतत् अस्थानम्' उनका कथन अयोग्य है ऐला 'कुसला वयंति-कुशला वदन्ति' मोक्षका तत्व जानने वाले पुरुष कहते हैं ॥१५॥ अन्वयार्थ--मत्स्य, कूर्म, जल हर्प गोया, जलग, उष्ट्र, उदकराक्षस (जलमानव की अकृति के जलचर) आदि सभी जलचर मुक्त हो जाते 'मच्छा य कुम्माय' याहि शाय-'मच्छा य कुम्मा य सरीसिवा य-मत्स्याश्च कूर्माश्च सरीसृपाच' भरस्य, २७५-यमा मन स१५-सप' 'मग्गू य उदा दगरक्खम्राय-मद्गवः उष्ट्राः उदकराक्षसाश्च' म अर्थात् पानी मातिवाणु सयर प्राणी, ઊંટના આકારનું જલચર પ્રાણી, તથા જલરાક્ષસ જે પાણીના સ્પર્શથી મુક્તિ थती यता मा मया भुतभाभी / त 'जे उदगेण-ये उदकेन' मता २ ४थी अर्थात् पायान। २५ माEिथा 'सिद्धिमुदाहरंति-सिद्धिम् उदाहर'ति' भुतिनी प्राप्ति मतावे छे. 'अट्ठाणमेयं-एतत् अस्थानम्' तेभानु ४थन गये. न्य छ. मे प्रमाणे 'कुसला वयंति-कुशला वदन्ति' भाक्षना तत्पने तनावमा પુરૂષે કહે છે. જે ૧૫ - સત્રાર્થ જે જળના પછી મુક્તિ મળતી હેત, તે 'માછલી. કાચબા, જલસર્પ, જળઘોડા, જલયુગ, જળઊંટ, જળરાક્ષસ આંદસઘળાં . Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : सूत्रकृताङ्गले उष्ट्राश्च च उदकराक्षसा मनुष्याकृतयो जलचरविशेषाः एते सर्वेपि मुक्ताः भवेयुः , यदि जलस्पर्शेन मोक्षो भवेत्तदा अतः (जे उदगेण) ये वादिनः- उदकेन जलस्पर्शादिना (सिद्धिमुदाहरंति) सिद्धि मोसमुदाहरति कथयन्ति (अट्ठाणमेयं) एतत् अस्थानम् अयुक्तमिति (कुसला वयंति) कुशला तीर्थकरगणधरादयः घदन्ति कथयन्तीति ॥१५॥ , टीका-'मच्छा य' मत्स्याश्च 'कुम्मा य' कूश्चि-कच्छपाः, यच 'सरी.. सिवाय सरीसृपाः-जलसर्पादयः, 'मग्गू य' मद्गवः जलकाकाः 'उद्या उष्ट्राः उष्ट्राकृतयो जलचरविशेषाः, एवम् 'दगरावसा य' जलराक्षसाः-मानुपाकृतयोजलचरविशेषाः। एतेषां मत्स्यादीनां सदैव जलमवगाहमानानां सर्वात्मना जलसंयोगीत् सधे एवं मोक्षो भवेत् यदि जलसंयोगेन मुक्तिं समीहेत, नस्वेवं दृश्यते, श्रूयते, उपपद्यते वा, तस्मात् ये 'उदगेण' उदकेन 'सिद्धि मुदाहरंति' सिद्धियदि जलं के स्पर्श से मुक्ति होती ! अतएव जो वादी जल के स्पर्श से, मुक्ति कहते हैं, वे अयुश्त कहते हैं। ऐसा तीर्थकर गणधर आदि कुशल पुरुषों का कथन है ॥१५॥ टीकार्थ--मत्स्य (मच्छ), कूर्म (कच्छप), सरीसृप (जलसर्प आदि) मद्गु (काक के आकार का जलचर), उष्ट्र (उष्ट्र के आकारका जलचर) उदकराक्षस (जलमानुप की आकृति के जलचर) इत्यादि प्राणी सदैव जल में अवगाहन किये रहते हैं और पूर्ण रूप से जल के साथ उनका संयोग होता है। ऐसी स्थिति में उन्हें झटपट मोक्ष मिल जाना चाहिए! किन्तु न तो ऐसा देखा जाता है, न सुनाजाता है और न संगत ही है। अतएव जो जल से सिद्धि कहते हैं, જળચર પ્રાણમુક્ત ન થઈ જાત ! પણ એવું બનતું નથી, તેથી જે પર મતવાદીઓ જળના સ્પર્શથી મુક્તિ મળવાનું કહે છે, તેઓ મિથ્યાવાદી જ છે, તેમની તે માન્યતા છેટી જ છે, એવું તીર્થંકર, ગણધર આદિ કુશળ પુરુનું કથન છે. ૧પ . --भत्रय (मा७९i), भ (8121), सरीस५ (सप माह) મદ્ગુ (કાગડાના આકારનું જળચર) ઉદ્ર-ઊંટના આકારનું જળચર ઉદક રાક્ષસ (માણસના જેવા આકારનું જળચર), ઈત્યાદિ પ્રાણીઓ સદા પામાં જ નિવાસ કરતા હોય છે, અને પાણી સાથે તેમને પૂર્ણ રૂપે સગ હોય છે. જે જળના સ્પર્શથી મુક્તિ મળતી હત, તે આ પ્રાણીએને તે તરત મેક્ષ મળી જ જોઈએ. પરંતુ એવું કદી જોવામાં પણ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ.१ कुंशीलवतां दोषनिरूपणम् ६९७ मुदाहरन्ति मोक्षं कथयन्ति 'एयं' एवत् कथनम् 'अद्वाणं' अस्थानम् - अयुक्तं प्रमाणरहितमित्यर्थः । इत्येतत् 'कुसल ।' कुशलाः- अभिज्ञा मोक्षमार्गज्ञातारः तीर्थंकरगणं धरादयः 'वयंति' वदन्ति कथयन्तीति ॥ १५ ॥ मूलम् -- उदयं जइ कम्ममलं हरेज्जा एवं सुहं ईच्छामित्तमेव । अंधं च णेयारमणुस्सरिता पाणाणि चेवं विणिर्हति मंदे ॥ १६ ॥ छाया -- उदकं यदि कर्ममलं हरेदेवं शुभम् इच्छामात्रमेव । अन्धं च नेतारमनुसृत्य प्राणिन चैत्रं विनिघ्नन्ति मन्दाः ॥ १६ ॥ उनका कथन अयुक्त है। ऐसा मोक्ष मार्ग के ज्ञाता तीर्थकरों और गणधरों का कथन है ॥ १५ ॥ 'उदयं जइकम्ममले' इत्यादि । +77 " शब्दार्थ - 'उद्यं जइ कम्ममलं हरेज्जा - उदकं यदि कर्ममलं हरेत्'जल यदि कर्म मलको नाशकरे तो 'एवं एवम्' इसी प्रकार 'सुहं - शुभ' पुण्य को भी हर लेगा 'इच्छमित्तमेव इच्छामात्र मेव' इस लिये जल कर्ममल को हरता है यह कहना इच्छामात्र है 'मंदा मन्दा: ' सदसद्: विवेक से रहित ऐसे मूर्ख जीव 'अंधंच णेयारमनुस्सरिता - अन्धं च नेतारमनुसृत्य' अन्धे नेता के पीछे पीछे चलकर 'पाणाणि चैव विणिहंति - प्राणिनश्चैवं विनिघ्नन्ति' जलस्नान आदि के द्वारा प्राणियों की हिंसा करते हैं ||१६|| मापतु नथी, सांलज्यु पशु नथी "मने येवु संभवी शहेतु या नथी. તેથી જેએ જળના સેવનથી સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થવાનું કહે છે, તેમનું કથન અયુક્ત જ છે, એવું માક્ષમાના જાણુકાર તીથંકરા અને ગણધરાનું' કથન છે. । ૧૫ । 'उदय' जई कम्ममले' इत्याहि शार्थ' – 'उदयं जइ कम्ममलं हरेजा - उदकं यदि कर्ममलं हरेत्' भा में उसना भजनो नाश करे तो 'एवं - एवम् ' मन प्रभाले 'सुहं - शुभम्' घुटने पडरी बेशे 'इच्छामित्तमेव - इच्छामात्रमेव' ते अरोस, उर्भ भजनु २] १रे छे, म डेवु ते देवावापानी छ मात्र ४ छे. 'मंदा - मन्दा: ' सहसद्विवेहुथी रडित सेवा भूर्य को 'अंध च नेयारमणुस्सरत्ता-अन्धं च नेतारमनुसृत्य' सांधणा नेतानी पाछण पाछण यासीने 'पाणाणि चैव विहिंति - प्राणिनश्चैवं विनिघ्नन्ति' स्नान विगेरे द्वारा आशियोनी डिसा रे छे. ॥१६॥ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ सूत्रतागसूत्रे ___ 'अन्दयायः--(उदयं जइ कम्ममलं हरेज्जा) उदकं जलं यदि कर्ममलं यदि कर्मभलं हरेत् विनाशयेत् तदा (एवं) एपमेव (सुहं) शुभं पुण्यमपि हरेत् अतः (इच्छामित्तमेव) जलं कर्ममलं हरेदिति इच्छामात्रमेव न यौक्तिकं (मंदा) मन्दा:-सदस. द्विवेकविकलाः (अं च णेयारमणुसरिचा) अन्धं च नेतारमतृमृत्य प्राप्य (पाणाणि चे विणिइंति) प्राणिनो जीवानेव केवलम् एवम् विनिघ्नन्ति विराधयन्ति नत्वन्यत् किमयोति ॥१६॥ टीका-'नई' यदि 'उदगं' उदकं जलम् 'कम्ममलं' कर्ममलम्, अनुभं पापम्-हरेज्जा' हरेत् विनाशयेत्, एवं तर्हि तज्जलम् 'मुह शुभं पुण्यमपि हरेक अथ पुण्यं नापहरेत् एवं कर्ममलमपि नापहरेत् अत इच्छामात्रमेतत् यत् जलं कर्मापहारीति, नहि जलं वस्त्रमेव द्रवयति, अपि तु शरीरमपि क्लेदयति । • अन्वयार्थ--जल यदि कर्ममल का हरण करे तो वह शुभ अर्थात् पुण्य को भी हर लेगा, अतएव यह मन्तव्य उनकी इच्छा मात्र है, युक्ति संगत नहीं है। अज्ञानी जन अन्धे-अविवेकी नेता का अनुसरण करके केवल प्राणियों का ही घात करते हैं। वे ऐसा करके कोई सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते ॥१६॥ टीकार्थ--अगर जल कम रूपी मल को, अशुभ को-पाप को हरता है तो वह शुभ अर्थात् पुण्य को भी धो डालेगा। अगर जल पुण्य का हरण नहीं कर सकता तो पाप को भी हरण नहीं कर सकता। अतएव यह कहना कि जल पाप को हर लेता है, उनकी इच्छा मात्र ही है । जल केवल वस्त्र को ही गीला नहीं करता वरन् शरीर को भी गीला સૂત્રાર્થ– પાણી વડે કર્મમળનું હરણ થતું હોય, એટલે કે જે જળના સ્પર્શથી કમળ દૂર થઈ જતું હોય, તો તે જેમ અશુભને દૂર કરે છે તેજ પ્રમાણે શુભને (પુને) પણ હરી લેત, તેથી જળથી મળ કે પાપ દૂર થવાની તેમની માન્યતા માત્ર કલ્પિત જ હોવાને કારણે યુક્તિસંગત નથી. मज्ञानी मायुसे। मांध (सभ्य ज्ञानथी, २हित, म.वि) नेतानु मनु४. પણ કરીને પ્રાણીઓની હિંસા કર્યા કરે છે. એવું કરવાથી તેમને સિદ્ધિ (मोक्ष) भनी शती नथी. ॥१६॥ ટીકાર્થ જે જળ કમરૂપી મળને (અશુભને, પાપને) ધોઈ નાખતું હિય, તે તે શુભને (પુણ્યને) પણ ધંઈ જ નાખત! જો જલ પુણ્યનું હરણ ન કરી શકતું હોય, તે પાપનુ હરણ પણ ન કેવી રીતે કરી શકે? અથત ન જ કરી શકતા તેથી પાણી પાપનું નિવારણ કરે છે, એવું તેમનું કથન માત્ર કાલ્પનિક જ લાગે છે. પાણી માત્ર કપડાંને જ ભીંજવતું નથી, પણ શરીરને Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समथार्थयोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ५९९ तद्वत्माणिनां पापं पुण्यं च विनाशयिष्यत्येव विनाश्यत्वस्योभयत्राऽपि तुल्यत्वात, • जले च नाशकत्वस्य सद्भावात् । एवं स्थिते स्मात्तमतमनुसृत्य स्नानादिकं कुर्वन्ति, ते यथा जात्यन्याः अन्यं जात्यन्धं नेतारमनुसृत्य गच्छन्तः कुपथा श्रिता भवन्ति, 'तथेमेपि नाभिमतं स्थान प्राप्नुवन्ति एवं स्मातमार्गानुसारिणः 'मंदा' मन्दा · सदसद्विवेकविकलाः 'पाणाणि' पाणिनः जलरूपान् जलाश्रितान् पुनरकादीन 'विणिहंति, विनिघ्नन्ति-व्यापादयन्ति। अवश्यं जलक्रियया जलफापजलाश्रितजीवानां विराधनासंभवात् ॥१६॥ करता है। इसी प्रकार यदि पाप को नष्ट करेगा तो पुण्य को भी नष्ट करेगा, क्यों कि नष्ट होने योग्य दोनों ही हैं। स्मार्त्तमत का अनुसरण करके स्नान को धर्म एवं मोक्ष का कारण मानते हैं, वे वैसे हैं जैसे एक • जन्मान्ध किसी दूसरे जन्मान्य नेता का अनुसरण करके चलता हुभा कुपथगामी होता है । ऐसे लोग अभीष्ट स्थान पर नहीं पहुंच सकते। इस प्रकार स्मार्त मत के अनुयायी विवेक से विकल होकर जलकायिक और अन्य जलाश्रित पूतरक आदि प्राणियों का घात करते हैं, क्यों कि जल संबंधी क्रिया से जलकायिक और जलाश्रित जीवों की अवश्य ही विराधना होती है ॥१६॥ { પણ ભજવે છે. એ જ પ્રમાણે જે તે પાપને નાશ કરતું હોય, તે પુણ્યને પણ નષ્ટ કરત જ, કારણ કે તે બને નષ્ટ થવા ગ્ય છે. શમાર્નામતને અનુસરીને - સ્નાનને ધર્મ અને મોક્ષનું કારણ માનનારા લેકે, જન્માન્ય માણુસૈને અનુસરણ કરનારા જન્માધે માણસે જેવાં જ છે. જેમ આંધળાનું અનુસરણ કરનારા માણસે બેટા માર્ગે ચડી જવાને કારણે નિયત સ્થાને પહોંચી શક્તા નથી, એજ પ્રમાણે સ્માર્નામતના અનુયાયીઓ પણ સ્નાનને ધર્મનું કારણ માનવા છતાં, તે માર્ગનું અવલમ્બન લઈને મોક્ષ પ્રાપ્ત કરવાને બદલે સંસારમાં પરિભ્રમણ જ કર્યા કરે છે. કારણ કે તેઓ વિવેકથી’ વિહીન હોવાને કારણે સ્નાન દ્વારા જીવહિંસા થાય છે, એવું સમજતા નથી. તેથી અપકાયિક જીવોની તથા પાણીને આશ્રયે રહેલા જીની હિંસા કરે છે એને તેના દ્વારા હિંસાજનિત પાપકર્મોનું ઉપાર્જન કરીને સંસારમાં ભ્રમણ કર્યા કરે છે. જલ સંબંધી ક્રિયા (નાનાદિ) વડે જલકાચિકે અને જલાશ્રિત જીની વિરાધના અવશ્ય થાય છે, એવું સમજીને સ્નાનાદિને ત્યાગ જ કરવું જોઈએ ગાથા ૧૦ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ECO सूत्रकृतागसूत्रे मूलम् --पावाइं कल्माई पकुछ तो हि सीओदगं तु जइ तं हरिजा। लिझिसु एंगे दग सत्तघाई सुसं वयंते जलसिद्धिमाहु।१७। छाया--पापानि कर्माणि प्रकुर्वतो हि शीतोदकं तु यदि तद्धरेत् । सिद्धेययु रेके दकसत्वघातिनो मृपा वदन्तो जलसिद्धिमाहुः।१७। अन्वयार्थः--(पाचाई कस्माई पकुव्वतो हि) पापानि प्राणातिपातादिकानि कर्माणि प्रकुर्वतः पुरुषस्य (तं) तत् पापं (सीतोदगं जइ हरिज्जा) शीतोदकं यदि हरेत् अपगमयेत् तदा (एगे दगसत्तघाई सिझिम) एके उदकसत्त्वयातिनो .. नरा अपि सिद्धयेयुः, अतः (मुसं वयंते जलसिद्धि माहु) मृपावदन्तः जलसिद्धि जलस्पर्शे न मोक्षो भवतीति वदन्तः मिथ्यावादिनः इति ॥१७॥ 'पावा कम्लाई' इत्यादि । शब्दार्थ-'पावाई कम्माई पकुव्वतो हि-पापानि कर्माणि प्रकुर्वतः' यदि पापकर्म करनेवाले पुरुष के 'तं-तत' उस पाप को 'सीओदगंतु हरिज्जा-शीतोदकं यदि हरेत्' शीतलजलका स्नान यदि दूर कर दे तो. 'एगे दगलत्तघाई लिन्झिसु-एके उदकसत्मघातिनः सिद्धयेयुः' - जलके जीवों का घात करने वाले मछुवे आदि श्री मुक्ति का' लाभकरें अतः 'मुसं वयंत जलसिद्धिमाहु-मृषावदन्तः जलसिद्धिम् आहुः' जो जल स्नान से मुक्ति की प्राप्तिहोना कहते हैं वे असत्यवादी है ॥१७॥ अन्वयार्थ-पाप कमें करनेवाले पुरुष के पाप को यदि सचिस जल हरले तो जल के जीवों का घात करने वाले भी सिद्धि प्राप्त कर लेगे ! अतएव जो यह कहते हैं कि जलस्पर्श से मोक्ष होता है, वे मिथ्या कहते हैं ॥१७॥ . 'पावाई कम्माईत्याहि- शहाथ-पावाई कम्माई पकुव्वतो हि-पापानि कर्माणि — प्रकुर्वतः'ने या५४मः ४२वापामा ५३षना 'त-तत्' पापन 'सीओदगं तु इरिज्जा-शीतोदकं यदि हरेत ४ पाण्याथी स्नान मात्र न २ ४२ । 'एगे दगसत्तघाई सिज्झिसु-एके उदकसत्वघातिनः सिद्धयेयुः' गणना वाना धात ४२वावाणामा विगैरे पण अति प्रापत ४२ थी मुसं वयंत जलसिद्धिमाहु-मृषावदन्तः जलसिद्धिम् आहः' જૈ જલસ્નાનથી મુક્તિ પ્રાપ્ત થવાનું કહે છે તેઓ અસત્યવાદી છે. ૧૭ના સૂત્રાર્થ–પાપકર્મ કરનારા પુરુષના પાપને જે સચિત્ત જળ હરી લે. તો જળના છેને ઘાત કરનારા જી પણ સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી લેતા હોત ! -परन्तु मे मनतु नथी, तथा ॥२५0 भाक्ष भने छ,' मे रे લેકે કહે છે, તે તેમનું કથન મિથ્યા છે. ૧ણા Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६१ · टीका-पावाई' पापानि-पापोपादानभूतानि 'कमाई' कर्माणि-प्राण्युपमर्दकारीणि 'पकुव्वतो हि प्रकुवतः पुरुषस्य 'जई' यदि 'सीओदग' शीतोदकम्। 'तू' तु-यदि तु तत् पापं 'हरेज्जा' हरेदएनयेत् यधुदकावगाहनेन पापमपगरछे तहि 'एगे' एके दासत्तघाई उदकसत्त्वघातिन:-उदकान्तःस्थायिजीवानां हन्तारः जलमवगाहमाना मत्स्यादिजीवघातका धीवरा अपि 'सिझिसु' सिद्धयेयुः-मोक्षभानो भवेयुः किन्तु न च ते सिद्धा भवन्ति, अतः ये 'जलसिद्धिमाहु' जलावगाहनात् सिद्धिर्भवतीति, एवमाहुः ते 'मुसाचयंते' मृषावादिनः केवलम् । अयं भावः-दुःखजनकाऽऽचरितकर्मणां विनाशेच्छया ये पुन जलकायानां विराधनं स्नानादिकमाचरन्ति, पूर्वकृत पापानि क्षपयितुं न ते प्रत्युत पापमेवार्जयन्ति न पुन स्तव क्षपयन्ति । नहि एङ्केन पङ्कपक्षालनं शास्त्र सिद्धमनुमन्त्रसिद्धं वा इति ॥१२॥ टीक्षार्थ-पाप के कारणभूत प्राणी हिंसा करने वाले कर्मों को करने वाले पुरुष के पापों को यदि शीतल उदक हर लेता है. तो. कोई कोई मत्स्य आदि जल के जीवों का घात करने वाले धीवर आदि का भी पापकर्म नष्ट हो जाते और पाप के नष्ट होने से वे लोक सिद्धि प्राप्त कर लेते। मगर वे सिद्धि प्राप्त नहीं करते। अतएव जल में अवगाहन करने से सिद्धि होती है, ऐसा जो कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। .. आशय यह है जो लोग दुःखजनक कर्मों को विनाश करने की इच्छा से जलकाय के जीवों का विनाश करते हैं अर्थात् स्नानादि करते हैं, वे उलटा पाप ही उपार्जन करते हैं, पापकर्मों का क्षय नहीं करते। ટીકાઈ–હિંસક કર્મો કરનારા પુરુષનાં પાપને જે શીતલ પાણી હરી લેતું હોય, તે માછલાં આદિ જળચર પ્રાણીઓને ઘાત કરનાર માછીમાર આદિના પાપે પણ નાશ પામતા હશે, અને પાપના નાશ થવાથી તેઓને સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થતી હશે એવું માનવું પડશે. પરંતુ એવાં પાપકર્મો કરવાને મુક્તિ મળતી નથી, એ વાતને તે સૌ સ્વીકાર કરે છે. તેથી જળનો સ્પર્શ કરવાથી-અથાત્ સ્નાન કરવાથી મોક્ષ મળે છે, એવું જે લોકો કહે છે. તે "मरनथी, पण मिथ्या (मा) १ छे. - તાત્પર્ય એ છે કે જે લેકે દુખજનક કર્મોને વિનાશ કરવાની ઈચ્છાથી જલકાયના જીવોની વિરાધના કરે છે, એટલે કે સ્નાનાદિ કર છે. તેઓ પાપકર્મોનો નાશ કરવાને બદલે ઊલટાં પાપકર્મોનું ઉપાર્જન જ કરે છે. કીચડથી કચડને સાફ કરવાની વાતને કે શાસ્ત્ર સ્વીકાર કરતું નથી Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०२ :--- . सूत्रकृतागसूत्रे -अपि च-शीतोदकोपभोगेन सिद्धिमिच्छतां मतं निराकृत्याऽनन्तरं ये तेजस्काय. विराधनेन सिद्धि प्रतिपादयन्ति, तन्मतं निराकर्तुमाइ-'हुएण जे सिद्धि इत्यादि। 'सूकम्-हएण जे सिद्धि मुंदाहरति सायं च पायं अगॅणि फुसंता। एवं सिया सिद्धि हवेज तम्हा ____अगणिं फुसंताण कुकैम्मिपि ॥१८॥ छाया--हुतेन ये सिद्धि मुदाहरन्ति सायं च पातरग्निं स्पृशन्तः। एवं स्यात् सिद्धि भवेत् तस्मादग्नि स्पृशतां कुकर्मिणामपि ॥१८॥ कीचड़ से कीचड़शा धुलना न किमी शास्त्र से सिद्ध है, न अनुभव से ही। इसी प्रकार पाप से पाप का विनाश होना संभव नहीं है ॥१७॥ - सचित्त जल के उपयोग से सिद्धि मानने वालों के मत का निराकरण करके अब जो अग्निकाय की विराधना से सिद्धि का कथन करते हैं उनके मत का प्रतिषेध करते हैं-'हुएण जे' इत्यादि। शब्दार्थ-'सायं च पायं अगणि फुसंता-सायं च प्रातः अग्नि स्पृ. शन्तः' सायंकाल एवं प्रातः काल अग्नि का स्पर्श करते हुए 'जे-ये' जो लोक 'हुएण सिद्धि मुदाहरति-हुतेन सिद्धिमुदाहरन्ति' होम करने से मुक्ति की प्राप्ति कहते हैं वे भी असत्यवादी ही है कारण की एवं सिया सिद्धि-एवं स्थात् सिद्धिः' यदि अग्नि के सेवन से सिद्धि मिले तो 'अगणिं फुसंताण कुकम्मिणं पि हवेज्ज-अग्नि स्पृशता “અને અનુભવથી પણ એ વાત સિદ્ધ થતી નથી. એ જ પ્રમાણે પાપથી "પાપનું નિવારણ થવાનો સંભવ નથી. ગાથા ૧૭ - સચિત્ત જલનો ઉપભેગ કરવાથી સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે, એવું માનનાશ લોકેના મતનું નિવારણ કરવામાં આવ્યું. હવે અગ્નિકાયની વિરોધનાથી–હેમ હવન કરવાથી મોક્ષ મળે છે. એવું માનનારા લોકોના મતનું सूत्रा२ मन ४२ छे 'हुएण जे' त्याह Awell-'सायं च पाय अगणि फुसंता-सायं च प्रातः अग्निं स्पृशन्तः' સાયંકાલ અને પ્રાતઃકાલ અગ્નિને સ્પર્શ કરતાં કરતાં જે- જે લોકે एण सिद्धिमुदाहाति-हुतेन सिद्धिमुदाहरंति' भ. ४२पाथी भुति प्राप्त पानु छ, तेसो ५९ असत्यवाही ४ छे. २४-'एवं सिया सिद्धिएवं स्यात् सिद्धिः' ले मनिना सेवनथा सिद्धि मणे तो 'अगणि फुसंताण "म्भिणपि हवेज्ज-अग्नि स्पृशतां कुकर्मिणामपि भवेतू' भनिन। २५ ४२१/ Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् . अन्वयार्थः--(सायं च पायं अगणि संता) सायंकाले प्रात: प्रभावकार 'अग्नि स्पृशन्तः अग्निहोत्रादिकं कुर्वन्तः (जे) ये (हुएष सिद्धि मुदाहरन्ति) हुतेंन -हवनेन सिद्धि मोक्षमृदाहरंति, कथयन्ति तेऽपि मृषाशदिन एवं यतः (एवं सिका सिद्धि) एवं हुतेन यदि सिद्धि मोक्षः स्यात् भवेत् । तदा (अगणि फुसंताप कुकम्मिणंपि हवेज्ज) अग्नि रपृशतां कुकर्मिणाम् अङ्गारदाहककुंभकारादीनामपि सिद्धिर्भवेदिति ॥१८॥. - . .. टीका-'जे' ये 'पुरुषाः 'हुएण' 'हमनेन 'अग्निहोत्री जुहुयात्स्वर्गकाम: एताहशविधिवाक्यमनुरुध्य, ' अग्गों - हवनीयतादीनां प्रक्षेपात्मकयागारण 'सिद्धिमुदाहरति सिद्धि प्रतिपादयन्ति । यद्यपि-अग्निहोत्रं जुहुयात् इति विधिकुकर्मिणामपि भवेत्' अग्नि का स्पर्श करनेवाले कुर्मियों को भी मोक्ष मिलजाय अर्थात् कुंभकार आदि को भी मोक्ष प्राप्तिहोजाय ॥१८॥ . अन्वधार्थ- सायंकाल और प्रातः काल अग्नि का रपर्श करने वाले अर्थात् होम आदि करने वाले जो लोग होल से लिद्धि मानते हैं, वे भी मृषाभाषी हैं। क्यों कि इस प्रकार से यदि सिद्धि हो तो अग्नि का स्पर्श करने वाले कुकर्मियों को भी सिद्धि प्राप्त हो जाएगी॥१८॥ ____टोकार्थ--कोई कोई लोग 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम:' अर्थात् स्वर्ग का अभिलाषी अग्निहोत्र करे इस प्रकार के विधियों की प्रेरणा से, हवन के छारा अर्थात् हवन करने योग्य घी आदि को अग्नि में प्रक्षेप करने रूप यज्ञ के द्वारा सिद्धि प्राप्त होना कहते हैं । 'यद्यपि अग्निવાળા કુકમિયોને પણ મોક્ષ મળી જાત અર્થાત્ કુંભાર વિગેરેને પણ મોક્ષની પ્રાપ્તિ થઈ જાય છે ૧૮ સૂત્રાર્થ-જે લેકે એવું કહે છે કે સાયંકાળે અને પ્રાતઃકાળે અનિને સ્પર્શ કરવાથી એટલે કે હોમ હવન કરવાથી મોક્ષ મળે છે, તે લેકે પડ્યું મૃષાભાષી છે, કારણ કે આ પ્રકારે જે મોક્ષ મળતો હોય, તે અગ્નિને સ્પર્શ કરનારા કુકમ ઓને (પાપીઓને પણ મોક્ષ મળતો હવે જોઈએ. ઢા टी -'अग्निहोत्र जुहुयात् स्वर्गकामः' २५ प्राप्त ४२०' पत। અગ્નિહોત્ર કરે આ પ્રકારના વિધિ વાક્યથી પ્રેરિત થઈને કેટલાક લોકો હેમ હવન દ્વારા એટલે કે અગ્નિમાં આહુતિ આપતા રેગ્યધી આદિ પદા Èને અગ્નિમાં હેમીને અથવા તે પદાર્થોને એનિમાં હોમવા રૂપ યજ્ઞ દ્વારા 'निनु यरन, ४२वाथी सिद्वात- थाय छे. मे माने. Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्रकृताङ्गसूत्रे अग्निहोत्राख्यकर्मणा स्वर्गप्राप्तिमेव वदन्ति न तु मोक्षम् । यतो हि कोषस्य तन्मतेऽविधेयत्वात् तस्य कर्मजन्यत्वाऽभावाद, । तथापि निष्कामतया नियमाणमग्निहोत्रादिकं मोक्षं प्रयोजयतीति मीमांसकमतमाश्रित्य प्रतिपादितमिनि कोऽपि विरोधः । किं कुर्वन्त एवमुदाहरन्ति तत्राह - सायंचेत्यादि, सायंकाले 'पाय' मातः मातःकाले 'अगणि' अग्निम् 'फुसंता' स्पृशन्तः, सायं प्रातर्विधिवत् संस्कृताग्नौ हवनीयद्रव्याहुतेः प्रक्षेपं कुर्वन्तः ' एवं ' एवं तर्हि "सिद्धि' सिद्धि मोक्ष: 'सिया' स्यात् भवेच्चेत् यदि संस्कृते समिद्ध तमेऽग्नौ हविःप्रक्षेपान्मुक्तिर्मिळेद तदा 'अगणि' अग्निम् 'फुसंताणं' स्पृशताम् 'कुकम्मिर्णपि' 'हो' जुहुयात् स्वर्गकामा' यह वाक्य अग्निहोत्र कर्म से स्वर्ग की प्राप्ति ही प्रतिपादित करता है, मोक्षप्राप्ति का विधान नहीं करता, क्योंकि 'उनके मत में मोक्ष विधेय नहीं है। वह कर्मजन्य नहीं है। तथापि निष्काम भाव से किया जाने वाला अग्निहोत्र आदि कर्म मोक्ष का प्रयोजक होता है, ऐसा मीसांसकों का मत है । इस मत को लक्ष्य 'करके यहाँ प्रतिपादन किया गया है। अतएव कोई विरोध कहीं ' समझना चाहिए । क्या करते हुए वे ऐसा कहते हैं ? इसका उत्तर यह है कि सायंकाल और प्रातः काल अग्नि का स्पर्श करते हुए । सायंकाल प्रातः 'कालीन विधि से संस्कृत अग्नि में द्रव्य की आहुति का प्रक्षेप 'करते हुए वे ऐसा कहते हैं । किन्तु ऐसा करने से यदि मुक्ति मिलती ॐ वि · L 'अग्निहोत्र' जुहुयात् स्वर्गकामः ' भा वाहय द्वारा मेवु प्रतिपादन १२. વામાં આવ્યુ છે કે અગ્નિહેાત્ર કમ દ્વારા સ્વર્ગની પ્રાપ્તિ થાય છે. મેાક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે, એવું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું નથી, કારણ કે તેમના 'મતમાં મેક્ષ વિધેય નથી. તે કજન્ય નથી, છતાં પણ મીમાંસકેાના એવે મત છે કે નિષ્કામભાવે કરવામાં આવતુ. અગ્નિહેાત્ર આદિ ક “માક્ષનુ પ્રચાજન હાય છે. તે મતને અનુલક્ષીને અહીં ઉપર મુજબ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યુ છે. તેથી હામ હેવન આદિ દ્વારા મેાક્ષની પ્રાપ્તિ थाय है," मेवे 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्ग' कामः ' मा सूत्रने अर्थ १२वामां * विरोध समन्वो हमे नहीं. }શું કરતાં કરતાં તેએ એવું કહે છે ? આ પ્રશ્નને ઉત્તર આ પ્રમાણેં - એ-પ્રાતઃકાળે અને સાયંકાળે અગ્નિના સ્પર્શ કરતાં તેએ એવું કહે છે એટલે કે પ્રાતઃકાળે અને સાયકાળે સંસ્કૃત અગ્નિમાં ઘી, જવ આદિની Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिमयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उं.१ कुशीलवतो दोषनिरूपणम् कर्मिणामपि अंगारदाहककुंभकारलौहकारादीनामपि - सिद्धिं भवेत् । अयं भावा-यदि- अग्निसंस्पर्शनादेव मोक्षः सिध्यति, तदा-गारदाइकुशल कुंभकारा. उपस्करादीनामपि अनायासेन मोक्षः सिद्धयेत् । न च ते न संस्कृतेऽग्नौ प्रक्षिप्ता ऽऽहुतिः, अवस्तेषान्नमुक्तिः। संस्कृते एवाऽग्नौ जुहुयादिति मदीयशास्त्रमर्यादा, इति वाच्यम् । यथा याजका अग्नौ हवनीयं द्रव्य प्रक्षिप्य भस्मसान्नयंति, तेऽपि कुंमकारादयस्तथैवाचरन्तीति ततो (याजकात्) द्वयोर्विशेषाऽभावः। कुम्भकासयस्कारादीनां वैदिकानां च समानत्वात् । यदप्युच्यते 'अग्निमुखा वै देवाः' इत्यहो तो अग्नि का स्पर्श करने वाले, अंगारदाहक कुंभकार, लोहकार आदि कुकर्मियों को भी सिद्धि मिल जानी चाहिए। ' अभिप्राय यह है-अग्नि के स्पर्श मात्र से मोक्ष प्राप्त हो जाता है तो अंगार जलाने वाले कुंभारों आदि को भी अनायास ही मोक्ष प्राप्त हो जाना चाहिए। शंका-कुंभार लुहार आदि संस्कृत अग्नि में आहुति प्रक्षेप नहीं करते, अतएव उन्हें मुक्ति नहीं मिलती । हमारे शास्त्र की मर्यादा यह है कि संस्कृत अग्नि में ही होम किया जाय । : समाधान--जैले यज्ञकर्ता अग्नि में होमने योग्य घृतादि द्रव्य का प्रक्षेप करके उसे भस्म करदेते हैं, उसी प्रकार कुंभार आदि भी करते हैं। अतएव यज्ञकर्ता और कुंभार आदि में कोई विशेषता नहीं है। આહતિ આપીને અગ્નિ હિત્ર કર્મ કરવાથી મોક્ષ મળે છે. પરંતુ જે એવું કરવાથી મોક્ષ મળતું હોય, તે અગ્નિને સ્પર્શ કરનારા અંગાર દાહક કુંભાર, લુહાર આદિ કુકમીએાને પણ સિદ્ધિની પ્રાપ્તિ થઈ જવી જોઈએ. ': તાત્પર્ય એ છે કે અગ્નિને સ્પર્શ કરવા માત્રથી જ જે મોક્ષ મળી - જતો હોય, તે અગ્નિ સળગાવનારા કુભાર, આદિને પણ અનાયાસે જ મોક્ષ પ્રાપ્ત થઈ જ જોઈએ. ” શંકા-કુંભાર, લુહાર અદિ સંસ્કૃત અગ્નિમાં આહુતિ આપતા નથી, તેથી તેમને મુક્તિ મળતી નથી અમારા શાસ્ત્રની એવી મર્યાદા છે કે સંસ્કૃત मनमा ४ हम शव नय. 1 - સમાધાન જેવી રીતે યજ્ઞકર્તા અગ્નિમાં હેમવા ચોગ્ય ઘી આદિ દ્રને પ્રક્ષેપ કરીને તેમને ભસ્મ કરી નાખે છે, એ જ પ્રમાણે કુંભાર , આદિ પણ કરે છે. તેથી યજ્ઞકર્તા અને કુંભાર આદિમાં કોઈ વિશેષતા નથી, Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ सूत्रकृतान 1 घृतादीनां प्रक्षेपे देवास्तुष्यन्ति तदपि न युक्तम्, यदि देवानां मुखमि स्तदा यथा तत्र प्रक्षिप्तान् घृतादीन् देवा भक्षयन्ति, भक्षयिष्यन्त्येवाऽशुचिपदार्थानपि मुखे अग्नौ प्रक्षि-तान्। ततो मन्ये कुपिताः भवेयुः । किंचाऽसंख्याता देवाः बहूनां मुखैकेन भोजनं न सम्भाव्यते, इत्यं क्वाप्यत्वात् । कथमेकेनमुखेन पदार्थान् भुजेरन्निति । तस्माद्याज्ञिकानां मलापोऽयम् यदनौ - प्रक्षेपान्मुक्तिरिति ॥ १८॥ . C जैसे वैदिक 'अग्निकर्म करते हैं, उसी प्रकार वे भी करते -दोनों में समानता है । 'अग्निमुखा वै देवाः' अर्थात् देवों का मुख अग्नि है, इस कथन के अनुसार अग्नि में घृत आदि का प्रक्षेप करने से देवों की तुष्टि होती है, यह कथन भी युक्तियुक्त नहीं है। यदि देवों का मुख अग्नि है तो अग्नि में प्रति किये हुए घृत आदि का देव भक्षण करते हैं, उसी प्रकार अग्नि में प्रक्षिप्त अशुचि पदार्थों का भी वे भक्षण करेंगे ! ऐसा करने से वे कुपित भी हो जाएँगे ! इसके अतिरिक्त देव असंख्यात हैं। बहुतेरे देवता एक ही मुख से भोजन करें, यह संभव नहीं है। ऐसा कहीं देखा भी नहीं जाना । आखिर एक ही सुख से अनेक देव किस प्रकार पदार्थों को खाएँगे ? अतएव अग्नि में प्रक्षेप करने से मुक्ति होती है, यह याज्ञिकों (मीमांसकों) का प्रलाप मात्र ही है ॥ १८ ॥ જેવી રીતે વૈદિક ધર્મને માનનારા લેક અગ્નિકમ કરે છે. એજ પ્રમાણે तेथेो (लार आदि) या रे छे. तेथी मन्नेमां समानता, छे, 「 'अग्निमुखा वै देवाः ' - भेटते है, 'हेवानुं भुख अग्नि छे,' या उथन અનુસાર અગ્નિમાં ઘી આદિની આહુતિ આપવાથી, દેવાની તુષ્ટિ થાય છે (हेवेो तृप्न थवाथी रीजे है), मा उथन पायु, युक्तियुक्त सागतुं नथी. ले દેવોનું મુખ અગ્નિ હાય, તે જેવી રીતે અગ્નિમાં નાખવામાં આવેલ શ્રી આદિનું દેવે ભક્ષણ કરે છે, એજ પ્રમાણે અગ્નિમાં હામવામાં આવેલ અશુચિ (अशुद्ध) पार्थोनु य] तेथे लक्षणु उरता इथे ! येवु श्वाथी तेथे पायમાન પણ થતા હશે ! વળી દેવો તે અસ`ખ્યાત છે. તે અસખ્યાત દેવો એક જ સુખ વડે ભેાજન કરતા હાય, એવુ સ ́ભવી શકે નહી. એવુ કયાંય જોવામાં આવ્યુ' નથી. એક જ મેાઢા વડે અનેક દેવો કેવી રીતે પદાર્થોને ખાતા હશે? તેથી એવું માનવુ' પડશે કે ‘અગ્નિમાં ઘી આદિની આહુતિ આપવાથી મેાક્ષ भजे छे,' भेत्री याज्ञिसेनी (भीमांसानी ) मान्यता मेरी नथी या मिथ्या મલાપ રૂપ જ છે. ગાથા દ્વા Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समायबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.७ उ.१ कुशीलवतां दोपनिरूपणम् ६०७ ।, पार्थक्येन कुशीलानां मतान्युक्तानि, अतः परं सामान्येन तेषामपररीत्या निराकर्तुमाह-'अपरिक्ख' इत्यादि । मूलम्-अपरिक्ख दिटुं गेहु सिद्धी एहिंति ते घायमधुंजमाणा।' एहिं जाणं पंडिलेह सातं विजं गहाय तसथावरहि।१९। छाया--अपरीक्ष्य दृष्ट नैवं सिद्धि रेष्यन्ति ते घातमबुद्धयमानाः। - भूतै र्जानीहि प्रत्युपेक्ष्य सातं विद्यां गृहीत्वा प्रसस्थायरैः ॥१९॥ पृथक पृथक् रूप से कुशीलों के मत का दिग्दर्शन कराया गया। इसके बाद दूसरे प्रकार से सामान्य रूप से उनका निराकरण करते हैं-'अपरिक्ख' इत्यादि। .. शब्दार्थ-'अपरिक्ख दिट्ट-अपरीक्ष्य दृष्टम्' जलावगाहन और अग्नि होत्र आदिसे सिद्धि मानने वाले लोगों ने विना परीक्षा ही इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया है 'णहु सिद्धी-न एवं सिद्धिः' इस प्रकारसे सिद्धि नहीं मिलती है 'अवुज्झमाणा ते घायं एहिति-अवुद्धचमाना ते घातमेष्यन्ति' यथार्थ वस्तुतस्वको न समझने वाले वे लोग संसार को 'प्राप्त करेंगे 'विज्ज गहाय-विद्यां गृहीत्वा' ज्ञानको ग्रहण करके 'पडिलेह-प्रत्यूपेक्ष्य' और विचार करके 'तसथावरेहिं भूएहि-त्रसस्थावर भृतः'. घस और स्थावर प्राणियों में सात-सात' सुख की इच्छा जाणं-जानीहि जानो ॥१९॥ "- * અલગ અલગ રૂપે કુશીલધમઓના મતનું નિરૂપણ કરીને તેનું ખંડન કરવામાં આવ્યું. હવે સામાન્ય રૂપે તેમના મતનું નિરાકરણ (ખંડન) : ४२वामा मावे -'अपरिक्ख' त्याह हा अपरिवन विट्र-अपरीक्ष्य 'दृष्टम्' ivarans भने मनહત્ર વિગેરેથી સિદ્ધિ માનવાવાળા લોકોએ વિના-વિચાર્યું જ આ સિદ્ધોત્તમ वी२ यो छ. 'गहु सिद्धी-ण एवं सिद्धिा मा शत AA प्राप्त बता नथी. 'अबुझमाणा ते घायं एहिति-अबुध्यमानाः ते घातमेष्यन्ति यथार्थ वरत. तत्पनन सभा मेवा समारने प्रांत ४२. विज गहाय-विद्यां गृहीत्वा' ज्ञानने हय धरीने 'पडिलेह-प्रत्युप्रेक्ष्य' 'मन वियार ४सने से'थावरेहिं भूएहि-त्रसस्थावरैः भूतै.' स भने स्थापन प्राणियोमा 'सात-सात' सुभनी छ। 'जाण-जानीहि' mQl. All १६॥ . . Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सूत्रकृता अन्वयार्थ : - - (अपरिक्ख दिट्ठ) अपरोक्ष्य युक्तिविफलं धटमेतत् (हु सिद्धी) नहि जलावगाहनेन ग्निहोत्रेण च सिद्धि मोक्षो भवति (अनुज्झमाणा ते घायं एहिति) अबुद्धयमाना वस्तुतत्त्वमजानन्तः ते वादिनः घातं संसारमेष्यन्ति प्राप्स्यन्वि (विज्जं गहाय) विद्यां गृहीत्वा ज्ञानमासाद्य ( पडिलेहा) प्रत्युपेक्ष्य विचार्य्य (वसथावरेहिं भूएडिं) त्रसस्थावरैः भूतैः प्राणिभिः सस्थावरेषु माणिपु ( साउँ ) सातं सुखं (जाण) जानीहीति ॥१९॥ ६०८ टीका -- 'अपरिक्ख दिहूं' अपरीक्ष्य दृष्टम् जलाऽवगाहनाऽग्निहोत्रादिभ्यो मोक्षो भवतीति मन्यमानाः तादृशमापकं शास्त्र परीक्ष्यैत्र स्वीकृतवन्तः । 'गहु' नैव-सिद्धि र्मोक्षः, पूर्वोक्तमकारेण जलावगाहनादिना कथमपि संभवेन् । पूर्वोक्तकर्मणां हिंसा बाहुल्यात् । 'अबुज्झमाणाते' अबुद्ध्यमानाः पराथमबुद्धयमानाः माग़िवधादिना जायमानं पापमेव धर्मबुद्धया कुर्वस्ते - वादिनः । 'घाय' घातम् - घाटय अन्वयार्थ - जल में अवगाहन कहने से मोक्ष होता है, इत्यादि पूर्वोक्त मन्तव्य विना परीक्षा किये ही स्वीकार किया गया है। वस्तुतत्त्व को न जानते हुए वे वादी घात को अर्थात् संसार को प्राप्त करेंगे । सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करके और भलीभाँति विचार करके यह समझो कि स और स्थावर प्राणियों में भी सुख की अभिलाषा होती है ॥ १९ ॥ टीकार्थ--जल में अवगाहन करने से या अग्निहोत्र करने से सिद्धि प्राप्त होती है, ऐसा मानने वालों ने इस प्रकार की प्ररूपणा करने वाले शास्त्र को परीक्षा किये विना ही स्वीकार किया है। ऐसा करने से सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती, क्यों कि ये जलागाहन आदि कर्म हिंसा સૂત્રા‘જલસ્તાન, હામ હવન આદિ કરવાથી મેક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે,’ આ પ્રકારના મન્તવ્યના કેટલાક લેાકેા પૂરી- કસેાટી કર્યાં- વિના સ્વીકાર કરે છે, વસ્તુતત્ત્વના ખરા સ્વરૂપને નહી સમજનારા તે પરમતવાદીએ સંસારમાં પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. સમ્યજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ કરીને અને સૂક્ષ્મ વિચાર કરીને, मेवात, अशभर' सुभल, बेवी लेछो हे त्रस भने स्थावर लोभ, पशु સુખની અભિલાષા હોય છે. ૧૯લા ટીકા જલમાં અવગાહન કરવાથી (ની આદિના પાણીમાં સ્નાંન કરવાથી) અથવા અગ્નિહોત્ર કમ કરવાથી સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે, એવી માન્યતા ધરાવનારા લોકોએ આ પ્રકારની પ્રરૂપણા કરનારાં શાઓની પરીક્ષા કર્યા વિના જ આ માન્યતાઓને સ્વીકાર કર્યાં હોય છે. પરન્તુ એવું કરવાથી સિદ્ધિની પ્રાપ્તિ થતી નથી, કારણ કે -જળસ્નાન આદિ કાર્યોં દ્વારા જીવોની હિંસા Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थचोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् र न्ते विनाश्यन्ते जीवा अस्मिन्निति घातः संसार चातुर्गतिका, तादृशे संपारम् । ते 'एहिति' एष्यन्ति प्राप्स्यन्ति । अप्कायतेजस्कायजीवानामुपमर्दैन तेषों जीवानां. विनाशोऽश्यंभावी । विनाशेन तेषां वधिकादीनां संसार एव स्यात् सिद्धिस्तु कथामपि न भविष्यतीत्यभिप्रायः। यस्मादेवं तस्मात् 'विज विद्यां ज्ञानं सदसद्वि-. चाररूपं 'पढमं नाण' इतिवचनात् 'गहाय' गृहीत्वा 'तसथावरेहि त्रसस्थावरभूतैः कथमिदानी मुखं प्राप्यते इति 'पडिलेह' प्रत्युपेक्ष्य 'जाण' जानीहि अवबुद्धयस्व । सर्वेऽपि प्राणिनः सुखमिच्छन्ति द्विषन्ति च दुःखम्, ततः केन प्रकारेण तेषां जीवानां सुखार्थिनां दुःखोत्पाद केन कर्मणा सुखोत्पत्तिः१ न स्यात्कथमपि सुखम् , की बहुलता वाले हैं। जो परमार्थ को नहीं जानते और धर्मबुद्धि से प्राणातिपात भादि पापों का आचरण करते हैं, वे बाल को प्राप्त होते हैं । जिसमें प्रागीधात को प्राप्त होते हैं, ऐसा चतुर्गतिक संसार 'घात' कहलाता है। वे उसी को प्राप्त होते हैं। अपकाय और तेजस्क्राय के जीवों के उपलदन से उनका विनाश होता है और जीवधिनाश से विनाशों को संसार भवभ्रमण ही होता है सिद्धि किसी भी प्रकार प्राप्त नहीं हो सकती अतएव विद्वान् पुरुष इस बातका विचार करे कि त्रस और स्थावर जीव किस प्रकार सुख प्राप्त कर सकते हैं.१ ऐसा विचार करके जाने कि सभी जीव सुख की इच्छा करते है और दुःख से द्वष करते हैं। क्यों कि दुःख अप्रिय है फिर दुःख जनक कार्य से उनको सुख की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है? થાય છે. જેઓ પરમાર્થને (વસ્તુતત્ત્વને જાણતા નથી અને ધર્મબુદ્ધિથી , * પ્રાણાતિપાત આદિ પાપકર્મો કરે છે, તેઓ ઘાતને પ્રાપ્ત કરે છે, એટલે કે સંસારમાં પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. જેમાં પ્રાણી ઘાતને પ્રાપ્ત કરે છે, એવા ચતુતિક સંસારને ધાત” કહેવાય છે. અમુકાય અને તેજસકાયના જીવોના ઉપમર્દનથી તેમને વિનાશ થાય છે, અને જીવોને વિનાશ કરનારને (વિનેશકને સંસારમાં ભવભ્રમણ જ કરવું પડે છે, જીવહિંસા કરનારને સિદ્ધિ કિઈ પણ પ્રકારે પ્રાપ્ત થતી નથી. તેથી વિદ્વાન પુરુષે એ વાતનો વિચાર ‘કર જોઈએ કે ત્રસ અને સ્થાવર જ કયા પ્રકારે સુખ પ્રાપ્ત કરી શકે છે. બુદ્ધિશાળી પુરુએ એ વાત સમજવી જોઈએ કે સઘળા છે સુખની ઇચ્છા રાખે છે, કેઈને દુખ ગમતું નથી. દુઃખ પ્રત્યે તેઓ શ્રેષભાવની * દષ્ટિએ દેખે છે. જે તેમને દુઃખ અપ્રિય હોય તે તેમને ખૂની ઉત્પન્ન - शाय स य ४२साथी सुमनी प्रासि वी शत. थ श? तापय छ हो सकती है? सू० ७७ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ये अग्निहोत्रेण जलावगाहनेन वा मुक्ति प्रतिपादयन्ति न ते परिपश्यन्ति, तुपभिति सिद्धिः कर्मभिः अत इमे बुद्धिविकलाः सकलाः संसारमेवाsari प्रायन्त्येभिः क्रियाकलापैः । अतो ज्ञानमवाप्य तस्थावरभूतेष्वपि सुखाकांक्षित्वं विचार्य नैतेषामुपमर्दनाय कदापि प्रयत्नो विधेय इति भावः ॥१९॥ ये पुनः कुशीला अशीलाच प्राणिनां हिंसया सुखमिच्छन्ति ते संसारे वक्ष्यमाणप्रकारेण दुःखमेवानुभवन्तीति दर्शयति सूत्रकारः - 'थर्णति' इत्यादि । मूलम्-थति लुप्पति तस्संति कम्मी पुढो जगा परिसंखाय भिक्खू | तम्हा विऊ विरंतो आयगुत्ते दंद्रटुं तैसे या पडिसंह रेज्जा ॥२०॥ छाया -- स्वनंति लुप्यन्ते सन्ति कर्मिणः पृथक् जगाः परिसंख्याय भिक्षुः । तस्माद्विद्वान् विरत आत्मगुप्तो दृष्ट्रा सांथ प्रतिसंहरेत् ||२०|| ! आशय यह है कि जो अग्निहोत्र या जल में स्नान करने से मोक्ष मानते हैं, वे नहीं जानते कि इन कार्यों से मुक्ति नहीं मिलती अतएव ये सब बाल जन अपने कार्यों से असार संसार को ही प्राप्त करेगें । अतएव ज्ञान प्राप्त करके और नस एवं स्थावर जीवों में भी सुख की अभिलाषा है, ऐसा विचार करके उनके उपमर्दन (विराधना ) की कभी प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए || १९ ॥ जो कुशील या अशील पुरुष प्राणियों की हिंसा करके सुख की इच्छा करते हैं, वे आगे कहे अनुसार संसार में दुःख काही अनुभव કે અગ્નિહેાત્ર કમ અથવા જળસ્નાન કરવાથી મેાક્ષ મળે છે, એવુ માનનારા 1. અજ્ઞાની લોકો એ વાત જાણતા નથી કે તે કાર્ચ વડે, મુક્તિ મળતી નથી. તેથી તે સઘળા ખાલ જના (અજ્ઞાન લોકે) પેાતાનાં જ પાપકર્મીને પિરણામે આ અસાર સૉંસારમાં જ ભ્રમણ કર્યા કરશે. . તેથી જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરીને અને ત્રસ અને સ્થાવર જીવાને પણ સુખ વહાલુ' છે, એને વિચાર કરીને તેમની વિરાધના થય એવી પ્રવૃત્તિ કરવી જોઈએ નહીં. પ્રગાથા ૧૯મા ;; જે કુશીલ અથવા અશીલ પુરુષ પ્રાણીઓની હિંસા કરીને સુખની ઈચ્છા કરે છે, તેએ, હવે પછીના સૂત્રમાં બતાવ્યા પ્રમાણે સંસારમાં દુઃખના Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. . अ.७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६१ . अन्वयार्थ:--(कम्मी जगा) कर्मिणः सपापाः जन्तवः (पुढो) पृथक् पृथक (यणति) स्तनंति रुदन्ति (लुप्पंति) लुप्यन्ते खगादिना छिद्यन्ते (तसंति) व्यस्य:न्ति-भयत्रस्ताः पलायन्ते (तम्हा) तस्मात कारणात (विजमिक्ख) विद्वान्: भिक्षुः (विरतो) विरत: पापानुष्ठानात् (धायगुत्ते) आत्मगुप्त:-मनोवाकायन गुप्तः (तसे य दळु) प्रसान् स्थावरांश्च दृष्ट्वा परिज्ञाय (पडिसंदरेजा) माणिविरार धनातो निवृत्तो भवेदिति ॥२०॥ करते हैं, यह दिखलाते हुए सूत्रकार कहते हैं-'धणंति' इत्यादि। · 'शब्दार्थ-'कम्मी जगा-फार्मिणः जन्तवः' पाप कर्म करनेवाले प्राणी 'पुढो-पृथकू' अलग अलग थणंति-रतनंति' रोदन करते हैं 'लुप्पंति-लुप्यन्ते' तलवार आदि के द्वारा छेदन किये जाते हैं 'तसंति-- ज्यस्यन्ति' डरते हैं 'तम्हा-तस्मात्' इसलिये 'विउ भिक्खू-विद्वान् भिक्षु' विद्वान् मुनि 'विरतो-विरत: पाप ले निवृत्त 'आयगुत्ते-आत्मगुप्त:' तथा आत्मा की रक्षा करने वाला बने 'तसे य दटूटु-त्रासांश्च दृष्ट्वा' त्रस और स्थावर प्राणी को देख कर 'पडिसंहरेज्जा-प्रतिसंहरेत्' उनके घातकी क्रिया से निवृत्त हो जाय ॥२०॥ ' अन्वयार्थ--पापी प्राणी रुदन करते हैं, छेदे जाते हैं, त्रास पाते हैं, इस कारण विद्वान्, पाप से विरत एवं आत्मगुप्त पुरुष प्रस और स्थावर जीवों को जानकर जीहिंसा से निवृत्त हो जाय ॥२०॥ જ અનુભવ કરે છે. એ વાત બતાવવાને માટે સૂત્રકાર કહે છે કે'थणंत्ति' छत्याह शार्थ -'कम्मी जगा-कर्मिणः जन्तव.' ५५ ४ ४२44 पाषीया 'पुढो-पृथक् हा हा 'थणंति-स्त नन्ति' ३४न ४२ छे. 'लु'पंति-लुप्यन्ते' तपार विगैरे द्वारा छेहन ४२राय छे. 'तसंति-व्यस्यन्ति त्रास पामे छे. 'तम्हा-तस्मात' तथा 'विउ भिक्खू-विद्वान् भिक्षु' विद्वान् मुनि 'विरतो-विरता' पाथी निवृत्त र 'आयगुत्ते-आत्मगुप्तः' तथा यात्मानी २क्षा ४२वावामा भने 'तसेय दछु-सांश्च-दृष्ट्वा' स भने स्था५२ प्राणान ने 'पडिसंहरिज-पडिसंहरेत्' माना घातना जियाथी निवृत्त थ य. ॥ २०॥ सूत्राथ-पायी प्राणीमात २४न ४२ ५.छ, तमनु न राय है, તેમને ત્રાસ સહન કરવો પડે છે, તે કારણે વિદ્વાન પુરુષે પાપમાંથી નિવૃત્ત થવું, અને આત્મગુપ્ત પુરુષ વસ અને સ્થાવર જીવોને જાણીને જીવંહિ, . सामा प्रवृत्त न थाय अर्थात् पहिसाना त्याग ४२, २० : Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ shai セ टीका- 'कम्मी जगा' कर्मिणो जन्तवः = कर्माणि सन्ति येषां ते कर्मिणः जन्तवः 'पुढो' पृथक् पृथक् पुरुषाधमाः अग्निकार्यं विराध्य समस्तपजीवनिकायविरोधका अग्निहोत्रादिभिः सुखमिच्छन्ति, किन्तु पड्जीवनिकायविराधका नरकसेोपयांत, ते नरकादिगति माप्य तत्र नरकपालैस्तीत्रवेदनया परिपीयन्ते । ततोऽसा वेदनया संतप्यमानाः 'थणंति' स्वनन्ति, अशरणास्ते करुणमाक्रन्दन्ति । तथा तत्र नरकपालैः शस्त्रादिना 'लुप्यंति' लुप्यन्ते - तीक्ष्णखङ्गादिभिछिद्यन्ते, छेदनादिभिः कदर्थ्यमानास्ते 'तस्संति' त्रस्यन्ते - पलायन्ते तादृशकदयेनाव्यापारं दृष्ट्वा 'तम्हा' तस्मात्कारणात् 'विऊ भिक्खू' विद्वान् ज्ञानवान् भिक्षुः साधुः, 'परिसंखाय' परिसंख्याय = ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा अग्न्यारंभं दुर्गतिदाकमिति ज्ञात्वा मत्याख्यानपरिज्ञया परित्यज्य 'विरतो' विरतः - पापानुष्ठानात् टीकार्थ--सकर्मा अर्थात् पापी अधम पुरुष अग्निकाय की विराधना करके छहों कार्यों के विराधक होते हैं । वे अग्निहोत्र आदि से सुख की इच्छा करते हैं किन्तु षट्काय की विराधना से नरक को ही प्राप्त होते हैं और वहाँ परमधार्मिकों द्वारा तीव्र वेदनाएँ देने से पीड़ित होते हैं । वहाँ असह्य वेदनाओं से संतप्त होते हुए रुदन करते हैंअशरण होकर करुण क्रन्दन करते हैं । तथा परमाधार्मिकों के द्वारा तीक्ष्ण खङ्म आदि शस्त्रों से छेदे जाते हैं और छेदे जाने से पीड़ित होकर इधर उधर भागते हैं । अतएव निर्दोष भिक्षा ग्रहण करने वाला साधु ज्ञपरिज्ञा से अग्निकाय के आरंभ को दुर्गतिदायक जानकर - प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग करे । संम्यग्ज्ञानवान्, पाप के अनुष्ठान से ટીકા સકમાં પુરુષ અર્થાત્ પાપી અધમ પુરુષ અગ્નિકાય જીવાની વિરાધના કરવામાં પ્રવૃત્ત થઈને છએ નિકાયના જીવાની વિરાધના કરે છે. તે અગ્નિહેાત્ર ક કરીને સુખની ઈચ્છા રાખે છે, પરન્તુ છકાયના જીવાની વિરાધના કરવાને કારણે તેમને નરકગતિમાં જ નારક રૂપે ઉત્પન્ન થવું પડે છે. ત્યાં પરમાધામિક અસુરો તેમને ખ જ યાતનાઓ પહોંચાડે છે. ત્યાં અસહ્ય વેદાનાએથી ત્રાસી જઇને તેએ રુદન કરે છે—અશરણુ દશાના અનુભવ કરતા થકા કરુણાજનક ચિત્કારા અને આકદ કરે છે. પરમાધાર્મિક તીક્ષ્ણ ખડૂળ આદિ શો દ્વારા તેમનું છેદન કરે છે. આ પીડાથી ત્રાસી જઈને તેઓ આમ તેમ નાસ ભાગ કરે છે, પરન્તુ નરના દુ:ખામાંથી તેએ છુટઝરા પામી શકતા નથી. પ્રાણીઓની હિંસાના આ દુઃખપ્રદ ફળને જાણીને, મિષિ શિક્ષા ગ્રહણ કરનાર સાધુએ રિજ્ઞા વડે અગ્નિકાયના આરભને ફુગતિદાયક જાણીને, પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી તેના ત્યાગ કરવા જોઈ એ 1 添い 〃 Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ afrat टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६१* 'आयगुत्ते' आत्मगुप्तः-अशुभाऽनुष्ठानात् = गुप्तो रक्षित आत्मा येन स आत्मगुप्ता, मनोवाक्कायैर्गुः । ' तसे या' सांथ च शब्दात् स्थावरांव 'दट्ठ' दृष्ट्वा परिज्ञाय पघातकारिणों कि 'पडिसंह रेज्जा' प्रतिमंहरेत् = परित्यजेदित्यर्थः ||२०|| इतः परं स्वयूथिकान कुशलानु देश्य कथयति सूत्रकारः - 'जे धम्म ' इत्यादि । मूलम् - जे धम्मलद्धं विणिंहाय भुंजे वियैडेण साहहु य जे सिणाई । जे धोवई सयईव वेत्थं अह से गांगणिस्स दूरे ॥ २१ ॥ छाया -- यो धर्मषं विनिधाय भुङ्गे विकटेन संहृत्य च यः स्नाति । यो धावति चयति च दस्त्रमयाहुः स नाग्न्यस्य दूरम् ||२१|| विरत, मन वचन काय से अपनी आत्मा को अशुभ अनुष्ठान से गोपन करने वाला त्रस और स्थावर जीवों को जान कर उनका उपघात करने वाली क्रिया का त्याग करें ||२०|| इसके पश्चात् स्वयूधिक कुशीलों को लक्ष्य करके सूत्रकार कहते - 'जे धम्म' इत्यादि । शब्दार्थ - 'जे - घः' जो साधुनामधारी 'धम्मलद्वं धर्मम्' धर्मसे मिला हुआ अर्थात उद्देशक, क्रीत आदि दोपों से रहित आहारका 'विणिहाय-विनिधाय' छोडकर 'भुंजे-भुंक्ते' उत्तम प्रकार का भोजन करता है तथा 'जे-य:' जो साधु 'वियडेण - विकटेन' अचिन्त जलसे भी सभ्यग्ज्ञानथी युक्त, थापना अनुष्ठानोथी विरत (निवृत्त), भने भन, वयन અને કાયાથી પેાતાના આત્માનુ' અશુભ અનુષ્ઠાનથી ગેપન કરનાર (આત્મ ગુપ્ત પુરુષ) ત્રસ અને સ્થાવર જીવાને જાણીને તેમના ઉપઘાત (હિ*સા) કર નારી ક્રિયાઓના ત્યાગ કરે, ા૨૦ના હવે સૂત્રકાર સ્વયૂથિક કુશીલાને અનુલક્ષીને આ પ્રમાણે ઉપદેશ આપે छे- ' जे धम्म ' त्याहि - शब्दार्थ – 'जे - ये' ? साधु नाम धारीओ 'धम्मलद्ध - धर्मलब्धम्' धर्भथी भणेसा अर्थात् उद्देश, जीत, विगेरे होषो विनाना भाडारने 'विणिहायविनिधाय' छोडीने 'भुंजे भुंक्ते' उत्तम प्रहारनुं लोभन उरे छे, तथा 'जे-ये ' ने साधु 'वियडेण - विकटेन' अत्ति थी 'साह - संहृत्य' म'गोलु Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूत्रकृतास्त्र ___ अन्वयार्थः--(जे) यः साधुः (धम्मलई) धर्मलब्धम्-दोपरहितमाहारम् (विणिहाय) विनिधाय (मुंजे) भुते (जे) य:-भिक्षुः (विय डेग) विकटेन-अचित्त जलेनापि (साहटु) संहृत्यांगान्यपि (सिणाइ) स्नाति-देशसर्वस्नानं करोति (जे) यः (धोबई) धावति-वस्त्रं पादौ वा (लूसयइ वत्थं) च पुनः वस्त्रं स्वकीयं लूपयति शोमार्थ दीर्घ वस्त्रं इस्वं करोति इस्वं वा दीर्घ करोति (आहाहु) अथाहुः तीर्थकरगणधरादय आहुः कथयन्ति (से णागणियस्स दूरे) स एतादृशव्यवहारवान् नान्यस्य निर्ग्रन्थमावस्य दूरे वर्तते इति ॥२१॥ 'लाहटु-संसृत्य' अंगो को संकोच करके भी 'सिणाइ-स्नाति' स्नानकर ता है तथा 'जे-य:' जो 'धोवई-धावति' अपने वस्त्र अथवा पैर आदि को धोता है 'लूसयई वत्थं-लूषयति च वस्त्रम्' और शोभा के लिए यडे वस्त्र को छोटा अथवा छोटे वस्त्र को वडा करता है 'अहाहु-अथाहुः' तीर्थकर तथा गणधरों ने कहा है कि 'से नागणियस्स दूरे-स नान्यस्य दुरे' वह संयम मार्ग से दूर है ॥२१॥ ____ अन्वयार्थ--जो साधु धर्मलब्ध अर्थात् निर्दोष आहार को रखकर सन्निधि करके अर्थात् संचित कर पीछेसे भोगता है, तथा जो अचित्त जल से भी स्नान करता है, वस्त्र या पैरों को धोता है, 'जो शोभा के लिए लम्बे वस्त्र को छोटा या छोटे को लम्बा करता है, यह निन्यभाव से दूर रहता है, ऐसा तीर्थकर और गणधर कहते हैं।२१॥ सायन श२ ५२ सिणाइ- स्नाति' स्नान 3रे छ. तथा 'जे-ये' या 'धोवई-धावति' चातानी पछी अथवा ५ विरेने धुसे छे. 'लूसयई वत्थलूषयति च वस्त्रे' मने माने माटे मोटा वनने नानु अथवा नाना पलने मोटु ४२ छ 'अहाहु-अथाहु' तीथ ३२ तथा मधये यु छ -'से नागणियस्स दूरे- नान्यस्य दूरे' ते सयम. भाग २ ४ छे. ॥ २१॥ સૂત્રાર્થ-જે શિથિલાચારી સાધુ એટલે કે નિર્દોષ આહારને સંગ્રહ કરીને (સંચય કરીને) ભેગવે છે, જે અચિત જળ વડે સ્નાન કરે છે, જે વસ્ત્ર અને હાથ પગ પેવે છે જે શોભાને માટે લાંબા વસ્ત્રને ટુંકુ અમે ટૂંકા વસ્ત્રને લાંબુ કરે છે, તે સાધુ નિભાવથી દૂર રહે છે, એવું તીર્થકરો અને ગણધરોનું કથન છે. ર૧ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.७ उ. १ कुशीलवतां दोपनिरूपणम् ६१५ • टीका--जे' ये केवन शीतलविहारिणः 'धम्मलद्धं' 'धर्मलयम्-धर्मेण प्राप्तम् आहारं जलं च विणिहाय' विनिधाय, व्यवस्थाप्य आधाकर्मिकोदेशिकक्रयक्रीतादि दं परहितमपि विशुद्धं लभ्यमानम् आहारादिकं संनिधि कृत्वा 'मुंजे' मुंजते । तथा 'वियडेण' विकटेन अचित्तजलेनापि 'जे' ये च भिक्षवः 'साहटु' संहत्याङ्गानि संकोच्य परिशुद्धेऽपि देशे 'सिणाई' स्नान्ति-स्नानं कुर्वन्ति तत्र देशस्नानं शोभार्थमक्षिभ्रवादिधावनं, सर्वस्नानं संपूर्ण शरीरपरिमार्जकम् तथा 'जे' यः कश्चिद 'वत्थं' वस्त्रम् 'धोवई' धावति-प्रक्षालयति कारणमन्तरेण 'लूमयतीव' लूपयति, शोभार्थ दीर्घ वस्त्रं हवं करोति, इस्वं च साधाय दीर्धीकरोति । स्वार्थ परार्थ वा-एवं वस्त्रं ल्पयति । 'से' एवंभूतः सः 'गागणियस्स' नाग्न्यस्य-निर्ग्रन्थमावस्य संयमानुष्ठानात्, 'दुरे' अतिने वर्तते इति 'अहाहु' अथ आहुस्तीर्थकरादयः। यो हि शीतलाचारी दोषरहितमप्याहारं संनिधिं कृत्वा भुङ्क्ते तथा-अचित्त टीकार्थ-जो शीतलविहारी अर्थात् शिथिलाचारी धर्म से प्राप्त आहार और जल को रखकर अर्थात् आधार्मिक, औद्देशिक, क्रयक्रीत आदि दोपों से रहित आहार की भी सनिधि अर्थात् संचित करके भोगता है, जो अचित्त जल से भी, अंगो को संकोच कर शुद्ध जगह में भी स्नान करता है अर्थात् शोभा के लिए आँख भौह आदि धोकर देशस्नान करता है और सम्पूर्ण शरीर को धोने वाला सर्वस्नान करता है, जो वस्त्र को विना कारण धोता है, जो शोभा के लिए दीर्घ वस्त्र को हस्व (छोटा) या इस्व (छोटा) वस्त्र को दीर्घ करता है, ऐसा परुष निर्ग्रन्धभाव अर्थात् संयम के अनुष्ठान से अत्यन्त दूर रहता हैं। ऐसा तीर्थकर आदि कहते हैं। . - शिथियारी साधु धर्म १५५ मा२ अने पाणी, એટલે કે આધાકર્મ, ઓશિકા, કયકીત આદિ દેથી રહિત આહાર પાણીને પણ સંગ્રહ કરીને (સંચય કરીને ભેગવે છે, જે સાધુ અચિત્ત જળ વડે પણ અંગેને સંકોચીને શુદ્ધ જગ્યામાં પણ સ્નાન કરે છે, એટલે કે શોભાને માટે આંખ, ભમર આદિ ધોઈને દેશનાન કરે છે, અને આખા શરીરને નારુ સર્વેનાન કરે છે. જે બાહ્ય વસ્ત્રને વિના કારણે દેવે છે, જે શોભાને માટે લાંબા અને કાપીને ટૂંકું કરે છે અને ટૂંકા વસ્ત્રને સાંધીને લાંબું કરે છે. એ સાધુ નિગ્રંથભાવથી એટલે કે સંયમના અનુષ્ઠાનથી અત્યન્ત દૂર २१ छे, मे तीर्थ ७,२। मने गधरे। छु छ. . Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ सूत्रकृतावधूत्रे जलेनाऽपि, अचित्तदेशेऽपि नाति । तथा यः शोभार्थ पादौ वस्त्रं वा मक्षालयति, एवं हवं वस्त्रं दीर्घीकरोति, दीर्घ न स्वयति स संगमादतिदुरे भवतीति गणधरतीर्थकराः कथयन्ति इति भावः ॥ २१ ॥ कुशीलान् तदाचाराश्च कथयित्वा एतत्प्रतिपक्षभूताः शीलवन्तः प्रतिपाद्यन्ते सूत्रकारेण 'कम्मं परिनाय' इत्यादि । मूलम्-कमं परित्राय देगंसि धीरे वियेडेण जीविजं य आदिमोक्खं । से वीयं कंदाइ अभुंजमाणे विरेंते सिणाणाइसु इत्थिंयासु २२| छाया -- कर्म परिज्ञायोदके धीरो विकटेन जीवेच्चादिमोक्षम् । * स वीजकन्दान् अभुंजानो विरतः स्नानादिषु स्त्रीषु ||२२|| आशय यह है कि जो शिथिलाचारी दोषरहित आहार की भी निधि करके भोगता है, जो अचित्त जल से भी और अंचित देश में भी स्नान करता है तथा जो शोभा बढाने के लिए लम्बे वस्त्र को छोटा और छोटे को लम्बा करता है, वह सपन से दूर रहता है । ऐसा तीर्थकर गणधरों का कथन है ||२१|| कुशीलों और उनके आचारों का कथन करके उनसे विपरीत शीलवानों (आचारवानों) का प्रतिपादन करते हैं- 'कम्मं परिन्नाय' इत्यादि । शब्दार्थ - 'धीरे - धीरः' धीर पुरुष 'दगति उदके' जलस्नान में 'कम्मं परित्राय - कर्म परिज्ञाय' कर्मबन्ध को जानकर 'आदिमोक्खं આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે જે શિથિલ ચારી સાધુ દેોષરહિત આહા રની પશુ સન્નિધિ કરીને તેના ઉપલેાગ કરે છે. જે અચિત્ત જળ વડે શરીરના અમુક ભાગાને ધાવા રૂપ દેશસ્નાન કે ખધાં ભાગાને ધાવા રૂપ પૂર્ણ સ્નાન કરે છે, જે શાભાને માટે વજ્રને કાપીને કુંકરે છે, કે સાધીને લાંબુ કરે છે, તે સંયમથી દૂર જ રહે છે, એવું તીકરા અને ગણધરોએ કહ્યું છે. માટે સયસની આરાધના કરનાર સાધુએ નિર્દોષ આહારને પણ સચય કરવે ોઇએ નહી, અચિત્ત જળ વડે પણુ સ્નાન કરવું જોઇએ નહી. તથા કપડાંને શોભા વધારવા માટે કાપવુ" કે "સાંધવુ જોઇએ નહી. ાગાથા ૨૧। કુશીલ અને તેમના આચારોતું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર તેમનાથી વિપરીત એવાં શીલવાનાના (આચારવાને) પ્રતિપાદન કરે છે– ant after” geile # - शब्दार्थ - 'धीरे - धीरः' धीर पुरुष 'दर्शसि - उदके' 'हस्तानमा 'कम्मं परिन्नाय -कर्म परिज्ञाय' ' मन्धने 'लगीने 'आदिमोक्ख' - आदिमोक्ष' संसा Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम्- ६१७ - अन्वयार्थ :--(धीरे) धीर:-साधुः (दगंसि) उदकस्नाने (कम्मं परिन्नाय) कर्म -कर्म-बन्धनं परिज्ञाय ज्ञात्वा (आदिमोक्वं) आदिमोक्षं-आदितः संसारतो मोक्ष. मोक्षपर्यन्तं (वियडेण) विकटेन-भामुकजलेन (जीविज्ज) जीवेत् जीवनं धारयेत् 'से' सः (वीयकंदाइ) वीजकन्दान् सावधान (अभुजमाणे) अभुञ्जानः- (सिणाणाइसु) स्नानादिषु- (इथियासु) स्त्रीषु (विरते) विरत:-विरतो भवेत् एभिरे वसेदिति ॥२२॥ टीका-'धीरे धीरः-धीरा स्थिरा बुद्धिर्यस्य स धीरः, धिया विवेश्वुद्धया राजते परितो भवति यः स धीरो वा बुद्धिमान् 'उदगंसि' उदके जलस्नाने आदिमोक्षं संसार से मोक्षपर्यन्त विपडेश-विकटे' प्रासुक जलके द्वारा 'जीविज्ज-जीवेत्' जीवन धारणकरे 'ले-स' यह साधु 'बीयकदाइवीजकन्दान्' बीज कंद आदिको 'अमुंजनाणे-अभुञ्जानः' भोजन न करता हुआ 'सिणाणाहसु-स्नानादिषु' स्नान आदि से तथा 'इधियासुस्त्रीपु' स्त्री आदिसे 'विरते-विरतः' अलग रहे ॥२२ । ___ अन्वयार्थ-साधु जलस्नान से कर्मबन्धन जानकर संसार से मोक्ष पर्यन्त प्रासुक जल से ही जीवन धारण करे। बीजों और कन्दों का उपभोग न करता हुआ स्नानादि से और स्त्रियों से विरत रहे ॥२२॥ टीकार्थ-जिसकी बुद्धि स्थिर हो वह धीर कहलाता है अथवा जो घी अर्थात् बुद्धि से राजित-शोभित होता है, वह धीर कहलाता है। ऐसा धीर पुरुष जलस्नान से कर्मवन्धन जानकर जब तक संसार से थी भाक्ष पर्यन्त वियडेण-विकटेन' प्रासु स द्वारा 'जीविज-जीवेत्' वन धारण ४२ 'से-स' साधु 'बीयकंदाइ-बीजकंदान्' भी ४१ विरेना 'अ जमाणे-अभुखानः' आहार या विना 'सिणाणाइसु-स्नानादिषु' स्नान - विभा तथा 'इत्थीयासु-स्त्रीपु श्री विश्था 'विरते--विरतः' मग २७॥२२॥ સૂત્રાર્થ-જળસ્નાનને લીધે કમને ખબ્ધ થાય છેક ઉપાર્જન થાય છે, એવું સમજીને સાધુએ જીવન પર્યત (સંસાર ભ્રમણમાંથી મુક્ત થઈને સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરે ત્યાં સુધી) પ્રાસુક (ચિત્ત) જળ વડે જ પિતાનું જીવન ધારણ કરવું જોઈએ. તેણે બી અને કન્દને ઉપભેગ કર જોઈએ નહી સ્નાનાદિને ત્યાગ કર જોઈએ અને સ્ત્રીઓથી દૂર રહેવું જોઈએ. મારા ટીકાર્યું–જેની બુદ્ધિ સ્થિર હોય છે. તેને ધીર કહેવાય છે. અથવા ધી” એટલે બુદ્ધિ અને ધીર એટલે બુદ્ધિથી રાજિત-બુદ્ધિથી શોભતે પુરુષ. એ ધીર પુરુષ એવું સમજી શકે છે કે જલસનાન કરવાથી કર્મોનું - सू० ७८ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · सूत्रकृतात्रे 'क' कर्म 'परित्राय' परिज्ञाय - जलस्नाने कृते सति कर्मबन्धनं भवतीति विज्ञाय 'आदिमोकja' आदिमोक्षम् आदिः संसारस्तस्मान्मोक्षो विरामः इति आदिमोक्षः तम् । संसारविरामपर्यन्तम्- यावज्जीवनमित्यर्थः, 'वियडे' विक टेन - तिलखण्डको धूमादिघावनजलेन तथा अचित्तोष्णोदकेन प्राणधारणं निर्वदेव । पुनः किं कुर्वन् 'वीयकंदाइ' बीज कन्दान् वीज कन्दमूलहरित -शाकफलादीन् सचिचान् 'अभुंजमाणे' अभुंज्ञानः एतेषां वीजादीनां भोजनमकुर्वाणः । तथा 'सणाणासु इत्थिवासु विरते' स्नानादिषु स्नानाऽभ्यङ्गोद्वर्त्तनादिशास्त्रनिषिद्धक्रियासु तथा 'इस्थियासु' स्त्रीषु 'विरते' विरतः, एतेभ्यः सर्वथैव निवृत्ति कुर्वाणः, यश्वंभूतः सर्वेभ्योऽपि श्राद्वारेभ्यो विरतः असौ साधुः विलक्षणः कुशीलदोषैः न संस्पृष्टो भवति । तदसावान्न संसारचक्रे परिभ्रमति कारणाभावात् । विराम न हो जाय तब तक अर्थात् जीवन पर्यन्त तिल तंदुल गेहूँ आदि के धोवन से या अचित्त जल से प्राण धारण करे । तथा बीज, .कन्द, मूल, हरित, शाक फल आदि सचित्त वनस्पति का सेवन न करता हुआ स्नान उबटन मालिश आदि शास्त्रनिषिद्ध क्रियाओं से एवं स्त्रियों से विरत रहे। जो ऐसा होता है अर्थात् समस्त आश्रव द्वारों से विरत होता है वह विलक्षण साधु कुशील दोपों से स्पृष्ट नहीं होता और दोषों के अभाव से लंसार चक्र में नहीं घूमता, संसार का 4 अभाव हो जाने से दुःख का अनुभव नहीं करता, दुःखित होकर रोता नहीं है और नाना प्रकार के उपायों से विनष्ट नहीं होता है । जो 1 ઉપાર્જન થાય છે, તેથી જ્યાં સુધી સંસારમાં ભ્રમણ બધ ન થાય ત્યાં સુધી એટલે કે મેક્ષપ્રાપ્ત થાય ત્યાં સુધી એવા ધીર પુરુષ પેાતાનાં પ્રાણા ટકાવવાને માટે જ પ્રામુક જળના ઉપભાગ કરે છે. એવા પુરુષ ભાતનું ધાવણુ, तनु घोष, घोष सहित पीवा भाटे उपयोग करे छे तथा ते भी उन्ह, भूण, हरित, शार्ड, इ माहि सत्ति વનસ્પતિયૈાનું પણ સેવન કરતા નથી, સ્નાન કરતા નથી, ઉબટન (શરીરે यथाना बोट अहिनु भर्हन) पशु उस्तो - नथी भने-, भासिश याशु ४रते નથી, કારણ કે આ બધી ક્રિયાઓના શાસ્ત્રોએ નિષેધ ફરમાન્ય છે. વળી તે સ્ત્રીઓથી દૂર રહીને ખ્રહ્મચર્ય વ્રતનું ખરાખર પાલન કરે છે. જે સાધુ આ પ્રકારે સમસ્ત આશ્રવ દ્વારાથી વિરત થઇ જાય છે, એવે વિલક્ષણુ સાધુ કુશીલથી (દોષથી) પૃષ્ટ થતા નથી એટલે કે કાઇ પણ દોષ કરતો નથી. 3 આ પ્રકારે દોષાના અભવ થઇ જવાને કારણે તેને સસાર ચક્રમાં ભ્રમણુ ફેરવું પડતું નથી. એવા પુરુષના સસારના અભાવ થઇ જવાને કારણે તેને Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अं. ७ उ. १ कुशीलवतां दोपनिरूपणम् ॥ न दुःखमनुभवति, न वा दुःखितः स्तनति, विनश्यति वा नानाविधैरपावैरिति । बुद्धिमन्तो प्रयवनारिशीलन ननितसंप्राप्त विशुद्रोचुदविवेकाः स्नानादीनि विविध कर्मवन्धजनकानीति विभाव्य, यावन्मोक्ष न प्राप्नुवन्ति तावत्पर्यन्तं सावधक्रिया परिवर्जयेयुरिति भावः ॥२२॥ - पुनरपि कुशीलानेवाऽधिकृत्य सूत्रकारो वदति-'जे मावरं च' इत्यादि। मूलम्-जे मायरं पियरं च हिच्चा, गारं तहा पुत्तपसुं धणं च।' - कुलाइंजे धावइ साउगाई अहाहु से सामणियस्स दूरे।।२३।। . छाया----यो मातरं पितरं च हित्वा, अगारं तथा पुत्रपशुं धनं च। - कुलानि यो धावति स्वादुकानि अथाहुः स श्रामण्यस्य दूरे ॥२३॥ बुद्धिमान हैं, प्रवचन के परिशीलन से जिनका विवेक जागृत होगया है, वे स्नान आदि को कर्मबन्ध का कारण जान कर, जब तक मोक्ष न हो जाय तब तक सावध व्यापारों का त्याग करें ।२२। सत्रकार पुनः कुशीलों को लक्ष्य करके कहते हैं-'जे मायरंच' इत्यादि। शब्दार्थ-'जे-य:' जो 'मायरं पिपरं च-मातरं पितरं च माता एवं पिताको 'हिच्चा-हित्वा' छोडकर 'तहागारं पुत्तपतुं धणं च-ती 'अगारं पुत्रपशून् धनं च' तथा घर, पुत्र पशु और धनको छोडकरें 'साउगाई कुलाई धाबइ-स्त्रोदुकानि कुलानि धावति' स्वादिष्ट भोजन દુખેને અનુભવ કરવો પડતો નથી, વેદનાઓને કારણે રુદન કરવું પડત નથી. અને જન્મ જરા અને મરણનાં દુઃખ વેઠવા પડતાં નથી. કારણ કે ' એ પુરુષ તે સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી લે છે. જે બુદ્ધિમાન છે, પ્રવચનના પરિ , શીલનથી જેમને વિવેક જાગૃત થઈ ગયો છે, તેમણે નાનાદિને કર્મબન્ધના કારણરૂપ જાણીને, જીવન પર્યન્ત (મેક્ષપ્રાપ્ત થાય ત્યાં સુધી), તેને ત્યાગ કરવો જોઈએ અને સાવદ્ય વ્યાપારને પણ જીવહિંસા થતી હોય એવી પ્રવૃત્તિઓને પણ ત્યાગ કર જોઈએ. ગાથા ૨૨ સૂત્રકાર ફરી કુશીલ સ્વચૂથિને અનુલક્ષીને એવું કહે છે કે'जे मायर' च'ध्याहि शाय-'जे-य' यो 'मायर पियर च-मातर पितर च' मा भी पिताने 'हिच्चा-हित्या' छोडीने तहागार पुत्तपतुं धणं च-सथा, अगार' पुत्रपशून् धनं च' तथा घर, पुत्र, पशु, मन धनन न 'सागाई कुलाईधावइ-स्वादुकानि कुलानि धावति' वादिष्ट घरोभा हो . Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतासूत्र '; अन्वयार्थ:---(जे) यः (मायरं पियरं च) मातरं पितरं च (हिच्चा) हिवा परित्यज्य (तहागारं पुत्तपसु धणं च) तथा आगारं गृहं पुत्रम् पशुं गवादिकं धनं सुवर्णादिकं परित्यज्यापि (साउगाई कुलाई धावइ) स्वादुकानि स्वादिष्ट भोजनयुतानि कुलानि गृहाणि धावति गच्छति (से) सः एतादृशः साधुः (सामणियस्स) श्रामण्यस्य श्रमणभावस्य (दूरे) दूरे-अतिदूरे विद्यते इति (अहाहु) अथाहु कथयति तीर्थकरादयः ॥२३॥ ... टीका-- 'जे' या अपरिणतसम्यग् धर्मा 'मायर' मातरम् 'पियर' पितरम् च 'हिचा हित्वा परित्यज्य 'तहा' तथा 'गारं' अगारं- गृहम् 'पृत्तपसुं' पुत्रं पशुम्, गोमहिपादिकम् 'धनं च धनं च-सुवर्णादिकम्, परित्यज्य सम्यगुस्थानोस्थितः प्रवज्यासादाय, तद्भूरिभारवहनेऽप्समर्थों हीनसत्वतया। 'साउगाई' स्वादुकानि-स्वादुभोजनवन्ति 'कुलाई कुलानि, गृहाणि 'जे' या 'धावइ' धावति, प्रव्रज्यामादा. बाले घरों में दौडता है 'से-सः' वह 'समाणियस्स-श्रामण्यस्य । श्रमणत्व से' 'दूर-दूरे' अत्यंत दूर है ऐसा 'अहाहु-अथाहु' तीर्थकरोंने कहा है ॥२३॥ - अन्वयार्थ जो माता, पिता, पुत्र, पशु, धन और गृह का त्याग करके भी रस लोलुपी बन कर स्वादिष्ट भोजन वाले घरों में जाता है, ऐसा साधु साधुता से दूर ही रहता है। ऐसा तीर्थकर गणधर कहते हैं ॥२३॥ ____टीकार्थ-जिल जीवन में धर्म सम्धक प्रकार से परिणत नहीं हुआ है, ऐसा जो साधु माता, पिता को त्यागकर तथा घर, पुत्र, गाय, भैस आदि पशुओं और सुवर्ण आदि धन को त्याग कर दीक्षित हुआ है, वह यदि स्वादु भोजन वाले घरों में भोजन लेने जाता है अर्थात् 'से-सः' ते 'सामणियस्स-श्रामण्यस्य' श्रमणत्वथी 'दूर-दूरे' मत्यात २ छ तम 'अहाहु-अथाहु.' ती ४२॥ये ४यु छ. ॥ २३ ॥ - सूत्राथ-भाता, पिता, पुत्र, पशु, धन भने गृहना या प्रशन સંયમ ગ્રહણ કરવા છતાં પણ જે સાધુ સલાલુપ બનીને, જ્યાંથી સ્વાદિષ્ટ ભોજન મળતું હોય એવાં ઘરમાં જ જાય છે, એ સાધુ સાધુતાથી દૂર જ રહે છે, એવું તીર્થકરે અને ગણધરે કહે છે. ૨૩ * ટીકાથડ–જેના જીવનમાં ધર્મ સમ્યફ પ્રકારે પરિત થયે નથી, એ કોઈ પુરુષ માતા, પિતા, પુત્ર આદિ પરિવારને તથા ગાય, ભેંસ આદિ પશુઓને તથા સુવર્ણ આદિ ધનને અને ઘર બારને ત્યાગ કરીને પ્રવ્રજ્યા અંગીકાર કરવા છતાં પણ સ્વાદલાલુપતાને ત્યાગ કરી શકતો નથી. એ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अं. ७ . १ कुशीलवता दोषनिरूपण ६२१ याऽपि तद्भारवहनासमर्थ: जिह्वालोलुपतया स्वादुमोजनमाप्तये धनिनां गृह धावति । 'से' सः-शीतलाचारी 'सामणियस्स' श्रामण्यस्य निर्ग्रन्थभावस्य दरे भवतीति । 'अहाहु' अथाहुः-तीर्थकरगणधरादयः । यः कश्चित्सुदुस्त्यजमातृपितपशुधनादीन् संपरित्यज्य साधु भावं गतोऽपि स्वादुभोजनाशया तादृशभोजनमापकधनिनां गृहविशेषे दाद्रतरं गच्छति । गत्वा परमान्नमानीय जिहालौल्यं शिथिलयन्नापि न शिथिलयति प्रत्युत हविषा कृष्णवर्मेव वर्द्धयति, होनसत्वस्य सत्त्वोऽपि निर्ग्रन्थस्याऽतिदूरे भवत्येवं तीर्थकरादयः प्रतिपादयन्ति ॥२३॥ गृहत्यागी होकर भी जिवालोलुपता के कारण धनवानों के घर में भिक्षा के लिए जाता है, वह साधुपन से दूर ही रहता है। तीर्थकर गणधर आदि महापुरुष ऐसा कहते हैं। - सारांश यह है कि बड़ी कठिनाई से त्यागे जाने वाले माता, पिता, पुत्र, धन और गृह आदि को भी त्याग कर जो साधु बना है, वह यदि जितालोलुप होकर सुस्वादु भोजन के लिए धनियों के घरों में भिक्षा के लिए जाता है तो संयम से दूर ही हो जाता है। वह स्वादिष्ट भोजन लाकर जिह्वालोलुपता को शान्त करना चाहता हुआ भी जिहालोलुपता को अधिक बढाता है। जैसे घी अग्नि को बढाता है। ऐसा नीर्थंकरों ने प्रतिपादन किया है ॥२३॥ સાધુ એવાં ઘરોમાં ભિક્ષા વહોરવા જાય છે કે જ્યાંથી સ્વાદિષ્ટ ભોજન મળે છે, એટલે કે સ્વાદલેલુપતાને કારણે તે ધનવાનેને ઘેર જ ભિક્ષા લેવા જાય છે. એવા સાધુને સીધુ જ કહી શકાય નહીં' કારણ કે તે પુરુષમાં સાધુના ગુણેને અભાવ હોય છે, એવું તીર્થકર આદિ મહાપુરુષોએ કહ્યું છે. તાત્પર્ય એ છે કે માતા, પિતા, પુત્ર, પશુ, ધન, ઘર આદિનો ત્યાગ કર ઘણું જ મુશ્કેલ છે. એ કષ્ટપ્રદ ત્યાગ કરીને જેણે સંયમ અંગીકાર કર્યો છે એ સાધુ પણ જે સ્વાદલોલુપ થઈને સ્વાદિષ્ટ ભોજનને માટે ધનવાનોના ઘરોમાં જ ભિક્ષા ગ્રહણ કરવા માટે જાય, તે તે સંયમનો વિરાધક જ બને છે. આ પ્રકારે જિહવાલોલુપતાને શાંત કરવા માગતે તે સાધુ જિહવા લોલુપતાને શાન્ત કરવાને બદલે તેને વધારતું જ રહે છે. જેમ અગ્નિમાં ઘી હોમવાથી અગ્નિ અધિક પ્રજવલિત થાય છે, એજ પ્રમાણે સ્વાદિષ્ટ ભોજન ખાવાથી તેની સ્વાદલે લુપતા વધતી જ જાય છે અને તે વધારેને વધારે શિથિલાચારી થતી જાય છે, એવું તીર્થંકર આદિ મહાપુરુષોએ કહ્યું છે. ર૩ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रता साधुभिरीकर्म न कर्त्तव्यम् । 'से' सः 'आयरियाण' आचार्याणाम् आर्याणां का (सयंले) शतांशः, शमितिपदमुपलक्षणम्, तेन स वक्ता-आचार्याणां शतसहस्त्रादपि अधोदेशे वर्तते इत्यवगन्तव्यम् । तथा 'जे. या 'असणस्म' अशनस्य, इहाऽपि अशनपदमुपलक्षणम् , तेन वस्त्रादीनामपि संग्रदो जेयः । तेन अशनःस्वादेः 'हे' हेतोः 'लावएज्जा' आलापयेत् । अस्याऽयमर्थः-य आहाराय वस्त्रप्राप्तये वा स्वकीयगुणान् परद्वारा प्रख्यापयेत्, सोऽप्याचायेंगतगुणेभ्यः सहस्रांऽशादप्यधोऽधो वर्तते साधुत्वरहितो भवति । स्वीयं गुणं स्वम्मुखादेव यो वर्णयति, स तु का कथंभूतश्चेति ज्ञानिन एव जानन्ति । अयमादप्यधम इति । य: उदरंमरी लोके स्वादुभोजनलोभेन लुब्धः स्वाभोजन प्राप्तियोग्यं निनो गृहमासाध तत्र धर्मलम्बी धर्मकथा करता है, उसे सर्वथा कुशील ही समझना चाहिए । साधुओं को ऐसा कर्म कदापि नहीं करना चाहिए। ___ इसके अतिरिक्त जो अन्न के लिए और उपलक्षण से वस्त्र आदि के लिए अपने गुणों को दूसरे के द्वारा प्रशंसा करवाता है, वह भी आचार्य के गुगों के शनांश या सहस्त्रांश भाग में नहीं है। वह साधुता से रहित है । जो अपने मुख से अपने गुण का वर्णन करता है, वह कौन और कैसा होता है, यह तो ज्ञानी ही जानते हैं। वस्तुतः वह अधम से भी अधम है। आशय यह है कि जो उदरंभरा पेटभग स्वादिष्ट भोजन प्राप्त करने के उद्देश्य से किसी धनाढय के घर जाता है और उत्तम भोजन તને કુશીલ જ સમજ જોઈએ. સાધુઓએ એવું કર્મ કદી કરવું नये नही. વળી અન્નને માટે (ઉપલક્ષણથી વસ્ત્રને માટે પણ ગ્રહણ કરી શકાય) * જે સાધુ પિતાના ગુણેની બીજા લેકે દ્વારા પ્રશંસા કરાવે છે અથવા પોતે જ પિતાના ગુણોની પ્રશંસા કરે છે, તે સાધુમાં પણ આચાર્યના શતાંશ, સહશ કે લક્ષાંશ ગુણેને પણ સદૂભાવ તે નથી. તે પણ સાધના રહિત હોવાને કારણે કુશીલ જ ગણાય છે જેઓ પોતાને માટે પિતાના ગળાની પ્રશંસા કરે છે, તેઓ કેણુ અને કેવાં હોય છે, તે તે જ્ઞાનીજ જ છે. ખરી રીતે તે એવાં પુરુષે અધમમાં અધમ હોય છે. ' - આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે જે ઉદરભર (વાદ લુપ) સાધુ, સંવાદિષ્ટ ભોજંન પ્રાપ્ત કરવાની લાલચે કેઈ ધનવાન માણસના ઘેર જઈને, ઉત્તમ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् . १२५ कथा कथ गति, स साधुभावोद्धृष्टः । यस्तु पुनराहारवस्त्रार्थ स्वकीयान् गुणान् परेण ख्यापयति, सोऽप्यधमः । यश्च स्वगुणं स्वेनैव प्रकाशयति स तु अधमाधम इति भावः ॥२४॥ पुनरप्याह-णिक्खम्म दीणे' इत्यादि। मूलम्-णिकवल्म दीणे परमोक्षणमि मुहमंगलीए उदराणुगिद्धे। नीदारगिद्धे व महावराहे अदूरए एहिई घातमेव ॥२५॥ छाया-निष्क्रम्य दीनः एसोजने मुखमांगलिक उदरानुगृद्धः।- -- . ' नीवारगृ द इय महावराक्षः अदर एण्यति घातमेव ॥२५॥ . पाने के विचार ले वहाँ धर्मक्रया करता है, यह साधुता ले अष्ट होजाता है और जो आहार, वस्त्र आदि के लिए अपने गुणों को दूसरों से प्रकट करवाता है, वह भी अधम है । जो अपने गुणों को अपने ही मुख से प्रकट करता है वह अधमाधम है ॥२४॥ ... - शब्दार्थ-जिकखम्भ-निष्क्रम्य' जो पुरुष घर से निकलकर 'पर भोयणहिदीणे-परभोजने दीनः' अन्यके भोजन के लिये दील बनकर 'मुहमंगलीए-सुखमांगलिकः? भाट के जैसा दूसरे की प्रशंसा करता हैं 'नीवारगिद्धेव महावराहे-नीचारगृद्ध इच लहावराह पद तण्डल के दानों में आसक्त महान सुअर के जैसा 'उदाणुगिद्धे-उदरानुगृद्ध' उदर पोषण तत्पर है 'अदृरए-अदरे' वह शीघ्र ही 'घायमेव घात. मेव' नाशको ही 'एहिह-एष्यति' प्राप्त होते है ॥३५॥ .. ...... ભજન પ્રાપ્ત કરવાની ઈચ્છાથી, ધર્મકથા કરે છે. તે સાધુના ધર્મનું-આચાર રેનું પાલન નહીં કરવાને કારણે “સાધુ” કહેવાને પાત્ર નથી. વળી જે સાધુ આહાર, વસ્ત્ર આદિને માટે બીજાની પાસે પિતાના ગુણેની પ્રશંસા કરી છે, તે પણ અધમ છે. જે પોતાનાં ગુણે પિતાને જ મોઢે પ્રકટ કરે છે તેને તે અધમમાં અધમ કહી શકાય. ગાથા ૨૪ ___'णिक्खम्म दीणे' साहि Av -णिक्लम्म-निष्क्रम्य' ? १३५ ३२थी नाइजीन 'परभोयणसि दोणे-परभोजने दीनः' मन्यना मान भाट हीन मनीन - 'मुहमंगलीएमखमांगलिक' मारनी भ माना qभाय ४३ छ 'नीवार गिद्धेय महावराहेनीवारगृद्ध इन महावराहः' ते यामानामा भासत भेटी सुंउनी कम 'उदराणुगिद्धे-उदरानुगृद्ध.' ६२ पौषशुमा तत्५२ छ, 'अदू-ए-अदूरे' Moreीय! 'घायमेव-घातमेव' नाशन १ 'पहिइ-एण्यति' प्राथाय छे.॥२५it खू० ७९ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દરે सूत पुनरप्याह सूत्रकार:- 'कुलाई' इत्यादि । मूलम् - कुलाई जे धावइ साउगाई अधाति धम्मं उदराणु गिद्धे । अहाहु से आयरियाण सर्य से जे" लाएजा असणस्स हेऊँ २४ ॥ १० छाया - कुलानि यों धावति स्वादुकानि आख्याति धर्ममुदरानुगृद्धः । अथाहुः स आचार्याणां शतांशी य आलापयेदशनस्य हेतोः ||२४|| अन्वयार्थ :- (उदाराणुगिद्धे ) उदरानुगृद्धः - उदरभरणव्यग्रः सन् (जे) यः पुरुषः . ( साउगाई कुलाई घाबर) स्वादुकानि - स्वाभोजनविशिष्टानि कुलानि - गृहाणि ananta च्छति (धम्मं आघाति) धर्म धर्मकथामा ख्याति कथयति (से आयरियाण ご सूत्रकार फिर कहते हैं- 'कुलाई' इत्यादि । शब्दार्थ -- 'उदाराणुगिद्धे - उदारानुगृद्धः' उदर पोषण में तत्पर 'जेयः' जो पुरुष 'साउगाई कुलाई धावद्द - स्वादुकानि कुलानि धावति' स्वादिष्ट भोजन प्राप्त होनेवाले घरों में जाते हैं तथा वहां जाकर 'धम्मं आघाति-धर्म आख्याति' धर्मका कथन करते हैं 'से आयरियाण सयंसे - सः आचार्याणां शतांश:' वे आचार्य के शतांश भी नहीं हैं 'जे अस'णस्स हेऊ लावयेज्जा-य: अशनस्य हेतोः आलापयेत्' तथा जो भोजन के लोभ से अपने गुणों का वर्णन करता है वे भी आचार्यों के शतांश भी नहीं हैं ||२४|| अन्वपार्थ- जो उदरासक्त (पेट भग) हो कर स्वादिष्ट भोजन वाले घरों में जाना है और वहाँ जाकर धर्मोपदेश करता है, वह साधु સૂત્રકાર કુશીલેાને અનુલક્ષીને વિશેષ કથન કરે છે—‘છા' ઈત્યાદિ शर्थ - 'उदाराणु गिद्धे - उद रानुगृद्ध' ४२ पोषशुभां तत्पर 'जे - यः' 'साउगाई कुलाई' धावइ - स्वादुकानि कुलानि ध'वत्ति' स्वाद्दिष्ट लोन प्राप्त धवावाजा घरोमां लय हे तथा त्यांने 'धम्मं आघाति-धर्म आख्याति' धर्मनुं स्थन रे छे, 'से आयरियाण खयंसे- सः आचार्याणां शतशः ' तेथे। माथर्यानी शतांश या नथी 'जे असणहमहेऊ लावयेज्जा - यः अशनस्य हेतोः आलापयेत्' तथा भेो लेोभनता साथी पोताना शुभेोतु वन उरे छे, તેએ પશુ આચાર્યના શતાંશ પણ હાતા નથી. ॥ ૨૪ ।। સૂત્રા—જે સાધુ ઉદરભર (ભાજન મેળવવાની લેલુપતાથી યુક્ત) થઇને સ્વાદિષ્ટ ભેજન મળે એવાં ઘરમાં જાય છે અને ત્યાં જઈએ ધર્માં Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६२३ सयंसे) सः आचार्याणां शतांशः शनभागन्यून इत्यर्थः (जे असगस्स हेऊ लावएज्जा) यः अशनस्य भोजनस्य हेतोः कारणात् आलापयेत् स्वकीयगुणानिति ॥२४॥ टीका-'उदराणुगिद्धे' उदरानुमृद्धः, उदरे अनुगृद्धः, उदरभरणाय व्यग्रचित्तः 'जे' यः कश्चिन् साधुः 'साउगाइ' स्वादुकानि-मुस्वादुमिष्टान्नभोजनविशिष्टानि 'कुलाई' कुलानि-धनिनां कुलानि 'धावइ' धावति-गच्छति तथा कृत्वा आहारमानेतुं सद्गृहं प्रविश्य, तस्मै यद्रोचिष्पते कथानकादिक तत्तस्प्नै आख्याति । 'धम्पं अघाति' धर्मम् आख्याति-मुन्दरगीति गिरा वर्णयति । अयं भाव:-यो हि उदरंभरः भोजननिमित्तं दानश्रद्धाविनयवति महति कुले त. त्माङ्गणं गत्वा महतीः कथाः कथयति, स सर्वथा कुशील एव ज्ञेय:-कथं कथमपि याचार्यों का शतांश भी नहीं है अर्थात् सौवाँ भाग भी नहीं है। जो आहार के लिए अपने गुणों की प्रशंसा करवाता है, वह भी आँचार्य का शतांश भी नहीं है ॥२४॥ . टीकार्थ-जो उदर में गृद्ध है अर्थात् पेट भरने में तत्पर है और सुस्वादु मिष्टान्न भोजन वाले घरों में जाता है और आहार लेने के लिए उन घरों में प्रवेश करके धर्मकथा करता है, वह आचार्यों के या आर्यों के शतांश भाग भी नहीं है। यहाँ 'शत' शब्द उपलक्षण है, अतएव ऐसे रसलोलुप बक्ता को आचार्य का लाखवाँ भाग भी नहीं समझना चाहिए । तात्पर्य यह है कि जो उदर भर भोजन के उद्देश्य से दान श्रद्धान और विनय वाले किसी बडे घर में जाकर लम्बी પદેશ દે છે; તે સાધુ આચાર્યોને શતાંશ પણ નથી એટલે કે, આચાર્યના ગુણેને તે સાધુમાં અભાવ હોવાથી તેનામાં આચાર્યના સૌમાં ભાગની પણ ' ગ્યતા નથી. જે સાધુ આહારને માટે પોતાના ગુણની પ્રશંસા કરે છે કે કરાવે છે. તે સાધુમાં પણ આચાર્યના ગુણેના સોમાં ભાગનો પણ અભાવ *હેતો નથી . ૨૪ . - साधु वातानु पेट रवानी aidalथी 'राईन, साहिट ભજન પ્રાપ્ત થાય એવાં ઘરોમાં જ જાય છે, અને તે ઘરમાં પ્રવેશ કરીને ધર્મોપદેશ દે છે, તે સાધુ આચાર્યોના સેમાં ભાગની બરાબર પંણ નથી અહી શત પદ ઉપલક્ષણ માત્ર છે, તેથી એવા રસલુપ વક્તાને આચાર્યનો લાખ ભાગ ગણ શકાય નહીં. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે જે સાધ સ્વાદિષ્ટ ભોજન મેળવવાની ઈચ્છાથી, દાન, શ્રદ્ધા અને વિનયથી સંપન્ન કોઈ ધનવાન ગૃહસ્થના ઘરમાં પ્રવેશ કરીને લાંબી ધમકથા કરે છે. એવા સાધુને Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___“अन्वयार्थ:-(णिक्खम्म) निष्क्रम्य-संयम गृहीत्वापि (परभोयणमि दीणे) सारभोजने दीन:-पराहारविपये दैन्यमुएगत (मुहमंगलीए) मुखमांगलिक:-अन्यस्य प्रशंसकः (नीवारगिद्धेव महावराहे) नीबारगृद्धो महाराह इस तण्डुलकणासक्तशूकरवत् (उदराणुगिद्धे) उदारानुगृद्धः उदरपोपणे तत्परः, (अदृरए) अदरे-अतिसमीपे (घायमेव) घातं विनाशमेव (एहिइ) एष्यति-माप्स्यतीत्यर्थः ॥२५॥ ___टीका-यो हि पुरुषः स्वकीयं गृहकलनधनधान्यादिकं परित्यज्य 'णिक्ख म्म निष्क्रम्य गृहानिस्सृत्य संम्मं गृहीत्वेत्यर्थः 'परभोयमि' परभोजने, परकीयाहारविषये 'दीणे' दीन:-दैन्यमुपगतः रसनेन्द्रियवशवर्ती चारणवत् । 'मुहः । मंगलीए' मुखमांगलिकः मुखेन मंगलानि प्रशंसावाक्यानि वदति यः स मुखमालिका, मुखेन परमशंसाकारकः, प्रशंसाप्रकारो यथा पुनः कहते हैं-'णिक्खम्म दीणे' इत्यादि । अन्वयार्थ--जो संघम को ग्रहण करके भी परकीय आहार में दीन है, मुख मांगलिक अर्थात् दूसरे की प्रशंसा करता है, वह तन्दुल. कणों में आसक्त महाशूकर के समान उदरपोषण में तत्पर होकर शीघ्र ही विनाश को प्राप्त होगा ॥२५॥ टीकार्थ--जो पुरुष अपने गृह, पत्नी, धन, धान्य आदि का त्याग करके और संयम को धारण कर के परकीय आहार के विषय में दीनता को प्राप्त है, रसना इन्द्रिय का दाल है अर्थात् रसलोलुप है तथा जो मुखमांगलिक है अर्थात् मुख से प्रशंसाश्चन बोलता है, यश-'पुण्यात्मा दीनलोकानां इस्यादि। સૂત્રાર્થ–જેઓ સંયમ ગ્રહણ કરવા છતાં પણ પરકીય આહારના વિષયમાં દીનતા બતાવે છે, જેઓ મુખમાંગલિક છે એટલે કે આહાર મેળવવા માટે દાતાની પ્રશંસા કરનારા છે, તેઓ તદુલ કણમાં (ચેખાના દાણામાં) અસક્ત થયેલાં મહાશૂકરની જેમ ઉદર પિષણ માટે લેપ થઈને વિનષ્ટ થાય છે–સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરવાને બદલે સંસારમાં ભ્રમણ કરીને દુઃખેનું વેદન કર્યા કરે છે. પરપા ... : टी -२ पुरुष माता, पिता, पत्नी, पुत्र धन, १२ महिना त्याग કરીને સંયમ અંગીકાર કરવા છતાં આહાર પ્રાપ્તિને માટે દીનતા બતાવે છે, સ્વાદલોલુપ બનીને (રસના ઈન્દ્રિયના દાસ બનીને) જેઓ દાતાની પ્રશંસા કરે છે, તેઓ પણ સંયમથી ભ્રષ્ટ થઈને પિતાને જ વિનાશ નોતરે છે. તેઓ દાતાની કેવી પ્રશંસા કરે છે તે હવે પ્રકટ કરવામાં આવે છે Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोष निरूपणम् 'पुण्यात्मा दीनलोकानां दारिद्रयहरणे प्रभुः । दूरे मेरुश्दूरे त्वं कल्पवृक्षोऽजडः किलः ॥ १॥ . एवं मुखेन पुण्यकार्येवं बहुधनं व्ययसि इत्यादीनि प्रशंसावाक्यानि वदति एतादृशो मुखमांगलिकः । दीनतां गत इति यावत् । तदुक्तम् सो एसी जस्ल गुणा वियरंति निवारिया इसदिसासु । FET कहा सुच्चसि पच्चक्खं अज्ज दिट्ठोसि ॥१॥ छाया - स एषः यस्य गुणाः विचरन्ति निवारिता दशदिशासु । इतरासु कथासु श्रूयते प्रत्यक्षमा दृष्टोप्सीति ॥१॥ स एव भवान् यस्य कीर्तिर्दिक्षु मता प्रथममहं भवन्तं कथायामेवावस् अद्य तमेव भवन्तं प्रत्यक्षतः पश्यामीति भावः । आप तीन लोक में पुण्यात्मा है, दीन जनों की दरिद्रता को दूर करने में समर्थ हैं । सेरू दूर है परन्तु आप दूर नहीं हैं । सप की सब कमनाओं को पूर्ण करने वाला कल्पवृक्ष आपके समान हो सकता है, परन्तु उसमें न्यूनता यह है कि वह जड़ है । आप में जड़ता नहीं हैं । इस प्रकार आप मेरु और कल्पवृक्ष से भी पढकर हैं । आप पुण्य कृत्यों में बहुत व्यय करते हैं, इस प्रकार प्रशंसा करनेवाला मुखमांगलिक कहलाता है। कहा भी है- 'सो एसो जस्स गुणा' इत्यादि । 'ओहो ! आप वही हैं। जिन के गुण दसों दिशाओं में विचरण कर रहे हैं ! आप का नाम अभी तक तो कथा कहानियों में सुनाथा, आज आपको साक्षात् देखा !" 'पुण्यात्मा दीनलेाकानां' इत्याहि આપ ત્રણે લેાકમાં સૌથી મહાન પુણ્યાત્મા છે. આપ દીનજનાની દીનતા દૂર કરવાને સમર્થ છે, મેરુ ક્રૂર છે, પણ આપ ક્રૂર નથી. આપ સૌની સઘળી કામનાઓ પૂર્ણ કરનાર કલ્પવૃક્ષ સમાન છે. પરન્તુ કલ્પવૃક્ષમાં તે આપના કરતાં એક ન્યૂનતા છે. કલ્પવૃક્ષ તેા જડ છે, પરન્તુ આપ જર્ડ નથી. આ રીતે આપ મેરુ અને કલ્પવૃક્ષ કરતાં પણુ મહાન છે!' આપ દાન આદિ પુણ્ય કાર્યો પાછળ બૂમ જ ધન વાપરા છે. આ પ્રકારે દાતાની પ્રશ'સા'કરનારને 'भुणभांगसिए' डेवाय हे धुप हे - 'सो एसा जस्व गुणा' त्यािं અહૈ, માપ તેા એવાં પુરુષ કે જેના ગુથે દસે દિશાઓમાં બ્યાપી ગયું છે, આપનુ' નામ અત્યાર સુધી તે કથા, વર્તાએમાં જ સાંભળ્યુ છે Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छरेट.. सूत्रकृतसूत्रे विनाशमेति । अनेन प्रकारेण 'उदराणुगिद्धे' उदरानुगृद्धः = उदरभरणान्नं प्रति स्पृहावान तत्राह - 'नीवार गिदेव महावराहे' नीवारगृद्र इत्र महावराहः, नीवावनधान्यम् तस्मिन् गृद्ध आसक्तः भासक्तचिचपरिवारमादाय महावराहः स्थूलकाय: शुकर दवाऽतिसंकटे मवि सन् 'अदूरए ' अरे अतिशीघ्रम् 'घातमेव' विनाशमेव 'पहि' एष्यति, माप्स्यति । अवश्यमेव विनाशमेवष्यति नाsन्या गतिरस्ति । यथा वराहो जिहालोलुपतया भोज्यामुक्तोऽतिसंकटस्थानं मा विनश्यति, तथैवाज्य मुखमांगलिक इव उदरपोषणार्थ परगृहं धावन संसारसंकटमापतितो विनाशमेव प्राप्स्यतीति । यः स्वीयं गृहादिकसुत्सृज्य इस प्रकार पेट के लिए जो दूसरों की प्रशंसा करता है, वह मुखमांगलिक विनाश को प्राप्त होता है । इस अर्थ को समझाने के लिये उपमा का प्रयोग करते हैं- नीवार नामक जंगली धान्य में आसक्त स्थूलकाय शहर जैसे परिवार सहित संकट में पड़कर शीघ्र ही विनाश को प्राप्त होता है, विनाश को प्राप्त होने के अतिरिक्त उस की दूसरी कोई गति नहीं, है उसी प्रकार वह उदरंभरी भी विनाश को ही प्राप्त होता है । आशय यह है-जैसे शूकर जिहालोलुप होकर भोजन में आसक्त होता है और संस्थान को प्राप्त करके जाणों से रहित होता है उसी प्रकार मुखमांगलिक साधु भी उदर गृह रखलोलुप होकर पराये घरों ન્હેતુ', આજ શ્રાપને સાક્ષાત્ જેવાની તક મળી છે. • આ પ્રકારે પેટને ખાતર જે અન્યની પ્રશ'સા કરે છે, તે મુખમાલિક સયમના માગેથી ભ્રષ્ટ થઈ ને શીઘ્ર વિનાશ પામે છે. આ વાતને સમજાવવા માટે સૂત્રકારે નીચેની ઉપમાને પ્રયાગ કર્યાં છે. નીવાર (તાર્ન્ડલ જેવુ' જ*ગલી ધાન્ય)માં આસક્ત થયેલુ સ્થૂળ કાય સૂર જેવી રીતે પરિવાર સહિત સંકટમાં (શિકારીની જાળમાં) પડીને પેાતાના વિનાશ નેતરે છે, એજ પ્રમાણે ઉદરસરી (સ્વાદિષ્ટ ભાજનની લાલસાવાળા) સાધુ પશુ વિનાશને જ નાતરે છે. આશય એ છે કે જેમ સૂવર જિહવાલોલુપ ખીને-તાંદુલ આદિ ભાજનમાં આસક્ત થઈને સંકટ સ્થાનમાં (જાળમા) ક્રૂસાઈ જાય છે અને પેાતાના પ્રાણેા ગુમાવી બેસે છે, એજ પ્રમાણે મુખમાંગલિક સાધુ પશુ ઉદર ગૃદ્ધ (ભોજન મેળવવાની લાલસાવાળા) થઈને કાં તે દૈન્યભાવ પ્રકટ કરીને ભિક્ષા માગે છે, કાં તેા દાતાની પ્રશંસા કરીને દાતા પાસેથી સ્વાદિષ્ટ ભેાજન પ્રાપ્ત કરવાની આશા રાખે છે. એવેા દૈન્ય ભાવયુક્ત મુખમાંગલિક સાધુ સાધુઓના Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६२९ परगृहं भोजनास प्रवर्तते, चारणवत् स्तुतिवाक्यानि प्रयुनानो भक्ष्यासक्तवराह इव शीघ्रमेव विनश्यति संसारं भ्रमिष्यतीति भावः ॥२५॥ . पुनरप्याह-'अन्नरस पागस्स' इत्यादि। मूलम्-अन्नरस पारितह लोइयल अणुप्पियं मासइ सेवमाणे। पासत्थयं चैव कुलीलयं च निस्तारए होई जहा पुंलाए।२६। छाया-अन्नस्य पानस्यैहलौकिकस्याऽनुप्रियं भापते सेवमानः।। पार्श्वस्थतां चैव कुशीलतां च निस्सारो भवति यथा पुलाकः ॥२६॥ में जाकर पेट भरने में तत्पर रहता है वह संसार रूपी संकट में पड़ता है। वह शीघ्र विनाश को प्राप्त होगा अर्थात् संसार परिभ्रमण करेगा।६५। पुनः कहते हैं-'अन्नस्ल पाणल्स' इत्यादि। शब्दार्थ --'अन्नस्स पाणल-अन्नस्य पानस्य' अन्न तथा पान 'इहलोइ. यस्स-ऐहलौक्षिकस्य' अथवा वस्त्र आदि इस लोकके पदार्थ के निमित्त 'सेवमाणे-लेवनानः सेवा करता हुआ जो पुरुष 'अणुप्पियं भासइअनुप्रियं भापते' प्रियभाषण करता है वह 'पालस्थियं चेव कुसीलयं चपार्श्वस्थता कुशीलता च' पार्श्वस्थ भावको तथा ऋशीलभाव को प्राप्त होता है 'जहा पुलाए-यथा पुलाक' तथा वह भूलाले जैसा 'निस्सारए होइ-निस्सारो भवति' सार रहित होजाता है अर्थात् संयम से परिश्रष्ट हो जाता है ॥२६॥ આ ચારોનું પાલન નહીં કરી શકવાને કારણે સંસાર રૂપ સંકટમાં ફસાઈ જાય છે એટલે કે એ સાધુ સંસારમાં પરિભ્રમણ કરતા રહે છે અને સંસારનાં ખે ભેગવ્યા કરે છે. મક્ષ રૂપી પરમસુખને તે ગુમાવી બેસે છે. જે ૨૫ કુશીના વિષયમાં સૂત્રકાર આ પ્રમાણે વિશેષ કથન કરે છે'अन्नस्स पाणस्व' त्याहि शहाथ-'अन्तस्स पाणस्स-अन्नस्य - पानस्य' मथा भन्न तथा पान 'इइलोइयस्स-ऐइलौकिकस्य' था पर विगेरे ना पहा निमित्त 'सेवमाणे-सेवमान' सेवनी २५ २ ५३५ 'अणुपिय भासइ-अनुप्रिय भाषते' प्रिय भाषए। ४२ छे, ते पास स्थियं चेव कुसीलय च-पार्श्वस्थतां कुशीलतां च' पाश्वरथ लापने .तथा शीलमायने प्राप्त थाय छे 'जहा पुलाए-यथा पुलाकः' तथा ते सुसाना व 'निस्सारए होइ-निस्सारो भवति' सा२ ११२। गनी જાય છે અર્થાત્ સંયમથી પરિભ્રષ્ટ થઈ જાય છે. ૨૬ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतासूत्र . अन्वयार्थः--(अन्नस्स पाणस्स) अन्नस्य भोज्यवस्तुनः पानस्य-जलस्य (इहलोइयस्स) ऐहलौकिकस्म कृते वस्त्रादिकृते वा (सेवमाणे). सेवमान-सेवा कुर्वन् सेवकवत् (अणुपियं भासइ) अनुप्रियं सेव्यार्थमिष्टवचनम् भापते वदति सः (पासत्थयं चेव कुसीलयं च) पार्श्वस्थतां कुशीलतांच गच्छति (जहा पुलाए) यथा पुलाकः पलालः तथा (निस्सारए होइ) निस्सारो भवति-संयमात् परिभ्रष्टों भवतीति ॥२६॥ टीका--यः कुशीलः, 'अन्नस्से' अन्नस्य 'पानस्स' पानस्य जलादेः कृते 'इहलोइयस्स' ऐहलौकिकस्याऽन्यस्य वैदिकार्थस्य दस्त्रादे कृते 'अणुप्पियं' अनुप्रियम् 'भासई भापते यस्य वदान्यस्य यद्यत् प्रियं तत्पुरतस्तचदेव भाषते दातुः मनोगत प्रियमेव सेवकादिवत् वदति । 'सेवमाणे सेवमानः आहारवस्त्रार्थ पुस्तकज्ञानशालोपाश्रयाद्यर्थ वा दातारमनुसेगमानः सर्वमेतस्कत्तु स्वीकरोति । सचैवं भूतः सदाचाररहितः 'पासत्थयं चेव कुमीलयं च' पार्श्वस्थतां कुशीलतां च गच्छति । तथा'निस्सारए' निःसारः 'होई' भवति निर्गवासारः चारित्राख्यो यस्य स निस्सारः। ___ अन्वयार्थ-जो अन्न के लिए पानी के लिए अथवा इहलोक संबंधी बन आदि के लिए दाता की सेवक के समान सेवा करता चाटुकारी करता रहता है, वह पार्श्वस्थता और कुशीलता को प्राप्त होता है। वह भूसे के समान निस्सार अर्थात् संयम से रहित होता हैं ॥२६॥ टीकार्थ-अन्न के लिए पानी के लिए अथवा इहलोक संबंधी वस्त्र आदि पदार्थ के लिए जो प्रियभाषण करता है, दाता को जो जो प्रिय है, उसके समक्ष वही वही कहता है अर्थात् उसकी प्रशंसा करता है अथवा आहार वनपानादि के लिए दाता ही सेवा करता है, ऐसा सदाचार हीन साधु पार्श्वस्थ या कुशील होता है । वह पुलाक अर्थात् સૂત્રાર્થ–જે અને માટે, પાણીને માટે અથવા આ લોક સંબંધી વસ્ત્રાદિને માટે દાતાની સેવકની જેમ સેવા કરે છે અથવા ખુશામત કરે છે, તે સાધુ પાર્શ્વસ્થ (શિથિલાચારી) અને કુશીલ બની જાય છે તે ભૂસાના જે નિસાર-સંયમથી રહિત થઈ જાય છે. પારદા ટીકાર્યું–જે સાધુ અન્ન, પાણી, વસ્ત્ર આદિને માટે દાતાની સેવા કરે છે, અથવા દાતાને ખુશ કરવાને માટે મીઠી મીઠી વાતો કરે છે, દાતાને પ્રિય લાગે એવાં વચને બેલે છે-દાતાની પ્રશંસા કરે છે, અથવા દાતાની ખુશ મત કરે છે, એ સદાચાર હીન સાધુ પાર્શ્વરથ અથવા કુશીલ હોય છે. Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.७ उ. १ कुशीलवतां दोपनिरूपणम् ,६३१ अथवा-निर्गतः सारो यस्मात् स निःसारः । 'जहा' यथा 'पुलाए' पुलाका, पलालो धान्यानामाधारदण्डः पळालइच, अपौ भवति । एवं कर्ता कुशीला साधुःसाधुवेषधारी, राजवेपधारिनटवत् यथा स्वसाराधान्यादीनः पलालो निस्सारः, तथाऽयमपि संयमानुष्ठानं सारं निस्तार्य आत्मानं निस्सारी करोति । एतादृशोऽसौ लिंगमात्राऽवशिष्टः शिष्टानां वहूनां स्वयूथ्यानां तिरस्कारास्पदं पदं प्रतिष्ठते । परलोकेचाऽनेकविधानि यातनास्थानानि संतिष्ठते इति ॥२६।। पलाल के समान निस्तार होता है, अर्थात् उसका चारित्र रूप सार हट जाता, है या उसमें से चारित्र सार निकल जाता है। इस प्रकार का कृत्य करने वाला कुशील साधु अर्थात साधुवेषधारी राजा का वेष धारण करने वाले नट के समान है। जैसे सारभूत धान्य के न रहने पर पलाल निस्तार हो जाता है, उसी प्रकार वह साधु भी संयमानुष्ठान रूपी सार से रहित होकर अपनी आत्मा को निस्सार बना लेता है । इस प्रकार निस्तार बना हुआ साधु केवल वेष मात्र से साधु रहजाता है और इहलोक में अपने ही गच्छ के अनेक शिष्ट साधुओं के तिरस्कार को प्राप्त होता है । परलोक में अनेक प्रकार के.यातनास्थानों को प्राप्त करता है ॥२६॥ તે પરાળ (ભૂસા)ના સમાન નિસ્સાર હોય છે, એટલે કે જેમ ભૂસામાં સર્વ હેતું નથી, એજ પ્રમાણે એ માણસમાં પણ ચારિત્ર રૂપ સાર (સત્વ) નીકળી - જવાથી તેનું જીવન પણ નિસ્ટાર બની ગયું હોય છે. આ પ્રકારનો કુશીલ સાધુ, સાધુ કહેવાને પાત્ર પણ હેતે નથી. તે સાધુમાં સાધુનાં લક્ષણેને અભાવ હોવાને કારણે તે વેષધારી સાધુ જ ગણાય છે. રાજાને વેષ ધારણ કરનાર નટને જેમ વેષધારી રાજા કહેવાય છે, તેમ એવા પુરુષને વેષધારી સાધુ કહેવાય છે. જેવી રીતે સારભૂત ધાન્યને અલગ પાડવાથી બાકી રહેલુ પરાળ નિસાર થઈ જાય છે, એ જ પ્રમાણે સંયમાનુ ઠાન રૂપ સારથી રહિત સાધુને આત્મા પણ નિસ્ટાર બની જાય છે. આ ' પ્રકારે નિસાર અને સાધુ કેવળ વેષધારી સાધુ જ ગણાય છે. એ નિસાર સાધુ આ લેકમાં પિતાના ગચ્છના અનેક શિષ્ટ સાધુઓને તિરસ્કાર પામે છે, એટલું જ નહીં પણ પરલોકમાં અનેક પ્રકારના વાતમાस्थान -तरे. 'छे-मतिमा ५न्न थने भने -यातनामे सड़न કરે છે. ગાથા ૨૬ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ सम्प्रति साधु कल्पमाह मूलम् - अण्णातपिंडेणऽहियास एज्जा, संदेहिं रूवेहिं असज्जसाणे, सूत्रकृताङ्गसूत्रे जो पूणं तसा आवहेज्जा । 39 वेहिं कामेहिं विणीयं गेहिं" ॥२७॥ छाया - अज्ञात पिण्डेनाऽधिस हेव, न पूजनं तपसाऽऽवहेत् । ་ शब्दै रूपै रसज्जन् सर्वैः कामैः विनीय गृद्धिम् ||२७| अन्वयार्थः -- यत एवमतः साधुः (अण्णातपिंडेण अहियास एज्जा) अज्ञातपिण्डेनाज्ञातपिण्डद्वारा अधिसदेत संययात्रां निर्वहेत् (तवसा पूयण णो आवहेज्जा) तपसा पूजनं स्वकीयसत्कारं नावहेत् नो ब्रूयात् (सदेहिं रूचेहिं असज्जमार्ण) 3 साधु का आचार बताते हैं- 'अण्यात गिंडेगऽहियास एजा' इत्यादि । शब्दार्थ -- 'अण्णातपिंडेण अहिवासहेजा - अज्ञातपिण्डेन अधिसहेत' साधु अज्ञातपिण्डके द्वारा अपना निर्वाह करे 'तवसा पूणं णो आवहेज्जा - तपसा पूजनं न आवहेत्' और तपस्या के द्वारा पूजा की इच्छा न करे 'सदेहिं रूपेहिं असज्जमाणे- शब्दैः रूपैः असज्जन् ' तथा शब्द और रूपलें आसत न होता हुआ 'सन्देहि सर्वैः सभी 'कामेहि-कामैः' विषय रूपी कामनाओं से 'गेहिं गृद्धिम्' आसक्तिको 'विणीय - विनीय' दूर करके संयमका पालन करें ||२७|| अन्वयार्थ - साधु अज्ञानपिण्ड के द्वारा संयम यात्रा का निर्वाह करे । तपस्या के द्वारा सत्कार सम्मान की अभिलाषा न करे । मनोज्ञ हवे सूत्रार साधुना मायाशे मंतावे हे- 'अण्णातपिंडेणऽहियास एज्जा' शब्दार्थ' - 'अण्णावपि डेण अहियाखज्जाए- अज्ञ तपिण्डेन अधिसहेत' साधु अज्ञातपिउ द्वारा पोताना निर्वाह रे 'तवसा पूयणं णो आवहेज्जा - तपसा 'पूजनं न आवहेत्' तथा तपस्या द्वारा भूलनी ४२ न रे 'सदेहि' रूवेहि असज्जमाणे - शब्दैः रूपैः असज्जन्' तथा शब्द सुने ३ खासत થયા विना ं ‘सव्त्रेद्दि’–सर्वैः' · मधा' 'कामेहि' - कामैः' विषय यी अभनाये थी 'गेहिं-गृद्धिम्' यासमिने 'विणीय-विनीय' हर ४रीने सायमेनुं पालन करे ॥२७॥ સૂત્રા—સાધુએ અજ્ઞાત પિડ દ્વારા સયમયાત્રાને નિર્વાહ કરવા ોઇએ. તપસ્યાઓ દ્વારા સત્કાર સન્માનની ઈચ્છા કરવી જોઈ એ નહી, S Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशोलवतां दोषनिरूपणम् 2 ६३३ शब्दे णादि जविवमनोज्ञशब्दः रूपै मनोज्ञैः अवज्जन् आसक्तिमकुर्वन् (सव्वेहि) सर्वैः (कामेर्डि) कामैः - इच्छा मदनरूपैः (गेर्हि) वृद्धि मासक्तिम् ( विणीय) विनीय - अपनी सबसे पालयेदिति ||२७|| टीका- 'अण्णावपिंडेग' अज्ञातपिण्डेन=उडत्या लब्धेन अज्ञातवासी पिण्डः अन्तप्रान्तः पर्युपितः तेन, अज्ञातेभ्यः पूर्वाऽपरपरिचयरहितेभ्यः प्राप्तपिण्डः serज्ञात पिण्डस्तेन 'अहियासएज्जा' अधिसहेत - संयमयात्रां निहेत् । तथा'सा' तपसा तपसा - तपस्यया वा आत्मनः पूयर्ण' पूजनम् 'गो' न 'आवहेज्जा' आवहेद-न वा गच्छेत् । अन्तमान्तेन लब्धेनाऽलब्धेन दैन्यं न कुर्याद, नवा उत्क्र टेन लब्धाहारेण महमपि कुर्यात् । नवा आदरसत्कारार्थ तप कुर्यात् । अथवा-सान शब्दों और रूपों में आसक्ति न करता हुआ, समस्त कामयोगों की गृद्धि को दूर करके संयम का पालन करे ||२७|| टीकार्थ- जो पिण्ड अर्थात् आदार अन्त प्रान्त रूखा सूखा शीतल (वासी) हो वह अथवा जो पूर्वकालीन परिचित न हो, उससे ग्रहण किया हुआ हो वह अज्ञातपिण्ड कहलाता है । इस प्रकार साधु भिक्षावृत्ति से प्राप्त आज्ञातपिण्ड से अपनी संपलयात्रा का निर्वाह करें | तपश्चर्या करके उससे अपनी मान सन्मान की इच्छा क करें । यदि अन्तान्त आहार मिले अथवा न मिले तो भी दीनता धारण ने करें । उत्तम और पर्याप्त आहार पाकर अभिमान न करें । 'सत्कार सम्मान पाने की कामना से तप न करें जो तप मोक्ष की साधन 7 · મનેાજ્ઞ શબ્દો અને રૂપે!માં તેણે આસક્ત થવુ' જોઇએ નહી. સમસ્ત કામलोगोनी गृद्धि (साससा) ने। त्याग उरीने, तेथे सयभनुं पासन ४वु' ले रंज टीअर्थ — ने पिंड अथवा आहार, अन्त, आन्त, सूजो, सूहौं, 831, વાસી હૉય તેને, અથવા પૂર્વકાલીન પરિચય ન હેાય એવા દાતા પાસેથી ગ્રહણુ કરવામાં આવ્યે હાય, તે આહારને અજ્ઞાતપિડ કહે છે. સાધુએ ભિક્ષાવૃત્તિ દ્વારા પ્રાપ્ત થયેલા, આ પ્રકારના અજ્ઞાતપિંડ દ્વારા પેાતાની સ યૂમયાત્રાના નિર્વાહ કરવા જોઇએ, સાધુએ તપસ્યાએ કરવી જોઇએ, પરંતુ તપસ્યા દ્વારા માન સન્માનની ઇચ્છા રાખવી જોઇએ નહી, અન્તપ્રાત આહારની પન્નુ કદાચ પ્રાપ્તિ થાય કે ન થાય, છતાં પણુ દૈન્યભાવ ધારણ કરવ જોઈએ નડી, ઉત્તમ અને પર્યાપ્ત આહાર મળી જાય, તેા અસિમાન કરવું જોઇએ નહી', સત્કાર અને સન્માન મેળવવાની ઈચ્છાથી તપ કંરવું નહીં. सू० ८० Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे -सम्मानसत्कारनिमित्तत्वेन मोक्षकारणं तपो नैव निष्फली कुर्यात् । तथाचोक्तम् 'परं लोकाधिकं धाम-तपाश्रुनमिति द्वयम् । तदेवाथित्वनिलुप्त सारं तृणलवायते ॥१॥ इति । परलोके उत्तमस्थानदायकं तपः श्रुतं च आभ्यां सांसारिकपदार्थमिच्छन् अनयोः सामर्म निः सरति, तत इमौ शुष्कवणवत् नि'सारौ भवत इति भावः॥ यथा च रसेषु तथैव रूपादावपि, आसक्ति न कुर्यात् इत्यत आह-'सद्देहि' शब्द-वेणुवीणादिशब्दैः 'ख्वेहि' रुपैश्च 'असज्जमाणे' असंजन आसक्तिमकुर्वन् , तथा 'सव्वेहि कामेहिं सर्वेभ्यः कामः सर्वेश्यः कामेश्यः इत्यर्थः 'गेहि गृद्धिम्आसक्तिम् ‘वणीय' विनीय 'अपनीय' परित्यज्येत्यर्थः अनुकूले शन्दे आसक्ति विध्य तथा प्रतिकूलेषु शब्दादिषु द्वेषम कृत्वा मोक्षमार्गे मनो विदध्यात् । साघुउसे मान सन्मान सत्कार का साधन पना कर निष्फल न करें। कहा भी हैं-'परं लोकाधिकं धाम' इत्यादि । ____ 'तप और श्रुत लोक से भी उत्तम अर्थान् लोकोत्तर स्थान (मोक्ष) को देने वाले हैं। इनके तप श्रुत के द्वारा जो सांसारिक पदार्थों की इच्छा करता है, वह इनके तप और श्रुत तिलके (तृणके) के समान निस्लार हो जाते हैं।' । जैसे रसों में आसक्ति करना योग्य नहीं, उसीप्रकार वेणु वीणा आदि के शब्दों में तथा रूप आदि में भी आसक्ति नहीं करनी चाहिए। अतएव कहते हैं-वेणु चीणा आदि वाद्यों के तथा स्त्री आदि के शब्दों में और रूपों में आसक्ति धारण न करता हुआ तथा समस्त कामતપ એક્ષપ્રાપ્તિનું સાધન છે, તેને માન સન્માન અને સકારનું સાધન બનાવીને નિષ્ફળ કરવું જોઈએ નહીં. કહ્યું છે કે 'परं लेोकाधिकं धाम' छत्याहि- તપ અને શ્રન લેથી પણ ઉત્તમ સ્થાનની (લોકેત્તર રસ્થાન રૂપ મેક્ષની પ્રાપ્તિ કરાવે છે. જેને પિતાના તપ અને શ્રત દ્વારા સાંસારિક પદાર્થોની અભિલાષા કરે છે, તેમનાં તપ અને શ્રત તૃણું (પરાળ)ની જેમ નિસ્સાર થઈ જાય છે. , * જેમ રસમાં આસક્ત થવું તે સાધુને માટે યોગ્ય નથી, એ જ પ્રમાણે વેરવી વગેરેના શબ્દોમાં તથા રૂપ આદિમાં પણ તેણે આસક્ત થવું જોઈએ નહીં. તેથી જ કહ્યું છે કે–વે; વીણ આદિ વાદ્યોમાં, તથા શ્રી અાદિના શબ્દોમાં અને રૂપમાં અસતિ રાખ્યા વિના, તથા સમરત કામ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेमयार्थबोधिनी टीका प्र. ध्रु. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६३५ रझातपिण्डद्वारा स्वकीयसंयमायात्रां निर्वहेत्, तपो द्वारेण सत्कारात्मकख्याति नैवाभिलपे, एवं शब्दरूपरसादिविषयभोगानिवृत्तो भूत्वा शुद्धसंयममनुपालयेत् इति भावः ॥२७॥ पुनरप्याह--'सव्याई संगाई' इत्यादि। . मूलम्-सव्वाइं संगाई अडच्च धीरे, लम्वाई दुक्खाई तितिक्खमाणे । अखिले अंगिद्धे अणिएयचारी अभयंकरे भिक्खू अँणाविलप्पा ॥२८॥ छाया-पर्वान् संगानतीत्य धीरः, सर्वाणि दुःखानि तितिक्षमाणः। - ___अखिलोऽगृद्धोऽनिकेतचारी, अभयंकरो भिक्षुरनाविलात्मा ॥२८॥ भोगों में अनासक्त रहता हुआ अर्थात् मनोज्ञरूप आदि में राग और. अमनोज्ञ में ट्रेप का त्याग करके मोक्षमार्ग में ही मन को स्थापित करें। तात्पर्य यह है हि साधु अज्ञातपिण्डद्वारा अपनी संयमयात्रा का निर्वाह करे, तपस्या के द्वारा पूजा पाति की कामना न करे तथा शब्द, रूप, रस आदि इन्द्रियों के विषयों से निवृत्त होकर शुद्ध संयमका पालन करें । २७॥ पुनः कहते हैं-'सव्वाइं संगाई' इत्यादि । । शव्दार्थ--'धीरे भिक्खू-धीरः भिक्षुः' बुद्धिमान् साधु 'सव्वाई: संगाई अहच्च-लनि संगान अनीत्य' सब प्रकार के सम्बन्धों को ભગો પ્રત્યે અનાસક્ત ભાવ ધારણ કરીને, એટલે કે મને જ્ઞ રૂપ આદિમાં રાગ અને અમનેશ રૂપ આદિમાં શ્રેષને ત્યાગ કરીને સાધુએ મોક્ષમાર્ગ રૂપ સંઘમમાં જ મનને એકાગ્ર કરવું જોઈએ-સંયમની આરાધના જ કય ४२वी नसे. તાત્પર્ય એ છે કે સાધુએ અજ્ઞાત પિંડ દ્વારા પિતાની સંયમયાત્રાને નિર્વાહ કર, તપસ્યા દ્વારા માન અને સત્કારની કામના ન કરવી, રાબ, રસ, રૂપ આદિ ઈદ્રિના વિષયોથી નિવૃત્ત થઈને શુદ્ધ સંયમનું જ પાલન કરવું જોઈએ. ગાથા ૨૭ના साधुना मायाशेतु सूत्रा२ विशेष न ४२ छ-'सवाई संगाईया ' शा- 'धीरे भिक्खु-धीरः भिक्षु.' भुद्धिमान् साधु 'सव्वाई संगाई अच्च-सर्वान् संगान् अतीत्य' मा १ १२ना सधान छोडीन 'सव्वाइ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे : अन्वयार्थः-(धीरे भिक्खू) धीरो विवेकी भिक्षुः साधुः (सव्वाई संगाई इच्च) सर्वान् संगान् सम्बन्धान अतीत्य परित्यज्य (सव्वाइं दुक्खाई तितिक्खमाणे) सर्वाणि दुःखानि-शीतोष्णादिरूपाणि परीपहोपसर्गजनितानि तितिक्षमाणोऽधिसहन (अखिले अगिद्धे अणिएयचारी) अखिलो ज्ञानदर्शनचारित्रैः संपूर्णः अगृद्धः कामेषु तथा अनिकेतचारी अप्रतिवद्धविहारी (अभयंकरे) अभयंकरो भूतानामभयदाता (अणादिलप्पा) अनाविलात्मा विषयकपायरहितः संयम पालयेत् इति ॥२८॥ छोडकर 'लम्बाई दुक्खाई तितिक्खमाणे-सर्वाणि दुःखानि तितिक्षमाण: संघ प्रकार के दुःखों को सहन करता हुआ 'अखिले अगिद्धे अणिएयचारी-अखिलो अमृद्धः अनियतचारी' ज्ञान दर्शन और चारित्र से सम्पूर्ण तथा विषय भोगों में आलत न होता हुआ एवं अप्रतिबद्ध विहारी 'अभयंकरे-अभयंकर' प्राणियों को अभय देनेवाला 'अणाविलप्पा-अनादिलात्मा' लथा विषयकषधों से अनाकूल आत्मा. वाला होकर सम्यकू प्रकारले संयनका पालन करता है ॥२८॥ .: अन्धयार्थ--धैर्यवान् भिक्षु लमस्त संगों सम्बंधों से अलग रहकर समस्त दुःखो को लहल करता हुमा, ज्ञान दर्शन चारित्र तले सम्पूर्ण होकर, क्षामभोगों में अनासक्त, अप्रतिपद्धविहारी, अभयंकरप्राणियों को अभयदाता और विषय कषाय से रहित होकर संयम का पालन हारें ॥२८॥ दुक्खाई तितिक्खमाणे-सर्वाणि दुःखानि तितिक्षमाणः' मा ४ प्रारनामाने सहन ४२ता था 'अखिले अगिद्धे अणिएयचारी-अखिलोऽगृद्धः अनियतचारी' જ્ઞાનદર્શન અને ચારિત્રથી સંપૂર્ણ તથા વિષયોમાં આસક્ત ન થતા यी तथा मतिमद्धविखारी 'अभय करे-अभयंकर' प्राणियाने सय मा५. qatan 'अणाविलप्पा-अनाविलात्मा' तथा विषय उपायोथी मनात मामाવાળ થઈને સમ્યક્ પ્રકારથી સંયમનું પાલન કરે છે. તે ૨૮ છે सूत्रा-धैर्यवान् साधुये समस्त गान। (समाधान।) त्या शत, સમરત દુઃખને સહન કરતા થકા, જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર અને તપથી પરિ પૂર્ણ બનીને, કામ પ્રત્યે અનાસક્ત ભાવ રાખીને, અપ્રતિબદ્ધ વિહારી, અભયંકર (પ્રાણીઓને અભયદાતા) અને વિષય કષાયોથી નિવૃત્ત થઈને સંયમનું પાલન કરવું જોઈએ. પરંતુ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनो टीका प्र.श्रु. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६३७ , टीका-धीरे-धीरो बुद्धिमान् 'भिक्खू भिक्षु:-निरवद्यभिक्षणशील। साधु:'सवाई' सीन् 'संगाई' संगान् 'अइच्च' अतीत्य-आन्तरान् स्नेहस्वरूपान् वाह्यान् द्रव्यपरिग्रहलक्षणान् संवन्धान परित्यज्य 'राब्याई' सर्वाणि 'दुक्खाई दु खानि शारीरमान सानि परिग्रहपरीपहोपसर्गजनितानि "तितिक्खमाणे' तितिक्षमाण ऽधेिसहन् 'अखिले' अखिला-ज्ञानदर्शनचारित्रसंपन्नः 'अगिद्धे' अमृद्धः कामादिवैकारिकपदार्थेषु आसक्तिरहितः । 'अणिएयचारी' अनिकेतचारी, अमतिबद्धविहरणशीला। तथा 'अभयंकरे अभयंकर:-जीवानां सदैवाऽभयदाता । एतावता सर्वहिंसानिवृत्तः । एक्स् 'अणाविलप्पा' अनाविलात्मा-अविल: कषायादिपरिहतः न आविलोऽनाविला, कपायादिभिरकलुपीकृतः, अनाविलचासौ आत्माचेति अनाविलात्मा । सर्वदा कपायरहितः । मोक्षमार्गानुपायी भवेदिति। बुद्धिमान् साधुः सर्व संवन्धं परित्यज्य परिषहोपसर्गननितदुःखानि सहमानः टीकार्थ-बुद्धिमान साधु रागादि रूप आन्तरिक संगको और द्रव्यपरिग्रह रूप बाह्य संग को त्याग कर, समस्त शारीरिक, मानसिक, तथा परीषह उपसर्गजनित दुःखों को लहन करता हुमा, ज्ञान दर्शन चारित्र तप से परिपूर्ण समस्त परपदार्थों में आसक्ति रहित, अनियतचारी अर्थात् अप्रतिबद्ध विहारी अथवा अनिकेतचारी एक जगह घर बनाकर न रहने वाला समस्त जीवों को अभयदाता अर्थात संम्पर्ण हिंसा से निवृत्त तथा कषाय आदि विकारों से अकलुषित आत्मा को कर मोक्षमार्ग का अनुयायी हो । तात्पर्य यह है कि-साधु समस्त सम्बन्धों को त्याग कर परीषदों तथा उपलगों से उत्पन्न होने वाले दुःखों को धैर्य के साथ सहन करें। ટીકાઈ–બુદ્ધિમાન સાધુએ રાગાદિ રૂપ આતરિક સંગનો અને દ્રય પરિગ્રહ રૂપ બાહ્ય સંગને ત્યાગ કરવો જોઈએ. તેણે શારીરિક, માનસિક અને પરીષહ તથા ઉપસર્ગો દ્વારા જાનિત સમસ્ત દુને સમભાવપૂર્વક સહન કરતા થકા જ્ઞાન દર્શન ચારિત્ર તપથી પરિપૂર્ણ થઈને, સમસ્ત પર પદાર્થોમાં આસક્તિને ત્યાગ કરવો જોઈએ અને અનિયતચારી (અપ્રતિબદ્ધ વિહારી) અથવા અનિકેતચારી (એક જગ્યાએ ઘર બનાવીને ન રહેનાર) થવું જોઈએ. તેણે સમસ્ત જીના અભયદાના થવું જોઈએ એટલે કે હિંસાને સંપૂર્ણ રૂપે ત્યાગ કરવો જોઈએ અને કષાય આદિ વિકારને પરિત્યાગ કરીને મેક્ષમાર્ગ રૂપ સંયમની આરાધના કરવી જોઈએ. તાત્પર્ય એ છે કે સાધુએ સમસ્ત સંબધને ત્યાગ કરીને પરિવહો અને ઉપસર્ગો દ્વારા ઉત્પન્ન થતાં દુ:ખને શૈર્ય પૂર્વક સહન કરવા જોઈએ. Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફિટ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ज्ञानदर्शन चारित्राख्यरत्नत्रयसंयुतः कस्मिन्नपि विषयेऽनासक्तोऽप्रतिबद्धविहारी सर्वेषां प्राणिनिवहानां सदैव सर्वथाऽभयं प्रयच्छन् विषयक पायाभ्याम् - अनाकुकृतः संयमैकरतो भूयादिति भावः ॥ २८ ॥ ---- पुनरप्याह – 'भारस्स जत्ता' इत्यादि । यूलम् - भारस्त जन्त्ता सुणी सुजएज्जा, कखेञ्ज पावस्त विवेगं भिक्खू । दुक्खेण पुंडे यमाइएज्जा, संगमसीसेव परं दमेज्जा ॥ २९॥ छाया - भारस्य यात्रा यै मुनि भुञ्जीत का क्षेत् पापस्य विवेकं भिक्षु । दुःखेन स्पृष्टो धुतमाददीत संग्रामशीर्ष इव परं दमयेत् ||२९|| रत्नत्रय से युक्त हो और किसी भी विषय में मूर्च्छित न हो । अप्रतिबद्ध विहार करे और प्राणीमात्र को अभयदाता हो । उसकी आत्मा विषय एवं कषाय से मलीन न हो । एक मात्र संयम में ही निरत-तः पर रहे ||२८|| और भी कहते हैं-'भारस्त जन्त' इत्यादि । शब्दार्थ - - ' मुणी - मुनिः' साधु 'भारहल - भारस्य' संघमरूपी भार की 'जता - यात्राये' रक्षा के लिये 'भुंजएज्जा-भुंजीत' आहार लेवें 'भिल्लू - भिक्षु,' साधु 'पावरस विवेगं कखेज्ज -पापस्थ विवेकं का क्षेत्' अपने किये हुए पापको त्यागने की इच्छा करे 'दुक्खेण पुढे धुधતેણે જ્ઞાનદન અને ચારિત્ર રૂપ રત્નત્રયથી યુક્ત થઈને શબ્દાદિ વિષયામાં આસક્ત થવું જોઈએ નહીં. તેણે અપ્રતિબદ્ધ વિહારી વુ જોઈએ અને હિંસાથી નિવૃત્ત થઈને પ્રાણીમાત્રના અભયદાતા થવુ જોઇએ. તેના આત્મા વિષયા અને કષાયાથી ક્લુષિત થવા જેઈએ નહી. તેણે સંચમાનુષ્ઠાનમાં જ પ્રવૃત્ત થવુ' જોઈએ. ગાથા ૨૮ા સૂત્રકાર કહે છે કે शब्दार्थ' - 'मुणी - मुनिः' साधुये 'भास्स - भारस्य' सयम३य भारनी'जत्ता-यात्राचै' २क्षा ४२ मा 'भुंजएज्जा - भुंजित ' आहार देवे। 'भिक्खू - भिक्षुः' सधु 'पात्रस्य विवेग कंखेज्जा - पापस्य विदेकं कडिक्षेत्' पोतेरेसा पापने त्यागवानी धरा रे 'दुक्खेण पुढे धुमाइएज्जा - दुखेन स्पृष्टः धुतम् आद्दीत ' સાધુના આચારોનુ વિશેષ નિરૂપણ કરતા ' भारस्स जत्ता' त्याहि Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ___ अन्वयार्थी--(गुणी) मुनिः साधुः (भारस्स) भारस्य-संयमभारस्य (जत्ता) यात्रायै निर्वाहार्थम् (भुंजएज्जा) मुंजीत-आहारं कुर्यात् (भिक्खू) भिक्षुः (पावस्त विवेगकंखेज्ज) पापस्य कर्मगः विवेकं पृथग्भावं कांक्षेन अमिलषेत (दुक्खेण पुढे धुयमाइएज्जा) दुःखेन पीडया स्पृष्टो व्याप्तः सन् धुने संयमं मोक्ष चा आददीत गृह्णीयात् (मंगामसीसेव पर दमेज्जा) संग्रामशीर्षे रणभूमौ इव परं कर्मशत्रुम् दमयेत् दमनं कुर्यादिति ॥२९॥ टीका-'सुणि' मुनि:-जिनाज्ञामननशील:-'भारस्स' संयममारस्य जत्ता यात्रायै यात्रार्थ पंचमहाव्रतनिर्वाहा 'झुंजएज्जा' भुञ्जीव आहारं कुर्यात, तावदेव भोक्तव्यं यावता शरीरं पचलेल् न तु शरीरवृद्धये भुञ्जीत । तथा-'पावस्स माइएज्जा-दुःखेन स्पृष्टः धुतम् आददीत' तथा दुःखसे स्पर्श पाता हुआ संयम अथवा मोक्ष में ध्यान लगावें 'संगामसीसेव परं दमेज्जा-संग्रामशीर्ष इव परं दमयेत्' युद्धभूमि में सुभट पुरुष शत्रु के योद्धा को दमन करता है इसी प्रकार साधु कर्मरूपी शत्रुओं को दमन करते रहे ॥२९॥ अन्वयार्थ--मुनि संयम की यात्रा का निर्वाह करने के लिए आहार करें, पाप कर्म के पृथक्त्व की आकांक्षा करे। दुःख से स्पृष्ट होकर संयम या मोक्ष को ग्रहण करे । जैसे योद्धा संग्राम के अग्रभाग में शत्रु का दमन करता है, उसी प्रकार कर्मशत्रु का दमन करे ॥२९॥ - टोकार्थ--जिन भगवान् की आज्ञा का मनन करने वाला मुनि कहलाता है। ऐसा मुनि पंच महाव्रत रूप संयम यात्रा का निर्वाह करने તથા દુખથી સ્પર્શ પામીને સંયમ અર્થાત્ મોક્ષમાર્ગમાં ધ્યાન લગાવે सामीसेव पर दमेज्जा-संग्रामशीर्ष इव पर दमयेत्' युद्धभूमिमां सुभट પુરૂષ શત્રુના ચદ્ધાનું દમન કરે છે, એ જ પ્રમાણે સાધુ કર્મરૂપી શત્રુઓનું દમન કરતા રહે છે ૨૯ છે ' સૂત્રાર્થ–મુનિએ સંયમયાત્રાને નિર્વાહ કરવા પુરતો જ આહાર લે જોઈએ. તેણે પાપકર્મોને આત્માથી અલગ કરવાની જ કામના સેવવી જોઈએ. દુઃખ આવી પડે, ત્યારે સમભાવ પૂર્વક દુઃખ સહન કરીને સંયમ અથવા મોક્ષમાર્ગમાં અવિચલ રહેવું જોઈએ. જેવી રીતે ચોદ્ધો સંગ્રામના અગ્રભાગમાં ઊભા રહીને શત્રુનું દમન કરે છે, એ જ પ્રમાણે તેણે કર્મશત્રુનું દમન કરવું જોઈએ. રક્ષા ટીકાર્થ_જિનેન્દ્ર ભગવાનની આજ્ઞાનું મનન કરનાર સાધુને સુનિ કહે છે. એવા મુનિએ પાંચ મહાવ્રત રૂપ સંયમયાત્રાને નિર્વાહ કરવાને માટે જ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० सूत्रकृताङ्गसूत्रे पापस्य, पूर्वाचरिताऽभुभकर्मणः 'विवेग' विवेकं पृथक्भावं पार्थक्यम् 'कंखेज्ज' आकांक्षेत्, तया 'दुक्खेण' दुःखेन-दुःखयतीति दुःख परीपहोपसर्गजनिता पीड़ा, तेन 'पुढे' स्पृष्टः-व्यासोऽपि सन् 'धुयमाइएज्जा' धुतमाददीत, धुतं-संयमम् मोक्षं वा गृहीयात् । 'संगामसीसे' संग्रामो रणः तस्य शिरसि पुरोमागे इत्र ' 'परं दमेज्जा' परंशत्रु नयेत् । यथा-कश्चिदतुलपराक्रमः सुभटः संग्रामानभागेस्थितः शत्रुभिर्वाध्यमानोऽपि तेषां बाधां धैर्येण सहन् तान् विनाशयति । एवमेवदान्तः साधुरवि संयममार्ग स्थित परिपहादिमिश्नवरतं बाध्यभानोऽपि कर्मशत्रु सहसा विनाशयेत् ॥इति।।२९॥ पुनरप्याह- 'अविहम्ममाणे' इत्यादि । मूलम्-अविहम्ममाणे फलगावतही समागमं कखति अंतकस्स। णिधूय कम्मण पवंचुवेह अलखए शालगडसिजेमि॥३०॥ के लिए ही आहार करें। उले उत्तना ही आहार करना चाहिए जिससे शरीर काम देता रहे । वह शरीर की पुष्टि के लिए न खाएँ । तथा पूर्योपार्जित अशुभ कर्म को पृथक करने की आशांक्षा करें। जय दुःख अर्थात् पीपह उपसर्गजनित पीड़ा से स्पृष्ट हो तो संयम को अथवा मोक्ष को ग्रहण करे । जैसे अनुपम पराक्रम वान सुभः संग्राम के अग्रंभाग में स्थित होकर शत्रुओं द्वारा बाधित होकर भी उस बाधा को धैर्य के साथ सहन करता है और शत्रुओं का विनाशकरता है। इसी प्रकार दमनशील साधु संघममार्ग में स्थित होकर परीषहों आदि से पीड़ित होने पर भी कर्म शत्रुओं को विनष्ट करने में पराक्रम करें।२९। આહાર લેવું જોઈએ. તેણે એટલે જ આહાર લેવો જોઈએ કે જેથી શરીર કામ દેતું રહે. તેણે શરીરની પુષ્ટિને માટે કે સ્વાદેલોલુપતાને કારણે ખાવું જોઈએ નહીં. તેણે પૂર્વોપાર્જિત કર્મોને આત્માથી અલગ કરવાની જ અભિલાષા કરવી જોઈએ. જ્યારે દુખ આવી પડે એટલે કે પરીષહ કે ઉપસર્ગજનિત પીડા આવી પડે, ત્યારે તેણે સમભાવ પૂર્વક તેને સહન કરીને સંય મના અથવા મેક્ષના માર્ગ પર અવિચલ રહેવું જોઈએ. જેવી રીતે અનુપમ પરાક્રમથી યુક્ત સુભટ, સંગ્રામના અગ્ર ભાગમાં દૃઢતા પૂર્વક ખડે રહીને, શત્રુઓ સારા ગમે તેવી મુશ્કેલીઓ ઊભી કરવામાં આવે તે પણ પૈર્યથી તેમને સામનો કરીને, શત્રુઓને વિનાશ કરે છે, એ જ પ્રમાણે દનશીલ સાધુ પy સંયમમાર્ગમાં દઢ રહીને. પરીષહે આદિ દ્વારા પીડિત થવા છતાં પણ, કર્મશત્રુઓનો વિનાશ કરવામાં જ પ્રયત્નશીલ રહે છે. ગાથા ૨લા Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समयार्थचोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६४ छाया-अपि हुन्यमानः फलकायतष्टः समागम कांक्षत्यन्तकस्य । निधूय कर्म न प्रपञ्च पैति अक्षक्षय इव शकटमिति ब्रवीमि ॥३०॥ अन्वयार्थ:-(अविहम्ममाणे) साधुः अपि हन्यमानः उपसर्गादिभिः पीडयमानोपि (फलगावतही) फलकाववष्ट:-फलकवत् तन्कृत (अंतकस्त समागमं और कहते हैं-'अवि हम्ममाणे इत्यादि। शब्दार्थ--'अविलम्ममाणे-अपि हन्धमान; साधु परीपछ एवं उप सों के छारा पीडा पाता हुमा भी उल्ले सहन करे 'फलगावतही-फल कावष्ट:' जैसे काष्ठ की पटिया दोनों तरफले छीली जाती हुई रागद्वेष नहीं करती है उसीप्रकार बाह्य एवं अभ्यन्तर तपले कष्ट पाता हुआ श्री रामद्वेष न्ह कारे 'अंतर समागमं खति-अन्तकस्य समागम कांक्षति' कृत्यु के आनेकी प्रतीक्षा करे 'मिधूय क.म्म-कर्म निळू थ' इस प्रकार से कर्म को दूर कर साधु 'ण पवंचुवेह-न प्रपञ्चम् उपैति' जन्म, मरण और रोग, शोक आदि को प्राप्त नहीं करता है 'अक्खक्खए वा सगडं-अक्षक्षणे शकटमिव' जसे अक्ष (धुर) के टूट जाने से गाडी आगे नहीं चलती है 'त्तिवेमि-इति ब्रवीमि' ऐसा मैं कहता हूं ॥३०॥ __ अन्वयार्थ--उपलगों द्वारा पीड़ित होने पर भी साधु काष्ठ के पटिये के जैसे रागद्वेष न करे, किन्नु समभाव ले मृत्यु की प्रतीक्षा करे । सूत्रा२ साधुसोने ४ छ-'अवि हम्ममाणे' त्याह शहाथ-'अवि हम्ममाणे-अपि हन्यमानः' साधु परीष मन पसी द्वारा पी। पामीन ५ तेने सहन रे ‘फलगावती-फलकावतष्टः' म લાકડાના પાટિયા બને બાજુથી છેલાવા છતાં પણ રાગદ્વેષ કરતા નથી એજ પ્રમાણે બાહા અને અત્યંતર તપથી કષ્ટ પામીને પણ રાગદ્વેષ ન કરે 'अंतकस्स समागमं कंखति-अंतकस्य समागमं कांक्षति' ५२'तु भात यावानी राई से णिधूय कम्म-कर्म निर्धू य' २३ तथा भने २ ४शन साधु 'ण पवंचुवेइ-न प्रपञ्चम् उपे ते' H, भ२६ मन राग, श, विगैरने प्राप्त ४२ता नथी 'अक्खक्खए वा सगडं-अक्षक्षये शकट मिव' म सक्ष हेता घेसरानी तूट थी गाडी मागण यासी २४ती नथी. 'त्तिवेमि-इति ब्रवीमि' એ પ્રમાણે હું કહું છું ૩૦ સૂત્રાર્થ—-ઉપસર્ગો દ્વારા પીડિત થવાને પ્રસંગ આવી પડે, તે પણ સાધુએ કાષ્ટના પાટિયાની જેમ રાગદ્વેષ કર જોઈએ નહીં, પરંતુ સમભા. .... Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे केवति) अन्तकस्य मृत्योः समागममागमनं पण्डितमरणं कांक्षति आकाङ्क्षति ( विधूय कम्मं ) कर्म निर्धूयापनीय (ण पवंचुचेड) प्रपञ्चम् संसारम् न उपैति न प्राप्नोति (अक्खक्खए वा सगड) अक्षक्षये शकटमित्र मंत्र्यादिकम् (त्तिवेसि ) इति व्रीमि, इति ॥३०॥ टीका - परीषदादिभिः 'इम्ममाणे' हन्यमानः 'अवि' अपि पीडामुपगतो पि सम्यक् तस्य सहनं कुर्यात् । 'फळगावही फलकावतष्टः, फलकं काष्ठखण्डः उमाभ्यामपि पार्थाभ्यां दष्ठो वर्षितो घर्षणमनुमान् । अथवा, यथा काष्ठखण्डः शीतातपाभ्यां पराभूयमानोऽपि न वेपथे, सुखं दुःखं वा नानुभवति । तथा - साधुरपि वाह्याभ्यन्तरतपोभ्यां निष्टवदेहः सन् अत्र तिष्ठेत्' एवंभूतः सन् अंतस्स' अन्तं विनाशं करोतीति, अन्तको मृत्युः तस्य 'समागम' समागमम् आगमनम् पण्डितमरणरूपं 'कंखिति' कांक्षति-अभिलपति । एवम् - 'कम्मं अष्टविधं कर्म ज्ञानावरणीयादिकं विधूय' नितरां निर्धूय विनाश्य 'ण' न 'पवंचुवेइ' ऐसा करने वाला साधु भ्रमण को प्राप्त नहीं होता जैसे धूरा टूट जाने पर गाड़ी आदि आगे नहीं चलती । ऐसा मैं कहता हूँ ||३०|| टीकार्थ - - साधु यदि परीषह से पीड़ित हो तो उसे सम्यक् प्रकार से सहन करें । जैले काठ का पटिया दोनों ओर से छीला जाने पर भी या काष्ठ का खण्ड हर्डी नर्मी से पराभूत होकर भी कम्पित नहीं होता या रागद्वेष के वशीभूत नहीं होता, उसी प्रकार उपसर्ग आदि से पीड़ित होता हुआ भी साधु राग द्वेष से रहित होकर मृत्यु की प्रतीक्षा करता है अर्थात् समाधि मरण की अभिलाषा करें। ऐसा करके वह વથી મૃત્યુને ભેટવા તૈયાર રહેવુ' જોઈ એ. જેમ પૂરા તૂટી જાય ત્યારે ગાડી આગળ વધી શકતી નથી, એજ પ્રમાણે કાંને સદન્તર ક્ષય થઈ જવાથી ભવભ્રમણ પણ ચાલુ રહી શકતું નથી, એવુ તીર્થંકરેક્ત કથન છે. હુ તે કથનનું જ અનુકથન કરી રહ્યો છું, ૫૩ના ટીકા—ગમે તેવાં ઉપરીષહેને પણ સાધુએ સમભાવપૂર્વક સહેન કરવા જોઇએ. જેમ લાકડાના પાટિયાને અન્ને તરફથી ઠેલવામાં આવે, અથવા તેને ગમે તેવી ઠંડી ગરમી સહન કરવી પડે, તે પણ તેના લાકડાના પાટિયા પર કેાઈ પ્રભાવ પડતા નથી, એજ પ્રમાણે ઉપસર્ગ આદિ દ્વારા ગમે તેવી પીડા સહન કરવાના પ્રસા આવે, તે પણુ સાધુ રાગદંપથી રહિત થઈને, મૃત્યુની પ્રતીક્ષા કરે છે, એટલે કે સમાધિ મરણની અભિલાષા કરે છે. એવું કરવાથી તે જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠે પ્રકારનાં Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समयार्थचोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.७ उ.१ कुशीलवतां दोपनिरूपणम् - -६४३ प्रपञ्च समुपैति, प्राञ्चं जरामरगादि प्रपच्यते विस्तार्यते यस्मिन् स प्रपञ्च: संसारस्तं न प्राप्नोति । 'अप्रखरखर' अक्षक्ष-अक्षत्र क्षये विनाशे सति 'सगडं' शकटम् इव । यथा शकटम्-अक्षस्य रथचक्रयोजकाऽयोदण्डस्य विनाशे सति तन्न गच्छति । तया-माधुरपि संसारमुपगच्छत्तीति। एवं तीर्थकरोदितं तुभ्यमह कथयामि, इति सुधर्मस्वामी-स्वशिष्येभ्यः कश्चयति ।३०॥ इति श्री-विश्वविख्यातजगदल्लभादिपदभूपित्यालब्रह्मचारि - जैनाचार्य' पूज्यश्री-घासीलालनतिविरचितायां श्री सुत्रकृताङ्गसूत्रस्य "समयार्थबोधिन्या. ख्याय" व्याख्यायां कुनीलपरिभाषाख्यं सप्तममध्ययनं समाप्तम् ॥७-१॥ ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों को विनष्ट करके जरा जन्म मरण के प्रपंच से मुक्त होता हैं। जैसे गाडी धुरा के घट जाने पर आगे नहीं जाती, उसी प्रकार साधु भी कमों का क्षय हो जाने से संसार को प्राप्त नहीं होता अर्थात् भवभ्रमण आगे नहीं करता । तीर्थकरोक्त ही मैं तुम्हें कहता हू, ऐसा सुधर्मा स्वामी अपने शिष्यो से कहते हैं ॥३०॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घालीलालजी महाराजकृत 'सूत्रकृताङ्गसूत्र' की समयार्थयोधिनी व्याख्या के कुशील परिभाषा नामका सातवां अध्ययन समाप्त ॥७-१॥ કને ક્ષય કરીને જન્મ જરા અને મરણના દુઃખમાથી મુકત થઈ જાય છે. જેમ ધૂરા તૂટી જાય તે ગાડી આગળ ચાલી શકતી નથી, એજ પ્રમાણે કમેને ક્ષય થઈ જવાને કારણે તે સાધુને પણ ભવભ્રમણ ચાલૂ રહેતું નથી. તીર્થકરેએ આ પ્રમાણે જે ઉપદેશ આપે છે, તેનું જ હું આપની સમક્ષ અનુકથન કરી રહ્યો છું” એવું સુધર્મા સ્વામી પોતાના શિષ્યને કહે છે. ગાથા ૩૦ જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત સૂત્રકૃતાંગસૂત્રની સમયાWધિની વ્યાખ્યાના કુશીલ પરિભાષા નામનું || સાતમું અધ્યયન સમાપ્ત ૭-૧ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દુષ્ટ सूत्रकृतागसूत्रे ॥ अथाष्टमं वीर्याध्ययनं प्रारभ्यते ॥ गतं सप्तममध्ययनम्, अतः परमष्टममारभ्यते । अस्य चायमभिसम्बन्धः, इह मक्रान्ताऽध्ययने कुशीलास्तद्विरोधिनः सुशीलाश्र व्याख्याताः । एतयोः सुशीलकुशलयोः खुशी कुशीलत्वं च संयमवीर्यान्तरायाणामुदयात्तत्तत् क्षयोपशाच्च भवतीत्यतो वीर्यप्रतिपादनायाऽष्टममध्ययनं प्रारभ्यते । अनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्याऽष्टमाऽध्ययनस्याऽऽदिमा गाथा- 'दुहा वेयं' इत्यादि । मूलम् - हा वेयं' सुक्खायं वीरियं ति पच्चाई | १० किंतु वीररसं वीरन्तं कह चेयं पेवुच्चई ॥१॥ छाया - द्विधा वेदं स्वाख्यातं वीर्यमिति मोच्यते । किं नु वीरस्य वीरत्वं कथं चेदं हि प्रोच्यते ॥१॥ आठवें अध्ययन का प्रारंभ सातवाँ अध्ययन समाप्त हुआ। अब आठवाँ प्रारंभ किया जाता है । इसका सम्बन्ध हल प्रकार है- सातवें अध्ययन में कुशील और सुशील साधु की व्याख्या की गई है। सुशील की सुशीलता और कुशील की कुशीलता संयम वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम तथा उदय से होती है । अतः वीर्य का प्रतिपादन करने के लिए अष्टम अध्ययन का आरंभ किया जाता है। इस सम्बन्ध से प्राप्त अष्टम अध्ययन का यह आय सूत्र है - 'दुहावे' इत्यादि । शब्दार्थ - - ' वेयं वीरयति पच्चह-वेदं वीर्यमिति प्रोच्यते' वे आगे स्पष्टरूप से वीर्य को कहाजायगा 'दुह । सुमखायं द्विधा स्वाઆઠમા અધ્યયનના પ્રારભ સાતમુ' અધ્યયન સમાપ્ત થયું. હવે આઠમા અધ્યયનના પ્રારંભ કર વામાં આવે છે. આ સ્મૃયયનના સૌંબંધ આ પ્રમાણે છે.—સાતમા અધ્યયનમાં કુશીલ અને સુશીલ સ્વભાવવાળા સાધુનું કથન કરવામાં આવેલ છે. સુશીલનું સુશી‚ પશુ અને કુશીલનુ કુશીલ પણુ સંયમના વીર્યન્તરાયકના ક્ષયેાપશમ તથા તેના ઉદયથી થાય છે તેથી વીય નુ પ્રતિપાદન કરવા માટે આ અઠમા અધ્યયનના પ્રારંભ કરવામાં આવે છે-આ સંબધથી આવેલ આર્ટમા अध्ययनतु पहेलु' सूत्र 'दुहावेय' त्याहि छे. शब्दार्थ –'वेयं वीरियत्ति पच्वइ-वे वीर्यमिति प्रोच्यते' हुवे पछी स्पष्टश्पथी वीर्यतु' अथवामां आवशे. 'दुहा सुक्खायं द्विधा स्वाख्यातम्' Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थचोधिनी टीका प्र.शु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् अन्वयार्थ:--'वेयं पीरियं ति पवुच्चई' वा इदं वीर्यमिति पोच्यते तत् 'दुहा मुयक्खाय' द्विधा-द्विषकारेण स्वाख्यातं सम्यग्रूपेण कथितम् (वीरस्सवीरत्तं किं नु) वीरस्य-सुमटल्य वीरत्वम् (किं लु) किं नु-कथं भवति, अथवा(कहं चेयं पवुच्चई) कथा-केन प्रकारेण तत्-वीरत्वमुच्यते-कथ्यते इति ।।१।। टीका--'वेयं' वा इदम् 'पीरियं ति बीयमिति 'दुहा' द्विधा-द्विप्रकारेण 'सुयक्खाय' वाख्यातं-सुकथितम् । वेयमित्यत्र वा शब्दो-वाक्यालङ्कारे भवति, 'इदं शब्दस्य प्रत्यक्षविषये शक्ति' इदमस्तु सन्निकृष्टे तदिति परोक्षे विजानीयादिति नियमात् । तथा च इदं बुद्धया सन्निकृष्टं प्रत्यक्षमायम्, वीर्यम्. द्विधा-द्विमकारकं प्रकारद्वयेन विभिन्नं भेदद्वयभिन्न, भेदद्वयविशिष्टं ख्यातम्' इसे तीर्थकरोंने दो प्रकारका कहा है 'वीरस्स वीरतं किं नुवीरस्य वीरत्वम् कि लु' वीर पुरुषकी वीरता क्या है ? कहं चेयं प. च्चइ-कथं चेदं प्रोच्यते' किस कारण ले वह वीर ऐसा कहा जाता है ।१। ___अन्वयार्थ-जो वीर्य कहा जाता है, वह दो प्रकार का कहा है। वीर का वीरत्व क्या है ? वह किस प्रकार से वीर कहा जाता है ? ॥१॥ टीकार्थ--वीर्य दो प्रकार का कहा गया है। 'वेयं' यहां 'वा' शब्द वाक्य के अलंकार अर्थ में है। 'इदम्' शब्द की शक्ति प्रत्यक्ष विषय में है, क्योंकि ऐसा नियम है कि-'इदम्' शब्द सभीष अर्थ में और 'तत्' शब्द परोक्ष अर्थ में प्रयुक्त होता है। अतः इदम' का अर्थ है-बुद्धि से ललीप-प्रत्यक्ष जैसा । मान ताने में प्र४.२नु स छ 'वीरस्स वीरत्तं किं नु-वीरस्य वीरत्वम् किं नु' वी२५३५नी पीरता से शु छ ! 'कहं चेय पवुच्चइ-कथं चेदं प्रोच्यते' કયા કારણથી તેઓ વીર એ પ્રમાણે કહેવાય છે? પાના અન્વયાર્થ—જેને વીર્ય કહેવામાં આવે છે. એવું તે વીર્ય બે પ્રકારનું કહેવાય છે. વિરતું વીરપણું શું છે ? તે કયા પ્રકારથી વીર એ પ્રમાણે उपाय छ १ ॥३॥ An-तीय में ५४२नु वामां मावे छे. 'वेय' माडियां 'वा' શબ્દ વાકયના અલંકાર અર્થમાં આવેલ છે. ઈદમ શબ્દનો પ્રયોગ પ્રત્યક્ષ विषम थाय छे. मई मेव नियम छ है-इदम् !' शहने। सभी५-१७ વાચક અર્થમાં અને “સત્ ! શબ્દને પરોક્ષ અર્થમાં પ્રવેશ થાય છે. જેથી मडिया 'इदम्' से शहन म-मुद्धिनी सभी५ अर्थात् प्रत्यक्ष मे छ, Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D सूत्रकृताङ्गसूत्रे वीर्यम् । 'पवुच्चई प्रोच्यते-कथ्यते तीर्थकरादिभिः, 'सुयक्खाय' स्वाख्यातम्सुष्ठु आख्यातं कथितमिहर्थः, विशेषेण ईस्यति प्रेरयति निष्कासयति अहित येन तद्वीमिति कथ्यते, जी स्य शक्तिविशेषः 'वीरस्स' वीरस्य सुमटस्य 'किनु' किं शब्दः जिज्ञासार्थः, नु शब्दो वितर्कवाची। 'चीरत्तं' वीरत्वं किम्, केन प्रकारेणाऽसौ सुभटो वीर इति कथ्यते । 'कह' कथम्-केन प्रकारेण 'चेय' च इदं वीरत्वम् 'पबुच्चई' प्रोच्यते, यदिदं वीर्य द्विधाविभक्तमिति तत् कि केन वा झारणेन भवति, किंवा तस्य स्वरूपमिति । तीर्थकरगणधराभ्यां वीर्यस्य द्वौ भेदी कथयेते, तत्र जिज्ञास्यते-वीराणां केयं वीरता, कथं वा सवीर इत्याख्यायते इति भावः ॥१॥ यह वीर्य दो प्रकार का तीर्थकरो आदि ने कहा है। वीर्य जीव की एक विशिष्ट शक्ति है। जो विशेष रूप से प्रेरणा करता है-अहित को हटाता है, वह वीर्य कहलाता है। 'तु' शब्द जिज्ञासा के अर्थ में है, वितर्क का वाचक है। अर्थात् यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वीर पुरुष की वीरता क्या है? किस प्रकार से वह सुभट वीर कहा जाता है ? दो प्रकार का जो वीर्य कहा गया है वह क्या है और किस कारण से होता है ? उसका स्वरूप क्या है ? __ आशय यह है-तीर्थकर और गणधर वीर्य के दो भेद कहते हैं। यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि वीरों की वीरता क्या है ? किस कारण से वीर पुरुष वीर कहलाता है ? ॥१॥ આ વય તીર્થકર વિગેરે એ બે પ્રકારનું કહેલ છે. વીર્ય જીવની એક વિશેષ પ્રકારની શક્તિ છે. જે વિશેષ રૂપે પ્રેરણા કરે છે–અર્થાત્ અહિતને હટાવે છે. બે વિર્ય કહેવાય છે. 'नु' श६ ज्ञासाना अर्थमा छे. मने वितन पाय 'छ, अर्थात् અહિયાં એ પ્રશ્ન ઉપસ્થિત થાય છે કે- વીરપુરૂષનું વીરપણું શું છે ? અર્થાત્ કઈ રીતે તે સુભટ અર્થાત્ વીર કહેવાય છે? વીર્ય કે જે બે પ્રકારનું કહેલ છે, તે શું છે ? અને કયા કારણથી બે પ્રકારનું થાય છે ? तेनुं २१३५ बुंछे १ કહેવાનો હેતુ એ છે કે તીર્થકર અને ગણધરો વીર્યના બે ભેદ કહે છે, અહિયાં એવી જીજ્ઞાસા થાય છે વી નું વીરપણું એ શું છે ? કયા કારણુથી વીર પુરૂષ “વીર' એ પ્રમાણે કહેવાય છે ? ૧૫ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४७ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् भेदप्रदर्शनपूर्वकमेव वीर्य रूपम ह-'कम्म मेगे पवेदति' इत्यादि । मूलम्-कम्म भेगे पैवेदति अकरूनं वावि सुवया। एएहिं दोहिं ठाणेहि जेहिं 'दीसंति मच्चिया॥२॥ छाया-कमैं के मवेदयन्त्यकर्म वापि सुव्रताः। आभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यां याभ्यां दृश्यन्ते मयाः ॥२॥ अन्वयार्थः-(एगे कम्मं पवेदेति) एके केचन कसैंव वीर्य प्रवेदयन्ति कथयन्ति (सुव्वया अकम्मं वा दि) हे सुव्रताः । केचन अकर्म एव वीर्य कथयन्ति (मच्चिया) मीः (एएहि) आभ्याम् (दोहिं ठाणेहि) द्वाभ्यां स्थानाभ्याम् (दीसंति ) दृश्यन्ते इति ॥२॥ अघ भेद निरूपण करते हुए वीर्य का स्वरूप कहते हैं'कम्म मेगे पवेदंति' इत्यादि । शब्दार्थ-'एगे कम्मं पवेदेति-एके कर्म प्रवेदयन्ति' कोई कर्म को वीर्य ऐसा कहते हैं 'सुब्बया अकम्मं वावि-सुव्रताः अकर्म वापि' और हे सुव्रतो! कोई अकर्म को वीर्य कहते हैं 'मच्चिया-मोः' मयं लोक के प्राणी 'एएहि-अभ्या' इन्हीं दोहि ठाणेहि-दाभ्यां स्थानाभ्याम्' दो स्थानों से 'दीसंक्ति-दृश्यन्ते' देखे जाते हैं ।।२॥ अन्वधार्थ-हे सुव्रतों ! (अच्छे व्रताले भन्यो ') कोई कर्म को ही वीर्य कहते हैं, कोई अकर्म को वीर्य कहते हैं। इन्ही दो भेदों में मनुष्य देखे जाते हैं ॥२॥ डवे सोनु नि३५ ४२ता वीयन २१३५ ४३ छ. 'कम्ममेगे पवेदंति' त्यादि शहाथ-'एगे कम्म पवेदंति-एके कर्म प्रवेदयन्ति' छ भने वाय से प्रभारी ४ छ 'सुठदया अकम्मं वावि-सुव्रताः अकर्म वापि' मने सा२॥ प्रतवाणा 'भुनियो । मभन पीय मे प्रभाये ४ छे. 'मच्चिया-माः' मृत्युना on 'एएहिं-आभ्यां' मा 'दोहि ठाणेहि-द्वाभ्याम् स्थानाभ्यम्' में स्थानाथी 'दीसंति-दृश्यन्ते' हेमाय छे. ॥२॥ અન્વયાર્થ–હે સુવ્રત (સારાત્રત વાળા ભ) કેઈ કર્મને જ વીયે કહે છે, કેઈ અકર્મને વીર્ય કહે છે ? એ બે ભેદેવાળા મનુષ્યો જોવામાં આવે છે પરા Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे टीका-'एगे' एके विद्वांसः 'कम्म' कमव वीर्यमिति 'पवेदं प्रवेदयन्तिकथयन्ति, क्रियते-स्वप्रयत्नेन निष्पाचवे इति कर्म, क्रियाया अनुष्ठानम्, तदेव कम बीयमिति मविपाद यन्ति । अथवा-अनुष्ठाने प्रवर्तकं तज्जनकम्, अष्टमकारमेव वीर्यमिति प्रतिपादयन्ति। तथाहि-औदायिकमावनिष्पन्न कर्मेत्युपदिश्यते। औदयिकोऽपि भावः कोदयनिष्पन्न एव। 'सुव्यया' सुत्रताः वा शब्दः स्वार्थे । 'अझम्म' अकर्म अपि वीर्यमिति कथयन्ति, न विद्यते कर्म तद् अर्म, बीर्यान्तरायक्षय मनितं जीवरुप स्वाभाविकं वीएम् । अपि शब्देन चारित्रमोहनीयोपक्रमक्षयोपशमननितं च दीयम्, एभूत पण्डितबीमितिभावः। 'एएहि' एताभ्याम् 'दोहिं द्वाभ्याम् 'ठाणेहि' स्थानाभाम्, सकर्मकाऽर्मका पादितवालपण्डितवीर्यायां व्यवस्थितं वीर्यमित्यभिधीयते । जेहिं' याभ्यां स्थानाभ्यां ययो ई स्थानयोः 'मिचिया' माः-भरगधर्माणो मनुष्याः टीकार्थ-कोई विद्वान् कर्म को ही बीर्य कहते हैं। उनका कथन है कि अपने प्रयत्न ले जो निष्पादित किया जाता है, वह कर्म है। वही कर्म बीर्थ कहलाता है। अशक्षा अनुष्ठान में प्रवृत्ति कराने वाला वीर्य आठ प्रकार का है। औदयिकभाव से निष्पन्न कर्म है और औदयिक भाव भी कमोदय से उत्पन्न होता है। कोई सुव्रत कर्मरहित को भी वीर्य कहते हैं। वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाला जीव हो स्वाभाविक बीय है। 'अपि' शब्द से चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम ले उत्पन्न वीर्य भी ग्रहण कर लेना चाहिए। वीर्य के यही दो भेद हैं। इनमें से कर्म बीर्य बालवीय कहलाता है और अकर्मवीथ पण्डितवीर्य भी कहा जाता है। इन्हीं दो 1 ટકાથે કઈ વિદ્વાન કર્મને જ વીયર કહે છે, તેનું કથન એવું છે કે–પિતાના પ્રયત્નથી જ સંપાદિત કરવામાં આવે છે, તેને કર્મ કહેવાય છે. અને એ કર્મ જ વીર્ય” કહેવાય છે અથવા અનુષ્ઠ નમાં પ્રવૃત્તિ કરાવનાર વીર્ય આઠ પ્રકારનું કહેલ છે ઔદયિક ભાવથી યુક્ત કમ છે. અને દયિક ભાવ કર્મના ઉદયથી ઉતપન થાય છે. - કેઈ સુત્રત કર્મથી રહિતને પણ “વીર્ય કહે છે. વીર્યાતરીય કર્મને ક્ષય થવાથી ઉત્પન્ન થવાવાળા જીવને સ્વાભાવિક વીર્ય હેય છે. અહિયાં જિ” શબ્દથી ચારિત્ર મેહનીયના લોપશમથી ઉત્પન થયેલ વીર્ય પણ ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. આ બે ભેદે જ “વીર્યના છે. આમાંથી કમ વીર્ય એ બાલવીર્ય કહેવાય છે, અને “અકર્મવીર્ય એ પંડિતવીર્ય કહેવાય છે. આ બે ભેદે વાળા મનુષ્ય જોવામાં આવે છે જે પ્રમાણે અનેક પ્રકા Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ me's ६४९ समयार्धयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् 'दीसंति' बन्नेऽपदिश्यन्ते वा । तथा हि-अनेकप्रकारककर्मसु प्रयत्नं कुण लादिसम्पन्नं दृष्ट्वा वीर्यवानवमित्येव सरदिश्यते। तथा आवरणकर्मणां क्षमादनन्ववल नम्पन्नोऽयमित्यपदिश्यते, 'दृश्यते च इति । शिष्यप्रश्नानन्तरं श्री सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिभृतिशिष्यवर्गमुद्दिश्य कथ यति - हे सुत्रताः । केचन विद्वांसः कर्मे वीर्यमिति कथयन्ति केचनाकर्मएव वीर्यमिति प्रतिपादयन्ति । अनेन प्रकारेण वीर्य द्विधा विभज्यते, आपामेच भेदाभ्यां सर्वे मर्त्याः परिदृश्यन्ते इति ||२|| वावी कारणे कार्योंश्चाराइ कर्मैव वीर्यत्वेन प्रतिपादितम् । इदानीं कारणे कार्योपचारादेव प्रमादं कर्मत्वेनाऽपदिशन्नाह-सूत्रकारः3- पमायं कम्ममासु' इत्यादि । मूलम् - पेक्षायं कन्धे मासु अन्यमायं हाडवैरं । भावादेओ वदि बाल पंडिये मेत्र वा ॥३॥ छाया - प्रसादं कर्म आहु रमनादं तथाऽपरम् ! तद्भावादेशतो चापि वालं पण्डितमेव वा ॥ ३ ॥ भेदों से या भेदों में मनुष्य दिखाई देते हैं । जैसे अनेक प्रकार कृत्यों में प्रयत्न करने वाले बल आदि से सम्पन्न पुरुष को देखकर 'यह वीर्यवान् है' ऐसा कहा जाता है और कर्मो का क्षय होने से 'यह अनन्त बल से सम्पन्न है' ऐसा कहा जाता है । AXX : - शिष्य के मन के अनन्तर श्रीसुधर्मा स्वामी, जम्बू स्वामी आदि शिष्यवर्ग को लक्ष्य करके कहते हैं- हे सुव्रतो ! कोई-कोई कर्म को ही वीर्य कहते हैं और कोई अकर्म को ही वीर्य कहते हैं । इस प्रकार वीर्य के दो भेद हो जाते हैं। इन्हीं दो भेदों में सभी मनुष्यों को समावेश हो जाता है ||२|| રના કુત્ચામાં પ્રયત્ન કરવ વાળા મળ વગેરેથી યુક્ત પુરૂષને જોઈને આ વીય વાળા છે' એ પ્રમાણે કહેવામાં આવે છે. અને કર્મના ક્ષય થવાથી 'आा अनं'त अज बाणा है.' मे प्रभा हेवामां आवे छे.- "F 1 શિષ્યે પ્રશ્ન કર્યા પછી સુધર્મા સ્વામી, જમ્મૂ સ્વામી વિગેરે શિષ્ય વન ઉદ્દેશીને કહે છે કે-હૈ સુત્રતા ! કાઈ કાઈ કર્મીને જ વી કહે છે. ` આ રીતે વીના એ ભેદા થઈ જાય છે. આ બે ભેદમાં જ સઘળા મનુ ચાના સમાવેશ થઇ જાય છે. શા 12141 3 FRO 2 Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ:--'पमायं कम्म मासु' प्रमाद-मधविषयकपायादिकं कर्म आहुः कथयन्ति तीर्थ करादयः 'तहा अप्पमायं अबरं' तथा-अप्रमादम् अपरम् अकमें बाहु। 'तभावादेसओ वा वि' तद्भाबादेशतः तयोः-बालवीर्यपण्डितवीर्ययोः सत्वादेव 'चालं पंडियमेव वा' वालवीय पण्डितवीर्य वा भवतीति ॥३॥ टीका-'पमार्य' प्रमादम्-प्रकर्पण माद्यन्ति शुभानुष्ठानरहिता भवन्ति जीया येन स प्रमादो मधादिः। उक्तञ्च कारण में कार्य का उपचार करले कर्म को ही बल-दीय कहा गया है, अथ प्रमाद को ही 'कर्म' कहते हैं। यहां भी कारण में कार्य का उपचार से प्रमाद को कर्मत्वसे समझना चाहिए। सूत्रकार यही कहते हैं-'पमायं कम्ममासु' इत्यादि । शब्दार्थ-'पमायं कम्ममालु-प्रमादं कर्म आहु।' तीर्थंकरोंने समादको कर्म कहा है 'ता अप्पमायं अवरं-तथा अप्रमादम् अपरम्' तथा अप्रमाद को अकर्मकहा है 'तभावादेसओ वावि-तदावादेशतोवाऽपि' इन दोनों की सत्ता से ही 'वालं पंडियमेव वा-यालं पण्डितमेवया' पालवीर्य तथा पण्डितवीर्य होता है ॥३॥ :- अन्वयार्थ-तीर्थंकर आदि महापुरुष मध आदि प्रमाद को कर्म 'कहते हैं तथा अप्रमाद को अकर्म कहते हैं। प्रमाद के सद्भाव से बालवीर्य और अप्रमाद के होने से पण्डितवीर्य कहा जाता है ॥३॥ * કારણમાં કાર્યને ઉપચાર કરીને કર્મને જ બાલવીર્ય કહેવામાં આવેલ છે, હવે પ્રમાદને જ “કર્મ કહે છે.! આમાં પણ કારણમાં કાર્યને ઉપર 1 થવાથી પ્રમાદને કર્મપણથી સમજવો જોઈએ સૂત્રકાર એજ કહે છે કે" 'पमायं कम्म मासु' त्यात ----- --'पमायं कम्म माइंसु-प्रमाद कर्म आहुः' तीर्थ से प्रभाहने"म छे. 'तहा अप्पमाय अपरं-तथा अप्रमादम् अपरम्'. तथा मप्रभाहने भी छे. 'तभावादेखओ दावि-तद्भवादेशतो वापि' मा मन्ननी सत्ताथी ४ 'पालं पंडियमेव वा-बालं पंडितमेव वा' मासकीय तथा पतिवाय थाय छे. ॥3॥ . . અન્યૂયાર્થ-તીર્થકર વિગેરે મહાપુરૂષે મદ્ય વગેરે પ્રમાદને કર્મ કહે છે. તથા અપ્રમાદને અકર્મ કહે છે. પ્રમાદના સદૂભાવથી બાલવીર્ય અને અપ્રમાદથી પંડિતવીર્ય કહેવામાં આવે છે. પાકા : - Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ... 'मज्जं विसयकसाया णिहा विगहा य पंचमी भणिया। :: एस पमाय पवाओ णिहिटो, वीयरागेहि ॥१॥ . - छाया-मचं विषयकषायौ निद्राविग्रहश्च पश्चमी भणिता। . . एते प्रमादाः प्रवादो निर्दिष्टो वीतरागैः ॥१॥ इति । एतादृशं प्रमादं मघादिकं कर्मोपादानभूतम् । 'कम्म' कर्म-आहु: कथयन्ति तीर्थकरादयः, 'तहा' तथा 'अप्पमायं' अप्रमादम् 'अवरं' अपरम् अकर्म आहुः-कथयन्ति ते एवाऽऽचार्याः। , . ; ___ अयं भाव-प्रमादवतो जीवस्य कर्मबन्धनं भवति । कमसहितस्य यत् क्रियाऽनुष्ठानं तबालवीयं भवति । तथा-प्रमादरहितस्य जीवस्य, कर्माऽभाषो भवति । कर्माऽभावसहितस्य यत् कर्माऽनुष्ठानं तत् पण्डितवीर्य भवति । एतदेव टीकार्थ--जिलकी सत्ता के कारण जीव शुभ अनुष्ठान से रहित होते हैं, वह मध्य आदि प्रमाद कहलाता है। कहा भी है-'मज्ज विसय कसाया' इत्यादि।। ___ 'मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और पांचवीं विकथा, यह पाँच प्रकार के प्रमाद वीतराग देवों ने कहे हैं। ॥१॥ यह मद्य आदि प्रमाद कर्मों के जनक हैं। इसी कारण तीर्थकर आदि इन्हें कर्म कहते हैं और प्रमादपरित्याग को अकर्म कहते हैं। आशय यह है कि-प्रमाद्वान् जीव को कर्मपन्धन होता है और कर्मयुक्त जीव का जो क्रियाव्यापार है, वह शलवीर्य है। जो जीव प्रमाद से रहित है, उसको कर्मों का अभाव हो जाता है और कर्माभाव वाले जीव का अनुष्ठान पंडितवीर्य कहा जाता है। आशय यह ટીકાઈ—જેની સત્તાથી જીવ શુભ અનુષ્ઠાનથી રહિત થાય છે. તે મધ विगैरे प्रभाह पाय छे. यु ५ छ-'मज्ज विसयकसाचा' त्याल મદ્ય, વિષય, કષય, નિદ્રા, અને પાંચમી વિકથા આ પાંચ પ્રકારના પ્રમાણ વીતરાગ દેએ કહેલ છે. આ મદ્ય વિગેરે પ્રમાદ કર્મોના જનક-ઉત્પન્ન કરવાવાળા છે. તે જ કારણથી તિર્થ કરો વિગેરે તેને કમ એ પ્રમાણે કહે છે. અને પ્રમાદના પરિત્યાગને અકર્મ કહે છે. કહેવાનો હેતુ એ છે કે–પ્રમાદવાળા જીવને કર્મનું બંધન થાય છે. અને કર્મવાળા જીવને જે ક્રિયારૂપ વ્યાપ ૨ છે, તે બાલવીર્ય કહેવાય છે. જે જીવ પ્રમાદથી રહિત હોય છે, તેને કમેન અભાવ થઈ જાય છે. અને કર્મના અભાવવાળા જીવના અનુષ્ઠાનને પડિત વીર્ય કહેવાય છે. અર્થાત્ પ્રમા Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ सूत्रकृतासूत्र वाळवीय पण्डितवीर्य चेति। प्रमादवतः सकर्मणो वीर्य वालबीर्य प्रमादरहितस्य कर्माऽभाववतो वीर्य पण्डितवीर्यमिति विवेकः । 'दमावादेसओ वावि' तद्भावा. देशतो वापि, तयो बालवीर्यपण्डितवीर्ययोः भावः-सत्ता तद्भाव स्तेन तद्भावेन घालः पण्डित इति व्यवहारो भवति' बालवीर्यमभव्यानामनाथपर्यवसितम्, - भव्यानामनादिसपर्यवसितम्, पण्डितवीर्यन्तु सादिसपर्यत्रसितमिति । तीर्थंकरा: समादं कर्म-इति कथितवन्तः तथा-अप्रमादमकर्म, इत्युक्तवन्तः । अतः प्रमादेन पालवीय भवति, भवतिचाऽप्रमादेन पण्डितबीयमिति निष्कर्षः ॥३॥ तत्र प्रमादवतः सकर्मणो जीवस्य यद्वीय तद्वालवीर्यमिति तदेव दर्शयति त्रकार:-'सत्यमेगे तु' इत्यादि । मूलम् संस्थ मेगे तु सिक्खंता अतिवायाय पाणिणं । - एंगे मते अहिजंती पाणभूय विहेडिणो ॥४॥ कि प्रमत्त और सकर्मा जीव का बालवीर्य तथा अपमन्त और अकर्मा जीव का पण्डितवीर्य है। वीर्य के साथ 'बाल' था 'पण्डित' जो विशेषण लगाया गया है, वह प्रमाद और अप्रमाद के कारण ही है । अभन्य जीवों का बाली अनादि अनन्त है, अन्य जीवों का अनादिसान्त है अर्थात् वह सदाशाल से चला आता है किन्तु कभी उसका अन्त आजाता है। पण्डित बीर्य सादि-शान्त ही होता है। निष्कर्ष यह है कि तीर्थकर भगवन्तों ने प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहा है । अतएव प्रमाद के कारण बालवीर्य और अप्रमाद के कारण पण्डित बीर्य होता है ॥३॥ . 17 અને કર્મ વાળા જીવનું બલવીર્ય અને અપ્રમત્ત અને અકર્મા–કર્મ વિનાના नु पडित' पीय छे वीय नी साथे 'वाल' पथ पडित' से विशेष લગાડવામાં આવે છે. તે પ્રમાદ અને અપ્રમાદના કારણથી જ હોય છે. - सव्य वातु पालवीय मनाहि मन मन छे. भव्य वानु અનાદિ સાન્ત છે. અર્થાત્ તે સદા કાળથી ચાલ્યું આવે છે, પરંતુ કેઈ વખત તેને અન્ય આવી જાય છે, પંડિતવીર્ય સાદિ-સાત જ હોય છે, આનો સાર એ છે કે-તીર્થકર ભગવંતે એ પ્રમાદ ને કર્મ અને અપ્રમાદ ને અકર્મ કહેલ છે. તે જ પ્રમાદના કારણે બલવીર્ય અને અપ્રાદના કારણે पाडतवीर्य डाय छे. ॥३॥ . . . . . Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् .६५३ ' छाया-शास्त्रमेके तु शिक्षन्ते अतिपाताय प्राणिनाम् । एके मन्त्रान् अधीयते प्राणाविहेटकान् ॥४॥ ...::. .. अन्वयार्थः- (एगे पाणिणं अतिवायाय) एके तु प्राणिनां जीनाम् अतिपाताय विराधनाय 'सत्थं' शास्त्र-धनुर्वेदादि 'सिक्खता' शिक्षन्ते-गृह्णन्ति, 'एगे' एके (पाणभूयविहेडिणो) प्राणभूनविकेटकान् तन प्राणाः द्वीन्द्रियाः भूतानि पृथिव्यादीनि, तेषां वि-विविधम् अनेक प्रकारकं हेटकान्-बाधकान् ‘मंते' मन्मन् 'अहिज्जती' अधीयते-पठन्तीति ॥४॥ टीका-'एगे' एके पुरुषा', रागद्वेषाऽपहतमानसाः, जीवानां विनाशकारकम् 'सत्य' शस्त्रं-खङ्गादिपहरणम्, अथवा-'सत्थं शास्त्रम्-धनुर्वेदादिकम् - "सिक्खंता' प्रमाद्वान् एवं सकर्मक जीव का वीर्य बालवीर्य है, यही सूत्रकार दिखलाते हैं--'सत्यमेगे उ' इत्यादि। शब्दार्थ-- 'एगे पाणिणं अतिवायाय-एके प्राणीनां अतिपाताय' कोई प्राणियों का वध करने के लिये 'सत्थं-शस्त्रम्' तलवार आदि शस्त्र अथवा धनुर्वेदादि सिक्खंता-शिक्षन्ते' सीखते हैं 'एगे-एके' तथा कोई 'पाणथ्यविहेडिणो-प्राणभूतविहेठकान्' प्राणी और भूतों को मारनेवाले 'भंते-मन्त्राल' मन्त्रों को 'अहिज्जति-अधीयते' पढते हैं॥४॥ अन्वयार्थ--कोई कोई प्राणियों की विराधना करने के लिए धनुघेद आदि शास्त्र सीखते हैं। कोई प्राणों और भूतो के लिए बाधाकारी मंत्रों का अध्ययन करते हैं ॥४॥ टीकार्थ--राग और द्वेष के कारण जिनका चित्त अभिभूत हो गया है, ऐसे हाई पुरुष जीवों का विनाश करने वाले 'लस्थ' अर्थात् खड्ग , પ્રમાદવાળા અને કર્મવાળા જીવને બાળવાર્ય છે. એજ હવે સૂત્રકાર प्रगट ४२ है. 'खत्थमेगे उ' ईत्यादि साथ--'एगे पाणिणं अतिवायाय-एके प्राणिनां अतिपाताय' प्रालि योनी १५ ४२१। भाट 'सत्य-शस्त्रम्' तबा२ विगैरे शस्त्र अथवा धनु विगैरे 'सिम्खेता-खिक्षन्ते' शी छे, 'एगे एके' तथा 'पाणभूय विहेडियो -प्राणभूतविहेटकान्' iel मत भूताने मारवावा' 'मंते-मन्त्रान्' भत्रीने 'अहिज्जति-अधीयते' मे छे ॥४॥ અન્વયાર્થ—કઈ કઈ વ્યક્તિ પ્રાણિયોની વિરાધના (હિંસા કરવા માટે ધનુર્વેદ વિગેરે શસ્ત્રવિદ્યા શીખે છે, કેઈ વ્યક્તિ પ્રાણ અને ભૂતોને બાધા કારક મંત્રોને અભ્યાસ કરે છે. પાકા ટીકાઈ_રાગ અને દ્વેષના કારણે જેઓનું ચિત્ત પરાજીત થયેલ છે, એવા કઈ પુરૂષ અને નાશ કરવાવ’ : અર્થાત્ ખગ વિગેરે Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ सूचकृता शिक्षन्ते-सोघमास्तादृशं शस्त्रं शास्त्रं वा अभ्यसन्ति । अथवा-'एगे' एके एतादृशं शस्त्रं शास्त्रं वा शिक्षयन्ति, परानुपदिशन्ति । एतत्सर्व शिक्षितं सत् पाणिणं' माणिनां-जीवानाम् 'अदिवायाय' अतिपाताय भवति, अतिपातो विनाशस्तदर्थ भवति । तदीयशास्ने केन प्रकारेण परो हिंसनीय इत्येव निवेदितम् । तथोक्तम्-मुष्टिना छादयेल्लक्ष्यं मुष्टौ दृष्टि निवेशयेत् । हतं लक्ष्यं विजानीयाद् यदि मूर्धा न कम्पते ॥१॥ इत्यादि। एवं कथमरीणां मारणं, कयं परवचन, कामादिविषयः कथं सेव्यते ? आदि शस्त्रों की अथवा धनुर्वेद आदि शास्त्रों की शिक्षा लेते हैं और खूब उद्यम करके उन्हें सीखते हैं । अथवा इस प्रकार के शस्त्र या शास्त्र को वे दूसरों को सिखलाते हैं । यह सीखा हुआ या सिखलाया हुआ शस्त्र या शास्त्र प्राणियो की हिंसा का कारण बनता है, क्यों कि उन शास्त्रों में यही कहा जाता है कि किस प्रकार दूसरों का वध किया जाय ! कहा भी है-'मुष्टिना छादयेल्लक्ष्य' इत्यादि । ___ अपनी मुट्ठी से लक्ष्य को आच्छादित कर ले और मुट्ठीपर दृष्टिजमाले । अगर मुर्धा पर कम्प न हो तो लक्ष्य को विधा हुआ ही समझे ॥१॥ इत्यादि। इस प्रकार उस शास्त्र में यही प्ररूपण किया है कि किस प्रकार शत्रुओं का घात किया जाय ? कैसे दूसरों को धोखा दिया जाय? શોની અથવા ધનુર્વેદ વિગેરે શાસ્ત્રોની શિક્ષા ગ્રહણ કરે છે, અને ખૂબ ઉદ્યમ કરીને તે શીખે છે, અથવા તેવા પ્રકારના શસ્ત્ર અથવા શાસ્ત્રને તેઓ બીજાઓને શીખવાડે છે. આ પ્રકારથી શીખેલા કે શીખવાડેલા શસ્ત્ર અથવા શાસ્ત્ર પ્રાણિઓની હિંસાનું કારણ બને છે, કેમકે–એ શાસ્ત્રોમાં એજ કહે વામાં આવે છે કે–બીજાની હિંસા કઈ રીતે કરી શકાય ? કહ્યું પણ છે કે'मुष्टिना छायेल्लक्ष्य" छत्यादि અર્થાત્ પિતાની મુઠી વડે લક્ષ્યને આછાદિત કરીલેય અને મુઠી પર નજર સ્થિર કરી લે. અથવા માથા પર કપ ન થાય તે લક્ષ્ય વિધાયેલજ સમજવું. છેલ આ રીતે તે શાસ્ત્રમાં એ જ નિરૂપણ કરવામાં આવેલ છે કે-કેવી રીતે શત્રુઓનો ઘાત કરી શકાય ? કેવી રીતે બીજાને દગો દઈ શકાય ? અર્થાત્ ગફલતમાં નાખી શકાય ? કામાદિ અશુભ અનુષ્ઠાન જ એ શાસ્ત્રનો Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयावधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ६६६ इत्यादि । तादृशशस्त्र शास्त्राऽभ्यासेन सावये एक कर्मणि तदध्ये तॄणां प्रवृत्तिर्भवति । तदेतत् पूर्वप्रदर्शितशस्त्रशास्त्राभ्यासेन जायमानं वीर्य बालवीर्यमित्यभिधीयते । तथा - एके केचन पापोदयात् 'मंते' मन्त्रान् मारणकार्ये विनियुज्यमानान् अश्वमेघ - नरमेध - गोमेध - श्येनादियागार्थम्, 'अहिज्जंती' अधीयते, तेषामध्ययनं कुर्वन्ति अध्यापयन्ति च । कथंभूतान मन्त्रान् 'पागभूयविहेडियो'' प्राणभूतविहे टकान् प्राणिनः- द्वीन्द्रियादयः भूतानि पृथिव्यादीनि तेषां विविधप्रकारेण हेटकान् मारकान् मन्त्रान् पठन्तीति ॥ ४ ॥ मूलम् - मायिणो कट्टु माया य कामभोगे समारभे । हंता छेत पगर्भिता आयलायाणुगामिणो ॥ ५ ॥ छाया - मायिनः कृत्वा मायाथ कामभोगान् समारभन्ते । हन्तारश्छेत्तारः प्रकर्त्तयितार आत्मसातानुगामिनः ॥५॥ 'कामादि विषयक अशुभ अनुष्ठान ही उस शास्त्र का विषय है । जो ऐसे शस्त्र या शास्त्रका अभ्यास करते हैं, उनकी प्रवृत्ति सावद्य कर्मों - में ही होती है इन शास्त्रों के अभ्यास से उत्पन्न होनेवाला वीर्य बालवीर्य कहलाता है । तथा कोई कोई लोग पापकर्म के उदयसे मन्त्रों को मारण कार्य में प्रयुक्त करते हैं और अश्वमेध, नरमेध, गोमेध, एवं श्येनयाग आदि में प्रयुक्त करने के लिये उन्हें पढते हैं और पढाते हैं वे मंत्र कैसे है ? सोकहते हैं- 'प्राणभूयविहेडिगो' दीन्द्रियादिप्राणी, और पृथिवी आदि भूतों को मारने वाले हैं ऐसे मन्त्रों को पढ़ते पढाते हैं ||४|| વિષય છે. જેએ આવા પ્રકારની શસ્ર વિદ્યા અથવા શાસ્ત્રનેા અભ્યાસ કરે • છે, તેએની પ્રવૃત્તિ સાવદ્ય કર્મોમાં જ હાય છે. આવા પ્રકારના શાઓના અભ્યાસથી ઉત્પન્ન થવાવાળા વીને માલવીય કહેવામાં આવે છે. ? તથા કાઈ કાઈં લેાકેા પેાતાના પાપ કર્મના ઉદયથી મત્રાને માર भां प्रयुक्त-रे छे, भने अश्वमेध, नरभेध, गोभेष, मने श्येन यांग વિગેરેમાં પ્રયુક્ત કરવા શીખે છે. અને શીખવાડે છે. એ મત્રો કેવા છે ? "ते अतावतां हे छे- 'पाणभूयत्रिहे डिणा मे इन्द्रिय वगेरे आशी पृथ्वी माहि ભૂતાને મારવા વાળાહાય છે. તેવા મંત્રોને શીખેશીખવાડે છે. ૪ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ सकताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः-(मायिणो माया य कटु) मायिनः-परवञ्चकाः सायाश्च कृत्या (कामभोगे समारमे) कामभोगान् शब्दादिविधररूपान् समारभन्ते-कुर्वन्तिसेवन्ते,-तथा-(आयसायाणुगामिणो) आत्मसातानुगामिनः-स्ववीगसुख मिच्छन्तः (हंता) हन्तारः (छेत्ता) छेत्तारः (पगभित्ता) प्रकतथितारो भवन्तीति ॥५॥ टीक-'माइणो' मायिना, साया परवंचनात्मिका सा विद्यते येषां ते मायिना, 'माया' मयाः 'कटुं' कृत्वा-परधनवनितादिनम् अपहृत्य 'कामभोगे' 'मायिणो कट्टु' इत्यादि। शब्दार्थ-'मारिणो माया य कटु-सायिनः मायाश्च कृत्या' माया करनेवाले पुरुष माया अर्थात् छल कपट करके 'काममोगे समारभेशासभोगान् समारभन्ते' झालोगों का सेवन करते हैं 'आयखाताणुगामिणो-आत्मसातानुगामिनः' तथा अपने सुखकी इच्छा करनेवाले वे 'हंता-हन्तार प्राणियों का हनन करनेवाले 'छेत्ता-छेत्तार' छेदन करनेवाले 'पगविभता-प्रकर्तयितार' और कर्तन करनेवाले होते हैं ॥५॥ . अन्वयार्थ लायावी लोग मायाचार करके शब्दादि विषयरूप कामभोगों का सेवन करते हैं । वे अपने सुख की इच्छा करते हुए जीवों का हनन करते हैं, छेड्न करते हैं और विदारण-वर्तन करते हैं ।।५।। टीकार्थ-माया का सेवन करनेवाले मायी (कपटी) या मायावी कहलाते हैं। ऐसे मायावी जन माया करके पराये धन स्त्री- आदिका 'मायिणा कटु' त्याल शहार्य -'मायिणो माया य कटु-मायिनः माया कृत्वा' भायाश्च ४२वावा ५३५ भाया अथातू छ५ ४५८ ४२२ 'कामभोगे सभारभे-कामभोगान् समारभन्ते' आभागानु सेवन ४२ छे. 'आयसाताणुगामिणो-आत्मशातानुगामिन' तथा पोताना सुमनी ४२७। ४२१॥ अव्य। 'हंता-हन्तारः' मालियान हनन ४२ mm 'छेत्ता-छेत्तारः' छेदन ४२वावा 'पगम्भिता-प्रकर्तयितारः' અને કર્તન કરવા વાળા હોય છે. પાન - - અવયાર્થ–માયાવી લોકે માયાચાર કરીને શબ્દાદિ વિષય રૂપ કામભેગોનું સેવન કરે છે તેઓ પિતાના સુખની ઇચ્છા કરીને અન્ય જીવોની हिंसा ४२ छे, छेदन ४२ छ, भने विहार-त्तन ४३ छे. ॥१॥ . . सा-भायानु सेवन ४२वापामा भाथी (४५टी) अथवा मायावी કહેવાય છે. એવા માયાવી. માણસે માયા કરીને પારકા ધન સ્ત્રી વિગેરેનું Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज समयार्थवोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् कामभोगांश्च 'समारभे समारभन्ते-लेवन्ते, परवञ्चनयाऽन्यदीर्यधनादिभिः कामभोमादीनां सेवनं कुर्वन्ति । तथा-भायसायाणुगामिणो' 'आत्मशीतानुगार मिनः-आत्मनः कृते सातं सुखं तदनुगामिना, कषायकलुषितान्तरात्माना आत्मनः सुखं लक्षीकृत्य अन्येषां प्राणिनाम् । 'हंता' हन्तार:-विराधयितार 'छेत्ता' छेत्तारः-छेदनकतारो भवन्ति । कर्णनासिकादीनाम् 'पमित्त प्रकर्तः यितारः पृष्ठोदरादीनाम | आत्मसुखार्थ हननादिव्याधारं कुर्वन्ति, इति ॥५॥... इननच्छेदनादिकं केन प्रकारेण कुर्वन्ति, तदेव सूत्रकारो दर्शयति-'मणसा: पचसा चेव' इत्यादि। मूलम्-संगला वचला चेव कायसा चेत्र अंतैलो। .. आरओ परओ वावि दुहा कि य असंजया ॥६॥ छाया--मनसा वचप्ला चैव कायेन चैव अन्तशः। --- आरतः परतो वापि द्विधाऽपि चाऽनयताः ॥६॥ अपहरण करते हैं और कामभोगों का सेवन करते हैं, . अर्थात् दूसरे के धन आदि ले कामभोगों को भोगते हैं। तथा अपने ही..सुख के लिए प्रयत्न करनेवाले वे कषाय से कलुषित चित्त होकर अन्य प्राणियों की विराधना करते हैं, उनके कान नाक आदि का छेदन करते.पी. पेट आदि को चीरते या काटते हैं । अपने ही सुख के लिए. वे यह सय पाप क्रियाएँ करते है ॥५॥ - वे इस प्रकार हनन एवं छेदन आदि करते हैं, सूत्रकार यह दिखलाते हैं-'मणसो वचला चेव' इत्यादि। __शब्दार्थ-असं जया-असंयताः, असंयमी पुरुष 'मणसा-वचसा. चेव कायला-मनसा वचता चव कायेन' मन, वचन और कार्यसे હરણ કરે છે, અને કામોનું સેવન કરે છે, અર્થાત બીજાઓના ધન વિગેરેથી કામગ ભેગવે છે, અને પિતાને જ સુખ માટે પ્રયત્ન કરનારા . તેઓ કષાયથી મલિન ચિત્ત વાળા થઈને બીજા પ્રાણિની વિરાધના-હિંસા ४३ छ, अन-न विगैरेनु छैन ४२ छ, पी8 (ii) पेट मेरे चा३... તેઓ પિતાના જ સુખ માટે આવા પ્રકારની પાપક્રિયાઓ કરતા રહે છે. આપણા તેઓ હનન અને છેદન કઈ રીતે કરે છે ? વિગેરે બતાવતાં સૂત્રકાર 'मणसा पचसा चेव' गाथा ४. छ. va---'असंजया-असंयतः' मसयभी ५३५ 'मणमा वसा 'पेवर कायसा-मनसा वचसा च कायेन' भन, वयन भने यथा 'अंतसो-अन्तश: " - - - Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८- सूत्रकृताङ्गसूत्रे. अन्वयार्थ:---(असंजया) असंयताः - असंयमिनः (मणसा वचसा चैव कायसा) मनसा वचसा चैव कायेन कृतकारितानुमतिभिः (अंतसो ) अन्तशः - कायेनाश जयपि मनसैव पापानुष्ठानानुमत्या (आरओ परओ वावि) आरत :- परतो वापि - इहलोक परलोकार्थम् (दुहा वि) द्विवापि स्वयं करणेन परकारणेन च जीविका भवन्तीति ॥ ६ ॥ ॥ टीका- 'असंजया' असंपता सनोवाक्कायैः पुरुषाः परवञ्चकाः । 'मणसा' मनसा' ' वयसा वचसा 'चेन'' च एव, तथा - 'सा' कायेन - शरीरेण, अनेन शरीरवाङ्मनसां प्रवर्त्तने कारणत्वं दर्शितम् । 'अंवसो' अन्तशः - शरीरादि-भिरसमा अपि चिन्तनमात्रेणैव परघातमिच्छन्ति कालशौक रिकवत् 'आरओ''अतसो - अन्तशः' कायाकी शक्ति न होने पर मनसे ही 'आरओ परओ वावि- - आरतः परतः वाषि' इसलोक एवं परलोक दोनों के लिये 'दुहा वि-द्विधापि' करने और कराने दोनों प्रकार से जीवों का घात कराते हैं | ६|| अन्वयार्थ - असंयमी पुरुष मन से, वचन से और काय से, तथाकृतं, कारित और अनुमोदन से एवं काय से असमर्थ होने पर मन से ही पाप के अनुष्ठान की अनुमोदना करके, इस लोक और परलोक दोनों के लिए स्वयं करने और कराने से दोनों प्रकार से जीवों के विरोधक होते हैं ||६|| टीकार्य — जो पुरुष मन, वचन और काय से असंगमी हैं- परवंचक (दूसरे को ठगने वाले) हैं, वे मन, वचन, काय से और शरीर से असमर्थ होने पर चिन्तन मात्र से दूसरों के घात की इच्छा करते हैं । 'आरओ परओवा वि " - असंयत अर्थात् हायनी शक्ती न ह वांछतां भनधी 'आरतः परतः वापि’'असे ४ मने ५ ते ४ मे मनेसेो भाटे 'दुहावि द्विधापि '' ठक्षु' भने· उरांवंदुळ ं मन्ने प्रारथी / बेनी घात उरावे छे. ॥६॥ 3. ई -मन्वयार्थ असयंभी पु३षा मनथी, दयनथी ने अयाथी तथा तं भक्तिं श्यमे अनुर्भे-दैनथी तथा यथी असमर्थ - अशक्त थाय त्यारे' भनी थापन अनुष्ठानेनी अनुसेन ने "आसो भने परोउ मन्ने भाटेપોતે કરવા અને‘“કરાવવાથી અર્થાત્ એ પ્રક રથી યાની વિરાધના કરે છે. ur अर्थ में पुरुष भन, वयन,' ने 'अयाथी, असयभी' होर्थ छे ५२ વચક્ર–ખીજાને ઠગવાવાળા હેપ્પ છે, તે મન વચન અને કાયાથી અને શરીરથી અશક્ત થાય ત્યારે વિચાર માત્રથી ખીજાઓના વાતની ઇચ્છા કરે છે. Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् "आरतः - इहलोके सुखार्थम् पिरओ' 'परतः परलोकाय परलोकमुखाय वा दुहा वि' द्विधाषि-स्वयं करणेन, परकारणेन च । स्वयमाचरन्तिः परद्वारा कारयन्ति च। रागद्वेषान्धःपुरुषो मनोवाक्कायैः, तथा शरीरशक्तत्यभावे वचनेन केवल 'मनसा वा, ऐहिकपारलौकिकयो द्वयोरेवं कृते प्राणिघात स्वयं करोति कारयतीति भावः ॥ ६॥ हिंसाजनितपापस्य फलं दर्शयति- 'वेराइ कुम्बई वेरी' इत्यादि । 'मूलम् - पेराई कुव्वई 'बेरी, तओ वेरेहि रज्जई | - पीवोवगाय आरंभा दुक्ख फासा य अंतसो ॥७॥ १० 11 छाया - वैराणि करोति वैरी ततो वैरैः रज्यते । " ' पापोपगाश्च आरम्भा दुःखस्पर्शाश्व अन्तशः ॥ ७ ॥ " t ह - इस विषय में कालशौरिक का उदाहण प्रसिद्ध है । वे इस लोक के सुख के लिए और परलोक के सुख के लिए दोनों प्रकार से अर्थात् स्वयं घात करके और दूसरों से घात करवा कर प्राणियों की हिंसा करते हैं। आशय यह है कि राग और द्वेष से अन्धा पुरुष मन, वचन, hi से और शारीरिक शक्ति न हो तो सिर्फ 'वचन से या केवल मन से, इस लोक और परलोक के लिए स्वयं जीववध करता है और दूसरों से भी करवाता है ||६|| ★ - अब हिंसा जनित पाप का फल दिखलाते 1 'वेराइं कुब्बई बेरी' इत्यादि । 'शार्थ -- 'वेरी वेराई कुबह-बैरी वैराणि करोति', जीवघात करनें આ સખધમાં કાલશૌક રકનું ઉદ'હરણ પ્રસિદ્ધ છે. તેઓ આ લેાકના સુખ માટે અને પરલેકના સુખ માટે બન્ને પ્રકારથી અર્થાત્ સ્વયં ઘાત કરીને તથા ખીજાઓથી ઘ ત કરાવીને પ્રાણિયાની હિંસા કરે કરાવે છે, કહેવાના હેતુ એ છે કે-રાગ અને દ્વેષથી આંધળા અનેલ પુરૂષો મને, વચન અને કાયા (શરીર) થી અને શરીરિક શક્તિ ન હાય- તા-કેવળ વચન માત્રથી અથવા કેવળ મનથી આ લાક અને પરલેાક માટે વય કરે છે, અને ખીજાએ પાસે પશુ હિંસા કરાવે છે. ૫ ↑ हवे हिंसाथी थ गरा पापनु વાનીનહુ સા तावे. वेराई कुबई 2 वेरी' इत्यादि शब्दार्थ -- वेरी वेराई - कुवई - वैरी वैराणि करोति' वने। घात उपाषाण' 11 Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ:- (वेरी वेराई- कुबई) वैरी-जीवोपमर्दनकारी-वैराणि-जन्मशतावन्धीनि करोति (तो वेरेहिं रज्जई) ततः वैरैनबीनदेरैः रज्यते सम्बध्यते (भारंभा यःपावोरगा) आरंमाः सावधानुष्टानरूपाः पापोपगा:-पापम् उपसामी. प्पैन- गच्छन्तीति, 'अंनुसो दुक्खफासा' अन्तशः दुःखस्पर्शाः नवीनं दु:ग्य मुत्पादयन्तीति ।।७।। ____टीका -- 'वेरी' चैरी-पडूजीवनिकायोपमर्दकारी पुरुषः 'वेराई वेराणि यं हिनस्ति तेन सह वैरभावम् 'कुम्बई' करोति, यं पाणिविशेष मेकदा हिनस्ति तेन सह जन्मशतानुवन्धीनि वैराणि वध्नाति । 'तओ' ततः-पुनरपि वेरेहि वरैः घाला पुरुष, अनेक जन्म के लिये जीवों के साथ वैर करता है 'तओ बेरेहिं रज्जा-ततः वैरी रज्यते' फिर वह दूसरा नया वैर करता है 'आरंभा पावोवगा-आरंभाः पापोपगा:' जीवहिंसा पाप उत्पन्न करती है 'अंगसो दुक्खफासा-अन्तशः दुक्खस्पर्शा:' और अन्त में दुःख देती है ॥७॥ अन्वयार्थ--वैरी अर्थात् जीवों की हिंसा करने वाला सैकड़ों जन्मों तक चालू रहने वाला वैर बाँधता है। फिर, नया वैर उत्पन्न करता है। आरंभ पापरूप होते हैं और अन्त में दुःख को उत्पन्न करते हैं ॥७॥ टीकार्थ-षट् जीवनिकारों का उपलदकारी अर्थात् छकायों की विराधना करने वाला पुरुष, जिसकी हिंसा करता है, उनके साथ धैरभाव उत्पन्न करता है । अर्थात् जिल्ला प्राणी का एक वार घात करता है, उसके साथ सेकड़ों जन्मों तक चालू रहने वाला विरोध-वैर घाँधता ५३५ मनन्म भाट वानी सथै ३२ ४२ छ. 'तओ वेरेहि रज्जइ-ततः वैरै: रज्यते' ते ५छी से भी न ३२ ४२ छ . 'आरंभा पावोवगा-आरंभाः पापोपगा' - 4 डिसा ५५ अत्यन्नरे छ. अंतसो दुःखफासा-अन्तशा दुक्खस्पर्शाः' भने छेटे हु.म. छ. ॥७.. + + અન્વયાઈ–વેરી અર્થાત્ જીવોની હિંસા કરવાવાળાઓ સેંકડે જન્મ સુધી ચાલુ રહેનારૂં વેર બાંધે છે. અને નવું વેર ઉત્પન્ન કરે છે. આરંભ પાપરૂપ હોય છે, અને અન્ત દુ ખ પ્રાપ્ત કરે છે. દા : -- --पलपनियोनु मन (HI) ४२वाया अर्थात् छ કાની વિરાધના કરવાવાળા પુરૂ, જેની હિંસા કરે છે, તેની સાથે વેરભાવ ઉત્પન્ન કરે છે. અર્થાત જે પ્રાણુને એકવાર ઘાત કરે છે, તેની સાથે સેકડે Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ६६१ 'रज्जई रज्यते, वैरपरम्परया सम्बद्धयते । एकस्मिन् येन कृतं रे जन्मान्तरे तमपकरोति, ततः पुनरपि तेन सह वैरं करोति, इति वैरपरम्परा सर्वदेवाऽनुदिनं वर्द्धत एव । कथं, वैरपरम्परायाः समुद्भव इत्यत आह-'पावोवगा' 'पापोपगाः, पारमुपसामीप्येन गच्छन्तीति पापोपगाः। के पापोपगा:-तत्राहआरम्ला, आरभ्यन्ते-संपायन्ते इति आरम्भाः सावधकर्माऽनुष्टानस्वरूपाः, एतादृशा आरम्भाः 'अंतसो' अन्तशः-वविपाकोदयसमये 'दुक्खफासा' दुःखस्पर्शाः, दुःख स्पृशन्तीति-दुःखस्पर्शा:-दुःखजनका भवन्ति ।, जीवहिंसाकर्ताऽनेक जन्मनि तेन सह वैरं करोति । इदानीं य एनं मारयति स जन्मान्तरे तं हिनस्ति, है और फिर वैर की परम्परा से सम्बद्ध होता है-नया नया चैर बाँधता जाता है। जिसके साथ वैर बाँधा है, वह एक जन्म में उसका बदला लेता है। उस समय फिर नवीन वैर बंध जाता है। इस प्रकार वैर का प्रवाह जन्म जन्मान्तरःतक चलता ही रहता है और बढता ही जाता है। ___ इस वैर परम्परा के उद्भव का कारण दिखलाते हुए सूत्रकार करते हैं-पापों को उत्पन्न करने वाले आरंभ 'अपने विपाकोदय के समय दुःख के जनक होते हैं। ____ अभिप्राय यह है कि जीवों की हिंसा करने वाला उन जीवों के साथ वर बांधता है। इस समय जो जिस जीव को मारता है, वह जन्मान्तर में मारने वाले को मारता है। आज का वध्य कल बधक बन जाता है और बधक बध्य बन जाता है। अर्थात् मारने वाला जिस जीव को मारता है दूसरे जन्म में वह જન્મ સુધી ચાલુ રહેનારો વિરોધ–વેર ભાવ બાંધે છે, અને પછી તે વેરની પર પરાથી બંધાયેલો રહે છે, અને નવું નવું વેર બાંધતા જાય છે જેની સાથે વેર બાંધ્યું છે, તે એક જન્મમાં તેને બદલે લેય છે, ત્યારે પાછું નવું વેર બંધાય છે, આ રીતે વેરને પ્રવાહ (વેણુ) જન્મ જન્માક્તર સુધી ચલતે જ २९ छ. मन वधता १ २ छे. આ વેરની પરંપરા ઉત્પન્ન થવાનું કારણ બતાવતાં સૂત્રકાર કહે છે કે–પાપને ઉત્પન્ન કરવાવાળો આરંભ પોતાના વિપાકના ઉદય વખતે ખ કારક હોય છે. કહેવાનો અભિપ્રાય એ છે કે-જોની હિંસા કરવાવાળાએ તે જીવોની સાથે વેર બાંધે છે. આ જન્મમાં જે જેને મારે છે, તે જન્માન્તરમાં અર્થાત બીજા જન્મમાં મારવા વાળાને મારે છે. આ જ વધ્ય (મરન ) કાલે વધક (મારવાવ ગે) બની જાય છે. અર્થાત્ મારવાવાળા જે જીવને મારે છે, બીજા Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __- 1. भूतामसूत्र हतो हन्तारं हिनस्तीति संवद्धा वैरपरम्परा । यतो हि-हिंसा पापमुत्पादयति, पापफलं दुःखमिति हेया हिंसा हिताभिलापिभिरिति ॥७। मूलम् संपरायं णियच्छंति अत्तदुक्कडकारिणो। . ---रागदोलस्सिया बाला पावं कुब्वति. ते बहुं । . “छाया-सापरायकं नियच्छन्ति आत्मदुस्कृतकारिणः। - · रागद्वेषाश्रिता वाला पापं कुर्वन्ति ते बहुः ॥८॥ • अन्वयार्थः-(अत्तदुक्कडकारिणो) आत्मदुष्कृतकारिणः-स्वपापविधायिनः सन्तः (सपराय :णियच्छंति) साम्परायिकं कर्म नियच्छन्ति-बध्नन्ति (रागदोस. जीव मारने वाले को मारता है । इस प्रकार जो परम्परा चल पड़ती है, उसका सैकड़ों भवों तक अन्त नहीं आता । हिंसा पाप को जन्म देती है और पाप दुःख का जनक होता है। अतएव जो अपना हित चाहते हैं, उन्हें हिंसा का सर्वथा त्याग करदेना चाहिए |७|| 'संपराये इत्यादि। .. शब्दार्थ--अत्तदुक्कडकारिणो-आत्मदुष्कृतकारिणः'. स्वयं पापकरने वाले जीव 'संपरायं नियच्छंति-सांपरायिकम् नियच्छन्ति': सांपराधिक कर्म बांधते हैं 'रागदोसस्सिया ते. बाला-रागद्वेषाश्रिता ते बाला:' राग और-द्वेष के आश्रयले वे अज्ञानी 'बहु-पावं कुवंति-पहु पापं कुर्वन्ति' बहुत.पापकर्म करते हैं ॥८॥ . --अन्वयार्थ--स्वयं पाप करने वाले जीव साम्पराधिक (संसार-परि ન્મમાં તે જીવ મારનારને મારે છે. આ રીતની જે પરંપરા ચાલુ થાય છે તેને અંત સેંકડે ‘ભ સુધી અવતો નથી. હિંસા પાપને ઉત્પન્ન કરે છે, भने पाय॥२' हाय छे. तेथी से। पातानु हित छे छे तेथे હિંસાનો હંમેશાં ત્યાગ કરવો જોઈએ. ઘણા 'संपराय' इत्यादि शहा---'अत्तदुकंकारिणो -आत्मदुष्कृतकारिण' पोते पा५ ४२वावा, ७. 'संपराय नियच्छं ते-तापरायिकम् नियच्छन्ति' - सां५२॥ िभ मांधे छ 'रागदोसस्त्रिया ते बाल'-रागद्वेषाश्रिताः ते बालाः' २१ भने-द्वेषनामाश्रयथा..ते. मज्ञानियो 'बहु पावं कुव्वंति-बहु पापं कुर्वन्ति' घ[-१४ या५ ४ ४२. छे ॥८॥ '' અન્ડયા–સ્વયં પા૫કૅરવા વાળો છવ સોંપાયિક સંસારના Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - समयार्थपोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् स्सिया) रागद्वेषाश्रिताः कषायकलुषितान्तरात्मानः (ते वाला) · ते वाला:-सदाः सद्विवेकविकला' अज्ञानिनः (बहुपावं कुव्वंति) - बहु-अनन्तं पापम् : असद्वेध: कुर्वन्ति-विदधतीति ॥८॥ ___टीका-'अत्तदुक्कडकारिणो' आत्मदुष्कृतकारिणा, आत्मना . स्वयमेव दुष्कृतकर्मकर्तारः सावधकर्मानुष्ठानमाचरन्तः 'संपरायं गियच्छंति' सांपरायिक नियच्छन्ति । द्विविधं हि कर्म भवति-ईपिथम् सांपरायिकं च। तत्र-संपराया:वादरकपायाः, तेभ्य आगतं यत् सांपरायिकम्, तादृशं कर्म जीवोपमर्दनाद आत्मदुष्कृतकारिणोऽभद्राः पुरुषाः नियच्छन्ति-बध्नन्ति । कथंभूतास्ते ये तादृशं साम्परायिकं कर्म अनुबध्नन्ति,, ताह-'रागदोसस्तिया' रागद्वेषाश्रिताः कषाय:: कलुपितान्तरात्मानः रागद्वेषाभ्यां युक्ताः सन्तो जीवान् हिंसन्ति नरकादिकुगति हेतुकर्म अनुवघ्नन्ति च । तथाविधं कर्म- रागद्वेषात्मककपायकलंपिताऽन्त:करणा , अत एक पालाः सदसद्विवेकविकलाः, 'पावं' पापम् अष्टादशभेदरूपं. विविधासदनीयजनकम् । 'बहु' अनेकविधम् 'ते कुवंति' ते कुर्वन्ति । स्वेनैव भ्रमण के) कर्म का पन्ध करते हैं। वे अज्ञानी रागद्वेष से मलीन होकर बहुत पाप उपार्जन करते हैं ॥८॥ टीकार्थ--जो स्वयं पापकर्म का आचरण करते हैं, वे साम्परायिक कर्म को घांधते हैं । कर्मपन्ध दो प्रकार का है ईर्यापथ और साम्परायिक । जो कर्मबन्धन बादर कषाय से होता है, वह साम्परायिक कहलाता है। जीवहिंसा.से साम्परायिक कर्मे का,बन्ध होता है। - जो जीव रागद्वेष के आश्रित हैं अर्थात् जिनकी अन्तरात्मा, कषायों से कलुषित हैं-और-इस कारण जो-हिंसा-करते हैं, वे नरकआदि दुर्गतियों के कारणभूत कर्म का बन्ध'करते हैं। ऐसे कर्म अनेक પરિભ્રમણ) કર્મને બંધ કરે છે, તેઓ અજ્ઞાની અને રાગદ્વેષથી મલીન न घा, ४ 'पापा ४: छे. ॥८॥? 1. At-2 वय ५५४भानु:- मान्य२९२ छ, तेसा सांपयित કર્મને બાંધે છે. કર્મબંધ બે પ્રકારના છે, ઈર્યાપથ અને સાંપરાંયિક જેવા मन मार पायथी थाय छ, 'ते'सायि वाय. छ.. 04હિંસાથી સાંપરાયિક કમને બંધ થાય છે. 04 देथा युत, डाय"छे मर्थात माना मामा ४ायोथी मान थय। छे, मन ते ४२४थी. मी हिसारे, छतमा न२६ विमतियाना ॥२भूत मनसाय रे छ. मेवा. मग Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सुत्रकृतासूत्रे पापकर्माऽनुष्ठातारः चतुर्गतिभ्रमणहेतुकं साम्परायिकं कर्म बन्नन्ति, तथा-राग द्वेषापायकलुपितान्तःकरणाः कुर्वन्ति-अनेकविधं कर्म इतिभावः ॥८॥ तदेव बालवीर्यमुपदर्थ तदुपसहरन्ना-'एयं' इत्यादि । मूलम्-एवं कम्मवीरियं बालाणं तु वेड्यं । ' इत्ती आक्रम्सवारियं पंडियाणं सुंणेह में ॥९॥ .. छाया- एतत्सकर्मवीर्य वालानां तु मवेदितम् ।। ___ अतोऽकर्मवीर्य पण्डितानां शृणुत मे ॥९॥ प्रकार के अलाता रूप दुःख को उत्पन्न करने वाले होते हैं। सत् के विवेक से रहित अज्ञानी जीव ही ऐसे कर्म उपार्जन करते हैं। . . तात्पर्य यह है कि स्वयं पाप कर्म का अनुष्ठान करने वाले अज्ञानी जीव चतुर्गति में भ्रमण करने के कारण साम्पराधिक कर्म का बन्ध करते हैं तथा जो राग द्वेष से कलुषित हैं, वे अनेक प्रकार के कर्म उपार्जन करते हैं ॥८॥ -- ----- इस प्रकार बालवीर्य को दिखला कर उपसंहार करते हैं- . 'एयं सम्मवीरियं' इत्यादि। - शब्दार्थ-'एयं-एतत्' यह 'बालाणं तु-बालानां तु अज्ञानियों का 'सकम्मवीरियं पवेड्यं-सकर्मवीर्य प्रवेदितम्' स्वर्सवीर्य कहागया है.. 'इत्तो-अत:' अब यहां से 'पंडियाण-पंडितानाम्' उत्तम साधुओं का 'अकम्नवीरिय-अकर्मवीर्यम्' अकर्मवीर्य- 'मे-मे' मेरेसे 'सुणेह-शृणुन' हे शिष्यो सुनो.॥९॥ अरनी 'मशता (मशांति) ३५ मने Eपन्न ४२वावा डाय छे. सत्.. અસના વિવેક વિનાના અજ્ઞાની જીવોજ એવા કર્મોનું ઉપાર્જન કરે છે. . ' કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–પિત–પાપકર્મનું અનુષ્ઠાન કરવાવાળા અજ્ઞાની જીવ ચતુર્ગતિમાં ભ્રમણ કરવાને કારણે સાંપરાયિક કમને બંધ કરે છે તથા જેઓ રાગદ્વેષથી મલીન થયેલા છે. તેઓ અનેક પ્રકારના भानु पान (प्राप्ति) ४२ छे.. . . . ...मा शत. भासवाय २ मतावान ६५स डा२ ४२di 33 छ, ४-, 'एय .सकम्मवीरिय” त्याहि . शाय:--:एय-एतत्' भी 'बालाणं तु-बालानां तु अज्ञानिया नुसकम्म वीरिय पवेइय-संकर्मवीर्यम् प्रवेदितम्' २१४ पीय 3. छ. 'इत्तो-अतः', थी पंडियाणं-पंडितानाम्' उत्तम साधुनु' 'अकम्मवीरियं-अकर्मवीर्यम्' . अभिवाय 'मे-मे मारी पासेकी 'सुणेह-श्रुणुतं' शिष्य ! तमे सोमinen Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् .. ३५ _ अन्वयार्थः-(एय) एतत्-पूर्वोपदर्शिनम् (वालाणं तु) बालानां तु (सक में वीरियं पदेइयं) सकर्मवीर्य यवेदितं-कथितम् (इतो) अतःपरम् (पंडियाण) पण्डितानाम् (अम्मवीरिय) अकर्मवीर्यम् (मे) से-मत्तः (सुणेह) शेणुत हे शिष्याः । इति ॥९॥ ___टीका-'इयं एतत्पूर्व यत्प्रतिपादितम् । तथाहि-जीवोपमर्दनाय केचन शस्त्रं शास्त्रं च शिक्षन्ते । तथाऽपरे माणिविराधनाभिचारिकानान्नान-धीयते । ततोऽपरे मुलायाविनोऽनेकमज्ञारिकां मायामुसान्ध कामभोगार्थमर्थिन: समारम्नानारमन्ते । अन्ये पुनरिणं लक्षीकृत्य स्थाविधं कर्माऽनुतिष्ठन्ति, यावती वंशपरम्परा रै रनुबध्यते । एवं हि पायाशतिनो नराः तथा कुर्वन्ति यथा वंशपरम्परा बद्धवैरा जायते । एत सर्वम् ‘बालाणं' बालानां सदसद्विवेकविकलानाम् । 'साम्भवी रिय' सकर्मवीयम् पवेड्यं' पवेदितम्-कथितम् । ___ अन्वयार्थ- हे शिष्यो ! यह पूर्वोक्त अज्ञानी जीवों का सकर्म वीर्य कहा गया, इसके अनन्तर पण्डितों ज्ञानी जनों का अकर्मवीर्य मुझसे सुनो ॥९॥ टीकार्थ-इससे पूर्व कहा जा चुका है कि कोई कोई घाल जीव जीवों की दिला के लिए शस्त्र एवं शास्त्र का अभ्यास करते हैं। कोई प्राणियों की विराधना करने वाले मंत्रों का अध्ययन करते हैं। कोई कोई कामभोग के अभिलाषी मायावी मायाचार करके आरंभ समारंभ करते हैं। कोई अपने शत्रु को लक्ष्य करके ऐसे कृत्य करते हैं जिनसे घंशपरम्परागत वैर बँध जाता है। ____ यह सष सत् असत् के विवेक से रहित बालजीवों का सकर्मवीर्य અન્વયાર્થ– હે શિષ્ય! આ પહેલાં કહેલ પ્રકારથી અજ્ઞાની જીવેનું સકમ વીર્ય કહેવામાં આવેલ છે. હવે પંડિત-જ્ઞાનીજનેનું અકર્મવીર્ય કહું છું તે તમે સવે મારી પાસેથી સાંભળે. આ ટીકાર્ય–આનાથી પહેલાં કહેવામાં આવેલ છે કે કઈ કઈ બાલઅજ્ઞાની જીવ જીવોની હિંસા કરવા માટે શસ્ત્ર અને શાસ્ત્રનો અભ્યાસ કરે છે. કેઈ કઈ પ્રાણિની વિરાધના કરવાવાળા મંત્રીનું અધ્યયન કરે છે. કઈ કઈ કામગોની ઈરછા વાળા માયાવી માયાચાર કરીને અચંભ સમારંભ કરે છે. કે પોતાના શત્રુને ઉદ્દેશીને એવા પાપ કૃત્યે કરે છે. જેથી વંશ પરંપરાગત વેર બંધાઈ જાય છે. આ બધું સત્ અસતના વિવેક રહિત બાલાજીનું સંકમવીર્થ કહેલ છે, स०८४ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . . . . . सूत्रकृताङ्गसूत्रे (शलाणं तु) इत्पत्र तु शब्देन प्रमाइवतां वीर्यपि संगृहीतम् । 'इत्तो' अतःपरम् 'पंडियाणं' पण्डितानाम् 'कम्पपीरियं' अकर्मवीर्यम् 'मे' मम कययतः 'सुणे' शृणुत यूयमिति शेषः । एतावता प्रबन्धेन वालानां जीवावां सकर्मवीर्य प्रदर्शितम् , अतःपरं पण्डितानामकर्मवीर्यं कथयामि, तद्भवन्तः शृण्वन्तु इति ।९। ___ उक्तं वालवीर्य साम्य पण्डितवीर्यपाह-'दयिए' इत्यादि। मूलम्-दविए बंधणुस्सुक्के सव्वओ छिन्नपंधणे। पणोल्ल पावकं केलं लहलं कंतति अंतलो॥१०॥ छाया-द्रव्यो बन्धनोन्मुक्तः सर्वतश्छिन्नवन्धनः। प्रणुध पापकं कर शल्य कृन्तत्यनेकशः ॥१०॥ कहा गया है। मूल में आये हुए 'बालाणं तु में 'तु' शब्द से प्रमाद्वान् जीवों के वीर्य का भी संग्रह किया गया है। बालवीर्य के प्ररूपण के पश्चात् मैं पण्डितों का अकर्मवीर्य कहूँगा, उसे तुम सब सुनो ॥९॥ अव पण्डितवीर्य क्षा करन करते हैं-'दविए' इत्यादि। शब्दार्थ--'दिए-द्रव्यः' मुक्ति जाने योग्य पुरुष 'बंधणुम्मुक्केपन्धनोन्मुक्तः' बन्धनसे मुक्त ' सओ छिन्नबंधणे- सर्वतश्छिन्नबंधन:' तथा सब प्रकारसे चन्धनको नष्ट करता हुआ पायक कम्यं पणोल्लपापकं कर्म प्रणुद्य' पापकर्मको छोडकर 'अंततो सल्लं कंतति-अंतशः शल्यं कृन्तति' अपने समस्तकों को नष्ट कर देता है ॥१०॥ . . । भूभा मास 'बालाणां तु' मा ५४मा 'तु' ५४थी प्रभावान्, वाना વીર્યને પણ સંગ્રહ થયેલ છે. - બાલવીર્યનું નિરૂપણ કરીને હવે હું પંડિતોના અકર્મવીર્ય વિશે કહીશ તે તમે સાંભળો ! - वे 'दव्विा' या गाथा २१ परितवायर्नु थन ४२वामा आवे छे. शहाथ-दब्धिए-द्रव्य ' भुति गमन २वान योग्य ५३५ 'बंधणुम्मुक्केबंधनोन्मुक्तः' मनथी मुन्त 'सदओ छिन्नबंधणे-सर्वतश्छिन्नबंधनः' तथा अधाशते मधननानाश शने 'पावकं कम्मं पणोल्ल-पाप कर्म प्रणुद्य' पा५भने छाडी 'अंतसो बल्ल कंतति-अन्तश शल्य कृन्तति' पाताना 'सघणा કમેને નાશ કરી દે છે. ૧૦ | Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् अन्वयार्थः- (दबिए) द्रव्यः-मुक्तिगमनयोग्यो - भव्यः : (बंधणुम्मुक्के) बन्धनात्-कपायात्मकादुन्मुक्तो रहितः (सम्पओ छिन्नबंधणे) सर्वतश्छिन्नबन्धनः (पावकं कम्म) पापकं कर्म (पणोल्ल) प्रणुध-अपनीय (अंतसो सल्लं कंतति) अन्तशः-अन्ततो गत्वा शल्यं शेपं क्रम कृन्तति-अपनयतीति ॥१०॥ टीका-'दविए' द्रव्यो-मुक्तिगमनयोग्यो मुनि:--'द्रव्ये भव्ये' इति: वचनात् द्रव्यपदं मुक्तिगमनयोग्यं महात्मानमुपस्थापयति । अथवा-रागद्वेषरहित. त्वात् द्रव्यभूतो द्रव्यस्वरूपतां गतः सर्वथा कपायैः रहितः । यथा पापाणादि दिव्यं रागद्वेपरहितं भवति, तद्वत् यो रागद्वेषरहितः स द्रव्य इव द्रव्यः कथ्यते । अथवा वीतराग इव वीतरागः, ईपत्कपायवान् । तथोक्तम्- - .:. 'किं सका वोत्तुं जे सरागधम्ममि कोइ अक्साई। . ..? संते वि जो कसाए निमिण्हइ सोऽवि तत्तुल्लो' ॥१॥ अन्धधार्थ--मुक्तिगमन के योग्य, कषाय रूप बन्धन से रहित, सय प्रकार के संशयों से रहित भव्य जीव पापकर्मों को हटाकर अन्ततः शल्य को अर्थात् शेष रहे कर्मों को काट डालता है ॥१०॥ टीकार्थ--जो मुक्तिगमन के योग्य हो वह 'द्रव्य' कहलाता है। क्योंकि-'द्रव्यं च भव्ये' ऐला कहा गया है। अतएव यहाँ 'द्रव्य' पद का अर्थ है-मोक्षगमन करने योग्य महात्मा। अथवा रागद्वेष से रहित होने के कारण जो द्रव्य स्वरूप को प्राप्त हो अर्थात् सर्वथा निष्कषाय हो, वह भी 'द्रव्ध' कहलाता है । या जो वीरता के समान वीतराग अर्थात् अल्पकषायवान् हो, उसे भी द्रव्य कहते हैं। कहा भी है'किं सका घोत्तु जे' इत्यादि । અન્વયાર્થ–મુક્તિમાં જવાને ગ્ય, કષાયરૂપ બંધનથી રહિત, દરેક પ્રકારના સંશો વિનાના ભવ્ય જ પાપ કર્મને હટાવીને અન્તતઃ શલ્યને અર્થાત્ બાકી રહેલા કમેને છેદી નાખે છે. ૧૦ ટીકાર્થ-જેઓ મુક્તિમાં જવાને થયેલા હોય તે “દ્રથ” કહેपाय छ ॐभ -'द्रव्य च भव्ये' मा प्रमाणे ४८ छे. अहिया द्रव्य पहन। અર્થ મોક્ષમાં જવાને એગ્ય મહાત્મા આ પ્રમાણે થાય છે, અથવા રાગદ્વેષ વિનાના હોવાના કારણે જેઓ દ્રવ્યના સ્વરૂપને પ્રાપ્ત કરે અર્થાત્ સર્વથા કષાય વિનાના હોય તે પણ “દ્રવ્ય” કહેવાય છે, અથવા જે વીતરાગની સરખા વીતરાગ અર્થાત્ અલ્પ કષાયવાળા હોય તેને પણ દ્રવ્ય કહે છે. કહ્યું પણ छ -'कि सक्का वोत्तुं जे' यह Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे (छाया--किं शक्या वक्तुं यत् सराग धर्मे कोऽप्यकपायः। ५४. ., संतोपि यः कषायात् निगृह्णाति सोऽपि तत्तुल्यः ॥१॥ (:., संरागधर्मे यः स्थितः, पष्ठसप्तमगुणस्थानवान किं कश्चित् कषायरहितो भवति किमिति प्रश्ना, भवतीत्युत्तरम्, कपायस्य विधमानत्वेऽपि यः कषायम् उदयत निवर्तयति सोऽपि वीतरागसदृश एवेति भावः ।। किस्वरूपोऽयं द्रव्यस्तबाह-'बंधणुम्मुक्के' बन्धनोन्मुक्तः, वन्धनात् कायस्वरूपात् उन्मुक्तो रहित इति बन्धनोन्मुक्त । कर्मस्थितिजनकत्वात् फपायाः । कर्मबन्धनशब्देनोक्ता भवन्ति । तथोक्तम्-'बंधटिईकसायवसा' बन्धस्थितिः कपायवशा-बन्धस्थितिः कपायाधीनेत्यर्थः। तथा-'सव्यो छिन्नबंधणे' सर्वतः-सर्वप्रकारेण , छिन्न-नाशितं वन्धनं येन स सर्वतश्छिन्नबन्धनः । सर्वप्रकारेण नाशितकीयः। तथा-'पावकं' पापकम् 'कम्नं कर्म-ज्ञानी वरणीयादिकमष्टविधम् 'पणोल्ल' प्रणुध-विनाश्य, 'सल्लं' शल्यम्-शरीरे त्रुटित:: जो सरागधर्म में अर्थात रागयुक्त अवस्था में (छठे सानवें गुण.. स्थान में) वर्तमान है, उसे भी कथा अकषायी कहा जा सकता है ? इसका उत्तर यह है कि सत्ता में विद्यमान कषायों का भी जो निग्रह करता है, वह भी वीतराग था अकषायी कहा जा सकता है। । रु.ऐला, 'दव्य' महात्मा शिल प्रकार का होता है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हैं-यह बन्धनों से विमुक्त होता है कपाय मस्थिति के जनक है, अतएव कर्मबन्धक कहलाते हैं। कहा भी है कि कमौं में जो स्थिति पड़ती है, वह कपाय के कारण ही पड़ती है। इसके अति. रिक्त वह 'छिन्नबन्धन' होता है अर्थात् उसके धन्धान-कषाय सर्वथा' नष्ट हो जाते हैं। यह ज्ञानावरणीय आदि पपकर्मों को दूर करके, : જેઓ સરાગ ધર્મમાં અર્ધાતુ ગયુક્ત અવસ્થામાં (છઠ્ઠા સાતમા ગુણ સ્થાનમાં) વર્તમાન છે, તેને પણ શું અકષાયી કહેવાય છે ? આ પ્રશ્નને ઉત્તર એ છે કે–જેઓ સત્તામાં રહેલ કષાયને પણ નિગ્રહ કરે છે. તે પણ વીતરાગ અથવા અકષાયી કહી શકાય છે. કે, આ પ્રકારના દ્રવ્ય મહાત્મા કેવા પ્રકારના હોય છે? આ પ્રશ્નનો ઉત્તર આપે છે તે બંધનેથી વિમુક્ત (છૂટેલા) હેાય છે. કષાય-કર્મ સ્થિતિના ઉઋત્તિ રૂપ છે, એટલા જ માટે કર્મ બંધન કહેવાય છે. કહ્યું પણ છે કેકમમાં જે સ્થિતિ આવે છે, તે કષયના કારણે જ આવે છે, તે શિવાય તે છિન્નબંધન હોય છે. અર્થાત્ તેના બંધન-કષાયે, સર્વથા નાશ પામે Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 - 2 ce समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् वाणाप्रभाग इव दुःखदायि शेषकं कर्म 'कंतति' · कुन्तति-नाशयति-अपगमयति 'अंतसो अन्तश:-निरवशेषतः । मुक्तिगमनयोग्यो । भव्यजीवः सर्ववन्धनानि नाशयित्वा, एवं पापं कर्म विनाश्य अष्टमकारक संसारस्थितिकारणं कर्म अपंगमयतीति भारः॥१०॥ - यमाश्रित्य पुरुषधौरेयः कर्मरूपं. शल्यं छिनत्ति, तदुपदर्शनायाऽऽह सूत्रकार? 'नेयाउर्य सुयक्खाय' इत्यादि । मूलम् नेयाउयं सुर्यकखायं उवादाय समीहए। - भुजो भुज्जो दुहावासं असुहत्तं तहा तहा ॥११॥ छाया--न्यायोपेतं स्वाख्यातमुपादाय समीहते । . भूयो भूयो दुःखावास मशुभत्वं तथा तथा ॥११॥ अन्त में, शरीर के अन्दर टूटे हुए वाण की नौक के समान पीड़ा पहुँचाने वाले शेष कमों को भी नष्ट कर देना है। ____ तात्पर्य यह है कि मुक्तिगमन के योग्य भव्य जीव सर्व बन्धनों को नष्ट करके एवं पापकर्म को दूर करके संसार में स्थिति के कारणभूत आठों प्रकार के कर्मों को हटा देता है ॥१०॥ जिसका आश्रय लेकर महापुरुष कर्मरूप शल्प का उन्मूलन करता है, उसे सूत्रकार दिखलाते हैं-'नेयाउयं सुयक्खाय' इत्यादि। शब्दार्थ-'नेयाउयं स्तुयक्खायं-न्यायोपेतं स्वाख्यातम्' सम्यग् ज्ञानदर्शन और चारित्रको तीर्थक्षरोनि-मोक्ष का नेता (मोक्ष देनेवाला) कहा है 'उवादाय समीहए उपादाय समीहले विद्वान् पुरुष, नखे ग्रहण कर मोक्षके છે. તે જ્ઞાનાવરણીય વિગેરે પાપ કર્મને દૂર કરીને છેવટે શરીરની અંદર તૂટેલા બાણની અણીની જેમ પીડા પહોંચાડનારા બાકી રહેલા કર્મોને પણ નાશ કરે છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-મુક્તિમાં જવાને ગ્ય ભવ્ય જીવો સર્વ બંધનોનો નાશ કરીને તથા પાપ કર્મને દૂર કરીને સંસારમાં સ્થિતિના કારણે રૂપ આઠ પ્રકારના કર્મોને હટાવી દે છે પ૧ જેનો આશ્રય લઈને મહાપુરૂષે કમરૂપ શલ્યને નાશ કરે છે, તે વિષય मताadi सूत्रा२ ४९ छे ,-'नेयाउय सुरक्खाय' स्याह - शण्डा---'नेयाउय सुयक्खाय-न्यायोपेत स्वाख्यातम्' सन्य ज्ञान, शन, भने यात्रिने ती ४२ये भीम साप ह्या छे. 'उवादाये समीहए-उपादाय समीहते' विद्वान् ३५ २२ घडप उशन. भाक्षर मा Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ:-- स पूर्वोक्तो द्रव्यः (नेयाउयं सुक्खायं) न्यायोपेतं स्वाख्या-तम् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमेव मोक्षमार्गः तीर्थकरैराख्यातस्तम् (उवादाय' सीए) उपादाय समीहते ज्ञानादिकं गृहीत्वा मोक्षाय प्रयतते (भुज्जो भुज्जो दुहावासं) वालवीर्यं भूयो भूयो दुःखावासं ददाति ( तहा तहा असुहतं) तथा तथायथा यथा दुःखं भुञ्जते तथा तथा अशुभत्वमशुभविचार एव वर्द्धते इति ॥ ११ ॥ टीका - स पूर्वोक्तो द्रव्यः 'नेयाउयं' न्यायोपेतम् न्यायः- ज्ञानदर्शन: चारित्राख्यो मोक्षमार्गः, तेनोपेतम् - युक्तम्, अथवा - न्यायः - श्रुतचारित्ररूपो धर्मस्तेन युक्तम् 'सुयक्खायं' स्वाख्यातम्, सुष्ठु सम्यक आख्यातं तीर्थकरादिभिः लिये उद्योग करते हैं 'सुज्जो भुज्जो दुहावास-भूयो भूयो दुःखावासं' बालवीर्य बार बार दुःख देता है 'तहा तहा असुहन्तं - तथा तथा अशुत्वम् ' बालवीर्य वाला पुरुष ज्यों ज्यों दुःख भोगता है त्यों त्यों उसको अशुभ ही बढता है ॥ ११ ॥ अन्वयार्थ - - सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र तप को तीर्थकरों मोक्षमार्ग कहा है । विवेकशील पुरुष उसे ग्रहण करके मोक्ष के लिए यत्न करते हैं । बालवीर्य पुनः पुनः दुःख प्रदान करता है । बात जीव ज्यों दुःख भोगता है, त्यों त्यों उसका अशुभ विचार बढता ही जाता है ॥ ११ ॥ ६७६ - टीकार्थ- न्यायोपेतज्ञानदर्शन और चारित्र तप जो मोक्ष का मार्ग है उनसे युक्त हो वह नेता है अथवा न चारित्र रूप धर्म देती है, क्योंकि वह मोक्ष में कारण है । उस नेता या मोक्षमार्ग का तीर्थंकर आदि ने सम्यक् प्रकार से कथन किया है । उद्योग पुरे हे 'सुनो भुज्जो दुहावासं भूयो भूये दुःखावास' मासवीर्य चार'वार : हे छे. 'तहा तहा असुहत्तं तथा तथा अशुभत्वम्' मासवीर्य वाणी ! પુરૂષ જેમ જેમ દુખ ભાગવે છે તેમ તેમ તેને અશુભજ વધે છે. ૧૧૫ અન્વયા - सभ्य दृर्शन, ज्ञान, अने थारित्र तपने तीर्थ शो भोक्ष માળ કહેલ છે. વિવેકી પુરૂષ તે માગતું અવલખન કરીને મેાક્ષ માટે પ્રયત્ન કરે છે ખાલવીય વાર વાર દુઃખ દેનારૂ હાય છે માલ થવા મ જેમ દુઃખ ભાગવે છે, તેમ તેમ તેના અશુભ વિચારો વધતાજ જાય છે. ૫૧૧૫ ટીકા — ન્યાયે પેત જ્ઞાન દર્શન, ચારિત્ર અને તપ વિગેરે જે મેાક્ષના માર્ગ છે; તેનાથી યુક્ત હાય તેજ ‘નેતા’ છે. અથવા શ્રુન–ચારિત્રરૂપ ધ નેતા' છે, કેમકે તે મેાક્ષમાં કારણુ છે, તે નેતા અથવા મેક્ષ માર્ગનું તીથ કર વિગેરે એ સારી રીતે કથન કરેલ છે. Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ६७१ कथितम् 'उयावाय' उपादाय-श्रद्धा स्वीकृत्य-'समीहए' समीहते-सम्यग रूपेण ईइते मोक्षार्थसाधको द्रव्यः चेष्टते ध्यानाध्ययनादौ प्रयतते । धर्मध्यानावरोहणाय धर्मादौ प्रयतमानो भवति । वालवीय च 'भुज्जो भुज्जो' भूयो भूयःवारं वारम् 'दुहासं' दुःखावासम्, दुःखमावासयति-इति दुःखावासः दुःखकस्थानम् येन येन प्रकारेण वालवीर्यवान् दुःखजनकनरकनिगोदादौ परिभ्रमति 'तहा तदा तथा तथा-तेन तेन प्रकारेणाऽस्व वालवीयस्य अशुभाध्यवसायित्वात् 'असुहत्त' अशुभत्वम्-अशुभत्वमेव प्रवर्धते । इत्थं संसारस्वरूपं विवारयतो मुनेः धर्माऽनुष्ठानादावेत्र मतिः प्रवर्तते, इति। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपांसि मोक्षमार्गः, इति तीर्थकरैरुपदिष्टः, अतो मोक्षार्थी तं मोक्षमार्गमेवाऽऽदाय विचरति, तात्पर्य यह है कि सम्यग्ज्ञान, दर्शन चारित्र और तप या श्रुत और चारित्र रूप धर्म ही मोक्ष का कारण है, ऐसा तीर्थंकरों आदि ने उपदेश किया है । उस मोक्ष कारण को श्रद्धापूर्वक स्वीकार करके मोक्षार्थी पुरुप ज्ञान ध्यान आदि क्रियाओं में प्रवृत्ति करता है। इसके विपरीत बालवीर्य पुनः पुनः दुखों का कारण होला है। बालवीर्यवान् पुरुष नरक-निगोद आदि में परिभ्रमण करता है । जैसे-जैसे वहां दुःखों को भोगता है, वैसे वैसे उसकी अशुभता अर्थात् परिणामों की मलीनता चढती जाती है । इस प्रकार संसार के स्वरूप का विचार करने वाले मुनि की धर्मध्यान अनुष्ठान में ही प्रवृत्ति होती है। . . ___ आशय यह है कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र और तप मोक्ष के मार्ग हैं, ऐसा तीर्थक्षरों का उपदेश है । अतएव मोक्षार्थी मोक्षमार्ग को તાત્પર્ય એ છે કે-સમ્યક્ જ્ઞાન; દર્શન ચારિત્ર અને તપ અથવા શ્રત અથવા ચારિત્ર રૂપ ધર્મ જ મેક્ષનું કારણ છે આ પ્રમાણે તીર્થકર વિગેરે એ ઉપદેશ આપેલ છે. આ મોક્ષ માર્ગને શ્રદ્ધા પૂર્વક સ્વીકાર કરીને મોક્ષની ઈચ્છાવાળા પુરૂષ જ્ઞાન, ધ્યાન વિગેરે ક્રિયાઓમાં પ્રવૃત્તિ કરે છે. આથી ઉદટા બાલ વીર્ય–અજ્ઞાની વારંવાર દુઃખોના કારણ રૂપ થાય છે. બાલવી વાળા પુરૂ નરક-નિગોદ વિગેરેમાં પરિભ્રમણ કરતા રહે છે. ત્યાં જેમ જેમ દુઃખો ભેગવે છે, તેમ તેમ તેનું અશુભ પણ અર્થાત્ પરિણામોનું મલીન પણું વધતું જાય છે. આ રીતના સંસારના ૨વરૂપનો વિચાર કરવાવાળા મુનિ ધમ-ધ્યાનના અનુષ્ઠાનમાં જ પ્રવૃત્તિ કરે છે. . . ४डवाना माशय मे छ -सभ्य ज्ञान, शन, यारित्र भने त५ એ મેક્ષના માગે છે. આ પ્રમાણે તીર્થકરેએ ઉપદેશ આપેલ છે, તેથી જ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . सूत्रकृताङ्गसूत्रे मोक्षार्थ प्रवर्तते इति, बालकीर्य तु जीवस्य दुः वदायि, दुःखमुपभुञ्जानस्य बालबीर्यवतोऽशुमस्थानं नरकादिकमेव बर्द्धते इति भावः ॥११॥ मूलम्-ठाणी निविहठाणाणि चइरसंति ण संसओ। अणियत्ते अयं वाले वायरहिं सुहीहियं ॥१२॥ छाया--स्थानिनो विविधस्थानानि त्यक्ष्यन्ति न संशयः। .. अनियतोऽयं वासो ज्ञातकः सुहृदुनिश्च ॥१२॥ अन्धयार्थ:---(ठाणी) स्थानिनः-स्थानयन्तः-इन्द्रचक्रवत्यादयः (विविहठाणाणि चहस्संति ण संप्तओ) विविधस्थानानि-नानापकारकोत्तममध्यमस्थानानि ही अंगीकार करके विचरते हैं, मोक्ष के लिए ही प्रवृत्ति करते हैं। इसले विपरीत जो छालधार्य है, वह दुःख देने वाला है। दुःख को भोगने वाला बालवीर्यवान् पुरुष नरक आदि गतियों को ही पढता है ।१११ 'ठाणी' इत्यादि । शब्दार्थ-'ठाणी-स्थानी' उच्चपद पर रहे हुवे सभी विविह ठाणाणि चइस्संति ण संसओ-विविधस्थानानि त्यक्ष्यन्ति न संशयः' अपने अपने स्थानों को छोडदेंगे इसमें संदेह नहीं है 'णाइएहि य सुहीहि' जातिभिः सुहृद्भिश्च तथा ज्ञाति और मित्रों के साथ 'अयं दासेअयं वासः' जो संवाल है वह भी 'अणियते-अनियतः' अनियत है ॥१२॥ ___अन्वयार्थ-उन्तम स्थान के धनी इन्द्र चक्रवर्ती आदि नाना प्रकार के उत्तम मध्यम अधम स्थानों को त्याग देगे, इसमें संशय नहीं है। માણની કામનાવાળા મેક્ષ માગને જ સ્વીકાર કરીને વિચરે છે. તેઓ મોક્ષ માટે જ પ્રવૃત્તિ કરે છે. આનાથી વિપરીત જેઓ બાલવીર્ય છે, તે દુઃખ આપવાવાળા હોય છે, દુ ખ ભેગવનાર બાલવીર્યવાળા પુરુષ નારક વિગેરે ગતિનેજ વધારે છે. ૧૫ : 'ठाणी' इत्याहि , शाय-'ठाणी-स्थानी ! २५ ५६ ५२ २९सा अधा. 'विविहठाणाणि अस्संहिण संसओ-विविधस्थानानि त्यक्षन्ति न संशय: पति याताना स्यानान छोडीशे तेभा सशय नथी. 'णाइएहि य सुहीहि-ज्ञातिभिः सुहद्विश्च' तथा शाति भने मित्रोनी साथै 'अयं वासे-अयं वासः'२ पास पर 'अणियते-अनियतः' भनियत छे. ॥१२॥ - અન્વયાર્થ–ઉત્તમ સ્થાનવાળા ઈન્દ્ર, ચકવર્કત વિગેરે અનેક પ્રકારના ઉત્તમ, મધ્યમ, અને અધમ સ્થાને ત્યાગ કરશે તેમાં સંશય નથી, જ્ઞાતિ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनो टीका प्र. श्रु.अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम्- ६७३त्यक्ष्यन्ति नात्र संशयः, तथा-'णायएहि सुहीहि य' ज्ञातकैः बन्धुभिः सहृदुभि मित्रैश्च सह 'अयं दासे' अगं वास:-सहवायः सोऽपि 'अणियत्ते' अनियतोऽनित्य एवेति ॥१२॥ ___टीका--'ठाणी' शानिनः-स्थानं विद्यते येषां ते स्थानिन:-स्थानाधि पतयः । नशा देवलोके-इन्द्र प्रभृतयः, घनुपरलोके चकत्यादयः। तथा-तत्र तत्र स्थानेऽन्येऽपि स्थानिमः । विदिहठाणाणि' विविधस्थानानि-अनेकविधानि स्वकीय भोग्योपयुक्तानि 'चइरसंति' क्षान्ति-ये ये हि स्वाजितपुग्यवला यत् यादृशं स्थानमालान्त भोगेन क्षणात् पुगसमाशी, निमित्ताऽ पावेन नैमित्तिकं ताशस्थानमाश्यत्र ते परित्यले मवेत् । नहि वागविशिष्ट स्थानेषु पुण्याहावे कथमपि कस्यापि अवस्थितिः सभाव्यते । 'ण संपओ न संशयः, एतस्मिन् ज्ञानजनों और मित्रानों के साथ जो सवाल है, वह ली अनित्य ही है ॥१२॥ टोकार्थ-स्थानी का अर्थ है-स्था के अधिपनि । जैसे देवलोक में इन्द्र आदि लथा मनुष्यलोक में चक्रवर्ती आदि उत्तम स्थान के स्वामी है। इसी प्रकार विभिन्न स्थानों में दूसरे दूसरे जीव स्थानी हैं। वे लय अपने २ स्थान का परित्याग कर देगें। उन स्थानों पर लदैव उनका अधिपतित्व नहीं रहने वाला है। पुण्य के बल से जिस नाणी ने जिस स्थान को प्राप्त किया है, भोगने के पश्चात् पुण्य का क्षय होने पर वह स्थान स्वागना पड़ा है। क्योंकि जब निमित्त नहीं रहता तो नैमित्तिक भी नहीं रहता है। जिस पुण्य के कारण जो स्थान प्राप्त हुआ है, उस पुण्य के अभाव में वह स्थान टिका नहीं रह सकता । इस विषय में लेशमात्र भी संशय જન, અને મિત્રજનોની સાથે જે સહવાસ હોય છે, તે પણ અનિત્ય જ હોય છે. ૧૨ા ટીકા–સ્થાની અર્થ સ્થાનના અધિપતિ એ પ્રમાણે થાય છે. જેમ દેવલોકમાં ઈન્દ્ર વિગેરે તથા મનુષ્ય લોકમાં ચકવર્તી વિગેરે ઉત્તમ સ્થાનના રવામી છે, એ જ પ્રમાણે જુદા જુદા સ્થાને માં બીજા બીજા જ સ્થાની છે; તેઓ બધા પિત પિતાના સ્થાનેને ત્યાગ કરશે. તે સ્થાનો પર હંમેશાં તેઓનું અધિપતિપણું રહેવાનું નથી. પુષ્યના બળથી જે પ્રાણીએ જે સ્થાન પ્રાપ્ત કરેલ છે, તે સ્થાન ભગવ્યા પછી પુણ્યનો ક્ષય થયા પછી તે સ્થાનને ત્યાગ કરો પડે છે, કેમકે જ્યારે નિમિત્ત રહેતું ન હોય તે નેમિત્તિક નિમિત્તવાળ પણ રહેતો નથી. જે પુણ્યના કારણે જે સ્થાન પ્રાપ્ત થયું છે, તે પુણ્યના અભાવમાં તે સ્થાન ટકી શકતું નથી. આ સંબંધમાં Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे विपये मनागपि सन्देहो नास्ति । अवश्यं तादृशस्थानस्य पछतः । तथा-'गायएहि' ज्ञातकै 'सुद्दीहि य मुहृद्मिश्च 'अयं वासे' अयं वासोऽस्थितिः सोऽपि-'अणियत्ते' अनियतः:-अनित्या, बान्धवादिथिरकत्र परिदृश्यमानो योऽयं वासः, सोऽप्यनित्य एव । तथा चोक्तम् 'अशाश्वतानि स्थानानि सर्वाणि विवि चेह च ! देवाऽसुरमनुष्पाणा मृद्धयश्च सुखानि च ॥१॥ अपि च- सुचिरतरमुचित्वा बान्धवै विधयोगः, सुचिरमपि हि रन्त्या नास्ति योगेषु तृप्तिः । सुचिरमपि सुपुटं याति नाशं शरीरं, सुचिरमपि विचिन्त्यो धर्म एक सहायः ॥१॥ देवासुरमनुष्याणां सर्वाणि स्थानानि ऋडचादिकानि च अनियतानि भवन्ति, चिरकालं वान्धवैः सह वसन्नपि ततो वियोगो अति चिरकालं रन्त्वाऽपि के लिए अवकाश नहीं है । ज्ञातिजनों और सुहृद्जनों का जो सहवास है, वह भी अनित्य है, सदैव रहने वाला नहीं है। कहा भी है'अशाश्वतानि स्थानानि हत्यादि । _ 'समस्त स्थान अशाश्चान है, चाहे वे देवलोक में हो, चाहे इस मनुष्यलोक में हों । देषों, असुरों और मनुष्यों की समस्त ऋद्धियां और समस्त सुख भी अशाचर हैं। और भी कहा है-'सुचिरतरमुषित्वा' इत्यादि। । 'यन्धु घान्धवों के साथ विरकार पर्यन्त निवास करने पर भी आखिर वियोग होता ही है। चिरकाल (बहतकाल) तक भोग भोगने લેશમાત્ર પણ સ શયને અવકાશ રહેને નથી. જ્ઞાતિજને અને મિત્રજનેનો જે સહવાસ છે, તે પણ અનિત્ય જ છે. તે હમેશા રહેવાવાળે હોતો નથી. ४यु ५ छ -'भशाश्वतानि स्थानानि' इत्यादि “સઘળા સ્થાનો અશાશ્વત છે. ચાહે તે દેવકમાં હોય અથવા ચાહે તે મનુષ્ય લેકમાં હોય કે, અસુરો, અને મનુબેની સઘળી ઋદ્ધિ અને સઘળું સુખ પણ અશાશ્વત છે. . भी पशु घुछे हैं-'सुचिरतरसुपित्वा०' ७० मधुवनी साथे सांमा કાળ સુધી નિવાસ કરવા છતાં પણ આખરે વિયેગજ થાય છે, ચિરકાળ (લાંબા કાળ સુધી ભેગ ભેગવવા છતાં પણ ભેગેથી તૃપ્તિ થતી Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थचोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ६०५ वृतिन भवति, चिकालं पोपितमपि शरीरं नष्टं भवति अदो धर्म एक एव सहायको नान्य इति भावः । सर्वत्र ऋदया विभूपियोऽपि मातः यो दृष्टः स एव सायंतने ज्वलितचितामारुह्य शेतेऽनः अनियतोऽयं संसारवास इति । चकारेण अन्येऽपि द्विपदचतुष्पदधनधान्यादयो विषया अनित्या एव । एतावता सर्वत्र वैराग्यबुद्धि भावयेदिति शास्त्रकारः प्रतिपादयति-वैराग्येनाऽनित्यमोगादिभ्यो मति परावर्त्य मोक्षे निवेशयेत् । विशिष्टस्थानमवाप्यापि स्थानिनोऽधवापि पल्योपमसागरोपपर भी भोगों से तृप्ति नहीं होती है। चिरकाल (बहुतकाल) लक भली भाँति पुष्ट किया हुआ शरीर भी नाश को प्राप्त हो जाता है और चिरकाल पर्यन्त चिन्तन करने योग्य धर्म ही एक मात्र परलोक में सहायक होता है। जो मनुष्य प्रातः काल सम्पूर्ण वैभव से विभूषित देखा गया, वही सन्ध्या के समय जाज्वल्पमान चिता पर शयन करता (सोता हुआ) देखा जाता है। इस प्रकार यह सस्तार वाल अनिया है। गाथा में आया हुआ '' पद ले द्विपद, चतुष्पद, धन, धान्य आदि विषय और इनका संयोग भी अनित्य समझना चाहिए । शास्त्रकार का आशय यह है कि संसार के समस्त पदार्थों में वैराग्यभाव स्थापित करना चाहिए। वैराग्य के द्वारा अनित्य भोगों की ओर से अपनी वृद्धि की हटाकर मोक्ष में ही लगाना चाहिए। आशय यह है कि-संसारी जीव संसार के सर्वोत्कृष्ट स्थान को प्रास करके भी आज, कल या पल्योपम-सागरोपम के पश्चात् आयु का નથી. લાંબા કાળ સુધી સારી રીતે પુષ્ટ કરેલ શરીર પણ નાશ ને પ્રાપ્ત કરે છે. અને ઘણા સમય સુધી વિચારવામાં આવેલ ધર્મજ એક માત્ર પરલેકમાં સહાય કરનાર બને છે. જે મનુષ્યને સવારે સંપૂર્ણ વૈભવથી શોભાયમાન જે હોય તે જ મનુષ્ય સંધ્યાકાળે બળ બળતી ચિતા પર સૂતેલો જોવામાં આવે છે, આ રીતે આ સંસારવાસ અનિત્ય છે ગ થામાં આવેલ “E” પદથી બે પગવાળા, ચાર પગવાળા, ધન, ધાન્ય વિગેરે વિષયો તથા તેનો સગ પણ અનિય જ માન જોઈએ, શાસ્ત્રકારને હેતુ એ છે કે-સંસારના સઘળા પદાર્થોમાં વિરાગ્યભાવ ઉત્પન કર જોઈએ વૈરાગ્ય દ્વારા અનિત્ય ભેગોની તરફથી પિતાની બુદ્ધિ હટાવીને મે ક્ષમાર્ગ તરફ જ પ્રેરવી જોઈએ. સંસારી જીએ સસારનું સષ્ટિ સ્થાનને પ્રાપ્ત કરીને પણ આજ અથવા કાલ કે પછી 'પદંપમ સામે રપમ પંછી આયુને ક્ષય થાય ત્યારે Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. सूत्रकृतागस्त्रे मास्ते स्व स्वस्थानं स्वायुपः क्षयेऽश्यं त्यक्ष्यन्ति । तया-योऽययं मोहाधायको बन्धुवान्धः सह संवासो मन्येऽनित्य एव सोऽपीति विभावनीयो बुद्धिमताऽनित्ये "मति न विधेया कदापि, अपि तु मोक्षार्थमेव प्रयत्नो विधेय इति भावः ॥१२॥ मूलम्-एवमादाय मेहावी अपणो गिर्द्धि मुद्धरे। आरियं उवसंपज्जे सवधम्म मकोवियं ॥१३॥ छाया--एवमादाय मेधावी आत्मनो गृद्धि मुद्धरेत् । - आर्यमुपसंपद्येत सर्वधर्मेरकोपितम् ॥१३॥ *क्षय होने पर अवश्य ही उस स्थान का परित्याग करते हैं। इसके अतिरिक्त बन्धु बान्धवों के साथ जो संवास है, वह भी सदा बना 'रहने वाला नहीं-उसे भी किसी समय त्यागना ही पड़ता है। ऐसा विचार कर वुिद्धमान् पुरुष अनित्य पदार्थों में अपनी धुद्धि न लगावे, 'परन्तु मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करे ॥१२॥ ___ 'एवमादाय मेहाची' इत्यादि। ' शब्दार्थ-'मेहावी-सेधावी' बुद्धिमान् पुरुष एकलादाय-एकलादाय' सत्र स्थान अनित्य है ऐसा विचार करके 'अपणो निद्धि सुखरे-आत्मनः गृद्धिम् उद्धरेन्' अपनी मलत्य बुद्धि को हटादे धम्मनकोवियं-सर्व. धर्मेरकोपितम्' सब कुनीक्षिक धर्मों से दूषित नहीं किये हुए 'आरिथं - उपसंपज्जे-आर्यम् उपसंपत' इस आयर्थ धर्म को ग्रहण करें ॥१३॥ - તે સ્થાનને ત્યાગ કરવો જ પડે છે. તે સિવાય બધુજન કે જ્ઞાતિજન સાથે - સંવાસ છે, તે પણ સદાકાળ બન્યો રહેતો નથી. તેનો પણ કઈ સમયે ત્યાગ કરે જ પડે છે. આ પ્રમાણેને વિચાર કરીને બુદ્ધિશાળી પુરૂષે અનિત્ય , પદાર્થોમાં પોતાની બુદ્ધિ જોડવી ન જોઈએ. પરંતુ મોક્ષ માટે જ પ્રયત્ન ., २ता २९ ॥१२॥ ! - .... 'एवमादाय मेहावी' या Avatथ-'मेहावी-मेधासी' मुद्धिमान पु३५ 'एमादाय-एवमादाय' या " स्थानी अनित्य छ तम विया२ प्रशने 'अप्पणो 'गिद्विमुद्धरे-आत्मनः गृद्धिम् उद्धरेत्' चातानी भमभुद्धिने टावी हे 'सव्वधरममकोवियं-सर्वधमैं को. पितम्' ५४ ४ि यथा इषित नही ४३६। 'आरिच उपसंपज्जेआर्यम् उपसंपद्येत' मा भाय ना २' ४३ ॥१॥ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ६७७ -अन्ययार्थः -- (मेहावी) मेधावी -मर्यादाव्यवस्थितः (एवमादाय) एवम् - अनिस्थानि सर्वाणि स्थानानि इत्येवं ज्ञाल्दा (अप्पणो गिद्धिमुद्धरे) आत्मनः - स्वस्य वृद्धि - गाड ममत्वम् उद्धरेत् निःसारयेत् (सव्वधम्म मकोवियं) सर्वधर्मैरकोपितंदोषरहितम्, यद्वा सर्वधर्मेषु (आस्यिं उवसं रज्जे) भायै तीर्थकर मार्गम् उपसंपद्येत - स्वीकुर्शन, इति ॥ १३॥ टीका- 'मेहावी' मेधावी मर्यादान्तर्वर्तिमुनिः सदसद्विवेकवान् वा, ' एवं ' एवम् पूर्वोक्तक्रमेण सर्वाणि अपि स्थानाम्यनित्यानीत्येवम् 'आदाय' सम्यगव - * बुध्य 'अप्पणी' आत्मनः सम्बन्धिनीम् - कटुकविषयिणीम् 'गिट्टि' गृद्धि - गृद्धि भावम् 'उद्धरे' उद्धरेत् पुत्रकलत्रादिकमस्माकम् अहं तेपामित्यादि महत्वबुद्धि - परित्यजेत् कथमपि कुत्रापि ममेति बुद्धिं न कुर्यात् । 'आरियं' आर्यम् आरात्दुरं यातः सर्वधर्मेभ्य इति आर्यः, देयधर्मे दुःखदातृत्वं विद्यते, 1 " अन्वयार्थ -- ज्ञानी पुरुष ऐसा जानकर अर्थात् समस्त स्थानों और 'संयोगों को अनित्य समझकर अपनी ममता हटाले और सब धर्मो में निर्दोष आर्य मार्ग (तीर्थंकर प्रतिपादितमार्ग) को स्वीकार करे || १३॥ टोकार्थ- मेघावी आर्थात् मर्यादा में रहा हुआ अथवा सत्-असत् के विवेक से विभूषित मुनि पूर्वोक्त प्रकार से समस्त स्थानों को अनित्य जान कर अपनी गृद्धि उनसे हटाये - ये पुत्र कलन आदि मेरे हैं और मैं उनका हूँ, इस प्रकार की ममता का त्याग करदे। किसी भी पदार्थ में किसी भी प्रकार की ममत्व बुद्धि धारण न करे और आर्यमार्ग को स्वर करे । जो समस्त हेय धर्मो से दूर हट गया है, + 2 અન્વયાય—જ્ઞાની પુરૂષા એવુ માનીને અર્થાત્ સઘળા સ્થાને અને સચેાગેને અનિત્ય માનીને પેાતાનુ` મમત્વ હટાવીલે અને સઘળા ધર્મોમાં નિર્દોષ આ માગ (તીર્થંકરે પ્રતિપાદિત કરેલ માઈ)ના સ્વીકાર કરવે ॥૧૩ા ટીકા—મેધાવી અર્થાત્ મર્યાદામાં રહેલા અથવા સત્ અસત્ રૂપ વિવેકથી શાભાયમાન મુનિ પૂર્વોક્ત પ્રકારથી સઘળા સ્થાનાને અનિત્ય માનીને પેાતાની વૃદ્ધિ (શાસક્તિ) તેમાંથી હટાવીલે આ પુત્ર કલત્ર- વિગેરે સૌ મારાં છે, અને હૃ... તેઓને છું, આવા પ્રકારનું મહ્ત્વ-મારા પણાના ત્યાગ કરે કેાઈ પણ પદાર્થોમાં કોઈ પણ પ્રકારના મારાપણાની બુદ્ધિ ન રાખે અને આ માગ ના સ્વીકાર કરે. જેએ સઘળા હૈય (ત્યાગ કરવા લાયક) ધર્મોથી દૂર હિટ ગયા ડ્રાય Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरुतागसूत्रे वदस्मिन्न विद्यतेऽतोऽयं सर्वधर्मेभ्यो रे भवति । अथवा-आरात्-अतिसमीपं यात इति आर्यः अयं हि ज्ञानदर्शनस्वरूपत्वात्, स्वात्मन्येत्र व्यस्थितो धर्मति भवति सर्वेभ्यः समीपवर्ती । नहि-आत्मनोधिकः कश्चित् समीपवर्ती । अतोऽयमार्यों ज्ञानदर्शनचारित्रस्वरूपो मोक्षमार्गः । यद्वा-आर्याणां तीर्थकराणामयमार्योमार्गः, तादृशमार्यमार्गम् 'उपसंपज्जे' उपसम्पधेत-आश्रयेत् । कथंभूतं मार्ग तत्राह-सवधय्ममकोवियं' सर्वधर्मेरकोरपिता, संवैः कुतिधर्मरकोपितम्अपितम् । स्वप्रभावेणैव पयितुमशक्यत्वाद, प्रतिष्ठा प्राप्तम् । अथवा-सर्वधर्मः स्वभावैरनुष्ठानस्वरूपैरकोपितम्, कुत्सितकर्त्तव्याऽभावात् । यद्वा-सर्वैः धर्म बौद्धादिभिरकोपितम् । नहि-अस्मै कोऽपि कुप्यति यस्मादिदम् अर्हत्सवचनं सर्वबह आर्य कहलाता है। हेयधर्म (हिलादि लक्षण त्यागनेयोग्य धर्म) दुःख देनेवाले हैं, अतः वह उसमें नहीं पाये जाते। अथवा 'आरात्' का अर्थ है अत्यन्त समीप, उसे जो प्राप्त हो वह आर्य । ज्ञान दर्शन चारित्र तप रूप धर्म आर्य धर्म कहलाता है, क्योंकि यह अपनी आत्मा में ही रहता है। आत्मा से अर्थात् स्व-स्वरूप से अधिक समीपवर्ती अन्य कोई नहीं होता। इस व्याख्या के अनुलार ज्ञान दर्शन चारित्र और तप रूप मोक्षमार्ग आर्यमार्ग है। अथवा आर्यो अर्थात् तीर्थकों का मार्ग आर्य मार्ग कहलाता है। यह आर्यमार्ग समस्त कुनर्मित धर्मों से अदवित है। अपने प्रभाव के कारण ही किसी के द्वारा दूषित नहीं किया जा सकता । अधधा लवस्त बौद्ध आदि धर्मो के द्वारा शोपित है। इस पर कोई अपित नहीं हो सकता, છે, તેઓ આર્ય કહેવાય છે. હેય ધમાં હિંસાદિ લક્ષણવાળો ત્યાગ કરવા ગ્ય ધર્મ) દુઃખ દેનાર હોય છે. તેથી તે તેઓમાં હેત નથી. અથવા “સારાને અર્થ ત્યંત નજદીક એ પ્રમાણે થાય છે તેને જે પ્રાપ્ત કરે તે આર્ય, જ્ઞાન, દર્શન, ચરિત્ર, તપ રૂપ ધર્મ આર્ય ધર્મ કહે વાય છે. કેમકે તે પિતાના આત્મામાં જ રહે છે આત્માથી અર્થાત્ સ્વરૂપથી. ' વધારે નજીકમાં રહેનાર બીજું કઈ પણ હોતું નથી. આ વ્યાખ્યા પ્રમાણે જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર અને તરૂપ મેક્ષમાર્ગ આર્યમાર્ગ કહેવાય છે. અથવા - આ અર્થાત તીર્થકરનો માર્ગ આર્યમાર્ગ કહેવાય છે. આ આર્યમાર્ગ સઘળા કુનર્મિત-ટાતવાળા ધર્મોથી નિર્દોષ છે. પિતાના પ્રભાવના કારણથીજ તે કેઈનથી પણ દૂષિત-દષવાળે કરી શકાતું નથી. અથવા બૌદ્ધ વિગેરે સઘળા ધર્મો દ્વારા અકોપિત છે, અર્થાત્ તેના પર કેઈ ફોધયુક્ત થઈ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७९ समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. म. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् धर्माणां समाहाररूप नैगमनवेन नैयायिकमतस्य, ऋजुसूत्रेण वौद्धस्य, संग्रहेण वेदान्तिनां मतस्य संगृहीतत्वात् । अत सर्वोऽपि स्वस्वमतिपाद्यमेवाऽय पश्यति, अतः कथं कोऽपि कुप्येद, अनेकान्तवादे एकान्तवादस्य समाविष्टत्वाद, सर्वमपिउच्चपदय् अनित्यमेवेति संपधार्य विवेकशीलो ममत्वबुद्धिं सर्वतो विसृज्य सर्वधर्माऽदुपितनानदर्शनचारित्रात्मकधर्ममेव स्वीकुर्यात् । यतोऽयं धर्मः झटिति पापको भाति, अलस्यलास्य मोक्षस्य भावाऽत्रोधः ॥१३॥ मूलम्-संसह संमईए णचा धस्मसारं सुणेर्नु वा। समुवदिए उ अणगारे पञ्चक्खाय पावएं ॥१४॥ क्योंकि अर्हम लगदाल का प्रवाल विविध नवदृष्टियों का समन्वय करके उन्हें यथायोग्य स्वीकार करता है। वह समस्त एकानाबादों को अपने में समाविष्ट कर लेता है। जैसे नैगमनय से नैयाधिक वैशेषिक मत का, जुन नय से बौद्धों के क्षणिकवाद का और लंग्रह नय से वेदान्तियों के अद्वैतवाद का संग्रह करता है। अतएव जिनप्रवचन में सभी अपने अपने मन्तव्य को उसी प्रकार पाते हैं । फिर कोई क्यों इस पर कुपित होगा? तात्पर्य यह है कि जगत् के समस्त पद अनित्य हैं, ऐसा समझ कर विवेकवान् पुरुष उन सब ले अपनी समस्व वृद्धि हटाले और लय धनों में निदोष ज्ञान दर्शन चारित्र और तपरूप धर्म को स्वीकार करे। यह धर्म दलममोक्ष को भी शीघ्र प्राप्त करा देता ॥१३॥ શકતા નથી. કારણ કે–અ ત ભગવાનનું પ્રવચન જૂદા જૂદા પ્રકારના નય દષ્ટિના સમન્વય કરીને તેને યથાગ્ય રીતે સ્વીકાર કરે છે. જેમકે નેગમનયથી નૈયાયિક, વૈશેષિક મતને, રાજુ સૂત્રનયથી બૌદ્ધોના ક્ષણિકવાદને અને સંગ્રહાયથી વેદાન્તિના અદ્વૈતવાદને સંગ્રહ કરે છે. તેથી જ જે પ્રવચનમાં દરેક પિત પિતાના મન્તને તેજ રીતે જોઈ શકે છે. પછી કઈ પણ આના પર કેમ કુપિત થાય ? - - કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–જગના સઘળા પદાર્થો અનિત્ય છે, એવું સમજીને વિવેકશીલ પુરૂષ તે બધા પરથી પિતાની બુદ્ધિ હટાવીલેય અને દરેક ધર્મોમાં નિર્દોષ જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર અને પરૂપ ધર્મને સ્વીકાર કરે. આ ધર્મ દુર્લભ અર્થાત્ અપ્રાપ્ય એવા મોક્ષને પણ જલ્દીથી પ્રાપ્ત કરાવી દે છે. ૧૩ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० सूत्रकृतासूत्रे छाया-सह सन्मत्या ज्ञात्वा धर्मसारं शुन्या वा। समुपस्थित रत्वनगारः प्रत्यारूपात्पाएकः ॥११॥ अश्यार्थ:--'सहसमईए' सह सन्मत्या-स्वाभाविकरबुद्धया 'धम्मसारं' धर्मसारं-धर्मस्य श्रुनदारित्राख्यस्य सारं-तत्वम् (गचा) ज्ञात्या-अबुध्य इला पुत्रवत् , एवम्-(रणेत्तु वा) श्रुया वा-चिलाती पुत्रवत् शुन्या (समुट्ठिए अणगारे) समुपस्थितः-उत्तरोत्तरगुणसंपत्तये समुपस्थितोऽनगारः प्रबई मानपरिणाम: (पच्चकखायपावए) प्रत्याख्यातपापकः-निराकृतसावधानुष्ठानो भवतीति ॥१४॥ ___टीका--दोपाऽझलकित धर्मस्य ज्ञानं यथा भवति तदेवाह मूत्रकारः-'सह संमईए) इत्यादि । (सह संमई) सह सन्मत्या-सह-आत्मना सह वर्तते या 'सह सनईए' इत्यादि। शब्दार्थ-'सह संमईए-सह सन्मस्या' अच्छी बुद्धि के द्वारा 'सुणेत्तु वा-झुत्वा बा' अथवा सुनकर 'धमलारं-धर्मसार धर्म के सच्चे स्वरूपको 'जच्चा-ज्ञाश' जानकार 'सानुवहिए उ अणगारे-समुपस्थितस्त्वनगारः' आत्माको उन्नती करने में तत्पर साधु 'पञ्चक्खायपायए-प्रत्याख्यातापक' पापका प्रत्याख्यान करके निर्सल आत्मावाला होता है ॥१४॥ . ' अन्याय-अपनी स्वाभाधिक निर्मल बुद्धि से इलापुत्र के समान धर्मत्वको जान कर तथा शर्मसार-श्रुतचारित्र रूप सारको चिलाती पुत्र के सामान श्रवण करके ज्ञान और क्रिया की. उत्तरोत्तर प्राप्ति के लिए उद्यत अननाद सापद्य अनुष्ठान का त्याग करे ॥१४॥ - सहसंमईए' शा--'सह संमईए-सइ सन्मत्या' सारी मुद्धि द्वारा 'सुणेत्तु वाश्रुत्वा वा मय! समजा 'धम्मसारं-धर्मसारम्' घना, साया २५३पने 'जच्चा-ज्ञात्वा' oneीन 'समुट्टिएउ अणगारे-समुपस्थितस्त्वनगारः' मामानी तती ४२वामां तत्पर सेवा साधु 'पच्चखायपावए-प्रत्याख्यातपापकः' पायर्नु પ્રત્યાખ્યાન કરીને નિર્મળ આત્માવાળે થાય છે. ૧૪ * અવયાર્થ–પિતાની સ્વાભાવિક નિર્મલ બુદ્ધિથી ઈલા પુત્રની જેમ ધવને જાણુને અથવા ધસાર-શ્રુતચારિત્રરૂપસારને ચિલાતી પુત્ર પ્રમાણે શ્રવણ કરીને જ્ઞાન અને ક્રિયાની ઉત્તરોત્તર પ્રાપ્તિ માટે પ્રયત્નવાળા અનગારે સાવધ અનુષ્ઠાનને ત્યાગ કરે. ૧૪ ટીકર્થ–- નિષ ધર્મનું જ્ઞાન જે ઉપથી થાય છે, તેનું કથન હવે Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवाधिनी टोका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ६९१ 'सं-सम्यग् मतिः सा परोपदेशमन्तरेग समु-पन्ना मतिरित्यर्थः तया यद्वा श्रुतावधिज्ञानेन, ज्ञानं हि स्वपराऽबोध भवति, तेन ज्ञानेन सह 'धम्मसारं धर्मसारम्सर्वपाणत्राणलक्षणम् । 'गच्चा ज्ञात्वा-तीर्थकरादिभ्यो धर्मसारं ज्ञात्वा इलापुत्रवत् 'सुणे तु वा' अथवा-दिलानीपुत्रदत् श्रुत्वा धर्मसार धर्मसारप्रतिपत्त्यनन्तरं पूर्वभोपार्जितकर्मणः भगय पण्डिनीयसपमा स्वकारतकात्मकबन्धनविरहितो बालवीर्यविशुक्त उत्तरोत्तरगुणप्राप्त्यर्थ । 'ससुबहिर उ' समुप. स्थितः तु मोक्षमार्ग स्थितः 'अणगारे अनगार:-गृहादिग्यो रहितः मर्द्धमान-परिणामः। 'पच्चखायपार' प्रत्याख्यानपाका-प्रत्याख्यातं पाश्कं-माणातिषासादिलक्षणं कर्म येन म प्रत्याख्यातपापको सबनीति । स्वकीयनिर्मलबुद्ध या टीनार्थ-लिदोंप धर्म का ज्ञान जिन उपायों में होता है, वह सूत्रकार कहते हैं-जो मति परोपदेश के बिना हमभावतः उत्पन्न होती है, उसे यहाँ 'लहसम्मति' कहा गया है,। अथवा विशिष्ट अतिज्ञान श्रुतज्ञान और अवधिज्ञाम 'लहनमनि' कहलाते हैं। इनले धर्म का सार समस्त प्राणियों की रक्षा रूपतत्त्व जाना जाता है। जैसे इलापुत्रं ने दूसरों से धर्म को जाना था, क्यों कि ज्ञान स्व और पर दोनों का शोधक होता है । अथवा चिलातीपुन्न रेलमान कोई-कोई अषण करके भी धर्मतत्त्व को जानते हैं। इनमें से किसी भी उपाय से धर्म के लार को जान कर पूर्वभवों में उपास्ति कर्टी का क्षय करने के लिए पण्डि· तवीर्य से युक्त, सय प्रकार के कषाय बन्धन से रहित और बालवीर्य से विमुक्त होकर उत्तरोत्तर गुणों की प्राप्ति के लिए बढते चलते - સૂત્રકાર કરે છે.જે મતિ પપદેશ વિના સ્વભાવથીજ ઉત્પન્ન થાય છે, તેને महियां 'सह सन्मति' ४३ छ. मथवा विशेष प्रा२नु भतिज्ञान, श्रुतशान • मन अवधि ज्ञान' 'सहसन्मति' उपाय छे. तेनाथी धमना सा सघणा પ્રાણિની રક્ષા રૂપ તત્વ જાણી શકાય છે જેવી રીતે ઇલાપુત્રે બીજાઓની પાસેથી ધર્મ જાર્યો હતો કેમકે જ્ઞાન સ્વ અને પર બનેને બધ કરાવવા વાળું હોય છે, અથવા ચિલાતીપુત્ર પ્રમાણે કઈ કઈ શ્રવણ કરીને પણ ધર્મ તત્વને જાણું લે છેઆમાંથી કોઈ પણ ઉપાયથી ધર્મના સારને જાણીને પૂર્વ ભમાં ઉપાર્જન કરેલા કર્મોને ક્ષય કરવા માટે પરિડતવીર્યથી યુક્ત, બધા જ પ્રકારના કષાય બન્શનથી રહિત અને બાલવીર્યથી છૂટી જઈને ઉત્તરોત્તર ગુની પ્રાપ્તિ માટે વધતા એવા પરિણામેથી મુનિ મેક્ષમાર્ગને પ્રાપ્ત કરે, તે સઘળા પ્રાણાતિપાત વિગેરે પાપોને ત્યાગ કરનારા થાય म०८६ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे शात्वा गुरूपदेशादिना सत्यधर्मस्वरूप श्रुत्वा, ज्ञानादिगुणोपार्जने संलग्नः पापंपरित्यज्य विमलामा भवति साधुरिति ॥१४॥ मूलम्ज दि.चुदक्कम जाण आउखेलस्ल अपणो। तस्लेव अंतरी खिप्पं लिंक सिखेन पंडिए ॥१५॥ छाया-यं कंचिदुपकर जानीयाद् आयु. क्षेमस्य आत्मनः । __तस्यैवान्तरा क्षिनं शिक्षा शिक्षेत पण्डितः ॥१५॥ अन्वयार्थ:--(अपणो आउखेमस्ल) आसन:-स्त्रस्यायुःक्षेमस्य-स्वायुषः (जं किंचुवामं जाणे) यत् किञ्चिपक्रम जानीयात्-स्वायुः क्षयकालं ज्ञात्वा ...(तस्सेत्र अंतरा) तस्यै वान्तरा-तन्मध्ये एक (खिप्पं) लिप-शीबम् (पण्डिए) पण्डितः परिणामों से मुनि मोक्षमार्ग में उपस्थित हो। वह समस्त प्राणातिपात __आदि पापों का त्यागी हो। । आशय यह है कि साधु अपनी ही निर्मल बुद्धि से अथवा गुरु : आदि के उपदेश से सत्य धर्म के स्वरूप को जानकार, ज्ञानादि गुणों , के उपार्जन में तत्पर और पापोंक्षा परित्याग करके निर्मल होता है ॥१४॥ , , 'जं किंचुवकर्म जाणे' इत्यादि। - शब्दार्थ-'अपणो आउखेमरस-आत्मनः आयुः क्षेमध्य विद्वान , पुरुष अपनी आयुका ' जचुवामं जाणे-धत् किंचित् उपक्रम जानीयात्' क्षयकाल यदि जाने तो 'तरले अंरा-तस्यैत्र अन्तरा' उसके अंदर ही खिप्पं-क्षिप्र-शीच 'पंडिए-पण्डितः' विहान् मुनि लिक्ख-शिक्षा' संलेखनारूप शिक्षा लिक्खेजर-शिक्षेन' ग्रहण करे ॥१५॥ ... अन्वयार्थ-ज्ञानवान् पुनम अपनी आयु का कोई उपक्रम आयु કહેવાનો આશય એ છે કે સાધુ પિતાની જ નિમલ બુદ્ધિ વડે અથવા ' ગુરૂ વિગેરેના ઉપદેશથી સત્ય ધર્મના સ્વરૂપને જાણીને જ્ઞાન વિગેરે ગુણોના - ઉપાર્જનમાં તત્પર રહીને તથા પાપનો ત્યાગ કરીને નિર્મળ બની જાય છે. ૧૪ जे किचुवकम जाणे' या ::'शहाथ----अप्पणी शाउक्खयस्स-आत्मन' आयु क्षयस्य' विहान् युष पाताना मायुष्यन। 'ज किचुपकम जाणे-यत् किंचित् उपक्रम जानीयात्' क्षयजाद ने ___ong तो 'तस्सेव अंतरा-तस्यैव अन्तरा' तेनी ५४२ २४ 'खिप्पं-क्षिप्र' हीथी । 'पंडिए-पण्डितः' पति मुनि सिक्ख-शिक्षा' सोमना'३५ शिक्षाने "सिक्खेज्जा-शिक्षेव' अक्षय १२. Mill .. मापयाथ-सानवान, ५३५ पोताना आयुष्यने ५४ है Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थयोधिनी टीका प्र. Q. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् - ६८३ -विवेकी (सिक्खें) शिक्षा-संलेखनारूपाम् (सिक्खेज्जा) शिक्षेत-ग्रहणशिक्षया यथावनमरणविधि विज्ञाय आसेवन शिक्षया आसेवेत इति ॥१२॥ टीका-'अपणो' आत्मनः-स्वस्थ 'आउखेमरस' आयुःक्षेमस्य, "ज किचुवकम' यं कञ्चनोपक्रमम् उरकस्य ते-संरथ तं क्षयं प्राप्यते' आयु नि स उपक्रमः, तं यं कश्चन, 'जाणे' जानीयान तस तस्यैव-तस्योपक्रमस्य मरणकालस्य वा 'अंतरा' मध्ये एत्र 'खिप्पं क्षिपम्-शीघ्रम् झटिति अनाकुलः सन् "सिक्खा' शिक्षाम-संलेखनारूपास, भक्तपरिक्षेजितमरणादिकां वा, पंडिए' पण्डितो विवेकी सिरखेज्म' शिक्षेत, तत्र ग्रहणशिक्ष या यथावन्मरणविधि ज्ञात्वा, आसेवनाशिक्षया तुः आसे देत । पण्डितो यदि केनापि प्रकारेण स्वायुपः क्षयकालं को कम करने वाला कारण, जाने तो उसी बीच शीघ्र ही संलेखना रूप शिक्षा का सेवन करे अर्थात् समाधि धारण करले ॥१५॥ . . टीकार्थ--जिस कारण से आयु का संवर्तन हो जाता है अर्थात् दीर्घकाल में भोगने योग्य आयु शीघ्र भोगी जाती है, उस विष, शस्त्र, अग्नि जल आदि कारण को उपक्रम कहते हैं ! लाधु जब अपनी आयु का कोई उपकमा जाने तो हली बीच अर्थात् मृत्यु से पूर्व ही विलम्ब किये बिना ही, संलेखमा ग्रहण कर ले आर्थात् भक्तपरिज्ञा, इंगितमरण या पादपोपगमन आदि संथारा धारण करले। ज्ञपरिज्ञा से मृत्यु की समीचीन विधि को जानकर आसेवन परिज्ञा से उसका सेवन करे। आशय यह है कि-ज्ञानी पुरुप किसी प्रकार अपनी आयु का अन्त આયુષ્યને ઓછું કરવાવાળું કારણ જાણે તો તેજ વખતે જલદીથી સંલેખના રૂપ શિક્ષાનું સેવન કરે. અર્થાત સમાધિમરણ ધારણ કરી લે. ૧૫ ટીકાઈ– જે કારણથી આયુનું સંવર્તન થઈ જાય છે,–અર્થાત લાંબા કાળ સુધી ભેગવવાના આયુષ્યને જલદીથી બે ગવી લેવાય છે, તે વિષ, શસ્ત્ર, અગ્નિ, જળ, વિગેરે કારણેને ઉપકેમ કહે છે સાધુ જ્યારે પિતાના આયથન કેઈ ઉપક્રમ જાણે તો તેની વચમાં એટલે કે મૃત્યુની પહેલાંજ વગર વિલ સ લેખનાને સ્વીકાર કરીલે અર્થાત્ ભક્તપરિજ્ઞા, ઈગિતમરણ, અથવા પાદપપગમન વિગેરે સંથારો ધારણ કરી લે. પરિણાથી મૃત્યના વિધીને સારી રીતે જઈને આસેવન પરિજ્ઞાથી તેનું સેવન કરે. કહેવાનો આશય એ છે કે જ્ઞાની પુરુષ' કોઈ પણ પ્રકારે પિતાના Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतागसूत्र जानीयाद, तदा स्वायुपः क्षयात् पूर्वमेव संलेखनारूपां शिक्षां गृहीयात्, इति भावः ||१५|| मूलम् - जहा कुंमे सअंगाई सए दे हे समाहरे । एवं पीवाई मेहावी अज्झेंपेण संमाहरे ॥१६॥ छाया—यथा कूर्मः स्वाङ्गानि स्वस्मिन् देहे समाहरेत् । एवं पापानि मेधावी अध्यात्मना समाहरेत् ॥ १६ ॥ अन्वयार्थ : - ( जहा ) यथा ( कुंमे ) कूर्म :- कच्छपः ( सअंगाई) स्वाङ्गानि - हस्तपादादीनि (सर देहे समाहरे) स्वके देहे - स्वशरीरे एव समाहरेत्- संकोचयेत्. ( एवं मेहावी) एवमेव मेधावी - मर्यादावचन सदसद्विवेकी वा (पावाई)- पापानि-सावधानुष्ठानानि (अज्झष्पेण) अध्यात्मना - सम्यग् धर्मध्यानादिभावनया (समाहरे) समाहरेत् - संकोचयेदिति । १६ ।। आया जान ले तो आयु के क्षय से पहले ही संलेखना करके और पण्डितमरण अंगीकार करे | १५|| 'जहा कुंमे स अंगाई' इत्यादि । शब्दार्थ - 'जहा - पथा' जैसे 'कुसे - कूर्मः' कछुमा 'सअंगाई-वाज्ञान' अपने अंगों को 'लए देहे समाहरे- स्वके देहे समाहरेत्' अपने. देह में सीकोड देता है एवं मेहावी एवं मेधावी' इसीप्रकार बुद्धिमान् पुरुष 'पावाई - पापानि' पापों को 'अज्झम्पेण-अध्यात्मना' धर्म ध्यान आदि की भावनाले 'लमाहरे- समाहरेत्' संकुचित् करदे ॥ १६ ॥ अन्वयार्थ --- जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने देह में सकोड. આયુષ્યના અંત આવેલા જાણે તે આયુના ક્ષયની પહેલાંજ સલેખના કરીલે અને પંડિત મરણુ સ્વીકારીલે ૧૫ 'जहा कुंभे स अंगाई' शहार्ध.-'जहा-स्था' प्रेम 'कुंसे- कूर्मः' अथ 'सअंगाई - स्वाङ्गानि ' पोताना गंगाने 'सए देहे समाहरे - स्वके देहे समाहरेत्' पोताना शरीरभां सभावी से हे, ‘एव ं मेहावी - एवं मेधावी ४ प्रभा युद्धिमान् पुष 'पावाईपापानि' पाने 'अज्झप्पेण-अध्यात्मना' धर्म ध्यान वगेरे लावनाथी 'समाहरे- समाहरेत्' सथित उरी हे ||१६|| અન્નયા જેવી રીતે કાચખેા પેાતાના અંગાને પેાતાના દેહમાં Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ६८५ टीका - अपि च- अन्यदपि - 'जहा' यथा - येन प्रकारेण 'कुंमे' कूर्मः -- कच्छपः 'सअंगाई' स्वाङ्गानि - स्वशिरश्चरणादीनि - स्त्रशरीरावयवान 'सए. देहे'स्वस्मिन् शरीरे 'समाहरे' समाहरेत्' यतः कुतोऽपि दिग्देशात् समुपागच्छति भयेन स्वावयवं स्वावयविनि शरीरे प्रवेशयति । एवं तथा तेन प्रकारेण 'मेहावी' मेधावी मर्यादावान सदसद्विवेकवान् 'पावाई' पापानि स्वकीयानि स्वावयवप्रायाणि 'अज्य पेण' अध्यात्मना संप्राप्ते मरणसमये सम्यग् धर्मध्यानादिभावनया 'समादरे' समाहरेत् स्वस्मिन्नुपसंहरेत् समुपस्थिते मरणसमये सम्यक् संलेखनया संलेखितकायः पण्डितमरणेन स्वात्मानमुपसंहरेदिति । यथा हि- समागच्छति भये लेता है, उसी प्रकार मेधात्री ( धारणा बुद्धि वाला अथवा विवेकी) पुरुष पापों को धर्मध्यान आदि की भावना से संकुचित करले ||१६|| टीकार्थ -- यहाँ 'जहा' शब्द दृष्टान्त के अर्थ में है । जिस प्रकार कच्छप अपने सिर पग आदि अंगों को अपने ही शरीर में गोपन कर लेता है अर्थात् किली भी प्रकार का भय उपस्थित होने पर अपने अवयवों को शरीर में समालेता है, उसी प्रकार मेधावी अर्थात् मर्यादावान् अथवा सत् असत् के विवेक से युक्त पुरुष अपने पापों को धर्मभावना से सिकोड़ दे । अर्थात् मृत्यु का समय उपस्थित होने परं सम्यक् प्रकार से अपनी काया का संलेखन करके पण्डितमरण सें अपने शरीर का परित्याग करे | अभिप्राय यह है-जैसे भय उपस्थित होने पर कछुआ अपने अंगों સ'કાચી લે છે, એજ પ્રમાણે બુદ્ધિશાળી (ધારણા બુદ્ધિવાળા અથવા વિવેકી) ઘમ ધ્યાન વગેરે ભાવનાથી પાપેાને સોંકુચિત કરીયે, ૫૧૬૫ टीअर्थ - मडियां 'जहा' से यह दृष्टान्तना अर्थभां वपराये छे. રીતે કાચબા પેાતાના માથું, પગ વિગેરે અગોને પેાતાના જ શરીરમાં સમાવી લે છે. અર્થાત્ કોઇ પણ પ્રકારના ભય ઉપસ્થિત થાય ત્યારે પેાતાના અવયવેને શરીરમાં સમાવી લે છે, એજ પ્રમાણે મેધાવી અર્થાત્ મર્યાદાવાન્ અથવા સત્ અસના વિવેકને જાણુનાર પુરૂષ પાતાના પાપાને ધમ ભાવ નાથી સ``ચી લે અર્થાત મૃત્યુને સમય આવે ત્યારે સમ્યક્ પ્રકારથી પેાતાના શરીરન્તુ સલેખન કરીને પતિ મરણુથી પેાતાના શરીરને પરિત્યાગ કરે. કહેવાના અભિપ્રાય એ છે કે—જેમ ભય ઉપસ્થિત થાય ત્યારે કાચ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . . सुभकृता कताइधुत्रे कच्छप: स्वास्यवं स्वशरीरे संकोचयति, तद्वत् तथा विज्ञाय विद्वान् मरणसमयेऽशरणं स्वकीयाऽसदनुष्ठान स्वस्मिन् धर्मध्यानभावनया संकोचयेत् ॥१६॥ मूलम्-साहरे हत्थ पाए य मणं पंचिंदियाणि य। · . पावकं च परिणामं भालादासं च तारिसं ॥१७॥ . छाया- 'संहरेद्धस्तौ पादौ च मनः पञ्चन्द्रियाणि च। . पापकं च परिणामं भाषादोषं च तादृशम् ॥१७॥ ... . अन्दयार्थ:- (हत्थपाए य साहरे) हस्तौ च पादौ संकोचयेत् 'मणं पंचितो अपने शरीर में संकुचित कर लेता है, (ऊर्णनाभि नामक कीट के समान) उसी प्रकार विज्ञान पुरुष अनिवार्थ भरण का समय आया जानकर धर्मध्यान की भावना से असद अनुष्ठान को त्यागदे । ॥१६॥ . 'साहरे हत्यपाए 2' इत्यादि। शब्दार्थ-'हस्थ पाए साहरे-हस्ती पादौ च संहरेत् साधु अपनेहाथ पैरको संकुचित स्थिर' रखे 'मणं पंचे दियाणि य-मन पञ्चेन्द्रियाणि च और मन तथा पांचइन्द्रियों को भी उनके विषयों से निवृत्त रक्खे 'पादकं च परिणामं-पापकं परिणाम तथा पापहप परिणाम और 'तारिस मासादसिं च-तादृशं भाषादोषं च तथा पापरूप परिणाम और-पापमय भाषादोष भी बनित करे ॥१७॥ ___ अन्ययार्थ-हाथों को, पगों को, पांचों इन्द्रियों को, पापमय પિતાના અંગોને પોતાના શરીરમાં સમાવી લે છે સંકેચી લે છે, (ઉના સના કીડની જેમ) એજ પ્રમાણે વિદ્વાન પુરૂષ અનિવાર્ય મરણને સમય આવેલે જાણીને ધર્મધ્યાનની ભાવનાથી અસત્ એવા અનુષ્ઠાનને त्याग ४२, ॥१९॥ 'साहरे हत्थपाए य' त्या शा---'इत्थपाए सोहरे-हस्तौ पादौ च संहरेत् ! साधु पोताना थ गने सथित (स्थि२) राणे 'मणं पंचे दियाणि य-मनः पञ्चेन्द्रियाणि च' तथा भन भने पाये ।न्द्रियाने ५ तमना विषयाथी निवृत्त राणे 'पावकं च परिणाम-पापकं परिण'मं' तथा ५१५३५ परिणाम भने 'मारिसं भासादासचतदर्श भाष देप च' तथा ५।५३५' परिणाम भने ५५ भय भाषाहापना પણ ત્યાગ કરે ૧૭ના અન્વયાર્થ-હાથને, પગોને, મનને પાંચે ઈન્દ્રિયોને પાપમય અથવ Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थचोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ६८७ दियाणि य) मनः च-पुनः पञ्चन्द्रियाणि-श्रीवादीनि समाहरेत्. तथा-(पावकं च परिणाम) पाप च-पाएस्वरूप परिणाम तथा (तारिसं भासादोसं च) तादृशं पापात्मकं भापादोपं च संहरेदिति ॥१७॥ टीका-पूर्वमुत्रोक्तमेवार्थ विस्तरेण प्रतिपादयति-समुपस्थिते मरणसमये यथा-संछिन्नमूलबन्धनो वृक्षो व्यापारविरहितो भूवि निश्चलस्तिष्ठति तथा ज्ञात्वा मरणकालं विद्वान् 'इत्थपाए ये हस्तौ पादौ च स्वकीयौ 'समाहरे' संहरेद-व्यापाराभिवतयेत्, कर्मकरायां हस्ताभ्यां पद्भयां वा कमपरशुभं व्यापार न कुर्यात्, चेष्टमानोऽपि छिन्नमूलक्षवत् निश्चलं शरीरं भुवि व्यवस्थापयेत् । 'य'च तथा-'मणे' मनः 'पंचिंदियाणि' पञ्चेन्द्रियाणि श्रोत्रेन्द्रियादीनि अशुभव्यापारान्निवर्तयेत् । स्व स्त्रविषयेभ्य इन्द्रियाणां विरतिं कुर्यात् । इन्द्रियद्वारा रागतो विषयान्नाऽऽददीतेत्यर्थः । एवं केवलं वाह्यकरणस्यैत्रोपरामो न, किन्तु मनअध्यवसाय को और पापमय भाषादोष को संहरण करे अर्थात् इनकी प्रवृत्ति को रोक दे॥१७॥ टीकार्थ-पहले वाले सूत्र में कथित अर्थ यहां विस्तार से प्रतिपादन किया गया है । जिसका मूल काट डाला गया है, ऐसा वृक्ष हलन चलन से रहित होकर भूतल पर निश्चल पड़ा रहता है, उसी प्रकार मरणकाल उपस्थित होने पर विहान मृत्यु को निकट आती देख कर अपने हाथों और चरणों के जापार को रोक दे। हाथों और चरणों से कुछ भी व्यापार न करे। छिन्नपूल (कटे हुए, वृक्ष की भाँति चेष्टा करता हुआ भी शरीर को पृथ्वी पर निश्चल रक्खे । इसी प्रकार. मन को और प्रोन्न आदि पांचों इन्द्रियों को अशुभ व्यापार से निवृत्त फरले, अर्थात इन्द्रियों के किसी भी विषय में राम द्वेष न करे। સાયને અને પાપમય ભાષાદોષને સંહરણ કરે અર્થાત્ તેઓની પ્રવૃત્તિને રોકી દે. ટીકાર્થ–પહેલાના સૂત્રમાં કહેલ અર્થનું અહિયાં વિસ્તારથી પ્રતિપાદન કરવામાં આવેલ છે જેનું મૂળ કાપી નાખવામાં આવેલ છે, એવું વૃક્ષ . હલન ચલન વિનાનું થઈને પૃથ્વી ઉપર સ્થિર પડ્યું રહે છે, જે પ્રમાણે - મરણકાળ પ્રાપ્ત થાય ત્યારે વિદ્વાન પુરૂષે મૃત્યુને નજીક આવેલું જોઈને [ પિતાના હાથ અને પગની પ્રવૃત્તિ રેકી દે છે હાથ અને પગોથી કાંઈ પ્રવૃત્તિ કરતા નથી, છિન્નમૂળ (કપાયેલ) ઝાડની માફક શરીરને પૃથ્વી પર સ્થિર રાખવું, એજ પ્રમાણે મનને તથા કાન વિગેરે પાચે ઈન્દ્રિયન, અશુભ પ્રવૃત્તિથી, રોકી દે. અર્થાત્ ઈન્દ્રિયોના કેઈ પણ વિષયમાં રાગદ્વેગ *ક નહિં કેવળ ઇન્દ્રિયની બે હ્ય (બહાર)ની પ્રવૃત્તિથી જ રોકાવું તેમ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृतागसूत्रे सोऽन्तःकरणस्यापि - अपदतुष्ठानेभ्यो विरतिं कुर्यात् । मनसापि कमपि पदार्थ न सेवेत । 'पावकं च परिणाम' पापकं च प्राणातिपातादिरूपं परिणामम्, तथा - 'दारिस' तादृशं पापरूपम् 'भासादोर्स' भाषादोपं च संहरेंद, मनोवाक्कायगुप्तः सन् दुर्लभं सहसे पण्डितमरणं वा अशेषकर्मक्षयार्थ सम्यगनुपालयेदिति ॥ १७ ॥ मूलम् - अणुं माणं व सायं च तं पडिनाय पंडिएं । सातगावणिहुए जैवसंगी घरे ॥ १८ ॥ छाया -- अणु मानं च मायां च तत्परिज्ञाय पण्डितः । साता गौरवनिभृत उपशान्तोऽनीहवरेत् ॥ १८ ॥ .६८८ केवल बाह्य इन्द्रियों के विषय से ही उपरत न हो परन्तु अन्तःकरण मन को भी असत् अनुष्ठान से विरत करले । मन से किसी परपदार्थ का सेवन न करे, अप्रशस्त संकल्प विकल्प न करे, जीवन मरण 'की कांक्षा न करे । रागद्वेष न करे । पापरूप परिणाम को तथा भाषा संबंधी दोषों को भी त्याग दे । तात्पर्य यह है कि मन, वचन और काय का गोपल करके, दुर्लभ संयम को प्राप्त करके समस्त कर्मों का क्षय करने के लिए पण्डितमरण का सम्यक् प्रकार से पालन करे ॥ १७ ॥ 'अणुंमाणं च मायं च' इत्यादि । शब्दार्थ - 'अणुं माणं च मायं च अणुं मानं च 'माथां च' साधु थोड़ा भी मान और माया न करे 'तं परिण्णाय तत्परिज्ञाय' मान और माया का बुरा फल जानकर 'पडिए - पण्डितः' विद्वान् पुरुष 'सातागार - નહીપણુ અન્તઃકરણ અને મનને પણ ખેટા અનુષ્ઠાનેાથી રોકી દે મનથી કાઈના પણ પારકા પદાર્થનું સેવન ન કરવુ.. મપ્રશસ્ત સલ્પ વિકલ્પ કરવા નહીં જીવન મરણની ઈચ્છા ન કરે. રાગદ્વેષ ન કરે. પાપપ પરિણામને અથવા ભાષા સંબંધી દોષાને પણ ત્ય ગ કરે. કહેવાનુ' તાત્પય એ છે કે–મનવચન, અને ક્રાયનું ગેપન (છુપાવ્) કરી ને ફૂલભ એવા સથમને પ્રાપ્ત કરીને સઘળા કર્મોને ક્ષય કરવા માટે પતિ મરજીનુ' સારી રીતે પાલન કરવુ. ll૧૭ણા अणुं माणं च मायं च' इत्याहि शब्दार्थ - 'समाणं च अणुं मानं च मायां च' साधु थोडु' पशु भान अने भायायार न राजे 'तं परिण्णाय तत्परिज्ञाच' भान भने भायानुं राम ज Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयायोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् .. १८९ __ अन्वयार्थ:-(अणुं माणं च मायां च) अणु-स्वल्पमपि मानम्-अहङ्कार, मायां च न कुर्यात् (तं पडिमाय) तं-मानं मायां च परिज्ञाय-एतयोः कटुंकफलं ज्ञपरिज्ञा ज्ञात्वा प्रत्यख्यानपरिज्ञया परित्यजेत् (पंडिए) पण्डितो-विद्वान् (सातागास्वणिहुए) सातगौरजनिभृतः-साताभौरव-मुखशीलता तत्र निभृतः तदर्थः मनुयुक्तः (उपसंते) उपशान्त:-रागद्वेषेभ्यो निवृत्तः (अणिहे) अनीह:-मायामपंचरहितः (चरे) चरेत् ॥१८॥ टीका--संयमे उत्कर्षनया पराक्रममाणं संयमिनं यदि कश्चिदागत्य सत्कारादिना निमन्त्रयेत् । तानिमंत्रणावसरे सभीयात्मोत्कर्ष न कुदि इति दर्श यितुं सूत्रकार आह-(अणुं माणं च) इत्यादि । (अणुं माणं) अणुमानस्. अणुमितिस्वल्पमपि 'माणं' पानम्-अहङ्कार-महवापि चक्र दिना सरकार्यमाणः यणिहुए-लानागौर वनिता' सुम्ब शीलताले रहित 'वसंते-उप. शान्तः तण शान्त अर्थात् रागद्वेष रहित होकर 'अणिहे-अनी है।' एवं मायारहित होकर 'चरे-चरेत् विचरण करे ॥२८॥ . . अन्वयार्थ-ज्ञानी पुरुष लेश मान भी मान और माया न करे। मान और माया के कटुक फल को ज्ञपरिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उसको त्याग दे। सुखशीलता में उद्यत न हो कर, उपशान्त अर्थात राग और द्वेष से निवृत्त होकर तथा माया प्रपंच से रहित होकर विचरे ॥१८॥ टोकार्थ--संयम में उत्कृष्ट पराक्रम करने वाले संयमी के समीप आकर यदि कोई सत्कार के साथ निमंत्रण करे तो ऐसे अवसर पर वह अभिमान न करे, यह प्रकट करने के लिए सूत्रकार ने कहा हैMena पंडिए-पण्डितः' विद्वान ५३५ 'सातागारवणिहुए-सातागौरवनिभृतः' सुम मन व विनाना २/२ 'स्वसंते-उपशान्तः' शांत अर्थात् रागद्वेष बिनाना थन 'अणि हे-अनी' माया २हित ४२ 'चरे-चरेत्' वियर ४३ ॥१८॥ .... અન્વયાર્થ-જ્ઞાનપુષેિ લેશમાત્ર પણ માન અને માયા ન કરવી, તથા માન અને માયાના કડવા ફળને જ્ઞપરિજ્ઞાથી જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પરિણાથી તેને ત્યાગ કરે. સુખપણામાં પ્રવૃત્તિવાળા થવું નહિં તથા ઉપશાંત અર્થાત રાગ ષથી નિવૃત્ત તથા માયા અને પ્રપંચથી દૂર રહીને વિચરવું. ૧૮ & ટીકાથ– સંયમમાં ઉત્તમ પરાક્રમ કરવાવાળા સંયમીની સમીપ આવીને જે કાઈ સત્કાર પૂર્વક નિમંત્રણ કરે તો તેવા અવસરે તેણે અભિમાન કરવું નહિ આ વાત બતાવવા માટે સૂત્રકારે કહ્યું છે કે-ટામાં મોટા ચકલી सू० ८७ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -६९० सूत्रकृताङ्गसूत्रे • स्वोकमपि अहङ्कारं साधुर्न कुर्यात् । मानोहि संयममासादशिखरात् पादने वज्रमिव हेतुः । अथवा - सर्वोत्तमे पण्डितमरणेऽहमेव समर्थो नान्य इत्येवं गर्यो न विधेयः । तथा-'मायं च' सायां च मायामपि न कुर्यात् स्वल्पापि माया मुनिना न कर्त्तव्या, किमुत महती माया, आस्या अपि पतनकारणत्वादेव । एवं क्रोधलोभावपि वर्ज'नीयौ । ' तं पडिन्नाय पंडिए' दे परिज्ञाय पण्डितः, यत्र मान स्तत्र क्रोध इति मानादिकं हि तालपुट विषमिव प्रतिभवकारकं ज्ञपरिज्ञया चात्वा कषायान् कषायाणां परिणामं च परिज्ञाय - ज्ञात्वा 'पडिए' पण्डितः कषायान स्वात्मनिष्ठान् प्रत्याख्यानपरिज्ञया विषवत् परित्यजेत् । अयं भावः - यत्र मानः तत्र क्रोधो यत्र माया पड़े से बड़े बर्ती आदि के द्वारा सत्कार करने पर भी साधु स्वल्प भी अभिमान न करे । मान संयम रूपी प्रसाद के शिखर से गिराने में वज्र के समान है - पतन का कारण है । अथवा साधु को यह अहंकार नहीं करना चाहिए कि मैं ह्रीं सर्वोत्तम पण्डितमरण करने में समर्थ हूँ । इसी प्रकार साधु को माया भी नहीं करनी चाहिए । महती माया की तो बात ही क्या, स्वरूप माया का आचरण करना भी उचित नहीं है । माया भी पतन का कारण है । कोन और लोभ भी त्याज्य है । जहाँ मान होता है वहां क्रोष भी अवश्य होता है। अतएव इन चारों कषायों को तालपुट नामक विषम के समान पराभवकारी ज्ञपरिज्ञा से जाने कर तथा कषायों के परिणाम को भी जानकर पण्डित पुरुष प्रत्याख्यान परिज्ञा से विष के समान त्याग दे । વિગેરે દ્વારા સત્કાર કરવામાં આવે તે પણ સાધુએ જરા પણ અભિમાન न ४२५. भान-संयम प्रसादना शिरथीपाडवासी दल सरयु छे.અર્થાત્ પતનનું કે રહ્યું છે. અથ્થા સાધુએ એવા અહંકાર કરવા ન જોઈએ કે-હૂં જ 'ડિત્તમરહુમાં શક્તિમાન છુ. એજ પ્રમાણે સાધુએ માર્યા પણ કરવી ન જોઇએ. મેાટી માયાની તે વાતજ શી જરા સરખી માયાનુ આચરણ કરવું તે પશુ ચૈગ્ય નથી. માાં પણ પતનનું જ કારણ છે. ક્રોધ અને લેાલ પણ ત્યગ રા ચેશ્ય છે, જ્યાં ાન હેાય છે, ત્યાં ક્રોધ પણ અવશ્ય હાય છે, જ તેથી આ ચારે કાયાને તાલપુર નામના વિધની જેમ પરાભવકારી સરિજ્ઞાથી જાણીને તથા કાયાના પડિત પુરૂષ-પ્રત્યાખ્યાન પરિણાથી વિષ જેવા हितावह है, र પિરણામને પણ સમજીને માનીને તેને ત્યાગ કરવા Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. य. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् . ६१ - तत्र कोभ इति ज्ञपरिज्ञा ज्ञात्वा प्रत्याशनपरिज्ञया सकलकपायं त्यजेत् । तथा-.. 'सातागारवणिहुए सातगौरवनिभृतः, सातौरवं सुखशीलता तत्र निभृतः-तदर्थमन्युक्ता, मुखार्थ कदाचिदपि उपाय न कुर्यात् 'उपसंते' उपशान्तः, कषायाऽग्निजयात् शान्तीभूतः शब्दादि विषयेभ्योऽनुकूलपतिकूलवेदनीयेभ्योऽरक्तद्विष्ठतयोपशान्तो जितेन्द्रियत्वात्तेभ्यो निवृत्त इति । तषा-'अणिहे' अनीहः-ईहारहिता निहन्यन्ते-व्यापाद्यन्ते संसारप्राणिनोऽनया-इति ईहा, माया, न विद्यते मायारूपा ईहा यस्याऽपौ भनीहः-मायामपञ्चरहितः 'चरे' चरेत्-यथोक्तगुणविशिष्टः साधुः संयमानुष्ठानं कुर्यात् । तदेवं मरणकालेऽम्पसमये वा पण्डितः सर्वदा; पश्चमहाव्रतेपु समुद्यतो भवेत् । यद्यपि व्रतानि सर्वाण्येव गरीयांसि ।, तथापि आशय-जहां मान होता है वहां क्रोध होता है और जहां माया होती है वहां लोभ भी होता है । ज्ञपरिज्ञा से इस तथ्य को जान कर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से समस्त कषायों का परित्याग कर दे। ... इसके अतिरिक्त सातागौरव का अर्थात् आरामतलबी का भी स्याग कर दे। सुख के लिए किसी भी प्रकार का उपाय न करे। वह उपशान्त हो अर्थात् कषायों की अग्नि को जीत ले, शीतलीभूत हो, अनुकूल और प्रतिकूल शब्द आदि विषयों में न राग और न देष करे अर्थात् जितेन्द्रिय होकर उनसे निवृत्त हो जाय । वह अनीह हो अर्थात् ईहा (माया) से रहित हो सब गुणों से युक्त होकर साधु संयम का अनुष्ठान करे। मरण के समय या अन्तिम समय पण्डित पुरुष पाँच महावतों में કહેવાનો આશય એ છે કે જ્યાં માન હોય છે, ત્યાં ફોધ અવશ્ય હોય છે, અને જ્યાં માયા હોય છે, ત્યાં લેભ પણ હોય છે. જ્ઞપરિણાથી આ તથ્ય-સત્ય સમજીને પ્રત્યાખ્યાન પરિણાથી સઘળા કષાયોનો ત્યાગ કરે. આ શિવાય સાતગૌરવ અર્થાત્ આરામપણાનો પણ ત્યાગ કરી છે. સુખ માટે કેઈ પણ પ્રકારને ઉપાય ન કરે, તે ઉપશાંત હાય અર્થાત્ કષાના અગ્નિને જીતી લેય, શીતલીભૂત હોય અનુકૂળ અથવા પ્રતિકૂળ શબ્દ વિગેરે વિષમાં રાગ અથવા ઠેષ ન કરે. અર્થાત્ જીતેન્દ્રિય થઈને તેનાથી નિવૃત્ત થઈ જાય તે અનીહ થાય અત્ ઈહા (માયા)થી રહિત થાય દરેક પ્રકારના મ યા પ્રપંચથી દૂર રહે. આ બધા ગુણોથી યુક્ત થઈને. સાધુએ સંયમનું અનુષ્ઠાન કરવું. મરણને સમયે અથવા અતિમ સમયે પંડિત પુરૂષ પાંચ મહાવ્રતમાં Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रति .. ६९२: . सूत्रकेताङ्गसूत्र रोवपि प्राणातिपातविरतिः सर्वेभ्यः श्रेष्ठा, एतस्या सर्वानुकूलत्वात्, अत इतस्या-एव गरीयस्त्वं प्रतिपादितं शास्त्रे-: 'उड्महे तिरियं वा, जे पाणा तसथावरा । . सवय विरिति कुज्जा, संविनिव्वाणमाहियं ॥१॥ , छाया-उमस्तिर्यग् वा, ये माणा, स्वसस्थावराः। . सर्वत्र विरतिं कुर्यात् शान्तिनिर्वाणमाख्यातम् ॥१॥ इति • सर्वत्र अधिस्तियग् वा प्राणिनः सन्ति तेभ्यो विरतिं कुर्यात् तेषां माणघियाणां प्राणिनां माणान् नातिपातयेत् इत्येवं कुर्वतः शान्तिस्वरूपो मोक्षो भवतीत्याख्यातं तीर्थंकरादिभि रितिभावः ॥ - साधुरीपदपि मानं मायां वा न कुर्याद । मानमाययोः फलं न समीचीनमिति विचार्य पण्डितः मुखभोगादिकं न समीहेत। तथा-क्रोधादिकषायान् परित्यज्य सर्वदा संयमानुष्ठान करतो भवेदिति भावः ॥१८॥ विशेष रूप से उद्यत बने । यद्यपि सभी व्रत महान् हैं, तथापि प्राणातिपातविरति उन सत्र में श्रेष्ठ है, क्योकि वह सभी जीवों के अनु. कूल है। इसी कारण शास्त्र में इसकी गुरुता या महत्ता का प्रतिपादन किया गया है-'उड्डमहे तिरियं दा' इत्यादि । दिशा में, अधोदिशा में अथवा तिर्की दिशा में जो प्राणी हैं, उन प्रियप्राण प्राणियों के प्राणों का अतिपात नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से शान्तिस्वरूप मोक्ष प्राप्त होता है, ऐसा तीर्थंकरों आदि ने कहा है। - तात्पर्य यह है कि-साधु भी स्वल्प भी मान और मायाचार न करे। मान और माया का फल अच्छा नहीं होता, ऐसा विचार कर વિશેષ પ્રકારથી ઉક્ત બને, જે કે સઘળા તે મહાન છે, તે પણ પ્રાણુંતિપાત વિરતિ બધામાં સર્વોત્તમ છે કેમકે–તે સઘળા જીવોને અનુકૂળ છે. તે કારણથી શાસ્ત્રમાં તેના ગુપણાનું અથવા મોટા પણાનું પ્રતિપાદન કરે છે 'टड्ढमई तिरिय वा त्या S* - ઉર્ધ્વદિશામાં, અદિશામાં અથવા તિછદિશામાં જે પ્રાણીઓ છે, તે પ્રાચેિ ના પ્રિય પ્રણેને અતિપાત (નાશન કર જોઈએ. તેમ કરવાથી શાંતી સવરૂપ મોક્ષ પ્રાપ્ત થાય છે. એ પ્રમાણે તીર્થંકર વિગેરેએ કહેલ છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-સાધુએ સ્વપ પણ માન અને માયાચાર ન કરવા જોઈએ માન અને માયાનું ફળ સારું હોતું નથી. આ પ્રમાણે Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ८ उ. १ वीर्य स्वरूपनिरूपणम् मूलम् - पाणे य णाइत्राएजा अदिन्नं पिय नादए । सादियं णं मुलं बूर्या एस धम्मे बुसीमओ ॥ १९ ॥ छाया -- प्राणांश्च नातिपातयेत् अदत्तमपि च नाऽऽददीत । सादिकं न मृषा ब्रूया देव धर्मो मतः ॥ १९ ॥ अन्वयार्थः - (पाणे य णाइवाज्जा) प्राणान् पद्विधजीवनिकायान नावि पाठयेत् - न विराधयेत् (अद्दिन्नं पि य णादए ) च पुनः अदत्तमपि नाददीत - परे णादत्तं दन्तशोधनमात्रमपि न गृहीयात् (सादियं मुसंण वूया) सादिकं मायां कृत्वा मृषा न ब्रूयात् (बुमीमओ एस धम्मे) वृषिमतः - संयमिनः तीर्थंकरस्य वा प्रानिर्दिष्टो धर्मः श्रुत वारित्ररूप इति ॥ १९ ॥ ६९३ ज्ञानी पुरुष सुख भोग आदि की अभिलाषा न करे । कषायों को त्याग कर सदैव समभाव के ही अनुष्ठान में 'पाणे य णाइवाएज्जा' इत्यादि । तथा क्रोधादि तत्पर रहे | १८ | शब्दार्थ - 'पाणे य णाइवाएज्जा - प्राणान नातिपातयेत्' प्राणियों को घात न करे 'अदिन्नं पि य णादए- अदत्तमपि च नाददीत' न दी हुई चीज न लेवें' 'सादियं मुस ण वूया - सादिकं मृषा न ब्रूयात्' माया करके मिथ्या न बोले 'बुस्लीमओ एस धम्मे वश्यस्य एषः धर्मः' जितेन्द्रिय पुरुषको यही धर्म है ॥ १९ ॥ अन्वयार्थ - प्राणियों की हिंसा नहीं करनी चाहिए, अदत्तादान अर्थात् पर के द्वारा विना दिये हुए तृणमात्र भी नहीं ग्रहण करना વિચાર કરીને જ્ઞાની પુરૂષે સુખ ભાગ વિગેરેની ઇચ્છા કરવી નહી, તથા ક્રોધ, માન માયા અને લાભના ત્યાગ કરીને હરહમેશા સમભાવના અનુષ્ઠાનમાં તત્પર રહેવુ જોઇએ. ।।૧૮। 'पाणे च णाइवापज्जा' इत्यादि शब्दार्थ–‘पाणे य नाइत्रापज्जा - प्राणान् नातिपातयेत्' आयोनो धात न 'अदिन्नपि य णादए - अदत्तमपि च नाऽऽद्दीत' भाच्यां विनानी थीं न से ' सादियं मुसंण वूया - सादिकं मृपा न ब्रूयत्' भाया उरीने उठून मोसे 'बुसीमओ एस धम्मे - वश्यस्य एष धर्म" तेंन्द्रिय पुषा न धर्म छे. ॥१॥ અન્વયા પ્રાણીયાની હિ'સા કરવી ન જોઈએ. અદત્તાદાન-અર્થાત્ અન્યદ્વારા આપ્યા વિના એક તૃણમાત્ર પણ લેવું ન જોઇએ. માયા કરીને Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सूत्रताको ____टीका--'पाणे य माणांश्च ‘णावाएज्जा' नातिपातयेत, सर्वजन्तूना सर्वविषयेभ्यः प्राणाः केनाऽपि मूल्येन न लभ्यन्ते । एतादृशान् सर्वतो वेलक्षण्यमुगतान् सर्वतः प्रियांश्च मागिनां पाणान् कथमपि न विराधयेत् 'अदिन्नं पि य' अदत्तमपि च णादए' नाददीत, यदन्यदीयं वस्तु तत्तु तत्स्वामिन आज्ञामन्तरा सत्यपि कार्यगौरवे न गृह्णीयात् । 'सादियं' सादिकं-समायम्, आदिना सहवर्तते इति सादिकम् । 'मुसं' मृषावादम् 'ण बूया' न ब्रूयात, मृपावादस्य कारण - मादिर्माया, नहि मायामन्तरेण मृषाचादो भवति । दृश्यते हि मृपावादी मृषा भाषणात् पाक् मायामेवाङ्गीकरोति । ततश्च मायाविशिष्टं मृपावादं परित्यजे. दिति । तत्रापि वञ्चनार्थ प्रयुज्य मनो मृपावादः परिहरणीयः । एष धर्मों दृषिमता, - चाहिए, माया करके असत्यभाषण नहीं करना चाहिए, यही तीर्थ कर भगवान् का धर्म है ॥१९॥ टीकार्थ-किसी भी प्राणी के प्राणों का घात करना उचित नहीं है, क्योंकि प्राण अनसोल हैं। किसी भी प्राणी के प्राण किसी भी मूल्य पर प्राप्त नहीं किये जा सकते। ऐसे अद्भुत और सभी को प्रिय प्राणों की विराधना न करे । अन्य की वस्तु उसके स्वामी की आज्ञा के बिना, कैसा भी कार्य क्यों न हो, नहीं ग्रहण करना चाहिए। तृण भी विना आज्ञा के नहीं ले सादिक अर्थात् सकारण मृषावाद न करे । मृषावाद का कारण माया है, क्यों कि माया के विना कोई भूषावाद नहीं करता। मृषाचादी भूषावाद करने से पहले माया का ही अवलम्बन करता है। आशय यह है कि माया से युक्त मिथ्या भाषण नहीं करना चाहिए । જઠ વચન બોલવું ન જોઈએ આજ તીર્થકર ભગવાને ઉપદેશેલ ધર્મનું રહસ્ય છે. ૧ ટીકાર્યું–કઈ પણ પ્રાણિના પ્રાણનો ઘાત કરે યોગ્ય નથી. કેમકે પ્રાણે અમૂલ્ય છે કોઈ પણ પ્રાણિના પ્રાણે કોઈ પણ કી મતથી પ્રાપ્ત થઈ શકતા નથી. આવા અદૂભૂત અને દરેકને અત્યંત વહાલા એવા પ્રાણેનિ વિરાધના (હિ સા) કરવી નહિં તથા ગમે તેવું મહત્વનું કાર્ય હોય તો પણ અન્યની વસ્તુ તેના સ્વામીની રજા સિવાય લેવી ન જોઈએ. એક તણખલું પણ વિના આજ્ઞા લેવું નહિં સાદિક અર્થાત્ સકારણ પણ જુઠ બોલવું નહી. મૃષાવાદનું કારણ માયા છે કેમકે માયા વિના કેઈ અસત્ય બોલતા નથી. જુઠ બોલનારા જુહુ બોલતાં પહેલાં માયાનુંજ અવલ બન કરે છે કહેવાને આશય એ છે કે-માયા યુક્ત અસત્ય ભાષણ કરવું ન જોઈએ. Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ६९५ , एषः प्राक्ारिदर्शितः श्रुतचारित्राख्यः, वृपिमतः तीर्थकरस्यायं धर्मः । अथवा जितेन्द्रियस्यायं धर्मः । प्राणिहिंसां न कुर्यात्, अदत्तं न आददीत । सकपट सृषावादं न वदेत्, अयं धर्मो जिनेन्द्रस्येति संक्षिप्तार्थः ॥ १९ ॥ मूलम् -- अतिक्रमं तु वायाए मणसो विन पत्थए । सओ संबुडे दंने आयाणं सुसमाहरे ॥२०॥ छाया - अतिक्रमं तु वाचा मनसापि न पार्थयेत् । सर्वतः संवृतोदान्तः आदानं सुसमाहरेत् ||२०|| पूर्वोक्त श्रुतचारित्र रूप धर्म वय अर्थात् अपनी आत्मा को वशीभूत करने वाले पुरुष प्रधान तीर्थकरों का है । अथवा यह धर्म जितेन्द्रिय का है । भावार्थ यह है कि प्राणियों को हिंसा न करे, अदत्त को ग्रहण न करे और कपटयुक्त मिथ्याभाषण न करे, यह जिनेन्द्र का धर्म है । १९ । 'अइमं तु वायाए' इत्यादि । शब्दार्थ -- 'अइक्कमंतु अतिक्रमन्तु' किसी जीव को पीडा पहुंचाने की 'वाया - वाचा' वाणी से 'संगसा वि-मनसापि मनसे भी 'न पत्थए न प्रार्थयेत्' इच्छा न करे 'सन्दओ संबुडे - सर्वतः संवृतः ' परंतु बाहर और भीतर दोनों ओर से गुप्तर हे 'दंते - दान्तः' तथा इन्द्रियों का दमन करता हुआ साधु 'आयाणं - आदानम्' सम्यक ज्ञानादि मोक्ष के कारणको 'सुसमाहरे - सुसमाहरेत्' ग्रहणकरे ||२०|| પહેલાં કહેલ શ્રુત ચરિત્ર રૂપધમ વસ્યું અર્થાત્ પેાતાના આત્માને વશ કરવાવાળા પુરૂષ શ્રેષ્ઠ એવા તીર્થંકરાનેા છે. અથવા તેા આ જીતેન્દ્રિ "यंनो धर्म छे. -1 કહેવાના ભાવ એ છે કે-પ્રાણિયેની હિંસા કરવી નહિ, વિના આપેલ વસ્તુને લેવી નહીં અને કપટવાળું મિથ્યા ભાષણુ (સત્ય)ન મેલે આ જીનેન્દ્ર દેવે મતાવેલ શ્રેષ્ઠ ધમ છે. ૧૯૫ 'अइकमं तु वायाए' इत्याहि शब्दार्थ–‘अइकमं तु-अतिक्रमन्तु' अर्ध वने 'वायांए - वाचा' वाणीद्वाणा, मणसा वि-मनसापि' भनथी थीडा यहांथाउषानु । 'न पत्थर - न प्रार्थ येत्' ४२छा न १रे 'सव्वओ संबुडे - सर्वतः संवृतः' परंतु महार भने हर मन्ने तरथी गुप्त रखें 'देवे - दान्तः' 'तथा न्द्रियां हमन तो मेवा साधु ‘आयाणं-आदानम्' सभ्य ज्ञान विशेरे 'भाना ने 'सुखमाहु ! सुसमाहरेत् यु ४२ ॥२०॥ 1 Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___ अन्वयार्थः- (अतिक्रमं तु)- अतिक्रमंतु-प्राणिपीड़नं महाव्रतातिक्रम वा (वायाए) बाचा-वाण्या (मणपा वि) मनसापि (न पत्थर) न प्रार्थयेत् -लेवामिल पेदित्यर्थः, (सन्पो संवुडे) सर्वता-बाह्याभ्यन्तरतः संतो गुप्ता (दंने) दान्तः -इन्द्रिय नो इन्द्रियदमनयुक्तः (भायाणं) आदानम्-मोक्ष कारणं लभ्यम्-ज्ञाना. दिकम् (सुसमाहरे) सुसमाहरेत्-गृह्णीयादिति ॥२०॥ टोका-अपि च 'अतिक्कम तु' अतिक्रम-प्राणिनां पीडम्, महाव्रतस्याऽतिक्रमं वा । अथवा-साहंकारेण मनसा परेषां तिरस्करणम्, एतादृशमतिक्रमम् । "वायाए' वचमा 'मणता मनसा 'वि' अपि 'न पत्थर' न पायेद । प्राणाति. पातादिपरपीडाजनकं कर्म कथमपि न कुर्यात् वाचा मनसा दा। वाणीमनमो: प्रतिवाद कायिकातिक्रमणाभावस्तु अर्थादेव सिद्धः, तदेव सनोवाक्षायैः साधु वचनले अथवा मन से भी अतिक्रम की अर्थात किलीको पीडा पहुँचाने की अथवा महाव्रतों का उल्लंघन करने की अभिलाषा न करे। वह पूर्ण रूप से संदर युक्त हो, इन्द्रियमन को दमन करने वाला हो और आदान अर्थात् मोक्ष के कारण सम्यग्ज्ञान आदि को ग्रहण करे ।२०। ___ टीकार्थ--अतिक्रम का अर्थ है-प्राणियों को पीड़ा देना और महा व्रतों का उल्लंघन करना अथवा अहंकारयुक्त मन से दूसरों का तिरस्कार करना। साधु इस प्रकार का अतिकम करने की वचन से और मन से भी इच्छा न करे। प्राणातिपात आदि परपीडाजनक कार्य वचन या मन से भी न करे। जब वचन और मन से अतिक्रमण करने का निषेध कर दिया तो कायिक अतिक्रमण का त्याग तो स्वतः सिद्ध ही हो અન્વયાર્થ–સાધુએ મન અથવા વચનથી પણ અતિક્રમની અર્થાત કેઈને પીડા પહોંચાડવાની ઈચ્છા કરવી નહીં તથા મહાવ્રતના ઉલ્લંઘન કરવાની પણ ઈચ્છી ન કરવી. તેણે પૂર્ણરૂપથી સંવરયુક્ત થઈને, તથા ઇંદ્રિય અને મનનું દમન કરવાવાળા થઈને આદાન–અર્થાત મોક્ષના કારણે રૂપ सभ्य ज्ञान विगैरे घड ४२१॥ ॥२०॥ ટીકાર્ચ–અતિક્રમ એટલે પ્રાણિયાને પીડા પહોંચાડવી. તથા મહાવ્રતનું ઉલંઘન કરવું અથવા અહંકાર યુક્ત મનથી બીજાઓને તિરસ્કાર કરે. આવા પ્રકારને અતિક્રમ કરવાની મનથી કે વચનથી પણ સાધુએ ઈચ્છા ન કરવી પ્રાણાતિપાત વિગેરે અન્યને પીડા પહોંચાડનાર કાર્ય મન અથવા વચનથી ન કરવા. જ્યારે મન અને વચનથી પણ અતિક્રમ કરવાનો નિષેધ કરવામાં આવ્યું, તો કાયિક (શરીરથી) અતિક્રમને ત્યાગ તે- સ્વત; સિદ્ધ થઈ જાય Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " . .. समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् .-...-...- ६९७ कृतकारिनानुमतिभिश्च नवमभेदमतिक्रमं कथमपि न कुर्यात् । तथा-'सचओ' सर्वतः-चायत आभ्यन्तरतश्च, 'संवुडे' संवृतः--गुमः, तथा-'दंते' दान्त:इन्द्रियनोइन्द्रियदमनकारका, एवंभूतः सन् 'आयाण' आदानम्-उपादान-मोक्ष स्य कारगम्, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपम् 'सुसमाहरे' सुपमाहरेत्. सु-सुष्टु -उद्युक्तः सम्यग्र विस्रोत सिकारहितः सन् बाहरेत्-आददीव । मनसा वचसा वा कस्यापि माणिनः पीडनं नेच्छन् किन्तु बाह्याभ्यन्तरतो गुम इन्द्रियनिग्रहं कुर्वन् समितिगुप्त्या संयमपालनं कुर्यादिति भावः ॥२०॥ मूलम्-कडं च कन्जमाणं च आगमिस्सं च पावगं । सई ते गाणुजाणंति आयगुत्ता जिइंदिया ॥२१॥ . छाया-कृतं च क्रियमाणं च आगमिष्यच्च पापकम् । सचे तं नावजानन्ति अत्मगुप्ता जितेन्द्रियाः॥ गया। इसका अभिप्राय यह हुआ कि मन, वचन और काय से तथा कृत, कारित और अनुमोदना से नौ भेद वाला अतिक्रमे न करे। तथा बाह्य और आभ्यन्तर रूप से संवृत हो, इन्द्रियों का और मन का दमन करने वाला हो। इन विशेषणों से युक्त होकर साधु मोक्ष के कारण सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र और तप को शंकारहित होकर ग्रहण करे। ___ भावार्थ यह है कि-साधु किसी भी प्राणी को पीड़ा देने की इच्छा न करे । भीतर और बाहर से गुप्त हो दान्तेन्द्रिय हो और समिति गुप्ति आदि का पालन करे ॥२०॥ છે. અર્થાત્ શરીરથી હિંસા ન કરવી તેમ કહેવાની આવશ્યકતાજ ઉપસ્થિત થતી નથી. * કહેવાનો આશય એ છે કે-મન, વચન, અને કાયાથી તથા કૃતકારિત અને અનુમોદનાથી નવ પ્રકારને અતિક્રમ કરે નહીં તથા બાહા અને અશ્વેતર રૂપથી સંવત રહેવું. ઇંદ્રિય અને મનનું દમન કરવું. આ વિશેષ થી યુક્ત થઈને સાધુએ મોક્ષના કારણે સમ્યગું દર્શન જ્ઞાન, ચારિત્ર અને તપ વિના શંકાએ ગ્રહણ કરવા. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે–સાધુએ કઈ પણ પ્રાણીને પીડે પહો ચાડવાની ઈચ્છા ન કરવી બહાર અને અંદરથી ગુપ્ત રહેવું. દાનેન્દ્રિય થઇને સમિતિગુપ્તિ વિગેરેનું પાલન કરવું. ૨૦ सू० ८८ . Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्र 3 . अन्वयार्थः-(आयगुत्ता जिइंदिया) असगुप्ताः, आत्मा अंकुशेन मनोवाकायनिरोधेन गुप्तो येषां ते आत्मगुप्ताः, जितेन्द्रियाः (कडं च) कृतं च-अनुष्टितम् (कज्जमाणं) क्रियमाणं च वर्तमानकाले (आगमिस्सं च) आगमिष्यत् चभविष्यत्काले करिष्यमाणं च (पावगं) पापकम् -माणातिपातादिकम् , (सव्वं तं णाणुजाणंति) सर्व तत् कर्म नानुजानन्ति-नानुमोदन्ते इति ॥२१ । टीका-'आयगुत्ता' आत्मगुप्ताः, आत्मा अनुशेन मनोवाकायनिरोधेन गुप्तो रक्षितो येषां ते आत्म गुप्ताः। तथा-'जिइंदि जितेन्द्रिया:-जितानि'कडं च कन्जमाणं च' इत्यादि। शब्दार्थ--'आयगुत्ता जिइंदिया-आरमशुप्ता जितेन्द्रिया:' गुप्तात्मा जितेन्द्रिय पुरुष 'कडं च-कृतं च किया हुआ 'कज्जमाणं-क्रियमाणम्' किया जाता हुआ अथवा 'आगमित्सं-आगमिष्यत्' कियाजाने वाला 'पावर्ग-पापकं जो पाप है 'सव्वं तं णाणुजाणंति-सर्व तन्नानुजानन्ति' उन सभी का अनुमोदन नहीं करते हैं ॥२१॥ ___ अन्वयार्थ--जो महापुरुष आत्मगुप्त अर्थात् अशुभ मन वचन काय का निरोध करके आत्मा को गोपन करने वाले तथा जितेन्द्रिय है, वे भूतकाल में कृन, वर्तमान में किये जाते हुए और भविष्यत् काल में किये जाने वाले सम्पूर्ण पाप की अनुमोदना नहीं करते हैं ॥२१॥ टीकार्थ-जिन्होंने अप्रशस्त मन वचन और काय के व्यापार का निरोध करके अपनी आत्मा का गोपन किया है, वे आत्मगुप्त कहलाते - 'कडं च कज्जम णं च त्याह शा---'आयगुत्ता जिइंदिया-आत्मगुप्ता जितेन्द्रियाः' गुप्तात्मा सते. न्द्रिय पु३५ 'कडं च-कृतं च' रेस 'कन्जमाणं-क्रियमाणम्' ४२वामा मातु अथवा 'आगामिरसं-आगामिष्यत्' ४२वामा मापना३ 'पावगं-पापक' रे पाय छ, सव्वं तं णागुजाणंति-सर्व तन्नानुजानन्ति' से पधातुं अनुमान કરતા નથી. ૨૧ -- અન્વથાર્થ – જે મહાપુરૂષ આત્મ ગુપ્ત અર્થાત અશુભ મન, વચન અને કાયને નિધિ કરીને અર્થાત્ રોકીને આત્માનું ગાન કરવાવાળા તથા ‘જીતેન્દ્રિય છે, તેઓ ભૂતકાળમાં કરેલા, અને વર્તમાનમાં કરાતા તથા ભવિ ધ્યમાં કરવામાં આવનારા સમગ્ર પાપોની અનુમોદના કરતા નથી. ૨૧ - ' ટીકાર્થ-જેઓએ અપ્રશસ્ત એવા કાયના વ્યાપારને નિરોધ કરીને અથવા રોકીને પિતાના આત્માનું ગેપન-રક્ષણ કરેલ છે, તેઓ આત્મગુપ્ત Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टोका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् स्ववशे आनीतानि इन्द्रियाणि-श्रोत्रादीनि तथा नोइन्द्रियं-मनो यै स्ते जिते. न्द्रियाः, यः स्वेन्द्रियाणि स्वाधिकारे कृतानि-वंभूता उदारचेतसः 'फडं' कतं यदपरै रनार्यतुल्य भूतकाले कृतं सम्पादितम् । तथा-'कन्जमाण क्रियमा णम्, वर्तमानकाले सम्पाद्यमानम् । तथा-'आगमिरसं च' आगमिष्यत् चआगामिन भविष्यत्काले करिष्यमाणं च 'पावर्ग' पापकं-पापयुक्तं कर्म-माणातिपातादिकं यद् भवेत् 'सव्वं त' तत्सर्व-पापं कर्म ‘णाणुजाणंति' नानुजानन्ति, तादृशपापकर्मणोऽनुमोदनं न कुर्वन्ति आत्मशुमा जितेन्द्रिया मुनय इति भावः ।।२१।। मूलम्-जे याऽबुद्धा महाभागा वीरों असमत्तदंसिणो। " असुद्धं तेर्सि परकंतं सफैलं होइ संवसो॥२२॥ हैं। जो श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन इन्द्रिय को तथा मन को अपने वश में कर चुके हैं, वे जितेन्द्रिय कहे जाते हैं। इस प्रकार के आत्मगुप्त और जितेन्द्रिय पुरुष, साधु के उद्देश्य से अनार्यों के समान लोगों द्वारा कृन आहार, वस्त्र, पान, वसति आदि का, वर्तमान काल में साधु के निमित्त किये जाते हुए तथा आगामी काल में किये जाने वाले पापकर्म का अनुमोदन नहीं करते। ____ तात्पर्य यह है कि आनार्यजन यद्यपि अपने स्वयं के लिए पापकर्म करते हैं, करेगे या भूतकाल में उन्होंने किया है, जैसे किसी को मारा, मारता , है या मारेगा, तथापि ज्ञानी पुरुष उसकी अनुमोदना नहीं करते हैं ।।२।। AAL કહેવાય છે. જેઓ શ્રોત્ર-કાન-આંખ-નાક રસના, જીમ અને સ્પર્શન ઈન્દ્રિ યને તથા મનને પિતાને આધિન કરેલ છે, તેઓ જીતેન્દ્રિય કહેવાય છે. આવા પ્રકારના આત્મગોપન કરવાવાળા તથા જીનેન્દ્રિય પુરૂષે સાધુને ઉદે. શીને અનાર્યોની સમાન લેકે દ્વારા કરાયેલ આહાર વસ્ત્ર, પાત્ર, વસતિ, આદિને વર્તમાનકાળમાં સાધુને નિમિત્તે કરવામાં આવતા, તથા ભવિષ્યકા ળમાં કરવામાં આવનારા પાપકર્મોનુ અનુમોદન કરતા નથી. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે-અનાર્ય અને જે કે પિતાને માટે પાપ કર્મ કરે છે. ભવિષ્યમાં કરશે અથવા ભૂતકાળમાં પાપકર્મ કર્યું છે, જેમ કેકોઈએ કેઈ ને મારું” મારતા હોય અને મારશે. તે પણ જ્ઞાની પુરૂષે તેનું અનુદન કરતા નથી. કેરા Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृता सूत्रे ७०० - :- छाया ये चाऽबुद्धा महाभागा वीरा असम्यक्त्वदर्शिनः । अशुद्धं तेषां पराक्रान्तं सफलं भवति सर्वशः || २२ ॥ अन्वयार्थः -- (जे याबुद्धा) ये चाऽबुद्धा: - धर्मं प्रति अविज्ञातपरमार्थाः ( महाभागा ) महाभागा :- जगत्पूजनीयाः (वीर) वीरा:- सुभटा, अपि (असमसिनो ) असम्यक्त्वदर्शिनः - मिध्यादृयः सन्ति तदा - ( तेर्सि परक्कतं असृद्धं) सेषां बालानां तपो दानादिषु पराक्रान्तं पराक्रमणमुद्यमरूपम् तत् अशुद्धम् - विशुद्धिकारि प्रत्युत कर्मबन्धनाय (सन्सो सफलं हो६) सर्वशः- सर्वप्रकारेण फलं कर्मा भवतीति ॥२२॥ 'जे य बुद्धा' इत्यादि । शब्दार्थ - - ' जे याऽबुद्धा-ये चाऽबुद्धाः ' जो पुरुष धर्म के रहस्यको नहीं जानते हैं 'महाभागा - महाभागाः किन्तु जगत् में पूजनीय माने जाते हैं 'वीरा असंमत्तदंसिणो- वीराः असम्यक्त्वदर्शिनः' एवं शत्रु की सेना को जीतनेवाले वीर है 'तेसि परक्कतं असुद्धं तेषां परा 'कान्तम् अशुद्धम्' उनका तपदान आदि में उद्योग अशुद्ध है 'सवचसो सफल होइ-सर्वशः सफलं भवति' और वह कर्मबन्ध के कारणरूप होता है ||२२|| अन्वयार्थ--जो पुरुष जगत्पूजनीय हैं, वीर हैं किन्तु धर्म के परमार्थ को नहीं जानते और मिथ्यादृष्टि हैं, उनका तप दान आदि अशुद्ध है और वह कर्मबन्ध रूप फल का जनक है ॥२२॥ 'जे याबुद्धा' त्याहि शब्दार्थ –'जे याऽबुद्धा-ये चाऽबुद्धाः ' > પુરૂષ ધર્મના રહસ્યને જાણુતા नथी 'महाभागा - महाभागाः' परंतु गतभां पूननीय मानवामां आवे छे. वीरा असमत्तद् सिणो- वीराः असम्यक्त्वदर्शिनः' तथा शत्रुनी सेनाने कृतवावाजा वी२ छे, 'तैसि परकंतं असुद्धं तेषां पराक्रान्तम् अशुद्धम्' तेमने। तय, हान विगेरेमां द्योग अशुद्ध छे. 'सव्वसा सफलं हे । इ- सर्वशः खफलं भवति' भने તે ક ખંધના કારણરૂપ થાય છે' ારા અન્વયા – જે પુરૂષા જગપૂજનીય છે, વીર છે, પરંતુ ધનાપરમાને જાણતા નથી. અને મિથ્યા દૃષ્ટિવાળા ઢાય તેએનું તપ, દાન, વિગેરે અશુદ્ધ કહેવાય છે, અને તે કમ બન્ધુરૂપ ફળ આપનારૂં છે. રા Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् cot 7 टीका--अपि च 'जे' ये 'य' च 'अबुद्धा' अबुद्धा: - धर्मविषयकवोधविकलाः, शुष्कव्याकरणत के तत्सच्श तदन्यशास्त्र विषय कज्ञानेन संजाताभिमाना आत्मानं पण्डितं मन्यमानाः, परन्तु पारमार्थिकवस्तुविषयक परामर्श विकलत्वात् अबुद्धाः । न च शुष्क नर्क ज्ञानमात्रेण सम्यक्त्वमन्तरेण भवति कथमपि तत्त्वात्रवोधः । उक्तञ्च - 'शास्त्रावगाह परिघट्टनतत्परोऽपि नैवाऽबुधः समधिगच्छति वस्तुतस्त्वम् । नानाप्रकाररसभोगगताऽपि दर्दी, स्वादं रसस्य सुचिरादपि नैव वेति ॥ ॥१॥ अबुद्धा बालवीर्यवन्तः । तथा - 'महाभागा ' महाभागाः- महासत्करणीया', महान्तच ते भागा इति महाभागाः, अत्र भागशब्दः, सत्कारार्थकः । ततभ टीकार्थ -- शुष्क व्याकरण तर्क तथा इसी प्रकार के अन्य शास्त्रों के ज्ञान से जिन्हें अभिमान उत्पन्न हो गया है, जो अपने आपको - पण्डित मानते है, परन्तु पारमार्थिक वस्तु के ज्ञान से रहित हैं वे वास्तव में अवुद्ध हैं, क्यों कि सम्यक्य के बिना शुरु तर्क मात्र से तत्व का बोध प्राप्त नहीं होता । कहा भी है--' शास्त्रावगाह परिघट्टन तत्परोपि' इत्यादि । जैसे नाना प्रकार के रसों में ब रहने वाली चाहू दीर्घ काल पर्यन्त भी रसों के स्वाद को नहीं जान पाती, इसी प्रकार विविध शास्त्रों का अवगाहन करने पर भी अवुध पुरुष तत्व के ज्ञान से वंचित (रहित) ही रहता है ।' इस प्रकार जो अवुद्ध है अर्थात वालवीर्यवान है वह महाभाग अर्थात् अत्यन्त सत्कार करने योग्य हो महाभाग्यदान् हो, पूर्वभव ટીકા-શુષ્ક એવા વ્યાકરણ, તર્ક તથા એવા પ્રકારના અન્ય શાસ્ત્રોના જ્ઞાનથી જેએને અભિમાન ઉત્પન્ન થયેલ હોય, જે પેતાને પતિ માનતા હાય . પરંતુ પરમાર્થિક વસ્તુના જ્ઞાનથી રહિત હાય તે વાસ્તવિક રૂપે મબુદ્ધજ છે કારણ કે–સમ્યક્શ્ર્વના જ્ઞાન વિના શુષ્ક એવા તર્કમાત્રથી તત્વને ખાધ પ્રાપ્ત થતા नथी. धु यागु छे े- 'शास्त्रावगाह परिघट्टनतत्परोऽपि ' ઇત્યાદિ જેમ અનેક પ્રકારના રસામાં ડૂબી રહેનાર ચાટુ (સૈડવેા) લાંબા કાળ સુધી તેમાં પડી રહેવા છતાં પણ રસે'ના સ્વાદને જાજી શકતી નથી, તે રીતે અનેક શાસ્ત્રોના અભ્યાસ કરવા છતાં પણ અબુધ પુરૂષ તત્ત્વના સાચા ज्ञानथी वति (विनानी) ४ रहे छे. આવા પ્રકારના જેએ અબુધા છે, અર્થાત્ ખાલવીય વાન્ છે, તે મહાભાગ અર્થાત્ અત્યન્ત સત્કાર કરવાને ચાગ્ય હાય અથવા મહાભાગ્યવાન્ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समकृताङ्गसूत्रे 9 1 महासत्करणीया लोके । अथवा भागो भाग्यम्, तथा महद्भाग्यं विद्यते येषां महाभागाः । परलोके सुकृतं समुपार्जितं यद बलात् इहलोकेऽधुना तज्जनितं सुखं भवति । 'वीरा' परसै मर्दने समर्थाः सन्ति किन्तु 'असमत्तदं सेणो' अस म्यक्त्वदर्शिनः न सम्यक् द्रष्टुं शीलं येषां तेsसम्यक्त्वदर्शिनः मिथ्यादृष्टय इति यावत् । 'तेर्सि' तेषामसम्यक्त्वदर्शिनाम् । 'परक्कतं' पराक्रान्तम्, तपोदानाध्ययनादिषु प्रयत्नादिकं तत् ! 'अमुद्ध' अशुद्वम्-अविशुद्धिकारि । तैः कृतं तपःप्रभृति शुभानुष्ठानमपि बन्धनाय एव । कुवैद्यकृतचिकित्सावद् विपरीतफलजनकम् । यद्यपि तपःप्रभृतिकं विशिष्टफलाय भवति, किन्तु तेषां मिथ्यादृष्टीनां तपोऽपि बन्धनायैव । भावोपहतत्वात् सनिदानत्वाद्वा । यथैकरसमपि जलं तत्तभूभागविकारान् आसाद्य मिष्टं तिक्तं लवणाक्तं भवति तद्वत् तत्तत्तेपां पराक्रान्तम् । . में उपार्जित सुकृत के बल से इस भव में सुख का अनुभव कर रहा हो और वीर अर्थात् शत्रुसेना का मर्दन करने में समर्थ हो किन्तु मिथ्यादृष्टि हो तो उसका पराक्रम अर्थात् तप दान अध्ययन आदि में किया हुआ प्रयत्न अशुद्ध है । वह तप आदि शुभानुष्ठान भी कर्मबन्धन का ही कारण होता है । जैसे कुवैद्य के द्वारा की हुई चिकित्सा विपरीत फल प्रदान करने वाली होती है । यद्यपि तप आदि का विशिष्ट निर्जरा रूप फल होता है तथापि मिथ्यादृष्टि के लिए वे भी कर्मवन्ध के ही कारण होते हैं, क्यों कि वे भावना से दूषित (अर्थात् सद् विवेक से रहित) होते हैं अथवा निदान से युक्त होते हैं । जल में एक ही प्रकार का स्वाभाविक रस सर्वत्र होता है, परन्तु भिन्न भिन्न प्रकार के भूभागों के संसर्ग से वह कहीं मीठा कहीं खारा हो ७०२ હાય, પૂ`ભવમાં પ્રાપ્ત કરેલા સુકતના ખળથી આ ભવમાં સુખને અનુભવ કરી રહ્યા હાય તથા વીર અર્થાત્ શત્રુના સૈન્યનું મર્દન કરવામાં સમથ હાય પર'તુ મિથ્યાદૃષ્ટિવાળા હાય તે તેનું પરાક્રમ અર્થાત તપ, દાન, અધ્યયન વિગેરેમાં કરેલ પ્રયત્ન અશુદ્ધ છે. તે તપ વિગેરે શુભ અનુષ્ઠાન પણુ કમ અન્યના કારણુ રૂપજ થાય છે. જેમ વૈદ્ય દ્વારા કરવામાં આવેલ ચિકિ સા ઉલ્ટા ફૂલને આપવા વાળી થાય છે, જો કે તપ વિગેરેનું વિશેષ પ્રકારની નિર્જરા રૂપલ હાય છે. તા પણ મિથ્યાદષ્ટિવાળાને માટે તેઓ પણ કમ બંધના કારણ રૂપજ હાય છે. કેમ કે તે ભાવનાથી દૂષિત (અર્થાત્ વિવેક વિનાના) હાય છે, અથવા નિાનવાળા હોય છે. જલમાં એકજ . પ્રકારના સ્વભાવિક રસ જ સર્વત્ર હાય છે. પરં'તુ અલગ અલગ પ્રકારના 명 ભાગાના સ ંસર્ગથી તે કયાંક મીઠું અને કયાંક ખારૂ થઈ જાય છે. એજ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् ७०३ 'सबसो' सर्वशः-सर्वा, अपि क्रिया, 'सफलं होई' सफलं भवति, फलेन कर्मबन्धनेन युक्तं तदीयं पराक्रान्तमिति ॥२२॥ वालवीर्यवतः पराक्रान्तं दर्शयित्वा तदनु पण्डितवीर्यवन्तमधिकृत्य शास्त्रकारः कथयति-'जे य बुद्धा' इत्यादि। मूळम्- य बुद्धा महाभागा, वीरों संमत्तदसिंणो। सुद्धं तेर्सि परवंतं, अफलं होइ सव्वसो ॥२३॥ छाया-ये च बुद्धा महाभागाः, वीराः सम्यक्त्वदर्शिनः । शुद्धं तेषां पराक्रन्त, मफलं भवति सर्वशः ॥२३॥ जाता है, उसी प्रकार तप भी विभिन्न स्थानों में विभिन्न प्रकार का फल प्रदान करता है। यही कारण है कि मियादृष्टियों का पराक्रम अर्थात् मिथ्यादृष्टियों की सय क्रिया कर्मबन्धन रूप फल को उत्पन्न करता है.।२२॥ बालवीर्यवान् के पराक्रम को दिखलाफर शास्त्रकार अब पण्डित. वीर्यवान् के विषय में कहते हैं-'जे य बुद्धा' इत्यादि । ... शब्दार्थ-'जे य-ये च' जो लोग 'बुद्धा-घुद्धाः' पदार्थ के सच्चे स्वरूप को जाननेवाले 'महाभागा-महाभागाः' बडे पूजनीय 'वीरावीराः' कर्मविदारण करने में निपुण 'संमत्तदंसिणो-सम्यक्त्वदर्शिनः' नया सम्यकदृष्टि तसिं परक्कंतं-तेषां पराक्रान्तम्' उनका उद्योग 'सुद्ध-शुद्धम्' निर्मल 'सव्यसो अफलं होइ-सर्वशः अफलं भवति' और सब प्रकरसे अफल अर्थात् कर्मका नाशरूप मोक्ष के लिये होता है ॥२३॥ રીતે તપ પણ જુદા જુદા સ્થાનેમાં જુદા જુદા પ્રકારનું ફળ આપે છે. એજ કારણ છે કે મિથ્યા દષ્ટિવાળાઓનું પરાક્રમ અર્થાત મિથ્યા દૃષ્ટિઓની બધી જ ક્રિયા કર્મબન્ધ રૂ૫ ફળને જ ઉત્પન્ન કરે છે મારા બાલવીર્યવાનના પરાક્રમને બતાવીને શાસ્ત્રકાર હવે પંડિત વીર્યવાનના समयमा ४थन ४रे छे.-'जे य बुद्धा' त्याल शहाथ-'जे य-ये च' रे । 'बुद्धा-बुद्धाः पार्थना साया २१३५ने नावावा. 'महाभागा-महाभागाः' घg पूशनीय 'वीरा-वीराः' मन विहा२९५ ४२वामां ण 'संमत्तदसिणा-सम्यक्त्वदर्शिनः' तथा सभ्यः ष्ट. पामा छ, 'तेसि परकी-तेषां पराक्रान्तम्' तेभाना योग 'सुद्ध-शुद्धम्' निभ 'सव्वसो अफल हाई-सर्वशः अफल भवति' भने मची रीते म३१ अर्थात् કર્મના નાશરૂપ સેક્ષને માટે થાય છે, કારણ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ . --- (जे य) ये च (बुद्ध) बुद्धाः - स्वयं बुद्धा, बुद्धबोधिता वा ( महाभागा ) महाभागाः - महापूजनीयाः (वीरा) वीराः कर्मविदारणसमर्थाः ( संमत्त सिणो ) सम्यक्त्वदर्शिनः - परमार्थतस्त्रवेदिनः (तेर्सि परवकतं) तेषां पराक्रान्तमुद्योगः (सुद्धं) शुद्धमवदातं कर्मबन्धं प्रति (सव्वसो अफलं होइ) सर्वशः - सर्वथैव अफलं भवति पापफलजनकाभावात् तत् निरनुबन्धनिर्जरार्थमेव भवतीति भावः ॥ २३ ॥ टीका -- 'जे य' ये केचन महापुरुषाः 'बुद्धा' बुद्धा: - संबुद्धा | परोपदेशमन्तरेणैव पदार्थपरमार्थज्ञानवन्तः तीर्थकराः । यद्वा-बुद्धबोधित गणधरादयः, 'महाभागा ' महाभागाः - महासत्करणीयाः । ' वीराः - कर्मणां विनाशने सदा साम वन्तो ज्ञानादिभिर्गुणैर्वा सदा शोभमानाः । 'समत्तदक्षिणो' सम्यक्त्वदर्शिनःयथावस्थितपदार्थज्ञानवन्तः । ' तेर्सि' तेषां - जगन्माननीयानां यत् 'परक्कं पराक्रान्तम्-तपःसंयमाद्यनुष्ठानं तत् 'सुद्धं' शुद्धं विशुद्धं निर्मलं - कषायादिदोष ७०४ - 4 अन्वयार्थ - जो स्वयं बुद्ध हैं अथवा बुद्धबोधित हैं, महाभाग पूजनीय हैं, वीर अर्थात् कर्मविदारण में समर्थ हैं और सम्यक्त्वदर्शी परमार्थ के ज्ञाता हैं, उनका पराक्रम सर्वथा धर्मबन्धन रूप फल से रहित होना है - निर्जरा का ही कारण होता है ||२३|| टीकार्थ - - जो महापुरुष दूसरे के उपदेश के विना स्वयं हीं बोध को प्राप्त कर परमार्थ को जानने वाले हैं, जैसे तीर्थकर, अथवा जिन्होंने दुसरे ज्ञानियों से ज्ञान प्राप्त किया है, जैसे गणधर आदि तथा जो महान सत्करणीय हैं, जो कर्मों को नष्ट करने के सामर्थ्य से युक्त हैं, या ज्ञानादि गुणों से विभूषित हैं, जो पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानते हैं, उनका पराक्रम अर्थात् तप, अध्ययन, यम, नियम आदि અન્વયા —જેએ સ્વય બુદ્ધ છે. અથવા યુદ્ધ ખેષિત છે. મહાભાગ પૂજનીય છે, વીર અર્થાત્ કના વિદ્યારણમાં સમ છે. અને સમ્યક્ત્વદર્શી પરમાર્થને જાણવાવાળા છે, તેનું પરાક્રમ સથા કમ બધ રૂપ ફળ વિનાનુ ડાય છે–અર્થાત નિર્જરાના કારણું રૂપ જ હાય છે. ાથા ટીકા--જે મહા પુરૂષા ખીજાના ઉપદેશ વિના પાતેજ મેધ પ્રાપ્ત કરીને પરમાને જાગૃવવાળા છે, જેમકે તીર્થંકર, અથવા જેએએ ખીજા જ્ઞાનીયા પાસેથી જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરેલ છે, જેમકે ગણુધર, વિગેરે તથા જે મહાન સત્કાર કરવાને ચેગ્ય હોય છે, જેએ કર્મીને નાશ કરવાવાળા સામ'થી યુક્ત છે, અથવા જ્ઞાન વિગેરે શુભેાથી યુક્ત હોય છે, જેઓ પટ્ટાના यथार्थ (वास्तविक ) वने ये हे, तेखानु राम अर्थात् तय, अध्य Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् रहितं तत् अफलं पापफलाजनकं भवति निर्जरार्थमेव सर्व भवतीति भावः। सम्यक्त्वतां सर्वमेव संयमनुपःप्रधानमनुष्ठानं भवति संयमास्याऽनाश्रवरूपत्वात, तथा-तपपो निराफलकत्वात् । तथोक्तं भगवता भगवत्याम् 'संजमे अणण्यफले तवे चोदाणफले' ।।इत२३॥ मूलम्-तेसि वि तेवो जसुद्धो, निखंता जे महाकुला। " जन्नेवल्ले बियाणंति, न लिलोगं पवेजइ ॥२४॥ छन्गा--तेपा मपि तपो न शुद्धं, निष्क्रान्ता ये महाकुलाः । यन्नै ऽन्ये विजानन्ति, न श्लोक प्रवेदयेत् ॥२४॥ अनुष्ठान शुद्ध कपायादि दोपों से रहित और निर्जरा के लिए ही होता है। सम्यक्स्वधान् पुरुष का सभी अनुष्ठान संयम तप प्रधान होता है, भगवती सूत्र में भगवान ने कहा है 'संयम का फल आअव का रुक जाना है और तप का फल कर्म की निर्जरा होना है ॥२३॥ 'तेसिं वि तको ण सुद्धो' इत्यादि । शब्दार्थ--'तेसि वि तवो ण सुद्धो-तेषामपि तपो न शुद्धं' उनका तप भी शुद्ध नहीं है 'जे महाकुलानिवखं वा-ये महाकुलाः निष्क्रान्ताः' जो महाकुल वाले प्रत्रज्यालेकर पूजा सत्कार के लिये तप करते हैं 'जन्नेवन्ने वियाणति-यत् नैव अन्ये विजालन्ति' इसलिये दानमें श्रद्धा रखनेवाले दूसरेलोग जिसमें जाने नहीं, इस प्रकार आत्मार्थी को तपયન, યમ, નિયમ વિગેરે અનુષ્ઠાન શુદ્ધ એટલે કે કષાય વિગેરે દેશોથી રહિત અને નિજ આપવાવાળા જ હોય છે સમ્યક્ત્વવાળા પુરૂષના સઘળા અનુષ્ઠાને સંયમ અને તપ પ્રધાન જ હોય છે ભગવતીસૂત્રમાં ભગવાને કહ્યું છે કે-સંયમનું ફળ આસવને રોકવું તે છે. અને તપનું ફળ કર્મની નિર્જ થવી તે છે. ૨૦ 'वेसि वि तो ण, सुद्धो' छत्यादि शा-'तेनि वि तवा ण सुद्धो-तेषामपि तपो न शुद्धं'. तेभनु त५ ५४ शुद्ध नथी. 'जे महाकुला निक्खना-ये महाकुलाः निष्काम्ता: २ महाड वा प्रवृत्या सधन लसाने माटे त५ ४२ छ, 'जन्नेवन्ने वियाणवियत् नैव विजानन्ति' तथा दानमा श्रद्धा वाणा भी नही सू० ८९ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ सूत्रकृतागसूत्रे . अन्वयार्थः -- (तेसिं त्रितवो ण सुद्धो) तेपां तपोऽपि न शृद्धम् (जे महाकुला निक्खता) ये महाकुलाः - इक्ष्वाक्क दिकुलोत्पन्नाः प्रव्रज्यामादाय निष्क्रान्ताः 'लोकसत्कारार्थं तपः कुर्वन्ति (जन्नेवन्ने बियाणंति) यत नैव अन्ये विजानन्ति क्रियमाणमपि तो नान्ये जानन्ति तत् तथाभूतमात्मार्थिनो विधेयम् (न सि लोगं पवेज्जए) न श्लोकम् आत्मश्लाघां नैव प्रवेदयेत् प्रकाशयेदिति ||२४|| टीका - - ' तेर्सि वि' तेषामपि 'तो' तपः संयमानुष्ठानं च 'पण सुद्धो ' न शुद्धम् - न पवित्रम् 'जे य' ये च 'महाकुला' महाकुलाः - लोके प्रसिद्धा इक्ष्वा कुप्रभृतिकुले समुत्पन्नाः तेषामपि तपः सत्काराद्यर्थे वा सम्यक् प्रकीर्तितम् | 'जन्ने बन्ने वियाति' यत् क्रियमाणं तपः 'नेवन्ने' नैवान्ये दानश्रद्धावन्तोऽपरे न 'चियाणंति' विजानन्ति तथा श्रेयोऽर्थिभिः कर्त्तव्यम् 'न सिलोगं' श्लोकं - 'करना चाहिये 'न सिलोगं पवेज्जए-न श्लोकम् प्रवेदयति' तथा तपस्वियों को अपनी प्रशंसा भी न करनी चाहिये ||२४|| - अन्वयार्थ- - उनका तप शुद्ध नहीं है जो इक्ष्वाकु आदि बड़े कुलों में जन्म लेकर, दीक्षित हो कर निकले हैं किन्तु लोक सत्कार के लिए तप करते हैं । अतएव खाधु को ऐसा तप करना चाहिए कि दूसरों को उसका पता ही न चले अर्थात् जिसमें इस लोक और परलोक की आशंसा (वांछा न हो, उसे अपनी प्रशंसा भी नहीं करनी चाहिए |२४| टीकार्थ -- जो लोकप्रसिद्ध इक्ष्वाकु आदि महाकुलों में उत्पन्न हुए हैं और प्रव्रज्या अंगीकार करके गृहत्यागी बने हैं किन्तु लौकिक सत्कार सन्मान पाने की कामना से प्रेरित हो कर तप करते हैं, उनका भी तप त्रिशुद्ध नहीं है । आत्मकल्याण के अभिलाषी को ऐसा तप करना ते प्रमाणे आत्मार्थि से तय १२ लेहये. 'न सिलेोग' पवेब्जए -न श्लोकम् प्रवेदयति' तथा तपस्विमे पोतानी प्रशंसा ४२त्री न लेभे ॥२४॥ અન્નયા —જેએ ઈક્ષ્વાકુ વગેરે પ્રસિદ્ધ વશમાં જન્મ લઈને દીક્ષિત -થઈને નીકળ્યા છે, પરંતુ લેાકના સત્કાર માટે તપ કરે છે, તેનુ તપ શુદ્ધ નથી. એથી કરીને સાધુએ એવુ' તપ કવુ. જૈઇએ કે-ખીજાઓને તેની જાણુ જ ન થાય, અર્થાત્ જેમાં આ લેાક અને પરલેાકની આશ’સા (ઈચ્છા) ન હોય, તેણે પેાતાની પ્રશંસા પણ કરવી ન જોઈએ. ૫૨૪૫ ટીકા—જેએ લેાક પ્રસિદ્ધ ઈક્ષ્વાકુ વગેરે મહાકુળામાં ઉત્પન્ન થયા ડાય છે, અને પ્રત્રજ્યા સ્વીકારીને ગૃહના ત્યાગ કરવાવાળા અન્યા હાય છે, પરંતુ લૌકિક સત્કાર અને સન્માન મેળવવાની ઇચ્છાથી પ્રેર ઇને તપ કરે છે, તેઓનુ તપ પણ શુદ્ધ હેતુ નથી. આત્મકલ્યાણુને ઇચ્છનારાઓએ એવું Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् G७स्वकीयमशंसां स्मुखान्नैव-कथमपि 'पवेज्जए' प्रवेदयेत्-कथयेत, अहमेताइश आसम्-इदानीं तपसा प्रवृद्ध इत्यादि स्वमशंसां नैव कुर्यात् । 'तपः क्षरति-नश्यति कीर्तनात्' इति नीत्या । ये च महति कुले प्राप्तजन्मानः स्वतपः प्रशंसन्ति, अथवा -सत्कृतिपूजोपलब्धये तप: कुर्वन्ति, तेषां तत्तपः ततः प्रति क्षीयते चौराग धनप्रकाशनवर अतः सत्साधुभिः स्वीयं तपो गोपनीयमेव, न पुन स्वमुखेनाख्यातव्यमिति । २४॥ मूलम्-अप्पपिंडासि पाणासि, अप्पं भासज्ज सुव्वए। " खंतेऽभिनिव्वुडे दंते, वीयगिद्धी संदा जए ॥२५॥ चाहिए जिसे गृहस्थ आदि जान भी न सकें । तथा अपने मुख से अपनी प्रशंसा कदापि नहीं करनी चाहिए कि.मैं ऐसा था और अब ऐसा उग्र तप कर रहा हूँ। इत्यादि । क्यों कि स्त्रयं प्रशंसा करने से तप भंग हो जाता है-निष्फल बन जाता है। आशय यह है-जिन्होंने महान कुलों में जन्म लिया है और जो दीक्षित हो कर तप तो करते हैं जिन्तु अपने तप की प्रशंसा करते हैं या सत्कार पूजा के निमित्त ही तपस्या करते हैं उनका तप क्षीण हो जाता है। अतएव मोक्षाभिलाषी साधुओं को अपना तप गुप्त ही रखना चाहिए, चोर के सामने अपन्हे धन को प्रकट करने के समान अपने मुख से तप की प्रशंसा नहीं करना चाहिए ॥२४॥ તપ કરવું જોઈએ કે જેથી ગૃહસ્થ વિગેરે જાણી પણ ન શકે, તથા પિતાના સુખેથી પિતાની પ્રશંસા કેઈ પણ સમયે કરવી ન જોઈએ કે-હું આવા પ્રકારનો હતે, અને હાલમાં આવુ ઉગ્ર તપ કરી રહ્યો છું. ઈત્યાદિ કેમ કે સ્વયં પ્રશંસા કરવાથી તપને ભંગ થઈ જાય છે. અર્થાત્ તપનુષ્ઠાન નિષ્ફળ થઈ જાય છે. કહેવાનો આશય એ છે કે-જેઓએ શ્રેષ્ઠ કુલોમાં જન્મ ધારણ કરેલ છે, અને જેઓ દીક્ષા ધારણ કરીને તપતો કરે છે, પરંતુ પોતે કરેલા તપની પ્રશંસા (વખાણ) કરે છે, અથવા સરકા-પૂજાને માટે જ તપનું આચરણ કરે છે, તેનું તપ ક્ષીણ થઈ જાય છે તેથી જ મેક્ષની કામના વાળા સાધુઓએ પોતાનું તપ ગુપ્ત જ રાખવું જોઈએ ચોરની સામે પિતાને ધન બતાવવાની જેમ પોતાના મુખેથી પોતાના તપની પ્રશંસા કરવી ન જોઈએ. ૨૪ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vide मूत्रकृताङ्गसूत्रे छाया--अल्पपिण्डाशी पानाशी, अल्पं भाषेत मुव्रतः। - क्षान्तोऽभिनिवृतो दान्तो, बीतगृद्धिः सदा यतेत ॥२५॥ :- अन्वयार्थ:--(अप्पपिंडासि) अल्मपिण्डाशी-अल्पाहारकरणशीलः (पाणासि) " पानाशी-अल्पजलाभ्यवहरणवान् (सुब्बए) मुबा-साधुः (अप्पं भासेज्ज) अल्पं• परिमितं च भाषेत (खंते असिनिव्वुडे) क्षान्त:-क्षान्तिप्रधानः अभिनितो लोभादिजयान्निरातुरः (दंते वीतगिद्धी सदा जए) दान्तो-जितेन्द्रियः वीतगृद्धि:आशंसादोषरहितः सदा-सर्वदा सर्वकालं संयमानुष्ठाने यतेत-यत्नं कुर्यादिति।२५। 'अपपिंडासि इत्यादि। शब्दार्थ--'अप्पपिंडास्सि-अल्प पिण्डाशी' साधु उदर निर्वाहके ‘लिये अल्प आहार करे 'पाणासि-पानाशी' और जल पान भी थोडा करे 'सुब्बए-सुत्रतः साधु पुरुष अप्पं भासेज्ज-अल्पं भाषेत' थोडा घोले अर्थात् विना प्रयोजन न बोले 'खंते अमिनिम्बुडे-क्षान्तः अभि. निर्वृतः' एवं क्षमाशील लोभादिरहित 'दंते वीत गिद्धी-दान्तः बीतगृद्धिा' ‘जितेन्द्रिय और विषय भोग में आसक्ति रहित होकर सदा संयमका अनुष्ठान करे ॥२५॥ 5 अन्वयार्थ-साधु अल्पाहारी हो, अल्प जल का पान करे, अल्प भाषण करे, क्षमाशील हो, लोभ आदि को जीत कर आतुरतारहित हो, जितेन्द्रिय हो और शृद्धि रहित हो। सदा संयमानुष्ठान में उद्योग करने वाला हो ॥२५॥ ___ 'अपरिडासि' या शwar - अप्पपिंडासि-अल्पपिण्डाशी' साधु ६२ निवड माटे म५ . भाडा२ ४३ 'पाणासि-पानाशी' ने पान ५५५ 'सुव्वए-सुव्रतः' साधु ५३५ 'अप्पं मासेज्ज-अल्प भापेत' थोडमा अर्थात् अयान २ म. नही खते अभिनिव्वुडे-क्षान्तः अभिनिवृतः' क्षमाशील सोमाथि २डित 'दंते वीतगिद्धी-दान्तः वीतगृद्धि.' तेन्द्रिय तथा विषयागीमा मारठित विनाना થઈને સદા સંયમનું અનુષ્ઠાન કરે આરપાર - અયાર્થ–સાધુએ અલ્પાહારી હોવું જોઈએ. અ૫જલનું પાન કરવું જોઈએ અ૯૫ બોલવું જોઈએ. લેભ વિગેરેને જીતીને આતુર પણ વિના કે રહેવું. જીતેન્દ્રિય થવું અને ગૃદ્ધિ-આસક્તિ વિના રહેવું. તથા હમેશાં સંય મના અનુષ્ઠાનમાં ઉદ્યોગ પરાયણ રહેવું જોઈએ. પર પો Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “समयार्थबोधिनी टीका प्र. Q. अ. ८ उ.१ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् . टीका--'अप्पपिंडासि' अल्पपिण्डाशी, अल्पं पिण्डम् अशितु-भोक्तं शीलं यस्य सोऽल्पपिडाशी, अन्तमान्तादिकस्यापि अत्यल्पस्यैव भोजनशीलः। तथा'पाणासि' अल्पपानाशी-आहारवदल्पजलाशी, उक्तंच- भोजनविषये 'हे जंत्र तंत्र अवीय जन्थ व तत्थ व सुहोगनिदो । जेणेव तेणेव संतुष्ट वीरा मुणिओसि ते अप्पा ॥१॥ अट्ठ कुक्कुडिअंडगमेत्तप्पमाणे कवठे आहारं आहारेमाणे अप्पाहारे इत्यादि । छाया--यद्वा तद्वा अशित्वा यत्र वा तत्र वा सुखोपगतनिद्रः । ___ येन वा तेन वा सन्तुष्टः हे वीर ! ज्ञातोऽस्ति त्वयाऽऽत्मा ॥१॥ अष्ट कुक्कुटाण्डकपमाणान् कबलानाहारमाहरन्नल्पाहार इत्यादि। टीकार्थ--साधु को स्वल्प आहार करना चाहिए । अन्त प्रान्त आहार भी अधिक नहीं करना चाहिए। आहार के समान जल का पान भी अल्प करना चाहिए। भोजन के परिणाम के विषय में आगम में कहा है-'जो भी मिल गया उसे खा लिया, जहाँ-तहाँ-कहीं भी सख की नींद से सो लिया जो भी प्राप्त हो गया उसमें संतुष्ट रहा। हे वीर! तूने आत्मा को पहिचाना है ॥१॥ मुर्गी के अण्डे के बराबर आठ कवल प्रमाण आहार करने वाला अल्पाहारी कहलाता है, बारह कबल प्रमाण आहार करने वाला अपार्द्ध अवमोदरिक कहलाता है, सोलह कवल प्रमाण आहार करनेवाला विभाग . प्राप्त आहारी कहलाता है, चौवीस कवल प्रमाण आहार करने वाले ટીકાથ–સાધુએ અલ્પ એટલે કે સૂમ પ્રમાણમાં આહાર કરવો જોઈએ. અંત પ્રાન્ત અ હાર પણ વિશેષ પ્રમાણમાં લેવું ન જોઈએ. આહાર પ્રમાણે જળ પણ અ૫ પ્રમાણમાં લેવું જોઈએ. આહારના પ્રમાણુના સંબંધમાં આગમમાં કહ્યું છે કે-જે કાંઈ પ્રાપ્ત થયેલ આહાર હોય તેને લઈને નિર્વાહ કરી લે. જ્યાં ત્યાં કોઈ પણ સ્થળે સુખ પૂર્વકની નિદ્રાથી સુઈ જવું. અને જે કાંઈ પ્રાપ્ત થઈ આવે તેનાથી સંતોષ માની લેવો. હે વીર તે આત્માને ઓળખે છે. પલા મરઘાના ઈડની બરાબર આઠ કેબિયાના પ્રમાણુવાળા આહારને ગ્રહણ કરવાવાળાને અલ્પ આહારી કહેવામાં આવે છે બાર કેળિયાના પ્રમાણવાળા આહાર કરવાવાળાને અપાદ્ધ અવમેદરિક કહેવામાં આવે છે. સેળ કોળિયા પ્રમાણ આહાર કરવાવાળાને બે ભાગ - પ્રાપ્ત આહાર લેવાવાળે કહેવામાં Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सुत्रकृतासूत्रे यद्वा तद्वा आहारमाहार्य यत्र तत्र मुखनिद्रा मासादितः, येन तेन प्रकारेण - सन्तुः, अतस्त्वयाऽऽत्मा ज्ञात इति भावः। एकैककवलस्य न्यूनताकरणेन ऊनोदरता कर्तव्या। एवमेव पाने, पात्रादिसंयमोपकरणेऽपि ऊनोदरता विधेया । तथा चोक्तम् 'थोवाहारो थोवभणिो य जो ! होइ योवनिदो य । - थोबोवहि उवगरणी, तस्स हु देवा वि पणमंति' ॥१॥ अवमोरिक कहलाता है, तीप्त कवल प्रमाण आहार करने वाला प्रमाण प्राप्ताहारी कहलाता है और बत्तीस कश्ल आहार करने वाला सम्पूर्णाहारी कहा जाता है । व्य. सूत्र उ. ८॥ . .. .. ___ अरस विरस आदि का भेद न करके जो भी आहार निर्दोष प्राप्त हो जाय, उसे ही ग्रहण करले । प्रशस्त अप्रशस्त भूमि का विकल्प न फरके कहीं भी सुख की नींद से सो ले और जो भी मिल जाय उसी में सन्तुष्ट रहे । ऐसी उदासीन वृत्तिवाला महापुरुष ही आत्मा का ज्ञाता होता है। __ एक एक कवल की कमी करके ऊनोदरता करनी चाहिए। इसी प्रकार पानी तथा संघम के उपकरण पात्र आदि में ऊनोदरता करनी चाहिए । कहाँ भी है-'धोवाहारो थोवभणिो ' इत्यादि। આવે છે. વીસ કેળીયાના પ્રમાણવાળા આહાર લેનારને અવમદરિક કહેવાય છે, ત્રીસ કેળીયાના પ્રમાણુવાળે આહાર લેવા વાળાને પ્રમાણપ્રાણાહારી કહેવાય છે. અને બત્રીસ કેળિયાના આહારવાળાને સંપૂર્ણાહારી કહેपाय छे. ॥व्य सू. ३८ અરસ વિરસ વિગેરેનો ભેદ કર્યા વિના નિર્દોષ રીતે જે કાંઈ આહાર પ્રાપ્ત થઈ જાય, તેને જ ગ્રહણ કરી લે. પ્રશસ્ત અથવા અપ્રશસ્ત ભૂમિને વિકલ્પ ન કરતાં જ્યાં સુખ પૂર્વકની નિદ્રા આવે ત્યાં સુઈ જવું. અને જે કંઈ મલે તેનાથી સંતોષી રહેવું. આવી ઉદાસીન વૃત્તિવાળા મહાપુરૂષ જ આત્મતત્વને જાણવાવાળા થાય છે. એક એક કેળીયાને કેમ-છો કરીને ઉનેદરતા કરવી જોઈએ. આજ પ્રમાણે પાણે તથા સંયમના ઉપકરણ પાત્ર વિગેરેમાં ઉદરપણું કરવું ४. ४ छ -'थोवाहारा थोवभणियो' त्या २ अ५ भाडा. Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समार्थबोधिनी टीका प्र. थु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् छाया - स्टोकाहारः स्तोकमणिस्थ, यो भवति स्तोकनिद्रश्च । स्तोकोपधिकोपकरणः, तस्मै खलु देवा अपि प्रणमन्ति ॥ ७११ 'सुन्नए' सुवतः - सुष्ठु महान्नतपालको मुनिः 'अपं' अल्पमेव ' भासेज्जा' भाषेत-अल्पं हितं सत्यं च वदेत् न वहु वदेदितिभावः । 'खंते' क्षान्तः - क्रोधादीनामुपशमात् क्षान्तिप्रधानो भवेत् । तथा-' अभिनिव्बुडे' अभिनिर्वृतः - लोभमानमायादीनामान्तरशत्रूणां जयकरणात्, उपशान्तो भवेत् । तथा - 'दंते' दान्तः जितेन्द्रियो भवेत् । एवम् 'वीतगिद्धी' वीतगृद्धिः, बीता- विगता गृद्धिःअमिकाइक्षा यस्य स वीतगृद्धि :- आशंसा दोषरहितः 'सदा जए' सदा यतेत सदासर्वकालमेव यतेत- संयमानुष्ठाने यत्नं कुर्यात् साधुभिः संयमयात्रा निर्वाहार्थ मल्प 1 , ' जो अल्पाहारी, अल्पभाषी, अल्पनिद्रालु, अल्पउपधिमान् और अल्प उपकरणवान् होता है, देवता भी उसको नमस्कार करते हैं । हे सुत्र | (सुन्दर व्रत वाले शिष्य) अल्प, हितकर और सत्य ही बोलो अधिक नहीं । क्रोध, मान, माया, लोभ आदि आन्तरिक शत्रुओं को जीत कर उपशान्त होओ, जितेन्द्रिय बनो । जिसके कषायों का उच्छेद (विनाश) नहीं हुआ, जिस का मन • वशीभूत नहीं हुआ और इन्द्रियों का गोपन नहीं हुआ, उसकी दीक्षा आजीविका का साधन मात्र है ॥ १ ॥ इसी प्रकार साधु गृद्धि से रहित हो और कामवासना से रहित । इस प्रकार वह सर्वदा ही संयम के अनुष्ठान में संलग्न बना रहे । વાળા, અલ્પ ખેલનાર, અલ્પ નિદ્રા લેનાર અલ્પ ઉપધિવાળા તથા અલ્પ ઉપકરણવાળા હાય છે, તેવા પુરૂષને દેવે પશુ નમસ્કાર કરે છે. હું સુવ્રત ! (સુંદર વ્રતવાળા શિષ્ય) અલ્પ, હિતકર અને સત્યજ મેલે વધારે પડતુ નહી. ક્રોધ વિગેરે કષાયેાને ઉપશાંત કરીને ક્ષમાશીલ મના लोध, भान, भाया, बोल विगेरे आंतरि४ शत्रुभाने तीने उपशान्त भने, જીતેન્દ્રિય મના જેએના કષાયેાના ઉચ્છેદ (નાશ) થયેલ નથી જેએનું મન વશ થયેલ નથી. અને ઇન્દ્રિયેતુ' ગેાપન થયેલ નથી તેએ.ની દીક્ષા કેવળ આજીવિકાના સાધન માત્ર જ છે ૫૫ આજ પ્રમાણે ગૃદ્ધિ (આસક્તિ)થી રહિત થવુ. રહિત ખનવું. અને એજ પ્રમાણે હંમેશાં જ સયમના शीच मनडु: તથા કામવાસનાથી અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્ત Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मेवान्नं पानं चाऽयवहरणीयम्, तथा-हितं मिनमिष्टं वा सत्यमेव वक्तव्यम् । क्षान्तेन दान्तेन विषयविनिव्रतात्मना संयमानुष्ठानतत्परेण भवितव्यमिति भावः ॥२५॥ मूलम्-झाणजोगं समाहटु कायं विउसेज्ज सव्वलो। तितिक्खं परमं णचा आमोक्खाय परिव एज्जालि। त्तिबेमि॥२६॥ छाया--ध्यानयोगं समाहृत्य कायं व्युत्सृजेत्सर्वशः। तितिक्षा परमां ज्ञात्वा आमोक्षाय परिव्रजेन् ।। इति ब्रवीमि ॥२६॥ आशय यह है-साधु को उदरपूर्ति के लिए अल्प आहार तथा परिमित आहार पानी का सेवन करना चाहिए, परिमित सत्य वचनों का ही प्रयोग करना चाहिए शान्त दान्त और विषयों से विरक्त होना चाहिए । सदा संयमपरायण रहना चाहिए ॥२५॥ ___ 'झाण जोगं समाह?' इत्यादि। शब्दार्थ-'झाणजोग-ध्यानयोगम्' साधु चित्त निरोध लक्षण वाले धर्मध्यानादि को 'समाहरटु-समाहृत्य ग्रहण करके 'सव्यसो कायं विउसेज्ज-सर्वशः कार्य व्युत्सजेत्' सब प्रकार से शरीरको बुरे व्यापरोंसे रोके 'तिनिक्खं परमं जच्चा-तितिक्षां परमां ज्ञात्वा' परीषह तथा उपसर्ग के सहन को सबसे उत्तम समझकर 'आमोक्खाए-आमो क्षाय मोक्ष की प्राप्ति पर्यन्त संयमका अनुष्ठान करे 'त्तिवेषि-इति ब्रवीमि' ऐसा मैं कहता हूँ ॥२६॥ કહેવાને આશય એ છે કે-સાધુએ ઉદર પૂર્તિ માટે અલ્પ આહાર તથા પરિમિત આહાર પાણીનું સેવન કરવું જોઈએ. પરિમિત સત્ય વચન જ બલવા જોઈએ. શાન્ત દાન અને વિષયેથી વિરકત બનવું જોઈએ. સર્વદા સંયમ પરાયણ રહેવું જોઈએ પરપા _ 'शाणजोग समाटु' त्यादि . शहाथ-'ज्ञाणजेोग-ध्यानयोगम्' साधु यित्त निरोध सक्षवाणा धर्म ध्यान विगैरेने 'समाहटु-समाहृत्य' यह ४शन 'सव्वसे कार्य विउज्ज-सर्वशः कायं व्युत्सृजेत्' मधा २थी शरीरने १२५ व्यापारथी शे"तितिक्खं परमं. णच्चा-तितिक्षां परमां ज्ञात्वा' ५५४ भने ५ २ हनने साथी उत्तम समलने 'आमेक्खिाए-आमोक्षाय' मोक्षनी प्राप्ति ५यन्त सयभनु भानुन ४२ 'त्तिवेमि-इति ब्रवीमि' से प्रमाणे हुई छ. ॥२६॥ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१३ समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. ८ उ. १ वीर्यस्वरूपनिरूपणम् अन्वयार्थ:--'झाणजोगं) ध्यानयोग-ध्यानं मनोनिरोधलक्षणं धर्मध्यानादिकम् , तत्र योगः-विशिष्टमनोवाकायव्यापार स्तम् (समाहर्ट्स) समाहत्य-सम्यगुपादाय (सनसो कार्य विउसेज्ज) सर्वशः-सर्वप्रकारेण कायंदेहमकुशलयोगपवृत्तं ब्युस्टजेत्-परित्यजेत् (तितिक्ख परमं णच्चा) तितिक्षां-परीषदोपसर्गसहनलक्षणां परमां-प्रधानां ज्ञात्या (आमोक्खाय परिवहर्जासि) -आमोक्षायमोक्षपर्यन्तम् अशेषकर्मक्षयो यावद्भवेत्तावत्पर्यन्तं परिव्रजेद-संयमानुष्ठानं कुर्यात् (तिवेमि) इति त्रीमि ॥२६॥ टीमा--अध्ययनार्थमुपसंहरन्नाह-'झाणजोग' इत्यादि । 'झाणं' ध्यानम्मनसो निरोधस्वरूपम्, धर्मध्यानादिकं वा-तस्मिन् ध्याने योग:-विलक्षणमनोचाकायव्यापारा, तं तादृशं ध्यानयोगम् समाहटु' समाहृत्य-सम्यगुपादाय काय' शरीरम्-अकुशलकाययोगप्रवृत्तम् 'विउसेज्ज' व्युत्सृजेत्-परित्यजेत् । 'सबसो' सर्वता सर्वप्रकारेण कस्यापि-कथमपि यथा पीडा न भवेत् । तथा हस्तपादादि व्यापारयेत् । तया-'तितिक्खं तितिक्षा-शान्ति परी पहोपसहनस्वरूपाम् 'परम' - अन्वयार्थ-ध्यानणेग को सम्यक् प्रकार से ग्रहण करके, पूर्ण-रूपेण-काय का व्युत्सर्ग करे अर्थात् शरीर को अकुशल व्यापार में प्रवृत्ति न होने दे।-तितिक्षा अर्थात् विविध प्रकार के परीषहों और उपसर्गों -संबंधी सहिष्णुता को उत्तम समझ कर समस्त कर्मों का क्षय जब तक न हो जाय तब तक संयम का पालन करे । त्ति बेमि-ऐसा मैं कहता हूँ ॥२६॥ टीकार्थ-अध्ययन के अर्थ का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं-ध्यान अर्थात चित्त के व्यापार के विरोध या धर्मध्यान-आदि-में-योग को धारण कर के. अकुशल व्यापार में प्रवृत्त शरीर का परित्याग करे। અન્વયાર્થ– સારી રીતે ધ્યાનયોગને ગ્રહણ કરીને પૂર્ણરૂપથી કાયને ત્યાગ કરે. અર્થાત્ શરીરને અકુશલ પ્રવૃત્તિમાં પ્રવૃત્ત બનવા-ન છે. તિતિક્ષા ' અર્થાત્ અનેક પ્રકારના પરીષહ અને ઉપસર્ગ સંબંધી સહિષ્ણુ પણાને ઉત્તમ સમજીને સમસ્ત કર્મોને ક્ષય "જયાં સુધી ન થાય ત્યાં સુધી - સંયમનું यासन ४२ 'त्ति “बेमि' 241-प्रमाणे छु ॥२६॥ ટીકાથ-અધ્યયનના અર્થને ઉપસ હાર કરતા કહે છે કે-ધ્યાન અથવા • ચિત્તના વ્યાપારને નિરોધ (રોકવું) અથવા ધર્મધ્યાન વિગેરેમાં રોગને ધારણ કરીને, અકુશળ વ્યાપારમાં પ્રવૃત્ત શરીરને ત્યાગ કર. પિતાના सु० ९० Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे परमाम्-प्रधानां सर्वत उत्कृष्टामिति यावत् 'णच्चा' ज्ञात्वा 'आमोक्खाय' आमोक्षाय- मोक्षपर्यन्तं यावन्मोक्षं न लभते तावत्पर्यन्तम् 'परिव्वज्जासि' परिव्रजेत्संयमानुष्ठानं कुर्यात् । ७१४ साधुयनियोगमाश्रित्याशुभमनोवाक्कायव्यापारविवर्जितः- उपसर्गादि सहमानः अशेषकर्मक्षयं यावत् संयमपालने तत्परो भवेदिति भावः । 'त्तिवेमि' इत्यहं ब्रवीमि । इति सुधर्मस्वामिवाक्यम् ||२६| - इति श्री विश्वविख्यात जगद्वल्लभादिपद भूपित बालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य ' पूज्यश्री - घासीलालवतिविरचितायां श्री सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य “समयार्थबोधिन्या ख्यायां " व्याख्यायां वीर्याख्यानम् अष्टममध्ययनं समाप्तम् ||८ - १ | अपने हाथ पग आदि अवयवों का ऐसा प्रयोग करे कि किसी प्राणी को तनिक भी पीड़ा न पहुँचे । तथा सहनशीलना को सर्वोत्कृष्ट जान कर जब तक समस्त कर्मों का क्षय न हो जाय तब तक संयम का पालन करे । आशय यह है कि साधु ध्यान योग का अवलम्बन करके मन वचन काय की प्रवृत्ति को रोक दे और उपसर्ग आदि को सहन करता हुआ कर्मक्षय पर्यन्त संयमपालन में तत्पर रहे। सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं - हे जम्बू ! जैसा मैंन भगवान् से सुना हूँ ऐसा मैं तुझे कहता हूँ ||२६|| जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत 'सूत्रकृता ङ्गसूत्र' की समयार्थबोधिनी व्याख्या का आठवाँ अध्ययन समाप्त ॥८- १॥ હાથ પગ વિગેરે અવયવાના એવા પ્રત્યેાગ કરે કે-કાઈ પણ પ્રાણુિને જરા પણ પીડા ન થાય, તથા સહનશીલ પણાને સર્વોત્તમ માનીને જ્યાં સુધી સમસ્ત કર્મને ક્ષય ન થઈ જાય ત્યાં સુધી સંયમનું પાલન કરવું. કહેવાના આશય એ છે કે-સાધુએ ધ્યાન ચેાગનું અવલમ્બન કરીને મન, વચન અને કાયની પ્રવૃત્તિને રોકી દેવી તેમજ ઉપસ વિગેરેને સહુન કરતા થકા કર્મ ક્ષય સુધી સયમ પાલનમાં તત્પર રહેવું, સુધર્મા સ્વામી જરૃસ્વામીને કહે છે કે હે જણૢ જે રીતે મે ભગવાન પાસેથી સાંભળ્યુ છે તેજ પ્રમાણે સે” તમને કહેલ છે. ારકા 1 જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર પૂજયશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કૃત ‘સૂત્રકૃતાંગસૂત્ર’ની સમયા મેાધિની વ્યાખ્યાનું આઠમું અધ્યયન સમાપ્ત ૫૮-૧૫ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ. पंक्ति शुद्धि स्मूत्रकृतागसूत्र भा. दूसरे का शुद्धिपत्रक भाषा अशुद्धि ગુજરાતી જકારે हिन्दी भाति ગુજરાતી ફસાયેલી हिन्दी करको જ્યારે भांति ફસાયેલી घरको ૩૧ ૧ ३८ वचक - वधक ८० १०३ १३० ३ संस्कृत कट्ट रागः संस्कृत एकत्र्य कटु तत्र रागः एकान्यं जैनाचार्य चापरात તિથિ કષાના होता १५२ ૧૯૪ ૧૯૮ २२४ ३०७ जैनाचाय चापरहने તિરકસ કષચેન ६ ૧ ૮ ५ ८ हाता ३०७ पूति पूर्ति " ५८६ हिन्दी ५ ५९४ ६१२ थम खत्तीण से जहा इसको वासुदेव दंतवक्के देव समझना। शील शीतल प्रथम कम्मी जगा कम्मी जणा એટક એટલે કે सस्कृत ગુજરાતી શ્રતની શ્રતની ९३८ ९४ ११ ૧૧૭ ૩ ૧૨૧ ૫ " પિતાવી પિતાની ઘાને ધને , આલે આવેલે Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) પ્રતિપદન આમાં , 170 214 315 315 361 382 431 432 458 465 5 1 9 10 3 1 7 7 4 3 અવે આવ્યા છે. લેઢાના મેટી વાક્ય પ્રતિપાદન આત્મા આવે આવ્યા છે. લેઢાના જાટી વિક્રિય 486 507 મેક્ષ જ્ઞાતાપુત્ર જ્ઞાત પુત્ર શંકતુ શંકાનું હોય છે. મેક્ષ શસ્ત્રોએ શાસ્ત્રોએ નિરદ્ય નિરવદ્ય તવ છે. તેને બદલે વાસુ દેવ સમજના ઉડે અભ્યાસ કર્યો કેવલ જ્ઞાનથી 526 માત્ર પ૨૭ 518 666 જા 572 વિરોધના જળરક્ષણ જળ રાક્ષસ ખુશામત 658 અનુમદન સામરેપમ ખુશામત અમદમ સાગરોપમાં 655