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________________ - सूचकृताङ्गसूत्रे . अन्वयार्थ (से) स वर्द्धमानस्वामी (सागरे बा) सागर इव-स्वयम्भूरमणसमुद्रवत् (पन्नया) प्रज्ञया-बुद्धया (अक्खयः) अक्षयः-स्वयस्थूरमणवत् , अथवा (महोदही वावि) महोदधिः-साया सूरमणालपुद्र इवापि (अणंतपारे) अनन्तपार:-अ. पारप्रज्ञावानित्यर्थः (अपाइले वा) अनाविलो वा-निर्मला, (अकसाई) अकपायी -कपायरहितः (मुक्के) मुक्तः-ज्ञानावरणीयाद्यष्टकसरहितः (सक्केत्र) शक्र इव-इन्द्रवत् (देवाहिवई) देवानामधिपतिः (जुहम) छुपियाज-अविवेजस्वी बर्द्धमानोऽस्तीति ॥८॥ टीका--(से) स भगवान् महावीरः (सागरे३) लागर इव-समुद्रवत् (पन्नया) प्रज्ञया, प्रकर्षण ज्ञायते समस्तोऽपि पदार्थोऽनया इति प्रज्ञा तया प्रज्ञया ज्ञानेन (अक्खय) अक्षय:-क्षयरहितः, ज्ञातव्येऽर्थे जीवाजीवादिरूपे भगवतः प्रज्ञा नक्षीयते, तथा नैव प्रतिहन्यते । ला हि-वदीवुद्धिः केवलज्ञानात्मिका, सा च कालतः साद्य__ अन्वयार्थ-भगवान् बर्द्धमानस्वामी प्रज्ञा से समुद्र के समान अक्षय हैं अर्थात् स्वयंभूरमग समुद्र के समान अप्रतिहत ज्ञान से सम्पन्न हैं अधवा महालागर के जैसे अनन्सपार-अनन्तप्रज्ञाधान हैं। वह निर्मल, निष्कषाय, ज्ञानाचरणीय आदि कर्मों से रहित तथा इन्द्र के समाग देवों के अधिपत्ति और अत्यन्त तेजस्वी हैं ॥८॥ - टीकार्थ- 'से' इत्यादि, वह अभावान् वर्द्धमानस्वानी 'सागरेव' सागर-लालुद्र के समान ‘पन्नया अखए' प्रजाखे अक्षय हैं, प्रकर्षपने से समस्त पदार्थ जिन के द्वारा जाना जाय उले प्रज्ञा कहते हैं-उल प्रज्ञासे क्षयरहित हैं, अर्थात् ज्ञाता-जानने योग्य जीवाजीनादिरूप अर्थ में भगवान का ज्ञान प्रतिहत होता है और न क्षीण होता है यथा. चस्थितस्वरूप में नित्य रहता है। वह भगवान की प्रज्ञा केवलज्ञानरूप है સૂત્રાર્થ–ભગવાન મહાવીર સ્વામી પ્રજ્ઞામાં સમુદ્રના સમાન અક્ષમ્ય હતા, એટલે કે સ્વયંભૂરણ સમુદ્રના સમાન અપ્રતિહત જ્ઞાનથી સંપન્ન હતા. અથવા જેમ મહાસાગર અપાર જલથી યુકત હોય છે, એ જ પ્રમાણે તેઓ અનત જ્ઞાનથી યુક્ત હતા. તેઓ નિર્મળ, નિષ્કષાય, જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોથી રહિત, તથા ઈન્દ્રની જેમ દેવોના અધિપતિ તથા અત્યન્ત सशस्वी ता. ॥ ८॥ ...टा -'ले' त्या सापान वानवासी 'सागरेव' समुद्रनाम 'पन्नया अक्रनए' प्रशाथी अक्षय छ, १५ पाथी संघका महाना - द्वारी જાણી શકાય તેને પ્રજ્ઞા કહેવાય છે. તે પ્રજ્ઞાથી અક્ષય છે. અર્થાત્ જાણવા જેવા જીવાજીવારિરૂપ અધૂમાં ભગવાનનું જ્ઞાન પ્રતિહત થતું નથી તેમ ઓછું થતું નથી. યથાવસ્થિતપણાથી નિત્ય રહે છે. ભગવાનની પ્રજ્ઞા-કેવળ
SR No.009304
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages730
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size46 MB
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