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________________ समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४८९ प्रवर्तित सर्वधर्मातिशायिनो धर्मस्य काश्यपगोत्रो भगवान् महावीरस्वामी नेतेव नेता सर्वजीवानां तादृशाऽनुत्तमधर्मे प्रवर्तनाद् भवतीति भावः ॥७॥ मूलम्-'लें पन्नयाँ अक्खयसागरे वा महोदही वावि अणंतपारे। अणाइले वा अकलाई भिक्खू संकेव देवाहिवई जुइमं ॥८॥ छाया-स प्रज्ञयाऽक्षयसागर इव महोदधिरिवापि अनन्तपारः। ____ अनादिलो वा अपायी भिक्षुर, शक इव देवाधिपति युतिमान् ॥८॥ काश्यपगोत्रीय भगान् महावीर स्वामी हैं, क्योंकि वे समस्त जीवों, को उल अनुत्तम धर्म में प्रवृत्त करते हैं ॥७॥ 'ले पन्नया' इत्यादि। शब्दार्थ-से-स' वह भगवान महावीर स्वामी 'सागरे वा-सागर इव' समुद्र के समान 'पन्नया-प्रज्ञया' बुद्धिले 'अक्खए-अक्षया' अक्षय है 'महोदही यावि-महोदधिरिव' स्वयंभूरमण समुद्र के समान 'अणंत. पारे-अनन्तपारः' अपार प्रज्ञा वाले हैं 'अणाइले वा-अनाविलोचा' जैसे समुद्र का जल निर्मल है उसी प्रकार भगवान् निर्मल प्रज्ञावाले है 'अकसाई-अकषायी' भगवान् कषायों से रहित हैं और 'मुक्के-मुक्तः' ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्मों से रहित हैं 'सक्केष-शकइव' भगवान् इन्द्र के समान' देवाहिवई-देवाधिपतिः' देवताओं के अधिपति हैं 'जुहम-शुतिमान्' तथा अत्यन्त तेजवाले हैं ॥८॥ કાશ્યપ ત્રિીય મહાવીર સ્વામીને સર્વશ્રેષ્ઠ ગણવામાં આવે છે, કારણ કે તેઓ સમસ્ત જેને તે અનુપમ ધર્મમાં પ્રવૃત્ત કરે છે. જે ૭ 'से पन्नया' त्याह शहाथ-'से-स' मगवान महावीर स्वामी 'सागरे वा--सागर इव' समुद्र समान ‘पन्नया-प्रज्ञया' भुद्धिथी 'अक्खए-अक्षयः' अक्षय छे 'महोदहीवावि-महोदधिरिव' स्वयंभूरभाष्य समुद्रना समान 'अणंतपारे-अनन्तपारः' अपार प्रज्ञा पाछे 'अणाइले वा-अनाविलो वा' म समुद्रतुं पा निमः छ तर प्ररे सवान् नि प्रज्ञाशा छ 'अकमाई-अकषायी' भगवान् ४षाये थी २हित छ भने 'मुके-मुक्त' ज्ञानापक्षीय वगेरे भाई अरना था २हित छ 'सक्केव-शक इव' लगवान् छन्द्रना समान 'देवाहिवई-देवाधिपतिः' तामांना अधिपती छे 'जुईमं-द्युतिमान्' तथा अत्यत वाणा छे. ॥८॥ सु० ६१
SR No.009304
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages730
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size46 MB
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