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________________ :-११६ छाया - लिप्तास्तीवाभितापेन उज्झिता असमाहिताः । FE नाऽतिकण्डूयितं श्रेयो अरूपोऽपराध्यति ॥ १३ ॥ - अन्वयार्थ - (तिभाभितावेणं) तीघ्राभितापेन कर्मबन्धनेन (लित्ता) लिप्ता:= उपलिया : ( उज्झिना): उज्झिताः = रद्विवेकरहिताः (असमाहिया) असमाहिता:= शुभाध्यवसाय रहिमाः (थरूपस्त) अरुप त्रास्त्र (अतिकंट्टयं) अतिकण्डूयितं (न सेयं) न श्रेयः यतः (अवरज्झ ) अपराध्यति दोषमुत्पादयतीत्यर्थः ||१३|| टीका--'तिनाभिलावेणं' तीव्रामिसापेन पञ्जीवनिकायोपमर्दनपुरःसरसंपादिताधाकर्मोदिष्ट भोजनेन । तथा मिथ्यादृष्टया साधुनिन्दया च संजातापुनः कहते है- 'लिता तिव्यभिलावेणं' इत्यादि । शब्दार्थ -- 'सियाभितावेण - पीत्रासितापेन' आप लोग तीव्र अभि ताप अर्थात् कर्मबन्ध से 'लिसा-लिप्ताः' उपलिप्त 'उज्झिया - उज्झिताः' सदसद्विवेक से रहित 'असमाहिया - असमाहिताः' शुभ अध्यवसाय से रहित हैं। 'अरुग्रह - अहषः ' - घाव के 'अतिकं अतिकंडुषितम्' अत्यन्त खुजलाना 'न सेयं न भेषः' अच्छा नहीं हैं 'अवरज्ज - अपसंपत्ति' क्योंकि वह कण्डन दोषावह ही है || १३ || - अन्वयार्थ--तुम लोग तीव्रकर्मवन्ध से लिप्स हो सम्यग् विवेक से हीन हो और शुभ अध्यवसाय से रहित हो । घाद को बहुत खुजलाना ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा करने से दोष की उत्पत्ति होती है ॥१३॥ टोकार्थ - - तीव्र कर्मबन्ध से अर्थात् षट्काप की हिंसापूर्वक सम्पा दिन आधाकर्मी एवं उद्दिष्ट आहार का उपभोग करने के कारण तथा है -- 'लित्ता तित्राभिचावेण' ४त्याहि सूत्रकृतागसूत्रे - वजी सूअर शार्थ - 'तिव्बाभितावेणं- तीव्रभित पेन' साथ ही तीव्र अमिताय अर्थात उभ घथी 'कित्ता - लिपाः' पनि 'उझिया - उज्झित्ताः' सद्दविवे४थी रहित भने 'असमाहिया - असमताहिताः शुल अध्यवसायथी रहित छो. 'अरु' 'यस - अरुषः ' वथु-धाने अतिकंडूइयं अतिकण्डूयितम्' अत्यंत भेजवु' 'न सेयं-न श्रेयः' सा३ नथी 'अवरज्जइ - अपराध्यति' प्रेम ते उडूयन દાષાવહુ જ છે. ૫૧૩મા સૂત્રા સાધુએ તે આક્ષેપકર્તાને કહેવુ જોઇએ કે–તમે તીવ્ર ક અન્યથી લિપ્ત છે, સમ્યગ્ વિવેકથી રહિત છે અને શુભ અધ્યવસાયથી પશુ રહિત છે ઘાવને ખડ઼ે ખંજવાળવા તે ઉચિત ન ગણાય, કારણ કે એવું કરવાથી દાષની ઉત્પત્તિ થાય છે. ૫૧૩૫ ટીકા”—છકાયની હિંસાપૂર્વક પ્રાપ્ત આધાકમ, ઉદ્ધિ આદિ દોષયુક્ત આહારને ઉપભેગ કરવાને કારણે તથા મિથ્યાર્દષ્ટિ અને સાધુની નિંદા દ્વારા
SR No.009304
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages730
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size46 MB
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