SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयार्थबोधिनो टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. २ अनुकूलोपसर्गनिरूपणम् ६३ __ अन्वयार्थ:--(नाइसंगेहि) ज्ञातिसगैः-मातापितृप्तम्बन्धैः (विवद्धो) विबद्धः (पिट्टओ) पृष्टतः (परिसप्पंति) परिसर्पन्ति साधोरनुकूलमाचरन्ति स्वजनाः (अवि) अपि (नवगहे) नवग्रहे (हत्थी व) हस्ती इव (सुयगोच्च अदूरए) सूतिगौरिवा दूगा यथा नवपम्ता गौः स्ववत्ससमीपे एव तिष्ठति तथैवतस्य परिवारा एतस्य समीपे एव तिष्ठन्तीति भावः ॥११॥ __ टीका-'नाइसंगेहि ज्ञातिसंगैः, मातापितृ कलत्रमित्रादिस्वजनवगैः। 'विवद्धो' शब्दार्थ-'नाह संगेहि-ज्ञातिसंगैः' माता पिता आदि स्वजनवर्ग के संबंध द्वारा 'विपद्धो-विपद्धः' बंधे हुए साधु के 'पिट्ठो पृष्टतः' पीछे पीछे 'परिसप्पंति-परिसर्पन्ति' उनके स्वजनवर्ग चलते हैं 'अविअपि' और 'नवगहे-नयग्रहे' नवीन पकडे हुए हत्थीव-हस्ती इव' हाथी के समान उसके अनुकूल आचरण करते हैं तथा 'सुयगोच्च अदूरएसूत गौरिचादरगा' नई व्याई हुई गाय जैसे अपने बछडे के पास ही रहती है उसी प्रकार उनका परिवारवर्ग उसके पास ही रहते हैं ॥११॥ _ अन्वयार्थ-मातापिता आदि के संबंधो से बंधे हुए साधु के पीछे पीछे स्वजन चलते हैं और नवीन पडे हुए हाथी के समान उसके अनुकूल व्यवहार करते हैं जैसे नबीन व्याई हुई गाय अपने बछडे के समीप ही रहती है उसी प्रकार वे भी उसी के पास रहते हैं ।११। टीकार्थ--मातापिता कलत्र मित्र आदि स्वजनों के सम्बन्ध से शपथ-'नाइसंगेहि-ज्ञातिसंगै' माता-पिता वगैरे वनपर्गना समा विबद्धो विबद्ध.' पाये। साधुना पिट्ठ प्रो-पृष्ठत.' या या 'परिसप्पति-परिसर्पन्ति' तमन। २१ व्याले छ 'अवि-अपि' भने 'नवगगहे-नवग्रहे' नवा ५४ये 'हत्थीव-हस्ती इव' बाथीनी म भने मनु ण मायर ४२ छ तथा 'सुयगोव्ध अदूरए-सूतगौरिवादूरगा' नवी पीयायल [, ગાય જેમ પિતાના વાછરડાની પાસે જ રહે છે તે જ પ્રકારે તેમને પરિવાર १ तेनी पासे १ २ छ. ॥११॥ , સૂત્રાર્થ_જેવી રીતે નવી વિયાયેલી ગાય પિતાના વાછડાની સમીપમાં જ રહે છે, એ જ પ્રમાણે માતા-પિતા આદિના સંબંધથી બંધાયેલા સાધુની પાછળ પાછળ તેના સંસારી સ્વજને ચાલે છે, ને નવા પકડી લાવેલા હાથીની સાથે જેવો વ્યવહાર કરવામાં આવે છે, એ તેને અનુકૂળ વ્યવહાર તેની સાથે કરે છે. ૧૧ टी-माता-पिता, पत्नी, भित्रमा २४ नाना स यथा पाया
SR No.009304
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages730
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size46 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy