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________________ ... . ....... सूत्रकृताङ्गसूत्रे एकान्तदुःखी वियते (सकम्मुणा विपरियासुवेइ) स्वर्गणा-स्वसुखमिच्छन्नपि विपर्यास 'दुःखमुपैति प्राप्नोनीति ॥११॥ ", टीका--प्राण्युपमई का गसनियत्ताऽऽयुष्मत्त्व संपधार्य सुधर्मस्वामी जीवानु'द्दिश्य कथयति । हे जन्तवो जीवाः भव्यप्राणिनः 'संवुज्झहा' संयुध्यध्वं बोधं प्राप्नुत यूयम् , नहि कुशीलपापण्डिनो लोकाः स्वपरत्राणाय भवन्ति लोकानाम् । 'माणुस्स खेत जाई कुलस्वारोग्गमाउयं वुद्धी। सवणोवग्गह सद्धा संजमो य लोगंमि दुल्लहाई॥ - छाया--मातुज्यं क्षेत्रं जातिः कुलं रूपमारोग्यमायुः बुद्धिः। - __श्रवणावग्रहः श्रद्धा संयमश्च कोके दुर्लभानि ॥१॥ ही कर्मों से विपर्यास को प्राप्त हो रहा है अर्थात् सुख की इच्छा करता हुआ भी दुःख को प्राप्त हो रहा है ॥११॥ टीकार्थ-जीयों का उपमर्दन करने वालों की आयु की अनिघतता का विचार करके लुधर्मा स्वामी संसारी जीवों को उद्देश्यकरके कहते हैं-हे भव्य जीवो ! समझो, बूझो, बोध प्राप्त करो । कुशील एवं पाखण्ड में प्रवृत्त लोग स्व-पर का त्राण (रक्षा) करने में समर्थ नहीं है, अतएव समीचीन (सत्य) धर्म के स्वरूप को समझो। कहा है-'माणुस्स 'खेत्तजाई' इत्यादि। .. मनुष्यस्व आर्यक्षेन, उत्तम जाति, उत्तम कुल, रूप, आरोग्य, दीर्घ आयु, बुद्धि, धर्म का प्रमण, धर्मग्रहण, श्रद्धा और संयम की प्राप्ति होना इस लोक में अति दुर्लभ है ॥१॥ . છે. તે પિતાનાં જ કર્મોનાં ફળ રૂપે વિપરીત દશાને અનુભવ કરી રહ્યો છે એટલે કે સુખની ઈચ્છા કરવા છતાં પણ દુઃખનો જ અનુભવ કરી રહ્યો છે. પા૧૧ -वानु मन (हिंसा) ४२नारन मायुनी मनियमितવાનો વિચાર કરીને, સુધર્મા સ્વામી સંસારી જીને ઉદ્દેશીને આ પ્રમાણે કહે છે-“હે ભય છે ! સમજે, બૂઝ, બોધ પ્રાપ્ત કરે. કુશલ અને પાખંડી લેકે પોતાનું કે પરનું ત્રાણ (રક્ષણ) કરી શકતા નથી, તેથી ધર્મના साया २१३५ने समो. यु' ५५ छे है-'माणुस्सखेत जाई ध्या 'मनुष्यत्व, आय क्षेत्र, उत्तमनति, उत्तमण, ३५, माशय, ही मायु, બુદ્ધિ, ધર્મશ્રવણ, ધગ્રહણ, શ્રદ્ધા અને સંયમની પ્રાપ્તિ થવી તે આ લોકમાં અતિ દુર્લભ છે” ના
SR No.009304
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages730
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size46 MB
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