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________________ = समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ परतीथिकैः पीडोत्पादनम् ३१ जालेन बद्धो निःसरणोपायमनवाप्य तत्रैव जाले म्रियते. तथा प्रवलकामेन परा भूताः केऽपि साधवः सयमानुष्ठानमेव त्यति । यद्वा तादृश संयमानुष्ठाने शिथिला भवंति ॥१३॥ मूलम्-आयदंडसमोयारे मिच्छासंठियमावणा। हरिसप्पओसमावन्ना केइ लूसंतिऽनारिया ॥१४॥ छाया-आत्मदण्डसमाचारा मिथ्यासंस्थितभावना । हर्पद्वेपं समापन्नाः केपि लुपयंत्यनाः ॥१४॥ अन्वयार्थः--(आयदंडसमायारे) आत्मदडसमाचारा=आत्मा दण्डयते उससे बाहर निकलने का उपाय न पाकर उस्ली में मर जाता है, उसी प्रकार प्रपल कान से पराजित होकर कोई कोई साधु संयम का ही त्याग कर देते हैं या संयम में शिथिल पड जाते हैं ॥१३॥ ' शब्दार्थ-'आयदंडसमायारे-आत्मदंडसमाचाराः' जिससे आत्मा कल्याण से भ्रष्ट हो जाता है ऐसा आचार अनुष्ठान करनेवाले 'मिच्छा संठियभावणा-मिथ्यासंस्थितभावना' जिनकी चित्तवृति मिथ्यात्व से व्याप्त हैं अर्थात् हिंसादि में तत्पर है तथा 'हरिसप्पओसमावण्णाहर्षपद्वषमापना। जो राग और द्वेष से युक्त हैं ऐसे 'के ई-केपि कोई 'अणारिया-अनार्याः' अनार्य पुरुष 'लूसन्ति-लूषयन्ति' साधुको पीडा पहुँचाते हैं ॥१४॥ ___ अन्वयार्थ-जिससे आत्मा दण्डित होता है या हित से रहित होता જેવી રીતે જાળમાં ફસાયેલી માછલી તેમાથી છુટવાને માટે વલખાં મારે છે, પણ છુટવાને કેઈ ઉપાય નહીં જડવ થી તેમાં જ મરી જાય છે, એજ પ્રમાણે પ્રબળ કામવાસનાથી પરાજિત થઈને કઈ કઈ કાયર સાધુઓ સંયમને ત્યાગ કરે છે અથવા શિથિલાચારી બની જાય છે. ગાથા ૧૩ शाय-'आयदंडसमायारे-आत्मद डसमाचाराः' नाथी मामा ४क्ष्याथी अट थ य छे, मेवो माया२-1नु11 ७२पावणा 'मिच्छासंठियभावणा-मिथ्यासस्थितभावना भनी चित्तवृत्ति मिथ्यापथी व्याछ अर्थात् हिंसा कोषमा ५२ छ तथा 'हरिसप्पओप्स मावण्णा-हर्षप्रद्वेषमापन्न । रागद्वेषामा छ. . 'के ई-केपि' 5 'अणारिया-अनार्या ' मनाय पुरुष 'लूसंति-लूपयन्ति' साधुन पिडा पहाडे छे. ॥१४। * સૂત્રાર્થ–જે આચારને કારણે આભા દંડિત થાય છે. અથવા આત્મ
SR No.009304
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages730
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size46 MB
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