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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ३ उ. १ परिषहोपसर्गसहनोपदेशः ७
पूर्व दृष्टान्तः प्रोक्तः सम्पति दार्टान्तिकमाह-एवं सेहे वि' इत्यादि । मूलम्-एवं सेहे वि अपुढे भिक्खायरिया अकोविए।
सूरं मण्णइ अप्पाणं जाव लूहं न सेवए ॥३॥ ' छाया--एवं शिष्योऽप्यस्पृष्टो भिक्षाचर्याऽकोविदः ।
___ शूरं मन्यत आत्मानं यावत् रूक्षं न सेवते ॥३॥ अन्वयार्थः-(एवं) एवमनेन प्रकारेण (भिक्खायरिया अकोविए) भिक्षाचर्या कोविदः (अपुढे) अस्पृष्टः परीपहोपसर्गः (सेहे वि) शिष्योपि-अभिनवपत्रजितः (अप्पाण) आत्मानं (मुरं) शूरं चारित्र शूरं (मनइ) मन्यते (जाब) यावत पर्यन्तं (लह) सक्षम् संयम (न सेवए) न सेवते इति ॥३॥
दृष्टान्त कहकर अछ दार्शन्तिक कहते हैं-'एवं सेहे वि' इत्यादि। . शब्दार्थ-एवं-एवम् ' इसी प्रकार 'भिक्खायरिया अकोविए'भिक्षाचर्या कोविदः 'भिक्षाचर्या कि विधि के मर्म को न जानने वाले 'अपुढें-अस्पृष्टः' और परीषहों से जिन को संबन्ध नहीं है ऐसा 'सेहेविशिष्योपि' अभिनव प्रव्रजिन शिष्य भी 'अप्पाणं-आत्मानम्' अपने को 'रं-शरम्' तबतक शूर 'मन्नइ-मन्यते' मानता है 'जाव-यावत' जब तक वह 'लूहं-रुक्षम्' संयमको 'न सेवए-न सेवते' सेवन नहीं करता॥३॥ - अन्वयार्थ-इसी प्रकार भिक्षाचर्या में अनिपुण एवं उपसों से रहित नवदीक्षित साधु अपने को चारित्र में शूर मानता है परन्तु जब तक संयम का सेवन नहीं करता (तभी तक) ॥३॥
હવે સૂત્રકાર દૃષ્ટાનોદ્વારા જે વાતનું પ્રતિપાદન કરવા માગે છે તે (Elelfis) ५४८ ४२ छ.-'एवं सेहे वि.' त्याह
સૂત્રાર્થ-એજ પ્રમાણે ભિક્ષાચર્યામાં અનિપુણ અને પરીષહ તથા ઉપસર્ગોથી રહિત સાધુ પણ પિતાને ચારિત્રની આરાધનામાં શૂર માને છે. પરતુ જકારે પરીષહ અને ઉપસર્ગો આવી પડે છે, ત્યારે તે સંયમન પાલન કરી શકતા નથી. રૂપા
शहाथ-एवं-एवम्' मा प्रमाणे 'भिक्खाचरिया अकोविए-भिक्षाचर्याs कोविद. मायर्यानी विधिन। मम ने नवावाणा 'अपुढे-अस्पृष्टः' भने पशपाथा भने समय नथी मेवा 'सेहेवि-शिष्योपि' अभिनव प्रमानित शिष्य ५ 'अप्पाणं-आत्मानम्' पाताने सूर-शूरम्' त्या सुधी शूरवी२ 'मन्नइ -मन्यते' भान छ. 'जाव-यावत्' जयां सुधात 'लह-रुक्षम्' सयभनुन सेवए -ज सेवते' सेवन, ४२ता नथी. ॥३॥