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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. स. ४ उ. १ स्त्रीपरीपहनिरूपणम् शङ्कायां सूत्रकार आह--'यहवे गिहाई इत्यादि। । मूलम्-बहवे गिहाई अहह मिलीशानं पत्थुया य एंगे। "
धुबसग्गमेव पर्वयंति वाया बीरिय कुसीलाणं ॥१७॥ छाया--बहवो गृहाणि अवहत्य मिश्रीभावं प्रस्तुताश्च एके। ... ध्रुवमार्गमेव प्रवदन्ति बाबा वीर्य कुशीलानाम् ॥१७॥
- अन्वयार्थ:-(वहवे एगे) वहन एके (गिहाई अवहह) गृहाणि अवहत्य परित्यज्य (मिस्सीभावं पत्थुया) मिश्रीभावं प्रस्तुता:-गृहल्यासंचितमाधुमार्ग स्वीकृत्य अंगीकार करके भी कोई स्त्री सम्पर्क करता है ? पिसीने किया है ? कोई करेगा? इसका उत्तर देते हुए सूत्रकार कहते हैं 'बह गिहाई' इत्यादि।
शब्दार्थ--'यहवे एरो-महय एके' बहुतले लोग 'मिहाई अवहट्टगृहाणि अपहत्य घरसे निकल कर अर्थात् प्रवजित होकर भी 'मिस्सी. भावं पत्थुया-मिश्रीभावं प्रस्तुताः' मिश्रमार्ग अर्थात् कुछ गृहस्थ और कुछ साधुके आचारको स्वीकार कर लेते हैं 'धुवागमेव पश्यंति-- ध्रुवमार्गलेध प्रवदन्ति' और वे कहते हैं कि हमने जो मार्गको अनु. ष्ठान किया है वह मार्ग ही मोक्ष का मार्ग है 'बायावीरियं कुसीलाणंवाचा वीर्य कुशीलानाम्' कुशीलों के वचन में ही शूरवीरता है अनु. ष्ठान में नहीं ॥१७॥
अन्वयार्थ--बहुत से लोग गृहों (घरों) का त्याग करके मिश्रभाव को प्राप्त होते हैं। अर्थात् वे गृहस्थ झा और साधु का मिश्रित અંગીકાર કર્યા બાદ પણ કઈ સાધુ સ્ત્રીસંપર્ક કરે છે ખરો? શું કેઈએ કર્યો છે ખરે? શું કઈ કરશે ખરાં ? આ પ્રશ્નનો ઉત્તર આપતા સૂત્રકાર કહે છે કે___'वहवे गिहाइ' त्या:
-'बहदे एगे-बहर एके' था सो 'गिहाई अवहट्ट-गृहाणि अपंहत्य' ३२थी नीजान अर्थात प्रत्रत ५४२ ५ ‘मिस्सीभावं पत्थुया-मिश्रीभावं प्रस्तुता.' मिश्रा अर्थात् ५ १९२५ मने ४४ साधुना सायानी २४२ शो छ, 'धुवमगामेव पवयंति-ध्रुवमार्गमेव प्रवदन्ति' म२ तेन्मे।४ છે કે–અમે જે માર્ગનું અનુષ્ઠાન કર્યું છે, તે માર્ગ જ મોક્ષના માર્ગ છે. 'वायावीरियं कुसीलाणं-वाचावीर्य कुशीलानाम्' शासन क्यामir શુરવીરપણું છે. અનુછાનમાં નહીં. આવા
સૂત્રાર્થ—–ઘણા લેક ગૃહનો ત્યાગ કરીને મિશ્ર વ્યવહારરૂપ મિશ્રીભાવથી યુક્ત થતા હોય છે એટલે કે દીક્ષા ગ્રહણ કર્યા બાદ સાધુ અને ગૃહરથને