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समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ६ उ.१ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४९५ भौम इव ज्वलितो विराजते, मणिमिरोपध्यादिमि यथा भूभागो विराजते तथारत्नादीनां प्रभया अतिशयेन प्रदीप्तो भातीति ॥१२॥ मूलम्-महीइ ममि ठिए णगिंदे, पन्नायते सूरिये सुद्धलेसे।
एवं सिरीए उस भूरिवन्ने, मणोरमे जोएँइ अचिमाली॥१३॥ छाया-मह्यां मध्ये स्थितो नगेन्द्रः, प्रज्ञायते सूर्यशुद्धलेश्यः ।
__ एवं श्रिया तु स भूरिव) मनोरमो द्योतयर्चिमालिः ॥१३॥ अन्वयार्थः- (णगिंदे) नगेन्द्रः-नगाना-पर्वतानामिन्द्रः (महीइमझ मि) मह्यां पृथिव्यां मध्ये (ठिए) स्थितः (मरियसुद्धलेसे) सूर्यशुद्धलेश्य:-आदित्य
होने से भौम की भाति जाज्वल्धमान है। अर्थात् जैसे कोई भूभाग मणियों एवं औषधियां से विराजमान होता है उसी प्रकार
रत्नों आदि की प्रभा से वह अत्यन्त प्रदीप्त रहता है ॥१२॥ - 'महीइ मज्झंमि' इत्यादि।
शब्दार्थ-'नगिंदे-नगेन्द्रः' वह नगेन्द्र पर्वतराज 'महिह मज्झमिमह्या मध्ये' पृथ्वी के मध्य में 'ठिए-स्थितः स्थित है 'सुरियसुद्धलेसेसूर्यशुद्धलेश्यः' वह सूर्य के समान शुद्र कान्तिवाला पन्नायते-प्रज्ञायते' प्रतीत होता है एवं-एवम्' इसी प्रकार 'सिरिए उ-श्रिया तु' वह अपनी शोभासे 'भूरिवन्ने-भूरिवर्ण:' अनेक वर्णवाला और 'मणोरमे-मनोरममनोहर है 'अच्चिमाली-अर्चिमालिः' वह मूर्य के जैसा 'जोयइद्योतयति' सब दिशाओं को प्रकाशित करता हैं ॥१३॥ ; अन्वयार्थ-वह पर्वतराज पृथ्वी के मध्य में स्थित है, सूर्य के ત્યમાન છે. એટલે કે જેવી રીતે કઈ ભૂભાગ મણિએ અને ઔષધિઓથી યુક્ત રહેવાને કારણે ખૂબ જ દેદીપ્યમાન લાગે છે, એજ પ્રમાણે રન આદિની પ્રભાથી યુક્ત હેવાને કારણે સુમેરુ પણ અત્યન્ત દેદીપ્યમાન રહે છે. ૧૨ . 'महीइ मन्झमि' त्या
शा-'नगिंदे-नगेन्द्रः' त तरा०८ 'महिइमज्झमि-मह्यां मध्ये पृथ्वीनीभाभमा 'ठिए-स्थितः' २ छे. 'सुरियसुद्धलेसे-सूर्यशुद्धलेश्यः' ते सूर्य सीमी शुद्ध:तिवाणो 'पनायते-प्रज्ञायते' प्रतीत थाय छे. 'एवं-एवम्' मे रीते 'सिरिए उ-श्रिया तु चातानी माथी 'भूरिवन्ने-भूरिवर्णः' भने पाणी भने 'मणोरमे-मनोरमः' भने। २ छे. 'अच्चिमाली-अर्षिमालिः' ते सूर्य नारेम. 'जोया-द्योतयति' मधी हशमान प्राशित ४२ छे. ॥१३॥ - સૂત્રાર્થ–તે ગિરિરાજ પૃથ્વીની મધ્યમાં આવેલ છે, તે સૂર્યના સમાન,