SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ __- सूअक तास तार्थिन:-अयंयमजीवितार्थिनः पापेनोदरपूरकाः-स्वकीयजीनाय 'पाबाई' पापानिमाणातिपातादीनि 'कम्माई' कर्माणि 'करंनि' कुर्वन्ति, ते इत्थंभूताः जीवाः तीव्रपापोदयवर्तिनः 'घोररूवे' घोररूपे-अत्यन्तभपजन के 'तभिसंधयारे', मिसान्धकारे-बहुलतमोन्धकारे 'तिव्याभितावे' तीव्राभितापे, तीन; अतिसु. दुःसहः खदिरागारमहाराशितापादनंतशुणो अभितापः संतापो यस्मिन् तथाभुते, 'नरए' नरके 'पडंति' पतन्ति, प्राणिनां श्रयदातारोऽज्ञा जीवाः स्वात्महितायः पशुवधादौ प्रवर्त्तमानाः पापकर्म समाचरन्ति, त एव पुरुषाः रस्कृतदुष्कृतकला न्महान्धकारे महादुः खमये नरके पतन्तीति भावः ॥३॥ मूलम्-तिनं तसे पाणिणो थावरे य जे हिलई आयसुहं पंडच्च। जेलूलए होई उदत्तहारीण सिखई लेयवियस्त लिचि ।। - छाया-तीनं सान माणान् स्थावरान् च यो हिंसत्यात्ममुखं प्रतीत्य । यो लूपको भवत्यदत्तहारी न शिक्षते सेवनीयस्य किंचित् ॥४॥ से शुन्य होते हैं, पाप से पेट भरते हैं और अपने जीवन के लिए पापमय कृत्य करते हैं, ऐसे तीव्र पाप के उदयवाले जीव अत्यन्त भयजनक घोर अन्धकारमय तथा तीव्र संतापयाले अर्थात् खदिर (खैर) के अंगारों के बडे ढेर से भी अनन्तगुणित ताप से युक्त नरक में जाते हैं। ___ तात्पर्य यह है कि अन्य प्राणियों को भय उत्पन्न करनेवाले, अज्ञानी अपने हित के लिए पशुवध आदि क्रूर कर्मों में प्रवृत्ति करने वाले जो जीव पापकर्म का आचरण करते हैं वही अपने पाए के प्रभाव से महादुःखमय नरक में उत्पन्न होते हैं ॥३॥ . . કથી રહિત હોય છે, જેઓ પાપકર્મો દ્વારા પિતાને ગુજારો ચલાવતા હોય છે, અને જેઓ પોતાના જીવનને માટે પાપમય કૃત્યે સેવતા હોય છે. એવા તીવ્ર પાપના ઉદયવાળા જી અત્યંત ભયજનક, ઘોર અંધકારમય, તથા તીવ્ર સંતાપયુક્ત-ખેરના અંગારાના મેટા ઢગલા કરતાં પણ અનંતગણ તાપयुत-२मा नय छे. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જે જ પિતાના સુખને માટે પશુવધ આદિ પામકમે કરનારા હોય છે, જેઓ અન્ય જીવોમાં ભય ઉત્પન્ન કરનાર કૂર કર્મો કરે છે, એવા અજ્ઞાની છે તેમના પાપના પ્રભાવથી મહાદુખમય न२३मा पन्त थाय छे. ॥३॥
SR No.009304
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages730
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size46 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy