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________________ afrat टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६१* 'आयगुत्ते' आत्मगुप्तः-अशुभाऽनुष्ठानात् = गुप्तो रक्षित आत्मा येन स आत्मगुप्ता, मनोवाक्कायैर्गुः । ' तसे या' सांथ च शब्दात् स्थावरांव 'दट्ठ' दृष्ट्वा परिज्ञाय पघातकारिणों कि 'पडिसंह रेज्जा' प्रतिमंहरेत् = परित्यजेदित्यर्थः ||२०|| इतः परं स्वयूथिकान कुशलानु देश्य कथयति सूत्रकारः - 'जे धम्म ' इत्यादि । मूलम् - जे धम्मलद्धं विणिंहाय भुंजे वियैडेण साहहु य जे सिणाई । जे धोवई सयईव वेत्थं अह से गांगणिस्स दूरे ॥ २१ ॥ छाया -- यो धर्मषं विनिधाय भुङ्गे विकटेन संहृत्य च यः स्नाति । यो धावति चयति च दस्त्रमयाहुः स नाग्न्यस्य दूरम् ||२१|| विरत, मन वचन काय से अपनी आत्मा को अशुभ अनुष्ठान से गोपन करने वाला त्रस और स्थावर जीवों को जान कर उनका उपघात करने वाली क्रिया का त्याग करें ||२०|| इसके पश्चात् स्वयूधिक कुशीलों को लक्ष्य करके सूत्रकार कहते - 'जे धम्म' इत्यादि । शब्दार्थ - 'जे - घः' जो साधुनामधारी 'धम्मलद्वं धर्मम्' धर्मसे मिला हुआ अर्थात उद्देशक, क्रीत आदि दोपों से रहित आहारका 'विणिहाय-विनिधाय' छोडकर 'भुंजे-भुंक्ते' उत्तम प्रकार का भोजन करता है तथा 'जे-य:' जो साधु 'वियडेण - विकटेन' अचिन्त जलसे भी सभ्यग्ज्ञानथी युक्त, थापना अनुष्ठानोथी विरत (निवृत्त), भने भन, वयन અને કાયાથી પેાતાના આત્માનુ' અશુભ અનુષ્ઠાનથી ગેપન કરનાર (આત્મ ગુપ્ત પુરુષ) ત્રસ અને સ્થાવર જીવાને જાણીને તેમના ઉપઘાત (હિ*સા) કર નારી ક્રિયાઓના ત્યાગ કરે, ા૨૦ના હવે સૂત્રકાર સ્વયૂથિક કુશીલાને અનુલક્ષીને આ પ્રમાણે ઉપદેશ આપે छे- ' जे धम्म ' त्याहि - शब्दार्थ – 'जे - ये' ? साधु नाम धारीओ 'धम्मलद्ध - धर्मलब्धम्' धर्भथी भणेसा अर्थात् उद्देश, जीत, विगेरे होषो विनाना भाडारने 'विणिहायविनिधाय' छोडीने 'भुंजे भुंक्ते' उत्तम प्रहारनुं लोभन उरे छे, तथा 'जे-ये ' ने साधु 'वियडेण - विकटेन' अत्ति थी 'साह - संहृत्य' म'गोलु
SR No.009304
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages730
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size46 MB
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