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________________ समार्थयोधिनी टीका प्र. थु. अ. ६ उ. १ भगवतो महावीरस्य गुणवर्णनम् ४८६ अन्वयार्थ:- (से) स मेरुः (भे पुट्टे) नमसि स्पृष्टः - नभसि - आकाशे लग्नों व्याप्तः (भूमिवट्टिए) भूम्यवस्थितः - भूमिमध्ये स्थितः (चिह्न) तिष्ठति स्थितो' विद्यते, (जं) यं - मेरुम् (मूरिया) सूर्याः- आदित्या ज्योतिष्काः (अणु परिवहति) अनुपरिवर्त्तयन्ति - परिभ्रमन्ति, स मेरुः (हेमवन्ने) हेमवर्ण: - वर्णेन सुवर्णसदृशः, ( बहुनंदणे य) बहुनन्दनश्च - अनेकानन्दवनयुक्तः (जंसि) यस्मिन् मेरौ (महिंदा ) महेन्द्रा देश: (र वेदयंति) रतिमानन्दं वेदयन्ति - अनुभवन्तीति ॥११॥ シリー " टीका - (से) स मेरुर्वतः (णभे) नमसि - आकाशे (पुढे) स्पृष्टः - नभःस्पर्शी औन्नत्यात नमो गच्छतीतिवत् नभो व्याप्य तिष्ठति । तथा - ( यूसिव हिप) भूम्यवस्थितः- भूर्ति चाऽवगाद्य स्थितः ऊर्ध्वऽवस्तिर्यगलोकसंस्पर्शी सुमेरुः । (जं) स्थित रहता है 'जं- चं' जो मेरु को 'सूरिया- सूर्या' आदित्य 'अणुपरिष्ट्टयंति - अनुपरिवर्त्तयन्ति' परिक्रमा करते रहते हैं 'हेमवन्ने हेम् वर्णः' वह सुवर्ण के समान वर्णवाला ' बहुलंदने - बहुनन्दनश्च' अनेक नन्दन वनों से युक्त है 'जंसि घस्मिन्' जिस मेरु पर 'महिंदा - महेन्द्रा !" महेन्द्रलोक 'रति-वेदयंति रतिं वेदयन्ति' आनन्द का अनुभव करते हैं ॥११॥ t - अन्वयार्थ - चह मेरु पर्वत आकाश को स्पर्श करता है और भूमि के भीतर रहा हुआ है। सूर्य आदि ज्योतिष्क उसकी परिक्रमा करते रहते हैं। वह स्वर्णवर्णवाला है, अनेक उद्यानों से युक्त है और महेन्द्र, देव वहाँ रतिका अनुभव करते हैं ॥११॥ 7 टीकार्थ- सुमेरु पर्वत आकाशस्पर्शी है - ऊँचाई होने के करण आकाश को व्याप्त करके स्थित है और पृथ्वी की अवगाहना करके भी भे३ने 'सूरिया- सूर्याः' सूर्ये 'अणुपरिवट्टति - अनुपरिवर्तयन्ति' अहक्षिणा पुरता २ छे 'हेमवण्णे- हेमवर्ण:' ते सोना सरीभाव वाणी 'बहुन 'दने य-बहुनन्दन मनेननवनाथयुक्त छे. 'जसि यस्मिन्' ? भे३ ५२' 'महिंदा - महेन्द्राः महेन्द्र 'रति ं वेदयंति' - रति वेदयन्ति' मन धानुभव उरता रहे छे ।११ સૂત્રા—તે મેરુ પર્યંત આકાશને સ્પશીને રહેલ છે. અને ભૂમિના અંદરના ભાગમાં પશુ ફેલાયેલે છે. સૂર્ય આદિ જયાતિષિક દેવે તેની પ્રદક્ષિણા કરે છે તે સુવના જેવા વવાળા, અનેક ઉદ્યાનાથી યુક્ત અને મહેન્દ્રાદિ દેવાની રતિક્રીડાનુ સ્થાન છે। ૧૧ । ટીકા—મેરુ પર્વત આકાશસ્પર્શી ઘણા ઊંચા હોવાને કારણે તે આકાશ સુધી વ્યાપેàા છે અને તેના ૧૦૦૦ એક હજાર ચેાજન પ્રમાણ ભાગ ४० ६२ 1
SR No.009304
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages730
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size46 MB
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