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________________ ४५४ सूत्रताका मूलम्-'पुच्छिस्सु णं समणां माहणां च, अगारिणो यो परतिस्थिया य । से के गंतहियं धम्मैमाहूँ, अणेलिसं साहु समिक्खयाए' ॥१॥ छाया-अमाक्षुः खलु श्रमणा ब्रह्मगाश्च, अगारिणो ये परतीर्यिकाश्च । __ स क एकान्तहितं धर्ममाह, अनीदृशं साधुसमीक्षया ॥१॥ अन्वयार्थ (समणा) श्रमणा यतयः (य) च पुनः (माहणा) ब्राह्मणाः (य) च पुनः (अगारिणों) अगारिणः क्षत्रियादयः, ये (परतित्थिया य) परतीथिकाच शाक्यादयः (पुच्छिस्ठ) अप्राक्षुः पृष्टवन्तः (से के इ) सः कः (णेगंतहिय) एकान्त. शब्दार्थ-लमणा-श्रमणाः। श्रमण 'य माहणा-च ब्राहमणाः 'य-च' और 'अगारिणो-अगारिणः । क्षत्रिय आदि 'परतिधिया घ-परतीर्थिकाश्च' और परतीथिक शाश्यादिने 'पुच्छिस्सु-अप्राक्षुः। पूछा कि 'से केह-सा का वह कौन है ? जिसने 'णेगंतहियं-एकान्तहितम् केवल हित. रूप 'अणेलिसं-अनीदृशम्' अनुपम 'धम्म-धर्म' धर्म 'लालुसभिक्खयाए -साधुसमीक्षया' सम्यक् प्रकार से विचार कर 'आहु-आह' कहा है ॥१॥ ____ अन्वयार्थ-श्रमणों, ब्राह्मणों, गृहस्थों और शाक्य आदि परती. -र्थिकों ने पूछा कि वह कौन है जिसने एकान्त हितकर और अनुपम धर्म को जो दुर्गति में गिरते हुए जीवों को धारण करता है-घचाता है और शुभ स्थान में धारण कराता अर्थात् पहुँचाता है-सम्पन्न प्रकार से जान श -समणः-श्रमणाः' श्रर 'य माहणा-च ब्रह्मणाः' मने ब्राह्मण 'य-च' भने, 'अगारिणो-अगारिणः' क्षत्रिय कोरे ‘परतित्थिया य-परतीथिकाच' अने. ५२तशय विषये 'पुच्छिस्तु-अप्राक्षुः पूछ्यु 'से केइ-सः क' ते आष्य छ १ २ ‘णेतहिय-एकान्तहितम्' 30 हित३५ 'अणेलिसं-अनीशम्' अनुपम 'धम्म-धर्मम्' धर्म 'साहु समीक्खयाए-साधु समीक्षया' अभ्यः प्रथा वियाशन 'आहु-आहे' डर छे. ॥१॥ અન્વયાર્થ_શ્રમ, બ્રાહ્મણ, ગૃહસ્થ અને શાકય આદિ પરતીર્થિકોએ સુધમાં સ્વામીને આ પ્રકારને પ્રશ્ન પૂછયે-દુર્ગતિમાં પડતાં જેને બચાવીને શુભસ્થાનમાં પહોંચાડનાર, એકાન્ત હિતકર અને અનુપમ ધર્મને સમ્યક મકારે જાણીને તેની પ્રરૂપણ કરનાર તીર્થંકર મહાવીર પ્રભુ કેવાં હતા?”
SR No.009304
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages730
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size46 MB
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