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________________ .. सूत्रकृतागस्त्रे मास्ते स्व स्वस्थानं स्वायुपः क्षयेऽश्यं त्यक्ष्यन्ति । तया-योऽययं मोहाधायको बन्धुवान्धः सह संवासो मन्येऽनित्य एव सोऽपीति विभावनीयो बुद्धिमताऽनित्ये "मति न विधेया कदापि, अपि तु मोक्षार्थमेव प्रयत्नो विधेय इति भावः ॥१२॥ मूलम्-एवमादाय मेहावी अपणो गिर्द्धि मुद्धरे। आरियं उवसंपज्जे सवधम्म मकोवियं ॥१३॥ छाया--एवमादाय मेधावी आत्मनो गृद्धि मुद्धरेत् । - आर्यमुपसंपद्येत सर्वधर्मेरकोपितम् ॥१३॥ *क्षय होने पर अवश्य ही उस स्थान का परित्याग करते हैं। इसके अतिरिक्त बन्धु बान्धवों के साथ जो संवास है, वह भी सदा बना 'रहने वाला नहीं-उसे भी किसी समय त्यागना ही पड़ता है। ऐसा विचार कर वुिद्धमान् पुरुष अनित्य पदार्थों में अपनी धुद्धि न लगावे, 'परन्तु मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करे ॥१२॥ ___ 'एवमादाय मेहाची' इत्यादि। ' शब्दार्थ-'मेहावी-सेधावी' बुद्धिमान् पुरुष एकलादाय-एकलादाय' सत्र स्थान अनित्य है ऐसा विचार करके 'अपणो निद्धि सुखरे-आत्मनः गृद्धिम् उद्धरेन्' अपनी मलत्य बुद्धि को हटादे धम्मनकोवियं-सर्व. धर्मेरकोपितम्' सब कुनीक्षिक धर्मों से दूषित नहीं किये हुए 'आरिथं - उपसंपज्जे-आर्यम् उपसंपत' इस आयर्थ धर्म को ग्रहण करें ॥१३॥ - તે સ્થાનને ત્યાગ કરવો જ પડે છે. તે સિવાય બધુજન કે જ્ઞાતિજન સાથે - સંવાસ છે, તે પણ સદાકાળ બન્યો રહેતો નથી. તેનો પણ કઈ સમયે ત્યાગ કરે જ પડે છે. આ પ્રમાણેને વિચાર કરીને બુદ્ધિશાળી પુરૂષે અનિત્ય , પદાર્થોમાં પોતાની બુદ્ધિ જોડવી ન જોઈએ. પરંતુ મોક્ષ માટે જ પ્રયત્ન ., २ता २९ ॥१२॥ ! - .... 'एवमादाय मेहावी' या Avatथ-'मेहावी-मेधासी' मुद्धिमान पु३५ 'एमादाय-एवमादाय' या " स्थानी अनित्य छ तम विया२ प्रशने 'अप्पणो 'गिद्विमुद्धरे-आत्मनः गृद्धिम् उद्धरेत्' चातानी भमभुद्धिने टावी हे 'सव्वधरममकोवियं-सर्वधमैं को. पितम्' ५४ ४ि यथा इषित नही ४३६। 'आरिच उपसंपज्जेआर्यम् उपसंपद्येत' मा भाय ना २' ४३ ॥१॥
SR No.009304
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages730
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size46 MB
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