Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रकृताङ्गसूत्रे.
अन्वयार्थ:---(असंजया) असंयताः - असंयमिनः (मणसा वचसा चैव कायसा) मनसा वचसा चैव कायेन कृतकारितानुमतिभिः (अंतसो ) अन्तशः - कायेनाश जयपि मनसैव पापानुष्ठानानुमत्या (आरओ परओ वावि) आरत :- परतो वापि - इहलोक परलोकार्थम् (दुहा वि) द्विवापि स्वयं करणेन परकारणेन च जीविका भवन्तीति ॥ ६ ॥ ॥
टीका- 'असंजया' असंपता सनोवाक्कायैः पुरुषाः परवञ्चकाः । 'मणसा' मनसा' ' वयसा वचसा 'चेन'' च एव, तथा - 'सा' कायेन - शरीरेण, अनेन शरीरवाङ्मनसां प्रवर्त्तने कारणत्वं दर्शितम् । 'अंवसो' अन्तशः - शरीरादि-भिरसमा अपि चिन्तनमात्रेणैव परघातमिच्छन्ति कालशौक रिकवत् 'आरओ''अतसो - अन्तशः' कायाकी शक्ति न होने पर मनसे ही 'आरओ परओ वावि- - आरतः परतः वाषि' इसलोक एवं परलोक दोनों के लिये 'दुहा वि-द्विधापि' करने और कराने दोनों प्रकार से जीवों का घात कराते हैं | ६||
अन्वयार्थ - असंयमी पुरुष मन से, वचन से और काय से, तथाकृतं, कारित और अनुमोदन से एवं काय से असमर्थ होने पर मन से ही पाप के अनुष्ठान की अनुमोदना करके, इस लोक और परलोक दोनों के लिए स्वयं करने और कराने से दोनों प्रकार से जीवों के विरोधक होते हैं ||६||
टीकार्य — जो पुरुष मन, वचन और काय से असंगमी हैं- परवंचक (दूसरे को ठगने वाले) हैं, वे मन, वचन, काय से और शरीर से असमर्थ होने पर चिन्तन मात्र से दूसरों के घात की इच्छा करते हैं । 'आरओ परओवा वि
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असंयत अर्थात् हायनी शक्ती न ह वांछतां भनधी 'आरतः परतः वापि’'असे ४ मने ५ ते ४ मे मनेसेो भाटे 'दुहावि द्विधापि '' ठक्षु' भने· उरांवंदुळ ं मन्ने प्रारथी / बेनी घात उरावे छे. ॥६॥
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-मन्वयार्थ असयंभी पु३षा मनथी, दयनथी ने अयाथी तथा तं भक्तिं श्यमे अनुर्भे-दैनथी तथा यथी असमर्थ - अशक्त थाय त्यारे' भनी थापन अनुष्ठानेनी अनुसेन ने "आसो भने परोउ मन्ने भाटेપોતે કરવા અને‘“કરાવવાથી અર્થાત્ એ પ્રક રથી યાની વિરાધના કરે છે. ur अर्थ में पुरुष भन, वयन,' ने 'अयाथी, असयभी' होर्थ छे ५२
વચક્ર–ખીજાને ઠગવાવાળા હેપ્પ છે, તે મન વચન અને કાયાથી અને શરીરથી અશક્ત થાય ત્યારે વિચાર માત્રથી ખીજાઓના વાતની ઇચ્છા કરે છે.