Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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समयार्थचोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. ७ उ.१ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् ६४ छाया-अपि हुन्यमानः फलकायतष्टः समागम कांक्षत्यन्तकस्य ।
निधूय कर्म न प्रपञ्च पैति अक्षक्षय इव शकटमिति ब्रवीमि ॥३०॥ अन्वयार्थ:-(अविहम्ममाणे) साधुः अपि हन्यमानः उपसर्गादिभिः पीडयमानोपि (फलगावतही) फलकाववष्ट:-फलकवत् तन्कृत (अंतकस्त समागमं
और कहते हैं-'अवि हम्ममाणे इत्यादि।
शब्दार्थ--'अविलम्ममाणे-अपि हन्धमान; साधु परीपछ एवं उप सों के छारा पीडा पाता हुमा भी उल्ले सहन करे 'फलगावतही-फल कावष्ट:' जैसे काष्ठ की पटिया दोनों तरफले छीली जाती हुई रागद्वेष नहीं करती है उसीप्रकार बाह्य एवं अभ्यन्तर तपले कष्ट पाता हुआ श्री रामद्वेष न्ह कारे 'अंतर समागमं खति-अन्तकस्य समागम कांक्षति' कृत्यु के आनेकी प्रतीक्षा करे 'मिधूय क.म्म-कर्म निळू थ' इस प्रकार से कर्म को दूर कर साधु 'ण पवंचुवेह-न प्रपञ्चम् उपैति' जन्म, मरण और रोग, शोक आदि को प्राप्त नहीं करता है 'अक्खक्खए वा सगडं-अक्षक्षणे शकटमिव' जसे अक्ष (धुर) के टूट जाने से गाडी आगे नहीं चलती है 'त्तिवेमि-इति ब्रवीमि' ऐसा मैं कहता हूं ॥३०॥ __ अन्वयार्थ--उपलगों द्वारा पीड़ित होने पर भी साधु काष्ठ के पटिये के जैसे रागद्वेष न करे, किन्नु समभाव ले मृत्यु की प्रतीक्षा करे ।
सूत्रा२ साधुसोने ४ छ-'अवि हम्ममाणे' त्याह
शहाथ-'अवि हम्ममाणे-अपि हन्यमानः' साधु परीष मन पसी द्वारा पी। पामीन ५ तेने सहन रे ‘फलगावती-फलकावतष्टः' म લાકડાના પાટિયા બને બાજુથી છેલાવા છતાં પણ રાગદ્વેષ કરતા નથી એજ પ્રમાણે બાહા અને અત્યંતર તપથી કષ્ટ પામીને પણ રાગદ્વેષ ન કરે 'अंतकस्स समागमं कंखति-अंतकस्य समागमं कांक्षति' ५२'तु भात यावानी राई से णिधूय कम्म-कर्म निर्धू य' २३ तथा भने २ ४शन साधु 'ण पवंचुवेइ-न प्रपञ्चम् उपे ते' H, भ२६ मन राग, श, विगैरने प्राप्त ४२ता नथी 'अक्खक्खए वा सगडं-अक्षक्षये शकट मिव' म सक्ष हेता घेसरानी तूट थी गाडी मागण यासी २४ती नथी. 'त्तिवेमि-इति ब्रवीमि' એ પ્રમાણે હું કહું છું ૩૦
સૂત્રાર્થ—-ઉપસર્ગો દ્વારા પીડિત થવાને પ્રસંગ આવી પડે, તે પણ સાધુએ કાષ્ટના પાટિયાની જેમ રાગદ્વેષ કર જોઈએ નહીં, પરંતુ સમભા.
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