Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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समयार्थयोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ७ उ. १ कुशीलवतां दोषनिरूपणम् १६९ मूलम्-पुडबी वि जीवा आऊ वि जीवा, पाणों य संपाइम संपेयति।।
संपर्श कटू समस्लिया य एंए देहे अगणि समारभंते॥७॥ छाया-पृथिव्यपि जीवा आयोपि जीयाः प्राणाश्च संपातिमाः संपतन्ति ।'
____ संस्वेदजाः काष्ठममाश्रिवाच एतान् दहेदग्नि समारभमाणः ।। अन्वयार्थः- (पुढवी वि गीवा) पृथिवी फुलक्षणा साऽपि जीवाः (आऊ वि जी) आपः द्रवलक्षणास्ता अपि जीवाः (संजाप्रपाणा य संपति) संपातिमा शलभादयध प्राणाः सन्ति अग्नी (संसे यया) स्वेदना:-यू कादयः (य कद्र 'पुढची वि जीया'
शब्दार्थ-'पुढवी वि जीवा-पृषिव्यपि जीवा' पृथिवी भी जीव है 'आऊ वि जीवा-आपोऽपि जीवाः' जल भी जीव 'संपाइल पाणा य संपयंति-संपातिमाः प्राणा: संपतन्ति तथालपातिम जीव अर्थात पतंग आदि अग्नि में एडकर सरते हैं 'संयया-संस्वेदज्जा' संस्वेदज अर्थात् यूकादि प्राणी 'य कसमसलया-काष्ठसमाश्रिताः' तथा काष्ठ में रहने वाले जीव 'अगणि समारभंते-अग्नि समारभषाण' अग्नि कायको आरम्भ करनेवाला पुरुष 'एए दहे-एतान् दहेत्' इन जीवों को जलाता है ॥७॥ * ' अन्वयार्थ-पृथ्वी भी जीव है अप्काय भी जीव है और पतंग संपातिम भी जीव अग्नि में पड़ जाते हैं। संस्वेदज जीव तथा जो
___ "पुढवी वि जीवा'
शहाथ-'पुढवी वि जीवा-पृथिव्यपि जीवाः' पृथ्वी पर प.छे, 'आऊंधि जीवा-आपोऽपि जीवाः' ४१ ५५] १ छे. 'संपाइमपाणा य सपयंति-सपातिमाः प्राणाः सपतन्ति तथा सातिम ७१ अर्थात् ५त विभिभी पडी भरे . छ. , 'संयया-सस्वेदजाः' सस्व०४ अर्थात् विगेरे आणी य कसमस्सिया-च काष्ठसमाश्रिताः' तथा मा २९वावा आणि समारभते-अग्नि समारभमाण.' माया सभार ४२वावाणी ५३५, एए हे -एतान् दहेत्' मा ७वाने माणे छे. ॥७॥
सूत्राय-५वी ५५'७५ छ, म५४ाय ५५ ७१ छ, मन पतगिया આદિ સ પાતિમ (ઉડતાં) જીવ પણ અગ્નિમાં પડી જાય છે અગ્નિની વિધના કરનારા લેકે આ સઘળા અને બાળી નાખીને તેમની હિંસા કરે
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