Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
११८
'सूत्रकृतसूत्रे
पुनरप्याह - ' तत्तेग' इत्यादि । मूलम् - ततेर्णे अणुसिद्धा ते अपडिन्नेन जाणंया । र्ण एस जियएं मैग्गे अससिक्ख वइ किईं ॥ १४ ॥ छाया -- तत्वेन अनुशिष्टास्ते अप्रतिज्ञेन जानता ।
न एप नियतो साsसमीक्ष्य वाक् कृतिः ॥ १४ ॥
अन्वयार्थ - - (अपडिनेण) अप्रतिज्ञेन रागद्वेषरहितेन ( जाणया) जानता हेयोपादेयपरिच्छेद केन (ते) तेऽन्यदर्शनावलंविनः (वज्रेण अणुसिद्धा) तत्त्वेनानुका भी त्याग कर देना श्रेयस्कर नहीं है, किन्तु व्रण (घाव) का खुजलाने के समान दोषजनक ही है ||१३||
और भी कहते हैं- 'तत' इत्यादि ।
शब्दार्थ - ' अपडिन्नेन - अप्रतिज्ञेन' राग द्वेष से रहित ऐसे तथा 'जायणा - जानता' जो हेन एवं उपादेय पदार्थों को जानता हैं यह साधु पुरुष 'ते-ते' अन्य दर्शन वालों को 'तत्ते अणुसिट्टा-तत्वेनानुशिष्टाः' यथावस्थित अर्थ की शिक्षा देते हैं कि 'एसमग्गे - एषो मार्गो' आप लोगों ने जिस मार्ग का अनुसरण किया है वह मार्ग 'ण निधए-न नियतः ' युक्तियुक्त नहीं हैं 'वई - वाकू' तथा आप ने जो सम्यक दृष्टि साधुओं के प्रति आक्षेप वचन कहा है वह भी 'असमिक्a - असमीक्ष्य' विना विचारे ही कहा है 'किह-कृतिः' तथा आप लोग जो कार्य करते हैं भी विवेकशून्य है ॥ १४॥
वह
अन्वयार्थ - - रागद्वेष से रहित तथा हेय और उपादेय का ज्ञाता કર્યા વિના સચમનાં ઉપકરણેાને-પાત્ર આદિના પશુ ત્યાગ કરવા શ્રેયસ્કર નથી, પશુ ણુને (ગુમડને) ખજવાળવા સમાન દોષજનક છે. ગાથા ૧૩ા वजी सूत्रभर हे छे – 'तत्ते' इत्याि
शार्थ' - 'अपडिन्नेन - अप्रतिज्ञेन' रागद्वेषथी रहित सेवा तथा 'जायणाનારીક' જે હેય અને ઉપાદેય પદાર્થાને જાણે છે, આ સાધુપુરુષ તે તે’ બીજા अन्य हर्शनवाणामाने 'तत्तेण अणुसिट्ठा - तत्वेनानुशिष्टाः' यथावस्थित अर्थनी शिक्षा हे छे है 'एस मगे- एषो माग' या सोये ? भार्ग अनुसरणु यु छेते भार्ग' 'ण नियए-न नियत' युक्तियुक्त' नथी, 'वई - वाक्' वयन डेल हे ते पशु 'असमिक्ख - असमीक्ष्य' वगर वियायु उद्धुं छे 'किइ - कृति ' તથા આપ લેકે જે કા` કરા છે તે પણ વિવેક શૂન્ય છે. ૫૧૪ા
સૂત્રા —રાગદ્વેષથી રહિત અને હેય તથા ઉપાદેયના જાણકાર મુનિએએ