Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ५ उ.१ नारकीयवेदनानिरूपणम् ३८५' मूलम्--अप्पेण अप्पं इह वचइत्ता भवाहमे पुवसते सहस्से।
चिट्ठति तथा बहुकूरकम्मा, जैहा कडं कम्म तेहासिभा।२६। __छाया--आत्मनात्मानमिइ वंचयित्वा भवाधमान् पूर्व शतसहस्रशः । - तिष्ठन्ति तत्र बहुक्रूरकर्माणो यथाकृतं कर्म तथाऽस्य भारः ॥२६॥
अन्वयार्थः--(इह) इहलोके (अप्पेण) आत्मना स्वेनैव (अप्पं) आत्मानं स्वं (वंचइत्ता) यंचयित्वा (पुवसते सहस्से) पूर्व शतसहस्रशः (भवाइमे) भवाधमात् मत्स्यवन्धलुब्धकमवान् प्राप्य । (बहुकूरकम्मा) वहुक्रूरकर्माणः (दस्य) तत्र नरके . 'अप्पेण' इत्यादि।
. शब्दार्थ-'इन-इह हम मनुष्य भव में 'अप्पेण-आत्मना' अपने आप ही 'अपं-आन्मानम्' अपने को 'वंचइत्ता-पंचयित्वा' वंचित करके 'पुबलते सहस्से-पूर्व शतसहस्रशः' पूर्वजन्म में सैकडो और: हजारों बार 'भवाहमे-मवाधमान्' लुब्धक आदि अधम भवों को प्राप्त करके 'यहुकूरकम्मा-बहुकरकर्माण' पहुकरकर्मी जीव 'तत्थ-तन्त्र' उस नरक में "चिटुंति-तिष्ठन्ति' रहते हैं 'जहाकडं कम्म- यथाकृतं कर्म पूर्व जन्म में जैसा कर्म जिलने किया है 'तहासि भारे-तथाऽस्य भारः' उसके अनुसार ही उसे दुःख प्राप्त होता है ।२६॥
अन्वयार्थ-इस मनुष्यभव में अथवा मनुष्य लोक में जो अपने आप की वंचना (ठगना) करते हैं, वे पहले सैकड़ों और हजारों बार लुब्धक (शिकारी) आदि के अधम भवों को प्राप्त करते हैं, फिर वे
'अप्पेणं' त्याह'शहाथ-'इह-इह' मा भनुष्यममा 'अप्पेण-आत्मना' यात 'अपंआत्मानम्' घोताने 'वचइत्ता-वचयित्वा' छेतरीन 'पुव्वसते सहरसे-पूर्व शतमहबशः' पूर्वममा से। भने नरे। पा२ 'भवाहमे-भवाधमात्' दुग्ध वगैरे अधमलने प्राप्त श२ 'बहुकूरकम्मा-बहुक्रूरकर्माणः' म४२ ४भी:७१ 'तत्थ-तत्र' से न२४मा 'चिटुंति-तिष्ठति' हे छे. 'जही कडे कम्मयथाकृत कर्म' पूर्वमा २म या छ. 'तहासि भारे-तथाऽस्य भारः तेना अनुसार ४ ते ५ प्राप्त थाय छे. ॥२६ ...
સૂત્રાર્થ–આ મનુષ્યભવમાં અથવા આ લેકમાં જેઓ આત્મવંચના પિતાના આત્માને છેતરવાની પ્રવૃત્તિ) કરે છે તેઓ પહેલાં તે સેંકટે અથવા હજારે વાર શિકારી આદિ અધમ જી રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. ત્યાર
सू०४९