Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ उ.३ वादपराजितान्यतीर्थिकधृष्टताप्र० १२२ मूलम् -रागंदोलाभिभूयप्पा मिच्छतेण अभिदुता। "
आउस्ले सरणं जति टंकणा इंई ५०अयं ॥१८॥ * छाया--रागद्वेषाभिभूतात्मानः मिथ्यात्वेन अभिगुनाः।
आक्रोशान् शरणं यान्ति टंकणा इव एवंम् ॥१८॥ 'अन्वयार्थ:-(रागदोसामियप्पा) रागद्वेषाभिभूतात्मानः येषामात्मानो रांगडेपाभ्यामाच्छादिताः (मिक उत्तेण अभिदुना) मिथ्यात्वेनाभिद्रुताः विपरीत . "एवं बहुगाचि मूढा" इत्यादि।
इसी प्रकार बहुसंख्यक श्री मूह पुरुष प्रमाणभूत नहीं होते जो संसारगमन में वक्रगति को तथा बन्ध और मोक्ष की गति को नहीं जानते है ॥४॥१७॥ . शब्दार्थ--'रागदोसाभिभूयप्पा-रागद्वेषाभिभूतात्मानः' राग औरदेष से जिनका आत्मा छिपा हुआ है ऐसे तथा 'मिच्छत्तण अभिदता' मिथ्यात्वेन अभिद्रताः' मिथ्यात्व से भरे हुए अन्यतीर्थी-'आउसेआक्रोशान्' शास्त्रार्थ से पराजित होने पर असा प्रवचनरूप गाली आदि का 'सरणं जति-शरणं यान्ति' आश्रय ग्रहण करते हैं 'टंकणा-टडणां' पहाड़ में रहने वाली मलेच्छ जाती के लोग युद्ध में हार जाने पर 'पव्वयं इव-पर्वतम् इच' जैले पत का आश्रय लेते हैं ॥१८॥ ___ अन्वयार्थ-जो राग और द्वेष से युक्त हैं, मिथ्यात्व से व्याप्त है. वे बाद में पराजित होकर असभ्य भाषणरूप आक्रोश (क्रोध) की ... 'एव बहुगावि मुढा' या
એજ પ્રમાણે જે માણસો સંસારમાં પરિભ્રમણ કરાવનાર કર્મબન્ધના સ્વરૂપને જાણતા નથી અને પ્રાપ્તિનો માર્ગ જાણતા નથી એવાં અનેક મૂઢ માણસોનાં વચનને પ્રમાણભૂત માની શકાય નહી (૪) ૧૭૫
Avail:-'रागदासाभिभूयापा-रागद्वेषाभिभूतात्मानः' २॥२॥ मन द्वषथा भनी साना पाये छ वा तथा 'मिच्छत्तेण अभिद्दा-मिथ्यात्वेन " अभिद्रुताः' भिथ्यात्वथा मरे भी अन्य तथा 'आउसे-आक्रोशान्' 'शा यथा ५२रित थवाथी असल्ययन३५ वगेरेना 'सरण जंति-शणयान्ति' माश्रय ४२ 2. 'टंकणा-टकणा' ५९मा २३वावाणी छ
तीना सो युद्धमा डारी तय त्यारे 'पक्यं इव-पर्वतम् इव' २वी रीत પર્વતને આશ્રય લે છે ૧૮
સૂત્રાર્થ –જે લકે રાગ અને દ્વેષથી યુક્ત હોય છે અને મિથ્યાત્વથી ભરેલા હોય છે, તેઓ વાદમાં પરાજિત થવાથી અસભ્ય વચને રૂપ આક્રોશ . सू० १७