Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम्
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मुच्यते, तथा साघुरपि वशमुपगतः पुनर्न तदधिकारान्निवर्त्तते । ततो न विमुच्यते इति भावः ॥ ९ ॥
मूलम् - अहे से तपई पच्छा भोच्या पायसं व विलमिस्। एवं विवेगमादाय वोसो ने दि कप्पए देविष ॥१०॥ छाया - अथ सोऽनुतप्यते पचात् क्त्वा पायसमिव दिषमिश्रम् । एवं विवेकमादाय संवासो नापि कल्पते द्रव्ये ॥१०॥
अन्वयार्थ:-(अह) अय (से) सः - साधुः (पच्छा) पश्चात् (अणुतप्पई ) अनुतप्यते - पावापं करोति (विसमिस्स) निषभिश्रम् (पायसं ) पायसमिव (भोच्चा) नहीं पाता, उसी प्रकार स्त्री के वश में पडा हुआ साधु भी फिर उसके पंजे से नहीं छुट पाता है ॥९॥
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शब्दार्थ-- 'अह - अध' स्त्रीके बरावर्त्ती होने के अनंतर 'से- सः वह साधु 'पच्छा-पश्चात् ' पीछे से 'अणुत पई- अनुतप्यते' पश्चात्ताप करता है 'विसमिस्स - विषमिश्रम्' जैसे विषसे मिला हुआ 'पायलं - पायसम् ' पायस - दूधपाक 'सच्चा सुक्त्वा' खाकर मनुष्य पश्चात्ताप करता है 'एवं - एवम्' इस प्रकार 'विवेगमादाय - विवेकशदाय' विवेक को ग्रहण करके 'दfer - द्रव्यः' मुक्तिगमन के योग्य साधुको उनके साथका संवासो-संवासः' संवास-अर्थात् एकस्थान में रहना 'नवि कप्पए-नापकल्पते' योग्य नहीं है ॥१०॥
अन्वयार्थ -- तदनन्तर वह लाघु पश्चाताप करता है जैसे विषमिfear खाने वाला पश्चात्ताप करता है । इस तथ्य को जानकर मुक्ति के योग्य साधु स्त्रियों के साथ निवास न करे ॥१०॥ થઈ શકતુ નથી, એજ પ્રમાણે ના મેહપાશમાં જકડાયેલેા સાધુ પણ તેના ફદામાંથી છૂટી શકતા નથી, પ્રા
शब्दार्थ –'अह-अथ' स्त्रीने वशथया पछी से-सः' ते साधु 'पच्छा - पश्चात् ' पाछणथी 'अणुतप्पइ-अनुतप्यते' पश्चात्ताय रे छे. 'विस मिस्स - विषमिश्रम् ' म विषथी भणेस 'पायसं - पायसम्' इषा 'सोच्चा-भुक्त्या' थाने मनुष्य पश्चात्ताय १रे छे. ' एवं- एवम् रीते विवेगमादाय - विवेकमादाय' विवेने अनुसरीने 'दविए-द्रव्यः भुति असन खाने योग्य साधुने तेलीनी साधना 'संवासो-संवास.' स'वास अर्थात् ४ स्थानमा रहेवु 'नवि कप्पइ - नापि कल्पते' ચેગ્ય નથી, ૧૦૫
સૂત્રા—જેવી રીતે વિષયુક્ત અન્ન ખાનારને પશ્ચાત્તાપ થાય છે, એજ પ્રમાણે સ્ત્રીના મેહપાશમાં ધાયેલા સાધુને પશ્ચાત્તાપ કરવા પડે છે. આ