Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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मार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. ४ उ. १ स्त्रीपरीषहनिरूपणम्
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मूत्रम् - नो तासु चंक्खु संधेजी नौवि य साहसं समभिजाणे । णो सहियवि विहरेजा एक्सेप्पा सुरक्ओि होई ॥५॥ छाया--न तालु चक्षुः संदध्यात् नापि च साहसं समभिजानीयात् । न सहितोपि विहरेत् एवमात्मा सुरक्षितो भवति ॥५॥
अन्वयार्थः -- (तासु ) तासु aty (era) चक्षुत्र (नो) न ( संघेज्जा ) संदध्यातून संयोजयेद (नोवि य) नापि च (साहसं समभिजाणे ) साहसं समभिः जानीयात् - साहसन कार्यकरणं उत्पार्थनया प्रतिपद्येत नैव (सहियं वि) सहितोपि - तया ( णो विहरेज्जा) नो विरेन्= ग्रामाद्ग्रामान्तरम् ( एवं ) एवमुपरोक्तप्रकारेण (अप्पा) आत्मा - स्वकीयः (सुरक्खियों होइ) सुरक्षितो भवति - असंयमेभ्य इति ॥५॥
पुरुष को चूस लेती हैं । अतएव जो अपना हित चाहता है उसे दूर से ही स्त्रियों का त्याग कर देना उचित है || ४ ||
शब्दार्थ - 'तासु-तासु' उन स्त्रियों पर 'चक्खू - चक्षुः' आंख 'नोसंधेजा - न संद्ध्यात्' न लगावे 'नो विय- नापि च' तथा उनके साथ 'साहसं समभिजाणे - साहसं समभिजानीयात् कुकर्म करने के लिये भी संमति न देवें' 'सहियं वि-सहितोऽपि उनके साथ 'णो विहरेज्जा-नो विहरेत्' ग्राम आदि जाने के लिये विहार न करे 'एवं - एवम्' इस प्रकार 'अप्पा - आत्मा' साधु का आत्मा 'सुरक्खियो होइ - सुरक्षितो भवति' असंयम से सुरक्षित रहता है | ५॥
अन्वयार्थ - साधु स्त्रियों पर दृष्टि न डाले या उनके नेत्र से अपने नेत्र न मिलावें न उसके कहने पर कोई अकार्य करे न उसके साथ.. विहार करे । इसी प्रकार से आत्मा सुरक्षित होता है ||५||
દ્વારા પુરૂષને પેાતાના પાશમાં ક્સ્રાવીને અનુરક્ત બનેલા તે પુરૂષને ચૂસી લે છે—તેના શીલનું સ્ખલન કરાવે છે. તેથી જે કાષ્ઠ પુરૂષ પાતાનુ હિત ચાહતા હોય તેણે સ્ત્રીએથી દૂર જ રહેવું જોઈએ. ૫૪)
शब्दार्थ –'तासु-तासु' मे स्त्रिये ५२ 'चक्खू - चक्षुः' या 'नो संघेज्जा -न संदध्यात्' सगावे नहीं 'नो वि य-ना पिच' तथा तेलीनी साथै 'साहसं सम भिजाणे - बाइस समभिजानीयात् ' ' ४२वानी संभती पन याये 'सहिय वि-सहितोऽवि' तेलीनी साथै 'णो विहरेज्जा - तो विहरेत्' गाभ विगेरे नवा भाटे विहार न ४२वे. 'एव एवम् ' आ रीते 'अप्पा - आत्मा' साधुना आत्मा 'सुरकियो होई - सुरक्षितो भवति' असंयमथी सुरक्षित रहे छे. या
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