Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रकृतागसूत्रे खन्ति । यथा भीरवः संग्रामं प्रविशन्त एव वलयादिकं प्रत्यपेक्षमाणा भवन्ति । एवं मत्रज्यां जिघृक्षवः अलासस्वा मन्दभाग्याः संयमो यदि पालिनो न स्यात्तदा व्याकरणादिकमेव जीवनोपायरया कल्पयिष्याम इति विचारयन्तीति भावः ॥५॥
संप्रति संयममतिपालनशूराणां महापुरुषाणां कीदृशो व्यापारो भवति, तत्र दृष्टान्तं प्रतिपादपति सूत्रकारः-'जे उ संगामकालंमि' इत्यादि । । मूलम्-जे उ लगामकालंकि नाया सूरपुरंगला।
जो ते पिट्ठसुबेहिति किं परं सरणं सिया ॥६॥ छाया--ये तु संग्रामकाले ज्ञाताः शूरपुरोगमाः ।
नो ते पृष्टमुन्प्रेक्षा कि परं मरणं स्यात् ॥६॥ - तात्पर्य यह है कि जैसे भीरू जन संग्राल में पेश करते ही छिपने
का स्थाल खड़ा आदि खोजते हैं, उसी प्रकार दीक्षा अंगीकार करने , वाले लत्यतीन अभागे लोग विचार करते हैं कि यदि मंधन न पाला .. गया तो जीविका निर्वाह के लिधारज यादि वे शान चलाएंगे ||५||
अब सूत्रकार प्रतिपादन करते हैं कि हम का पालन करने में , शूर महापुरुषों का व्यापार किस प्रकार का होता है-- . 'जे उ संगामवालंमि' इत्यादि। ... शब्दार्थ--'उ-तु' परन्तु 'जे-,' जो पुरुष 'नाया-ज्ञाता' जगत्
प्रसिद्ध 'स्लूरधुरंगमा-शरपुरोगमा।' दीरों में अनमण्य हैं । 'ते-ते' वे , पुरुष 'संगालकालंमि-संग्रामकाले युद्ध का समय आने पर 'णो पिट्ट मुवेहंति-नों पृष्ठापेक्षन्हे' आपत्ति से रक्षण के लिए दुर्गादिकों को
આ કથનનો ભાવાર્થ એ છે કે જેવી રીતે ભીરુ માણસે સંગ્રામમાં પ્રવેશ કરતા પહેલાં જ છુપાઈ જવાનાં દુ", ગુફા, ખાઈએ આદિ - સ્થાનોની શોધ કરે છે, એ જ પ્રમાણે દીક્ષા ગ્રહણ કરનારા સત્વહીન લેકે એ વિચાર કરે છે કે જે સંયમનું પાલન નહીં કરી શકાય, તે વ્યાકરણ,
તિષ આદિ જે વિદ્યાઓ પ્રાપ્ત કરાશે તેના દ્વારા જીવનનિર્વાહ તે જરૂર ચલાવી શકાશે. પા
હવે સૂત્રકાર એવું પ્રતિપાદન કરે છે કે સંયમનું પાલન કરવાને માટે शूर, महापुरुषो । प्रयत्न ४३ छ-'जे उ खंगामझालंमि' त्याह
शा -'उ-तु' ५२' 'जे-ये' रे ५३५ 'नाया-ज्ञाताः' गत प्रसिद्ध सूरपुरंगमा-शूर पुरोगमाः' वीमा माय छ 'ते-ते' ते ३१ 'संगामकलमि-सग्रामकाले' युद्धमा समय मापी 43थी 'णो पिट्ठमुवेहंति-नो