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समयार्थवोधिनी टीका प्र. श्र. अ. ३ उ. १ परतीथिकैः पीडोत्पादनम् ३५ सुव्रतमपि अनार्यपरिसरे भ्रान्तम् , अां चोर इति मत्वा कदर्थयन्ति, रज्वा. दिना वध्नन्ति, क्रोधप्रधानकटुवचन भत्स यन्ति चेति ॥१५॥
पुनरप्याह 'तत्थ दंडेग' मित्यादि। मूलम्-तत्थ दंडेग संवीते मुट्टिणा अदु फलेण वा।
नातीणं सरई वाले इत्थी वा कुद्धगामिणी ॥१६॥ छाया-तत्र दण्डेन संवीतो मुष्टिनाऽथ फलेन वा ।
ज्ञातीनां स्मरति बाला स्त्रीवत् क्रुद्धगामिनी ॥१६॥ __ अभिप्राय यह है कि अनार्य लोग देश की सीमा में विहार करने वाले सुव्रत साधु को भी चोर समझकर कष्ट पहुंचाते हैं, रस्सी आदि से बांधते हैं और क्रोधप्रधान कटुक वचन कहकर उसकी भर्सना करते हैं ॥१५॥
पुनः कहते हैं-'तत्थ दंडेन' इत्यादि।
शब्दार्थ--'तत्थ-तत्र' वहां अर्थात् अनार्य क्षेत्रकी सीमा में विचरते हुए उन मुनिको 'दंडेण-दण्डेन' लाठी से 'मुट्टिणा-मुष्टिना' मुक्कासे अदुवा-अथवा' अथवा 'फलेण-फलेन' फलसे 'संबीते-संवीतः' ताडित किया हुआ 'घाले बालः' अज्ञानी पुरुष 'कुद्धगामिणी क्रुद्धगामिनी' क्रोधित होकर घरसे निकलकर भागने वाली इत्थीव-स्त्रीव' स्त्री के जैसे 'नातीणंनातीनां अपने स्वजन वर्ग को 'सरई-स्मरति' स्मरण करता है ॥१६॥
આ કથનનો ભાવાર્થ એ છે કે અનાર્ય લેકેના પ્રદેશની સીમા પાસેથી વિહાર કરનારા સુવ્રતધારી સાધુને પણ ચોર આદિ સમજીને અનાય લેકે દેરડા વડે બાંધીને મારે છે તથા કટુ શબ્દો બેલીને તેમની ભટ્સના કરે છે. ગાથા ૧પ
આ પ્રકારના પરીષહે આવી પડે ત્યારે અલ્પસર્વ સાધુ પર તેની કેવી अस२ थाय छे, ते सूत्रा२ ५४८ ४२ छ.-'तत्थ दंडेन' त्या
शाय--'तत्थ-तत्र' या मर्थात् मनाय क्षेत्रनी सीमामi () तां ते भुनाने 'दंडेण-दण्डेन' 1872ी 'मुट्ठिणा-मुष्ट ना' मुहाथी 'अदुवा-अथवा' अथवा फलेण-फलेन' थी 'संवीते. संवीतः' भाकामां आवेत 'बाले-बालः' मज्ञानी ५३५ 'कुद्धगामिणी-क्रुद्धगामिनी' धित थने घरेयी नितीन लागवाणी 'इत्थीव-स्त्रीव' श्रीनाम 'न तीणं-ज्ञातीनां पाताना २२४ , 'सरइ-स्मरति' २०२५ छ. ।।१६।
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