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'अनगार
हैं। इन विभावादिके द्वारा व्यक्त होनेवाले स्थायी भावको रस कहते हैं।
अथवा ऐसा भी कहा है- . विभावरनुभावैश्व सात्विकैर्व्यभिचारिभिः ।
आनीयमानः साध्यत्वं स्थायिभावो रसः स्मृतः ॥ विभाव अनुभाव साचिक और व्यभिचारी इन चारोंके द्वारा सिद्ध किये जानेवाले स्थायी भावको रस कहते हैं ।
ललनाओंके उद्यानप्रवेश आदि आलम्बन और उद्दीपनके कारणोंको विभाव कहते हैं । कटाक्ष और भुजाक्षेपादिकको अनुभाव कहते हैं जिनसे कि मनमें हुए विकार-भावका बोध होता है। स्थायी भावके साथ रहनेवालोंको व्यभिचारी भाव कहते हैं। इस व्यभिचारी भावके तेतीस भेद हैं, जिनके कि नाम इस प्रकार हैं।
निवेदोथ तथा ग्लानिः शङ्कासूयामदश्रमाः । आलस्यं चैव दैन्यं च चिन्ता मोहो धृतिः स्मृतिः ॥ वेगश्चपलता हर्ष आवेग्ये जडता तथा । गया विषाद औत्सुक्य निद्रापस्मार एव च ॥ सुप्तिर्विबोधोऽमर्षश्चाप्यवहित्थस्तथोग्रता। मतिव्याधिस्तथोन्मादस्तथा मरणमेव च ॥ त्रासश्चैव वितर्कश्च विज्ञया व्यभिचारिणः ।
त्रयाविंशदिमे भावाः समाख्यातास्तु नामतः॥ निर्वेद ग्लानि शङ्का असूया मद श्रम आलस्य दैन्य चिंता मोह धैर्य स्मरण वेग चिपलता हर्ष आवेग जडता गर्व विसाद उत्सुकता निद्रा अपस्मार सुप्ति [ स्वाप] विबोध अमर्ष अवहित्थ उम्रता मति व्याधि उन्माद मरण त्रास और वितर्क।
अध्याय..