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अनगार
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कको देखते हुए-उसका निर्विकल्पतया अनुभव करते हुए आतङ्क और दूसरे समस्त व्यापारोंसे रहित होकर सखरूपी सुधाका अनंतकालतक पान करते रहते हैं उत्तरोत्तर उसीका स्वाद लेते रहते हैं।" इस तरहका झटितिउपदेशके अनंतर ही श्रद्धान करलेनेवाले भव्य आजकल-इस पंचम कालमें विग्ल हैं-बहुत कम मिलते हैं। फिर भी दसरोंकेलिये हितका उपदेश देना ही जिनका एक कार्य है ऐसे आचार्योंको हमेशह श्रोताओंको सुननेकी इच्छा उत्पन्न करा कर भी धर्मका उपदेश अवश्य देना चाहिये। क्योंकि संभव है कि कभी कोई श्रोता उससे अपने हितकी तरफ लग जाय । . यहांपर ग्रंथकारने संसारको नाटककी उपमा दी है। क्योंकि जिस तरह नाटकको देखकर दर्शकोंको आनंद होता है उसी तरह इस संसारको निर्विकल्प होकर देखनेवाले मुक्तात्माओंको भी अत्यंत आनंद होता है। तथा नाटकके समान ही यह संसार विभावादि भावोंसे व्यक्त होनेवाले नव रसोंसे नानास्वरूप धारण करनेवाला है । जिसके अनुसार अभिनय करके बताया जा सके ऐसे काव्यको नाटक कहते हैं। विभाव अनुभाव
और व्यभिचारी इन भावोंके द्वारा व्यक्त किये जानेवाले भावोंको स्थायी भाव कहते हैं। इनके रति आदि नव भेद हैं जिनका कि आगे चलकर उल्लेख करेंगे । विभावादिके संयोगसे पुष्ट होजानेपर इन्ही व्यक्त भावोंको रस कहते हैं । जिन भावोंका मनके द्वारा आनंद आता है उन्हीको रस कहते हैं। इसका सामान्य लक्षण - स:प्रकार बताया है:
कारणान्यथ कार्याणि सहकारीणि यानि च।। रत्यादेः स्थायिनो लोके तानि चेन्नाट्यकाव्ययोः ॥ विभावा अनुभावास्तत्कध्यन्ते व्यभिचारिणः ।
व्यक्तः स तर्विभावाद्यैः स्थायी भावो रसः स्मृतः ॥ रस आदिकके कारणरूप कार्यरूप और सहकारीरूप जितने भाव हैं उनको लोकमें स्थायी भाव कहते हैं। यदि इनका नाटक या काव्यमें वर्णन किया जाय तो इन्हीको विभाव अनुभाव और व्यभिचारी नामसे कहते
अध्याय