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अनगार
इन तीन प्रकारके मुमुक्षुओं से अंतिमके प्रति ग्रंथकारने अपनी तटस्थता प्रकट की है। क्योंकि केवल स्वोपकार-आत्मकल्याणका ही करनेवाला घटमें रक्खे हुए दीपकके समान है। जिस प्रकार घटमें रक्खा हुआ दीपक जलता हुआ हो या बुझा हुआ; उससे लोकमें किसीको भी हर्ष या अमर्ष नहीं होता । इसी प्रकार परोपकारसे रहित केवल आत्मकल्याण करनेवाला व्यक्ति दूसरोंकेलिये हेय या उपादेय अर्थका प्रकाशक नहीं होता। अत एव वह उनकेलिये उपेक्षाका ही विषय है। वह जगत में प्रकाशित हो या न हो, उससे दूसरोंका कोई प्रयोजन नहीं। किंतु ऐसे व्यक्ति सर्वज्ञके समान जगत्में दिन रात प्रकाश करें जो कि दूसरोंके प्रयोजनको अपने प्रयोजन सरीखा ही मानते हैं ।
भावार्थ-जगत्में जिस वक्ताका प्रभाव प्रकट नहीं होता उसपर लोगोंका अधिक विश्वास नहीं होता। किंतु इसके विरुद्ध, जो उपदेष्टा जगतमें प्रभावशाली प्रकट है उसपर लोग अधिक विश्वास करते हैं और उसके वचनानुसार पारलौकिक काय करने में निःसंदेह होकर प्रवृत्ति करते हैं।
यहांपर यह शंका हो सकती है कि देशना-धर्मोपदेशका फल निकट भव्योंमें ही हो सकता है। और ऐसे भव्योंका आजकल मिलना बहुत कठिन है। अत एव वह व्यर्थ और अनावश्यक क्यों नहीं है ? पर यह शंका ठीक नहीं है। क्योंकि यद्यपि आजकल निकट भव्य अत्यंत दुर्लभ हैं, फिर भी देशना व्यर्थ नहीं है । इसी वातका ग्रंथकार समर्थन कर बक्ताको उपदेशकेलिये उत्साहित करते हैं।
पश्यन् संसृतिनाटकं स्फुटरसप्राग्भारकिर्मीरितं, स्वस्थश्चर्वति निर्वृतः सुखसुधामात्यन्तिकीमित्यरम् । ये सन्तः प्रतियन्ति तेऽद्य विरला देश्यं तथापि कचित,
काले कोपि हितं श्रयेदिति सदोत्पाद्यापि शुश्रूषताम् ॥ १२ ॥ “जो आत्मा संसारसे रहित होकर मुक्त होगये हैं और कर्मसे सर्वथा रहित अपने आत्मस्वरूपमें ही ठहरे हुए हैं वे विभावादि भावोंसे व्यक्त होनेवाले रसोंके समूहसे नानारूपको धारण करनेवाले संसाररूपी नाट
अध्याय