Book Title: Siddha Chakra Mandal Vidhan Pooja
Author(s): Santlal Pandit
Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडित सन्तलाल विरचित श्री सिद्धचक्र विधान (हवन विधि सहित ) फ परस्परोपग्रहो जीवानाम् -: प्राप्ति स्थान :दिगम्बर जैन पुस्तकालय खपाटिया चकला, गांधीचौक, सूरत- ३. टे. नं. (0261) 427621 मूल्य - ५०=०० Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पंडित सन्तलाल विरचितश्री सिद्धचक्र विधान (हवन विधि सहित) परस्परापग्रहोजावानाम् मूल्य - ५००० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : शैलेश डाह्याभाई कापड़िया १०/२४३, खपाटिया चकला, गांधीचौक, सूरत-३९५००३. टे.नं. (०२६१) ४२७६२१ प्राप्ति स्थान : दिगम्बर जैन पुस्तकालय १०/२४३, खपाटिया चकला, गांधीचौक, सूरत-३९५००३. टे.नं. (०२६१) ४२७६२१ टाईप सेटिंग एवं ऑफसेट प्रिन्टींग "जैन विजय लेसर प्रिन्ट्स" सूरत-३. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३] सिद्धचक्र विधान की विधि यह विधान अष्टाहिका पर्वमें विशेष रूपसे किया जाता है। इस विधानकी विधिवत् करने से अनेकों कष्ट दूर होते हैं। यह विधान सती मैनासुन्दरीने किया था, जिसके प्रभावसे श्रीपाल तथा अन्य सातसौ कुष्ठ रोगियोंका रोग दूर हुआ था। . आचार्य स्याद्वाद विद्यामें प्रवीण, दोषोंको जाननेवाला, आलस्य रहित, नीरोग, क्रियाकुशल, शीलवान, इन्द्रिय विजेता, देव-शास्त्र-गुरुको प्रमाण माननेवाला होना चाहिये। विधान स्थान - मंदिरजीमें प्रशस्त स्थानमें हो। उस जगहको अच्छा सजाना चाहिये। घण्टा, पताका, तोरणोंसे युक्त हो। चारों कोनोंमें ४ (चार) कलश रक्खें, जहाँ पर स्त्रियाँ मङ्गल गीत गाती हों। भेरी, मृदङ्ग, झाँझ, मजीरा आदि बाजोंसे युक्त हो। मांडना की विधि मण्डल पूरने के लिए चौकी कमसे कम ९ फुट लम्बी-चौड़ी होनी चाहिये। चौकीके ऊपर साफ धुली चादर बिछाकर चौकीके चारों तरफ बाँध देनी चाहिये, जिसमें झूल न हो। मांडनाका नमूना ब्लॉकमें देखें। इन ८ खानोंमें पाँच रङ्गमें रंगे हुए क्रमसे ८-१६-३२-६४-१२८२५६-५१२-१०२४ पुञ्ज रक्खे जाने चाहिये या पुञ्जकी जगह पर 'श्री' लिखा जाये तो उत्तम है। मांडने की चौकी पर कलश जिनमें पाँच-पाँच हल्दीकी गाँठ, पाँचपाँच सुपारी, एक छोटी-सी चाँदीकी डली, पञ्चरत्न या नवरत्नकी एक Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] एक पुड़िया, थोड़ा-थोड़ा मेवा, थोड़ी-सी दूब डालकर एक-एक नारियलको लाल कपड़ेसे लपेट कर चारों कलशों पर रख देना चाहिये, फिर कलावे (मौली) से एक कलशको दूसरे कलशसे, दूसरे को तीसरे से एवं तीसरेको चौथे तक तीन बार लपेट देना चाहिये यानी फेरा लगा कर बाँध दे । बीचमें “ ॐ” बनाकर उस पर चौकी रक्खे, चौकी पर सिंहासन रख कर "सिद्ध - यन्त्र" की स्थापना करे और ऊपर में छत्र लगावे । भगवानको उत्तर या पूर्व दिशामें बिराजमान करे। आगे में एक स्थापना (ठोना) रखकर बगलमें एक कलश रक्खें। वेदीके पासमें अखण्ड दीपक जलावे, उसकी ज्योति पाठकी समाप्ति तक रहे (अर्थात् दीपक हमेशा प्रज्वलित रहे ) । दीपक जलाते समय मन्त्र पढ़े- “ ॐ ह्रीं अज्ञान तिमिर हरं दीपकं संस्थापयामि।” वेदी पर शास्त्रजी और अष्ट मङ्गल द्रव्य रक्खे | जप की विधि जप कमसे कम ८००० हों। अगर कोई करना चाहे तो १ लाख करना चाहिये । इसमें १० या ११ आदमी जप करें तो उत्तम है। जप करनेवालेको ब्रह्मचर्यसे रहना चाहिये-साथ ही मर्यादित भोजन करना चाहिए एवं तख्त या जमीन पर सोना चाहिये । जप शाम - सुबह दोनों समय कर सकते हैं। जप करनेवाले की केशरिया धोती, दुपट्टा या बनियान प्रतिदिन की धुली होनी चाहिये । जप करनेवालोंके बैठनेके लिये एक-एक आसन हों तथा उनके आगे आगे एक-एक पाटा हो । प्रत्येक पाटे पर घृतका दीपक जलता रहे और एक-एक धूपदान व एक-एक सूतकी माला ( जिसके द्वारा मन्त्र जपा जाय) रक्खे रहें । पाटे पर लौंग गिन कर रख ले। १ माला पूर्ण होने पर १ लौंग अग्निमें डाल दे तथा जब उठे तब एक कापीमें लिख दे, ताकि मन्त्रकी गणनामें भूल न पड़े। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५] जल शुद्धि मन्त्र जलको शुद्ध करते समय कलशों पर चन्दन छिड़के और यह मन्त्र पढ़े-- ____ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं हः नमोऽहते भगवते पद्ममहापद्मतिगिंछकेसरिपुण्डरीकमहापुंडरीकगंगासिंधुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकान्तासीतासीतोदानारीनरकान्तासुवर्णरूप्यकूलारक्तारक्तोदापयोधिशुद्धजलसुवर्णघटप्रक्षालितनवरत्नगन्धाक्षतपुष्पार्चितमामोदकं पवित्रं कुरु कुरु झं झं झौं झौं वं वं हं हं सं सं तं तं पं पं द्वां द्वां द्रीं द्रीं हं सः स्वाहा। - अंग शुद्धि सौगंध्यसंगतमधुव्रतझंकृतेन संवण्यमानमिव गन्धमनिन्द्यमादौ । आरोपयामि विबुधेश्वरवृन्दवन्द्यं पादारविन्दमभिवंद्य जिनोत्तमानाम्।। ॐ ह्रीं अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणी अमृतं स्रावय स्रावय सं सं क्लीं क्लीं ब्लू ब्लूँ द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय सं हं क्ष्वी क्ष्वी हं सः स्वाहा। ॐ ह्रां ह्रीं हूँ ह्रौं ह्रः अ सि आ उ सा अस्य सर्वाङ्गशुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा। ___ गन्धं आरोपयामि। (सब अपने शरीर पर हाथ फेरें) वस्त्र शुद्धि. धौतान्तरीयं विधुकान्तिसूत्रैः सद्ग्रन्थितं धौतनवीनशुद्धम्। नग्नत्वलब्धिर्नभवेच्च यावतू संधार्यते भूषणमूरूभूम्याः॥ संव्यानमंचद्दशया विभान्तमखडधौताभिनव मृदुत्वम्। संधार्यते पीतसितांशुवर्णमंशोपरिष्टाद् धृतभूषणांकम्॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] तिलक पात्रेऽर्पितं चन्दनमोषधीशं शुभ्रं सुगन्धाहृतचञ्चरीकं । स्थाने नवांके तिलकाय चर्च्य न केवलं देहविकारहेतोः॥ शिखा, ललाट, कंठ, हृदय, कान, भुजा, काँख, हाथ एवं नाभि इस प्रकार नव तिलक करते समय यह मन्त्र पढ़े- ॐ ह्रां ह्रीं हूँ ह्रौं हः अ सि आ उ सा म म सर्वाङ्गशुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा। रक्षा बन्धन सम्यक् पिनद्धनवनिर्मलरलपंक्तिरीचबूंहद्वलयजातंबहुप्रकारं । कल्याणनिर्मितमहं कटकं जिनेशपूजाविधानललिते स्वकरे करोमि॥ ॐ हीं णमो अरहन्ताणं रक्ष रक्ष स्वाहा इति कंकणं अवधारयामि। यज्ञोपवीत धारण पूर्व पवित्रतरसूत्रविनिर्मितं यत् प्रीतः प्रजापतिरकल्पयदंगसंगि। सदभूषणं जिनमहे निजकंठधार्य यज्ञोपवीतमहमेष तदाऽतनोमि॥ ॐ नमः परमशान्ताय शान्तिकराय पवित्रीकृतायाह रत्नत्रयस्वरूपं यज्ञोपवीतं दधामि मम गात्रं पवित्रं भवतु अहँ नमः स्वाहा। मुद्रिका धारण प्रोत्फुल्लनीलकुलिशोत्पलपद्मरागनिर्जत्करप्रकरबन्धसुरेन्द्रचाप। जैनाभिषेकसमयेऽगुलिपर्वमूले रत्नांगुलीयकमहं विनिवेशयामि॥ ॐ ह्रीं रत्नमुद्रिकां अवधारयामि स्वाहा। मुकुट धारण . पुन्नागचंपकयोरुहकिं करातजातिप्रसूननवकेशरकुन्दमाद्यम्। देव! त्वदीयपदपंकजसत्प्रसादात् मूनि प्रणामवति शेखरकंदधेऽहम्॥ ॐ ह्रीं मुकुट अवधारयामि स्वाहा। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७] कुण्डल धारण एकत्र भास्वानपरत्र सोमः सेवां विधातुं जिनपश्य भक्त्या। रूपं परावृत्य च कुण्डलस्य मिषादवाप्ते इव कुण्डले द्वै॥ ॐ ह्रीं कुण्डल अवधारयामि स्वाहा। हार धारण मुक्तावलीगोस्तनचन्द्रमाला-विभूषणान्युत्तमनाकभाजां। यथार्ह संसर्गगतानि यज्ञलक्ष्मीसमालिंगनकृ धेऽहम् ॥ ॐ ह्रीं हारं अवधारयामि स्वाहा। __ भूमि शुद्धि विधान ॐ ह्रीं वायुकुमासय सर्वविघ्नविनाशाय महीं पूतां कुरु कुरु हूँ फट स्वाहा। . इसके बाद डाभ पूले को जलमें भिगो कर भूमि पर छिड़के तब यह श्लोक मन्त्र पढ़ेये सन्ति केचिदिहि दिव्यकुलप्रसूता नागाः प्रभूतबलदर्पयुता विबोधा। संरक्षणार्थममृतेनशुभेन तेषांप्रक्षालयामिपुरतःस्नपनस्थ(जपनस्य) भूमिम् ॐ झाँ झी झू झौं झः ॐ ह्रीं मेघकुमाराय धरां प्रक्षालय अं हं तं पं स्वं झं झं यं क्षः फट् स्वाहा। ___ इसके बाद मण्डप रक्षार्थ चार प्रकार के देव तथा दिक्पालोंको आह्वान और पुष्पक्षेपण करे। चतुर्णिकायामरसंघ एष आगत्य यज्ञे विधिना नियोगम्। स्वीकृत्य भक्त्याहि यथार्हदेशे सुस्था भवंत्वाह्निककल्पनायाम्॥ हे जिन-भक्त चतुर्णिकाय देवों। तुम हमारे इस यज्ञमें पधार कर यथायोग्य विधिपूर्वक अपने नियोगको अङ्गीकार कर तिष्ठो और अपनी लिन-भक्ति रूप सेवामें सावधान होवो। (यह पढ़ कर पुष्पक्षेपण करे) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] फिर पवन कुमार जातिके देवोंको कहे और पुष्पक्षेपण करे। आयात मारुतसुराः पवनोद्भटाशाः, संघट्टसंलसितनिर्मलतांतरीक्षाः। वात्यादिदोषपरिभूतवसुन्धरायां प्रत्यूहकर्मनिखिलं परिमार्जयन्तु॥ हे पवन कुमार देवों! तुम अपनी उद्भट वायुके द्वारा दशों दिशाओं और आकाश तथा भूमिको निर्मल करनेवाले हो। हमारे इस यज्ञमें आऔ और वायु सम्बन्धी समस्त दोषोंको दूर करो। हमारे यज्ञ-सम्बन्धी विघ्नोंका नाश करों। फिर वास्तुकुमार जातिके देवोंको कहे और पुष्पक्षेपण करें। आयात वास्तुविधिषूद्भटसन्निवेशा योग्यांशभागपरिपुष्टवपुः प्रदेशाः। अस्मिन्मखेरुचिरसुस्थिभूषणांकके सुस्थायथाहविधिना जिनभक्तिभाजः॥ हे वास्तुकुमार जातिके देवों! तुम अपने योग्य अंशको विभाग कर पुष्ट देह संयुक्त हमारे इस यज्ञ विधानमें सुन्दर भूषणोंसे सज्जित होकर जिनेन्द्रकी भक्तिपूर्वक पधारो, योग्य स्थानमें सन्निवेश कर तिष्ठो। फिर मेघकुमार जातिके देवोंको कहे और पुष्पक्षेपण करे। आयात निर्मलनभःकृतसन्निवेशा मेघासुराः प्रमदभारनमच्छिरस्काः। अस्मिन्मखेविकृतविक्रिययानितान्तेसुस्थाभवन्तुजिनभक्तिमुदाहरन्तु॥ हे मेघकुमार जातिके देवों! तुम निर्मल आकाशके धारणहारे हमारे इस यज्ञ विधानमें आओ और अपनी विक्रिया ऋद्धि तथा आनन्दसे युक्त हो जिनेन्द्रकी भक्तिमें सावधान हो तिष्ठो और मेघ सम्बन्धी विघ्न दूर करो। फिर अग्निकुमार देवोंको कहे और पुष्पक्षेपण करे। आयात पावकसुराः सुरराजपूज्य-संस्थापनाविधिषु संस्कृविक्रियाहर्हाः। स्थानेयथोचितकृतेपरिवद्धकक्षाःसन्तुश्रियंलभतपुण्यसमाजभाजां॥ हे अग्निकुमार जातिके देवों! यह इन्द्रों द्वारा पूज्य जिनेन्द्रका यज्ञ विधान है, इसमें तुम आओ। तुम अपनी संस्कार रूप क्रियाके योग्य Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [९] हो, अतः अपने योग्य स्थानमें कटिबद्ध होवो और इस पुण्यशाली समाजकी शोभा बढ़ाओ तथा अग्नि सम्बन्धी सभी विघ्न दूर करो। फिर नागकुमार देवोंको कहे और पुष्पक्षेपण करे। नागा:समाविशतभूतलसंन्निवेशाःस्वां भक्तिमुल्लसितगात्रतयाप्रकाश्य। आशीविषादिकृतविघ्नविनाशहेतोः स्वास्था भवन्तु निजयोग्यमहासनेषु __ हे नागकुमार देवो! तुम यहां समावेश करो। तुम पृथ्वीतलमें रहनेवाले हो। तुम अपनी भक्तियुक्त विक्रियाको प्रकाशित करते हुए आशीविष (सर्प) कृत उपद्रवोंको दूर करो और अपने योग्य स्थान पर तिष्ठो। फिर दशों दिक्पालोंके लिए पुष्पक्षेपण करे।। यह श्लोक पढ़े और दशों दिशाओं में पुष्पक्षेपण करे। इन्द्राग्निदण्डधरनैर्ऋतपाशपाणि-वायूत्तरेण शशिमौलिफणीन्द्रचन्द्राः। आगत्ययूयमिहसानुचराःस्रचिह्नाःस्वंस्वंप्रतीच्छतबलिंजिनाभिषेके॥ ॐ इन्द्राय स्वाहा, ॐ अग्नये स्वाहा, ॐ यमाय स्वाहा, ॐ नैऋत्याय स्वाहा, ॐ वरुणाय स्वाहा, ॐ पवनाय स्वाहा, ॐ धनदाय स्वाहा, ॐ ईशानाय स्वाहा, ॐ धरणेन्द्राय स्वाहा, ॐ सोमाय स्वाहा। __ इसके बाद इस मण्डलकी वेदीमें जिन भगवानकी प्रतिमा बिराजमान करनी हो, उन्हें (भगवान को) पुरानी वेदीसे लाकर एक संदली पर बिराजमान करे और उपर्युक्त प्रासुक जलसे प्रभुका न्हवन करे। तब यह आगे लिखा श्लोक पढ़े और भगवानके शीश पर जल धारा दे। . दूरावनम्रसुरनाथकिरीटकोटी-संलग्नरत्नकिरणच्छविधूसरांधिम्। प्रस्वेदतापमलमुक्तमपि प्रकृष्टै भक्त्या जलैजिनपति बहुधाभिषिचे॥ ____ॐ ह्रीं श्रीमंतं भगवन्तं कृपालसन्तं वृषभादिमहावीरपर्यंतचतुर्विंशतितीर्थङ्कर परमदेवाभिषेकर ममे आद्यानां आद्ये जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखण्डे..... देशे..... नाम्नि नगरे..... श्रीशुभसम्वत्सरे..... सम्वत्सरे..... Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] मासानामुत्तमे..... मासे..... पक्षे..... पर्वणि..... शुभदिने मुनिआर्यिकाश्रावकश्राविकाणां सकलकर्म क्षयार्थ जलेनाभिषिचे नमः। . . ___यह पढ़ता हुआ भगवानके सिर पर जल धारा दे-मङ्गल बोलने हों तो बोले, अगर विशेष शान्तिधारा देनी हो तो अन्यत्र है, वहाँ से पढ़े। फिर भगवानको वेदीमें बिराजमान करे। इसके बाद सिद्ध यन्त्रका प्रक्षाल करे, तब यह मन्त्र पढे। "ॐ भूर्भुवः स्वरिह एतद्विघ्नोघवारकं यन्त्रमहं परिषिंचयामि।" इस प्रकार न्हवन करके यंत्रको मांडलेके सिंहासन पर बिराजमान कर दे। इसके बाद जप स्थानमें जाकर आचार्यके दिये हुए निम्नलिखत मंत्रमें से किसी एक मंत्रकी एक-एक या दो-दो मालायें फेरे। _ 'ॐ ह्रां ह्रीं हूँ ह्रौं हः असिआउसा सर्वशांति कुरु कुरु स्वाहा' अथवा 'ॐ ह्रीं अर्ह असिआउसा नमः।' फिर भगवानके सामने नित्य पूजायें तथा पाठका आरंभ करे, तब वह श्लोक पढ़कर भगवानसे प्रार्थना करे-- श्रीमन्मंदर मस्तके शुचिजलैधोंतेसदर्भाक्षते, पीठे मुक्तिवरंनिधाय रचितंत्वत्वादपुष्पस्त्रजं। इन्द्रोहं. निज भूषणार्थममलं यज्ञोपवीतं दधे, मुद्राकंकणशेखरानपि तथा जैनाभिषेकोत्सवे॥ हे भगवान! मैं शुद्ध जलसे प्रक्षालन किये हुए और दर्भ अक्षत आदिसे सुशोभित तथा मेरु पर्वतके समान पवित्र सिंहासन पर आप (भगवान अर्हन्तदेव) को स्थापित करता हूँ तथा आपके चरणकमलोंकी पवित्र मालाको धारण कर अपने में इंद्रकी कल्पना करता हूँ। आपका अभिषेक करने के समय इंद्रके समान अपने शरीरको सुशोभित करने के लिए मुकुट, कंकण, कुण्डल, यज्ञोपवीत, तिलक आदि सब आभूषण धारण करता हूँ। पश्चात् नित्य नियम, पञ्चमेरु, नन्दीश्वर आदि तथा वेदीमें Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११] बिराजमान तीर्थङ्करकी पूजन करके यंत्रकी पूजा करे। इस प्रकार आठ दिन तक विधान करे, सुबह-शाम जप करे और भगवानकी आरती तथा गाना, बजाना आदि उत्सव करे। पूर्णमासीको या अन्य निश्चित तिथिको पाठ पूरा हो जाने पर शुभ मुहूर्तमें हवन करे । यन्त्र पूजा परमेष्ठिन् जगत्त्राणकरणे मङ्गलोत्तम । शरणा इति तिष्ठतु मे सन्निहितोऽस्तु पावनाः ॥ ॐ ह्रीं अर्ह असिआउसा मङ्गलोत्तमशरणभूताः ! अत्रवतरतावतरत संवौषट् आह्वाननं । ॐ ह्रीं असिआउसा मङ्गलोत्तमशरणभूताः ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः स्थापनं। ॐ ह्रीं अहं असिआउसा मङ्गलोत्तमशरणभूता ! अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट् सन्निधानं । पंकेरुहायातपरागपुञ्ज सौगन्ध्यमद्भि सलिलै पवित्रैः । अर्हत्पदा भाषितमङ्गलादीन् प्रत्यूहनाशार्थमहं यजामि ॥ ॐ ह्रीं मङ्गलोत्तमशरणभूतेभ्यः पञ्चपरमेष्ठिभ्यो जलं निर्व. स्वाहा । काश्मीरकर्पूरकृतद्रवेण, संसारतापपहृतौ युतेन । अर्हत्पदाभाषितमङ्गलादीन् प्रत्यूहनाशार्थमहं यजामि ॥ ॐ ह्रीं मङ्गलोत्तमशरणभूतेभ्यः पञ्चपरमेष्ठिभ्यो सुगन्धं निर्व. स्वाहा । शाल्यक्षतैरक्षतमूर्तिमाद्भिरब्जादिवासेन सुगन्धिमद्भिः । अर्हत्पदाभाषितमङ्गलादीन् प्रत्यूहनाशार्थमहं यजामि ॥ ॐ ह्रीं मङ्गलोत्तमशरणभूतेभ्यः पञ्चपरमेष्ठिभ्यो अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा । कदम्बजात्यादिभवैः सुरद्रुमैर्जातैर्मनोजातविपाश दक्षैः । अर्हत्पदाभाषितमङ्गलादीन् प्रत्यूहनाशार्थमहं यजामि ॥ ॐ ह्रीं मङ्गलोत्तमशरणभूतेभ्यः पञ्चपरमेष्ठिभ्यो पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] पीयूषपिण्डैश्च शशांकान्तिस्पर्शद्भिरिष्टैर्नयनप्रियैश्च । अर्हत्पदाभाषितमङ्गलादीन् प्रत्यूहनाशार्थमहं यजामि ॥ ॐ ह्रीं मङ्गलोत्तमशरणभूतेभ्यः पञ्चपरमेष्ठिभ्यो नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । ध्वस्तान्धकारप्रसरैः सुदीपैर्धृतोद्भवै रत्नविनिर्मितैर्वा । अर्हत्पदाभाषितमङ्गलादीन् प्रत्यूहनाशार्थमहं यजामि ॥ ॐ ह्रीं मङ्गलोत्तमशरणभूतेभ्यः पञ्चपरमेष्ठिभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा। स्वकीय धूमेन नभोवकाश-व्यापद्भिरुद्यैश्च सुगन्धधपः । अर्हत्पदाभाषितमङ्गलादीन् प्रत्यूहनाशार्थमहं यजामि ॥ ॐ ह्रीं मङ्गलोत्तमशरणभूतेभ्यः पञ्चपरमेष्ठिभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा। नारङ्गपगादिफलैरनयै र्हृन्मानसादिप्रियतर्पकैश्च । अर्हत्पदाभाषितमङ्गलादीन् प्रत्यूहनाशार्थमहं यजामि ॥ ॐ ह्रीं मङ्गलोत्तमशरणभूतेभ्यः पञ्चपरमेष्ठिभ्यो फलं निर्वपामीति स्वाहा । अम्भश्चन्दननन्दनाक्षतरुद्भूतैर्निवेद्यैवरैः । दीपर्धूपफलोत्तमैः समुदितैरेभिः सुवर्णस्थितैः ॥ अर्हत्सिद्धसुसूरिपाठकमुनीन्, लोकोत्तमान्मङ्गलान्। प्रत्यहोघनिवृत्तये शुभकृतः, सेव्ये शरण्यानहम् ॥ ॐ ह्रीं मङ्गलोत्तमशरणभूतेभ्यः पञ्चपरमेष्ठिभ्यो अर्धं निर्वपामीति स्वाहा । अथ प्रत्येक पूजनम् कल्याणपञ्चककृतोदयमाप्तमीश- मर्हतमच्युतचतुष्टयभासुरांगम् । स्याद्वादवागमृतसिन्धुशशांककोटि मर्चे जलादिभिरनन्तगुणालयं तम् ॥ ॐ ह्रीं अनन्तचतुष्टयसमवशरणादिलक्ष्मीबिभ्रते अर्हत्परमेष्ठिने अर्धं निर्व. । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [१३] कर्माष्टकेध्मवयमुत्पथमाशु हुत्वा सद्ध्यानवह्रिविसरे स्वयमात्मवन्तम्। निःश्रेयसामृतसरस्यथ संनिनाय, तं सिद्धमुच्चपददं परिपूजयामि। ॐ ह्रीं अष्टकर्मकाष्ठगणभस्मीकृते सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ निर्व. स्वाहा। स्वचारषञ्चकमपिस्वयमाचरन्ति,ह्याचारयन्तिभविकान्निजशुद्धिभाजः तानर्चयामिविविधैः शललादिभिश्चप्रत्यूहनाशनविधौ निपुणान्पवित्रैः ॐ ह्रीं पञ्चाचारपरायणाय आचार्यपरमेष्ठिने अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। अंगांगवाह्यपरिपाठनलालसाना-मष्टांज्ञानपरिशीलनभावितानाम्। पादारबिन्दयुगलं खलु पाठकानां शुद्धजलादिवसुभिः परिपूजयामि॥ ॐ ह्रीं द्वादशांगपठनपाठनोद्यताय उपाध्यायपरमेष्ठिने अर्घ निर्व. स्वाहा। आराधनासुखविलासमहेश्वराणां सद्धर्मलक्षणमयात्मविकस्वराणां। स्तोतुतुंगुणागिरिवनादिनिवासिनांवैएषोऽद्यतच्चरणपीठभुवंनमामि ॐ ह्रीं त्रयोदशप्रकारचारित्राराधकसाधुपरमेष्ठिने अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। अर्हन्मंगलमर्चामि जगन्मंगलदायकम्। . प्रारब्धकर्मविघ्नौघप्रलयाय पयोमुखम्॥ .. ॐ ह्रीं अर्हनङ्गलाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। चिदानन्दलसद्वीचिमालिनं गुणशालिनम्। . सिद्धमंगलमर्चेहं सलिलादिभिरुज्वलैः॥ ॐ ह्रीं सिद्धमंगलाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। बुद्धिक्रियारसतपोविक्रियौषधिमुख्यकाः। ऋद्धयो यं न मोहन्ति साधुमंगलर्चये॥ ___ॐ ह्रीं साधुमंगलाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। लोकालोकस्वरूपं च प्रज्ञप्तं धर्ममंगलम्। . अर्चे वादित्रनिर्घोषगीतनृत्यैः वनादिभिः॥ ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तधर्ममंगलाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] लोकोत्तमोऽर्हन् जगतां भवबाधाविनाशकः। . अयेतेऽर्पण स मया कुकर्मगणहानये॥ ॐ ह्रीं लोकोत्तमाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। विश्वाग्रशिखर स्थायी सिद्धलोकोत्तमो मया। मह्यते मह सामन्दचिदानन्दसुमेदुरः॥ ॐ ह्रीं सिद्धलोकोत्तमाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। रागद्वेषपरित्यागी साम्यभावबोधकः। साधुलोकोत्तमोघेण पूज्यते सलिलाक्षतैः॥ ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमा अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। उत्तमक्षमया भास्वान् सद्धर्मों विष्टपोत्तमः। अनन्तसुखसंस्थाने यज्यतेऽभ्भोऽक्षतादिभिः॥ ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तधर्मलोकोत्तमाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।। सदाइन् शरणं मन्ये नान्यथा शरणं मम। इति भावविशुद्धर्थमहयामि जलादिभिः॥ ॐ ह्रीं अर्हच्छरणाय अर्घ निर्वामीति स्वाहा। वजामि सिद्धशरणं परावर्तनपञ्चकं । भित्वा स्वसुखसन्दोहसम्पन्नमिति पूजये॥ ॐ ह्रीं सिद्धशरणाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। आश्रये साधुशरणं सिद्धान्तप्रतिपादनैः। . न्यक्कृताज्ञानतिमिरमिति शुद्धया यजामि तम्॥ ॐ ह्रीं साधुशरणाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] धर्म एव सदा बन्धुः स एव शरणं मम। .. - इह वान्यत्र संसारे इति तं पूजयेऽधुना॥ ___ॐ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तधर्मशरणाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। संसारदुःखहननेनिपुणंजनानां, नाद्यन्तचक्रमितिसप्तदशप्रमाणम् संपूजये विविधभक्तिभरावनम्रःशान्तिप्रदंभुवनमुख्यपदार्थसाथैः ॐ ह्रीं अर्हदादिसप्तदशमन्त्रेभ्यो महाघ निर्वपामीति स्वाहा। .. अथ जयमाला विघ्नप्रणाशनविधीसुरमस्यमाथा, अग्रेसरंजिन वदन्तिभवन्तमिष्टम्। नाद्यन्तचक्रयुगवर्तिनमत्र कार्ये, गार्हस्थ्यधर्मविहितेऽहमपिस्मरामि॥ गणानां मुनीनामधीशत्वतस्ते, गणेशाख्यया ये भवन्तं स्तुवन्ति। सदा विघ्नसन्दोहशान्तिर्जनानां करे संलुठत्यायतश्रेयसानाम् ॥ कलेः प्रभावात्कलुषाशयस्य, जनेषु मिथ्यामदवासितेषु । प्रवर्तितोन्यो गणराजनाम्ना, लम्बोदरो दन्तिमुखो गणेशः॥ रुद्रेण कामज्वलितेन गौर्या, विनोदभारान्मलमुक्षिपित्वा। कृत्वा पुराणेष्विति वाचयित्वा सन्मंगलं तं कथमुगिरन्ति । यतस्त्वमेवासि विनायको मे इष्टेष्ट योगानवरुद्धभाषः। त्वनाममात्रेण पराभवन्ति विघ्नारयस्तर्हि किमत्र चित्रम् ॥ जय जय जिनराज त्वद्गुणान्को व्यक्ति, यदि सुरगुरुरिद्रः कोटिवर्षप्रमाणम्। वदितुमभिलषेद्वा पारमाप्नोति नो चेत्, . .कतिथ इह मनुष्यः स्वल्पबुद्धया समेतः॥ ॐ ह्रीं अहंदादिसप्तदशमन्त्रेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६] श्रियं बुद्धिमनाकुल्यं धर्मप्रीतिविवर्धनं। गृहिधर्मे स्थितिर्भूयात् श्रेयसं मे दिशत्वरम्॥ इत्याशीर्वादः। हवन सामग्री हवनके लिए निम्नलिखित वस्तुओंको अच्छी तरह शोध कर कूट लेना चाहिये। बादामपिस्ताखजूरा मजा वै नारिकेलजा। दुग्धं प्रचुरसर्पिश्च शर्कराद्राक्षयान्विता॥ लवंगकर्पूरसुमिश्रितानां, चूर्ण सुतैलादिसुगन्धजातैः। युक्तं जिनेन्द्रस्य मते प्रशस्तं, होमाहणे द्रव्यकदंबकं वै॥ अर्थात्-- बादाम, पिस्ता, छुहारा, नारियलका खोपरा, दाख, लोंग, कपूर, सफेद चन्दन, लाल चन्दन तथा चिरोंजी, सुगन्धवाला देवदारु, अगर, तगर, बालछड़, पानड़ी, कपूरकचरी, नागरमोथा, छार छबीला इत्यादि सुगन्धित द्रव्योंका चूर्ण तथा धान, तिल, मूंग, उड़द, गेहूँ, जौ, चना इन्हें भी खरलमें कूट कर मिला लेना चाहिये। __इसी में घी तथा बूरा मिला सामग्री ठीक कर लेनी चाहिये तथा आहुतिके लिए अलग बर्तनमें घी रखना चाहिये। घी की आहुतिके लिए काठके चमचे भी होने चाहिये। जितने मंत्र जपे हो उनकी दशांग आहुतियाँ उसी मंत्रकी दी जाती हैं, उनके सिवाय पीठिका आदि मंत्रोंकी आहुतियाँ दी जाती है। इन सब आहुतियोंके अनुसार हवन सामग्री तैयार करनी चाहिये तथा आक, ढाक, आम, पीपल, बड़, सफेद चंदन तथा लाल चंदनकी सूखी छोटी पतली लकड़ियाँ भी रखनी चाहिये। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ॥ ॐ नमः सिद्धेभ्य॥ श्री सिद्धचक्र विधान कविवर पं. सन्तलालजी कृत मंगलाचरण दोहा जिनाधीश शिवईश नमि, सहसगुणित विस्तार। सिद्धचक्र पूजा रचों, शुद्ध त्रियोग सम्भार ॥१॥ नित्याश्रित धनपति सुधी शीलादिक गुण खान। जिनपद अन्बुज भ्रमर मन, सो प्रशस्त यजमान॥२॥ देश काल विधि निपुणमति, निर्मल भाव उदार। मधुर बैन नयना सुधर, सो याजक निराधार ॥३॥ रत्नत्रयमण्डित महा, विषय कषाय नहिं लेश। संशय हरण सुहित करण, करत सुगुरु उपदेश॥४॥ .. छप्पय छन्द निर्मल मण्डप भूमि दरव-मंगल करि सोहत। । सुरभि सरस शुभ पुष्प-जाल मण्डित मन मोहत॥ • यथायोग्य सुन्दर मनोज्ञ, चित्राम अनूपा। दीरघ मोल सुडोल, वसन झखझोल सरूपा॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] श्री सिद्धचक्र विधान हो वित्तसार प्रासुक दरब, सरव अंग मन को हरै। सो महाभाग आनन्द सहित, जो जिनेन्द्र अर्चा करै॥५॥ यन्त्र स्थापना - दोहा सुर मुनि मन आनन्द कर, ज्ञान सुधारस धार। सिद्धचक्र सो थापहूँ, विधि-दव-जल उनहार॥६॥ अडिल्ल-अर्ह शब्द प्रसिद्ध अर्द्ध मात्रिक कहा। अकारादि स्वर मण्डित अति शोभा लहा॥ अति पवित्र अष्टांग अर्घ करि लायके । पूरवदिशि पूजो अष्टांग नमायके ॥७॥ ॐ ह्रीं अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः पूर्वदिशि अनाहत पराक्रमाय सिद्धाधिपतये नमः पूर्वदिशि अयं निर्वपामीति स्वाहा। सोरठा- वर्ण कवर्ग महान, अष्ट पूर्वविधि अर्घ ले। भक्ति भाव उर ठान, पूजों हो आग्नेय दिशि॥८॥ ॐ ह्रीं अहँ क ख ग घ ड़ अनाहतपराक्रमाय सिद्धाधिपतये आग्नेयदिशि अयं निर्वपामीति स्वाहा।। वर्ण चवर्ग प्रसिद्ध, वसुविधि अर्घ उतारिके। मिलि है वसुविधि ऋद्धि, दक्षिण दिशि पूजा करौं ॥९॥ ____ॐ ह्रीं अहँ च छ ज झ अ अनाहतपराक्रमाय सिद्धाधिपतये दक्षिणदिशि अयं निर्वपामीति स्वाहा। वर्ण टवर्ग प्रशस्त, जलफलादि शुभ अर्घ ले। पाऊँ सब विधि स्वस्ति, नैऋत्य दिशि अळ करों॥१०॥ ____ॐ ह्रीं अर्ह ट ठ ड ढ ण अनाहतपराक्रमाय सिद्धाधिपतये नैऋत्यदिशि अयं निर्वपामीति स्वाहा। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [ ३ वर्ण तवर्ग मनोग, यथायोग्य कर अर्घ धरि । मिलि है सब शुभ योग, पूजन करि पश्चिम दिशा ॥ ११ ॥ ॐ ह्रीं अहं त थ द ध न अनाहतपराक्रमाय सिद्धाधिपतये पश्चिमदिशि अर्ध्यं निर्वपामीति स्वाहा । वर्ण पवर्ग सुभाग, करूँ आरती अर्घ ले । सब विधि आरति त्याग वायव दिशि पूजा करों ॥ १२ ॥ ॐ ह्रीं अहं प फ ब भ म अनाहतपराक्रमाय सिद्धाधिपतये वायव्यदिशि अयं निर्वपामीति स्वाहा । वर्ण यवर्गी सार, दर्व, अर्घ वसु द्रव्य करि । भाव अर्घ उर धार, उत्तर दिशि पूजा करों ॥ १३ ॥ ॐ ह्रीं अहं य र ल व अनाहतपराक्रमाय सिद्धाधिपतये उत्तरदिशि अर्ध्यं निर्वपामीति स्वाहा । A शेष वर्ण चउ अन्त, उत्तम अर्घ बनाइकें । . नशे कर्म वसु भन्त, पूजों हो ईशान दिशि ॥ १४ ॥ ॐ ह्रीं अर्हं श ष स ह अनाहतपराक्रमाय सिद्धाधिपतये ईशानदिशि अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । छप्पय छन्द. · ऊरध अधो सुरेफ बिन्दु हकार विराजे । अकारादि स्वर लिप्त कर्णिका अन्त सु छाजे ॥ वर्गन पूरित वसुदल अम्बुज तत्त्व संधि धर । अग्रभाग में मन्त्र अनाहत सोहत अतिवर ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान फुनि अंत ह्रीं बेढ़यो परमसुर, ध्यावत अरि नागको। खै केहरि सम पूजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो॥१५॥ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिभ्यो नमः अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः स्थापनं अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं। परिपुष्पांजलि क्षिपेत्। .. दोहा सूक्ष्मादिक गुणसहित हैं, कर्म रहित निःशोग। सिद्धचक्र सौ थापहूँ, मिटैं उपद्रव योग इति यन्त्रस्थापनार्थं पुष्पांजलि क्षिपेत् .. अथाष्टकं चाल - नन्दीश्वर द्वीप पूजा की शीतल शुभ सुरभि सु नीर, कंचन कुंभ भरों, पाऊँ भवसागर तीर, आनंद भेंट धरों॥ अन्तरगत अष्ट स्वरूप, गुणमई राजत है, नमूं सिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत है। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिने नमः श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम त्तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह अष्ट गुणसंयुक्तभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा॥१॥ चंदन तुम बंदन हेत, उत्तम मान्य गिना, नातर सब काष्ठ समेत, ईंधन था ही बना। अन्तरगत अष्ट स्वरुप, गुणमई राजत हैं, नमूं सिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत हैं। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिभ्यो नमः श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम त्तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह अष्टगुणसंयुक्ताय चंदनं निर्व. स्वाहा ॥२॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान दीरघ शशि किरण समान अक्षत ल्यावत हूँ, शशिमंडल सम बहुमान पूज रचावत हूँ। अन्तरगत अष्ट स्वरुप, गुणमई राजत हैं, नमूं सिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत हैं। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिभ्यो नमः श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह अष्टगुणसंयुक्ताय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ तुम चरणचन्द्र के पास, पुष्प धरे सोहै, मानू नक्षत्रन की रास ,सोहत मन मोहैं । अन्तरगत अष्ट स्वरुप, गुणमई राजत हैं, नमूं सिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत हैं। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिभ्यो नमः श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह अष्टगुणसंयुत्तेभ्यो कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ उत्तमनेवज बहु भांति, सरस सुधा साने, अहिंमिंदन मन ललचाय भक्षण उमगाने । अन्तरंगत अष्ट स्वरुप, गुणमई राजत हैं, नमूं सिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत हैं। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिभ्यो नमः श्री समत्तणाणदसणवीर्य सहम तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह अष्ट गुणसंयुक्ताय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥... फैली दीपन की जोति, अति परकाश करै, जिम स्याद्वाद उद्योत संशय तिमिर हरै। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान अन्तरगत अष्ट स्वरुप, गुणमई राजत हैं, नमूं सिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत हैं। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिने नमः श्री समत्तणाण-दंसणवीर्यसुहम त्तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह अष्टगुणसंयुक्ताय दीपंनिर्व.स्वाहा ॥६॥ धरि अग्नि धूप के ढेर, गन्ध उड़ावत हूँ, कर्मो की धूप बखेर, ठोंक जरावत हूँ। अन्तरगत अष्ट स्वरुप, गुणमई राजत हैं, नमूं सिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत हैं। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिभ्यो नमः श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम त्तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह अष्टगुणसंयुक्तभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥७॥ जिन-धर्म वृक्ष की डाल शिवफल सोहत हैं, इम धरि फल कंचन थाल भविमन मोहत हैं। अन्तरगत अष्ट स्वरुप, गुणमई राजत हैं, नमूं सिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत हैं। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिभ्यो नमः श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह अष्टगुणसंयुक्ताय मोक्ष फल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥८॥ करि दर्व अर्घ वसु जात यातें ध्यावत हूँ, अष्टांग सुगुण विख्यात तुम ढिंग पावत हूँ। अन्तरगत अष्ट स्वरुप, गुणमई राजत हैं, नमूं सिद्धचक्र शिव-भूप, अचल विराजत हैं। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिभ्यो नमः श्री समत्तणाणदसणवीर्य सुहम तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह अष्ट गुणसंयुक्ताय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ॥९॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [७ गीता छन्द निर्मल सलिल शुभवास चन्दन, धवल अक्षत युत अनी। शुभपुष्प मधुकरनितरमैं, चरु प्रचुर स्वादसुविधिघनी॥ वर दीपमाल उजाल धूपायन, रसायन फल भले। करि अर्घ सिद्ध समूह पूजत कर्म दलसवब दल भले॥१॥ ते कर्मवर्त नशाय युगपति, ज्ञान निर्मल रुप हैं। दुःख जन्म टाल अपार गुण, सूक्ष्म सरूप अनूप हैं। कर्माष्ट विन त्रैलोक्य पूज्य, अदज शिव कमलापती। मुनि ध्येय सेय अभेय चहुँगुण गेह, द्यो हम शुभमती॥२॥ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिभ्योनमः श्री समत्तबाणदंसणवीर्य सुहम तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह अष्टगुणसंयुक्ताय अनर्घपदप्राप्तये महायँ निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ अष्टगुण अर्घ - चौपाई मिथ्या त्रय चउ आदि कषाया,मोहनाश छायक गुण पाया। निज अनुभव प्रत्यक्ष सरुपा,नमूं सिद्ध समकित गुणभूपा॥ ॐ ह्रीं सम्यक्त्वाय नमः अर्घ्यं ॥१॥ सकल त्रिधा षट् द्रव्य, अनन्ता, युगपत जानत हैं भगवन्ता। निर आवरण विशद स्वाधीना, ज्ञानानंद परम रस लीना॥ __ॐ ह्रीं अनन्तज्ञानाय नमः अy ॥२॥ चक्षुअचक्षुअवधि विधिनाशी, केवल दर्शजोति परकाशी। सकल ज्ञेय युगपत अवलोका, उत्तम दर्श नमूं सिद्धोंका॥ ___ ॐ ह्रीं अनन्तदर्शनाय नमः अयं ॥३॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] श्री सिद्धचक्र विधान अन्तराय विधि प्रकृति अपारा, जीवशक्ति घाते निरधारा । ते सब घात अतुल बल स्वामी, लसत अखेद सिद्ध प्रणमामी ॥ ॐ ह्रीं अनन्तवीर्याय नमः अर्घ्यं ॥४ ॥ रुपातीत मन इन्द्रिय नाहीं, मनपर्यय हू जानत नाहीं । अलख अनूप अमित अधिकारी, नमूं सिद्ध सूक्ष्म गुणधारी ॥ ॐ ह्रीं सूक्ष्मत्वाय नमः अर्घ्यं ॥५ ॥ एक क्षेत्र अवगाह स्वरूपा, भिन्न-भिन्न राजैं चिद्रूपा । निज परघात विभाव विडारा, नमूं सुहित अवगाह अपारा ॥ ॐ ह्रीं परमअवगाहनत्वाय नमः अर्घ्यं ॥६॥ परकृत ऊँच नीच पद नाहीं, रमत निरंतर निज पद माहीं । उत्तम अगुरुलघुगुण भोगी, सिद्धचक्र ध्यावै नितयोगी ।। ॐ ह्रीं अगुरुलघुल्वात्मकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७ ॥ नित्य निरामय भव भय भञ्जन, अचल निरन्तरशुद्ध निरञ्जन । अव्याबाध सोई गुण जानो, सिद्धचक्र पूजन मन मानो ॥ ॐ ह्रीं अव्याबाधत्वाय नमः अर्घ्यं ॥८ ॥ जयमाला- दोहा जग आरत भारत महा, गारत करि जय पाय । विजय आरती तिन कहूँ, पुरुषारथ गुणगाय ॥१ ॥ पद्धड़ी छन्द जय करण कृपाण सु प्रथमवार, मिथ्यात सुभट कीनो प्रहार । दृढ़कोट विपर्ययमति उलंघ, पायो समकित थलथिर अभंग ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [९ निज पर विवेक अन्तर पुनीत, आतम रुचि वरती राजनीत। जगविभवविभावअसातएह,स्वातम,सुखरसविपरीतदेह ॥२॥ तिन नाशन लीनो दृढ़ संभार, शुद्धपयोग चित चरण सार। निग्रंथ कठिन मारग अनूप, हिंसादिक टारण सुलभ रूप॥३॥ द्वयवीस परीषह सहन वीर, बहिरन्तर संयम धरण धीर। द्वादश भावन दशभेदधर्म, विधिनाशनबारह तपसुपर्म॥४॥ शुभदयाहेत धरि समिति सार, मन शुद्धकरण त्रयगुप्ति धार। एकाकी निर्भय निःसहाय, विचरो प्रमत्त नाशन उपाय॥५॥ लखि मोहशत्रुपरचण्डजोर, तिस हननशुकलदलध्यानजोर। आनन्द वीररस हिये छाय, क्षायक श्रेणी आरम्भ थाय॥६॥ बरम गुण थानक ताहि नाश, तेरम पायो निजपद प्रकाश। नव केवललब्धि विराजमान, दैदीप्यमान सोहें सुभान ॥७॥ तिस मोह दुष्ट आज्ञा एकांत, थी कुमति स्वरूप अनेक भांति। जिनवाणी करिताको विहण्ड, करिस्याद्वादआज्ञा प्रचण्ड ॥८॥ बरतायो जग में सुमति रूप, भविजन पायो आनन्द अनूप। थे मोह नृपति उपकरण शेष, चारो अघातिया विधि विशेष ॥९॥ है नृपति सनातन रीति एह, अरि विमुख न राखें नाम तेह। यो तिन नाशन उद्यमसुठानि, आरंभ्यो परम शुक्लसुध्यान॥१०॥ तिस बलकरि तिनकी तिथि विनाश, पायो निर्भय सुखनिधि निवास। यहअक्षयजोतिलई अवाधि, पुनिअंश नव्यापोशत्रुब्याध ॥११॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] श्री सिद्धचक्र विधान शाश्वत स्वश्रितसुख श्रेयस्वामी, है शान्तिसन्त तुम कर प्रणाम। अन्तिम पुरुषारथफल विशाल, तुमविलसौसुखसौं अमितकाल॥१२ ॐ ह्रीं समत्तणाणादि अष्ट गुणसंयुक्तसिद्धेभ्यो महायँ निर्वपामीति स्वाहा॥१२॥ घत्ता परसमय विदरित पूरित, निजसूख समयसार चेतनरूपा। नाना प्रकार परका विकार, सब टार लसैं सब गुण भूपा॥ ते निरावर्ण निर्देह निरूपम, सिद्धचक्र परसिद्ध जजूं। सुर मुनि नित ध्यावें आनन्द पार्दै पूजत भरभार तजूं॥ यहाँ १०८ बार 'ॐ ह्रीं अहँ अ सि आ उं सा नमः' मंत्र का जाप करें। इति प्रथम पूजा सम्पूर्णम्। द्वितीय पूजा छप्पय छन्द उरध अधो सरेफ विन्दु हकार विराजे । अकारादि स्वर्लिप्त कर्णिका अन्त सु छाजे ॥ वर्गनिपूरित वसुदल अम्बुज तत्त्व सन्धिधर । अग्र भाग में मन्त्र अनाहत सोहत अतिवर ॥ फुनि अन्त ह्रीं वेढ्यो परम सुर, ध्यावत अरिनागको। है केहरिसम पूजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो॥१॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [११ दोहा सूक्ष्मादि गुण सहित हैं, कर्म रहित नीरोग। सिद्धचक्र सो थाप हूँ, मिटैं उपद्रव योग॥२॥ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिभ्यो नमः षोडशगुणसंयुक्तसिद्ध सिद्धपरमेष्ठिः अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनः। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं ! अथाष्टकं - गीता छन्द हिमशैल धवल महान कठिन पाषाण तुम जस रासते। शरमाय अरु सकुचाय द्रव्य है वही गंगा तासतें॥ सम्बन्ध योग चितार चित्त भेंटार्थ झारी में भीं। षोडश गुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूँ॥१॥ ॐ ह्रीं णमो अन्यावाहं सिद्धपरमेष्ठिने नमः श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम त्तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह षोडशगुणसंयुक्ताय जलं निर्व. स्वाहा ॥१॥ काश्मीर चन्दन आदि अन्तर बाह्य बहुविधि तप हरै। यहकार्यकारणलखिनिमितममभाव बहुउद्यधकरै। मैं हूँ दुःखी भवताप से घसि मलय चरनन ढिंग धरूँ। षोडश गुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूँ॥ ॐ ह्रीं णमो सिद्धांण श्री सिद्धपरमेष्ठिने नमः श्री समत्तणाणदमसवीर्य सुहम त्तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वाह षोडशगुणसयुक्ताय चंदनं निर्व. स्वाहा ॥२॥ सौरभि चमक जिस सह न सकि अम्बुज वसै सरताल में। शशिगगन बसि नित होत कृशअहिनिश भ्रमै इसख्याल में॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] श्री सिद्धचक्र विधान सो अक्षतौध अखण्ड अनुपम पुञ्ज करि सन्मुख धरूँ। षोडशगुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूँ॥अक्षतं.॥ जग प्रगट काम सुभट विकट कर हट करत जिय घट जगा। तुम शील कटक सुघट निकट सरचाप पटक सुभट भगा। इम पुष्पराशि सुवाम तुम ढिंग कर सुयश बहु उच्चरूँ। षोडश गुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूँ ॥ ___ॐ ह्रीं णमो सिद्धांण श्री सिद्धपरमेष्ठिने नमः श्री समत्तणाणदसणवीर्य सुहम तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वाह सोलहगुणसयुंक्ताय पुष्पं निर्व. स्वाहा ॥२॥ जीवन सतावन नहिं अघावत क्षुधा डाइन-सी बनी। सोतुमहनीतुम ढिंगनआवतनजान यह विधिहम ठनी॥ नैवेद्य के संकेत करि निज क्षुधानाशन विधि वरूँ। षोडशगुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूँनैवेद्यं ॥५॥ मैं मोह अन्ध अशक्त अरू यह विषम भववन है महा। ऐसे रुलेको ज्ञानदुति बिन पार निवारण हो कहा॥ सो ज्ञान चक्षु उधार स्वामी दीप ले पाइन परूँ। षोडशगुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूँ॥दीपं.॥ प्रासुक सुगन्धित द्रव्य सुन्दर दिव्य घ्राण सुहावनो। धरि अग्नि दश दिस वास पूरित ललित धूम्र सुहावनो॥ तुम भक्ति भाव उमंग करत प्रसंग धूप सु विस्तरूँ। षोडशगुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूँ॥धूपं. ॥७॥ चित हरन अचित सुरंग रसपूरित विविध फल सोहने। रसना लुभावन कल्पतरु के सुर असुर मन मोहने॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [ १३ भरि थाल कञ्चन भेंट धरि संसार फल तृष्णा हरुँ । षोडश गुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूँ । फलं ॥८ ॥ शुभ नीर वर काश्मीर चन्दन धवल अक्षत युत अनी । वर पुष्पमाल विशाल चरू सुरमाल दीपक दुति मनी ॥ वर धूप पक्व मधुर सुफल लै अर्घ अठ विधि संचरूँ । षोडश गुणान्वित सिद्धचक्र चितार उर पूजा करूँ ॥ अर्घ ॥ ९ ॥ गीता छन्द निर्मल सलिल शुभवास चन्दन धवल अक्षत युत अनी, शुभ पुष्प मधुकर नित रमै चरु प्रचुर स्वाद सुविधि घनी । वर दीपमाल उजाल धूपायन रसायन फल भले, करि अर्घ सिद्ध समूह पूजत कर्मदल सब दलमले ॥ ते कर्मवर्त नशाय युगपत ज्ञान निर्मल रूप हैं, दुःख जन्म टाल अपार गुण सूक्षम सरूप अनूप हैं ॥ - कर्माष्ट बिन त्रैलोक्य पूज्य अदूज शिव कमलापति, मुनि ध्येय सेय अभेय चहूँगुण, गेह द्यो हम शुभमती ॥ ॐ ह्रीं सिद्धचक्राधिपतये नमः समत्तणाणदि अट्ठगुणाणं महार्घं निर्वपामीति स्वाहा | अथ सोलह गुण सहित अर्घ त्रोटक छन्द दर्शन आवर्णी प्रकृति हनी, अथिता अवलोक सुभाव बनी। इक साथ समान लखो सबही, नमूं सिद्ध अनन्त दृगण अबही ॥ ॐ ह्रीं अनन्तदर्शनाय नमः अर्घ्यं ॥ १ ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] श्री सिद्धचक्र विधान विधिज्ञानवर्ण विनाशकियो, निजज्ञानस्वभाव विकासलियो। समयान्तर सर्व विशेष जनों, नमूंज्ञान अनन्त सु सिद्ध तनों। ॐ ह्रीं अनन्तज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥२॥ सुखअमृत पीवत स्वेदनहो, निज भाव विराजन खेद न हो। असमानमहाबल धारत हैं, हम पूजत पाप बिडारत हैं। ___ॐ ह्रीं अतुलवीर्याय नमः अर्घ्यं ॥३॥ विपरीत सभीत पराश्रितता, अतिरिक्त धरै न, करैं थिरता। पर कीअभिलाषन सेवत है, निज भाविक आनन्द बेवत हैं। ___ॐ ह्रीं अनन्तसुखाय नमः अर्घ्यं ॥४॥ निजआत्म विकाशक बोधलह्यो, भ्रमको परवेशनलेश कह्यो। निजरूप सुधारस मग्न भये, हम सिद्धन शुद्ध प्रतीति नये॥ ___ॐ ह्रीं अनन्तसम्यक्त्वाय नमः अर्घ्यं ॥५॥ निज भाव विढार विभावन हो, गमनादिक भेद विकार नहो। निजथाननिरूपम नित्य बसैं, नमूं सिद्ध अनाचल रूप लसें। ____ॐ ह्रीं अचलाय नमः अर्घ्यं ॥६॥ चोपाई गुणपर्यय, परणति के भेद, अतिसूक्षम असमान अक्षेद। ज्ञान गहें, न कहैं जड़ बैन, नमों सिद्ध सूक्षम गुण ऐन ॥७ ___ॐ ह्रीं अनन्तसूक्ष्मत्वाय नमः अर्घ्यं ॥७॥ जन्म-मरण युत धरें न काय, रोगादिक संक्लेश न पाय। नित्य निरंजन निर विकार, अव्याबाध नमों सुखकार॥८ ॐ ह्रीं अव्यबाधाय नमः अर्घ्यं ॥८॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१५ एक पुरुष अवगाह प्रजन्त, राजत सिद्ध समूह अनन्त। एकमेक बाधा नहिं लहैं, भिन्न-भिन्न निजगुण में रहें। ___ॐ ह्रीं अवगाहनगुणाय नमः अर्घ्यं ॥९॥ काययोग पर्यापति प्रान, अनवधि छिन-छिन हीयमान। जरा कष्ट जग प्रानी लहैं नमों सिद्ध यह दोष न सहैं। ____ॐ ह्रीं अजराय नमः अर्घ्यं ॥१०॥ काल अकाल प्राण को नाश, पावै जीव मरन को त्रास। तासौं रहित अमर अविकार, सिद्ध समूह नमूं सुखकार ॥ ॐ ह्रीं अमराय नमः अर्घ्यं ॥११॥ गुण-गुण प्रति हैं भेद अनन्त, यों अथाह गुणयुत भगवन्त। हैं परमाण अगोचर तेह, अप्रमेय गुण बन्दूं ऐह ॥ ॐ ह्रीं अप्रमेयाय नमः अर्घ्यं ॥१२॥ भुजङ्गप्रयात छन्द अनुक्रमतें फर्सवर्णादिजानो, किसी एक विशेषको किं प्रमानो। पराधीन आपर्ण अज्ञानत्यागी,नमूं सिद्ध विगतेन्द्रय ज्ञान भागी॥ ____ ॐ ह्रीं अतीन्द्रियोत्सवाय नमः अर्घ्यं ॥१३॥ त्रिधा भेद भावित महाकष्टकारे, रमण भावसों आकुलित जीव सारे। निजानन्दरमणीयशिवनारस्वामी, नमों, पुरुषआकृतसबै सिद्धनामी। ____ ॐ ह्रीं अवेदाय नमः अर्ध्य ॥१४॥ विशेष सकलचेतनाधारमाहीं, भये लैभली विधिरहौभेद नाहीं। तथाहीनअधिकायकोभावटारी,नमोंसिद्धपूरणकलाज्ञानधारी॥ ॐ ह्रीं अभेदाय नमः अर्घ्यं ॥१५॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान निजानन्दरसस्वादमें लीनाअन्ता, मगनहोरराजवर्जित निरन्ता। कहाँलोकहूँआपकोपारनाही, धरोंआपकोआपहीआपमाहीं॥ ॐ ह्रीं अविलीनाय नमः अर्घ्यं ॥१६॥ अथ जयमाला - दोहा . पंच परम परमात्मा, रहित कर्म के फन्द। जगत प्रपंच रहित सदा, नमों सिद्ध सुखकन्द॥ त्रोटक छन्द . दुःखकारन द्वेष विडारन हो, वश डारन राग निवारन हो। भवितारण पूरणकारण हो, सब सिद्ध नमों सुखकारण हो। समयामृत पूरीत देव महौ, पर-आकृत मूरति लेश नहीं। विपरीत विभाव निवारन हो, सब सिद्ध नमोंसुखकारणहो॥ अखिनाअभिनाअछिनासुपरा,अभिदाअखिदाअविनाशवरा। यजमान जरादुःखजारन हो, सबसिद्ध नमों सुखकारण हो॥ निरआश्रितस्वाश्रितवासितहो, परकाश्रितखेदविनाशितहो। विधि हारन पारन धारन हो, सब सिद्ध नमों सुखकारण हो। अमुधाअछुधाअद्विधाअविधं, अकुधासुसुधासुबुधासुसिधं । विधिकाननदहन हुताशनहो, सबसिद्धनमोंसुखकारणहो॥ शरनं चरनं मरनं करनं, धरनं डरनं मरनं हरनं । तरनं भववारिधितारन हो, सबसिद्ध नमों सुखकारण हो॥ भववास तरास विनाशन हो, दुःखरास विनास हुताशन हो। निजदासन त्रास निवारन हो, सबसिद्धनमों सुखकारणहो॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१७ तुम ध्यावत शाश्वत व्याधि दहै, तुम पूजत ही पद पूजि लहै। शरणागत सन्त उभारन हो, सब सिद्ध नमों सुखकारण हो॥ दोहा सिद्धवर्ग गुण अगम है, शेष न पावै पार । हम किंह विधि वरणन करैं भक्ति भाव उर धार ॥९॥ ॐ ह्रीं अनन्तदर्शनज्ञानादि षोडशगुणसंयुक्तसिद्धेभ्यो महायँ । इति द्वितीय पूजा सम्पूर्णम्। ___'ॐ ह्रीं अहँ अ सि आ उ सा नमः' मंत्र का यहाँ १०८ बार जाप करें। अथ तृतीय पूजा बतीस गुण सहित छप्पय छन्द ऊरध अधो सुरेफ हिन्दु हकार बिराजे । अकरादि स्वर लिप्तकर्णिका अन्त सु छाजे ॥ वर्गन पूरित वसुदल अम्बुज तत्त्व संधिवर । अग्रभाग में मन्त्र अनाहत सोहत अतिवर ॥ फुनि अंत ह्रीं वेड्यो परम सुर, ध्यावत अरिनागको। के हरिसम पूजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो॥१॥ ___ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्रीसिद्धपरमेष्ठिनः बत्तीस गुणसहित विराजमान अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं! . Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] श्री सिद्धचक्र विधान दोहा . सूक्ष्मादि गुण रहित हैं, कर्म रहित नीरोग। सकल सिद्ध सो थापहूँ, मिटें उपद्रव योग ॥२॥ इति यन्त्र स्थापनं अथाष्टकं तुम पूजोरे भाई, सिद्धचक्रबत्तीसगुण, तुम पूजोरे भाई। भवत्रासित आकुलित रहैं, भवि कठिन मिटन दुःखताई॥ विमलचरणतुमसलिलधारदे, पायोसहज उपाई॥तुम पुजोरे. ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिने नमः श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम तहे व अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह बतीसगुणसंयुक्तेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ जगवन्दन परसत पदचन्दन, महाभाग उपजाई। हरिहरआदिलोकवर उत्तम, करधरशीशचढ़ाई। तुम पूजोरे. ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिने नमः श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम तहे व अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह बतीसगुणसंयुक्तेभ्यो संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ शिवनायक पूजन लाडक है, यह महिमा अधिकाई। अक्षयपद दायक अक्षत यह, सांचों नाम धराई ॥ पूजोरे. ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिने नमः श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम तहे व अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह बतीसगुणसंयुक्तेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१९ : आप श्राप कर पुष्पचाप धर मम डर शरण उपाई। यह निश्चय करि पुष्प भेटं धरि मांगूवर शिवराई ।तुम पूजोरे. ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिभ्यो नमः श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम त्तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह बतीसगुणसंयुक्तेभ्यो कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ चरुवर प्रचुर क्षुधा नहीं मेटत, पूर परौ इन ताई। भेंट करत तुम इनहूँ न भेटू, रहूँ चिरकालअघाई।तुम पूजोरे. ___ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिभ्यो नमः श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह बतीसगुणसंयुक्तेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥ दिव्य रत्न इस देश काल में, कहै कौन हैं नाहीं। तुम पद भेटें दीप प्रगट यह, चिन्तामणि पद पाई।तुम पूजोरे. ___ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिभ्यो नमः श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह बतीसगुणसंयुक्तेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ धूप हुताशन वासन में धर, दसदिस वास वसाई। तुमपदपूजतयाविधिवसुविधि, ईंधनजरहोछाई।तुमपूजोरे. ___ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिभ्यो नमः श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम त्तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह बतीसगुणसंयुक्तेभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥७॥ सर्वोत्तम फल द्रव्य ठान मन, पूजू हूँ तुम पाई। जासौं जजें मुक्तिपद पइये, सर्वोत्तम फलदाई ।तुम पूजोरे. ___ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिने नमः श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम त्तहे व अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह बतीसगुणसंयुक्तेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥८॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] श्री सिद्धचक्र विधान वसुविधिअर्घ देऊँ तुम ममद्यौ, वसुविधि गुणसुखदाई। जासु पाय वसु त्रास न पाऊँ, सन्त कहे हर्षाई तुम पूजोरे. ___ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिने नमः श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम त्तहे व अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह बतीसगुणसंयुक्तेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ॥९॥ गीता छन्द निर्मल सलिल शुभवास चन्दन धवल अक्षत युत अनी, शुभ पुष्प मधुकर नितरमें चरू प्रचुर स्वाद सुविधि घनी। वर दीपमाल उजाल धूपायन रसायन फल भले, करि अर्घ सिद्ध समूह पूजत कर्मदल सब दलमले॥ ते कर्म प्रकृति नशाय युगपत ज्ञान निर्मल रूप हैं, दुःख जन्म टाल अपार गुण सूक्षम स्वरूप. अनूप हैं। कर्माष्ट बिन त्रैलोक्य पूज्य अदूज शिव कमलापती, मुनि ध्येय सेय अभेय चहुँगुण, गेह धो हम शुभमती॥ ॐ ह्रीं सिद्धचक्राधिपतये नमः समत्तणाणादि अष्टगुणाणं महाघ निर्वपामीति स्वाहा। (नामवली प्रत्येक अर्घ) अथ बत्तीस गुण सहित अर्घ पद्धड़ी छन्द चेतन विभावपुद्गल विकार, हैं शुद्धबुद्ध तिस निमितटार। दृगबोध सुरूप सुभाव एह, नमूं शुद्ध चेतना सिद्ध देह ॥१॥ ॐ ह्रीं अहँ शुद्ध चेतनाय नमः अर्घ्यं ॥१॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [ २१ मति आदि भेद विच्छेद कीन, छायक विशुद्ध निज भाव लीन । निरपेक्ष निरन्तर निर्विकार, नमूं शुद्ध ज्ञानमय सिद्ध सार ॥ ॐ ह्रीं अर्हं शुद्धज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥२॥ सर्वांग चेतना व्याप्तरूप, तुम हो चेतन व्यापक सरूप। परलेश न निज परदेश मांहि, नमूं सिद्ध शुद्ध चिद्रूप ताहि ॥ ॐ ह्रीं अर्हं शुद्धचिद्रूपाय नमः अर्घ्यं ॥३ ॥ अन्तर विधि उदय विपाकटार, तुम जाति भेद वाहिज बिडार । निज परिणति में नहीं लेश शेष, नमूं शुद्धरूप गुणगण विशेष ॥ ॐ ह्रीं अर्हं शुद्धस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥४॥ रागादिक परिणतिकी विध्वंस, आकुलित भाव राखौ न अंश । पायौ निज शुद्ध स्वरूप भाव, नमूं सिद्धवर्ग धर हिये चाव ॥ ॐ ह्रीं अर्ह परमशुद्धस्वरूपभावाय नमः अर्घ्यं ॥५ ॥ दोहा तिहूँ काल में ना डिगे, रहैं निजानन्द थान । नमूं शुद्ध दृढ़ गुण सहित, सिद्धराज भगवान ॥६॥ ॐ ह्रीं अर्हं शुद्धद्दढ़ाय नमः अर्घ्यं ॥ ६ ॥ निज आवर्तक में बसें, नित ज्यों जलधि कलोल । नमूं शुद्ध आवर्तकी, करि निज हिये अडोल ॥७ ॥ ॐ ह्रीं अर्हं शुद्धआवर्तकाय नमः अर्घ्यं ॥७ ॥ परकृत कर उपज्यो नहीं, ज्ञानादिक निज भाव । नमों सिद्ध निज अमलपद, पायो सहज सुभाव ॥८ ॥ ॐ ह्रीं अर्हं शुद्धस्वयंभवे नमः अर्घ्यं ॥८ ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] श्री सिद्धचक्र विधान पद्धड़ी छन्द निजसिद्ध अनन्त चतुष्टय पाय, निजशुद्ध चेतना पुञ्जकाय। निजशुद्ध सबै पायो संयोग, तुम सिद्धराज स्वशुद्ध जोग॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धयोगाय नमः अर्घ्यं ॥९॥ एकेन्द्रिय आदिक जातभेद, हीनांधिक नाम प्रकृति छेद। सम्पूरण लब्धि विशुद्ध जात हम, पूजैं हैं पद जोर हाथ॥ __ॐ ह्रीं अहँ शुद्धजाताय नमः अर्घ्यं ॥१०॥ दोहा महातेज आनन्दधन, महातेज परताप। नमों सिद्ध निजगुण सहित, दिपै अनूपम आप॥११॥ ___ॐ ह्रीं अहँ शुद्धतपसे नमः अर्घ्यं ॥११॥ पद्धड़ी छन्द वर्णादिक कोअधिकार नाहिं, संस्थान आदि आकार नाहिं। अति तेजपिण्डचेतनअखण्ड, नमूंशुद्धमर्तिक कर्मखण्ड॥ . ॐ ह्रीं अहँ शुद्धमूर्तये नमः अर्घ्यं ॥१२॥ वाहिज पदार्थ को इष्ट मान, महिं रमत ममत तासों जु ठान। निजअनुभवरसमें सदालीन, तुमशुद्धसुखीहमनमनकीन॥ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धसुखाय नमः अर्घ्यं ॥१३॥ दोहा . धर्म अर्थ अरु काम बिन, अन्तिम पौरुष साध। भये शुद्ध पुरुषारथी, नमूं सिद्ध निरबाध ॥१४॥ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धपौरुषाय नमः अर्घ्यं ॥१४॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२३ पुद्गल निरमापितवर्णयुक्त, विधिनामरचित तासों विमुक्त। पुरुषांकित चेतनमय प्रदेश, तु शुध्ध शरीर नमूं हमेश ॥ ॐ ह्रीं अहं शुद्धशरीराय नमः अर्घ्यं ॥१५॥ दोहा पूरण के वल ज्ञानगम, तुम स्वरुप निर्बाध । और ज्ञान जानैं नहीं, नमों सिद्ध तन आध॥१६॥ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धप्रमेयाय नमः अर्घ्यं ॥१६॥ दरशन ज्ञान सुभेद हैं चेतन लक्षण योग। पूरण भई विशुद्धता, नमों शुद्ध उपयोग ॥१७॥ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धपयोगाय नमः अर्घ्यं ॥१७॥ परद्रव्य जनित भोगोपभोग, ते खेदरूप प्रत्यक्ष योग। निजरस स्वादन है भोगसार, सो भोगो तुम हम नमस्कार ॥ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धभोगाय नमः अयं ॥१८॥ दोहा निर्ममत्व युगपद लखो, तुम सब लोकालोक। शुद्ध ज्ञान तुमको लखो, नमों शुद्ध अवलोक ॥१९॥ . ॐ ह्रीं अहँ शुद्धवलोकाय नमः अर्घ्यं ॥१९॥ निरइच्छुक मन वेदी महान, प्रज्वलित अग्नि है शुक्लध्यान। निर्भेद अर्घ दे मुनि महान, तुमही पूजत अर्हन्त जान॥ .. ॐ ह्रीं अहँ शुद्धप्रज्वलितशुक्लध्यानाग्निजिनाय नमः अयं ॥२०॥ दोहा आदि अन्त वर्जित महा, शुद्ध द्रव्य की जात। स्वयं सिद्ध परमात्मा, प्रणमूं शुद्ध निपात ॥२१॥ __ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धनिपाताय नमः अर्ध्य ॥२१॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] श्री सिद्धचक्र विधान लोकालोक अनन्तवें, भाग बसो तुम आन। ये तुम सों अति भिन्न हैं, शुद्ध गर्भ यह जान ॥२२॥ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धगर्भाय नमः अर्घ्यं ॥२२॥ लोकशिखर शुभ थान है, तथा निजातम वास। शुद्ध वास परमात्मा, नमों सुगुण की रास ॥२३॥ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धवासाय नमः अर्घ्यं ॥२३॥.. अति विशुद्ध निज धर्म में, वसत नशत सब खेद। परम वास नमि सिद्ध को, वासी वास अभेद ॥२४॥ ॐ ह्रीं अर्ह विशुद्धपरमवासाय नमः अर्घ्यं ॥२४॥ बहिरन्तर द्वै विधि रहित, परमातम पद पाय। . निरविकार परमात्मा, नमूं नमूं सुखदाय॥२५॥ . ॐ ह्रीं अहँ शुद्धपरमात्मने नमः अर्घ्यं ॥२५॥ हीन अधिक इक देशको, विकल विभाव उछेद। शुद्ध अनन्त दशा लई, नमूं सिद्ध निरभेद ॥२६॥ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धअनन्ताय नमः अर्घ्यं ॥२६॥ त्रोटक छन्द तुमरागविरोधविनाशकियो,निजज्ञानसुधारसस्वादलियो। तुम पूरणशान्ति विशुद्धधरो, हमकोइक देश विशुद्ध करो॥ ____ॐ ह्रीं अहँ शुद्धशान्ताय नमः अर्घ्यं ॥२७॥ विद पण्डित नाम कहावत हैं विद अन्तु जु अन्तहि पावत हैं। निजज्ञान प्रकाशसुअन्तलहो, कुछ अंशनजानन माहिरहो। ॐ ह्रीं अहँ शुद्धविदन्ताय नमः अर्घ्यं ॥२८॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२५ वरणादिक भेद विडारन हो, परिणाम कषाय निवारन हो। मन इन्द्रियज्ञानन पावत हो, अतिशुद्ध निरूपमज्योतिमही॥ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धज्योतिर्जिनाय नमः अर्घ्यं ॥२९॥ जन्मादिक व्याधिन फेरिधरो, मरणादिक आपद नाहिं वरो। निर्वाण महान विशुद्ध अहो, जिन शासन में परसिद्ध कहो॥ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धनिर्वाणाय नमः अर्घ्यं ॥३०॥ करिअन्त नगर्भलियो फिरकें, जनमे शिववासजनमधरके। जिनको फिर गर्भ न हो कबहूँ, शिवराज कहाय नमूं अबहूँ॥ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धसंदर्भगर्भाय नमः अयं ॥३१॥ जगजीवन पाप नशायक हो, तुम आप महा सुखनायक हो। तुम मंगल मूरति शांति सही, सब पाप न तुम पूजत ही॥ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धशान्ताय नमः अर्घ्यं ॥३२॥ जयमाला - दोहा पञ्च परमपद ईश हैं, पञ्चमगति जगशीश। जगत प्रपञ्च रहित बसे, नमूं सिद्ध जग ईश॥३३॥ परम ब्रह्मा परमातमा,परम ज्योति शिवथान। परमातम पद पाईयो, नमों सिद्ध भगवान ॥१॥ छन्द - कामिनी मोहन, मात्रा २० जन्म मरण कष्ट को टारि अमरा भये, जरादि रोग व्याधि परिहार अजरा भये। जय द्विविध कर्ममल जार अमला भये . जय दुविधि टार संसार अनला भये॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान २६ ] जय जगत वास तज जगत स्वामी भये, जय विनाशनाम थित परम नामी भये । जय कुबुधि रूप तजि सुबुधि रूपा भये, जय निषध दोष तज सुगुण भूपा भये ॥ कर्मरिपु नाश कर परम जय पाईए, लोकत्रयपूरि तुम सुजस घन छाईये । इन्द्र नागेन्द्र धरसीस तुम पद जजें, महा वैराग रस पाग मुनिगण भजैं ॥ विघन वन दहन दौ अघन घन पौन हो, . सघन गुण रासके, बासको भौन हो । शिव तिय वसकरन मोहिनी मन्त्र हो, कर्म छयकार वैताल के यन्त्र हो ॥ कोटि थित क्लेशको मेटि शिवकर रहो, उपलकी नकल हो अचल इकथल रहो । स्वप्न में हू निज अर्थ को पावहीं, जे महा खलन तुम ध्यान धरि ध्यावही ॥ आपके जाप बिन पाप सब भेंट ही, पाप की ताप को पाप कब मेंटही । सन्त निज दास को आस पूरी करो, जगत से काढ निज चरण में ले धरो ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान धत्ता जय अमल अनूपं शुद्ध स्वरूपं, [ २७ निखिल निरूपं धर्म धरा । जय विघन नशायक मंगलदायक, तिहूँ जगनायक परमपरा ॥ ॐ ह्रीं सिद्धचक्राधिपतये नमः द्वात्रिशतगुणसंयुक्तसिद्धेभ्यो पूर्णार्थ्यां निर्वपामीति स्वाहा । ॐ ह्रीं अर्ह असि आउ सा नम: मंत्र का यहाँ १०८ वार जाप देना है । O चतुर्थ पूजा चौषठि गुण सहित चतुःषष्ठि दलोपरि चतुर्थ पूजा उच्चते छप्पय छन्द उरध अधो सुरेफ बिन्दु हकार विराजे । अकारादि स्वर लिप्तकर्णिका अन्त सु छाजे ॥ वर्गन पूरित वसुदल अम्बुज तत्व संधिवर । अग्रभाग में मन्त्र अनाहत सोहत अतिवर ॥ फुनि अंत ह्रीं बेढ़यो परम सुर, ध्यावत अरिनागको । है केहरिसम पूजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो ॥१ ॥ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिनः अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं ! परिपुष्पांजलि क्षिपेत् । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] श्री सिद्धचक्र विधान दोहा सूक्ष्मादि गुण सहित हैं, कर्म रहित नीरोग। सिद्धचक्र सो थापहूँ, मिटैं उपद्रव योग॥२॥ ___ इति यन्त्र स्थापनं अथाष्टकं चाल लावनी सिद्धगणपूजोहरखाई, चौसठिसगुणनामा विधिमाला। सुमरों सुखदाई, सिद्धगण पूजोरे भाई॥आंचली॥ त्रिभुवन उपमा वास लखें, तुम पद अम्बुज के माई। निर्मल जल की धार देहू, अवशेष करणताई। सिद्ध.॥ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिने चौसठिगुण सहित श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम त्तहे व अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ तुम पद. अम्बुज वास लेन मनु, चन्दन मन भाई। निजसों गुणाधिक्य संगति को, लहिय न हरषाई॥ सिद्ध.॥ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिने चौसठिगुण सहित श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम तहे व अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ क्षीरज धान सुवासित नीरज, करसों छरलाई। अंगुल से तन्दुलसों पूजत, अक्षय पद पाई॥ सिद्ध.॥ _____ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिने चौसठिगुण सहित श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम तहे व अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२९ धूलि सार छवि हरण विवर्जित, फूलमाल लाई। काम शूल निरमूल करणकों,पूजहुँ तुम पाई॥ सिद्ध.॥ ___ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिने चौसठिगुण सहित श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम त्तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ भूख गार अक्षीण लगी हूँ ,पूरित है नाई। चारुमाल तुम पद पूजत हों, पूरण शिवराई ॥ सिद्ध.॥ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिने चौसठिगुण सहित श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम त्तहेव अवगहण अगुरुलघुअव्वावाह क्षुधारोगविनाशनाय नैवद्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥ दीपनिप्रति तुम यदनित यूजत, शिव मारगदरशाई। घोर अन्ध संसार हरण की, भली सूझ पाई॥ सिद्ध.॥ ___ॐ ह्रीं. णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिने चौसठिगुण सहित श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम त्तहे व अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा॥६॥ कृष्णागरु कर्पूर पूर घट, अगनि से प्रजलाई। उडै धूम यह, उडे किधों जर करमन की छाई॥ सिद्ध.॥ ___ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिने चौसठिगुण सहित श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम त्तहे व अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥७॥ मधुर मनोग सुप्रासुक फलसों, पूजों शिवराई। यथायोगविधिफलकोदे गुण, फलकीअधिकाई॥सिद्ध.॥ ___ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिने चौसठिगुण सहित श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥८॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] श्री सिद्धचक्र विधान निरघ उपावन पावन वसुविधि, अर्घ हर्ष ठाई। भेंट धरत तुमरे पद आगे, पाऊँ निर आकुलताई॥ सिद्ध.॥ ___ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिने चौसठिगुण सहित श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम त्तहे व अवग्गहण अगुरुलघुअव्वावाह अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ॥९॥ गीता छन्द निर्मल सलिल शुभवास चन्दन धवल अक्षत युत अनी, शुभ पुष्प मधुकर नित रमें चरु प्रचुर स्वाद सुविधि घनी। वर दीपमाल उजाल धूपाइन रसायन फल भले, करि अर्घ सिद्ध समूह पूजत कर्मदल सब दलमले॥ ते कर्म प्रकृति नशाय युगपत ज्ञान निर्मल रूप हैं, दुःख जन्म टाल अपार गुण सूक्षम स्वरूप अनूप हैं। कर्माष्ट बिन त्रैलोक्य पूज्य अदूज शिव कमलापती, मुनि ध्येय सेय अभेय चहुँगुण, गेह धो हम शुभमती॥ ॐ ह्रीं अहँ सिद्धचक्राधिपतये महाधू निर्वपामीति स्वाहा। चौषठि गुण सहित अर्घ चाल छन्द चउ घाती कर्म नशायो, अरहन्त परमपद पायो। द्वै धर्म कहो सुखकारा, नमूं सिद्ध भए अविकारा॥ ॐ ह्रीं अरहन्तजिनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१॥ संक्लेश भाव परिहारी, भए अमल अवधि बलधारी। सो अतिशय केवलज्ञाना, उपजाय लियो शिवथाना॥ ॐ ह्रीं अवधिजिनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥२॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३१ निर्मल चारित्र समारा, परमावधि पटल उघारा। केवल पायो तिस कारण, नमूं सिद्ध भये जग तारण॥ ॐ ह्रीं परमावधिजिनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥३॥ वर्द्धमान विशद परिणामी, सर्वावधि के हो स्वामी। अन्तिम वसुकर्म नसाया, नमूं सिद्ध भये सुखदाया॥ ॐ ह्रीं सर्वावधिजिनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥४॥ जिस अन्त अवधिको नाहीं, तुम उपजायो पद ताहीं। निर्मल अवधि गुणधारी, सब सिद्ध नमूं सुखकारी॥ ह्रीं अनन्तावधिजिनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥५॥ तप बल महिमा अधिकाई, बुद्धि कोष्ट रिद्धि उपजाई। श्रुत ज्ञान कोष्ठ भंडारी, नमूं सिद्ध भये अविकारी॥ ___ ॐ ह्रीं कोष्ठबुद्धिऋद्धिजिनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥६॥ ज्यों बीज फले बहुरासी, त्यों छिनही बहु अभ्यासी। यह पावत ही योगीशा, भये सिद्ध नमूं शिव ईशा॥ ॐ ह्रीं बीजबुद्धिऋद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥७॥ पदमात्र समस्त चितारे, है रिद्धि पाद अनुसारे। यह पाय यतीश्वर ज्ञानी भये सिद्ध नमूं शिवथानी॥ ___ॐ ह्रीं पादनुसारिणीऋद्धिजिनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥८॥ जो भिन्न-भिन्न इक लारें, शब्दन सुन अर्थ विचारें। यह ऋद्धि पाय सुखदाता, नमूं सिद्ध भये जगत्राता॥ ॐ ह्रीं संभिन्न श्रोतृऋद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥९॥ मति श्रुत अर अवधि अनूपा, बिन गुरु के सहज सरूपा। भयो स्वयंबुद्ध निज ज्ञानी, नमूं सिद्ध भये सुखदानी॥ ॐ ह्रीं स्वयंबुद्धणरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१०॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] श्री सिद्धचक्र विधान जो पाय न पर उपदेशा, जानें तप ज्ञान विशेषा। प्रत्येक बुद्ध गुण धारी, भये सिद्ध नमूं हितकारी॥ ॐ ह्रीं प्रत्येकबुद्धऋद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥११॥ गणधर से समकित धारी, तुम दिव्यध्वनि अनुसारी। ज्ञानिनी सिरताज कहाये, भये सिद्ध सुजस हम गाये॥ ॐ ह्रीं अर्ह बोधबुद्धेणं नमः अर्घ्यं ॥१२॥ मन योग सरलता धारै, तिस अन्तर भेद उधारें। यों होय ऋजुमति ज्ञानी, नमूं सिद्ध भये सुखदानी॥ ॐ ह्रीं ऋजुमतिऋद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१३॥ . बांके मन के सब वाता, जानों सो विपुल कहाता। तुम पाय भये शिवधामी, नमूं सिद्धराज अभिरामी॥ ॐ ह्रीं विपुलमतिऋद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१४॥ सुर विद्या को नहीं चाहैं, निज चारित विरद निवाहैं। दस पूर्व ऋद्धि यह पायो, भये सिद्ध मुनिन गुण गायो॥ . ॐ ह्रीं दसपूर्वरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१५॥ चौदह पूरव श्रुतज्ञानी, जानें परोक्ष परमानी। प्रत्यक्ष लखो तिस सारूँ, भये सिद्ध हरों अर्घ म्हारूँ॥ ॐ ह्रीं चौदहपूर्वरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१६॥ सुन्दरी छन्द ज्योतिषादिक लक्षण जानकैं., शुभ अशुभ फल कहत बखानिकै। निमित ऋद्धि प्रभाव न अन्यथा, होय सिद्ध भये प्रणमूं यथा ॥१७॥ ॐ ह्रीं अर्ह अष्टांगनिमित्तरिद्धिजिनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१७॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३३ बहु विधि अणिमादिक रिद्ध जू, तप प्रबाव भई तिन सिद्ध जू । निष्प्रयोजन निजपद लीन है, नमूं सिद्ध भये स्वाधीन है ॥१८॥ ॐ ह्रीं अहँ विवर्णरिद्धिजिनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१८॥ भूमि जल तंतु जिया ना हरै, . नमूं ते मुनि शिव कामिनी वरैं। नेक नहीं बाधा परिहार हो, , नमूं सिद्ध सभी सुखकार हो॥१९॥ - ॐ ह्रीं अहँ विजाहरणरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१९॥ जंघपर दो हाथ लगावहीं, . अन्तरीक्ष पवनवत जावहीं। पाय ऋद्धि महामुनि चारणी, - यथायोग्य विशुद्ध विहारिणी॥२०॥ .. ॐ ह्रीं अहँ चारणरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥२०॥ खग समान चलैं आकाश में, लीन नित निज धर्म प्रकाश में। . शुद्ध चरण करि निज सिद्धता, पाइयो हम नमन करें यथा ॥२१॥ ॐ ह्रीं अर्ह आकाशगामिनीरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥२१॥ वाद विद्या फुरत प्रमानही, वज़सम परमतगिरि हानही। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] श्री सिद्धचक्र विधान सब कुपक्षी दोष प्रगट करें, स्यादवाद महादुति को धरै ॥२२॥ ॐ ह्रीं अहं परामर्शरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अयं ॥२२॥ . विषम जहर मिला भोजन करें, लेत ग्रासहिं तिस शक्ति हरैं। ते महामुनि जग सुखदाय जू, ... हम नमें तिन शिवपद पाय जू ॥२३॥ ॐ ह्रीं अर्ह आशीविषरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥२३॥ जो महाविष अति परचण्ड हो, दृष्टि करि तिन कीने खण्ड हो। सो यतीश्वर कर्म विडारकैं, .. भये सिद्ध नमूं उर धारकै ॥२४॥ ॐ ह्रीं अहं दृष्टिविषरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥२४॥ अनशनादिक नित प्रति साधना, __ मरणकाल तई न विराधना। उग्र तप करि वसुविधि नासतें, हम नमें शिवलोक प्रकाशतें ॥२५॥ ॐ ह्रीं अहँ उग्रतपरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥२५॥ बढति नित प्रति सहज प्रभावना, - उग्र तप करि क्लेश न पावना। दीप्ति तप करि कर्म जरायकैं, भये सिद्ध वमं सिर नायकें ॥२६॥ ॐ ह्रीं अहँ दीप्ततपरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अयं ॥२६॥ । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३५ अन्तराय भये उत्सव बढे, बाल चन्द्र समान कला चढे । वृद्धि तप की ऋद्धि लहैं यती, सिद्ध नमत सुख हो अति ॥२७॥ ___ॐ ह्रीं अहँ तपोवृद्धिरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अयं ॥२७॥ सिंह क्रीडित आदि विधानते, ... नित बढावत तप विधि मानतें। महामुनीश्वर तप परकाशतें, - नमूं मुक्ति भये जगवासतें ॥२८॥ . ॐ ह्रीं अहँ महातपोरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अयं ॥२८॥ शिखिरगिरि ग्रीषम, हिम सरतटैं, . तरु निकट पावस निजपद रटैं। घोर परिषह करि नाहीं हटैं, भये सिद्ध नमत हम दुःख कटैं॥२९॥ ___ ॐ ह्रीं अर्ह घोरतपोरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥२९॥ महाभयङ्कर निमित मिलै जहाँ, निर्विकार यती तिष्ठं तहाँ। महा पराक्रम गुण की खान हैं, नमो सिद्ध जगत सुखदान हैं ॥३०॥ ॐ ह्रीं अहँ घोरगुणरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥३०॥ सघन गुण की रास महायती, रत्नराशि समान दिपैं अती। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६] श्री सिद्धचक्र विधान शेष जिन वर्णन करि थकि रहैं, नमूं सिद्ध महापद को लहैं ॥३१॥ ॐ ह्रीं अर्ह घोरगुणवरिक्रमाणरिद्धि नमः अर्घ्यं ॥३१॥ अतुल वीर्य धनी हन काम को, चलत मन न लखत सुर बाम को। .. बालबह्मचारी योगीश्वरा, नमूं सिद्ध भये वसुविधि हरा॥३२॥ ॐ ह्रीं अर्ह ब्रह्मचर्यरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥३२॥ सकल रोग मिटै संस्पर्शते, महायतीश्वर के आमर्शतें। औषधी यह ऋद्धि प्रभावना, . भये सिद्ध नमत सुख पावना॥३३॥ ____ ॐ ह्रीं अहँ आमर्षरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥३३॥ मूत्र में अमृत अतिशय वसै, जा परसते सब व्याधि नसै। औषधी यह ऋद्धि प्रभावना, भये सिद्ध नमत सुख पावना ॥३४॥ ॐ ह्रीं अहँ आमोसियऔषधिरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥३४॥ तन पसीजत जलकन लगत ही, रोग व्याधि सर्व जन भगत ही। औषधी यह ऋद्धि प्रभावना, भये सिद्ध नमत सुध पावना ॥३५॥ ॐ ह्रीं अहँ जलोसियरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥३५॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३७ हस्त पादादिक नखकेश में, सर्व औषधि हैं सब देश में। औषधी यह ऋद्धि प्रभावना, भये सिद्ध नमत सुख पावना॥३६॥ ॐ ह्रीं अर्ह सर्वोसियऔषधिरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अयं ॥३६ ।। __ अडिल्ल मन सम्बन्धी वीर्य बढ़े अतिशय महा, एक महूरत अन्तर श्रुत चिंतन लहा। मनोबली यह ऋद्धि भई सुखदाइ जू, भये सिद्ध सुखदाय जजू तिन पायजू॥३७॥ ॐ ह्रीं अहँ मनोबलीरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥३७॥ भिन्न-भिन्न अति सुद्ध उच्च स्वर उच्चरै, __ एक महूरत अन्तर श्रुत वर्णन करें। वचनबली यह ऋद्धि भई सुखदाय जू, भये सिद्ध सुखदाय जजू तिन पांय जू॥३८॥ ॐ ह्रीं अर्ह वचनबलरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥३८॥ खड्गासन इक अंग मासछै मास लों, - अचलरूप थिर हैं छिनक खेदित न हों। कायबली यह ऋद्धि भई सुखदाय जू, भये सिद्ध सुखदाय जजू तिन पांय जू॥३९॥ ॐ ह्रीं अर्ह कायबलरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अयं ॥३९॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] श्री सिद्धचक्र विधान अति अरस चरू क्षीर होयकर धरत ही, वचन खिरतपर श्रवण तुष्टता करत ही। क्षीरस्त्रवी यह ऋद्धि भई सुखदाय जू, भये सिद्ध सुखदाय जजू तिन पांय जू॥४०॥ ॐ ह्रीं अहँ क्षीरस्रावीरिद्धिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥४०॥ रूखे भोजन से कर में घृत रस स्रवै, वचन सुनत परको घृत सम्वादित हवै। घृतस्त्रावी यह ऋद्धि भई सुखदाय जू, भये सिद्ध सुखदाय जजू तिन पांच जू॥४१॥ ॐ ह्रीं अहँ घृतस्त्रावीऋद्धिजिनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥४१ ।। हस्तकमल अन्न मधुर रस देत हैं, . मधुकर सम जिय वचन गंगको लेत हैं। मधुस्रावी यह ऋद्धि भई सुखदाय जू, भये सिद्ध सुखदाय जजू तिन पांय जू॥४२॥ ॐ ह्रीं अहँ मधुस्रावीऋद्धिजिनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥४२ ।। अमृतसम आहार होय कर आयके, वचनामृत दे सुक्ख श्रवण में जायके। आमियरस यह ऋद्धि भई सुखदाय जू, . भये सिद्ध सुखदाय जजू तिन पांय जू॥४३॥ ॐ ह्रीं अर्ह अमृतरसऋद्धिजिनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥४३॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान जिस वासन जिस थान आहार करें यती, चक्री सेना खाय अखे होवे अती । अक्षीण रसी यह ऋद्धि भई सुखदाय जू, भये सिद्ध सुखदाय जजूं तिन पांय जू ॥४४॥ ॐ ह्रीं अर्हं अक्षीणरसऋद्धिजिनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥ ४४ ॥ [ ३९ सोरठा सिद्धरास सुखदाय, वर्धमान नितप्रति लसे। नमूं ताहि सिर नाय, वृद्ध रूप गुण अगम हैं ॥ ४५ ॥ ॐ ह्रीं अर्ह वर्धमानसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥ ४५ ॥ रागादिक परिणाम, अन्तर के अरि नास के । लहि अरहन्त सु नाम, नमों सिद्धपद पाइया ॥ ४६ ॥ ॐ ह्रीं अरहन्तसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥ ४६ ॥ दो अन्तिम गुण थान, भाव सिद्ध इस लोक में । तथा द्रव्य शिव थान, सर्व सिद्ध प्रणमूं सदा ॥ ४७ ॥ ॐ ह्रीं लोएसव्वसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥ ४७ ॥ शत्रु व्याधि भय नाहिं, महावीर धीरज धनी । नमूं सिद्ध जिननाथ, संतनिके भव भयहरें ॥ ४८ ॥ ॐ ह्रीं भयविध्वंसकभगवते महावीरवडढमाणाय नमः अर्घ्यं ॥४८ ॥ क्षपक श्रेणी आरूढ, निजभावी योगी यथा । निश्चय दर्श अमूढ, सिद्धयोग सबही जजों ॥ ४९ ॥ ॐ ह्रीं योगसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥ ४९ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] श्री सिद्धचक्र विधान वीतराग परधान, ध्यान करें तिनको सदा। सोई ध्येय महान, नमो सिद्ध हम अघ हरो॥५०॥ ॐ ह्रीं ध्येयसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥५०॥ लोक शिखर शिवथान, अचल विराजत सिद्ध जिन। लोकवास सर्वान, भये सिद्ध प्रणमूं सदा ॥५१॥ ॐ ह्रीं सव्वसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥५१॥ . औरन करत कल्याण, आप सर्व कल्याणमय। सोई सिद्ध महान, मंगल हेतु नमूं सदा ॥५२॥ ॐ ह्रीं स्वस्तिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥५२॥ तीन लोक के पूज, सर्वोत्तम सुखदाय हैं। जिन सम और न दूज, तिनपद पूजों भाव युत॥५३॥ । ॐ ह्रीं अहँ सिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥५३॥ .. लोकोत्तम परधान, तिन पद पूजत हैं सदा। तारौं सिद्ध महान, सर्व-पूज्यके पूज्य हो ॥५४॥ ॐ ह्रीं अहँ सिद्धसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥५४॥ परम धरम निज साध, परमातम पद पाइयो। सोई धर्म अबाध, पूजत पद हम दीजिये ॥५५॥ ॐ ह्रीं परमात्मसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥५५॥ सर्व ऋद्धि नव निद्ध, सिद्ध भये नहिं सिद्ध हों। निजपद साधत सिद्ध, होत सही तिनको नमो॥५६॥ ॐ ह्रीं परमसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥५६॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४० , परमागम की शाख, परम अगम गुणगण सहित । . सोई मन में राख श्रद्धायुत पूजा करों ॥५७॥ ॐ ह्रीं परमागमसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥ ५७ ॥ गुण अनन्त परकाश, महाविभव मय लसत है। आवर्णित पद नाश, ते पूजूं प्रणमूं सदा ॥ ५८ ॥ ॐ ह्रीं प्रकाशमानसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥ ५८ ॥ स्वयं सिद्ध भगवान, ज्ञानभूत परकाश मय । लसत नमूं मन आन, मम उर चिन्ता दुःख हरो ॥५९ ॥ ॐ ह्रीं स्वयंभूसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥ ५९ ॥ मन इन्द्रियसों भिन्न, मन इन्द्री परकाश कर । सोई ब्रह्म अखिन्न, साधित सिद्ध भये नमूं ॥ ६० ॥ ॐ ह्रीं ब्रह्मसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥ ६० ॥ द्रव्य अनन्त गुणात्म, परणामी परसिद्ध के । सोई पद निज आत्म, साधत सिद्ध अनन्त गुण ॥ ६१ ॥ ॐ ह्रीं अनन्तगुणसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥६१ ॥ सर्व तत्त्वमय पर्म, गुण अनन्त परमातमा । सो पायो निज-धर्म, परम सिद्ध तिनको नमूं ॥ ६२ ॥ ॐ ह्रीं परम अनन्तसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥ ६२ ॥ लोक शिखर के वास, पायो अविचल थान निज । सर्व लोक परकाश, ज्ञानज्योति तिनको नमीं ॥ ६३ ॥ ॐ ह्रीं लोकवाससिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥ ६३ ॥ काल विभाग अनादि, शाश्वत रूप विराजते । यातें नहिं सो आदि, नमि अनादि सिद्धान को ॥६४॥ ॐ ह्रीं अनादिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥ ६४ ॥ श्री सिद्धचक्र विधान Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] श्री सिद्धचक्र विधान चापाइ दोहा सिद्धन के जु अनन्त गुण, कहि न सकें गणराय। तिन सिद्धन को में जजू, पूरण अर्घ चढ़ाय॥ ॐ ह्रीं अनन्तानन्त गुणात्मक सिद्धपरमेष्ठिभ्यो नमः अर्घ्य। __जयमाला - दोहा तीर्थङ्कर त्रिभुवन धनी, जा पद करत प्रणाम। हम किह मुख वर्णन करें, तिन महिमा अभिराम॥ चौपाई जयभविकुमुदनमोदनचन्दा,जयजिनन्दत्रिभुवनअरविन्दा। भव तपहरणशरणरस कूपा, मदज्वर वह्निहरण घनरूपा॥ अकथित महिमा अमित अथाई, निर उपमेय सरसता नाई। भावलिंग बिन कर्म खिपाई, द्रव्य लिंगबिन शिव पदपाई॥ नय विभागबिन वस्तुप्रमाणा, दयाभाव बिन नहिं कल्याणा। पंगु सुमेरु चूलिका परसैं, गूंग ज्ञान आरम्भे स्वरसै॥ यो अजोग कारज नहिं होई, तुम गुन कथन कठिन है सोई। सर्व जैन शासन जिनमाहीं, भाग अनन्त धरै तुम नाहीं॥ गोखुर में नहीं सिन्धु समावे, वायस लोक अन्त नहीं पावै। तातें केवल भक्ति भाव तुम, पावन करो अपावन उर हम॥ जे तुम यश निज मुख उच्चारै, ते तिहूँ लोक सुजस विस्तारैं। तुम गुण गान मात्र कर प्रानी, पावैं सुगुण महा सुखदानी॥ जिन चित ध्यान सलिल तुमधारा, ते मुनितीरथ हैं निरधारा। तुम गुण हंस तुम्हीं सरवासी, वचन जाल मे लेत न फांसी॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [ ४३ जगत बन्धु गुणसिन्धु दयानिधि, बीजभूत कल्याण सर्वसिधि । अक्षय शिव स्वरूप श्रिय स्वामी, पूरण निजानन्द विश्रामी ॥ शरणागत स्वस्व सुहितकर, जन्म-मरण दुःख आधि व्याधि हर । सन्त भक्ति तुम हो अनुरागी, निश्चै अजर अमर पद भागी ॥ घत्तानन्द छन्द जय जय सुखसागर सुजस उजागर, गुणगण आगर तारण हो । जय सन्त उधारण विपति विडारण, सुख विस्तारण कारण हो ॥ तुम गुण गान परम फलदान, सो मन्त्र प्रमाण विधान करूँ । कर्मनि बैरी कहरी, असहैरी भव की व्याधि हरूँ ॥ 'जहरी ॐ ह्रीं अर्हं चतुःषष्टिदलोपरिस्थितसिद्धेभ्यो नमः महार्घं निर्वपामीति स्वाहा । इत्याशीर्वादः । इति चतुर्थ पूजा सम्पूर्णम् । यहाँ पर ॐ ह्रीं अर्हं अ सि आ उ सा नमः मंत्र का १०८ • बार जाप देना चाहिये । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान पञ्चमी पूजा छप्पय छन्द ऊरध अधो सुरेफ बिन्दु हंकार बिराजे । अकारादि स्वर लिप्त कर्णिका अन्तु सु छाजे॥ वर्गन पूरित वसुदल अम्बुज तत्त्व सन्धिवर। अग्रभाग में मन्त्र अनाहत सोहत अतिवर॥ फुनि अंत है बेडयो परम सुर, ध्यावत अरिनागको। केहरिसम पूजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो॥१॥ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिनः अष्टविंशत्यधिकशत गुण सहित विराजमान अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं। दोहा- सूक्ष्मादि गुण सहित हैं, कर्म रहित नीरोग। सिद्धचक्र सो थापहूँ, मिटें उपद्रव योग॥२॥ इति यन्त्र स्थापन अथाष्टकं - चाल बारमासा छन्द चन्द्रवर्ण लखि चन्द्रकान्तमणि, मनतें स्त्रवै सुधारा हो। कंज सुवासित प्रासुक जलसों, पूजू पद अनुसारा हो। लोकाधीश शीश चूड़ामणि, सिद्धचरण उरधारा हो। चौसठि दुगुण सुगुण मणि सुमिरन सुमिरत ही भवपारा हो। ___ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्टिने एकसौ अट्ठाईसगुणसंयुक्ताय श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम त्तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वाह जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [४५ सुरगण मणिधर जासवासलहि, मदतजिगन्धलुभावत हैं। सोचन्दननन्दनवनभूषण,तुमपदकमलचढ़ावतहैं।लोका. ___ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्टिने एकसौ अट्ठाईसगुणसंयुक्ताय श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम त्तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वाह संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ चंपक ही के भ्रम भ्रमरावलि, भ्रमत चकित चकराज भए। शशिमण्डलजानोसोअक्षत, पुञ्जधारपदकञ्चनये।लोका. ___ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्टिने एकसौ अट्ठाईसगुणसंयुक्ताय श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वाह अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ मदन वदन दुतिहरन वरन रति, लोचन अलिगण छाय रहे। पुष्पमालवासित विशालसो, भेंटधरत उरकामदहे॥लोका. ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्टिने एकसौ अट्ठाईसगुणसंयुक्ताय श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम त्तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वाह कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ चितवत मन वरणत रसना रस, स्वाद लेत ही तृप्त थये। जन्मान्तर हू क्षुधा निवाएँ, सोनेवज तुम भेंट धरे ॥लोका. ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्टिने एकसौ अट्ठाईसगुणसंयुक्ताय श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वाह क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥ लवमणिप्रभा अनूपम सुर निज, शीश धरण की रास करै। याविनतुच्छ विभव निजजानें, सोदीपक तुम भेंटधरै॥लोका .. ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्टिने एकसौ अट्ठाईसगुणसंयुक्ताय श्री ममत्तणाणदंसणवीर्य सुहम तहे व अवग्गहण अगुरुलघुअव्वाह मोहान्धकारनिवाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६] श्री सिद्धचक्र विधान नीलाञ्जना सुरी नभ में ज्यों, ऋषभ भक्ति कर नृत्य कियो। सोतुमसन्मुखधूपउडावत,तिसछविकोनहींभावलियोलो ___ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्टिने एकसौ अट्ठाईसगुणसंयुक्ताय . श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वाह अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥७॥ सेव रंगीले अनार रसीले, केला की ले डाल फली। डाली हूंनृपमाली हू, नातर प्रासुकता कीरीति भली।लोका. ___ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्टिने एकसौ अट्ठाईसगुणसंयुक्ताय श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वाह मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥८॥ एकसौ एक अधिक सोहत वसु, जातिअर्घ करि चरण नमूं। आनन्दआरतिआरततजिकैं, परमारथहितकुमतिबमूंलोका. ___ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्टिने एकसौ अट्ठाईसगुणसंयुक्ताय श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहम त्तहेव अवग्गहण अगुरुलघुअव्वाह अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ॥९॥ गीता छन्द निर्मल सलिल शुभवास चन्दन धवल अक्षत युत अनी, शुभ पुष्प मधुकर नित रमें चरू प्रचूर स्वाद सुविधि घनी। वर दीपमाल उजाल धूपाइन रसायन फल भले, करि अर्घ सिद्ध समूह पूजत कर्मदल सब दलमले॥ ते कर्मवर्त न शाय युगपत ज्ञान निर्मल रूप हैं, दुःख जन्म टाल अपार गुण सूक्षम स्वरूप अनूप हैं। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [४७ कर्माष्ट बिन त्रैलोक्य पूज्य अदूज शिव कमलापती, मुनि ध्येय सेय अभेय चहुँगूण, गेह धो हम शुभमती॥ __ॐ ह्रीं अर्ह अष्टाविंशति अधिकशतगुणयुक्तसिद्धेभ्यो नमः पूर्णाधैं निर्वपामीति स्वाहा। एकसौ अट्ठाईस गुण सहित अर्घ त्रोटक छन्द निरबाधसुतत्त्वस्वरूपलखो, इकलेश विशेष नशेषरखो। अतिशुद्धसुभाविक छायक है, नमूंदर्श महासुखदायक है। . . ॐ ह्रीं अहँ सम्यग्दर्शनाय नमः अर्घ्यं ॥१॥ . निरमोह अकोह अबाधित हो, परभावथकीन बिराधित हो। निरसंस चराचर जानत हैं, हम सिद्ध सु ज्ञान प्रमानत है। . ॐ ह्रीं अहँ सम्यग्ज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥२॥ सबराग विरोध निवारन है, निज भाव थकी निज धारन है। पर में न कभूनिज भाव वहै, अति सम्यक्चारित्रनाम यहै ॥ ॐ ह्रीं अहँ सम्यकचारित्राय नमः अर्घ्यं ॥३॥ उतपाद विनाश न बाध धरै, परनाम सुभाव नहीं निसरैं। तुम धारत हो यह धर्म महा, हम पूजत हैं पद शीश यहां॥ ॐ ह्रीं अहँ अस्तित्वधर्माय नमः अर्घ्यं ॥४॥ निज भावन” व्यतिरिक्त न हो, प्रणमों गुणरूपगुणातम हो। यह वस्तु सुभाव सदा विलसो, हम पूजत हैं सब पाप नसो॥ ॐ ह्रीं अहँ वस्तुत्वधर्माय नमः अर्घ्यं ॥५॥ . Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८] श्री सिद्धचक्र विधान परिमाणनजानत हैं तिनको, छिनरोगनआवत हैं जिनको। अप्रमेय महागुण धारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं। ___ॐ ह्रीं अर्ह अप्रेयधर्माय नमः अर्घ्यं ॥६॥ गुणपर्य प्रमाणदशा नत ही, निजरूपन छांडत हैं कितही। जिन वैन प्रमाण सुधारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं। ॐ ह्रीं अहँ अगुरुलघुत्वधर्माय नमः अर्घ्यं ॥७॥ . जितने कछु हैं परिणाम विर्षे, सबचित्त स्वरूप सुजान तिसैं। मुख चेतनता गुण धारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं। ॐ ह्रीं अहँ चेतनत्वधर्माय नमः अर्घ्यं ॥८॥ निज अंग-उपांग शरीर नहीं, जिन रंग-प्रसंग सु तीर नहीं। नभसार अमूरति धारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं। ॐ ह्रीं अहँ अमूर्तित्वधर्माय नमः अर्घ्यं ॥९॥ परको नकदाचित धर्म गहैं, निज-धर्म स्वरूपन छांडत हैं। अति उत्तम धर्म सुधारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं। ॐ ह्रीं अहँ सम्यक्त्वधर्माय नमः अर्घ्यं ॥१०॥ जितने कछु हैं परिणाम विर्षे, सब ज्ञानस्वरूपसुजान तिसैं। सुख ज्ञानमई गुण धारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं। ___ ॐ ह्रीं अहँ ज्ञानधर्माय नमः अर्घ्यं ॥११॥ चिन्मय चिन्मूरति जीवसही, अति पूरणता विन भेद कही। निज जीव सुभाव सुधारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं। ॐ ह्रीं अहँ जीवत्वधर्माय नमः अर्घ्यं ॥१२॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [४९ मन को नहिं बेग लखावत हैं, जिसबैन नहीं बतलावत हैं। अति सूक्ष्म भाव सुधारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं। __ॐ ह्रीं अहँ सूक्ष्मत्वधर्माय नमः अयं ॥१३॥ परघातन आप न घात करें, इक खेद समूह अनन्त वरैं। अवगाह सरूप सुधारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं। ॐ ह्रीं अहँ अवगाहनत्वधर्माय नमः अर्घ्यं ॥१४॥ अविनाशसुभाव विराजत हैं, बिन व्याधिस्वरूपसुछाजत हैं। यह धर्म महागुण धारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं। ॐ ह्रीं अर्ह अव्याबाधत्वधर्माय नमः अयं ॥१५॥ निजसों निज की अनुभूति करें, अपनो परसिद्ध सुभाववरैं। निज ज्ञान प्रतीत सुधारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं॥॥ - ॐ ह्रीं अर्ह स्वसंवेदनज्ञानाय नमः अयं ॥१६॥ निज ज्योति स्वरूपं उद्योतमई, तिसमें परदीप्त रहैं नित ही। यह ताप स्वरुप उधारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं। - ॐ ह्रीं अहँ स्वरूपतापतपसे नमः अयं ॥१७॥ निजऽनन्त चतुष्टय राजत हैं, दृग ज्ञान बलासुख छाजत हैं। यह आप महागुण धारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं। ॐ ह्रीं अहं अनन्तचतुष्टयात्मकाय नमः अयं ॥१८॥ सुखसमकितआदिमहागुणहो,तुमसाधितसिद्धभएअबहो। यह उत्तम भाव सुधारत हैं, हम पूजत पाप विडारत हैं। ___ॐ ह्रीं अहँ सम्यक्त्वादिगुणात्मकसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१९॥ दोहा- निश्चय पञ्चाचार सब, भेद रहित तुम साध। चेतन की अति शक्ति में, सूक्षम सब निरबाध॥ ॐ ह्रीं अर्ह पञ्चाराचार्येभ्यो नमः अर्घ्यं ॥२०॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०] श्री सिद्धचक्र विधान चौपाई सब विकल्प तजिभेद स्वरूपी, निज अनुभूति मग्न चिद्रूपी। निश्चय रत्नत्रय परकासो, पूजू भाव भेद हम नासो॥ ॐ ह्रीं अर्ह रत्नत्रयप्रकाशाय नमः अर्घ्यं ॥२१॥ कारण भेद रत्नत्रय धारी, कर्म भेद निज भाव सम्भारी। करता भेद आप परिणामी भेदाभेद रूप प्रणमामी॥ ___ॐ ह्रीं अहँ स्वरूपसाधकसर्वसाधुभ्यो नमः अर्घ्यं ॥२२॥ मनोयोग कृत जिय संसारी, क्रोधारम्भ करत दुःखकारी। तासों रहित सिद्ध भगवाना, अन्तर शुद्ध करूँ तिन ध्याना॥ __ॐ ह्रीं अहँ अकृतमनःक्रोधसंरम्भमनोगुसये नमः अर्घ्यं ॥२३॥ पर के मन क्रोधी संरम्भा, करत मूढ़ नाना आरम्भा। सिद्धराज प्रण{तिसत्यागी, निर्विकल्पनिजगुण के भागी॥ ॐ ह्रीं अहँ अकारितमनःक्रोधसंरम्भनिर्विकल्पधर्माय नमः अर्घ्यं ॥२४॥ भुजङ्गप्रयात छन्द मनोयोगरम्भा प्रशंसीक क्रोधा, निजानन्दकोमानठानेअबोधा। महानिन्दनीभावकोत्यागदीना,निजानन्दकोस्वादहीआपलीना॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितमन:क्रोधसंरम्भसानन्दधर्माय नमः अर्घ्यं ॥२५॥ मनोयोगक्रोधीसमारम्भधारी, सदाजीव भोगेमहाखेदभारी। महानंदआख्यातकोभावपायो,नमोसिद्धसोदोषनाहींउपायो॥ ॐ ह्रीं अहँ अकृतमनःक्रोधसमारम्भपरमानन्दाय नमः अर्घ्यं ॥२६॥ दोहा .. . समारम्भ कोधित सुमन, परकारित दु:ख नाहिं । परमातम पद पाइयो, नमूं सिद्ध गुण ताहिं ॥ ॐ ह्रीं अर्ह अकारितमन:क्रोधसमारम्भपरमानन्दाय नमः अर्घ्यं ॥२७॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [५१ भुजङ्गप्रयात छन्द समारम्भ क्रोधीमनोयोगमाही,धरेंमोदनाभावकोजीवताही। भयेआपसंतुष्ट येत्यागभावा, नमूंसिद्धसोदोषनाहींउपावा॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितमनःक्रोधसमारम्भपरमानन्दसन्तुष्टाय नमः अर्घ्यं ॥२८॥ पद्धड़ी छन्द निजक्रोधितमन आरम्भठान,जगजियदुःखमें सुखरहमान। सोआप त्यागसंक्लेशभाव, भये सिद्ध नमूंधर हिये चाव॥ ___ॐ ह्रीं अकृतमनःक्रोधारम्भस्वसंस्थानाय नमः अर्घ्यं ॥२९॥ क्रोधित मनसों आरम्भहेत, पर-प्रेरित निजअपराधलेत। जगजीवनकी विपरीत रीति, तुमत्याग भये शिववर पुनीत ॥ -- ॐ ह्रीं अकारितमन:क्रोधारम्भबन्धनसंस्थानाय नमः अर्घ्यं ॥३०॥ क्रोधितमनसों आरम्भदेख, जिसमानव हैं आनन्द विशेख। तुम सत्य सुखी इह भाव टार, भये सिद्ध नमूं उर हर्ष धार॥ ... ॐ ह्रीं नानुमोदितमन:क्रोधारम्भसंस्थानाय नमः अर्घ्यं ॥३१॥ दोहा मन योग मनरम्भ में, वरतत हैं जगजीव। भये.सिद्ध संक्लेश तजि, तिन पद नमूं सदीव॥ ॐ ह्रीं अकृतमनोमानसंरम्भसाधर्माय नमः अर्घ्यं ॥३२॥ मान उदय मन योगरौं, पर को रम्भ करान। त्याग भये परमातमा, नमूं शरण पर हान॥ ॐ ह्रीं अकारितमनोमानसंरम्भअनन्यशरणाय नमः अर्घ्यं ॥३३॥ मान सहित मन रम्भ में, जगजिय राखै चाव। नमो सिद्ध परमातमा, जिन त्यागो यह मा ॐ ह्रीं नानुमोदितमनोमानसंरम्भसुगुणभावाय नमः ॥३४॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२] श्री सिद्धचक्र विधान ___ अडिल्ल छन्द समारंभ परिवर्तमान युत मन धरे, विकलपमई उपकरण विविध इकठे करे। महा कष्ट को हेत भाव यह ना गहो, . प्रणमूं सिद्ध अनन्त सुखातम गुण लहो॥ ॐ हीं अकृतमनोमातसमारम्भसुखात्मगुणाय नमः अर्घ्यं ॥३५॥ मान सहित मनयोग द्वार चिंतवन करें, समारंभ पर-कृत्य करावन विधि वरैं। तहाँ कष्ट को हेत भात यह ना गहो, प्रणमूं सिद्ध अनन्य गुणातम पद लहौ। ॐ ह्रीं अकारितमनोमानसमारम्भअनन्यगताय नमः अयं ॥३६॥ . जोडे चित न समाज विविध जिस काज में, समारंभ तिस नामसो मति जिनराज में। माने मानी मन आनन्द सु निमित्त से, नमूं सिद्ध हैं अतुल वीर्य त्यागत तिसे॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितमनोमानसमारम्भअनन्तवीर्याय नमः अयं ॥३७॥ अशुभ काज परिवर्त नाम आरंभ को, मान सहित मन द्वार तास उद्यम गहो। जगवासी जिय नितप्रति पाप उपाय हैं, णमो सिद्ध या रहित अतुल सुखराय हैं। ॐ ह्रीं अकृतमनोमानारम्भअनन्तसुखाय नमः अर्घ्यं ॥३८॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [५३ दोहा मनो मान आरम्भ के, भये अकारित आप। अतुल ज्ञान धारी भये, नमत नसैं सब पाप॥ ॐ ह्रीं अकारितमनोमानारम्भअनन्तज्ञानाय नमः अयं ॥३९॥ मनो मान आरम्भ में, नानुमोदि भगवन्त। गुण अनन्त युत सिद्ध पद, पूजत हैं नित सन्त॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितमनोमानआरम्भअनन्तगुणाय नमः अर्घ्यं ॥४०॥ गीता छन्द जो अशुभ काज विकल्प हो, संरम्भ मनयुत कुंटिलता। कर कर अनादित रंकजिय, बहु भाँति पाप उपावता॥ सो त्याग सकल विभाव यह तुम, सिद्ध ब्रह्मस्वरूप हो। हम पूजि हैं नित भक्ति युत, भक्ति वत्सलरूप हो॥ . ॐ ह्रीं अकृतमनोमायासंरम्भब्रह्मस्वरूपाय नमः अयं ॥४१॥ दोहा मायावी मनतें नहीं, कबहुँ आरम्भ कराय। सिद्ध चेतना गुण सहित, नमूं सदा मन लाय॥ ॐ ह्रीं अकारितमनोमायासंरम्भचैतन्यभावाय नमः अयं ॥४२॥ मायावी मनतें कभी, रम्भानन्द न होय। सिद्ध अनन्य सुभाव युत, नमूं सदा मद खोय॥ . ॐ ह्रीं नानुमोदितमनोमायासंरम्भअनन्यसवभावाय नमः अर्घ्यं ॥४३॥ पद्धडि छन्द मायावी मन” समारम्भ, नहिंकरत सदा ही अचल खम्भ। तुम स्वानुभूति रमणीयसंग, नित नमन करोंधरिमन उमंग॥ ॐ ह्रीं अकृतमनोमायासमारम्भस्वानुभूतिरताय नमः अर्घ्यं ॥४४॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] श्री सिद्धचक्र विधान मन वक्र द्वार उपकर्ण ठान, विधि समारम्भको नहिँ करान । निज साम्य धर्म में रहो लिप्त, तुम सिद्ध नमों पद धार चित्त ॥ ॐ ह्रीं अकारितमनोमायासमारम्भसाम्यधर्माय नमः अर्घ्यं ॥४५ ॥ दोहा मायावी मन में नहीं, समारम्भ आनन्द । नमों सिद्ध पद परम गुरु, पाऊँ पद सुख वृन्द ॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितमनोमायासमारम्भगुरुवरे नमः अर्घ्यं ॥ ४६ ॥ पद्धड़ी छन्द बहु विधिकर जोडै अशुभ काज, आरम्भ नाम हिंसा समाज । मायावी मन द्वारै करेय, तुम सिद्ध नमूं यह विधि हरेय ॥ ॐ ह्रीं अकृतमनोमायारम्भपरमशान्ताय नमः अर्घ्यं ॥ ४७ ॥ पूर्वोक्त अकारित विधि सरूप, पायो निर-आकुल सुख अनूप । सर्वोतम पद पायो महान, हम पूजत हैं उर भक्ति ठान ।। ॐ ह्रीं अकारितमनोमायारम्भनिराकुलाय नमः अर्घ्यं ॥ ४८ ॥ दोहा मायावी आरम्भ करि, मन में आनन्द मान । सो तुम त्यागो भाव यह, भये परम सुख खान ॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितमायारम्भअनन्तसुखाय नमः अर्घ्यं ॥ ४९ ॥ लोभी मन द्वारे नहीं, करें सदा समरम्भ । हम अनन्तदृग सिद्धपद, पूजत हैं मनथम्भ ॥ ॐ ह्रीं अकृतमनोलोभसंरम्भअनन्तदृगाय नमः अर्घ्यं ॥ ५० ॥ लोभी मन समरम्भ को, परसों नहीं कराय । दृगानन्द भावतमा, सिद्ध नमूं मन लाय ॥ ॐ ह्रीं अकारितमनःलोभसंरम्भद्गानन्दभावाय नमः अर्घ्यं ॥ ५१ ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [५५ लोभी मन समरम्भ को, मानें नहीं आनन्द। नमं नमूं परमात्मा, भये सिद्ध जगवृन्द। ॐ ह्रीं नानुमोदितमनोलोभसंरम्भसिद्धभावाय नमः अयं ॥५२॥ समारम्भ नहिं करत हैं, लोभी मन के द्वार। चिदानन्द चिद्देव तुम, नमूं लहूँ पद सार॥ ॐ ह्रीं अकृतमनोलोभसमारम्भचिद्देवाय नमः अयं ॥५३॥ परसों भी पूर्वोक्त विधि, कबहूँ नहीं कराय। निराकार परमात्मा, नमूं सिद्ध हर्षाय॥ ॐ ह्रीं अकारितमनोलोभसमारम्भनिराकाराय नमः अध्यं ॥५४॥ ऐसे ही पूर्वोक्त विधि, हर्षित होवें नाहिं । चित्सरूप साकारपद, धारत हूँ उरमाहिं॥ . ॐ ह्रीं नानुमोदितमनोलोभसमारम्भसाकाराय नमः अयं ॥५५॥ - रचना हिंसा काज की, लोभी मन के द्वार। नहीं करैं हैं ते नमू, चिदानन्द पद सार॥ - ॐ ह्रीं अकृतमनोलोभारम्भचिदानन्दाय नमः अयं ॥५६॥ लोभी मन प्रेरित नहीं, पर को आरम्भ हेत। चिनमय रूपी पद धरै, नमूं लहूँ निज खेत॥ ॐ ह्रीं अकारितमनोलोभारम्भचिन्मयस्वरूपाय नमः अध्यं ॥५७॥ मन लोभी आरम्भ में, आनन्द लहें न लेस। निजपद में नित रमत हैं, ध्याऊँ भक्ति विशेष॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितमनोलोभारम्भस्वरूपाय नमः अयं ॥१८॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान . अडिल्ल छन्द क्रोधित जिय वचयोग द्वार उपयोग को, रचना विधि संकल्प नाम समरम्भ सो। तामें करें प्रवृति पाप उपजावते, ___ नमूं सिद्ध या बिन वचगुप्ति उपावते॥ ॐ ह्रीं अकृतवचनक्रोधसंरम्भवागुप्ताय नमः अयं ॥५९॥ क्रोध अग्नि करि निज उपयोग जरा वहीं, वचन योग करि विधि संरम्भ करावहीं। सो तुम त्याग विभाव सुभाव सरूप हो, _ नमूं उरानन्द धार चिदानन्द रूप हो॥ ॐ ह्रीं अकारितवचनक्रोधसंरम्भस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥६०॥ सोरठा . . क्रोधित निज वच द्वार, मोदित हो संरम्भ में। सो तुम भाव विडार, नमूं स्वानुभव लब्धियुत॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनक्रोधसंरम्भस्वानुभवबंधये नमः अर्घ्यं ॥६१ ॥ दोहा क्रोध सहित वाणी नहीं, समारम्भ परवृत्त। स्वानुभूति रमणी रमण, नमूं सिद्ध कृतकृत्य॥ ॐ ह्रीं अकृतवचनक्रोधसमारम्भस्वानुभूतिरमणाय नमः अर्घ्यं ॥६२॥ समारम्भ क्रोधित जिये, प्रेरित पर वच द्वार। नमूं सिद्ध इस कर्म बिन, धर्मधरा साधार॥ ॐ ह्रीं अकारितवचनक्रोधसमारम्भसाधारणधर्माय नमः अयं ॥६३ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [५७ समारम्भ मन वचन करि, हर्षित हों युत क्रोध। नमूं सिद्ध या बिन लहो, परम शांति सुख बोध॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनक्रोधसमारम्भपरमशान्ताय नमः अयं ॥४॥ छन्द मोतियादाम वैर वच योग धरै जिय रोष, करें विधि भेद अरम्भ सदोष। तजो यह सिद्ध भये सुखकार, नमूं परमामृत तुष्ट अवार॥ ___ॐ ह्रीं अकृतवचनक्रोधारम्भपरमामृततुष्टाय नमः अयं ॥६५॥ अकारित वैनसदायुतक्रोध, महादुःखकारअरम्भअबोध। भये समरूप महारसधार, नमें हम सिद्ध लहैं भवपार ॥ ___ॐ ह्रीं अकारितवचनक्रोधारम्भसमरसाय नमः अर्घ्यं ॥६६॥ दोहा नानुमोद आरम्भ में, क्रोध सहित वच द्वार। परम प्रीति निज आत्मरति, नमूं सिद्ध सुखकार॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनक्रोधारम्भपरमप्रीतये नमः अर्घ्यं ॥१७॥ . अडिल्ल वचन द्वार संरम्भ मानयुत जे करें, . जोड़ करन उपकरण मानसों उच्चरैं। नाना विधि दुःख भोग निजातमको, नमूं सिद्ध या विन अविनश्वर पद धरै॥ ॐ ह्रीं अकृतवचनमानसंरम्भअविनश्वरधर्माय नमः अर्घ्यं ॥६८॥ मान प्रकृति करि उदै करावें ना कदा, वचन न करि संरम्भ भेद वरण॒ यदा। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] श्री सिद्धचक्र विधान मन इन्द्रिय अव्यक्त स्वरूप अनूप हो, नमूं सिद्ध गुण सागर स्वातम रूप हो॥ ॐ ह्रीं अकारितवचनमानसंरम्भअव्यक्तस्वरूपाय नमः अध्यं ॥६९ ॥ सोरठा . नानुमोद वच योग, मान सहित संरम्भमय। दुर्लभ इन्द्री भोग, परम सिद्ध प्रणमूं यदा। ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनमानसंरम्भदुर्लभाय नमः अर्घ्यं ॥७० ॥ चौपाई .. समारम्भ जिन वैन न द्वार, करत नहीं हैं मान संभार। ज्ञान सहित चिन्मूरति सार, परम गम्य हैं निर-आकार ॥ ॐ ह्रीं अकृतवचनमानसमारम्भपरमगम्यनिराकाराय नमः अर्घ्यं ॥७१ ॥ वचन प्रवृत्ति मानयुत ठान, समारम्भ विधि नाहिं करान। शुद्ध स्वभाव परम सुखकार, नमूं सिद्ध उर आनन्द धार॥ ॐ ह्रीं अकारितवचनमानसमारम्भपरमस्वभावाय नमः अर्घ्यं ७२॥ वचन प्रवृत्ति मानयुत होय, समारम्भ मय हर्षित सोय। त्यागत एक रूप ठहराय, नमूं एकत्व गती सुखदाय॥ ___ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनमानसमारम्भएकत्वगताय नमः अर्घ्यं ।।७३ ।। मानी जिय निज वचन उचार, वरतत हैं आरम्भ मँझार। परमातम हो तजि यह भाव, नमूं धर्मपति धर्म स्वभाव॥ ॐ ह्रीं अकृतवचनमानारम्भपरमात्मधर्मस्वभाय नमः अर्घ्यं ॥७४ ॥ सोरठा मानी बोले बैन, परप्रेरण आरम्भ में। सो. त्यागो तुम ऐन, शाश्वत सुख आतम नमूं॥ ॐ ह्रीं अकारितवचनमानारम्भशास्वतानन्दाय नमः अर्घ्यं ।।७५ ।। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान हर्षित वचन उचार, मान सहित आरम्भमय। सो तुम भाव विडार, निजानन्द रस घन नमूं। ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनमानारम्भअमृतपूरणाय नमः अयं ॥७६ ॥ धरि कुटिल भाव जो कहत बैन, संरम्भ रूप पापिष्ट ऐन। तुम धन्य-धन्य यह रीति त्याग, हो बेहद धर्मस्वरूप भाग॥ ॐ हीं अकृतवचनमायासंरम्भअनन्तधर्मेकरूपाय नमः अर्घ्यं ॥७७ ॥ मायायुत वचनन को प्रयोग, संरम्भ करावत अशुभ योग। तुम यह कलङ्क नहिं धरो लेश, हो अमृत शशि पूजूं हमेश॥ __ॐ ह्रीं अकारितवचनमायासंरम्भअमृतचन्द्राय नमः अर्घ्यं ॥७८ ॥ वचमायायुत संरम्भ कीन, सो पापरूप भाषो मलीन। तिस त्याग अनेक गुणात्म रूप, राजत अनेक मूरत अनूप॥ __ ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनमायासंरम्भअनेकमूर्तये नमः अर्घ्यं ॥७९ ।। तुमसमारम्भ की विधि विधान, नहिं करत कुटिलताभेदठान। हो नित्य निरञ्जन भाव युक्त, मैं नमूं सदा संशय विमुक्त ॥ ॐ ह्रीं अकृतवचनमायासमारम्भनित्यनिरञ्जनस्वभावाय नमः अर्घ्यं ॥८० ॥ . दोहा मायायुत निज बैन”, समारम्भ के हेत। नहिं प्रेरित पर को नमू, निजगुण धर्म समेत॥ ॐ ह्रीं अकारितवचनमायासमारम्भआत्मैकधर्माय नमः अर्घ्यं ॥८१ ।। मायाकरि बोलत नहीं, समारम्भ हर्षाय। सूक्ष्म अतीन्द्रिय वृष नमू, नमूं सिद्ध मन लाय॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनमायासमारम्भपरमसूक्ष्माय नमः अर्घ्यं ॥८२॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०] श्री सिद्धचक्र विधान मायायुत आरम्भ की, वचन प्रवृत्ति नशाय । नमि अनन्त अवकाश गुण, ज्ञान द्वार सुखदाय ॥ ॐ ह्रीं अकृतवचनमायारम्भअनन्तावकाशाय नमः अर्घ्यं ॥ ८३ ॥ मायायुत आरम्भमय, मेट वचन उपदेश । भये अमल गुण ते नमूं, रागद्वेष नहीं लेश ॥ ॐ ह्रीं अर्हं अकारितवचनमायारम्भअमलगुणणाय नमः अर्घ्यं ॥८४॥ मायायुत आरम्भमय, मैंठ वचन आनन्द । भये अनन्त सुखी नमूं, सिद्ध सदा सुखवृन्द ॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनमायारम्भनिरवधिसुखाय नमः अर्घ्यं ॥ ८५ ॥ जो परिग्रह को चाह लोभसो मानिये, विधि विधान ठानत संरम्भ बखानिये । वचन द्वार नहिं करें नमूं परमातमा, सब प्रत्यक्ष लखें व्यापक धर्मातमा ॥ ॐ ह्रीं अकृतवचनलोभसंरम्भव्यापकधर्माय नमः अर्घ्यं ॥ ८६ ॥ वर्तावन संरम्भ हेत पर के तई, लोभ उदै करि वचन कहैं हिंसामई । नमूं सिद्ध पद यह विपरीत सु जिन हरो, सकल चराचर ईश व्यापक गुण वरो ॥ ॐ ह्रीं अकारितवचनलोभसंरम्भव्यापकगुणाय नमः अर्घ्यं ॥ ८७ ॥ लोभी वच संरम्भ हर्ष परकाशनं, नाना विधि सञ्चरें पाप दुःख कारनं । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [६१ सो तुम नाशत शाश्वत ध्रुवपद पाइयो, नमूं अचल गुण सहित सिद्ध मन भाइयो॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनलोभसंरम्भअचलाय नमः अयं ॥८॥ सोरठा समारम्भ के बैन, लोभ सहित पर आसरें। तज निरलम्बी ऐन, नमूं सिद्ध उपर धारिकें। ॐ ह्रीं अकृतवचनलोभसमारम्भनिरालंबाय नमः अयं ॥८९॥ समारम्भ उपदेश, लोभ उदै थिति मेटिकें। पायो अचल स्वदेश, नमूं निराश्रय सिद्ध गुण॥ ॐ ह्रीं अकारितवचनलोभसमारम्भनिराश्रयाय नमः अयं ॥१०॥ नानुमोद वच लोभ, समारम्भ परवृत्त में। नमूं तिन्हैं तजि क्षोभ, नित्य अखण्ड विराजते॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनलोभसमारम्भअखण्डाय नमः अध्यं ॥११॥ दोहा लोभ सहित आरम्भ को, करत नहीं व्याख्यान। नूतन पञ्चम गति लहो, नमूं सिद्ध भगवान॥ ॐ ह्रीं अकृतवचनलोभारम्भविपरीतावस्थाय नमः अध्यं ॥१२॥ लोभ वचन आरम्भ को, कहत न पर के हेत। समयसार परमातमा, नमत सदा सुख देत॥ ॐ ह्रीं अकारितवचनलोभारम्भसमयसाराय नमः अध्यं ॥१३॥ सोरठा नानुमोद वच द्वार, लोभ सहित आरंभमय। अजर अमर सुखकार, नमूं निरन्तर सिद्धपद॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनलोभारम्भनिरन्तराय नमः अध्यं ॥१४॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२] श्री सिद्धचक्र विधान अडिल्ल कोधित रूप भयङ्कर हस्तादिक तनी, करत समस्या संरम्भ प्रकाशनी। सो तुम नाशो कायगुप्ति निंद्य करि यह तदा, दृष्टि अगोचर कायगुप्ति प्रणमूं सदा॥ ॐ ह्रीं अकृतकायक्रोधसंरम्भकायगुप्तये नमः अर्घ्यं ॥९५ ॥ सोरठा पर प्रेरण निज काय, क्रोध सहित संरम्भ तज। चेतन मूरति पाय, शुद्ध काय प्रणमूं सदा॥ ॐ ह्रीं अकारितकायक्रोधसंरम्भशुद्धकायाय नमः अर्घ्यं ॥१६॥ हर्षित शीश हिलाय, क्रोध उदय समरम्भ में। त्यागत भये अकाय, नमूं सिद्ध पद भावयुत॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितकायक्रोधसंरम्भअकायाय नमः अर्घ्यं ॥२७॥ समारम्भ विधि मेटि, कायिक चेष्टा क्रोध की। स्वै गुणपर्य समेत, भक्ति सहित प्रणमूं सदा॥ ॐ ह्रीं अकृतकायक्रोधसमारम्भस्वान्वयगुणाय नमः अर्घ्यं ॥९८॥ दोहा समारम्भ विधि क्रोध युत, तनसों नहीं कराय। नित प्रति रति निजभाव मैं, बन्दूं तिनके पाय॥ ॐ ह्रीं अकारितकायक्रोधसमारम्भभाववरतये नमः अर्घ्यं ॥१९॥ समारम्भ सो कायसो, क्रोध सहित परसंस। निज अभिन्न पद पाइयो, नमूं त्याग सरवंस॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितकायक्रोधसमारम्भसान्वयधर्माय नमः अयं ॥१०॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान क्रोधित कायारम्भ तजि, परसों रहित स्वभाव। शुद्ध द्रव्य में रत नमू, निज सुख सहज उपाव॥ ॐ ह्रीं अकृतकायक्रोधारम्भशुद्धद्रव्यरताय नमः अयं ॥१०१॥ क्रोधित कायारम्भ नहिं, रञ्च प्रपञ्च कराय। पञ्चरूप संसार हनि, नमूं पञ्चमगति राय॥ ॐ ह्रीं अकारितकायक्रोधारम्भसंसारछेदनाय नमः अयं ॥१०२॥ क्रोधित कायारम्भ में, हर्ष विषाद विडार। अनेकान्त वस्तुत्व गुण, धरै नमो पद सार॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितकायक्रोधारम्भजैनधर्माय नमः अर्घ्यं ॥१०३॥ मान सहित संरम्भ को, तनसों रचना त्याग। पर-प्रवेश विन रूप जिन, लियो नमूं बड़भाग॥ ॐ ह्रीं अकृतमानकायसंरम्भस्वरूपायगुप्तये नमः अयं ॥१०४ ॥ मान उदय संरम्भ विधि, तनसों नहीं कराय। निज कृत पर उपकार जिन, लियो नमूं तिन पाय॥ ॐ ह्रीं अकारितमानकायसंरम्भनिजकृतये नमः अर्घ्यं ॥१०५॥ मान उदय संरम्भ में, तनसों हर्ष न लेश। ध्यान योग निज ध्येय पद, भावित नमूं अशेष॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितमानकायसंरम्भध्येयभावाय नमः अयं ॥१०६ ॥ मदयुत ततसों रञ्च भी, समारम्भ विधि नाहिं। परमाराधन योगपद, पायो प्रणमूं ताहि ॥ ॐ ह्रीं अकृतमानकायसमारम्भपरमाराधनाय नमः अयं ॥१०॥ समारम्भ निज कायसों, मदयुत नहीं कराय। ज्ञानानन्द सुभाव युत, प्रणमूं शीश नवाय॥ ॐ ह्रीं अकारितमानकायसमारम्भअनन्तगुणाय नमः अयं ॥१०८॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] श्री सिद्धचक्र विधान समारम्भ मय विधि सहित, तनसों हर्ष न होय। निजानन्द नन्दित तिन्हैं, नमूं सदा मद खोय॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितमानकायसमारम्भस्वनन्दिताय नमः अयं ॥१०९॥ चौपाई . . अकृत मानारम्भ शरीर, पर अनिन्द्य बन्दू धर धीर। सिद्ध बसें जु लोक के अन्त, नमों करौ हमरी भव अन्त॥ _ॐ ह्रीं अकृतमानकायारम्भसन्तोषाय नमः अयं ॥११० ॥ कायारम्भ अकारित मान, स्वस्वरूपरत बन्दूं तान। सिद्ध बसें जु लोक के अन्त, नमों करौ हमरी भव अन्त॥ ॐ ह्रीं अकारितमानकायारम्भस्वरूपरताय नमः अयं ॥१११॥ . मानारम्भ आनन्दित काय, प्रणमूं विमल शुद्ध पर्याय। शुद्ध आत्मा त्रय जग ईश, तिनको सदा नवाऊँ शीश॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितमानकायारम्भशुद्धपर्यायाय नमः अर्घ्यं ॥११२॥ दोहा मायायुत संरम्भ विधि, तनसों करत न आप। गुप्त निजामृत रस लहैं, नमूं तिन्हैं तज पाप॥ ॐ ह्रीं अकृतकायमायासंरम्भअमृतगर्भाय नमः अयं ॥११३॥ मायायुत संरम्भ विधि, तनसों नहीं कराय। मुख्य धर्म चैतन्यता, विनवै प्रणमूं पाय॥ ॐ ह्रीं अकारितकायमायासंरम्भचैतन्याय नमः अयं ॥११४॥ मायायुत संरम्भ मय, नानुमोद युत काय। वीतराग आनन्द पद, समरस भावन भाय॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितकायमायासंरम्भसमरसीमावाय नमः अयं ॥११५ ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [ ६५ समारम्भ माया सहित, अकत तन विच्छेद । बन्ध दशा निज पर द्विविधि, नमत सरौं भव खेद ॥ ॐ ह्रीं अकृतकायमायासमारम्भभवछेदकाय नमः अर्घ्यं ॥ ११६ ॥ समारम्भ तन कुटिलसों, भए अकारित स्वामि । निज परिणतिसों परणये, गुण स्वातन्त्र नमामि ॥ ॐ ह्रीं अकारितकायमायासमारम्भस्वतन्त्रधर्माय नमः अर्घ्यं ॥११७॥ नानुमोदी तन कुटिलता, समारम्भ विधि देव । गुण अनन्त युत परिणमूँ, धर्म समूही एव ॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितकायमायासमारम्भधर्मसमूहाय नमः अर्घ्यं ॥ ११८ ॥ मायायुत निज देहसों, नहीं आरम्भ करेह । परमातम सुख छय बिना, पायो बन्दूं तेह ॥ ॐ ह्रीं अकृतकायमायारम्भपरमात्मसुखाय नमः अर्घ्यं ॥ ११९ ॥ मायारम्भ शरीर करि, परसों नहीं करान । निष्ठातम स्वस्थित नमूं, सिद्धराज गुणखान ॥ ॐ ह्रीं अकारितकायमायारम्भनिष्ठात्मने नमः अर्घ्यं ॥ १२० ॥ मायारम्भ शरीरसों, नानुमोद भगवन्त । दर्शज्ञानमय चेतना, सहित नमें नित सन्त ॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितकायमायारम्भचेतनाय नमः अर्घ्यं ॥१२१ । पद्धड़ि छन्द संरम्भ चाह नहिं काययोग, चित परिणति नमि शुद्धपयोग । धारक सिद्धन को धरूँ ध्यान, तुम मेटो मेरो सब अज्ञान ॥ ॐ ह्रीं अकृतकायलोभसंरम्भपरमचितपरिणताय नमः अर्घ्यं ॥ १२२ ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६] श्री सिद्धचक्र विधान संरम्भ अकारित लोभ देह, निज आतम रत स्वयमेव तेह। धारक सिद्धान को धरूँ ध्यान, तुम मेटो मेरो सब अज्ञान॥ ॐ ह्रीं अकारितकायलोभसंरम्भस्वसमरताय नमः अयं ॥१२३॥ . संरम्भ लोभी हर्ष नाश, नमि व्यक्त धर्म केवल प्रकाश। धारक सिद्धन को धरूँ ध्यान, तुम मेटो मेरो सब अज्ञान॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितकायलोभसंरम्भव्यक्तधर्माय नमः अयं ॥१२४ ॥ सोरठा . लोभी योग शरीर, समारम्भ विधि नाशकें। ध्रुव आनन्द अतीव, पायो पूर्जे सिद्धपद। ॐ ह्रीं अकृतकायलोभसमारम्भनित्यसुखाय नमः अर्घ्यं ॥१२५ ।। लोभ अकारित काय, समारम्भ निज कर्म हनि। पायो पद अकषाय, सिद्ध-वर्ग पूर्णां सदा॥ ॐ ह्रीं अकारितकायलोभसमारम्भअकषाय नमः अयं ॥१२६ ॥ पूर्ववर्त आनन्द, परिग्रह इच्छा मेटिकें । पायो शौच स्वच्छन्द, न, सिद्धपद भक्ति युत॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितकायलोभसमारम्भशौचगुणाय नमः अयं ॥१२७॥ दोहा काय द्वार आरम्भ को, लोभ उदय विधि नाश। नमों चिदातम पद लियो, शुद्ध ज्ञान प्रकाश। ॐ ह्रीं अकृतकायलोभारम्भचिदात्मने नमः अध्यं ॥१२८॥ काय द्वार आरम्भ विधि, लोभ उदय न कराय। निज अवलम्बित पद लियो, नमूं सदा तिन पाय॥ ॐ ह्रीं अकारितकायलोभारम्भनिरालंबाय नमः अध्यं ॥१२९ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [६७ लोभी तन आरम्भ में, आनन्द रीति मेंट। नमूं सिद्ध पद पाइयो, निज आतम गुण श्रेष्ठ॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितकायलोभारम्भआत्मसिद्धाय नमः अध्यं ॥१३०॥ जेते कुछ पुद्गल परमाणु शब्दरूप, __ भये हैं अतीत काल आगे होनहार हैं। तिनको अनन्त गुण करत अनन्तवार, ऐसे महाराशि रूप धरै विसतार हैं। सबही एकत्र होय सिद्ध परमातम के, - मानो गुण गण उच्चरन अर्थ धार हैं। तो भी इक समय के अनन्त भाग आनन्द को कंहत न, .. कहैं हम कौन परकार हैं। . ॐ ह्रीं अष्टाविंशत्यधिकशतगुणयुक्तसिद्धेभ्यो नमः अयं ॥ जयमाला - दोहा शिवगुण सरधा धार उर, भक्ति भाव है सार। केवल निज आनन्द करि, करूँ सुजस उच्चार॥ .. पद्धडि छन्द जय मदन कदन मन मरण नाश, . जय शान्तिरूप निज सुख विलास। जय कपट सुभट पट हरन सूर, जम लोभ क्षोभ मद दम्भ चूर ॥१॥ पर-परणति सों अत्यन्त भिन्न, निज परिणति सों अति ही अभिन्न। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] श्री सिद्धचक्र विधान अत्यन्त विमल सब ही विशेष, मल लेश शोध राखो न शेष ॥२॥ मणि दीप सार निर्विघ्न ज्योति, स्वाभाविक नित्य उद्योत होत। त्रैलोक्य शिखर राजत अखण्ड, सम्पूरण द्युति प्रगटी प्रचण्ड ॥३॥ मुनि मन मंदिर को अन्धकार, . तिस ही प्रकाशसौं नशत सार। सो सुलभ रूप पायो न अर्थ, जिस कारण भव भव भ्रमें व्यर्थ ॥४॥ जो कल्प काल में होत सिद्ध, तुम छिन ध्यावत लहिये प्रसिद्ध। भवि पतितन को उद्धार हेत, - हस्तावलम्ब तुम नाम देत ॥५॥ तुम गुण सुमिरण सागर अथाह, गणधर शरीख नहीं पार पाह । जो भवदधि पार अभव्य रास, पावे न वृथा उद्यम प्रयास ॥६॥ जिन मुख द्रहसों निकसी अभंग, अति वेग रूप सिद्धान्त गंग। नय सप्त भंग कल्लोल मान, - तिहुँ लोक बही धारा प्रमान ॥७॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [६९ सो द्वादशांग वाणी विशाल, ता सुनत पढ़त आनन्द विशाल। यातें जग में तीरथ सुधाम, कहिलायो है सत्यार्थ नाम ॥८॥ सो तुमहीसो हैं शोभनीक, नातर जल सम जड़ वहै सु ठीक। निजपर आतम हित आत्म भूत, जबसे है जब उतपत्ति सूत ॥९॥ ज्यों महाशीत हो हिम प्रवाह, ... है मेटन समरथ अग्नि दाह । - त्यों आप महामंगल स्वरूप, .. पर विधन विनाशन सहज रूप॥१०॥ हूँ सन्त दीन तुम भक्ति लीन, । सो निश्चय पावै पद प्रवीण। तातें मन-वच-तन भाव धार, ___ तुम सिद्ध नमूं मम नमस्कार ॥११॥ दोहा । . जो तुम ध्यावें भावसों, ते पावें निज भाव। अग्नि पाक संयोग करि, शुद्ध सुवर्ण उपाय॥ ॐ ह्रीं अष्टाविंशत्यधिकशतदलोपरिस्थितसिद्धेभ्यो नमः अयं । "ॐ ह्रीं अर्ह असि आ उ सा नमः" मंत्र का १०८ बार जाप देना चाहिये। इत्याशीर्वादः। इति पञ्चमी पूजा सम्पूर्णम्। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०] श्री सिद्धचक्र विधान श्री षष्ठी पूजा २५६ गुण सहित छप्पय छन्द ऊरध अधो सुरेफ बिन्दु हंकार बिराजे। अकारादि स्वर लिप्तकर्णिका अन्त सु छाजे॥ वर्गन पूरित वसुदल अम्बुज तत्त्व सन्धिधर। अग्रभाग में मन्त्र अनाहत सोहत अतिवर॥ फुनि अन्त हों बेड्यो परम, सुर ध्यावत अरिनागको। है केहरिसम पूजन निमित, सिद्धचक्र मंगल करो॥१॥ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने २५६ गुण सहित बिराजमान अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं। . दोहा- सूक्ष्मादिक गुण सहित हैं, कर्म रहित नीरोग। ..सकल सिद्ध सो थाप हूँ, मिटें उपद्रव योग॥२॥ इति यन्त्र स्थापनं अथाष्टकं, गीता छन्द अति नम्रता तिहुँ योग में जिन भक्ति निर्मल भावहीं। यह गुप्त जल प्रत्यक्ष निर्मल सलिल तीरथ लावहीं॥ यह उभय द्रव्य संयोग त्रिभुवन पूज्य पूज रचावहीं। द्वै अर्द्धशत षट् अधिक नाम उचार विरद सु गावहीं॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने २५६ गुण सहिताय बिराजमान श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __श्री सिद्धचक्र विधान [७१ अति वास विषयन वासनायुत मलय शील सु भावहीं। अरु चन्दनादि सुगन्ध द्रव्य मनोज्ञ प्राशुक लावहीं॥यह.॥ ____ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने २५६ गुण सहिताय बिराजमान श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्यावाहं संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ परिणाम धवल सुवर्ण अक्षत मलिन मन न लगावहीं। तिस सार अक्षत अखय स्वच्छ सुवास पुञ्च बनावहीं॥यह.॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने २५६ गुण सहिताय बिराजमान श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ मन पाग. भत्यनुराग आनन्द तान माल पुरावहीं। तिस भाग कुसुम सुहाग अर सुर नागबास सुलावहीं यह.॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने २५६ गुण सहिताय बिराजमान श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा॥४॥ जिन भक्ति रस में तृप्तता मन आन स्वाद न चावहीं। अन्तर चरू बाहिज मनोहर रसिक नेवज लावहीं॥ यह.॥ . ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने २५६ गुण सहिताय बिराजमान श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं क्षुधारोगविनाशनायं नैवेद्यं निर्वपामीति ,स्वाहा ॥५॥ सरधान दीप प्रदीप्त अन्तर मोह तिमिर नशावहीं। मणिदीप जगमग ज्योति तेज सुभास भेंट धरावहीं॥यह.॥ ___ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने २५६ गुण सहिताय बिराजमान श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] श्री सिद्धचक्र विधान आनन्द धर्म प्रभावना मन घटा धूम्र सु छावहीं। गन्धित दरव शुभ घ्राण प्रिय अति अग्नि संगजरावहीं।यह.॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने २५६ गुण सहिताय बिराजमान श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥७॥ शुभ चिन्तवन फल विविध रस युत भक्ति तरु उपजावहीं। रसना लुभावन कल्पतरु के सुर असुर मन भावहीं॥यह.॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने २५६ गुण सहिताय बिराजमान श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुल्लघुअव्वावाहं मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥८॥ समकित विमल वसु अंग युत करि अर्घ अन्तर भावहीं। वसु दरब अर्घ बनाय उत्तम देहु हर्ष उपावहीं॥ यह.॥ ____ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने २५६ गुण सहिताय बिराजमान श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं निर्वामीति स्वाहा ॥९॥ . गीता छन्द निर्मल सलिल शुभवास चन्दन धवल अक्षत युत अनी, शुभ पुष्प मधुकर नित रमें चरु प्रचुर स्वाद सुविधि घनी। वर दीपमाल उजाल धूपायन रसायन फल भले, करि अर्घ सिद्ध समूह पूजत कर्मदल सब दलमले॥ ते कर्म प्रकृति नशाय युगपत ज्ञान निर्मल रूप हैं, दुःख जन्म टाल अपार गुण सूक्षम सरूप अनूप हैं। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [७३ कर्माष्ट बिन त्रैलोक्य पूज्य अछेद शिव कमलापती, मुनि ध्येय सेय अमेय चाहूँ, गेय धो हम शुभमती॥ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धचक्राधिपतये समत्तणाणादि अट्ठगुणाणं पूणाघ। मिथ्यातम कारण दुःखकारा, नित्य निरन्तर विधि संसारा। तिसहनिसमरथ अतिशयरूपा, केवलपायन{शिव भूपा॥ ॐ ह्रीं चिरतरसंसारकारणज्ञाननिद्धतोद्भूत केवलज्ञानातिशयसम्पन्नाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१॥ मन इन्द्रिय निमित्त मति ज्ञाना, योग देश तिष्ठत पद.जाना। क्षय उपशम आवर्ण विनाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो॥ __ ॐ ह्रीं अभिनिबोधवारकविनाशकाय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥२॥ द्वादश अंगरूप अज्ञाना, श्रुत आवरणी भेद बखाना। क्षय उपशम आवर्ण विनाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो॥ ___ॐ ह्रीं द्वादशांगश्रुतावरणीकर्मविमुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥३॥ हैं असंख्य लोकावधि जेते, अवधिज्ञान के भेद सु तेते। क्षय उपशम आवर्ण विनाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो॥ ॐ ह्रीं असंख्यभेदलोकअवधिज्ञानावरणीविमुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥४॥ हैं असंख्य परमान प्रमाना, मनपर्यय के भेद बखाना। क्षय उपशम आवर्ण विनाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो॥ ॐ ह्रीं असंख्यप्रकारमनःपर्ययज्ञानावरणीकर्मविमुक्ताय सिद्धधिपतये नमः अर्घ्यं ॥५॥ निखिल रूप गुणपर्यय ज्ञानं, सत स्वरूप प्रत्यक्ष प्रमानं। केवल आवर्णी विधि नाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो॥ ॐ ह्रीं निखिलरूपगुणपर्यायबोधककेवलज्ञानावरणविमुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥६॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४] श्री सिद्धचक्र विधान' द्वारपती भूपति के ताई, रोक रहै देखन दे नाहीं। सोई दर्शनावरण विनाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो॥ ___ ॐ ह्रीं सकलदर्शनावरणकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥७॥ मूर्तीक पद को प्रतिभासन, नेत्र द्वार होवै परकाशन। चक्षु दर्शनावरण विनाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो॥ . ____ॐ ह्रीं चक्षुदर्शनावरणकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥८॥ दृगबिन अन्य इन्द्री मन द्वारे, वस्तुरूप सामान्य उधारे। अदृग दर्शनावरण विनाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो॥ ___ ॐ ह्रीं अचक्षुदर्शनावरणकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥९॥ देशकाल द्रव भाव प्रमानं, अवधि दर्श होवे सब ठानं। अवधि दर्शनावरण विनाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो॥ ॐ ह्रीं अवधिदर्शनावरणरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१०॥ बिनमर्यादसकल तिहुँकाल, होय प्रगट घटपट थिति हाल। केवल दर्शनावरण विनाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो॥ __ॐ हीं केवलदर्शनावरणरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥११॥ बैठे खड़े पड़े घुम्मरिया, देखे नहीं निद्रा की बिरिया। निद्रा दर्शनावरण विनाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो॥ ॐ ह्रीं निद्राकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१२॥ सावधान कितनी की जावे, रञ्च नेत्र उघड़न नहीं पावे। निद्रा-निद्रा कर्म विनाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो॥ ॐ ह्रीं निद्रानिद्राकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१३॥ . मन्दरूप निद्रा का आना, अवलोकै जाग्रतहि समाना। प्रचला दर्शनावरण विनाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो॥ ॐ ह्रीं प्रचलाकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१४॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [७५ मुखसों लार बहै अति भारी, हस्त पाद कम्पत दुःखकारी। प्रचला-प्रचला कर्म विनाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो॥ ॐ ह्रीं प्रचलाप्रचलाकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१५॥ सोता हुआ करै सब काजा, प्रगटावै प्राकर्म समाजा। यह स्त्यानगृद्धि विधि नाशो, नमों सिद्ध स्वज्ञान प्रकाशो॥ __ॐ ह्रीं स्त्यानगृद्धिकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१६॥ जो पदार्थ हैं इन्द्रीय योग, ते सब वेदे जिय निज जोग। सोई नाम वेदनी होई, नमूं सिद्ध तुम नाशो सोई॥ ॐ ह्रीं वेदनीकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१७॥ रति के उदय भोग सुखकार, भोगै जियशुभ विविध प्रकार। साता भेद वेदनी होय, नमूं सिद्ध तुम नाशो सोय॥ __ॐ ह्रीं सातावेदनीकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१८॥ अरति उदय जिय इन्द्री द्वार, विषय भोग वेदे दुःखकार। एही भेद असाता होय, नमूं सिद्ध तुम नाशो सोय॥ ___ॐ ह्रीं असातावेदनीयकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१९॥ ज्यों असावधानी मदपान, करत मोह विधितों सो जान। ताविधिकरि निजलाभनहोय, नमूं सिद्धतुमनाशोसोय॥ ॐ ह्रीं मोहकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२०॥ जाके उदय तत्त्व परतीत, सत्य रूप नहिं हो विपरीत। 'पञ्च भेद मिथ्यात निवार, भये सिद्ध प्रणमूं सुखकार ॥ ॐ ह्रीं मिथ्याकर्मविनाशकाय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥२१॥ प्रथमोपशम समकित जब गले, मिथ्या समकित दोनों मिले। मिश्र भेद मिथ्यात निवार, भये सिद्ध प्रणमूं सुखकार॥ ॐ ह्रीं सम्यक्मिथ्यात्वकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२२॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६] श्री सिद्धचक्र विधान दर्शन में कुछ मल उपजाय, करै सकल नहिं मूल नसाय। सम्यक् प्रकृति मिथ्यात निवार, भये सिद्ध प्रणमूं सुखकार॥ ॐ ह्रीं सम्यक्त्वप्रकृतिमिथ्यात्वरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२३॥ धर्म मार्ग में उपजे रोष, उदय भये मिथ्यात सदोष। यह अनन्त अनुबन्ध निवार, भये सिद्ध प्रणमूं सुखकार॥ ॐ ह्रीं अनन्तानुबन्धीक्रोधकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२४॥ देव धर्म गुरुसों अभिमान, उदय भये मिथ्या सरधान। यह अनन्त अनुबन्ध निवार, भये सिद्ध प्रणमूं सुखकार॥ ___ॐ ह्रीं अनन्तानुबन्धीमानकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२५॥ . . छलसों धर्म रीति दलमलै, उदय होय मिथ्या जब चले। यह अनन्त अनुबन्ध निवार, प्रणमूं सिद्ध महासुखकार॥ ॐ ह्रीं अनन्तानुबन्धीमायाकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२६॥ . लोभ उदय निर्मालय दर्व, भक्षे महानिन्द मति सर्व। यह अनन्त अनुबन्ध निवार, भये सिद्ध प्रणमूं सुखकार ॥ ॐ ह्रीं अनन्तानुबन्धीलोभकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२७॥ . सुन्दरी छन्द क्रोधकरिअणुव्रतनहिंलीजिये,चरितमोहप्रकृतिसुभनीजिए। है अप्रत्याख्यानी कर्म सो, भये सिद्ध नमूं तिन नासियो॥ ॐ ह्रीं अप्रत्याख्यानावरणक्रोधकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२८॥ मान करि अणुव्रत न होकदा, रहे अव्रत युत दर्शन सदा। है अप्रत्याख्यानी कर्म सो, भये सिद्ध नमूं तिन नासियो॥ ॐ ह्रीं अप्रत्याख्यानावरणमानरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२९॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [ ७७ देशव्रती श्रावक नहीं होत है, वक्रता को जहँ उद्योत है । है अप्रत्याख्यानी कर्म सो, भये सिद्ध नमूं तिन नासियो ॥ ॐ ह्रीं अप्रत्याख्यानावरणमायाविमुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ ३० ॥ मोह लोभ चरित जे जिय वसै, देशव्रत श्रावक नहीं तै लसै । है अप्रत्याख्यानी कर्म सो, भये सिद्ध नमूं तिन नासियो ॥ ॐ ह्रीं अप्रत्याख्यानावरणलोभविमुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥३१ ॥ अडिल्ल छन्द प्रत्याख्यानी क्रोध सहित जे आचरें, देशव्रती सो सकल व्रत नाहीं धरै । चारित मोह सु प्रकृति रूप तिह नाम है, नाश कियो मैं नमूं सिद्ध शिवधाम है ॥ ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानावरणक्रोधविमुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ ३२ ॥ प्रत्याख्यानाभिमान महान न शक्ति है, जास उदय पूरण संयम अव्यक्त है। चारित मोहसु प्रकृति रूप तिह नाम है, नाश कियो मैं नमूं सिद्ध शिवधाम है ॥ ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानावरणमानरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ ३३ ॥ प्रत्याख्यानो मायां मुनि पदकों हतै, श्रावक व्रत पूरण नहीं खण्डे जास्तैं । चारित मोह सु प्रकृति रूप तिह नाम है, नाश कियो मैं नमूं सिद्ध शिवधाम है ॥ ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानावरणमायारहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ ३४ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८] श्री सिद्धचक्र विधान श्रावक पद में जास लोभ को वास है, प्रत्याख्यानी श्रुत में संज्ञा सात है। चारित मोह सु प्रकृति रूप तिह नाम है, नाश कियो मैं नमूं सिद्ध शिवधाम है। ॐ हीं प्रत्याख्यानावरणलोभरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥३५॥ भुजङ्गप्रयात छन्द यथाख्यात चारित को नाशकारा, महावत को जास में हो उजारा। यही संज्वलन क्रोध सिद्धान्त गाया, नमूं सिद्ध के चरण ताको नसाया॥ . ॐ ह्रीं संज्वलनक्रोधरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥३६॥ रहै संज्वलन रूप उद्योत जेते, न हो सर्वथा शुद्धता भाव तेते। यही संज्वलन मान सिद्धान्त गाया, _ नमूं सिद्ध के चरण ताको नसाया॥ ___ ॐ ह्रीं संज्वलनमानरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥३७॥ बहै संज्वलन की जहाँ मन्द धारा, लहै हैं तहाँ शुक्लध्यानी उभारा। यही संज्वलन वक्र सिद्धान्त गाया, नमूं सिद्ध के चरण ताको नसाया॥ __ॐ ह्रीं संज्वलनमायारहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥३८॥ जहाँ संग्वलन लोभ है रञ्च नाहीं, निजानन्द को वास होवे तहाँ ही। ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान यही संज्वलन लोभ सिद्धान्त गाया, नमूं सिद्ध के चरण ताको नसाया ॥ ॐ ह्रीं संज्वलनलोभरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ ३९ ॥ मोदक छन्द जाकरिहास्य भाव जत होतहिं, हास्य कियें पर की यह पातहिं । सो तुम नाश कियो जगनाथहिं, शीश नमूं तुमको धरि हाथहिं ॥ ॐ ह्रीं हास्यकर्मरहिताय सिद्धांधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ ४० ॥ प्रीति करै परसों रति मानहिं, सो रति भेद विधी तिस जानहिं । सो तुम नाश कियो जगनाथहिं, शीश नमूं तुमको धरिहाथहिं ॥ ॐ ह्रीं रतिकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ ४१ ॥ जो परसों परसन्न न हो मन, आरति रूप रहै निज आनन । सो तुम नाश कियो जगनाथहिं, शीश नमूं तुमको धरिहाथहिं ॥ ॐ ह्रीं आरतिकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ ४२ ॥ जा करि पावत इष्ट वियोगहिं, खेदमई परिणाम सुशोगहिं । सो तुम नाश कियो जगनाथहिं, शीश नमूं तुमको धरिहाथहिं ॥ ॐ ह्रीं शोककर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ ४३ ॥ हो उद्वेग उच्चाटन रूपहिं, मन तन कम्पित होत अरूपहिं । सो तुम नाश कियो जगनाथहिं, शीश नमूं तुमको धरिहाथहिं ॥ ॐ ह्रीं भयकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ ४४ ॥ सवैया [ ७९ जो पर को अपराध उघारत, जो अपनो कछु दोष न जाने । जो पर के गुण गुण जानत, जो अपने गुण को प्रगटाने ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] श्री सिद्धचक्र विधान सोजिनराजबखानजुगुप्सित, है जियनो विधिके वश ऐसो। हे भगवन्त!नमंतुमको तुम, जीति लियो छिन में अरितैसो॥ ॐ ह्रीं जुगुप्साकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥४५॥ जो नर-नारि रमावन की, जिनसों अभिलाष धेरै मनमाहीं। सोअतिहीपरकाश हिये नित, कामकीदाह मिटैछिनमाहीं॥ सो जिनराज बखान नपुंसक, वेद हनो विधि के वश ऐसो। हे भगवन्त!नमंतुमको तुम, जीति लियो छिन में अरितैसो॥ ___ॐ ह्रीं नपुंसकवेदरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥४६॥ . जो तिय संग रमें विधि यो मन, औरन से कछु आनन्द माने। किंचित्कामजगेउरमें नित,शान्तिसुभावनकीशुधिठाने॥ सो जिनराज बखानत हैं नर, वेद हनो विधि के वश ऐसो। हे भगवन्त! नमूं तुमको तुम, जीत लियो छिन में अरि तैसो॥ ॐ ह्रीं पुरुषवेदरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥४७॥ जो नर संग रमें सुख मानत, अन्तर गूढ न जानत कोई। हाव विलास हि लाज धरै मन, आतुरता करि तृप्त न होई॥ सो जिनराज बखानत हैं तिय, वेद हनो विधि के वश ऐसो। हे भगवन्त! नमूतुमको तुम, जीत लियो छिन में अरि तैसो॥ ___ ॐ ह्रीं स्त्रीवेदरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥४८॥ वसन्ततिलका छन्द आयु प्रमाण दृढ़ बन्धन और नाही, गत्यानुसार थिति पूरण कर्ण नाहीं। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [८१ सोई विनाश कीनो तुम देव नाथा, बन्दूं तु, तरण तारण जोर हाथा॥ ॐ ह्रीं आयुकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥४९॥ जो है कलेश अवधी सब होत जासो, तैंतीस सागर रहै थिति नर्क तासो। सोई विनाश कीनो तुम देव नाथा, बन्दूं तुम्हें तरण तारण जोर हाथा॥ ॐ ह्रीं नरकायुरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥५०॥ जासों करै त्रिजग की थिति आयु पूरी, . सोई कहो त्रिजग आयु महालघूरी। सोई विनाश कीनो तुम देव नाथा, बन्दूं तुम्हें तरण तारण जोर हाथा॥ ॐ ह्रीं तिर्यञ्चायुरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥५१॥ जेते नरायु विधि दे रस आप जाको, . ते-ते प्रजाय नर रूप भुगाय ताको। सोई विनाश कीनो तुम देव नाथा, बन्दूं तुम्हें तरण तारण जोर हाथा॥ ___ॐ ह्रीं मनुष्यायुरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥५२॥ याही प्रकार जितने दिन देव देही, . नासै अकाल नहिं जे सुर आयु से ही। सोई विनाश कीनो तुम देव नाथा, .. बन्दूं तुम्हें तरण तारण जोर हाथा॥ ॐ हीं देवायुरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥५३॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] श्री सिद्धचक्र विधान पद्धडि छन्द जो करे जीव को बहु प्रकार, ज्यों चित्रकार चित्राम सार। सो नाम कर्म तुम नाश कीन, मैं नमूं सदा उर भक्ति लीन॥ ॐ ह्रीं नामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥५४॥ जा उदय नारकी देह पाय, नाना दुःख भोगे नर्क जाय। सो नरकगति तुम नाश कीन, मैं नमूं सदा उर भक्ति लीन ॥ ॐ ह्रीं नरकगतिरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥५५॥ जासों उपजे तिर्यञ्च जीव, रहै ज्ञान हीन मलयुत सदीव। सो तिर्यञ्चगति तुम नाश कीन, मैं नमूं सदा उर भक्ति लीन॥ ॐ ह्रीं तिर्यञ्चगतिरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥५६॥ ' जा उदय भये मानुष्य होत, लहै नीच ऊँच ताको उद्योत। सो मानुष गति तुम नाश कीन, मैं नमूं सदा उर भक्ति लीन॥ ॐ ह्रीं मनुष्यगतिरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥५७॥ . चउ विधि सुरपद जासों लहाय, विषयातुर नित भोगे उपाय। सो देवगति तुम नाश कीन, मैं नमूं सदा उर भक्ति लीन॥ ॐ ह्रीं देवगतिरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१८॥ कामिनीमोहन छन्द एकहीभावसामान्यकापावना,जीवकीजातिकाभेदसोगावना। होतजोथावराएक इन्द्रीकहो, पूजहुँ सिद्ध के चरणताकोदहो॥ ___ॐ ह्रीं एकइन्द्रीजातिरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥५९॥ स्पर्सकेसाथमेंजीभजोआमिलें, पायसोंआपने-आपभूपरचलें गामिनीकर्मसोदोयइन्द्रीकहो, पूजहूँसिद्धके चरणताकोदहो॥ ॐ ह्रीं दोइन्द्रीजातिरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥६०॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [८३ नाकहोऔरदोआदिकेजोड़में, होउदयचालनायोगसोंलोड़में। गामिनीकर्मसोतीनइन्द्रीकहो, पूजहूँसिद्धकेचरणताकीदहो॥ ॐ ह्रीं त्रीन्द्रियजातिरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥११॥ आँखहोनाकहोजीभहोस्पर्शहो,कानकेशब्दकाज्ञानजामेंनहो। गामिनीकर्मसोचारइन्द्रीकहो, पूजहूँ सिद्धके चरणताकोदहो॥ ___ॐ हीं चतुरिन्द्रियजातिरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१२॥ कानभीआमिलैजीवजाजातिमें,होअसंज्ञीसुसंजीयहदोभाँतिमें। गामिनीकर्मसोपञ्चइन्द्रीकहो, पूजहूँसिद्धके चरणताकोदहो॥ ॐ ह्रीं पंचेन्द्रियजातिरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥६३ ॥ छन्द लावनी हो उदार जो प्रगट उदारिक, नाम कर्म की प्रकृति भनी। लहै औदारिक देह जीव तिस, कर्म प्रकृति के उदय तनी॥ भए अकाय अमूरति आनन्द, पुञ्च चिदातम ज्योति घनी। नमूं तुम्हें कर जोर युगल तुम, सकल रोगथल काय हनी॥ ... ॐ ह्रीं औदारिकशरीरविमुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥६४॥ निज शरीर को अणिमादिक करि, बहु प्रकार प्रणमाय वरै। वैक्रिय तन कहलावै है यह, देव नारकी मूल धरै॥भए.॥ ___ ॐ ह्रीं वैक्रियिकशरीरविमुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥६५॥ धवल वर्ण शुभ योगी, संशय-हरण आहारक का पुतला। जोप्रमत्तगुणनाथक मुनिके, देहऔदारिकसों निकला॥भए. . ॐ ह्रीं आहारकशरीररहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥६६॥ पुद्गलीक तन कर्म वर्गणा, कारमाण परदीप्त करण। तैजस नाम शरीर शास्त्र में, गावत हैं नहिं तेजवरण॥भए.॥ ॐ ह्रीं तैजसशरीररहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१७॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४1 श्री सिद्धचक्र विधान पुदगलीक वरगणा जीवसों, एक क्षेत्र अवगाही हैं। नूतन कारणकरणमूलतन, कारमाणतिसनामकहैं॥भए.॥ ॐ हीं कर्माणशरीररहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥६८॥ इन्द्रवज्रा छन्द जेते प्रदेश तन बीच आवै, सारे मिलैं जोड़ न छिद्र पावै। संघातनामा जिसदेह जानो, पूजूं तुम्हें सिद्ध यह कर्म भानो॥ ___ ॐ ह्रीं औदारिकसंघातरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥६९॥ वैक्रिय के जोड़ जो होत नाही, संघातनामा जिन बैन माहीं। संघातनामा जिस देह जानो, पूजूं तुम्हें सिद्ध यह कर्म भानो॥ ___ॐ ह्रीं वैक्रियकसंघातरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥७० ॥ ऐसे प्रकारा तन में अहारा, संघी मिलाया करचेत सारा। संघातनामा जिसदेह जानो, पूजूं तुम्हें सिद्ध यह कर्मभानो॥ ____ ॐ ह्रीं आहारकसंघातरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥७१ ॥ तेजस के अंग उपंग सारे, संघी मिलाया तिस मांहि धारे। संघातनामा जिस देह जानो, पूजूं तुम्हें सिद्ध यह कर्म भानो॥ ____ॐ ह्रीं तैजससंघातरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥७२॥ ज्ञानादिआवर्णजोकर्मकाया, ताको मिलाया श्रुतमाहिंगाया। संघातनामा जिसदेह जानो, पूनँ तुम्हें सिद्ध यह कर्म भानो॥ ___ ॐ ह्रीं कार्माणसंघातरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥७३॥ . चौबोला छन्द .. . पुद्गलीक वर्गणा जोग तैं, जब जित करत आहारा। प्रणवावे तिनको एकत्र करि, बन्ध उदय अनुसारा॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [८५ यही औदारिक बन्धन तुमने, छेद किये निरधारा। भए अबन्ध अकाय अनुपम, जजू भक्ति उर धारा॥ ___ॐ ह्रीं औदारिकबन्धनरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥७४ ॥ वैक्रियिक तनु परमाणु मिल, परस्परा अनिवारा। हो स्कन्ध रूप पर्यायी, यह बन्धन परकारा॥ वैक्रियिक तनु बन्धन तुमने, छेद कियो निरधारा। भए अबन्ध अकाय अनुपम, जजू भक्ति उर धारा॥ ___ ॐ ह्रीं वैक्रियिकबन्धनछेदकाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥७५ ॥ मुनि शरीरसों वाहिज निसरे, संशय नाशन हारा। ताके मिले प्रदेश परस्पर, हो सम्बन्ध अवारा॥ यही आहारक बन्धन तुमने, छेद कियो निरधारा। भए अबन्ध अकाय अनुपम, जजू भक्ति उर धारा॥ ___ॐ ह्रीं आहारकबन्धनछेदकाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥७६ ॥ दीप्त जोति जो कारमाण की, रहै निरन्तर लारा। जहाँ-तहाँ नहिं बिखरै कन ज्यों, बहै एक ही धारा॥ तैजस नामा बन्धन तुमने, छेद कियो निरधारा। भए अबन्ध अकाय अनुपम, जजू भक्ति उर धारा॥ ॐ ह्रीं तैजसबन्धरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ७७ ॥ द्रव्य कर्म ज्ञानावरणादिक, पुद्गल जातीय सारा। एक क्षेत्र अवगाही जिय को, दुविधि भाव करतारा॥ कारमाण यह बन्धन तुमने, छेद कियो निरधारा॥ भए अबन्ध अकाय अनुपम, जजूं भक्ति उर धारा॥ ॐ ह्रीं कार्माणबन्धरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥७८ ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान ___ छन्द रोला तन अकृति संस्थान आदि, समचतुरस्त्र बखानो। ऊपर तले समान, यथाविधि सुन्दर जानो॥ यह विपरीत स्वरूप त्याग, पायो निजात्म पद। बीजभूत कल्याण नमू, भव्यनि प्रति सुखप्रद॥ ॐ ह्रीं समचतुरस्रसंस्थानविमुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥७९॥ ऊपर से हो थूल तले हो, न्यून देह जिस। परिमण्डलनिग्रोध नाम, वरणो सिद्धान्त तिस॥ यह.॥ ॐ हीं न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥८० ॥ नीचे से हो थूल न्यून होवे उपराहीं। बंमइ सम वाल्मीकि देह जिन आज्ञा माहीं। यह.॥ ____ ॐ ह्रीं वाल्मीकसंस्थानरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥८१॥ जो कूबड़ आकार रूप पावे तन प्राणी। कुब्ज नाम संस्थान ताहि वरणों जिनवाणी॥ यह.॥ ___ ॐ ह्रीं कुब्जकनामसंस्थानरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥८२ ॥ लघुसों ठिगना रूप एम तन होवे जाको। वामन है परसिद्ध लोक में कहिवे ताको॥ यह.॥ ॐ ह्रीं वामनसंस्थानरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥८३ ॥ जिततित बहु आकार कहीं नहिं हो यक सारूँ। हुंडक अति असुहावन पाप फल प्रगट उधारूँ॥ यह.॥ ॐ हीं हुण्डकसंस्थानरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥८४॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [८७ लक्ष्मीधरा छन्द जीव आप भावसों जुकर्म की क्रिया करेत, अंग वा उपंगसो शरीर के उदय समेत। सो औदारिकी शरीर अंग वा उपंगनाश, सिद्धरूप हो नमो सुपाईयो अबाधवास॥ ॐ हीं औदारिकअङ्गोपाङ्गसहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥५॥ देव नारकी शरीर माँस रक्त से न होत,. - तासको अनेक भाँति आप दे सकै उद्योत। वैक्रियिक सो शरीर अंग वा उपंगनाश, . . सिद्धरूप हो नमो सु पाईयो अबाधवास॥ ॐ ह्रीं वैक्रियिकअङ्गोपाङ्गाय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥८६॥ साधु के शरीर मूलतें कढ़े प्रशंस योग, संशय को विध्वंसवार केवलो सुलेत भोग। आहार कसो शरीर अंग वा उपंगनाश, . सिद्धरूप हो नमो सु पाईयो अबाधवास॥ - ॐ ह्रीं आहारकअङ्गोपाङ्गरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥४७॥ गीता छन्द संहनन बन्धन हाड होय अभेद वा सो नाम है, नाराच कीली वृषभ डोरी बाँधने की ठाम है। है आदि को संहनन जो जिस वन सब परकार हो, यह त्याग बन्धन अबन्ध निवसो परम आनन्द धार हो। ॐ ह्रीं वज्रवृषभनाराचसंहननरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥८॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] श्री सिद्धचक्र विधान ज्यों वज्र की कीली ठुकी हो हाड सन्धी में जहाँ, सामान वृषभ जु जेवरी ताकरि बँधाई हो तहाँ। है दूसरा संहनन यह नाराच वज़ प्रकार हो। यह.॥ ___ॐ ह्रीं वज्रनाराचसंहननरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥८९॥ नहिं वज्र का हो वृषभ अरु नाराच भी नहीं वज्र हो, सामान कीली करि ठुकी सब हाड वज्र समान हो। है तीसरा संहनन जो नाराच ही परकार हो। यह.॥ ॐ ह्रीं नाराचसंहननरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥९०॥ हो जडित छोटी कीलिका, सो सन्धि हाडों की जबै, कछु ना विशेषण वज्र के, सामान्य हो होवे सबै। . है चौथवाँ संहनन जो, नाराच अर्द्ध परकार हो। यह.॥ ___ॐ ह्रीं अर्द्धनाराचसंहननरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥९१॥ ... जो परस्पर जडित होवे, सन्धि हाडन की जहाँ, नहीं कीलिका सो ठुकी होवे, साल सन्धी के तहाँ। है पाँचवाँ संहनन कीलक, नाम यह परकार हो॥ यह.॥ ___ॐ ह्रीं कीलिकसंहननरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१२॥ कछु छिद्र कछुक मिलाप होवे, सन्धि हाड़ोंमय सही, केवल नसासों होय बेढ़ी, माससों लतपत रही। अन्तिम स्फटिक संहनन, यह हीन शक्ति असार हो॥यह.॥ ॐ ह्रीं असंप्राप्तासृपाटिकासंहननरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१३॥ दोहा- वर्ण विशेष न स्वेत है, नामकर्म तन धार। स्वच्छ स्वरूपी हो नमू, ताहि कर्मरज टार॥ ॐ ह्रीं श्वेतनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥९४ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [८९ वर्ण विशेष न पीत है, नामकर्म तन धार। स्वच्छ स्वरूपी हो नमूं, ताहि कर्मरज टार॥ ॐ ह्रीं पीतनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१५॥ वर्ण विशेष न रक्त है, नामकर्म तन धार। स्वच्छ स्वरूपी हो नमूं, ताहि कर्मरज टार॥ ॐ ह्रीं रक्तनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१६॥ वर्ण विशेष न हरित है, नामकर्म तन धार। स्वच्छ स्वरूपी हो नमू, ताहि कर्मरज टार॥ ॐ ह्रीं हरितनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१७॥ वर्ण विशेष न कृष्ण है, नामकर्म तन धार। स्वच्छ स्वरूपी हो नमू, ताहि कर्मरज टार॥ ॐ ह्रीं कृष्णनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१८॥ गन्ध विशेष न शुभ कहो, नामकर्म तन धार। स्वच्छ स्वरूपी हो नमूं, ताहि कर्मरज टार॥ ॐ ह्रीं सुगन्धनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१९॥ गन्ध विशेष न अशुभ है, नामकर्म तन धार। स्वच्छ. स्वरूपी हो नमूं, ताहि कर्मरज टार॥ ॐ ह्रीं दुर्गन्धनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१०॥ स्वाद विशेष न तिक्त है, नामकर्म तन धार। स्वच्छ स्वरूपी हो नमूं, ताहि कर्मरज टार॥ ॐ ह्रीं तिक्तरसरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१०१॥ स्वाद विशेष न कटुक है, नामकर्म तन धार। स्वच्छ स्वरूपी हो नमू, ताहि कर्मरज टार॥ ॐ ह्रीं कटुकरसरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१०२॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०] श्री सिद्धचक्र विधान स्वाद विशेष न आम्ल है, नामकर्म तन धार। स्वच्छ स्वरूपी हो नमूं, ताहि कर्मरज टार॥ ॐ ह्रीं आम्लरसरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१०३॥ स्वाद विशेष न मधुर है, नामकर्म तन धार। स्वच्छ स्वरूपी हो नमूं, ताहि कर्मरज टार॥ ॐ ह्रीं मधुररसरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१०४॥ स्वाद विशेष न कषाय है, नामकर्म तन धार। स्वच्छ स्वरूपी हो नमूं, ताहि कर्मरज टार॥ ॐ ह्रीं कषायरसरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१०५॥ . फर्स विशेष न कर्म है, नामकर्म तन धार। स्वच्छ स्वरूपी हो नमूं, ताहि कर्मरज टार॥ ॐ ह्रीं मृदुत्वस्पर्शरसरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१०६॥ फर्स विशेष न कठिन है, नामकर्म तन धार। स्वच्छ स्वरूपी हो नमूं, ताहि कर्मरज टार॥ ॐ ह्रीं कठिनस्पर्शरसरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१०७॥ फर्स विशेष न भार है, नामकर्म तन धार। स्वच्छ स्वरूपी हो नमूं, ताहि कर्मरज टार॥ ॐ ह्रीं गुरुस्पर्शरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१०८॥ फर्स विशेष न अगुर है, नामकर्म तन धार। स्वच्छ स्वरूपी हो नमूं, ताहि कर्मरज टार॥ ॐ ह्रीं लघुस्पर्शरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१०९॥ फर्स विशेष न शीत है, नामकर्म तन धार। स्वच्छ स्वरूपी हो नमूं, ताहि कर्मरज टार॥ - ॐ ह्रीं शीतस्पर्शरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥११०॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [९१ फर्स विशेष न उष्ण है, नामकर्म तन धार। स्वच्छ स्वरूपी हो नमू, ताहि कर्मरज टार॥ ॐ ह्रीं उष्णस्पर्शरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१११॥ फर्स विशेष न चिकण है, नामकर्म तन धार। स्वच्छ स्वरूपी हो नमू, ताहि कर्मरज टार॥ ॐ ह्रीं स्निग्धस्पर्शरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥११२॥ फर्स विशेष न रुक्ष है, नामकर्म तन धार। स्वच्छ स्वरूपी हो नमू, ताहि कर्मरज टार॥ ॐ हीं रुक्षस्पर्शरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥११३॥ छन्द मरहठा - हो जो प्रजास वर पणइन्द्रीधर जाय नर्क निरधार, विग्रहसों चाल में अन्तराल में धरै पूर्व आकार। सो नर्क नामकरि गावत सणधर आनुपूर्वी सार, तुम ताहि नशायो शिवगति पायो नमत लहूँ भवपार॥ .. ॐ हीं नरकगत्यानुपूर्वीछेदकाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥११४॥ निज काय छाँड करि अन्त समय मरि होय पशु अवतार। विग्रहसोंचाल में अन्तराल में धरै पूर्व आकार॥सो तिर्यंच. ॐ ह्रीं तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीविमुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥११५॥ हो मिश्र प्रणामी वा शिवगामी वरै मनुष्यगति सार। विग्रहसों चाल में अन्तराल में धरै पूर्व आकार॥सो मनुष्य. - ॐ ही मनुष्यगत्यानुपूर्वीविमुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥११६ ॥ समकितसों वा कलेश करि धरहि देवगति चार । विग्रहसों चाल में अन्तराल में धरै पूर्व आकार॥ सो देव. ॐ ह्रीं देवगत्यानुपूर्वीविमुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥११७॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२] श्री सिद्धचक्र विधान ___छन्द त्रोटक तनभार भए निज घात ठने, तिसकी कछु विधि ऐसी जुबने। अपघातसुकर्म सिद्धान्त भनो, जगपूज्य भएतसुमूल हनो॥ ॐ ह्रीं अपघातकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥११८॥ विष आदि अनेक उपाधि धरै, पर प्राणनि को निर्मूल करै। परघातिसुकर्म सिद्धान्त भनो, जगपूज्य भएतसुमूलहनो॥ ॐ ह्रीं परघातकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥११९॥ .. अति तेजमई परदीप्त महा, रवि बिम्ब विर्षे जिय भूमि लहा। यह आतप कर्म सिद्धान्त भनो, जग पूज्य भए तसुमूलहनो॥ ॐ ह्रीं अतितेजमयीआतापनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१२० ॥ परकासमई जिम बिम्ब शशी, पृथिवी जिय पावत देह इसी। द्युतिनामसुकर्म सिद्धान्त भनो, जगपूज्यभएतसुमूलहनो॥ ___ ॐ ह्रीं उद्योतनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१२१॥ . तन की थिति कारण श्वास गहै, स्वर अन्तर बाहर भेद वहै। यह श्वास सुकर्म सिद्धान्त भनो, जगपूज्य भए तसुमूलहनो॥ ॐ ह्रीं श्वासकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१२२ ॥ शुभचालचलें अपनी जिसनें,शशिज्योंनभसोहत हैं तिसतें। नभ में गति कर्म सिद्धान्त भनो, जगपूज्य भयेतसुमूलहनो॥ ॐ ह्रीं विहायोगतिनामकर्मविमुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१२३॥ इक इन्द्रिय जात विरोध मई, चतुरान्ति सुभावक प्राप्त भई। सनामसुकर्म सिद्धान्त भनो, जगपूज्य भएतसुमूलहनो॥ ॐ ह्रीं त्रसनामकर्मविमुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१२४॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [९३ इक इन्द्री जातहि पावत हैं, अरु शेष न ताहि धरावत हैं। यह थावर कर्म सिद्धान्त भनो, जग पूज्य भए तसुमूलहनो॥ ॐ ह्रीं थावरनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१२५॥ पर में परवेश न आप करें, पर को निज में नहिं थाप धरै। यह बादर कर्म सिद्धान्त भनो, जग पूज्य भएतसुमूलहनो॥ ॐ ह्रीं बादरनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१२६ ॥ जलसों दवसों नहीं आप मरै, सब ठौर रहै पर की न हरै। यह सूक्ष्म कर्म सिद्धान्त भनो, जग पूज्य भए तसुमूल हनो॥ ___ ॐ ह्रीं सूक्ष्मनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१२॥ जिसने परिपूरणता करि है, निज शक्ति समान उदय धरि है। पर्याप्त सुकर्म सिद्धान्त भनो, जग पूज्य भए तसु मूल हनो॥ ___ॐ ह्रीं पर्यापकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१२८॥ परिपूरणता नहिं धार सके, यह होत सभी साधारण के। अपरर्याप्ति कर्म सिद्धान्त भनो, जगपूज्य भएतसुमूलहनो॥ ___ॐ ह्रीं अपर्याप्तकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१२९॥ जिम लोह न भार धरै तन में, जम आकन फूल उड़े वन में। अगुरु लघुकर्म सिद्धान्त भनो, जगपूज्य भएतसुमूलहनो॥ ॐ ह्रीं अगुरुलघुनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१३०॥ इक देह विर्षे इक जीव रहै, इकलो जिसको सब भोग लहै। परतेक सुकर्म सिद्धान्त भनो, जग पूज्य भए तसुमूल हनो॥ ___ॐ ह्रीं प्रत्येकनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१३१॥ इक देह विर्षे बहु जीव रहैं, इक साथ सभी तिस भोग लहैं। इह भेद निगोद सिद्धान्त भनो, जग पूज्य भए तसुमूलहनो॥ ___ ॐ ह्रीं साधारणनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१३२॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४] श्री सिद्धचक्र विधान उपेन्द्रवज्रा छन्द चले न जो धातु तज नवासा, यथाविधि आप धरै निवासा। यही प्रकारा थिर नाम भासो, नमामि देवं तिस देह नासो॥ __ॐ ह्रीं स्थिरनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१३३॥ अनेक थानं मुख गौण घातं, चलन्ति धारं निजवास घातं। यही प्रकारा थिर नाम भासो, नमामि देवं तिस देह नासो॥ ___ ॐ ह्रीं अस्थिरनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१३४॥ यथाविधी देह विशाल सोहै, मुखारविन्दादिक सर्व मोहै। यही प्रकारा शुभ नाम भासो, नमामि देवं तिस देह नासो॥ ___ॐ ह्रीं शुभनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१३५॥ . असुन्दराकार शरीर माहीं, लखों जहासों विडरूप ताहीं। यही प्रकारा,अशुभ नाम भासो, नमामि देवं तिस देह नासो॥ ___ॐ ह्रीं अशुभनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१३६॥ अनेक लोकोत्तम भावधारी, करैं सभी तापर प्रीति भारी। यही सुभगता को भेद भासो, नमामि देवं तिस देह नासो॥ ____ॐ ह्रीं सुभगनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१३७ ॥ धरै अनेका गुणती न जासों, करें कभी प्रीति न कोइ तासों। दुर्भाग ताको, यह भेद भासो, नमामि देवं तिस देह नासो॥ ___ॐ ह्रीं दुर्भगनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१३८॥ पद्धड़ि छन्द ... ध्वनिबीन भाँतिग्योंमधुरवैर, निसरैपिकआदिकसुरसदैन। यहसुस्वरनाम प्रकृतिकहाय, तुमहनोंनमूंजिनशीसलाय॥ ॐ हीं सुस्वरनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१३९ ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [९५ गर्दभस्वर जैसोकहोभास, तैसोरव अशुभकहोसुभास। यहसुस्वरनामप्रकृतिकहाय, तुमहनोंन{निजशीसलाय॥ ॐ ह्रीं दुस्वरनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१४०॥ अडिल्ल छन्द होत प्रभा मई कान्ति महारमणीक जू, जग जनमन भावन माने यह ठीक जू। यह आदेय सु प्रकृति नाश निजपद लहो, - ध्यावत हैं जगनाथ तुम्हें हम अघ दहो॥ ॐ ह्रीं आदेयनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१४१॥ रूखो मुख को वरण लेश नहिं कान्ति को, रूखे के श नखाकृति तन बढ़ भाँति को। अनादेय यह प्रकृति नाश निजपद लहो॥ध्यावत हैं.॥ ___ ॐ ह्रीं अनादेयनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१४२॥ होत गुप्त गुण तो भी जग में विस्तरै, जगजन सुजस उचारत ताकी थुति करें। यह जस प्रकृति विनाश सुभावी यश लहो॥ध्यावत हैं.॥ ॐ ह्रीं यशःप्रकृतिछेदकायरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१४३ ॥ जासु गुणनं को औगुण कर सबही ग्रहैं, करत काज परशंसित पण निन्दित करें। अपयश प्रकृति विनाश सुभावी पद लहो॥ध्यावत हैं.॥ ॐ ह्रीं अपयश:नामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१४४॥ यो थान नेत्रादिक ज्यों के त्यों बनें, रचित चतुर कारीगर करते हैं तनें। यह निर्माण विनाश सुभावी पद लहो॥ ध्यावत हैं.॥ ॐ ह्रीं निर्माणनामकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१४५ ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६] . श्री सिद्धचक्र विधान पञ्चकल्याणक चौतिस अतिशय राज ही, प्रातिहार्य अठ समोशरण द्युति छाज ही। तीर्थङ्कर विधि विभव नाश निज पद लहो॥ध्यावत हैं.॥ ॐ ह्रीं तीर्थङ्करप्रकृतिरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१४६ ॥ चाल छन्द जो कुम्भकार की नाई, छिन घट छिन करत सुराई। सो गोत्र कर्म परजारा, हम पूज रचो सुखकारा॥ ॐ ह्रीं गोत्रकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१४७॥ लोकनि में पूज्य प्रधाना, सब करत विनय सनमाना। यह ऊँच गोत्र परजारा, हम पूज रचो. सुखकारा॥ ___ॐ ह्रीं ऊँचगोत्रकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१४८॥ जिसको सब कहत कमीना, आचरण धरे अति हीना। यह नीच गोत्र परजारा, हम पूज रचो सुखकारा॥ ___ॐ ह्रीं नीचगोत्रकर्मविमुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१४९॥ ज्यों दे न सके भण्डारी, परधन की हो रखवारी। यह अन्तराय परजारा, हम पूज रचो सुखकारा॥ __ॐ ह्रीं अन्तरायकर्मविमुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१५० ॥ दो दान देन को भावा, दे सके न कोटि उपावा। दानान्तराय परजारा, हम पूज रचो सुखकारा॥ ॐ ह्रीं दानान्तरायरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१५१ ॥ मनो दान लेन के भावे, दातार प्रसंग न पावै। लाभान्तराय परजारा, हम पूज रचो सुखकारा॥ ॐ ह्रीं लाभान्तरायकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१५२ ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [९७ पुष्यादिक चाहै भोगा, पर पाये न अवसर योगा। भोगान्तराय परजारा, हम पूज रचो सुखकारा॥ ___ॐ ह्रीं भोगान्तरायकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१५३ ॥ तिय आदिक बारम्बारा, नहीं भोग सके हितकारा। उपभोगान्तराय परजारा, हम पूज रचो सुखकारा॥ ॐ ह्रीं उपभोगान्तरायकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१५४॥ चेतन निज बल प्रगटावे, यह योग कभू नहीं पावे। वीर्यान्तराय परजारा, हम पूज रचो सुखकारा॥ ___ॐ ह्रीं वीर्यान्तरायकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१५५॥ ज्ञानावरणादिक नामी, निज भाग उदय परिणामी। अठ भेद कर्म परजारा, हम पूज रचो सुखकारा॥ - ॐ ह्रीं अष्टकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१५६॥ इकसो अड़ताल प्रकारी, उत्तर विधि सत्ता धारी। सब प्रकृति कर्म परजारा, हम पूज रचो सुखकारा॥ . ॐ ह्रीं एकशताष्टचत्वारिंशत्रहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१५७॥ परिणाम भेद संख्याता, जो वचन योग में आता। संख्यात कर्म परजारा, हम पूज रचो सुखकारा॥ ___ॐ ह्रीं संख्यातकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१५८॥ है वचननसों अधिकाई, परिणाम भेद दुःखदाई। विधि असंख्यात परजारा, हम पूज रचो सुखकारा॥ ___ॐ ह्रीं असंख्यातकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१५९॥ अविभाग प्रछेद अनन्ता, जो केवलज्ञान लहन्ता। यह कर्म अनन्त परजारा, हम पूज रचो सुखकारा॥ ॐ ह्रीं अनन्तकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१६० ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८] श्री सिद्धचक्र विधान सब भाग अनन्तानन्ता, यह सूक्ष्म भाव धारन्ता। विधि नन्तानन्त परजारा, हम पूज रचो सुखकारा॥ ॐ ह्रीं अनन्तानन्तकर्मरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१६१॥ मोतियादाम छन्द न हो परिणाम विर्षे कछु खेद, सदा इकसा प्रणवै बिन भेद। निजाश्रितभावरमैं सुखधाम, करूँतिसआनन्दकोपरिणाम॥ __ॐ हीं आनन्दस्वभावायरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१६२ ॥ धरै जितने परिणाम भेद, विशेषन ते सब ही बिन खेद। पराश्रितता बिन आनन्द धर्म, नमूं तिन पाय लहूँ पद शर्म॥ ___ॐ ह्रीं आनन्दधर्मात्मकाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१६३॥ नहोपरयोग निमित विभाव, सदानिवसें निजआनन्दभाव। यही वरणे परमानन्द धर्म, नमूं तिन पाय लहूँ पद शर्म॥ ___ॐ ह्रीं परमानन्दधर्मात्मकाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१६४॥ कā परसों कछु द्वेष न होत, क फुनि हर्ष विशेष न होत। रहैं नित हो निजभावनलीन, नमूं पद साम्य सुभाव सुलीन॥ ह्रीं साम्यस्वभावाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१६५ ॥ निजाकृति में नहीं लेशकषाय, अमूरतिशान्तिमयी सुखदाय। अनाकुलता बिनसाम्यस्वरूप, नमूंतिनकोनितआनन्दरूप॥ ॐ ह्रीं साम्यस्वरूपाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१६६॥ अनन्त गुणातम द्रव्य पर्याय, यही विधि आप धरै बहु भाय। सभीकुमतिकरिहोअलखाय,नमूंजिनबैनभलीविधिगाय॥ ___ॐ ह्रीं अनन्तगुणात्मकाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१६७॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [ ९९ अनन्त गुणातम रूप कहाय, गुणी गुण भेद सदा प्रणमाय । महागुण स्वच्छमयी तुम रूप, नमूं तिनको पद पाइ अनूप ॥ ॐ ह्रीं अनन्तगुणस्वरूपाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ १६८ ॥ अभेद सुभेद अनेक सु एक, धरो इन आनिक धर्म अनेक । विरोधितभावनसों अविरुद्ध, नमूंजिन आगमकीविधिशुद्ध ॥ ॐ ह्रीं अनन्तधर्मात्मकाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ १६९ ॥ रहैं धर्मी नित धर्म सरूप, न हो परदेशनसों अणुरूप । चिदातम धर्म सभी निजरूप, धरों प्रणमूँ मन भक्ति स्वरूप ॥ ॐ ह्रीं अनन्तधर्मस्वरूपाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ १७० ॥ चौपाई हीनाधिक नहीं भाव विशेष, आतमीक आनन्द हमेश | सम स्वभाव सोई सुखराज, प्रणमूं सिद्ध मिटैं भववास ॥ ॐ ह्रीं समस्वभावाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ १७१ ॥ इष्टानिष्ट मिटो भ्रम जाल, पायो निज आनन्द विशाल । साम्य सुधारस को नित भोग, नमूं सिद्ध सन्तुष्ट मनोग ॥ ॐ ह्रीं सन्तुष्टाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ १७२ ॥ पर पदार्थ की इच्छुक नाहि, सदा सुखी स्वातम पदमाहिं । मेटो सकल राग अरु दोष, प्रणमूं राजत सम सन्तोष ॥ ॐ ह्रीं समसन्तोषाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ १७३ ॥ मोह उदय सब भाव नसाय, मेटो पुद्गलीक पर्याय । शुद्ध निरञ्जन समगुण लहों, नमूं सिद्ध परकृत दुःख दहों ॥ ॐ ह्रीं साम्यगुणाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१७४॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००] श्री सिद्धचक्र विधान निजपदसों थिरता नहीं तर्जें, स्वानुभूत अनुभव नित भजैं। निराबाध तिष्ठं अविकार, साम्य स्थायी गुण भण्डार॥ ॐ ह्रीं साम्यस्थाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१७५॥ भव सम्बन्धी काज निवार, अचल रूप तिष्ठं समधार। कृत्याकृत्य साम्य गुणपाइयो, भक्ति सहित हम सिरनाइयो। ॐ ह्रीं अनन्यशरणाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१७६ ॥ छन्द झूलना भूल नहीं भय करें क्षोभ नाहीं धरै, गैर की आस की त्रास नाहीं धरैं। शरण काकी चहैं सबन को शरण हैं, अन्य की शरण बिन नमूं ताही वरै॥ ॐ ह्रीं अनन्यशरणाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१७७॥ द्रव्य षट् में नहीं आप गुण आप ही, . आप में राजते सहज नीको सही। स्वगुण अस्तित्वता वस्तु की वस्तुता, धरत हो मैं नमूं आप ही को स्वता॥ ॐ हीं अनन्यगुणाय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१७८ ॥ गैर से गैर हो आप में रमाइयो, स्वचतुष्टय खेत में वास तिन पाइयो। धर्म समुदाय हो परमपद पाइयो, मैं तुमैं भक्तियुत शीश निज नाइयो॥ - ॐ ह्रीं अनन्यधर्माय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१७९ ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१०१ साधना जब तई होत है तब तई, दोऊ परिमाण को काज जामें नहीं। आप निजपद लियो तिन जिलॉजलि दियो, अन्य नहीं चहत निज शुद्धता में लियो॥ ॐ ह्रीं परिणामविमुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१८॥ तोमर छन्द द्रग ज्ञान पूरणचन्द्र, अकलङ्क ज्योति अमन्द। निरद्वन्द ब्रह्मस्वरूप, नित्त पूजहूँ चिद्रूप॥ ॐ ह्रीं ब्रह्मस्वरूपाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१८१॥ सब ज्ञानमयी परिणाम, वर्णादि को नहिं काम। निरद्वन्द ब्रह्मस्वरूप, नित्त पूजहूँ चिद्रूप॥ ... ॐ ह्रीं ब्रह्मगुणाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१८२ ॥ निज चेतना गुण धार, बिन रूप हो अविकार। निरद्वन्द ब्रह्मस्वरूप, नित्त पूजहूँ चिद्रूप॥ . ॐ ह्रीं ब्रह्मचेतनाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१८३॥ सुन्दरी छन्द अन्य रूप सों अन्य रहैं सदा, पर निमित्त विभा न हो कदा। कहत हैं मुनि शुद्ध सुभावजी, नमूं सिद्ध सदा तिन पायजी॥ ___ ॐ ह्रीं शुद्धस्वभावाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१८४॥ परपरिणामनसोंनहिंमिलतहैं,निजपरिणामनसोंनहिंचलतहैं। शुद्ध परिणामीतुमपद नमू, नमत तुमपदसबअघकोदमूं॥ ___ॐ ह्रीं शुद्धपरिणामकाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१८५॥ . . Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान १०२] २०२.... ..श्री सिद्धचक्र विधान......... वस्तुता व्यवहार नहीं हैं, उपस्वरूप असत्यारथ कहैं। शुद्धस्वरूपनताकरिसाध्यहैं, निर्विकल्पसमाधिआराध्यहैं। ___ ॐ ह्रीं अशुद्धरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१८॥ द्रव्य पर्यायार्थिक नयदोऊ, स्वानुभवमें विकलपनहिं कोऊ। सिद्ध शुद्धाशुद्ध अतीत हो, नमत तुम तिनपद परतीत हो॥ ॐ ह्रीं शुद्धाशुद्धरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१८७॥ चौपाई क्षय उपशमअवलोकनटारो, निजगुणक्षायक रूपउघारो। युगपत सकल चराचर देखा, ध्यावत हूँ मन हर्ष विशेषा॥ ॐ ह्रीं अनन्तदृगानन्दस्वभावाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१८८॥ जब पूरण अवलोकन पायो, तब पूरण आनन्द उपायो। अविनाभाव स्वयं पद देखा, ध्यावत हूँ मन हर्ष विशेषा। ___ॐ ह्रीं अनन्तदृगानन्दस्वभावाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१८९॥ नाश सुपूर्वक हो उतपादा, सत लक्षण परिणति मरजादा। क्षय उपशम तन क्षायक पेखा, ध्यावत हूँ मन हर्ष विशेषा॥ ____ ॐ ह्रीं अनन्तदृगुत्पादकाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१९०॥ नित्य रूप निज चित पद माही, अन्य रूप पलटन हो नाहीं। द्रव्य-दृष्टि में यह गुण देखा, ध्यावत हूँ मन हर्ष विशेषा॥ ॐ ह्रीं अनन्तध्रुवाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१९१॥ कर्म नाश जो स्वापद पावै, रञ्च मात्र फिर अन्त न आवै। यह अव्यय गुण तुममें देखा, ध्यावत हूँ मन हर्ष विशेषा॥ ॐ हीं अव्ययभावाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥१९२॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१०३ पर नहीं व्यापै तुमपद माही, पर में रमण भाव तुम नाहीं। निजकरिनिजमें निजलयदेखा, ध्यावतहूँमनहर्ष विशेषा॥ ॐ ह्रीं अनन्तनिलयाय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१९३॥ शंखनारी छन्द अनन्ताभिधानो, गुणकारजानो, धरोआपसोई, न मानखोई॥ ॐ ह्रीं अनन्ताकाराय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१९४॥ अनन्तास्वभावा, विशेषनउपावा, धरोआपसोई, नमूंमानखोई॥ ___ॐ ह्रीं अनन्तस्वभावाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१९५ ॥ बिनाकाररूपा, चिन्मयस्वरूपा, धरोआपसोई, नमूंमानखोई॥ ॐ ह्रीं चिन्मयस्वरूपाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१९६ ॥ सदा चेतना में, नहोअन्यता में,धरोआपसोई, नमूंमानखोई॥ हीं चिद्रूपस्वरूपाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१९७॥ दोहा जो कछु भाव विशेष हैं, सब चिद्रूपी धर्म। असाधारण पूरण भये, नमत नशें सब कर्म ॥ ॐ ह्रीं चिद्रूपधर्माय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥१९८॥ परकृति व्याधि विनाश के, निज अनुभव की प्राप्त। भई, नमूं तिनको, लहूँ यह जगवास समाप्त ॥ ॐ ह्रीं स्वानुभवोफलब्धिरमाय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥१९९॥ निरावरण निज ज्ञान करि, निज अनुभव की डोर। गहो लहो थिरता रहो, रमण ठौर नहीं और ॥ ॐ ह्रीं स्वानुभूतिरताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२०॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४] श्री सिद्धचक्र विधान सरवोत्तम लौकिक रस, सुधा कुरस सब त्याग। निज पद परमामृत रसिक, नमूं चरण बड़भाग॥ ह्रीं परमामृतरताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२०१॥ विषयामृत विषसम अरुचि, अरस अशुभ असुहान। जान निजानन्द परमसम, तुष्ट सिद्ध भगवान ॥ ॐ हीं परमामृततुष्टाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२०२॥ शङ्कातीत अतीतसो, धरें प्रीति निज मांहि । अमल हिये सन्तनि प्रिये, परम प्रीति नमूं ताहि॥ ॐ ह्रीं परमप्रीताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२०३॥ . अक्षय आनन्द भाव युत, निज हितकार मनोग। सज्जन चित वल्लभ परन, दुर्जन दुर्लभ योग। ___ॐ ह्रीं परमवल्लभयोगाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२०४॥ शब्द गन्धरसफरस नहिं, नहीं वरण आकार। बुद्धि गहै नहिं पार तुम, गुप्त भाव निरधार ॥ ॐ ह्रीं अव्यक्तभावाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२०५॥ सर्व दर्वसों भिन्न हैं, नहिं अभिन्न तिहुँ काल। नमूं सदा परकाश धर, एकहिं रूप विशाल॥ ॐ ह्रीं एकत्वस्वरूपाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२०६॥ सर्व दर्वतें भिन्नता, जिन गुण निज में वास। नमूं अखण्ड परमातमा, सदा सुगुण की राश॥ ॐ ह्रीं एकत्वगुणाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२०७॥ सर्व दर्व परिणामसों, मिलैं न निज परिणाम। नमूं निजानन्द ज्योति धन, नित्य उदय अभिराम॥ ॐ ह्रीं एकत्वभावाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२०८॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१०५ चौपाई पर संयोग तथा समवाय, यह सम्वाद न हो द्वै भाय। नित्य अभेद एकता धरो, प्रण द्वैत भाव हम हरो॥ ॐ ह्रीं द्वैतभावविनाशकाय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥२०९॥ पूर्व पर्याय नासियो सोई, जाको फिर उतपात न होई। अव्यय अविनाशी अभिराम, शाश्वत रूप नमूं सुखधाम॥ ॐ ह्रीं शाश्वताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२१०॥ निर्विकार निर्मल निजभाव, नित्य प्रकाश अमन्द प्रभाव। अव्यय अविनाशी अभिराम, शाश्वत रूप नमूं सुखधाम॥ ____ॐ ह्रीं शाश्वतप्रकाशाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२११॥ निरावरण रवि बिम्ब समान, नित्य उद्योत धरो निज ज्ञान। अव्यय.अविनाशी अभिराम, शाश्वत रूप नमूं सुखधाम॥ ॐ ह्रीं शाश्वतोद्योताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२१२ ॥ ज्ञानानन्द सुधारक चन्द्र, सोहत पूरण ज्योति अमन्द। अव्यय अविनाशी अभिराम, शाश्वत रूप नमूं सुखधाम॥ ___ॐ ह्रीं शाश्वतामृतचन्द्राय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२१३॥ ज्ञानानन्द सुधारस धार, निरविच्छेद अभेद अपार। अव्यय अविनाशी अभिराम, शाश्वत रूप नमूं सुखधाम॥ ॐ ह्रीं शाश्वतअमृतमूर्तये सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२१४॥ .. पद्धड़ी छन्द मन इन्द्रिय ज्ञान न पाय जेह, है सूक्षम नाम सरूप तेह। मनःपर्यय जाकू नहिं पाय, परम सूक्षम-सा सुगुण नमाय॥ ___ॐ ह्रीं परमसूक्ष्माय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥२१५ ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] श्री सिद्धचक्र विधान बहु रास नभोदर में समाय, प्रत्यक्ष स्थूल तांकों न पाय। इकसों इककों बाधा न होहि, सूक्षम अविनाशी नमों सोहि॥ ____ ॐ हीं सूक्ष्मावकाशाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२१६॥ नभगुणध्वनिहोयहजोगनाहि,होजिसोगुणीगणतिसोताहि। सो राजत हो सूक्षम स्वरूप, नमहूँ तुम सूक्षम गुण अनूप॥ ॐ ह्रीं सूक्ष्मगुणाय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥२१७॥ तुम त्याग द्वैतता को प्रसंग, पायौ एकाकी छवि अभंग। जाको कबहुँ अनुभव न होय, नमूं परम रूप है गुप्त सोय॥ ॐ ह्रीं परमरूपगुप्ताय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२१८॥ . छन्द त्रोटक . . . सर्वार्थ विमानिक देव तथा, मन इन्द्रिय भोगन शक्ति यथा। इनके सुख कीइक सीमसही, तुमआनन्दकोपरअन्त नहीं। __ॐ ह्रीं निरवधिसुखाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२१९॥ जगजीवनिकोनहिंभाग्ययहै,निजशक्तिउदयकरिव्यक्तिलहै। तुम पूरण क्षायक भाव लहो, इम अन्त बिना गुणरास गहो॥ ॐ ह्रीं निरवधिगुणाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२२० ॥ भवि-जीव सदा यह रीत धरें, नित नूतन पर्य विभाव धरें। तिसकारणकोसबव्याधिदहो, तुमपायसुरूपजुअन्तनहो॥ ॐ ह्रीं निरवधिगुणाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२२१ ॥ अवधि मनःपर्यय सु ज्ञान महा, द्रव्यादि विर्षे मरजाद लहा। तुम ताहि उलंघ सुभावमई, निजबोध लहो जिस अन्त नहीं॥ ॐ हीं अतुलज्ञानाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२२२॥ . Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१०७ तिहुँकालतिहुँजगके सुखको, करवारअनन्त गुणाइनको। तुम एक समय सुख कीसमता, नहीं पाय नमूमन आनंदा॥ ह्रीं अतुलसुखाय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥२२३ ॥ नाराच छन्द सर्व जीव राश के सुभाव आप जान हो, आप के सुभाव अंश और कौन ज्ञान हो। सो विशुद्ध भाव पाय जासकौ न अन्त हो, राज हो सदीव देव चरण दास सन्त हो। ॐ ह्रीं अतुलभावाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२२४॥ आप की गुणौघ वेलि फैलि है अलोकलों। शेष से भ्रमाय पत्र की न पाय नोकलों॥ सो विशुद्ध.॥ ॐ ह्रीं अतुलगुणाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२२५ ॥ सूर्य को प्रकाश एक देश वस्तु भास ही। आप को सुज्ञान भान सर्वथा प्रकाश ही॥ सो विशुद्ध.॥ ___ ॐ ह्रीं अतुलप्रकाशाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२२६ ॥ तास रूप को गहो न फेरि जास नाश हो। स्वात्मवास में विलास आस त्रास नाश हो॥सो विशुद्ध.॥ ॐ ह्रीं आत्मवासजिनाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२२७ ॥ सोरठा मोहादिक रिपु जीति, निजगुण निधि सहजें लहो। विलसो सदा पुनीति, अचल रूप बन्दों सदा॥ ॐ ह्रीं अचलगुणाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२२८॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] श्री सिद्धचक्र विधान उत्तम क्षायक भाव, क्षय उपशम सब गइ विनशि । पायो सहज सुभाव, अचल रूप वन्दों सदा ॥ ॐ ह्रीं अचलस्वभावाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ २२९ ॥ अथिर रूप संसार, त्याग सुथिर निज रूप गहि । रहो सदा अविकार, अचल रूप बन्दों सदा ॥ ॐ ह्रीं अचलस्वरूपाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ २३० ॥ मोतियादाम छन्द निराश्रित स्वाश्रित आनन्द धाम, परैं परसों न परै कछु काम । अबिन्दु अबन्धु अबन्ध अमन्द, करूँ पद गन्द रहूँ सुखवृन्द ॥ ॐ ह्रीं निरालम्बाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२३१॥ अरोग अदोष अशोक अभोग, अनिष्ट संयोग न इष्ट वियोग । अबिन्दु अबन्धु अबन्ध अमन्द, करूँ पद गन्द रहूँ सुखवृन्द ॥ ॐ ह्रीं अम्लबरहिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ २३२ ॥ अजीवन जीवन धर्म अधर्म, न काल अकाश लहैं तिस धर्म । अबिन्दु अबन्धु अबन्ध अमन्द, करूँ पद गन्द रहूँ सुखवृन्द ॥ ॐ ह्रीं निर्लेपाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ २३३ ॥ अवर्ण अकर्व अरूप अकाय, अयोग असंयमता अकषाय । अबिन्दु अबन्धु अबन्ध अमन्द, करूँ पद गन्द रहूँ सुखवृन्द ॥ ॐ ह्रीं निष्कषायाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ २३४ ॥ न हो परसों रुप राग विभाव, निजातम में लवलीन स्वभाव । अबिन्दु अबन्धु अबन्ध अमन्द, करूँ पद गन्द रहूँ सुखवृन्द ॥ ॐ ह्रीं आत्मरतये सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥ २३५ ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१०९ दोहा निज स्वरूप में लीनता, ज्यों जल पुतली वार। गुप्त स्वरूप नमूं सदा, लहूँ भवार्णव पार ॥ . ___- ॐ ह्रीं स्वरूपगुणाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२३६ ॥ जोहै सोहै और नहिं, कछु निश्चय व्यवहार। शुद्ध द्रव्य परमातमा, नमूं शुद्धता धार ॥ ___ ॐ ह्रीं शुद्धद्रव्याय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२३७॥ पूर्वोत्तर सन्तति तनी, भव भव छेद कराय। असंसार पद को नमूं, यह भव वास नशाय॥ ॐ ह्रीं असंसाराय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२३८॥ अर्द्धनाराच छन्द हरो सहाय कर्ण को, सु भोगता विवर्ण को। • निजातमीक एक ही, लहो अनन्द तास ही॥ . ॐ ह्रीं स्वानन्दाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२३९॥ न हो विभावता कदा, स्वभाव में सुखी सदा॥ निजातमीक एक ही, लहो अनन्द तास ही॥ __ॐ ह्रीं स्वानन्दभावाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२४०॥ अछेद रूप सर्वथा, उपाधि की नहीं व्यथा। निजातमीक एक ही, लहो अनन्द तास ही॥ ॐ ह्रीं स्वानन्दस्वरूपाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२४१॥ दुभेदता न वेद ही, सचेतना अभेद ही। निजातमीक एक ही, लहो अनन्द तास ही॥ ॐ ह्रीं स्वानन्दगुणाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२४२॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०] श्री सिद्धचक्र विधान न अन्य की प्रवाह है, अचाह है न चाह है। निजातमीक एक ही, लहो अनन्द तास ही॥ ॐ ह्रीं स्वानन्दसन्तोषाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२४३॥ सोरठा रागादिक परिणाम, हैं कारण संसार के। नाश लियो सुखधाम, नमत सदा भव भय हरण॥ ॐ ह्रीं शुद्धभावपर्यायाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२४४॥ उदइक भाव विनाश, प्रगट कियो निज धर्म को। स्वातम गुण परकाश, नमत सदा भव भय हरण॥ . ॐ ह्रीं स्वतन्त्रधर्माय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२४५ ॥ निजगुण पर्याय रूप, स्वयं-सिद्ध परमातमा। राजत हैं शिव भूप, नमत सदा भव भय हरण॥ ॐ ह्रीं आत्मस्वभावाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२४६ ॥ विमल विशद निज ज्ञान, हैं स्वभाव परिणतिमई। राजें हैं सुखखानि, नमत सदा भव भय हरण॥ ॐ ह्रीं परमचित्परिणामाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२४७ ॥ दर्श ज्ञानमय धर्म, अचेतन धर्म प्रगट कहो। भेदाभेद सुपर्म, नमत सदा भव भय हरण॥ ___ ॐ ह्रीं चिद्रूपधर्माय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२४८॥ दर्शज्ञान गुणसार, जीवभूत परमातमा। राजत सब परकार, नमत सदा भव भय हरण॥ ॐ ह्रीं चिद्रूपगुणाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२४९ ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान . [१११ अष्ट कर्म मल जार, दीप्तरूप निज पद लहो। स्वच्छ हेम उनहार, नमत सदा भव भय हरण॥ ॐ ह्रीं परमस्नातकाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२५०॥ रागादिक मल बोध, दोऊ विविध विधान विध। लहो शुद्ध प्रतिबोध, नमत सदा भव भय हरण॥ ____ॐ ह्रीं स्नातकधर्माय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२५१ ॥ विधि आवरण विनाश, दर्श ज्ञान परिपूर्ण हो। लोकालोक प्रकाश, नमत सदा भव भय हरण॥ ___ॐ ह्रीं सर्वावलोकाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२५२॥ निजकर निज में वास, सर्व लोकसों भिन्नता। पायो शिव सुख रास, नमत सदा भव भय हरण॥ ___ॐ ह्रीं लोकाग्रस्थिताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२५३॥ ज्ञान-भान की जोति, व्यापक लोकालोक में। दर्शन बिन उद्योत, नमत सदा भव भय हरण॥ ॐ ह्रीं लोकालोकाव्यापकाय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२५४॥ जो कुछ धरत विशेष, सब ही सब आनन्दमय। लेश न भाव कलेश, नमूं सदा भव भय हरण॥ ___ ॐ ह्रीं अतुलभावाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२५५ ॥ जिस आनन्द को पार, पावत नहीं यह जगतजन। सो पायो हितकार, नमत सदा भव भय हरण॥ ॐ ह्रीं आनन्दविधानाय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२५६॥ नित्य शर्म सुखकार, दर्शन ज्ञान चरित्रमय। मनसों दुविधा टार, नमत सदा भव भय हरण॥ ॐ ह्रीं रत्नत्रयसंयुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अध्यं ॥२५७॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] . श्री सिद्धचक्र विधान सब जीवन के हेत, दशविधि धर्म बताइयो। जासों होय सुचेत, आलस तजि धारण करो॥ ॐ ह्रीं दशधर्मसंयुक्ताय सिद्धाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥२५८॥ दोहा इत्यादिक आनन्द गुण, धारत सिद्ध अनन्त। तिन पद आठों दरवसों, पूजत हैं निज सन्त॥ ___ॐ ह्रीं आनन्दपूर्णांय सिद्धाधिपतये नमः अयं ॥२५९॥ . ॐ ह्रीं षट्पञ्चाशत्अधिकद्विशतगुणयुक्ताय सिद्धाधिपतये महाघु नि. स्वाहा। "ॐ ह्रीं अहँ असि आ उ सा नमः' मंत्र का १०८ बार जाप देना चाहिये। जयमाला - दोहा थावर शब्द विषय धरै, त्रस थावर पर्याय। यों न हीय तो तुम सुगुण, हम किह विधि वर्णाय॥ तिस पर जो कछु कहत हैं, केवल भक्ति प्रमान। बालक जल शशि बिंब को, चहत ग्रहण निज पान॥ पद्धड़ी छन्द जय जग निमित्त व्यवहार त्याग, पायो निज शुद्ध स्वरूप भाग। जय जग पालन बिन जगत् देव, जय दयाभाव बिन शान्तिमेव॥ परसुखदुःखकरणकुरीतिटार, परसुखदुःखकारणशक्तिधार। फुनि-फुनिनव-नवनित जन्मरीत, बिनसर्वलोकथापी पुनीत॥ जय लीला रास विलास नास, स्वाभाविक निजपद रमण बास। शयनासन आदि क्रियाकलाप, तजसुखी सदा शिवरूपआप॥ बिन कामदाह नहीं नार भोग, निरद्वन्द निजानन्द मगन योग। वरमाल आदि श्रृंगार रूप, बिन शुद्ध निरञ्जन पद अनूप॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [११३ जय धर्म भर्म वन हन कुठार, परकाश पुञ्ज चिद्रूप सार। उपकरणहरणदवसलिलधार, निजशक्ति प्रभावउदयअपार॥ नभ सीम नहीं अरु होत होउ, नहीं काल अन्त लहो अन्त सोउ। परतुम गुण रासअनन्त भाग, अक्षय विधिराजत अवधि त्याग॥ आनन्द जलधि धारा प्रवाह, विज्ञानसुरी सुखद्रह अथाह। निज शान्ति सुधारस परम खान, समभाव बीज उत्पत्ति थान॥ निजआत्मलीन विकलपविनाश, शुद्धोपयोगपरिणति प्रकाश। द्रग ज्ञान असाधारण स्वभाव, स्पर्श आदि परगुण अभाव। निज गुणपर्याय समुदाय स्वामि, पायो अखण्ड पद परम.धाम। अव्यय अबाध पद स्वयं सिद्ध, उपलब्धि रूप धर्मी प्रसिद्ध ॥ एकाग्र रूप चिन्ता निरोध, जे ध्यावें पावैं स्वयं बोध । गुण मात्र सन्त अनुराग रूप, यह भाव देहु तुम पद अनूप॥ घत्ता- दोहा सिद्ध सुगुण सुमरण महा, मन्त्रराज है सार। सर्व सिद्ध दातार है, सर्व विघन हर्तार॥ ॐ ह्रीं षट्पञ्चाशत्दधिकद्विशतदलोपरिस्थितसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्य निर्व.। तीन लोक चूड़ामणी, सदा रहो जयवन्त। विघन हरण मंगल करण, तुम्हें नमैं नित सन्त॥ इत्याशीर्वादः॥ इति षष्ठी पूजा सम्पूर्णम् ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] श्री सिद्धचक्र विधान श्री सप्तमी पूजा ५१२ गुण सहित प्रारम्भ छप्पय छन्द ऊरध अधो सुरेफ बिन्दु हङ्कार बिराजे। . अकारादि स्वर लिप्तकर्णिका अन्त सु छाजे॥ वर्गनि पूरित वसुदल अम्बुज तत्त्व सन्धिधर। अग्रभाग में मन्त्र अनाहत सोहत अतिवर॥ फुनि अन्त ह्रीं वेढ्यो परम, सुर ध्यावत अरिनागको। है केहरिसम पूजन निमित्त, सिद्धचक्र मंगल करो॥ ____ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिनः द्वादशाधिकपञ्चशत ५१२ गुणसंयुक्त बिराजमान अत्रावतरावतरत संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं। दोहा . सूक्ष्मादि गुण सहित हैं, कर्म रहित नीरोग। सिद्धचक्र सो थापहूँ, मिटें उपद्रव योग॥ ___ इति यन्त्र स्थापनम्। परिपुष्पाञ्जलि क्षिपेत्। अथाष्टकं - चाल - बारामास छन्द सुवरणीकुम्भक्षीरभरधारत, मुनिमनशुद्ध प्रवाह बहावहिं। हमदोऊविधिलायक नाही, कृपाकरहुलहि भवतटभावहिं॥ शक्तिसारु सामान्य नीरसों, पूनँ हूँ शिवतिय के स्वामी। द्वादशअधिक पञ्चशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी॥ - ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने द्वादशाधिकपञ्चशत ५१२ गुण सहिताय श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [११५ नतुकोऊचन्दननतुकोऊकेसरि, भेंट किये भवपारभयोहै। केवल आप कृपा द्रगहीसों, यह अथाह दधिपार लयो है। रीति सनातन भक्तन की लख, चन्दन की यह भेंटधरामी॥ द्वादशअधिक पञ्चशतसंख्यक, नाम उचारत हूँसुखधामी॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने द्वादशाधिकपञ्चशत ५१२ गुण सहिताय श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ इन्द्रादिक पदहू अनवस्थित, दीखत अन्तर रुचिनकरैं हैं। केवलएकहि स्वच्छ अखण्डित, अक्षयपदकीचाह धरै हैं॥ तातें अक्षतसों अनुरागी, हूँ सो तुम पद पूज करामी॥ द्वादशअधिक पञ्चशत संख्यक, नाम उचारतहूँसुखधामी॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने द्वादशाधिकपञ्चशत ५१२ गुण सहिताय श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ पुष्प बाण ही सो मन्मथ जग, विजई जग में दाम धरावै। देखहु अद्भुत रीतिभक्त की, तिसहीभेंटधर कामहनावे॥ शरणागति कीचूक न देखी, ताक् पूज्य भये शिरनामी॥ द्वादशअधिक पञ्चशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी॥ - ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने द्वादशाधिकपञ्चशत ५१२ गुण सहिताय श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ हनन असाता पीर नहीं यह, भीर परै चरु भेंटन लायो। भक्त अभिमानमेंट होस्वामी, यह भवकारणभाव सतायो॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] श्री सिद्धचक्र विधान मम उद्यम करिकहाआपही, सो एकाकी अर्थ लहामी॥ द्वादशअधिक पञ्चशत संख्यक, नाम उचारतहूँसुखधामी॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने द्वादशाधिकपञ्चशत ५१२ गुण सहिताय श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं क्षुधारोगविनाशनमयं नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥ पूरणज्ञानानन्द ज्योति घन, विमल गुणातमशुद्ध स्वरूपी। हो तुम पूज्य भये हम पूजक, पाय विवेक प्रकाश अनूपी॥ मोह अन्ध विनसो तिह कारण, दीपनसों अनूं अभिरामी॥ द्वादशअधिक पञ्चशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी॥ ____ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने द्वादशाधिकपञ्चशत ५१२ गुण सहिताय श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ धूप व उघरै प्रजरें मणि, हेम धरें तुम पद पर वारूँ। बार-बारआवर्त जोरिकरि, धार-धार निजशीशनहारूँ॥ धूम्र धार समत्तन रोमांचित, हर्ष सहित अष्टांग नमामी। द्वादशअधिक पञ्चशत संख्यक, नाम उचारतहूँ सुखधामी॥ ___ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने द्वादशाधिकपञ्चशत ५१२ गुण सहिताय श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥७॥ तुम हो वीतराग निज पूजन, वन्दन थुति परवाह नहीं है। अरु अपने समभाव बहै कछु, पूजा फलकीचाह नहीं है। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [ ११७ तो भी यह फल पूजि फलद, अनिवार निजानन्द कर इच्छामि । द्वादश अधिक पञ्चशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी ॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने द्वादशाधिकपञ्चशत ५१२ गुण सहिताय श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥८ ॥ तुमसे स्वामी के पद सेवत, यह विधि दुष्ट रङ्क कहा कर है । ज्यों मयूर ध्वनि सुनि अहिनिज बिल, विलय जाय छिन विमल न धर है ॥ तातैं तुम पद अर्घ उतारण, विरद उचारण करहुँ मुदामी । द्वादश अधिक पञ्चशत संख्यक, नाम उचारत हूँ सुखधामी ॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने द्वादशाधिकपञ्चशत ५१२ गुण सहिताय श्री समत्तणाणदंसणवीर्य सुहमत्तहेव अवग्गहणं अगुरुलघुअव्वावाहं अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥९ ॥ गीता छन्द निर्मल सलिल शुभवास चन्दन धवल अक्षत युत अनी । शुभ पुष्प मधुकर नित रमें चरु प्रचुर स्वाद सुविधि घनी ॥ वर दीपमाल उजाल धूपायन रसायन फल भले । करि अर्ध सिद्ध समूह पूजत कर्मदल सब दलमले ॥ ते कर्म प्रकृति नसाय युगपति, ज्ञान निर्मल रूप हैं । दुःख जन्म टाल अपार गुण, सूक्षम सरूप अनूप हैं ॥ कर्माष्ट बिन त्रैलोक्य पूज्य, अदूज शिव कमलापती । मुनि ध्येय सेय अभेय चाहूँ, गेय द्यो हम शुभमती ॥ ॐ ह्रीं सिद्धचक्राधिपतये नमः समत्तणाणादि अट्ठगुणाणं पूर्णपदप्राप्तये महार्घं निर्वपामीति स्वाहा । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] श्री सिद्धचक्र विधान ५१२ गुण सहित नाम अर्घ (अर्द्ध छन्द जोगीरासा) लोकत्रय करि पूज्य प्रधाना, केवल ज्योति प्रकाशी। भव्यन मन तम मोह विनाशक, बन्दूं शिव थल वासी॥ ___ॐ ह्रीं अरहन्ताय नमः अयं ॥१॥ सुरनर मुनिजन कुमुदन मोदन, पूरण चन्द्र समाना। हो अर्हन्त जात जन्मोत्सव, बन्दूं श्री भगवाना॥ ॐ ह्रीं अरहज्जाताय नमः अयं ॥२॥ केवल दर्श ज्ञान किरणावलि, मण्डित तिह जग चन्दा। मिथ्या तम हर जल आदिक करि, बन्दूं पद अरबिन्दा॥ ॐ ह्रीं अरहचिद्रूपाय नमः अर्घ्यं ॥३॥ घाति कर्म रिपु जारि छारकर, स्व चतुष्टय पद पायो। निज स्वरूप चिद्रूप गुणातम, हम तिन पद शिर नायो॥ ___ ॐ ह्रीं अरहचिद्रूपगुणाय नमः अर्घ्यं ॥४॥ ज्ञानावरणी पटल उघारत, केवल भानु उगायो। भव्यन को प्रतिबोध उघारे, बहुरि मुक्ति पद पायो॥ ॐ ह्रीं अरहज्ज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥५॥ धर्म-अधर्म ढास फल दोनों, देखो जिम कर रेखा। बतलायो परतीत विषय करि, यह गुण जिनमें देखा। ॐ ह्रीं अरहद्दर्शनाय नमः अयं ॥६॥ . मोह महा दृढ बन्ध उधारो, कर विषतन्तु समाना। अतुल बली अरहन्त कहायो, पाय नमूं शिवथाना॥ ॐ ह्रीं अरहद्वीर्याय नमः अर्घ्यं ७॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [११९ युगपत लोकालोक विलोकन, है अनन्त द्रगधारी। गुप्तरूप शिवमग दरशायो, तिनपद धोक हमारी॥ ॐ ह्रीं अरहदर्शनगुणाय नमः अर्घ्यं ॥८॥ घटपादि सब परकाशत जद, हो रवि किरण पसारा। तैसो ज्ञान भान अरहन्त को, ज्ञेय अनन्त उधारा॥ ॐ ह्रीं अरहज्ज्ञानगुणाय नमः अर्घ्यं ॥९॥ आसन शयन पान भोजन बिन, दीप्त देह अरहन्ता। ध्यान वान कर तान हान विधि, भए सिद्ध भगवन्ता॥ ॐ ह्रीं अरहद्वीर्यगुणाय नमः अर्घ्यं ॥१०॥ सप्त तत्त्व षट् द्रव्य भेद सब, जानत संशय खोई। ताकरि भव्य जीव सम्बोधे, नमूं भये सिद्ध सोई॥ ॐ ह्रीं अरहसम्यक्त्वगुणाय नमः अर्घ्यं ॥११॥ ध्यान सलिलसों धोय लोभ मल, शुद्ध निजातम कीनो। परम शौच अरहन्त स्वामी, पाय नमूं शिव लीनो॥ ॐ ह्रीं अरहत्शौचगुणाय नमः अर्घ्यं ॥१२॥ नय प्रमाण श्रुतज्ञान प्रकारा, द्वादशांग जिनवानी। प्रगटायो परतक्ष ज्ञान में, नमूं भये शिव थानी॥ _____ॐ ह्रीं अरदद्वादशांगाय नमः अर्घ्यं ॥१३॥ मन इन्द्रिय बिन सकल चराचर, जगपद करि प्रगटायो। यह अरहन्त मती कहलायो, बन्दूं तिन शिव पायो॥ ॐ ह्रीं अरहद्भिन्नबोधकाय नमः अर्घ्यं ॥१४॥ अनुभव सम नहीं होत दिव्य-ध्वनि, ताको भाग अनन्ता। जानो गणधर यह श्रुत अवधी, पाइ नमूं अरहन्ता॥ - ॐ ह्रीं अरहत्श्रुतावधिगुणाय नमः अर्घ्यं ॥१५॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०] श्री सिद्धचक्र विधान सर्वावधि निधि वृद्धि प्रवाही, केवल सागर मांही। एक भयो अरहन्त अवधि यह, मुक्त भए नमि ताही॥ . ॐ ह्रीं अरहदवधिगुणाय नमः अर्घ्यं ॥१६॥ अति विशुद्ध मय विपुलमती लहि, हो पूर्वोक्त प्रकारा। यह अरहन्त पाय मनःपर्यय, नमूं भए भव पारा॥ ॐ ह्रीं अर्हच्छुद्वमनःपर्यय नमः अयं ॥१७॥ मोहमलिनता जग जिय नाशै, केवलता गुण पावै। सर्व शुद्धता पाइ नमत हैं, हम अरहन्त कहावै॥ ॐ ह्रीं अरहत्केवलगुणाय नमः अर्घ्यं ॥१८॥ मोह जनित सो रूप विरूपी, तिस बिन केवलरूपा। श्री अरहन्त रूप सर्वोत्तम, बन्दूं हो शिवभूपा॥ ॐ ह्रीं अरहत्केवलस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥१९॥ तास विरोधी कर्म जीत करि, केवल दरशन पायो। इस गुण सहित नमत तुम पद प्रति, भाव सहित शिरनायो॥ ॐ ह्रीं अरहत्केवलदर्शनाय नमः अर्घ्यं ॥२०॥ निर आवरण करण बिन जाको, शरण हरण नहिं कोई। के वलज्ञान पाय शिव पायो, पूजत हैं हम सोई॥ ॐ ह्रीं अरहत्केवलज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥२१॥ अगम अतीर भवोदधि उतरे, सहज ही गोखुर मानो। केवल अब अरहन्त नमें हम, शिव थल बास करानो॥ ॐ ह्रीं अरहत्केवलवीर्याय नमः अर्घ्यं ॥२२॥ सब विधि अपने विघ्न निवारण, औरन विघ्न विडारी। मंगलमय अर्हन्त सर्वदा, नमूं मुक्ति पदधारी॥ . ॐ ह्रीं अरहन्मंगलाय नमः अर्घ्यं ॥२३॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [ १२१ , चक्षु आदि सब विघन विदूरित, क्षायक मंगलकारी । यह अर्हन्त दर्श पायो मैं नमूं भये शिव कारी ॥ ॐ ह्रीं अरहन्मंगलादर्शनाय नमः अर्घ्यं ॥२४॥ निजपर संशय आदि पाय बिन, निरावरण विकसानो । मंगलमय अरहन्त ज्ञान है, बन्दू शिव सुख थानो ॥ ॐ ह्रीं अरहन्मंगलज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥ २५ ॥ परकृत जरा आदि सङ्कट बिन, अतुल बली अर्हन्ता । नमूं सदा शिवनारी के संग, सुखसो के लि करन्ता ॥ ॐ ह्रीं अरहन्मंगलवीर्याय नमः अर्घ्यं ॥ २६ ॥ पापरूप एकान्त पक्ष बिन, सर्व तत्त्व परकाशी । द्वादशांग अरहन्त कहो मैं नमूं भये शिववासी ॥ ॐ ह्रीं अरहन्तमंगलद्वादशांगाय नमः अर्घ्यं ॥२७॥ , " , बिन प्रतक्ष अनुमान सुबाधित, सुमतिरूप परिणामा । मंगलमय अर्हन्तमती मैं नमूं देउ शिवधामा ॥ ॐ ह्रीं अरहन्मंगलअभिन्नबोधकाय नमः अर्घ्यं ॥ २८ ॥ नय विकलप श्रुत अंग पक्ष के त्यागी हैं भगवन्ता । ज्ञाता दृष्टा वीतराग, विख्यात नमूं अरहन्ता ॥ ॐ ह्रीं अरहन्मंगल श्रुतात्मकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥२९॥ मंगलमय सर्वावधि जाकरि, पावै पद अरहन्ता । बन्दूं ज्ञान प्रकाश नाश भव, शिव थल वास करन्ता ॥ ॐ ह्रीं अरहमंगलावधिज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥ ३० ॥ वर्धमान मनपर्यय ज्ञान करि, केवल भानु उगायो । भव्यानि प्रति शुभ मार्ग बतायो, नमूं सिद्ध पद पायो ॥ ॐ ह्रीं अरहन्मंगलमन:पर्ययज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥३१ ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] श्री सिद्धचक्र विधान जा बिन और अज्ञान सकल, जग कारण बन्ध प्रधाना। नमूं पाइ अरहन्त मुक्ति पद, मंगल के वलज्ञाना॥ ॐ ह्रीं अरहन्मंगलकेवलज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥३२॥ निरावरण निरखेद निरन्तर, निराबाधमई राजै। के वलरूप नमूं सब अघहर, श्री अरहन्त बिराजै ॥ ___ॐ ह्रीं अरहन्मंगलकेवलस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥३३॥ चक्षु आदि सब भेद विघन हर, क्षायक दर्शन पाया। श्री अरहन्त नमूं शिववासी, इह जग पाप नशाया॥ ॐ ह्रीं अरहन्मंगलकेवलदर्शनाय नमः अर्घ्यं ॥३४॥ जग मंगल सब विघन रूप है, इक केवल अरहन्ता। मंगलमय सब मंगलदायक, नमूं कियो जग अन्ता॥ ॐ ह्रीं अरहन्मंगलकेवलाय नमः अर्घ्यं ॥३५॥ के वलरूप महामंगलमय, परम शत्रु छ यकारा। सो अरहन्त सिद्ध पद पायो, नमूं पाय भवपारा॥ ॐ ह्रीं अरहन्मंगलकेवलरूपाय नमः अर्घ्यं ॥३६॥ शुद्धातम निजधर्म प्रकाशी, परमानन्द बिराजै । सो अरहन्त परम मंगलमय, नमूं शिवालय राजै ॥ ॐ ह्रीं अरहन्मंगलधर्माय नमः अर्घ्यं ॥३७॥ सब विभावमय विघन नाशकर, मंगल धर्म स्वरूपा। सो अरहन्त भये परमातम, नमूं त्रियोग निरूपा॥ ॐ ह्रीं अरहन्मंगलधर्मस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥३८॥ सर्व जगत् सम्बन्ध विघन नहीं, उत्तम मंगल सोई। सो अरहन्त भये शिववासी, पूजत शिवसुख होई॥ ॐ ह्रीं अरहन्मंगलउत्तमाय नमः अर्घ्यं ॥३९॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१२३ लोकातीत त्रिलोक पूज्य जिन, लोकोत्तम गुणधारी। लोकशिखर सुखरूप बिराजै, तिनपद धोक हमारी॥ ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमाय नमः अर्घ्यं ॥४०॥ लोकाश्रित गुण सब विभाव हैं, श्रीजिनपदसों न्यारे। तिनको त्याग भये शिव बन्दूं, काटो बन्ध हमारे ॥ ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमगुणाय नमः अर्घ्यं ॥४१॥ मिथ्या मतिकर सहित ज्ञान, अज्ञान जगत में सारो। ता विनाशि अरहंत कहो, लोकोत्तम पूज हमारो॥ ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥४२॥ क्षायक दरशन है अरहंता, और लोक में नाहीं। सो अरहंत भये शिववासी, लोकोत्तम सुखदाई॥ ___ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमदर्शनाय नमः अर्घ्यं ॥४३॥ कर्मबली ने सब जग बांध्यो, ताहि हनो अरहंता। यह. अरहंत वीर्य लोकोत्तम, पायो सिद्ध अनंता॥ . ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमवीर्याय नमः अर्घ्यं ॥४४॥ अक्ष अतीत ज्ञान लोकोत्तम, परमातम पद मूला। सो अरहंत नमूं शिवनाइक, पाऊँ भवदधि कू ला॥ ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमाभिनिबोधकाय नमः अर्घ्यं ॥४५॥ परमावधि ज्ञानी सुखखानी, केवलज्ञान प्रकाशी। यहै अवधि अरहंत नमूं मैं, संशय तमको नाशी॥ ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमअवधिज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥४६॥ जो अरहंत धरै मनपर्यय, सो केवल के माहीं। साक्षात् शिवरूप नमो मैं, अन्य लोक में नाहीं॥ ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तममनःपर्ययज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥४७॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] श्री सिद्धचक्र विधान तीन लोक में सार सु श्रीअरहंत स्वयम्भू ज्ञानी। नमूं सदा शिवरूप आप हो भविजन प्रति सुखदानी॥ ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमकेवलज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥४८॥ सर्वोत्तम तिहुँ लोक प्रकाशित, केवलज्ञान स्वरूपी। सो अरहंत नमूं शिवनायक, सुखप्रद सार अनूपी॥ ___ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमकेवलज्ञानस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥४९॥ ज्ञान तरंग अभंगं बहै, लोकोत्तम सार अरूपी। सो अरहंत नमूं शिवनायक, सुखप्रद धार अनूपी॥ ___ ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमकेवलज्ञानस्वरूपाय नमः अयं ॥५०॥ सहित असाधारण गुण पर्याय, केवलज्ञान सरूपी॥ सो अरहंत नमूं शिवनायक, सुखप्रद धार अनूपी॥ ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमकेवलद्रव्याय नमः अर्घ्यं ॥५१॥ जगजिय सर्व अशुद्ध कहो, इक केवल शुद्ध सरूपी। सो अरहंत नमूं शिवनायक, सुखप्रद धार अनूपी॥ ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमकेवलाय नमः अर्घ्यं ॥५२॥ विविध कुरूप सर्व जगवासी, केवल स्वयं सरूपी। सो अरहंत नमूं शिवनायक, सुखप्रद धार अनूपी॥ ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमकेवलस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥५३॥ हीनाधिक धिक धिक जग प्राणी, धन्य एक ध्रुवरूपी॥ सो अरहंत नमूं शिवनायक, सुखप्रद धार अनूपी॥ ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमध्रुवभावाय नमः अर्घ्यं ॥५४॥ टोहा . संसारिन के भाव सब, बन्ध हेत वरणाय। मुक्तिरूप अरहंत के, भाव नमूं सुखदाय॥ ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमभावाय नमः अर्घ्यं ॥५५॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१२५ कबहूँ न होय विभावमय, सो थिर भाव जिनेश। मुक्तिरूप प्रणमूं सदा, नाशे विघन विशेष ॥ ॐ हीं अरहल्लोकोत्तमस्थिरभावाय नमः अर्घ्यं ॥५६॥ जा सेवत वेवत स्वमुख, सो सर्वोतम देव। शिववासी नाशी त्रिजग-फाँसी नमहूँ एव ॥ ॐ ह्रीं अरहच्छरणाय नमः अर्घ्यं ॥५७॥ जिन ध्यायो तिन पाइयो, निश्चय सो सुखरास। शरण स्वरूपी जिन नमू, करैं सदा शिववास॥ ॐ ह्रीं अरहच्छरणाय नमः अर्घ्यं ॥५८॥ - पद्धड़ी छन्द स्वाभाविक गुणअरहन्त गाय, जासोंपूरण शिवसुखलहाय। हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंद पाय॥ ___ॐ ह्रीं अरहगुणशरणाय नमः अर्घ्यं ॥५९॥ बिन केवलज्ञान न मुक्ति होय, पायो है श्री अरहन्त जोय। हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंदपाय॥ .. ॐ ह्रीं अरज्ञानाय नमः अयं ॥६०॥ प्रत्यक्ष देख सर्वज्ञ देव, भाख्यो है शिव मारग असेव। हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंदपाय॥ . ॐ ह्रीं अरहद्दर्शनशरणाय नमः अर्घ्यं ॥६१ ॥ संसार विषम बन्धन उछेद, अरहन्त वीर्य पायो अखेद। हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंद पाय॥ ॐ ह्रीं अरहद्वीर्यशरणाय नमः अर्घ्यं ॥१२॥ सबकुमति विगतमनजिन प्रतीत, हो जिसते शिवसुधदेअभीत। हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंद पाय॥ ॐ ह्रीं अरहद्द्वादशांगश्रुतशरणाय नमः अर्घ्यं ॥६३ ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] श्री सिद्धचक्र विधान अनुमानादिक साधत विज्ञान, अरहन्त मती प्रत्यक्ष जान । हम शरण गही मन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंद पाय ॥ ॐ ह्रीं अरहदभिनिबोधकायशरणाय नमः अर्घ्यं ॥ ६४ ॥ जिन भाषित श्रुत सुनि भव्य जीव, पायो शिव अविनाशी सदीव । हम शरण गही मन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंद पाय ॥ ॐ ह्रीं अरहश्रुतशरणाय नमः अर्घ्यं ॥६५ ॥ प्रतिपक्षी सब जीते कषाय, पायो अवधी शिवसुख कराय । हम शरण गही मन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंद पाय ॥ ॐ ह्रीं अरहद्वधिशरणाय नमः अर्घ्यं ॥ ६६ ॥ मुनि लहैं गहैं परिणाम श्वेत, जिन मनपर्यय शिववास देत । हम शरण गही मन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंद पाय ॥ ॐ ह्रीं अरहन्मन:पर्ययशरणाय नमः अर्घ्यं ॥६७॥ आवरण रहित प्रत्यक्ष ज्ञान, शिवरूप केवली जिन सुजान । हम शरण गही मन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंद पाय ॥ ॐ ह्रीं अरहत्केवलशरणाय नमः अर्घ्यं ॥ ६८ ॥ मुनि केवलज्ञानी जिन अराध, पावैं शिव-सुख निश्चय अबाध । हम शरण गही मन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंद पाय ॥ ॐ ह्रीं अरहत्केवलशरणस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥६९ ॥ शिव-सुखदायकजिन आत्मज्ञान, सोकेवलपावैजिनमहान । हम शरण गही मन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंद पाय ॥ ॐ ह्रीं अरहत्केवलधर्मशरणाय नमः अर्घ्यं ॥ ७० ॥ यह केवल गुण आतम स्वभाव, अरहन्तन प्रति शिव - सुख उपाव । हम शरण गही मन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंद पाय ॥ ॐ ह्रीं अरहकेवलगुणशरणाय नमः अर्घ्यं ॥७१॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१२७ संसार रूप सब विघनटार, मंगल गुण श्री जिनमुक्तिकार। हमशरणगही मन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंदपाय॥ _ ॐ ह्रीं अरहन्मंगलगुणशरणाय नमः अर्घ्यं ॥७२॥ छयउपशम ज्ञानी विघन रूप, ता बिन जिन ज्ञानी शिवसुरूप। हमशरणगही मन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंदपाय॥ ॐ ह्रीं अरहन्मंगलज्ञानशरणाय नमः अर्घ्यं ॥७३॥ अरहन्तदर्श मंगल स्वरूप, तासोंदरशै शिव-सुख अनूप । हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंदपाय॥ ... ॐ ह्रीं अरहन्मंगलदर्शनशरणाय नमः अर्घ्यं ॥७४॥ अरहन्त बोध है मंगलीक, शिवमारग प्रति वरते अलोक। हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंदपाय ॥ ॐ ह्रीं अरहन्मंगलबोधशरणाय नमः अर्घ्यं ।।७५ ॥ निज ज्ञानानन्द प्रवाह धार, वरते अखण्ड अव्यय अपार । हमशरणगही मन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंद पाय॥ ॐ ह्रीं अरहन्मंगलआत्मबोधशरणाय नमः अर्घ्यं ॥७६ ॥ जाबिन तिहुँलोकन औरमान, भव सिन्धुतरणतारण महान। हमशरणगही मन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंदपाय॥ ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमशरणाय नमः अर्घ्यं ॥७७॥ स्वाभाविक भव्यन प्रति दयाल, विच्छेदकरणसंसार जाल। हमशरणगही मन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंद पाय॥ ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमगुणशरणाय नमः अर्घ्यं ॥७८॥ तुम बिनसमरथ तिहुँलोकमाहिं, भवसिन्धुउतारणऔरनाहिं। हमशरणंगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंद पाय॥ ____ ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमवीर्यशरणाय नमः अयं ॥७९॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] श्री सिद्धचक्र विधान बिन परिश्रमतारणतरणहोय, लोकोत्तमअद्भुत शक्ति सोय। हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्तआनंदपाय॥ ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमवीर्यगुणशरणाय नमः अर्घ्यं ॥८० ॥ अप्रसिद्धकुनयअल्पज्ञभास, ताको विनाश शिवमगप्रकाश। हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंदपाय॥ ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमद्वादशांग नमः अर्घ्यं ॥८१॥ सबकुनयकुपक्षकुसाध्य नाश, सत्यारथसत कारण प्रकाश। हमशरणगही मन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंदपाय॥ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमाभिनिबोधकाय नमः अर्घ्यं ॥८२॥ . मिथ्यारत प्रकृतिअवधिविनाश, लोकोत्तमअवधी को प्रकाश। हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंदपाय॥ ___ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमावधिशरणाय नमः अर्घ्यं ॥८३॥ मनपर्यय शिव मंगललहाय, लोकोत्तम श्रीगुरु सोकहाय। हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंद पाय॥ ___ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तममनःपर्ययशरणाय नमः अर्घ्यं ॥८४ ॥ आवरणतीत प्रत्यक्ष ज्ञान, है सेवनीक जग में प्रधान। हमशरणगही मन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंदपाय॥ ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमकेवलज्ञानशरणाय नमः अर्घ्यं ॥८५॥ हो बाह्य विभवसुरकृत अनूप, अन्तर लोकोत्तम ज्ञानरूप। हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंदपाय॥ ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमविभूतिप्रधानशरणाय नमः अर्घ्यं ॥८६॥ रतनत्रय निमित मिलोअबाध, पायो निज आनंदधर्म साध। हमशरणागहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्तआनंदपाय॥ ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमविभूतिधर्मशरणाय नमः अर्घ्यं ॥८७ ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१२९ सुखज्ञान वीर्य दर्शन सुभाव, पायो सब कर प्रकृतीअभाव। हमशरणगहीमन-वचन-काय, नित नमैं सन्त आनंदपाय॥ ॐ ह्रीं अरहल्लोकोत्तमअनन्तचतुष्टयशरणाय नमः अर्घ्यं ॥४८॥ अडिल्ल छन्द दर्श ज्ञान सुख बल निजगुण ये चार हैं, आतमीक परधान विशेष अपार हैं। इनहींसो हैं पूज्य सिद्ध परमेश्वरा, हम हूँ यह गुण पाय नमन यातें करा॥ . ॐ ह्रीं अरहद्दनन्तगुणचतुष्टय नमः अयं ॥८९॥ क्षयोपशम सम्बाधित ज्ञान कलाहरी, पूरण ज्ञायक स्वयं बुद्धि श्रीजिनवरी। इनहींसो हैं पूज्य सिद्ध परमेश्वरा, हम हूँ यह गुण पाय नमन यातें करा॥ __ . ॐ ह्रीं अरहनिजज्ञानस्वयंभुवे नमः अर्घ्यं ॥१०॥ जनमतही दश अतिशय शासनमें कही, स्वयंशक्ति भगवान आप तिनकी लही। इनहींसों हैं पूज्य सिद्ध परमेश्वरा, हम हूँ यह गुण पाय नमन या” करा॥ ॐ ह्रीं अरहद्दशातिशयस्वयंभुवे नमः अर्घ्यं ॥११॥ ये दश अतिशय घातिकर्म छय को करें, महा विभव को पाय मोक्ष नारी वरैं। इनहींसो हैं पूज्य सिद्ध परमेश्वरा, - हम हूँ यह गुण पाय नमन यातें करा॥ ॐ ह्रीं अरहदशघातिक्षयअतिशय नमः अर्घ्यं ॥९२॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] श्री सिद्धचक्र विधान केवल विभव उपाय प्रभू निजपद लियो, चौदह अतिशय देवन करि सेवन कियो । इनहीं सो हैं पूज्य सिद्ध परमेश्वरा, हम हूँ यह गुण पाय नमन यातैं करा ॥ ॐ ह्रीं अरहद्देवकृतचतुर्दशअतिशयाय नमः अर्घ्यं ॥ ९३ ॥ चौंतीस अतिशय जे पुराण वरणे महा, मुक्ति समाज अनूपम श्रीगुरुने कहा । इनहीं सो हैं पूज्य सिद्ध परमेश्वरा, हम हूँ यह गुण पाय नमन यातैं करा ॥ ॐ ह्रीं अरहचतुस्त्रिंशत अतिशयबिराजमानाय नमः अर्घ्यं ॥ ९४ ॥ डालर छन्द लोकालोक अणु सम जानो, ज्ञानानन्त सुगुण पहिचानो । सो अरहन्त सिद्धपद पायो, भाव सहित हम शीश नवायो ॥ ॐ ह्रीं अरहज्ज्ञानानन्दगुणाय नमः अर्घ्यं ॥ ९५ ॥ समरस सुस्थिर भाव उघारा, युगपत लोकालोक निहारा । सो अरहन्त सिद्धपद पायो, भाव सहित हम शीश नवायो ॥ ॐ ह्रीं अरहद्ध्यानान्नध्येयाय नमः अर्घ्यं ॥९६॥ इक इक गुण का भाव अनन्ता, पर्ययरूप सोहै अरहन्ता । सो अरहन्त सिद्धपद पायो, भाव सहित हम शीश नवायो ॥ ॐ ह्रीं अरहद्दनन्तगुणाय नमः अर्घ्यं ॥ ९७ ॥ उत्तर गुण सब लख चौरासी, पूरण चारित भेद प्रकाशी। सो अरहन्त सिद्धपद पायो, भाव सहित हम शीश नवायो ॥ ॐ ह्रीं अरहत्तपअनन्तगुणाय नमः अर्घ्यं ॥ ९८ ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१३१ आतम शक्तिजास करि छीनी, तास नाश प्रभुताई लीनी। सो अरहन्त सिद्धपद पायो, भाव सहित हम शीश नवायो॥ ॐ ह्रीं अरहत्परमात्मने नमः अर्घ्यं ॥१९॥ निजगुण निजहीमाहीं समाया, गणधरादिवरनन नकराया। सो अरहन्त सिद्धपद पायो, भाव सहित हम शीश नवायो॥ ॐ ह्रीं अरहद्गुप्तस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥१०० ॥ दोधक छन्द जो निज आतम साधु सुखाइ, सो जगतेश्वर सिद्ध कहाई। लोकशिरोमणि है शिवस्वामी, भावसहिततुमको प्रणमामी॥ - ॐ ह्रीं सिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१०१॥ सर्व विशुद्ध विरूप सरूपी, स्वातम रूप विशुद्ध अनूपी। लोक शिरोमणिहै शिवस्वामी, भावसहिततुमकोप्रणमामी॥ . . ॐ ह्रीं सिद्धस्वरूपेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१०२॥ प्राश्रित सर्व भाव विनिवारा, स्वाश्रित सर्व अबाध अपारा। लोकशिरोमणिहै शिवस्वामी, भावसहिततुमकोप्रणमामी॥ ___ ॐ ह्रीं सिद्धगुणेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१०३॥ आकुलता सबही विधि नाशी, ज्ञायक लोकालोक प्रकाशी। लोक शिरोमणिहै शिवस्वामी, भावसहिततुमकोप्रणमामी॥ ॐ ह्रीं सिद्धज्ञानेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१०४॥ जीव-अजीव लखे अविचारा, हो नहीं अन्तर एक प्रकारा। लोक शिरोमणि है शिवस्वामी, भावसहिततुमको प्रणमामी॥ ॐ ह्रीं सिद्धदर्शनेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१०५ ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२] श्री सिद्धचक्र विधान अन्तर बाहिरर भेद उधारी, दर्श विशुद्ध सदा सुखकारी। लोकशिरोमणि है शिवस्वामी, भावसहिततुमको प्रणमामी॥ ॐ ह्रीं सिद्धशुद्धसम्यक्त्वेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१०६॥ एक अणुमल कर्म लजावै, सोय निरञ्जनता नहिं पावै। लोक शिरोमणिहै शिवस्वामी, भावसहिततुमकोप्रणमामी॥ ॐ ह्रीं सिद्धनिरंजनेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१०७॥ . अर्द्ध रोला छन्द - चारों गति को भ्रमण नाम कर थिरता पाई। निज स्वरूप में लीन, अन्य सो मोह नशाई॥ ___ ॐ ह्रीं सिद्धाचलपदप्राप्ताय नमः अर्घ्यं ॥१०८॥ .. रत्नत्रय आराधि साधि, निज शिवपद पायो। . संख्या भेद उलंधि, शिवालय वास करायो॥ ॐ ह्रीं संख्यातीतसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१०९॥ असंख्यात मरजाद एक ताहू सो बीते । विजयी लक्ष्मीनाथ, महाबल सब विधि जीते। ॐ ह्रीं असंख्यातसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥११०॥ काल आदि मर्याद अनादि, सो इह विधि जारी। भए अनन्त दिगम्बर साधु जु, शिवपद धारी॥ ॐ ह्रीं अनन्तसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१११ ॥ पुष्करार्द्ध सागर लों, जे थल थान बखानो। देव सलाइ उपाइ, ऊर्ध्व गति गमन करानो॥ ॐ ह्रीं जलसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥११२॥ यो नमः सा होते। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१३३ वन गिरि नगर गुफादि सर्व थलसों, शिव पाई। सिद्धक्षेत्र सब ठेर बखानत, श्री जिनराई॥ ह्रीं स्थलसिद्धेभ्यो नमः अध्यं ॥११३॥ नभही में जिन शुकलध्यान, बलकर्मनाशकिय। आयु पूर्णवश ततछिन, हीशिववासजाय लिय। ___ॐ ह्रीं गगनसिद्धेभ्यो नमः अयं ॥११४॥ आयु स्थिति सम अन्य कर्म-कारण परदेशा। परसै पूरण लोक आत्म, केवली जिनेशा॥ ॐ ह्रीं समुद्घातसिद्धेभ्यो नमः अध्यं ॥११५॥ केवलि जिन समुद्घात, शिववास लिया है। स्वते स्वभाव समान, अघाती कर्म किया है। ॐ ह्रीं असमुद्घातसिद्धेभ्यो नमः अयं ॥११६॥ उल्लाला छन्द तिन विशेष अतिशय रहित, सामान्य केवली नाम है। सिद्ध भये तिहुँ योगरौं, तिनके पद परणाम है। ॐ ह्रीं साधारणसिद्धेभ्यो नमः अयं ॥११७॥ त्रिभुवन में नहीं पावतो, जो जिन गुण अभिराम है। .सिद्ध भये तिहुँ योगरौं, तिनके पद परणाम है। ॐ ह्रीं असाधारणसिद्धेभ्यो नमः अध्यं ॥११८॥ गर्भ कल्याणक आदि युत, तीर्थङ्कर सुख धाम है। सिद्ध भये तिहुँ, योगरौं, तिनके पद परणाम है। . ॐ ह्रीं तीर्थङ्करसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥११९॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४] . श्री सिद्धचक्र विधान तीर्थङ्कर के समय में, केवली जिन अभिराम है। सिद्ध भये तिहुँ योग”, तिनके पद परणाम है। ॐ ह्रीं तीर्थङ्करअरहन्तसिद्धेभ्यो नमः अयं ॥१२०॥ पञ्च शतक पच्चीस फुनि, धनुषकाय अभिराम है। सिद्ध भये तिहुँ योगरौं, तिनके पद परणाम है। ॐ ह्रीं उत्कृष्टअवगाहनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१२१॥ आदि अन्त अन्तर विषै, मध्यअवगाहन नाम है। सिद्ध भये तिहुँ योगरौं, तिनके पद परणाम है। ॐ ह्रीं भव्यअवगाहनसिद्धेभ्यो नमः अयं ॥१२२॥ .. तीन अर्घ तन केवली, हस्त प्रमाण कहाय है। सिद्ध भये तिहुँ योगरौं, तिनके पद परंणाम है। ॐ ह्रीं जघन्यअवगाहनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१२३॥ देव निमित्त मिलो जहाँ, त्रिजग लोक सु धाम है। सिद्ध भये तिहुँ योगरौं, तिनके पद परणाम है। . ॐ ह्रीं त्रिजगलोकसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१२४॥ षट्विध परिणति काल की, तिन अपेक्ष यह नाम है। सिद्ध भये तिहुँ योगरौं, तिनके पद परणाम है। ॐ ह्रीं षट्विधकालसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१२५॥ अन्त समय उपसर्ग , शुकल ध्यान अभिराम है। सिद्ध भये तिहुँ योगरौं, तिनके पद परणाम है। ॐ ह्रीं उपसर्गसिद्धेभ्यो नमः अयं ॥१२६॥ पर उपसर्ग मिलै नहीं, स्वतः शुक्ल शुभ धाम है। सिद्ध भये तिहुँ योगरौं, तिनके पद परणाम है। ॐ ह्रीं निरुपसर्गसिद्धेभ्यो नमः अयं ॥१२७ ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [ १३५ अन्तर द्वीप मही जहाँ, देवन के अभिराम है। सिद्ध भये तिहुँ योगतैं, तिनके पद परणाम है ॥ ॐ ह्रीं द्वीपसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥ १२८ ॥ देव गये ले सिन्धु जब, कर्म छ्यो तिह ठाम है। सिद्ध भये तिहुँ योगतैं, तिनके पद परणाम है ॥ ॐ ह्रीं उदधिसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥ १२९ ॥ भुजङ्गप्रयात छन्द धरैं जोग आसन गहैं शुद्ध ताई, न हो खेद ध्यानाग्नि सों कर्म छाई । भये सिद्ध राजा निजानन्द साजा, यही मोक्ष जाना नमः सिद्ध काजा ॥ ॐ ह्रीं स्वस्थित्यासनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१३०॥ महा शांति मुद्रा पलौथी लगाये, कियो कर्म को नाश ज्ञानी कहाये । भये सिद्ध राजा निजानन्द साजा, यही मोक्ष जाना नमः सिद्ध काजा ॥ ॐ ह्रीं पर्यङ्कासनसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥ १३१ ॥ लहै आदि को संहनन पुरुष देही, लखायो परारम्भ में भाव ते ही । भये सिद्ध राजा निजानन्द साजा, यही मोक्ष जाना नमः सिद्ध काजा ॥ ॐ ह्रीं पुरूषवेदसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥ १३२ ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६] श्री सिद्धचक्र विधान खपायो प्रथम सात प्रकृति विमोहा, गहो शुद्ध श्रेणी क्षयो कर्म लोहा। भये सिद्ध राजा निजानन्द साजा, यही मोक्ष जाना नमः सिद्ध काजा॥ ॐ ह्रीं क्षपकश्रेणीसिद्धेभ्यो नमः अयं ॥१३३॥ समय एक में एक वासौ अनन्ता, धरो आठ तापं यही भेद अन्ता॥ भये सिद्ध राजा निजानन्द साजा, यही मोक्ष जाना नमः सिद्ध काजा॥ ___ॐ ह्रीं एकसमयसिद्धेभ्यो नमः अयं ॥१३४॥ किसी देश में वा किसी काल माहीं, गिनें दो समय में तथा अन्तराई। भये सिद्ध राजा निजानन्द साजा, यही मोक्ष जाना नमः सिद्ध काजा॥ ह्रीं द्विसमयसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१३५॥ समय एक दो तीन धाराप्रवाही, कियो कर्म छय अन्तराय होय नाहीं। भये सिद्ध राजा निजानन्द साजा, यही मोक्ष जाना नमः सिद्ध काजा॥ ॐ ह्रीं त्रिसमयसिद्धेभ्यो नमः अध्यं ॥१३६॥ हुवे हैं सु होंगे सु हो हैं अबारी, त्रिकालं सदा मोक्ष पन्था विहारी। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१३७ भये सिद्ध राजा निजानन्द साजा, यही मोक्ष जाना नमः सिद्ध काजा॥ ॐ ह्रीं त्रिकालसिद्धेभ्यो नमः अयं ॥१३७॥ तिहुँ लोक शुद्ध सम्यक्त धारो, महा भार संजम धरै हैं अवारी। भये सिद्ध राजा निजानन्द साजा, यही मोक्ष जाना नमः सिद्ध काजा॥ ॐ ह्रीं त्रिलोकसिद्धेभ्यो नमः अध्यं ॥१३८॥ . मरहठा छन्द तिहुँ लोक निहारा, सब दुखकारा पापरूप संसार। ताको परिहारा सुलभ सुखारा, भये सिद्ध अविकार॥ हे जगत्रय नायक मंगलदायक, मंगलमय सुखकार। मैं नमूं त्रिकाल हो अघ टाला, तपहर शशि उनहार॥ ॐ ह्रीं सिद्धमंगलेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१३९॥ तिहुँ कर्म कालमा लगी जालमा, करै रूप दुखदाय। तुम ताको नाशो स्वयं प्रकाशो, स्वातम रूप सुभाय॥ हेजग. ॐ ह्रीं सिद्धमंगलस्वरूपेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१४०॥ तिहुँ जग के प्रानी सब अज्ञानी, फँसे मोह जञ्जाल। हो तिहुँ जगत्राता पूरण ज्ञाता, तुम ही एक खुशहाल॥हेजग. ॐ ह्रीं सिद्धमंगलज्ञानेभ्यो नमः अयं ॥१४१॥ यह मोह अन्धेरी छई घनेरी, प्रबल पटल रहो छाय। तुमताहि उधारोसकल निहारो, युगपत् आनन्ददाय॥हे जग. ॐ ह्रीं सिद्धमंगलदर्शनेभ्यो नमः अयं ॥१४२॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८] श्री सिद्धचक्र विधान निजबंधन डोरी छिन में तोरी, स्वयं शक्ति परकाश। निरभय निरमोही, परमअछोही, अन्तरायविधिनाश॥हेजग. ॐ ह्रीं सिद्धमंगलवीर्येभ्यो नमः अध्यं ॥१४३॥ जाके प्रसादकर सकल चराचर, निजसों भिन्न लखाय। रुषराग निवारा सुख विस्तारा, आकुलता विनशाय॥हे जग. ह्रीं सिद्धमंगलसम्यक्त्वेभ्यो नमः अयं ॥१४४॥ .. अस्पर्श अमूरति चिनमय मूरति, अरस अलिंग अनूप। मन अक्ष अलक्षं ज्ञान प्रत्यक्षं, शुभ अवगाह स्वरूप॥ हेजग. ॐ ह्रीं सिद्धमंगलअवगाहनेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१४५॥ . अव्यक्त स्वरूपं अमल अनूपं, अलख अगम असमान। . अवगाह उदन धन वास परस्पर, भिन्न भिन्न परमान। हेजग. ___ॐ ह्रीं सिद्धमंगलसूक्ष्मत्वेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१४६ ॥ अनुभूति विलासी समरस रासी, हीना धिकविधि नाश। विधि गोत्र नाशकर पूरण पदधर, असंवाध परकाश॥हेजग. ___ॐ ह्रीं सिद्धमंगलअगुरुलघुभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१४७॥ पुद्गल कृत सारी विविध प्रकारी, द्वैतभाव अधिकार। सब भाँति निवारी निजसुखकारी, पायोपदअविकार॥हेजग. ॐ ह्रीं सिद्धमंगलअव्याबाधेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१४८॥ अवगाह प्रणामी ज्ञानारामी, दर्शन वीर्य अपार । सूक्षमअवकाशंआजअविनाशं, अगुरुलघुसुखकार॥हेजग. ॐ ह्रीं सिद्धमंगलाष्टगुणेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१४९ ॥ शुद्धातम सारं अष्ट प्रकारं, शिव स्वरूप अनिकार। निज गुणपरधानं सम्यकज्ञानं, आदि अन्त अविकार॥हेजग. ॐ ह्रीं सिद्धमंगलअष्टस्वरूपेभ्यो नमः अयं ॥१५०॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१३९ मंगल अरहन्तं अष्टम भन्तं, सिद्ध अष्ट गुण भाश। ये ही बिलसा, अन्य न पावै, असाधारण परकाश॥हेजग. . ॐ ह्रीं सिद्धमंगलअष्टप्रकाशकेभ्यो नमः अयं ॥१५१ ॥ निर आकुलताई सुख अधिकाई, परम शुद्ध परिणाम। संसार निवारण बन्ध विडारन, यही धर्म सुखधाम ॥ हेजग. ॐ ह्रीं सिद्धमंगलधर्मेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१५२ ॥ चूलिका छन्द तीन काल तिहुँ लोक में, तुम गुण और न माहिं लखाने। लोकोत्तम परसिद्ध हो, सिद्धराज सुख साज बखाने ॥ ॐ ह्रीं सिद्धलोकोत्तमगुणेभ्यो नमः अयं ॥१५३॥ *लोकत्रय शिर छत्र मणि, लोकत्रय वर पूज्य प्रधाने। लोकोत्तम परसिद्ध हो, सिद्धराज सुख साज बखाने॥ .. ॐ ह्रीं सिद्धलोकोत्तमेभ्यो नमः अयं ॥१५४॥ अमल अनूपम तेजधन, निरावरण निजरूप प्रमाने। लोकोत्तम परसिद्ध हो, सिद्धराज सुख साज बखाने ॥ ॐ ह्रीं सिद्धलोकोत्तमेभ्यो नमः अयं ॥१५५॥ लोकालोक प्रकाश कर, लोकातीत प्रत्यक्ष प्रमाने । लोकोत्तम परसिद्ध हो, सिद्धराज सुख साज बखाने॥ ॐ ह्रीं सिद्धलोकोत्तमणानाय नमः अर्घ्यं ॥१५६ ॥ सकल दर्शनावरण बिन, पूरन-दरसन जोत उगाने । लोकोत्तम परसिद्ध हो, सिद्धराज सुख साज बखाने॥ ॐ ह्रीं सिद्धलोकोत्तमदर्शनाय नमः अर्घ्यं ॥१५७॥ * 'लोकत्रयशिर चत्रमणि, लोकत्रय वर पूज्य प्रधाने' ऐसा पाठ "क' प्रतिमें है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०] श्री सिद्धचक्र विधान अतुल अतीन्द्रिय वीर्यकर, भोगे नित शिवनारी अंघाने। लोकोत्तम परसिद्ध हो, सिद्धराज सुख साज बखाने । ॐ ह्रीं सिद्धलोकोत्तमदर्शनाय नमः अयं ॥१५८॥ त्रोटक छन्द बिन कारण ही सबके मितु हो, सर्वोत्तम लोकवि हितु हो। इनहीं गुण में मन पागत हैं, शिववास करो शरणागत हैं। ॐ ह्रीं सिद्धलोकोत्तमशरणाय नमः अयं ॥१५९॥ तुमरूपअनुपमध्यान किये, निजरूप दिखावत स्वच्छ हिये। इनहीं गुण में मन पागत हैं, शिववास करो शरणागत हैं। ___ॐ ह्रीं सिद्धस्वरूपशरणाय नमः अर्घ्यं ॥१६०॥ निरभेद अछेद विकाशित हैं,सबलोकअलोक विभासित हैं। इनहीं गुण में मन पागत हैं, शिववास करो शरणागत हैं। ॐ ह्रीं सिद्धदर्शनशरणाय नमः अयं ॥१६१॥ निरबाध अगाध प्रकाशमई, निरद्वन्द अबंध अभय अजई। इनहीं गुण में मन पागत हैं, शिववास करो शरणागत हैं। ॐ ह्रीं सिद्धज्ञानशरणाय नमः अयं ॥१६२॥ हित कारण तारण तरण कहै, अप्रमाद प्रमाद प्रकाशन है। इनहीं गुण में मन पागत हैं, शिववास करो शरणागत हैं। ____ॐ ह्रीं सिद्धवीर्यशरणाय नमः अयं ॥१६३ ॥' अविरुद्ध विशुद्धप्रसिद्धमहा, निजआतम-तत्त्वप्रबोधलहा। इनहीं गुण में मन पागत हैं, शिववास करो शरणागत हैं। ___ ॐ ह्रीं सिद्धसम्यक्त्वशरणाय नमः अर्घ्यं ॥१६४॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१४१ जिनको पूर्वापर अन्त नहीं, नित धार प्रवाह बहै अति ही। इनहीं गुण में मन पागत हैं, शिववास करो शरणागत हैं। . ॐ ह्रीं सिद्धअनन्तशरणाय नमः अध्यं ॥१६५॥ कबहूँ नहीं अन्त समावत हैं, सु अनन्त अनन्त कहावत हैं। इनहीं गुण में मन पागत हैं, शिववास करो शरणागत हैं। ॐ ह्रीं सिद्धअनन्तानन्तशरणाय नमः अयं ॥१६६॥ तिहुँकालसुसिद्धमहासुखदा, निजरूपविर्षे थिरभावसदा। इनहीं गुण में मन पागत हैं, शिववास करो शरणागत हैं। - ॐ ह्रीं सिद्धत्रिकालशरणाय नमः अयं ॥१६७॥ तिहुँलोकशिरोमणिपूजिमहा, तिहुँलोक प्रकाशक तेजकहा। इनहीं गुण में मन पागत हैं, शिववास करो शरणागत हैं। ॐ ह्रीं सिद्धत्रिलोकशरणाय नमः अयं ॥१६८॥ गिनती परमाण जु लोक धरे, परदेश समूह प्रकाश करे। इनहीं गुण में मन पागत हैं, शिववास करो शरणागत हैं। ह्रीं सिद्धअसंख्यातलोकशरणाय नमः अयं ॥१६९॥ पूर्वापर एकहि रूप लसे, नित लोक सिंहासन वास बसै। इनहीं गुण में मन पागत हैं, शिववास करो शरणागत हैं। ॐ ह्रीं सिद्धघ्रौव्यगुणशरणाय नमः अर्घ्यं ॥१७०॥ जगवास पर्याय विनाश कियो, अब निश्चयरूप विशुद्धभयो। इनहीं गुण में मन पागत हैं, शिववास करो शरणागत हैं। ॐ ह्रीं सिद्धउत्पादगुणशरणाय नमः अयं ॥१७१॥ परद्रव्य थकी रुष राग नहीं, निजभाव बिना कहुँ लाग नहीं। इनहीं गुण में मन पागत हैं, शिववास करो शरणागत हैं। ॐ ह्रीं सिद्धसाम्यगुणशरणाय नमः अयं ॥१७२॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२] श्री सिद्धचक्र विधान बिन कर्म कलङ्कविराजत हैं, अति स्वच्छ महागुण राजत हैं। इनहीं गुण में मन पागत हैं, शिववास करो शरणागत हैं। ॐ ह्रीं सिद्धस्वच्छगुणशरणाय नमः अयं ॥१७३॥ मन इन्द्रिय आदिन व्याधितहां, रुषरागक्लेशप्रवेश नह्वां। इनहीं गुण में मन पागत हैं, शिववास करो शरणागत हैं। ॐ ह्रीं सिद्धस्वस्थितगुणशरणाय नमः अयं ॥१७४॥ निज रूप विर्षे नित मगन रहैं, परयोग वियोग न दाह लहैं। इनहीं गुण में मन पागत हैं, शिववास करो शरणागत हैं। ॐ ह्रीं सिद्धसमाधिगुणशरणाय नमः अर्घ्यं ॥१७५ ॥ श्रुतज्ञान तथा मतिज्ञान दउ, परकाशत हैं यह व्यक्त सऊ। इनहीं गुण में मन पागत हैं, शिववास करो शरणागत हैं। ॐ ह्रीं सिद्धव्यक्तगुणशरणाय नमः अयं ॥१७६॥ परतक्ष अतीन्द्रिय भाव महा, मन इन्द्रिय बोध न गुह्य कहा। इनहीं गुण में मन पागत हैं, शिववास करो शरणागत हैं। ॐ ह्रीं सिद्धअव्यक्तगुणशरणाय नमः अयं ॥१७७॥ मालिनी छन्द निज गुणवर स्वामी शुद्ध संबोध नामी, परगुण नहीं लेशा एकही भाव शेषा। मन-वच-तन लाई पूजहों भक्ति भाई, भवि भव भय चूरं शाश्वतं सुक्ख पूरं॥ ॐ ह्रीं सिद्धगुणागुणस्वरूपाय नमः अयं ॥१७८॥ . सब विधि मल जारा बंध संसार टारा, जग जिय हिताकरी उच्चता पाय सारी। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१४३ मन-वच-तन लाई पूजहों भक्ति भाई, भवि भव भय चूरं शाश्वतं सुक्ख पूरं॥ ॐ ह्रीं सिद्धपरमात्मस्वरूपाय नमः अयं ॥१७९ ॥ पर-परिणतिखण्डं भेदबाधाविह ण्ड, शिवसदननिवासी नित्य स्वानन्दरासी। मन-वच-तन लाई पूजहों भक्ति भाई, भवि भव भय चूरं शाश्वतं सुक्ख पूरं॥ _ॐ ह्रीं सिद्धअखण्डस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥१८०॥ चित सुख विलसानं आकुलं भाव हानं, निज अनुभव सारं द्वैत संकल्प टारं । मन-वच-तन लाई पूजहों भक्ति भाई, .. .. भवि भव भय चूरं शाश्वतं सुक्ख पूरं॥ . ॐ ह्रीं सिद्धचिदानन्दस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥१८१ ॥ परकरण निवारं भाव संभाव धारं, . निज अनुपम ज्ञानं सुक्खरूपं निधानं । मन-वच-तन लाई पूजहों भक्ति भाई, भवि भव भय चूरं शाश्वतं सुक्ख पूरं॥ - ॐ ह्रीं सिद्धसहजानन्दाय नमः अयं ॥१८२॥ विधि वश सब प्रानी हीन आधिक्य ठानी, तिसकरण निमूला पाप रूपाधरूला। मन-वच-तन लाई पूजहों भक्ति भाई, भवि भव भय चूरं शाश्वतं सुक्ख पूरं॥ - ॐ ह्रीं सिद्धअछेद्यरूपाय नमः अयं ॥१८३॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] श्री सिद्धचक्र विधान जबलग परजाया भेद नाना धराया, इक शिवपद माहीं भेद आभास नाहीं। मन-वच-तन लाई पूजहों भक्ति भाई, भवि भव भय चूरं शाश्वतं सुक्ख पूरं॥ ॐ ह्रीं सिद्धअभेदगुणाय नमः अध्यं ॥१८४॥ अनुपम गुणधारी लोक संभाव टारी, सुरनर मुनि ध्यावें सो नहीं पार पावै। मन-वच-तन लाई पूजहों भक्ति भाई, __ भवि भव भय चूरं शाश्वतं सुक्ख पूरं॥ ॐ ह्रीं सिद्धअनुपमगुणाय नमः अर्घ्यं ॥१८५॥ . जिस अनुभव सरसै धार आनंद बरसै, अनुपम रस सोई स्वाद जासों न कोई। मन-वच-तन लाई पूजहों भक्ति भाई, . भवि भव भय चूरं शाश्वतं सुक्ख पूरं॥ . ॐ ह्रीं सिद्धअमृततत्वाय नमः अर्घ्यं ॥१८६॥ सब श्रुत विस्तारा जास माहीं उजारा, यह निजपद जानो आत्म संभाव मानो। मन-वच-तन लाई पूजहों भक्ति भाई, भवि भव भय चूरं शाश्वतं सुक्ख पूरं॥ ॐ ह्रीं सिद्धश्रुतप्राप्ताय नमः अर्घ्यं ॥१८७॥ दोधक छन्द जीव अजीव सबै प्रतिभासी, केवल जोति लहो तम नाशी। सिद्ध समूह नमूं शिरनाई, पाप कलाप सबै खिर जाई॥ ॐ ह्रीं सिद्धकेवलप्राप्ताय नमः अर्घ्यं ॥१८८॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान - [१४५ चेतन रूप प्रदेश बिराजै, आकृति रूप अलिंग सु छाजै। सिद्ध समूह नमूं शिरनाई, पाप कलाप सबै खिर जाई॥ ॐ हीं सिद्धसाकारनिराकाराय नमः अध्यं ॥१८९॥ नाहि गहैं पर आश्रित जानो, सो अवलम्ब बिना पद मानो। सिद्ध समूह नमूं शिरनाई, पाप कलाप सबै खिर जाई॥ ॐ ह्रीं सिद्धनिरावलम्बाय नमः अध्यं ॥१९॥ राग विषाद बसै नहिं जामें, योग वियोग भोग नहिं तामें। सिद्ध समूह नमूं शिरनाई, पाप कलाप सबै खिर जाई॥ ॐ ह्रीं सिद्धनिष्कलङ्काय नमः अयं ॥१९१॥ ज्ञान प्रभाव प्रकाश भयो है, कर्म समूह विनाश भयो है। सिद्ध समूह नमूं शिरनाई, पाप कलाप सबै खिर जाई॥ . ॐ ह्रीं सिद्धतेजःसम्पन्नाय नमः अयं ॥१९२॥ आतम लाभ निजाश्रित पाया, द्वैत विभाव समूह नसाया। सिद्ध समूह नमूं शिरनाई, पाप कलाप सबै खिर जाई॥ ॐ ह्रीं सिद्धआत्मसम्पन्नाय नमः अय॑ ॥१९३॥ मोतियादाम छन्द चहूँ गति काय स्वरूप प्रत्यक्ष, शिवालय वासअनूप अलक्ष। भजोमनआनन्दसोंशिवनाथ,धरोंचरणांबुजकोनिजमाथ॥ ॐ ह्रीं सिद्धगर्भवासाय नमः अध्यं ॥१९४॥ निजानन्द श्रीयुत ज्ञान अथाह, सुशोभित तृप्त भयो सुखपाय। भजोमनआनन्दसों शिवनाथ,धरोंचरणांबुजको निजमाथ। ॐ ह्रीं सिद्धलक्ष्मीसन्तृप्तकाय नमः अयं ॥१९५ ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६] श्री सिद्धचक्र विधान सुभाव निजातम अन्तर लीन, विभाव परातम आपद कीन। भजोमनआनन्दसों शिवनाथ,धरोंचरणांबुजकोनिजमाथ॥ ॐ ह्रीं सिद्धअन्तराकाराय नमः अयं ॥१९६॥ जहाँ लग द्वेष प्रवेश न होय, तहाँ लग सार रसायन होय। भजोमनआनन्दसों शिवनाथ, धरोंचरणांबुजकोनिजमाथ॥ । ॐ ह्रीं सिद्धसाररसाय नमः अयं ॥१९७॥ . जिसो निरलेपहुए विषतुंब्य, तिसोजगअग्र निराश्रय लुंब्य। भजोमनआनन्दसों शिवनाथ,धरोंचरणांबुजकोनिजमाथ॥ ॐ ह्रीं सिद्धशिखरमण्डनाय नमः अर्घ्यं ॥१९८॥ तिहूँजगशीशबिराजित नित्य, शिरोमणिसर्वसमाजअनित्य। भजोमनआनन्दसों शिवनाथ, धरोंचरणांबुजको निजमाथ॥ ॐ ह्रीं सिद्धत्रिलोकाग्रनिवासिने नमः अर्घ्यं ॥१९९॥ अकाय अरूप अलक्ष अवेद, निजातम लीन सदा अविछेद। भजोमनआनन्दसों शिवनाथ,धरोंचरणांबुजकोनिजमाथ॥ ॐ ह्रीं सिद्धस्वरूपगुप्तेभ्यो नमः अयं ॥२०० ॥ ___ अडिल्ल छन्द ऋषभ आदि चित धारी प्रथम दीक्षा धरी, केवलज्ञान उपाय धर्म विधि उच्चरी। निजस्वरूप थितिकरण हरणविधि चार हैं, परमारथ आचार्य सिद्ध सुखकार हैं। ॐ ह्रीं सूरिभ्यो नमः अर्घ्यं ॥२०१॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१४७ निजही निज उरधार हेत सामर्थ है, आत्मशक्तिकर व्यक्ति करणविधि व्यर्थ है। निजस्वरूप थितिकरण हरणविधि चार हैं, परमारथ आचार्य सिद्ध सुखकार हैं। ॐ ह्रीं सूरिगुणेभ्यो नमः अयं ॥२०२॥ साधन साधक साध्य भाव सबही गयो, भेद अगोचर रूप महासुख संचयो। निजस्वरूप थितिकरण हरणविधि चार हैं, - परमारथ आचार्य सिद्ध सुखकार हैं। ॐ ह्रीं सूरिस्वरूपगुणेभ्यो नमः अध्यं ॥२०३॥ तत्व प्रतीत निजातम रूप अनुभव कला, .. पायो सत्यानन्द कुमारग दलमला। निजस्वरूप थितिकरण हरणविधि चार हैं, परमारथ आचार्य सिद्ध सुखकार हैं। ॐ ह्रीं सूरिसम्यक्त्वगुणेभ्यो नमः अयं ॥२०४॥ वस्तु अनन्त धर्म प्रकाशक ज्ञान है, एक पक्ष हट सहित निपट असुहान है। निजस्वरूप थितिकरण हरणविधि चार हैं, परमारथ आचार्य सिद्ध सुखकार हैं। ॐ ह्रीं सूरिज्ञानगुणेभ्यो नमः अयं ॥२०५॥ वस्तु धर्म. सामान्य ताहि अवलोकना, शुद्ध निजातम धर्म ताहि नहीं लोपना। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] श्री सिद्धचक्र विधान निजस्वरूप थितिकरण हरणविधि चार हैं, परमारथ आचार्य सिद्ध सुखकार हैं। ॐ ह्रीं सूरिदर्शनगुणेभ्यो नमः अध्यं ॥२०६ ॥ अतुल अकम्प अखेद शुद्धपरिणति धरै,. जगतरूप व्यापार न इक छिन आदरै। निजस्वरूप थितिकरण हरणविधि चार हैं, परमारथ आचार्य सिद्ध सुखकार हैं। ॐ ह्रीं सूरिवीर्यगुणेभ्यो नमः अयं ॥२०७॥ षट्त्रिंशति गुण सूरि मोक्ष-फल पाइयो, .. तातें हम इन गुण करही जश गाइयो। निजस्वरूप थितिकरण हरणविधि चार हैं, परमारथ आचार्य सिद्ध सुखकार हैं। ॐ ह्रीं सूरिषट्त्रिंशत्गुणेभ्यो नमः अध्यं ॥२०८॥ पंचाचार आचार साध शिवपद लियो, वास्तव में ये गुण निजमें परगट कियो। निजस्वरूप थितिकरण हरणविधि चार हैं, परमारथ आचार्य सिद्ध सुखकार हैं। ॐ ह्रीं सूरिपश्चाचारगुणेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥२०९॥ गुण समुदाय सरूप द्रव्य आतम महा, __परसों भिन्न अभेद निजातम पद लहा। निजस्वरूप थितिकरण हरणविधि चार हैं, परमारथ आचार्य सिद्ध सुखकार हैं। ॐ हीं सूरिद्रव्यगुणेभ्यो नमः अयं ॥२१०॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री सिद्धचक्र विधान [१४९. वीतराग परिणति रचही सुखकार जू, परमशुद्ध स्वयं सिद्ध भयो अनिवार जू। निजस्वरूप थितिकरण हरणविधि चार हैं, परमारथ आचार्य सिद्ध सुखकार हैं। ॐ ह्रीं सूरिपर्यायगुणेभ्यो नमः अध्यं ॥२११॥ छन्त्र चञ्चला (एक हस्व, एक दीर्घ) आप सुक्ख रूप हो सु, और सौख्यकार होत। ज्यूं घटादि को प्रकाश, कार है सुदीप जोत॥ __ सूरि धर्म को प्रकाश, सिद्ध धर्म रूप जान। मैं नमूं त्रिकाल एक ही, अभेद पक्ष मान॥ ... ॐ हीं सूरिमंगलेभ्यो नमः अयं ॥२१२॥ संस अंस भान वस्तु, भाव को प्रकाशमान। ज्ञान इन्द्रिया अतीन्द्रिया, कहै उभय प्रमाण॥ सूरि धर्म.॥ . ॐ ह्रीं सूरिज्ञानमंगलेभ्यो नमः अयं ॥२१३॥ लोक उत्तमा सु वसु, कर्म को प्रसंग टार। शुद्ध बुद्ध ऋद्धि पाय, लोक वेदना निवार॥ सूरि धर्म.॥ ॐ ह्रीं सूरिलोकोत्तमेभ्यो नमः अध्यं ॥२१४॥ लोकभीत सों अतीत, आदि अन्त एक रूप। लोक में प्रसिद्ध सर्व, भाव को अनूप भूप॥ सूरि धर्म.॥ ____ॐ हीं सूरिज्ञानलोकोत्तमेभ्यो नमः अयं ॥२१५ ॥ बीच में न अन्तराय, आप ही सुखाय धाय।। या अबाध धर्म को, प्रकाश में करै सहाय॥ सूरि धर्म.॥ . ॐ ह्रीं सूरिदर्शनलोकोत्तमेभ्यो नमः अयं ॥२१६॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०] श्री सिद्धचक्र विधान मोह भार को निवार, शुद्ध चेतना सुधार। येई वीर्यता अपार, लोक में प्रशंसकार॥ सूरि धर्म.॥ ॐ ह्रीं सूरिवीर्यलोकोत्तमेभ्यो नमः अयं ॥२१७॥ धर्म केवली महान, मोह अन्ध तेज भान। सप्त तत्त्व को बखानि, मोक्ष-मार्ग को विधान॥ सूरि धर्म.॥ ॐ ह्रीं सूरिकेवलधर्माय नमः अयं ॥२१८॥ . शील आदि पूर भेद, कर्म के कलाप छेद। आत्म-शक्ति को प्रकाश, शुद्ध चेतना विलास॥सूरि धर्म.॥ ॐ ह्रीं सूरितपेभ्यो नमः अयं ॥२१९॥ . लोक चाह की न दाह, द्वेष को प्रवेश नाह। शुद्ध चेतना प्रवाह, वृद्धता धरै अथाह॥ सूरि धर्म.॥ . ॐ ह्रीं सूरिपरमतपेभ्यो नमः अध्य॑ ॥२२०॥ .. मोह को न जोर जाय, घोर आपदा नसाय। घोरतें तपो सु लोक, शीश जाय मुक्त पाय॥ सूरि धर्म.॥ ॐ ह्रीं सूरितपोधोरगुणेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥२२१॥ कामिनीमोहन छन्द मात्रा २० वृद्धपर वृद्ध गुण गहन नित हो जहाँ, शाश्वतं पूर्णता सातिशय गुण तहाँ। सूरि सिद्धान्त के पारगामी भये, __मैं नमूं जोरकर मोक्षधामी भये॥ . ॐ ह्रीं सूरिघोरगुणपराक्रमेभ्यो नमः अयं ॥२२२॥ एक समभावसम और नहीं ऋद्धि है, सर्व ही ऋद्धि जाके भये सिद्धि है। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१५१ सूरि सिद्धान्त के पारगामी भये, - मैं नमूं जोरकर मोक्षधामी भये॥ ॐ ह्रीं सूरिऋद्धिऋषिभ्यो नमः अयं ॥२२३॥ योग के रोक से कर्म का रोक हो, - गुप्त साधन किये साध्य शिवलोक हो। सूरि सिद्धान्त के पारगामी भये, _ मैं नमूं जोरकर मोक्षधामी भये॥ ॐ ह्रीं सूरिसुर्योगेभ्यो नमः अध्यं ॥२२४॥ ध्यान बल कर्म के नाश के हेतु है, - कर्म को नाश शिववास ही देत है। सूरि सिद्धान्त के पारगामी भये, . मैं नमूं जोरकर मोक्षधामी भये ॥ . ॐ ह्रीं सूरिध्यानेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥२२५ ॥ पञ्चधाचार में आत्म अधिकार है, बाह्य आधार आधेय सुविकार है। सूरि सिद्धान्त के पारगामी भये, मैं नमूं जोरकर मोक्षधामी भये ॥ ॐ ह्रीं सूरिधातृभ्यो नमः अध्यं ॥२२६ ॥ सूर सम आप पर तेज करतार है, सूरि ही मोक्षनिधि पात्र सुखकार है। सूरि सिद्धान्त के पारगामी भये, . मैं नमूं जोरकर मोक्षधामी भये ॥ ___ ॐ ह्रीं सूरिपात्रेभ्यो नमः अयं ॥२२७॥ करतार सूरि सिसूरि ही Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] श्री सिद्धचक्र विधान बाह्य छत्तीस अन्तर अभेदात्मा, आप थिर रूप है सूरि परमात्मा। सूरि सिद्धान्त के पारगामी भये, मैं नमूं जोरकर. मोक्षधामी भये ॥ ___ ॐ ह्रीं सूरिगुणशरणाय नमः अध्यं ॥२२८ ॥ ज्ञान उपयोग में स्वस्थिता शुद्धता, पूर्ण चारित्रता पूर्ण ही बुद्धता। सूरि सिद्धान्त के पारगामी भये, मैं नमूं जोरकर मोक्षधामी भये॥ - ॐ ह्रीं सूरिधर्मगुणशरणाय नमः अध्यं ॥२२९॥ शरण दुःख हरण पर आप ही शर्ण हैं, . आपने कार्य में आप ही कर्ण हैं। सूरि सिद्धान्त के पारगामी भये, . मैं नमूं जोरकर मोक्षधामी भये ॥ . ॐ ह्रीं सूरिशरणाय नमः अयं ॥२३०॥ दोहा - ज्यों कंचन बिन कालिमा उज्जल रूप सुहाय, त्योंही कर्म-कलङ्क बिन निज स्वरूप दरशाय। ॐ हीं सूरिस्वरूपशरणाय नमः अध्यं ॥२३१॥ भेदाभेद सुनय थकी एकहि धर्म विचार, . पायो सूरि सुबोध करि भवदधि करि उद्धार। ॐ हीं सूरिधर्मस्वरूपशरणाय नमः अयं ॥२३२॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१५३ अन्य समस्त विकल्प तजि केवल निजपद लीन, . पूरण ज्ञान स्वरूप यह पायो सूरी सुधीन। ॐ ह्रीं सूरिज्ञानस्वरूपाय नमः अयं ॥२३३॥ सुखाभास इन्द्रीजनित त्यागी सूरि महंत, पूरण सुख स्वाधीन निज साध्य भये सुखवंत। ____ ॐ ह्रीं सूरिसुखस्वरूपाय नमः अयं ॥२३४॥ अनेकांत तत्त्वार्थ के ज्ञाता सूरि महान, निरावर्ण निजरूप लखि पायो पद निरवाण। ॐ ह्रीं सूरिदर्शनस्वरूपाय नमः अयं ॥२३५ ॥ मोहादिक रिपु नाशिके सूरि महासामर्थ, शिव भामिन भरतार नित रमै साधि निज अर्थ। ॐ ह्रीं सूरिवीर्यस्वरूपाय नमः अयं ॥२३६ ॥ पद्धड़ी छन्द निज निज आतम निष्पाप कीन, ते सन्त करें पर पाप छीन। शिवमग प्रगटन आदित्य सूरि, हम शरण गही आनन्द पूरि॥ ॐ ह्रीं सूरिमङ्गलशरणाय नमः अर्घ्यं ॥२३७॥ रत्नत्रय जीव सुभाव भाय, भवि पतित उधारण हो सहाय। शिवमग प्रगटन आदित्य सूरि, हम शरण गही आनन्द पूरि॥ .. ॐ हीं सूरिधर्मशरणाय नमः अर्घ्यं ॥२३८॥ तपकरज्यों कञ्चनअग्निजोग, हैशुद्धनिजातम पदमनोग। शिवमग प्रगटन आदित्य सूरि, हम शरण गही आनन्द पूरि॥ ॐ ह्रीं सूरितपशरणाय नमः अर्घ्यं ॥२३९॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४] श्री सिद्धचक्र विधान एकाग्र चित्त चिन्ता निरोध, पावै अबाध शिव आत्म सोध। शिवमग प्रगटन आदित्य सूरि, हम शरण गही आनन्द पूरि॥ ॐ ह्रीं सूरिध्यानशरणाय नमः अयं ॥२४०॥ केवलज्ञानादि विभूति पाई, है शुद्ध निरञ्जन पद सुखाइ। शिवमग प्रगटन आदित्य सूरि, हम शरण गही आनन्द पूरि॥ ॐ ह्रीं सूरिसिद्धशरणाय नमः अयं ॥२४१॥ .... तिहुँ लोकनाथ तिहुँ लोकमाहिं,यानमदूजोसुखदायनाहिं। शिवमग प्रगटन आदित्य सूरि, हम शरण गही आनन्द पूरि॥ ॐ ह्रीं सूरित्रिलोकशरणाय नमः अर्घ्यं ॥२४२॥ आगत अतीत अरु वर्तमान, तिहुँ काल भव्य पावै निर्वाण। शिवमग प्रगटन आदित्य सूरि, हम शरण गही आनन्द पूरि॥ _. ॐ ह्रीं सूरित्रिकालशरणाय नमः अर्घ्यं ॥२४३॥ मधिअधोऊर्द्धतिहुँजगत्माहि,सबजीवनसुखकरऔरनाहिं। शिवमग प्रगटन आदित्य सूरि, हम शरण गही आनन्द पूरि॥ ॐ ह्रीं सूरित्रिजगन्मङ्गलाय नमः अर्घ्यं ॥२४४॥ तिहुँ लोकमाहिं सुखकार आप, सत्यारथ मंगल हरण पाप। शिवमग प्रगटन आदित्य सूरि, हम शरण गही आनन्द पूरि॥ ॐ ह्रीं सूरित्रिलोकमङ्गलशरणाय नमः अर्घ्यं ॥२४५॥ उत्तममंगल परमार्थरूप, जगदुःखनासे शिवसुखस्वरूप। शिवमग प्रगटन आदित्य सूरि, हम शरण गही आनन्द पूरि॥ ॐ ह्रीं सूरित्रिजगन्मङ्गलशरणाय नमः अर्घ्यं ॥२४६॥ शरणागतदुःखनाशनमहान,तिहुँजगहितकारणसुखनिधान। शिवमग प्रगटन आदित्य सूरि, हम शरण गही आनन्द पूरि॥ ॐ ह्रीं सूरित्रिजगन्मङ्गलशरणाय नमः अर्घ्यं ॥२४७ ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१५५ तिहुँ लोकनाथ तिहुँ लोकपूज, शरणागत प्रतिपालन अदूज। शिवमग प्रगटन आदित्य सूरि, हम शरण गही आनन्द पूरि॥ ह्रीं सूरित्रिलोकमण्डलशरणाय नमः अर्घ्यं ॥२४८॥ अव्यय अपूर्व सामर्थ युक्त, संसारातीत विमोह मुक्त ॥ शिवमग प्रगटन आदित्य सूरि, हम शरण गही आनन्द पूरि॥ ॐ ह्रीं सूरिऋद्धिमण्डलशरणाय नमः अयं ॥२४९॥ त्रोटक छन्द जिन रूप अनूप लखें सुख हो, जग में यह मन्त्र महान कहो। धरि भक्ति हिये गणराज सदा, प्रणमूंशिववास करैं सुखदा॥ ॐ ह्रीं सूरिमन्त्रस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥२५०॥ जिम नागदेववशमन्त्र विधि, भववासहरणतुमनाम निधि। धरि भक्ति हिये गणराजसदा, प्रणमूं शिववास करै सुखदा॥ ..... ॐ ह्रीं सूरिमन्त्रगुणाय नमः अयं ॥२५१॥ । जगमोहित जीव न पावत हैं, यह मन्त्र सु धर्म कहावत हैं। धरिभक्ति हिये गणराज सदा, प्रणमूंशिववास करैं सुखदा॥ __ॐ ह्रीं सूरिधर्माय नमः अर्घ्यं ॥२५२॥ चिदरूप चिदातम भाव धरें, गुण सार यही अविरुद्ध वरें। धरिभक्ति हिये गणराज सदा, प्रणमूंशिववास करैं सुखदा॥ . ॐ ह्रीं सूरिचैतन्यस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥२५३॥ अविकार चिदातम आनन्द हो, परमातम हो परमानन्द हो। धरि भक्ति हिये गणराज सदा, प्रणमूं शिववासक सुखदा॥ ॐ ह्रीं सूरिचिदानन्दाय नमः अर्घ्यं ॥२५४॥ जगमोहित जीवराजसदा, प्रण अध्य॥२५२ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] श्री सिद्धचक्र विधान निज ज्ञान प्रमाण प्रकाश करें, सुख रूप निराकुलता सु धेरै । धरि भक्ति हिये गणराज सदा, प्रणमूं शिववास करें सुखदा ॥ ॐ ह्रीं सूरिज्ञानानन्दाय नमः अर्घ्यं ॥ २५५ ॥ धरि योग महाशम भाव गहैं, सुख राशि महा शिववास लहैं । धरि भक्ति हिये गणराज सदा, प्रणमूं शिववास करें सुखदा ॥ ॐ ह्रीं सूरिशमभावाय नमः अर्घ्यं ॥ २५६ ॥ समभाव महा गुण धारत हैं, निज आनन्द भाव निहारत हैं। धरि भक्ति हिये गणराज सदा, प्रणमूं शिववास करें सुखदा । ॐ ह्रीं सूरितपोगुणानन्दाय नमः अर्घ्यं ॥ २५७ ॥ शिवसाधनकोविधिनाशकहा, विधिनाशनकोतपकर्णमहा । धरि भक्ति हिये गणराज सदा, प्रणमूं शिववास करें सुखदा ॥ ॐ ह्रीं सूरितपोगुणस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥ २५८ ॥ निज आत्म विषै नित मगन रहैं, जग के सुख मूल न भूलि चहैं। धरि भक्ति हिये गणराज सदा, प्रणमूं शिववास करें सुखदा ॥ ॐ ह्रीं सूरिहंसाय नमः अर्घ्यं ॥ २५९ ॥ वनवास उदास सदा जगतैं, पर आस न खास विलास रतैं । धरि भक्ति हिये गणराज सदा, प्रणमूं शिववास करैं सुखदा ॥ ॐ ह्रीं सूरिहंसगुणाय नमः अर्घ्यं ॥ २६० ॥ निज नाम महागुण मन्त्र धेरै छिन मात्र जपे भवि आश वरै । धरि भक्ति हिये गणराज सदा, प्रणमूं शिववास करें सुखदा ॥ ॐ ह्रीं सूरिमन्त्रगुणानन्दाय नमः अर्घ्यं ॥ २६१ ॥ परमोत्तम सिद्ध पर्याय कहा, अति शुद्ध प्रसिद्ध सुखात्म महा । धरि भक्ति हिये गणराज सदा, प्रणमूं शिववास करें सुखदा ॥ ॐ ह्रीं सूरिसिद्धानन्दाय नमः अर्घ्यं ॥ २६२ ॥ -D Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१५७ माला छन्द शशि सन्ताप कलाप निवारण ज्ञान कला सरसै। मिथ्यातम हरि भवि आनन्द करि अनुभव भाव दरसै॥ सूरि निज भेद कियो परसै। भये मुक्ति मैं नमूं शीश निज जोर जुगल करसै॥ ॐ ह्रीं सूरिअमृतचनद्राय नमः अयं ॥२६३॥ पूरण चन्द्र सरूप कलाधर ज्ञान सुधा वरसै। भवि चकोर चित चाहत नित मनुचरण जोति परसै॥सूरि.॥ - ॐ ह्रीं सूरिसुधाचन्द्रस्वरूपाय नमः अयं ॥२६४॥ जगजिय ताप निवारण कारण विलसे अन्तरसैं। देव सुधा सम गुण निवाहकर सकल चराचरसैं । सूरि.॥ ॐ ह्रीं सूरिसुधागुणाय नमः अयं ॥२६५॥ जा धुनि सुनि संशय विनसै जिम ताप मेघ वरसै। मनहुँ कमल मकरन्द वृन्द अलि पाय सुधा सरसै॥ सूरि.॥ ॐ ह्रीं सूरिसुधाध्वनये नमः अध्यं ॥२६६॥ अजर अमर सुखदाय मन ज्यों मयूर हरसै। गाजत.घन बाजत ध्वनि सुनि मनु भाजन भय उरसै॥सूरि.॥ ॐ ह्रीं सूरिअमृतध्वनिसुरूपाय नमः अर्घ्यं ॥२६७॥ , चकोर छन्द जो अपने गुण वा पर्याय, वरै निज धर्म न होत विनास। द्रव्य कहावत है सुअनन्त, स्वभावधरै निज आत्मविलास॥ सूरि कहाय सु कर्म खिपाइ, निजातम पाय गये शिवधाम। सुआतमराम सदा अभिराम भये, सुख काम नमूं वसुजाम॥ ॐ ह्रीं सूरिद्रव्याय नमः अध्यं ॥२६८॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] श्री सिद्धचक्र विधान शशि जोतिरहै सियरा नित, ज्यों रवि जोति रहै नित ताप । ज्योंनिजज्ञानकलापरिपूरण, राजतहोनिजकरणसुआप ॥ सूरि. ॐ ह्रीं सूरिगुणद्रव्याय नमः अर्घ्यं ॥ २६९ ॥ हो अविनाश अनूपम रूप सु, ज्ञानमई नित केलि करान । पै न तजै मरजाद रहै, निज सिन्धु कलोल सदा परिमाण ॥ सूरि. ॐ ह्रीं सूरिपर्यायाय नमः अर्घ्यं ॥ २७० ॥ जे कछु द्रव्य तने गुण है, सु समस्त मिलै गुण आतम माहीं । ताकरिद्रव्य सरूप कहावत है, अविनाश नमैं हम ताई ॥ सूरि ॥ ॐ ह्रीं सूरिद्रव्यस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥२७१ ॥ गुण में गुण और न हो, निज द्रव्य रहै नित और न ठौर । सो गुण रूप सदा निवसैं, हम पूजत हैं करके कर जोर ॥ सूरि. ॐ ह्रीं सूरिस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥ २७२ ॥ जो परिणाम धरै तिनसों, तिनमें करहै वरतै तिस रूप । सो पर्याय उपाय बिना नित, आप विराजत हैं सुअनूप ॥ सूरि. ॐ ह्रीं सूरिपर्यायस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥२७३ ॥ हो नित ही परिणाम समय प्रति, सो उत्पाद कहो भगवान । सो तुम भाव प्रकाश कियो, निज यह गुणकी उत्पाद महान ॥ सू. ॐ ह्रीं सूरिगुणोत्पादाय नमः अर्घ्यं ॥ २७४ ॥ ज्यों मृत्तिका निज रूप न छाँडत, है घटमाँहि अनेक प्रकार । सो तुम जीव स्वभाव धरोनित, मुक्त भए जगवास निवार । सूरि. ॐ ह्रीं सूरिध्रुवगुणोत्पादाय नमः अर्घ्यं ॥ २७५ ॥ जे जग में सब भाव विभाव, पराश्रित रूप अनेक प्रकार । ते सब त्याग भए शिवरूप, अबन्ध अमन्द महा सुखकार ॥ सूरि. ॐ ह्रीं सूरिव्ययगुणोत्पादाय नमः अर्घ्यं ॥२७६ ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१५९ जे जग में षद्रव्य कहै, तिनमें इक जीव सु ज्ञान स्वरूप। औरसभी बिनज्ञानकहै, तुमराजतहोनितज्ञातअनूप ॥सूरि. ॐ ह्रीं सूरिजीवतत्वाय नमः अध्यं ॥२७७॥ ज्ञान सुभाव धरो नित ही, नहिं छाड़त हो कबहूँ निज वान। येही विशेष भयोसबसों नहिं,औरन में गुणयेपरधान॥सूरि. ॐ ह्रीं सूरिजीवतत्वगुणाय नमः अयं ॥२७८ ॥ हो कर्तादि अनेक सुभाव निजातम में पर में अनिवार। सोपरकोनलगाररहो, निजही निजकर्मरहोसुखकार ॥सूरि. . ॐ ह्रीं सूरिनिजस्वभावधारकाय नमः अर्घ्यं ॥२७९ ॥ द्रव्य तथापि विभावदोऊ विधि, कर्म प्रवाह बहै बिन आदि। तेसबएकभयेथिररूप, निजातकशुद्धसुभावप्रसादि॥सूरि. ॐ ह्रीं सूरिआस्रवविनाशाय नमः अध्यं ॥२८॥ - मोदक छन्द बन्धदऊविधिके दुःख कारण, नाशकियोभवपारउतारण। सूरि महा निज ज्ञान कलाकर, सिद्ध भये प्रणमूं मैं मनधर ॥ ॐ ह्रीं सूरिबन्धतत्वविनाशाय नमः अयं ॥२८१ ॥ सम्वर तत्व महा सुख देत हि, आस्त्रवरोकन को यह हेत हि। सूरिमहा निज ज्ञान कलाकर, सिद्ध भये प्रणमूं मैं मनधर ॥ ॐ ह्रीं सूरिसम्वरणगुणाय नमः अयं ॥२८२॥ ज्यूँमणिदीपअडोलअनूपही, सम्वरतत्व निराकुलरूपही। सूरि महा निज ज्ञान कलाकर, सिद्ध भये प्रणमूं मैं मनधर ॥ ॐ ह्रीं सूरिसम्वरतत्वस्वरूपाय नमः अयं ॥२८३॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०] श्री सिद्धचक्र विधान सम्वर के गुणते मुनि पावत, जो मुनिशुद्ध सुभावसुध्यावत। सूरि महानिज ज्ञान कलाकर, सिद्ध भये प्रणमूं मैं मनधर ॥ . ॐ ह्रीं सूरिसम्वरगुणाय नमः अयं ॥२८४॥ सम्वर धर्मतनी शिव पावहि, सम्वर धरम तहाँ दरशावहि। सूरि महा निजज्ञान कलाकर, सिद्ध भये प्रणमूं मैं मनधर ॥ ॐ ह्रीं सूरिसम्वरधर्माय नमः अयं ॥२८५॥ . दोहा एक देश वा सर्व विधि, दोनों मुक्ति स्वरूप, नमूं निरजरा तत्वसों, पायो सिद्ध अनूप। ॐ ह्रीं सूरिनिर्जरातत्वाय नमः अर्घ्यं ॥२८६॥ .. शुद्ध सुभाव जहाँ तहाँ, कहो कर्म को नाश, एम निरजरा तत्व का, रूप कियो परकाश। ॐ ह्रीं सूरिनिर्जरातत्वस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥२८७॥ कोटि जन्म के विघन सब, सूखे तृण सम जान, दहे निर्जरा अग्निसों, इह गुण है परधान। ___ॐ ह्रीं सूरिनिर्जरागुणस्वरूपाय नमः अयं ॥२८८ ॥ निज बल कर्म खपाइये, कहो निर्जरा धर्म, धर्मी सोई आत्मा, एक हि रूप सुपर्म। ॐ ह्रीं सूरिनिर्जराधर्मस्वरूपाय नमः अध्यं ॥२८९ ॥ समय-समय गुण श्रेणिका, खिरै कर्मबल ध्यान, . ये संबंध निवार करि, करै मुक्ति सुखपान। ___ ॐ ह्रीं सूरिनिर्जरानुबन्धाय नमः अर्घ्यं ॥२९० ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान अतुल शक्ति थिरभाव की, सो प्रगटी तुम माहिं, यही निर्जरा रूप है नमूं भक्ति कर ताहि । ॐ ह्रीं सूरिनिर्जरास्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥ २९९ ॥ सर्व कर्म के नाश बिन, लहै न शिव-सुखरास, निश्चय तुमही निर्जरा, कियो प्रतीत प्रकाश । ॐ ह्रीं सूरिनिर्जराप्रतीताय नमः अर्घ्यं ॥ २९२ ॥ सकल कर्ममल नाशतें, शुद्ध निरञ्जन रूप, ज्यों कंचन बिन कालिमा, राजै मोक्ष अनूप । ॐ ह्रीं सूरिमोक्षाय नमः अर्घ्यं ॥ २९३ ॥ द्रव्य भाव दोनों सुविधि, करै जगत् में वास, द्वै विध बंध उखार के, भये मुक्त सुखरास । ॐ ह्रीं सूरिबन्धमोक्षाय नमः अर्घ्यं ॥ २९४ ॥ पर विकलप सुख-दुःख नहीं, अनुभव निज आनंद, जन्म-मरण विधिनाशकर, राजत शिवसुख कंद | ॐ ह्रीं सूरिमोक्षस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥ २९५ ॥ जहाँ न दुःखको लेश है, उदय कर्म अनुसार, सो शिवपद पायो महा, नमूं भक्ति उर धार । ॐ ह्रीं सूरिमोक्षगुणाय नमः अर्घ्यं ॥ २९६ ॥ [ १६१ जो शिव सुगुण प्रसिद्ध है, तिनसों नित प्रबंध, जे जगवास विलास दुःख, तिनकूं नमूं अबंध । ॐ ह्रीं सूरिमोक्षानुबन्धाय नमः अर्घ्यं ॥ २९७ ॥ जैसी निज तन आकृति, तज कीनो शिववास, ते तैसें नित अचल हैं, ज्ञानानन्द प्रकाश । ॐ ह्रीं सूरिमोक्षानुप्रकाशाय नमः अर्घ्यं ॥ २९८ ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] श्री सिद्धचक्र विधान क्षयोपशम परिणाम कर, साधन न निज का रूप, या निजपद में लीनता, ये ही गुप्त स्वरूप। ॐ ह्रीं सूरिस्वरूपगुप्तये नमः अयं ॥२९९॥ इंद्रियजनित न दुःख जहाँ, सदा निजानंद रूप, निर आकुल स्वाधीनता, वरतै शुद्ध स्वरूप। ॐ ह्रीं सूरिपरमात्मस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥३०॥ रोला छन्द सम्पूरण श्रुत सार निजातम बोध लहानो। निज अनुभव शिव मूल भानु उपदेश करानो॥ शिष्यन के अज्ञान हरै ज्यूं रवि अँधियारा। पाठक गुण सम्भवै सिद्ध प्रति नमन हमारा॥ ॐ ह्रीं पाठकेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥३०१॥ मुक्ति मूल है आत्म ज्ञान सोई श्रुत ज्ञानी। तत्त्व ज्ञान सों लहै निजातम पद सुखदानी॥ शिष्यन.॥ . ॐ ह्रीं पाठकमोक्षमण्डनाय नमः अयं ॥३०२॥ भवसागर तें भव्य जीव तारण अनिवारा। तुम में यह गुण अधिक आप पायो तिस पारा॥ शिष्यन.॥ ॐ ह्रीं पाठकगुणेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥३०३ ॥ दर्शन ज्ञान स्वभाव धरो तद्रूप अनूपी। हीनाधिक बिन अचल विराजत शुद्र सरूपी॥ शिष्यन.॥ ॐ ह्रीं पाठकगुणस्वरूपेभ्यो नमः अयं ॥३०४॥ निज गुण वा परयाय अखण्डित नित्य धरै है। तिहुँकाल प्रति अन्य भाव नहीं ग्रहण करै है॥ शिष्यन.॥ ___ॐ ह्रीं पाठकद्रव्याय नमः अयं ॥३०५॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१६३ सह भावी गुण सार जहाँ परभाव न लेषा। अगुरुलघु परणाम वस्तु सद्भाव विशेषा॥ शिष्यन.॥ ह्रीं पाठकगुणपर्यायेभ्यो नमः अयं ॥३०६ ॥ गुण समुदायी द्रव्य याहितें निरगुण नाहीं। सो अनन्त गुण सदा विराजत तुम पद माहीं॥ शिष्यन.॥ ॐ ह्रीं पाठकगुणद्रव्याय नमः अर्घ्यं ॥३०७॥ सत सरूप सब द्रव्य सधै नीके अबाध कर। सो तुम सत्य सरूप बिराजो द्रव्य भाव धर॥ शिष्यन.॥ ॐ ह्रीं पाठकद्रव्यस्वरूपाय नमः अयं ॥३०८॥ जे जे हैं परनाम बिना परनामी नाहीं। परनामी परनाम एक ही है तुम माहीं॥ शिष्यन.॥ . ॐ ह्रीं पाठकद्रव्यपर्यायाय नमः अध्यं ॥३०९॥ अगुरुलघु पर्याय शुद्ध परनाम बखानी। निज सरूप में अन्तरगत श्रुतज्ञान प्रमानी॥ शिष्यन.॥ - ॐ ह्रीं पाठकपर्यायस्वरूपाय नमः अयं ॥३१०॥ . जगतवास सब पापमूल जिय को दुःखदाई। ताको नाशन हेत कहो शिव मूल उपाई॥ शिष्यन.॥ ___ ॐ ह्रीं पाठकमङ्गलाय नमः अयं ॥३११॥ जहाँ न दुःख को लेश सर्वथा सुख ही जानो। सोई मंगल गुण तुम में प्रत्यक्ष लखानो॥ शिष्यन.॥ ॐ ह्रीं पाठकमङ्गलगुणाय नमः अयं ॥३१२ ॥ औरन मंगलकरण आप मंगलमय राजै। दर्शन कर सुखसार मिलै सब ही अघ भाजै॥ शिष्यन.॥ ॐ ह्रीं पाठकमङ्गलगुणस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥३१३॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] श्री सिद्धचक्र विधान आदि अन्त अविरुद्ध शुद्ध मंगलमय मूरति। निज सरूप में बसै सदा परभाव विदरित॥ शिष्यन.॥ ॐ हीं पाठकद्रव्यमङ्गलाय नमः अयं ॥३१४॥ जितनी परिणति धरो सबहि मंगलमय रूपी। अन्य अवस्थि टार धार तद्रूप अनूपी॥ शिष्यन.॥ ॐ ह्रीं पाठकमङ्गलपर्यायाय नमः अयं ॥३१५ ॥ निश्चय वा विवहार सर्वथा मंगलकारी। जग जीवन के विघन विनाशन सर्व प्रकारी॥ शिष्यन.॥ ॐ ह्रीं पाठकद्रव्यमङ्गलपर्यायाय नमः अयं ॥३१६॥ . . भेदाभेद प्रमाण वस्तु सर्वस्व बखानो। वचन अगोचर कहो तथा निर्दोष कहानो॥ शिष्यन.॥ ___ॐ ह्रीं पाठकद्रव्यगुणपर्यायमंगलाय नमः अयं ॥३१७॥ सब विशेष प्रतिमा समान मंगलमय भासे। निर्विकल्प आनन्दरूप अनुभूति प्रकाशे॥ शिष्यन.॥ . ॐ ह्रीं पाठकस्वरूपमंगलाय नमः अध्यं ॥३१८॥ पायता छन्द निर्विघ्न निराश्रय होई, लोकोत्तम मंगल सोई। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया॥ ॐ ह्रीं पाठकमंगलोत्तमाय नमः अयं ॥३१९॥ जगजीवन को हम देखा, तुम ही गुण सार विशेखो। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया। ॐ ह्रीं पाठकगुणलोकोत्तमाय नमः अयं ॥३२० ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [ १६५ षट् द्रव्य रचित जग सारा, तुम उत्तम रूप निहारा । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकद्रव्यलोकोत्तमाय नमः अर्घ्यं ॥३२१ ॥ निज ज्ञान शुद्धता पाई, जिस करि यह है प्रभुताई । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥ ३२२ ॥ जग जीव अपूरण ज्ञानी, तुम ही लोकोत्तम प्रानी । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकज्ञानलोकोत्तमाय नमः अर्घ्यं ॥३२३ ॥ तुम पद निरभेद निहारा, तुम दर्शन भेद उधारा । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकदर्शनाय नमः अर्घ्यं ॥ ३२४ ॥ हम सोवत हैं नित मोही, निरमोही लखें तुमको ही । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकदर्शनलोकोत्तमाय नमः अर्घ्यं ॥ ३२५ ॥ द्रगवन्त महा सुखकारा, तुम ज्ञान महा अविकारा । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकदर्शनस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥ ३२६ ॥ निरशंस अनन्त अबाधा, निज बोधन भाव अराधा । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकसम्यक्त्वाय नमः अर्घ्यं ॥ ३२७॥ सम्यक्त महा सुखकारी, निज गुण स्वरूप अधिकारी । तुम गुण अनन्तं श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकसम्यक्त्वगुणस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥ ३२८ ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६] श्री सिद्धचक्र विधान निरखेद अछेद अभेदा, सुख रूप वीर्य निर्वेदा। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया॥ ॐ हीं पाठकवीर्याय नमः अध्यं ॥३२९॥ निज भोग कलेश न लेशा, यह वीर्य अनन्त प्रदेशा। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया। ॐ ह्रीं पाठकवीर्यगुणाय नमः अध्यं ॥३३०॥ .. परनाम सुथिर निज माहीं, उपजै न कलेश कदाहीं। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया॥ ॐ ह्रीं पाठकवीर्यपर्यायाय नमः अयं ॥३३१॥ .. द्रव्य भाव लहो तुम जैसो, पावै जगजन नहिं ऐसो। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया। ॐ ह्रीं पाठकवीर्यद्रव्याय नमः अयं ॥३३२॥ . निज ज्ञान सुधारस पीवत, आनन्द सुभाव सु जीवत। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया। ॐ ह्रीं पाठकवीर्यगुणपर्यायाय नमः अर्घ्यं ॥३३३॥ अविशेष अनन्त सुभावा, तुम दर्शन माहिं लखावा। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया॥ ॐ ह्रीं पाठकदर्शनपर्यायाय नमः अर्घ्यं ॥३३४॥ एक बार लखे सबही को, तद्रूप निजातम ही को। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया। ॐ हीं पाठकदर्शनपर्यायस्वरूपाय नमः अयं ॥३३५ ॥ सपरस आदिक गुण नाहीं, चिद्रूप निजातम माहीं। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया। ॐ ह्रीं पाठकज्ञानद्रव्याय नमः अयं ॥३३६ ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१६७ शरणागत दीनदयाला, हम पूजत भाव विशाला। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया। ॐ ह्री पाठकशरणाय नमः अर्घ्यं ॥३३७॥ जिन शरण गही शिव पायो, इम शरण महा गुण पायो। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया। ॐ ह्रीं पाठकगुणशरणाय नमः अयं ॥३३८॥ अनुभव निज बोध करावै, यह ज्ञान शरण कहलावै। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया। ॐ ह्रीं पाठकज्ञानगुणशरणाय नमः अयं ॥३३९॥ द्रग मात्र तथा सरधाना, निश्चय शिववास कराना। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया। .. ॐ ह्रीं पाठकदर्शनशरणाय नमः अर्घ्यं ॥३४०॥ निरभेद स्वरूप अनूपा, है शर्ण तुही शिव भूपा। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया। - ॐ ह्रीं पाठकदर्शनस्वरूपशरणाय नमः अयं ॥३४१॥ निज आत्म-स्वरूप लखाया, इह कारण शिवपद पाया। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया। ॐ ह्रीं पाठकसम्यक्त्वशरणाय नमः अयं ॥३४२॥ आतम-स्वरूप सरधाना, तुम शरण गही भगवाना। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया॥ ॐ ह्रीं पाठकसम्यक्त्वस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥३४३॥ निज आतम साधन माहीं, पुरुषारथ छूट नाहीं। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया। ॐ ह्रीं पाठकवीर्यशरणाय नमः अर्घ्यं ॥३४४ ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] श्री सिद्धचक्र विधान आतम शक्ति प्रगटावै, तब निज स्वरूप जिय पावै । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकवीर्यस्वरूपशरणाय नमः अर्घ्यं ॥ ३४५ ॥ परमातम वीर्य महा है, पर निमित न लेश तहाँ है। तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकवीर्यपरमात्मशरणाय नमः अर्घ्यं ॥ ३४६ ॥ श्रुत द्वादशांग जिनवानी, निश्चय शिववास करानी । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकद्वादशांगशरणाय नमः अर्घ्यं ॥ ३४७ ॥ दश पूर्व महा जिनवानी, निश्चय अघहर सुखदांनी । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकदशपूर्वाङ्गाय नमः - अर्घ्यं ॥ ३४८ ॥ दश चार पूर्व जिनवानी, निश्चय शिववास करानी । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकचतुदर्शपूङ्गाय नमः अर्घ्यं ॥ ३४९ ॥ निज आत्म चर्ण प्रगटावै, आचार अंग कहलावै । तुम गुण अनन्त श्रुत गाया, हम सरधत शीश नवाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकाचाराङ्गाय नमः अर्घ्यं ॥ ३५० ॥ रेखता छन्द विविध शङ्कादि तम टारी, निरन्तर ज्ञान आचारी । पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकज्ञानाचाराय नमः अर्घ्यं ॥ ३५१ ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान १६९ पराश्रित भाव विनशाया, सुथिर निजरूप दर्शाया। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ॐ ह्रीं पाठकंतपसाचाराय नमः अयं ॥३५२॥ मुक्तपद दैन अनिवारी, सर्व बुध चरण आचारी। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ॐ ह्रीं पाठकरत्नत्रयाय नमः अयं ॥३५३ ॥ शुद्ध रत्नत्रय धारी, निजातम रूप अविकारी। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। .. ॐ ह्रीं पाठकरत्नत्रयसहायाय नमः अध्यं ॥३५४॥ . धौव्य पञ्चमगति पाई, जन्म फुनि मरण छुटकाई। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। . ॐ ह्रीं पाठकध्रुवसंसाराय नमः अध्यं ॥३५५॥ अनूपम रूप अधिकाई, असाधारण स्वपद पाई। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। . ॐ ह्रीं पाठकएकत्वस्वरूपाय नमः अयं ॥३५६ ॥ आन तुम सम न गुण होई, कहो एकत्व सोई। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ॐ ह्री पाठकएकत्वगुणाय नमः अध्यं ॥३५७॥ निजानन्द पूर्ण पद पाया, सोई परमात्म कहलाया। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ॐ ह्री पाठकएकत्वपरमात्मने नमः अयं ॥३५८॥ उच्चगत मोक्ष का दाता, एक निज-धर्म विख्याता। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ॐ ह्रीं पाठकएकत्वधर्माय नमः अयं ॥३५९ ॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०] श्री सिद्धचक्र विधान जो तुम चेतनता परकाशी, न पावै ऐसी जगवासी। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया॥ ___ॐ ह्रीं पाठकएकत्वचेतनाय नमः अयं ॥३६०॥ ज्ञान दर्शन स्वरूपी हो, असाधारण अनूपी हो। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया॥ ॐ ह्रीं पाठकएकत्वचेतनस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥३६१॥ गहै नित निज चतुष्टय को, मिलै कबहूँ नहीं परसों। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ॐ ह्रीं पाठकएकत्वद्रव्याय नमः अर्घ्यं ॥३६२॥ . स्वपद अनुभूति सुख रासी, चिदानन्द भाव परकासी। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया॥ ॐ ह्रीं पाठकचिदानन्दाय नमः अयं ॥३६३॥ अन्त पुरुषार्थ साधक हो, जन्म मरणादि बाधक हो। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया॥ ॐ ह्रीं पाठकसिद्धसाधकाय नमः अर्घ्यं ॥३६४॥ स्वआतम ज्ञान दरशाय, ये पूरण ऋद्धि पद पाय। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ॐ ह्रीं पाठकऋद्धिपूर्णाय नमः अर्घ्यं ॥३६५॥ सकल विधि मूर्छा त्यागी, तुम्ही निरग्रन्थ बडभागी। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया॥ ॐ ह्रीं पाठकनिर्ग्रन्थाय नमः अयं ॥३६६॥ निजाश्रित अर्थ जा नाहीं, अबाधित अर्थ तुम माहीं। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ॐ ह्रीं पाठकअर्थविधानाय नमः अर्घ्यं ॥३६७॥ TRUJILTILI Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१७१ HURT न फिर संसार पद पाया, अपूरव बन्ध विनशाया। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ॐ ह्रीं पाठकसंसारानुबन्धाय नमः अयं ॥३६८॥ आप कल्याणमय राजो, सकल जगवास दुःख त्याजो। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ॐ ह्रीं पाठककल्याणाय नमः अयं ॥३६९॥ स्वपर हितकार गुणधारी, परम कल्याण अविकारी। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया॥ ॐ ह्रीं पाठककल्याणगुणाय नमः अयं ॥३७० ॥ अहित परहार पद जो है, परम कल्याण तासो है। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ॐ ह्रीं पाठककल्याणद्रव्याय नमः अर्घ्यं ॥३७१ ॥ स्वसुख द्रव्याश्रये माहीं, जहाँ कछु पर निमित्त नाहीं। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। । ॐ ह्रीं पाठककल्याणद्रव्याश्रये नमः अर्घ्यं ॥३७२ ॥ जो है सो है अमित काला, अन्यथा भाव विधि टाला। पूर्ण श्रुतंज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ___- ॐ ह्रीं पाठकतत्वगुणाय नमः अर्घ्यं ॥३७३ ॥ रहै नित चेतना माही, कहैं चिद्रूप मुनि ताही। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ॐ ह्रीं पाठकचिद्रूपाय नमः अर्घ्यं ॥३७४॥ सर्वथा ज्ञान परिणामी, प्रगट है चेतना नामी। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ॐ ह्रीं पाठकचेतनागुणाय नमः अयं ॥३७५ ॥ 1 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२] श्री सिद्धचक्र विधान नहीं अन्यत्व भेदा है, गुणी गुण निरविछेदा है। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया॥ ॐ ह्रीं पाठकचेतनागुणाय नमः अध्यं ॥३७६ ॥ घटाघट वस्तु परकाशी, धरे हैं जोति प्रतिभाषी। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया॥ ____ॐ ह्रीं पाठकज्योतिप्रकाशाय नमः अयं ॥३७७॥ वस्तु सामान्य अवलोका, है युगपत दर्श सिद्धोंका। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ॐ ह्रीं पाठकदर्शनचेतनाय नमः अयं ॥३७८॥ . . विशेषण युक्त साकारा, ज्ञान दुति में प्रगट सारा। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया॥ . ॐ ह्रीं पाठकज्ञानचेतनाय नमः अयं ॥३७९ ॥ ज्ञानसों जीव नामी है, भेद समवाय स्वामी है। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ॐ ह्रीं पाठकचिदानन्दाय नमः अयं ॥३८० ॥ चराचर वस्तु स्वाधीनता, एक ही समय लखलीना। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ॐ ह्रीं पाठकवीर्यचेतनाय नमः अर्घ्यं ॥३८१॥ सकलजीवों के सुख कारन, सरन तुमहीहोअनिवारन। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ॐ ह्रीं पाठकसकलशरणाय नमः अयं ॥३८२ ॥ तुम हो त्रयलोक हितकारी, अछूते शरण बलिहारी। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ॐ ह्रीं पाठकत्रैलोक्यशरणाय नमः अयं ॥३८३॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१७३ तुमारी शरण तिहुँकाला, करन जग जीव प्रतिपाला। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया॥ - ॐ ह्रीं पाठकत्रिकालशरणाय नमः अध्यं ॥३८४॥ शरण अनिवार सुखदाई, प्रगट सिद्धान्त में गाई। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ॐ ह्रीं पाठकत्रिमंगलशरणाय नमः अध्यं ॥३८५॥ लोक में धर्म विख्याता, सो तुमही में है सुखसाता। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया॥ . ॐ ह्रीं पाठकलोकशरणाय नमः अध्यं ॥३८६॥ जोग बिन आश्रव नाहीं, भये निर आश्रवा ताही। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। . ॐ ह्रीं पाठकआश्रववेदाय नमः अयं ॥३८॥ आश्रव करम का खोना, कार्य था आप का होना। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ॐ ह्रीं पाठकआश्रवविनाशाय नमः अयं ॥३८८॥ तत्त्व निर्बाध उपदेशा, विनाशे कर्म परवेशा। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। 1. ॐ हीं पाठकआश्रवोपदेशछेदकाय नमः अध्यं ॥३८९॥ प्रकृति सब कर्म की चूरी, भाव मल नाश दुःख पूरी। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ... ॐ ह्रीं पाठकबन्धमुक्ताय नमः अध्यं ॥३९०॥ न फिर संसार अवतारा, बन्ध विधि अन्त कर डारा। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। - ॐ ह्रीं पाठकबन्धान्तकाय नमः अयं ॥३९१॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४] श्री सिद्धचक्र विधान आश्रव कर्म दुःखदाई, रुके सम्वर ये सुखदाई। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकसम्वराय नमः अर्घ्यं ॥ ३९२ ॥ सर्वथा जोग विनसाया, स्वसम्वर रूप दरशाया । पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकसम्वरस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥ ३९३ ॥ भाव में कलुषता नाहीं, भये सम्वर करण ताहीं । पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकसम्वरकरणाय नमः अर्घ्यं ॥ ३९४ ॥ कुपरणति राग रूष नाशन, निरजरा रूप प्रतिभासन । पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकनिर्जरास्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥ ३९५ ॥ कामदेव दाह जग सारा, आप तिस भस्म कर डारा । पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया ॥ ॐ ह्रीं पाठककन्दर्पछेदकाय नमः अर्घ्यं ॥ ३९६ ॥ चहूँ विधि बन्ध विधि चूरा, ये विस्फोटक कहो पूरा । पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया ॥ ॐ ह्रीं पाठककर्मविस्फोटकाय नमः अर्घ्यं ॥ ३९७ ॥ दऊ विधि कर्म का खोना, सोई है मोक्ष का होना । पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकमोक्षाय नमः अर्घ्यं ॥ ३९८ ॥ द्रव्य अर भाव मल टारा, नमूं शिवरूप सुखकारा । पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया ॥ ॐ ह्रीं पाठकमोक्षस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥ ३९९॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१७५ अरति रति पर निमित खोई, आत्म रति है प्रगट सोई। पूर्ण श्रुतज्ञान बल पाया, नमूं सत्यार्थ उवझाया। ॐ ह्रीं पाठकआत्मरतये नमः अर्घ्यं ॥४०० ॥ लोलतरङ्ग छन्द तथा बड़ी चौपाई अठाईस मूल गुणधारी, सो सब साधु बरै शिव नारी। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ - ॐ ह्रीं सर्वसाधुभ्यो नमः अयं ॥४०१॥ मूल तथा सब उत्तर गाये, ये गुण पालत साधु कहाये। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ - ॐ ह्रीं सर्वसाधुगुणेभ्यो नमः अयं ४०२॥ साधुन के गुणा साधुहि जाने, होत गुणी गुण ही परमाने। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ - ॐ ह्रीं सर्वसाधुगुणस्वरूपाय नमः अयं ॥४०३ ॥ नेम थकी शिववास करे जो, द्रव्य थकी शिवरूप करै जो। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं सर्वसाधुद्रव्याय नमः अयं ॥४०४॥ जीव सदाचित भावविलासी, आपहीआपसधैशिवराशी। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं सर्वसाधुगुणद्रव्याय नमः अयं ॥४०५॥ ज्ञानमई निज ज्योति प्रकाशी, भेद विशेष सबै प्रति भासी। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ - ॐ ह्रीं साधुज्ञानगुणाय नमः अर्घ्यं ॥४०६ ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६] श्री सिद्धचक्र विधान एकहि बार लखाय अभेदा, दर्शन को सब रोग विछेदा। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं साधुदर्शनाय नमः अध्य॑ ।।४०७॥ आपहि साधन साध्य तुम्ही हो, एक अनेक अभेद तुम्ही हो। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं साधुद्रव्यभावाय नमः अध्यं ॥४०८॥ चेतनता निज भाव न छारै, रूप स्पर्शन आदि धारै। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं साधुद्रव्यस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ४०९॥ जो उतपाद भयो इकबारा, सो निरबार रहै अविकारा। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं साधुवीर्याय नमः अयं ॥४१०॥ है परिनाम अभिन्न प्रणामी, सो तुम सोध भये शिवगामी। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ हीं साधुद्रव्यपर्याय नमः अर्घ्यं ॥४११॥ . जो गुण वा परियाय धरो हो, सो निज माहीं अभिन्न धरो हो। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं साधुद्रव्यगुणपर्यायाय नमः अयं ॥४१२॥ मंगलमय तुम नाम कहावै, लेतहि नाम सु पाप नसावै। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं साधुमङ्गलाय नमः अयं ॥४१३॥ . मंगल रूप अनूपम सोहै, ध्यान किये नित आनन्द हो है। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं साधुमङ्गलस्वरूपाय नमः अयं ॥४१४॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१७७ पाप मिटै तुम शरण गहेतें, मंगल शरम कहाय लहैतें। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं साधुमङ्गलशरणाय नमः अयं ॥४१५॥ देखत ही सब पाप नसे है, आनन्द मंगलरूप लसे है। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ह्रीं साधुमङ्गलदर्शनाय नमः अयं ४१६ ॥ जानत हैं तुमको मुनि नीके, पाप कलाप मिटै तिनहीके। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं साधुमङ्गलज्ञानाय नमः अयं ॥४१७॥ ज्ञानमई तुम हो गुणरासा, मंगल जोति धरै रवि कासा। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ . ॐ ह्रीं साधुज्ञानगुणमङ्गलाय नमः अध्यं ॥४१८॥ मंगल वीर्य तुम्हीं दर्शाया, काल अनन्ता पाप गलाया। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ - . ॐ ह्रीं साधुवीर्यमङ्गलाय नमः अयं ॥४१९॥ वीर्य महा सुखरूप निहारा, पाप बिना नित ही अविकारा। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं साधुवीर्यमङ्गलस्वरूपाय नमः अध्यं ॥४२०॥ मंगल वीर्य महा गुणधामी, निज पुरुषार्थ हि मोक्ष लहामी। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं साधुवीर्यपरममङ्गलाय नमः अध्यं ॥४२१॥ वीर्य स्वाभाविक पूर्ण तिहारा, कर्म नशाय भये भवपारा। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं साधुवीर्यद्रव्याय नमः अयं ॥४२२॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८] श्री सिद्धचक्र विधान तीन हि लोक लखे सब जोई, आप समान न उत्तम कोई। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ___ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमाय नमः अर्घ्यं ॥४२३॥ लोक सभी विधि बन्धन माहीं, तुम सम रूप धरे ते नाहीं। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमगुणाय नमः अर्घ्यं ॥४२४॥ लोकन के गुण पाप कलेशा, उत्तम रूप नहीं तुम जैसा। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै। ___ ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमगुणस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥४२५॥ . लोक अलोक निहारक नामी, उत्तम द्रव्य तुम्हीं अभिरामी। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमद्रव्याय नमः अर्घ्यं ॥४२६॥ लो सभी षद्रव्य रचाया, उत्तम द्रव्य तुम्ही हम पाया। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमद्रव्यस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥४२७॥ ज्ञानमई चित उत्तम सोहै, ऐसो लोक विर्षे अरु को है। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥४२८॥ ज्ञान स्वरूप सुभाव तिहारा, उत्तम लोक कहै इम सारा। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमज्ञानस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥४२९॥ देखन में कछु आड न आवै, लोक तभी सब उत्तम गावें। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमज्ञानदर्शनाय नमः अर्घ्यं ॥४३०॥ साधु भय ही साधुलोका उत्त Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१७९ देखन जानन भाव धरो हो, उत्तम लोक के हेतु गहे हो। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ____ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमज्ञानदर्शनाय नमः अयं ॥४३१॥ जाकर लोक शिखरपद धारा, उत्तम धर्म कहो जग सारा। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ - ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमधर्माय नमः अर्घ्यं ॥४३२॥ धर्म स्वरूप निजातम माँही, उत्तम लोक विर्षे ठहराई। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ___ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमधर्मस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥४३३॥ अन्य सहाय न चाहत जाको, उत्तम लोक कहै बल ताको। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै। ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमवीर्याय नमः अयं ॥४३४॥ उत्तम वीर्य संरूप निहारा, साधन मोक्ष कियो अनिवारा। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ____ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमवीर्यस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥४३५॥ पूरणआत्मकला परकाशी, लोकवि अतिशयअविनाशी। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ____ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमअतिशयाय नमः अयं ॥४३६ ॥ राग विरोध न चेतन माही, ब्रह्म कहो जग उत्तम ताही। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ____ ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमब्रह्मज्ञानाय नमः अयं ॥४३७॥ ज्ञान सरूप अकम्प अडोला, पूरण ब्रह्म प्रकाश अटोला। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमब्रह्मज्ञानस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ।।४३८॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०1 श्री सिद्धचक्र विधान राग विरोध जयो शिवगामी, आत्म अनातम अन्तरजामी। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमजिनाय नमः अयं ॥४३९॥ भेद बिना गुण भेद धरो हो, सांख्य कुवादिक पक्ष हरो हो। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ___ ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमगुणसम्पन्नाय नमः अयं ॥४४० ॥ साधत आतम पौरुष पाई, उत्तम पुरुष कहो जग ताई। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै। ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमपुरुषाय नमः अर्घ्यं ॥४४१॥ . साधु समान न दीनदयाला, शरम गहै सुख होत विशाला। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ . ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमशरणाय नमः अर्घ्यं ॥४४२॥ जे जग साधू शरण गही है, ते शिव आनन्द लब्धि लही है। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं साधुलोकोत्तमगुणशरणाय नमः अयं ॥४४३॥ साधुन के गुण द्रव्य चितारे; होत महासुख शरण उभारे। साधु भये शिव साधन हारे, सो तुम साधु हरो अघ म्हारै॥ ॐ ह्रीं साधुगुणद्रव्यशरणाय नमः अर्घ्यं ॥४४४ ॥ लावनी छन्द तुम चितवत वा अवलोकत वा सरधानी, इम शरण गहै पावै निश्चय शिवरानी। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै। - ॐ ह्रीं साधुदर्शनशरणाय नमः अर्घ्यं ।।४४५ ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१८१ तुम अनुभवकरि शुद्धोपयोगमन धारा, - यह ज्ञान शरण पायो निश्चय अविकारा। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै। ॐ ह्रीं साधुज्ञानशरणाय नमः अध्यं ॥४४६ ॥ निज आत्म रूप में दृढ़ सरधा तुम पाई, . थिर रूप सदा निवसों शिववास कराई। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुआत्मशरणाय नमः अयं ॥४४७ ॥ तुम निराकार निरभेद अछेद अनूपा, 'तुम निरावरण निरद्वन्द्व स्वदर्श स्वरूपा। निज़रूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, ___मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै।॥ ... ॐ ह्रीं साधुदर्शनस्वरूपाय नमः अयं ॥४४८ ॥ तुम परम पूज्य परमेश परमपद पाया, - हम शरण गही पूर्णं नित मन-वच-काया। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, __ मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुपरमात्मशरणाय नमः अयं ।।४४९॥ तुम मन इन्द्री व्यापार जीत सु अभीता, - हम शरण गही मनु आज कर्म रिपु जीता। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२] श्री सिद्धचक्र विधान निजरूप मगन मन ध्यान धेरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै ॥ ॐ ह्रीं साधुनिजात्मशरणाय नमः अर्घ्यं ॥ ४५० ॥ भववास दुःखी जे शरम गहैं तुम मन में, तिनको अवलम्ब उभारो भयहर छिनमें । निजरूप मगन मन ध्यान धेरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै ॥ ॐ ह्रीं साधुवीर्यशरणाय नमः अर्घ्यं ॥४५१ ॥ दृगबोध अनन्तानन्त धरो निरखेदा, तुम बल अपार शरणागति विघन विछेदा । निजरूप मगन मन ध्यान धेरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै ॥ ॐ ह्रीं साधुवीर्यात्मशरणाय नमः अर्घ्यं ॥ ४५२ ॥ निज ज्ञानानन्दी महा लक्ष्मी सोहै, सुर असुरन में नित परम मुनी मन मोहै । निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै ॥ ॐ ह्रीं साधुलक्ष्मीअलंकृताय नमः अर्घ्यं ॥ ४५३ ॥ भववास महादुःखरास ताहि विनशाया, अति क्षीन लीन स्वाधीन महासुख पाया । निजरूप मगन मन ध्यान धेरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै ॥ ॐ ह्रीं साधुलक्ष्मीप्रणीताय नमः अर्घ्यं ॥ ४५४ ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान त्रिभुवन का ईश्वरपना तुम्हीं में पाया, त्रिभुवन के पातक हरौ नमो रवि छाया । निजरूप मगन मन ध्यान धेरै मुनिराजै, [ १८३ मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै ॥ ॐ ह्रीं साधुलक्ष्मीरूपाय नमः अर्घ्यं ॥ ४५५ ॥ तुम काल अनन्तानन्त अबाध विराजो, पर निमित विकार निवार सुनित्य सुछाजो | निजरूप मगन मन ध्यान धेरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै ॥ ॐ ह्रीं साधुध्रुवाय नमः अर्घ्यं ॥४५६ ॥ तुम क्षायक लब्धि प्रभाव परम गुणधारी, निवसो निज आनन्द मांहि अचल अविकारी । निजरूप मगन मन ध्यान धेरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै ॥ ॐ ह्रीं साधुगुणध्रुवाय नमः अर्घ्यं ॥४५७ ॥ तेरम चौदम गुण थान द्रव्य है जैसो, रहै काल अनन्तानन्त शुद्धता तैसो । निजरूप मगन मन ध्यान धेरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै ॥ ॐ ह्रीं साधुद्रव्यगुणध्रुवाय नमः अर्घ्यं ॥ ४५८ ॥ फिर जन्म-मरण नहीं होय जन्म वो पाया, संसार विलक्षण निज अपूर्व पद पाया । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४] श्री सिद्धचक्र विधान निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुद्रव्योत्पादाय नमः अयं ॥४५९॥ सूक्षम अलब्धि पर्याप्त निगोद शरीरा, ते तुच्छ द्रव्य कर नाश भये भव तीरा। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, . मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुद्रव्यव्ययाये नमः अयं ॥४६०॥ . रागादि परिग्रह टारि तत्व सरधानी, इम साधु जीव नित साधत शिव सुखदानी। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ - ॐ ह्रीं साधुजीवाय नमः अयं ॥४६१ ॥ स्वसंवेदन विज्ञान परम अमलाना, तज इष्ट अनिष्ट विकल्प जाल सुखसाना। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुजीवगुणाय नमः अयं ॥४६२॥ देखन जानन चेतन सुरूप अविकारी, ___ गुण गुणी भेद में अन्य भेद व्यभिचारी। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुचेतनगुणाय नमः अयं ॥४६३॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१८५ चेतन की परिणति रहै सदा चितमाहीं, - ज्यों सिन्धु लहरही सिन्धु और कछु नाहीं। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, - मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुचेतनस्वरूपाय नमः अयं ॥४६४॥ चेतन विलास सुखरास नित्य परकाशी, सो साधु दिगम्बर साधु भये अविनाशी। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, - मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुचेतनाय नमः अर्घ्यं ॥४६५ ॥ तुम असाधारण अरु परमातम परकाशी, । नहिं अन्य जीव यह लहै गहै भववासी। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुपरमात्मप्रकाशाय नमः अध्यं ॥४६६ ॥ तुम मोह तिमिर बिन स्वयं सूर्य परकाशी, ... गुण द्रव्यपर्य सब भिन्न-भिन्न प्रतिभासी। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुज्योतिः स्वरूपाय नमः अयं ॥४६७॥ ज्यों घटपदादि दीपक की ज्योति दिखावै, त्यों ज्ञान ज्योति सब भिन्न-भिन्न दरशावै। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६] श्री सिद्धचक्र विधान निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुज्योतिः प्रदीपाय नमः अर्घ्यं ॥४६८॥ सामान्यरूप अवलोकन युगपत सारा, तुम दर्शन ज्योति प्रदीप हरै अँधियारा। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, .. मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुदर्शनज्योति:प्रदीपाय नमः अर्घ्यं ॥४६९॥ साकार रूप सु विशेष ज्ञान द्युति माहीं, युगपत कर प्रतिबिम्बित वस्तु प्रगटाई। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराज, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुज्ञानज्योति:प्रदीपाय नमः अयं ॥४७०॥ जे अर्थ जन्य कहैं ज्ञान वो झूठे वादी, है स्वपर प्रकाशक आतम ज्योति अनादी। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुआत्मज्योतिषे नमः अर्घ्यं ॥४७१ ॥ जे तारण तरण जिहाजा थित भवसागर, हम शरण गहैं पावै शिववास उजागर। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुशरणाय नमः अयं ॥४७२ ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१८७ सामान्य रूप सब साधु मुक्ति मग साथै, हम पावै निज पद नेमरूप आराथें। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुसर्वशरणाय नमः अयं ॥४७३ ॥ त्रस नाड़ी ही मैं तत्त्वज्ञान सरधानी, ताकर साथै निश्चय पावै शिवरानी। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ . ॐ ह्रीं साधुलोकशरणाय नमः अयं ॥४७४॥ .. तिहुँलोक करन हित वरते नित उपदेशा, हम शरम गही मेटो भववास कलेशा। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, . मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ . ॐ ह्रीं साधुत्रिलोकशरणाय नमः अयं ॥४७५ ॥ संसार विषम दुःखकार असार अपारा, तिस छेदक वेदक सुखदायक हितकारा। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ___ॐ ह्रीं साधुसंसारछेदकाय नमः अर्घ्यं ॥४७६ ॥ यद्यपि इक क्षेत्र अवगाह अभिन्न विराजे, . तद्यपि निज सत्ता माहिं भिन्नता साजै। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८] श्री सिद्धचक्र विधान निजरूप मगन मन ध्यान धेरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै ॥ ॐ ह्रीं साधुएकत्वाय नमः अर्घ्यं ॥ ४७७ ॥ यद्यपि सामान्य सरूप सु पूरण ज्ञानी, तद्यपि निज आश्रय भाव भिन्न परनामी । निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै ॥ ॐ ह्रीं साधुएकत्वगुणाय नमः अर्घ्यं ॥४७८ ॥ है साधारण एकत्व द्रव्य तुम माहीं, तुम सम संसार मँझार और कोऊ नाहीं । निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै ॥ ॐ ह्रीं साधुएकत्वद्रव्याय नमः अर्घ्यं ॥ ४७९ ॥ यद्यपि सबही हो असंख्यात परदेशी, तद्यपि निज में निजरूप स्वद्रव्य सुदेशी । निजरूप मगन मन ध्यान धेरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै ॥ ॐ ह्रीं साधुएकत्वस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥ ४८० ॥ सामान्य रूप सब ब्रह्म कहावै ज्ञानी, तिनमें तुम वृषभ सु परम ब्रह्म परणामी । निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै ॥ ॐ ह्रीं साधुपरमब्रह्मणे नमः अर्घ्यं ॥ ४८१ ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१८९ सापेक्ष एकही कहै सु नय विस्तारा, तुम भाव प्रगट कर कहै सुनिश्चय कारा। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुपरमस्याद्वादाय नमः अयं ॥४८२॥ है ज्ञान निमित यह वचन जाल परमाणा, . वाचक वाच्य संयोग ब्रह्म कहलाना। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुशुद्धब्रह्मणे नमः अध्यं ॥४८३॥ षट् द्रव्य निरूपण करै सोई आगम हो, . तिसके तुम मूल निधान सु परमागम हो। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, __.मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं परमागमाय नमः अर्घ्यं ॥४८४॥ तीर्थेशं कहै सर्वज्ञ दिव्य धुनि माहीं, - तुम गुण अपार इम कहो जिनागम ताहीं। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुजिनागमाय नमः अयं ॥४८५॥ तुम नाम प्रसिद्ध अनेक अर्थ का बाँची, ताके प्रबोधसों हो प्रतीत मन साँची। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९०] श्री सिद्धचक्र विधान निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुअनेकार्थाय नमः अयं ॥४८६ ॥ लोभादिक मेटे बिन न सौचता होई, है वृथा तीर्थ स्नान करो भी कोई। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ___ ॐ ह्रीं साधुशौचाय नमः अर्घ्यं ॥४८७ ॥ है मिथ्या मोह प्रबल मल इनका खोना, सो शुद्ध सौच गुम यही न तनका धोना। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुशुचित्वगुणाय नमः अर्घ्यं ॥४८८॥ इक देश कर्ममल नाश पवित्र कहायो, तुम सर्व कर्ममल नाशि परम पद पायो। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुपवित्राय नमः अर्घ्य ४८९ ॥ तुम रहो बन्धसों दूरि एकान्त सुखाई, ज्यों नभ अलिप्त सब द्रव्य रहो तिस माहीं। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, .. मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुविमुक्ताय नमः अर्घ्यं ॥४९०॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१९१ सब द्रव्य भाव नोकर्म बन्ध छुटकाया, तुम शुद्ध निरञ्जन निज सरूप थिर पाया। निजरूप मगन मन ध्यान धरै मुनिराजै, मैं नमूं साधुसम सिद्ध अकम्प बिराजै॥ ॐ ह्रीं साधुबन्धमुक्ताय नमः अयं ॥४९१॥ अडिल्ल छन्द भावाश्रव बिन अतिशयसहित अबन्ध हो, मेघपटल बिन ज्यौं रविकिरण अबन्ध हो। मोक्षमार्ग वा मोक्षश्रेय सब साधु हैं, . .. नमत निरन्तर हमहूँ कर्म रिपु को दहैं। ___ॐ ह्रीं साधुबन्धप्रतिबन्धकाय नमः अर्घ्यं ॥४९२ ॥ तुम स्वरूप में लीन परम सम्वर करें, . यह कारण अनिवार कर्म आवन हरैं। मोक्षमार्ग वा मोक्षश्रेय सब साधु हैं, _ नमत निरन्तर हमहूँ कर्म रिपु को दहैं। . . ॐ ह्रीं साधुसम्वरकारणाय नमः अयं ॥४९३॥ पुद्गलीक परिणाम आठ विधि कर्म हैं, तिनकी करत निर्जरा शुद्ध सु परम हैं। मोक्षमार्ग वा मोक्षश्रेय सब साधु हैं, नमत निरन्तर हमहूँ कर्म रिपु को दहैं। ___ॐ ह्रीं साधुनिर्जराद्रव्याय नमः अध्यं ॥४९४॥ परम. शुद्ध. उपयोग रूप वरते जहाँ, छिन में अनन्तानन्त कर्म खिर है तहाँ। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२] श्री सिद्धचक्र विधान मोक्षमार्ग वा मोक्षश्रेय सब साधु हैं, __ नमत निरन्तर हमहूँ कर्म रिपु को दहैं। ॐ ह्रीं साधुनिर्जराविमलाय नमः अयं ॥४९५॥ सकल विभाव अभाव निरजरा करत हैं, ज्यों रवि तेज प्रचण्ड सकलतम हरत हैं। मोक्षमार्ग वा मोक्षश्रेय सब साधु हैं, नमत निरन्तर हमहूँ कर्म रिपु को दहैं। ॐ ह्रीं साधुनिर्जरागुणाय नमः अयं ॥४९६ ॥ जे संसार निमित ते सब दुःखरूप हैं, __ तुम निमित्त शिव कारण शुद्ध अनूप हैं। मोक्षमार्ग वा मोक्षश्रेय सब साधु हैं, नमत निरन्तर हमहूँ कर्म रिपु को दहैं॥ ॐ ह्रीं साधुनिमित्तमुक्ताय नमः अर्घ्यं ॥४९७॥ संशय रहित सुनिश्चय सन्मतिदाय हो, . मिथ्या भ्रमतम नाशन सहज उपाय हो। मोक्षमार्ग वा मोक्षश्रेय सब साधु हैं, नमत निरन्तर हमहूँ कर्म रिपु को दहैं। ॐ ह्रीं साधुबोधधर्माय नमः अर्घ्यं ॥४९८ ॥ अति विशुद्धनिजज्ञान स्वभाव सुधरत हो, भव्यन के संशय आदिक तम हरत हो। मोक्षमार्ग वा मोक्षश्रेय सब साधु हैं, नमत निरन्तर हमहूँ कर्म रिपु को दहैं। ॐ ह्रीं साधुबोधगुणाय नमः अर्घ्यं ॥४९९ ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान अविनाशी अविकार परम शिवधाम हो, पायो सो तुम सुगत महा अभिराम हो । मोक्षमार्ग वा मोक्षश्रेय सब साधु हैं, नमत निरन्तर हमहूँ कर्म रिपु को दहैं ॥ ॐ ह्रीं साधुसुगतिभावाय नमः अर्घ्यं ॥ ५०० ॥ जासो परे न और जन्म वा मरण है, सो उत्तम उत्कृष्ट परम गति को लहौ । मोक्षमार्ग वा मोक्षश्रेय सब साधु हैं, [ १९३ नमत निरन्तर हमहूँ कर्म रिपु को दहें ॥ ॐ ह्रीं साधुपरमगतिभावाय नमः अर्घ्यं ॥ ५०१ ॥ पर निमित्त रागादिक जे परनाम हैं, इन विभावसों रहित साधु शुभ नाम हैं। मोक्षमार्ग वा मोक्षश्रेय सब साधु हैं, नमत निरन्तर हमहूँ कर्म रिपु को दहें ॥ ॐ ह्रीं साधुविभावरहिताय नमः अर्घ्यं ॥ ५०२ ॥ निज सुभाव सामर्थ सु प्रभुता पाइयो, इन्द्र फनेन्द्र नरेन्द्र शीश निज नाइयो । मोक्षमार्ग वा मोक्षश्रेय सब साधु हैं, नमत निरन्तर हमहूँ कर्म रिपु को दहैं ॥ ॐ ह्रीं साधुस्वभावसहिताय नमः अर्घ्यं ॥ ५०३ ॥ कर्म बन्धसों रहित सोई शिवरूप हैं, निवसैं सदा अबन्ध स्वशुद्ध अनूप हैं । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४] श्री सिद्धचक्र विधान मोक्षमार्ग वा मोक्षश्रेय सब साधु हैं, नमत निरन्तर हमहूँ कर्म रिपु को दहैं। ॐ हीं साधुमोक्षस्वरूपाय नमः अध्यं ॥५०४॥ . सकल द्रव्य पर्याय विर्षे स्वज्ञान हो, सत्यारथ निश्चल निश्चय परमाण हो। मोक्षमार्ग वा मोक्षश्रेय सब साधु हैं,.. _ नमत निरन्तर हमहूँ कर्म रिपु को दहैं। ____ ॐ ह्रीं साधुपरमानन्दाय नमः अयं ।।५०५॥ तीन लोक के पूज्य यतीजन ध्यावहीं, कर्म-शत्रु को जीत अर्ह पद पावहीं। मोक्षमार्ग वा मोक्षश्रेय सब साधु हैं, • . नमत निरन्तर हमहूँ कर्म रिपु को दहैं॥ . ॐ ह्रीं साधुअर्हत्स्वरूपाय नमः अयं ॥५०६॥ .. परम इष्ट शिव साधत सिद्ध कहाइयो, तीन लोक परमेष्ठि परमपद पाइयो। मोक्षमार्ग वा मोक्षश्रेय सब साधु हैं, _ नमत निरन्तर हमहूँ कर्म रिपु को दहैं। ॐ ह्रीं साधुपरमेष्ठिने नमः अयं ॥५०७ ॥ शिव मारग प्रगटावन कारण हो तुम्हीं, भविजन पतित उधारन तारन हो तुम्हीं। मोक्षमार्ग वा मोक्षश्रेय सब साधु हैं, नमत निरन्तर हमहूँ कर्म रिपु को दहैं। ॐ ह्रीं साधुसूरिप्रकाशिने नमः अध्यं ॥५०८॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान ....... [१९५ :: स्वपर स्वहितकरि परम बुद्धि भरतार हो, ध्यान धरत आनन्द बोध दातार हो। मोक्षमार्ग वा मोक्षश्रेय सब साधु हैं, नमत निरन्तर हमहूँ कर्म रिपु को दहैं। ॐ ह्रीं साधुउपाध्यायाय नमः अध्यं ॥५०९॥ पञ्च परम गुरु प्रगट तुम्हारो नाम है, भेदाभेद सुभाव सु आतमराम है। मोक्षमार्ग वा मोक्षश्रेय सब साधु हैं, . नमत निरन्तर हमहूँ कर्म रिपु को दहैं। ॐ ह्रीं साधुअर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः अयं ॥५१०॥ लोकालोक सु व्यापक ज्ञान सुभावते, .. तद्यपि निजपद लीन विहीन विभावतें। मोक्षमार्ग वा मोक्षश्रेय सब साधु हैं, - नमत निरन्तर हमहूँ कर्म रिपु को दहैं। ___ ॐ ह्रीं साधुआत्मरतये नमः अयं ॥५११॥ रतनत्रय निज भाव विशेष अनन्त हैं, - पञ्च परम गुरु भये नमें नित सन्त हैं। मोक्षमार्ग वा मोक्षश्रेय सब साधु हैं, नमत निरन्तर हमहूँ कर्म रिपु को दहैं। ॐ हीं साधुअर्हन्तसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुरत्नत्रयात्मकानन्तगुणेभ्यो नमः अयं ॥५१२॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६] श्री सिद्धचक्र विधान अडिल्ल छन्द . . पञ्च परम गुरु नाम विशेषण को धरै, तीन लोक में मंगलमय आनन्द करें। पूरण कर थुति नाम अन्त सुख कारणं, पूजूं हूँ युत भाव सु अर्घ उतारणं॥ ॐ ह्रीं अहँ द्वादशाधिकञ्चशतगुणयुतसिद्धेभ्यो नमः पूर्णाधु ॥ यहां ॐ ह्रीं अह अ सि आ उ सा नमः १०८ बार जपना चाहिए। जयमाला रत्नत्रय भूषित महा, पञ्च सुगुरु शिवकार। सकल सुरेन्द्र नमें नमू, पाऊँ सो गुण सार॥ पद्धड़ि छन्द जय महामोह दल दलन सूर, जय निर्विकल्प आनन्दपूर। जय द्वै विधि कर्म विमुक्त देव, जय निजानन्द सवाधीन एव॥ जयसंशयादिभ्रमतमनिवार, जयस्वामिभक्तिद्युतिथुतिअपार। जय युगपत सकल प्रत्यक्ष लक्ष, जय निरावरण निर्मल अनक्ष॥ जय जय जय सुखसागर अगाध, निरद्वन्द्व निरामय निर उपाध। जयमन-वच-तनसबव्यापारनाश,जयथिरसरूपनिजपदप्रकाश॥ जय परनिमित्त सुख-दुःख निवार, निरलेपनिराश्रय निर्विकार। निज में पर को पर में न आप, परवेश न हो नित निर मिलाप॥ तुम परम धरम आराध्य सार, निज सम करि कारण दुर्निवार। तुम पञ्च परम आचार युक्त, नित भक्त वर्ग दातार मुक्त ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान । [१९७ एकादशांग सर्वांग पूर्व, स्वै अनुभव पायो फल अपूर्व । अन्तर बाहिर परिग्रह नसाय, परमारथ साधू पद लहाय॥ हम पूजत नित उर भक्ति ठान, पावें निश्चय शिवपद महान। ज्योंशशिकिरणावलिसियरपाय,मणिचन्द्रकान्तिद्रवतालहाय॥ घत्तानन्द छन्द जय भव भयहारं बन्धविडारं, सुख सारं शिव करतारं । नित सन्तसुध्यावत पापनसावत, पावतपदनिजअविकारं॥ ॐ ह्रीं अहं द्वादशाधिकपञ्चशतदलोपरिस्थितसिद्धेभ्यो नमः पूर्णाम्। सोरठा तुम गुणः अमल अपार, अनुभवतें भव भय नशै। सन्त सदा चित धार, शान्ति करो भवतप हरो॥ इत्याशीर्वादः॥ इति सप्तमी पूजा समाप्त॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] श्री सिद्धचक्र विधान अष्टमी पूजा १०२४ गुण सहित छप्पय छन्द ऊरध अधो सुरेफ बिन्दु हङ्कार बिराजे। अकारादि स्वर लिप्तकर्णिका अन्त सु छाजे॥ वर्गनि पूरित वसुदल अम्बुज तत्त्व सन्धिधर। अग्रभाग में मन्त्र अनाहत सोहत अतिवर ॥ फुनि अन्त ह्रीं वेढ्यो परम, सुर ध्यावत अरिनागको। है केहरिसम पूजन निमित्त, सिद्धचक्र मंगल करो॥ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं श्री सिद्धपरमेष्ठिनः १०२४ गुणसहित बिराजमान अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं। दोहा -- सूक्ष्मादि गुण सहित हैं, कर्म रहित नीरोग। सिद्धचक्र सो थापहूँ, मिटें उपद्रव योग॥ इति यन्त्र स्थापनम्। अथाष्टकं - गीता छन्द निज आत्मरूप सु तीर्थ मग नित, सरस आनन्द धार हो। नाशै त्रिविध मल सकल दुःखमय, भव जलधि के पार हो। यातै उचित ही है जु तुम पद, नीरसों पूजा करूँ । इक सहस अरु चौबीस गुण गण, भावयुत मन में धरूँ॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसंयुक्ताय जन्मजरामृत्युविनाशाय जलं ॥१॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [१९९ शीतल सुरूप सुगन्ध चन्दन, एक भव तप नास ही। सो भव्य मधुकर प्रिय सु यह, नहिं और ठौर सुबास ही॥ यातें उचित ही है जु तुम पद, मलयसों पूजा करूँ॥इक.॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसंयुक्ताय संसारतापविनाशनाय चंदनं. ॥२॥ अक्षय अबाधित आदि अन्त, समान स्वच्छ सुभाव हो। ज्यों तुष बिना तन्दुल दिपै त्यू, निखिल अमल अभाव हो॥ यातें उचित ही है जु तुम पद, अक्षतं पूजा करूँ॥इक.॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसंयुक्ताय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं. ॥३॥ गुण पुष्पमाल विशाल तुम, भवि कण्ठ पहिरै भावंसों। जिनके मधुप मन रसिक लुब्धित, रमत नित प्रति चावसों॥ यातें उचित ही है जु तुम पद, पुष्पसों पूजा करूँ॥इक.॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसंयुक्ताय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं. ॥४॥ शुद्धात्म सरस सुपाक मधुर, समान और न रस कहीं। ताके हो आस्वादी तुम सम, और सन्तुष्टि त नहीं॥ यातें उचित ही है जु तुम पद, चरुनसों पूजा करूँ॥इक.॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसंयुक्ताय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं. ॥५॥ स्वैपर प्रकाश स्वभावधर, ज्यूं निज स्वरूप सम्भारते। त्यूं ही त्रिकाल अनन्त द्रव्य पर्याय, प्रगट निहारते ॥ यातें उचित ही है जु तुम पद, दीपसों पूजा करूँ॥इक.॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसंयुक्ताय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं ॥६॥ वर ध्यान अगनि जराय वसुविधि, ऊर्द्धगमन स्वभावतें।' राजै अचल शिव थान नित, तिन धर्मद्रव्य अभावतें॥ यातें उचित ही है जु तुम पद, धूपसों पूजा करूँ॥इक.॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसंयुक्ताय अष्टकर्मदहनाय धूपं. ॥७॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००] . श्री सिद्धचक्र विधान सर्वोत्कृष्ट सु पुण्य फल, तीर्थेश पद पायो महा। तीर्थेश पद को स्वरुचिधर, अव्यय अमर शिवफल लहा॥ या उचित ही है जु तुम पद, फलनसो पूजा करूँ॥इक.॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसंयुक्ताय मोक्षफलप्राप्तये फलं ॥८॥ अष्टांग मूल सु विधि हरे, निज अष्ट गुण पायो सही। अष्टार्द्ध गति संसार मेटि सु अचल है अष्टम मही॥ यातें उचित ही है जु तुम पद, अर्घसों पूजा करूँ॥इक.॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसंयुक्ताय अनर्घपदप्राप्तये अय. ॥९॥ गीता छन्द निर्मल सलिल शुभवास चन्दन धवल अक्षत युत अनी, शुभ पुष्प मधुकर नित रमें चरु प्रचुर स्वाद सुविधि घनी। वर दीपमाल उजाल धूपायन रसायन फल भले, करि अर्घ सिद्ध समूह पूजत कर्मदल सब दलमले ॥ ते कर्म प्रकृति नसाय युगपति, ज्ञान निर्मल रूप हैं, दुःख जन्म टाल अपार गुण, सूक्षम सरूप अनूप हैं। कर्माष्ट बिन त्रैलोक्य पूज्य, अदूज शिव कमलापती। मुनि ध्येय सेय अभेय चाहूँ, गेह धो हम शुभमती॥ ॐ ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने १०२४ गुणसंयुक्ताय पूर्णाघ । १०२४ नाम गुण सहित अर्घ दोहा . इन्द्रिय विषय कषाय हैं, अन्तर शत्रु महान। तिनको जीतत जिन भये, नमूं सिद्ध भगवान॥ ॐ ह्रीं अहं जिनाय नमः अर्घ्यं ॥१॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२०१ रागादिक जीते सु जिन, तिनमें तुम परधान । तातैं नाम जिनेन्द्र है, नमूं सदा धरि ध्यान ॥ ॐ ह्रीं अर्ह जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ॥ २ ॥ रागादिक लवलेश बिन, शुद्ध निरंजन देव । पूरण जिनपद तुम विषै, राजत हो स्वयमेव ॥ ॐ ह्रीं अर्हं जिनपूर्णाय नमः अर्घ्यं ॥ ३ ॥ बाह्य शत्रु उपचरित को, जीतत जिन नहीं होय । अन्तर शत्रु प्रबल जये, उत्तम जिन हैं सोय ॥ ॐ ह्रीं अर्हं जिनोत्तमाय नमः अर्घ्यं ॥४ ॥ इन्द्रादिक पूजत चरन, सेवत हैं तिहुँकाल । गणधरादि श्रुत- केवली, जिन आज्ञा निज भाल ॥ ॐ ह्रीं अर्ह जिनप्रचेष्टाय नमः अर्घ्यं ॥५॥ गणधरादि सत पुरुष जे, वीतराग निरग्रन्थ । तुमको सेवत जिन भये भये, साधत हैं शिवपन्थ ॥ ॐ ह्रीं अर्हं निजाधिपाय नमः अर्घ्यं ॥६॥ एक देश जिन सर्व मुनि, सर्व भाव अरहन्त । द्रव्य भाव सर्वातमा, नमूं सिद्ध भगवन्त ॥ ॐ ह्रीं अर्हं जिनाधीशाय नमः अर्घ्यं ॥७ ॥ गणधरादि सेवत चरन, शुद्धातम लवलाय । तीन लोक स्वामी भये, नमूं सिद्ध अधिकाय ॥ ॐ ह्रीं अर्ह जिनस्वामिने नमः अर्घ्यं ॥८ ॥ नमत सुरासुर जिन चरन, तीन काल धरि ध्यान । सिद्ध जिनेश्वर मैं नमूं पाऊँ शिवसुख थान ॥ ॐ ह्रीं अर्हं जिनेश्वराय नमः अर्घ्यं ॥ ९ ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२] श्री सिद्धचक्र विधान > तीन लोक तारण तरण, तीन लोक विख्यात । सिद्ध महा जिननाथ हैं, सेवत पाप नशात ॥ ॐ ह्रीं अर्हं जिननाथाय नमः अर्घ्यं ॥ १० ॥ एकदेश श्रावक तथा सर्वदेश मुनिराज । नितप्रति रक्षक हो महा, सिद्ध सु पुण्य समाज ॥ ॐ ह्रीं अर्हं जिनपतये नमः अर्घ्यं ॥ ११ ॥ त्रिभुवन शिखाशिरोमणि, राजत सिद्ध अनन्त । शिवमारग परसिद्ध कर, नमत भवोदधि अन्त ॥ ॐ ह्रीं अर्हं जिनप्रभवे नमः अर्घ्यं ॥१२॥ जिन आज्ञा त्रिभुवन विषें, वरते सदा अखण्ड । मिथ्यामति दुरपक्ष को, देत नीतिसों दण्ड ॥ ॐ ह्रीं अर्हं जिनराजाधिराजाय नमः अर्घ्यं ॥ १३ ॥ तीन लोक परिपूर्ण हैं, लोकालोक प्रकाश । राजत हैं विस्तीर्ण जिन नमूं हरो भववास ॥ ॐ ह्रीं अर्हं जिनविभवे नमः अर्घ्यं ॥ १४ ॥ आत्मज्ञ जिन नमत हैं, शुद्धातम के हेत । स्वामी हो तिहुँलोक के, नमूं वसें शिवखेत ॥ ॐ ह्रीं अर्हं जिनभर्त्रे नमः अर्घ्यं ॥ १५ ॥ मिथ्यातम को नाश करि, तत्त्वज्ञान परकाश । दीप्ति रूप रविसम सदा, करो सदा उर वास ॥ ॐ ह्रीं अर्हं तत्वप्रकाशाय नमः अर्घ्यं ॥ १६ ॥ कर्म शत्रु जीते सु जिन, तिनके स्वामी सार । धर्म मार्ग प्रगटात हैं, शुद्ध सुलभ सुखकार ॥ ॐ ह्रीं अर्हं कर्मजिते नमः अर्घ्यं ॥ १७ ॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२०३ अमृत सम निज दृष्टिसों, यथाख्यात आचार। तिन सब के स्वामी नमू, पायो शिवपद सार॥ - ॐ ह्रीं अहँ जिनेशाय नमः अर्घ्यं ॥१८॥ समोशरण आदिक विभव, तिसके तुम परधान। शुद्धातम शिवपद लहो, नमूं कर्म की हान॥ ____ॐ ह्रीं अर्ह जिननायकाय नमः अर्घ्यं ॥१९॥ सूरज सम तिहुँलोक में, मिथ्या तिमिर निवार। सहज दिखायी मोक्षमग, मैं बन्दू हित धार॥ __ॐ ह्रीं अहँ जिननेत्रे नमः अर्घ्यं ॥२०॥ जन्म-मरण दुःख जीतिकर, जिन जिन नामधराय। नमूं सिद्ध परमातमा, भवदुःख सहज नसाय॥ ... ॐ ह्रीं अहँ जिनजेत्रे नमः अर्घ्यं ॥२१॥ अचलअबाधित पदलहो, निज स्वभाव दिढ भाय। नमूं सिद्ध कर जोर कर, भाव सहित उर लाय॥ ॐ ह्रीं अहँ जिनपरिदृढ़ाय नमः अर्घ्यं ॥२२॥ . सर्व-व्यापि परमातमा, सर्व पूज्य विख्यात। श्री जिनदेव नमूं त्रिविध, सर्व पाप नशि जात॥ . ॐ ह्रीं अहँ जिनदेवाय नमः अर्घ्यं ॥२३॥ श्री जिनेश जिनराज हो, निज स्वभाव अनिवार। पर निमित्त विनशे सकल, बन्दूं शिव सुखकार॥ . . ॐ ह्रीं अहँ जिनेश्वराय नमः अर्घ्यं ॥२४॥ परम धर्म दातार हो, तीन लोक सुखदाय। तीन लोक पालक महा, मैं बन्दूं शिवराय॥ ॐ ह्रीं अहँ जिनपालकाय नमः अर्घ्यं ॥२५॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] श्री सिद्धचक्र विधान गणधरादि सेवत महा, तुम आज्ञा शिर धार। अधिक-अधिक जिनपद लहो, नमूं करो भवपार॥ ॐ ह्रीं अहँ जिनाधिराजाय नमः अर्घ्यं ॥२६॥ परम धर्म उपदेश करि, प्रगटायो शिवराय। श्री जिन निज आनन्द में, वर्ते बन्दूं ताय॥ ॐ ह्रीं अहँ जिनशासनेशाय नमः अर्घ्यं ॥२७॥ .. पूरण पद पावत निपुण, सब देवन के देव। मैं पूजूं नित भावसों, पाऊँ शिघ्र स्वयमेव॥ ॐ ह्रीं अहँ जिनदेवाधिदेवाय नमः अर्घ्यं ॥२८॥ तीन लोक विख्यात हैं, तारण-तरण जिहाज। . तुम सम देव न और हैं, तुम सब के शिरताज॥ _ ॐ ह्रीं अर्ह जिनाद्वितयाय नमः अयं ॥२९॥ तीन लोक पूजत चरन, भाव सहित शिर नाय। इन्द्रादिक थुति करि थके, मैं बन्दूं तिस पाय॥ . ॐ ह्रीं अहँ जिनाधिनाथाय नमः अर्घ्यं ॥३०॥ तुम समान नहीं देव है, भविजन तारन हेत। चरणाम्बुज सेवत सुभग, पावैं शिवसुख खेत॥ ॐ ह्रीं अहँ जिनेन्द्रबिंबंधनाय नमः अर्घ्यं ॥३१॥ भवाताप करि तप्त हैं, तिनकी विपति निवार। धर्मामृत कर पोषियो, वरतें शशि उनहार ॥ ॐ ह्रीं अहँ जिनचन्द्राय नमः अर्घ्यं ॥३२॥ मिथ्यातम करि अन्ध थे, तीन लोक के जीव। तत्त्व मार्ग प्रगटाइयो, रवि सम दीप्त अतीव॥ ॐ ह्रीं अहँ जिनादित्याय नमः अर्घ्यं ॥३३॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२०५ बिन कारण तारण-तरण दीप्त रूप भगवान। इन्द्रादिक पूजत चरण, करत कर्म को हान॥ ॐ ह्रीं अहँ जिनदीप्तरूपाय नमः अर्घ्यं ॥३४॥ जैसे कुञ्जर चक्र के, जाने दल को साज। चार संघ नायक प्रभू, बन्दूं सिद्ध समाज॥ ॐ ह्रीं अहँ जिनकुंजराय नमः अयं ॥३५॥ दीप्त रूप तिहुँलोक में, है प्रचण्ड परताप। भक्तन को नित देत हैं, भोगैं शिवसुख आप॥ ह्रीं अहँ जिनार्काय नमः अर्घ्यं ॥३६॥ . रत्नत्रय मग साधकर, सिद्ध भये भगवान। पूरण निजसुख धरत हैं, निज में निज परिणाम॥ ॐ ह्रीं अर्ह जिनधौर्याय नमः अर्घ्यं ॥३७॥ तीन लोक के नाथ हो, ज्यूँ तारागण सूर्य। शिव सुख पायो परमपद, बन्दौं श्रीजिन धूर्य। - ॐ ह्रीं अहँ जिनधूर्याय नमः अर्घ्यं ॥३८॥ पराधीन बिन परम पद, तुम बिन लहैं न और। उत्तमातमा मैं नमू, तीन लोक शिरमौर ॥ ॐ ह्रीं अहँ जिनोत्तमाय नमः अर्घ्यं ॥३९॥ - जहाँ न दुःख को लेश है, तहाँ न परसों कार। तुम बिन कहूँ न श्रेष्ठता, तीनलोक दुःख टार॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ त्रिलोकदुःखनिवारणाय नमः अर्घ्यं ॥४०॥ पूर्ण रूप निज लक्ष्मी, पाई श्री जिनराय। परम श्रेय परमातमा, बन्दूं शिवसुख साज॥ . ॐ ह्रीं अहँ जिनवर्याय नमः अर्घ्यं ॥४१॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६] .. श्री सिद्धचक्र विधान निरभय हो निर आश्रयी, नि:संगी निर्बन्ध। निज साधन साधक सुगुन, परसों नहिं सम्बन्ध॥ ___ॐ ह्रीं अहँ जिमनि:संगाय नमः अर्घ्यं ॥४२॥ अन्तराय विधि नाशकैं, निजानन्द भयो प्राप्त । सन्त नमैं करजोर युग, भव-दुःख करो समाप्त ॥ ह्रीं अहँ जिनोद्वाहाय नमः अर्घ्यं ॥४३॥ .. शिवमारग में धरत हो, जग मारगतें काढ़। धर्मधुरन्धर मैं नमू, पाऊँ भव वन बाढ़॥ ॐ ह्रीं अहँ जिनवृषभाय नमः अर्घ्यं ॥४४॥ धर्मनाथ धर्मेश हो, धर्म तीर्थ करतार। . रहो सु थिर निज़ धर्म में, मैं बन्दूं सुखंकार। ॐ ह्रीं अहँ जिनधर्माय नमः अर्घ्यं ॥४५॥ जगत जीव विधि धूलि सों, लिप्त न लहैं प्रभाव। रत्नराशिसम तुम दिपो, निर्मल सहज सुभाव॥ . ॐ ह्रीं अहँ जिनरत्नाय नमः अर्घ्यं ॥४६॥ तीन लोक के शिखर पर, राजत हो विख्यात। तुमसम और न जगत् ममें, बड़ा कोई दिखलात॥ ॐ ह्रीं अहँ जिनौरसे नमः अर्घ्यं ॥४७॥ इन्द्रिय मन व्यापार बहु, मोह शत्रु को जीत। लहो जिनेश्वर सिद्धपद, तीन लोक के मीत॥ ॐ ह्रीं अहँ जिनेशाय नमः अर्घ्यं ॥४८॥ . चारि घातिया कर्म को, नाश कियो जिनराय। घाति अधाति विनाश जिन, अग्र भये सुखदाय॥ ॐ ह्रीं अर्ह जिनाग्राय नमः अर्घ्यं ॥४९॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान . . [२०७ निज पौरुष कर साधियो, निज पुरुषारथ सार। अन्य सहाय नहीं चहैं, सिद्ध सु वीर्य अपार॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ जिनशार्दूलाय नमः अर्घ्यं ॥५०॥ इन्द्रादिक नित ध्यावते, तुम सम और न कोय। तीन लोक चूडामणी, नमूं सिद्ध सुख होय॥ ॐ ह्रीं अर्ह जिनपुङ्गवाय नमः अर्घ्यं ॥५१॥ निजानन्द पद को लहो, अविरोधी मल नास। समकित बिन तिहुँलोक में, और नहीं सुखरास॥ _ॐ ह्रीं अहँ जिनप्रवेशाय नमः अर्घ्यं ॥५२॥ जगत् शत्रु को जीति के, कल्पित जिन कहलाय। मोहशत्रु जीते सु जिन, उत्तम सिद्ध सुखाय॥ ॐ ह्रीं अहँ जिनहंसाय नमः अर्घ्यं ॥५३॥ द्रव्य भाव दोनों नहीं, उत्तम शिवसुख लीन। मन-वच-तन करि मैं नमू, निजसमभविजुकीन॥ . ॐ ह्रीं अहँ जिनोत्तमसुखधारकाय नमः अर्घ्यं ॥५४॥ चार संघ नायक प्रभू, शिवमग सुलभ कराय। तारण तरण जहाज के, मैं बन्दूं शिवराय॥ . ॐ ह्रीं अहँ जिननायकाय नमः अर्घ्यं ॥५५॥ स्वयं बुद्ध शिवमार्ग में, आप चले अनिवार। भविजन अग्रेश्वर भये, बन्दूं भक्ति विचार ॥ ॐ ह्रीं अहँ जिनाग्रिमाय नमः अर्घ्यं ॥५६॥ । शिवमारग के चिह्न हो, सुखसागर की पाल। शिवपुर के तुम हो धनी, धर्म नागर प्रतिपाल॥ ॐ ह्रीं अर्ह जिनाग्रमिण्यै नमः अर्घ्यं ५७ ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८] श्री सिद्धचक्र विधान तुम सम और न जगत् मैं, उत्तम श्रेष्ठ कहाय। आप तिरै भवि तार दें, बन्दूं तिन के पाय॥ ____ॐ ह्रीं अहँ जिनसत्तमाय नमः अर्घ्यं ॥५८॥ स्वपर कल्याणक हो प्रभू, पञ्चकल्याणक ईश। श्रीपति शिवशङ्कर नमूं, चरणाम्बुज धरि शीश॥ ॐ ह्रीं अहँ जिनप्रभवाय नमः अर्घ्यं ॥५९॥ मोह महाबल दलमली, विजय लक्ष्मीनाथ। परमज्योति शिवपद लहो, चरण नमूं धरि माथ॥ ॐ ह्रीं अर्ह परमजिनाय नमः अर्घ्यं ॥६०॥ चहुँ गति दुःख विनाशिया, पूरा निज पुरुषार्थ। नमूं सिद्ध कर जोरिकैं, पाऊँ मैं सर्वार्थ ॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ जिनचहुँगतिदुःखान्तकाय नमः अयं ॥६१॥ जीते कर्म निकृष्ट को, श्रेष्ठ भये जिनदेव। तुमसम और न जगत् में, बन्दूं मैं तिन भेव॥ ॐ ह्रीं अहँ जिनश्रेष्ठाय नमः अयं ॥२॥ आप मोक्ष मग साधियो, औरन सुलभ कराय। आदि पुरुष तुम जगत् में, धर्म रीति वरताय॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ जिनज्येष्ठाय नमः अयं ॥६३ ॥ मुख्य पुरुषारथ मोक्ष है, साधत सुखिया होय। मैं बन्दूं तिन भक्ति कर, सिद्ध कहावें सोय॥ ॐ ह्रीं अहँ जिनमुखाय नमः अयं ॥६४॥ . सुरपत सम अग्रेस हो, निज पर भासनहार। आप तिरें भवि तारियो, बन्दूं योग सम्भार॥ - ॐ ह्रीं अहँ जिनाग्राय नमः अयं ॥६५॥ ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२०९ रागादिक रिपु जीत तुम, श्री जिन नाम धराय। सिद्ध भये कर जोरि के, बन्दूं तिनके पाय॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ श्री जिनाय नमः अयं ॥६६॥ विषय कषाय न लेश है, दृष्टि ज्ञान परिपूर्ण। उत्तम जिन शिवपद लियो, नमत कर्म को चूर्ण॥ ह्रीं अहं जिनोत्तमाय नमः अयं ॥६७॥ चहुँ प्रकार के देवता, नित्य नमावत शीश। तुम देवन के देव हो, नमूं सिद्ध जगदीश॥ - ॐ ह्रीं अहं जिनवृन्दारकाय नमः अर्घ्यं ॥६८॥ जो निज सुख होने न दे, सो सत रिपु है जोय। ऐसे रिपु की जीत के, नमूं सिद्ध जो होय॥ ..... ॐ हीं अहं अरिजिते नमः अयं ॥६९॥ अविनासी अविकार हो, अचल रूप विख्यात। जामें विघ्न न लेश है, नमूं सिद्ध कहलात॥ . ॐ ह्रीं अहं निर्विघ्नाय नमः अयं ॥७० ॥ राग दोष मद मोह अरु, ज्ञानावरण नशाय। शुद्ध निरञ्जन सिद्ध हैं, बन्दूँ तिनके पाय॥ . . ॐ ह्रीं अहँ विरजसे नमः अर्घ्यं ॥१॥ मत्सर भाव दुःखी करत, निजानन्द को घात। सो तुम नाशो छिनक में, सम सुखिया कहलात॥ ॐ ह्रीं अहं निरस्तमत्सराय नमः अर्घ्यं ॥७२॥ । परकृत भाव न लेश हैं, भेद कह्यो नहिं जाय। विनन अगोचर शुद्ध हैं, सिद्ध महा सुखदाय॥ ॐ ह्रीं अर्ह शुद्धाय नमः अयं ॥७३॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०] श्री सिद्धचक्र विधान रागादिक मल बिन दिपो, शुद्ध सुवर्ण समान। शुद्ध निरञ्जन पद लियो, नमूं चरण धरि ध्यान॥ ॐ ह्रीं अहं निरञ्जनाय नमः अयं ॥४॥ द्रव्य भाव दो विधि करम, नाशि भये शिवराय। बन्दूँ मन-वच-काय कर, भविजन को सुखदाय॥ ॐ ह्रीं अर्ह कर्मघ्नाय नमः अयं ॥७५ ॥ ज्ञानावरणी आदि ले, चार घातिया कर्म। तिनको अन्त खिपाई के, लियो मोक्षपद पर्म॥ ॐ ह्रीं अहँ घातिकर्मान्तकाय नमः अयं ॥७६॥ . ज्ञानावरणी पटल बिन, ज्ञान दीप्ति परकाश। शुद्ध सिद्ध परमातमा, बन्दत भवदुःख नाश॥ ॐ ह्रीं अहं जिनदीप्तये नमः अयं ॥१७॥ कर्म रुलावे आत्मा, रागादिक उपजाय। तिनको कर्म विनाशकैं, सिद्ध भये सुखदाय॥ . ॐ ह्रीं अहँ कर्ममर्मभिदे नमः अर्घ्यं ॥७८॥ पाप कलाप न लेश हैं, शुद्धाशुद्ध विख्यात। मुनि मन मोहन रूप हैं, नमूं जोरि जुग हाथ॥ -ॐ ह्रीं अहँ अनुदयाय नमः अर्घ्यं ॥७९॥ राग नहीं थुतिकारसों, निन्दकसों नहीं द्वेष। सम सुखिया आनन्द घन, बन्दूं सिद्ध हमेश॥ ॐ ह्रीं अहँ वीतरागाय नमः अयं ॥८॥ क्षुधा वेदनी नाशकर, स्व सुख भुञ्जनहार। निजानन्द सन्तुष्ट हैं, बन्दूं भाव विचार ॥ ॐ ह्रीं अहँ अक्षुधाय नमः अयं ॥८१ ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२११ . एक दृष्टि सब को लखें, इष्ट-अनिष्ट न कोय। - द्वेष अंग व्यापै नहीं, सिद्ध कहावत सोय॥ ॐ ह्रीं अहँ जिनद्वेषाय नमः अयं ॥२॥ भवसागर के तीर हैं, शिवपुर के हैं राहि। मिथ्यातमहर सूर्य हैं, मैं बन्दूं हूँ ताहि ॥ ॐ ह्रीं अहं निर्मोहाय नमः अयं ॥३॥ जग जनमें हम दोष हैं, सुखी दुःखी बहु भेव। ते सब दोष निवारियो, उत्तम हो स्वयमेव॥ ॐ ह्रीं अहं निर्दोषाय नमः अयं ॥४४॥ जन्म-मरण यह रोग हैं, तिनको कठिन इलाज। परमौषध यह रोग की, बन्दूं मेटन काज॥ . ॐ ह्रीं अहँ अङ्गदाय नमः अयं ॥८५॥ राग कहो ममता कहो, मोह कर्म सों होय। ... सो जिन मोह विनाशियो, नमूं सिद्ध हैं सोय॥ ॐ ह्रीं अहं निर्ममत्वाय नमः अयं ॥८६॥ तृष्णा दुःख को मूल है, सुखी भये तिस नाश। मन-वच-तन करि मैं नमू, हैं आनन्द विलास॥ - ॐ ह्रीं अर्ह वीततृष्णाय नमः अर्घ्यं ॥८७॥ अन्तर बाह्य निरिच्छ हैं, एकी रूप अनूप। निस्पृह परमेश्वर नमू, निजानन्द शिवभूप॥ ... . ॐ ह्रीं अर्ह असङ्गाय नमः अध्यं ॥८॥ क्षायिक समकित को धरै, निर्भय थिरता रूप। निजानन्दसों नहिं चिगें, मैं बन्दू शिवभूप॥ ॐ ह्रीं अर्ह निर्भयाय नमः अयं ॥८९॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] . श्री सिद्धचक्र विधान स्वप्न प्रमादी जीव के, अल्प-शक्ति सो होय। निज बल अतुल महा धरै, सिद्ध कहावैं सोय॥ ॐ ह्रीं अर्ह अस्वप्नाय नमः अर्घ्यं ॥१०॥ दर्श ज्ञान सुख भोगते, खेद न रञ्चक होय। ' सो अनन्त बल के धनी, सिद्ध नमामी सोय॥ ॐ ह्रीं अहँ निःश्रमाय नमः अयं ॥९१॥ युगपत सब प्रापत भये, जानत हैं सब भेव। संशय बिन आश्चर्य नहीं, नमूं सिद्ध स्वयमेव॥ ॐ ह्रीं अर्ह वीतविस्मयाय नमः अर्घ्यं ॥९२॥ सिद्ध सनातन कालतें, जग में हैं परसिद्ध। तथा जन्म जर नहीं धरै, नमूं जोरि करसिद्ध ॥ ॐ ह्रीं अहँ अजन्मने नमः अर्घ्यं ॥९३ ॥ भ्रम,विन ज्ञान प्रकाश में, भासै जीव अजीव। संशय विन निश्चल सुखी, बन्दूं सिद्ध सदीव॥ . ॐ ह्रीं अहँ निःसंशयाय नमः अर्घ्यं ॥१४॥ तुम पूरण परमातमा, सदा रहो इक सार। जरा न व्यापै तुम विर्षे, नमूं सिद्ध अविकार॥ ॐ ह्रीं अहं निर्जराय नमः अयं ॥१५॥ तुम पूरण परमातमा, अन्त कभी नहिं होय। मरण रहित वन्दूं सदा, देउ अमर पद सोय॥ ॐ ह्रीं अहँ अमराय नमः अयं ॥९६॥. निजानन्द के भोग में, कभी न आरत आय। यातें तुम अरतीत हो, बन्दूं सिद्ध सुहाय॥ ॐ ह्रीं अहँ अरत्यतोताय नमः अर्घ्यं ॥१७॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [ २१३ होत नहीं सोच न कभुं ज्ञान धेरै परतक्ष । नमूं सिद्ध परमातमा, पाऊँ ज्ञान अलक्ष ॥ ॐ ह्रीं अर्हं निश्चिताय नमः अर्घ्यं ॥ ९८ ॥ जानत हैं सब ज्ञेयको, पर ज्ञेयन्तै भिन्न । तातें निर्विषयी कहे, लेश न भोगें अन्य ॥ ॐ ह्रीं अर्हं निर्विषयाय नमः अर्घ्यं ॥ ९९ ॥ अहंकार आदिक त्रिषट्, तुम पद निवसैं नाहिं । सिद्ध भये परमात्मा, मैं बन्दू हूँ ताहिं ॥ ॐ ह्रीं अर्हं त्रिषष्ठिजिते नमः अर्घ्यं ॥१००॥ जेते गुण परजाय है, द्रव्य अनन्त सुकाल । तिनको तुम जानो प्रभू, बन्दूं मैं नमि भाल ॥ ॐ ह्रीं अर्हं सर्वज्ञाय नमः अर्घ्यं ॥ १०१ ॥ ज्ञान आरसी तुम विषै, झलकें ज्ञेय अनन्त । सिद्ध भये तिनको नमें, तीनों काल सु सन्त ॥ • ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविदे नमः अर्घ्यं ॥ १०२ ॥ चक्षु अचक्षु न भेद हैं, समदर्शी भगवान । नमूं सिद्ध परमातमा, तीनों योग प्रधान ॥ ॐ ह्रीं अर्हं सर्वदर्शिवे नमः अर्घ्यं ॥ १०३ ॥ देखन कछु बाकी नहीं, तीनों काल मझार । सर्वालोकी सिद्ध हैं, नमूं त्रियोग सम्हार ॥ ॐ ह्रीं अर्हं सर्वावलोकाय नमः अर्घ्यं ॥ १०४ ॥ तुम सम पराक्रम और सब, जगवासी में नाहिं । निजबल शिवपद साधियों, मैं बन्दू हूँ ताहि ॥ ॐ ह्रीं अर्हं अनन्तविक्रमाय नमः अर्घ्यं ॥ १०५ ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४] श्री सिद्धचक्र विधान निजसुख भोगत नहीं चिगें, वीर्य अनन्त धराय। तुम अनन्त बल के धनी, बन्दूं मन-वच-काय॥ ॐ ह्रीं अहँ अनन्तवीर्याय नमः अर्घ्यं ॥१०६॥ सुखाभास जग जीव के, पर निमित्त से होय। निज आश्रय पूरण सुखी, सिद्ध कहावैं सोय॥ _ ॐ ह्रीं अहँ अनन्तसुखाय नमः अर्घ्यं ॥१०७॥ . निज सुख में सुख होत है, परसुख में सुख नाहिं। सो तुम निज सुख के धनी, मैं बन्दूं हूँ ताहि ॥ ह्रीं अहँ अनन्तसौख्याय नमः अर्घ्यं ॥१०८॥ तीनलोक तिहुँकालके धनी, गुणपर्ययकछु नाहिं। जाको तुम जानो नहीं, ज्ञान भानु के माहिं॥ ॐ ह्रीं अहँ विश्वज्ञानाय नमः अर्घ्यं १०९॥ द्रव्य तथा गुण पर्य को, देखें एकीबार। विश्व दर्श तुम नाम है, बन्दों भक्ति विचार ॥ ॐ ह्रीं अहँ विश्वदर्शिने नमः अर्घ्यं ॥११०॥ सम्पूरण अवलोकतें, दर्शन धरो अपार । नमूं सिद्ध कर जोरिके, करो जगत सै पार॥ ॐ ह्रीं अहँ अखिलार्थदर्शिने नमः अर्घ्यं ॥१११ ॥ इन्द्रिय ज्ञान परोक्ष है, क्रमवर्ती कहलाय। बिन इन्द्रिय प्रत्यक्ष है, धरो ज्ञान सुखदाय॥ ॐ ह्रीं अहँ निअक्षदृशे नमः अर्घ्यं ॥११२॥ विश्व मांहि तुम अर्थ सब, देखों एकीबार। विश्व चक्षु तुम नाम है, बन्दूं भक्ति विचार॥ ॐ ह्रीं अहँ विश्वचक्षुषे नमः अर्घ्यं ॥११३ ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२१५ तीन लोक के अर्थ जे, बाकी रहे न शेष। . युगपत तुम सब जानियो, गुण पर्याय विशेष ॥ ॐ ह्रीं अर्ह अशेषविदे नमः अर्घ्यं ॥११४॥ पराधीन अरु विघ्न बिन, है साँचा आनन्द। सो शिवगति में तुम लियो, मैं बन्दू सुखकन्द॥ ॐ ह्रीं अहँ आनन्दाय नमः अयं ॥११५॥ सत प्रशंसता नित्य है, या सद्भाव सरूप। सो तुम में आनन्द है, बन्दत हूँ शिवभूप॥ ह्रीं अर्ह सदानन्दाय नमः अर्घ्यं ॥११६॥ उदय महा सत् रूप है, जामें असत् न होय। अन्तराय अरु विघन बिन, सत्य उदै है सोय॥ ____ॐ ह्रीं अहं सदोदयाय नमः अर्घ्यं ॥११७॥ नित्यानन्द महासुखी, हीनाधिक नहीं होय। नहीं गत्यन्तर रूप हो, शिवगति में है सोय॥ ॐ ह्रीं अहँ नित्यानन्दाय नमः अर्घ्यं ॥११८॥ जासों परे न और सुख, अहमिन्द्रन में नाहिं। सोई श्रेष्ठ सुख भोगते, बन्दूं हूँ मैं ताहि॥ ____ॐ ह्रीं अहँ परमआनन्दाय नमः अर्घ्यं ॥११९॥ पूरण सुख की हद धरै, सो महान आनन्द। . सो तुम पायो शिव-धनी, बन्दूं पद अरविन्द ॥ _ॐ ह्रीं अहँ महानन्दाय नमः अर्घ्यं ॥१२०॥ उत्तम सुख स्वाधीन है, परम नाम कहलाय। चारों गति में सो नहीं, तुम पायो सुखदाय॥ ॐ ह्रीं अर्ह परमानन्दाय नमः अर्घ्यं ॥१२१ ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६] श्री सिद्धचक्र विधान जामें विघन न लेश है, उदय तेज विज्ञान। जाको हम जानत नहीं, सुलभ रूप विधि दान॥ ॐ ह्रीं अहँ परोदयाय नमः अध्यं ॥१२२॥ परम शक्ति परमातमा, पर सहाय बिन आप। स्वयं वीर्य आनन्द के, नमत कटैं सब पाप॥ ॐ ह्रीं अहँ परमौजसे नमः अयं ॥१२३॥ महातेज के पुञ्ज हो, अविनाशी अविकार। झलकत ज्ञानाकार सब, दर्पणवत आधार ॥ ॐ ह्रीं अहँ परमतेजसे नमः अर्घ्यं ॥१२४॥ परम धाम उत्कृष्ट पद, मोक्ष नाम कहलाय। जासों फिर आवत नहीं, जन्म-मरण नसि जाय॥ ॐ ह्रीं अहँ परमधाम्ने नमः अर्घ्यं ॥१२५ ॥ जगत गुरु परमातमा, जगत सूर्य शिव नाम। परम हंस योगीश हैं, लियो मोक्ष अभिराम॥ ॐ ह्रीं अहँ परमहंसाय नमः अर्घ्यं ॥१२६ ॥ दिव्य ज्योति स्वज्ञान में, तीन लोक प्रतिभास। शङ्का बिन विश्वासकर, निजपर कियो प्रकाश॥ ॐ ह्रीं अहँ प्रत्यक्षज्ञात्रे नमः अयं ॥१२७॥ निज विज्ञान सु ज्योति में, संशय आदिक नाहिं। सो तुम सहज प्रकाशियो, मैं बदूं हूँ ताहि॥ ॐ ह्रीं अहँ ज्योतिषे नमः अयं ॥१२८॥ शुद्ध बुद्ध परमातमा, परम ब्रह्म कहलाय। सर्व लोक उत्कृष्ट पद, पायो बन्दूं ताय॥ ॐ ह्रीं अहँ परमब्रह्मणे नमः अर्घ्यं ॥१२९॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२१७ चार ज्ञान नहीं जास में, शुद्ध सरूप अनूप। पर को नाहिं प्रवेश है, एकाकी शिवरूप॥ ॐ ह्रीं अहँ परमरहसे नमः अर्घ्यं ॥१३०॥ निज गुण द्रव्य पर्याय में, भिन्न-भिन्न सब रूप। एक क्षेत्र अवगाह करि, राजत हैं चिद्रूप॥ ॐ ह्रीं अहँ प्रत्यगात्मने नमः अर्घ्यं ॥१३१॥ शुद्ध बुद्ध परमातमा, निज विज्ञान प्रकाश। स्व आतम के बोधतें, कियो कर्म को नाश॥ ह्रीं अहँ प्रबोधात्मने नमः अर्घ्यं ॥१३२॥ कर्म मैल से लिप्त हैं, जगति आत्म दिन रैन। कर्म नाश महापद लियो, बन्दूं हूँ सुख दैन। ॐ ह्रीं अर्ह महात्मने नमः अर्घ्यं ॥१३३॥ आतम को गुण ज्ञान है, यही यथारथ होय। ज्ञानानन्द ऐश्वर्यता, उदय भयो है सोय॥ ॐ ह्रीं अर्ह आत्ममहोदयाय नमः अर्घ्यं ॥१३४॥ दर्श ज्ञान सुख वीर्य को, पाय परम पद होय। - सो परमातम तुम भये, नमूं जोर कर दोय॥ ॐ ह्रीं अहँ परमात्मने नमः अर्घ्यं ॥१३५ ॥ - मोहकर्म के नाशतें, शान्ति भये सुखदेन। क्षोभरहित परशान्त हो, शान्त नमूं सुखलेन॥ . ॐ ह्रीं अर्जी प्रशांतात्मने नमः अर्घ्यं ॥१३६ ॥ पूरण पद तुम पाइयो, यातै परे न कोय। तुम समान नहीं और हैं, बन्दूं हूँ पद दोय॥ ॐ ह्रीं अहँ परमात्मने नमः अर्घ्यं ॥१३७ ॥ . Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] श्री सिद्धचक्र विधान पुद्गल कृत तन छारकै निज आतम में वास। स्वै प्रदेश ग्रह के वि, नितही करत विलास॥ ___ॐ ह्रीं अहँ आत्मनिकेताय नमः अर्घ्यं ॥१३८॥ औरन को नित देत हैं, शिवसुख भोगैं आप। परम इष्ट तुम हो सदा, निजसम करत मिलाप॥ ॐ ह्रीं अर्ह परमेष्ठिने नमः अयं ॥१३९॥ मोक्ष लक्ष्मी नाथ हो, भक्तन प्रति नित देत। महा इष्ट कहलात हो, बन्दूं शिवसुख हेत॥ ॐ ह्रीं अहँ महितात्मने नमः अर्घ्यं ॥१४०॥ रागादिक मल नासिक, श्रेष्ठ भये जगमाहिं। सो उपासना करण को, तुम सम कोई नाहिं॥ ॐ ह्रीं अहँ श्रेष्ठात्मने नमः अर्घ्यं ॥१४१॥ पर में ममत विनाशकैं, स्व आतम थिर धार। पर विकल्प-संकल्प बिन, तिष्ठो सुख आधार॥ ॐ ह्रीं अहँ स्वात्मनिष्ठताय नमः अर्घ्यं ॥१४२ ॥ स्व आतम में मग्न हैं, स्व आतम लवलीन। पर में भ्रमण करै नहीं, सन्त चरण शिर दीन॥ ॐ ह्रीं अहं ब्रह्मनिष्ठाय नम: अर्घ्यं ॥१४३॥ तीन लोक के नाथ हो, इन्द्रिय कर पूज। तुम सम और महानता, नहिं धारत हैं दूज॥ ॐ ह्रीं अहँ महाजेष्ठाय नमः अर्घ्यं ॥१४४॥ तीन लोक परसिद्ध हो, सिद्ध तुम्हारा नाम। सर्व सिद्धता ईश हो, पूरहु सब के काम॥ ॐ ह्रीं अहँ निरूढात्मने नमः अर्घ्यं ॥१४५ ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... श्री सिद्धचक्र विधान [२१९ स्वै आतम थिरता धरै, नहीं चलाचल होय। निश्चल परम सुभाव में, भये प्रकृति को खोय॥ ____ॐ ह्रीं अर्ह दृढ़ात्मने नमः अर्घ्यं ॥१४६ ॥ क्षयोपशम नानाविधै, क्षायक एक प्रकार। सो तुम में नहीं और में, बन्दूं योग सम्भार॥ ह्रीं अहँ एकविद्याय नमः अयं ॥१४७ ॥ कर्म पटल के नाशतें, निर्मल ज्ञान उदार। तुम महान विद्या धरो, बन्दूँ भाव सम्भार॥ __ॐ ह्रीं अहँ महाविद्याय नमः अर्घ्यं ॥१४८॥ परम पूज्य परमेश पद, पूरण ब्रह्म कहाय। पायो सहज महान पद, बन्दूँ तिनके पाय॥ .... ॐ ह्रीं अहँ महापदेश्वराय नमः अर्घ्यं ॥१४९॥ पञ्च परम पद पाइयो, ब्रह्म नाम है एक। पूर्जे मन-वच-काय करि, नाशैं विघन अनेक॥ ॐ ह्रीं अहँ पञ्चब्रह्मणे नमः अर्घ्यं ॥१५० ॥ निज विभूति सर्वस्व तुम, पायो सहज सुभाय। हीनाधिक बिन बिलसते, बन्दूँ ध्यान लगाय॥ .. ॐ ह्रीं अहँ सर्वध्यानाय नमः अयं ॥१५१ ॥ पूरण पण्डित ईश हो, बुद्ध धाम अभिराम। बन्दूँ मन-वच-काय करि, पाऊँ मोक्ष सुधाम॥ ... ॐ ह्रीं अहँ सर्वविद्येश्वराय नमः अर्घ्यं ॥१५२ ॥ मोह कर्म चकचूरतें, स्वाभाविक शुभ चाल। शुद्ध परिणाम धरै सदा, बन्दूं नित नमि भाल॥ ____ ॐ ह्रीं अर्ह शुचये नमः अर्घ्यं ॥१५३ ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०] श्री सिद्धचक्र विधान ज्ञान दर्श आवर्ण बिन, दिपो अनन्ताऽनन्त। सकल ज्ञेय प्रतिभास हैं, तुम्हें नमैं नित सन्त॥ ___ॐ ह्रीं अहँ अनन्तधिये नमः अयं ॥१५४॥ इक-इक गुण प्रति छेद को, पार न पायो जाय। सो गुण रास अनन्त हैं, बन्दूं तिनके पाय॥ ॐ ह्रीं अहँ अनन्तात्मने नमः अर्घ्यं ॥१५५॥ अहमिन्द्रन की शक्ति जो, करो अनन्ती रास। सो तुम शक्ति अनंत गुण, करै अनंत प्रकाश॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ अनन्तशक्तये नमः अर्घ्यं ॥१५६॥ छायक दर्शन जोति में, निरावरण परकास। सो अनंत द्रग तुम धरौ, नमैं चरण नित दास॥ ॐ ह्रीं अर्ह अनन्तदृगे नमः अर्घ्यं ॥१५७॥ जाकी शक्ति अपार है, हेतु अहेतु प्रसिद्ध। गणधरादि जानत नहीं, मैं बन्दूं नित सिद्ध॥ . ॐ ह्रीं अहँ अनन्तधीशक्तये नमः अर्घ्यं ॥१५८॥ चेतन शक्ति अनन्त है, निरावरण जो होय। सो तुम पायो सहज ही, कर्म पुञ्ज को खोय॥ ॐ ह्रीं अहँ अनन्तचिदे नमः अर्घ्यं ॥१५९॥ जो सुख है निज आश्रये, सो सुख पर में नाहिं। निजानन्द रस लीन हैं, मैं बन्दूं हूँ ताहि॥ ॐ ह्रीं अहँ अनन्तमुदे नमः अर्घ्यं ॥१६०॥ जाकै कर्म लिपैं न फिर, दिपैं सदा निरधार। सदा प्रकाश जु सहित हैं, बन्दूं योग सम्हार॥ ॐ ह्रीं अहँ सदाप्रकाशाय नमः अर्घ्यं ॥१६१ ॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२२१ निजानन्द के माहि हैं, सर्व अर्थ परसिद्ध । सो तुम पायो सहज ही, नमत मिलें नवनिद्ध। ___ॐ ह्रीं अहं सर्वार्थसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१६२॥ अति सूक्ष्म जे अर्थ हैं, काय अकाय कहाय। साक्षात् सब को लखो, बन्दूं तिनके पाँय॥ ____ ॐ ह्रीं अहँ साक्षात्कारिणे नमः अर्घ्यं ॥१६३ ॥ सकल गुणनमय द्रव्य हो, शुद्ध सुभाव प्रकाश। तुम समान नहीं दूसरो, बन्दत पूरें आस॥ __ॐ ह्रीं अहँ समग्रर्द्धये नमः अर्घ्यं ॥१६४॥ सर्व कर्म को छीन करि, जरी जेवरी सार। सो तुम धूलि उडाइयो, बन्दूं भक्ति विचार ॥ . ॐ ह्रीं अहँ कर्मक्षीणाय नमः अर्घ्यं ॥१६५ ॥ चहुँ गति जगत कहावत हैं, ताको करि विध्वंश। अमर अचल शिवपुर बसें, भर्म न राखो अंश। ॐ ह्रीं अहँ जगद्विध्वंसिने नमः अर्घ्यं ॥१६६॥ इन्द्री मन व्यापार में, जाको नहिं अधिकार। सो अलक्ष आतम प्रभू, होउ सुमति दातार॥ ॐ ह्रीं अहँ अलक्षात्मने नमः अर्घ्यं ॥१६७॥ नहीं चलाचल अचल हैं, नहीं भ्रमण थिर धार। सो शिवपुर में बसत हैं, बन्दूं भक्ति विचार ॥ ॐ ह्रीं अहँ अचलस्थानाय नमः अर्घ्यं ॥१६८ ॥ पर कृत निमत बिगाड है, सोई दुविधा जान। सो तुम में नहीं लेश है, निराबाध परणाम॥ ॐ ह्रीं अहं निराबाधाय नमः अर्घ्यं ॥१६९ ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२] श्री सिद्धचक्र विधान जैसे हो तुम आदि में, सोई हो तुम अन्त। एक भाँति निवसो सदा, बन्दत हैं नित सन्त॥ ह्रीं अहँ प्रतात्मने नमः अयं ॥१७० ॥ धर्मनाथ जगदीश हो, सुर मुनि मानें आन। मिथ्यामत नहीं चलत हैं, तुम आगे परमाण॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ धर्मचक्रिणे नमः अयं ॥१७१॥ ज्ञान शक्ति उत्कृष्ट है, धर्म सर्व तिस माहि। श्रेष्ठ ज्ञान तुम पुञ्ज हो, पर निमित्त कछु नाहिं। ॐ ह्रीं अहँ चिदांबराय नमः अर्घ्यं ॥१७२॥ . निज अभावसों मुक्त हो, कहैं कुवादी लोग। भूतात्मा सो मुक्त हैं, सो तुम पायों जोग॥ ॐ ह्रीं अर्ह भूतात्मने नमः अयं ॥१७३ ॥ सहज सुभाव प्रकाशियो, पर निमित्त कछु नाहिं। सो तुम पायो सुलभतें, स्व सुभाव के मांहि ॥ . ॐ ह्रीं अहँ सहजज्योतिषे नमः अर्घ्यं ॥१७४॥ विश्व नाम तिहुँलोक में, तिसमें करत प्रकाश। विश्व ज्योति कहलात हैं, नमत मोह तम नाश॥ ॐ ह्रीं अहँ विश्वज्योतिषे नमः अयं ॥१७५॥ परस आदि पन इन्द्रियाँ, द्वार ज्ञान कछु नाहिं। यातें अति इन्द्रिय कहो, जिन-सिद्धांत के मांहि ॥ ॐ ह्रीं अहँ अतींद्रियाय नमः अर्घ्यं ॥१७६ ॥ एक मान असहाय हो, शुद्ध बुद्ध निर अंश। केवल तुम को धर्म है, नमें तुम्हें नित संत॥ ॐ ह्रीं अहँ केवलाय नमः अर्घ्यं ॥१७७॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२२३ लौकिक जन या लोक में, तुम सारूँ गुण नाहिं। केवल तुम ही मैं बसैं, मैं बन्दूं हूँ ताहि ॥ ॐ ह्रीं अहँ केवलावलोकाय नमः अर्घ्यं ॥१७८॥ लोक अनन्त कहो सही, तातें नन्तानन्त। है अलोक अवलोकियो, तुम्हें नमें नित सन्त॥ ___ॐ ह्रीं अहँ लोकालोकावलोकाय नमः अर्घ्यं ॥१७९ ॥ ज्ञान द्वार निज शक्ति हो, फैलो लोकालोक। भिन्न-भिन्न सब जानियो, नमूं चरण दे धोक॥ ॐ ह्रीं अहँ विवृताय नमः अर्घ्यं ॥१८०॥ बिन सहाय निज शक्ति हो, प्रगटो आपोआप। स्व बुद्ध स्व सिद्ध हो, नमत नसैं सब पाप॥ ... ॐ ह्रीं अहँ केवलावलोकाय नमः अर्घ्यं ॥१८१॥ सूक्षम सुभग सुभावतें, मन इन्द्री नहीं ज्ञात। वचन अगोचर गुण धरै, नमूं चरन दिन-रात ॥ ॐ ह्रीं अर्ह अव्यक्ताय नमः अर्घ्यं ॥१८२॥ कर्म उदय दुःख भोगवैं, सर्व जीव संसार। तिन सब को तुमही शरण, देहो सुक्ख अपार॥ - ॐ ह्रीं अहं सर्वशरणाय नमः अर्घ्यं ॥१८३॥ चिन्तवन में आवें नहीं, पार न पावे कोय। महा विभव के हो धनी, नमूं जोर कर दोय॥ ह्रीं अहँ अचित्यविभवाय नमः अर्घ्यं ॥१८४॥ छहों काय के वास को, विश्व कहैं सब लोक। तिनके थम्भनहार हो, राज काज के जोग॥ ॐ ह्रीं अहँ विश्वभूते नमः अर्घ्यं ॥१८५ ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२२९........ NEELINI......... घट-घट में राजो सदा, ज्ञान द्वार सब ठौर। विश्व रूप जीवात्म हो, तीनलोक सिरमौर॥ ॐ ह्रीं अहं विश्वरूपात्मने नमः अर्घ्यं ॥१८६ ॥ घट-घट में नित व्याप्त हो, ज्यों घर दीपक जोति। विश्वनाथ तुम नाश है, पूजत शिवसुख होत॥ ॐ ह्रीं अहँ विश्वात्मने नमः अयं ॥१८७॥ इन्द्रादिक जे विश्वपति, तुम पद पू0 आन। यातें मुखिया हो सही, मैं पूनँ धरि ध्यान॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ विश्वतोमुखाय नमः अर्घ्यं ॥१८८॥ ज्ञान द्वार सब जगत में, व्यापि रहे भगवान। . विश्व व्यापि मुनि कहत हैं, ज्यूँ नभ में शशि भान॥ ___ॐ ह्रीं अहँ विश्वव्यापिने नमः अर्घ्यं ॥१८९॥ निरावरण निरलेप हैं, तेज रूप विख्यात। ज्ञान कला पूरण धरै, मैं बन्दूं दिन-रात॥ ॐ ह्रीं अर्ह स्वयंज्योतिषे नमः अर्घ्यं ॥१९०॥ चिन्तवन में आवें नहीं, धारै सुगुण अपार। मन-वच-काय नमूं सदा, मिटै सकल संसार॥ ॐ ह्रीं अहँ अचिंत्यात्मने नमः अर्घ्यं ॥१९१॥ नय प्रमाण को गमन नहीं, स्वयं ज्योति परकाश। अद्भुत गुण पर्याय में, सुखा करै विलास॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ अमितप्रभाय नमः अर्घ्यं ॥१९२॥ मती आदि क्रमवर्त्ति बिन, केवल लक्ष्मीनाथ। माहबोध तुम नाम है, नमूं पाय धरि माथ॥ ___ॐ ह्रीं अहँ महाबोधाय नमः अर्घ्यं ॥१९३ ॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२२५ कर्मयोग जगत में, जीव शक्ति को नाश। स्वयं वीर्य अद्भुत धरै नमूं चरण सुखरास॥ ___ॐ ह्रीं अहँ महावीर्याय नमः अयं ॥१९४॥ छायक लब्धि महान है, ताको लाभ लहाय। महा लाभ यातें कहैं, बन्दूं तिनके पाँय॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ महालाभाय नमः अयं ॥१९५॥ ज्ञानावरणादिक पटल, छायो आतम ज्योति। ताको नाश भये विमल, दीप्त रूप उद्योत॥ ॐ ह्रीं अर्ह महोदयाय नमः अर्घ्यं ॥१९६॥ ज्ञानानन्द स्व लक्ष्मी, भोगैं बाधाहीन। पञ्चम गति में वास है, नमूं जोग पद लीन॥ ___ॐ ह्रीं अहँ महाभोगसुगतये नमः अयं ॥१९७॥ पर निमित्त जामें नहीं, स्व आनन्द अपार। सोई परमानन्द है, भोगैं निज आधार ॥ . ॐ ह्रीं अहँ महाभोगाय नमः अर्घ्यं ॥१९८॥ दर्श ज्ञान सुख भोगते, नेक न बाधा होय। अतुल वीर्य तुम धरत हो, मैं बन्दूं हूँ सोय॥ ____ॐ ह्रीं अहँ अतुलवीर्याय नमः अयं ॥१९९॥ शिवस्वरूप आनन्दमय, क्रीडा करत विलास। महादेव कहलात हैं, बन्दत रिपुगणनाग॥ ॐ ह्रीं अहँ यज्ञार्हाय नमः अर्घ्यं ॥२०॥ महा भाग शिवगति लहो, तासम भाग न और। सोई भगवत हैं प्रभू, नमूं पदाम्बुज ठौर॥ - ॐ ह्रीं अहँ भगवते नमः अयं ॥२०१॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६] श्री सिद्धचक्र विधान तीन लोक के पूज्य हैं, तीन लोक के स्वामि। कर्म शत्रु को छय कियो, तारौं अरहत नाम॥ ॐ ह्रीं अहं अरहते नमः अर्घ्यं ॥२०२॥ सुरनर पूजत चरण जुग, द्रव्य अर्थ युत भाव। महा अर्थ तुम नाम है, पूजत कर्म अभाव। ह्रीं अहँ महार्थाय नमः अर्घ्यं ॥२०३॥ . शत इन्द्रन करि पूज्य हो, अहमिन्द्रन के ध्येय। द्रव्य भाव करि पूज्य हो, पूजत पूज्य अभेय॥ ___ॐ ह्रीं अहँ मघर्वार्चिताय नमः अर्घ्यं ॥२०४॥ . छहों द्रव्य गुणपर्य को, जानत भेद अनन्त। महापुरुष त्रिभुवन धनी, पूजत हैं नित सन्त॥ ____ॐ ह्रीं अहँ भूतार्थयज्ञपुरुषाय नमः अयं ॥२०५॥ तुमसों कछु छाना नहीं, तीन लोक का भेद। दर्पण तल कम भास है, नमत कर्ममल छेद ॥ __ॐ ह्रीं अहँ भूतार्थयज्ञाय नमः अर्घ्यं ॥२०६॥ सकल ज्ञेय के ज्ञानतें, हो सब के सिरमौर। पुरुषोत्तम तुम नमत हैं, तुम लग सब की दौर ॥ ___ॐ ह्रीं अहँ भूतार्थकृतपुरुषाय नमः अर्घ्यं ॥२०७॥ स्वयं बुद्ध शिवमग चरत, स्वयं बुद्ध अविरुद्ध। शिवमगचारी नित जबँ, पावैं आतम शुद्ध॥ ॐ ह्रीं अहँ पूज्याय नमः अर्घ्यं ॥२०८॥ सब देवन के देव हो, तीन लोक के पूज्य। मिथ्या तिमिर निवारते, सूरज और न दूज॥ ॐ ह्रीं अर्ह भट्टारकाय नमः अर्घ्यं ॥२०९ ॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२२७ सुरनर मुनि के पूज्य हो, तुम से श्रेष्ठ न कोय। तीन लोक के स्वामि हो, पूजत शिवसुख होय॥ ॐ ह्रीं अहँ तत्रभवते नमः अयं ॥२१०॥ महा पूज्य महा मान्य हो, स्वयं बुद्ध अविकार। मन-वच-तन से ध्यावते, सुरनर भक्ति विचार ॥ ॐ ह्रीं अहँ अत्रभवते नमः अर्घ्यं ॥२११॥ महाज्ञान केवल कहो, सो दीखे तुम मांहि । महा नामसों पूजिये, संसारी दुःख नाहिं। ॐ ह्रीं अहँ महते नमः अयं ॥२१२॥ पूज्यपणा नहीं और है, इक तुम ही में जान। महा अहँ तुम गुण प्रभू, पूजत हो कल्याण॥ ॐ ह्रीं अहँ महार्हाय नमः अर्घ्यं ॥२१३॥ अचल शिवालय के विर्षे, अमित काल रहैं राज। चिरंजीवी कहलात हो, ब, शिवसुख काज॥ - ॐ ह्रीं अहँ तत्रायुषे नमः अयं ॥२१४॥ मरण रहित शिवपद लसैं, काल अनन्तानन्त। दीर्घायु तुम नाम है, बन्दत नितप्रति सन्त॥ ॐ ह्रीं अहँ दीर्घायुषे नमः अर्घ्यं ॥२१५ ॥ सकल तत्त्व के अर्थ कहि, निराबाध निरशंस। धर्म मार्ग प्रकटाइयो, नमत मिटै दुःख अंश॥ ... ॐ ह्रीं अहँ अर्थवाचे नमः अर्घ्यं ॥२१६॥ मुनिजन नितप्रति ध्यावते, पावें निज कल्याण। सजन जन आराध्य हो, मैं ध्याऊँ धरि ध्यान॥ ॐ ह्रीं अहँ आराध्याय नमः अर्घ्यं ॥२१७॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८] श्री सिद्धचक्र विधान शिव जाको हैं ध्यावते, पावें सन्त मुनीन्द्र। परमाराध्य कहात हो, पायो नाम अतीन्द्र ॥ ___ॐ ह्रीं अहँ परमाराध्याय नमः अर्घ्यं ॥२१८॥ पञ्चकल्याण प्रसिद्ध हैं, गर्भ आदि निर्वाण। देवन करि पूजत भये, पायो शिवसुख थान॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ पञ्चकल्याणपूजिताय नमः अर्घ्यं ॥२१९॥ देखो लोकालोक को, हस्त रेख की सार। इत्यादिक गुण तुम विर्षे, दीखै उदय अपार॥ ॐ ह्रीं अहँ दर्शनविशुद्धिगुणोदयाय नमः अर्घ्यं ॥२२०॥ छायक समकित को धरै, सौधर्मादिक इन्द्र। तुम पूजन परभावतें, अन्तिम होय जिनेन्द्र॥ ॐ ह्रीं अहँ सुरार्चिताय नमः अर्घ्यं ॥२२१॥ निर्विकल्प शुभ चिह्न है, वीतराग सो होय। सो तुम पायो सहज ही, नमूं जोर कर दोय॥ ॐ ह्रीं अहँ सुखदात्मने नमः अर्घ्यं ॥२२२ ॥ स्वर्ग आदि सुख थान के, हो परकाशन हार। दीप्त रूप बलवान हैं, तुम मारग सुखकार॥ ॐ ह्रीं अहँ दिवौजसे नमः अर्घ्यं ॥२२३॥ गर्भ कल्याणक के विर्षे, तुम माता सुखकार। षट् कुमारिका सेवती, पावें भवदधि पार॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ सचीसेवितमातृकाय नमः अर्घ्यं ॥२२४॥ अति उत्तम तुम गर्भ है, भवदुःख जन्म निवार। रत्नराशि दिवलोकतें, वर्षे मूसलधार ॥ ___ॐ ह्रीं अहँ रत्नगर्भाय नमः अयं ॥२२५ ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [ २२९ सुर शोधनतें गर्भ में, दर्पण सम आकार । यो पवित्र तुम गर्भ हैं, पावैं शिवसुख सार ॥ ॐ ह्रीं अर्हं पूतिगर्भाय नमः अर्घ्यं ॥ २२६ ॥ जाके गर्भागमन तैं, पहले उतसव ठान । दिव्य नार मंगल सहित, पूजत श्रीभगवान ॥ ॐ ह्रीं अर्हं गर्भोत्सवसहिताय नमः अर्घ्यं ॥ २२७ ॥ नित-नित आनन्द उर धेरै, सुर सुरीय हरषात । मंगल साज समाज सब, उपजावैं दिन-रात ॥ ॐ ह्रीं अर्हं नित्योपचारोपचिताय नमः अर्घ्यं ॥ २२८ ॥ केवलज्ञान सुलक्षमी, धरत महा विस्तार | चरणकमल सुर मुनि जजैं, हम पूजत हितधार ॥ ॐ ह्रीं अर्हं पद्मभूवे नमः अर्घ्यं ॥ २२९ ॥ तिहुँ विध विधि मल धोयकर, उज्वल निर्मल होय । शिव आलय में बसत हैं, शुद्ध सिद्ध हैं होय ॥ ॐ ह्रीं अर्हं निष्कलंकाय नमः अर्घ्यं ॥ २३० ॥ असंख्यात परदेश में, अन्य प्रदेश न होय । स्वयं स्वभाव स्वजात हैं, मैं प्रणमामी सोय ॥ ॐ ह्रीं अर्हं स्वयंस्वभावाय नमः अर्घ्यं ॥२३१॥ पूज्य यज्ञ आराधना, जो कुछ भक्ति प्रमाण । तुम ही सब के मूल हो, नमत अमंगल हान ॥ ॐ ह्रीं अर्हं सर्वीयजन्मने नमः अर्घ्यं ॥२३२॥ या सुरतरु की ठौर । सिद्ध नमूं कर जोर ॥ सूर्य सुमेरु समान हो, महा पुण्य की राश हो, ॐ ह्रीं अर्हं पुन्याङ्गाय नमः अर्घ्यं ॥ २३३ ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०] श्री सिद्धचक्र विधान ज्यू सूरज मध्याह्न में, दिपै अनन्त प्रभाव। त्यों तुम ज्ञानकला दिपै, मिथ्या तिमिर अभाव॥ ॐ ह्रीं अहँ भास्वते नमः अर्घ्यं ॥२३४॥ चहुँ विधि देवन में सदा, तुम सम देंव न आन। निजानन्द में केलिकर, पूजत हूँ धरि ध्यान॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह अद्भुतदेवाय नमः अर्घ्यं ॥२३५ ॥ विश्व ज्ञान युगपद धरै, ज्यूँ दर्पन आकार। स्वपर प्रकाशक हो सही, नमूं भक्ति उर धार॥ ह्रीं अहँ विश्वज्ञात्रीसम्भृते नमः अर्घ्यं ॥२३६॥ . सत स्वरूप सत ज्ञान हैं, तुम ही पूज्य प्रधान। पूजत हैं नित विश्वजन, देव मान परमान॥ ॐ ह्रीं अर्ह विश्वदेवाय नमः अर्घ्यं ॥२३७॥ सृष्टी को सुख करत हो, हरण दुक्ख भववास। मोक्ष लक्षमी देत हो, जन्म-जरा-मृत नास॥ - ॐ ह्रीं अहँ सृष्टिनिर्वृत्ताय नमः अर्घ्यं ॥२३८॥ इन्द्र सहस लोचन किये, निरखत रूप अपार। मोक्ष लहै सो नेमतें, मैं पूनँ निरधार ॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ सहस्त्राक्षदृगोत्सवाय नमः अर्घ्यं ॥२३९ ॥ सम्पूरण निज शक्ति के, है परताप अनन्त। सो तुम विस्तीरण करो, नमें चरण नित सन्त॥ ॐ ह्रीं अहँ सर्वशक्तये नमः अर्घ्यं ॥२४० ॥ ऐरावत पर आरूढ़ हैं, देव नृत्यता मांड। पूजत हैं सो भक्तिसों, मेटि भवार्णव हांड॥ ॐ ह्रीं अहँ देवैरावतारीनाय नमः अर्घ्यं ॥२४१ ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२३१ सुरनर चारण मुनि जजैं, सुलभ गमन आकाश। परिपूरण हर्षात हैं, पूरै मन की आश॥ ॐ ह्रीं अहँ हर्षाकुलामरखगचारणार्षिमतोत्सवाय नमः अयं ॥२४२ ॥ रक्षक हो षट् काय के, शरणागति प्रतिपाल। सर्व व्यापि निज ज्ञानतें, पूजत होंय निहाल॥ ॐ ह्रीं अहं विष्णवे नमः अयं ॥२४३॥ महा उच्च आसन प्रभू, है सुमेर विख्यात। जन्म अभिषेक सुरेन्द्र करि, पूजत मन उमगात॥ ____ॐ ह्रीं अहँ स्नानपीठयितादृराजे नमः अर्घ्यं ॥२४४ ॥ जाकरि तरिए तीर्थसों, मान मुनिगण मान्य। तुमसम कौन जु श्रेष्ठ हैं, असत्यार्थ हैं अन्य। ___ ॐ ह्रीं अर्ह तीर्थसमानदुग्धाब्धये नमः अयं ॥२४५ ॥ लोक स्नान गिलानता, मेटै मैल शरीर। आतम प्रक्षालित कियो, तुम्ही ज्ञान सुनीर॥ ॐ ह्रीं अहँ स्नानम्बुलातवासवाय नमः अयं ॥२४६ ॥ तारण-तरण सुभाव हैं, तीन लोक विख्यात। ज्यूँ सुगन्ध चम्पा कली, गन्धमई कहलात॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ गंधपवित्रितत्रिलोकाय नमः अध्यं ॥२४७॥ सूक्षम तथा स्थूल में, ज्ञान करै परवेश। • जाको तुम जानों नहीं, खाली रहो न देश॥ ॐ ह्रीं अहं वज्रसूचये नमः अध्यं ॥२४८॥ औरन प्रति आनन्द करि, निर्मल शुचि आचार। आप पवित्र भये प्रभू, बन्दूं हूँ युग पाय॥ ॐ ह्रीं अहं शुचिश्रवे नमः अध्यं ॥२४९ ॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२] श्री सिद्धचक्र विधान कर्मों करि किरतार्थ ही, कृत फल उत्तम पाय। करपर कर राजत प्रभू, बन्दूं हूँ युग पाय॥ ___ॐ ह्रीं अहं कृतार्थकृतहस्ताय नमः अयं ॥२५०॥ दर्शन इन्द्र अघात हैं, उष्ठ मान उर माहिं। कर्म नाशि शिवपुर बसैं, मैं बन्दूं हूँ ताहि ॥ ॐ ह्रीं अहं शक्रेष्टाय नमः अयं ॥२५१॥ . मघवा जाके नृत्य करि, ताकै तृप्ति महान। सो मैं उनको जजत हूँ, होय कर्म की हान॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह इन्द्रनृत्यतृप्तिकाय नमः अयं ॥२५२॥ . शची इन्द्र अरुकाम ये, जिन दासन के दास। निश्चय मन में नमन कर, नित वंदतपद जास॥ ___ॐ ह्रीं अहँ शचीविस्मापितम्बा नमः अयं ॥२५३ ॥ जिनके सनमुख नृत्य करि, इन्द्र हर्ष उपजाय। जन्म सुफल मानैं सदा, हम पर होउ सहाय॥ __ॐ ह्रीं अहँ शक्रारब्धानन्दनृत्याय नमः अर्घ्यं ॥२५४॥ धन सुवर्णतें लोक में, पूरण इच्छा होय। चक्रवर्ती पद पाइये, तुम पूजत हैं सोय॥ ॐ ह्रीं अहँ रैदपूर्णमनोरथाय नमः अयं ॥२५५ ॥ तुम आज्ञा में हैं सदा, आप मनोरथ मान। इन्द्र सदा सेवन करें, पाप विनाशक जान॥ ___ॐ ह्रीं अहं आज्ञार्थीइन्द्रकृतासेवाय नमः अर्घ्यं ॥२५६ ॥ सब देवन में श्रेष्ठ हो, सब देवन सिरताज। सब देवन के इष्ट हो, बंदत सुलभ सु काज॥ ह्रीं अहँ देवश्रेष्ठाय नमः अयं ॥२५७॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२३३ तीन लोक में उच्च हो, तीन लोक परशंस। सो शिवगति पायो प्रभू, जजत कर्म विध्वंस॥ ॐ हीं अहं शिवौद्यमाय नमः अयं ॥२५८॥ जगत्पूज्य शिवनाथ हो, तुम ही द्रव्य विशिष्ट। हित उपदेशक परम गुरु, मुनिजन मानें इष्ट। ____ॐ ह्रीं अहं जगत्पूज्यशिवनाथाय नमः अयं ॥२५९॥ मति, श्रुत, अवधिअवर्णको, नाश कियोस्वयमेव । केवलज्ञान स्वतै लियो, आप स्वयंभू देव॥ ॐ ह्रीं अर्ह स्वयंभूदेवे नमः अर्घ्यं ॥२६०॥ समोशरण अद्भुत महा, और लहैं नहीं कोय। धनपति रचो उछाहसों, मैं पूजूं हूँ सोय॥ ____ॐ ह्रीं अहं कुबेररचितस्थानाय नमः अयं ॥२६१॥ जाको अन्त न हो कभी, ज्ञान लक्षमी नाथ। सोई शिवपुर के धनी, नमूं भाव भरि माथ॥ . ॐ ह्रीं अहँ अनन्तश्रीजुषे नमः अयं ॥२६२॥ गणधरादि नित ध्यावते, पावै शिवपुर वास। परम ध्येय तुम नाम है, पूरै मन की आश॥ ___ॐ ह्रीं अहँ योगीश्वरार्चिताय नमः अध्यं ॥२६३॥ परम ब्रह्म का लाभ हो, तुम पद पायो सार। त्रिभुवन ज्ञाता हो सही, नय निश्चय व्यवहार ॥ ॐ ह्रीं अहं ब्रह्मविदे नमः अयं ॥२६४॥ सर्व तत्त्व के आदि में, ब्रह्म तत्त्व परधान। तिसके ज्ञाता हो प्रभू, मैं बन्दू धरि ध्यान॥ __ॐ ह्रीं अहँ ब्रह्मतत्त्वाय नमः अर्घ्यं ॥२६५ ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४] श्री सिद्धचक्र विधान द्रव्य भाव द्वै विधि कही, यज्ञ यजन की रीति। सो सब तुमहीं हेत हैं, रचत नशैं सब भीति॥ ॐ ह्रीं अहँ यज्ञपतये नमः अर्घ्यं ॥२६६॥ महादेव शिवनाथ हो, तुम को पूजत लोक। मैं पूजूं हूँ भावसों, मेटों मन को शोक ॥ ॐ ह्रीं अहँ शिवनाथाय नमः अध्यं ॥२६॥ कृत्य भये निज भाव मैं, सिद्ध भये सब काज। पायो निज पुरुषार्थ को, बन्दूं सिद्ध समाज॥ ___ॐ ह्रीं अहँ कृतकृत्याय नमः अर्घ्यं ॥२६८॥ . यज्ञ विधान के अंग हो, मुख नामी परधान। . तुम बिन यज्ञ न हों कभी, पूजत होय केल्यान॥ ॐ ह्रीं अहँ यज्ञाङ्गाय नमः अयं ॥२६९॥ मरण रोग के हरण से, अमर भये हो आप। शरणागत को अमर कर, अमृत हो निष्पाप॥ . ॐ ह्रीं अहँ अमृताय नमः अर्घ्यं ॥२७०॥ पूजन विधि अस्नान हो, पूजत शिवसुख होय। सुरनर नित पूजन करें, मिथ्या मति को खोय॥ ॐ ह्रीं अहँ यज्ञायनम नमः अर्घ्यं ॥२७१ ॥ जो हो सो सामान्य कर, धरत विशेष अनेक। वस्तु सुभाव यही कहो, बन्दूं सिद्ध प्रत्येक॥ ॐ ह्रीं अहँ वस्तुत्पादकाय नमः अर्घ्यं ॥२७२ ॥ इन्द्र सदा तुम थुति करें, मन में भक्ति उपाय। सर्व शास्त्र में तुम थुति, गणधरादि करि गाय॥ ॐ ह्रीं अर्ह स्तुतीश्वराय नमः अर्घ्यं ॥२७३॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२३५ मगन रहो निज तत्व में, द्रव्य भाव विधि नाश। जो है सो है विविध विध, नमूं अचल अविनाश॥ ॐ ह्रीं अहं भावाय नमः अर्घ्यं ॥२७४॥ तीन लोक सिरताज हैं, इन्द्रादिक करि पूज्य। धर्मनाथ प्रतिपाल जग, और नहीं है दूज्य॥ ॐ ह्रीं अहँ महपतये नमः अयं ॥२७५ ॥ महाभाग सरधानतें, तुम. अनुभव करि जीव। सो पुनि सेवत पाप तज, निजसुख लहैं सदीव॥ ॐ ह्रीं अहँ महायज्ञाय नमः अर्घ्यं ॥२७६ ॥ यज्ञ विधि उपदेश में, तुम अग्रेश्वर जान। यज्ञ रचावनहार तुम, तुम ही हो यजमान॥ । ॐ ह्रीं अहँ अग्रयाजकाय नमः अर्घ्यं ॥२७७॥ · तीन लोक के पूज्य हो, भक्ति भाव उर धार। धर्म अर्थ अरु मोक्ष के, दाता तुम हो सार॥ . ॐ ह्रीं अहँ जगत्पूज्याय नमः अर्घ्यं ॥२७८ ॥ दया मोह पर पापतें, दूर भये स्वतन्त्र । ब्रह्मज्ञान में लय सदा, जपूं नाम तुम मन्त्र ॥ ॐ ह्रीं अहँ दयायागाय नमः अर्घ्यं ॥२७९॥ तुम ही पूजन योग्य हो, तुम ही हो आराध्य। महा साधु सुख हेतुतें, साधे हैं निज साध्य ॥ ॐ ह्रीं अहँ पूज्यााय नमः अयं ॥२८०॥ निज पुरुषारथ सधन को, तुम को अर्चत जक्त। मनवांछित दातार हो, शिवसुख पावें भक्त॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ जगदर्चिताय नमः अर्घ्यं ॥२८१॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६] श्री सिद्धचक्र विधान ध्यावत हैं नितप्रति तुम्हें, देव चार परकार। तुम देवन के देव हो, नमूं भक्ति उर धार॥ ॐ ह्रीं अर्ह देवाधिदेवाय नमः अयं ॥२८२॥ इन्द्र समान न भक्त हैं, तुम समान नहीं देव। ध्यावत हैं नित भावसों, मोक्ष लहैं स्वयमेव॥ ___ॐ ह्रीं अहँ शक्रार्चिताय नमः अर्घ्यं ॥२८३ ॥ तुम देवन के देव हो, सदा पूजने योग्य। जे पूजत हैं भावसों, भोगैं शिवसुख भोग्य॥ ॐ ह्रीं अहँ देवदेवाय नमः अध्यं ॥२८४॥.. तीन लोक सिरताज हो, तुम से बड़ा न कोय। . सुरनर पशु खग ध्यावते, दुविधा मन की खोय॥ ॐ ह्रीं अहं जगद्गुरवे नमः अयं ॥२८५॥ जो हो सो हो तुम सही, नहीं समझ में आय। सुरनर मुनि सब ध्यावते, तुम वाणी को पाय॥ ॐ ह्रीं अहँ संहूतदेवसंघाचार्याय नमः अर्घ्यं ॥२८६॥ ज्ञानानन्द स्वलक्ष्मी, ताके हो भरतार । स्वसुगन्ध वासित रहो, कमल गन्ध की सार॥ ॐ ह्रीं अहँ पद्मनन्दाय नमः अर्घ्यं ॥२८७॥ सब कुवादि वादी हते, वज्र शैल उनहार। विजय ध्वजा फहरात है, बन्दूं भक्ति विचार॥ ॐ ह्रीं अहं जयध्वजाय नमः अयं ॥२८८॥ दशों दिशा परकाश है, तिन की ज्योति अमन्द। भविजन कुमुद विकाश हो, बन्दूं पूरण चन्द॥ ॐ ह्रीं अर्ह भामण्डलिने नमः अर्घ्यं ॥२८९ ॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२३७ चमरनि करि भक्ती करें, देव चार परकार। यह विभूति तुम ही वि., बन्दूं पाप निवार॥ ॐ ह्रीं अहं चतुःषष्ठीचामराय नमः अयं ॥२९० ॥ देव दुन्दुभी शब्द करि, सदा करें जयकार। तथा आप परसिद्ध हो, ढोल शब्द उनहार॥ ॐ ह्रीं अहँ देवदुन्दुभये नमः अयं ॥२९१॥ तुम वाणी सब मनन कर, समझत हैं इकसार। अक्षरार्थ नहिं भ्रम पड़े, संशय मोह निवार॥ . ॐ ह्रीं अहँ वाकस्पष्टाय नमः अयं ॥२९२॥ धनपरि रचि तुम आसनं, महा प्रभूता जान। तथा स्व आसन पाइयो, अचल रहो शिवथान॥ ___ॐ ह्रीं अहँ लब्धासनाय नमः अर्घ्यं ॥२९३॥ तीन लोक के नाथ हो, तीन छत्र विख्यात। भव्य जीव तुम छाँह में, सदा स्व आनन्द पात। ___ॐ ह्रीं अहं छत्रत्रयाय नमः अर्घ्यं ॥२९४॥ पुष्प वृष्टि सुर करत हैं, तीनों काल मझार। तुम सुगन्ध दश दिश रमी, भविजन भ्रमर निहार॥ _ ॐ ह्रीं अर्ह पुष्पवृष्टये नमः अर्घ्यं ॥२९५ ॥ देव रचित अशोक है, वृक्ष महा रमणीक। समोशरण शोभा प्रभु, शोक निवारण ठीक॥ __ह्रीं अहं दिव्याशोकाय नमः अयं ॥२९६ ॥ मानस्तम्भ निहार के, कुमतिन मान गलाय। समोशरण प्रभुता कहै, नमूं भक्ति उर लाय॥ ॐ ह्रीं अर्ह मानस्थम्भाय नमः अर्घ्यं ॥२९७॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८] श्री सिद्धचक्र विधान भक्ति भी अह सङ्गीताहा को अष्टल टार॥ सुरदेवी संगीत कर, गावैं शुभ गुण गान। भक्ति भाव उर में जगें, बन्दत श्री भगवान॥ ___ॐ ह्रीं अहँ सङ्गीतार्हाय नमः अध्यं ॥२९८ ॥ मंगल सूचक चिह्न हैं, कहे अष्ट परकार। तुम समीप राजत 'सदा, नमूं अमंगल टार॥ ॐ ह्रीं अहँ अष्टमङ्गलाय नमः अयं ॥२९९ ॥ भविजन तरिये तीर्थसों, तुम हो श्री भगवान। कोई न भंगे आन जिन, तीर्थ-चक्रसो जान॥ ॐ ह्रीं अहं तीर्थचक्रवर्तिने नमः अर्घ्यं ॥३०॥ सम्यग्दर्शन धरत हो, निश्चय परम अगाढ़। संशय आदिक मेटि के, नासो सकल बिगाढ़॥ ॐ ह्रीं अहँ सुदर्शनाय नमः अर्घ्यं ॥३०१॥ । कर्ता हो शिव काज के, ब्रह्मा जग की रीति। वर्णाश्रम को थापकें, प्रगटायी शुभ नीति॥ ॐ ह्रीं अहँ कर्त्रे नमः अर्घ्यं ॥३०२॥ सत्य धर्म प्रतिपाल के, पोषत हो संसार। यति श्रावक दो धर्म के, भये नाथ सुखकार ॥ ॐ ह्रीं अहँ तीर्थमन्त्रे नमः अयं ॥३०३॥ धर्म-तीर्थ मुनिराज हैं, तिन के हो तुम स्वाम। धर्मनाथ तुम जान के, नितप्रति करूँ प्रणाम। ॐ ह्रीं अहं तीर्थशाय नमः अयं ॥३०४॥ लोक-तीर्थ में गिनत हैं, धर्म-तीर्थ परधान। सो तुम राजत सो सदा, मैं बन्दू धरि ध्यान॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ धर्मतीर्थङ्कराय नमः अयं ॥३०५॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२३९ तुम बिन धर्म न हो कभी, ढूंढो सकल जहान। दश लक्षण स्वैधर्म के, तीरथ हो परधान॥ ॐ ह्रीं अहं धर्मतीर्थताय नमः अध्यं ॥३०६॥ धर्म-तीर्थ करतार हो, श्रावक या मुनिराज। दोनों विधि उत्तम कहो, स्वर्ग मोक्ष के काज॥ ॐ हीं अहं धर्मतीर्थङ्कराय नमः अध्यं ॥३०७॥ तुम से धर्म चले सदा, तुम्हीं धर्म के मूल। सुरनर मुनि पूर्णं सदा, छिदहिं कर्म के शूल.॥ __ॐ ह्रीं अहँ तीर्थप्रवर्तकाय नमः अयं ॥३०८॥ धर्मनाथ जग में प्रगट, तारण-तरण जिहाज। तीन लोक अधिपति कहो, बन्दूं सुख के काज॥ . ॐ ह्रीं अर्ह तीर्थवेधसे नमः अर्घ्यं ॥३०९॥ श्रावक या मुनि धर्म के, हो दिखलावनहार। अन्य लिंग नहिं धर्म के, बुधजन लखो विचार॥ ___. ॐ ह्रीं अर्ह तीर्थविधाकाय नमः अयं ॥३१०॥ स्वर्ग मोक्ष दातार हो, तुम्ही मार्ग सुखदान। अन्य कुभेषिन में नहीं, धर्म यथारथ ज्ञान॥ . ॐ ह्रीं अहँ सत्यतीर्थङ्कराय नमः अयं ॥३११॥ सेवन योग्य सु जक्त में, तुम्हीं तीर्थ हो सार। सुरनर मुनि सेवन करें, मैं बन्दूं दुःख टार॥ ॐ ह्रीं अहँ तीर्थसेव्याय नमः अयं ॥३१२ ॥ भवि समुद्र भवसैं तिरै, सो तुम तीर्थ कहाय। हो तारण तिहुँलोक में, खेवत हूँ तुम पाय॥ ॐ ह्रीं अहँ तीर्थतारकाय नमः अयं ॥३१३ ॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०] श्री सिद्धचक्र विधान सर्व अर्थ परकाश करि, निर इच्छा तुम बैन। धर्म सुमार्ग प्रवर्त्त को, तुम राजत हो ऐन॥ ॐ ह्रीं अहं सत्यवाक्याधिपाय नमः अध्यं ॥३१४॥ धर्म मार्ग परगट करै, सो शासन कहलाय। सो उपदेशक आप हो, तिस संकेत कराय॥ ॐ ह्रीं अहं सत्यशासनाय नमः अयं ॥३१५॥ अतिशय करि सर्वज्ञ हो, ज्ञानावरण विनाश। नेमरूप भवि सुनत ही, शिवसुख करत प्रकाश॥ ॐ ह्रीं अह अप्रतिशासनाय नमः अयं ॥३१६ ॥ कहै कथञ्चित धर्म को, स्यात वचन सुखकार। सो प्रमाणतें साधियो, नय निश्चय व्यवहार॥ ___ ॐ ह्रीं अर्ह स्याद्वादिने नमः अध्यं ॥३१७ ॥ निर अक्षर वाणी खिर, दिव्य मेघ की गर्ज। अक्षरार्थ हो परिणवै, सुन भव्यन मन अर्ज। ॐ ह्रीं अहं दिव्यध्वनये नमः अयं ॥३१८॥ नयं प्रमाण नहिं हतत है, तुम परकाशे अर्थ। शिवसुख के साधन विर्षे, नहीं गिनत हैं व्यर्थ॥ ॐ ह्रीं अहं अव्याहतार्थाय नमः अयं ॥३१९॥ करै पवित्र सु आत्मा, अशुभ कर्म मल खोय। पहुँचावै ऊँची सुगति, तुम दिखलायो सोय॥ ___ॐ हीं अहं पुण्यवाचे नमः अध्यं ॥३२० ॥ तत्त्वारथ तुम भासियो, सम्यक् विर्षे प्रधान। मिथ्या जहर निवारणं, अमृत पान समान॥ ॐ ह्रीं अर्ह अर्थवाचे नमः अयं ॥३२१ ॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२४१ देव अतिशयसों खिरत ही, अक्षरार्थ मय होय। दिव्यध्वनि निश्चय करै, संशय तमको खोय॥ ॐ ह्रीं अहं अर्द्धमागधीयुक्तये नमः अध्यं ॥३२२॥ सब जीवन को इष्ट है, मोक्ष निजानन्द वास। सो तुमने दिखलाइयो, संशय मोह विनाश॥ ॐ ह्रीं अहं इष्टवाचे नमः अध्यं ॥३२३॥ नय प्रमाण ही कहत हैं, द्रव्य पर्याय सु भेद। अनेकान्त साधैं सही, वस्तु भेद निरखेद॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ अनेकान्तदर्शिने नमः अध्यं ॥३२४॥ दुर्नय कहत एकान्त को, ताको अन्त कराय। सम्यक्मति प्रगटाइयो, पूर्जे तिनके पाय॥ ॐ ह्रीं अहं दुर्नयान्तकाय नमः अयं ॥३२५॥ . एक पक्षे मिथ्यात्व है, ताको तिमिर निवार। स्यादवाद सम न्यायतें, भविजन तारे पार॥ ॐ ह्रीं अहं एकान्तध्वान्तमिदे नमः अयं ॥३२६॥ जो हैं सो निज भाव में, हैं सदा निरवार। मोक्ष साध्य में सार हैं, सम्यक् वि अपार॥ ॐ ह्रीं अहं तत्ववाचे नमः अध्यं ॥३२७॥ निज गुण निज पर्याय में, सदा रहो निरभेद। शुद्ध बुद्ध अव्यक्त हो, पूजूं हूँ निरखेद॥ . ॐ ह्रीं अहं पृथकृते नमः अयं ॥३२८॥ स्यात्कार उद्योत कर, वस्तु धर्म निरशंस। तासु ध्वजा निर्विघ्न को, भाषो निधि विध्वंस॥ ॐ हीं अहं स्यात्कारध्वजावाचे नमः अयं ॥३२९ ॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२1 श्री सिद्धचक्र विधान परम्परा इह धर्म को, उपदेशो श्रुत द्वार। भवि भवसागर तीर लह, पायो शिव सुखकार॥ ॐ हीं अहं अर्हवाचे नमः अध्यं ॥३३०॥ . द्रव्य दृष्टि नहिं पुरुष कृत, है अनादि परमान। सो तुम भाष्यौ है सही, यह पर्याय सुजान। ॐ ह्रीं अर्ह अपौरुषेयवाचे नमः अध्यं ॥३३१॥ नहीं चलाचल होठ हों, जिस वाणी के होत। सो में बन्दूं हों क्रिया, मोक्षमार्ग उद्योत ॥ ॐ ह्रीं अर्ह अचलोष्ठवाचे नमः अयं ॥३३२॥ तुम सन्तान अनादि हैं, शाश्वत नित्य स्वरूप। तुमको बन्दू भावसों, पाऊँ शिव-सुख कूप॥ ॐ ह्रीं अहं शाश्वताय नमः अयं ॥३३३ ॥ हीनाधिक वा और विधि, नहीं विरुद्धता जान। एक रूप सामान्य है, सब ही सुख की खान॥ ॐ ह्रीं अर्ह अविरुद्धाय नमः अध्यं ॥३३४॥ . नय विवक्षते सधत हैं, सप्त भंग निरवाध। सो तुम भास्यो नमतं हूँ, वस्तु रूप को साध॥ ॐ ह्रीं अहं सप्तभंगीवाचे नमः अध्यं ॥३३५॥ अक्षर बिन वाणी खिरे, सर्व अर्थ करि युक्त। भविजन निज सरधानतें, पावै जगते मुक्त॥ ॐ ह्रीं अहं अवर्णगिरे नमः अयं ॥३३६ ॥ क्षुद्र तथा अक्षुद्र मय, सब भाषा परकाश। तुम मुखतें खिरकै करै, भर्म तिमिर को नाश॥ ॐ ह्रीं अहं सर्वभाषामयगिरे नमः अयं ॥३३७॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२४३ .कहने योग्य समर्थ सब, अर्थ करै परकाश। तुम वाणी मुखतें खिरे, करै भरम तमनाश॥ ॐ ह्रीं अर्ह व्यक्तगिरे नमः अध्यं ॥३३८॥ तुम वाणी नहीं व्यर्थ है, भंग कभी नहीं होय। लगातार मुखतें खिरे, संशय तमको खोय॥ ___ॐ ह्रीं अहं अमोघवाचे नमः अध्यं ॥३३९॥ वस्तु अनन्त पर्याय है, वचन अगोचर जान। तुम दिखलाये सहज ही, हरे कुमतिमतिवान॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह अवाच्यानन्तवाचे नमः अध्यं ॥३४०॥ वचन अगोचर गुण धरो, लहैं न गणधर पार। तुम महिमा तुमहीं विर्षे, मुझ तारो भवपार॥ . ॐ ह्रीं अर्ह अवाचे नमः अध्यं ॥३४१॥ तुम सम वचन न कहि सकैं, असमती छद्मस्थ। धर्ममार्ग प्रगटाइयो, मेटो कुमति समस्त॥ __ ॐ ह्रीं अर्ह अद्वैतगिरे नमः अध्यं ॥३४२॥ सत्यप्रिय तुम बैन है, हितमित भविजन हेत। सो मुनिजन तुम ध्यावते, पावै शिवपुर खेत॥ ॐ ह्रीं अहँ सूनृतगिरे नमः अध्यं ॥३४३॥ नहीं साँच नहिं झूठ हैं, अनुभय वचन कहात। सो तीर्थङ्कर ध्वनि कही, सत्यारथ सत बात॥ ॐ ह्रीं अहँ सत्यानुभयगिरे नमः अयं ॥३४४॥ मिथ्या अर्थ प्रकाश करि, कुगिरा ताको नाम। सत्यारथ उद्योत कर, सुगिरा ताको नाम॥ - ॐ ह्रीं अहं सुगिरे नमः अयं ॥३४५ ॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४] श्री सिद्धचक्र विधान जोजन एक चहू दिशा, हो वाणी विस्तार। श्रवण सुनत भविजन लहैं, आनन्द हिये अपार॥ ह्रीं अहं योजनव्यापिगिरे नमः अध्यं ॥३४६ ॥ निर्मल क्षीर समान हैं, गौर श्रेत तुम बैन। पाप मलिनता रहित हैं, सत्य प्रकाशक ऐन॥ ॐ हीं अहं क्षीरगौरगिरे नमः अयं ॥३४७॥ तीर्थ तत्त्व जो नहिं तजै, तारण भविजन वान। यातें तीर्थङ्कर प्रभू, नमत पाप मल हान॥ ॐ ह्रीं अहं तीर्थेतत्त्वगिरे नमः अयं ॥३४८॥ उत्तमार्थ पर्याय करि, आत्म तत्त्व को जान। सो तुम सत्यारथ कहो, मुनिजम उत्तम मान॥ ॐ ह्रीं अहं परमार्थगवे नमः अध्यं ॥३४९॥ भव्यनि के श्रवनि सुखद, तुम वाणी सुख देन। मैं बन्दूं हूँ भावसों, धर्म बतायो एन॥ ___ॐ ह्रीं अहं भव्यैकश्रवणगिरे नमः अर्घ्यं ॥३५०॥ संशय विभ्रम मोह को, नाश करे निर्मूल। सत्य वचन परमाण तुम, छेदत मिथ्या शूल॥ ॐ ह्रीं अहं सद्गवे नमः अयं ॥३५१॥ तुम वाणी में प्रगट है, सब सामान्य विशेष। नाना विध सुन तर्क में, संशय रहै न शेष॥ ॐ ह्रीं अर्ह चित्रगवे नमः अयं ॥३५२॥ परम कहैं उतकृष्ट को, अर्थ होय गम्भीर। सो तुम वाणी में खिरै, बन्दत भवदधि तीर॥ ॐ ह्रीं अहँ परमार्थगवे नमः अयं ॥३५३॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२४५ मोह क्षोभ परशान्त हो, तुम वाणी उरधार। भविजन को सन्तुष्ट कर, भव आताप निवार । ह्रीं अहं प्रशान्तगवे नमः अयं ॥३५४॥ बारह सभा सु प्रश्न कर, समाधान करतार। मिथ्यामति विध्वंस करि, बन्दूं मन में धार॥ ॐ ह्रीं अहं प्राश्निकगिरे नमः अध्यं ॥३५५ ॥ महापुरुष महादेव हो, सुरनर पूजन योग। वाणी सुन मिथ्यात तज, पावें शिवसुख भोग। . ॐ हीं अहं याण्यश्रुतये नमः अयं ॥३५६॥ शिवमग उपदेशक सुश्रुत, मन में अर्थ विचार। साक्षात् उपदेश तुम, तारे भविजन पार॥ - ॐ ह्रीं अहं सुश्रुतये नमः अर्घ्यं ॥३५७॥ तुम समान तिहुँलोक में, नहीं अर्थ परकाश। भविजन सम्बोधे सदा, मिथ्यामति को नाश॥ , ॐ ह्रीं अहँ महाश्रुतये नमः अयं ॥३५८॥ जो निज आत्म-कल्याण में, बरतै सो उपदेश। धर्म नाम तिस जानियो, बन्दूं चरण हमेश॥ ॐ ह्रीं अहं धर्मश्रुतये नमः अध्यं ॥३५९॥ जिन शासन के अधिपति, शिवमारग बतलाय। वा भविजन सन्तुष्ट करि, बन्दूं तिनके पाय॥ ॐ ह्रीं अर्ह श्रुतपतये नमः अध्यं ॥३६०॥ धारण हो उपदेश के, केवलज्ञान संयुक्त। शिवमारग दिखलात हो, तुम को बन्दन युक्त॥ ॐ ह्रीं अर्ह श्रुत्यूद्धत्रे नमः अयं ॥३६१ ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६] श्री सिद्धचक्र विधान जैसे हो तैसो कहो, परम्पराय सु रीति। सत्यारथ उपदेशतें, धर्म मार्ग की रीति॥ ___ ॐ हीं अहं ध्रुवश्रुतये नमः अध्यं ॥३६२॥ मोक्षमार्ग को देखियो, औरन को दिखलाय। तुमसम हितकारक नहीं, बन्दूं हूँ तिन पाय॥ ___ ॐ ह्रीं अहं निर्वाणमार्गोपदेशकाय नमः अयं ॥३६३॥ स्वर्ग मोक्ष मारग कहो, यति श्रावक को धर्म। तुम को बन्दत सुख महा, लहैं ब्रह्मपद पर्म॥ ___ ॐ ह्रीं अर्ह यतिश्रावकमार्गदेशकाय नमः अयं ॥३६४॥.. तत्त्व अतत्त्व सु जानियो, तुम सब ही परतक्ष। निज आतम सन्तुष्ट हो, देखो लक्ष अलक्ष॥ ॐ ह्रीं अहं तत्वमार्गदृशे नमः अयं ॥३६५॥ सार तत्त्व वर्णन कियो, अयथार्थ मत नाश। स्व-पर प्रकाशक हो महा, बन्दे तिन को दास॥ .. ॐ ह्रीं अहँ सारतत्वयथार्थाय नमः अयं ॥३६६ ॥ आप तीर्थ औरन प्रति, सर्व तीर्थ करतार। उत्तम शिवपुर पहुँचना, यही विशेषण सार॥ ॐ ह्रीं अहँ परमोत्तमतीर्थकृते नमः अर्घ्यं ॥३६७॥ दृष्टा लोकालोक के, रेखा हस्त समान। युगपत सब को देखिये, कियो भर्म तम हान॥ ॐ ह्रीं अहँ दृष्टे नमः अध्यं ॥३६८॥ जिनवाणी के रसिक हो, तासों रति दिन रैन। भोगोपभोग करो सदा, बन्दत हूँ सुख चैन॥ ॐ ह्रीं अहँ वाग्मीश्वराय नमः अर्घ्यं ॥३६९ ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२४७ जो संसार-समुद्र से, पार करत सो धर्म। तुम उपदेश्या धर्मकू, नमत मिटै भव भर्म॥ ॐ ह्रीं अहं धर्मशासनकाय नमः अध्यं ॥३७० ॥ धर्म रूप उपदेश है, भवि जीवन हितकार। मैं बन्दूं तिन को सदा, करो भवार्णव पार॥ ॐ ह्रीं अहं धर्मदेशकाय नमः अध्यं ॥३७१ ॥ सब विद्या के ईश हो, पूरन ज्ञान सु जान। तिन को बन्दूं भाव से, पाऊँ ज्ञान महान॥ ॐ ह्रीं अहँ वागीश्वराय नमः अध्यं ॥३७२॥ सुमति नार भरतार हो, कुमति कुसौत विडार। मैं पूजू हूँ भावसों, पाऊँ सुमति सारं॥ ... ॐ ह्रीं अहं त्रयीनाथाय नमः अध्यं ॥३७३॥ धर्म अर्थ अरु मोक्ष के, हो दाता भगवान। मैं नित प्रति पाइन परूँ, देहु परम कल्याण॥ ॐ ह्रीं अहं त्रिभङ्गीशाय नमः अयं ॥३७४॥ गिरा कहैं जिन वचन को, तिसका अन्त सुधर्म। मोक्ष करै भविजनन को, नाशै मिथ्या भर्म ॥ ॐ हीं अहं गिरापतये नमः अयं ॥३७५ ॥ जाकी सीमा मोक्ष है, पूरण सुख स्थान। शरणागत को सिद्ध है, नमूं सिद्ध धरि ध्यान॥ - ॐ ह्रीं अहं सिद्धाङ्गाय नमः अयं ॥३७६ ॥ नय प्रमाणसों सिद्ध है, तुम वाणी रवि सार। मिथ्या तिमिर निवारकैं, करै भव्य जन पार॥ ॐ ह्रीं अहं सिद्धवाङ्मयाय नमः अयं ॥३७७ ॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८] श्री सिद्धचक्र विधान निज पुरुषारथ साध के, सिद्ध भये सुखकार। मन-वच-तन करि मैं नमूं, करो जगत से पार॥ ॐ ह्रीं अहं सिद्धाय नमः अयं ॥३७८ ॥ सिद्ध करै निज अर्थ को, तुम शासन हितकार। भविजन मार्ने सरदहैं, करै कर्म रज छार॥ ॐ ह्रीं अर्ह सिद्धशासनाय नमः अयं ॥३७९ ॥ तीन लोक में सिद्ध है, तुम प्रसिद्ध सिद्धान्त। अनेकान्त परकाश कर, नाशै मिथ्या ध्वान्त॥ ___ ॐ ह्रीं अहं जगत्प्रसिद्धसिद्धांताय नमः अयं ॥३८०॥ . ओंकार यह मन्त्र है, तीन लोक परसिद्ध। तुम साधक कहलात हो, जपत मिलैं नवनिद्ध। ॐ ह्रीं अर्ह सिद्धमन्त्राय नमः अध्यं ॥३८१॥ सिद्ध यज्ञ को कहत है, संशय विभ्रम नाश। मोक्षमार्ग में ले धरै, निजानन्द परकाश ॥ . ॐ ह्रीं अर्ह सिद्धवाचे नमः अय॑ ॥३८२॥ मोहरूप मलसो दुरी, वाणी कही पवित्र। भव्य स्वच्छता धारि के, लहैं मोक्षपद तत्र॥ ___ॐ ह्रीं अहं शुचिवाचे नमः अयं ॥३८३ ॥ कर्ण विषय होत ही, करै आत्म-कल्याण। तुम वाणी शुचिता धरै, नमें सन्त धरि ध्यान॥ ॐ ह्रीं अहँ शुचिश्रवसे नमः अध्यं ॥३८४॥ वचन अगोचर पद धरो, कहते पण्डित लोग। तुम महिमा तुम ही विषे, सदा बन्दने योग्य॥ ___ ॐ ह्रीं अर्ह निरुक्तोक्ताय नमः अयं ॥३८५ ॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र-विधान [२४९ सुरनर मानें आन सब, तुम आज्ञा शिर धार। मानो तन्त्र विधान करि, बान्धे एक लगार॥ ॐ ह्रीं अहं तन्त्रकृते नमः अध्यं ॥३८६ ॥ जाकरि निश्चय कीजिए, वस्तु प्रमेय अपार। सो तुम से परगट भयो, न्याय शास्त्र रुचि धार॥ ॐ ह्रीं अहं न्यायशास्त्रकृते नमः अयं ॥३८७॥ गुण अनन्त पर्याय युत, द्रव्य अनन्तानन्त। युगपत जानो श्रेष्ठ युत, धरो महा सुखवन्त॥ ॐ ह्रीं अहँ महाज्येष्ठाय नमः अयं ॥३८८॥ तुम पद पावै सो महा, तुम गुण पार लहाय। शिवलक्ष्मी के नाथ हो, पूनँ तिनके पाँय॥ . ॐ ह्रीं अहँ महानन्दाय नमः अयं ॥३८९॥ 'तुम सम कविकर जगत में, और न दूजो कोय। गणधर से श्रुतकार भी, अर्थ लहैं नहीं सोय॥ __.. ॐ ह्रीं अहँ कवीन्द्राय नमः अयं ॥३९०॥ हित करता षट् काय के, महा इष्ट-तुम बैन। तुम को बन्दू भावसों, मोक्ष महासुख दैन। ॐ ह्रीं अहं महेष्टाय नमः अयं ॥३९१॥ मोक्ष दान दातार हो, तुम सम कौन महान। तीनलोक तुम को जजैं, मन में आनन्द ठान॥ ॐ ह्रीं अर्ह महानन्ददात्रे नमः अयं ॥३९२॥ द्वादशांग श्रुत को रचैं, गणधर से कविराज। तुम आज्ञा शिर धार के, नमूं निजातम काज॥ ॐ ह्रीं अर्ह कवीश्वराय नमः अयं ॥३९३ ॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५०] श्री सिद्धचक्र विधान देव महा ध्वनि करत हैं, तुम सन्मुख धर भाव। केवल अतिशय कहत हैं, मैं पूनँ युत चाव॥ __ॐ ह्रीं अहं दुन्दुभीश्वराय नमः अध्यं ॥३९४॥ इन्द्रादिक नित पूजते, भक्ति पूर्व शिर नाय। त्रिभुवननाथ कहात हो, हम पूजत नित पाय॥ _ॐ ह्रीं अहँ त्रिभुवननाथाय नमः अयं ॥३९५ ॥ गणी मुनीश फणीशपति, कल्पेन्द्रन के नाथ। अहमिन्द्रन के नाथ हो, तुमहि नमूं धरि माथ॥ ॐ ह्रीं अहँ महानाथाय नमः अयं ॥३९६॥ भिन्न-भिन्न देख्यो सकल, लोकालोक अनन्त। तुम दस दृष्टि न और की, तुमैं नमें नित सन्त॥ ॐ ह्रीं अहं परदृष्टे नमः अध्यं ॥३९७॥ सब जग के भरतार हो, मुनि गण में परधान। तुम को पूर्णं भावसों, होत सदा कल्याण॥ . ॐ ह्रीं अहँ जगत्पतये नमः अर्घ्यं ॥३९८ ॥ श्रावक या मुनिराज हो, तुम आज्ञा शिर धार। वरते वृष पुरुषार्थ में, पूजत हूँ सुखकार ॥ ॐ ह्रीं अहँ स्वामिने नमः अर्घ्यं ॥३९९॥ धर्म कार्य करता सही, हो ब्रह्मा परमार्थ । मालिक हो तिहुँलोक के, पूजनीक सत्यार्थ॥ ॐ ह्रीं अहँ कत्रे नमः अयं ॥४०० ॥ तीन लोक के नाथ हो, शरणागत प्रतिपाल। चार संघ के अधिपति, पूजूं हूँ नमि भाल॥ ॐ ह्रीं अहँ चतुर्विधसंघाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥४०१ ॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री सिद्धचक्र विधान [२५१ तुम सम और विभव नहीं, धरो चतुष्ट अनंत । क्यों न करो उद्धार अब, दास कहावै संत॥ ॐ ह्रीं अर्ह अद्वितीयविभवधारकाय नमः अयं ॥४०२॥ जामें विघन न हो कभी, ऐसी श्रेष्ठ विभूति। पाई निज पुरुषार्थ करि, पूजत शुभ करतूत। ॐ ह्रीं अहं प्रभवे नमः अयं ॥४०३॥ तुम सम शक्ति न और की, शिवलक्ष्मी को पाय। भोगैं सुख स्वाधीन कर, बन्दूं तिन के पाँय॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह अद्वितीयशक्तिधारकाय नमः अर्घ्यं ॥४०४॥ तुम से अधिक न और में, पुरुषारथ कहूँ पाय। ' हो अधीश सब जगत के, बन्दूं तिन के पाय॥ .. ॐ ह्रीं अहँ अधीश्वराय नमः अर्घ्यं ॥४०५॥ . अग्रेश्वर चउ संघ के, शिवनायक शिरमौर। पूजत हूँ नित भावसों, शीश दोऊ कर जोर॥ . ॐ ह्रीं अर्ह अधीशाय नमः अध्यं ॥४०६॥ सहज सुभाव प्रयत्न बिन, तीन लोक आधीश। शुद्ध सुभाव विराजते, बन्दूं पद धर शीश॥ ___ ॐ ह्रीं अहं सर्वाधीशाय नमः अ ४०७॥ छायक सुमति सुहावनी, बीजभूत तिस जान। तुमसैं शिवमारग चलै, मैं बन्दू धरि ध्यान॥ ॐ ह्रीं अर्ह अधीशित्रे नमः अध्यं ॥४०८॥ स्वयं बुद्ध शिवनाथ हो, धर्म तीर्थ करतार। तुम सम सुमति न को धरै, मैं बन्दूं निरधार॥ ____ ॐ ह्रीं अहं धर्मतीर्थकत्रे नमः अर्घ्यं ॥४०९॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२] श्री सिद्धचक्र विधान पूरण शक्ति सुभाव धर, पूरण ब्रह्म प्रकाश। पूरण पद पायो प्रभू, पूजत पाप विनाश॥ ॐ ह्रीं अहं पूर्णपदप्राप्ताय नमः अर्घ्यं ॥४१०॥ तुम से अधिक न और हैं, त्रिभुवन ईश कहाय। तीन लोक अत्यन्त सुख, पायो बन्दूं ताय॥ __ॐ ह्रीं अहं त्रिलोकाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥४११॥ तीन लोक पूजत चरण, ईश्वर तुम को जान। मैं पूजों हों भावसों, सब से बड़े महान॥ ॐ ह्रीं अर्ह ईश्वराय नमः अयं ॥४१२॥ . सूरज सम परकाश कर, मिथ्या तम परिहार।. भविजन कमल प्रबोध का, पायो निज हितकार॥ ॐ ह्रीं अहँ ईशाय नमः अयं ४१३ ॥ क्रीडा करि शिवमार्ग में, पाय परम पद आप। आज्ञा भंग न हो कभी, बन्दत नाशें पाप॥ . ॐ ह्रीं अर्ह इन्द्राय नमः अर्घ्यं ॥४१४॥ उत्तम हो तिहुँलोक में, सब के हो शिरताज। शरणागत प्रतिपाल हो, पूर्जे आतम काज॥ ___ॐ ह्रीं अहं त्रिलोकोत्तमाय नमः अर्घ्यं ॥४१५॥ अधिक भूति के हो धनी, सर्व सुखी निरधार। सुरनर तुम पद को लहैं, पूजत हूँ सुखकार॥ ॐ ह्रीं अर्ह अधिभुवे नमः अयं ॥४१६ ॥ तीन लोक कल्याण कर, धर्म मार्ग चितलाय। सब देवन के देव हो, महादेव सुखदाय॥ ॐ ह्रीं अर्ह महेश्वराय नमः अर्घ्यं ॥४१७॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२५३ महा ईश महाराज हो, महा प्रताप धराय। महा जीव पूजें चरण, सब जन शरण सहाय॥ ॐ ह्रीं अहं महेशाय नमः अयं ॥४१८॥ परम कहो उत्कृष्ट को, धर्म तीर्थ बरताय। परमेश्वर यातें भये, बन्दूं तिन के पाय॥ __ॐ ह्रीं अहं परमेश्वर नमः अध्यं ॥४१९॥ तुम समान कोई नहीं, जग ईश्वर जगनाथ। महा विभव ऐश्वर्य को, धरो नमूं निज माथ॥ ॐ ह्रीं अहं महेशित्रे नमः अयं ॥४२०॥ चार प्रकारन में सदा, देव तुम्हें शिर नाय। सब देवन में श्रेष्ठ हो, नमूं युगल तुम पाय॥ ॐ ह्रीं अहं अधिदेवाय नमः अध्यं ॥४२१॥ तुम समान नहिं देव अरु, तुम देवन के देव। यो महान पदवी धरौ, तुम पूजत हूँ एव॥ ॐ ह्रीं अहँ महादेवाय नमः अयं ॥४२२॥ शिवमारग तुम में सही, देश पूजने योग। सहचारो तुम सुगुण हैं, और कुदेव अयोग। ॐ ह्रीं अहं देवाय नमः अर्घ्यं ।।४२३॥ तीन लोक पूजत चरण, तुम आज्ञा शिरधार। त्रिभुवन ईश्वर हो सही, मैं पूजू निरधार॥ ॐ ह्रीं अहं त्रिभुवनेश्वराय नमः अयं ।।४२४॥ विश्वपती तुम को नमें, निज कल्याण विचार। सर्व विश्व के तुम पति, मैं पूजू उर धार॥ ॐ ह्रीं अर्ह विश्वेशाय नमः अयं ।।४२५ ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४] श्री सिद्धचक्र विधान जगत जीव कल्याण कर, लोकालोक अनन्द। षटकायिक आह्लाद कर, जिम कुमोदनी चन्द॥ ॐ ह्रीं अर्ह विश्वभूतेशाय नमः अयं ॥४२६ ॥ इन्द्रादिक जे विश्वपति, तुम को पूजत आन। यातें तुम विश्वेश हो, साँच नमूं धर ध्यान ॥ ॐ ह्रीं अहं विश्वेनाय नमः अयं ॥४२७॥ . विश्व बन्ध दृढ़ तोड़ के, विश्व शिखर ठहराय। चरण कमल तल जगत है, यूं सब पूजत पाय॥ ॐ ह्रीं अहँ विश्वेश्वराय नमः अयं ॥४२८॥ शिव मारग की रीति तुम, बरतायो शुभ योग। तिहूँकाल तिहुँलोक में, और कुनीति अयोग॥ ॐ ह्रीं अर्ह अधिराजे नमः अर्घ्यं ।।४२९ ॥ लोक तिमिर हर सूर्य हो, तारण लोक जिहाज। लोकशिखर राजत प्रभू, मैं बन्दू हित काज॥ . ॐ ह्रीं अर्ह लोकेश्वराय नमः अयं ॥४३०॥ तीन लोक प्रतिपाल हो, तीन लोक हितकार। तीन लोक तारण-तरण, तीन लोक सरदार॥ ॐ ह्रीं अर्ह लोकपतये नमः अध्यं ॥४३१॥ लोक पूज्य सुखकार हो, पूजत हैं हित धार। मैं पूजों नित भावसों, करो भवार्णव पार॥ ॐ ह्रीं अहँ लोकनाथाय नमः अध्यं ॥४३२॥ पूजनीक जग में सही, तुम्हें कहैं सब लोग। धर्म मार्ग प्रगटित कियो, यातें पूजन योग॥ ॐ ह्रीं अहँ जगपूज्याय नमः अध्यं ॥४३३॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२५५ ऊरध अधो सु मध्य है, तीन भाग यह लोक। तिन में तुम उत्कृष्ट हो, तुम्हें देत नित धोक॥ ॐ हीं अहं त्रिलोकनाथाय नमः अध्यं ॥४३४॥ तुम समान समरथ नहीं, तीन लोक में और। स्वयं शिवालय राजते, स्वामी हो शिरमौर॥ ॐ ह्रीं अर्ह लोकेशाय नमः अयं ॥४३५॥ जगत नाथ जग ईश हो, जगपति पूजें पाय। मैं पूजू नित भाव युत, तारण-तरण सहाय॥ ॐ ह्रीं अहं जगन्नाथाय नमः अयं ॥४३६॥ महा भूति इस जगत में, धारत हो निरभंग। सब विभूति जग जीतिकैं, पायो सुख सरबंग॥ ॐ ह्रीं अहं जगत्प्रभवे नमः अयं ॥४३७॥ मुनि मन.करण पवित्र हो, सब विभाव को नाश। तुम को अंजुलि जोर कर, नमूं होत अघ नाश। - ॐ ह्रीं अहं पवित्राय नमः अयं ॥४३८॥ मोक्ष रूप परधान हो, ब्रह्म ज्ञान परवीन। बन्ध रहित शिवसुख सहित, नमें सन्त आधीन॥ _ॐ ह्रीं अहं पराक्रमाय नमः अयं ॥४३९॥ जामें जन्म-मरण नहीं, लोकोत्तर कियो वास। अचल सुथिर राजै सदा, निजानन्द परकाश॥ ॐ ह्रीं अहं परतराय नमः अयं ॥४४० ॥ मोहादिक रिपु जीति के, विजयवन्त कहलाय। जैत्र नाम परसिद्ध है, बन्दूं तिनके पाय॥ ॐ ह्रीं अर्ह जैत्रे नमः अयं ॥४४१॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६] श्री सिद्धचक्र विधान पुण्य पाप सुर अहं कत्रै न, अचल सहित काज रक्षक हो षट् काय के, कर्म शत्रु क्षयकार। विजय लक्ष्मी नाथ हो, मैं पूजू सुखकार ॥ ॐ ह्रीं अहँ जिष्णवे नमः अध्यं ॥४४२॥ कर्ता हो विधि कर्म के, हरता पाप विशेष। . पुण्य पाप सु विभाग कर, भ्रम नहीं राखो लेश॥ ॐ ह्रीं अहँ कत्रे नमः अयं ॥४४३॥ . स्वानन्द ज्ञान विनाश बिन, अचल सुथिर रहैं राज। अविनाशी अविकार हो, बन्दूं निज हित काज॥ __ॐ ह्रीं अहँ अविनश्वराय नमः अयं ॥४४४॥ इन्द्रादिक पूजित चरन, महा भक्ति उर धार। तुम महान ऐश्वर्य को, धारत हो अधिकार॥ ॐ ह्रीं अहँ प्रभविष्णवे नमः अयं ॥४४५॥ गुण समूह गुरुता धरै, महा भाग सुख रूप। .. तीन लोक कल्याण कर, पूजूं हूँ शिव भूप॥ ॐ ह्रीं अहं भ्राजिष्णवे नमः अयं ।।४४६॥ महा विभव को धरत हैं, हितकारण मितकार। धर्मनाथ परमेश हो, पूजत हूँ सुखकार ॥ ॐ ह्रीं अहँ प्रभुष्णवे नमः अर्घ्यं ॥४७॥ बिन कारण असहाय हो, स्वयं प्रभा अविरुद्ध। तुम को बन्दू भावसों, निज आतम कर शुद्ध॥ ____ॐ ह्रीं अहँ स्वयंप्रभाय नमः अयं ॥४४८॥ लोकवास को नास कर, लोक सम्बन्ध निवार। अचल विराजै शिवपुरी, पूजत हूँ उर धार॥ ॐ ह्रीं अहं लोकजिते नमः अर्घ्यं ।।४४९ ॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२५७ विश्व नाम संसार है, जन्म-मरण सो होय। सोई व्याधि बिनासियो, जनूं जोर कर दोय॥ ॐ ह्रीं अहं विश्वजिते नमः अयं ॥४५० ॥ विषय कषाय निवार के, जग सम्बन्ध विनाश। जनम-मरण बिन ध्रुव लसैं, नमूं ज्ञान परकाश॥ ॐ ह्रीं अहं विश्वजैत्रे नमः अध्यं ॥४५१॥ विश्व वास तुम, जीतियो, विश्व नमावै शीश। पूजत हैं हम भक्तिसों, जयवन्तो जगदीश॥ ___ॐ ह्रीं अहं विश्वविजेये नमः अयं ॥४५२॥ इन्द्रादिक जिनको नमें, ते तुम शीश नवाय। विश्वजीत तुम नाम है, शरणागत सुखदाय॥ . ॐ ह्रीं अहँ विश्वजित्वराय नमः अयं ॥४५३ ॥ तीन लोक की लक्षमी, तुम चरणाम्बुज ठौर। यातें सब जग जीति के, राजत हो शिरमौर ॥ . ॐ ह्रीं अहं जगज्जेत्राय नमः अय॑ ।।४५४॥ तीन लोक कल्याण कर, कर्मशत्रु को जीति। भव्यन प्रति आनन्द कर, मेटत तिनकी भीति॥ ॐ ह्रीं अहं जगजिणवे नमः अध्यं ४५५ ॥ जग जीवन को अन्ध कर, फैलो मिथ्या घोर। धर्म मार्ग प्रगटाय कर, पहुँचायो शिव ठौर। ॐ ह्रीं अर्ह जगन्नेत्रे नमः अयं ॥४५६॥ मोहादिक जिन जीतियो, सोई जगमय नाम। सो तुम पद पायो महा, तुम पद करूँ प्रणाम। ॐ ह्रीं अहं जगज्जयिने नमः अयं ॥४५७॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८] श्री सिद्धचक्र विधान जो तुम धर्म प्रगट करि, जिय आनन्दित होय। अग्र भये कल्यान कर, तुम पद प्रणमूं सोय॥ ॐ ह्रीं अहं अग्रण्ये नमः अयं ॥४५८॥ रक्षा करि षट् काय की, विषय कषाय न लेश। त्रास हरो जमराज को, जयवन्तो गुण शेष ॥ __ॐ हीं अहं दयामूर्तये नमः अर्घ्यं ४५९॥.. सत्य असत्य लखना करै, सोई नेत्र लहाय। पुद्गल नेत्र न नेत्र हो, साँचे नेत्र सुखाय॥ ॐ ह्रीं अहं दिव्यनेत्राय नमः अयं ॥४६०॥ . सुरनर मुनि तुम ज्ञानतें, जानें निज कल्याण। ईश्वर हो सब जगत के, आनन्द सम्पति खान॥ ॐ ह्रीं अहँ अधीश्वराय नमः अयं ॥४६१ ॥ धाभास मनोक्त के, मूल नाश कर दीन। सत्य मार्ग बतलाइयो, कियो भव्य सुख लीन॥ . ॐ ह्रीं अहँ धर्मनायकाय नमः अर्घ्यं ॥४६२॥ ऋद्धिन में परसिद्ध हैं, केवल ऋद्धि महान। सो तुम पायो सहज ही, योगीश्वर मुनि मान॥ ॐ ह्रीं अहँ ऋद्धीशाय नमः अयं ॥४६३ ॥ जो प्राणी संसार में, तिन सब के हितकार। आनन्दसों सब नमत हैं, पावै भवदधि पार ॥ ॐ ह्रीं अहं भूतनाथाय नमः अयं ॥४६४॥ प्राणिन के भरतार हो, दुःख टारन सुखकार। तुम आश्रय करि जीव सब, आनन्द लहैं अपार ।। ॐ ह्रीं अहं भूतभर्त्रे नमः अर्घ्यं ॥४६५॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२५९ सत्य धर्म के मार्ग हो, ज्ञान मात्र निरशंस। तुम ही आश्रय पाय के, रहै न अघ को अंश। ॐ ह्रीं अहं जगत्पात्रे नमः अयं ॥४६६ ॥ अतुल वीर्य स्वशक्ति हो, जीते कर्म जरार। तुम सम बल नहीं और में, होउ सहाय अवार॥ ॐ ह्रीं अर्ह अतुलबलाय नमः अयं ४६७॥ धर्म मूर्ति धरमातमा, धर्म तीर्थ बरताय। स्व सुभाव सो धर्म है, पायो सहज उपाय॥ ॐ ह्रीं अहं वृषाय नमः अयं ॥४६८॥ हिंसा को वर्जित करें, जे अपराध महान। परिग्रह अर आरम्भ के, त्यागी श्रीभगवान॥ . ॐ ह्रीं अहँ परिग्रहत्यागीजिनाय नमः अयं ॥४६९॥ सर्व सिद्ध तुम सुलभ कर, पावो स्वयं उपाय। साँचै हो वश करण को, जग में मन्त्र कराय॥ . ॐ ह्रीं अहँ मन्त्रकृते नमः अध्यं ॥४७०॥ जितने कछु शुभ चिह्न हैं, दीप्त अशेष स्वरूप। शुभ लक्षण सोहत अति, सहजे तुम शिव भूप॥ __ ॐ ह्रीं अहँ शुभलक्षणाय नमः अयं ॥४७१ ॥ लोकविर्षे तुम मार्गसो, मानत हैं बुधिवन्त। तर्क हेतु करुणा लिय, यातें माने सन्त॥ _ ॐ ह्रीं अहं लोकाध्यक्षाय नमः अध्यं ॥४७२॥ काहू के वश में नहीं, काहूँ नमत न शीश। कठिन रीति धारै प्रभू, नमूं सदा जगदीश॥ ___ॐ ह्रीं अहँ दुराधर्षाय नमः अयं ॥४७३ ॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०] । श्री सिद्धचक्र विधान दासनि को प्रतिपाल कर, शरणागत हितकार। भविदुःखियनकोपोषकर, दियोअखै पदसार॥ ॐ ह्रीं अहं भव्यबन्धवे नमः अयं ॥४७४॥ निराकरण करि कर्म को, सरल सिद्धगति धार। शिव थल जाय सुवास लहि, धर्म द्रव्य सहकार॥ ॐ ह्रीं अहं निरस्तकाय नमः अर्घ्यं ॥४७५ ॥ मुनि ध्यावें पार्दै सुपद, निकट भव्य धरि ध्यान। पावें निज कल्याण हित, ध्यान योग तुम मान॥ ॐ ह्रीं अहँ परमध्येयजिनाय नमः अर्घ्यं ॥४७६ ॥ . रक्षक हो जग के सदा, धर्म दान दातार। पोषित हो सब जीव के, बन्दूं भाव लगार॥ ॐ ह्रीं अहँ जगत्तापहराय नमः अर्घ्यं ।।४७७ ॥ मोह प्रचण्ड बली जयो, अतुल वीर्य भगवान। शीघ्र गमन करि शिव गये, नमूं हेत कल्याण॥ . ॐ ह्रीं अर्ह मोहारिजाय नमः अर्घ्यं ॥४७८ ॥ तीन लोक शिर मौर तुम, सब पूजत हरषाय। परमेश्वर हो जगत के, बन्दत हूँ नित पाय॥ ___ॐ ह्रीं अहँ त्रिजगत्परमेश्वराय नमः अर्घ्यं ॥४७९॥ लोकशिखर पर अचल नित, राजत हैं तिहुँकाल। सर्वोतम आसन लियो, लोक शिरोमणि भाल॥ . ॐ ह्रीं अर्ह विश्वासिने नमः अयं ॥४८०॥ विश्वभूति प्राणी के, ईश्वर हैं भगवान। 'सब के शिर पर पग धरै, सर्व आन तिन मान॥ ___ॐ ह्रीं अहं विश्वभूतेशाय नमः अर्घ्यं ॥४८१ ॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२६१ मोक्ष सम्पदा होत ही, नित अक्षय ऐश्वर्य। कौन मूढ़ कौड़ी लहै, सर्वोत्तम धनवर्य। ॐ ह्रीं अहँ विभवाय नमः अयं ॥४८२॥ त्रिभुवन ईश्वर हो तुम्हीं, और जीव हैं रंक। तुम तज चाहै और को, एसो की बुध बंक॥ ॐ ह्रीं अहँ त्रिभुवनेश्वराय नमः अयं ॥४८३॥ उत्तरोत्तर तिहूँलोक मैं, दुर्लभ लब्धि कराय। तुम पद दुर्लभ कठिन है, महा भाग सों पाय॥ ॐ ह्रीं अहं त्रिजगदुर्लभाय नमः अर्घ्य ४८४॥ बढवारी परणामसो, पूर्ण अभ्युदय पाय। भई अनन्त विशुद्धता, भये विशुद्ध अथाय॥ _ ॐ ह्रीं अर्ह अभ्युदाय नमः अयं ॥४८५॥ तीन लोक मंगल करण, दुःखहारण सुखकार। हम को मंगल द्यो महा, पूजों बारम्बार ॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ त्रिजगन्मंगलोदयाय नमः अयं ॥४८६॥ आप धर्म के सामने, और धर्म छुप जाँय। धर्म चक्र आयुध धरो, शत्रु नाश तब पाँय॥ ॐ ह्रीं अहँ धर्मचक्रायुधाय नमः अयं ॥४८७॥ सत्य शक्त तुम ही सही, सत्य पराक्रम जोर। है प्रसिद्ध इस जगत में, कर्म शत्रु शिरमौर ॥ ॐ ह्रीं अहं सद्योजाताय नमः अयं ॥४८८॥ मंगलमय मंगल करण, तीन लोक विख्यात। सुमरण ध्यान सुकरत ही, सकल पाप नशिजात॥ ॐ ह्रीं अर्ह त्रिलोकमंगलाय नमः अध्यं ।।४८९ ॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२] श्री सिद्धचक्र विधान द्रव्य भाव दऊ वेद बिन, स्वातम रति सुख मान। पर आलिंगन रतिकरण, निरइच्छुक भगवान॥ ॐ ह्रीं अर्ह अवेदाय नमः अयं ॥४९०॥ घातिरहित स्वपर दया, निजानन्द रसलीन। सुखसों अवगाहन करें, सन्त चरण आधीन॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह प्रतिघाताय नमः अयं ॥४९१ ॥ निजानन्द स्व देश में, खण्ड-खण्ड नहीं होय। पूरण अविनाशी सुखी, पूजत हूँ भ्रम खोय॥ ॐ ह्रीं अहँ अछेद्याय नमः अयं ॥४९२॥ सिद्ध समान सु शुभ नहीं, और नाम विख्यात। कभू न जग में जन्म फिर, सोई दृढ़ कहलात॥ ॐ ह्रीं अर्ह दृढ़ीयसे नमः अयं ॥४९३ ॥ जन्म-मरण के कष्ट से, सर्व लोक भयवन्त। ताको नाश अभय करण, तुम्हें नमें जिय सन्त॥ ॐ ह्रीं अर्ह अभयङ्कराय नमः अर्घ्यं ॥४९४ ॥ ज्ञानानन्द स्व लक्षमी, भोगत हो निरखेद। महा भोग यातें भये, हैं स्वाधीन अवेद॥ ____ ॐ ह्रीं अर्ह महाभोगाय नमः अर्घ्यं ॥४९५ ॥ असाधारण असमान हो, सर्वोत्तम उतकृष्ट । परसों भिन्न अभिन्न हो, पायो पद अविनष्ट। ___ ॐ ह्रीं अहं निरौपम्याय नमः अयं ॥४९६ ॥ दश लक्षण शुभ धर्म के, राजसम्पदा भोग। नायक हो जिन-धर्म के, पूजि नमैं तिहूँ योग। ॐ ह्रीं अहँ धर्मसाम्राज्यनायकाय नमः अर्घ्यं ॥४९७ ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२६३ - अधिपतिस्वामिस्वभाव निज, परकृतभाव विडार। तिहूँ वेद रति मान बिन, सम्पूरण सुखकार ॥ ॐ ह्रीं अहं निर्वेदप्रवृत्ताय नमः अयं ॥४९८॥ यथायोग पद पाइयो, यथायोग्य सम्पूर्ण । नमूं त्रियोग संभारिके, करूँ पाप मल चूर्ण॥ _ॐ ह्रीं अहं संपूर्णयोगिने नमः अयं ॥४९९॥ सब इन्द्रिय मन रोककैं, आरोहण तिस भाव। श्रेणी उच्च चढ़ाव में, तत्पर अन्त सु पाव॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ समारोहणतत्पराय नमः अयं ॥५०॥ एकाश्रय निज धर्म में, परसों भिन्न सदीव। सहज स्वभाव विराजते, सिद्धराज सब जीव॥ ॐ हीं अहँ सामायिकाय नमः अयं ॥५०१॥ राग द्वेष बिन सहज ही, राजत शुद्ध स्वभाव। मन विकल्प नहीं भाव में, पूजत हों धरि चाव॥ ॐ ह्रीं अहँ सामायिकिने नमः अयं ॥५०२॥ निजानन्द निज लक्षमी, भोगत ग्लानि न होय। अतुल वीर्य परभावतें, परमादी नहिं होय॥ - ॐ ह्रीं अहं निष्प्रमादाय नमः अय॑ ।।५०३ ॥ है अनादि सन्तान करि, कभी भयो नहिं आदि। नित्य शिवालय पूर्णता, बसैं जगत अघ वादि। ॐ ह्रीं अहं अकृताय नमः अयं ॥५०४॥ पर पदार्थ नहिं इष्ट हैं, निजपद में लवलीन। विघ्न हरण मंगल करण, तुम पद मस्तक दीन। ॐ ह्रीं अहँ परमभावाय नमः अर्घ्यं ॥५०५॥ . Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४] श्री सिद्धचक्र विधान नित्य शौच सन्तोष मय, पर पदार्थसों रोक। निश्चय सम्यक् भावमय, हैं प्रधान यूं धोक॥ ___ॐ ह्रीं अहं प्रधानाय नमः अर्घ्यं ॥५०६॥ ज्ञान ज्योति निज धरत हो, निश्चल परम सु ठाम। लोकालोक प्रकाश कर, मैं बन्दूं सुखधाम॥ ___ॐ ह्रीं अहँ स्वभासपरभासनाय नमः अर्घ्यं ॥५०७॥ एक स्थान सु थिर सदा, निश्चय चारतं भूप। शुध उपयोग प्रभावतें, कर्म खिपावन रूप॥ ___ॐ ह्रीं अहँ प्राणायामचरणाय नमः अर्घ्यं ॥५०८॥ . विषय स्वादसों हट रहैं, इन्द्री मन थिर होय। निज आतम लवलीन हैं, शुद्ध कहा₹ सोय॥ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धप्रत्याहाराय नमः अर्घ्यं ॥५०९ ॥ इन्द्री विषय न वश रहैं, निज आतम लवलाय।। सो जितेन्द्र स्वाधीन हैं, बन्दूं तिनके पाय॥ . ॐ ह्रीं अहं जितेन्द्रियाय नमः अर्घ्यं ॥५१०॥ ध्यान विर्षे सो धारणा, निज आतम थिर धार। ताके अधिपति हो महा, भये भवार्णव पार॥ ___ॐ ह्रीं अहँ धारणाधीश्वराय नमः अर्घ्यं ॥५११ ॥ रागादिक मल नाशिकें, ध्यान सु धर्म लहाय। अचल रूप राजैं सदा, बन्दूं मन-वच-काय॥ ___ॐ ह्रीं अहँ धर्मध्याननिष्ठाय नमः अर्घ्यं ॥५१२॥ . निजानन्द में मगन हैं, पर पद राग निवार। समदृष्टी राजत सदा, हमें करो भव पार ॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ समाधिराजे नमः अयं ॥५१३॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री सिद्धचक्र विधान [२६५ वीतराग निर्विकल्प हैं, ज्ञान उदय निरशंस।. समरस भाव परम सुखी, नमत मिटै दुःख अंश॥ ॐ ह्रीं अहँ स्फुरितसमरसीभावाय नमः अर्घ्यं ॥५१४॥ एकै रूप विराजते, नय विकल्प नहिं ठोर। वचन अगोचर शुद्धता, पाप विनाशो मोर॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ एकीभावनयरूपाय नमः अयं ॥५१५ ॥ परम दिगम्बर मुनि महा, समदृष्टी मुनिनाथ। ध्यावें पार्दै परम पद, नमूं जोर जुग हाथ॥ ॐ ह्रीं अहं निर्ग्रन्थनाथाय नमः अयं ॥५१६॥ योग साधि योगी भये, तिन को इन्द्र महान। .. ध्यावत पावत परम पद, पूजत निज कल्याण। ____ॐ ह्रीं अहँ योगीन्द्राय नमः अर्घ्यं ॥५१७॥ शिव मारग सिद्धान्त के, पार भये मुनि ईश। तारण-तरण जिहाज हो, तुम्हें नमूं नित शीश॥ ॐ ह्रीं अहँ ऋषये नमः अर्घ्यं ॥५१८॥ निज स्वरूप को साधि कर, साधु भये जग माहिं। निजपर हितकर गुण धरै, तीन लोक नमि ताहि॥ ॐ ह्रीं अहँ साधवे नमः अयं ॥५१९ ॥ रागादिक रिपु जीति के, भये यती शुभ नाम। धर्म धुरन्धर परम गुरु, जुगपद करूँ प्रणाम॥ ॐ ह्रीं अहं पतये नमः अयं ॥५२०॥ पर-संपतिसूं विमुख हो, निजपद रुचि करि नेम। मुनि मन रञ्जन पद महा, तुम धारत हो एम॥ - ॐ ह्रीं अहँ मुनये नमः अर्घ्यं ॥५२१॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६] श्री सिद्धचक्र विधान महा श्रेष्ठ मुनिराज हो, निज पद पायौ सार। महा परम निरग्रन्थ हो, पूजत हूँ मन धार॥ ॐ ह्रीं अहँ महर्षिणे नमः अयं ॥५२२॥ साधु भार दुर गमन है, ताहि उठावन हार। शिव-मंदिर पहुँचात हो, महाबली सुखकार॥ ॐ ह्रीं अहँ साधुधौरेयाय नमः अर्घ्यं ॥५२३॥ इन्द्री मन-जित जे जती, तिन के हो तुम नाथ। परम्परा मरजाद धर, देहु हमें निज साथ॥ ॐ ह्रीं अहँ यतिनाथाय नमः अर्घ्यं ॥५२४॥ चार संघ मुनिराज के, ईश्वर हो परधान। पर हित कर सामर्थ्य हो, निज सम करि भगवान॥ ___ॐ ह्रीं अहँ मुनीश्वराय नमः अर्घ्यं ॥५२५॥ गणधरादि सेवक महा, तिन आज्ञा शिरधार। समकित ज्ञान सु लक्षमी, पावत हैं निरधार॥ ॐ ह्रीं अहँ महामुनये नमः अर्घ्यं ॥५२६॥ महामुनी सर्वस्व हो, धर्म मूर्ति सरवांग। तिन को बन्दूं भाव युत, पाऊँ मैं धर्मांग॥ ॐ ह्रीं अहँ महामौनिने नमः अर्घ्यं ॥५२७॥ इष्टानिष्ट विभाव बिन, समदृष्टी स्वध्यान। मगन रहैं निज पद विर्षे, ध्यान रूप भगवान॥ __ॐ ह्रीं अहँ महाध्यानिने नमः अयं ॥५२८॥ स्व सुभाव नहीं त्याग हैं, नहीं ग्रहण पर माहिं। पाप कलाप न आप में, परम शुद्ध नमूं ताहि॥ ॐ हीं अहँ महाव्रतिने नमः अर्घ्यं ॥५२९ ॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२६७ क्रोध प्रकृति विनाश के, धरै क्षमा निज भाव।. समरस स्वाद सु लहत हैं, बन्दूं शुद्ध स्वभाव॥ ॐ ह्रीं अहँ महाक्षमाय नमः अयं ॥५३०॥ मोह रूप सन्तान बिन, शीतल महा स्वभाव। पूरण सुख आकुल नहीं, बन्दूं मन धर चाव॥ ॐ ह्रीं अहँ महाशीतलाय नमः अर्घ्यं ॥५३१॥ मन इन्द्रिय के क्षोभ बिन, महा शांति सुख रूप। निज पद रमण स्वभाव नित, मैं बन्दूं शिवभूप॥ ॐ ह्रीं अहँ महाशान्ताय नमः अयं ॥५३२॥ मन इन्द्रिय को दमन कर, पायो ज्ञान अतीन्द्र। .. स्वाभाविक स्वैशक्ति कर, बन्दूं भये जिनेन्द्र ॥ ___ॐ ह्रीं अहँ महादमाय नमः अर्घ्यं ॥५३३॥ पर पदार्थ को क्लेश तजि, व्यापँ निजपद माहिं। स्वच्छ स्वभाव विराजते, पूजत हूँ नित ताहि॥ - ॐ ह्रीं अहं निर्लेपाय नमः अर्घ्यं ॥५३४॥ संशयादि दृष्टी नहीं, सम्यक् ज्ञान मझार। सब पदार्थ प्रत्यक्ष लख, महा तुष्ट सुखकार॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ निर्भान्ताय नमः अयं ॥५३५ ॥ शांति रूप निज शांति गुण, सो तुम्हीं में पाय। निज मन शांति सुभाव धर, पूजत हूँ युग पाय॥ ॐ ह्रीं अहं प्रशान्ताय नमः अर्घ्यं ॥५३६॥ मुनि श्रावक द्वै धर्म के, तुम अधिपति शिवनाथ। भविजन को आनन्द करि, तुम्हें नवाऊँ माथ॥ ॐ ह्रीं अहँ धर्माध्यक्षाय नमः अयं ॥५३७ ॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • २६८] श्री सिद्धचक्र विधान दया नीति बरताइयो, सुखी किये जगजीव। कल्पित राग ग्रसत नहीं, जानत मार्ग सदीव॥ ॐ ह्रीं अहँ दयाध्वजाय नमः अयं ॥५३८॥ केवल ब्रह्म स्वरूप हो, अन्तर बाह्य अदेह। ज्ञान ज्योति घन नमत हूँ, मन-वच-तन धरि नेह॥ ॐ ह्रीं अहँ ब्रह्मयोनये नमः अर्घ्यं ॥५३९॥ स्वयं बुद्ध अविरुद्ध हो, स्वयं ज्ञान परकाश। निज परभाव दिखात हो, दीपक सम प्रतिभास॥ ॐ ह्रीं अहँ स्वयंबुद्धाय नमः अर्घ्यं ॥५४०॥ रागादिक मल मेटियो, महापवित्र सुखाय। शुद्ध स्वभाव धरै करै, सुरनर थुति न अघाय॥ ___ॐ ह्रीं अहँ पूतात्मने नमः अयं ॥५४१॥ वीतराग श्रद्धानता, सम्पूरण वैराग। द्वेष रहित शुभ गुण सहित, रहूँ सदा पग लाग॥ . ॐ ह्रीं अहँ स्नातकाय नमः अर्घ्यं ॥५४२ ॥ माया मद आदिक हरे, भये शुद्ध सुख खाद। निर्मल भाव थकी जनूँ, होत पाप की हान॥ ____ ॐ ह्रीं अहँ अमदभावाय नमः अयं ॥५४३ ॥ अतुल वीर्य जा ज्ञान में, सूर्य समान प्रकाश। मोक्षनाथ निज धर्म जुत, स्व ऐश्वर्य विलास॥ ____ॐ ह्रीं अहं परमैश्वर्याय नमः अर्घ्यं ॥५४४॥ मत्सर क्रोध जु ईरषा, परम द्वेष परभाव। सो तुम नाशो सहज ही, निन्दित दुःखित विभाव॥ ॐ ह्रीं अहँ वीतमत्सराय नमः अर्घ्यं ॥५४५ ॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२६९ धरम भार सिर धार कर, समाधान परकाज। तुम सम श्रेष्ठ न धर्म अरु, तारण-तरण जिहाज॥ ॐ ह्रीं अहँ धर्मवृषाय नमः अयं ॥५४६ ॥ क्रोध कर्म जड से नसौ, भयो क्षोभ सब दूर। महाशान्ति स्वरूप हो, पूजत अघ सब चूर॥ ॐ ह्रीं अहँ अक्षोभाय नमः अयं ।।५४७॥ इष्टमिष्ट बादर झरी, विद्युत विध कर खण्ड। जिष्णु महाकल्याण कर, शिवमग भाग प्रचण्ड॥ ___ॐ ह्रीं अहँ महाविधिखण्डाय नमः अर्घ्यं ॥५४८॥ अमृतमय तुम जन्म है, लोक तुष्टताकार। जन्म कल्याणक इन्द्र कर, क्षीर नीर कर धार॥ . ॐ ह्रीं अहँ अमृतोद्भवाय नमः अर्घ्यं ॥५४९ ॥ इन्द्री विषय सुविषहरण, काम पिशाच विडार। मूर्तीक शुभ मन्त्र हो, देव ज● हित धार॥ . ॐ ह्रीं अहँ मन्त्रमूर्तये नमः अर्घ्यं ॥५५०॥ । सौम्य दशा प्रगटी घनी, जाति विरोधी जीव। बैर छांड समभाव धर, सेवत चरण सदीव॥ ____ ॐ ह्रीं अहँ निर्वेरसौम्यभावाय नमः अयं ॥५१॥ पराधीन इन्द्री बिना, राग विरोध निवार। हो स्वाधीन न कर्ण पर, स्वयं सिद्ध सुखकार॥ ॐ ह्रीं अहँ स्वतन्त्राय नमः अर्घ्यं ॥५५२॥ ब्रह्मरूप नहीं बाह्य तन, संभव ज्ञान स्वरूप। स्वयं प्रकाश विलास धर, राजत अमल अनूप॥ ॐ ह्रीं अहं ब्रह्मसंभवाय नमः अर्घ्यं ॥५५३॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७०] श्री सिद्धचक्र विधान आनन्दधार सु मगन है, सब विकल्प दुःख टार। पर आश्रित नहीं भाव है, पूनँ आनन्द धार॥ __ॐ ह्रीं अहँ सुप्रसन्नाय नमः अयं ॥५५४॥ परिपूरण गुण सीम हैं, सर्व शक्ति भण्डार। तुम से सुगुण न शेष हैं, जो न होय सुखकार॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ गुणांबुधये नमः अर्घ्यं ५५५॥ ग्रहण त्याग को भाव तज, शुभ वा अशुभ अभेद। व्याधिकार है वस्तु में, तुम्हें नमूं निरखेद ॥ ॐ ह्रीं अहँ पुण्यपापनिरोधकाय नमः अर्घ्यं ॥५५६॥ . . सूक्षम रूप अलक्ष है, गणधर आदि अगम्य। आप गुप्त परमातमा, इन्द्रिय द्वार अरम्य॥ ॐ ह्रीं अहँ महाअगम्यसूक्ष्मरूपाय नमः अर्घ्यं ॥५५७॥ अन्तर गुप्त स्व आत्मरस, ताको पान करात। पर प्रवेश नहीं रञ्च है, केवल मग्न सु जात॥ . ॐ ह्रीं अहँ सुगुप्तात्मने नमः अयं ॥५५८ ॥ निज कारक निज कर्णकर, निजपद निज आधार। सिदध कियो निज रस लियो, पूजत हूँ हितकार॥ ॐ ह्रीं अहँ सिद्धात्मने नमः अयं ॥५५९॥ नित्य उदै बिन अस्त हो, पूरण दुति घन आप। ग्रहै न राहू जास शशि, सो हो हर सन्ताप॥ - ॐ ह्रीं अहँ निरुपप्लवाय नमः अर्घ्यं ॥५६०॥ लियो अपूरव लाभ को, अचल भये सुखधाम। पूज रचैं जे भावसों, पूर्ण होइ सब काम॥ ॐ ह्रीं अहँ महोदकौय नमः अयं ॥५६१ ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२७१ है प्रशंस तिहुँलोक में, तुम पुरुषार्थ उपाय। पाय धर्म सु धाम को, पूजों तिनके पाय॥ ॐ ह्रीं अर्ह महोपायाय नमः अर्घ्यं ॥५६२॥ गणधरादि जे जगतपति, तथा सुरेन्द्र सुरीश। तुमको पूजत भक्ति करि; चरण धरै निज शीश॥ ___ ॐ ह्रीं अहं जगत्पितामहाय नमः अर्घ्यं ॥५६३ ॥ तुम ही सों भवि सुख लहै, तुम बिन दुःख ही पाय। नेमरूप यही है तुम्हें, महानाम हम गाय॥ ___ॐ ह्रीं अहँ महाकाय नमः अयं ॥५६४॥ महा सुगुण की रास हो, राजत हो गुण रूप। लौकिक गुण औगुण सही, सब ही द्वेष सरूप॥ ... ॐ ह्रीं अहँ शुद्धगुणाय नमः अयं ५६५॥ . जन्म-मरण आदिक महा, क्लेश ताहि निरवार। परम सुखी तुमको नमू, पाऊँ भवदधि पार॥ . ॐ ह्रीं अहँ महाक्लेशनिवारणाय नमः अध्यं ॥५६६ ॥ रागादिक नहिं भाव है, द्रव्य देह नहिं धार। दोऊ मलिनता छांडि के, स्वच्छ भये निरधार॥ ॐ ह्रीं अहँ महाशुचये नमः अयं ॥५६७॥ आधि व्याधि नहीं रोग है, नित प्रसन्न निज भाव। आकुलता बिन शांति सुख, धारत सहज सुभाव॥ ॐ ह्रीं अहँ अरुजे नमः अयं ॥५६८॥ यथायोग्य पद थिर सदा, यथायोग्य निज लीन। अविनाशी अविकार हैं, नमैं सन्त चित दीन॥ ॐ ह्रीं अहं सदायोगाय नमः अयं ॥५६९॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२] श्री सिद्धचक्र विधान स्वामृत रस को पान करि, भोगत हैं निज स्वाद। पर निमित्त चाहै नहीं, करै न तिन को याद॥ ॐ ह्रीं अहं सदाभोगाय नमः अयं ॥५७० ॥ निर उपाधि निज धर्म में, सदा रहैं सुखकार। रत्नत्रय की मूरती, अनागार आगार ॥ ॐ हीं अहँ सदाधृतये नमः अयं ॥५७१॥ . रागद्वेष नहिं मूल है, है मध्यस्थ स्वभाव। ज्ञाता दृष्टा जगत के, पर सों नहीं लगाव॥ ॐ ह्रीं अहँ परमौदासीत्रे नमः अयं ॥५७२ ॥ . आदि अन्त बिन बहत है, परम धाम निरधार। अन्तर परत एक छिन, निज सुख परमाधार॥ ___ॐ ह्रीं अहँ शाश्वताय नमः अर्घ्यं ॥५७३॥ मूल देह आकृति रहैं, हो नहिं अन्य प्रकार। सत्याशन इम नाम है, पूनँ भक्ति लगार॥ . ॐ ह्रीं अहँ सत्याशनाय नमः अर्घ्यं ॥५७४॥ परम शांति सुखमय सदा, क्षोभ रहित तिस स्वाम। तीनलोक प्रति शांति कर, तुमपद करूँ प्रणाम। ____ॐ ह्रीं अहँ शान्तिनायकाय नमः अर्घ्यं ॥५७५ ॥ काल अनन्तानन्त करि, रुल्यो जीव जगमाहिं। आत्मज्ञान नहिं पाइयो, तुम पायो है ताहि॥ ॐ ह्रीं अहँ अपूर्वविद्याय नमः अर्घ्यं ॥५७६ ॥ यथाख्यात चारित्र को, जानो मानो भेद। • आत्मज्ञान केवल थकी, पायो पद निरभेद॥ ॐ ह्रीं अहँ योगज्ञाय नमः अयं ॥५७७ ॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२७३ धर्मरूप सर्वस्व हो, राजत शुद्ध स्वभाव।. धर्ममूर्ति तुम को नमूं, पाऊँ मोक्ष उपाव। ॐ ह्रीं अहँ धर्ममूर्तये नमः अर्घ्यं ॥५७८॥ स्व आत्म परदेश में, अन्य मिलाप न होय। आकृति है निज धर्म की, निज विभाव को खोय॥ ॐ ह्रीं अहँ धर्मदेहाय नमः अयं ॥५७९॥ स्वामी हो निज आत्म के, अन्य सहाय न पाय। स्वयं सिद्ध परमातमा, हम पर होउ सहाय॥ ॐ ह्रीं अहँ ब्रह्मेशाय नमः अयं ॥५८०॥ निज पुरुषारथ करि लियो, मोक्ष परम सुखकार। करना था सो करि चुके, तिष्ठं सुख आधार॥ ॐ ह्रीं अहँ कृतकृतये नमः अर्घ्यं ।।५८१॥ असाधारण तुम गुण धरत, इन्द्रादिक नहीं पाय। लोकोत्तम बहु मान्य हो, बन्दूं हूँ युग पाय॥ ॐ ह्रीं अहँ गुणात्मकाय नमः अयं ॥५८२॥ तुम गुण परम प्रकाश कर, तीनलोक विख्यात। सूर्य समान प्रतापधर, निरावरण उघरात॥ ॐ ह्रीं अहँ निरावरणगुणप्रकाशाय नमः अयं ॥५८३॥ समय मात्र नहीं आदि हैं, बहैं अनादि अनन्त। तुम प्रवाह इस जगत में, तुम्हें नमैं नित सन्त॥ ॐ ह्रीं अहँ निर्मिमेषाय नमः अयं ॥५८४॥ योग द्वार बिन करम रज, चढे न निज परदेश। ज्यों बिन छिद्र न जल ग्रहैं, नवका शुद्ध हमेश॥ . ॐ ह्रीं अहँ निराश्रवाय नमः अर्घ्यं ॥५८५ ॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४] श्री सिद्धचक्र विधान परम ब्रह्म पद पाइयो, पूरण ज्ञान प्रकाश। तीनलोक के जीव सब, पूजें चरण निवास॥ ॐ ह्रीं अहं महाब्रह्मपतये नमः अयं ॥५८६॥ द्रव्य पर्यार्थिक नय दोऊ, साधत वस्तु स्वरूप। गुण अनन्त अवरोध कर, कहत सरूप अनूप॥ ॐ ह्रीं अहं सुनयतत्वज्ञाय नमः अध्यं ।।५८७ ॥ सूर्य समान प्रकाश कर, कर्म दुष्ट हनि सूर। शरण गही तुम चरण की, करो ज्ञान दुति पूर॥ ॐ ह्रीं अहँ सूरये नमः अर्घ्यं ।५८८॥ तुम सम और न जगत में, सत्यारथ तत्त्वज्ञ। सम्यग्ज्ञान प्रभावतें, हो अदोष सर्वज्ञ॥ ॐ ह्रीं अहं तत्त्वज्ञाय नमः अयं ॥५८९॥ तीनलोक हितकार हो, शरणागत प्रतिपाल। भव्यनि मन आनन्द करि, बन्दूं दीनदयाल॥ ____ ॐ हीं अहं महामित्राय नमः अयं ॥५९०॥ । समता सुख में मगन हैं, राग-द्वेष संक्लेश। ताको नाशि सुखी भये, युगयुग जयो जिनेश॥ ॐ ह्रीं अहँ साम्यभावधारकजिनाय नमः अयं ॥५९१ ॥ निरावरण निज ज्ञान में, संशय विभ्रम नाहिं। सम्यग्ज्ञान प्रकाशते, वस्तु प्रमाण दिखाय॥ ॐ ह्रीं अर्ह प्रक्षीणबंधाय नमः अयं ॥५९२ ॥ एक रूप परकाश कर, दुविधि भाव विनशाय। पर निमित्त लवलेश नहीं, बन्दू तिनके पाय॥ ॐ ह्रीं अर्ह निर्द्वन्द्वाय नमः अय॑ ।।५९३॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२७५ मुनि विशेष स्नातक कहै, परमातम परमेश। तुम ध्यावत निर्वाणपद, पावै भविक हमेश॥ ॐ ह्रीं अहँ स्नातकपरमर्षये नमः अयं ॥५९४॥ पञ्च प्रकार शरीर बिन, दीप्त रूप निजरूप। सुर मुनि मन रमणीय हैं, पूजत हूँ शिवभूप॥ ॐ ह्रीं अहं अनङ्गाय नमः अयं ॥५९५ ॥ द्वय प्रकार बन्धन रहित, बन्दूं मोक्ष सरूप। भविजन बन्ध विनाश कर, देहो मोक्ष अनूप। भविजन बन्ध निर्वाणाय नम:आप महा भ सुगुण रत्न की राश के, आप महा भण्डार। अगम अथाह विराजते, बन्दूं भाव विचार॥ .. ॐ ह्रीं अहं सागराय नमः अयं ॥५९७ ॥ मुनिजन ध्यावें भावयुत, महा मोक्षपद साध। सिद्ध भये मैं नमत हूँ, चहू संघ आराध॥ . ॐ ह्रीं अहँ महासाधवे नमः अध्यं ॥५९८॥ ज्ञान ज्योति प्रतिभास में, रागादिक मल नाहिं। विशद अनूपम लसत हो, दीप्त ज्योति शिवराहि॥ ______ ॐ ह्रीं अहँ विमलाभाय नमः अयं ॥५९९॥ द्रव्यभाव मल नाश कर, शुद्ध निरञ्जन देव । निज आतम में रमत हो, आश्रय बिन स्वयमेव॥ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धात्मने नमः अयं ॥६००॥ शुद्ध अनन्त चतुष्ट गुण, धरत तथा शिवनाथ। श्रीधर नाम कहात हो, हरिहर नावत माथ। - ॐ ह्रीं अहं श्रीधराय नमः अयं ॥६०१॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६] श्री सिद्धचक्र विधान मरणदिक भय ये सदा, रक्षित हैं भगवान। स्वयं प्रकाश बिलास में, राजत सुख की खान॥ ___ ॐ ह्रीं अहं मरणभयनिवारणाय नमः अयं ॥६०२॥ राग-द्वेष नहीं भाव में, शुद्ध निरञ्जन आप। ज्यों के त्यों तुम थिर रहो, तनक न व्यापै पाप॥ ह्रीं अहँ अमलाभावाय नमः अयं ॥६०३ ॥ भवसागर से पार हो, पहुँचे शिवपद तीर। भाव सहित तिन नमत हूँ, लहूँ न फुनि भवपीर॥ ॐ ह्रीं अहँ उद्धराय नमः अयं ॥६०४॥ अग्निदेव या अग्नि दिश, ताके देव विशेष। ध्यावत हैं तुम चरणयुग, इन्द्रादिक सुर शेष॥ ॐ ह्रीं अर्ह अग्निदेवाय नमः अर्घ्यं ॥६०५॥ विषय कषाय न रज है, निरावरण निरमोह। इन्द्री मन को दमन कर, बन्दूं सुन्दर सोह॥ . ॐ ह्रीं अहँ संयमाय नमः अर्घ्यं ॥६०६॥ मोक्षरूप कल्याण कर, सुख-सागर के पार। महादेव स्वैशक्ति धर, विद्या तिय भरतार ॥ ह्रीं अहँ शिवाय नमः अर्घ्यं ॥६०७॥ पुष्प भेंट धर जजत सुर, निज कर अंजुलि जोड़। कमलापति कर कमल में, धरै लक्ष्मी होड़। ॐ ह्रीं अहँ पुष्पांजलये नमः अर्घ्यं ॥६०८॥ पूरण ज्ञानानन्द मय, अजर अमर अमलान। अविनासी ध्रुव अखिलपद, अविकारी सब मान॥ ॐ ह्रीं अहँ शिवगुणाय नमः अर्घ्यं ॥६०९ ॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२७७ रोग शोक भय आदि बिन, राजत नित आनन्द। खेद रहित रति अरति बिन, विकसत पूरणचन्द्र॥ ॐ ह्रीं अहँ परमोत्साहजिनाय नमः अर्घ्यं ॥६१०॥ जो गुण शक्ति अनन्त है, ते सब ज्ञान मझार। एक मिष्ट आकृति विविध, सोहत हैं अविकार॥ ह्रीं अहँ ज्ञानाय नमः अयं ॥६११॥ परम पूज्य परधान हैं, पर शक्ति आधार। परम पुरुष परमातमा, परमेश्वर सुखकार ॥ ॐ ह्रीं अहँ परमेश्वराय नमः अयं ॥६१२॥ दोष अपोष अरोष हो, सम तन्तोष अलोष। पञ्च परमपद धारियत, भविजन को परिपोष॥ ॐ ह्रीं अर्ह विमलेशाय नमः अर्घ्यं ॥६१३॥ पञ्चकल्याणक युक्त हैं, समोशरण ले आदि। इन्द्रादिक नित करत हैं, तुम गुण गण अनुवाद। 1 ॐ ह्रीं अहँ यशोधराय नमः अर्घ्यं ॥६१४॥ कृष्ण नाम तीर्थेश हैं, भावी काल कहाय। सुमति .गोपियन संग रमत, निज लीला दर्शाय॥ ॐ ह्रीं अहँ कृष्णाय नमः अयं ॥६१५॥ सम्यग्ज्ञान समाधि धर, मिथ्या मोह निवार। परहितकर उपदेश है, निश्चय नय व्यवहार ॥ ॐ ह्रीं अहँ ज्ञानमतये नमः अध्यं ॥६१६॥ वीतराग सर्वज्ञ हैं, उपदेशक हितकार। सत्यारथ परमाण कर, अन्य सुमति दातार ॥ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धमतये नमः अयं ॥६१७॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८] श्री सिद्धचक्र विधान मायाचार न शल्य है, शुद्ध सरल परिणाम। ज्ञानानन्द स्वलक्षमी, भोगत हैं अभिराम ॥ ॐ ह्रीं अहँ भद्राय नमः अयं ॥६१८॥ शील स्वभाव सु जन्म लै, अन्त समय निरवाण। भविजन आनन्दकार हैं, सर्व कलुषता हान॥ ॐ ह्रीं अहँ शान्तिजिनाय नमः अयं ॥६१९ ॥ धरम रूप अवतार हो, लोक पाप को भार। मृतक स्थल पहुँचाइयो, सुलभ कियो सुखकार॥ ___ॐ हीं अर्ह वृषभाय नमः अध्यं ॥६२०॥ . . अन्तर बाहिर शत्रु को, निमिष परै नहिं जोर। विजय लक्षमी नाथ हो, पूजू द्वय कर जोर॥ ॐ ह्रीं अहँ अजिताय नमः अर्घ्यं ॥६२१॥ . तीनलोक आनन्द हो, श्रेष्ठ जन्म तुम होत। स्वर्ग मोक्ष दातार हो, पावत नहीं कुमोत ॥ ॐ ह्रीं अर्ह संभवाय नमः अयं ॥६२२॥ परम सुखी तुम आप हो, पर आनन्द कराय। तुमको पूजत भावसों, मोक्ष लक्षमी पाय॥ ॐ ह्रीं अर्ह अभिनन्दनाय नमः अर्घ्यं ॥६२३ ॥ सब कुवादि एकान्त को, नाश कियो छिन माहिं। भविजन मन संशय हरण, और लोक में नाहिं। ॐ ह्रीं अहँ सुमतये नमः अर्घ्यं ॥६२४॥ भविजन मधुकर कमल हो, धरत सुगन्ध अपार। तीनलोक में विस्तरी, सुयश नाम की धार॥ ॐ हीं अहँ पद्मप्रभाय नमः अर्घ्यं ॥६२५ ॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२७९ पारस लोहा हेम करि, तुम भव बन्ध निवार। मोक्ष हेतु तुम श्रेष्ठ गुण, धारत हो हितकार॥ ॐ ह्रीं अहं सुपार्थाय नमः अयं ॥६२६ ॥ तीन लोक आताप हर, मुनि मन मोदन चन्द। लोकप्रिय अवतार हो, पाऊँ सुख तुम बन्द॥ ॐ ह्रीं अहँ चन्द्रप्रभाय नमः अयं ॥२७॥ मन मोहन सोहन महा, धाएँ रूप अनूप। दरशत मन आनन्द हो, पायो निज रस कूप॥ ॐ ह्रीं अहं पुष्पदन्ताय नमः अयं ॥६२८॥ भव भव दाह निवार कर, शीतल भए जिनेश। मानो अमृत सींचियो, पूजत सदा सुरेश। ... ॐ ह्रीं अहं शीतलनाथाय नमः अयं ॥६२९॥ तीर्थङ्कर श्रेयांस हम, देहो श्री शुभ भाग। श्री सु अनन्त चतुष्ट हो, और सकल दुरभाग। ॐ ह्रीं अर्ह श्रेयांशनाथाय नमः अयं ॥६३०॥ त्रस नाड़ी या लोक में, तुम ही पूज्य प्रधान। तुमको पूजत भावसों, पाऊँ सुख निरवाण॥ ॐ ह्रीं अहं वासपूज्याय नमः अध्यं ॥६३१॥ द्रव्य भाव मल रहित हैं, महा मुनिन के नाथ। इन्द्रादिक पूजत सदा, नमूं पदाम्बुज माथ॥ __ ॐ हीं अहँ विमलनाथाय नमः अयं ॥६३२॥ जाको पार न पाइयो, गणधर और सुरेश। थकित रहे असमर्थ करि, प्रणमें सन्त हमेश। ॐ ह्रीं अहँ अनन्तनाथाय नमः अयं ॥६३३ ॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८०] श्री सिद्धचक्र विधान अनागार आगार के, उद्धारक जिनराज। धर्मनाथ प्रणमूं सदा, पाऊँ शिवसुख साज॥ __ॐ हीं अहं धर्मनाथाय नमः अयं ॥६३४॥ शान्ति रूप पर शान्ति कर, कर्म दाह विनिवार। शान्ति हेत बन्दूं सदा, पाऊँ भवदधि पार॥ ॐ ह्रीं अहँ शान्तिनाथाय नमः अर्घ्यं ॥६३५॥ क्षुद्र वीर्य सब जीव के, रक्षक हैं तीर्थेश। शरणागत प्रतिपाल कर, ध्यावें सदा सुरेश॥ ॐ ह्रीं अहँ कुन्थुनाथाय नमः अर्घ्यं ॥६३६॥ पूजनीक सब जगत के, मंगलकारक देव। पूजत हैं हम भावसों, विनशै अघ स्वयमेव॥ ___ॐ ह्रीं अहँ अरहनाथाय नमः अयं ॥६३७॥ मोह काम भट जीतियो, जिन जीतो सब लोक। लोकोत्तम जिनराज के, नमूं चरण दे धोक॥ . ॐ ह्रीं अहँ मल्लिनाथाय नमः अध्यं ॥६३८॥ पञ्च पाप को त्याग करि, भव्य जीव आनन्द। भये जासु उपदेशतें, पूजत हूँ पद वृन्द ॥ ॐ ह्रीं अहँ मुनिसुव्रताय नमः अर्घ्यं ॥६३९॥ सुरनर मुनि नित नमत करि, जान धरम अवतार। तिनको पूर्जे भाव युत, लहूँ भवार्णव पार॥ ॐ ह्रीं अहँ नमिनाथाय नमः अर्घ्यं ॥६४० ॥ नेम धर्म में नित रमें, धर्मधुरा भगवान। धर्मचक्र जग में फिरे, पहुँचावें शिव थान॥ ॐ ह्रीं अहँ नेमिनाथाय नमः अयं ॥६४१ ॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२८१ शरणागत निज पास दो, पाप फाँश दुःख नाश। तिनको छेदो मूलसों, देहु मुकति गति वास॥ ॐ ह्रीं अहँ पार्श्वनाथाय नमः अर्घ्यं ॥६४२ ॥ वृद्ध भावतें उच्चपद, लोक शिखर आरूढ़। केवल-लक्षमी बर्धता, भई सु अन्तर गूढ़। ॐ ह्रीं अर्ह वर्द्धमानाय नमः अर्घ्यं ॥६४३॥ अतुल वीर्य तन धरत हैं, अतुल वीर्य मन बीच। कामिन वश नहीं रञ्च भी, जैसे जल बिच मीच॥ __ॐ ह्रीं अर्ह महावीराय नमः अयं ॥६४४॥ मोह सुभटकू गटकियो, तीन लोक परशंस। श्रेष्ठ पुरुष तुम जगत में, कियो कर्म विध्वंस॥ ॐ ह्रीं अर्ह सुवीराय नमः अर्घ्यं ॥६४५ ॥ मिथ्या-मोह निवार करि, महा सुमति भण्डार। शुभ मारग दरशाइयो, शुभ अरु अशुभ विचार॥ . ॐ ह्रीं अहँ सन्मतये नमः अर्घ्यं ॥६४६ ॥ निज आश्रय निर्विघ्न नित, निज लक्ष्मी भण्डार। चरणाम्बुज नित नमत हम, पुष्पांजलि शुभधार॥ ॐ ह्रीं अहँ पद्माय नमः अर्घ्यं ॥६४७॥ हो देवाधिदेव तुम, नमत देव चउ भेद। धरो अनन्त चतुष्ट पद, परमानन्द अभेद ॥ ॐ ह्रीं अर्ह सूरदेवाय नमः अर्घ्यं ॥६४८॥ निरावर्ण आभास है, ज्यों बिन पटल दिनेश। लोकालोक प्रकाश करि, सुन्दर प्रभा जिनेश। - ॐ ह्रीं अहँ सुप्रभाय नमः अर्घ्यं ॥६४९ ॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२] श्री सिद्धचक्र विधान आतमीक निज गुण लिये, दीप्ति संरूप अनूप। स्वयं ज्योति परकाशमय, वन्दत हूँ शिवभूप॥ ॐ ह्रीं अर्ह स्वयंप्रभाय नमः अर्घ्यं ॥६५०॥ निज शक्ति निज करण हैं, साधन बाह्य अनेक। मोह सुभट क्षय करन को, आयुध राशि विवेक॥ _____ॐ ह्रीं अर्ह सर्वायुधाय नमः अर्घ्यं ॥६५१॥ जयजय सुर धुनि करत हैं, तथा विजय निधिदेव। तुम पद जे नर नमत हैं, पावै सुख स्वयमेव॥ ॐ ह्रीं अर्ह जयदेवाय नमः अर्घ्यं ॥६५२॥ तुम सम प्रभा न और में, धरो ज्ञान परकाश। नाथ प्रभा जग में भ्रमत, नमत मोहतम नाश॥ ॐ ह्रीं अहँ प्रभादेवाय नमः अर्घ्यं ॥६५३॥ रक्षक हो षटकाय के, दया सिन्धु भगवान। शशिसम जिय आह्लाद करि, पूजनीक धरि ध्यान॥ . ॐ ह्रीं अहँ उङ्ककाय नमः अर्घ्यं ॥६५४॥ समाधान सब के करें, द्वादश सभा मझार। सर्व अर्थ परकाश कर, दिव्य-ध्वनि सुखकार॥ ___ॐ ह्रीं अहँ प्रश्नकीर्तये नमः अर्घ्यं ॥६५५॥ काहू विधि बाधा नहीं, कबहूँ नहीं व्यय होय। उन्नति रूप विराजते, जयवन्तो जग सोय॥ ॐ ह्रीं अहँ जयाय नमः अर्घ्यं ॥६५६ ॥ केवल ज्ञान स्वभाव में, लोकत्रय इक भाग। पूरणता को पाइयो, छाँड़ि सकल अनुराग॥ ॐ ह्रीं अहँ पूर्णबुद्धाय नमः अर्घ्यं ॥६५७ ॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२८३ पर आलिंगन भाव तज, इच्छा क्लेश विडार। निज सन्तोष सुखी सदा, पर सम्बन्ध निवार । ॐ ह्रीं अहँ निष्कषायाय नमः अर्घ्यं ॥६५८॥ मोहादिक मल नाशकर, अतिशब करि अमलार। विमल जिनेश्वर मैं नमू, तीनलोक परधान ॥ ॐ ह्रीं अहँ विमलप्रभाय नमः अर्घ्यं ॥६५९॥ स्वैपद में नित रमत हैं, कभी न आरति होय। अतुल वीर्य विधि जीतियों, नमूं जोर कर दोय॥ ॐ ह्रीं अहँ महाबलाय नमः अर्घ्यं ॥६६०॥ द्रव्य भाव मल कर्म हैं, ताको नाश करान। शुद्ध निरञ्जन हो रहै, ज्यौं बादल बिन भान॥ ॐ ह्रीं. अर्ह निर्मलाय नमः अर्घ्यं ॥६६१॥ तुम चित्राम अरूप है, सुरनर साधु अगम्य। निराकार निर्लेप है, धारत भाव असम्य॥ . ॐ ह्रीं अहँ चित्रगुप्ताय नमः अर्घ्यं ॥६६२॥ मग्न भये निज आत्म में, पर पद में नहिं वास। लक्ष अलक्ष विराजते, पूरो मन की आश॥ _ॐ ह्रीं अहँ समाधिगुप्तये नमः अर्घ्यं ॥६६३॥ निज गुण आतम ज्ञान है, पर सहाय नहिं चाह। स्वयं भाव परकाशियो, नमत मिटै भव दाह॥ ॐ ह्रीं अहँ स्वयंभुवे नमः अर्घ्यं ॥६६४॥ मन मोहन सोहन महा, मुनि मन रमण अनन्द। महातेज परताप हैं, पूरण ज्योति अमन्द॥ - ॐ ह्रीं अर्ह कन्दर्पाय नमः अर्घ्यं ॥६६५ ॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४] श्री सिद्धचक्र विधान विजय लक्ष्मी नाथ हैं, जीते कर्म प्रधान। तिनके पूजै सर्व जग, मैं पूजों धरि ध्यान॥ ॐ ह्रीं अहँ विजयनाथाय नमः अर्घ्यं ॥६६६॥ गणधरादि योगीश जे, विमलाचारी सार।। तिनके स्वामी हो प्रभु, राग-द्वेष मल जार॥ ॐ ह्रीं अहँ विमलेशाय नमः अर्घ्यं ॥६६७॥ . दिव्य अनक्षर ध्वनि खिरै, सर्व अर्थ गुणधार। भविजन मन संशय हरन, शुद्ध बोध आधार॥ ॐ ह्रीं अहं दिव्यवादाय नमः अर्घ्यं ॥६६८॥ . नहीं पार जा वीर्य को, स्वाभाविक निरधार। सो सहजै गुण धरत हो, नमूं लहूँ भवपार॥ ॐ ह्रीं अहँ अनन्तवीर्याय नमः अर्घ्यं ॥६६९ ॥ पुरुषोत्तम परधान हो, परम निजानन्द धाम। चक्रपती हरिबल नमें, मैं पूनँ निष्काम॥ ____ॐ ह्रीं अहँ महापुरुषदेवाय नमः अर्घ्यं ॥६७० ॥ शुभ विधि सब आचरण हैं, सर्व जीव हितकार। श्रेष्ठ बुद्ध अति शुद्ध हैं, नमूं करो भवपार॥ ॐ ह्रीं अहँ सुविधये नमः अर्घ्यं ॥६७१ ॥ हैं प्रमाण करि सिद्ध जे, ते हैं बुद्धि प्रमाण। सो विशुद्धमय रूप हैं, संशय तम को भान॥ ॐ ह्रीं अहँ प्रज्ञापारप्रमिताय नमः अर्घ्यं ॥६७२॥ समय प्रमाण निमित्त तनी, कभी अन्त नहिं होय। अविनाशी थिर पद धरै, मैं प्रणमूं हूँ सोय॥ ॐ ह्रीं अर्ह अव्ययाय नमः अर्घ्यं ॥६७३ ॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२८५ प्रतिपालक जगदीश हैं, सर्वनाम परमान। अधिक शिरोमणि लोक गुरु, पूजत नित कल्याण॥ ॐ ह्रीं अहँ पुराणपुरुषाय नमः अर्घ्यं ॥६७४॥ धर्म सहायक हो प्रभू, धर्म मार्ग की लीक। शुभ मर्यादा बंध प्रति, करण चलावन ठीक॥ ॐ ह्रीं अहँ धर्मसारथये नमः अर्घ्यं ॥६७५ ॥ शिव मारग दिखलाय कर, भविजन कियो उद्धार। धर्म सुयश विस्तार करि, बतलायो शुभसार॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ शिवकीर्तिजिनाय नमः अर्घ्यं ॥६७६ ॥ मोह अन्ध हन सूर्य हो, जगदीश्वर शिवनाथ। - मोक्षमार्ग पर परकाश कर, नमूं जोर जुग हाथ। ॐ ह्रीं अर्ह मोहांधकारविनाशकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥६७७॥ मन इन्द्री व्यापार बिन, भाव रूप विध्वंस। ज्ञान अतिन्द्रिय धरत हो, नमत नशै अघ वंश। ___ॐ ह्रीं अहँ अतीन्द्रियज्ञानरूपजिनाय नमः अर्घ्यं ॥६७८॥ पर उपदेश परोक्ष बिन, साक्षात परतक्ष । जानत लोकालोक सब, धरै ज्ञान अलक्ष॥ ॐ ह्रीं अहँ केवलज्ञानजिनाय नमः अर्घ्यं ॥६७९ ॥ व्यापक हो तिहुँलोक में, ज्ञान ज्योति सब ठौर। तुमको पूजत भावसों, पाऊँ भवदधि और॥ ॐ ह्रीं अहँ विश्वभूतये नमः अर्घ्यं ॥६८० ॥ इन्द्रादिक कर पूज्य हो, मुनिजन ध्यान धराय। तीन लोक नायक प्रभु, हम पर होत सहाय॥ ॐ ह्रीं अहँ विश्वनायकाय नमः अर्घ्यं ॥६८१॥ तुमको पूजत अहं विश्वभूतये मुनिजन Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६] श्री सिद्धचक्र विधान तुम देवन के देव हो, महादेव है नाम । बिन ममत्व शुद्धात्मा, तुम पद करूँ प्रणाम॥ ॐ ह्रीं अहँ दिगम्बराय नमः अर्घ्यं ॥६८२ ॥ सर्वव्यापी कुमत कहैं, करौ भिन्न विश्राम। जगसों तजी समीपता, राजत हो शिवधाम॥ ॐ ह्रीं अहँ निरन्तरजिनाय नमः अर्घ्यं ॥६८३॥ हितकारी अतिमिष्ट हैं, अर्थ सहित गम्भीर। पिय वाणी कर पोषते, द्वादश सभा सुतीर॥ ॐ ह्रीं अहँ मिष्टादिव्यध्वनिजिनाय नमः अर्घ्यं ॥६८४॥ . भवसागर के पार हो, सुख सागर गलतान। भव्य जीव पूजत चरन, पावै पद निरवान॥ ॐ हीं अहं भवान्तकाय नमः अयं ॥६८५ ॥ नहीं चलाचल भाव हैं, पाप कलाप न लेश। दृढ़ परणति निज आत्मरति, पूजू श्री मुक्तेश। . ॐ ह्रीं अहँ दृढव्रताय नमः अर्घ्यं ॥६८६ ॥ असंख्यात नय भेद हैं, यथायोग्य वचद्वार। तिन सबको जानो सुविध, महानिपुण मति धार॥ _ॐ ह्रीं अहँ नयोत्तुङ्गाय नमः अर्घ्यं ॥६८७॥ क्रोधादिक सु उपाधि हैं, आत्म विभाव कराय। तिनको त्यागि विशुद्ध पद, पायो पूर्जे पाय॥ ह्रीं अहँ निष्कलङ्काय नमः अयं ॥६८८॥ ज्यों शशि किरण उद्योत है, पूरण प्रभा प्रकाश। कलाधार सोहैं सु इम, पूजत अघ तम नाश। ॐ ह्रीं अहँ पूर्णकलाधराय नमः अर्घ्यं ॥६८९॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२८७ जन्म-मरण को आदि ले, जग में क्लेश महान। तिसके हन्ता हो प्रभू, भोगत सुख निर्वाण॥ ___ॐ ह्रीं अहँ सर्वक्लेशापहाय नमः अर्घ्यं ॥६९०॥ ध्रुव स्वरूप थिर हैं सदा, कभी अन्त नहिं होय। अव्याबाध विराजते, पर सहाय को खोय॥ ॐ ह्रीं अहँ ध्रौव्यरूपजिनाय नमः अयं ॥६९१॥ व्यय उत्पाद सुभाव हैं, ताको गौण कराय। अचल अनन्त स्वभाव में, तीनलोक सुखदाय॥ ॐ ह्रीं अहँ अक्षयअनंतस्वभावात्मकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥६९२ ॥ स्व ज्ञानादि चतुष्ट पद, हृदे माह विकसाय। सोहत हैं शुभ चिह्न करि, भवि आनन्द कराय॥ ॐ ह्रीं अहँ श्रीवत्सलांछनाय नमः अर्घ्यं ॥६९३ ॥ धर्म रीति परगट कियो, युग की आदि मझार। भविजन पोषे सुख सहित, आदि धर्म अवतार॥ ॐ ह्रीं अहँ आदिब्रह्मणे नमः अर्घ्यं ॥६९४॥ चतुरानन परसिद्ध हैं, दर्श होय चहुँ ओर। चउ अनुयोग बखानते, सब दुःख नाशौ मोर। ॐ ह्रीं अहँ चतुर्मुखाय नमः अर्घ्यं ॥६९५ ॥ जगत जीव कल्याणा कर, वृष मर्याद बखान। ब्रह्म ब्रह्म भगवान हो, महामुनी सब मान॥ ॐ ह्रीं अहँ ब्रह्मणे नमः अर्घ्यं ॥६९६ ॥ प्रजापति प्रतिपाल कर, ब्रह्मा विधि करतार। मन्मथ इन्द्री वश करन, बन्दूं सुख आधार॥ ॐ ह्रीं अर्ह विधात्रे नमः अर्घ्यं ॥६९७॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८] श्री सिद्धचक्र विधान तीन लोक की लक्ष्मी, तुम चरणाम्बुज वास। श्रीपति श्रीधर नाम शुभ, दिव्यासन सुखरास॥ ॐ ह्रीं अहँ कमलासनाय नमः अयं ॥६९८॥ बहुरि न जग में मण हैं, पंचम गति में वास। . नित्य अमरता पाइयो, जरा मृत्यु को नाश॥ - ॐ ह्रीं अर्ह अजन्मिने नमः अर्घ्यं ॥६९९ ॥ पाँच काय पुद्गलमई तामें एक न होय। केवल आत्म प्रदेश ही, तिष्ठत हैं दुःख खोय॥ ॐ ह्रीं अहँ आत्मभुवे नमः अर्घ्यं ॥७००॥ लोक शिखर सुखसों रहैं, ये ही प्रभुता जान। धारत हैं तिहुँलोक में, अधिक प्रभा परधान॥ ॐ ह्रीं अहँ लोकशिखरनिवासिने नमः अर्घ्यं ।।७०१॥ अधिक प्रताप प्रकाश है, मोह तिमिर को नाश। शिवमग दिखलावत सही, सूरजसम प्रतिभास॥ . ॐ ह्रीं अहँ सूरज्येष्ठाय नमः अर्घ्यं ॥७०२ ॥ प्रजापाल हित धार उर, शुभ मारग बतलाय। सत्यारथ ब्रह्मा क है, तुमरे बन्दूं पाय॥ ___ॐ ह्रीं अहँ प्रजापतये नमः अर्घ्यं ॥७०३ ॥ गर्भ समय षट्मास ही, प्रथम इन्द्र हर्षाय। रत्नवृष्टि नित करत हैं, उत्तम गर्भ कहाय॥ ॐ ह्रीं अहँ हिरण्यगर्भाय नमः अर्घ्यं ॥७०४॥ तुमहि चार अनुयोग के, अंग कहै मुनिराय। तुमसों पूरण श्रुत सही, नान्तर मंगल काय॥ ॐ ह्रीं अहँ वेदाङ्गाय नमः अर्घ्यं ॥७०५ ॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२८९ तुम उपदेश थकी कहैं, द्वादशांग गणराज। पूरण ज्ञाता तुम्हीं हो, प्रनमूं मैं शिवकाज॥ ____ॐ ह्रीं अहँ पूर्णवेदज्ञाय नमः अर्घ्यं ॥७०६ ॥ पार भये भवसिन्धु के, तथा सुवर्ण समान। उत्तम निर्मल थुति धरै, नमत कर्ममल हान॥ ___ॐ ह्रीं अहँ भवसिन्धुपारगाय नमः अर्घ्यं ॥७०७॥ सुखाभास पर निमिततें, पर उपाधितें होत। स्वतः सुभाव धरो सहि, सत्यानन्द उद्योत ॥ ॐ ह्रीं अर्ह सत्यानन्दाय नमः अर्घ्यं ॥७०८॥ मोहादिक परबल महा, सो इकसो तुम जीत। औरन की गिनती कहाँ, तिष्ठो सदा अभीत। . ॐ ह्रीं अहँ अजयाय नमः अर्घ्यं ।७०९॥ दिव्य रत्नमय ज्योति हो, अमित अकंप अडोल। मनवाँछित फलदाय हो, राजत अखय अमोल॥ ____ॐ ह्रीं अहँ मनवांछितफलदाय नमः अर्घ्यं ॥७१०॥ देह धार जीवन मुकत, परमातम भगवान। सूर्य समान सुदीप्तधर, महाऋषीश्वर जान॥ ॐ ह्रीं अहँ जीवनमुक्तजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७११॥ स्व भय आदिक से परे, पर भय आदि निवार। · पर उपाधि बिन नित सुखी, बन्दूं भाव सम्हार॥ ॐ ह्रीं अहँ शतानन्दाय नमः अर्घ्यं ।।७१२॥ ईश्वर हो तिहुँलोक के, परम पुरुष परधान। ज्ञानानन्द स्वलक्ष्मी, भोगत नित अमलान । ॐ ह्रीं अहँ विष्णवे नमः अर्घ्यं ॥७१३ ॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९०] श्री सिद्धचक्र विधान रत्नत्रय पुरुषार्थ करि, हो प्रसिद्ध जयवन्त। कर्मशत्रु को क्षय कियो, शीश नमें नित सन्त॥ ॐ ह्रीं अहं त्रिविक्रमाय नमः अयं ॥७१४॥ सूरज हो शिवराह के, कर्म दलन बल सूर। संशयकेतु न ग्रहण ग्रस, महासहज सुखपूर ॥ ॐ ह्रीं अहँ मोक्षमार्गप्रकाशकआदित्यरूपजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७१५ ॥ सुभग अनन्त चतुष्ट पद, सोई लक्ष्मी भोग। स्वामी हो शिवनारि के, नमूं जोरि तिहुँ योग। ॐ ह्रीं अहँ श्रीपतये नमः अर्घ्य ७१६॥ इन्द्रादिक पूजत जिन्हैं, पञ्चकल्याणक थाप। अद्भुत पराक्रम को धरै, नमत नसैं भव पाप॥ ॐ ह्रीं अहँ पुरुषोत्तमाय नमः अर्घ्यं ॥७१७॥ निज प्रदेश में बसत हैं, परमातम को वास। आप मोक्ष के नाथ हो, आपहि मोक्ष निवास॥ . ॐ ह्रीं अर्ह वैकुण्ठाधिपतये नमः अर्घ्यं ॥७१८ ॥ सर्व लोक कल्याणकर, विष्णु नाम भगवान। श्री अरहन्त स्वलक्ष्मी, ताके भरता जान॥ ॐ ह्रीं अहं सर्वलोकश्रेयस्करजिनाय नमः अर्घ्यं ७१९ ॥ मुनिमन कुमुदनि मोदकर, भव सन्ताप विनाश। पूरण चन्द्र त्रिलोक में, पूरण प्रभा प्रकाश॥ पूरण चन्द्र हृषीकेशाय नम हो देवन के दिनकर सम परकाश कर, हो देवन के देव। ब्रह्मा विष्णु कहात हो, शशि सम दुति स्वयमेव॥ ॐ ह्रीं अहँ हरये नमः अर्घ्यं ॥७२१ ॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२९१ स्वयं विभव के हो धनी, स्वयं ज्योति परकास। स्वयं ज्ञान दृग वीर्य सुख, स्वयं सुभाव विलास। ॐ ह्रीं अहँ स्वयंभुवे नमः अर्घ्यं ॥७२२॥ धर्म भारधर धरिणी, हो जिनेन्द्र भगवान। तुमको पूजों भावसों, पाऊँ पद निर्वाण॥ ॐ ह्रीं अर्ह विश्वम्भराय नमः अर्घ्यं ॥७२३ ॥ असुर काम अर हास्य इन, आदि कियो विध्वंश। महा श्रेष्ठ तुमको नमू, रहै न अघ को अंश। ॐ ह्रीं अहँ असुरध्वंसिने नमः अर्घ्यं ॥७२४॥ सुधाधार द्यो अमरपद, धर्म फूल की बेल। शुभ मति गोपिन संग में, हमें राख निज गेल॥ ... ॐ ह्रीं अहँ माधवाय नमः अर्घ्यं ।।७२५ ॥ विषय कषाय स्व वश करी, बलि वश कियो जु काम। महाबली परसिद्ध हो, तुमपद करूँ प्रणाम ॥ , ॐ ह्रीं अहँ बलिबन्धनाय नमः अर्घ्यं ।।७२६ ॥ तीन लोक भगवान हो, निज पर के हितकार। सुरनर पशु पूजत सदा, भक्ति भाव उर धार॥ ह्रीं अर्ह अधोक्षजाय नमः अयं ॥७२७॥ हितमित मिष्ट प्रिय वचन, अमृत सम सुखदाय। धर्म मोक्ष परगट करन, बन्दूं तिनके पाय॥ ___ॐ ह्रीं अहँ हितमितप्रियवचनजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७२८॥ निज लीला में मगन हैं, साँचा कृष्ण सु नाम। तीन खण्ड तिहुँलोक के, नाम करूँ परणाम॥ ॐ ह्रीं अहँ केशवाय नमः अर्घ्यं ।।७२९ ॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२] श्री सिद्धचक्र विधान सूखे तृण सम जगत की, विभव जान करवास। धरै सरलता जोगमैं, करै पाप को नाश। ॐ ह्रीं अहँ विष्टरश्रवसे नमः अर्घ्यं ॥७३०॥ श्री कहिये आतम विभव, ताकरि हो शुभ नीक। सोहत सुन्दर बदन करि, सजन चित रमणीक॥ ___ॐ ह्रीं अहँ श्रीवत्सलांछनाय नमः अयं ॥७३१ ॥ सर्वोत्तम अति श्रेष्ठ हैं, जिन सन्मति थुति योग। धर्म मोक्ष मारग कहैं, पूजत सजन लोग। ॐ ह्रीं अहँ श्रमते नम: अर्घ्यं ॥७३२॥ . अविनाशी अविकार हैं, नहीं चिगे निज भाव। स्वयं सुआश्रय रहत हैं, मैं पूनँ धर चाव॥ ॐ ह्रीं अर्ह अच्युताय नमः अर्घ्यं ७३३॥ नाशौ लौकिक कामना, निर इच्छुक योगीश। नारि श्रृंगार न मन बसै, वन्दत हूँ लोकीश॥ - ॐ ह्रीं अहँ नरकान्तकाय नमः अर्घ्यं ॥७३४॥ व्यापक लोकालोक में, विष्णुरूप भगवान। धर्मरूप तरु लहत है, पूजत हूँ धर ध्यान॥ ॐ ह्रीं अहँ विश्वसेनाय नमः अर्घ्यं ७३५ ॥ धर्म चक्र सन्मुख चलै, मिथ्यामति रिपु घात। तीन लोक नायक प्रभू, पूजत हूँ दिन-रात॥ ॐ ह्रीं अहँ चक्रपाणये नमः अर्घ्यं ॥७३६ ॥ सुभग सुरूपी श्रेष्ठ अति, जन्म धर्म अवतार। तीन लोक की लक्ष्मी, है एकत्र उदार ॥ ॐ ह्रीं अहँ पद्मनाभाय नमः अर्घ्यं ॥७३७॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२९३ मुनिजन आदर योग हो, लोक सराहन योग। . सुरनर पशु आनन्द कर, सुभग निजातम भोग॥ ___ॐ ह्रीं अहँ जनार्दनाय नमः अर्घ्यं ।।७३८॥ सब देवन के देव हो, महादेव विख्यात। ज्ञानामृत सुखसों खिरै, पीवत भवि सुख पात॥ ॐ ह्रीं अर्ह श्रीकण्ठाय नमः अर्घ्यं ७३९॥ पाप पुञ्ज का नाश करि, धर्म रीति प्रगटाय। तीनलोक के अधिपति, हम पर दया कराय॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ त्रिलोकाधिपशङ्कराय नमः अर्घ्यं ।।७४०॥ . स्वयं व्यापि निज ज्ञान करि, स्वयं प्रकाश अनूप। . स्वयं भाव परमातमा, बन्दूं स्वयं सरूप॥ ॐ ह्रीं अर्ह स्वयंप्रभवे नमः अर्घ्यं ॥७४१॥ सब देवन के देव हो, महादेव है नाम। स्वपर सुगन्धित रूप हो, तुम पद करूँ प्रणाम। ॐ ह्रीं अहँ लोकपालाय नमः अर्घ्यं ७४२॥ धर्मध्वजा जग फरहरै, सब जग माने आन । सब जगशीश नमैं चरण, सब जग को सुख दे आन॥ _ॐ ह्रीं अर्ह वृषभकेतवे नमः अर्घ्यं ।।७४३॥ जन्म-जरा-मृत जीतिकैं, निश्चल अव्यय रूप। सुखसों राजत नित्य ही, बन्दूं हूँ शिवभूप॥ ॐ ह्रीं अहँ मृत्युजयाय नमः अर्घ्यं ॥७४४॥ सब इन्द्री मन जीति के, करि दीनो तुम व्यर्थ। स्वयं ज्ञान इन्द्री जग्यो, नमूं सदा शिव अर्थ॥ - ॐ ह्रीं अर्ह विरूपाक्षाय नमः अर्घ्यं ७४५ ॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४] श्री सिद्धचक्र विधान सुन्दर रूप मनोज्ञ है, मुनिजन मन वशंकार। असाधारण शुभ अणु लगै, केवलज्ञान मॅझार॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ कामदेवाय नमः अर्घ्यं ॥७४६ ॥ सम्दर्शन ज्ञान अरु, चारित एक सरूप। धर्म मार्ग दरशात हैं, लोकत रूप अनूप ॥ ॐ ह्रीं अहँ त्रिलोचनाय नमः अर्घ्यं ॥७४७॥ निजानन्द स्व लक्ष्मी, ताके हो भरतार । शिव कामिन नित भोगते, परमरूप सुखकार॥ ॐ ह्रीं अहँ उमापतये नमः अर्घ्यं ॥७४८॥ जे अज्ञानी जीव हैं, नित प्रति बोध करान। रक्षक हो षट् काय के, तुम सम कौन महान॥ ॐ ह्रीं अहँ पशुपतये नमः अर्घ्यं ७४९ ॥ रमण भाव निज शक्ति सों, धरै तथा दुति काम। कामदेव तुम नाम है, महाशक्ति बल धाम॥ ॐ ह्रीं अहँ शम्बरारये नमः अर्घ्यं ॥७५० ॥ कामदाह को दम कियो, ज्यों अगनी जलधार। निज आतम आचरण नित, महाशील श्रिय सार॥ ॐ ह्रीं अहँ त्रुिपरान्तकाय नमः अर्घ्यं ।७५१ ॥ निज सन्मति शुभ नारसों, मिले रहे अरधांग। ईश्वर हो परमातमा, तुम्हें नमूं सर्वांग॥ ॐ ह्रीं अहँ अर्द्धनारीश्वराय नमः अर्घ्यं ॥७५२॥ नहीं चिगे उपयोग से, महा कठिन परिणाम। महावीर्य धारक नमूं, तुम को आठो याम॥ ॐ ह्रीं अहँ रुद्राय नमः अर्घ्यं ॥७५३ ॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२९५ गुण पर्याय अनन्त युत, वस्तु स्वयं परदेश। स्वयं काल स्व क्षेत्र हो, स्वयं सुभाव विशेष॥ ॐ ह्रीं अहँ भावाय नमः अर्घ्यं ।।७५४॥ सूक्षम गुप्त स्वगुणं धरै, महा शुद्धता धार। चार ज्ञानधर नहिं लखै, मैं पूजूं सुखकार॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ गर्भकल्याणकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७५५ ॥ शिव तिय संग सदा रमें, काल अनन्त न और। अविनाशी अविकार हो, महादेव शिरमौर ॥ ह्रीं अहँ सदाशिवाय नमः अर्घ्यं ॥५६॥ . जगत कार्य तुमसों सरै, सब तुमरे आधीन। सब के तुम सरदार हो, आप धनी जग दीन॥ ॐ ह्रीं अहँ जगत्कर्त्रे नम: अर्घ्यं ॥७५७ ॥ महा घोर अँधियार है, मिथ्या मोह कहाय। जग में शिव मगर लुप्त था, ताको तुम दरशाय॥ - ह्रीं अहँ अन्धकारन्तकाय नमः अर्घ्यं ।।७५८॥ सन्तति पक्ष जुदी नहीं, नहीं आदि नहीं अन्त। सदा काल बिन काल तुम, राजत हो जयवन्त॥ ___ॐ ह्रीं अहँ अनादिनिधनाय नमः अर्घ्यं ॥७५९॥ तीन लोक आराध्य हो, महा यज्ञ को ठाम। तुम को पूजत पाइये, महा मोक्ष सुख धाम॥ ॐ ह्रीं अहँ हराय नमः अर्घ्यं ॥७६०॥ महा सुभट गुणरास हो, सेवत हैं तिहुँ लोक। शरणागत प्रतिपाल कर, चरणाम्बुज दूं धोक॥ ॐ ह्रीं अहँ महासेनाय नमः अर्घ्य ७६१ ॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६] श्री सिद्धचक्र विधान गणधरादि सेवें चरण, महा गणपती नाम। पाप करो भवसिन्धुतें, मंगल कर सुख धाम॥ ____ॐ ह्रीं अहँ महागणपतिजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७६२॥ चार संघ के नाथ हो, तुम आज्ञा शिर धार। धर्म मार्ग प्रवर्त्त कर, बन्दूं पाप निवार॥ ॐ ह्रीं अहँ गणनाथाय नमः अयं ॥७६३॥ . मोह सर्प के दमन को, गरुड़ समान कंहाय। सब के आदरकार हो, तुम गणपति सुखदाय॥ ॐ ह्रीं अहँ महाविनायकाय नमः अर्घ्य ७६४॥ जे मोही अल्पज्ञ हैं, तिनसों हो प्रतिकूल। धर्माधर्म विरोध कर, धरूँ शीश पग धूल। ॐ ह्रीं अहँ विरोधविनाशकजिनाय नमः अयं ॥७६५ ॥ जितने दुःख संसार में, तिनको वार न पार। इक तुमही जानौ सही, ताहि तजो दुःख भार॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ विपद्विनाशकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७६६ ॥ सब विद्या के बीज हो, तुम वाणी परकाश। सकल अविद्या मूलतें, इक छिन में हो नाश॥ ॐ ह्रीं अहँ द्वादशात्मने नमः अर्घ्यं ॥७६७ ॥ पर निमित्त से जीव को, रागादिक परिणाम। तिनको त्याग सुभाव में, राजत है सुखधाम। ॐ ह्रीं अर्ह रहिताय नमः अर्घ्य ७६८ ॥ अन्तर बाहिर प्रबल रिपु, जीत सके नहीं कोय। निर्भय अचल सुथिर रहैं, कोटि शिवालय सोय॥ ॐ ह्रीं अहँ दुर्जयाय नमः अर्घ्यं ॥७६९ ॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२९७ धन सम गर्जत वचन हैं, भागे कुनय कुवादि। प्रबल प्रचण्ड सुवीर्य है, धरै सुगुण इत्यादि। ॐ ह्रीं अहँ बृहद्भावाय नमः अर्घ्यं ॥७७० ॥ पाप सघन वन दाह दव, महादेव शिव नाम। अतुल प्रभा धारी महा, तुम पद करूँ प्रणाम। __ॐ ह्रीं अहँ चित्रभानवे नमः अर्घ्यं ॥७७१॥ तुम अजन्म बिन मृत्यु हो, सदा रहो अविकार। ज्योंके त्यों मणि दीप सम, पूजत हूँ धन धार॥ __ॐ ह्रीं अहँ अजरामरजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७७२ ॥ संस्करादि स्वगुण सहित, तिन करि हो आराध्य। तुम को बन्दों भावसों, मिटे सकल दुःख व्याध॥ ॐ ह्रीं अहं द्विजाराध्याय नमः अर्घ्यं ७७३ ॥ निज आतम निज ज्ञान है, तामें रुचि परतीत। पर पद सोहै अरुचिता, आई अक्षय जीत॥ ॐ ह्रीं अहँ सुधाशोचिषे नमः अयं ७७४॥ जन्म-मरण को आदि ले, सकल रोग को नाश। दिव्य औषधि तुम धरो, अमर करन सुखरास॥ ॐ ह्रीं अर्ह औषधीशाय नमः अर्घ्यं ।७७५ ॥ पूरण गुण परकाश कर, ज्यों शशि किरण उद्योत। मिथ्या तप निरवारतै, दर्शत आनन्द होत॥ ॐ ह्रीं अहँ कमलानिधये नमः अर्घ्यं ।७७६ ॥ सूर्य प्रकाश धरै सही, धर्म मार्ग दिखलाय। चार संघ नायक प्रभू, वन्, तिनके पाय॥ .. ॐ ह्रीं अर्ह नक्षत्रनाथाय नमः अर्घ्यं ।।७७७॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८] श्री सिद्धचक्र विधान भव तप-हर हो चन्द्रमा, शीतलकार कपूर। तुम को जो नर सेवते, पाप कर्म हो दूर॥ .. ह्रीं अहँ शुभ्रांशवे नमः अध्यं ॥७७८॥ स्वर्गादिक लक्ष्मी, तासों भी जु ग्लान। स्व पद में आनन्द है, तीन लोक भगवान ॥ ॐ ह्रीं अर्ह सौम्यभावरताय नमः अयं ॥७७९ ॥ पर पदार्थ को इष्ट लखि, होत नहीं अभिमान। हो अबन्ध इस कर्मतें, स्व आनन्द निधान॥ ॐ ह्रीं अहँ कुमुदबांधवाय नमः अध्यं ॥७८०॥ सब विभाव को त्याग करि, हैं स्वधर्म में लीन। तातें प्रभुता पाइयो, हैं नहिं बन्धाधीन ॥ ॐ ह्रीं अर्ह धर्मरतये नमः अयं ॥७८१॥ आकुलता नहीं लेश है, नहीं रहै चित भंग। सदा सुखी तिहुँलोक में, चरण नमूं सब अंग॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ आकुलतारहितजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७८२ ॥ शुभ परिणति प्रगटाय के, दियो स्वर्ग को दान। धर्म ध्यान तुम से चले, सुमिरत हो शुभ ध्यान ॥ ॐ ह्रीं अहँ पुण्यजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७८३ ॥ भविजन करत पवित्र अति, पाप मैल प्रक्षाल। ईश्वर हो परमातमा, नमूं चरण निज भाल॥ ॐ ह्रीं अहँ पुण्यजिनेश्वराय नमः अयं ॥७८४॥ श्रावक या मुनिराज हो, धर्म आप से होय। धर्मराज शुभ नीति करि, उन्मार्गन को खोय॥ ॐ ह्रीं अहँ धर्मराजाय नमः अयं ॥७८५ ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [२९९ स्वयं स्व आतम रस लहो, ताही कहिये भोग। अन्य कुपरिणति त्यागियो, नमूं पदाम्बुज योग। ॐ ह्रीं अर्ह भोगराजाय नमः अयं ७८६ ॥ दर्शन ज्ञान सुभाव धरि, ताही के हो स्वाम। सब मलीनता त्यागियो, भये शुद्ध परिणाम॥ ॐ ह्रीं अहँ दर्शनज्ञानचारित्रात्मजिनाय नमः अयं ॥७८७॥ सत्य उचित शुभ न्याय में, है आनन्द विशेख। सब कुनीति को नाश कर, सर्व जीव सुख देख॥ ॐ ह्रीं अहं भूतानन्दाय नमः अयं ।७८८॥ पर पदार्थ के संग से, दुःखित होत सब जीव। ताके भयसों भय रहित, भोगें मोक्ष सदीव॥ ॐ ह्रीं अहँ सिद्धिकान्तजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७८९ ॥ जाको कभी न नाश हो, सो पायो आनन्द। अचलरूप निज आत्ममय, भाव अभावी द्वन्द॥ __ ॐ ह्रीं अहँ अक्षयानन्दाय नमः अयं ७९०॥ शिव मारग परगट कियो, दोष रहित वरताय। दिव्यध्वनि करि गर्ज सम, सर्व अर्थ दिखलाय॥ ___ॐ ह्रीं अहँ बृहतांपतये नमः अयं ॥७९१ ॥ .. . चौपाई छन्द हितकारक अपूर्व उपदेश, तुम सम और नहीं देवेश। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अपूर्वदेवोपदेष्ट्रे नमः अर्घ्यं ॥७९२॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३००] श्री सिद्धचक्र विधान कर्म विर्षे संस्कार विधान, तीन लोक में विस्तर जान। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ सिद्धसमूहेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥७९३॥ धर्म उपदेश देत सुखकार, महाबुद्ध तुम हो अवतार। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धबुद्धाय नमः अर्घ्यं ॥७९४॥ . तीनलोक में हो शशि सूर, निज कर्णावलि करि तम चूर। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ तमोभेदिने नमः अर्घ्यं ७९५ ॥ धर्ममार्ग उद्योत करान, सब कुवाद की करि हो हान। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ धर्ममार्गदर्शकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७९६॥ सर्व शास्त्र मिथ्या वा साँच, तुम निज दृष्टि लियो है जाँच। सिद्धसमूह जजूं मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अर्ह सर्वशास्त्रनिर्णायकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७९७ ॥ पञ्चमगति बिन श्रेष्ठन और, सो तुम पाय त्रिजग शिर मौर। सिद्धसमूह जजूं मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ पञ्चमगतिजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७९८ ॥ श्रेष्ठ सुमति तुमहीं हो एक, शिवमारग की जानो टेक। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ श्रेष्ठसुमतिदात्रीजिनाय नमः अर्घ्यं ॥७९९ ॥ वृष मर्जाद भली विधि थाप, भविजन मेटो सब सन्ताप। सिद्धसमूह जजूं मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ सुगताय नमः अयं ॥८०० ।। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३०१ श्रेष्ठ करै कल्याण सु ज्ञान, सम्पूरण सङ्कल्प निशान। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अर्ह श्रेष्ठकल्याणकारकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८०१॥ निज ऐश्वर्य धरो सम्पूर्ण, पर विभूति बिन हो अघ चूर्ण। सिद्धसमूह जगूं मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अर्ह परमेश्वरीयसम्पन्नाय नमः अर्घ्यं ॥८०२॥ श्रेष्ठ शुद्ध परब्रह्म रमाय, मंगलमय पर मंगलदाय। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ . ॐ ह्रीं अहँ परब्रह्मणे नमः अर्घ्यं ॥८०३॥ श्री जिनराज कर्म रिपु जीत, पूजनीक हैं सब के मीत। सिद्धसमूह जजूं मनलाय, भव भव में सुख सम्पतिं दाय॥ - ॐ ह्रीं अहँ कर्मारिजिते नमः अर्घ्यं ॥८०४॥ षट् पदार्थ नव तत्त्व कहाय, धर्म अधर्म भली विधि गाय। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ . ॐ ह्रीं अर्ह सर्वशास्त्रज्ञजिनाय नमः अयं ॥८०५॥ है शुभलक्षणमय परिणाम, पर उपाधिको नहिं कछु काम। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ . ॐ ह्रीं अहँ शुभलक्षणजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८०६॥ सत्य ज्ञानमय है तुम बोध, हेय अहेय बतायो सोध। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ सर्वबोधसत्त्वाय नमः अर्घ्यं ॥८०७॥ इष्टानिष्ट न राग न द्वेष, ज्ञाता दृष्टा हो अविशेष। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ निर्विकल्पाय नमः अर्घ्यं ॥८०८॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२] श्री सिद्धचक्र विधान दूजो तुम सम नहीं भगवान, धर्माधर्म रीति बतलान। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह अद्वितीयबोधजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८०९॥ महादुःखी संसारी जान, तिन के पालक हो भगवान। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ लोकपालाय नमः अयं ॥८१०॥ जग विभूति निर इच्छुक होय, मान रहित आतम रत सोय। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अर्ह आत्मरसरतजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८११॥ ज्यों शशि ताप हरै अनिवार, अतिशय सहित शान्ति करतार। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ शान्तिदात्रे नमः अयं ॥८१२ ॥ हो निरभेद अछेद अशेष, सब इकसार स्वयं परदेश। सिद्धसमूह जजूं मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ __ ॐ ह्रीं अहं अभेद्याछेद्यजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८१३॥ मायाकृत सम पाँचो काय, निजसों भिन्न लखो मत भाय। सिद्धसमूह जगूं मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ पञ्चस्कन्धमयात्मदृशे नमः अर्घ्यं ॥८१४॥ बीती बात देख संसार, भवतन भोग विरक्त उदार। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ भूतार्थभावनासिद्धाय नमः अर्घ्यं ॥८१५ ॥ धर्माधर्म जान सब ठीक, मोक्षपुरी दिखलायो लीक। सिद्धसमूह जजूं मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ चतुराननजिनाय नमः अयं ॥८१६ ॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३०३ में सुख सम्पति ही अहं निराश्रवा चौ अनी वीतराग सर्वज्ञ सु देव, सत्यवाक वक्ता स्वयमेव। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ सत्यवक्त्रे नमः अयं ॥८१७॥ मन-वच-काय जोग परिहार, कर्मवर्गणा नाहिं लगार। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहं निराश्रवाय नमः अयं ॥८१८॥ चौ अनुयोग कियो उपदेश, भव्य जीव सुख लहत हमेश। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहं चतुर्भूमिकशासनाय नमः अयं ॥८१९॥ काहू पदसों मेल न होय, अन्वय रूप कहावै सोय। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ... ॐ ह्रीं अहँ अन्वयाय नमः अर्घ्यं ॥८२०॥ हो समाधि मैं नित लवलीन, बिन आश्रय नित ही स्वाधीन। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अर्ह समाधिनिमग्नजिनाय नमः अयं ॥८२१॥ लोक भाल हो तिलक अनूप, हो लोकोत्तम शेष स्वरूप। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह लोकभालतिलकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८२२ ॥ अक्षाधीन हीन है शक्त, तिसको नाश करा निज व्यक्त। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ तुच्छभावभिदे नमः अयं ॥८२३ ॥ जीवादिक द्रव्य षट् सुजान, तिनको भली भान्ति है ज्ञान। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अर्ह षद्रव्यदृशे नमः अयं ॥८२४॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४] श्री सिद्धचक्र विधान विकलप नय सकल प्रमाण, वस्तु भेद जानो स्वज्ञान। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहं सकलवस्तुविज्ञात्रे नमः अयं ॥८२५॥ सब पदार्थ दर्शत तुम बैन, संशय हरण करण सुख चैन। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ षोडशपदार्थवादिने नमः अर्घ्यं ॥८२६॥ वर्णन करि पञ्चास्तिजुकाय, भव्य जीव संशय विनशाय। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ___ ॐ हीं अहँ पञ्चास्तिकायबोधकजिनाय नमः अयं ॥८२७॥ प्रतिबिम्बत हो आरसि माहि, ज्ञानाध्यक्ष जान हो ताहि। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ ज्ञानाध्यक्षजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८२८॥ जामें ज्ञान जीव को एक, सो परकाशो शुद्ध विवेक। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ समवायसार्थकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८२९॥ भक्तनि के हो साध्य सुकर्म, अन्तिम पौरुष साध्य सुशर्म। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ भत्तैकसाधकधर्माय नमः अर्घ्यं ॥८३०॥ बाकी रहो न गुण शुभ एक, ताको स्वाद न हो प्रत्येक। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहं निरवशेषगुणामृताय नमः अयं ॥८३१ ॥ नय सुपक्ष करि सांख्य कुवाद, तुम निरवाद पक्ष कर वाद। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ सांख्यादिपक्षविध्वंसकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८३२॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३०५ सम्यग्दर्शन है तुम बैन, वस्तु परीक्षा भाषो ऐन। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहं सम्यग्दर्शनरूपजिनाय नमः अध्यं ॥३३॥ धर्मशास्त्र के हो कर्तार, आदि पुरुष धारो अवतार। सिद्धसमूह जजूं मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ____ॐ ह्रीं अहं आदिपुरुषजिनाय नमः अध्यं ॥८३४॥ नय साधत नैयायक नाम, सो तुम पक्ष धरो अभिराम। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ___ॐ हीं अहं पञ्चविंशतितत्त्ववेत्रे नमः अध्यं ॥८३५॥ स्वपर चतुष्क वस्तु को भेव, व्यक्ताव्यक्त करो निरखेद। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ - ॐ ह्रीं अर्ह व्यक्ताव्यक्तज्ञानविदे नमः अयं ॥८३६॥ दर्शन ज्ञान भेद उपयोग, चेतनता मय है शुभ योग। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ - ॐ ह्रीं अहँ ज्ञानचैतन्यभेददृशे नमः अध्यं ॥८३७॥ स्वैसंवेदन शुद्ध धराय, अन्य जीव हैं मलिन कुभाय। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहं स्वसंवेदनज्ञानवादिने नमः अयं ॥८३८॥ द्वादश सभा करै सतकार, आदर योग बैन सुखकार। सिद्धसमूह जजूं मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ___ॐ ह्रीं अहं समवशरणद्वादशसभापतये नमः अयं ॥८३९॥ आगम अक्ष अनक्ष प्रमान, तीन भेद कर तुम पहचान। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहं त्रिप्रमाणाय नमः अयं ॥८४० ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६] श्री सिद्धचक्र विधान विशद शुद्ध मति हो साकार, तुम को जानत है सुविचार। सिद्धसमूह जजूं मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहं अक्षप्रमाणाय नमः अयं ॥८४१॥ नयसापेक्षक शुभ बैन, हैं अशंस सत्यारथ ऐन। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ _ ॐ ह्रीं अहं स्याद्वादवादिने नमः अयं ॥८४२॥ लोकालोक क्षेत्र के मांहि, आप ज्ञान है सब दरशाहिं। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥, ॐ हीं अहं क्षेत्रज्ञाय नमः अध्यं ॥८४३॥ . अन्तर बाह्य लेश नहिं और, केवल आतम मई अघोर। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धात्मजिनाय नमः अयं ॥८४४॥ अन्तिम पौरुष साध्यो सार, पुरुष नाम पायो सुखकार। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ . ॐ ह्रीं अहं पुरुषात्मजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८४५ ॥ चहुँगति में नरनेह मँझार, मोक्ष होत तुम नर आकार। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ नराधिपाय नमः अर्घ्यं ॥८४६॥ दर्श ज्ञान चेतन की लार, निरावर्ण तुम हो अविकार। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ निरावरणचेतनाय नमः अयं ॥८४७॥ भाव न वेद वेद नरदेह, मोक्ष रूप है नहिं सन्देह। सिद्धसमूह जजूं मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ ह्रीं अहँ मोक्षरूपजिनाय नमः अयं ॥८४८॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३०७ सत्य यथारथ हो सब ठीक, स्वयं सिद्ध राजो शुभ नीक। सिद्धसमूह जर्जे मनलाय, भव भव में सुख सम्पति दाय॥ ॐ हीं अहँ अकृत्रिमजिनाय नमः अध्यं ॥८४९ ॥ दोहा जाकरि तुम को जानिये, सो है अगम अलक्ष। निर्गुण यातें कहत हैं, भव भय” हम रक्ष॥ ॐ ह्रीं अहं निर्गुणाय नमः अध्यं ॥८५०॥ । चेतनमय हैं अष्ट गुण, सो तुम में इक नाम। शुद्ध अमूरत देव हो, स्व प्रदेश चिदराम॥ ___ॐ ह्रीं अह अमूर्ताय नमः अध्यं ॥८५१ ॥ उमापती त्रिभुवन धनी, राजत भू भरतार। निजानन्द को आदि ले, महा तुष्ट निरधार॥ - . ॐ ह्रीं अहँ उमापतये नमः अध्यं ॥८५२॥ व्यापक लोकालोक में, ज्ञान ज्योति के द्वार। लोकशिखर तिष्ठत अचल, करो भक्त उद्धार॥ ___ ॐ ह्रीं अहं सर्वगताय नमः अयं ॥८५३॥ योग प्रबन्ध निवारियो, राग-द्वेष निरवार। देह रहित निष्कम्प हो, भये अक्रिया सार॥ ॐ ह्रीं अर्ह अक्रियाय नमः अयं ॥८५४॥ सर्वोत्तम अति उच्च गति, जहाँ रहो स्वयमेव। देव वास है मोक्ष थल, हो देवन के देव॥ - ॐ ह्रीं अर्ह देवष्ठजिनाय नमः अयं ॥८५५॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८] श्री सिद्धचक्र विधान भवसागर के तीर हो, अचलरूप अस्थान। फिर नहिं जग में जन्म है, राजत हो सुख थान॥ ॐ ह्रीं अहं तटस्थाय नमः अध्यं ॥८५६॥ ज्यों के त्यों नित थिर रहो, अचल रूप अविनाश। स्वैपदमय राजत सदा, स्वयं ज्योति परकाश॥ ॐ ह्रीं अहं कूटस्थाय नमः अयं ॥८५७॥ तत्व अतत्व प्रकाशियो, ज्ञाता हो सब भास। ज्ञान मूर्ति हो ज्ञान धन, ज्ञान ज्योति अविनाश॥ ॐ हीं अहं ज्ञात्रे नमः अध्यं ॥८५८॥ पर निमित्त के योगतें, व्यापै नहीं विकार। निज स्वरूप में थिर सदा, हो अबाध निरधार॥ ___ ॐ ह्रीं अहं निरबाधाय नमः अयं ॥८५९॥ चारवाक वा सांख्यमत, झूठी पक्ष धरात। अल्प मोक्ष नहिं होत है, राजत हो विख्यात ॥ . ॐ हीं अहं निराभावाय नमः अर्घ्यं ॥८६०॥ तारण-तरण जहाज हो, अतुल शक्ति के नाथ। भव वारिधि से पार कर, राखो अपने साथ ॥ ___ॐ ह्रीं अहं भववारिधिपारकाय नमः अर्घ्यं ॥८६१॥ बन्ध मोक्ष की कहन है, सो भी है व्यवहार। तुम विवहार अतीत हो, शुद्ध वस्तु निरधार॥ ___ ॐ हीं अहँ बन्धमोक्षरहिताय नमः अयं ॥८६२ ॥ चारों पुरुषारथ विर्षे, मोक्ष पदारथ सार। तुम साधो परधान हो, सब में सुख आधार॥ ॐ ह्रीं अहं मोक्षसाधनप्रधानजिनाय नमः अयं ॥८६३ ॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३०९ कर्ममैल पक्षाल के, निज आतम लवलाय। हो प्रसन्न शिवथल वि., अंतरमल विनशाय॥ ॐ ह्रीं अहं कर्मव्याधिविनाशकजिनाय नमः अध्यं ॥८६४॥ निजसुभाव निज वस्तुता, निज सुभाव मैं लीन। बन्दूं शुद्ध स्वभावमय, अन्य कुभाव मलीन॥ ___ॐ ह्रीं अहं निजस्वाभावस्थितजिनाय नमः अध्यं ॥८६५॥ निज स्वरूप परकाश है, निरावर्ण ज्यों सूर। तुम को पूजत भावसों, मोहकर्म को चूर॥ ___ॐ हीं अहं निरावरणसूर्यजिनाय नमः अध्यं ॥८६६॥ निज भावनतें मोक्ष हो, ते हो भाव रहात। स्वैगुण स्वै परजाय में, थिरता भाव धरात॥ ॐ हीं अहँ स्वरूपआरूढजिनाय नमः अयं ॥८६७॥ सब कुभाव को जीतियो, शुद्ध भये निरमूल। शुद्धातम कहलात हो, नमत नशे अघ शूल॥ 4. ॐ ह्रीं अहं प्रकृतिप्राप्ताय नमः अध्यं ॥८६८॥ निज सन्मति के सन्मति, निज बुध के बुधवान। शुभ ज्ञाता शुभ ज्ञान हो, पूजत मिथ्या हान॥ ___ॐ ह्रीं अहँ विशुद्धसम्मतिजिनाय नमः अयं ॥८६९॥ कर्म प्रकृति को अंश बिन, उत्तर हो या मूल। शुद्धरूप अति तेज घन, ज्यों रविबिम्ब अधूल॥ ____ॐ ह्रीं अर्ह शुद्धरूपजिनाय नमः अयं ॥८७०॥ आदि पुरुष आदीश जिन, आदि धर्म अवतार। आदि मोक्ष दातार हो, आदि कर्म हरतार॥ ॐ ह्रीं अहं आघवेधसे नमः अध्यं ॥८७१॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१०] श्री सिद्धचक्र विधान नहिं विकार आवै कभी, रहो सदा सुखरूप। रोग शोक व्यापै नहीं, निवसे सदा अनूप॥ ॐ हीं अहं निर्विकृतये नमः अयं ॥८७२॥ निज पौरुष करि सूर्य सम, हरो तिमिर मिथ्यात। . तुम पुरुषारथ सफल है, तीनलोक विख्यात॥ ॐ ह्रीं अहँ मिथ्यातिमिरविनाशक नमः अध्यं ॥८७३ ॥ वस्तु परीक्षा तुम बिना, और झूठ करखेद। अन्धकूप में आप सर, डारत हैं निरभेद॥ ॐ ह्रीं अर्ह मीमांसकाय नमः अयं ॥८७४॥ होनहार या लई, या पईये इस काल। अस्तिरूप सब वस्तु हैं, तुम जानौ यह हाल॥ ॐ ह्रीं अहँ अस्तिसर्वज्ञाय नमः अर्घ्यं ॥८७५ ॥ जिनवाणी जिन सरस्वती, तुम गुण सों परिपूर। पूज्य योग तुम को कहैं, करैं मोह मद चूर॥ ॐ ह्रीं अहँ श्रुतपूज्याय नमः अयं ॥८७६ ॥ स्वयं स्वरूपनानन्द हो, निज पद रमण सुभाव। सदा विकाशित ही रहै, बन्दूं सहज सुभाव। ॐ ह्रीं अहँ सदोत्सवाय नमः अयं ॥८७७॥ मन इन्द्री जानत नहीं, जाको शुद्ध स्वरूप। वचनातीत स्वगुण सहित, अमल अकाय अरूप॥ ॐ ह्रीं अर्ह परोक्षज्ञानागम्याय नमः अर्घ्यं ॥८७८ ॥ जो श्रुतज्ञान कला धरै, तिनको हो तुम इष्ट। तुमको निज प्रतिध्यावते, नाशे सकल अनिष्ट। ॐ ह्रीं अहं इष्टपाठकाय नमः अयं ॥८७९ ॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३११ निज समरथ कर साधियो, निज पुरुषारथ सार। . सिद्ध भये सब काम, तुम सिद्ध नाम सुखकार॥ ॐ ह्रीं अर्ह सिद्धकर्मक्षया नमः अयं ॥८८०॥ पृथ्वी जल अगनी पवन, जानत इनके भेद। गुण अनन्त पर्याय सब, सो विभाग परिछेद ॥ ॐ ह्रीं अहँ चार्वकादिमिथ्यामतनिवारकाय नमः अर्घ्यं ॥८८१॥ निज संवेदन ज्ञान में, देखत हौ प्रत्यक्ष । रक्षक हो, तिहुँलोक के, हम शरणागत पक्ष॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह प्रत्यक्षकप्रमाणाय नमः अर्घ्यं ॥८८२॥ . विद्यमान शिवलोक में, स्वैगुण पर्य समेत। कहैं अभाव कुमत मती, निज पर धोका देत॥ ॐ ह्रीं अहँ अस्तिमुक्ताय नमः अर्घ्यं ॥८८३॥ तुम आगम के मूल हो, अपर गुरू है नाम। तुम वाणी अनुसार ही, भये शास्त्र अभिराम॥ . ॐ ह्रीं अहँ गुरुश्रुतये नमः अर्घ्यं ॥८८४ ॥ तीन लोक के नाथ हो, ज्यों सुरगण मैं इन्द्र। निजपद्र रमन स्वभाव धर, नमें तुम्हें देवेन्द्र ॥ ॐ ह्रीं अर्ह त्रिलोकनाथाय नमः अर्घ्यं ॥८८५॥ सब स्वभाव अविरुद्ध हैं, निजपर घातक नाहिं। सहचारी परिणाम हैं, निवसत हैं तुम माहि॥ ॐ ह्रीं अर्ह स्वस्वभावाविरुद्धजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८८६ ॥ ब्रह्म ज्ञान को वेद कर, भये शुद्ध अविकार। पूरण ज्ञानी हो नमू, लहो वेद की सार॥ ॐ ह्रीं अहँ ब्रह्मदिवे नमः अर्घ्यं ॥८८७॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२] श्री सिद्धचक्र विधान शब्द ब्रह्म के ज्ञानतें, आतम-तत्त्व विचार। शुक्लध्यान में लय भए, हो अतर्क अविचार॥ ___ ॐ ह्रीं अर्ह शब्दाद्वैतब्रह्मणे नमः अर्घ्यं ॥८८८ ॥ सूक्षम तत्त्व प्रकाश कर, सूक्षम कर्म उच्छेद। मोक्षमार्ग परगट कियो, कहो सु अन्तर भेद॥ ॐ ह्रीं अहँ सूक्ष्मतत्त्वप्रकाशकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८८९॥ तीन शतक त्रेसठ जु हैं, सब मानै पाखण्ड। धर्म यथारथ तुम कहो, तिन सब को करिखण्ड। ॐ ह्रीं अहँ पाखण्डघ्नाय नमः अर्घ्यं ॥८९०॥ . कर्णरूप करतार हो, कोईक नय के द्वार। सुर मुनि करि पूजत भए, माननीक सुखकार॥ ॐ ह्रीं अहँ नयौघयुजे नमः अयं ॥८९१॥ केवलज्ञान उपाइकें, तदनन्तर हो मोक्ष। साक्षात बड़ भागते, पूजू इहाँ परोक्ष॥ . ॐ ह्रीं अहँ अन्तकृते नमः अर्घ्यं ॥८९२॥ शरणागत को पार कर, देत मोक्ष अभिराम। तारण-तरण सु नाम है, तुम पद करूँ प्रणाम। ॐ ह्रीं अहँ पारकृते नमः अयं ॥८९३ ॥ भव समुद्र गम्भीर हैं, कठिन जास को पार। निज पुरुषारथ करि तिरै, गहो किनारो सार॥ ॐ ह्रीं अर्ह तीरप्राप्ताय नमः अर्घ्यं ॥८९४॥ एक बार जो शरण गहि, ताको हो हितकार। यातें सब जग जीव के, हो आनन्द दातार॥ ॐ ह्रीं अहँ परिहितस्थिताय नमः अर्घ्यं ॥८९५ ॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३१३ रत्नत्रय निज नेत्रसों, मोक्षपुरी पहुँचात। महादेव हो जगत पितु, तीनलोक विख्यात ॥ ____ ॐ ह्रीं अहँ रत्नत्रयनेत्रजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८९६ ॥ तीन लोक के नाथ हो, महा ज्ञान भण्डार। सरल भाव बिन कपट हो, शुद्धबुद्ध अविकार॥ ॐ ह्रीं अहँ शुद्धबुद्धजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८९७ ॥ निश्चय वा व्यवहार के, हो तुम जाननहार। वस्तुरूप निज साधियो, पूजत हूँ निरधार ॥ ___ॐ ह्रीं अहँ ज्ञानकर्मसमुच्चयिने नमः अर्घ्यं ॥८९८ ॥ सुरनर पशु न अघावते, सभी ध्यावते ध्यान। तुमको नित ही ध्यावते, पावै सुख निर्वाण॥ ....... ॐ ह्रीं अहँ नित्यतृप्तजिनाय नमः अर्घ्यं ॥८९९ ॥ कर्म मैल प्रक्षाल करि, तीनों योग संभार। पापशैल चकचूर कर, भये अयोग सुखार॥ ___ॐ ह्रीं अहँ पापमलनिवारकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९००॥ सूरज हो निज ज्ञान घन, ग्रहण उपद्रव नाहिं। बेखटके शिवपंथ सब, दीखत है जिस माहिं। ॐ ह्रीं अर्ह निरावरणज्ञानघनजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९०१॥ जोग योग सङ्कल्प सब, हरो देह के साथ। रहो अकम्पित थिर सदा, मैं नाऊँ निज माथ॥ ॐ ह्रीं अहँ उच्छिन्नयोगाय नमः अर्घ्यं ॥९०२॥ जो सुथिरता को हरै, करै आगमन कर्म । तुम . तासों निर्लेप हो, नाशौ मोह मद शर्म॥ ___ॐ ह्रीं अहँ योगकृतनिर्लेपाय नमः अर्घ्यं ॥९०३॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४] श्री सिद्धचक्र विधान निज आतम में स्वस्थ हैं, स्वैपद योग रमाय। निर्भय तुम निरइच्छु हो, नमूं जोर कर पाय॥ ____ ॐ ह्रीं अहँ स्वस्थयोगरतजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९०४॥ महादेव गिरिराज पर, जन्म समै जिन सूर। . योगकिरण विकसात हो, शोक तिमिरकर दूर॥ ____ ॐ ह्रीं अहँ गिरिसंयोगजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९०५॥ सूक्ष्म निज परदेश तन, सूक्ष्म किया परिणाम। चितवत मन नहिं वच चलै, राजत हो शिवधाम॥ ॐ ह्रीं अहँ सूक्ष्मीकृतवपुःक्रियाय नमः अर्घ्यं ॥९०६॥ . सूक्ष्म तत्व परकाश हैं, शुभ प्रिय वचनन द्वार। भविजन को आनंद करि, तीन जगत गुरु सार॥ ___ ॐ ह्रीं अर्ह सूक्ष्मवामितयोगाय नमः अर्घ्यं ॥९०७॥ कर्म रहित शुद्धात्मा, निश्चल किया रहात। स्वप्रदेशमय थिर सदा, कृतकृत्य सुखपात ॥ .. ॐ ह्रीं अहँ निष्कर्मशुद्धात्मजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९०८ ॥ विद्यमान प्रत्यक्ष है, चेतनराय प्रकाश। कर्म कालिमासों रहित, पूजत हो अघ नाश॥ ___ ॐ ह्रीं अहं भूतामिव्यक्तचेतनाय नमः अर्घ्यं ॥९०९॥ गृहस्थाचरण सुभेद करि, धर्मरूप रसराश। एक तुम्हीं हो धर्म करि, पायो शिवपुर वास॥ ॐ ह्रीं अहँ धर्मरासजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९१०॥ सूर्य प्रकाशन मोहतम, हरता हो शुभ पन्थ। पाप किया बिन राजते, महायती निरग्रन्थ॥ ॐ ह्रीं अहँ परमहंसाय नमः अर्घ्यं ॥९११ ॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३१५ बन्ध रहित सर्वस्व करि, निर्मल हो निर्लेप। शुद्ध सुवर्ण दिपै सदा, नहिं मोह मल लेप॥ ॐ ह्रीं अर्ह परमसंवराय नमः अर्घ्यं ॥९१२॥ मेघ पटल बिन सूर्य जिम, दीप्त अनन्त प्रताप। निरावर्ण तुम शुद्ध हो, पूजत मिट है पाप॥ ॐ ह्रीं अहं निरावर्णाय नमः अयं ॥९१३ ॥ कर्म अंश सब झर गिरे, रहो न एक लगार। परम शुद्धता धारकै, तिष्ठत ही अविकार ॥ ॐ ह्रीं अहँ परमनिर्जराय नमः अर्घ्यं ॥९१४॥ तेज प्रचण्ड प्रभाव है, उदय रूप परताप। अन्य कुदेव कुआरिया, जुगजुग धरत कलाप। ॐ ह्रीं अर्ह प्रज्वलितप्रभाय नमः अर्घ्यं ॥९१५॥ भये निरर्थक कर्म सब, शक्ति भई है हीन। तिनको जीति छिनक में, भये सुखी स्वाधीन। . ॐ ह्रीं अहँ समस्तकर्मक्षयजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९१६ ॥ कर्म प्रकृति को रोग सम, जानो हो क्षयकार। निज स्वरूप आनंद में, कहो विगार निहार॥ ___ॐ ह्रीं अहँ कर्मविस्फोटकाय नमः अर्घ्यं ॥९१७॥ हीन शक्ति परमाद को, आप कियो है अन्त। निज पुरुषारथ सुवीर्यसों, सुखी भए सुअनन्त ॥ ॐ ह्रीं अहँ अनन्तवीर्यजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९१८॥ एक रूप रस स्वाद में, निर आकुलित रहाय। विविधरूप रस पर निमित, ताको त्याग कराय॥ ॐ ह्रीं अहँ ऐकाकाररसास्वादाय नमः अर्घ्यं ॥९१९ ।। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६] श्री सिद्धचक्र विधान इन्द्री मन के सब विषय, त्याग दिये इक लार। निजानन्द में मगन हैं, छाँड़ो जग व्यापार ॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ विश्वाकाररसाकुजिताय नमः अयं ॥९२०॥ पर सम्बन्धी प्राण बिन, निज प्राणनि आधार। सदा रहै जीतव्यता, जरा मृत्यु को टार ॥ ॐ ह्रीं अहँ सदाजीविते नमः अर्घ्यं ॥९२१॥ निज रस के सागर धनी, महाप्रिय स्वादिष्ट। अमर रूप राजै सदा, सुर मुनि के हो इष्ट ॥ ॐ ह्रीं अहँ अमृताय नमः अर्घ्यं ॥९२२॥ . . पूरण निज आनन्द में, सदा जागते आप। नहिं प्रमाद में लिप्त हैं, पूजत विनशे पाप॥ ॐ ह्रीं अहँ जाग्रते नमः अर्घ्यं ॥९२३॥ क्षीण ज्ञान ज्ञानावरण, करै जीव को नित्य। सो आवर्ण विनाशियो, रहो अस्वप्न सुवित्य॥ .. ॐ ह्रीं अर्ह असुप्ताय नमः अर्घ्यं ॥९२४॥ स्व प्रमाण में थिर सदा, स्वयं चतुष्टय सत्य। निराबाध निर्भय सुखी, त्यागत भाव असत्य॥ ॐ ह्रीं अहँ स्वप्रमाणस्थिताय नमः अर्घ्यं ॥९२५॥ श्रम करि नहिं आकुलित हो, सदा रहो निरखेद। स्वस्थरूप राजो सदा, वेदो ज्ञान अभेद॥ ॐ ह्रीं अहं निराकुलितजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९२६ ।। मन-वच-तन व्यापार था, तावत रहो शरीर। ताको नाश अकम्प हो, बन्दूं मन धर धीर॥ ॐ ह्रीं अर्ह अयोगिने नमः अर्घ्यं ॥९२७॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३१७ जितने शुभ लक्षण कहे, तुममें हैं एकत्र। तुमको बन्दू भावसों, हरो पाप सर्वत्र॥ ___ॐ ह्रीं अहँ चतुरशीतिलक्षणाय नमः अर्घ्यं ॥९२८॥ तुम लक्षण सूक्षम महा, इन्द्रिय विषय अतीत। वचन अगोचर गुण धरो, निगुन कहैं सुनीत॥ ॐ ह्रीं अहँ अगुणाय नमः अर्घ्यं ॥९२९ ॥ अगुरु लघु पर्याय के, भेद अनन्तानन्त । गुण अनन्त परिणामकरि, नित्य नमें तुम सन्त॥ . ॐ ह्रीं अहँ अनन्तानन्तपर्याय नमः अर्घ्यं ॥९३०॥ . राग-द्वेष के नाशते, नहीं पूर्व संस्कार। निज सुभाव में थिर रहैं, अन्य वासना टार॥ ... ॐ ह्रीं अहँ पूर्वसंस्कारनाशकाय नमः अर्घ्यं ॥९३१॥ गुण चतुष्ट में वृद्धता, भई अनन्तानन्त । तुमसम और न जगत में, सदा रहो जयवन्त॥ ___ॐ ह्रीं अहँ अनन्तचतुष्टयवृद्धाय नमः अर्घ्यं ॥९३२ ॥ आर्ष कथित उत्तम वचन, धर्म मार्ग अरहन्त। सो सब नाम कहो तुम्हीं, शिवमारग के सन्त॥ _ॐ ह्रीं अहँ प्रियवचना नमः अर्घ्यं ॥९३३ ॥ महाबुद्धि के धाम हो, सूक्षम शुद्ध अवाच्य। चार ज्ञान नहिं गम्य हो, वस्तुरूप सो साच्य॥ . ॐ ह्रीं अहँ नीरवचनीयाय नमः अर्घ्यं ॥९३४॥ सूक्षमतें सूक्षम वि., तुमको है परवेश। आपै सूक्षमरूप हो, राजत निज परदेश॥ . ॐ ह्रीं अर्ह अणीयशे नमः अर्घ्यं ॥९३५ ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८] श्री सिद्धचक्र विधान कर्म प्रबन्ध सुघन-पटल, ताकी छाँय निवार। रवि वन ज्योति प्रगट भई, पूरणता विधि धार॥ ॐ ह्रीं अहँ अनणुपर्याय नमः अर्घ्यं ॥९३६ ॥ निज प्रदेश में थिर सदा, योग निमित निवार। अचल शिवालय के वि, तिष्ठं सिद्ध अपार ॥ ॐ ह्रीं अर्ह स्थेयसे नमः अर्घ्यं ॥९३७॥ . सन्त नमन प्रिय हो अती, सज्जन वल्लभ जान। मुनि जन मन प्यारे सही, नमत होत कल्याण ॥ ॐ ह्रीं अहँ प्रेष्ठाय नमः अर्घ्यं ॥९३८॥ काल अनन्तानन्त लौं, करें शिवालय पास। अव्यय अविनाशी सुथिर, स्वयं जोति परकाश॥ ॐ ह्रीं अहँ स्थिरजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९३९ । स्वै.आतम में वास है, रुलत नहीं संसार। ज्यों के त्यों निश्चल सदा, बन्दत भव दधि पार॥ ॐ ह्रीं अहँ निजात्मतत्वनिष्ठाय नमः अर्घ्यं ॥९४० ॥ सुभग सरावन योग्य हैं, उत्तम भाव धराय। तीनलोक में सार है, मुनिजन वन्दित पाय॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ श्रेष्ठभावधारकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९४१॥ सब के अग्रेसर भये, सब के हो सिरताज। तुम से बड़ा न और है, सब के कर हो काज॥ ॐ ह्रीं अहँ जेष्ठाय नमः अर्घ्यं ॥९४२॥ स्वप्रदेश निष्कम्प हैं, द्रव्य भाव विधि नाश। इष्टानिष्ट निमित धरै, निज आनन्द विलास॥ ॐ ह्रीं अहँ निष्कंपप्रदेशजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९४३ ॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३१९ उचित क्षमादिक अर्थ सब, सत्य सुन्यास सुलब्ध। तिन सबके स्वामी नमूं, पूरण सुखी सुअब्ध। ॐ ह्रीं अहँ उत्तमक्षमादिगुणाब्धिजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९४४ ॥ महा कठिन दुःशक्य हैं, यह संसार निकाश। तुम पायो पुरुषार्थ करि, लहो स्वलब्धि अवास॥ ॐ ह्रीं अर्ह पूज्यपादजिनाय नमः अयं ॥९४५॥ परमारथ निज गुण कहें, मोक्ष प्राप्ति में होय। स्वारथ इन्द्रिय जन्य है, सो तुम इनको खोय॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ परमार्थगुणनिधानाय नमः अर्घ्यं ॥९४६ ॥ पर निमित्त या भेद करि, या उपचरित कहाय। सो तुम में सब भय भए, मानो सुप्त कहाय॥ . ॐ ह्रीं अर्ह व्यवहारसुसुप्ताय नमः अर्घ्यं ॥९४७॥ स्वै पद में नित रमन है, अप्रमाद अधिकाय। निज गुण सदा प्रकाश है, अतुल बली नमूं पाय॥ ह्रीं अहँ अतिजागरूकाय नमः अर्घ्यं ॥९४८॥ सकल उपद्रव मिटि गये, जे थे पर के साथ। निर्भय सदा सुखी भये, बन्दूं नमि निज माथ॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ अतिसुस्थिताय नमः अर्घ्यं ॥९४९ ॥ कहै हुवे हो नेमसै, परमाराध्य अनादि। तुम महातमा जगत के, और कुदेव कुवादि। ____ॐ ह्रीं अहँ उदितोदितमाहात्म्याय नमः अर्घ्यं ॥९५०॥ तत्वज्ञान अनुकूल सब, शब्द प्रयोग विचार। तिसके तुम अध्याय हो, अर्थ प्रकाशनहार॥ ॐ ह्रीं अहँ तत्त्वज्ञानानुकूलजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९५१ ॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२०] श्री सिद्धचक्र विधान ना काहूँसो जन्म हो, ना काहूँसो नाश। स्वयंसिद्ध बिन पर निमित्त, स्वयंस्वरूप प्रकाश॥ ___ॐ ह्रीं अहँ अकृत्रिमाय नमः अर्घ्यं ॥९५२॥ अप्रमाण अत्यन्त है, तुम सन्मति परकाश। तेजरूप उत्सवमई, पाप-तिमिर को नाश॥ ॐ ह्रीं अहँ अमेयमहिम्ने नमः अर्घ्यं ॥९५३॥ रागादिक मल को हरै, तनक नहीं अनवास। महाविशुद्ध अत्यन्त हैं, हरो पाप-अहि-डाँस॥ ॐ ह्रीं अर्ह अत्यन्तशुद्धाय नमः अर्घ्यं ॥९५४॥ स्वयं सिद्ध भरतार हो, शिव कामिनी के संग। रमण भाव निज योग में, मानो अति आनन्द। ___ॐ ह्रीं अहँ सिद्धिस्वयंवराय नमः अर्घ्यं ॥९५५ ॥ विविध प्रकार न धरत हैं, हैं अजन्म अव्यक्त। . सक्षम सिद्ध समान हैं, स्वयं स्वभाव सुव्यक्त। ॐ ह्रीं अहँ सिद्धानुजाय नमः अर्घ्यं ॥९५६ ॥ मोक्षरूप शुभ वास के, आप मार्ग निरखेद। भविजन सुलभ गमन करें, जगत वास को छेद ॥ ॐ ह्रीं अहं शिवपुरीपंथाय नमः अर्घ्यं ॥९५७॥ गुणसमूह अत्यन्त है, कोई न पावै पार। थकित रहे श्रुतकेवली, निजबल कथन अगार॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ अनन्तगुणसमूहजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९५८ ॥ इक अवगाह प्रदेश में, हो अवगाह अनन्त। पर उपाधि निग्रह कियो, मुख्य प्रधान अनन्त ॥ ॐ ह्रीं अहँ परउपाधिनिग्रहकारकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९५९ ॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३२१ स्वयं सिद्ध निज वस्तु हो, आगम इन्द्रिय ज्ञान। कर्तादिक लक्षण नहीं, स्वयं स्वभाव प्रमान॥ ॐ ह्रीं अहँ स्वयंसिद्धजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९६०॥ हो प्रछन्न इन्द्रिय अगम, प्रगट न जाने कोश। सकलअगुणकोलय कियो, निजआसमसेखोय॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ इन्द्रियागम्यजिनाय नमः अयं ॥९६१ ॥ निज गुण करि विज पोषियो, सकल क्षुद्रता त्याग। पूरण निजपद पाय करि, तिष्ठत हो बड़भाग॥ ॐ ह्रीं अहं पुष्टाय नमः अर्घ्यं ॥९६२॥ ब्रह्मचर्य पूरण धरै, निजपद समता धार। सहस अठारह भेद करि, शील सुभाव सुसार॥ ॐ ह्रीं अहँ अष्टादशसहस्रशीलेश्वराय नमः अयं ॥९६३ ॥ महा पुण्य शिवपदकमल, ताके दल विकसान। मुनि मन भ्रमर रमण सुथल, गन्धानन्द महान॥ . ॐ ह्रीं अर्ह पुण्यसंकुलाय नमः अर्घ्यं ॥९६४॥ मति श्रुत अवधि विज्ञान युत, स्वयं बुद्ध भगवान। कृतयुग में मुनि व्रत धरो, शिवसाधक परधान॥ __ॐ ह्रीं अहं व्रताग्रयुयाय नमः अर्घ्यं ॥९६५ ॥ परम शुक्ल शुभ ध्यान में, तुम सेवन हितकार। सन्त उपासक आपके, कर्मबन्ध छुटकार॥ ___ॐ ह्रीं अहँ परमशुक्लध्यानिने नमः अर्घ्यं ॥९६६ ॥ खारवारि इस जलधि को, शी कियो तुम अन्त। गोखुरकार उलंघियो, धरो स्वभुज बलवन्त॥ ॐ ह्रीं अहँ संसारसमुद्रतारकजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९६७॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२] श्री सिद्धचक्र विधान एक समय में गमन कर, कियो शिवालय वास। काल अनन्त अचल रहो, मेटो जग भ्रम त्रास ॥ ॐ ह्रीं अहँ क्षेपिष्ठाय नमः अर्घ्यं ॥९६८॥ पञ्चाक्षर लघु जाप में, जितना लागे काल। अन्तिम पाया शुक्ल का, ध्याय वसै जग भाल॥ ॐ ह्रीं अहँ पञ्चलघुअक्षरस्थितये नमः अर्घ्यं ॥९६९॥ प्रकृति त्रयोदश शेष हैं, जबतक मोक्ष न होय। सब प्रकृति स्थित मेटकें, पहुँचे शिवपुर सोय॥ ह्रीं अहँ त्रयोदशप्रकृति नमः अर्घ्यं ॥९७०॥ . . तेरह विधि चारित्र के, तुम हो पूरण शूर। निज पुरुषारथ करि लियो, शिवपुर आनन्द पूर॥ ___ॐ ह्रीं अहँ त्रयोदशचारित्रपूर्णाय नमः अयं ॥९७१ ॥ निज सुख में अन्तर नहीं, परसों हानि न होय। स्वस्थरूप परदेश जिन, तिन पूजत हूँ सोय॥ . ॐ ह्रीं अर्ह अछेद्याभेद्यजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९७२ ॥ निज पूजनतें देत हो, शिव सम्पति अधिकाय। यातें पूजन योग्य हो, पूनँ मन-वच-काय॥ ॐ ह्रीं अहँ शिवदातृजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९७३ ॥ मोह महा परचण्ड बल, सकै न तुमको जीत। नमूं तुम्हें जयवन्त हो, धार सु उर में प्रीति॥ ॐ ह्रीं अहँ अजयजिनाय नमः अर्घ्यं ॥९७४ ।। यज्ञ विधान में जजत ही, आप मिले निधि रूप। 'तुम समान नहीं और धन, हरत दरिद दूःख कूप॥ ॐ ह्रीं अहँ याज्याय नमः अर्घ्यं ॥९७५ ॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३२३ लोकोत्तर सम्पद विभव, है सर्वस्व अघाय। तुम से अधिक न और हैं, सुख विभूति शिवराय॥ ॐ ह्रीं अहँ अनर्घपरिग्रहाय नमः अर्घ्यं ॥९७६ ॥ तुमरो आह्वानन यजन, प्रासुक विधि से योग। त्रिजग अमोलिक निधि सही, देत पर्म सुख भोग। ____ॐ ह्रीं अहँ अनर्घहेतवे नमः अर्घ्यं ॥९७७॥ एक देश मुनिराज हैं, सर्व देश जिनराज। भवतन भोग विरक्तता, निर्ममत्त्व सुखसाज॥ ॐ ह्रीं अर्ह परमनिस्पृहाय नमः अर्घ्यं ॥९७८॥ पर दुःख में दुःख हो जहाँ, मोह प्रकृति के द्वार। दया कहैं तिसको सुमति, सो तुम मोह निवार॥ ॐ ह्रीं अर्ह अत्यन्तनिर्मोहाय नमः अर्घ्यं ॥९७९॥ स्वयं बुद्ध भगवान हो, सुर मुनि पूजन योग। बिन शिक्षा शिवमार्ग को, साधो हो धरि योग। . ॐ ह्रीं अहँ अशिष्याय नमः अर्घ्यं ॥९८० ॥ तुम एकत्व अन्यत्व हो, परसों सही सम्बन्ध । स्वयं सिद्ध अविरुद्ध हो, नाशो जगत प्रबन्ध॥ ____ॐ ह्रीं अहँ परसम्बन्धरहिताय नमः अर्घ्यं ॥९८१॥ काहू को नहिं यजन करि, गुरु का नहिं उपदेश। स्वयं बुद्ध स्व शक्ति हो, राजो शुद्ध हमेश॥ ह्रीं अर्ह अदीक्षाय नमः अर्घ्यं ॥९८२॥ तुम त्रिभुवन के पूज्य हो, यजो न काहू और। निज हित में रत हो सदा, पर निमित्त को छोर॥ ॐ ह्रीं अहँ त्रिभुवनपूज्याय नमः अर्घ्यं ॥९८३ ॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४] श्री सिद्धचक्र विधान अरहन्तादि उपासना, मोह उदय सो होय। स्वयं ज्ञान में लय भए, मोह कर्म को खोय॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह अदीक्षकाय नमः अर्घ्यं ॥९८४॥ गौण रूप परिणाम है, मुख ध्रुवता गुणधार। अक्षय अवनीश्वर स्वपद, स्वस्थ सुथिर अविकार॥ ॐ ह्रीं अहँ अक्षयाय नमः अर्घ्यं ॥९८५॥. सूक्षम शुद्ध स्वभाव है, लहै न गणधर पार। इन्द्र तथा अहमिन्द्र सब, अभिलाषित उर धार॥ ॐ ह्रीं अहँ अगम्याय नमः अयं ॥९८६॥ . अचल शिवालय के वि, टङ्कोत्कीर्ण समान। सदा विराजो सुख सहित, जगत भ्रमण को हान॥ ___ॐ ह्रीं अहँ अगमकाय नमः अर्घ्यं ॥९८७॥ रमण योग छद्मस्थ के, नाहिं अलिंग सरूप। पर प्रवेश बिन शुद्धता, धारत सहज अनूप॥ . ॐ ह्रीं अहँ अरम्याय नमः अर्घ्यं ॥९८८॥ पर पदार्थ इच्छुक नहीं, इष्टानिष्ट निवार। सुथिर रहो निज आत्म में, बन्दत हूँ हित धार॥ ॐ ह्रीं अहँ अमरकाय नमः अर्घ्यं ॥९८९॥ जाको पार न पाइयो, अवधि रहित अत्यन्त। सो तुम ज्ञान महान है, आशा राखे सन्त॥ ॐ ह्रीं अहँ ज्ञाननिर्भराय नमः अर्घ्यं ॥९९० ॥ मुनिजन जिन सेवन करें, पावै निज पद सार। महा शुद्ध उपयोगमय, वरतत हैं सुखकार॥ ॐ ह्रीं अहँ महायोगीश्वराय नमः अर्घ्यं ॥९९१ ॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३२५ भाव शुद्ध परमात्मा, द्रव्य शुद्ध बिन देह।. कर्म वर्गणा नहिं लिपे, पूजत हूँ धरि नेह॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह द्रव्यशुद्धाय नमः अर्घ्यं ९९२॥ पञ्च प्रकार शरीर को, सूल कियो विध्वंश। स्व प्रदेशमय राजते, पर मिलाप नहीं अंश। ॐ ह्रीं अर्ह अदेहाय नमः अयं ॥९९३ ॥ जाको फेर न जन्म है, फिर नाहीं संसार। सो पञ्चमगति शिवमई, पायो तुम निरधार॥ ॐ ह्रीं अहँ अपुनर्भवाय नमः अयं ॥९९४॥ सकल इन्द्रियाँ व्यर्थ करि, केवलज्ञान सहाय। सब द्रव्यन को ज्ञान हैं, गुण अनन्त पर्याय॥ ___ ॐ ह्रीं अहँ ज्ञानैकविदे नमः अर्घ्यं ॥९९५ ॥ जीव मात्र निज धन सहित, गुण समूह मणि खान। अन्य विभाव विभव नहीं, महाशुद्ध अमलान ॥ ॐ ह्रीं अहँ जीवधनाय नमः अयं ॥९९६ ॥ सिद्ध भये परसिद्ध तुम, निज पुरुषारथ साथ। महाशुद्ध निज आत्ममय, सदा रहो निरवाद ॥ ॐ ह्रीं अहँ सिद्धपरमात्मने नमः अयं ॥९९७॥ लोक शिखर पर थिर भए, ज्यों मन्दिर मणिकुम्भ। निज शरीर अवगाह में, अचल सुथान अलुम्भ। ___ ॐ ह्रीं अहँ लोकाग्रस्थिताय नमः अर्घ्यं ॥९९८॥ सहज निरामय भेद बिन, निराबाध निस्संग। एक रूप सामान्य हो, निज विशेषमई अंग॥ ॐ ह्रीं अहँ निर्द्वन्दाय नमः अर्घ्यं ॥९९९ ॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६] ३२६] ... श्री सिद्धचक्र विधान जे अविभाव प्रछेद है, इक गुण के सु अनन्त। तुम में पूरण गुण सही, धरो अनन्तानन्त ॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह अनन्तानन्तगुणाय नमः अर्घ्यं ॥१००० ॥ पर मिलाप नहीं लेश है, स्वप्रदेशमय रूप। क्षयोपसम ज्ञानी तुम्हें, जानत नहीं स्वरूप॥ ॐ ह्रीं अहँ आत्मरूपाय नमः अर्घ्यं ॥१००१॥ क्षमा आत्म को भाव है, क्रोध कर्मसो घात। सो तुम कर्म खिपाइयो, क्षमासु भाव धरात॥ ॐ ह्रीं अहँ महाक्षमाय नमः अर्घ्यं ॥१००२॥ . शील सुभाव सु आत्म को, क्षोभ रहित सुखदाय। निर-आकुलता धार है, बन्दूं तिनके पाय॥ ॐ ह्रीं अहँ महाशीलाय नमः अर्घ्यं ॥१००३ ॥ शशि स्वभाव ज्यों शांति धर, और न शांति धराय। आप शांति पर शांति कर, भव दुःख दाह मिटाय॥ ॐ ह्रीं अर्ह महाशान्ताय नमः अर्घ्यं ॥१००४॥ तुम सम को बलवान है, जीत्यो मोह प्रचण्ड। धरो अनन्त स्ववीर्य को, निजपद सुथिर अमण्ड। ___ ॐ ह्रीं अर्ह अनन्तवीर्यात्मकाय नमः अर्घ्यं ॥१००५ ॥ लोकालोक विलोकियो, संशय बिन इकवार। खेदरहित निश्चल सुखी, स्वच्छ आरसीसार॥ ___ॐ ह्रीं अहँ लोकालोकज्ञाय नमः अर्घ्यं ॥१००६ ॥ निरावर्ण स्वै गुण सहित, निजानन्द रस भोग। अव्यय अविनाशी सदा, अजर अमर शुभ योग॥ . ॐ ह्रीं अहँ निरावर्णाय नमः अर्घ्यं ॥१००७॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३२७ परम मुनीश्वर ध्यान धर, पावै निज पद सार। ज्यों रविबिंब प्रकाश कर, घटपट सहज निहार॥ ॐ ह्रीं अहँ ध्येयगुणाय नमः अर्घ्यं ॥१००८ ॥ कवलाहारी कहत हैं, महामूढ़ मतिमन्द। अशन असाता पीर बिन, आप भये सुख कन्द॥ ____ॐ ह्रीं अहँ अशनदग्धाय नमः अर्घ्यं ॥१००९॥ लोक शीश छबि देत हो, धरो प्रकाश अनूप। बुधदन आदर जोग हो, सहज अकम्प सरूप॥ ॐ ह्रीं अहँ त्रिलोकमणये नमः अर्घ्यं ॥१०१०॥ . महागुणन की रास हो, लोकालोक प्रजन्त। सुर मुनि पार न पावते, तुम्हें नमें नित सन्त॥ ___ॐ ह्रीं अहँ अनन्तगुणप्राप्ताय नमः अर्घ्यं ॥१०११॥ परम सु गुण परिपूर्ण हो, मलिन भाव नहिं लेश। जगजीवन आराध्य हो, हम तुम यही विशेष॥ - ॐ ह्रीं अहँ परमात्मने नमः अर्घ्यं ॥१०१२॥ केवल ऋद्धि महान है, अतिशय युत तप सार। सो तुम पायो सहज ही, मुनिगण वन्दनहार॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह महाऋषये नमः अर्घ्यं ॥१०१३ ॥ भूत भविष्यत् काल को, कभी न होवे अन्त। नितप्रति शिवपद पाय कर, होत अनन्तानन्त॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह अनन्तसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्यं ॥१०१४॥ निर्भय निर आकुलित हो, स्वयं स्वस्थ निरखेद। काहू विधि घबराहट नहीं, निज आनन्द अभेद॥ - ॐ ह्रीं अहँ अक्षोभाय नमः अर्घ्यं ॥१०१५ ।। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८] श्री सिद्धचक्र विधान सो गुण गुणी सुभेद करि, सो जड़मती अजान। निज गुण गुणीसु एकता, स्वयंबुद्ध भगवान॥ ॐ ह्रीं अहँ स्वयंबुद्धाय नमः अर्घ्यं ॥१०१६॥ निरावरण निज ज्ञान में, सर्व स्पष्ट दिखाय। संशय बिन नहिं भरम है, सुथिर रहो सुख पाय॥ ___ ॐ ह्रीं अहं निरावरणज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥१०१७ ॥ राग-द्वेष के अंश में, मत्सर भाव कहात। सो तुम नासो मूल ही, रहै कहाँसो पात॥ ॐ ह्रीं अहँ वीतमत्सराय नमः अयं ॥१०१८॥ .. अणुवत लोकालोक है, जाके ज्ञान मँझार। सो तुम ज्ञान अथाह है, बन्दूं मैं चित धार॥ ॐ ह्रीं अहँ अनन्तानन्तज्ञानाय नमः अर्घ्यं ॥१०१९॥ हस्तरेख सम देख हो, लोकालोक सरूप। सो. अनन्तदर्शन धरो, नमत मिटै भ्रम कूप॥ ___ॐ ह्रीं अर्ह अनन्तानन्तदर्शनाय नमः अर्घ्यं ॥१०२०॥ तीनलोक का पूज्यपन, प्रगट कहै दिखलाय। तीनलोक शिरवास है, लोकोत्तम सुखदाय॥ ___ॐ ह्रीं अहँ लोकशिखरवासिये नमः अर्घ्यं ॥१०२१॥ निज पद में लवलीन हैं, निज रस स्वाद अघाय। पर सों इह रस गुप्त है, कोटि यत्न नहिं पाय॥ ॐ ह्रीं अहँ सुगुप्तात्मने नमः अर्घ्यं ॥१०२२ ॥ कर्म प्रकृति को मूल नहीं, द्रव्य रूप यह भाव। महास्वच्छ निर्मल दिपै, ज्यों रवि मेघ अभाव। . ॐ ह्रीं अहँ पूतात्मने नमः अर्घ्यं ॥१०२३ ॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३२९ हीन अभाव न शक्ति है, कर्मबन्ध को नाश। उदय भये तुम गुण सकल, महाविभव की राश॥ ___ॐ ह्रीं अहँ महोदयाय नमः अर्घ्यं ॥१०२४॥ पाप रूप दुःख नाशियो, मोक्ष रूप सुख राश। दासन प्रतिमंगलकरण, स्वयं सन्त है दास॥ ॐ ह्रीं अर्ह महामङ्गलात्मकाजिनाय नमः अर्घ्यं ॥१०२४॥ ॥ इति अर्घ सम्पूर्ण ॥ दोहा कहैं कहालों तुम सुगुण, अंशमात्र नहिं अन्त। मंगलीक तुम नाम ही, जानि भजै नित सन्त॥ - ॐ ह्रीं अर्ह अ सि आ उ सा नमः अर्घ। इस मन्त्रं को १०८ बार जापना चाहिए। . ____ॐ ह्रीं अर्घ्य पूर्णस्वगुणजिनाय नमः पूर्णाघु । - जयमाला - दोहा होनहार तुम गुण कथन, जीभ द्वार नहिं होय। काष्ठ पाँवसैं अनिल थल, नाप सकै नहीं कोय॥ सूक्षम शुद्ध स्वरूप का, कहना है व्यवहार। सो व्यवहारातीत हो, यातें हम लाचार ॥ यह जो हम कछु कहत हैं, शान्ति हेत भगवन्त। बार-बार थुति करन में, नहिं पुनरुक्त भनन्त ॥ पद्धड़ी छन्द मात्रा-१६ जय स्वयं शक्ति आधार योग, जय स्वयं स्वस्थ आनंद भोग। जयस्वयंविकासआभारभास, जयस्वयंसिद्धनिज पदनिवास॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३०] श्री सिद्धचक्र विधान जय स्वयं बुद्ध सङ्कल्प टार, जय स्वयं शुद्ध रागादि जार। जय स्वयं स्वगुन आचार धार, जय स्वयं सुखी अक्षय अपार॥ जय स्वयं चतुष्टय राजमान, जय स्वयं अनन्त सुगुण निधान। जय स्वयं स्वस्थ सुस्थिर अयोग, जय स्वयं स्वरूपमनोगयोग। जय स्वयं स्वच्छ निज ज्ञान पूर, जय स्वयं वीर्य रिपु वज्र चूर। जय महामुनिन आराध्य जान, जय निपुणमती तत्त्वज्ञ मान॥ जय सन्तति मन आनन्दकार जय सजन चित वल्लभ अपार। जयसुरगणगावतहर्ष पाय, जयकवियशकथननकरिअघाय॥ तुम महा तीर्थ भवि तरण हेत, तुम महा धर्म उद्धार देत। तुम महामन्त्र विष विघ्न जार, अघ रोग रसायन कहो सार॥ तुम महाशास्त्र के मूल ज्ञेय, तुम महा तत्त्व हो उपादेय। तिहुँ लोक महामंगल सु रूप, लोकत्रय सर्वोत्तम अनूप॥ तिहुँलोक शरण अघहर महान, भविदेत परम पद सुख निधान। संसार महासागर अथाह, नित जन्म-मरण धारा प्रवाह ॥ सो काल अनन्त दियो बिताय, तामें झकोर दुःख रूप खाय। मो दुःखी देख उर दया आन, इम पार करो कर ग्रहण पान॥ तुम ही हो इस पुरुषार्थ जोग, अरु है अशक्त करि विषय रोग। सुर नर पशु दास कहैं अनन्त, इन में से भी इक जान "सन्त"॥ घत्ता-कवित्त जय विघन जलधि जल, हनन पवन बल, सकल पाप मल जारन हो। जय मोह उपल हन, वज्र असल दुःख, अनिल ताप जल कारन हो॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३३१ ज्यूँ पंगु चढे गिरि, गूंग भरे सुर, अभुज सिन्धु तर कष्ट भरै । त्यों तुम थुति काम, महा लज ठाम, सु अन्त सन्त परिणाम करै॥ ॐ ह्रीं अहँ चतुर्विंशत्यधिकसहस्रगुणयुक्तसिद्धेभ्यो नमः अर्घ्य निर्व. स्वाहा। इति पूर्णाऱ्या। दोहा तीन लोक चूडामणी, सदा रहो जयवन्त। विघ्नहरण मंगल करन, तु, नमें नित सन्त॥ . इत्याशीर्वादः। अथ पूर्ण आशीर्वादः . अडिल्ल छन्द पूरण मंगल रूप महा यह पाठ है, सरस सुरुचि सुखकार भक्ति की ठाठ है। शब्द अर्थ में चूक होय तो हो कहीं, थुति वाचक सब शब्द अर्थ यामें सही॥ जिन गुणकरण आरंभ हास्य को धाम है, वायसका नहिं सिन्धु उतीरण काम है। यै भक्तनि की रीति सनातन है यही, क्षमा करो भगवन्त शान्ति पूरण मही॥ इति पूर्णाशीर्वादः -- परिपुष्पाञ्जलि क्षिपेत्।। इति श्री सिद्धचक्र पाठ भाषा--कवि सन्तलालजी कृत समाप्त। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२] श्री सिद्धचक्र विधान जाप्य मन्त्र - ॐ ह्रीं अ सि आ उ सा नमः॥१०८॥ इसके पीछे चौबीस तीर्थङ्कर पूजा अथवा सरस्वती पूजा करनी चाहिये फिर शांतिपाठ विसर्जन करके पाठ समाप्त करे। हवन विधि . . हवन के लिए किसी लम्बे-चौड़े स्थान में कुण्ड बनावे। वे इस प्रकार के हों--प्रथम तीर्थङ्कर कुण्ड एक अरनि (मुष्टि बन्धे हाथ को अरनि कहते हैं) लम्बा, इतना ही चौड़ा चौकोर हो और इतना ही गहरा हो। इसकी तीन कटनी हों--पहली ५ अंगुली की ऊँची चौड़ी, दूसरी ४ अंगुल की, तीसरी ३ अंगुल की हो। इस कुण्ड के दक्षिण की ओर त्रिकोण कुण्ड उसी प्रमाण से लम्बा, चौड़ा, गहरा हो तथा उत्तर की ओर गोल कुण्ड उतनी ही लम्बाई, चौडाई और गहराईवाला हो। प्रत्येक कुण्ड का एक दूसरे से अन्तर चार-चार अंगुल का होना चाहिये। इन कुण्डों के चारों ओर कटनियों पर ॐ ॐ ॐ रं रं रं रं लिखना चाहिये। ये कण्ड कच्ची ईंटों से एक दिन पहले तैयार करा लेने चाहिये और इन्हें अच्छे सुन्दर रङ्गों से रंग देना चाहिये। भीतर का भाग पीली या सफेद मिट्टी से पोत देना चाहिये-- कुण्डों की तीन कटनियों पर चार-चार पतली खूटी गाड़ें या छोटे-छोटे गिलास रखें जिनमें कलावा (मौली) लपेटा जा सके। कलावा लपेटते समय यह मन्त्र बोलना चाहिये-- ॐ ह्रीं अहँ पञ्चवर्णसूत्रेण त्रान् वारान् वेष्टयामि। इस प्रकार एक खूटी से दूसरी खूटी और दूसरी खूटी से तीसरी तथा तीसरी से चौथी खूटी तक कलावा (मौली) लपेटे। कुण्डों के पास दक्षिण या पश्चिम में एक वेदी बनावे जैसे पाठ के मांडने के पास बनाई थी। उसमें सिद्धयन्त्र बिराजमान करें। वेदी Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३३३ के पास एक चौकी रक्खे, जिस पर मङ्गल कलश रक्खा जाए। एक बड़ी संदली पर एक बड़ा और कुछ छोटे कलश जल से भरे रख कर मन्त्र द्वारा जल शुद्ध करे। . जल शुद्धि मन्त्र . (हाथ में चन्दन लेकर कलशों पर छिड़के) ॐ ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं हः नमोऽर्हते भगवते पद्ममहापद्मतिगिच्छकेसरिपुण्डरीक महापुण्डरीक गंगासिन्धुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकान्तासीतासोदा नारीनरकान्ता सुवर्णरूपकूलारक्तारक्तोदापयोधिशुद्धजलमुवर्णघटप्रक्षालितनवरत्न गंधाक्षतपुष्पार्चितमामोदकं पवित्रं कुरु कुरु झं झं झौं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं द्रां द्रां द्रीं द्रीं हं सं स्वाहा। इस मन्त्र से जल शुद्धि करे। . वेदी के पास जो चौकी है उस पर अक्षत बिछा कर बड़ा मंगल कलश स्थापन करे, तब यह श्लोक और मंत्र पढ़े-- वेद्य मूले पञ्चरत्नोपशोभं, कण्ठे लांबान् माल्यमादर्मयुक्तं। माणिक्याभं काँचनं पूगदर्भक्वासोभं सद्घटं स्थापयेद्वै॥ मङ्गल कलश स्थापनं करोमि स्वाहा। अब चार छोटे कलश कुण्डों पर स्थापन करे और तब यह मंत्र पढे ॐ ह्रीं स्वस्तये चतुःकलशान संस्थपयामि स्वाहा। फिर कुण्डों पर चार दीपक जला कर धरे, तब यह मंत्र पढ़े-- ॐ ह्रीं अज्ञानतिमिरहरं दीपकं संस्थापयामि स्वाहा। फिर पूजा की सामग्री तथा हवन सामग्री शुद्ध करे, तब यह मंत्र पढ़े ॐ ह्रीं पवित्रतरजलेन शुद्धिं करोमि स्वाहा। फिर डाभ दूब के पूले से हवन की भूमि को झाड़े, तब यह मंत्र पढ़े ॐ ह्रीं वायुकुमाराय सर्व विघ्नविनाशाय कुरु कुरु फट् स्वाहा। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४] श्री सिद्धचक्र विधान फिर डाभ दूब का पूबा जल में भिगो कर पृथ्वी पर छिड़के, तब यह मंत्र पढ़े ____ॐ ह्रीं मेघकुमारायधरांप्रक्षालयप्रक्षालयं अंहं तं झं झं यं क्षः फट् स्वाहा। फिर यन्त्र का प्रक्षालन करे, तब यह मंत्र पढ़े-- ____ॐ ह्रीं भूभुर्वः स्वरिह एतद्विनौघवारकं यन्त्रमहं परिषिंचयामि स्वाहा। फिर यन्त्र की पूजा करे। इसके बाद अग्निकुण्ड में साथिये बनायें या ॐ लिखे। पीछे कुण्ड में कपूर और डाभ दूब के पूले से अग्नि स्थापन करे, तब यह मंत्र पढ़े-- ॐ ॐ ॐ ॐ रं रं रं रं अग्नि संस्थापयामि स्वाहा। फिर कुण्डों में एक-एक अर्घ दे। प्रथम चतुष्कोण की पूजा। श्री तीर्थनापरिनिवृतिपूज्यकाले, - आगत्य वह्निसुरपा मुकुटोल्लसद्गिः। वह्निव्रजैर्जिनपदेऽहमुदारभक्त्या, देहु तदग्निमहर्चयितुं दधामि ॥ ॐ ह्रीं प्रथमे चतुरस्त्र तीर्थङ्करकुण्डे गार्हपत्याग्नयेधैं निर्वपामीति स्वाहा। गणाधिपानां शिवयातिकाऽले, ग्नीन्द्रोत्तमांगस्तफुरदग्निरेषः। संस्थाप्य पूज्यः स मयाह्वनीयो, विधानशांतौ विधिनाहु ताशः। ॐ ह्रीं द्वितीये वृते गणधरकुण्डे आग्नीयाग्नये निर्वपामीति स्वाहा। श्री दक्षिणाग्निः परकेवलिस्व शरीरनिर्वाणनुताग्निदेव-। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३३५ किरीट संस्फुर्यदसौ मयापि, संस्थाप्य पूज्योहि विधानशान्त्यै ॥ ॐ ह्रीं त्रिकोणे सामान्यकेवलीलकुण्डे दक्षिणाग्नये अयं निर्वपामीति स्वाहा। इसके पश्चात् निम्नलिखित मंत्रों की आहुति देनी चाहिये। . पीठिका मन्त्र - ॐ सत्यजाताय नमः॥१॥ ॐ अर्हज्जाताय नमः॥२॥ ॐ परमजाताय नमः॥३॥ ॐ अनुपमजाताय नमः॥४॥ ॐ स्वप्रधानाय नमः॥५॥ ॐ अचलाय नमः॥६॥ ॐ अक्षयाय नमः॥७॥ ॐ अव्याबधाय नमः॥८॥ ॐ अनन्तज्ञानाय नमः॥९॥ ॐ अनन्तदर्शनाय नमः ॥१०॥ ॐ अनन्तवीर्याय नमः॥११॥ ॐ अनन्तसुखाय नमः॥१२॥ ॐ नीरजसे नमः॥१३॥ ॐ निर्मलाय नमः॥१४॥ ॐ अछेद्याय नमः॥१५॥ ॐ अभेद्याय नमः॥१६॥ ॐ अजराय नमः ॥१७॥ ॐ अमराय नमः॥१८॥ ॐ अप्रमेयाय नमः॥१९॥ ॐ अगर्भवासाय नमः॥२०॥ ॐ अक्षोभाय नमः॥२१॥ ॐ अविलीनाय नमः॥२२॥ ॐ परमधनाय नमः॥२३॥ ॐ परमकाष्ठायोगरूपाय नमः॥२४॥ ॐ लोकाग्रवासिने नमो नमः॥२५॥ ॐ परमसिद्धेभ्यो नमो नमः॥२६॥ ॐ अर्हत्लिद्धेभ्यो नमो नमः॥२७॥ ॐ केवलसिद्धेभ्यो नमो नमः॥२८॥ ॐ अन्तकृत्सिद्धेभ्यो नमो नमः॥२९॥ ॐ परम्परासिद्धेभ्यो नमो नमः॥३०॥ ॐ अनादिपरम्परासिद्धेभ्यो नमो नमः॥३१॥ ॐ अनाद्यनुपमसिद्धेभ्यो नमो नमः॥३२॥ ॐ सम्यग्दृष्टे आसन्नभव्यनिर्वाणपूजार्ह अग्नीदाय स्वाहा ॥३३॥ सेवाफलं षट्परमस्थ नं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु स्वाहा। • जाति मन्त्र . ॐ सत्यजन्मनः शरणं प्रपद्ये ॥१॥ ॐ अर्हज्जन्मः शरणं प्रपद्ये ॥२॥ ॐ अर्हन्मातुः शरणं प्रपद्ये ॥३॥ ॐ अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्ये ॥४॥ ॐ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्ये ॥५॥ ॐ अनुपमजन्मनः शरणं प्रपद्ये ॥६॥ ॐ रत्नत्रयस्य शरणं प्रपद्ये ॥७॥ ॐ सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे ज्ञानमूर्ते ज्ञानमूर्ते सरस्वती सरस्वती स्वाहा ॥८॥ ___ सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु स्वाहा। . निस्तारक मन्त्र . ॐ सत्यजाताय स्वाहा॥१॥ ॐ अर्हज्जाताय स्वाहा ॥२॥ ॐ षट्कर्मणे स्वाहा ॥३॥ ॐ ग्रामपतये स्वाहा ॥४॥ ॐ अनादिश्रोत्रियाय स्वाहा ॥५॥ ॐ स्नातकाय स्वाहा ॥६॥ ॐ श्रावकाय स्वाहा ॥७॥ ॐ देवब्राह्मणाय स्वाहा ॥८॥ ॐ सुब्राह्मणाय स्वाहा॥९॥ ॐ अनुपमाय स्वाहा ॥१०॥ ॐ सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे निधिपते निधिपते वैश्रवण वैश्रवण स्वाहा ॥११॥ सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु स्वाहा। ऋषि मन्त्र . ॐ सत्यजाताय नमः॥१॥ ॐ अर्हजाताय नमः॥२॥ ॐ निर्ग्रन्थाय नमः॥३॥ ॐ वीतरागाय नमः॥४॥ ॐ महाव्रताय नमः॥५॥ ॐ त्रिगुप्ताय नमः॥६॥ ॐ महायोगाय नमः ॥७॥ ॐ विविधयोगाय नमः॥८॥ ॐ विविधर्द्धये नमः॥९॥ ॐ अङ्गधराय नमः॥१०॥ ॐ पूर्वधराय नमः॥११॥ ॐ गणधराय नमः॥१२॥ ॐ परमर्षिभ्यो नमो नमः॥१३॥ ॐ अनुपमजाताय नमो नमः॥१४॥ ॐ सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे भूपते भूपते नगरपते नगरपते कालश्रमण कालश्रमण स्वाहा ॥१५॥ सेंवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु स्वाहा। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान .. [३३७ . सुरेन्द्र मन्त्र . ॐ सत्यजाताय स्वाहा ॥१॥ ॐ अर्हज्जाताय स्वाहा ॥२॥ ॐ दिव्यजाताय स्वाहा ॥३॥ ॐ दिव्यार्चिजाताय स्वाहा ॥४॥ ॐ नेमिनाथाय स्वाहा ॥५॥ ॐ सौधर्माय स्वाहा॥६॥ ॐ कल्पाधिपतये स्वाहा॥७॥ ॐ अनुचराय स्वाहा ॥८॥ ॐ परम्परेन्द्राय स्वाहा॥९॥ ॐ अहमिन्द्राय स्वाहा ॥१०॥ ॐ परमार्हताय स्वाहा॥११॥ ॐ अनुपमाय स्वाहा ॥१२॥ ॐ सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे कल्पपते कल्पपते दिव्यमूर्ते दिव्यमूर्ते वज्रनाभन् वज्रनाभन् स्वाहा ॥१३॥ सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु स्वाहा। . . परमराजादि मन्त्र . .. ॐ सत्यजाताय स्वाहा ॥१॥ ॐ अर्हज्जाताय स्वाहा ॥२॥ ॐ अनुपमेन्द्राय स्वाहा ॥३॥ ॐ विजयाचर्यजाताय स्वाहा॥४॥ ॐ नेमिनाथाय स्वाहा॥५॥ ॐ परमजाताय स्वाहा ॥६॥ ॐ परमार्हताय स्वाहा ॥७॥ ॐ अनुपमाय स्वाहा ॥८॥ ॐ सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे उग्रतेजः उग्रतेजः दिशांजन दिशांजन नेमिविजय नेमिविजय स्वाहा ॥९॥ सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु स्वाहा। .... ... . परमेष्ठि मन्त्र . ॐ सत्यजाताय नमः॥१॥ ॐ अर्हज्जाताय नमः॥२॥ ॐ परमजाताय नमः॥३॥ ॐ परमार्हताय नमः॥४॥ ॐ परमरूपाय नमः॥५॥ ॐ परमतेजसे नमः॥६॥ ॐ परमगुणाय नमः॥७॥ ॐ परमस्थानाय नमः॥८॥ ॐपरमयोगिने नमः॥९॥ ॐ परमभाग्याय नमः॥१०॥ ॐ परमर्द्धये नमः॥११॥ ॐ परमप्रसादाय नमः॥१२॥ ॐ परमकांक्षिताय नमः॥१३॥ ॐ परमविजयाय नमः॥१४॥ ॐ परमविज्ञानाय नमः॥१५॥ ॐ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८] श्री सिद्धचक्र विधान परमदर्शनाय नमः॥१६॥ ॐ परमवीर्याय नमः॥१७॥ ॐ • परमसुखाय नमः॥१८॥ ॐ परमसर्वज्ञाय नमः॥१९॥ ॐ अर्हन्ते नमः॥२०॥ ॐ परमेष्ठिने नमः ॥२१॥ ॐ परमनेत्रे नमो नमः ॥२२॥ ॐ सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे त्रैलोक्यविजय त्रैलोक्यविजय धर्ममूर्ते धर्ममूर्ते धर्मनेमे स्वाहा ॥२३॥ सेवाफलं षट् परमस्थानं भवतु, __ अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं स्वाहा। धूपैः सन्धूपितानेक कर्मभिधूपदायिनः, अर्चयामि जिनाधीश-सदागमगुरुम् गुरुन्॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीमज्जिनश्रुतगुरुभ्यो नमः धूपं। सुरभीकृतदिग्वातै धूपधूमैर्जगतप्रियैः । यजामि जिनसिद्धेश-सूर्युपाध्यायसद्गुरुन्॥२॥ ___ॐ ह्रीं पञ्चपरमेष्ठिभ्यो नमः धूपं। मृद्वग्निसंगमसमुज्वलितोरुधुमैः, कृष्णागुरुप्रभृतिसुन्दरवस्तुधूपैः। प्रीत्या नटद्भिरिव ताण्डवनृत्यमुच्चैः, कर्मारिदारुदहनं जिनमर्चयामि ॥३॥ ॐ ह्रीं अर्हत्परमेष्ठिने नमः धूपं। गोत्रक्षयसंभवसन्ततसंभव-सद्गुरुलघुतारूपरम्। सर्गमसर्गमपीतमनुक्षण-मुज्झितसर्गासर्गभरम्। कृष्णागुरुधूपैः सुरभितभूपैयूं मैः स्पष्ट हरिदूपैर्यायज्म सिद्धम् सर्व विशुद्धम् बुद्धमरुद्धम् गुणरूद्धम्॥४॥ ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिने नमः धूपं । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३३९ हुत्वास्वमप्यगुरुभिः सुरभीकृताशै ... रग्नौ समुच्छलितसंभृतवृन्दधूपैः। संधूपयामि चरणं शरणं शरण्यं, पुण्यं भवभ्रमहरै गणिनाम् मुनिनाम्॥५॥ ॐ ह्रीं आचार्यपरमेष्ठिने नमः धूपं। संधूपिताखिलदिशो घनशङ्कयेह, वहिव्रजं स्वनटनादिव नर्तयद्भिः। मृदग्निसंगतिततागुरुधूपधूमै, ___ श्रीपाठकं क्रमयुगं वयमाह्वयायः॥६॥ ॐ ह्रीं उपाध्यायपरमेष्ठिने नमः धूपं । स्वमग्नौ विनिक्षिप्य दौर्गध्यबन्धम्, - दशाशास्यमुच्चैः करोति त्रिसंध्यम्। तदुद्दामकृष्णागुरुद्रव्यधूपः, - यजे साधुसंघं नटद्रव्यक्तरूपैः॥७॥ .. ॐ ह्रीं साधुपरमेष्ठिने नमः धूपं। धूपैः संधूपितानेककर्मभिवू पदायिनः . वृषभादिजिनाधीशान, वर्द्धमानान्तकान्यजे॥८॥ ॐ ह्रीं वृषभादिवीरान्तचतुर्विंशतिजिनेभ्यो नमः धूपं । इसके पश्चात्. जिस मंत्र की जितनी जाप की है, उसके दशमांश उस मंत्र की आहुति देनी चाहिये। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४०] श्री सिद्धचक्र विधान . शान्तिधारा . आचार्य हाथ में कलश देकर जल की धारा देते हुए नीचे लिखा पुण्याहवाचन पढ़े-- ॐ पुण्याहं पुण्याह। लोकोद्योतनकरा अतीतकालसंजाता निर्वाणसागर महासाधुविमलप्रभशुद्धाभश्रीधरसुदत्तामलप्रभोद्धराग्निसन्मतिशिवकुसुमांजलिशिवगणोत्साहज्ञानेश्वरपरमेश्वरविमलेश्वरयशोधरकृष्णमतिज्ञानमतिशुद्धममिश्रभद्रकान्ता श्चेति चतुर्विशतिभूतपरमदेवाश्च वः प्रीयन्तां प्रीयन्तां। धारा ॥१॥ ___ॐ संप्रतिकालश्रेयस्करस्वर्गावतरणजन्माभिषेकपरिनिष्क्रमणकेवलज्ञाननिर्वाणकल्याणविभूतिविभूषितमहाभ्युदयाः श्रीवृषभाजितशंभवाभिन्दनसुमतिपद्मप्रभूसुपार्श्वचन्द्रप्रभुपुष्पदन्तशीतलश्रेयोवासुपूज्यविमलानन्तधर्मशान्तिकुन्थ्वरमल्लिमुनिसुव्रतनमनेमिपाश्चंवर्द्धमानाश्चेति वर्तमानचतुर्विंशतिपरमदेवाश्च वः प्रीयन्तां प्रीयन्तां। धारा ॥२॥ ____ ॐ भविष्यत्कालाभ्युदयप्रभवाः महापद्मसुरदेवसुप्रभस्वयंप्रभसर्वायुधजयदेवोदयदेवप्रभादेवोदकदेवप्रश्नकीर्तिजयकीर्तिपूर्णबुद्धनिःकषायविमलप्रभवहलनिर्मलचित्रगुप्तसमाधिगुप्तस्वयंभूकंदर्पजयनाथविमलनाथदिव्यवागनन्तवीर्याश्चेतिचतुर्विंशतिभविष्यत्परादेवाश्च वः प्रीयन्तां प्रीयन्तां। धारा ॥३॥ ॐ त्रिकालवर्तिपरमधर्माभ्युदया:सीमंधरयुग्मंधराबाहुसुबाहुसंजातकस्वयंप्रभऋषभेश्वरानन्तवीर्यसूरप्रभविशालकीर्तिवज्रधरचन्द्राननचन्द्रबाहुभुजंगेश्वरनेमिप्रभवीरसेनमहाभद्रजयदेवाजितवीर्याश्चेतिपञ्चविदेहक्षेत्रविहरमाणा विंशतिपरमदेवाश्च वः प्रीयन्तां प्रीयन्तां । धारा॥४॥ ॐ वृषभसेनादिगणधरदेवाः वः प्रीयन्तां प्रीयन्तां। धारा ॥५॥ ॐ कोष्ठबीजापादानुसारिबुद्धिसंभिन्न श्रोतृप्रज्ञावणाश्च वः प्रीयन्तां प्रीयन्तां। धारा ॥६॥ ॐ आमसंक्ष्वेडजल्लविडुत्सर्गसर्वोधिऋद्धयश्च वः प्रीयन्तां प्रीयन्तां। धारा॥७॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३४१ ॐ जलफलजंघातन्तुपुष्पश्रेणिपत्राग्निशिखाकाशचारणाश्च वः प्रीयन्तां प्रीयन्तां। धारा ॥८॥ ॐ आहाररसवदक्षीणमहानसालयाश्च व प्रीयन्तां प्रीयन्तां। धारा ॥९॥ ॐ उग्रदीप्ततप्तमहाधोरानुपमतपश्च वः प्रीयन्तां प्रीयन्तां। धारा ॥१०॥ ॐ मनोवाक्कायबलिनश्च वः प्रीयन्तां प्रीयन्तां। धारा ॥११॥ ॐ क्रियाविक्रियाधारिणश्च वः प्रीयन्तां प्रीयन्तां। धारा ॥१२॥ ॐ मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलज्ञाननिनश्च वः प्रीयन्तां प्रीयन्तां । धारा॥१३॥ ॐ अष्टाङ्गगबाह्यज्ञानदिवाकराः कुन्दकुन्दाद्यनेकदिगम्बरदेवाश्च वः प्रीयन्तां प्रीयन्तां। धारा ॥१४॥ इह वाऽन्यनगरग्रामदेवतामनुजाः सर्वे गुरुभक्ताः जिनधर्मपरायणा भवन्तु। धारा ॥१५॥ • दानतपोवीर्यानुष्ठानं नित्यमेवास्तु धारा ॥१६॥ मातृपितृभ्रातृपुत्रपौत्रकलत्रसुहृत्स्वजनसंबंधिसहितस्य अमुकस्य ते धनाधान्यैश्वर्यबलद्युतियश:प्रमोदोत्सवा---प्रवर्द्धतां। धारा ॥१७॥ तुष्टिरस्तु। पुष्टिरस्तु। वृद्धिरस्तु। कल्याणमस्तु। अविग्नमस्तु । आयुष्वमस्तु। आरोग्यमस्तु । कर्मसिद्धिरस्तु। इष्ट सम्पत्तिरस्तु । काममांगल्यौत्सवा सन्तु। पापनि शाम्यन्तु। घोराणि शाम्यन्तु। पुण्यं वर्द्धतां। धर्मो वर्द्धतां। श्री वर्द्धतां । कुलंगोत्रं चाभिवर्धेतां । स्वस्ति भद्रं चास्तु क्ष्वीं क्ष्वी हं सः स्वाहा। श्रीमज्जिनेन्द्रचरणारविदेष्वानन्द भक्तिः सदास्तु। इति हवनविधान समाप्त। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२] श्री सिद्धचक्र विधान . . श्री मङ्गलाष्टक . श्रीमनम्रसुरासुरेन्द्रमुकुटप्रद्योतरत्नप्रभाः, भास्वत्पादनखेन्दवः प्रनचनाम्भोधधींदवः स्थायिनः। ये सर्वे जिनसिद्धसूर्यमुगतास्ते घाठकाः साधवः, स्तुत्या योगिजनैश्च पञ्चगुरवः कुर्वन्तु ते मङ्गलं ॥१॥ सम्यग्दर्शनबोधवृत्तममलं रत्नक यं पावनं, मुक्ति श्रीनगराधिनाथजिनपत्युक्तोपवर्गप्रदः। धर्मः सूक्तिमूधा च चैत्यमखियं चैत्यालयं श्रयालयं, प्रोक्तं च त्रिविधं चतुर्विधमसी कुर्वन्तु ते मङ्गलं ॥२॥ ये सर्वोषधऋद्धयः सुतपसो वृद्धिंगता पञ्चये, ये चाष्टांगमहानिमित्तकुशला येष्टाविधाश्चारणाः। पञ्चज्ञानधरास्त्रयोपि बलिनो ये बुद्धिवद्धीश्वराः सप्तैते सकलार्चिता गणभृतः कुर्वन्तु ते मङ्गलं ॥३॥ कैलाश वृषभस्य निर्वृतिमही वीरस्य पावापुरे, चम्पायां वासुपूज्यसज्जिनपतेः सम्मेदशैलेहतां। शेषाणामपि चोर्जयन्तशिखरे नेमीश्वररयाहतो, निर्वाणावनयः प्रसिद्धविभवा कुर्वन्तु ते मङ्गलं ॥४॥ ज्योतिय॑न्तरभावनामरगृहे मेरौ कुलाद्रौ स्थिता, जम्बूशाल्मलिचैत्यशाखिषु तथा वक्षाररूप्याद्रिषु। इष्वाकारगिरो च कुण्डलनशरे द्वीपे च नन्दीश्वरे, शैले ये मानुषोत्तरे जिनगृहाः कुर्वन्तु ते मङ्गलं ॥५॥ यो गर्भावरोत्सवो भगवतां जन्माभिषेकोत्सवो, यो जातः परनिक्रमेण विभवो य केवलज्ञानभाक् । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिद्धचक्र विधान [३४३ य कैवल्यपुरःप्रवेशमहिमा संभावित स्वर्गिभिः, . कल्याणानि च तानि पञ्च सततं कुर्वन्तु ते मङ्गलं॥६॥ जायन्तेजिनचक्र वर्तिबलभृद्भोगीन्द्रकृष्णादयो, धर्मादेव दिगंगनांगविलसच्छ श्वद्यशश्चन्दनाः। तद्धीना नरकादियोनिषु नरा दुःखें सहन्ते धुवम्, स स्वर्गात्सुखरामणीयक पदं कुर्वन्ते ते मङ्गलं॥७॥ सर्पो हारलता भवत्यसिलता सत्पुष्पदामायते, संपेद्यत रसायनं विषमपि प्रीति विधत्ते रिपुः। देवा यान्ति वशं प्रसन्नमनसः किं वा बहु ब्रूमहे, धर्मादेव नभोऽपि वर्षेति नगैः कुर्वन्तु ते मङ्गलं ॥८॥ इत्थं श्रीजिनमङ्गलाष्टकमिदं सौभाग्यसम्पत्प्रदं, कल्याणेषु महोत्सवेषु सुधियस्तीर्थङ्कराणामुषः। • ये शृवन्ति पठन्ति तैश्च सुजैनधर्मार्थकामान्विता, लक्ष्मीराश्रयते व्यपायरहिता निर्वाणलक्ष्मीरपि॥९॥ इति मङ्गलाष्टकं समाप्तम्। ... श्री सिद्धचक्र की आरती . जय सिद्धचक्रदेवा जय सिद्धचक्रदेवा, करततुम्हारी निशदिन मन से सुरनर मुनि सेवा ॥जय सिद्ध. ज्ञानवर्ण दर्शनावरणी मोह अन्तराया, नाम गोत्र वेदनी आयुको नाशि मोक्ष पाया॥जय सिद्ध. ज्ञानअनन्तअनन्त दर्शसुख बल अनन्तधारी, अव्याबाधअमूर्ति अगुरुलघुअवगाहन धारी।जय सि. तुमअशरीरशुद्धचिन्मूरति स्वातमरसभोगी, तुम्हें जपें आचार्योपाध्यायसर्वसाधुयोगी।जय सिद्ध. ब्रह्मा विष्णुमहेशसुरेश गणेश तुम्हें ध्यावें, भविअलितुम चरणाम्बुजसेवत निर्भयपद पावें।जय सिद्ध सङ्कट टारन अधम उधारन भवसागर तरणा, अष्टदुष्ट रिपुकर्म नष्ट करिजन्म-मरणहरणा।जयसिद्ध. दीनदुःखी असमर्थदरिद्री निर्धन तन रोगी, सिद्धचक्रको ध्यान भयेते सुरनरसुख भोगी।जय सिद्धः डाकिनी शाकिनी भूत पिशाचिनि व्यन्तरउपसर्गा, नामलेत भगिजायें छिनक में सब देवी दुर्गा ।जय. Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४] श्री सिद्धचक्र विधान वनरनशत्रु अग्निजलपर्वत विषधर पञ्चानन, मिटेंसकलभय कष्ट करेंजेसिद्धचक्रसुमिरन ।जय. मैनासुन्दरिकियो पाठयह पर्वअठाइनिमें, पतियुत सात शतककोढ़िनकागयाकुष्ठछिनमें।जय. कातिक फागुनसाढ आठ दिन सिद्धचक्र पूजा, करें शुद्ध भावोंसे मक्खन'लहँ न भवदूजा ।जय. . भजन . . . श्री सिद्धचक्र का पाठ करो दिन आठ, ठाठ से प्राणी, फल पायो मैना रानी ॥टेक॥ मैनासुन्दरी एक नारी थी, कोढ़ी पति लखि दुःखियारी थी। नहिं पड़े चैन दिन रैन व्यथित अकुलानी ॥ फल.॥ जो पति का कष्ट मिटाऊँगी, तो उभयलोक सुख पाऊँगी। नहिं अजागलस्तनवत निष्फल जिन्दगानी॥ फल.॥ इक दिवस गई जिनमंदिर में, दर्शन करि अति हर्षी उर में। . . फिर लखे साधु निर्ग्रन्थ दिगम्बर ज्ञानी॥ फल.॥ बैठी मुनि को करि नमस्कार, निज निंदा करती बार-बार। भरि अश्रुनयन कही मुनिसों दुःखद कहानी॥ फल.॥ बोले मुनि पुत्री धैर्य धरो, श्री सिद्धचक्र का पाठ करो। नहिं रहे कुष्ठ की तन में नाम निशानी॥ फल.॥ सुनि साधु वचन हर्षी मैना, नहिं होंय झूठ मुनि के बैना। करि के श्रद्धा श्री सिद्धचक्र की ठानी॥ फल.॥ जब पर्व अठाई आया है, उत्सवयुत पाठ कराया है। सब के तन छिड़का यन्त्र न्हवन का पानी ॥ फल.॥ गन्धोदक छिड़कत वसुदिन में नहिं रहा कुष्ठ किंचित् तन में। भई सातशतक की काया स्वर्ण समानी॥ फल.॥ भव भोगि-भोगि योगेश भये, श्रीपाल कर्म हनि मोक्ष गये। दूजे भव मैना पावै शिव रजधानी ॥ फल.॥ जो पाठ करै मनवचतन से, वे छूटि जायें भवबन्धन से। .. - "मक्खन' मत करो विकल्प कहा जिनवानी॥ फल.॥ ॥ समाप्त॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्परोपग्रहो जीवानाम् सभी तरहके दिगम्बर जैन धार्मिक ग्रन्थ मंगानेका पता दिगम्बर जैन पुस्तकालय खपाटिया चकला, गांधीचौक, सूरत-३. फोन नं. 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