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श्री सिद्धचक्र विधान
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अडिल्ल छन्द क्रोधित जिय वचयोग द्वार उपयोग को,
रचना विधि संकल्प नाम समरम्भ सो। तामें करें प्रवृति पाप उपजावते,
___ नमूं सिद्ध या बिन वचगुप्ति उपावते॥ ॐ ह्रीं अकृतवचनक्रोधसंरम्भवागुप्ताय नमः अयं ॥५९॥ क्रोध अग्नि करि निज उपयोग जरा वहीं,
वचन योग करि विधि संरम्भ करावहीं। सो तुम त्याग विभाव सुभाव सरूप हो,
_ नमूं उरानन्द धार चिदानन्द रूप हो॥ ॐ ह्रीं अकारितवचनक्रोधसंरम्भस्वरूपाय नमः अर्घ्यं ॥६०॥
सोरठा . . क्रोधित निज वच द्वार, मोदित हो संरम्भ में। सो तुम भाव विडार, नमूं स्वानुभव लब्धियुत॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनक्रोधसंरम्भस्वानुभवबंधये नमः अर्घ्यं ॥६१ ॥
दोहा क्रोध सहित वाणी नहीं, समारम्भ परवृत्त। स्वानुभूति रमणी रमण, नमूं सिद्ध कृतकृत्य॥ ॐ ह्रीं अकृतवचनक्रोधसमारम्भस्वानुभूतिरमणाय नमः अर्घ्यं ॥६२॥ समारम्भ क्रोधित जिये, प्रेरित पर वच द्वार। नमूं सिद्ध इस कर्म बिन, धर्मधरा साधार॥ ॐ ह्रीं अकारितवचनक्रोधसमारम्भसाधारणधर्माय नमः अयं ॥६३ ॥