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श्री सिद्धचक्र विधान
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समारम्भ मन वचन करि, हर्षित हों युत क्रोध। नमूं सिद्ध या बिन लहो, परम शांति सुख बोध॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनक्रोधसमारम्भपरमशान्ताय नमः अयं ॥४॥
छन्द मोतियादाम वैर वच योग धरै जिय रोष, करें विधि भेद अरम्भ सदोष। तजो यह सिद्ध भये सुखकार, नमूं परमामृत तुष्ट अवार॥ ___ॐ ह्रीं अकृतवचनक्रोधारम्भपरमामृततुष्टाय नमः अयं ॥६५॥ अकारित वैनसदायुतक्रोध, महादुःखकारअरम्भअबोध। भये समरूप महारसधार, नमें हम सिद्ध लहैं भवपार ॥ ___ॐ ह्रीं अकारितवचनक्रोधारम्भसमरसाय नमः अर्घ्यं ॥६६॥
दोहा नानुमोद आरम्भ में, क्रोध सहित वच द्वार। परम प्रीति निज आत्मरति, नमूं सिद्ध सुखकार॥ ॐ ह्रीं नानुमोदितवचनक्रोधारम्भपरमप्रीतये नमः अर्घ्यं ॥१७॥
. अडिल्ल वचन द्वार संरम्भ मानयुत जे करें,
. जोड़ करन उपकरण मानसों उच्चरैं। नाना विधि दुःख भोग निजातमको,
नमूं सिद्ध या विन अविनश्वर पद धरै॥ ॐ ह्रीं अकृतवचनमानसंरम्भअविनश्वरधर्माय नमः अर्घ्यं ॥६८॥ मान प्रकृति करि उदै करावें ना कदा,
वचन न करि संरम्भ भेद वरण॒ यदा।